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नमो नमो निम्मलदसणस्स आय पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
24
आगम १८ "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्तिः [२]
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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1
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
सामाMARAYANAMARRIHSHOBHASHMADHANEESHMIRMedia
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
पर सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
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पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
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ਕਾਲ ਦੇ ਤਲ ਤਕ ਮਿਸ਼ਰਨ ਨੂੰ ਤੇਹਸ ਹਸ ਨੂੰ ਚਾਰ
ਗਲ ਨਿਰਾਸ਼ ਕਰ ਉਸ ਨੇ ਸਰਕ
ਗਧਾ ਸ਼
ਸ਼ ਕਰ
आगम वाचना शताब्दी वर्ष में न
ਤਿਲਕ ਸ ਸ ਸ ਸ ਹ ਲ ਰ ਕਾ ਤਰਕ ਬਲ ਬਸ ਚਾਹ ਕਾ
ਪਾਗਲ
ਸ ਹਾਰ
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[भाग-२४] श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्रम्-७/२)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं शांतिचंद्र विहिता वृत्तिः ] '
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२४
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र - मेधावी, समाधिमृत्यु- प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी • गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है |
* चारित्र ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मों का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज कासा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया। लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण - न्याय - साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए |
• एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक • हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम साहित्य को कंडारा, सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और
"आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए । वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
* सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत प्राकृत नए ग्रंथों की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक् श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | * ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य संरक्षण, तिथि प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
* सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | .. मुनि दीपरत्नसागर...
......
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....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी ".....
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त
पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान- तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे |
••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | • रटण बारबार चालु हो गया- "अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण" इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर....
श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा
...
पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर है, जो शत्रुंजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण ं के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है |
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मुनि दीपरत्नसागर ....
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____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-पन्थाङ्कः ५२. श्रीमद्धीरविजयसूरीश्वरशिष्योत्तमश्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमज्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः।
(पूर्वभागः.) प्रसिद्धिकर्ता-श्रेष्ठि नगीनभाई घेलाभाई जढेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं.मोहमयां शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणागारे कोलभाटवीध्या २३ तमे निलये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
श्रीवीरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. काइष्टसन् १९२०. प्रथमसंस्कारे प्रतयः १०.०] वेतनम् १०४-०-० [Ra4-0-0]
जम्बूदवीप-प्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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मूलाड़का: १७८+१३१
जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ३६५
मलाक:
पृष्ठांक: |
मूलाक:
विषय:
पष्ठाक:
००१
०१२
२
विषय: | पृष्ठांक: | | मूलांक: | विषयः | वक्षस्कार:
०५४ वक्षस्कार:३ जंबुद्वीपस्य प्रमाण, संस्थान,
भरतनाम्नस्य हेत्, विनीतानगरी स्वरुप, जगति, गवाक्ष.
भरतचक्रवर्ती-वक्तव्यता, पद्मवरवेदिका, वनखंड,
चक्ररत्नस्य उत्पत्ति,षटखंडयात्रा विजयद्वार एवं राजधानी,
मागध-प्रभास-वरदानानां कथनं भरतक्षेत्रस्य स्थान, प्रमाण,
| चतुर्दश-रत्नानि, रत्नानाम् कार्य विभाग, दक्षिणार्धभरत
|-एवं उत्पतिस्थानानि वैताद्यपर्वत,
| भरतचक्रवर्त्या: निधय:, देवा: सिद्धायतनवर्णन
राजानः, सेना:, ग्रामाय: - उत्तरार्धभरत.
| इत्यादि वर्णनं
वक्षस्कार: ५ जिनजन्माभिषेकस्य वर्णनं, दिक्कुमार्याणां वक्तव्यता, इन्द्राणां आगमनम्, पण्डकवनं -एवं अभिषेकशीला, सुघोषाघंटा
वक्षस्कार:६ २४५ | जम्बूदवीपगता पदार्थाः,
जम्बूद्वीपे स्थिता: वर्षक्षेत्राः, - -पर्वता:, कूटा:, तीर्थानि, गुफ़ा;, द्रहाः, नद्य: आदि वक्तव्यता
०२२
२५०-३६५
| वक्षस्कार: २ काल- अवसर्पिणि, उत्सर्पिणि, औपमिककाल- पल्योपम, ... सागरोपम, कल्पवृक्षवर्णन. कालस्य षविधत्व व तस्मिन् तस्मिन्काले वास्तव्या मनुष्या कुलकर वक्तव्यता, रुषभदेवस्य वर्णन, नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाह्निका-महोत्सव, पंचभेदे मेघवर्षा
| वक्षस्कार: ४ | चुल्लहिमवंत-वर्षधरपर्वत-वर्णनं, पद्मद्रहवर्णनं, पद्मस्य कथनं, गंगा-सिंधु आदि नद्यानां वर्णनं, | सिद्धायतन-आदि कुटा:, | हेमवन्त-हरिवर्ष-महाविदेह-कुरु-रम्यक आदि क्षेत्राणां वर्णनं, निषध-नीलवंत-रुक्मि-हिमवंतादि -पर्वतानां वक्तव्यता, | मेरुपर्वतस्य वर्णनं.
वक्षस्कार: ७ जम्बूद्वीपे अवस्थित चन्द्र - -सूर्य-नक्षत्र-तारादि वक्तव्यता, सूर्यमंडल एवं तस्य आयाम, विष्कंभः, परिधि:, अंतर आदि. चंद्रमंडल एवं तस्य आयामादि -वर्णनं, नक्षत्रमंडल-वक्तव्यता, संवत्सराणां भेदा:, तिर्थकरआदि उत्तम पुरुषाणाम् वक्तव्यता
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८],उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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['जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा
यह प्रत सबसे पहले “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्रम् ” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में 'देवचन्द्र- लालभाइ - जैनपुस्तकोद्धार' द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा , और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
* हमारा ये प्रयास क्यों ? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर वक्षस्कार और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा वक्षस्कार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है ।
"
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक वक्षस्कार और मूलसूत्र लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग - २४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
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... मुनि दीपरत्नसागर.
wwwwww.
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
अथ तृतीयो वक्षस्कारः ॥३॥
प्रत
सूत्रांक
[४१]
अथ वर्ण्यमानस्यैतद्वर्षस्य नाम्नः प्रवृत्तिनिमित्तं पिपृच्छिषुराह-- से केणद्वेणं भंते! एवं वुञ्चई-भरहे वासे २१, गोअमा ! भरहे गं वासे वेअद्धस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं चोइसुत्तरं जोअणसयं एगस्स य एगूणवीसइमाए जोअणस्स अवाहाए लवणसमुदस्स उत्तरेणं चोरसत्तरं जोअणसय एकारस य एगूणवीसहभाए जोअणस्स अवाहाए गंगाए महाणईए परस्थिमेणं सिंघूए महाणईए पुरथिमेणं दाहिणभरहमज्जिालतिभागरस बहुमन्मदेसभाए एत्व णं विणीआणामं रायहाणी पण्णता, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिन्ना दुवालसजोभणायामा णवजोअणविच्छिण्णा धणवइमतिणिम्माया चामीयरपागारा णाणामणिपञ्चवण्णकविसीसगपरिमंडिआभिरामा अलकापुरीसंकाशा पमुइयपकीलिआ पबक्सं देवलोगभूमा रिद्धिस्थिमिअसमिद्धा पमुइअजणजाणवया जाव पडिरूवा (सूत्रम् ४१)
अथ-सम्पूर्णभरतक्षेत्रस्वरूपकथनानन्तरं केनार्थेन भगवन् ! एवमुच्यते-भरतं वर्ष २१, द्विर्वचनं प्राग्वत् , भगवा-3 HO नाह-गौतम! भरते वर्षे वैताव्यस्य पर्वतस्य दक्षिणेन चतुर्दशाधिकं योजनशतमेकादश चैकोनविंशतिभागान् योज-18
नस्याबाधया-अपान्तरालं कृत्वा तथा लवणसमुद्रस्योत्तरेणं, दक्षिणलवणसमुद्रस्योत्तरेणेत्यर्थः, पूर्वापरसमुद्रयोगङ्गासि-IS
eesecsceaeeeeeeeeo
अनुक्रम [५४]
Jimilaianit
अथ तृतिय-वक्षस्कारः आरभ्यते
अथ भरतवर्षस्य नाम्न: हेतु प्रदर्श्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [४१]
श्रीजम्बू-न्धुभ्यां व्यवहितत्वान्न तद्विवक्षा, गङ्गाया महानद्याः पश्चिमायां सिन्ध्वा महानद्याः पूर्वस्यां दक्षिणार्द्धभरतस्य मध्यम-३वक्षस्कारे
तृतीयभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र-एतादृशे क्षेत्रे विनीता-अयोध्यानाम्नी राजधानी-राजनिवासनगरी प्रज्ञप्ता मयाविनीतावन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
न्यैश्च तीर्थकृद्भिरिति, साधिकचतुर्दशाधिकयोजनशताङ्कोत्पत्तौ त्वियमुत्पत्तिः-भरतक्षेत्रं ५०० योजनानि २६ योज-राणनं सू.४१
नानि षट् ६ कला योजनैकोनविंशतिभागरूपा विस्तृतं, अस्मात् ५० योजनानि वैताब्यगिरिव्यासः शोध्यते, जातं ॥१७९॥ ४७ कलाः, दक्षिणोत्तरभरतार्द्धयोविभजनयतस्याः २३८,३ कलाः, इयतो दक्षिणार्द्धभरतव्यासात् 'उदीणदा-15
| हिणविच्छिण्णा' इत्यादिवक्ष्यमाणवचनाद्विनीताया विस्ताररूपाणि नव योजनानि शोध्यन्ते, जातं २२९पर कला, | अस्य च मध्यभागेन नगरीत्यर्द्धकरणे ११४ योजनानि अवशिष्टस्यैकस्य योजनस्यैकोनविंशतिभागेषु कलात्रयक्षेपे जाताः २२ तदर्ब ११ कला इति, तामेव विशेषणविशिनष्टि-पाईणपडीणायया' इत्यादि पूर्वापरयोर्दिशोरायता,
उत्तरदक्षिणयोविस्तीर्णा, द्वादशयोजनायामा नवयोजन विस्तीर्णा धनपतिमत्या-उत्तरदिकपालबुद्ध्या निर्माता-निर्मिः। ३ तेत्यर्थः, निपुणशिल्पिविरचितस्यातिसुन्दरत्वात् , यथा च धनपतिना निर्मिता तद् ग्रन्थान्तरानुसारेण किश्चिद् व्यक्तिIS पूर्वकमुपदश्यते, "श्रीविभो राज्यसमये, शक्रादेशान्नवां पुरीम् । धनदः स्थापयामास, रलचामीकरोत्करैः ॥ १॥ ॥१७९॥
द्वादशयोजनायामा, नवयोजन विस्तृता । अष्टद्वारमहाशाला, साऽभवत्तोरणोज्वला ॥२॥ धनुषां द्वादशशतान्युच्चै | स्त्वेऽष्टशतं तले। व्यायाम शतमेकं स, व्यधाद्वप्रं सखातिक॥३॥ सौवर्णस्य च तस्याई, कपिशीर्षावलिबभौ । मणि-HR
अनुक्रम [५४]
अत्र विनितानगरी-वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
-------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१]
जाऽमरशैलस्थनक्षत्रालिरिवोगता ॥४॥ चतुरस्राश्च त्र्यम्राश्च, वृत्ताश्च स्वस्तिकास्तथा । मन्दाराः सर्वतोभद्रा, एकभूमा ।
द्विभूमिकाः॥५॥ त्रिभूमाधाः सप्तभूमं, यावत्सामान्यभूभुजाम् । प्रासादाः कोटिशस्तत्राभूवन रत्नसुवर्णजाः ॥६॥ IN/ युग्म ॥ दिश्यशान्यां सप्तभूम, चतुरखं हिरण्मयम् । सवप्रखातिकं चक्रे, प्रासादं नाभिभूपतेः ॥७॥ दिश्यन्द्रचा सर्वतो
भद्रं, सप्तभूमं महोन्नतम् । वर्तुलं भरतेशस्य, प्रासादं धनदोऽकरोत् ॥८॥ आग्नेय्यां भरतस्यैव, सौधं बाहुबलेरभूत् । शेषाणां च कुमाराणामन्तरा घभवन तयोः॥९॥ तस्यान्तरादिदेवस्य, चैकविंशतिभूमिकम् । त्रैलोक्यविभ्रमं नाम. प्रासादं रत्नराजिभिः॥१०॥ सहमखातिकं रम्यं, सुवर्णकलशावृतम् । चञ्चयजपटव्याजान्नत्यन्तं निर्ममे हरिः॥ ॥११॥ युग्मम् । अष्टोत्तरसहस्रण, मणिजालैरसी बभौ । तावत्सलय मुखैभूरि, ब्रुवाणमिव तद्यशः ॥ १२॥ कल्प-18 दुमैर्वृताः सर्वेऽभूवन् सेभहयौकसः । सप्राकारा बृहदासःपताकामालभारिणः ॥ १३ ॥ सुधर्मसदृशी चारु, रत्नम| य्यभवत्पुरी। युगादिदेवप्रासादात्, सभा सर्वप्रभाभिधा ॥ १४ ॥ चतुर्दिा विराजन्ते, मणितोरणमालिकाः । पञ्चव
प्रभाकूरपूरडम्बरिताम्बराः ॥१५॥ अष्टोत्तरसहस्रेण, मणिबिम्बैर्विभूषितम् । गव्यूतिद्वयमुत्तुङ्गं, मणिरत्नहिरण्मयम् ॥ १६ ॥ नानाभूमिगवाक्षाढ्यं, विचित्रमणिवेदिकम् । प्रासादं जगदीशस्य, व्यधाच्छ्रीदः पुरान्तरा ॥ १७ ॥ युग्मम् ।18 सामन्तमण्डलीकाना, नन्द्यावर्त्तादयः शुभाः । प्रासादा निर्मितास्तत्र, विचित्रा विश्वकर्मणा ॥ १८ ॥ अष्टोत्तरसहस्रं तु, जिनानां भवनान्यभुः। उच्चै जाग्रसंक्षुब्धतीक्ष्णांशुतुरगाण्यथ ॥१९॥ चतुष्पथप्रतिबद्धा, चतुरशीतिरुचकैः ।
अनुक्रम [५४]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४१]
दीप
अनुक्रम
[ ५४ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशाविचन्द्री
या वृत्तिः
॥१८०॥
| प्रासादाश्चार्हतां रम्या, हिरण्यकलशैर्वभुः ॥ २० ॥ सौधानि हिरण्यरत्नमयान्युच्चैः सुमेरुवत् । कौवे सपताकानि, चक्रे स व्यवहारिणाम् ॥ २१ ॥ दक्षिणस्यां क्षत्रियाणां सौधानि विविधानि च । अभूवन् सास्त्रागाराणि, तेजांस्यवनि| वासिनाम् ॥ २२ ॥ तद्वप्रान्तश्चतुर्दिक्षु, पौराणां सौधकोटयः । व्यराजन्त घुसयान समानविशदश्रियः ॥ २३ ॥ सामान्य कारुकाणां च वहिः प्राकारतोऽभवत् । कोटिसमाश्चतुर्दिक्षु, गृहाः सर्वधनाश्रयाः ॥ २४ ॥ अपाच्यां च | प्रतीच्यां च कारकाणां बभुर्गृहाः । एकभूमिमुखाख्यस्रास्त्रिभूमिं यावदुच्छ्रिताः ॥ २५ ॥ अहोरात्रेण निर्माय, तां पुरीं धनदोऽकिरत्। हिरण्यरत्नधान्यानि वासांस्याभरणानि च ॥ २६ ॥ सरांसि वापीकूपादीन, दीर्घिका देवताल - यान् । अन्यच्च सर्वं तत्राहोरात्रेण धनदोऽकरोत् ॥ २७ ॥ विपिनानि चतुर्दिक्षु, सिद्धार्थश्रीनिवासके । पुष्पाकारं | नन्दनं चाभवन् भूयांसि चान्यतः ॥ २८ ॥ प्रत्येकं हेमचैत्यानि, जिनानां तत्र रेजिरे । पवनाहृतपुष्पालिपूजितानि | दुमैरपि ॥ २९ ॥ प्राच्यामष्टापदोऽपाच्यां महाशैलो महोनतः । प्रतीच्यां सुरशैलस्तु, कौबेर्य्यामुदयाचलः ॥ ३० ॥ तत्रैवमभवन् शैलाः, कल्पवृक्षालिमालिताः । मणिरत्नाकराः प्रोचैर्जिनावासपवित्रिताः ॥ ३१ ॥ शक्राज्ञया रसमयीमयोध्यापरनामतः । विनीतां सुरराजस्य, पुरीमिष स निर्ममे ॥ ३२ ॥ यद्वास्तव्यजना देवे, गुरौ धर्मे च सादराः । स्थैर्यादिभिर्गुणैर्युक्ताः, सत्यशौचदयान्विताः ॥ ३३ ॥ कलाकलाप कुशलाः, सत्सङ्गतिरताः सदा । विशदाः शान्त| सद्भावा, अहमिन्द्रा महोदयाः ॥ ३४ ॥ युग्मम् । तत्पुर्यामृषभः स्वामी, सुरासुरनरार्चितः । जगत्सृष्टिकरो राज्यं,
Fur Prue&rinae Cy
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३ वक्षस्कारे विनीतावर्णनं सू. ४१
॥ १८० ॥
www.jamraryar
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४१]
दीप
अनुक्रम
[ ५४ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्री ११
पाति विश्वस्य रञ्जनात् ॥ ३५ ॥ अन्वयोध्यमिह क्षेत्रपुराण्यासन् समन्ततः। विश्वसष्टृशिल्पिवृन्दघटितानि तदुतिभिः ॥ ३६ ॥ इति, सङ्क्षेपेण त्वेतत्स्वरूपं सूत्रकारोऽप्याह -- 'चामीअरपागारे 'त्यादि, चामीकरप्राकारा नानामणिकपिशीर्षप रिमण्डिता अभिरामा अलकापुरी-लौकिकशास्त्रे धनदपुरी तत्संकाशा-तत्सन्निभा प्रमुदितजनयोगान्नगर्यपि 'तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति न्यायात् प्रमुदिता तथा प्रक्रीडिताः - क्रीडितुमारब्धवन्तः क्रीडावन्त इत्यर्थः तादृशा के जवास्तद्योगान्नसूर्यपि प्रक्रीडिता, पचाद्विशेषणसमासः, प्रत्यक्षं प्रत्यक्षप्रमाणेन तस्यानुमानाद्याधिकेक विशेषप्रकाशकत्वात् तज्जन्यज्ञानस्य सकलप्रतिपत्तृणां विप्रतिपत्यविषयत्वात्, देवलोकभूता स्वर्गलोकसमाना, 'ऋद्धस्तिमितस्मृद्ध' लादिविशेषणानि प्राग्वत् इतिः परिसमाप्तौ नवरं प्रमुदितजनजानपदेति विशेषणं प्रमुदितप्रक्रीडितेति विशेषणस्य हेतुतयोपन्यस्तं तेन न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयं । नन्वेवं प्रस्तुतक्षेत्रस्य नामप्रवृत्तिः कथं जातेत्याह
तत्व णं विणीआर राहाणीए रहे णामं राया पाउदंतचकवट्टी समुप्यज्जित्था, महया हिमवंतमहंतमलयमंदर जाव र पसासेमाणे विहरह। बिओ गमो रायवण्णगस्स इमो, तत्थ असंखेनकालनासंतरेण उप्पज्जर जस्सी उत्तमे अभिजाए सचकीरिअपरमगुणे पक्षत्यवण्णसरसारसंघ वणतणुगुबुद्धिधारणमेहासंठाणसी उप्पराई पहाणगारवच्छामान अमेगणपणे तेअभावto अरिघणणिचिअलोहसंकरणारायवहरउसह संघयणदेहधारी झस १ जुग २ भिंगार ३ वद्धमाग ४ महमाण
५ संख ६ छ ७ वीअणि ८ पहाग ९ पक १० मंगळ ११ मुसळ १२ र १३ सोत्थि १४ अंकुस १५ चंदा १६ -
अथ चक्रवर्तीराजा भरतस्य वर्णनं क्रियते
Fur Fate &P Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा-18
प्रत
सूत्रांक [४]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१८॥
१७ अग्गि १८ जूय १९ सागर २० इंदझय २१ पुहवि २२ पउम २३ कुंजर २४ सीहासण २५ वंड २६ कुम्म २७- ३वक्षस्कारे गिरिवर २८ तुरगवर २९ वरमउड ३० कुंडल ३१ गंदावच ३२ घणु ३३ कोंत ३४ गागर ३५ भवणविमाण ३६- भरतराजअणेगलक्खणपसत्थसुविभत्तचित्तकरचरणदेसभागे उद्धामुहलोमजालमुकुमालणिमउआवत्तपसत्थलोमविरइअसिरिवच्छच्छण्णविज
वर्णन सू. लवच्छे देसखेत्तसुविभत्तदेहधारी तरुणरविरस्सिबोहिअवरकमलवियुद्धगम्भवण्णे हयपोसणकोससण्णिभपसत्यपिहृतणिरुपलेवे पल
४२ मुष्पलकुंदजाइजूहियवरचंपगणागपुष्फसारंगतुलगंधी छत्तीसाअहिअपसत्यपस्थिवगुणेदि जुत्ते अवोच्छिण्णात्तपत्ते पागडउभयजोणी विसुद्धणिअगकुलगयणपुण्णचंदे चंदे इव सोमयाए णयणमणणिन्वुईकरे अक्सोभे सागरो व थिमिए धणवइव भोगसमुदयसदबयाए समरे अपराइए परमविक्रमगुणे अमरवइसमाणसरिसरूवे मणुअवई अरइचकवट्टी भरहं भुंजइ पण्णसत्तू (सूत्र ४२)
'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र विनीताया राजधान्यां भरतो नाम राजा, सच सामन्तादिरपि स्यादत आह-चक्रवत्ती सच वासुदेवोऽपि स्यादतश्चत्वारोऽन्ताः-पूर्वापरदक्षिणसमुद्रास्त्रयः चतुर्थों हिमवान् इत्येवस्वरूपास्ते वश्यतयाऽस्य सन्तीति चातुरन्तः पश्चाच्चक्रवर्तिपदेन कर्मधारयः समुदपद्यत, महाहिमवान्-हैमवतहरिवर्षक्षेत्रयोविभाजकः कुल-18 गिरिः स इव महान् शेषपृथ्वीपतिपर्वतापेक्षया मलयः-चन्दनदुमोत्पत्तिप्रसिद्धो गिरिः मन्दरो-मेरुः यावत्पदात्- ॥१८॥ प्रथमोपाङ्गतः समग्रो राजवर्णको ग्राह्यः कियत्पर्यन्त इत्याह-राज्यं प्रशासयन्-पालयन् विहरतीति, नन्वेवमपि शाश्वती भरतनामप्रवृत्तिः कथं , तदभावे च 'सेत्त'मित्यादि वक्ष्यमाणं निगमनमप्यसम्भवीत्याशङ्कया प्रकारान्त
अनुक्रम
(५५)
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], -------------------------------------------- -------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४२]
रेण तत्तत्कालभाविभरतनामचक्रवर्युदेशेन राजवर्णनमाह-'विइओ गमों' इत्यादि, द्वितीयो गमः-पाठविशेषोपIS लक्षितो अन्थो राजवर्णकस्याय, 'तत्र' तस्यां विनीताया, असञ्जयेयः कालो यैर्वर्षेस्तानि वर्षाणि असङ्ख्येयानीत्यर्थः, IS तेषामन्तरालेन-विचालेन, अयमर्थः-प्रवचने हि कालस्यासङ्ख्मयता असङ्ख्येयैरेव च वयंवड़ियते, अन्यथा समया-18
पेक्षयाऽसोयत्वे ऐदंयुगीनमनुष्याणामसङ्ख्येयायुष्कत्वब्यवहारप्रसङ्गः, तेनासङ्ख्येयवर्षात्मकासरेयकाले गते एक| स्माद् भरतचक्रवर्तिनोऽपरो भरतचक्रवती यतः प्रकृतक्षेत्रस्य भरतेति नाम प्रवर्तते स उत्पद्यते इति क्रियाकारक-18 सम्बन्धः, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् , आवश्यकचूणौ तु “तत्य व संखिज्जकालवासाउए" इति पाठः, तत्र च-भरते| सङ्ख्यातकालवर्षाणि आयुर्यस्य स सङ्ख्यातकालवर्षायुष्का, तेनास्य युग्मिमनुष्यत्वव्यवहारो व्यपाकृतो द्रष्टव्यः तेषाम-II सङ्ख्यातवर्षायुष्कत्वादिति, ननु भरतचक्रिणोऽसयातकालेऽतीयुषि सगरचयादिभिरिदं सूत्रं व्यभिचारि, तेषां
भरतनामकत्वाभावात् , उच्यते, नहीदं सूत्रमसख्येयकालवर्षान्तरेण सकलकालवर्तिनि चक्रवर्तिमण्डले नियमेन | भरतनामकचक्रवर्तिसम्भवसूचकं किन्तु कदाचित्तत्सम्भवसूचकं, यथा आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भरताख्यः प्रथ-18 || मचकी, यत आह-भरहे अ दीहदंते अ, गूढदंते अ सुद्धदंते अ। सिरिअंदे सिरिभूई, सिरिसोमे अ सत्तमे ॥ १॥"MS ॥ इत्यादिसमवायाइतीर्थोद्गारप्रकीर्णकादौ, सच कीश इत्याह-'यशस्वी ति व्यक्तं, उत्तमः शलाकापुरुषत्वात्,
अभिजात:-कुलीनः श्रीऋषभादिवश्यत्वात् सत्त्व-साहसं वीर्य-आन्तरं बलं पराक्रमः-शत्रुवित्रासनशक्तिरेते गुणा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
४१
[४२]
भीजम्बू- यस्य, एतेन राजन्योचितसर्वातिशायिगुणवत्त्वमाह, प्रशस्ता:-तत्कालीनजनापेक्षया श्लाघनीयाः वर्ण:-शरीरच्छविः। ३वक्षस्कारे
द्वीपशा-1 स्वरो-वनिः सार:-शुभपुद्गलोपचयजन्यो धातुविशेषः शरीरदायहेतुः संहननं-अस्थिनिचयरूपं तमुक-शरीरंग भरतराबन्तिचन्द्री-18 बखि औत्पत्त्यादिका धारणा-अनुभूतार्थवासनाया अविच्युतिः मेधा-हेयोपादेवधीः संस्थान-यथास्थानमगोपाल-18 वर्णन छ. या वृत्तिः
॥ विन्यासः शील-आचारः प्रकृति:--सहजं ततो द्वन्द्वे, प्रशस्ता वर्णादयोऽर्था यस्य स तथा, भवन्ति च विशिष्टाः वर्ण॥१८॥
|| स्वरादयः आज्ञैश्वर्यादिप्रधानफलदाः, प्रधाना-अनन्यवचिनो गौरवादयोऽर्था यस्य स तथा, तत्र गौरच-महानामन्ताविकृताभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिः छाया-शरीरशोभा गतिः-सश्चरणमिति, अनेकेषु-विविधप्रकारेषु वचनेषु-वक्तव्येषु प्रधानो-मुख्यः, अनेकधावचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्तनादौ “आदौ तावन्मधुरं मध्ये रूक्षं ततः परं कहुकम् ।। भोजन विधिमिव विबुधाः स्वकार्यसिस वदन्ति वचः॥१॥" अथवा "सत्यं मित्रः प्रियं खीभिरलीकमधुरं द्विषा। अनकलं च सत्संच, बक्तव्यं स्वामिना सह ॥२॥" इति, तेजः-परासहनीयः पुण्यः प्रतापः अभेदोपचारेण तद्वान | 'तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते' इत्यादिवत् , आयुर्वल-पुरुषायुषं तद् यावद्वीयं तेन युक्तः, तेब जरारोगाविनोपहत-13 वीर्यत्वं नास्येति भावः, पुरुषायुषं च तदानीन्तनकाले प्राकृतजनानां पूर्वकोटिसद्भावेऽप्यस्य त्रुटिताङ्गममा बोद्धव्यं,IRL नरदेवस्यैतावत एवायुषः सिद्धान्ते भणनात्, एतेन भेदः पूर्वविशेषणादस्येति, अशुपिरं-निश्छिद्रं अत एव पननिचित-निर्भरभृतं यशोहश्यवलं तदिव नाराचवज्रऋषभ प्रसिद्ध्या वज्रऋषभनाराचं संहननं यत्र तं तथाविध देहं ।
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आगम
(१८)
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सूत्रांक
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अनुक्रम [ ५५ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Ebene
| धरन्तीत्येवंशीलः, झपो-मीनः १ युगं - शकटाङ्गविशेषः २ भृङ्गारो- जलभाजनविशेषः ३ वर्द्धमानकं ४ भद्रासनं ५ शङ्को-दक्षिणावर्त्तः ६ छत्रं प्रतीतं ७ व्यजनं-पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् व्यालव्यजनं अथवा 'ते लुम्बा' (श्रीसि ० अ. ३ पा. २ सू. १०८) इत्यनेन वालपदलोपः, चामरं आर्यत्यात् स्त्रीत्वं तेन व्यजनीतिनिर्देशः ८ पताका ९ चक्रं १० लाङ्गूलं ११ मुशलं १२ रथः १३ स्वस्तिकं १४ अङ्कुशः १५ चन्द्र १६ आदित्या १७ प्रयः प्रतीताः १८ यूपो यज्ञस्तम्भः ११ सागरः- समुद्रः २० इन्द्रध्वज २१ पृथ्वी २२ पद्म २३ कुञ्जराः २४ कण्ठ्याः, सिंहासनं सिंहाङ्कितं नृपासनं २५ दण्ड २६ कूर्म २७ गिरिवर २८ तुरगवर २९ मुकुट १० कुण्डलानि २१ व्यक्तानि, नन्द्यावर्त्तः - प्रतिदिग् नवकोणकः ३२ | स्वस्तिकः धनुः कुन्तौ व्यक्ती १३-१४ गागरः स्त्रीपरिधान विशेषः ३५ भवनं भवन पतिदेवावासः विमानं वैमानिक| देवावासः २६ एतेषां द्वन्द्वः, तत एतानि प्रशस्तानि - माङ्गल्यानि सुविभक्तानि - अतिशयेन विविधानि यान्यनेकानि - अधिकसहस्रप्रमाणानि लक्षणानि तैश्चित्रो - विस्मयकरः करचरणयोर्देशभागो यस्य स तथा अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् तीर्थकृतामिव चक्रिणामप्यष्टाधिकसहस्रलक्षणानि 'सिद्धान्तसिद्धानि, यदाह निशीथ चूर्णो- 'पागयमणुआणं बत्तीसं लक्खणानि असयं बलदेववासुदेवाणं अट्ठसदस्सं चक्कवद्वितित्थगराणं ति, ऊर्ध्वं मुखं भूमेरुद्गच्छतामङ्करा| णामिव येषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि लोमानि तेषां जालं समूहो यत्र स तथा अनेन च श्रीवत्साकार व्यक्तिर्दर्शिता, | अन्यथाऽधोमुखैस्तैः श्रीवत्साकारानुद्भवः स्यात्, सुकुमालस्निग्धानि-नवनीतपिण्डादिद्रव्याणि तानीव मृदुकानि आव
Fur Fraternae Cy
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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वक्षस्कारे भरतराजवर्णनं .
