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श्री सिद्धचक्र विधान
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आतम शक्तिजास करि छीनी, तास नाश प्रभुताई लीनी। सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥
ॐ ह्रीं अरहत्परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१९॥ निजगुण निजहीमाहीं समाया, गणधरादिवरनन नकराया। सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥ ॐ ह्रीं अरहद्गुप्तस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१०० ॥
दोधक छन्द जो निज आतम साधु सुखाइ, सो जगतेश्वर सिद्ध कहाई। लोकशिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहिततुमको प्रणमामी॥ -
ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०१॥ सर्व विशुद्ध विरूप सरूपी, स्वातम रूप विशुद्ध अनूपी। लोक शिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥
. . ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०२॥ प्राश्रित सर्व भाव विनिवारा, स्वाश्रित सर्व अबाध अपारा। लोकशिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥
___ ॐ ह्रीं सिद्धगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०३॥ आकुलता सबही विधि नाशी, ज्ञायक लोकालोक प्रकाशी। लोक शिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥
ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०४॥ जीव-अजीव लखे अविचारा, हो नहीं अन्तर एक प्रकारा। लोक शिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहिततुमको प्रणमामी॥
ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०५ ॥