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श्री सिद्धचक्र विधान
जिस वासन जिस थान आहार करें यती, चक्री सेना खाय अखे होवे अती । अक्षीण रसी यह ऋद्धि भई सुखदाय जू,
भये सिद्ध सुखदाय जजूं तिन पांय जू ॥४४॥ ॐ ह्रीं अर्हं अक्षीणरसऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४४ ॥
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सोरठा
सिद्धरास सुखदाय, वर्धमान नितप्रति लसे। नमूं ताहि सिर नाय, वृद्ध रूप गुण अगम हैं ॥ ४५ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह वर्धमानसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४५ ॥ रागादिक परिणाम, अन्तर के अरि नास के । लहि अरहन्त सु नाम, नमों सिद्धपद पाइया ॥ ४६ ॥ ॐ ह्रीं अरहन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४६ ॥
दो अन्तिम गुण थान, भाव सिद्ध इस लोक में ।
तथा द्रव्य शिव थान, सर्व सिद्ध प्रणमूं सदा ॥ ४७ ॥ ॐ ह्रीं लोएसव्वसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४७ ॥
शत्रु व्याधि भय नाहिं, महावीर धीरज धनी । नमूं सिद्ध जिननाथ, संतनिके भव भयहरें ॥ ४८ ॥ ॐ ह्रीं भयविध्वंसकभगवते महावीरवडढमाणाय नमः अर्घ्यं ॥४८ ॥ क्षपक श्रेणी आरूढ, निजभावी योगी यथा । निश्चय दर्श अमूढ, सिद्धयोग सबही जजों ॥ ४९ ॥ ॐ ह्रीं योगसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४९ ॥