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या चिः
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दीप
श्रीजम्बू-18|| तै:-चिकुरसंस्थानविशेषैः प्रशस्तानि-मङ्गल्यानि दक्षिणावर्तानीत्यर्थः यानि लोमानि तैर्विरचितो यः श्रीवत्सो-महा- द्वीपशा- पुरुषाणां वक्षोऽन्तर्वी अभ्युन्नतोऽवयवस्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तेन छन्नं-आच्छादितं विपुलं वक्षो यस्य स तथा, न्तिचन्द्री
देशे-कोशलदेशादौ क्षेत्रे-तदेकदेशभूतविनीतानगऱ्यादौ सुविभक्तो-यथास्थान विनिविष्टावयवो यो देहस्तं धरतीत्ये-18
8| बंशीलः, तत्कालावच्छेदेन भरतक्षेत्रे न भरतचक्रितोऽपरः सुन्दराङ्ग इत्यर्थः, तरुणस्य-उद्गच्छतो खेये रश्मयः-किरणा॥१८३॥18|स्तैर्वोधित-विकासितं यदरकमलं-प्रधानसरोज हेमाम्बुजमित्यर्थस्तस्य विबुधो-विकस्वरो यो गर्भो-मध्यभागस्तद्वंद्वर्णः-९
18 शरीरच्छविर्यस्य स तथा, हयपोसनं-'पुस उत्सर्गे' इति धातोरनटि हयापानं तदेव कोश इब कोशः सुगुप्तत्वात् || | तत्सन्निभः प्रशस्तः पृष्ठस्य-पृष्ठभागस्यान्तः-चरमभागोऽपानं तत्र निरुपलेपो लेपरहीतपुरीषकत्वात् , पा प्रतीतं |
उत्पल-कुष्ठं कुन्दजातियूथिकाः प्रतीताः वरचम्पको-राजचम्पकः नागपुष्प-नागकेसरकुसुम सारङ्गानि-प्रधानदलानि|8 8 अथवा पदैकदेशे पदसमुदायग्रहणात् सारङ्गशब्देन सारङ्गमदः-कस्तूरी द्वन्द्वे कृते एतेषां तुल्यो गन्धः-शरीरपरिमलो 8
यस्य स तथा, तद्धितलक्षणादिप्रत्ययात् रूपसिद्धिः, षट्त्रिंशता अधिकप्रशस्तैः पार्थिवगुणयुक्तः, ते चेमे-'अव्यङ्गो १18 लक्षणापूर्णो २, रूपसम्पत्तिभृत्तनुः । अमदो ४ जगदोजस्वी५, यशस्वी ६ च कृपालुहत् ७॥१॥ कलासु कतकमो ८ च, शुद्धराजकुलोद्भवः । वृद्धानुग १० खिशक्ति ११२, प्रजारागी १२ प्रजागुरुः १३ ॥२॥ समर्थनः
विरचिता-भलतो या श्रीवत्सः जिनप्रतिमायां प्रसिद्धो वक्षोऽन्तः सुप्रमाणोचतमासलप्रदेशाविशेषसेन मं (इति ही पत्ती)
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(५५)
॥१८३॥
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आगम
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[ ५५ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Ekemon
पुमर्थानां त्रयाणां सममात्रया १४ । कोशवान् १५ सत्यसन्धश्च १६, चरदृग् १७ दूरमन्त्रदृग् १८ ॥ ३ ॥ आसिद्धि कर्मोद्योगी १९ च, प्रवीणः शस्त्र २० शास्त्रयोः २१ । निग्रहा २२ नुग्रहपरो २३, निर्लक्षं दुष्टशिष्टयोः २४ ॥४॥ उपायार्जितराज्यश्री २५र्दानशौण्डो २६ ध्रुवजयी २७ । न्यायप्रियो २८ न्यायवेत्ता २९, व्यसनानां व्यपासकः ३० ॥ ५ ॥ अवार्यवीयों ३१ गाम्भीर्यो १२ दार्य ३३ चातुर्यभूषितः - ३४ । प्रणामावधिकक्रोध ३५ स्तात्त्विकः सात्त्विको नृपः ३६ ॥ ६ ॥ एते पाठसिद्धार्थाः, नवरमौदार्य - दाक्षिण्यं तेनं दानशौण्डतागुणांदस्य भेदः, यद्यप्येतेपामेव मध्यवर्त्तिनः केचन गुणाः सूत्रकृता साक्षात् पूर्वसूत्रे उक्ता उत्तरसूत्रे च वक्ष्यन्ते तथापि षट्त्रिंशत्संख्यामेलनार्थमत्र ते उक्ता इति न दोषः, उपलक्षणाश्च मानोन्मानादिवृद्धिकृश्व भक्तवत्सलत्वादयोऽन्येऽपि उक्तातिरिक्ता ग्राह्या इति, अव्यवच्छिन्नं- अखण्डितमातपत्रं छत्रं यस्य स तथा एतेन पितृपितामहक्रमागतराज्यभो तेति सूचितं, अथवा | संयमकालादर्वाग् न केनापि बलीयसा रिपुणा तस्य प्रभुत्वमाच्छिनमिति, प्रकटे विशदावदाततया जगत्प्रतीते उभय| योन्यो- मातृपितृरूपे यस्य स तथा, अत एव विशुद्धं निष्कलङ्कं यन्निजककुलं तदेव गगनं तन्त्र पूर्णचन्द्रः- चन्द्र इव सोमख्या- मृदुस्वभावेन नयनमनसोर्निर्वृतिकरः आल्हादक इत्यर्थः, अक्षोभो - भयरहितः सागरः - प्रस्तावात् क्षीरसमु | द्रादिः स इव स्तिमितः- स्थिरश्चिन्ताकलोलवर्जितो न पुनर्वेलावसरवर्द्धिष्णुकल्लोललवणोद इवास्थिरस्वभाव इत्यर्थः, धनपतिरिव-कुबेर इंव भोगस्वं समुदयः सम्यगुदयस्तेन सह सद्-विद्यमानं द्रव्यं यस्य स भोगसमुदयस द्रव्यस्तस्य
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[४२]
श्रीजम्यू- भावस्तत्ता तया, भोगोपयोगिभोगाङ्गसमृद्ध इत्यर्थः, समरे-संग्रामे अपराजितो-भङ्गमप्राप्तः परमविक्रमगुणः व्यक्त.१३वक्षस्कारे द्वीपशा-1| अमरपतेः समान सदृशमत्यर्थतुल्यं रूपं यस्य स तथा मनुजपति:-नरपतिर्भरतचक्रवत्ती उत्पद्यते इति त प्राग्यो-181.चक्रोत्स्न्तिचन्द्री-18|जितमेव, अथोत्पन्नः सन् किं कुरुते इत्याह--'भरहे'त्यादि, अनन्तरसूत्रे एव दर्शितस्वरूपो भरतचक्रवती भरतं 81
चितत्पूजोया वृत्तिः
त्सवाःस. भुले-शास्तीति, प्रनष्टशत्रुरिति व्यक्त, अत इदं भरतक्षेत्रमुच्यते इति निगमनमने वक्ष्यते । अथ प्रस्तुतभरतस्य | ॥१८॥
दिग्विजयादिवतव्यतामाह-- वए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ आउहघरसालाए दिवे चकरयणे समुष्पज्जित्था, तए णं से आजपरिए भरहस्स रण्णो आउधरसालाए दिवं चारवणं समुप्पण्णं पासह पासित्ता हतुह चित्तमाणदिए नंदिप पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहिभए जेणामेव दिवे चकारयणे तेणामेव उवागच्छइ २त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपवाहिणं करेइ २ चा करयल जाव कट्ट चक्करयणस्स पणामं करेइ २ ता आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणामेव बाहिरिमा उबढाणसाला जेणामेव भरहे राया तेणामेव पवागच्छह २ ता करयल जाव जएणं विजएणं वद्धावेह २ एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिआणं आउधरसालाए विखे चकरयणे समुप्पणे सं पअण्णं वेवाणुप्पिआणं पिअट्टयाए पिनं णिवएमो पि भे भवर, तते णं से भरहे राया तस्स भाउहपरिभस्म अंतिए एनम सोचा णिसम्म हह जान सोमणस्सिए विअसिअवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुसिभ
R ॥१८॥ केकरमउडकुंडलहारविरायंतराअवच्छे पालंचपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरि पवलं गरिदे सीहासणाओ अब्भुढेह २ चा पायपीटामो पयोहा २ चा पाउभाओ ओमुभइ २ चा पगसाद्धिों उत्तरासंगं करेश २ चा अंजलिमलिअम्गहस्ये चकारयणा
अनुक्रम
[५]
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अथ भरतस्य दिग्विजय-आदि वक्तव्यता--
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
भिमुहे सत्तद्वषयाई अणुगच्छइ २ ता वामं जाणुं अंचेइ २ ता वाहिणं जाणु धरणितलंसि णिहद्द करपलजावभंजलि कह चारयणस्स पणाम करेइ २ ता तस्स आउहपरिजस्स अहामालि मउडवबं ओमोरं बलद २ चा विउलं जीविभारिहं पीश्याण दह रत्ता सकाइ सम्माणेद २ सा पडिषिसइ २ सा सीहासणवरगए पुरत्याभिमुंहे सण्णिसण्णे । सए से भरहे राया को९विअपुरिसे सद्दावेइ २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा! विणीअं रायहाणि सभितरबाहिरिभ आसिमसमजिभसित्तसुगरत्थंतरचीहि मंचाइमंचकलिअं णाणाविहरागवसणऊसिअझयपडागाइपडागमंडिअं लाउल्लोइअमहिलं गोसीससरसरक्षचंदणकलसं चंदणघड्कयजावगंधुभाभिरामं सुगंधवरगंधिों गंधवटिभूअं करेह कारखेह करेत्ता कारवेत्ता य एभमाणसिक पञ्चप्पिणछ । तए णं ते कोडंविअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता इह० करयल जाव एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं परिणति २त्ता भरहस्स अंतिमो पडिणिक्खमंति २ ता विणीभं रायहाणि जाव करेचा कारवेत्ता य तमाणत्ति पञ्चप्पिणंति । तए यं से भरहे राया जेणेव मजणघरे तेणेव उबागच्छह २ चा मज्जणघर अणुपविसइ २ ता समुत्तजालाकुलाभिरासे विचित्तमणिरयणकुद्धिमतले रमणिजे ण्हाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तसि पहाणपीढ़सि मुद्दणिसपणे सुहोदएहि गंधोदपहिं पुष्फोदएहि सुद्धोदएहि अ पुणे कलाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं कल्याणगपवरमजणावसाणे पम्हसुकुमालगंधकासाइमलद्विअंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगचे अयसुमहग्जदूसरयणमुसंवडे सुश्मालावण्णयविलेवणे आविवमणिसुवण्णे कपिमहारहारतिसरिअपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेबिज्वगअंगुलिजगललिअगयललिअफयाभरणे गाण्णमणिकहगतुडिअर्थमिभभूए अहिअसस्सिरीए कुंबळ उज्जोइआणणे मनवित्तसिरए हारोत्ययमुकयवच्छे पालंबपलंचमाणसुकयंपड उत्तरिजे मुदिापिंगलं
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दीप
अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------- --------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [४३]
द्वीपश्चान्तिचन्द्रीया चिः I૮
३वक्षस्कारे चक्रोत्यत्तितत्पूजोत्सवः स. ४३
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गलीए जाणामणिकणगविमलमहरिहणिउणोअविभमिसिमिर्सितविरइअसुसिलिडविसिट्टलहसंठिअपसत्थआविद्धवीरवलए, कि बहुणा!, कप्परुक्सए व अलंकिअविभूसिए णरिये सकोरंट जाव चउचामरवालबीइअंगे मंगलजयजयसदकयालोए अणेगगणणायगदंडणायगजावदूअसंधिवाल सद्धिं संपरिवुढे धवलमहामेहणिग्गए इव जाव ससित पियदसणे गरवई धूवपुष्फगंधमलहत्वगए मजणघरामो परिणिक्खमइ र त्ता जेणेव आउधरसाला जेणेव चक्करयणे तेणामेव पहारेत्य गमणाए । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहवे ईसरपभिइओ अप्पेगइआ पउमहत्त्वगया अप्पेगइया उप्पलहत्थगया जाव अप्पेगइआ सयसहस्सपत्तहस्थगया भरहं रायाण पिडओ २ अणुगछति । तए णं तस्स मरहस्स रण्णो वहूईओ-बुजा चिलाइ वामणिवडभीओ बब्बरी बउसिआओ। जोणिअपल्हविआओ इसिणिअथारुकिणिआओ ॥१॥ लासिअलउसिअदमिलीसिंहलि तह आरचीपुलिंदी अ । पकणि बहलि मुरुंडी सबरीओ पारसीओ अ॥२॥ अप्पेगइया वंदणकलसहत्यगयाओ चंगेरीपुष्फपडलहत्यगयाओ भिंगारआईसथालपातिमुपइहगवायकरगरयणकरंडपुष्पचंगेरीमहवण्णचुण्णगंधहत्यगयाओ वत्याभरणलोमहत्थयचंगेरीपुष्फपडलहत्थगयाओ जाव लोमहत्वगयाओ अप्पेगहभाभो सीहासणहत्यगयाओ छत्तचामरहत्थगयाओ तिल्लसमुग्णयहत्थगयाओ-'तेल्ले कोट्ठसमुम्गे पत्ते चोए म सगरमेला य। हरिआले हिंगुलए मणोसिला सासवसमुग्गे ॥ १ ॥ अप्पेगइआओ तालिअंटहत्यगयाओ अप्पे० धूवकडुच्छुभहत्थगयाओ भरएं रायाणं पिडभो २ अणुगच्छंति, नए णं से भरहे राया सचिड्डीए सबजुइए सबबलेणं सबसमुदयेणं सपायरेणं समविभूसाए सबविभूईए सववस्थपुष्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सवतुडिअसहसणिणारणं महया इडीए जाब महया वरतुभिजमगसमगपवाइएणं संखपणबपडहभेरिशहरिखरमुहिमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसणाइएणं जेणेव आउद्दघरसाला सेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता
गाथा:
दीप
अनुक्रम [५६-६०
॥१८॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
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गाथा:
आलोए चारयणस्स पणामं करेइ २ ता जेणेव चक्करयणे तेणेव उवागच्छइ२ चा लोमहत्वयं परामुसहर ता चकरयणं पमना २ त्ता दिवाए उद्गधाराए अभुक्खेइ २ ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ २ ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहि अ अक्षिणइ पुष्फारुहर्ण मल्लगंधवण्णचुण्णवत्थारुहणं आभरणारुहर्ण करेइ २ चा अच्छेदि सहेहि सेएहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहि चक्करयणस्स पुरओ अमंगलए आलिहह तं०-सोस्थिय सिरिवच्छ णंदिआवत्त वद्धमाणग भद्दासण मच्छ कलस दप्पण अट्ठमंगलए आलिहित्ता काऊणं करेइ उवयारंति, किं ते !, पाडलमल्लिअचंपगअसोगपुण्णागचूअमंजरिणवमालिअबकुलतिलगकणवीरकुंदकोजयकोरंटवपत्तदमणयवरसुरहिसुगंधगंधिअस्स कयग्गगहिअकरयलप-भट्ठविप्पमुकास्स दसवण्णस्स कुसुमणिगरस्स तत्य चित्तं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करेत्ता चंदप्पभवइरवेरुलिअविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवहि विणिम्मुअंतं वेरुलिअमयं कडुच्छुभं पग्गहेत्तु पयतें धूर्व वहइ २ ता सत्तट्ठपयाई मशोसकाइ २ त्ता वामं जाणुं अंचेइ जाव पणामं करेइ २ चा आउघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ मित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेब सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सष्णिसीअइ २ चा अट्ठारस सेणिपसेणीओ सद्दावेइ २ ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पि! उत्सुफ उफर उकिटु अदिजं अमिजं अभडप्पस अदंडकोदंटिमं अधरिमं गणिआवरणाडइज्जकलिअं अणेगतालायराणुचरिअं अणु अमुइंगं अमिलायमझदाम पमुइअपकीलिअसपुरजणजाणवयं विजयकेजइ चकरयणस्स अट्टाहिअं महामहिमं करेह २ ता ममेअमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चप्पिणह, तए णं वाओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वुत्ताओ
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अनुक्रम [५६-६०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------- --------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
श्रीजम्बू- समाणीओ हट्ठाओ जाब विणएणं परिसुणेति २ चा भरहस्स रणो अंतिभाओ पद्धिणिक्लमेन्ति २ ता उस्सुकं एकरं जाव। 1३वक्षस्कारे द्वीपशा- करेंति अ कारवेंति अ२ त्ता जेणेब भरहे राया तेणेव उवागच्छति २ ता जाव तमाणत्तिों पचप्पिणति (सूत्र ४३)
चक्रोपन्तिचन्द्री'तए णमित्यादि, ततो-माण्डलिकत्वप्राप्तेरनन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञोऽन्यदा कदाचित् माण्डलिकत्वं भुञ्जानस्य
तितत्पूजोया वृत्तिः
18त्सवाः . वर्षसहने गते इत्यर्थः, आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररत्नं समुदपद्यत, 'तए पं से इत्यादि, ततः-चकरलोत्पत्तेरनन्तरं । ४३ ॥१८६॥ स:-आयुधगृहिको यो भरतेन राज्ञा आयुधाध्यक्षः कृतोऽस्तीति गम्यं भरतस्य राज्ञः आयुधगृहशालायां दिव्यं चकर
समुत्पन्नं पश्यति, दृष्ट्वा च हृष्टतुष्टं-अत्यर्थ तुष्टं दृष्टं वा-अहो मया इदमपूर्व दृष्टमिति विस्मितं तुष्ट-सुष्ठु जात | यन्मयैव प्रथममिदमपूर्व दृष्टं यनिवेदनेन स्वस्वामी प्रीतिपात्रं करिष्यति इति सन्तोषमापनं चित्तं यत्र तद् यथा
भवति तथा आनन्दित:-प्रमोदं माप्तः यद्वा हृष्टतुष्टः-अतीव तुष्टः तथा चितेन आनन्दितः मकार। माकृतत्वात् |अलाक्षणिकः ततः कर्मधारयः नन्दितो-मुखसोमतादिभावैः समृद्धिमुपागतः प्रीति:-प्रीणनं मनसि यस्य स तथा चक्ररले बहुमानपरायण इत्यर्थः परमं सौमनस्यं-सौमनस्कत्वं जातमस्येति परमसौमनस्थितः, एतदेव व्यनक्ति-हर्षव-18 शेन विसर्पद्-उल्लसद् हृदयं यस्य स तथा, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वान्तानि विशेषणानि पुनरुक्ततया दुष्टानि, यतः
॥१८६॥ 'वक्ता हर्षेति [वक्ता हर्पभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवन तथा निन्दन् । यत् पदमसकृत् ब्रूयात् तत् पुनरुक्तं न दोषाय K॥१॥] यत्रैव तदिव्यं चक्ररतं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च त्रिकृत्व-त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिण-दक्षिणहस्ता
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम
(१८)
ཙྪཱ + ཛ སྶ
[५६-६०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [४३] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
दारभ्य प्रदक्षिणं करोति, त्रिः प्रदक्षिणयतीत्यर्थः, तथा कृत्वा च 'करतल'ति अत्र यावत्पदात् 'करयल परिग्गहिअं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलि'ति, अत्र व्याख्या करतलाभ्यां परिगृहीतः - आत्तस्तं दश करद्वयसम्बन्धिनो नखाः समुदिता यत्र तं शिरसि मस्तके आवर्त्तः- आवर्त्तनं प्रादक्षिण्येन परिभ्रमणं यस्य तं शिरसाऽप्राप्तमित्यन्ये मस्तके अञ्जलिं - मुकुलितकमलाकारकरद्वयरूपं कृत्वा चक्ररलस्य प्रणामं करोति, कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति- निर्याति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाहिरिका - आभ्यन्तरिकापेक्षया वाह्या उपस्थानशाला- आस्थानमण्डपो यंत्रेव च भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च 'करतल जाव'ति पूर्ववत् जयेन - परानभिभवनीयत्वरूपेण विजयेन परेषामसहमानानामभिभावकत्वरूपेण वर्द्धयति-जयंविजयाभ्यां त्वं वर्द्धयस्वेत्याशिषं प्रयुङ्क्ते वर्द्धयित्वा चैवमवादीत् किं तदित्याह'एवं खलु' इत्यादि, इत्थमेव यदुच्यते मया, न च विपर्ययादिना यदन्यथा भवति, यद्देवानुप्रियाणां - राजपादानां आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररनं समुत्पन्नं तदेव तत् णमिति प्राग्वत् देवानुप्रियाणां प्रियार्थतायै प्रीत्यर्थं प्रियं इष्टं निवे| दयामः 'एतत्' प्रियनिवेदनं प्रियं 'मे' भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह- 'तते ण' मित्यादि, ततः स भरतो राजा तस्यायुधगृहि कंस्य समीपे एनमर्थं श्रुत्वा आकर्ण्य कर्णाभ्यां निशम्य अवधार्य हृदयेन तुष्टो यावत्सौमनस्थितः प्राग्वत्, प्रमोदातिरेकाद्ये ये भावा भरतस्य संवृत्तास्तान् विशेषणद्वारेणाह -- विकसित कमलवन्नयनवदने यस्य स तथा प्रचलितानि-चक्ररलोत्पत्तिश्रवणजनितसम्भ्रमा तिरेकात् कम्पितानि वरकटके प्रधानवलये त्रुटि के बाहरक्षको
१ जयः सामान्यत उपवादिविषयः विजयः स एव विशिष्टतरः परममुद्भवः (इवि ही वृती)
श्रीजम्ब. ३२ ५।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
श्रीजम्बू- केयूरे-बाहोरेव भूषणविशेषी मुकुटं कुण्डले च यस्य स तथा, सिंहावलोकनन्यायेन प्रचलितशब्दो ग्राह्यः तेन प्रच-18 वक्षस्कारे SHAR|लितहारेण विराजद्रतिदं च पक्षो यस्य स तथा, पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्रलम्बमानः सम्भ्रमादेव पालम्बो- चक्रोत्प न्तिचन्द्रीमाझुम्बनकं यस्य स तथा, घोलद्-दोलायमानं भूषणं-उकातिरिक्तं धरति यः स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयःचितत्पूजा[अत्र पदविपर्यय अर्थत्वात् , ससम्नम-सादरं त्वरितं-मानसौत्सुक्यं यथा स्यात्तथा चपलं कायौत्सुक्यं यथा स्यात् ।
A सवाःसू. ॥१८॥ तथा नरेन्द्रो-भरतः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय च पादपीठात्-पदासनात् प्रत्यवरोहति-अवतरति प्रत्यव-18
| रुह्य च-अवतीर्य पादुके-पादत्राणे अवमुश्चति भक्त्यतिशयात् अवमुच्य च एकः शाटो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः अखण्डशाटकमय इत्यर्थः एतादृशमुत्तरासङ्गो-वक्षसि तियेग्विस्तारितवनविशेषस्तं करोति कृत्वा च अञ्ज-101 लिना मुकुलितौ-कुइमलाकारीकृतावग्रहस्तौ-हस्ताग्रभागी येन स तथा, चक्ररत्नाभिमुखः सप्त वा अष्टौ वा पदानि, अनूपसर्गस्य सन्निधिवाचकत्यादनुगच्छसि-आसन्नो भवति, दृष्टश्चानुशब्दप्रयोगः सन्निधौ, यथा 'अनुनदि शुश्रुविरे चिरं रुतानि' इति, पदानां सङ्ख्याषिकल्पदर्शनमेतादृशभाषाव्यवहारस्य लोके दृश्यमानत्वात् , अनुगल्य च वार्म जानु |
॥१८७॥ आकुश्चयति-उर्व करोतीत्यर्थः, दक्षिणं जानुं धरणीतले निहत्य-निवेश्य 'करतले'त्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् अञ्जलिं कृत्वा चकरलस्य प्रणाम करोति, कृत्वा च तस्यायुधगृहिकस्य 'यधामालित' यथाधारितं यथापरिहितमित्यर्थः, इदं च विशेषणं दानरसातिशयादानं निर्विलम्वेन देयमिति ख्यापनार्थ, यदाह-सव्यपाणिगतमप्यपसव्यप्रापणावधि न
दीप
अनुक्रम [५६-६०
enecene
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
देयविलम्बः । न ध्रुवत्वनियमः किल लक्ष्म्यास्तद्विलम्बन विधौ न विवेकः ॥१॥ अविलम्बितदानगुणात् समुज्ज्वलं मानवो
यशो लभते । प्रथम प्रकाशदानाद्विशदः पक्षोऽपरः कृष्णः ॥२॥" अवमुच्यते-परिधीयते यस्सोऽवमोचकः-आभरणं, । मुकुटवर्ज-मुकुटमन्तरेणेत्यर्थः, अत्र 'उत्तोऽन्मुकुलादिष्वि' (श्रीसिद्ध-अ.८ पा.१सू.१०७) त्युकारस्याकारः तस्य राजचिइन्हालङ्कारत्वेनादेयत्वात्, न कार्पण्यादिना न ददातीति, एतेनान्यमनुष्याणां मौलिवेष्टनस्य राजचिन्हत्वमभ्युपग-1
च्छन्तो ये केचन जिनगृहाच भिगमविधी मौलिवेष्टनमपाकुर्वन्ति ते अशुभदर्शनत्वादपशकुनमितीवाभ्युपगच्छता आगमोक्कविध्यनुष्ठानजन्यफलेन दूरतो मुक्ता इति बोध्यं, दत्त्वा चान्यत् किं करोतीत्याह-विपुलं जीविताई-आजीवि- कायोग्यं प्रीतिदानं ददाति, सत्कारयति वस्त्रादिना सन्मानयति वचनबहुमानेन, सत्कृत्य सन्मान्य च प्रतिविसर्जय
ति-स्वस्थानगमनतो ज्ञापयति, प्रतिविसर्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्ण:-उपविष्ट इति । अव भरतो IS| यत्कृतवान् तदाह-'तए ण'मित्यादि, निगदसिद्धं, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव'त्ति, क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया |
विनीता राजधानी सहाभ्यन्तरेण-नगरमध्यभागेन बाहिरिका-नगरबहिर्भागो यत्र तत्वथा, क्रियाविशेषणं, आसिक्ता| ईपत्सिका गन्धोदकच्छटकदानात् सम्मार्जिता-कचवरशोधनात् सिक्का जलेनात एव शुचिका संमृष्टा-विषमभूमिभञ्जना रथ्या-राजमार्गोऽन्तरवीथीच-अवान्तरमार्गों यस्यां सा तथा, इदं च विशेषणं योजनाया विचित्रत्वात् सम्मृष्टसम्मार्जितसिक्कासितशुचिकरथ्यान्तरवीथिकामित्येवं दृश्यं सम्मृष्टाद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, मंचा-माल
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
बीज काः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्तं अतिमञ्चा:-तेषामप्युपरि ये तैः कलिता ता नानाविधो रागो-रञ्जनं येषु तानि । द्वीपशा-18| कौसुम्भमाञ्जिष्टादिरूपाणि वसनानि-वस्त्राणि येषु तादृशा ये ऊर्वीकृता-उच्छ्रिता ध्वजाः-सिंहगरुडादिरूपकोपल- चक्रोप
क्षिता बृहत्परूपाः पताकाश्च-तदितररूपा अतिपताका:-तदुपरिवर्तिन्यस्ताभिर्मण्डिता, अत्र च 'लाउल्लोइय'इत्या-चितत्पूजोया वृत्तिः
दिको 'गंधवट्टिभु'मित्यन्तो विनीतासमारचनवर्णकः प्रागभियोग्यदेवभवनवर्णके व्याख्यात इति न व्याख्यायते, त्सवास. ॥१८॥| ईदृशविशेषणविशिष्टां कुरुत स्वयं कारयत परैः कृत्वा कारयित्वा च एतामाज्ञप्ति-आज्ञा प्रत्यर्पयत, ततस्ते किं कुर्व
न्तीत्याह-'तए णमित्यादि, ततो-भरताज्ञानन्तरं कौटुम्बिका:-अधिकारिणः पुरुषाः भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हृष्टाः करतले त्यारभ्य यावत्पदग्राह्यं पूर्ववत्, एवं स्वामिन् ! यथाऽऽयुष्मत्पादा आदिशन्ति तथेत्यर्थः, इति कृत्वा-इति ॥ प्रतिवचनेनेत्यर्थः, आज्ञायाः-स्वामिशासनस्योक्तलक्षणेन नियमेन, अत्र च 'आणाए विणएण'मिति एकदेशग्रहणेन | पूर्णोऽभ्युपगमालापको ग्राह्यः, अंशेनांशी गृह्यते, इति 'वयणं पडिसुणंति'ति वचनं प्रतिशृण्वन्ति अङ्गीकुर्वन्तीति, ततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह-पडिसुणित्ता' इत्यादि, प्रतिश्रुत्य तस्यान्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति प्रतिनिष्क्रम्य च विनीतां राजधानी यावत्पदेनानन्तरोक्तसकलविशेषणविशिष्टां कृत्वा कारयित्वा च तामाज्ञप्तिं भरतस्य प्रत्यर्पयन्ति । अथ|Smraan भरतः किं चके इत्याह-तए णं से भरहे'इत्यादि, ततः स भरतो राजा यत्रैव मजनघरं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य | च मज्जनगृहं अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य च समुक्तन-मुक्ताफलयुतेन जालेन-गवाक्षेणाकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्च यस्त-18
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------- ....................-------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
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गाथा:
मिन् , विचित्रमणिरत्नमयकुट्टिमतलं-बद्धभूमिका यत्र स तथा तस्मिन् , अत एव समभूमिकत्वात् रमणीये स्नानमण्डपे, नानाप्रकाराणां मणीनां रक्षानां च भक्तयो-यथौचित्येन रचनास्ताभिर्विचित्रैः स्नानपीठे-मानयोग्ये आसने
सुखेन निषण्ण:-उपविष्टस्सन् शुभोदकैः-तीर्थोदकैः सुखोदकैर्वा नात्युष्णैर्नातिशीतैरित्यर्थः गन्धोदकैः-चन्दनादिरसII मिश्रः पुष्पोदकैः-कुसुमवासितैः शुद्धोदकैश्च-स्वाभाविकैस्तीर्थान्यजलाशयै(यजलै)रित्यर्थः, 'मजिए'त्ति उत्तरसूत्र
स्थपदेन सह सम्बन्धः, एतेन कान्तिजननश्रमज(ह)ननादिगुणार्थ मजनमुक्तं, अथारिष्ठविधातार्थमाह-पुनः कल्याण-12 | कारिप्रवरमज्जनस्य-विरुद्धग्रहपीडानिवृत्त्यर्थकविहितोषध्यादिस्नानस्य विधिना 'टुमस्जीत् शुद्धौ' इत्यस्य शुरुषर्थकत्वेन स्नानार्थकत्वान्मज्जित:-स्त्रपितोऽन्तःपुरवृद्धाभिरिति गम्य, कर्मजित इत्याह-तत्र-मानावसरे कौतुकानां-रक्षादीनां शतैर्यद्वा कौतूहलिकजनैः स्वसेवासम्यक्मयोगार्थ दर्श्यमानैः कौतुकशतैः-भाण्डचेष्टादि कुतूहलैबहुविधैं:-अनेकप्रकारः, | अत्र करणे तृतीयेति, अथ स्नानोत्तरविधिमाह-'कल्लाणग इत्यादि, कल्याणकप्रवरमज्जनावसाने स्नानानन्तरमित्यर्थः पक्ष्मलया-पक्ष्मवत्या अत एव सुकुमालया गन्धप्रधानया कषायेण-पीतरक्तवर्णाश्रयरञ्जनीयवस्तुना रक्ता कापायिकी || | तया कषायरकया शाटिकयेत्यर्थः रूक्षितं-निर्लेपतामापादितं अङ्गं यस्य स तथा, सरससुरभिगोशीर्षचन्दनानुलिसगात्रः, अहतं-मलमूपिकादिभिरनुपद्रुतं प्रत्ययमित्यर्थः सुमहाघ-बहुमूल्यं यद्दप्यरनं-प्रधानवस्त्रं तत्सुसंवृत-सुष्टु परिहितं येन स तथा, अनेनादौ घस्त्रालङ्कार उक्तः, अत्र च वस्त्रसूत्रं पूर्व योजनीयं चन्दनसूत्रं पश्चात् , क्रमप्राधा
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम
(१८)
ལྦ + ཚིལླཱ ཡྻ
[५६-६०]
वक्षस्कार [3],
मूलं [४३] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥ १८९ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Fike mitin
न्याव्याख्यानस्य, न हि स्नानोत्थित एव चन्दनेन वपुर्विलिम्पतीति विधिक्रमः शुचिनी - पवित्रे मालावर्णकविलेपनेपुष्पस्रग्मण्डनका रिकुंकुमादिविलेपने यस्य स तथा अनेन पुष्पालङ्कारमाह, अधस्तनसूत्रे वपुः सौगन्ध्यार्थमेव विलेपनमभिहितं अत्र तु वपुर्मण्डनायेति विशेषः, आविद्धानि - परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा एतेनास्य रजतरीरी - मयाद्यलङ्कारनिषेधः सूचितः, मणिस्वर्णालङ्कारानेव विशेषत आह- कल्पितो - यथास्थानं विन्यस्तो हारः- अष्टादशसरिकोऽर्द्धहारो-नवसरिक स्त्रिसरिकं च प्रतीतं येन स तथा प्रलम्बमानः प्रालम्बो झुम्बनकं यस्य स तथा, सूत्रे च पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, कटिसूत्रेण-कव्याभरणेन सुष्ठु कृता शोभा यस्य स तथा अत्र पदत्रयस्य कर्मधारयः अथवा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा पिनद्धानि - बद्धानि वैवेयकाणि-कण्ठाभरणानि अङ्गुलीयकानिअङ्गुल्याभरणानि येन स तथा अनेनाभरणालङ्कार उक्तः, तथा ललिते - सुकुमालेऽङ्गके - मूर्द्धादौ ललितानि - शोभा वन्ति कचानां - केशानां आभरणानि - पुष्पादीनि यस्य स तथा अनेन केशालङ्कार उक्तः, अथ सिंहावलोकन न्यायेन पुनरप्याभरणालङ्कारं वर्णयज्ञाहनानामणीनां कटक त्रुटिकैः- हस्त बाह्राभरणविशेषैर्वहुत्वात् स्तम्भिताचिव सम्भित भुजौ यस्य स तथा अधिकसश्रीक इति स्पष्टं, कुण्डलाभ्यामुद्योतितं आननं मुखं यस्य स तथा मुकुटदीत शिर स्कः स्पष्टं, हारेणावस्तृतं - आच्छादितं तेनैव हेतुना प्रेक्षकजनानां सुकृतरतिकं वक्षो यस्य स तथा, प्रलम्बेन दीर्घेण प्रलम्बमानेन- दोलायमानेन सुकृतेन-मुटु निर्मितेन पटेन-वस्त्रेण उत्तरीयं- उत्तरासङ्गो यस्य स तथा प्राकृतत्वात् पूर्वपदस्य
Fur Prate&P Cy
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वक्षस्कारे चकोत्प
चितत्पूजो
त्सवाः सू.
४३
॥ १८९ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
दीर्घत्वं, मुद्रिकाभिः-साक्षराङ्गुलीयकैः पिङ्गला अङ्गल्यो यस्य स तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कः प्रत्ययः, नानामणिमयं | 18| विमलं महाघ-बहुमूल्यं निपुणेन शिल्पिना 'ओअवित्ति परिकर्मित 'मिसिमिसेंत'त्ति दीप्यमानं विरचितं-18
निम्मितं मुश्लिष्ट-सुसन्धि विशिष्ट-अन्येभ्यो विशेषवत् लष्टं-मनोहरं संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्, पश्चात् पूर्वपदैः कर्मधारयः, एवंविधं प्रशस्त आविर्द्ध-परिहितं वीरवलयं येन स तथा, अन्योऽपि यः(दि)कश्चिद्वीरव्रतधारी तदाऽसौ ||
मां विजित्य मोचयत्वेतद्वलयमिति स्पर्धयन् (यत् परिदधाति तद्वीरवलयमित्युच्यते, किंबहुना ? वर्णितेनेति शेषः,18 18'कप्परुक्खए चेव'त्ति अत्र चेवशब्द इवार्थे तेन कल्पवृक्षक इवालङ्कृतो विभूषितश्च, तत्रालङ्कृतो दलादिभिर्विभूषितः
फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलतो विभूषितस्तु वस्त्रादिभिरिति, नरेन्द्रः 'सकोरंट जाव'त्ति अत्र यावत्करणात् 'सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेण धरिजमाणेण'मिति ग्राह्य, तत्र सकोरण्टानि-कोरण्टाभिधानकुसुमस्तबकवन्ति, कोरण्टपुष्पाणि हि पीतवर्णानि मालान्ते शोभायं दीयन्ते, मालायै हितानि माल्यानि-पुष्पाणीत्यर्थः,18 | तेषां दामानि-माला यत्र तत्तथा, एवं विधेन छत्रेण प्रियमाणेन शिरसि, विराजमान इति गम्यं, चतुर्णा-अप्रतः पृष्ठतः | पार्श्वयोश्च वीज्यमानत्वाच्चतुःसङ्ख्याङ्कानां चामराणां वालवींजितमहं यस्येति, मङ्गलभूतो जयशब्दो जनेन कृत8 आलोके-दर्शने यस्य स तथा, अनेके गणनायका-मल्लादिगणमुख्याः दण्डनायका:-तन्त्रपालाः यावत्पदात् 'सरत-181 लवरमाडंबिअकोटुंबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअअमञ्चचेडपीढमद्दणगरणिगमसेडिसेणावइसत्थवाह' इति द्रष्टव्यं,
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------ ------------------------------- मूलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यु
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
18 अत्र व्याख्या-तत्र राजानो-माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानो मतान्तरेण आणमाद्यैश्वर्ययुक्ताः तलवरा:-परितुष्टनृ- श्वक्षस्कारे द्वीपशा
पदत्तपट्टबन्धविभूपिता राजस्थानीयाः माडम्बिका-छिन्नमडम्बाधिपाः कौदम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः||चक्रोपन्तिचन्द्री-18 मन्त्रिणः-प्रतीताः महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः गणका-गणितज्ञा भाण्डागारिका वा दौवारिका:-प्रतीहाराःतितपूजाया धृतिः
|त्सवाः सू. अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेटाः-पादमूलिका दासा वा पीठमा-आस्थाने आसन्नासन्नसेवकाः वयस्या इत्यर्थः181
१३ ॥१९॥ वेश्याचार्या वा नगरं-तास्थ्यात्तद्यपदेशेन नगरनिवासिप्रकृतयः निगमा:-कारणिका वणिजो वा श्रेष्ठिन:-श्रीदेवता-18
ध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गाः अथवा नगराणां निगमानां च-वणिग्वासानां श्रेष्ठिनो-महत्तराः सेनापतयः-चतु-18 | रङ्गसैन्यनायकाः सार्थवाहाः-सार्थनायकाः दूता अन्येषां राज्यं गत्वा राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला-राज्यसन्धिर-18 |क्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, अत्र तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह न केवलं तत्सहितत्वमेव अपि तु तैः समिति समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मजनगृहात् प्रतिनिष्कामतीति सम्बन्धः, किम्भूतः ?-प्रियदर्शनः, क इव || धवलमहामेघः-शरन्मेघस्तस्मानिर्गत इव, अत्र यावत्पदात् 'गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मण्झे इति संग्रहः, तेन 8 शक्षिपदाग्रस्थ इवशब्दो प्रहगणेति विशेषणेन योज्यः, ततोऽयमर्थः सम्पन्न उपमानिर्वाहाय-यथा चन्द्रः धारदन-18||१९॥
पटलनिर्गत इव प्रहगणानां दीप्यमानऋक्षाणां-शोभमाननक्षत्राणां तारागणस्य च मध्ये वर्तमान इव प्रियदर्शनो भवति ||
। तथा भरतोऽपि सुधाधवलान्मजनगृहान्निर्गतोऽनेकगणनायकादिपरिवारमध्ये वर्तमानः प्रियदर्शनोऽभवत्, पुनः I Sanile
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
+
1 कीटशो नृपतिः प्रतिनिष्कामतीत्याह--धूपपुष्पगन्धमाल्यानि पूजोपकरणानि हस्तगतानि यस्य स तथा, तत्र धूपो
| दशाङ्गादिः पुष्पाणि-प्रकीर्णककुसुमानि गन्धा-वासाः माल्यानि-प्रथितपुष्पाणीति, प्रतिनिष्क्रम्य च किं कृतवानि
| त्याह-'जेणेव' इत्यादि, यत्रैवायुधगृहशाला यत्रैव च चक्ररतं तत्रैव प्रधारितवान् गमनाय गन्तुं प्रावर्त्तत इत्यर्थः । IS| अथ भरतगमनानन्तरं यथा तदनुचराश्चक्रुस्तथाऽऽह-तए ण'मित्यादि, ततो-भरतागमनादनु तस्य भरतस्य राज्ञो
बहव ईश्वरप्रभृतयः यावत्पदसंग्राह्यास्तलवरप्रभृतयः पूर्ववत् अपि ढाथै एके केचन पद्महस्तगताः एके केचन उत्पलहस्तगताः, एवं सर्वाण्यपि विशेषणानि वाच्यानि, यावत्पदात् 'अप्पेगइआ कुमुअहत्थगया अप्पेगइया नलिणहत्धगया अप्पेगइया सोगन्धिअहत्थगया अप्पेगइया पुंडरीयहत्थगया अप्पेगइआ सहस्सपत्तहत्थगया' इति संग्रहः, अत्र व्याख्या प्राग्वत् , नवरं भरतं राजानं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, पृष्ठे २ परिपाट्या चलन्तीत्यर्थः, सर्वेषामपि सामन्तानामेकैव वैनयिकी गतिरिति ख्यापनार्थ चीप्सायां द्विर्वचनं, न केवलं सामन्तनृपा एव भरतमनुजग्मुः, किन्तु किङ्करीजनोऽपी|| त्याह-'तए ण'मित्यादि, ततः सामन्तनृपानुगमनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सम्बन्धिन्यो बहयो दास्यो भरत
राजानं पृष्ठतोऽनुगच्छन्तीति सम्बन्धः, कास्ता इत्याह-कुब्जा:-कुन्जिका वक्रजवा इत्यर्थः चिलात्यः-चिलातदेशो-18 18 त्पन्नाः बामनिका-अत्यन्तहस्वदेहा इस्वोन्नतहृदयकोष्ठा वा वडभिका-महडकोष्ठा वक्राघाकाया वा इत्यर्थः बर्बर्यो-18 18 वर्वरदेशोत्पन्नाः बकुशिका:-बकुशदेशजाः जोनिक्यो-जोनकनामकदेश जाः पल्हविका:-पल्हवदेशजाः ईसेणिआ था-18
Serenesepeacetasweerealsece
गाथा:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [४३]
या तिः
गाथा:
श्रीजम्बू- TR रुकिणिआओत्ति देशद्वयभवाः ईसिनिकाः थारुकिनिकाः, लासिक्यो-लासकदेशजाः लकुशिक्यो-लकुशदेशजाः द्रवि-18|३वक्षस्कारे
ब्यो-द्रविडदेशजाः सिंहल्या-सिंहलदेशजाः आरब्यः-आरबदेशजाः पुलिन्द्रयः-पुलिन्द्रदेशजाः पक्कण्य:-पक्षणदेशजाः न्तिचन्द्री
चकोत्यबहल्यो-बहलिदेशजाः मुरुण्ड्यो-मुरुंडदेशजाः शबर्य:-शबरदेशजाः पारसीका:-पारसदेशजाः, अत्र चिलात्याद
चितत्पूजोयोऽष्टादश पूर्वोक्तरीत्या तत्तद्देशोद्भवत्वेन तत्तन्नामिका ज्ञेयाः, कुब्जादयस्तु तिम्रो विशेषणभूताः, अथ यथाप्रकारे
त्सवाः स. ॥१९॥ णोपकरणेन ता अनुययुस्तथा चाह-अप्येकिका वन्दनकलशा-मङ्गल्यघटा हस्तगता यासा तास्तथा, एवं भृडारा-12
दिहस्तगता अपि वाच्याः, तब्याख्यानं तु प्राग्वत् , नवरं पुष्पचङ्गरीत आरभ्य मालादिपदविशेषितास्तच्चङ्गेय्यों ज्ञातव्याः,
लोमहस्तकचङ्गेरी तु साक्षादुपात्ताऽस्ति, अन्यास्तु लाघवार्थकत्वेन सूत्रे साक्षात्रोकार, आद्यन्तग्रहणेन मध्यग्रहणस्य । 18| स्वयमेव लभ्यमानत्वात् , एवं पुष्पपटलहस्तगता माल्यादिपटलहस्तगताश्च याच्याः, अप्येकिकाः सिंहासनहस्तगताः
अप्येकिकाः छत्रचामरहस्तगताः तथा अप्ये किकाः तैलसमुदाः-तैलभाजनविशेषास्तद्धस्तगताः एवं कोष्ठसमुद्कहस्तगता | यावत्सर्पपसमुद्गकहस्तगताः, अब समुद्गकसंग्रहमाह-'तेल्ले कोहसमुग्गे' इति सूत्रोक्ताः, एतदर्थस्तु राजप्रश्नीयवृत्तितोऽ-18 वगन्तव्यः, अप्येकिकास्तालवृन्तहस्तगता:-व्यञ्जनपाणयः अप्येकिका धूपकडुच्छुकहस्तगता इति, अथ यया समृङ्ख्या 3 | भरत आयुधशालागृहं प्राप तामाह-'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा यत्रैवायुधगृहशाला तत्रैवोपागच्छतीति॥१९॥ सम्बन्धः, किम्भूत इत्याह-सर्वर्या-समस्तया आभरणादिरूपया लक्ष्म्या युक्त इति गम्यं, एवमन्यान्यपि पदानि ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
योजनीयानि, नवरं युतिः-मेलः परस्परमुचितपदार्थानां तया बलेन-सैन्येन समुदयेन-परिवारादिसमुदयेन आद-18 ॥ रेण-प्रयत्नेन आयुधरलभक्त्युत्थबहुमानेन विभूषया-उचितनेपथ्यादिशोभया विभूत्या-विच्छन एवंविधविस्तारेण, |
उक्कामेव विभूषा व्यक्त्याऽऽह-सवपुप्फे त्यादि, अत्र पुष्पादिपंदानि प्राग्वत् , नवरं अलङ्कारो-मुकुटादिरेतद्रूपया सर्वेषां त्रुटितानां-तूर्याणां यः शब्दो-ध्वनिर्यश्च स सङ्गतो निनादः-प्रतिध्वनिस्तेन, अत्र शब्दसन्निनादयोः समाहारद्वन्द्वः, अथ 'सर्वमनेन भाजनस्थं घृतं पीत'मिति लोकोकेः प्रसिद्धत्वात् सर्वशब्देनापीयोऽपि निर्दिष्टं भवेत्ततश्च न तथा विभूतिर्वर्णिता भवतीत्याशङ्कमानं प्रत्याह-'महया इड्डीए'इत्यादि, योजना तु प्राग्वदेव, यावत्शब्दात् महायुत्यादिपरिग्रहः, महता-बृहता वरत्रुटितानां-निःस्वानादीनां तूर्याणां यमकसमकं-युगपत्प्रवादित-भावे कप्रत्ययविधा
नात् प्रवादनं ध्वनितमित्यर्थस्तेन, शङ्ख:-प्रतीतः पणवो-भाण्डपटहो लघुपटह इत्यन्ये पटहस्त्वेतद्विपरीतः भेरी-18 1 ढका झल्लरी-चतुरङ्गुलनालि; करटिसदृशी वलयाकारा खरमुही-काहला मुरजो-महामईलः मृदङ्गो-लघुमईलः । दुन्दुभिः-देववाद्यं, एषां निर्घोषनादितेन, तत्र निर्घोषो-महाध्वनि दितं च प्रतिरवः, एकवद्भावादेकवचनं, पूर्ववि
शेषणं तूर्यसामान्यविषयमिदं तु तब्यक्तिसूचकमित्यनयो दः, आयुधगृहशालाप्राप्त्यनन्तरं विधिमाह-'उवागच्छित्ता' ॥ इत्यादि, तत्रोपागत्य आलोके-दर्शनमात्र एव चक्ररलस्य प्रणाम करोति, क्षत्रियैरायुधवरस्य प्रत्यक्षदेवतात्वेन सङ्कल्प-13
नात्, यत्रैव चकरसं तत्रैवोपागच्छति, लोमहस्तक-प्रमार्जनिकां परामृशति-हस्तेन स्पृशति गृह्णातीत्यर्थे, परामृश्य
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अनुक्रम [५६-६०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
न्तिचन्द्री
गाथा:
श्रीजम्ब- च चक्ररत्न प्रमार्जयति, यद्यपि न तारशे रत्ने रजःसम्भवस्तथापि भक्तजनस्य विनयप्रक्रियाज्ञापनार्थमयमुपन्यासः, ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रमाद्यं च दिव्ययोदकधारया अभ्युक्षति-सिञ्चति स्नपयतीत्यर्थः अभ्युक्ष्य च सरसेन गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, अनु
चक्रोल्पलिप्य च अप्रैः-अपरिभुतैरभिनवैर्वरैर्गन्धमाल्यैश्चायति, एतदेव व्यक्त्या दर्शयति-पुष्पारोपणं माल्यारोपणं वर्णा-चितत्पूजोया वृत्तिः || रोपणं चूरोपणं वस्त्रारोपणं आभरणारोपणं करोति, कृत्वा च अच्छै:-अमलैः श्लक्ष्णैः-अतिप्रतलैः श्वेत:-रजत
त्सवाः सू. १९२॥ मयैरत एव अच्छो रसो येषां ते अच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः, एतादृशैस्त
Sण्डुलैः, अन्न पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात् , स्वस्तिकादयोऽष्टाष्टमङ्गलकानि-मङ्गल्यवस्तुनि आलिखति-विन्य-18
स्थति, अन्न चाष्टाष्टेति वीप्सावचनात् प्रत्येकमष्टाविति ज्ञेयं, यद्वा अष्टेति सङ्ख्याशब्दः अष्टमङ्गलकानीति चाखण्डः |संज्ञाशब्दः, अष्टानामपि मङ्गलकानां, अधोक्तानामेव मङ्गलकानां व्यक्तितो नामानि कथयन् पुनर्षिध्यन्तरमाह-15 तद्यथा-स्वस्तिक'मित्यादि, व्याख्या तु प्राग्वत्, अत्र द्वितीयालोपः प्राकृतत्वात्, इमान्यष्टमङ्गलकानि आलिख्यआकारकरणेन कृत्वा-अन्तर्वर्णकादिभरणेन पूर्णानि कृत्वेत्यर्थः, करोति उपचारं-उचितसेवामिति, तमेव व्यनक्ति-किन्ते । इति तद्यथेत्यर्थे, तेन विवक्षित उपचारः उपन्यस्त इत्यर्थः, पाटलं-पाटलपुष्पं मल्लिका-विचकिलपुष्पं, यलोके वेलि | | इति प्रसिद्धं, चम्पकाशोकपुन्नागाः प्रतीताः चूतमञ्जरी-आघमञ्जरी बकुछ:-केसरो यः स्त्रीमुखसीधुसिक्को विकसति |
॥१९॥ तत्पुष्पं, तिलको यः खीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति तत्पुष्पं, कणवीरं कुन्दं च प्रतीते, कुब्जकं-कूयो इति नाम्ना वृक्ष
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
विशेषस्ततपुष्पं, कोरण्टकं प्राग्वत् , पत्राणि-मरुबकपत्रादीनि दमनकः-स्पष्टः एतैर्वरसुरभि:-अत्यन्तसुरभिः तथा| सुगन्धाः-शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः, पश्चाद्विशेषणद्वयस्य कर्मधारयस्तस्य, तथा कचग्रहो-मैथुनसंरम्भे मुखचुम्पनाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गलिभिः केशेषु ग्रहणं तच्यायेन गृहीतस्तथा तदनन्तरं करतला-18| द्विपमुक्तः सन् प्रचष्टः, प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तस्य, दशार्द्धवर्णस्य-पञ्चवर्णस्य कुसुमनिकरस्य-पुष्पराशेः तत्र-चक्ररनपरिकरभूमी चित्रं-आश्चर्यकारिणं जानूत्सेधप्रमाणेन-जानुं यावदुच्चत्वप्रमाणं प्रमाणो-16 पेतपुरुषस्य चतुरङ्गुल चरणचतुर्विशत्यङ्गलजोच्चत्वमीलनेनाष्टाविंशत्यङ्गलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा तं, अव-16 |धिना-मर्यादया निकर-विस्तारं कृत्वा चन्द्रप्रभा:-चन्द्रकान्ता वज्राणि-हीरका वैडूर्याणि-बालवायजानि तन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काश्चनमणिरतानां भक्तयो-विच्छित्तयो रचनास्ताभिश्चित्रं, कृष्णागुरुः प्रतीतः कुन्दुरुक:-18
चीडा तुरुष्का-सिल्हकस्तेषां यो धूपो गन्धोत्तमः-सौरभ्योत्कृष्टः, अत्र विशेषणपरनिपातः, प्राकृतत्वात् , तेनानुविद्धाR मिश्रा व्याप्त्यर्थः तां चशब्दो विशेषणसमुच्चये स च व्यवहितसम्बन्धः, तेन धूमवत्ति च-धूमश्श्रेणि विनिर्मुश्चन्तं, पैडूर्य
मयं-केवलवैडूर्यरत्नघटितं स्थालकस्थगनकाद्यवयवेषु दण्डवचन्द्रकान्तादिरलमयत्वे तु अङ्गारधूमसंसर्गजनिता विच्छा-18 यता प्रादुर्भवेत् , 'कहुच्छुक' धूपाधानकं 'प्रगृह्य' गृहीत्वा 'प्रयतः' आद्रियमाणो धूपं दहति, धूपं दग्ध्वा च प्रमार्ज-18 नादिकारणविशेषेण सन्निधीयमानमपि चक्ररत्नं अत्यासन्नतया मा आशातितं भूषादिति सप्ताष्टपदानि प्रत्यपसपति
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
श्रीजम्यू- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१९॥
पश्चादपसरति प्रत्यपसर्दी च वाम जानु अञ्चति यावत्करणाद् दाहिणं जाणुं धरणिअलंसि निहङ करयलपरिग्गहि वक्षस्कारे | दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु' इति संग्रहः, व्याख्या च पूर्ववत् , प्रणाम करोति-समीहितार्थसम्पादकमिहे-18 चक्रोत्यूदमिति बुझ्या प्रीतः प्रणमति, प्रणामं कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छतीति, पडिणिक्खमिचा'
चितत्पूजोइत्यादि, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव वाद्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासनवरगतः
|त्सवाः सू. पूर्वाभिमुखः सन्निषीदति-उपविशति, संनिषद्य च अष्टादश श्रेणी:-कुम्भकारादिप्रकृतीः प्रश्रेणीस्तदवान्तरभेदान् । | शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति, अष्टादश श्रेणयश्चेमा:-"कुंभार १ पट्टइल्ला २ सुवण्णकारा य ३ सूचकारा य॥ ४ । गंधवा ५ कासवगा ६ मालाकारा य ७ कच्छकरा ८॥शा तंबोलिआ९य एए नवप्पयारा य नारुआ भणिआ।
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गाथा:
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अनुक्रम [५६-६०
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अष्टादश श्रेणिप्रवेणी:-अष्टावशसंख्याकान् सदेशचिन्ता नियुक्ततन्त्रपालावधिकारिविशेषान् शब्दापयति-भावति, यत्तु केचित् 'सूआर-ति गाथात्रयमालोक्य एत एवाटादश श्रेणिप्रश्रेणय इति विकल्पयन्ति तन्न संभवति, यतो राज्याभिषेकावसरे देवादीनामिव श्रेणिप्रवेणीनामप्यभिषेकाधिकार वक्ष्यते, तत्र च काफ-18 नारूणां प्रवेषास्यायसंभव इति (इति हीपत्ती) भयं संभवास्पद-गदा हि मजनगृहाद निगंगाम चक्री तवैव बभूव सार्थ तवपालाद्या इति च तेषामाकारणीय-101 ॥ तामच प्रामकौडम्मिकानो प्रहर्ष तेषामपि मजनगृहात् सहैव चकिमा निर्गमात्, तथा च प्रजानियुक्ता ये मामा मेसराः समाशातीयाधिक
18॥१९३॥ अणिशब्देन पन्त, काइनायादीनामपि प्रजाजनरवात करबद्धयादीनां सस्सोमोनापि स्थापनात् युक्तमत्र प्रजाजनानेसराणां श्रेणिप्रवेणिवाच्यानामावानं | अभिषेकेऽपि च तवपालाना सदा सहचतिवाभावात् मागवतीर्थसाधनाद्युत्सपावसरे तबाहानासंभावात् , अभिषेकवैतेषां सूपकाराभिषेकादन्विति सार्थवादाद्याच पश्चादभिपिषिचुचक्रिर्म तेभ्य इति च तनपालना नोचिताऽऽसौ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ..........................
