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श्री सिद्धचक्र विधान
चौपाई सब विकल्प तजिभेद स्वरूपी, निज अनुभूति मग्न चिद्रूपी। निश्चय रत्नत्रय परकासो, पूजू भाव भेद हम नासो॥
ॐ ह्रीं अर्ह रत्नत्रयप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥२१॥ कारण भेद रत्नत्रय धारी, कर्म भेद निज भाव सम्भारी। करता भेद आप परिणामी भेदाभेद रूप प्रणमामी॥ ___ॐ ह्रीं अहँ स्वरूपसाधकसर्वसाधुभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२२॥ मनोयोग कृत जिय संसारी, क्रोधारम्भ करत दुःखकारी। तासों रहित सिद्ध भगवाना, अन्तर शुद्ध करूँ तिन ध्याना॥ __ॐ ह्रीं अहँ अकृतमनःक्रोधसंरम्भमनोगुसये नमः अर्घ्यं ॥२३॥ पर के मन क्रोधी संरम्भा, करत मूढ़ नाना आरम्भा। सिद्धराज प्रण{तिसत्यागी, निर्विकल्पनिजगुण के भागी॥ ॐ ह्रीं अहँ अकारितमनःक्रोधसंरम्भनिर्विकल्पधर्माय नमः अर्घ्यं ॥२४॥
भुजङ्गप्रयात छन्द मनोयोगरम्भा प्रशंसीक क्रोधा, निजानन्दकोमानठानेअबोधा। महानिन्दनीभावकोत्यागदीना,निजानन्दकोस्वादहीआपलीना॥
ॐ ह्रीं नानुमोदितमन:क्रोधसंरम्भसानन्दधर्माय नमः अर्घ्यं ॥२५॥ मनोयोगक्रोधीसमारम्भधारी, सदाजीव भोगेमहाखेदभारी। महानंदआख्यातकोभावपायो,नमोसिद्धसोदोषनाहींउपायो॥ ॐ ह्रीं अहँ अकृतमनःक्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२६॥
दोहा .. . समारम्भ कोधित सुमन, परकारित दु:ख नाहिं । परमातम पद पाइयो, नमूं सिद्ध गुण ताहिं ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अकारितमन:क्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