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श्री सिद्धचक्र विधान
बिन परिश्रमतारणतरणहोय, लोकोत्तमअद्भुत शक्ति सोय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्तआनंदपाय॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमवीर्यगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८० ॥ अप्रसिद्धकुनयअल्पज्ञभास, ताको विनाश शिवमगप्रकाश। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमद्वादशांग नमः अर्घ्यं ॥८१॥ सबकुनयकुपक्षकुसाध्य नाश, सत्यारथसत कारण प्रकाश। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥८२॥ . मिथ्यारत प्रकृतिअवधिविनाश, लोकोत्तमअवधी को प्रकाश। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमावधिशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८३॥ मनपर्यय शिव मंगललहाय, लोकोत्तम श्रीगुरु सोकहाय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥
___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तममनःपर्ययशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८४ ॥ आवरणतीत प्रत्यक्ष ज्ञान, है सेवनीक जग में प्रधान। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८५॥ हो बाह्य विभवसुरकृत अनूप, अन्तर लोकोत्तम ज्ञानरूप। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमविभूतिप्रधानशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८६॥ रतनत्रय निमित मिलोअबाध, पायो निज आनंदधर्म साध। हमशरणागहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्तआनंदपाय॥
ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमविभूतिधर्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८७ ॥