------------------------------------- मलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
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गाथा:
अह ण णवप्पयारे कारुअवण्णे पवक्खामि ॥२॥ चम्मयरु १ जतपीलग २ गंछिअ ३ छिपाय ४ कंसकारे ५ य । सीवंग ! ६ गुआर ७ भिल्ला ८ धीवर ९ वण्णाइ अष्टदस ॥३॥" चित्रकारादयस्तु एतेष्वेवान्तर्भवन्ति, अथ पौरान् प्रति |किमवादीदित्याह-खिप्पामेव'त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाश्चक्ररत्नस्याष्टानां अहां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां | महिमायां सा अष्टाहिका तां महामहिमां कुरुतेत्यन्धयः, कृत्वा च मम एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयतेति, अथर | क्रमेण विशेषणानि व्याकरोति-कीदृशी-उन्मुक्त शुल्क-विक्रेतव्यभाण्ड प्रति राजदेयं द्रव्यं यस्यां सा तथा तां,एवमु.। |त्करां उत्कृष्टां च, तत्र करो गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, कृष्टं तु-कर्षणं लभ्यग्रहणायाकर्षण, अदेयां-18 | विक्रयनिषेधेन अविद्यमानदातव्यां, न केनापि कस्यापि देयमित्यर्थः, अमेयां-क्रयविक्रयनिषेधादेव अविद्यमानमातव्यां,18
अभटप्रवेशां-अविद्यमानो भटाना-राजपुरुषाणामाज्ञादायिनां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा तां, दण्डलभ्यं द्रव्यं 81 | दण्डः कुदण्डेन निर्वृत्तं कुदण्डिम-राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा ता, तत्र दण्डो यथापराध राजग्राह्यं द्रव्यं कुदण्डस्तु | कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधात् महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यं, अधरिम-न विद्यते धरिम-ऋणद्रव्य | यस्यां सा तथा तां, उत्तमर्णाधमर्णाभ्यां परस्परं तऋणार्थ न विवदनीयं किन्तु अस्मत्पार्थे द्युम्नं गृहीत्वा ऋणं मुत्कलनीयमित्यर्थः, गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैर्नाटकीय-नाटकप्रतिबद्धपात्रः कलिता या सा तथा तां, अनेके ये तालाचरा:-प्रेक्षाकारिविशेषास्तैरनुचरिता-आसेवितां, 'अनुता' आनुरूप्येण यथामार्दङ्गिकविधि उद्धृता-वादनार्थमु
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अनुक्रम [५६-६०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
भीजम्ब-क्षिप्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा तां, अम्लानानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यस्यां सा तथा तां, म्लानाः पुष्पमाला उत्साये
18/श्वक्षस्कारे द्वीपशा- नवा नवा आरोपणीया इत्यर्थः, प्रमुदिता-हृष्टाः प्रक्रीडिता:-क्रीडितुमारब्धाः सपुरजना-अयोध्यावासिजनसहिताः
वासजनताहतासचक्रस्य जनपदा:-कोशलदेशवासिनो जना यत्र सा तथा तां, विजयवैजयिकी-अतिशयेन विजयो विजय विजयः स प्रयो-18 मागपतीया पुचिः जनं यस्यां सा तथा तां, इदमायुधरनं सम्यगाराधितं मदभिप्रेतं महाविजयं साधयतीत्यर्थः, 'प्रत्यये डीर्वा' इति (श्री- गमन स. ॥१९॥| सिद्ध० अ.८ पा.३ सू.३१) प्राकृत
| सिद्ध. अ.८ पा.३ सू.३१) प्राकृत सूत्रेण डीविकल्पस्तेन विजयवेजइअमिति पाठः, कचिद्विजयवैजयन्तचकरयणस्सत्ति 1 पाठस्तत्र विजयसूचिका वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती साऽस्यास्तीति विजयवैजयन्तं विजयग्रहणे किमपि परं ।।
न मत्त उत्कृष्टमिति ध्वजबन्धं विधत्ते इत्यर्थः एतादृशं यच्चक्ररक्षं तस्याष्टाहिकामिति प्राग्वदिति । अथ श्रेणिप्रश्रेणयो यचक्रुस्तदाह-'तए ण'मित्यादि सर्व पाठसिद्धं । अथाष्टाहिकामहामहिमापरिसमाप्त्यनन्तरं फिमभूदित्याह
तए ण से दिव्ये चक्करयणे अट्ठाहिआए महामहिमाए निवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिवतुडिअसहसण्णिणाएणं आपूरेते चेच अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झमझेणं णिम्गच्छह २ त्ता गंगाए महाणईए दाहिणिले णं फूलेणं पुरथिमं दिसि मागइवित्याभिमुहे पयाते आवि होत्था, तए णं से भरहे राया तं दिवं
॥१९ ॥ चकरवणं गंगाए महाणईए दाहिणिलणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसि मागहतित्थामिमुहं पयात पासइ २ त्ता हतुह जाब हियए को -
बिअपुरिसे सद्दावेद २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ। आमिसेकं हथिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवरजोहकSanileoni
दीप अनुक्रम [५६-६०
दिग्विजयकथा एवं चक्ररत्नस्य गमनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
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eeseceserveaeseseseserveeeees
लिमं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह, एतमाणत्ति पचप्पिणह, तए णं से कोईंविअ जाव पञ्चपिणति, तए णं से भरहे राया जेणेव मजणधरे तेणेव उवागच्छइ २ ता मजणघरं अणुपविसइ २ ता समुत्तजालाभिरामे तहेव जाच धक्लमहामेहणिम्गए इव ससिन्य पियदसणे जरवई मजणघराओ पडिणिक्खमह २त्ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उबढाणसाला जेणेब आमिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छद २ ता अंजणगिरिकहगसग्णिभं गयवई गरवई दुरुढे । तए णं से भरहादिवे णरिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुंडलउजोइआणणे मजडविचसिरए णरसीहे णरवई परिंदे णरवसहे मरुअरायवसभकप्पे अब्भहिअरायतेअलच्छीए विष्पमाणे पसत्यमंगळसएहिं संथुधमाणे जयसरकयालोए हत्यिखंधवरगए सफोरंटमलदामेणं छत्तेणं परिजमाणेणं सेअवरचामराहिं उद्धन्नमाणीहि २ जक्खसहस्ससंपरिखुदे वेसमणे व धणबई भमरवइसपिणभाइ इट्टीए पहिअकित्ती गंगाए महाणईए दाहिणिले णं कूले णं गामागरणगरखेडकब्बडमचदोणमुहपट्टणासमसंबादसहस्समंदिरं थिमिभमेदणीअं वसुई अभिजिणमाणे २ अम्गाई बराई रयणाई पहिच्छमाणे २ तं दिवं चकरवणं अणुगच्छमाणे २ जोभणंतरिआदि वसहीहि समाणे २ जेणेव मागइतित्थे तेणेव उवागच्छइ २ ता मागइतित्यस्स अदूरसामते दुवालसजोषणायाम णवजोन अणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ २ चा वड्डइरवणं सदावेद सदावहत्ता एवं बयासी-खिप्पामेब भो देवाणुप्पिा ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि करेत्ता ममेअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, तए णं से बहरयणे भरहेणं रण्णा एवं बुचे समाणे इतुट्टचित्तमाणदिए पीइमणे जाव अंजलि कट्ठ एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता भरहस्स रण्यो भावसई पोसहसाकं च करे २ ता एमाणत्ति खियामेव पञ्चप्पिणति, तए णं से भरहे राया आभिसेकाओ हस्थिरय
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [४४]
न्तिचन्द्रीया प्रतिः ॥१९५॥
णाओ पच्चोरुहइ २ चा जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा पोसहसालं अणुपविसइ २ चा पोसहसालं पमज्जइ २ ता
8|३वक्षस्कारे दब्भसंथारगं संघरद २ सा दम्भसंधारगं दुरुहइ २ चा मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्इ २ ता पोसहसालाए सचक्रस्य पोसहिए बंभयारी उम्मुकमणिमुक्ण्णे वगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्यमुसले दम्भसंथारोवगए एगे अबीए अट्ठमभत्तं
मागधती
बागमन सू. पडिजागरमाणे २ विहरइ । ए णं से भरहे राया अहमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव बहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद २ चा कोडंबिअपुरिसे सहावेइ २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिआ हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह चाउरघंटं आसरह पलिकप्पेहत्तिकटु मजणघरं अणुपबिसइ २ ता समुत्त तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए. जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ चा हयगयरहपवरवादण जाव सेणावह पहिअकित्ती जेणेव माहिरिआ उबढाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चा चाउघंटे मासरुई दुरूढे (सूत्र-४४) 'तए णं से' इत्यादि, ततस्तहिव्यं चकरने अष्टाहिकायां महामहिमायां निर्वृताया-जातायां सत्या आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तरिक्षं प्रतिपन्नं-नभः प्राप्तं, यक्षसहस्रसंपरिवृत-चक्रधरचतुर्दशरक्षानां 8 प्रत्येक देवसहस्राधिष्ठितत्वात्, दिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादेन पूर्वव्याख्यातेन आपूरयदिवाम्बरतल-शब्दाढतं नमः | | कुर्वदिवेत्यर्थः, विनीतायाः राजधान्याः मध्यमध्येन मध्यभागेनेत्यर्थः निर्गच्छति, निर्गत्य च गङ्गानाच्या महानद्या |8 दाक्षिणात्ये कूले उभयत्र गंशब्दो वाक्यालंकारे समुद्रपार्श्ववर्तिनि तटे इत्यर्थः, अयं भावः-विनीतासमश्रेणी हि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
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प्राच्या वहन्ती गङ्गा मागधतीर्थस्थाने पूर्वसमुद्रं प्रविशति, इदमपि मागधतीर्थसिसाधयिषया पूर्ण दिशं यियासुः ।।
अनुनदीतटमेव गच्छति, तच्च तटं दक्षिणदिग्वर्तित्वेन दाक्षिणात्यमिति व्यवह्रियते, अत एव दाक्षिणात्येन कूलेन |8| 18| पूर्वी दिशं मागधतीर्धाभिमुखं प्रयात-चलितं चाप्यभवत्, एतच्च प्रयाणप्रथमदिने यावत् क्षेत्रमतिक्रम्य स्थितं तावद् । 1881 योजनमिति व्यवहियते, तच्च प्रमाणाङ्कलनिष्पन्नतया भरतचक्रिणः स्कन्धावारः स्वशक्त्यैव निवति, अन्येषां तु। | दिव्यशक्त्या इति वृद्धाः, ततः किं जातमित्याह-'तए ण'मित्यादि, उक्तार्थप्राय, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव'त्ति |81 क्षिप्रमेव भो देवानुपिया! आभिषेक्यं-अभिषेकयोग्यं हस्तिरलं पट्टहस्तिनमिति भावः प्रतिकल्पयत-सज्जीकुरुत,181
हयगजरथप्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिनी, अत्र चतुःशब्दस्याऽऽत्त्वं प्राकृतसूत्रेण, उक्कैरेवाश्चतुःप्रकारां सेनां सन्नाहयत६. सन्नद्धां कुरुत, शेष प्राग्वत्, 'तए णमित्यादि, अत्र यावत्शब्दात् 'पुरिसा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता समाणा 8 18 हतुदृचित्तमाणदिआ' इति ग्राह्य, इदं चाभ्युपगमसूत्रमिश्रमाज्ञाकरणसूत्रं स्पष्टमिति, अथ भरतो दिग्यात्रायियासयारा 1% विधिमकार्षीत् तमाह-'तए ण'मित्यादि, स्नानसूत्रं पूर्ववत्, 'हये'त्यादि, हयगजरथाः प्रवराणि वाहनानि-18
वेसरादीनि भटा-योद्धारस्तेषां चडगरपहकरत्ति-विस्तारवृन्द, इदं च देशीशब्दद्वयं, तेन संकुलया-व्याप्तया सेनया सामिति शेषः, प्रथितकीर्तिर्भरतो यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव चाभिषेक्यं हस्तिरनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च अञ्जनगिरेः कटको-नितम्बभागस्तत्सन्निभमेतावत्प्रमाणमुच्चत्वेनेत्यर्थः गजपति-राजकुञ्जरं नरपतिदुरूढे इति
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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द्वीपशा
सा आरूढ इति । आरूढच कीदृशया ऋच्या चक्ररत्नोपदर्शितं स्थानं याति तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः स भरता-18|३वक्षस्कारे
|धिपो-भरतक्षेत्रपतिः स च भरताधिपदेवोऽप्यतो नरेन्द्रः प्रस्तावाद्वृषभसूनुः चकी इत्यर्थः, एतेनास्यैवालापकस्योत्तर-18| सचक्रस्य
सुन्ने नरिंदेतिपदेन न पौनरुक्त्यमिति, 'हारोत्थये त्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत्, नरसिंहः सूरत्वात् , नरपतिः स्वामि-18 मागधतीया चिः त्वात् , नरेन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् , नरवृषभः स्वीकृतकृत्यभरनिर्वाहकत्वात् , 'मरुद्राजवृषभकल्पो' मरुतो-देवा व्यन्त-181
थंगमनं सू.
४४ ॥१९॥
रादयस्तेषां राजानः-सन्निहितादय इन्द्रास्तेषां मध्ये वृषभा-मुख्याः सौधर्मेन्द्रादयस्तरकल्प:-तत्सदृश इत्यर्थः, अभ्य-181 |धिकराजतेजोलक्ष्या दीप्यमान इति स्पष्टं, प्रशस्तैर्मङ्गलशतैः-मङ्गलसूचकवचनैः कृत्वा स्तूयमानो बन्दिभिरिति
शेषः, 'जयसद्दकयालोए' इति प्राग्वत्, हस्तिस्कन्धवरं गतः-प्राप्तः, केन सहेत्याह-'सकोरण्टमाल्यदाना छत्रेण प्रियमाणेन सह, कोऽर्थः -यदा नृपो हस्तिस्कन्धगतो भवति तदा छत्रमपि हस्तिस्कन्धगतमेव प्रियते, अन्यथा छत्रधरणस्यासङ्गतत्वात् , एवं श्वेतवरचामरैरुद्धयमानैः-वीज्यमानैः सह इति, तेन गयवई णरवई दुरूढे इति पूर्वसूत्रेण |
सहास्य भेदः, अधिकार्थप्रस्तावनार्थकत्वादस्य यक्षाणां-देवविशेषाणां सहस्राभ्यां संपरिवृतः, चक्रवर्तिशरीरस्य व्यन्तशारदेवसहस्रद्वयाधिष्ठितत्वात्, 'बेसमणे चेव धणवई ति वैश्रमण इव धनपतिः अमरपतेः सन्निभया या प्रथितकी- ॥१९॥
त्तिर्गङ्गाया महानया दाक्षिणात्य कूले उभयत्र णंशब्दो प्राग्वत् अथवा सप्तम्यर्थे तृतीया ग्रामाकरादीनां-पाक्प्रथमा-18
हरकवर्णने युग्मिवर्णनाधिकारे उक्तस्वरूपाणां सहस्रमण्डितां तदानी वासबहुलत्वादरतभूमेः स्तिमितमेदिनीकां प्रस्तुSanelemiti
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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18 तनृपस्य प्रजाप्रियत्वात् स्तिमिता-निर्भयत्वेन स्थिरा मेदिनी-मेदिन्याश्रितजनो यस्यां सा तथा तां, बहुव्रीहिलक्षणः
कप्रत्ययः, अत्र मेदिनीशब्देन 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश' इति न्यायात्तभिवासी जनो लक्ष्यते, एवंविधां वसुधां अभिजयन
२-तत्रत्याधिपवशीकरणेन स्वपशे कुर्वन् २ इत्यर्थः, अग्र्याणि वराणि-अत्यन्तमुत्कृष्टानि रखानि-तत्त जातिप्रधान18 वस्तूनि आज्ञावशंवदीकृततत्तद्देशाधिपादिप्राभृतीकृतानि प्रतीच्छन् २-गृण्हन २ तद्दिव्यं चक्ररक्षमनुगच्छन्, चक्ररक्ष
गत्यङ्कितमार्गेण चलमित्यर्थः,योजनं-चतुःकोशात्मकं तदन्तरिताभिर्वसतिभिर्विश्रामैर्वसनर,अयमर्थः-एकस्माद्विश्रामा-19
योजनं गत्वा परं विश्राममुपादत्ते इति, यत्रैव मागधतीर्थ तत्रैवोपागच्छति, तत्रोपागतः सन् किं चकारेत्याह-'उवाKगच्छित्ता इत्यादि,उपागत्य च मागधतीर्थस्य दूरं च-विप्रकृष्टं सामन्तं च-आसन्नं दूरसामन्तं ततोऽन्यत्र, नातिदूरे नात्या
सन्न इत्याशयः, द्वादशयोजनायामं नवयोजनविस्तीर्ण वरनगरसदृशं विजययुक्तःस्कन्धावार:-सैन्यं तस्य निवेश-स्थापना 13 करोति, कृत्वा च वर्द्धकिरसं-सूत्रधारमुख्यं शब्दयति,शब्दयित्वा च एवमवादीदिति, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेय'त्ति
क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! मम कृते आवास पौषधशालां च, तत्र पौषधं-पर्वदिनानुष्ठेयं तप उपवासादिः तदर्थ शालागृहविशेषः तां कुरु, कृत्वा मम एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयेति। 'तए ण'मित्यादि, स्पष्टं,नवरं 'आवसह' आवासमिति, अथ
भरतः किं चके इत्याह-'तए णमित्यादि,ततः स भरतोराजा आभिषेक्यान् हस्तिरक्षात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च 18 यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च पौषधशालामनुप्रविशति,अनुप्रविश्य च पौषधशालां प्रमार्जयति,प्रमाj 181
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू-18च दर्भसंस्तारक संस्तृणाति,संस्तीर्य च दर्भसंस्तारकं दुरूहति-आरोहति,आरुह्य च मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य साध- ३वक्षस्कारे
नायेति शेषः, अथवा चतुर्य षष्ठी, तेन मागधतीर्थकुमाराय देवाय, अष्टमभकं समयपरिभाषयोपवासत्रयमुच्यते, सचन न्तिचन्द्री-18 या चिः
| यद्वा अष्टमभक्तमिति सान्वयं नाम, तचैव-एकैकस्मिन् दिने द्विवारभोजनौचित्येन दिनत्रयस्य षण्णां भक्तानामुत्त-18
रपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च त्यागेनाष्टम भक्तं त्याज्यं यत्र तथा, प्रगृह्णाति, अनेनाहारपौषधमुक्तं, प्रगृह्य च पौषध-|| ॥१९७॥ शालायां 'पौषधिकः' पौषधवान् , पौषधं नामेहाभिमतदेवतासाधनार्थकव्रतविशेषोऽभिग्रह इतियावत्, नत्वेकादश[व्रतरूपस्तद्वतः सांसारिककार्यचिन्तनानौचित्यात् , नन्वेवमेकादशप्रतिकोचितानि तद्वत्तो ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठानानि सूत्रे कथमु-1॥
पात्तानि ?, उच्यते. ऐहिकार्थसिद्धिरपि संवरानुष्ठानपूर्विकैव भवतीत्युपायोपेयभावदर्शनार्थ, अभयकुमारमन्निश्रीवि-18 18 | जयराजधम्मिल्लादीनामिव, अत एव परमजागरूकपुण्यप्रकृतिकाः संकल्पमात्रेण सिसाधयिपितसुरसाधनसिद्धिनिश्चयं ।।
जानाना जिनचक्रिणोऽतिसातोदयिनः कष्टानुष्टानेऽष्टमादौ नोपतिष्ठन्ते, किन्तु मागधतीर्थाधिपादिः सुरः प्रभुणा इंदि। 18|चिन्तितः सन् गृहीतमाभृतकः सहसैव सेवार्थमभ्युपैति, यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः श्रीशान्तिनाथचरित्रे-"ततो || IS मागधतीर्थाभिमुखं सिंहासनोत्तमे । जिगीषुरप्यनाबद्धविकारो न्यपदत् प्रभुः ॥१॥ ततो द्वादशयोजन्यां, तस्थुषो माग-181 18 धेशितुः। सिंहासनं तदा सद्यः, खञ्जपादमिवाचलत् ॥ २॥" इत्यादि, यत्तु श्रामण्ये जगद्गुरवो दुर्विषहपरिषहादीन,
| सहन्ते तत्कर्मक्षयार्थमिति, अनेनैव साधम्यण पौषधशब्दप्रवृत्तिरपि, यथा चास्य पौषधनतेन साधर्म्य तथा चाह-18
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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1 ब्रह्मचारी-मैथुनपरित्यागी, अनेन ब्रह्मचर्यपौषधमुक्तं, उन्मुक्तमणिसुवर्णः-त्यक्तमणिस्वर्णमयाभरणः, व्यपगतानि माला
वर्णकविलेपनानि यस्मात् स तथा, वर्णक-चन्दनं, अनेन पदद्वयेन शरीरसत्कारपौषधमुक्तं, निक्षिप्त-हस्ततो विमुक्त | शस्त्रं-क्षुरिकादि मुसलं च येन स तथा, अनेनेष्टदेवताचिन्तनरूपमेकं व्यापार मुक्त्वाऽपरव्यापारत्यागरूपं पौषधमुक्तं, दर्भसंस्तारोपगत इति व्यक्तं, एकः आन्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात् अद्वितीयस्तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्, अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रत् २-पालयन २ विहरति-आस्ते इति । 'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजाऽष्टमभके परिणमति-पूर्यमाणे,परिपूर्णप्राये, इत्यर्थः,अत्र वर्तमान निर्देशः आसन्नातीतत्वात् 'सत्सामीप्ये (श्रीसिद्ध अ.५ पा.४ सू.१)। इत्यनेन, पौषधशालातः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति,उपागत्य च कौटु-181 |म्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! हयगजरथप्रवरयोधकलितां चतुर-18 |ङ्गिनी सेना सन्नाहयत, चतस्रो घण्टाश्छत्रिकैकदिशि तत्सद्भावात् अवलम्बिता यत्र स तथा तं, चकारः समुच्चये,
स चाश्वरथमित्यत्र योजनीयः, अश्ववहनीयो रथोऽश्वरथो नियुक्तोभयपातुरङ्गमो रथ इत्यर्थः, अनेनास्य सांगा. | मिकरथत्वमाह, तं प्रतिकल्पयत-सज्जीकुरुत इतिकृत्वा-कथयित्वा आदिश्येत्यर्थः, मजनगृहमनुप्रविशतीति, 'अणुपविसित्ता' इत्यादि, अनुप्रविश्य च मजनगृहं समुक्ताजालाकुलाभिरामे इत्यादि, तथैव प्रागुकास्थानाधिकारगमवदित्यर्थः, यावद् धवलमहामेघनिर्गतो यावन्मज्जनगृहात्प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च हयगजरथप्रवरवाहनयावत्प
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------- ------ मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१९८॥
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दात् 'भडचडगरपहगरसंकुल'त्ति ग्राह्य, 'सेणाए(बई) पहिअकित्ती इत्यादि प्राग्वत् , अन निष्ठितपौषधस्य सतो मागध-1|३ वक्षस्कारे | तीर्थमभियियासोर्भरतस्य यत् स्नानं तदुत्तरकालभाविबलिकर्माद्यर्थ, यदाह श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः आदिनाथचरित्रे- मागधती"राजा सर्वार्थनिष्णातस्ततो बलिविधि व्यधात् । यथाविधि विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधि न हि ॥१॥" इति, अब थकुमारच सूत्रेऽनुक्तमपि बलिकर्म "व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति"रिति न्यायेन ग्राह्यमिति ॥ अथ कृतस्नानादिविधिर्भरतो साधन र.
४५ यच्चक्रे तदाहतए णं से भरहे राया चालरचंटं आसरहं दुरुढे समाणे हयगवरहपवरजोहकलिआए सद्धि संपरिबुडे महयाभडपडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते चकरयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उकिट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिभमहासमुदरवभूअंपिव करेमाणे २ पुरस्थिमदिसाभिमुहे मागहतित्थेणं लवणसमुई ओगाहइ जाव से रहवरस्त कुष्परा उल्ला, तए णं से भरहे राया तुरगे निगिण्डई २ ता रह ठवेइ २ ता धणुं परामुसइ, तए णं तं अइरुग्गयबालचन्दइंदधणुसंकासं परमहिसदरिअप्पिअढघणसिंगरहअसारं उरगवरपवरगवलपवरपरहुअभमरफुलणीलिणिद्धधंतधोमपट्ट णिउणोविअमिसिमिसितमणिरयणघंटिआजालपरिक्खितं तडितरुणकिरणतबणिजबचिंध दररमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंदर्षिध कालहरिभरतपीअसुकिल्लयहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीर्ष धणू गहिऊण से णरवई उसु च वरखइरकोडि वइरसारतोंड कंचणमणिकणगरयणधोहसु
॥१९८॥ कयपुखं अणेगमणिरयणविविहसुविरइथनामधिं वइसाई ठाईऊण ठाणं आयतकण्णायतं च काऊण उसुमुदार इमाई वयणाई तत्थ भाणिभ
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ----------------- ------------------------------- मूलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [४५]
गाथा:
से परवई-हवि सुजंतु भवंतो वाहिरओ खलु सरस्स जे देवा । जागामुरा सुवण्णा तेसिं खु णमो पणिवयामि ॥ १॥ हंदि सुर्णतु भवंतो अम्भितरओ सरस्स जे देवा । णागामुरा सुवष्णा सो मे ते विसयवासी ॥२॥ इतिक उमुं णिसिरहत्ति-'परिगरणिगरिअमलो वाउडुअसोभमाणकोसेज्जो । चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोष पञ्चक्खं ॥३॥ तं चंचलायमाणं पंचमिचंदोवमं महाचार्य । छनइ वामे हत्थे णरवइणों तमि विजमि ॥ ४ ॥ तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसहे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवर्णसि निवइए, तए से मागहतित्थाहिबई देवे भवर्णसि सर णिवइ पासह ता आसुकत्ते रुढे चंटिफिए कृषिए मिसिमिसेमाणे तिवलिज मिडि पिडाले साहह २ता एवं वयासी-केस णं भो एस अपत्थिापत्थए दुरंतफ्तलक्षणे हीणपुण्णचारसे हिरिसिरिपरिवजिए जेणं मम इमाए एआणुरूवार दिवाए देविशीए दिवाए देवजुईए दिवेणं दिवाणुभावेणं लाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उर्षि अप्पुम्सए भवर्णसि सरं णिसिरइत्तिफट्ट सीहासणाओ अम्भुढेश २ ता जेणेच से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छद २ चा तं णामाहयकं सरं गेहइ णामक अणुप्पवाए णामक अणुष्पवाएमाणस्स एम एआरूवे अब्भत्थिए चिंतिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्या-उप्पण्णे खलु भो! जंबुडीवे दीवे भरहे पासे भरहे णामं राया चाउरंतचकवट्टी त जीअमे तीअपचुप्पण्णमणागयाणं' मागहतित्थकुमाराण देवाणं गणमुवस्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि गं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणी करेमित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ संपेहेत्ता हारं मउड कुंडलाणि म कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि बाभरणाणि अ सर च णामाहयंक मागहतित्थोदगं च गेण्डइ गिणिहत्ता ताए उकिवाए तुरिआए पचलाए जयणाए सीहाए सिग्याए उबुआए दियाए देवगईए वीईवयमाणे २ जेणेव भरहे गया तेणेव उवागच्छद २ सा अंतालिक्खपटिवण्णे सखिखिणीआई
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], --------------------- --------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्बूद्वीपशा-1
सूत्रांक
३वक्षस्कारे मागपतीथैकुमारसाधनं म्.
