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श्री सिद्धचक्र विधान
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कबहूँ न होय विभावमय, सो थिर भाव जिनेश। मुक्तिरूप प्रणमूं सदा, नाशे विघन विशेष ॥
ॐ हीं अरहल्लोकोत्तमस्थिरभावाय नमः अर्घ्यं ॥५६॥ जा सेवत वेवत स्वमुख, सो सर्वोतम देव। शिववासी नाशी त्रिजग-फाँसी नमहूँ एव ॥
ॐ ह्रीं अरहच्छरणाय नमः अर्घ्यं ॥५७॥ जिन ध्यायो तिन पाइयो, निश्चय सो सुखरास। शरण स्वरूपी जिन नमू, करैं सदा शिववास॥
ॐ ह्रीं अरहच्छरणाय नमः अर्घ्यं ॥५८॥
- पद्धड़ी छन्द स्वाभाविक गुणअरहन्त गाय, जासोंपूरण शिवसुखलहाय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥
___ॐ ह्रीं अरहगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥५९॥ बिन केवलज्ञान न मुक्ति होय, पायो है श्री अरहन्त जोय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
.. ॐ ह्रीं अरज्ञानाय नमः अयं ॥६०॥ प्रत्यक्ष देख सर्वज्ञ देव, भाख्यो है शिव मारग असेव। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥
. ॐ ह्रीं अरहद्दर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६१ ॥ संसार विषम बन्धन उछेद, अरहन्त वीर्य पायो अखेद। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥
ॐ ह्रीं अरहद्वीर्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ सबकुमति विगतमनजिन प्रतीत, हो जिसते शिवसुधदेअभीत। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥
ॐ ह्रीं अरहद्द्वादशांगश्रुतशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६३ ॥