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श्री सिद्धचक्र विधान
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जय धर्म भर्म वन हन कुठार, परकाश पुञ्ज चिद्रूप सार। उपकरणहरणदवसलिलधार, निजशक्ति प्रभावउदयअपार॥ नभ सीम नहीं अरु होत होउ, नहीं काल अन्त लहो अन्त सोउ। परतुम गुण रासअनन्त भाग, अक्षय विधिराजत अवधि त्याग॥ आनन्द जलधि धारा प्रवाह, विज्ञानसुरी सुखद्रह अथाह। निज शान्ति सुधारस परम खान, समभाव बीज उत्पत्ति थान॥ निजआत्मलीन विकलपविनाश, शुद्धोपयोगपरिणति प्रकाश। द्रग ज्ञान असाधारण स्वभाव, स्पर्श आदि परगुण अभाव। निज गुणपर्याय समुदाय स्वामि, पायो अखण्ड पद परम.धाम। अव्यय अबाध पद स्वयं सिद्ध, उपलब्धि रूप धर्मी प्रसिद्ध ॥ एकाग्र रूप चिन्ता निरोध, जे ध्यावें पावैं स्वयं बोध । गुण मात्र सन्त अनुराग रूप, यह भाव देहु तुम पद अनूप॥
घत्ता- दोहा सिद्ध सुगुण सुमरण महा, मन्त्रराज है सार।
सर्व सिद्ध दातार है, सर्व विघन हर्तार॥ ॐ ह्रीं षट्पञ्चाशत्दधिकद्विशतदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्य निर्व.।
तीन लोक चूड़ामणी, सदा रहो जयवन्त। विघन हरण मंगल करण, तुम्हें नमैं नित सन्त॥
इत्याशीर्वादः॥ इति षष्ठी पूजा सम्पूर्णम् ॥