न्तिचन्द्री या वृति॥१९९॥
[४५]
गाथा:
पंचवण्णाई वत्थाई पवर परिहिए करयलपरिग्गहिले देसणहं सिर जाव अंजलि कटू भरहं रायं जपणं विजएणं बद्धावेइ २ चा एवं वयासी अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वांसे पुरच्छिमेणं मागह तित्थमेराए तं अण्णं देवाणुप्पिआणं विसवासी अहणं देवाणपिआणं आणतीकिंकरे अहणं देवाणुप्पिआणं पुरक्छिमिले अंलबाले तं पविल्छंतु णं देवाणुप्पिा ! ममं इमेआरूवं पीइदाणंतिकट्ठ. हार माडं कुंडलाणि अ कडगाणि अ जाब मागहतित्थोदगं च उवणेइ, तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ ता मागह तित्यकुमारं देवं सकारेइ सम्माणेइ २ चा पडिविसजेइ, तए णं से भरहे राया रह परावतेइ २ ता मागहतित्थेणं लवणसमुदाओ पचुत्तरइ २ ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता तुरए णिगिण्हइ २ त्ता रहं ठवेइ २ रहाओ पञ्चोकहति २त्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उबागल्छति २ मजणधरं अणुपविसइ २ चा जाव ससिब पिअदसणे गरवई मजणघराओ पडिणिक्खमह २ ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छ२त्ता भोभणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभ पारेइ २ ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव बाहिरिआ उवठ्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसीअइ २त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ त्ता एवं बवासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया उस्सुक्क उकरं जाव मागहतित्यकुमारस्स देवस्स अट्टाहि महामहिमं करेह २ ता मम एअमाणत्ति पञ्चप्पिणह, तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीओ हट जाव करेंति २ चा एअमाणत्ति पञ्चप्पिणंति, तए णं से दिवे चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयारए जंबूणवणेमीए णाणामणिखुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणंदिघोसे सखिखिणीए दिब्बे तरुणरविमंडलणिभे णाण्णा
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------- --------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
मणिरयणघंटिआजालपरिक्खिसे सबोउअसुरभिकममबासत्तमल्लदामे अंतलिखपतिवणे जक्खसहस्ससंपरिखुढे विवतलिअसइसण्णिणादेणं पूरेते चेव अंबरतलं णामेण य मुदसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमारस्त देवस्स अट्ठाहिभाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउधरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता दाहिणपञ्चत्थिमं दिसि वरदामतिस्थाभिमुद्दे पयाए यावि होत्था (सूत्रं ४५)
'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्षण्टमश्वरथमारूढः सन् हयगजरथमवरयोधकलितया, अर्थात् सेनया 8 18 इति गम्यं, सार्द्ध संपरिवृतो 'महया' इति महाभटानां चडगरत्ति-विस्तारवन्तः पहगरत्ति' समूहास्तेषां यद्वृन्द-18 18 समूहो विस्तारवत्समूह इत्यर्थः, तेन परिक्षिप्त:-परिकरितः चक्ररत्नादेशितमार्गः, अनेकेषां राजवराणां-आबद्ध| मुकुटराज्ञां सहस्रैरनुयात:-अनुगतो मार्ग:-पृष्ठं यस्य स तथा, महता-तारतरेण उत्कृष्टि:-आनन्दध्वनिः सिंहनादः
प्रतीतः बोलो-वर्णव्यकिरहितो ध्वनिः कलकलव-तदितरो ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन प्रक्षुभितो-महावायुवशादु| कल्लोलो यो महासमुद्रस्तस्य रवं 'भूर प्राताविति सौत्रो धातुरिति वचनाद् भूत-प्राप्तमिव दिग्मण्डलमिति गम्यते
कुर्वन्नपि चशब्दोऽत्र इवादेशो ज्ञातव्यः, पूर्वदिगभिमुखो मागधनान्ना तीर्थेन-घटेन लवणसमुद्रमवगाहते-प्रविशति, | कियदवगाहते इत्याह-यावत् से तस्य रथवरस्य कूर्पराविव कूर्परौ कूपराकारत्वात् पिञ्जनके इति प्रसिद्धी रथावयवौं आर्दो स्यातां, अत एव सूत्रबलादन्यत्र एतदासन्नभूतो रथचक्रनाभिरूपोऽवयवो विवक्ष्यते, यदाह-रथाङ्गनाभियस, गत्वा जलनिधेर्जलम् । रथस्तस्थौ रथामस्थसारथिस्खलितहयैः॥१॥" इति, 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो
SecoceaesesCheesesese
गाथा:
दीप
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
द्वीपशा
[४५]
गाथा:
श्रीजम्य- राजा तुरगान निगृह्णाति, अत्र तुरगाविति द्विवचनेन हयद्विके व्याख्यायमाने सूत्रार्थसिद्धी सत्यामपि बरदामसूत्रे वक्षस्कारे
|| हयचतुष्टयस्य वक्ष्यमाणत्वात् बहुवचनेन व्याख्या, निगृह्य च रथं स्थापयति, स्थापयित्वा च धनुः परामृशति-स्पृ- मागपतीन्तिचन्द्री- शति, अथ यादृशं पराममर्श तादृशं धनुर्वर्णयन्नाह-'तए णमित्यादि, ततो-धनुःपरामर्शानन्तरं स नरपतिरिमा
थेकुमारया वृत्तिः नि-वक्ष्यमाणानि वचनानि 'भाणी'त्ति अभाणीदिति सम्बन्धः, किं कृत्वेत्याह-धनुर्ग्रहीत्वा, किंलक्षणमित्याह-- ॥२०॥
तत्-प्रसिद्ध अचिरोगतो यो बालचन्द्रः-शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रस्तेन यत्त उत्तरसूत्रे पंचमिचंदोवममिति तदारोपितगुण॥ स्थातिवक्रताज्ञापनार्थमिति, इन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाश-सदृशं यत्तत्तथा, दृप्तः-दर्पितो द्वयोः समानार्थयोरति
शयवाचकत्वेन सञ्जातदातिशयो यो चरमहिषः-प्रधानसेरिभो विशेषणपरनिपातः प्राकृतत्वात् तस्य दृढानि-निबिड-18 | पुद्गलनिष्पन्नानि अत एव धनानि-निच्छिद्राणि यानि शृङ्गामाणि ते रचितं सारं च यत्तत्तथा, उरगबरो-भुजगवरः प्रवरगवलं-वरमहिषङ्ग प्रवरपरभृतो-वरकोकिलो भ्रमरकुलं-मधकरनिकरो नीली-गुलिका एतानीव स्निग्ध-काल-10 कान्तिमत् ध्मातमिष ध्मातं च-तेजसा ज्वलद्धौतमिव धौतं च-निर्मलं पृष्ठ-पृष्ठभागो यस्य तत्तथा, निपुणेन शिल्पिना ओपितानां-उज्यालितानां 'मिसिमिसित'त्ति देदीप्यमानानां मणिरत्नघण्टिकानां यज्जालं तेन परिक्षिप्त-वेष्टितं ॥२०॥ यत्तत्तथा तडिदिव-विद्युदिव तरुणा:-प्रत्ययाः किरणा यस्य तत्तथा, एवं विधस्य तपनीयस्य सम्बन्धीनि बद्धानि || चिहानि-लान्छनानि यत्र तत्तथा, दर्दरमलयाभिधौ चौ गिरी तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्बन्धिनो ये केसराः-सिंहस्क-18
दीप
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
cotaecenese
गाथा:
धकेशाः चामराला:-यमरपुरछकेशाः, एषां चोक्कगिरिदयसकानामतिसुन्दरत्वेनोपादानं, भाईचन्द्राश्च-खण्डवम्द्रप्रतिबिम्बानि चित्ररूपाणि एतादृशानि चिन्हानि यत्र तत्सथा, यस्य धनुपि सिंहकेसराः बध्यन्ते स महान् शूर इति शौर्यातिशयस्यापनार्थ, चमरवालवन्धनं अर्द्धचन्द्रप्रतिविम्वरूपं प शोभातिशयार्थमिति, कालाविवर्णा याः महारुणित्ति स्नायवः शरीरान्तर्वर्धास्ताभिः सम्पिनद्धा-बडा जीवा-प्रत्यञ्चा यस्य तत्तथा, जीवितान्तकरणं शत्रूणा-8
मिति गम्यं, ईदृशधनुर्मुको आणोऽवश्य रिपुजयीत्यर्थः, चलजीवमिति विशेषणं त्वेतवर्णकवृत्ती षष्ठाने श्रीमभयदेव18 सूरिभिर्न व्याख्यातमिति न व्याख्यायते, यदि च भूयस्सु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादर्शेषु दृश्यमानत्वाद् व्याख्यातं विलो
क्यते तदा टण्कारकरणक्षणे पला-चञ्चला जीवा यस्य तत्तथा, पुनः किंकृत्वेत्याह-'उसुंच'त्ति इषु च गृहीत्या, तमेव 8 विशिनष्टि-परपजमग्यौ कोव्या-उभयप्रास्तौ यस्य स तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, परवज्रवत् सारं-अभेद्यत्वेनाभङ्गुरं तुण्ड-मुस्खविभागो भालीरूपो यस्य स तथा तं, काश्चनबद्धा मणयः-चन्द्रकान्ताचा कनकबद्धानि रसानिकर्केतनादीनि प्रदेशविशेपे यस्य स धौत इव पौतो निर्मलत्वात् इष्टो-धानुष्काणामभिमतः सुकृतो-निपुणशिल्पिना निर्मितः पुंख:-पृष्ठभागो यस्य स तथा तं, अनेकर्मणिरबैर्विविध-नानाप्रकारं सुविरचितं नामचिन्ह-निजनामवर्णपतिरूपं यत्र स तथा तं, पुनरपि किं कृत्वेत्याह-वैशाख-वैशासनामक स्थान-पादन्यासविशेषरूपं स्थित्वा-कृत्वा, बैशाख-181 स्थानकं चैवं-'पादौ सविस्तरी कायौं, समहस्तप्रमाणतः । वैशाखस्थानके वत्स!, कूटलक्ष्यस्य वेधने ॥१॥ इति,
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अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मागधती
थेकुमार
[४५]
P4
गाथा:
श्रीजम्बू-IS भूयोऽपि किं कृत्वेत्याह-इघुमुदारं-उद्भट आयतं-प्रयत्नवद् यथा भवत्येवं कर्ण यावदायतं-आकृष्ट कृत्वा इमानि | ३वक्षस्कारे द्वीपशा-1
वचनान्यभाणीदिति, अन्वययोजनं तु पूर्वमेव कृतं, कानि तानि वचनानीत्याह-हंदि इति सत्ये, तेन यथाशयं वदामी-18 न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
त्यर्थः, अथवा हंदीति सम्बोधने, शृण्वन्तु भवन्तः, शरस्य-मत्प्रयुक्तस्य बहिस्तात् त्वग्भागे ये देवा अधिष्ठायका| स्त्वग्दाादिकारिणस्ते इत्यर्थः, खलु वाक्यालङ्कारे, ते के इत्याह-नागा असुराः सुपर्णा-गरुडकुमाराःतेभ्यः खुः-नि-10
साधनं म. ॥२०१॥1॥श्चये नमोऽस्तु विभक्तिपरिणामात् तान् प्रणिपतामि-नमस्करोमि, नम इत्यनेन गतार्थत्वेऽपि प्रणिपतामीति पुनर्व-13]
चनं भक्त्यतिशयख्यापनार्थ, अनेन शरप्रयोगाय साहाय्यकर्तृणां बहिर्भागवासिनां देवानां सम्बोधनमुक्तं, अथाभ्य-1 न्तरभागवर्तिदेवानां सम्बोधनायाह-हन्दीति प्राग्वत्, नवरं अभ्यन्तरतो गर्भभागे शरस्य येऽधिष्ठायकास्तहानादिकारिण इत्यर्थः, तेऽत्र सम्बोध्या इत्यर्थः, सर्वे ते देवा मम विषयवासिनो-मम देशवासिन इत्यर्थः, सूत्रे चैकवचनं १ प्राकृतत्वात् , इदं च वचनं सर्वे एते देवा मदाज्ञावशंवदत्वेन मदिष्टस्य शरप्रयोगस्य साहायकं करिष्यन्तीत्याशयेनेति, यथाऽत्रादिचरित्रादौ शरस्य पुंखमुखरूपं देवाधिष्ठातव्यं स्थानद्वयमधिकमुक्तमस्ति तत्तयोः शरे प्राधान्यख्यापनार्थ,
ननु यद्येते देवा आज्ञावशवदास्तहि नमस्कार्यत्वमनुपपन्न, उच्यते, क्षत्रियाणां शस्त्रस्य नमस्कार्यत्वे व्यवहारदर्शनात् 18|| ॥२०१॥ 18|चक्ररलस्येव, तेन तदधिष्ठातूणामपि स्वाभिमतकृत्यसाधकत्वेन नमस्कार्यत्वं नानुपपन्न मिति, इतिकृत्वा-निवेद्य इ 18
निसृजति-मुशति । अथ भरतस्यैतत्प्रस्ताववर्णनाय पद्यद्वयमाह-परिगर'त्ति परिकरण-मल्लकच्छबन्धेन युद्धोचित
Serenesebedeocaeaceaeesccccc
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अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
वस्त्रबन्धविशेषेणेत्यर्थः, निगडितं-सुबद्धं मध्यं यस्य स तथा, वातेन-प्रस्तावात् समुद्रवातेनोद्भूतं-उत्क्षिप्तं शोभमान कौशेय-वस्खविशेषो यस्य स तथा, चित्रेण धनुर्वरेण शोभते स भरत इत्यध्याहार।, इन्द्र इव प्रत्यक्ष-साक्षात्तत्प्रागुक्त-10 स्वरूपं महाचापं चञ्चलायमान-सौदामिनीयमानं कान्तिझात्कारेणेत्यर्थः, आरोपितगुणत्वेन पञ्चमीचन्द्रोपर्म 'छजइत्ति || राजते 'राजेरग्घछज्जसहरीहरहा इति ( श्रीसिद्ध०८-४-१००) प्राकृतसूत्रेण रूपसिद्धिः, वामहस्ते नरपतेरिति, तस्मिन् |विजये-मागधतीर्थेशसाधने इति । 'तए 'इत्यादि, ततः स शरो भरतेन राज्ञा निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्वादश योज18|नानि गरवा मागधतीर्थाधिपतेर्देवस्य भवने निपतितः, ततः किं वृत्तमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः स मागधपति
| देवो भवने अर्थात् स्वकीये शरं निपतितं पश्यति दृष्ट्वा च आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोधोदयाद्विमूढः, 'रुप लुप च विमोहने' 18|| इति वचनात् , स्फुरितकोपलिङ्गो वा, रुष्ट:-उदितकोधः चाण्डिक्यितः-सज्जातचाण्डिक्यः, प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, 18
कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः, 'मिसिमिसेमाणे ति क्रोधाग्निना दीप्यमान इच, एकाथिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपाद-18 नार्थमुक्ताः, त्रिवलिकां-तिम्रो पलया-प्रकोपोत्थललाटरेखारूपा यस्यां सा तथा र्ता भृकुर्टि-कोपविकृतभूरूपां संह-18 रति-निवेशयति, संहृत्य च एवमवादीत्, किमवादीदित्याह-केस णमित्यादि, केसत्ति-का अज्ञातकुलशीलसहज-181 || त्वादनिर्दिष्टनामकः सकारः प्राकृतशैलीभवः 'मणसा वयसा कायसा' इत्यादिवत् णमिति प्राग्वत् भो इति सम्बो- 18 धने देवानां एषः-बाणप्रयोक्ता अप्रार्थित-केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावात् मरणं तस्य प्रार्थको-अभिलाषी, अय-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
श्रीजम्यू-1मर्थ:-यो मया सह युयुत्सुः स मुमूर्षरेवेति, दुरन्तानि-दुष्टावसानानि प्रान्तानि-तुच्छानि लक्षणानि यस्य स सथा, हीनायां विक्षस्कारे द्वीपशा- पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीनपुण्यचातुईशः, तत्र चतुर्दशी किल तिथिन्मिाश्रिता पुण्या पवित्रा शुभा इतियाषत् भवति, मानववा |सा च पूर्णाऽत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति अत आक्रोशता इत्यमुक्त, क्वचिद् 'भिन्नपुण्णचाउद्दसे'त्ति, तत्र भिमा-
कुमार
मा . या वृत्तिः
| परतिथिसङ्गमेन भेदं प्राप्ता या पुण्यचतुर्दशी तस्यां जात इति, हिया-उज्जया श्रिया-शोभया च परिवर्जितः यो णमिति । ॥२०२॥ पूर्ववत् मम अस्याः-प्रत्यक्षानुभूयमानायाः एतद्रूपायाः एतदेव न समयान्तरे भङ्गरत्वादिरूपान्तरभाक् रूपं-स्वरूपं
यस्याः सा तथा तस्या दिव्याया:-स्वर्गसम्भवा याः प्रधानाया था देवानामृद्धिः-श्रीभवनरनादिसम्पत् तस्याः, एवं सर्वत्र, 18|नवरं पुतिः-दीप्तिः शरीराभरणादिसम्पत् तस्याः युतिर्वा-इष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा तस्याः दिव्येन-प्रधानेन देवानु
भावेन-भाग्यमहिनाऽथवा दिव्येन-देवसम्बन्धिनाऽनुभावेन-अचिन्त्यवैक्रियादिकरणमहिना सह 'पिता पुत्रेण सहा-8 गत' इत्यादिवत्,लब्धाया-जन्मान्तरार्जितायाः प्राप्ताया-इदानीमुपस्थितायाः अभिसमन्वागताया:-भोग्यतां गतायाः उपरि आत्मना उत्सुको-मनसोत्कण्ठुला परसम्पश्यभिलाषी पदव्यत्ययावुत्सुकात्मा वा भवने निसृजति, इतिकृत्वा । सिंहासनादन्युत्तिष्यतीति । उत्थानानन्तरं यत्कर्त्तव्यं सदाह-जेणेव से णा इत्यादि, यत्रैष स नामरूपोऽहतः-अखण्डि- २०२॥
अक्का-चिन्हं यत्र स तथा मामाङ्क इस्यर्थः, एवंविधः शरतत्रैवोपागच्छति, तं नामाइताङ्क शरं गृहाति नामक अनुमवाधयति-वर्णानुपूर्वीक्रमेण पठति, नामकमनुप्रवाचयतोऽयं-यक्ष्यमाण एतदूपो-वश्यमाणस्वरूपः आत्मन्यधि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
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गाथा:
अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः आत्मविषय इत्यर्थः, सङ्कल्पश्च द्विधा-ध्यानात्मकः चिन्तात्मकच, तत्र आद्यः स्थिराध्यवसायलक्षणस्तथाविधदृढसंहननादिगुणोपेतानां द्वितीयश्चलाध्यवसायलक्षणस्तदितरेषामिति, तयोर्मध्येऽयं चिन्तित:चिन्तारूपश्चेतसोऽनवस्थितत्वात्, स चानभिलापात्मकोऽपि स्यादित्यत आह-प्रार्थितः-प्रार्थनाविषयः, अयं मम मनोरथः फलेग्रहियादित्यभिलाषात्मक इत्यर्थः, मनोगतो-मनस्येव यो गतो न बहिर्वचनेन प्रकाशित इति, सङ्कल्पः समुदपद्यत, तमेवाह-उत्पन्नः खलु:-निश्चये भो इत्यामन्त्रणे विचाराभिमुख्यकरणाय स्वात्मन एव, तेनेह मागधकुमारेति योज्य, जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे भरतो नाम राजा चातुरन्तचक्रवर्ती तत्-तस्माज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां 'मागधतीर्थकुमाराणा'मिति मागधतीर्थस्याधिपतिः कुमारो मागधतीर्थकुमारः मध्यपदलोपेन समासः,131 |कुमारपदवाच्यत्वं चास्य नागकुमारजातीयत्वात् , तन्नामकानां देवानां राज्ञां-वरदेवानां उपस्थानिक-भाभृतं कर्तु।। || सद् गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिकं करोमि, इतिकृत्वा-इति मनसिकृत्य एवं-वक्ष्य-17 माणं निजर्द्धिसारं संप्रेक्षते-पर्यालोचयति, ततः किं करोतीत्याह-संपेहेत्ता' इत्यादि, सम्प्रेक्ष्य च हारादीनि प्रतीतानि | चकारः सर्वत्र समुच्चये शरं च भरतस्य प्रत्यर्पणाय नामाहतं नामाहतामिति निर्देशे कर्तव्ये लाघवार्थमित्थमुपन्यासः यद्वा नाम आहत-लक्षणया लिखितं यत्र स तथा तं मागधतीर्थोदकं च राज्याभिषेकोपयोगि एतानि गृह्णा-13 | तीति सम्बन्धः, तदनन्तरं किं विदधे इत्याह-'गिहिचा ताएं उक्किटाए इत्यादि, गृहीत्वा च तया दिव्यया देव-18
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अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[४५]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 गत्या गत्यालापकव्याख्या प्राग्वत् नवरं सिंहया-सिंहगतिसमानया अतिमहता बलेनारब्धत्वात् , यच्च पूर्व ऋषभ- ३वक्षस्कारे द्वीपशा- देवनिर्वाणकल्याणाधिकारे गत्यालापककथनं यावत्पदेन अत्र च तत्कथनं विस्तरेण तद्विचित्रत्वात् सूत्रकारप्रवृत्ते- मागधताया वृचिः
कुमार| रिति मन्तव्यं, यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नो-नभोगतो देवानामभूमिचारित्वात् |
। सकिंकिणीकानि-क्षुद्रघण्टिकाभिः सह गतानि पञ्चवर्णानि च वस्त्राणि प्रवरं विधिपूर्वकं यथा स्यात् तथा परिहित:- ४५ ॥२०३॥ परिहितवान् , यथा पञ्चवर्णानि वस्त्राणि परिहितवान् तथा किंकिणीरपीत्यर्थः, किमुक्तं भवति -किंकिणीग्रहणेन तस्य |
शानदादियोग्यवेषधारित्वदर्शनेन भृशं तस्य भरते भक्तिः प्रकटिता, अथवा किंकिणीसमुत्थशब्देन सर्वजनसमक्षं सेव
कोऽस्मि न तु छन्नमिति ज्ञापनार्थ तत्सहित उपागतः, अथया सकिंकिणीकानि-बद्धकिंकिणीकानि, तद्वन्धश्च शोभातिशयार्थ, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा भरतं राजानं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्द्ध-18
यित्वा चैवमवादीत् , अत्र प्राग्वद् व्याख्यानमिति । किमवादीदित्याह-अभिजिए णमित्यादि, अभिजितं-आज्ञावर्शनवदीकृतं देवानुप्रियः-वन्द्यपादः केवलकल्प-सम्पूर्णत्वात् केवलज्ञानसदृशं भरतं वर्ष-भरतक्षेत्र पूर्वस्यां मागधतीर्थ-18
मर्यादया-मागधतीर्थ यावत् , तदहं देवानुप्रियाणां विषयवासी-देशवासी अत एवाहं देवानुप्रियाणामाज्ञप्तिकिङ्कारः-18 ॥२०॥ 18 आज्ञाकारी सेवकः, अहं देवानुप्रियाणां पौरस्त्यः-पूर्वदिकसम्बन्धी अन्त-त्वदादेश्यदेशसम्बन्धिनं पालयति-रक्षयति | 18 उपद्रवादिभ्य इत्यन्तपालः पूर्वदिग्देशलोकानां देवादिकृतसमस्तोपद्रवनिवारक इत्यर्थः, 'अण्णं देवाणुप्पिआणं'
दीप अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
गाथा:
इत्यादिपदानां भिन्नभिन्नप्रकारेण योजनीयत्वादत्र न पौनरुक्त्य, तत्प्रतीच्छन्तु-गृहन्तु देवानुप्रिया ! मम इदम्-अग्रत उपनीत एतद्रूपं प्रत्यक्षानुभूयमानस्वरूपं प्रीतिदानं-सन्तोषदान प्राभृतरूपमित्यर्थः, इतिकृत्वा-विज्ञप्य हारादिकमुपनयति-प्राभृतीकरोतीति, 'तए 'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य इदमेतद्रूपं प्रीतिदानं तत्प्रीत्युत्पादनार्थमलुब्धतया प्रतीच्छति-गृह्णाति, प्रतीष्य च' मागधतीर्थकुमारं देवं सत्कारयति वस्त्रादिना सन्मानयति तदुचितप्रतिपत्त्या सत्कार्य सन्माल्य च प्रतिविसर्जयति-स्वस्थानगमनायानुमन्यते । अथ तदुत्तरकत्र्तव्यमाह
'तए णं से भरहे राया रह'मित्यादि, ततः स भरतो राजा रथं परावर्त्तयति-भरतवर्षाभिमुखं करोति, परावर्त्य च 18| मागधतीर्थेन लवणसमुद्रात् प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य च यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च-बाह्या उपस्थान-3| 18 शाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तुरगान् निगृह्णाति निगृह्य च रथं स्थापयति स्थापयित्वा च रथात् प्रत्यवरोहति ॥१॥ प्रत्यवरुह्य च यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च मजनगृहमनुप्रविशति अनुप्रविश्य 'जावति यावत्करणात || संपूर्णः स्नानालापको वाच्यः 'ससिब पिअदसणे इति विशेषणं यावत्,स च प्राग्वत् ,नरपतिर्मज्जनगृहात प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव भोजनमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च भोजनमण्डपे सुखासनवरगतः सन्नष्टमभकं पारयति पारयित्वा च भोजनमण्डपात् प्रतिनिश्कामति प्रतिनिष्कम्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवो-18 पागच्छति उपागत्य च याचत्सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखो निषीदति निषध च अष्टादश श्रेणिप्रश्नेणीः शब्दयति शब्द
दीप
अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
श्रीजम्बू- मित्वा चैवमवादीदिति, अन सूत्रे यावच्चय्यो लिपिममादापतिस एव दृश्यते, संग्राहकपदाभाषात्, अभ्यत्र तद्गमा-३ वक्षस्कारे
द्वीपशा- दावरश्यमानत्वाचेति, अथ फिमवादीविल्याह-खिप्पामेवेति, सर्व प्राग्वत्, यथा राजाज्ञां पौरा विदधुस्तथा चाह- वा न्तिचन्द्री
माथेकुमारन्द्रीतए ण'मित्वादि, न्यक्तं, ततो मागधतीर्थकुमारदेवविजयाप्ताहिकामहामहिमानन्तरं चक्कर कीदृशं कच सञ्चचारे-12 या वृत्तिः
साधनं सू. त्याह-सए 'मित्यादि, ततस्तद्दिव्य चक्ररतं वनमयं तुम्ब-अरकनिवेशस्थानं यत्र तत्तथा, लोहिताक्षररक्षमया ॥२०॥ अरका यत्र तत्तथा, जाम्बूनद-पीतसुवर्ण तन्मयो नेमिः-धारा यत्र तत्तथा, नानामणिमयं अन्तः क्षुरप्राकारत्वात् ।
क्षुरमरूपं स्थालं-अन्तःपरिधिरूपं तेन परिगतं यत्तसथा, मणिमुक्काजालाभ्यां भूपित, नन्दिा-भम्भामृदङ्गादिदिश-18 | विधसूर्यसमुदायस्तस्य योषस्तेन सहगतं यत्तत्तथा, सकिङ्किणीकं-क्षुद्रघण्टिकाभिः सहितं, दिव्यमिति विशेषणस्य प्रागु
तत्वेऽपि प्रशस्ततातिशयख्यानार्थ पुनर्वचनं, तरुणरविमण्डलनिभं नानामणिरत्नघण्टिकाजालेन परिक्षिप्त-सर्वतो व्याप्तं, 'सबोउ'इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् नाम्ना च सुदर्शनं नरपतेः-चक्रिणः प्रथम-प्रधानं सर्वरलेषु तस्य मुख्य-18 स्वाद्वैरिविजये सर्वत्रामोघशक्तिकत्वाच चक्ररलं, प्रथमशब्दस्य पढमे चंदयोगे' इत्यादी प्रधानार्थकत्वेन प्रयोगदर्श-13 नान्नेबमसङ्गतिभार व्याख्यानमिति, मागधतीर्थकुमारस्य देवस्य अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यां आयुध-18 | गृहकालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च दक्षिणपश्चिमां दिशं-नैर्ऋती विदिशं प्रतीति शेषः, वरदामतीर्थाभिमुखं प्रयात-चलितं चाप्यभवत् , अयं भावः-शुद्धपूर्वास्थितख शुद्धदक्षिणवर्तिवरदामतीर्थ बजतः आग्नेय्या
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अनुक्रम [६२-६७]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [४५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
गाथा:
विदिशागमने-प्रतीचीदिशागमने वक्रः पन्थाः तेनैवमुक्तं, यच्च ऋषभचरित्रे-"दक्षिणस्यां वरदामतीथ प्रति ययौ | ततः । चक्रं तच्चक्रवती च, धातुं प्रादिरिवान्वगाद् ॥१॥" इत्युक्तं तन्मूलजिगमिषितदिग्विवक्षणात्, यच्चान चक्र-18 | रत्नस्य पूर्वतः दक्षिणदिशि गमनं तत्सृष्टिक्रमेण दिग्विजयसाधनार्थम् ।
तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं दाहिणपञ्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्याभिमुहं पयातं चावि पासह २ का हशुढ० कोढुंबिअपुरिसे सरावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! हयगयरह पवर चाउरंगिर्णि सेण्णं सण्णाहेह आमिसेकं हत्थिरयणं परिकप्पेहत्तिकटु मजणघरं अणुपविसइ २ ता तेणेव कमेणं जाव धवलमहामेहणिग्गए जाव सेभवरचामराहि उद्धमाणीहिं २ माइअवरफलयपवरपरिगरखेडयवरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उकडबरमउद्धतिरीडपडागझववेजयंतिचामरचलंतछत्तधयार कलिए असिखेवणिखग्गचावणारायकणयकप्पणिसूललउडभिडिमालवणुहतोणसरपहरणेहि अ कालणीलरुहिरपीअमु. फिल्लअणेगचिंधसयसण्णिविढे अप्फोडिअसीहणायडेलिभयहेसिअहस्थिगुलगुलाइअअणेगरहसयसहस्लघणघणेतणीहम्ममाणसहसहिएण जमगसमगर्भमाहोरंभकिर्णितखरमुहिमुगुंबसंखिअपरिलिवच्चगपरिवाइणिसवेणुवीपंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिअकलतालकंसतालकरधाशुत्पिदेण महता सहसणिणादेण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिखुढे बेसमणे व धणवई अमरपतिसण्णिभाइ इद्धीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकच्चड तहेब सेसं जाब विजयखंधावारणिवेसं करेइ २ ता बद्धारयण सहावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुष्पिआ! मम आवसहं पोसहसालं च करेहि, ममेप्रमाणत्तिों पञ्चप्पिणाहि (सूत्र ४६)
दीप
अनुक्रम [६२-६७]]
Oscecene
severesea
श्रीन
अत्र चक्ररत्नस्य दिग्विजय-साधनार्थे गमनं वक्तव्यता वर्तते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------- मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशा
सूत्रांक
[४६]]
टीप
'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररलं दक्षिणपश्चिमा दिशं प्रति घरदामतीर्थाभिमुख प्रयात ||३पक्षस्कारे
चापि पश्यति, दृष्ट्वा च हहतुकृत्ति आलापकादिपदैकदेशग्रहणात् सम्पूर्णालापको ग्राह्यः, स चायं-'हहतुकृचित्तमा-1 वरदामवीन्तिचन्द्रीया वृत्तिः | दिए' इत्यादिकः प्रागुक्त एव, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्, किमवादीदित्याह-'खिप्पा-1
म.४६ मेवत्ति प्राग्व्याख्यातार्थ, अत्र लाघवार्धमतिदेशवाक्येनाह-'तेणेव कमेण मित्यादि, तेनैव क्रमेण-पूर्वोक्तस्नानाधि॥२०५॥ कारसूत्रपरिपाव्या तावद् वाच्यं यावद् धवलमहामेहणिग्गए' इत्यादि निगमनसूत्र, तदनु यावच्छेतघरचामरैरुद्धूयमान
। रित्यन्तं राजकुञ्जराधिरोहणसूत्रं वाच्यमिति, अथ यथाभूतो भरतो वरदामतीर्थ प्राप्तो यथा च तत्र स्कन्धावारनि| वेशमकरोत्तथाऽऽह, अत्र च सूत्रे वाक्यद्वयं, तत्र चादिवाक्ये तहेव सेसमित्यतिदेशपदेन सूचिते ग्रन्थे 'जेणेव वरदाम
तित्थे तेणेव उवागच्छई' इत्यनेनान्वययोजना कार्या, सा चैवम्-स भरतो यत्रैव वरदामतीर्थ तत्रैवोपागच्छतीति,8] 1 द्वितीयवाक्ये च विजयस्कन्धावारनिवेशं करेइ इत्यनेनेति, किंलक्षण इत्याह-माइय'त्ति हस्तपाशितं वरफलक-प्रधा- |
नखेटक यैस्ते तथा प्रवरः परिकरः-प्रगाढगात्रिकाबन्धः खेटकं च येषां ते तथा, फलक दारुमयं खेटकं च वंशश-18 8 लाकादिमयमिति न पौनरुत्य, परवर्मकवचमान्य:-सन्नाहविशेषा येषां ते तथा, एषां च विशेषस्तकलाकुशलेभ्यो ||| ॥२०॥
वेदितव्यः, यथा वर्म लोहकुतूहलिकामयं इत्यादि, ततः पदत्रयकर्मधारयः, तेषां सहस्रः-वृन्दवृन्दैः कलितो यः स । ॥ सथा, राज्ञां हि प्रयाणसमये युद्धाङ्गानां सह सञ्चरणस्यावश्यकत्वात् , उत्कटवराणि-उन्नतप्रवराणि मुकुटानि प्रतीतानि ||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[४६]
दीप
। किरीटानि-तान्येव शिखरत्रयोपेतानि पताका-लघुपटरूपा ध्वजा-वृहत्पटरूपा वैजयन्स्यः-पार्थतो लघुपताकिकाद्वय-18! | युक्ताः पताका एव, चामराणि चलन्ति छत्राणि तेषां सम्बन्धि यदन्धकार-छायारूपं तेन कलितः, अत्रान्धकारशब्दान्तसमासपदा आर्षत्वात् तृतीयैकवचनलोपो द्रष्टव्यः कलित इति च पृथगेय तेन वक्ष्यमाणानन्तरसूत्रे कलितशब्दो योजनीयोऽन्यथा तत्स्थधकारस्य नैरर्यक्यापत्तो, यद्वा अत्र समस्तोऽपि कलितशब्दश्चकारकरणवलादेव तत्रापि योजनीय इति, प्रस्तुतविशेषणस्यायं भावार्थ:-चलतश्चक्रिणो मुकुटादिका तत्सैन्यस्य च छत्रव्यतिरिक्ता सामग्री तथा
अस्ति यथाऽध्वनि मनागपि आतपक्केशो नास्तीति, अत्र भरतसैन्यसम्बद्धा छाया भरतस्य विशेषणत्वेन सम्बनते, 8 सैन्यकृतो जयः स्वामिन्येषेति व्यवहारदर्शनाद, पुनर्भरतमेव विशिनष्टि-असय:-सङ्गविशेषाः क्षिप्यन्ते सीसकगु8 टिका आभिरिति पिण्यो-हयनालिरिति डोकप्रसिद्धा खड्गा: सामान्यतः पापा-कोदण्डा नाराचा:-सर्वलोह|बाणा: कणका-आणविशेषाः कल्पम्पा-पाया गुलानि-प्रतीतानि लकुटा:-प्रतीता। भिन्दिपाला-हस्तक्षेप्याः महा-18 फला दीर्घा मायुधविशेष परि-वंशमयमाणासनानि किरातजनप्रामाणि तूणा:-तूणीराः शराः-सामान्यतो बाणाः इत्यादिभिः पहरणैः, अबकारेण विशेषणाच्या समस्खोऽसमस्तों वा कलितशब्दो योज्या, तेन तैः संयुक्त इति, दिग्विजयोपताना राज्ञां हिंसाविनाचहीनि भवन्तीति शापित, कथमुक्तपारणैः कलित इत्याह-काले-' त्यादि, अन सघिरजम्दो रका तेबसानीखरकपीतशक्कानि जातितः पचवर्णानि व्यक्तिस्तु तदवान्तरभेदादने
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BASANSARRORORSE
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा-1
सूत्रांक
श्रीजम्यू- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२०६॥
[४६]
टीप
करूपाणि यानि चिह्नशतानि तानि सन्निविष्टानि येषु तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणतया बोध्यं, कोऽर्थः-राज्ञां हि ||३वक्षस्कार |शखाध्यक्षास्तत्तजातीयतत्तद्देशीयशस्त्राणां निर्विलम्ब परिज्ञानाय शस्त्रकोशेषु उक्तरूपाणि चिह्नानि निवेशयन्ति शस्त्रेषु वदामती |च तत्तद्वर्णमयान् केशान् कुर्वन्तीत्यर्थः, अथ तूर्यसामग्रीकधनद्वारा भरतमेव विशिनष्टि-आस्फोटित-करास्फोटरूपं साधने सिंहनाद:-सिंहस्खेव शब्दकरणं 'छेलिज'त्ति सेंटितं हर्षोत्कर्षेण सीत्कारकरणं हयहेषितं-तुरङ्गमशब्दः हस्तिगुलुगुला-1
सू.४६ यित-गजगजित अनेकानि यानि रथशतसहस्राणि तेषां 'घणघणेत'त्ति अनुकरणशब्दस्तथा निहन्यमानानामश्वानां च तोत्रादिजशब्दास्तैः सहितेन तथा यमकसमक-युगपत् भम्भा-ढका होरम्भा-महाढका इत्यादि तूर्यपदव्याख्या प्रागु-18 कचुटिताङ्गकल्पद्रुमाधिकारतो ज्ञेया नवरं कलो-मधुरस्तालो-घनवाद्यविशेषः कंसताला-प्रसिद्धा करध्मान-परस्परं 13 हस्तताडनं एतेभ्य उत्थितः-उत्पन्नो यस्तेन महता शब्दसन्निनादेन सकलमपि जीवलोक-ब्रह्माण्डं पूरयन् , बलंचतुरङ्गसैन्यं वाहन-शिबिकादि एतयोः क्रमेण समुदयो-वृद्धिर्यस्य स तथा, णमिति वाक्यालङ्कारे, अथवा बलवाह-8 नयोः समुदयेन युक्त इति गम्यं, एवमुक्तेन प्रकारेण भरतचक्रिविशेषणत्वेनेत्यर्थः, मागधतीर्थप्रकरणोक्तानि वक्षसह-18
सम्परिवृतं इत्यादीनि विशेषणानि ग्राह्याणि, तत्र सूत्रे साक्षाल्लिखितानीति, अथ प्रथमवाक्ये अत्र लिखितानि तहेवसेस'मित्यतिदेशपदेन सूचितानि च विशेषणानि वाचयितॄणां सौकुमार्यायैकीकृत्य लिख्यन्ते, यथा-'जक्ससहस्ससंपरितुडे वेसमणे चेव धणवई अमरबई सण्णिभाए इहीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणा
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [ ४६ ]
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अनुक्रम [६८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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समसंवाह सहस्समंडिअ थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिणमाणे २ अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छमाणे २ तं दिवं चकरयणं अणुगच्छमाणे २ जोअनंतरिआहिं बसहीहिं वसमाणे २ जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छत्ति व्याख्या च प्राग्वत्, अथ द्वितीयवाक्येऽपि अत्रोक्तविशेषणसहितो यावत्पदसूचितो प्रन्थो लिख्यते यथा- 'उवागच्छित्ता वरदामतित्थस्स अदूरसामंते दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेस करेइति प्राग्वत्, अथ ततः किं चक्रे इत्याह- 'करिता' इत्यादि, सर्वमुक्तार्थं । अथ राजाऽऽज्ञध्यनन्तरं कीदृग् वर्द्धकिर कीदृशं च वैनयिकमाचचारेत्याह
तर णं से आसमदोणमुहगामपट्टणपुरवरसंधावारगिदावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु समेसु चैव वत्थू णेगगुणजाणए पंडिए विहिष्णू पणयालीसाए देववाणं वत्थुपरिच्छाए गेमिपासेसु भत्तसाला कोट्टणिलु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छेजे वेज्झे अ दाणकम्मे पाणबुद्धी जलवाणं भूमियाण य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तदेव स वत्थुप्पएसे पहाणे ग्रभिणिकण्णरुक्खवलिबेडिअगुणदोसाविआणए गुणट्टे सोठसपासावकरणकुसले चसट्ठिविकल्पबित्थियमई णंदावन्ते य वद्धमाणे सोत्थिroor तह सवओभरण्णिवेसे अ बहुविसेसे इंडिअदेवको दारुगिरिखायवाद्दणविभागकुसले-इअ तस्स बहुगुण थवईरयणे गरिंदचंदस्स | तवसंजमनिविट्टे किं करवाणीतुवट्ठाई ॥ १॥ सो देवकम्मविहिणा संधावारं परिद्वयणेणं । आवसहभवणकलिअं करेइ सवं मुहणं ||२|| करेता पवरपोसहघरं करेइ २ ता जेणेव भरहे राया जाव एतमाणत्तिअं खिप्पामेव पक्षप्पिणइ, सेसं
अथ वास्तु-निवेशविधि: वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
18 वास्तुनिवे
(४७)
गाथा:
श्रीजम्बू- II तहेब जाव माणघराजोपनिजिक्समा २ सा मेणेव माहिरिभा वट्ठाणसाला श्रेणेव चावाटे भासणे तेणेव ध्यागच्छा ( सूत्र ४७) ||३वक्षस्कारे द्वीपशा
'तए णमित्यादि, ततस्तद्धर्ब फिरतमहं कि करवाणि आदिशन्तु देवानुपिया इतिकर्तव्यमित्युवित्वोपतिष्ठते, स्तिचन्द्रीमा राजानमिति शेषः, राज्ञ आसन्नमायातीत्यर्थः, इत्यन्वययोजनमतनपदैः सह कार्य, कीदशं तद्वर्द्धकिरक्षामित्याह
शविधि
.४७ 1 आश्रमादयः प्राग्व्याख्यातार्थाः नवरं स्कन्धावारगृहापणाः प्रतीताः एतेषां विभागे-विभजने उचितस्थाने तदवयंव॥२०७॥
|| निवेशने कुशलम्, अथवा-'पुरभवनमामाणां ये कोणास्तेषु निवसता दोषाः । श्वपचादयोऽन्त्यजातास्तेष्वेव विवृद्धि|| मायान्ति ॥१॥' इत्यादियोग्यायोग्यस्थानविभागझं, एकाशीतिः पदानि-विभागाः प्रतिदैवतं विभक्तग्यवास्तुक्षेत्रखण्डा-1
नीतियावत् तानि यत्र तानि तथा एवंविषेषु पास्तुषु-गृहभूमिषु सर्वेषु चैव-चतुःषष्टिपदशतपदरूपेषु वास्तुषु,
चैवशब्दः समुचये, स च वास्त्वन्तरपरिग्रहार्थः, अनेकेषां गुणानामुपलक्षणाद् दोषाणां च ज्ञायक, पण्डा जाता अस्येति 18 तारकावित्वाविते पण्डित-सातिशयबुद्धिमत्, अथ यदि वास्तुक्षेत्रस्यैकाशीत्याचा विभागास्तहिं तावतां विभागानां
विभाजकास्तावत्यो देवता भविष्यन्तीत्याशवाह-विधिज्ञ-पञ्चचत्वारिंशतो देवतानां रचितस्थाननिवेशनानादिषि-1॥२०७॥ 18 विज्ञमित्यर्थः । अथ यथा पञ्चचत्वारिंशतोऽपि देवानामेकाशीत्यादिपदवास्तुभ्यासस्तथा तसिस्पिशास्त्रानुसारेण
दयेते, यथा स्थापना
दीप अनुक्रम [६८-७२]
Pratee
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
एकाशीतिपदवास्तुन्यासः॥ चतुपरिपरवान्यास
शतपदवास्तुन्वासः॥ वर हा प. ज.। इलाम १ स.न. म. पिपर था. प. ज. ) हास् १ स.काकाका कवर है. प. १ ज.। ।३१म् । स. ११न यावि
सूत्रांक
अपव
को
अपचलावि.
दा
बर्यमा
(४७)
सो. पृथ्वीवर अमादेवः विवस्वा.
