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श्री सिद्धचक्र विधान
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सह भावी गुण सार जहाँ परभाव न लेषा। अगुरुलघु परणाम वस्तु सद्भाव विशेषा॥ शिष्यन.॥
ह्रीं पाठकगुणपर्यायेभ्यो नमः अयं ॥३०६ ॥ गुण समुदायी द्रव्य याहितें निरगुण नाहीं। सो अनन्त गुण सदा विराजत तुम पद माहीं॥ शिष्यन.॥
ॐ ह्रीं पाठकगुणद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥३०७॥ सत सरूप सब द्रव्य सधै नीके अबाध कर। सो तुम सत्य सरूप बिराजो द्रव्य भाव धर॥ शिष्यन.॥
ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यस्वरूपाय नमः अयं ॥३०८॥ जे जे हैं परनाम बिना परनामी नाहीं। परनामी परनाम एक ही है तुम माहीं॥ शिष्यन.॥
. ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यपर्यायाय नमः अध्यं ॥३०९॥ अगुरुलघु पर्याय शुद्ध परनाम बखानी। निज सरूप में अन्तरगत श्रुतज्ञान प्रमानी॥ शिष्यन.॥ - ॐ ह्रीं पाठकपर्यायस्वरूपाय नमः अयं ॥३१०॥ . जगतवास सब पापमूल जिय को दुःखदाई। ताको नाशन हेत कहो शिव मूल उपाई॥ शिष्यन.॥
___ ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलाय नमः अयं ॥३११॥ जहाँ न दुःख को लेश सर्वथा सुख ही जानो। सोई मंगल गुण तुम में प्रत्यक्ष लखानो॥ शिष्यन.॥
ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलगुणाय नमः अयं ॥३१२ ॥ औरन मंगलकरण आप मंगलमय राजै। दर्शन कर सुखसार मिलै सब ही अघ भाजै॥ शिष्यन.॥
ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३१३॥