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श्री सिद्धचक्र विधान
अत्यन्त विमल सब ही विशेष,
मल लेश शोध राखो न शेष ॥२॥ मणि दीप सार निर्विघ्न ज्योति,
स्वाभाविक नित्य उद्योत होत। त्रैलोक्य शिखर राजत अखण्ड,
सम्पूरण द्युति प्रगटी प्रचण्ड ॥३॥ मुनि मन मंदिर को अन्धकार, . तिस ही प्रकाशसौं नशत सार। सो सुलभ रूप पायो न अर्थ,
जिस कारण भव भव भ्रमें व्यर्थ ॥४॥ जो कल्प काल में होत सिद्ध,
तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध। भवि पतितन को उद्धार हेत,
- हस्तावलम्ब तुम नाम देत ॥५॥ तुम गुण सुमिरण सागर अथाह,
गणधर शरीख नहीं पार पाह । जो भवदधि पार अभव्य रास,
पावे न वृथा उद्यम प्रयास ॥६॥ जिन मुख द्रहसों निकसी अभंग,
अति वेग रूप सिद्धान्त गंग। नय सप्त भंग कल्लोल मान,
- तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ॥७॥