पृथ्वीधर मझा देव विवस्वा.
ISESSIST
पीधरामधाच
गाथा:
seeeeeeeeeesesenta
मरा
cataesesedeo8saceaeacpeaks
यशो ..भ.
ज.
1.सु.पि.पूत पारो. यशो .
ज.पु.म.वी. पि. पपा
म.
. शो।
दीप अनुक्रम [६८-७२]
एतत्संवादनाय सूत्रधारमण्डनकृतवास्तुसारोक्तिरपि लिख्यते, यथा-"चतुःपया पदैर्वास्तु, पुरे राजगृहेऽर्चयेत् ।। एकाशील्या गृहे भागः, शतं प्रासादमण्डये ॥१॥ ईशा १ पर्जन्यो २ ज ३ न्द्री ४, सूर्यः ५ सत्यो । भृशो
Sants
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [४७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७]
गाथा:
भोजप-18|नभः अग्निः पूषा १०थ वितथो ११, गृहक्षत १२ यमौ १३ ततः ॥२॥ गन्धर्वो १४ भृजराज १५ श्व, वक्षसारे
| मृगः १६ पितृगण १७ स्तथा । दीवारिकोऽथ १८ सुग्रीव १९ पुष्पदन्ती २० जलाधिपः २१ ॥३॥ असुरः २२|| 18 शोष २३ यक्ष्माणौ २४, रोगो २५ऽहि २६ मुख्य २७ एव च । भल्वाट २८ सोम २९ गिरय ३० स्तथा बाह्येऽदिति-18
18 २१ दितिः ३२॥४॥ आपो २३ ऽपवत्सा ३४ वीशेऽन्तः, सावित्रः ३५ सविता ३६ ऽग्निगौ। इन्द्र ३७ इन्द्रजयो-18 ॥२० ३८ ऽन्यस्मिन, वायौ रुद्र ३९ श्व रुद्रराट् ४० ॥५॥ मध्ये ब्रह्मा ४१ ऽस्य चत्वारो, देवाः प्राच्यादिदिग्गताः ।
|| अर्यमाख्यो ४२ विवस्वा ४३च, मैत्रः ४४ पृथ्वीधरः ४५ क्रमात् ॥६॥ ईशकोणादितो बाहो, परकी १च विदा-18) रिका २। पूतना ३ पापा ४ राक्षस्यो, हेतुकाद्याश्च निप्पदाः ॥ ७॥ चतुःषष्टिपदैर्वास्तु, मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः । अर्य-18 | माद्याश्चतुर्भागा, द्विव्यंशा मध्यकोणगाः ॥ ८॥ बहिः कोणेष्वर्द्धभागाः, शेषा एकपदाः सुराः । एकाशीतिपदे ब्रह्मा, नवार्याद्यास्तु षट्पदाः ॥९॥ द्विपदा मध्यकोणेऽष्टी, बाह्ये द्वात्रिंशदेकशः । शते ब्रह्माष्टसङ्ख्यांशो, बाह्यकोणेषु सार्द्धगी| ॥१०॥ अर्यमाद्यास्तु वस्वंशाः, शेषाः स्युः पूर्ववास्तुवत् । हेमरक्षाक्षतायैस्तु, वास्तुक्षेत्राकृतिं लिखेत् ॥११॥ अभ्यर्च्य पुष्पगन्धाढ्यैबलिदध्याज्यमोदनम् । दद्यात् सुरेभ्यः सोकारैर्नमोऽन्तैर्नामभिः पृथक् ॥ १२॥ वास्त्वारंभे प्रवेशे वा, ॥२०॥ श्रेयसे वास्तपूजनम् । अकृते स्वामिनाशः स्थात, तस्मात्पूज्यो हितार्थिभिः ॥१३॥" अब च वराहमिहिरोक्त एका-HI
शीतिपदस्थ स्थापनाविधिरय-"एकाशीतिविभागे दश २ पूर्वोत्तरायता रेखाः। अंतस्त्रयोदश सुरा द्वात्रिंशद्वाह्यकोष्ठस्थाः Snilon
दीप अनुक्रम [६८-७२]
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आगम
(१८)
सूत्रांक [ ४७ ]
+
गाथा:
अनुक्रम [६८-७२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [४७] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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॥ १ ॥” इति । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते— 'वत्थुपरिच्छाए'ति, अत्र चशब्दोऽध्याहार्यस्तेन वास्तुपरीक्षायां च विधिज्ञमिति योज्यं, "गृहमध्ये हस्तमितं खात्वा परिपूरितं पुनः श्वस्वम् । ययूनमनिष्टं तत् समे समं धन्यमधिकं चेत् ॥ १||" इत्यादि, अथवा वास्तूनां परिच्छदे - आच्छादनं- कटकम्बादिभिरावरणं तत्र विधिज्ञं यथार्हकटकम्बादिविनियोजनात्, तथा | नेमिपार्श्वेषु सम्प्रदाय गम्येषु भक्तशालासु - रसवतीशालासु कोनीषु-को-दुर्गं स्थायिराजसत्कं नयन्ति - प्रापयन्ति यायिराज्ञामिति व्युत्पत्त्या कोहन्यः - याः कोट्टमहणाय प्रतिको दृभित्तय उत्थाप्यन्ते तासु चशब्दः समुच्चये, तथा वासगृहेषु शयनगृहेषु विभागकुशलं यथौचित्येन विभाजकं, चः समुच्चये, तथा छेद्यं-छेदनाई काष्ठादि वेध्यं - वेधनाई तदेव चः समुच्चये दानकर्म-अङ्कनार्थं गिरिकरतसूत्रेण रेखादानं तत्र प्रधानबुद्धिः, तथा जलगानां - जलगतानां भूमिकानां | जलोत्तरणार्थकपथाकरणाय भाजनं यथौचित्येन विभाजकं, चः समुच्चये, उन्मग्नानिमग्नानद्याद्युत्तरे तस्यैतादृश सामर्थ्यस्य सुप्रतीतत्वात्, जलस्थलयोः सम्बन्धिनीषु गुहाविव गुहासु सुरङ्गास्वित्यर्थः तथा यन्त्रेषु - घटीयन्त्रादिषु परिखासु-प्रती| तासु, चः पूर्ववत् कालज्ञाने चिकीर्षितवास्तुप्रशस्ताप्रशस्तलक्षणपरिज्ञाने, "वैशाखे श्रावणे मार्गे, फाल्गुने क्रियते गृहम् । | शेषमासेषु न पुनः, पौपो वाराहसम्मतः ॥ १ ॥" इत्यादिके, तथैवेति वाच्यान्तरसंग्रहे शब्दे - शब्दशास्त्रे सर्वकलान्युत्पत्तेरेतन्मूलकत्वात् वास्तुप्रदेशे गृहक्षेत्रकदेशे “ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम् । नैर्ऋत्यां भाण्डोपरकरोऽर्थ धान्यानि मारुत्याम् ॥ १ ॥" इत्यादिगृहावयवविभागे शास्त्रोक्तविधिविधाने प्रधानं मुख्यं गर्भिण्यो - जात
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
शावादी
[४७]]
गाथा:
भीषम-गर्भारतिमिलनेवाली कन्या काय अथवा दीपा- वास्तुक्षेत्राचा पशिवेष्टितानि-मायें कात्ययविधानात् वल्लिवेष्टनानि-वास्वक्षेत्रोतवक्षेप्यारोष्णानि
वाखाण न्तिचन्द्री- दोषारतेषां विज्ञविर्क-विशेषज्ञ, ते मे गम्भिणीवल्लिास्तुपरूढा आसनफलदा, कन्या च सा तत्रैव नासशफला, या चिः॥
॥ वृक्षाच प्लक्षवटाश्वत्थोदुम्बराः प्रशस्ताः आसमाः कण्टकिनो रिपुभयदा" इत्यावि, प्रशस्तदुमकाष्ठं वा गृहादि प्रशस्तै, ॥२०॥
शवलिवेष्टितानि प्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि प्रशस्तानि गृहमहीषु न चाप्रशस्तवल्लिसम्बधीनि, एनमेवार्थमाह वराहा-"स्त्री-|| |पधिदुमलतामधुरा सुगन्धा, स्निग्धा समा न शुषिरा च मही नृपाणाम् । अध्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां, धत्ते श्रियं । | किमुत शाश्वतमन्दिरेषु १॥१॥" पुनस्तदेव विशेषयन्नाह-गुणान्यः-प्रज्ञाधारणाबुद्धिहस्तलाघवादिगुणवान पोडश || प्रासादा:-सान्तनस्वस्तिकादयो भूपतिगृहाणि तेषां करणे कुशलः, चतुःषष्टिविकल्पाः गृहाणां वास्तुप्रसिद्धाः तत्र विस्तृ-18।
ता-अमूढा मतिर्यस्य स तथा, विकल्पानां चतुःषष्टिरेव-प्रमोदविजयादीनि षोडश गृहाणि पूर्वद्वाराणि स्वस्तनादीनि || दापोडश दक्षिणद्वाराणि धनदादीनि पोडश उत्तरद्वाराणि दुर्भगादीनि षोडश पश्चिमद्वाराणि सर्वमीलने चतुःषष्टिरिति, IS
नन्द्यावर्ते-गृहविशेषे एवमग्रेतनविशेषणेष्वपि, चः समुच्चये, वर्द्धमाने स्वस्तिके रुचके तथा सर्वतोभद्रसन्निवेशे च बहु-19 ॥२०॥ विशेष:-प्रकारो शेयतया कर्तव्यतया च यस्य तत् तथा, सूत्रे च कचित् सप्तमीलोपः प्राकृतस्यात्, नन्यावादि-MS गृहविशेषस्त्वयं वराहोक्तः "नन्द्यावर्त्तमलिन्दैः शालाकुड्यात् प्रदक्षिणान्तगतैः। द्वार पश्चिममस्मिन् विहाय शेषाणि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [४७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७]
३ कार्याणि ॥१॥द्वारालिंदोऽन्तगतः प्रदक्षिणोऽन्यः शुभस्ततश्चान्यः । तद्वच्च वर्द्धमाने द्वारं तु न दक्षिणं कार्यम् ॥२॥ ॥ अपरान्तगतोऽलिन्दः प्रागन्तगती तदुत्थितौ चान्यौ। तदवधिविधृतश्चान्यः प्रारद्वारं स्वस्तिकं शुभदम् ॥ ३॥ अप्रति
पिद्धालिन्दं समन्ततो वास्तु सर्वतोभद्रम् । नृपविबुधसमूहानां कार्य द्वारैश्चतुर्भिरपि ॥४॥" पुनस्तदेव विशिनष्टि
ऊर्ध्व दण्डे भव उद्दण्डिकः, भवार्थे इकः, अर्थात् ध्वजा, देवाः-इन्द्रादिप्रतिमाः कोष्ठ:-उपरितनगृहं धान्यकोष्ठो 19 वा दारूणि-वास्तूचितकाष्ठानि गिरयो-दुर्गादिकरणार्थ जनावासयोग्याः पर्वताः खातानि-पुष्करिण्यादिकानि वाह-18॥ |नानि-शिविकादीनि एतेषां विभागे कुशलं, ध्वजविभागस्त्वेवं-"दण्डः प्रकाशे प्रासादे, प्रासादकरसलया। सान्धकारे || पुनः कार्यो, मध्यप्रासादमानतः॥१॥" शेषं तत्तद्ग्रन्थेभ्योऽवसेयं, इत्युक्तप्रकारेण बहुगुणाढ्यं तस्व नरेन्द्रचन्द्र-11 स्थ-भरतचक्रिणः स्थपतिरक्ष-वर्द्धकिरतं तपःसंयमाभ्यां करणभूताभ्यां निर्विष्टं-लब्धमिति, किं करवाणीत्यादि तु| माग्योजितमेव, अथोपस्थितः सन् वर्द्धकिर्यदकरोत्तदाह-'सो देव' इत्यादि, स-वईकिः देवकर्मविधिना-देवकृत्यप्रकारेण चिन्तितमात्रकार्यकरणरूपेणेत्यर्थः स्कन्धावारं नरेन्द्रवचनेन आवासा-राज्ञां गृहाणि भवनानीतरेषां तैः कलितं करोति सर्व मुहूर्सेन निर्विलम्बमित्यर्थः, कृत्वा च प्रवरपौषधगृहं करोति, कृत्वा च भरतो राजा यावत्पदात् 'तेणेव | |उवागच्छइ २त्ता' इति प्राह्यम्, एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पवति, 'सेसं तहेवे'त्यादि सर्व प्राग्वत् ।
उवागच्छित्ता. तते तं धरणितलामणलहूं ततो बहुलक्खणपसत्यं हिमवतकदरंतरणिवायसंवद्धिअचित्ततिणिसदलिअं जंबू
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गाथा:
दीप अनुक्रम [६८-७२]
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अथ चतुर्घन्टा अश्वरथस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४९]
दीप
अनुक्रम
[७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२१०॥
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यसुयकूवरं कणयइंडियारं पुलयवरिंदणील सासगपवाउफ लिहवश्रयणले डुमणिविदुम विभूसिभं अडवाडीसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहिजुत्त पसिभवसि अनिम्मिअनवपट्टपुट्टपरिणिद्विअं विसिद्दणवलोडबद्धफम्मं हरिपहरणरयणसरिसचकं ककेयणइंदणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्यविच्छिण्णसमधुरं पुरखरं च गुप्तं लुकिरणतवणिजजुप्तकलिअं कंकटयणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजायं खेडगकणगधणुमंडलग्गधरसतिकोत तोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंडिर्भ कणगरयणचित्तं जुतं हलीमुहबलागगयदंतचंद मोत्तिभतणसोल्लिअकुंदकुंडयनर सिंदुवारकंदलवरफेणणिगरहारका सप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणजइणचचलसिग्धगामीहिं चउहिं चामराकणगविभूसिअंगेहिं तुरगेहिं सच्छतं सायं सघंट सपडागं सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिअसमरकणगगंभीरघोसं वरकुप्परं सुकं वरनेमीमंडलं वरधारातोंड वरवइरबद्धतुंबं वरकंचणभूसिभं वरावरिअणिम्मि ब्रतुरगसंपत्तं वरसारहिसुसंपग्गहि वरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे पवरैरयणपरिमंडिअ कणयखिखिणीजालसोमिअं अउज्झं सोआमणिकणगतविअपंकयजासुअणजलणजलिअसुअतोंडरागं गुंजद्ध बंधुजीवगरन्तहिंगुलगणिगर सिंदूररुइलकुंकुमपारवयचलणणयणकोइलदसणावरण रहताति रेगर तासोगकणगके सुअगयतालु सुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं वित्रफलसिलप्पवाद्वितसूरसरिसं सबोउअसुर हिकुसुम आस तमहृदामं कसिअसेअझयं महामेहरसिअगंभीरणिद्धघोसं सतुहियकंपणं पभाए अ सस्सिरीनं णामेणं पुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्सुतजसोऽयं चाउघंटं आसरहं पोसहिए णरवई दुरूटे, तए णं से भरहे राया भाउघंटे आसरहं दुरूढे समाणे सेसं तद्देव दाहिणामिमुद्दे वरदामतित्येणं लवणसमुदं भगाहइ जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से, णवरिं चूडामणि च दिवं उर त्यगेवागं सोणिअमुत्तगं कढगाणि भ डिआणि अ जाव दाहिणि अंतवाले जाव अट्ठाहिअं महामहिमं करेति २ ता एमाण
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३ वक्षस्कारे चतुषेण्टाश्वरथव.
सू. ४८
॥२१०॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(४९)
त्तिों पचप्पिणति, तए णं से विधे यकारयणे वरदामतित्यकुमारस्स देवरस अहाहिआए महामहिमाए निधत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमह २ चा अंतलिक्खपडिवण्णे जाव पूरते चेव अंबरतलं उत्तरपञ्चत्थिमं दिसि पभासतिस्थाभिमुहे पयाते यावि होत्या, तए णं से भरहे राया तं दिवं चकरयणं जाव उत्तरपञ्चस्थिमं दिसिं तहेब जाव पचत्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ २ चा जाव से रहवरस्स कुप्परा उहा जाब पीइदाणं से णवरं मालं माडि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि अ तुडिआणि अ आभरणाणि अ सरं च णामायकं पभासतित्योदगं च गिहाइ २ त्ता जाव पचत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पिाणं विसयवासी जाव पञ्चथिमिल्ले अंतवाले, सेसे तहेव जाब अहाहिआ निवत्ता । (सूत्र ४९)* 'उषागच्छित्ता तते णमित्यादि, उपागत्य चणमिति प्राग्वत् तं प्रसिद्धं वरपुरुषो-भरतचक्री परमहारचं आरूढ इति सम्बन्धः, कीरशमित्याह-धरणितलगमने लघु-शीमं शीघ्रगामिनमित्यर्थः, कीडशो वरपुरुष इत्याह-तत:-सर्वत्र || |जयसम्भाधनाजनितप्रमोदरसपुलकिततया विस्तीर्णः प्रफुल्लाहदय इत्यर्थः, अथ पुना रथं विशिनष्टि-बहुलक्षणप्रशस्त | हिमवत:-क्षुद्रहिमवगिरेः निर्यातामि-पातरहितानि यानि कन्दरान्तराणि-दरीमध्यानि तत्र संचर्शिताश्चित्रा-विधि
धास्तिनिशा-रथडमास्त एव दलिकानि-दारूणि यस्य तं, सूत्रे च पदव्यत्ययः आर्षत्वात् , जाम्बूनदसुवर्णमयं सुकृतं18 सुघटितं कूबरं-युगन्धरं यत्र तं, कनकदण्डिका:-कनकमयलधुदण्डरूपाः अरा यत्र तं, पुलकानि वरेन्द्रनीलानि सास-1
कानि रतविशेषाः प्रबालानि स्फटिकवररलानि च प्रतीतानि लेष्टवो-विजातिरबानि मणयः-चन्द्रकान्तायाः विद्रुमः-16
अनुक्रम [७३]
Jintensitive
of
+ अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू०४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
परमहलू इति
प्रभासतीर्थ
सू. ४९
[४९]
श्रीजम्यू- | प्रबालविशेषः अमयोश्च वर्णादितारतम्यकृतो विशेषो बोध्यः तैविभूषितं, रचिताः प्रतिदिशं द्वादश २ सद्भावात् 18| यक्षस्कारे
| अष्टाचत्वारिंशदरा यत्र ते तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तपनीयप?-रक्तस्वर्णमयपट्टकैलोंके महलू इति ||
|| प्रसिद्धैः संगृहीते-दृढीकृते तथा युक्ते-उचिते नातिलघुनी नातिमहती इत्यर्थः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः एतादृशे | साधन या वृत्तिः
॥ तुम्बे यस्य स तथा तं, प्रघर्षिता:-प्रकण पृष्टाः प्रसिताः-प्रकर्षण बलाः ईशा निर्मिता-निवेशिताः नवा:-अजीर्णाः || ॥२१॥ 1 पट्टा:-पट्टिका यत्र तत्तथाविधं यत्पृष्ठ-चक्रपरिधिरूपं यल्लोके पूंठी इति प्रसिद्धं तत्परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्न कार्यनिर्वाह-18
कत्वेन यस्य स तं, अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , विशिष्टलष्टे-अतिमनोज्ञे नवे-सद्यस्के लोहवर्धे-अयश्चर्मरजुके तयोः 15 कर्म-कार्य यत्र स तं, अयमर्थः-तत्र रथे येऽवयवास्ते लोहवर्धाभ्यां बद्धा इति, हरिः-वासुदेवस्तस्य प्रहरणरत्नं-चक्र
'चकमुसलजोहीति वचनात् तत्सदृशे चके यस्य स तं, कर्केतनेन्द्रनीलशखकरूपरत्नत्रयमयं मुष्ठु-सम्यग् आहितं18 निवेशितं कृतसुन्दरसंस्थानमित्यर्थः ईदृशं बद्धं जाल कटक-जालकसमूहो यत्र स तथा तं, अयं भावः-रथगुप्ती जाल
कपदवाच्या सच्छिद्ररचनाविशिष्टा अवयवविशेषा बहवस्तत्र शोभां जनयन्तीति, तथा प्रशस्ता विस्तीर्णा समा-अवका 1 धूर्यत्र स तं, पुरमिव गुप्तं समन्ततः कृतवरूथ, रथे हि प्रायः सर्वतो लोहादिमयी आवृतिर्भवति, पुरवरदृष्टान्तकथने IS नायमर्थः सम्पन्न:-यथा पुरं गोपुर भागपरित्यागेन समन्ततो वप्रगुप्तं भवति तथाऽयमप्यारोहस्थानसारथिस्थाने विहाय ॥९| गुप्त इति, सुकिरणं-शोभमानकान्तिकं यत्तपनीय-रक्तं सुवर्ण तन्मयं योकं तेन कलितं, योक्रेण हि वोढस्कन्धे युगं|
अनुक्रम [७३]
॥२१॥
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० ४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू०४९' इति मुद्रितं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(४९)
बयत इति, अन च एतत्सूत्रादशेषु तवणिजजालकलिअमिति पाठोऽशुद्ध एव सम्भाव्यते, आवश्यकचूणी अस्यैव । [8] पाठस्य दर्शनात् , कंकटका:-सन्नाहास्तेषां नियुक्ता-स्थापिता कल्पना-रचना यत्र स तथा तं, यथाशोभं तत्र सन्नाहाः ||
स्थापिताः सन्तीति भावः, तथा प्रहरौरनुयात-भृतमित्यर्थः, एतदेव व्यकित आह-खेटकानि प्रतीतानि कणकावाणविशेषाः धषि मण्डलायाः-तरवारयः वरशक्तयः-त्रिशूलानि कुन्ता-भल्लाः तोमराश्च-बाणविशेषाः शराणां | शतानि येषु तादृशा ये द्वात्रिंशत्तूणा-भखकास्तैः परिमण्डितं-समन्ततः शोभितं कनकरत्नचित्रं, तथा युक्तं तुरगैरित्यनेन सम्बयते, किंविशिष्टरित्याह-हलीमुखं रूढिगम्यमिति बलाको-बकः गजदन्तचन्द्रौ प्रतीतो मौक्तिक-मुक्ता| फलं तणसोल्लिअत्ति-मल्लिकापुष्पं कुन्द-श्वेतः पुष्पविशेषः कुटजपुष्पाणि-वरसिन्दुवाराणि निगुण्डीपुष्पाणि
कन्दलानि-कन्दलवृक्षविशेषपुष्पाणि वरफेननिकरो हारो-मुक्ताकलापः काशा:-तृणविशेषास्तेषां प्रकाश:-औज्वल्यं । । तद्वद्धवलैः अमरा-देवा मनांसि-चित्तानि पवनो-वायुस्तान वेगेन जयतीति अमरमनःपवनजयिनः, अत एव च-18
पलशी-अतिशीघ्र गामिनो-गमनशीला, ततः पदद्वयकर्मधारयः, तैश्चतुर्भि:-चतुःसङ्ख्याकैः तथा चामरैः कनकैश्च भूषितमहं येषां ते तथा तैः, चामरस्य स्त्रीत्वं आषेत्वात् , अथ पुना रथं विशिनष्टि-सच्छत्र सध्वजं सघण्टं सपता-18 कमिति प्राग्वत् , सुकृत-सुषु निर्मितं सन्धिकर्म-सन्धियोजनं यत्र स तं, सुसमाहित:-सम्यगयथोचितस्थाननिवेशितो| यः समरकणक:-संग्रामवाद्यविशेषस्तस्य वीराणां वीररसोत्पादकत्वेन तुल्यो गम्भीरो घोषः-चीत्काररूपो ध्वनिर्यस्य
अनुक्रम [७३]
Nimmitrina
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९]
श्रीजम्बू-18 स तं, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , बरे कूप्परे पिञ्जनके इति प्रसिद्धे यस्य स तं, सुचक्रं वरनेमीमण्डल-प्रधानचक्रधा
वक्षस्कारे द्वीपशा- 18 रावृतं वरे-शोभमाने धूस्तुंडे-धूर्षीकूबरे यस्य स तं, परवजैर्बद्धे मुंबे यस्य स तं, वरकाश्चनभूषितं, वराचार्य:-प्रधान- न्तिचन्द्री
प्रभासतीर्थ या वृत्तिः
| शिरूपी तेन निर्मितं वरतुरगैः सम्प्रयुक्तं वरसारथिना सुपु समगृहीत स्वायत्तीकृतमिति, इह च चक्रादीनां पुनर्वचनं । साधनं
1 रथावयवेषु प्रधानताख्यापनार्थ, 'बरपुरिसे' इत्यादि तु पूर्व योजितं, 'दुरुढे आरूढे' इत्यत्र समानार्थक पदद्वयोपा- सू. ४९ ॥२१२॥18 दान सुखारूदताज्ञापनार्थ, अथवा दुरुढे इत्यस्य सौत्रशब्दस्य विवरणरूपोऽयमारूढशब्द इति, अथार्थान्तरारम्भार्थं |
पुनरुक्तिर्न दोषायेति उक्तमेवार्थ नामप्रकटनाय रथस्यारोहकालप्रकटनाय चाह-'पपररयणपरिमंडिअ'मित्यादि, | प्रवररक्षपरिमण्डितं कनककिङ्किणीजालशोभितं, अयोध्यमनभिभवनीयमित्यर्थः, सौदामिनी-विद्युत् , तप्तं यत्कनकं | तच्चानलोत्तीर्ण रक्तवर्ण भवतीति तप्तशब्देन विशेषितं पङ्कजं-कमलं तच्च सामान्यतो रकं वर्ण्यते 'जासुअण'त्ति जपाकुसुमं ज्वलितज्वलनो-दीसाग्निः अत्र पदविपर्यासः प्राकृतशैलीभवः शुकस्य तुण्डं-मुखं एतेषामिव रागो-रक्तता यस्य स तं, गुञ्जार्द्ध-रक्तिकारागभागः बन्धुजीवक-विग्रहरविकाशिपुष्पं रक्त-संमर्दितो हिंगुलकनिकरः सिन्दूरप्रतीतं रुचिरं कुडम-जात्यघुसणं पारापत्तचलनः प्रतीतः कोकिलनयने पदव्यत्ययः आपत्वात् दशनावरणं-अधरोष्ठं
२१२॥ तब सामुद्रिकेऽत्यरुणं व्यावय॑ते इति रतिदो-मनोहरोअतिरका अधिकारुणोऽशोकतरुः ईदृशं च कनक किंशुकपलाशपुष्पं तथा गजता सुरेन्द्रगोपको-वर्षामु रकवर्णः प्रजन्तुविशेष पभिः समा-सहसा प्रभा-छविर्य सथा।
अनुक्रम [७३]
Santlemani
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० ४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू०४९' इति मुद्रितं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
एवंविधः प्रकाश:-तेजःप्रसरो यस्य स तं, बिम्बफलं-गोल्हक सिलप्पवालं'ति अत्र अश्लील शब्द इवे श्रियं लातीति ऋफि-16 डादित्वाल्लत्वे श्लील एवंविधं यत्प्रवालं श्लीलप्रवाल-परिकम्मितविद्रुमःशिलाप्रवाल वा विद्रुमः उत्तिष्ठत्सूरः-उद्गच्छत्सूर्यस्तेषां सह सर्वर्तकानि-पड़तुभवानि सुरभीणि कुसुमामि-अप्रथितपुष्पाणि माल्यदामानि च-प्रथितपुष्पाणि यत्र सतं, उच्छ्रित:-ऊध्वीकृतः श्वेतध्वजो पत्र स तं, महामेघस्य यद्रसितं-गर्जितं तद्वद् गम्भीरः स्निग्धो घोषो यस्य स तं, शत्रुहदयक-18 म्पनं, प्रभाते च-अष्टमतपःपारणकदिनमुखे चतुर्घण्टमवरथ पौषधिक:-आसन्नपारितपौषधनतो नरपतिरारूढ इति सम्ब-18 न्धः,सश्रीकं नाम्ना पृथ्वीविजयलाभमिति विश्रुतं,अनारूढः पुरुषो भूविजयं लभते इति सान्यर्थनामकमित्यर्थः, कीदृशी नर-18 पतिरित्याह-लोकविश्रुतयशाः,अहत-क्वचिदप्यवयवेऽखण्डितं सर्वत्रास्खलितप्रचारंवारथमित्यर्थः रथारोहानन्तरं भरतः किं चक्रे इत्याह--'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्घण्टमश्वरथमारूढः सन् शेष तथैवेति,कियत्पर्यन्तमित्याह'जाच दाहिणाभिमुहे' इत्यादि, शेष सूत्रं मागधतीर्थगमानुसारेण ज्ञेयं, अथोकं यावदक्षिणाभिमुखो वरदामतीर्थेन वरदामनाम्नाऽवतरणमार्गेण लवणसमुद्रमवगाहते, 'सेसं तहेच'त्ति वचनात् 'हयगयरहपवरजोहकलिआए सद्धिं संपरि-1 बुडे महया भडचडगरपहगरवंदपरिखित्ते चकरयणदेसिअमग्गो अणेगरायवरसहस्साणुभायमग्गे महया उकिट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअंपिय करेमाणे २' इत्यन्तं सूत्रं हश्य, किंबरं लवणसमुद्रमवगाहते। इत्याह-यावत्तस्य रथवरस्य कूपरावाद्रौं भवतः, अत्र यावच्छब्दो न संग्राह्यपदसंग्राहकः किन्तु जलावगाहप्रमाण
अनुक्रम [७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्ब- सूचनार्थः, 'जाव पीइदाणं'ति, अत्रापि मागधदेवसाधनाधिकारोक्तं सूत्रं तावद्वक्तव्यं यावत्प्रीतिदान, 'से' तस्य तीर्था-18३वक्षस्कारे द्वीपशा-धिपसुरस्य प्रीतिदानशब्देनोपचारात् प्रीतिदानार्थकविवक्षितचूडामण्यादि वस्तूच्यते, अत्र तु 'जाव दाहिणिल्ले अ-13 प्रभासतीर्थ न्तिचन्द्री- तवाले इति सूत्रस्थाग्रतो न्यासान्यथानुपपत्या तस्य ग्रहणं ज्ञेयं, न तु दान, तस्य 'जाव अट्ठाहि महामहिम करेंति'त्ति |
साधनं या इचिः सूत्रस्थयावच्छब्देन गृहीतत्वात् , तेनायमर्थः-प्रीतिदाननिमित्तकचूडामण्यादिवस्तुग्रहणप्रतिपादकसूत्रं यावद्वक्तव्यमिति,
मू.४९ ॥२१॥
तत्राय पिण्डार्थः-तुरगनिग्रहणरथस्थापनधनुःपरामर्शशरमोक्षकोपोत्पादकोपापनोदनिजद्धिसारसंप्रेक्षणप्रीतिदानसूत्राणि || मागधतीर्थसूत्राधिकारवद् ज्ञेयानीति, नवरमयं विशेषः प्रीतिदाने चूडामणिं च दिव्यं-मनोहरं सर्वविपापहारि शिरोभूष-18 णविशेष उरस्थ:-वक्षोभूषणविशेपं अवेयर्क-ग्रीवाभरणं श्रोणिसूत्रक-कटिमेखलां कटकानि-च त्रुटिकानि च, कियहर।। वक्तव्यमित्याह-यावद्दाहिणिले अंतवाले' इति यावद्दाक्षिणात्योऽहमन्तपाल इति, प्रीसिवाक्यप्राभृतोपढौकनभरत-18 कृततत्स्वीकरणदेवसम्माननविसर्जनरथपरावृत्तिस्कन्धावार प्रत्यागमनमजनगृहगमनस्नानभोजनकरणश्रेणिप्रश्रेणिशब्दनादिप्रतिपादकसूत्रं वक्तव्यम्, किमन्तमित्याह-'अट्ठाहिरं महामहिमं करेंति' अष्टादश श्रेणिमश्रेणयोऽष्टाहिकां महामहिमां प्रकुर्वन्ति, एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्तीति । अथ प्रभासतीर्थाधिपसाधनायोपक्रमते-'तए णमित्यादि,18॥२१३॥ | सर्व प्राग्वत् , नवरं उत्तरपश्चिमां-वायवी दिशं शुद्धदक्षिणवर्तिनो वरदामतीर्थतः शुद्धपश्चिमावर्तिनि प्रभासे गम-18 नाय इत्यमेव पथः सरलत्वात्, अन्यथा वरदामतः पश्चिमागमने अनुवारिधिवेलं गमनेन प्रभासतीर्थप्राप्तिईरेण स्या
अनुक्रम [७३]
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० ४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
18| दिति, प्रभासनामतीर्थ यत्र सिन्धुनदी समुद्रं प्रविशति, अथ ताहक चक्ररत्नं दृष्ट्वा यन्नुपश्चके तदाह-तए णमित्यादि,
सर्व पूर्ववत् , परं प्रीतिदाने विशेषः, तमेव च सूत्रे दर्शयति-णवरि'त्ति नवरं माला-रत्नमालां मौलिं-मुकुट मुक्ता-1 | जालं-दिव्यमौक्तिकराशि हेमजालं-कनकराशिमिति, 'सेसं तहेव'त्ति शेष-उक्तातिरिक्तं प्रीतिदानोपढौकनस्वीकरण-18 1% सुरसन्माननविसर्जनादि तथैव-मागधसुराधिकार इव वक्तव्यं, आवश्यकचूर्णौ तु वरदामप्रभाससुरयोः प्रीतिदानं | व्यत्यासेनोक्तमिति । अथ सिन्धुदेवीसाधनाधिकारमाह
तए णं से दिवे चक्करयणे पभासतिस्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउधरसालाओ पडिणिक्खमइ २ चा जाव पूरेते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिलेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसि सिंधुदेवीभषणाभिमुहे पवाते. आवि होत्था । तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं सिंधूए महाणईए दाहिणिलेणं कूलेणं पुरथिम दिसि सिंधुदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइत्ता हडतुडचित्त सहेब जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइरत्ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामते दुवालसजोअणायाम णवजोयणविपिछण्णं वरणगरसारिच्छं विजयखंधावारणिवेस करेइ जाब सिंधुदेवीए अट्ठमभत्तं पगिणइ २ त्ता पोसहसालाए पोमहिए बंभयारी जाव दम्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए सिंधुदेवि मणसि करेमाणे चिट्ठा । तए णं तस्स भरहस्स रणो अहमभसि परिणममाणसि सिंधूए देवीए आसणं चला, लए णं सा सिंधुदेवी आसणं चलिअं पासह २सा ओहि पाउंजइर प्ता भरह रायं ओहिणा आभोपइ२त्ता इमे एआरूवे अभथिए चिंतिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे बासे भरहे णाम राया चाउरतचकवट्टी, तंजीअमेअंतीअपप्पण्णमणागयाणं सिंपूर्ण देवीर्ण भरहाणं राईणं
अनुक्रम [७३]
seneed
Snilon
अथ सिन्धुदेवी साधना-अधिकार: वर्तते
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५० ]
दीप
अनुक्रम
[७४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [५० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशा
न्ति चन्द्री या वृत्तिः
॥२१४ ॥
Ein
त्याणिअं करेत्तए, तं गच्छामि णं अपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिअं करेमित्ति कट्टु कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अ दुबे कणगभद्दासणाणि य कडगाणि अ तुडिआणि अ जाब आभरणाणि अ गेण्ड्इ २ चा ताए उकिद्वाए जान एवं बयासी- अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे बासे अहरणं देवाणुप्पि आणं बिसयवासिणी अहणं देवाणुप्पिआणं आणतिकिंकरीतं पढिच्छंतु णं देवाणुप्पि ! मम इमं इमं एजारूवं पीइदाणंतिकटु कुंभट्टसहस्सं रयजचित्तं णाणामणिकणगकडगाणि अजावसो व गमो जाव पडिविसजेइ, तर णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ चा जेणेव मलघरे तेच उगच्छ २ ता पहाए कयवलिकम्मे जाव जेणेव भोञणमंडवे तेणेव उपागच्छइ २ ता भोभणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्टममत्तं परियादियइ २ ता जाव सीहासणवरगए पुरस्थामिमुद्दे णिसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेनिप्पसेणीओ सहावे २ ता जाव अट्ठाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पचप्पियंति । (सूत्रम् ५० )
'तर ण 'मित्यादि, व्यक्तार्थं, नवरं पूर्वां दिशमित्यत्र पश्चिमदिग्वर्त्तिनः प्रभासतीर्थत आगच्छन् वैताढ्यगिरिकु| मारदेवसिसाधयिषया तद्वासकूटाभिमुखं यियासुः प्रथमतः अनुपूर्वमेव याति एतच्च दिग्विभागज्ञानं जम्बूद्वीपपट्टा| दावालेख्यदर्शनाद् गुरुजनसंदर्शितात् सुबोधं, सिन्धुदेवीगृहाभिमुखं च चक्ररलं प्रयातं, ननु सिन्धुदेवीभवनं अत्रैव सूत्रे उत्तर भरतार्द्धमध्यमखण्डे सिन्धुकुण्डे सिन्धद्वीपे वक्ष्यते तत्कथमत्र तत्सम्भवः १, उच्यते, महर्द्धिकदेवीनां मूलस्थानादन्यत्रापि भवनादिसम्भवो नानुपपन्नो यथा सौधर्मेन्द्राद्यग्रमहिषीणा सौधर्मादिदेवलोके विमानसद्भावेऽपि
Fruteey
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श्वक्षस्कारे सिन्धुदेवीसाधनं सू. ५०
॥२१४॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५० ]
दीप
अनुक्रम
[७४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
नन्दीश्वरे कुण्डले वा राजधान्यः, यथा वाऽस्या एव देव्या असङ्ख्येयतमे द्वीपे राजधानी सिन्ध्यावर्त्तनकूटे च प्रासादावतंसक इति, एवं सिन्धुद्वीपे सिन्धुदेवी भवन सद्भावेऽपि अत एव सूत्रबलादत्रापि तदस्तीति ज्ञायते, तथा च सति 'सिन्धूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते' इत्यादिकं 'खंधावारनिवेस करेइ' इत्यन्तं वक्ष्यमाणसूत्रमप्युपपद्यतेऽन्यथा तदपि विघटतेति । तदनु भरतः किं कृतवानित्याह- 'तए णमित्यादि, सुबोधं 'जाव सिंधूए' इत्यादि, अत्र याव रकरणात् वर्द्धकिरलशब्दापनपौषधशालाविधापनादि सबै ग्राह्यं तेन पौषधशालायां सिन्धुदेव्याः साधनायेति शेषः अष्टमभक्तं प्रगृह्णाति प्रगृह्य च पौषधिकः - पूर्वव्याख्यातपौषधव्रतवान् अत एव ब्रह्मचारी 'जाव दब्भसंथारोवगए' | इत्यादि यावद्दर्भसंस्तारकोपगतः, अत्र यावत्करणात् उन्मुक्तमणिसुवर्ण इत्यादि सर्वं पूर्वोक्तं ग्राह्यं, अष्टमभक्तिक:कृताष्टमतपाः सिन्धुदेव मनसि कुर्वन् ध्यायंस्तिष्ठति । 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमति-परिपूर्णमाये जायमाने सिन्ध्वा देव्या आसनं चलति, ततः सा सिन्धुदेवी आसनं चलितं पश्यति दृष्ट्वा अवधिं | प्रयुनक्ति प्रयुज्य च भरतं राजानं अवधिना आभोगयति उपयुङ्क्ते आभोग्य च स्थितायास्तस्या इत्यध्याहार्यं अय| मेतद्रूपः आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत इत्थमेवान्वयसङ्गतिः स्यात् अन्यथा भिन्न| कर्तृकयोः क्रिययोः क्त्वाप्रत्ययप्रयोगानुपपत्तिः स्यात्, भिन्नकर्तृकता चैवं-सिन्धुदेवी आभोगयित्री सङ्कल्पश्च समुत्पा| दकः, इयं च सिन्धुदेवी आसन कम्पनात्तोपयोगा सती स्मृतजातीया स्वत एवानुकूलाशया संजज्ञे, तेन न शरप्रमो
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०]
व
क्षणायन वक्तव्यं, एवं च कर्मचक्रिणां वैताब्यसुरादीनां साधनेऽपि जिनचक्रिणां तु सर्वत्र दिग्विजययात्रायां शरण-18| ३वक्षस्कारे
मोक्षणादिकमन्तरेणैव प्रवृत्तिः यतस्तत्र तेषां तथैव साध्यसिद्धिरिति, सच कः सङ्कल्प इत्याह-'उप्पण्णे ति उत्पन्नः सिन्धुदेवी न्तिचन्द्री
खल:-निश्चये जम्बद्वीपनाम्नि द्वीपे भरतनामनि वर्षे-क्षेत्रे भरतो नाम राजा चतुरन्त चक्रवर्ती तज्जीतमेतत्-आचार || या वृत्तिः
एषः अतीतवर्तमानानागतानां सिन्धुनाम्नीनां देवीनां भरतानां राज्ञां, अत्र बहुवचनं कालत्रयवर्तिनां चयर्द्धचक्रिणां ॥२१॥ शपरिग्रहार्थ, उपस्थानिक-याभृतं कर्तुं वर्तते इति, तद् गच्छामि णमिति प्राग्वत् , अहमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक
३ करोमीति, चिन्तितं हि कार्य कृतमेव फलदं भवतीत्याह-'इतिकट्ठ'इत्यादि, इतिकृत्वा-चिन्तयित्वा कुम्भानाम-10
ष्टोत्तरं सहस्रं रत्तचित्रं नानामणिकनकरत्नानां भक्ति:-विविधरचना तया चित्रे च द्वे कनकभद्रासने ऋषभचरित्रे 18| तु रलभद्रासने उक्त कटकानि च त्रुटिकानि च यावदाभरणानि च गृह्णाति, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टयेत्यादि यावदेव18| मवादीदिति, अत्र यावत्पदसंग्रहो व्यक्तः, किमवादीदित्याह-'अभिजिए ण'मित्यादि, अभिजितं देवानुप्रियैः-श्रीमद्भिः
| केवलकल्प-परिपूर्ण भरत वर्ष तेनाहं देवानुप्रियाणां विषयवासिनी-देशवास्तव्या अहं देवानुप्रियाणामाज्ञप्तिकिङ्करी-18 18 आज्ञासेविका तत् प्रतीच्छन्तु-गृह्णन्तु देवानुप्रियाः! ममेदमेतद्रूपं प्रीतिदानमिति, अत्र णं सर्वत्र प्राग्वत्, इति-18॥२१५॥
कृत्वा कुम्भाष्टाधिकसहस्रं रत्नचित्रं नानामणिकनकरलभक्तिचित्रे वा द्वेकनकभद्रासने कटकानि च यावत् स एव 181 मागधसुरगमोऽत्रानुसःच्यः तावद्यावत्प्रतिविसर्जयति। तत उत्तरविधिमाह-'तए ण मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवर।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
3900a9a800300
[५०
तावद् वक्तव्यं यावत्ताः श्रेणिप्रश्रेणयोऽष्टाहिकाया महामहिमायास्तामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति यथाऽष्टाहिकोत्सवः कृत इति । अथ वैताव्यसुरसाधनमाहतए णं से दिवे चकारयणे सिंधूर देवीए अवाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ तदेव जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपत्याभिमुहे पयाए आवि होत्या, तए णं से भरहे राया जाव जेणेव अद्धपधए जेणेव वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंये येणेव उवागच्छद २त्ता वेअद्धस्स पब्वयस्स दाहिणिले णितंवे दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेई २ ता जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ चा पोसहसालाए जाब अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्टइ, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स आसणं चलइ, एवं सिंधुगमो णेअब्बो, पीइदाणं आमिसेकं रयणालंकारं कडगाणि अ तुडिआणि अ बत्थाणि अ आभरणाणि अ गेष्हइ २ ता ताए उकिवाए जाव अट्ठाहिरं जाव पञ्चप्पिणंति । तए ण से दिने चकरयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए जाव पञ्चत्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आदि होत्था, तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चकरयणं जाव पञ्चत्धिर्म विर्सि तिमिसगुहामिमुहं पयातं पासइ २ चा हतुहचित्तजावतिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोषणायाम णवजोअणविच्छिण्णं जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ ता पोसहसालाए पोसहिए वंभयारी जाव कयमालगं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ, तए णं तस्स भरहस्स रणो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव वेभद्धगिरिकुमारस्स
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अनुक्रम
[७४]
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अथ वैताद्यसुर-साधनाधिकार: वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [५१]
श्रीजम्बू
पारे पीक्षा इत्थीरयणस्स तिलंगचोरस भंडालंकार कम्गाणि म आन आमरणाणि अ गेम्ह २ साताए सकिटाए जाव ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- सकारे सम्माणेइ २'चा पहिविसजेह जाब भोभणमंटने, सहेच महामहिमा कयमालस्स पचप्पिणति (सूर्व ५१) .
