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श्री सिद्धचक्र विधान
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.कहने योग्य समर्थ सब, अर्थ करै परकाश। तुम वाणी मुखतें खिरे, करै भरम तमनाश॥
ॐ ह्रीं अर्ह व्यक्तगिरे नमः अध्यं ॥३३८॥ तुम वाणी नहीं व्यर्थ है, भंग कभी नहीं होय। लगातार मुखतें खिरे, संशय तमको खोय॥
___ॐ ह्रीं अहं अमोघवाचे नमः अध्यं ॥३३९॥ वस्तु अनन्त पर्याय है, वचन अगोचर जान। तुम दिखलाये सहज ही, हरे कुमतिमतिवान॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अवाच्यानन्तवाचे नमः अध्यं ॥३४०॥ वचन अगोचर गुण धरो, लहैं न गणधर पार। तुम महिमा तुमहीं विर्षे, मुझ तारो भवपार॥
. ॐ ह्रीं अर्ह अवाचे नमः अध्यं ॥३४१॥ तुम सम वचन न कहि सकैं, असमती छद्मस्थ। धर्ममार्ग प्रगटाइयो, मेटो कुमति समस्त॥ __ ॐ ह्रीं अर्ह अद्वैतगिरे नमः अध्यं ॥३४२॥ सत्यप्रिय तुम बैन है, हितमित भविजन हेत। सो मुनिजन तुम ध्यावते, पावै शिवपुर खेत॥
ॐ ह्रीं अहँ सूनृतगिरे नमः अध्यं ॥३४३॥ नहीं साँच नहिं झूठ हैं, अनुभय वचन कहात। सो तीर्थङ्कर ध्वनि कही, सत्यारथ सत बात॥
ॐ ह्रीं अहँ सत्यानुभयगिरे नमः अयं ॥३४४॥ मिथ्या अर्थ प्रकाश करि, कुगिरा ताको नाम। सत्यारथ उद्योत कर, सुगिरा ताको नाम॥
- ॐ ह्रीं अहं सुगिरे नमः अयं ॥३४५ ॥