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श्री सिद्धचक्र विधान
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नतुकोऊचन्दननतुकोऊकेसरि, भेंट किये भवपारभयोहै। केवल आप कृपा द्रगहीसों, यह अथाह दधिपार लयो है। रीति सनातन भक्तन की लख, चन्दन की यह भेंटधरामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशतसंख्यक, नाम उचारत हूँसुखधामी॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ इन्द्रादिक पदहू अनवस्थित, दीखत अन्तर रुचिनकरैं हैं। केवलएकहि स्वच्छ अखण्डित, अक्षयपदकीचाह धरै हैं॥ तातें अक्षतसों अनुरागी, हूँ सो तुम पद पूज करामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारतहूँसुखधामी॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पुष्प बाण ही सो मन्मथ जग, विजई जग में दाम धरावै। देखहु अद्भुत रीतिभक्त की, तिसहीभेंटधर कामहनावे॥ शरणागति कीचूक न देखी, ताक् पूज्य भये शिरनामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥ - ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ हनन असाता पीर नहीं यह, भीर परै चरु भेंटन लायो। भक्त अभिमानमेंट होस्वामी, यह भवकारणभाव सतायो॥