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श्री सिद्धचक्र विधान
सर्वावधि निधि वृद्धि प्रवाही, केवल सागर मांही। एक भयो अरहन्त अवधि यह, मुक्त भए नमि ताही॥
. ॐ ह्रीं अरहदवधिगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ अति विशुद्ध मय विपुलमती लहि, हो पूर्वोक्त प्रकारा। यह अरहन्त पाय मनःपर्यय, नमूं भए भव पारा॥
ॐ ह्रीं अर्हच्छुद्वमनःपर्यय नमः अयं ॥१७॥ मोहमलिनता जग जिय नाशै, केवलता गुण पावै। सर्व शुद्धता पाइ नमत हैं, हम अरहन्त कहावै॥
ॐ ह्रीं अरहत्केवलगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१८॥ मोह जनित सो रूप विरूपी, तिस बिन केवलरूपा। श्री अरहन्त रूप सर्वोत्तम, बन्दूं हो शिवभूपा॥
ॐ ह्रीं अरहत्केवलस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१९॥ तास विरोधी कर्म जीत करि, केवल दरशन पायो। इस गुण सहित नमत तुम पद प्रति, भाव सहित शिरनायो॥
ॐ ह्रीं अरहत्केवलदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥२०॥ निर आवरण करण बिन जाको, शरण हरण नहिं कोई। के वलज्ञान पाय शिव पायो, पूजत हैं हम सोई॥
ॐ ह्रीं अरहत्केवलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२१॥ अगम अतीर भवोदधि उतरे, सहज ही गोखुर मानो। केवल अब अरहन्त नमें हम, शिव थल बास करानो॥
ॐ ह्रीं अरहत्केवलवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥२२॥ सब विधि अपने विघ्न निवारण, औरन विघ्न विडारी। मंगलमय अर्हन्त सर्वदा, नमूं मुक्ति पदधारी॥
. ॐ ह्रीं अरहन्मंगलाय नमः अर्घ्यं ॥२३॥