वतापकन्तिचन्द्री
मारकृत'तए णमित्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं उत्तरपूर्वा दिशमिति-ईशानकोणं चक्ररत्नं वैतान्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चाया वृत्तिः
प्यभवत् , अयमर्थ:-सिन्धुदेवीभवनतो वैतान्यसुरसाधनार्थं वैताब्यसुरावासभूतं वैतादय कूटं गच्छतः ईशानदिश्येव ऋजुः || साधन ॥२१॥ पन्थाः, 'तए ण'मित्यादि, उक्तप्राय सर्व नवरं वैतान्यपर्वतस्य दाक्षिणात्ये-दक्षिणार्द्धभरतपार्श्ववर्तिनि नितम्बे इति,
ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमति वैताब्यगिरौ कुमार इव क्रीडाकारित्वात् वैताब्यगिरिकुमारस्तस्य देवस्थासनं चलति, एवं सिन्धुदेव्याः गमः-सदृशपाठो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, परं सिन्धुदेवीस्थाने वैताब्यगिरिकु-18 |मारस्तस्य देवस्यासन चलति, एवं सिन्धुदेव्याः गमः-सदृशपाठो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, परं सिन्धुदेवीस्थाने
वैताम्यगिरिकुमारदेव इति वाच्यं, यच्च सिन्धुदेव्या अतिदेशकथनं तद्वाणब्यापारणमन्तरेणवायमपि साध्य इति साह-| | श्यख्यापनार्थमिति, प्रीतिदानं आभिषेक्य-अभिषेकयोग्यं राजपरिधेयमित्यर्थः, रलालङ्कार-मुकुटमिति आवश्यक-1 चूणों तथैव दर्शनात् , शेषं तथैव यावच्छब्दाभ्यां ग्राह्य, तत्र प्रथमो यावच्छब्दः उक्तातिरिक्तविशेषणसहितां गति |
| ॥२१६॥ 19प्रीतिवाक्यं प्राभूतोपनयनग्रहणे सुरसन्माननविसर्जने स्नानभोजने श्रेणियश्रेण्यामन्त्रणं सूचयति, द्वितीयस्तु अष्टा
हिकादेशदानकरणे इति । अथ तमिस्रागुहाधिपकृतमालसुरसाधनार्थमुपक्रमते-'तए ण'मित्यादि, ततस्तद्दिव्यं चक्ररलं
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अनुक्रम
[७५]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१]
अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्या अर्थाद्वैताब्यगिरिकुमारस्य देवस्य यावत् पश्चिमादिशं तमिश्रागुहाभि-18 मुर्ख प्रयातं चाप्यभवत् , वैताब्यगिरिकुमारसाधनस्थानस्य तमिस्रायाः पश्चिमावर्तित्वात् , 'तए ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत्, प्रीतिदानेऽत्र विशेषः, स चायं-स्त्रीरत्नस्य कृते तिलकं-ललाटाभरणं रसमयं चतुर्दशं यत्र तत्तिलकचतुर्दशं ईदृशं |भाण्डालङ्कार-प्राकृतत्वादलङ्कारशब्दस्य परनिपाते अलङ्कारभाण्डं आभरणकरण्डकमित्यर्थः, चतुर्दशाभरणानि चैवम्-18 "हार १ ब्रहार २ इग ३ कणय ४ रयण ५ मुत्तावली ६ उ केऊरे ७ । कडए ८ तुडिए ९ मुद्दा १० कुंडल ११ उरसुत्त १२ चूलमणि १३ तिलयं १४ ॥१॥"ति, कटकानि च, अत्र कटकादीनि स्त्रीपुरुषसाधारणानीति न पौनरु. स्यमित्यादि तावद् वक्तव्यं यावद् भोजनमण्डपे भोजनं, तथैव-मागधसुरस्येव महामहिमा अष्टाहिका कृतमालस्य प्रत्यर्पयन्त्याज्ञां श्रेणिप्रश्रेणय इति ।
तए णं से भरहे राया कयमालस्स अवाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सदावेइ २ ता एवं क्यासीगच्छाहि णं भो देवाणुप्पिभा ! सिंधूए महाणईए पञ्चस्थिमिळ णिक्खुढं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाई बराई रयणाई पडिच्छाहि अग्गाई० पडिच्छिच्चा ममेमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे बासंमि विस्सुअजसे महाबलपरकमे महप्पा ओअंसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि णिखुडाणं निष्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए अत्यंसत्यकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे
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अनुक्रम
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श्रीजम्पू. २७
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
अनुक्रम
[६]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥२१॥
तुट्ठचित्तमाणंदिप जाव करयलपरिम्गहि दुसणई सिरसावतं मत्थे अंजलि कटु एवं साभी ! तहन्ति आणाप विणणं पडणे २ ता भरस्स रष्णो अंतिआओ पडिणिक्सम २ सा जेणेव सए आवासे तेणेव उवागच्छद्द २ सा कोईबिअपुरिसे सदावेइ २ सा एवं क्यासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पि ! आमिसेकं इत्विरयणं परिकप्पेह इयमयरहपवर जाये चाउरंगिन सेष्णं सष्णाद्देहत्तिकट्टु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मखणघरं अणुपविसइ २ ता हाए कयबलिकम्मे कयको अमंगलपा
सन्नद्धमिवर उत्पीलिअसरासणपट्टिए पिणद्वगेविजबद्ध आविद्धविमलवरचिंघपट्टे गहि आउहपहरण अगगणनायगदंडनायगजावसद्धिं संपरिवुडे सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मनणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उवद्वाणसाला जेणेव आभिसेके दत्थिरयणे तेणेव उवागच्छ २ ता आभिसेकं हत्थिरयणं दुरूढे । तण से सुसेणे सेणावई हत्थिसंघवरगए सकोरंटमदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं हयगवरहपवर जोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुद्धे महयाभङवङगरपगरवंदपरिक्खित्ते महयाउकि डिसीहणायबोलकलकलसणं समुद्दरवभूयंपिव करेमाणे २ सद्धिए सबजुई सयलेणं जाव निग्पोसनाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छद्द २ ता पम्मरयणं परामुसइ, तपूर्ण तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकं अभेज्जकवयं जंतं सलिला सागरेसु अ उत्तरणं दिव्यं चम्मरवणं सणसत्तरसाई सबघण्याई जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविआई, वासं णाऊण चकवट्टिणा परामुडे दिव्वे चम्मरवणे दुवालस जोभणाई तिरिअं पवित्थर तत्व साहिआई, तर णं से दिवे चम्मरवणे सुसेणसेणावद्दणा परामुळे समाणे खिप्पामेच जावाभूए जाए आवि होत्या, तए णं से सुसेणे सेणावई सखंधावारवलवाहणे णावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ २ ता सिंधु महाणई विमल
F Ervale & Puna e Oly
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वारे
सुषेणेन सिन्धुपक्षिमनिष्कुट
साधनं
सू. ५२
॥११७॥
metraya
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
ख
प्रत
सूत्रांक
[२]
टीप
जलतुंगवीचि णावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिण्णे, तो महाणईमुत्तरितु सिंधु अपडिहयसासणे अ सेणावई कहिचि गामागरणगरपवयाणि खेडकराडगबाणि पट्टणाणि सिंहलए बन्चरए अ सव्यं च अंगलोय बलायालोरं च परमरम्मं जवणदीवं च पवरमणिरयणगकोसागारसमिद्धं आरबके रोमके व अलसंडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ सत्तरवेभससिआभो अ मेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणअवरेण जाव सिंधुसागरंतोत्ति सब्बपवरकच्छं च ओअऊण पडिणिअत्तो बहुसमरमणिजे अभूमिभागे तस्स करछस्स सुहणिसण्णे, ताहे ते जणक्याण गगराण पट्टणाण य जे अ तहिं सामिा पभूभा आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सब्वे घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य वत्थाणि अ महरिहाणि अण्णं च जं वरिष्ठं रायारिहं जं च इच्छिअव्वं एवं सेणावइस्स उवणेति मत्थयफयंजलिपुढा, पुणरवि काऊण अंजलिं मत्थयंमि पणया तुभे अम्हेऽत्य सामिआ देवयंव सरणागया मो तुभं विसयवासिणोत्ति विजय जपमाणा सेणावश्णा जहारिहं ठविअ पूअ विसजिआ णिभत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणओ घेतूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि सं सिंधुणामधे उत्तिण्णे अणहसासणबले, तहेव भरहस्स रण्णो णिवेएइ णिवेत्ता व अप्पिणित्ता य पाहुडाई सकारिअसम्माणिए सहरिसे विसजिए सगं पडमंडवमइगए, तते णं सुसेणे सेणाबई व्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छिते जिमिअभुत्तुत्तरागए समाणे जाव सरसगोसीसचंदणुक्खितगायसरीरे उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमस्थएहिं बत्तीसइबद्धेहि णाढएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणचिजमाणे २ उवगिजमाणे २ उवलालि (लभि) आमाणे २ महयाहयणट्टगीभवाइअतंतीतलतालतुद्धिजघणमुइंगपडुपवाइअरवेणं. इढे सरफरिसरसस्वगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरद (सूत्र ५२).
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५]
श्रीजम्मू-18
'तए ण'मित्यादि, निगदसिद्ध, नवरं सुषेणनामानं सेनापति-सेनानीरलमिति, किमवादीदित्याह-'गच्छाहि ण'-18|३वक्षस्कारे द्वीपशा- II मित्यादि, गच्छ भो देवानुप्रिय! सिन्ध्वा महानद्याः पाश्चात्य-पश्चिमदिग्वतिनं निष्कुट-कोणवर्तिभरतक्षेत्रखण्डरूपं, सुपेणेन न्तिचन्द्री- एतेन पूर्वदिग्वर्तिभरतक्षेत्रखण्डनिषेधः कृतो बोध्या, इदं च कैविभाजकैविभक्तमित्याह-पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च सिन्धु दी। सन्धुपाव या वृत्तिः
पश्चिमायां सागर:-पश्चिमसमुद्रः उत्तरस्यां गिरिचताब्यः एतैः कृता मर्यादा-विभागरूपा तया सहितं, एभिः कृतवि-15THIS ॥२१॥
भागमित्यर्थः, अनेन द्वितीयपाश्चात्यनिष्कुटात् विशेषो दर्शितः, तत्रापि समानि च-समभूभागवत्तींनि विषमाणि चदुर्गभूमिकानि निष्कुटानि च-अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि ततो द्वन्द्वस्तानि च-ओअवेहित्ति साधय अस्मदाज्ञाप्रवर्त| नेनास्मद्वशान् कुरु, अनेन कथनेन प्रथमसिन्धुनिष्कुटसाधनेऽल्पीयसोऽपि भूभागस्य साधने न गजनिमीलिका विधेयेति ज्ञापितं, एवमेवाखण्डपखंडक्षितिपतित्वप्राप्ते, 'ओअवेत्ता साधयित्वा अग्याणि-सधस्कानि वराणि-प्रधा-S नानि रत्नानि-स्वस्वजातावुत्कृष्टवस्तूनि प्रतीच्छ-गृहाण, प्रतीष्य च ममैतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयेति, ततः सुषेणो यथा 9
चक्रे तथाऽऽह--'तते ण'मित्यादि, ततो भरताज्ञानंतरं स सुषेणः एवं स्वामिस्तथेत्याज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृणोतिर 1 इति पर्यन्तपदयोजना, व्याख्या त्वस्य प्राग्वत्, किंभूतः सुषेणः-सेना-हस्त्यादिस्कन्धस्तद्रूपस्य बलस्य नेता-प्रभुः ॥२१॥
स्वातन्त्र्येण प्रवर्तकः भरते वर्षे विश्रुतयशाः महतः-अतुच्छस्य बलस्य-सैन्यस्य प्रक्रमात् भरतचक्रवर्तिसम्बन्धिनः पराक्रमो यस्मात् तथा, दृष्टं हि बलवति प्रभौ बलं बलवद्भवतीति, एतेन ‘ओअंसी'ति पदे न पौनरुक्त्य, महात्मा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२]
उदात्तस्वभाव ओजस्वी-आत्मना वीर्याधिकः तेजसा शारीरेण लक्षणैश्च-सत्त्वादिभिर्युक्तः, म्लेच्छभाषासु-पारसीआ-18 रवीप्रमुखासु विशारदः-पण्डितः, तत्सम्लेच्छदेशभाषाज्ञो हि तत्तद्देशीयम्लेच्छान सामदानादिवाक्यैोंटुं समर्थो भवति, अत एव चित्र-विविधं चारु-अग्राम्यतादिगुणोपेतं भाषत इत्येषंशीला, भरतक्षेत्रे निष्कुटानां निम्नानां च-गम्भीर-18
स्थानानां दुर्गमानां च-दुःखेन गन्तुं शक्यानां दुष्प्रवेशानां-दुःखेन प्रवेष्टुं शक्यानां भूभागानां विज्ञायकस्तत्र तद्वा-18 18| सीव प्रचारचतुरः, अत एवेनां योग्यतां विभाव्यैतादृशे शासने नियुक्तः, अर्थशास्त्र-नीतिशास्त्रादि तत्र कुशल र सेना-18
पति:-सैन्येशेषु मुख्या, भरतेन राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टेत्यादि प्राग्वत्, ततः स किं करोतीत्याह-'पडिसुणेत्ता' इत्यादि, सर्व चैतत् पाठसिद्ध, नवरं सुपेणविशेषणं सन्नद्धं शरीरारोपणात् बद्धं कसावन्धनतः वर्म-छोहकत्तलादिरूपं सञ्जातमस्येति वम्मितं ईदृशं कवच-तनुत्राणं यस्य स तथा, उत्पीडिता-गाढं गुणारोपणाद् दृढीकृता शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डो येन स तथा, पिनद्धं ग्रैवेय-ग्रीवात्राणं ग्रीवाभरणं पा येन स तथा बद्धो-प्रन्धिदानेन आविद्धः परिहितो मू वेष्टनेन विमलवरचिलपट्टो-वीरातिवीरतासूचकवस्त्र विशेषो येन स तथा, पश्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः गृहीतान्यायुधानि प्रहरणानि च येन स तथा, आयुधप्रहरणयोस्तु क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषो वोध्यः, तत्र क्षेप्यानि बाणा-15 दीनि अक्षेप्यानि खगादीनि अथवा गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाय येन स तथेति । 'तए ण'मित्यादि, प्राग्व्या-18 ख्यातार्थ, नवरं वाक्ययोजनायां ततः सुषेणश्चम्मरत्नं परामृशति-स्पृशति, इत्यन्तं सम्बन्ध इति, एतत्प्रस्तावाचर्म-2
टीप
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक
[१२]
रत्नवर्णनमाह-तएणं त'मित्यादि, तच्चर्मरत्नं प्रक्तविशेषणविशिष्टं भवतीत्यन्वयः, ततो-विस्तीणों विस्तृतनामक || ३वक्षस्कारे
इत्यर्थः एवंविधः इनः-स्वामी चक्रवर्तिरूपो यस्य तत्ततेनं, यस्य हस्तस्पर्शतः इच्छया वा विस्तृणाति स स्वामीत्यर्थः,191 सुषेणेन न्तिचन्द्री
श्रीवत्ससहश-श्रीवत्साकारं रूपं यस्य तत्तथा, नन्यस्य श्रीवत्साकारत्वे चत्वारोऽपि प्रान्ताः समविषमा भवन्ति तथा या वृत्तिः
मनिष्कुटचास्य किरातकृतवृष्टयुपद्रवनिवारणार्थ तिर्यविस्तृतेन वृत्ताकारेण छत्ररत्नेन सह कथं सङ्घटना स्यादिति !, उच्चरी,
साधनं ॥२१९॥ स्वतः श्रीवत्साकारमपि सहनदेवाधिष्ठितत्वाद्यथावसरं चिन्तिताकारमेव भवतीति न काप्यनुपपत्तिः, मुक्तानां मौक्ति- सू. ५२
| कानां ताराणां-तारकाणां अर्धचन्द्राणां नित्राणि-आलेख्यानि यत्र तत्तथा, अचलं अकम्प-दौ सदृशार्थकी शब्दा18वतिशयसूचकावित्यत्यन्तदृढपरिणाम चक्रिसकलसैन्याक्रान्तत्वेऽपि न मनागपि कम्पते, अभेधं-दुर्भेदं कवचमिवामे-18
चकवचं लुप्तोपमा, वनपञ्जरमिव दुर्भेदमित्याशयः, सलिलासु-नदीषु सागरेषु चोत्तरणयन्त्र पारगमनोपायभूतं दिव्यं| देवकृतमातिहार्य चर्मरत्नं-चर्मसु प्रधान, अनलजलादिभिरनुपधात्यवीर्यत्वात् , यन्त्र शणं-शणधान्यं सप्तदशं-सप्तदश-10 18 सत्यापूरकं येषु तानि शणसप्तदशानि सर्वधान्यानि रोहन्ते-जायन्ते एकदिवसेनोप्लानि, अयं सम्प्रदाय:-गृहपतिरले
नासिंश्चणि धान्यानि सूर्योदये उप्यन्ते अस्तमनसमये च लूयन्ते इति, सप्तदश धान्यानि त्विमानि, "सालि १ ॥२१॥ 8 जव २ वीहि ३ कुडव ४ रालय ५ तिल ६ मुग्ग ७ भास ८चवल ९चिणा १०। तभरि ११ मसूरि १२ कुलस्था 8|१३ गोहुम १४ णिप्फाव १५ अयसि १५ सणा १७ ॥१॥" प्रायो बहुपयोगिनीमानीतीयन्त्युक्तानि, अन्यत्र चतु-||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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विशतिरप्युक्तानि, लोके च क्षुद्रधान्यानि बहून्यपि, पुनरस्वैव गुणान्तरमाह-वर्ष-जलदवृष्टिं ज्ञात्वा चक्रवर्तिना परा-11 भृष्टं दिव्यं चर्मरलं द्वादशयोजनानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति-वर्द्धते, तत्रोत्तरभरतमध्यखण्डवर्तिकिरातकृतमेघोपद्वनिवारणादिकार्य साधिकानि-फिनिवधिकानि, ननु द्वादशयोजनावधि तस्थुषश्चकिस्कन्धावारस्थावकाशाय द्वादशयोजन-18 प्रमाणमेवेदं विस्तृत युज्यते किमधिकविस्तारेण !, उच्यते, चर्मच्छत्रयोरन्तरालपूरणायोपयुज्यते साधिकविस्तार इति, पश्चात्र प्रकरणाद् बच्छन्देनैव विशेष्यप्राप्ती सूत्रे पुनरपि दिब्वे चम्मरयणे इति महणं तदालापकान्तरव्यवधानेन विस्मरणशीलस्य विनेयस्य स्मारणार्थ, अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-'तए णमित्यादि, ततस्तदिव्यं चर्मरलं सुषेणसेनापतिना
परामृष्ट-स्पृष्टं सत् क्षिप्रमेव-निर्विलम्वमेव नौभूत-महानद्युत्ताराय नौतुल्यं जातं चाप्यभवत् , नावाकारेण जातमि18|मित्यर्थः, 'तप गौमित्यादि, ततः-धर्मरखनीभवनानन्तरं सुषेणः सेनापति:-सेनानीः स्कन्धावारत्य-सैन्यस्य ये
बलवाहने-हस्त्यादिचतुरङ्गशिक्षिकादिरूपे ताभ्यां सह वर्त्तते यः सः स्कन्धावारबलवाहनः नीभूतं चर्मरक्षमारोहति, 8 सिम्धुमहानदी विमलजलस्य तुङ्गा-अत्युचा वीचयः कल्लोला यस्यां सा तथा तां नौभूतेन चर्मरोन बलवाहनाभ्यां | सह वर्तते यः स सबलवाहनः, एवं सशासनो-भरताज्ञासहितः समुत्तीर्ण इति । 'तो महाणईन्ति तत इति कथा-18 तरप्रस्तावनायां महानदी सिन्धमुत्तीर्याप्रतिहतशासनः-अखण्डिताज्ञः सेनापतिः-सेनानी कचिद् ग्रामाकरनगरपर्वतान् !! सूत्रे क्लीवत्वं प्राकृतत्वात् , खेडेत्यादि, सिंहावलोकनन्यायेन क्वचिच्छन्दोऽत्रापि ग्राह्यस्तेन कचित् खेटमडम्बानि क्वधि
टीप
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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स णेन
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श्रीजम्ब-1त्पत्तनानि तथा सिंहलकान-सिंहलदेशोदवान् बर्बरकाश्च-वर्वरदेशोद्भवान, सर्व च अङ्गलोक बलावलोकं च पर-18/३वक्षस्कारे द्वीपशा-18|मरम्यं, इमे च द्वे अपि म्लेच्छजातीयजनाश्रयभूते स्थाने, यवनद्वीप-द्वीपविशेष, अत्र चकाराः समुच्चयार्थाः एवम-1|| न्तिचन्द्री-18| प्रेऽपि, प्रयाणामप्यमीषां साधारणविशेषणमाह-प्रवरमणिरक्षकनकानां कोशागाराणि-भाण्डागाराणि । समृद्ध-भृशं||
सिन्धुपश्चिया वृचिः
18| भृतं, आरवकान्-आरवदेशोद्भवान् रोमकांश्च-रोमकदेशोद्भवान् अलसण्ड विषयवासिनश्च पिक्खुरान् कालमु-18 ॥२२०॥ खान् जोनकांश्चम्लेच्छविशेषान् 'ओअवेऊण'त्ति पदेन योगः, अर्थतैः साधितैरशेषमपि निष्कुटं साधितमुत नेत्याह-18
उत्तरः-उत्तरदिग्वर्ती वैतान्यः, इदं हि दक्षिणसिन्धुनिष्कुटान्तेन, अस्माद्वैताब्य उत्तरस्यां दिशि वर्त्तते इत्यर्थः, तं18 संचिताः-तदुत्पत्तिकायां स्थिताश्च म्लेच्छजातीर्वहुप्रकाराः उक्तव्यतिरिक्ता इत्यर्थः, अत्र सूत्रे क्वचिद् विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , दक्षिणापरेण-नैर्ऋतकोणेन यावत् सिन्धुसागरान्त इति-सिन्धुनदीसङ्गतः सागरः सिन्धुसागरः मध्यपदलोपे साधुः स एवान्तः-पर्यवसानं तावदवधि इत्याशयः, सर्वप्रवरं कच्छ च-कच्छदेशं 'ओअवेऊण'त्ति साधयित्वा स्वाधीनं कृत्वा प्रतिनिवृत्तः-पश्चादलितो बहुसमरमणीये च भूमिभागे तस्य कच्छदेशस्य सुखेन निषण्ण:-सुस्थस्तस्थौ, स सुषेण इति प्रकरणालभ्यते, ततः किं जातमित्याह-'ताहे ते जणवयाण' इत्यादि, 'ताहे' तस्मिन् काले ते इति-8॥२२०॥ ॥ तच्छब्दस्योत्तरवाक्ये 'सधे घेत्तणे त्यत्र योजनीयत्वेन व्यवहितः सम्बन्धः आर्थत्वात् जनपदाना-देशानां नगराणां
पत्तनानां च प्रतीतानां ये च तहिं तत्र निष्कुटे स्वामिका:-चक्रवर्तिसुषेणसेनाम्योरपेक्षया अल्पर्दिकत्वेनाज्ञात स्वा. 18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२]
मिन इत्यज्ञातार्धे कप्रत्ययः, ये च प्रभूता-बहवः आकरा:-स्वर्णाद्युत्पत्तिभुवस्तेषां पतयः मण्डलपतयो देशकार्यनियुक्ताः पत्तनपतयश्च, ते गृहीत्वा प्राभृतानि-उपायनानि आभरणानि-अङ्गपरिधेयानि भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि रत्नानि च वस्त्राणि च महा_णि च-बहुमूल्यानि अन्यच्च यद्वरिष्ठं-प्रधानं वस्तु हस्तिरथादिकं राजाह-राजप्राभृतयोग्यं यच्च एटव्यं-अभिलपणीयं एतत्सर्व पूर्वोक्तं सेनापतेरुपनयन्ति-उपढौकयन्ति मस्तककृताञ्जलिपुटाः, ततस्ते किं कृतवन्त इत्याह-'पुणरवि'इत्यादि, ते-तत्रत्यस्वामिनः प्राभृतोपनयनोत्तरकाले प्रकृताञ्जलिपरित्यागानिवर्तनावसरे पुनरपि मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा प्रणता-नवत्वमुपागताः यूयमस्माकमत्र स्वामिनः प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययस्तेन देव-18 तामिव शरणागताः स्मो वयं युष्माकं विषयवासिन इति विजयसूचकं वचो जल्पन्तः सेनापतिना यथार्ह-यथोचित्येन 8 स्थापिता:-नगराधाधिपत्यादिपूर्वकार्येषु नियोजिताः पूजिता वस्त्रादिभिः विसर्जिताः-स्वस्थानगमनायानुज्ञाताः नि| वृत्ताः-प्रत्यावृत्ताः सन्तः स्वकानि निजानि नगराणि पत्तनानि चानुप्रविष्टाः। विसर्जनानन्तरं सेनापतिर्यचकार तदाह'ताहे सेणावई'इत्यादि, तस्मिन् काले सेनापतिः सविनयोऽन्तर्धतस्वामिभक्तिको गृहीत्वा प्राभूतानि आभरणानि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि तां सिन्धुनामधेयां महानदीमुत्तीर्णः अणहशब्दोऽक्षतपर्यायो देश्यस्तेनाणह-अक्षतं क्वचि-19 दण्यखण्डितं शासन-आज्ञा बलं च यस्य स तथा, तथैव यथा २ स्वयं साधयामास तथा २ भरतस्य राज्ञो निवेदयति २ त्वा प्राभृतानि अर्पयित्वा च अत्र स्थित इति गम्यं, अन्यथा क्वान्तपदेन सह सङ्गतिर्न स्यात्, ततःप्रभुणा सत्का
टीप
अनुक्रम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या वृत्तिा
[१२]
श्रीप
श्रीजम्यू-1 रितो वस्त्रादिभिः सन्मानितो बहुमानवचनादिभिः सहर्षः प्राप्तप्रभुसत्कारत्वात् विसृष्टः स्वस्थानगमनार्थमनुज्ञातः 8|३वक्षस्कारे
द्वीपशा-|| स्वर्क-निज पटमंडपं-दिव्यपटकृतमण्डपं मध्यपदलोपी समासः पटमण्डपोपलक्षितं प्रासादं या अतिगतः-प्राविशता भूषणन न्तिचन्द्री| अथ स्वकावासप्रविष्टो यथा सुषेणो विललास तथा चाह-'तते ॥'मित्यादि, ततः स सुषेणः सेनापतिः 'हाए
सिन्धुपश्चि
मनिष्कुट इत्यादि प्राग्वत् , जिमितो-मुक्तवान् राजभोजनविधिना भुक्त्युत्तरं-भोजनोत्तरकाले आगतः सन् उपवेशनस्थाने
साधन इति गम्यं, अत्र यावत्पदादिदं दृश्यं-'आयंते चोक्खे परमसुईभूए' इति, अत्र व्याख्या-आचान्त:-शुद्धोदकयोगेन । सू. ५२ कृतहस्तमुखशौचः चोक्षो-लेपसिक्थाद्यपनयनेन अत एव परमशुचीभूतः-अत्यर्थ पावनीभूतः, इदं च पदत्रयं योजमायाः क्रमप्राधान्येन भुत्तरागए समाणे इति पदात् पूर्व योज्यं, इस्थमेव शिष्टजनक्रमस्य दृश्यमानत्वात, वन्यथा मुक्त्युत्तरकाले आचमनादिकं पामराणामिव जुगुप्सापात्रं स्यात् , पुनः सेनापति विशिनष्टि-सरसेन गोशीर्षचन्दनेनोक्षिता-सिक्काः गावे-शरीरे भवा गात्रा:-शरीरावयवा वक्षाप्रभृतयो यत्र तदेवंविधं शरीर यस्य स तथा, अत्र यच्च-18 न्दनेन सेचनमुक्तं तन्मार्गश्रमोत्थयपुस्तापव्यपोहाय, सितं हि चन्दनमलितापविरहितत्वादतिशीतलस्पर्श भवतीति.18 'उधिति उपरि प्रासादवरस्य सूत्रे च लुप्तविभक्तिकतया निर्देश आपत्वात् गत:-प्राप्तः स्फुटनिरिव-अतिरभसा-||२२१॥ | स्फालनवशाद्विदलगिरिव मृदङ्गाना-मईलाना मस्तकानीव मस्तकानि-उपरितनभागा उभयपाचे चर्मोपनद्धपुटानीति | तैरुपनृत्यमान इत्यादि योज्यं, अत्र करणे तृतीया, तथा द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारैः राजप्रश्नीयोपागसूत्रविवृतैः पत्रियो ।
sceneseaenese
अनुक्रम
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.
Eleonsitin
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२]
टीप
बद्धः-उपसम्पन्नैर्नाटकैः प्रतीतैर्बरतरुणीभिः-सुभगाभिः स्त्रीभिः भूभुजंगरागेषु परममोहनत्वेन तासामेवोपयोगात्, | सम्प्रयुक्तैः-प्रारम्धैरुपनृत्यमानो-नृत्यविषयीक्रियमाणस्तदभिनयपुरस्सरं नर्तनात् , उपगीयमानस्तद्गुणगानात् , उपल
भ्यमानस्तदीप्सितार्थसम्पादनात्, महता इति विशेषणं प्राग्वत् इष्टान्-इच्छाविषयीकृतान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान । | पञ्चविधान मानुष्यकान्-मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान-कामांश्च भोगांश्च इति प्राप्तसंज्ञकान , तत्र शब्दरूपे कामौ| स्पर्शरसगन्धा भोगा इति समयपरिभाषा, भुञ्जान:-अनुभवन् विहरतीति । अथ तमिम्रागुहाद्वारोद्घाटनायोपक्रमते ।
तए गं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ २ ता एवं वयासी गच्छ णं खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! तिमिसगुहाए बाहिणिलस्स दुवारस्स कबाडे विहाडेहि २ सा मम एमाणत्ति पञ्चप्पिणाहित्ति, तए णं से मुसेणे सेणाबई भरहेणं र. ण्णा एवं चुत्ते समाणे हद्दतुट्ठचित्तमाणदिए जाव करवळपरिग्गहि सिरसावतं मत्थए अंजलि कहु जाप पडिसुणेइ २ सा भरहस्स रपणो अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ चा जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ब्भसंधारगं संथरइ जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं 'पगिण्हन पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी आव अहमभसि परिणममाणसि पोसइसालामी पडिणिक्खमह २त्ता जेणेव माणघरे तेणेव उवागच्छद्र २त्ता पहाए फयवलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छिते सद्धप्पाचेसाई मंगलाई वत्थाई पबर परिहिए अप्पमहन्याभरणालंकियसरीरे धूवपुप्फगंधमहत्थगए मजणघराओ पंडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेम तिमिसगुहाए दाहिणिलास्स हुमारस्स कवाडा तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं तस्स सुसैणस्स सेणावइस्स बहवे राईस
अनुक्रम
[७६]
अथ तमिसागुफ़ाया: द्वरोद्घाटनस्य वर्णनं --
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक
श्रीजम्बून्तिचन्द्रीया वृतिः ॥२२२॥
|३ वक्षस्कारे
सुषेणेन | तिमिश्रगुहादक्षिणकपाटोबाटास.५३
[43]
श्रीप
रतलवरमाविम जाप सस्थवाहप्पभियओ अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया जाव सुसेणं सेणावई पिडओ २ अणुगछति, तए पं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहूईओ खुजाओ चिलाइआओ जाब इंगिअचिंतित्रपत्थिअविआणिआउ णिउणकुसलामो विणीआओ अप्पेगइभानो कलसहयगयाओ जाब अणुगच्छंतीति । तए णं से सुसेणे सेणावई सम्बिद्धीए सबजुई जाव णिग्योसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिलस तुपारस्स कबाडा तेणेव उवागच्छइत्ता आलोए पणामं करेइरत्ता लोमहत्थर्ग परामुसहर त्ता तिमिसगुहाए दाहिणितस्स दुवारस्म कवाडे लोमहत्येण पमजइ २ चा दिव्याए उद्गधाराए अन्भुक्सेद २ ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चपए दलाइ २ ता अग्गेहिं बरेहिं गंधेहि अ मलेहि अ अक्षिणेइ २ ता पुष्फारुहर्ण जाव वत्थाहणं करेइ २ चा आसत्तोसत्तविपुलवट्ट जाव करेइ २ त्ता अच्छेहि सहेहि रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहिं तिमिस्सगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स कवाडाणं पुरओ अट्टडमंगलए आलिहइ तं०-सोस्थिय सिरिवच्छ जाव कयग्गहगहिअकरयलपब्भट्टचंदप्पभवहरवेरुलिअविमलदंडं जान धूर्व दलयइ २ ता वामं जाणु अंचेइ २ ता करयल जाव मत्थए अंजलि कटु कवाडाणं पणामं करेइ २ ता दंडरवणं परामुसह, तए णं तं दंडरयणं पंचलइ वइरसारमइ विणासणं सबसत्तुसेण्णाणं खंघावारे परवइस्स गदरिविसमपन्भारगिरिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकर हितकर रणो हिअइच्छिअमणोरहपूरग दिवमप्पडिड्यं दंडरयणं गहाय सत्तह पयाई पचोसका पचोसकित्ता तिमिस्सगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया २ सरेणं तिक्युत्तो आउडेइ, तए णं तिमिसगुहाए पाहिणितस्स दुवाररस कवाडा सुसेणसेणावणा दंडरवणेणं महया २ सहेणं तिनुत्तो आवडिआ समाणा महया २ सदेणं कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाई २ ठाणाई पच्चोसकित्था, तए णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स
अनुक्रम
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[७७]]
॥२२२॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [3], ----------------........
