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श्री सिद्धचक्र विधान
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युगपत लोकालोक विलोकन, है अनन्त द्रगधारी। गुप्तरूप शिवमग दरशायो, तिनपद धोक हमारी॥
ॐ ह्रीं अरहदर्शनगुणाय नमः अर्घ्यं ॥८॥ घटपादि सब परकाशत जद, हो रवि किरण पसारा। तैसो ज्ञान भान अरहन्त को, ज्ञेय अनन्त उधारा॥
ॐ ह्रीं अरहज्ज्ञानगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९॥ आसन शयन पान भोजन बिन, दीप्त देह अरहन्ता। ध्यान वान कर तान हान विधि, भए सिद्ध भगवन्ता॥
ॐ ह्रीं अरहद्वीर्यगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ सप्त तत्त्व षट् द्रव्य भेद सब, जानत संशय खोई। ताकरि भव्य जीव सम्बोधे, नमूं भये सिद्ध सोई॥
ॐ ह्रीं अरहसम्यक्त्वगुणाय नमः अर्घ्यं ॥११॥ ध्यान सलिलसों धोय लोभ मल, शुद्ध निजातम कीनो। परम शौच अरहन्त स्वामी, पाय नमूं शिव लीनो॥
ॐ ह्रीं अरहत्शौचगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ नय प्रमाण श्रुतज्ञान प्रकारा, द्वादशांग जिनवानी। प्रगटायो परतक्ष ज्ञान में, नमूं भये शिव थानी॥
_____ॐ ह्रीं अरदद्वादशांगाय नमः अर्घ्यं ॥१३॥ मन इन्द्रिय बिन सकल चराचर, जगपद करि प्रगटायो। यह अरहन्त मती कहलायो, बन्दूं तिन शिव पायो॥
ॐ ह्रीं अरहद्भिन्नबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ अनुभव सम नहीं होत दिव्य-ध्वनि, ताको भाग अनन्ता। जानो गणधर यह श्रुत अवधी, पाइ नमूं अरहन्ता॥
- ॐ ह्रीं अरहत्श्रुतावधिगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१५॥