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श्री सिद्धचक्र विधान
निरघ उपावन पावन वसुविधि, अर्घ हर्ष ठाई। भेंट धरत तुमरे पद आगे, पाऊँ निर आकुलताई॥ सिद्ध.॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपाइन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम स्वरूप अनूप हैं। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगुण, गेह धो हम शुभमती॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धचक्राधिपतये महाधू निर्वपामीति स्वाहा। चौषठि गुण सहित अर्घ
चाल छन्द चउ घाती कर्म नशायो, अरहन्त परमपद पायो। द्वै धर्म कहो सुखकारा, नमूं सिद्ध भए अविकारा॥
ॐ ह्रीं अरहन्तजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१॥ संक्लेश भाव परिहारी, भए अमल अवधि बलधारी। सो अतिशय केवलज्ञाना, उपजाय लियो शिवथाना॥
ॐ ह्रीं अवधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२॥