-------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दुबारस्स कबाडे बिहादेइ २ ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव भरहं रायं करवलपरिग्गहि जएणं विजएणं वचाइ २ सा एवं क्यासी-विहाडिआ गं देवाणुप्पि! तिमिसगुहाए वाहिणिलस्स दुवारस्स कवाचा एभणं देवाणुष्पिआणं पिकं णिवेएमो पियं भे भवन, नए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एअमढ सोपा निसम्म हत्तुद्दचित्तमाणदिए जाब हिअए सुसेणं सेणावई सकारेर सम्माणेइ सकारिता सम्माणित्ता कोडंबिअपुरिसे सदावर २ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आमिसेक हस्थिरयणं परिकप्पेह हयगयरहपवर नहेब जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवर णरवाई दूरूढे (सूत्र-५३) 'तए णं से भरहे राया अण्णया' इत्यादि, एतञ्च निगदसिद्धं, सम्बन्धसन्तत्यन्युच्छित्त्यर्थं संस्कारमात्रेण वित्रियते, ततः स भरतो राजा अन्यदा कदाचित् सुसेणं सेनापति शब्दयति-आकारयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-पच्छ क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ विघाटय-सम्बद्धौ वियोजय उदूघाटयेति-18
यावत्, ममैतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पय, 'तए ण'मित्यादि, अत्र भरताज्ञाप्रतिनवणादिकं मजनगृहप्रतिनिष्क्रमणान्तं 18 प्राग्वाल्याख्येयं, नवरं यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्-गमनसङ्कल्प-18
|मकरोत. 'तए णमित्यादि, ततस्तमिनागुहागमनसङ्कल्पकरणानन्तरं तस्य सुषेणस्य बहवो राजेश्वरादयो जनाः सुषेणं 8 18| सेनापति पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, सर्व चात्र भरतस्य चक्ररत्नाचा चिकीर्षोरिव वाच्यं, एवं चेटीसूत्रमपि पूर्ववदेव, नवरं
किंलक्षणाश्चेव्यः ?-इङ्गितेन-नयनादिचेष्टयैव आस्तां कथनादिभिःचिन्तितं-प्रभुणा मनसि संकल्पितं यद्यत्प्रार्थितं तत्तत्
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[५३]
दीप
श्रीजम्बू- जानन्ति यास्ताः तथा निपुणकुशला:-अत्यन्तकुशलाः तथा विनीता-आज्ञाकारिण्यः अप्येकका वन्दनकलशहस्त- वक्षस्कारे
द्वापशा-12गता इत्यावि, 'तए ण'मित्यादि, ततस्तमिम्रागुहाभिमुखचलनानन्तरं स सुपेणः सेनापतिः सर्बो सर्वयुक्त्या सर्व- सुषेणेन न्तिचन्द्री
युत्या वा यावन्निोपनादितेन यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च तिमिश्रगुया वृत्तिः आलोके-दर्शने प्रणामं करोति, तदनु सर्व चक्ररत्नपूजायामिव वाच्यं, यावदन्ते पुनरपि कपाटयोः प्रणाम करोति.
| हादक्षिण
कपाटोदा॥२२३॥ नमनीयवस्तुन उपचारे क्रियमाणे आदावन्ते च प्रणामस्य शिष्टव्यवहारौचित्यात , प्रणामं कृत्वा च दण्डरलं परामू-14
टासू.५३ 18 शति, अथावसरागतं दण्डरलस्वरूपं निरूपयन् कथा प्रबध्नाति-'तए णमित्यादि, ततो-दण्डरलपरामर्शानन्तरं तहकण्डर-दण्डेषु दण्डजातीयेषु र उत्कृष्ट अप्रतिहतं-क्वचिदपि प्रतिघातमनापलं दण्डनामक रसं गृहीत्वा सप्ताष्ट
पदानि प्रत्यवष्वकते-अपसर्पतीत्यनेन सम्बन्धः, अथ कीदृशं तदित्याह-रलमय्यः पश्चलतिका:-कत्तलिकारूपा अवयवा | यत्र तत्तथा, वज्ररतस्य यत्सारं-प्रधानद्रव्यं तम्मयं तद्दलिकमित्यर्थः, विनाशनं सर्वशत्रुसेनाना, नरपतेः स्कन्धाबारे || || प्रस्तावादू गन्तुं प्रवृत्ते सति गादीनि प्रारभारान्तपदानि प्राग्वत् गिरय:-पर्वताः, अत्र विशेषणानभिधानेऽपि प्रस्ता-18|| वाद् गिरिशब्देन क्षुद्रगिरयो ग्राह्याः, ये सञ्चरतः सैन्यस्य विघ्नकराः यात्रोन्मुखानां राज्ञां त एवोच्छेद्याः, महागिरयस्तु ॥२२॥ तेषामपि संरक्षणीया एव, प्रपाता-च्छज्जनस्खलनहेतवः पाषाणाः भृगवो-वा तेषां समीकरणं समभागापादकमित्यर्थः, शान्तिकरं-उपद्रवोपशामक, ननु यापद्वोपशामकं तर्हि सति दण्डरले सगरसुतानां ज्वलनप्रभनागाधिपकृतोपद्रवो SI
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], -------------------------------------------- -------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१३]
दीप
न कथमुपशशामेति, उच्यते, सोपक्रमोपद्वविद्रावण एव तस्य सामर्थ्यात् , अनुपक्रमोपद्रवस्तु सर्वथाऽनपासनीय | एव', अन्यथा विजयमाने वीरदेवे कुशिष्यमुक्ता तेजोलेश्या सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ कथं भस्मतां निनाय ?, अत ॥ एषावश्यंभाविनो भावा महानुभावैरपि नापनेतुं शक्या इति, शुभकर-कल्याणकरं हितकरं-उक्तैरेव गुणैरुपकारि
| राज्ञः-चक्रवर्तिनो हृदयेप्सितमनोरथपूरक गुहाकपाटोद्घाटनादिकार्यकरणसमर्थत्वात् दिव्यं यक्षसहस्राधिष्ठितमित्यर्थः, || अत्र सेनापतेः सप्ताष्टपदापसरणं प्रजिहीपोंर्गजस्येव दृढप्रहारदानायाधिकप्रहारकरणार्थमिति, प्रत्यवष्वष्कणादनु कि | चक्रे इत्याह-'पचोसकित्ता इत्यादि, प्रत्यवष्वष्क्य च तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ दण्डरलेन महता २ शब्देन त्रिकृत्वः-त्रीन वारान् आकुट्टयति-ताडयति, अत्र इत्यंभावे तृतीया, यथा महान् शब्द उत्पद्यते तथा-18 प्रकारेण ताडयतीत्यर्थः, अत्र गुहाकपाटोद्घाटनसमये द्वादशयोजनावधिसेनानीरत्नतुरगापसरणप्रवादस्तु आवश्यक-18 [टिप्पनके निराकृतोऽस्ति, यथा-"यश्चात्र द्वादशयोजनानि तुरगारूढः सेनापतिः शीघ्रमपसरतीत्यादिपवादः सोऽना|| गामिक इव लक्ष्यते, कचिदप्यनुपलभ्यमानत्वादिति." ततः किं जातमित्याह-तए ण 'मित्यादि, ततः-ताडना
दनु तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ सुषेणसेनापतिना दण्डरत्नेन महता २ शब्देनाकुट्टितौ सन्ती महता 8 |२ शब्देन दीर्घतरनिनादिनः क्रौंचस्येव बहुच्यापित्वाद् बनुनादित्वाच्च य आरयः-शब्दस्तं कुर्वाणी 'सरसरस्स'त्ति K अनुकरणशब्दस्तेन तादृशं शब्दं कुर्वाणी कपाटावित्यर्थः स्वके २-स्वकीये २ स्थानेऽवष्टम्भभूततोड़करूपे यत्रागम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्राक [५३]
दीप
भीजम्बू-18 चलतया तिष्ठत इति ते यावत् प्रत्यवाष्बष्किषातां-प्रत्यपससर्पतुः, 'तए णमित्यादि, इदं च सूत्रमावश्यकचूणों वर्द्ध-1 ३वक्षस्कारे
मानसूरिकृतादिचरित्रे च न दृश्यते, ततोऽनन्तरपूर्वसूत्र एव कपाटोद्घाटनमभिहितं, यदि चैतत्सूत्रादर्शानुसारेणेदं मणिरलं न्तिचन्द्री
सूत्रमवश्यं व्याख्येयं तदा पूर्वसूत्रे सगाई २ ठाणाई इत्यत्रार्थत्वात् पश्चमी व्याख्येया तेन स्वकाभ्यां २ स्थानाभ्यां काकिणीरया वृत्तिः कपाटद्वयसम्मीलनास्पदाभ्यां प्रत्यवस्तृताविति-किश्चिद्विकसितावित्यर्थः तेन विघाटनार्थकमिदं न पुनरुक्तमिति, ततः-13
बेन मण्ड
त लालेखनं च ॥२२४॥ | कपाटप्रत्यपसर्पणादनु स सुषेणः सेनापतिः तमिम्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ विघाटयति-उद्घाटयति, IS
सू.५४ ततः किं कृतमित्याह-विहाडेत्ता' इत्यादि, प्रायः प्राग् व्याख्यातार्थ, नवरं विघाटितौ देवानुप्रियाः! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ एतद्देवानुप्रियाणां प्रियं निवेदयामः, अत्र निवेदकस्य सेनानीरत्तस्यैकत्वात् क्रियायां एकवचनस्यौचित्ये यनिवेदयाम इत्यत्र बहुवचनं तत्सपरिकरस्याप्यात्मनो निवेदकत्वख्यापनार्थ तच्च बहूनामेकवाक्यत्वेन प्रत्ययोत्पादनार्थ, एतत् प्रियं-इष्ट भे-भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह-'तए ण'मित्यादि, व्यकं. गजारूढः सन् यन्नृपतिश्चक्रे तदाह• तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्यं तंसि छलंसं अणोवमजुई दिवं मणिरयणपति
॥२२४॥ समं वेरुलिअं सबभूजकतं जेण य मुबागएणं दुक्खं ग किंचि जाव हबइ आरोग्गे अ सबकालं तेरिच्छिमदेवमाणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरेंतो ठिअजोवणकेसअवविअणहो हबह अ
09000000000000000000000000
अनुक्रम
[७७]
RA
अथ मण्डल-आलेखनस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
टीप
सबभयविप्पमुक्को, त मणिरयणं गहाय से गरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिलाए कुंभीए णिक्खिया, तए णं से भरहादिवे गरिदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इडीए पहिअकित्ती मणिरयणकउनोए चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायसहस्सागुआयमग्गे महयाउकिट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं समुदरवभूअंपिव करेमाणे २ जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिले दुवारे तेणेव उवागाइ २ ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुबारेणं अईइ ससिब मेहंधयारनिवहं । तए णं से भरहे गया छत्तलं दुवालससि अट्ठकणिों अहिंगरणिसंठिों अटुसोवणिों कागणिरयणं परामुसइत्ति । तए णं तं चउरंगुलप्पमाणमित्तं असुवणं च विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठिों समतलं माणुम्माणजोगा जतो लोगे चरति सधजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्व सूरे : ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं दिवं भावजुत्तं दुवालसजोषणाई तस्स लेसाउ विवद्धति तिमिरणिगरपडिसेहिआओ, रत्तिं च सबकालं संधाबारे करेइ आलोभ दिवसभूशं जस्स पभावेण चकवट्टी, तिमिसगुई अतीति सेण्णसहिए अभिजेतुं वितिअमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपचाथिमिल्लेर्मु कडएसुं जोअर्णतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोअणुज्जोअकराई चवणेमीसंठिभाई चंदमंडलपखिणिकासाई एगूणपणं मंडलाइं आलिहमाणे २ अणुप्पविसइ, तए णं सा तिमिसगुहा भरहेणं रण्णा तेहिं जोअणंतरिपहिं जाव जोअणुजोअकरेहिं एगूणपण्णाए मंडलहिं आलिहिजमाणेहिं २ सिप्पामेव आलोगभूमा उजोअभूआ दिवसभूना जाया बावि होत्था (सूत्र-५४) 'तए णं से भरहे राया मणिरयण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मणिरतं परामृशति, किंविशिष्ट इत्याह
अनुक्रम
[७८]
Reacheseeबल
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४]
श्रीजम्बू-'तोत'मिति सम्प्रदायगम्यं चतुरङ्गुलप्रमाणा मात्रा दैर्येण यस्य तत्तधा, चशब्दाद् ब्यङ्गुलपृथुलमिति ग्राह्य, बदाह- ३वक्षस्कारे
"चतुरंगुलो दुअंगुलपिठुलो अ मणी"इति, अनर्षित-अमूल्यं न केनापि तस्यार्घः, कर्तुं शक्यते इत्यर्थः तिम्रो माणरत्न न्तिचन्द्री
काकिणीर॥ यः-कोटयो यत्र तत्तथा, ईदृशं सत् षडनं-षट्कोटिक, लोकेऽपि प्रायो वैडूर्यस्य मृदङ्गाकारत्वेन प्रसिद्धत्वान्मध्ये या वृत्तिः
उन्नतवृत्तत्वेनान्तरितस्य सहजसिद्धस्योभयान्तवर्तिनोऽनित्रयस्य सत्त्वात्, अत्राह-पडसमित्यनेनैव सिद्धे व्यस्रषड- लालेखनं च ॥२२५॥ समिति किमर्थ ?, उच्यते, उभयोरन्तयोनिरन्तरकोटिषट्कभवनेनापि षडनता सम्भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ त्र्यनं . ५४
सत् षडसमित्युक्तं, तथा अनुपमद्युति दिव्यं मणिरत्नेषु-पूर्वोक्तेषु पतिसमं सर्वोत्कृष्टत्वात् , वैडूर्य वैडूर्यजातीयमित्यर्थः, | सर्वेषां भूतानां कान्तं-काम्यं, इदमेव गुणान्तरकथनेन वर्णयन्नाह-'जेण य मुद्धागएण'मित्यादि, येन मूर्द्धगतेनशिरोधृतेन हेतुभूतेन न किञ्चिद् दुःखं जायते आरोग्यं च सर्वकालं भवति, तिर्यन्देवमनुष्यकृताः चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धादुपसर्गाश्च सर्वे न कुर्वन्ति तस्य दुःखं, संग्रामेऽपि च-बहुविरोधिसमरे आस्तामल्पविरोधिसमरे अशखवध्यः,18
अत्र न शखवध्योऽशखवध्य इति, नसमासो वा, 'अः स्वल्पार्थेऽप्यभावेऽपी'त्यनेकार्थवचनात् अ इति पृथगेव नस|| मानार्थनिपासो वा ज्ञेयस्तेन न शस्त्रैर्वध्यो भवति, नरो मणिवरं धरन स्थित-विनश्वरभावमप्राप्तं यौवनं यस्य स स्था, | ॥२२५| B स्थायियौवन इत्यर्थः, केशैः सहावस्थिता-अवर्द्धिष्णवो नखा यस्य स तथा, पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, भवति |
च सर्वभयविषमुक्ता, अत्र 'सर्व भाजनस्थं जलं पीत'मित्यादाविव एकदेशेऽपि सर्वशब्दप्रयोगस्य सुप्रसिद्धत्वादेवम
SearSagacasses
टीप
अनुक्रम
[७८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
18नुष्याविप्रतिपक्षोत्थं भयमिह ज्ञेयं, अन्यथाऽश्लोकादिभयानि महतामेव भवेयुरिति, अर्थतत् गृहीत्वा नृपतिर्यचकार | तदाह-'तं मणि'न्ति तम्मणिरत्नं गृहीत्वा स नरपतिर्भरतो हस्तिरत्रस्य दाक्षिणात्ये कुम्भे निक्षिपति-निवनाति, 'कुंभीए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतेत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् मणिरत्नकृतोद्योत्तश्चक्ररत्नदेशितमार्गों यावत् समुद्रवभूतामिव गुहामिति गम्यं कुर्वन् २ यत्रैव तमिना-18 गुहाया दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च तमिस्रागुहा दाक्षिणात्येन द्वारेणात्येति-प्रविशति, शशीव मेघान्धकारनिवहं । प्रवेशानन्तरं यत्कृत्यं तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा काकणीरलं परामृशतीत्यु
त्तरेण सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-चत्वारि चतसषु दिक्षु द्वे तूर्ध्वमधश्चेत्येवं पट्सङ्ग्याङ्कानि तलानि यत्र तत्तथा, 18 18तानि चात्र मध्यखण्डरूपाणि, यैर्भूमावविषमतया तिष्ठन्तीति, द्वादश अध उपरि तिर्यक् चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकं चत
सणामश्रीणां भावात् अश्रय:-कोटयो यत्र तत्तथा, कर्णिका:-कोणाः यत्र अश्रित्रयं मिलति तेषां चाध उपरि 8 18 प्रत्येक चतुर्णा सदावादष्टकर्णिक, अधिकरणिः-सुवर्णकारोपकरणं तद्वत् संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, तत्सदृशा-18
कार समचतुरनत्वात् , आकृतिस्वरूपं निरूप्यास्य तौल्यमानमाह-अष्टसुवर्णा मानमस्सेत्यष्टसौवर्णिकं, तत्र सुवर्ण-18 मानमिदं-'चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एकं धान्यमाषफलं द्वे धान्यमापफले एका गुञ्जा पञ्च गुञ्जा एकः कर्ममाषक: पोडश कर्ममाषकाः एक सुवर्ण इति, एतादशैरष्टभिः सुवर्णैः काकणीरतं निष्पद्यते इति,
टीप
meroeraeraeraenerasa0000000000000
अनुक्रम
[८]
19XJanuary
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या वृत्तिः
[५४]
श्रीजम्बू- अत्र चाधिकारे "एतानि च मधुरतुणफलादीनि भरतचक्रवर्तिकालसम्भवीन्येव गृह्यन्ते, अन्यथा कालभेदेन तद्वैषम्य- ३वक्षस्कारे
द्वीपशा-18|| सम्भवे काकणीरनं सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात्, तुल्यं चेष्यते तदि"त्येतस्मादनुयोगद्वारवृत्तिवचनात् एतद्देशीयादेवी माणरत्र न्तिचन्द्री
1 काकिणीर| स्थानावृत्तिवचनात्, "चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्ध चेव होइ विच्छिण्णो । चउरंगुलप्पमाणा सुवण्णवरकागणी
| बेन मण्डनेया ॥१॥हाल-प्रमाणाङ्गलमवगन्तव्यं, सर्वचक्रवनिनामपि काकण्यादिरलानां तुल्यप्रमाणत्वादिति” मलय-लालेखनन ॥२२६॥ गिरिकृतवृहत्संग्रहणीबृहदृत्तिवचनाच केचनास्य प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नत्वं, केचिच "एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक-18.५४
वट्टिणो अट्ठसोवपिणए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पपणत्ते, एगमेगा कोडी8 उस्सेहगुलविक्खम्भा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं” इत्यनुयोगद्वारसूत्रबलादुत्सेधाङ्गलनिष्पन्नत्वं, केऽपि |च एतानि सप्तैकेन्द्रियरनानि सर्वचक्रवर्तिनामात्माङ्गुलेन शेयानि, शेषाणि तु सप्त पञ्चेन्द्रियरलानि तत्कालीनपुरुषो-18 चितमानानीति प्रवचनसारोद्धारवृत्तिवलादारमाङ्लनिष्पन्नत्वमाहुः, अत्र च पक्षत्रये तत्त्वनिर्णयः सर्वविद्वेयः, अत्र || |तु बहु वक्तव्यं तत्तु ग्रन्थगौरवभिया नोच्यते इति । अस्य परामर्शानन्तरं यच्चक्रे तदाह-'तए णमित्यादि, ततः-18 परामर्शानन्तरं तत्काकणीरनं राजवरो गृहीत्वा यावदेकोनपश्चाशतं मण्डलान्यालिखन्नालिखन् अनुप्रविशतीत्युत्तरेण | ॥२२६॥ सम्बन्धः, कथम्भूतमित्याह-चतुरङ्गुलप्रमाणमात्र, अस्यैकैका अनिश्चतुरङ्गुलप्रमाणविष्कम्भा द्वादशाप्यश्रयः प्रत्येक चतुरङ्गुलप्रमाणा भवन्तीत्यर्थः, अस्य समचतुरस्रत्वादायामो विष्कम्भश्च प्रत्येकं चतुरङ्गुलप्रमाण इत्युक्तं भवति, यैवाग्नि
अनुक्रम
[७८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
IS सवींकृता आयाम प्रतिपद्यते सैव तिर्यग्व्यवस्थापिता विष्कम्भभाग् भवतीत्यायामविष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपर
| निर्णयः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं, तग्रहणे चायामोऽपि गृहीत एव, समचतुरनत्वात्तस्येति, तदेवं सर्वतपाश्चतुरङ्गलप्रमाणमिदं सिद्धं, यत्तु तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं च समणस्स भगवओ महावीरस्स IS| अद्धंगुलं, इत्यनुयोगद्वारसूत्रे उक्तं तन्मतान्तरमवसेयं, तथाऽष्टभिः सुवर्णैर्निष्पन्नमष्टसुवर्ण, अष्टसुवर्णमूलद्रव्येण |S
निष्पन्नमित्यर्थः, चकारो विशेषणसमुच्चये सर्वत्र, तथा विषं जङ्गमादिभेदभिन्नं तस्य हरणं, स्वर्णाष्टगुणानां मध्ये विष-IS हरणस्य प्रसिद्धत्वात्, अस्य च तथाविधस्वर्णमयत्वादिति, अतुलं-तुलारहितमनन्यसदृशमित्यर्थः, चतुरस्रसंस्थानसं-18 |स्थितमिति तु विशेषणं पूर्वोक्ताधिकरणिदृष्टान्तेन भाव्यमिति, ननु अधिकरणिदृष्टान्ते भाव्यमाने नास्य पूर्वोक्ता चतुरं-18
गुलतोपपद्यत अधिकरणेरधः संकुचितत्वेन विषमचतुरस्रवादित्याह-'समतल मिति, समानि न न्यूनाधिकानि ९ तलानि षडपि यस्य तत्तथा, अथैतदेव यच्छन्दगभितवाक्यद्वारा विशिनष्टि-यतः काकणीरत्नात् मानोन्मान [प्रमाTeण] योगा:-एते मानविशेषव्यवहारा लोके चरन्ति प्रवर्तन्ते इत्यर्थः, तत्र मानं धान्यमानं सेतिकाकुडवादि, रसमान र KI चतुःषष्टिकादि, उन्मानं कर्षपलादि खण्डगुडादिद्रव्यमानहेतुः, उपलक्षणात् सुवर्णादिमानहेतुः प्रतिमानमपि ग्राह्य
गुञ्जादि, किंविशिष्टास्ते व्यवहाराः-सर्वजनानां-अधमर्गोत्तमर्णानां प्रज्ञापका-मेयद्रव्याणामियत्तानिर्णायकाः, अय-18 माशयो-यथा सम्प्रति आप्तजनकृतनिर्णयाङ्क कुडवादिमानं जनमत्यायकं व्यवहारप्रवर्तकं च भवति तद्वचक्रवर्तिकाले 18
टीप
अनुक्रम
[८]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
दीप
अनुक्रम
[७८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥२२७॥
कारणिकपुरुषैः काकणीरकाङ्कितं तत्तादृशं भवेदित्यर्थः यच्छउदगर्भेणैव वाक्येन माहात्म्यान्तरमाह--नापि चन्द्रः तत्र तिमिरं नाशयतीति योजनीयं, न वा सूर्यः, अत्र इर्वाक्यालङ्कारे एवं सर्वत्र, नवाऽग्निदींपादिगतः न वा मणय स्तत्र तिमिरं नाशयन्ति, प्रकाशं कर्तुमभूष्णव इत्यर्थः, यत्रान्धकारे अन्धकारयुक्तत्वेनाभेदोपचारात् अन्धकारमत्रास्तीति अवादित्वादप्रत्ययविधानाद्वा अन्धकारवतिगिरिगुहादौ तकत्-काकणीरलं दिव्यं-प्रभावयुक्त तिमिरं नाशयति, अथ यदीदं प्रकाशयति तदा कियत् क्षेत्रं प्रकाशयतीत्याह- द्वादश योजनानि तस्य लेश्या:-प्रभा विवर्द्धन्ते, अमन्दाः सत्यः प्रकाशयन्तीत्यर्थः, किंविशिष्टा लेश्याः १ - तिमिरनिकरप्रतिषेधिकास्त मिस्रादिगुहायाः पूर्वापरतो द्वादशयोजनविस्तारयोस्तासां प्रसरणात् 'रतिं च'ति प्रथमान्तयच्छन्दाध्याहारादर्थवशाद्विभक्तिपरिमाणाच्च यद्रवं रात्रौ चो वाक्यान्तरारम्भार्थः सर्वकालं स्कन्धावारे दिवससदृशं यथा दिवसे आलोकस्तथा रात्रावपीत्यर्थः, आलोकं करोति, यस्य प्रभावेण चक्रवर्त्ती तमिस्रां गुहां अत्येति प्रविशति सैन्यसहितो द्वितीयमर्द्ध भरतमभिजेतुं उत्तरभरतं वशीकर्त्तुमित्यर्थः, न चात्रान्तरा यच्छब्दगर्भितवाक्यावतारेण वाक्यान्तरप्रवेशो नाम सूत्रदूषणमिति वाच्यं, आर्यत्वात् तस्यादुष्टत्वेन शिष्टव्यवहारात्, यथा आर्षे छन्दस्सु वर्णाद्याधिक्यादावपि न छन्दोभ्रष्टत्वदोषो महापुरुषोपज्ञत्वेनात्वात् तथैव शिष्टव्यवहारात्, राजवरी- भरतः 'कागणिं' ति पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् काकणीरनं गृहीत्वा खात्वा तमिस्रागुहायाः पौरस्त्यपाश्चात्ययोः कटकयोः - भित्त्योः प्राकृतत्वाद् द्विवचने बहुवचनं, योजनान्तरितानि प्रमाणांगुल
Fur Fate &P Cy
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३वक्षस्कारे मणिरत्नं काकिणीरलेन मण्डलालेखनं च
सू. - ५४
॥२२७॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
दीप
अनुक्रम
[७८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [५४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
| निष्पन्नयोजनमपान्तराले मुक्त्वा कृतानीत्यर्थः, अवगाहनापेक्षयोत्सेधांगुल निष्पन्नपथधनुःशतमान विष्कम्भाणि, वृत्तत्वाद् | विष्कम्भग्रहणेनायामोऽपि तावाने वावगन्तव्यः, उत्सेधांगुलप्रमीयमाणावगाहनाकेन चक्रिणा हस्तात्तत्काकणीर लेन क्रियमाणत्वान्मण्डलानां, अयं च मण्डलावगाहः स्वस्वप्रकाश्ययोजनमध्ये एव गण्यते, अन्यथा ४९ मण्डलानामवगाहे पिण्डी| क्रियमाणे गुहाभित्योरायाम उक्त प्रमाणाधिकप्रमाणः प्रसज्येतेति, अत एव च योजनोद्योतकराणि - योजनमात्रक्षेत्रप्रकाशकानि, यवम्मण्डलान्तरालं तावन्मण्डलप्रकाश्यं गुहाभित्तिक्षेत्रमित्यर्थः, चक्रस्य नेमिः - परिधिस्तत्संस्थानानि वृत्ता| नीत्यर्थः तथा चन्द्रमण्डलस्य प्रतिनिकाशानि - भास्वरत्वेन सदृशानि, एकोनपञ्चाशतं मण्डलानि - वृत्तहिरण्यरेखारू| पाणि, काकणीरत्नस्य सुवर्णमयत्वात्, आलिखन् २-विन्यस्यन् २ अनुप्रविशति गुहामिति प्रकरणाद् ज्ञेयं, वीप्सावचनमाभीक्ष्ण्यद्योतनार्थं, मण्डलालिखन क्रमश्चायं - गुहायां प्रविशन् भरतः पाश्चात्य पान्थजनप्रकाशकरणाय दक्षिणद्वारे पूर्वदिकपाटे प्रथमं योजनं मुक्त्वा प्रथमं मण्डलमालिखति, ततो गोमूत्रिकान्यायेनोत्तरतः पश्चिमदिकपाटतोडुके तृतीययोजनादी द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तेनैव न्यायेन पूर्वदिकपाटतोडुके चतुर्थयोजनादौ तृतीयं ततः पश्चिमदिग्भित्तौ पश्चमयोजनादौ चतुर्थं ततः पूर्वदिग्भित्तौ षष्ठयोजनादौ पञ्चमं ततः पश्चिमदिग्भित्तौ सप्तमयोजनादौ षष्ठं ततः पूर्वदिग्भित्तौ अष्टमयोजनादौ सप्तमं एवं तावद् वाच्यं यावदष्टचत्वारिंशत्तममुत्तरदिग्द्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे प्रथमयोजनादी एकोनपञ्चाशत्तमं चोत्तरदिग्द्वारसत्कपूर्वदिकपाटे द्वितीययोजनादावालिखति, एवमेकस्यां भित्तौ पच
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warya
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू
॥२२८॥
| विंशतिरपरस्यां चतुर्विंशतिरित्ये कोनपञ्चाशत्मण्डलानि भवन्ति, एतानि च किल गुहायां तिर्यग् द्वादश योजनानि प्रका पाशयन्ति ऊर्ध्वाधोभावेन चाष्टौ योजनानि, गुहाया विस्तरोच्चत्वस्य च क्रमेण एतावत एव भावात्, अग्रतः पृष्ठतश्च न्तिचन्द्री - योजनं प्रकाशयन्तीति, ननु गोमूत्रिकाविरचनक्रमेण मण्डलालिखने कथमेषां योजनान्तरितत्वं १, यद्येकभित्तिगतमया वृत्तिः ण्डलापेक्षया तर्हि योजनद्वयान्तरितत्वमापद्येत अन्यथा द्वितीयमण्डलस्यैकभित्तिगतत्वप्रसङ्गः तथा च सति गोमूत्रिकाभङ्गः, अन्यभित्तिगतमण्डलापेक्षया तु तिर्यक् साधिकद्वादश योजनान्तरितत्वमिति, उच्यते, पूर्वभित्तौ प्रथमं मण्डल| मालिखति, ततस्तरसम्मुखप्रदेशापेक्षया योजनातिक्रमे द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तत्सम्मुखप्रदेशापेक्षया योजनातिक्रमे पूर्वभित्तौ तृतीयमण्डलमालिखतीत्यादिक्रमेण मण्डलकरणात् गोमूत्रिकाकारत्वं योजनान्तरितत्वं च व्यक्तमेवेति सर्वं सुस्थं, अथ पञ्चाशद्योजनायामायां गुहायामेकोनपञ्चाशता मण्डलैर्यत्प्रकाशकरणमुक्तमित्यस्यार्थस्य सुखाव| बोधाय संक्षेपेण मण्डलपञ्चकस्य स्थापना दर्श्यते, यथा एवं षट्कोष्ठकपरिकल्पितषड्योजन क्षेत्रे एकस्मिन् पक्षे त्रीणि अन्यत्र तु द्वे इत्युभयमीलने पञ्च मण्डलानि भवन्ति, एवमनेन गोमूत्रिकामण्डलकविरचनक्रमेण | पश्चाशयोजनायामायां गुहायामेकोनपञ्चाशतोऽपि मण्डलकानां स्थापना स्वयं ज्ञेयेति, अन्ये तु पूर्वदिकपाटे आदी योजनं मुक्त्वा प्रथमं मण्डलं करोति, ततः पश्चिमदिकपाटे तत्सम्मुखं द्वितीयं ततः पूर्वदिकपाटगतप्रथममंडलातरतो योजनं मुक्त्वा पूर्वदिकपाटतोड के तृतीयं ततः पश्चिमदिकपाटतोडु के तत्सम्मुखं चतुर्थ, ततः पूर्वदिकपाट
Friglesexy
~ 111 ~
३ वक्षस्कारे
मणिरत्नं काकिणीरतेन मण्डलालेखनं च सू. ५४
॥२२८॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Remedeceae
प्रत
सूत्रांक
[१४]
टीप
तोहके तृतीयान्मंडलायोजनं मुक्त्वा पञ्चम, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिकपाटतोडके षष्ठं, पुनस्तावतैवान्तरालेन पूर्वदि| भित्ती सप्तम, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिग्भित्तौ अष्टम, ततः पूर्वदिग्भित्ती सप्तमान्मंडलायोजनान्तरे नवम, ततः पश्चि|| मभित्ती अष्टमात् तावतैवान्तरालेन दशममित्येवं पूर्वभित्तौ पश्चिमभित्तौ च मंडलान्यालिखस्तावद् गच्छति यावच्चरममष्टनवतितमं मंडलमुत्तरद्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे, एवं चैकैकस्यां भित्तावेकोनपञ्चाशत् मंडलानि उभयमीलने चाष्टनवतिरिति, अत्र चोभयोः पक्षयोर्मध्ये आद्यः आवश्यकवृहदत्तिटिप्पनकप्रवचनसारोद्धारवृहद्वत्यादाबुक्को द्वितीयस्तु मलयगिरिकतक्षेत्रविचारवृत्त्यादाविति । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते--तए 'मित्यादि, ततो-मंडलालिखनानन्तरं सा | तमिस्रागुहा भरतेन राज्ञा तैयोजनान्तरितर्यावयोजनोयोतकरैरेकोनपञ्चाशता मंडलैरालिख्यमानैः क्षिप्रमेवालोक-18 8 सौरप्रकाशं भूता-प्राप्ता, एवमुद्योतं-चान्द्रप्रकाशं भूता, किंबहुना, दिवसभूता-दिनसहशी जाता चाप्यभवत्। 18|चः समुच्चये, अपिः सम्भावनायां, तेन नेयं गुहा मंडलप्रकाशपूर्णा किन्तु सम्भाव्यते आलोकभूता, एवमतनपद-18 काद्वयमपि, कचिदिवसभूअ इत्यस्य स्थाने दीवसयभूया इति पाठस्तत्र दीपशतानि भूतेति व्याख्येयं, अथान्तगुहं वत्त-18 मानयोः परपार जिगमिषूणां प्रतिबन्धकभूतयोरुन्मन्नानिमझानामकनयोः स्वरूपं प्ररूपयितुकामः प्राहतीसे णं तिमिसगुहाए बहुमादेसभाए एत्थ णं उम्मगणिमग्गजलाओ णाग दुने महाणईओ पण्णताओ, जाओ णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिलामो भित्तिकलगाओ पढाओ समाणीओ पचत्यिमेणं सिंधुं महाणई समप्पति, से केणद्वेणं भंते! एवं युगह उमग
अनुक्रम
[७८]
अथ उन्मग्ना-निमग्ना स्वरुपम् वर्ण्यते
~112~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
सू. ५५
[५५]
॥२२९॥
जिमग्गजलाओ महाणईगो १, गोजमा ! जाणं उम्मग्गजलाए महाणईए तण वा पत्तं वा कई वा सक्करं वा आसे पा हत्थी वा वक्षस्कारे रहे वा जोहे वा मणुस्से वा पक्खिप्पइ तणं उम्मग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणि २ एगते यळंति एडेइ, अण्णं णिमग्ग- उन्मन्नानिजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कटु वा सक्करं वा जाव मणुस्से वा पक्खिप्पा तणं णिमग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहु- मनाखरूपं णि २ अंतो जलंसि णिमजावेइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं बुधइ-उम्मग्गणिमम्गजलाओ महाणईओ, तए पं से भरहे राया चकरयणदेसिअमग्गे अणेगराय० महया उक्किट्ठसीहणाय जाव करेमाणे २ सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले ण कूडे ण जेणेव उम्मगजला महाणई तेणेव उवागच्छइ २त्ता बद्धहरयणं सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! उम्मग्गणिमगजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिबिट्टे अयलमकंपे अभेजकवए सालंबणवाहाए सबरयणामए सुहसंकमे करेहि करेता मम एमाणत्तिों खिषामेव पञ्चप्पिणाहि, तए णं से वारयणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे हतुट्ठचित्तमाण दिए जाब विणएण पडिसुणेइ २ त्ता खिप्पामेव उस्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिबिहे जाव सुहसंकमे करेइ २ ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छह २त्ता जाव एअमात्ति पञ्चप्पिणइ, तए णं से मरहे राया सबंधाबारबले उम्मम्मणिमम्गजलाओ महाणईओ तेहिं अणेगखंभसयसण्णिविट्ठोहिं जाव सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिस्सगुहाए उत्तरिलस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया २ कोचारवं करेमाणा सरसरस्सग्गाई २ ठाणाई पयोसकिस्था (सूत्र ५५) । 'तीसे णमित्यादि, तस्यास्तमिस्रागुहायाः बहुमध्यदेशभागे दक्षिणद्वारतस्तोडकसमेनकविंशतियोजनेभ्यः परतः ||
अनुक्रम
[७९]]
Renescoerce
Sinelem
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Sassa
प्रत
सूत्रांक
[१५]
18| उत्तरद्वारतस्तोडकसमेनकविंशतियोजनेभ्योऽर्थाक् च उन्मन्नजलानिमग्नजलानाम्यौ महानद्यौ प्रज्ञप्ते, ये तमिस्रागुहायाः।
पौरस्त्यात् भित्ति कटकादू-भित्तिप्रदेशात् प्रन्यूढे निर्गते-सत्यौ पाश्चात्येन कटकेन विभिन्न सिन्धुमहानदी समामुतः 19 प्रविशत इत्यर्थः, नित्यप्रवृत्तत्वाद्वर्तमानानिर्देशः, अधानयोरन्वर्थ पृच्छन्नाह-से केण?ण'मित्यादि, अथ केनार्थेन | | भदन्त ! एवमुच्यते उन्मग्नजलनिमग्नजले महानद्यौ ?, गौतम! यत् णमिति प्राग्वत् उन्मग्नजलायां महानद्यां तृणं
वा पत्रं वा काष्ठं वा शर्करा वा-पत्खण्डः, अत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः, अन्धो वा हस्ती वा रथो वा योधो वा-13 १ सुभटः सेनायाः प्रकरणाचतुर्णा सेनाङ्गानां कथनं मनुष्यो वा प्रक्षिप्यते तत् तृणादिकं उन्मन्नजला महानदी विकृ-18
त्व:-श्रीन वारान् आधूय २-भ्रमयित्वा २ जलेन सदाऽऽहत्याहत्येत्यर्थः एकान्ते-जलप्रदेशाद्दवीयसि स्थाने निर्जलप्रदेशे 'एडेत्ति छईयति, तीरे प्रक्षिपतीत्यर्थः, तुम्बीफलमिव शिला उन्मग्नजले उन्मजतीत्यर्थः, अत एवोन्मज्जति | शिलादिकमस्मादिति उन्मन्नं, 'कृयू बहुल'मिति वचनात् अपादाने क्तप्रत्ययः, सन्मनं जलं यस्यां सा तथा, अथ द्वितीयाया नामान्वर्थ:-तत्पूर्वोकं वस्तुजातं निमनजला महानदी विकृत्वः आधूयाधूय अन्तर्जलं किं? मज्जयति शिलेव तुम्बीफलं निमझाजले निमज्जतीत्यर्थः, अत एव निमज्जयत्यस्मिन् तृणादिकमखिलं वस्तुजातमिति निमग्नं, बहुलव|चनादधिकरणे तप्रत्ययः, निमग्नं जलं यस्यां सा तथा, अवैतन्निगमयति-से तेण?ण'मित्यादि, सुगम, अनयोश्च यथाक्रममुन्मजकत्वे निमजकत्वे वस्तुस्वभाव एव शरणं, तस्य चातर्कणीयत्वात् ,इमे च द्वे अपि त्रियोजनविस्तरे गुहाविस्ता
