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श्री सिद्धचक्र विधान
पद्धडि छन्द जो करे जीव को बहु प्रकार, ज्यों चित्रकार चित्राम सार। सो नाम कर्म तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥
ॐ ह्रीं नामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५४॥ जा उदय नारकी देह पाय, नाना दुःख भोगे नर्क जाय। सो नरकगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन ॥
ॐ ह्रीं नरकगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५५॥ जासों उपजे तिर्यञ्च जीव, रहै ज्ञान हीन मलयुत सदीव। सो तिर्यञ्चगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥
ॐ ह्रीं तिर्यञ्चगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥५६॥ ' जा उदय भये मानुष्य होत, लहै नीच ऊँच ताको उद्योत। सो मानुष गति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥
ॐ ह्रीं मनुष्यगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५७॥ . चउ विधि सुरपद जासों लहाय, विषयातुर नित भोगे उपाय। सो देवगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥ ॐ ह्रीं देवगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥
कामिनीमोहन छन्द एकहीभावसामान्यकापावना,जीवकीजातिकाभेदसोगावना। होतजोथावराएक इन्द्रीकहो, पूजहुँ सिद्ध के चरणताकोदहो॥ ___ॐ ह्रीं एकइन्द्रीजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५९॥ स्पर्सकेसाथमेंजीभजोआमिलें, पायसोंआपने-आपभूपरचलें गामिनीकर्मसोदोयइन्द्रीकहो, पूजहूँसिद्धके चरणताकोदहो॥
ॐ ह्रीं दोइन्द्रीजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥६०॥