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श्री सिद्धचक्र विधान
निजबंधन डोरी छिन में तोरी, स्वयं शक्ति परकाश। निरभय निरमोही, परमअछोही, अन्तरायविधिनाश॥हेजग.
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलवीर्येभ्यो नमः अध्यं ॥१४३॥ जाके प्रसादकर सकल चराचर, निजसों भिन्न लखाय। रुषराग निवारा सुख विस्तारा, आकुलता विनशाय॥हे जग.
ह्रीं सिद्धमंगलसम्यक्त्वेभ्यो नमः अयं ॥१४४॥ .. अस्पर्श अमूरति चिनमय मूरति, अरस अलिंग अनूप। मन अक्ष अलक्षं ज्ञान प्रत्यक्षं, शुभ अवगाह स्वरूप॥ हेजग.
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअवगाहनेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४५॥ . अव्यक्त स्वरूपं अमल अनूपं, अलख अगम असमान। . अवगाह उदन धन वास परस्पर, भिन्न भिन्न परमान। हेजग.
___ॐ ह्रीं सिद्धमंगलसूक्ष्मत्वेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४६ ॥ अनुभूति विलासी समरस रासी, हीना धिकविधि नाश। विधि गोत्र नाशकर पूरण पदधर, असंवाध परकाश॥हेजग.
___ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअगुरुलघुभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४७॥ पुद्गल कृत सारी विविध प्रकारी, द्वैतभाव अधिकार। सब भाँति निवारी निजसुखकारी, पायोपदअविकार॥हेजग.
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअव्याबाधेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४८॥ अवगाह प्रणामी ज्ञानारामी, दर्शन वीर्य अपार । सूक्षमअवकाशंआजअविनाशं, अगुरुलघुसुखकार॥हेजग.
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलाष्टगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४९ ॥ शुद्धातम सारं अष्ट प्रकारं, शिव स्वरूप अनिकार। निज गुणपरधानं सम्यकज्ञानं, आदि अन्त अविकार॥हेजग.
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टस्वरूपेभ्यो नमः अयं ॥१५०॥