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श्री सिद्धचक्र विधान
आश्रव कर्म दुःखदाई, रुके सम्वर ये सुखदाई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्वराय नमः अर्घ्यं ॥ ३९२ ॥ सर्वथा जोग विनसाया, स्वसम्वर रूप दरशाया । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्वरस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९३ ॥ भाव में कलुषता नाहीं, भये सम्वर करण ताहीं । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥
ॐ ह्रीं पाठकसम्वरकरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९४ ॥ कुपरणति राग रूष नाशन, निरजरा रूप प्रतिभासन । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकनिर्जरास्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९५ ॥ कामदेव दाह जग सारा, आप तिस भस्म कर डारा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठककन्दर्पछेदकाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९६ ॥
चहूँ विधि बन्ध विधि चूरा, ये विस्फोटक कहो पूरा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठककर्मविस्फोटकाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९७ ॥ दऊ विधि कर्म का खोना, सोई है मोक्ष का होना । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९८ ॥
द्रव्य अर भाव मल टारा, नमूं शिवरूप सुखकारा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकमोक्षस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९९॥