अनुक्रम
[७९]]
Santleman
~114~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५५]
श्रीजम्यू- रायामे अन्योऽन्यं द्वियोजनान्तरे बोध्ये,अनयोर्यथा गुहामध्यदेशवर्तित्व तथा सुखावबोधाय स्थापनया दश्यते, यथा-12वक्षस्कारे द्वीपशा- IRIT.७ ३२३॥ 100 । अथ दुरवगाहे नद्यौ विबुध्य भरतो यच्चकार तदाह-'तएण' मित्यादि, ततः स भरतो | उन्ममानिन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
राजा चक्ररलदेशितमार्गः अणेगराये'त्यादि सूत्र व्याख्या च प्राग्वत् सिन्ध्वा महानद्याः | पौरस्त्ये कूले-पूर्वतटे उभयत्रापिणंशब्दो वाक्यालङ्कारे,अयमर्थः-तमिनाया अधो वहन्ती सिन्धुस्तमिस्रापूर्वकटकमवधीकृ॥२३०॥
त्येवेति,उन्मनाऽपिपूर्वकटकान्निर्गताऽस्तीत्युभयोरेकस्थानतासूचनार्थकमिदं सूत्र,यत्रैवोन्मग्नजला महानदी तत्रैवोपागच्छ. |ति, उपागत्य च वर्द्धकिरनं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति, यदवादीत् तदाह-खिप्पामेव'त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! उन्मग्ननिमग्नजलयोर्महानद्योः अनेकानि स्तम्भशतानि तेषु सन्निविष्टौ-सुसंस्थिती अतएवाचली महाबलाक्रान्तत्वेऽपि न स्वस्थानाच्चलतः अकम्पो-दृढी,सकम्पसेतुबन्धे तु तितीर्पूणां सज चलन स्यादिति दृढतरनिर्माणावित्यर्थः, अथवा अचलो-गिरिस्तद्वत् अकम्पो,मकारोऽलाक्षणिकः अभेद्यकवचाविवाभेद्यकवची अभेद्यसन्नाहा विति, जलादिभ्यो न भेदं यात | इत्यर्थः,नन्वनन्तरोक्तविशेषणाभ्यामुत्तरतां तदुपरि पातशङ्का न स्यात्तथापि उभयपार्थयोर्जलपातशङ्का नापनीता भवती-| | त्याह-सालम्बने-उपरि गच्छतामवलम्बनभूतेन हदतरभित्तिरूपेणालम्बनेन सहिते बाहे-उभयपाश्वों ययोस्ती तथा, IS||२३०॥
सर्वात्मना रसमयी आदिदेवचरित्रप्रवचनसारोद्धारवृत्त्योस्तु क्रमेण पाषाणमयकाष्ठमयी ताबुतौ स्त इति, तथा सुखेन. ॥ संक्रमः-पादविक्षेपो यत्र तौ तथा, इरशी संक्रमौ-सेतू कुरुष्व कृत्वा च मामेतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयेति । अथ स
अनुक्रम
[७९]]
~115
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५५ ]
दीप
अनुक्रम
[७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
किं चकारेत्याह - 'तए ण' मित्यादि, अनुवादसूत्रत्वात् सर्वं प्राग्वत्, ननु उन्मग्नजला जलस्योन्मत्वस्व मा कथं तत्र संक्रमार्थकशिलास्तम्भादिन्यासः सुस्थितो भवति १, स च दीर्घपट्टशालाकारो न च जलोपरिकाष्ठादिमयः सम्भवति, तस्यासारत्वेन भारासहत्वात् उच्यते, वर्द्धकिरलकृतत्वेन दिव्यशक्तेरचिन्त्यशक्तिकत्वात्, अनेन चा चकिराज्यपरिसमाप्तेः सर्वोऽपि लोक उत्तरति, गुहा च तावन्तं कालमपावृतैवास्ते मण्डलान्यपि तथैव तिष्ठन्ति उपरते तु चत्रिणि सर्वमुपरमत इति प्रवचनसारोद्वारवृत्तेरभिप्रायः, त्रिषष्टीयाजितचरित्रे तु "उद्घाटितं गुहाद्वारं, गुहान्तमण्डलानि च । तावत्ताम्यपि तिष्ठन्ति, यावज्जीवति चक्रभृत् ॥ १ ॥" इत्युक्तमस्ति । 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो | राजा स्कन्धावाररूपवलसहितस्ताभ्यां सङ्क्रमाभ्यां उन्मननिमनजले महानद्यौ उत्तरति-परपारं गच्छति, एवं उत्तर तो गच्छति राजराजे उत्तरद्वारे यज्जातं तदाह- 'तए णं' मित्यादि, ततो-नद्यतिक्रमणानन्तरं तस्यास्तमिस्रागुहाया उत्तरा| हस्य द्वारस्य कपाटी स्वयमेव सेनानीदण्डरलाघातमन्तरेणेत्यर्थः महया २ इति सूत्रदेशेन पूर्वसूत्रस्मरणं तेन महया | २ सद्देणमिति बोध्यं क्रौञ्चारवं कुर्वाणौ सरस्सरति कुर्वन्तौ च स्वके स्वके स्थाने प्रत्यवाय्वष्किषातां व्याख्या तु प्राग्वत्, ननु यदि दाक्षिणात्यद्वारकपाटौ सेनापतिप्रयोगपूर्वकमुद्घटेते तथा इमावपि कथं न तथा १, उच्यते, एकशः | सेनापतिसत्यापितकपाटोद्घाटनविधिसन्तुष्टगुहांधिपसुरानुकूलाशयेन द्वितीयपक्षकपाटौ स्वयमेवोद्घटेते इति ॥ अथोतरभरतार्द्धविजयं विवक्षुस्तत्रत्यविजेत व्यजनस्वरूपमाह -
अथ उत्तरार्ध - भरतक्षेत्रस्य विहाय वर्णनं क्रियते
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~ 116 ~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
zeeaseen993
प्रत
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया कृत्तिः ॥२३१॥
|३वक्षस्कारे
आपातचिलातयुद्ध म.५६
सूत्रांक
[१६]]
दीप
तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरभरहे वासे बहवे आवाहाणाम चिलाया परिवसंति अड्डा दित्ता वित्ता विच्छिण्णविउलभवणसंयणासणजाणवाहणाइन्ना बहुधणबहुजायस्वरयया आओगपओगसंपउत्ता विच्छडिअपउरभत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलगपभूआ बहुजणस्स अपरिभूआ सूरा वीरा विकता विच्छिण्णविउलबलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु उद्धलक्खा यावि होत्था, तए णं तेसिमाबाडचिलायाण अण्णया कयाई विसयसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भवित्या, तंजहा-अकाले गजिअं अकाले विज्जुआ अकाले पायवा पुष्प॑ति अमिक्खणं २ आगासे देवयाओ णचंति, दए गं ते आवादचिलाया विसबसि बहूई उप्पाइमसयाई पाउब्भूयाई पासंति पासित्ता अण्णमणं सदाति २ ता एवं बवासी-एवं खलु देवाणुप्पिा! अम्हं विससि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भूआई तंजहा-अकाले गनिमे अकाले विजुआ अकाले पायथा पुष्फति अमिक्खणं २ आगासे देवयाओ णचंति, तंण णजइ णं देवागुप्पिा ! अम्ह विसयस के मन्ने उबदवे भविस्सईत्तिक? ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागर पविट्ठा करपल पल्हत्थमुद्दा अट्टरमाणोवगया भूमिगयदि डिआ झिआयंति, तए णं से भरहे राया चकरयणदेसिअमग्गे जाव समुहरवभूअं पिव करेमाणे २ तिमिसगुहाओ उत्तरिक्षणं दारेणं णीति ससिब मेहंधयारणिवहा, तए णं ते आवाडचिलाया भरहरस रणो अग्गाणी एजमाणं पासंति २चा आसुरुत्ता रहा चंडिकिया कुविआ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णं सदाति २ सा एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिा! केह अप्पत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउसे हिरिसिरिपरिवजिए जे णं अम्हं विसयस उरि विरिएणं इषमागकछद तं तहा णं पत्तामो देवाणुप्पिा ! जहा गं एस अम्हं बिसयस उवरिं चिरिएणं णो हब्वमागच्छइत्तिकटू अण्णमण्मस्स अंतिए एअमठु पडिसुति २चा सण्णबद्धवम्मियकवा उप्पीलिअसरासणपट्टिा पिणद्धगेविज्जा बद्धआविबीमलवरचिंधपट्टा
Desed beeseaeeeeeeeserved
अनुक्रम [८०]
10
॥२३॥
JimilennitinAL
jimmitrina
~117~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६]]
दीप
गहिआव्हप्पहरणा जेणेव भरहस्स रण्णो अगाणीनं तेणेव उवागच्छति २ चा भरहस्स रणो अगाणीएण प्रद्धि संपलग्गा यावि होत्या, वए णं ते आवाउचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं हयमहिजपवरवीरघाइभविवडिअचिंधदयपदार्ग किच्छप्पा
णोवगयं विसोदिसि पडिसेहिंति । (सूत्रं ५६). । 'तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि, तस्मिन् काले-तृतीयारकप्रान्ते तस्मिन् समये-यंत्र भरत उत्तरभरतार्द्धविजिगीषया तमिस्रातो निर्याति, उत्तरार्धभरतनाम्नि वर्षे-क्षेत्रे आपाता इति नाना किराताः परिवसन्ति, आढ्या-धनिनः हप्ता-दर्पवन्तः वित्ताः-तज्जातीयेषु प्रसिद्धाः विस्तीर्णविपुलानि-अतिविपुलानि भवनानि येषां ते तथा शयनासनानि प्रतीतानि यानानि-रथादीनि वाहनानि-अश्वादीनि आकीर्णानि-गुणवन्ति येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः,
बहु-प्रभूतं धन-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदात् चतुर्विध येषां ते तथा, बहु-बहुनी जातरूपरजते-स्वर्णरूप्ये येषां ते तथा 8 ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, आयोगो-द्विगुणादिवृक्ष्यर्थ प्रदानं प्रयोगश्च कलान्तरं ती संप्रयुक्तौ-व्यापारितौ यैस्ते तथा, 18| विच्छर्दिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसम्भवात् सञ्जातविच्छई वा-सविस्तारे बहुप्रकारत्वात् प्रचुरे
प्रभूते भक्तपाने-अन्नपानीये येषां ते तथा, बहवो दासीदासाः गोमहिषाश्च प्रतीताः गवेलका-उरभ्राः एते प्रभूता येषां ते || है तथा, ततः पदयस्य कर्मधारयः, बहुजनेनापरिभूताः, सूत्रे षष्ठी आर्षत्वात् , सूराः प्रतिज्ञातनिर्वहणे दाने वा वीराः संग्रामे | 18| विक्रान्ता-भूमण्डलाक्रमणसमर्धा विस्तीर्णविपुले-अतिविपुले बलवाहने-सैन्यगवादिके दुःखानाकुलत्वात् येषां ते तथा,
बहुषु समरेषु-सम्परायेषु, अनेन पातिभयानकत्वं सूचित, समररूपेषु संपरायेषु-युद्धेषु उब्धलक्षा-अमोपहस्ताश्चाप्य
अनुक्रम [८०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
aenaeeo
प्रत
सूत्रांक
[१६]]
टीप
श्रीजम्यू-18 भवन् , सामान्यतो युद्धेषु च वल्गनादिरूपेषु केचन लब्धलक्षा भवेयुः परं तन्व्यवच्छेदाय समरेण्वित्युक्तं, अथ यत्तेषां वक्षस्कारे | मंडले जातं तदाह-'तए ण'मित्यादि, तत इति-कथान्तरप्रबन्धे तेपामापातकिरातानां अन्यदा कदाचित्-चक्रव-1||
आपातचित्रिचन्द्रीागमनकालात्पूर्व, अत्र तेषामित्येतावतैयोकेन प्रकरणाद् विशेष्यप्राप्ती यदापातकिरातानामित्युक्तं तद्विस्मरणशीलानां
| लातयुद्ध या वृतिः
&| विनेयानां व्युत्पादनायेति, विषये-देशे बहूनि औत्पातिकशतानि-उत्पातसत्कशतानि, अरिष्ठसूचकनिमित्तशतानीत्यर्थः,। ॥२३२॥ |प्रादुरभूवन्-प्रकटीवभूवुः, तद्यथा-अकाले प्रावृटू कालव्यतिरिक्तकाले गजितं अकाले विद्युतः अकाले-स्वस्वपुष्पकालव्य-10
|तिरिक्तकाले पादपाः पुष्प्यन्ति अभीक्ष्णं २-पुनः २ आकाशे देवता-भूत विशेषा नृत्यन्ति, अथ ते किं चकुरित्याह-18 18| तए णमित्यादि, ततः-उत्पातभवनानन्तरं ते आपातकिराता विषये बहूनि औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतानि पश्यन्ति, 18 18 दृष्ट्वा चान्योऽन्यं शब्दयन्ति-आकारयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमयादिषुः कीदृशाश्च तेऽभूवनित्याह-'एवं 8
खलु'इत्यादि, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण खलुनिश्चये देवानुप्रिया-ऋजस्वभावा अस्माकं विषये बहूनि औत्पातिकशतानि । 18|| प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-अकाले गर्जितं इत्यादि प्राग्वत्, तन्न ज्ञायते देवानुप्रिया! अस्माकं विषयस्य को मन्ये इति || || वितार्थे निपातः, तेन मन्ये इति सम्भावयामः उपद्रवो भविष्यति इतिकृत्वा अपहतमनःसंकल्पा-विमनस्काः चिन्तया-राज्यभ्रंशधनापहारादिचिन्तनेन यः शोक एव दुष्पारत्वात् सागरस्तत्र प्रविष्टा करतले पर्यस्तं-निवेशितं । मुखं यैस्ते तथा आर्तध्यानोपगताः भूमिगतदृष्टिका ध्यायन्ति, आपतिते सङ्कटे किं कर्त्तव्यमिति चिन्तयन्तीति, अथ
अनुक्रम [८०]
॥२३॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६]]
HI प्रस्तूयमानं भरतस्य चरितमाह-'तए णमित्यादि, ततस्तेषामुत्पातचिन्तनानन्तरं स भरतो राजा चक्ररत्नादेशित
मागों यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहां कुर्वन २ तमिस्रागुहात: औत्तराहेण द्वारेण निरेति-निर्याति शशीव मेघान्धकारनिवहात् । 'तए ण'मित्यादि, ततो गुहातो निर्गमानन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञः अग्रानीक-सैन्यानभागं 8 एजमाणंति इयत्, आगच्छत् पश्यति दृष्ट्वा च आसुरुत्ता इत्यादि पदपंचकं प्राग्वत् अन्योऽन्यं शब्दयन्ति शब्द-18 यित्वा चैवमवादिषुरिति, किमवादिषुरित्याह-तए 'मित्यादि, एष देवानुप्रियाः! कश्चिदज्ञातनामकोऽमार्थितप्रार्थकादिविशेषणविशिष्टो वर्तते योऽस्माकं विषयस्य-देशस्योपरि वीर्येणात्मशक्त्या 'हव्वं'ति शीघमागच्छति, तत्तस्मातथा णमिति-इमं भरतराजानमित्यर्थः 'घत्तामोति क्षिपामो दिशो दिशि विकीर्णसैन्यं कुर्म इत्यर्थः, यथा एषोऽस्माकं | विषयस्योपरि वीर्येण नो शीघमागच्छेत्, सूत्रे सप्तम्यर्थे वर्तमानानिर्देशः प्राकृतत्वात् , एतस्मिन् समये किं जातमित्याह-'इतिकट्ट'इत्यादि, इति-अनन्तरोदितं कृत्वा-विचिन्त्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति-ओमिति प्रतिपद्यन्ते, प्रतिश्रुत्य च सन्नद्धबद्धेत्यादिपदानि प्राग्वत् यत्रैव भरतस्य राज्ञोऽयानीकं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकेन साधं संप्रलग्नाश्चाप्यभूवन , यो मिति शेषः, युद्धाय प्रवृत्ता इत्यर्थः, अथ ते किं कुर्वन्तीत्याह-'तए णं ते आवाडचिलाया' इत्यादि, ततो युद्धप्रवृत्त्यनन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकं हताः केचन प्राणत्याजनेन मथिताः केचन मानमथनेन पातिताश्च केचन प्रहारदानेन प्रवरवीराः-प्रधानयोधा यत्र तत्तथा ।
दीप
अनुक्रम [८०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपथा
३वक्षस्कारे অমূল্প"५७
सूत्रांक [१६]
टोप
श्रीजम्प दव्यत्ययः प्राकृतस्वात् , विपतिताः-स्वस्थानतो भ्रष्टाश्चितप्रधाना ध्वजा-गरुडध्वजादयः पताकाश्व-तवित्तरध्वना
यत्र तत्तथा ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः, कृच्छ्रेण-महता कष्टेन प्राणान् उपगत-प्राप्तं कथमपि धृतप्राणमितियावत् , न्तिचन्द्रीया इतिः 18 दिशः सकाशादपरदिशि-स्वाभिमतदिक्त्याजनेनापरस्यां दिशि प्रक्षिप्य इति शेषः प्रतिषेधयन्ति-युद्धान्निवर्तयन्ती-
त्यर्थः ॥ इतो भरतसैन्ये किं जातमित्याह॥२३३॥
वएणं से सेणापलस्स णेआ वेढो जाव भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाइचिलाएहिं यमहिवपवरवीर जाव दिसो दिसं पडिसेहि पासइ २ ता आसुरुत्ते रुढे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं आसरयणं दुरूह २ ता तए णं तं असीइमंगुलमूसि णवणउइमंगुलपरिणाहं अट्ठसयमंगुलमाय बत्तीसमंगुलमूसिअसिरं चउरंगुलकन्नागं वीसइअंगुलबाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलसअंगुलजंघागं चउरंगुलमूसिअखुरं मुत्तोलीसंवत्तवलिअमझं इसिं अंगुलपणयपहुं संणयपढे संगयप? सुजायपहुं पसत्यपद्धं विसिहपर्ट एणीजाणुग्णयवित्थयथद्धपट्ट वित्तलयकसणिवायअंकेडणपहारपरिवजिअंगं तवणिजयासगाहिलाणं वरकणगसुफुलथासगविचित्तरयणरज्जुपार्स कंचणमणिकणगपयरगणाणाविहघंटिआजालमुत्तिआजालएहि परिमंदिवेणं पढण सोभमाणेण सोभमाणं कोयणइंदनीलमरगयमसारगलमुहमंडणरइमं आविद्धमाणिकसुत्तगविभूसियं कणगामयपउगसुकयतिलकं देवमइविकप्पि सुरवरिंदवाहणजोगगावयं सुरूवं दूइज्जमाणपंचमारुचामरामेलगं धरेतं अणभवाई अभेलणवर्ण कोकासिमनहलपत्तलच्छ सयावरणनवकणमतविभववणिजतालुजीहासयं सिरिआमिसेअघोणं पोक्खरपत्तमिव सलिलविंदुजुर्म अचंचलं चंपलसरीर चोक्खचरग
अनुक्रम [८०]
SAR
8
॥२३॥
अथ अश्वरत्न आदि १४ रत्नानाम् स्वरुपम् तत् कार्याणि सह वर्ण्यते
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
------------------- मूलं [५७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
परिवायगोविच हिलीयमाणं २ खुरचलणचचपुडेहिं धरणिअलं अभिहणमाण २ दोषि अचलणे जमगलमर्ग मुहायो विणिग्गर्म व सिग्घयाए मुलाणतंतुउदगमवि णिस्साए पकमंत जाइकुलरूवपश्यपसत्यवारसावत्तगविसुद्धलक्खणं सुकुलप्पसूर्य मेहाविभहयविणीभ अणुभतणुअमुकुमाललोमनिच्छर्षि सुजायभमरमणपवणगालजणचवलसिग्धगामि इसिमिव खंतिसमए मुसीसमिव परक्सवाविणीयं उदगहुतवहपासाणपसुकदमससफरसबालुइल्लतडकडगविसमपन्भारगिरिदरीमुलंघणपिल्लणणियारणासमत्यं अचंडपावियं वरावाति अजंसुपाति अकालतालुच कालहसि मिअनिदंगवेसन लिमपरिसह जञ्चजातीर्थ मलिहाणि सुगपत्तसुबण्णकोमलं मणाभिरामं कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावई कमेण समभिरुढे कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडलनिभं सत्तुजणवि. पासणं कणगरयणदंड णवमालिअपुष्फसुरहिगंधि णाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोत्तमिसिमिसिंततिक्खधार दिवं सम्परयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो सरुक्ससिंगद्विवंतकालायसविपुललोहदंडकवरवइरभेदकं जाव सवत्थअप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं -पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो। अचंगुलसोणीको जेडपमाणो असी भणिओ ॥ १ ॥ असिरयणं परवइस्स हत्याओ तं गहिऊग जेषेव भावाडचिलाया तेणेव बागल्छइ २ ता आवाचिलाएहिं सद्धिं संपलग्गे आवि होत्था ॥ तए णं से सुसेणे सेणाषइ ते आवाडचिलाए हयमहिअपवरवीरपाइसजावदिसोदिसि पछिसेहेइ (सूत्र ५७)
'तए 'मित्यादि, ततः-खसैन्यप्रतिषेधनादनम्तरं सेनावलस्य-सेनारूपस्य बलस्य नेता-स्वामी वेष्टकः-वस्तुIS विषयवर्णकोऽत्र सेनानीसत्कः संपूर्णः पूर्वोको माह्या यावद् भरतस्य राज्ञोऽयानीकं आपातकिरातैर्यावत्प्रतिषेषितं ।
RecenesceneResesesecaceae
दीप अनुक्रम [८१-८३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------------------
--------------------- मूलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
या वृत्तिः
५७
गाथा
श्रीजम्यू-18 पश्यति रवाच आशुरुप्तादिविशेषणविशिष्टः कमलापीडं कमलामेलं वा नामाश्वरलमारोहति, अथ प्रस्तावागतं तद्वर्ण-1|३ वक्षस्कारे द्वीपशा-1| नमाह-'तए णं तं असीइमंगुलमूसिअं इत्यारभ्य सेणावई कमेण समभिरूढ़े' इत्येतदन्तेन सूत्रेण, पदयोजना तत इति ||
अश्वरलख
जरने . द्वारा क्रियाक्रमसूचकं वचनं तं प्रसिद्धगुणं नाम्ना कमलामेलं अश्वरलं सेनापतिः क्रमेण-सन्नाहादिपरिधानविधिना सम
IN भिरूढ-आरूढा, किंविशिष्टमित्याह-अशीत्यङ्गुलानि उच्छ्रितं, अंगुलं चात्र मानविशेषः, नवनवत्यंगुलानि-एको-18 ॥२३४॥ नशतांगुलप्रमाणः परिणाहो-मध्यपरिधिर्यख तत्तथा, अष्टोत्तरशतांगुलानि आयतं-दीर्घ, सर्वत्र मकारोऽलाक्षणिकः,
तुरगाणां तुङ्गत्वं खुरतः प्रारभ्य कर्णावधि परिणाहः पृष्ठपार्बोदरान्तरावधि आयामो मुखादापुच्छमूलं, यदाह परासरःISI"मुखादापेचकं देय, पृष्ठपार्बोदरान्तरात् । आनाह उच्छ्यः पादाद, विज्ञेयो यावदासनम् ॥१॥" तत्रोच्चत्वस
यामेलनाय साक्षादेव सूत्रकृदाह-'बत्तीस मित्यादि, द्वात्रिंशदंगुलोच्छ्रितशिरस्कं चतुरंगुलप्रमाणकर्णकं, हस्वकर्णत्वस्य जात्यतुरगलक्षणत्वात्, अनेन कर्णयोरुचत्वेनास्य स्थिरयौवनत्वमभिहितं शंकुकर्णत्वात् , हयानां यौवनपाते वनिता॥ स्तनयोरिव अनयोः पातः स्थात्, दीर्घत्वं चार्षत्वात् , अत्र योजनायाः क्रमप्राधान्येन पूर्व कर्णविशेषणं ज्ञेयं पश्चाच्छिरसः, अश्वश्रवसो मूर्ध्न उच्चतरत्वात् , विंशत्यनुलप्रमाणा बाहा-शिरोभागाधोवती जानुनोरुपरिवर्ती प्राक्चरण
॥२३॥ भागो यस्य तत्तथा, चतुरंगुलप्रमाणं जानु-बाहुजंघासंधिरूपोऽवयवो यस्य तत्तथा, तथा षोडशांगुलप्रमाणा जंघाजान्षधोवर्ती खुराबधिरवयवो यस्य तत्तथा, चतुरंगुलोच्छ्रिताः खुरा:-पादतलरूपा अवयवा यस्य तत्तथा, एषामवयवा
दीप अनुक्रम [८१-८३]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
इनामुच्चत्वमीलने सर्वसङ्ख्या पूर्वोक्ता अशोत्यंगुलरूपा, मकारः सर्वत्रालाक्षणिकः, यत्तु श्रेष्ठाश्वमानमाश्रित्य लौकिकपारासरग्रन्थे 'जघन्यमध्यश्रेष्ठानामश्वानामायतिर्भवेत् । अंगुलानां शतं हीन, विंशत्या दशभिखिभिः ॥१॥ परिणाहोड
लानि स्यात् , सप्ततिः सप्तसप्ततिः। एकाशीतिः समासेन, त्रिविध स्याद् यथाक्रमम् ॥२॥ तथा षष्टिश्चतुःपष्टिकारटपष्टिः समुच्छ्रयः । द्विपञ्चसप्तकयुता, विंशतिः स्यान्मुखायतिः ॥३॥" इत्यत्र सप्तनवत्यंगुलान्यायतिः एकाशीत्यं-18
गुलानि परिणाहः अष्टषष्ट्यंगुलानि समुच्छ्यः सप्तविंशत्यंगुलानि मुखायतिरित्युक्तमस्ति तदपरश्रेष्ठहयानाश्रित्य न तु 10 हयरलमाश्रित्य, रष्टचार्य विशेषः पुरुषोत्सेधे सामुद्रिके उत्तमपुरुषाणामष्टोत्तरशतांगुलाम्युत्सेधः उत्तमोत्तमानां तु ॥ 18| विंशत्युत्तरशतांगुलानि, अनेनास्य प्रमाणोपेतत्वं सूचितं, सम्प्रत्यवयवेषु लक्षणोपेतत्वं सूचयति-मुक्कोलीनाम अध
उपरि च सङ्कीर्णा मध्ये त्वीपद्विशाला कोष्ठिका तद्वत् संवृत्तं-सम्यग्वर्तुलं वलितं-पलनस्वभावं न तु स्तब्धं मध्यं यस्य । तत्तथा परिणाहस्य मध्यपरिधिरूपस्यात्रैव चिन्त्यमानत्वादुचितेयमुपमा, ईषदंगुलं यावत् प्रणतं-जन्तुमारब्धं अति-18 प्रणतस्योपवेष्टुर्दुःखावहत्वात् पृष्ठ-पर्याणस्थानं यस्य तत्तथा आरोहकसुखावहपृष्ठकमित्यर्थः, सम्यग्-अधोऽधः क्रमेण नतं पृष्ठं यस्य तत्तथा, सङ्गत-देहप्रमाणोचितं पृष्ठं यस्य तत्तथा, सुजातं-जन्मदोपरहितं पृष्ठं यस्य तत्तथा, प्रशस्तैशालिहोत्रलक्षणानुसारि पृष्ठं यस्य तत्तथा, किंबहुना ?, विशिष्टपृष्ठ-प्रधानपृष्ठमितियावत्, उक्त पृष्ठे पर्याणस्थानवर्णनं, अथ तत्रैवावशिष्टभागं विशिनष्टि-एणी-हरिणी तस्था जानुवदुन्नतं उभयपायोर्विस्तृतं च चरमभागे स्तब्ध
दीप अनुक्रम [८१-८३]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशा
[७]]
गाथा
I सुदृढं पृष्ठं यस्य तत्तथा, वेत्रो-जलवंशः लता-कम्बा कशा-चर्मदण्डस्तेषां निपातैस्तथा अंकेलणप्रहारैः-तर्णनकवि-३ वक्षस्कारे
। शेषाघातैश्च परिवर्जितं अश्ववारमनोऽनुकूलचारित्वात् अङ्ग यस्य तत्तथा, तपनीयमयाः स्थासका-दर्पणाकारा अश्वा-18| अश्वरणसन्तिचन्द्री- लङ्कारविशेषा यत्र तदेवंविघं अहिलाणं-मुखसंयमनविशेषो यस्य तत्तथा, वरकनकमयानि सुष्टु-शोभनानि पुष्पाणिं गरज या वृत्तिः
३ स्थासकाश्च तैर्विचित्रा रत्नमयी रजुः पार्श्वयोः-पृष्ठोदरान्तवर्त्यवयवविशेषयोर्यस्य तत्तथा,बध्यन्ते हि पट्टिकाः पर्याणदृढी॥२३५॥ १ करणार्थमश्वानामुभयोः पार्श्वयोरिति, काश्चनयुतमणिमयानि केवलकनकमयानि च प्रतरकाणि-पत्रिकाभिधानभूषणानि
अन्तरान्तरा येषु तानि तथाभूतानि नानाविधानि घण्टिकाजालानि मौक्तिकजालकानि च तैः परिमण्डितेन पृष्ठेन शोभमा|नेन शोभमान कतनादिरसमयं मुखमण्डनार्थ रचितं आविद्धमाणिक्य-प्रीतमाणिक्यं सूत्रक-हयमुखभूपणविशेषस्तेन
विभूषितं कनकमयपद्मेन मुष्ठु कृतं तिलकं यस्य तत्तथा, देवमत्या-स्वर्गिचातुर्येण विविधप्रकारेण कल्पित-सज्जितं । IS सुरवरेन्द्रवाहनम्-उच्चैःश्रवा हयस्तस्य योग्या-मण्डलीकरणाभ्यासस्तस्या 'वज गता'वित्यस्याचप्रत्यये प्रज-पापकं, ये
गत्यर्थास्ते प्राप्त्यर्था इति वचनात् अयं भावः-यादशं खुरलीश्रममुच्चैःश्रवाः करोति ताशमयमपि, अत्र षष्ठ्यर्थे द्वितीया |
प्राकृतत्वात् , तथा सुरूपं-सुन्दरं द्रवन्ति-इतस्ततो दोलायमानानि सहजचश्चलाङ्गत्वाद् गलभालमौलिकर्णद्वयमूलविनिवे-18| ॥२३५।। & शितत्वेन पञ्चसयाकानि यानि चारूणि चामराणि तेषां मेलक-एकस्मिन् मूर्द्धनि सङ्गमस्तं घरद्-वहत, चामरा इत्यत्र || 1 लीनिर्देशः समयसिद्ध एव; गीडमतेन वा चामरा इत्यावन्तः शब्दः, अत्रापीडशब्दे व्याख्यायमाने मूद्धोलकार एवोक्तो ||
दीप अनुक्रम [८१-८३]
3299999RORSansance
X
antraryou
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
IS भवति, न तु कर्णाचलङ्कारः, दृश्यन्ते च लोके एक चामरं मूर्द्धालङ्कारभूतं चामरद्वयं च कर्णालङ्कारभूतं एकं च भाला-14
लङ्कारभूतं एकं च कंठालङ्कारभूतमिति, तेन यथोक्तव्याख्यानमेव सुन्दरं, अथ देवमतिविकल्पितादिविशेषणविशिष्ट उच्चैःश्रवानाम शकयोऽपि स्थादित्याह-अनभ्रवाह-अनचारी अभ्रवाहः अश्वः उच्चैःश्रवास्तदन्यं 'अदम्भवाह-18 |मिति पाठे तु अद-भूरि बहतीति अदभ्रवाहस्तत्, अभेले-दोषादिना असंकुचिते नयने यस्य तत्तथा, अत एव । कोकासिते-विकसिते बहले-दृढे अनभुपातित्वात् पत्रले-पक्ष्मवती न तु ऐन्द्रलुप्तिकरोगवशाद्रोमरहिते अक्षिणी यस्य तत्तथा, सदावरणे-शोभा दंशमशकादिरक्षार्थ वा प्रच्छादनपटे नवकनकानि-नव्यस्वर्णानि यस्य तत्तथा स्वर्णतन्तु| व्यूतपच्छादनपटमित्यर्थः, तप्ततपनीयं तद्वदरुणे तालुजिहे यत्र तदेवंविधमास्वं यस्य तत्तथा, ततः पूर्वविशेषणेन
कर्मधारयः, श्रीकाया-लक्ष्म्या अभिषेक:-अभिषेचनं नाम शारीरलक्षणं घोणायां नासिकायां यस्य तत्तथा, कचित्पा| ठान्तरे तु सिरिसातिसेअघोणमिति दृश्यते, तत्र शिरीष-शिरीषपुष्पं तद्वदतिश्वेता घोणा यस्येति, तथा पुष्करपत्रमिव-कमलदलमिव सलिलस्य विम्दयो यत्र तदेवंविध, कोऽर्थः-यथा पुष्करपत्र जलान्तरस्थं वाताहतजलबिन्दु-18
युतं भवति तथेदमपि सलिलं-पानीयं लावण्यमित्यर्थः तस्य बिन्दवः-छटास्तैर्युत, बिन्दुग्रहणेनात्र प्रत्यङ्गं लावण्यं 9 || सूचितं, लोकेऽपि प्रसिद्धमेतत् मुखेऽस्य पानीयमिति, अचंचल-स्वामिकार्यकरणे स्थिरं, साधुवाहित्वात् , चञ्चल-
शरीरं जातिस्वभावात् , अथ यदि चञ्चलाङ्गस्तदाऽमेध्यवस्तुष्वपि स्वाङ्गप्रवर्तको भविष्यतीत्याह-चोक्षः-कृतस्नान
isteneraesexsee
गाथा
दीप अनुक्रम [८१-८३]
L
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]]
या वृत्तिः
गाथा
श्रीजम्ब- श्वरको-धाटिभिक्षाचरः परित्राजको-मस्करी ततश्चरकसहितः परिव्राजकश्चरकपरिव्राजकः, प्रथमा द्वितीयार्थे, तेन चरक
३वक्षस्कारे परिव्राजकमिव प्राकृतशैल्या अकारप्रश्लेषादभिलीयमानं २-अशुचिसंसर्गशङ्कया आत्मानं संवृण्वन्तं २, आभीक्ष्ण्ये अश्वरब न्तिचन्द्री- 1चात्र द्विवचनं, एवमग्रेऽपि भाव्यं, अथास्य क्रियाविशेषैजोत्यत्वं लक्षयति-खुरप्रधानश्चरणाः खुरचरणास्तेषां चच्चपुटा:आघातविशेषास्तैर्धरणितलमभिन्नदभिनन् , ननु भूतलविलिखनं सामान्यतः पुंस इवाश्वस्यापलक्षणमिति, न, एतस्य
५७ ॥२३६॥ 18 लक्षणत्वेन शालिहोत्रे प्रतिपादनाद् , यतः “खुरैः खनेद्यः पृथिवीमश्वो लोकोत्तरः स्मृत" इति, अश्ववारप्रयोगनर्चितो |
हि हयोऽनपादावुदस्थति, तत्रास्य शक्ति विशेषणद्वारेण दर्शयति-द्वावपि च चरणी यमकसम-युगपत् मुखाद्वि| निर्गमदिव-निस्सारयदिव कोऽर्थः-इदमनपादाचं नयत्तथा मुखान्ति प्रापयति यथा जन उत्प्रेक्षते-इमी मुखाद्विनिर्गमयति, पुनः क्रियान्तरदर्शनेनैतद्विशिनष्टि-शीघ्रतया-लाघवविशेषेण मृणालं-पद्मनालं तस्य तन्तुः-सूत्राकारोऽवयवविशेषः स च उदकं च ते अपि निश्राय-अवलंब्य आस्तामन्यदू दुर्गादिकं प्रक्रामत्-सञ्चरत्, अयमर्थ:यथा अन्येषां सञ्चरिष्णूनां मृणालतंतूदके पादावष्टम्भके न भवतः तथा नास्येति, सूत्रे चैकवचनमार्थत्वात् ,
तथा जाति:-मातृपक्षः कुलं-पितृपक्षः रूपं-सदाकारसंस्थानं तेषां प्रत्ययो-विश्वासो येभ्यस्ते च ते प्रशस्ताः प्रदक्षिणा18वहत्वात् शुभस्थानस्थितत्वाच ये द्वादशावस्तेि यत्र तत्तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, विशद्धानि-दोषामिश्रितानि | ॥२१॥
लक्षणानि अश्वशास्त्रप्रसिद्धानि यस्य तत्तथा, ततः पदयस्य कर्मधारयः, द्वादशावर्ताश्च इमे वराहोक्का:-"ये प्रपाण
दीप अनुक्रम [८१-८३]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
-------------------- मलं [५७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
18| गलकर्णसंस्थिताः, पृष्ठमध्यनयनोपरिस्थिताः । ओष्ठसक्थिभुजकुक्षिपार्श्वगास्ते ललाटसहिताः सुशोभनाः ॥११॥"18
अन वृत्तिलेश:-प्रपाणं-उत्तरोष्ठतलं गल:-कण्ठः यत्र स्थित आवों देवमणिनामा हयानां महालक्षणतया प्रसिद्धः४ को-प्रतीती एतेषु स्थानेषु संस्थिताः तथा पृष्ठ-पर्याणस्थानं मध्य प्रतीतं नयने अपि तथैव तदुपरि स्थिताः, तथा 8 | ओष्ठौ प्रतीतौ सक्थिनी-पाश्चात्यपादयोर्जानूपरिभागः भुजौ-पापादयोर्जानूपरिभागः कुक्षिः-अत्र वामो दक्षिणकक्ष्यावर्तस्य गहितत्वात् पाचौं प्रसिद्धौ तद्गताः ललाट-प्रतीतं तदावर्तेन सहिताः, अत्र कर्णनयनादिस्थानानां द्विस-8 क्याकत्वेऽपि जात्यपेक्षया द्वादशैव स्थानानि, स्थानभेदानुसारेण स्थानिभेदा अपि द्वादशैवेति, तथा सुकुलप्रसूत-8 हयशास्त्रोक्तक्षत्रियाश्वपितृक मेधावि-स्वामिपदसंज्ञादिप्राप्तार्थधारक भद्रकं-अदुष्ट चिनीत-स्वामीष्टकारित्वात् अणु-18 कतनुकानां-अतिसूक्ष्माणां सुकुमालाना लोनां स्निग्धा छवियत्र तत्तथा, सुष्टु यात-गमनं यस्य तत्तथा, अमरमनःपवन-र गरुडाः प्रतीताः तान् वेगाधिक्येन जयतीति अमरमनःपवनगरुडजयि, अत एव चपलशीघ्रगामि च-अतिशीघ्र-8 |गतिक पश्चात्पदद्वयकर्मधारयः क्षान्त्या-क्रोधाभावेन न त्वसामर्थेन या क्षमा तया ऋषिमिव-अनगारमिव, क्षमा-18 प्रधानत्वात्तस्य, न चरणैर्लत्तादायकं न च मुखेन दशकं न च पुच्छाघातकरमिति, सुशिष्यमिव प्रत्यक्षताविनीतं, अत्र ताकारः प्राकृतशैलीभवस्तेन प्रत्यक्षविनीत, उदकं हुतवहः-अग्निः पाषाणः पासू-रेणुः कर्दमः सशर्कर-सलपपलखण्ड ॥ | स्थानं सवालुक-अत्र स्वार्थे इलप्रत्ययः बहुलसिकताकणं स्थानं तट-नदीतट कटको-गिरिनितम्बः विषममाग्भारौ |
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]]
गाथा
श्रीजम्यू-18 प्राग्व गिरिवर्यः प्रतीतास्तासुलंघन-अतिक्रीमणं प्रेरणं-आरूहस्य पुंसोऽभिमुखदर्शनधापनादिना संज्ञाकरणपूर्व प्रवर्तन || वक्षस्कारे
द्वीपशा-18 निस्तारणा-तत्पारप्रापणा तत्र समर्थ, न चण्डै:-उप्रैः सुभटैः रणे पातितं दण्डवत् पततीत्येवंशीलं दण्डपाति अतर्कि- अश्वरबखन्तिचन्द्री-18| तमेव प्रतिपक्षस्कन्धावारे पतनशीलं, अनेनास्योत्पतनस्वभावोऽपि सूचितः, मार्गादिखेंदमेदस्यपि नाश्रु पातवतीत्येया वृत्तिः
|| वंशीलमन शुपाति, तथा अकालतालु-अश्यामतालुकं, पूर्व रक्ततालुत्वे वर्णितेऽपि यत्पुनरकालतालु इति विशेषणं ॥२३७॥ तत्तालुनः श्यामत्वमतितरामपलक्षणमिति तनिषेधख्यापनार्थ, चः समुच्चये, काले-अराजकानां राजनिर्णयार्थ के अधि-18
R|| वासनादि के समये हेपते-शब्दायतीत्येवंशीलं कालहेपि, जिता निद्रा-आलस्यं येन तत जितनिद्रं त्यकालस्यमित्यर्थः.18
कार्येष्वप्रमादित्वात्, यथाश्रुतार्थे व्याख्यायमाने हयशास्त्रविरोधः-तथाहि-"सदैव निद्रावशगा, निद्राच्छे-18 दस्य सम्भवः । जायते सगरे प्राप्ते, कर्करस्य च भक्षणे ॥१॥” इति, यद्वा जितनिद्रत्वं समरावसरप्राप्तत्वादश्वरलत्वेनाल्पनिद्राकत्वाच्च, तथा गवेषक-सूत्रपुरीपोत्सर्गादौ उचितानुचितस्थानान्वेषक, जितपरीपह-शीतातपाद्यातुरत्वेऽपि अखिन्नं, जात्या प्रधाना जाति:-मातृपक्षस्तत्र भवं जात्यजातीयं निर्दोषमातृकमित्यर्थः, निर्दोषपितृकत्वं तु प्रागुकं, ईद|ग्गुणयुक्तो हि समये स्वामिने न द्रुह्यति मातृमुखापगतस्वकाणत्वव्यतिकरप्रकुपितचिन्तितस्वामिद्रोहककिशोरवत , 181॥२३७॥ मलि:-विवकिलकुसुम सदच्छुनः अश्लेष्मलत्वेनानाविलमपूतिगन्धि च प्राण-पोथो यस्य तत्तथा, ईकारः प्राकृतशेलीभवः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, शुकपत्रवत्-शुकपिच्छवत् सुष्टु वर्णो यस्य तत्तथा, कोमलं च काबेन, ततः पदर
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
का यस्य कर्मधारयसमासः, मनोऽभिरामं 'कमलामेलं णामे णमित्यादि प्राग्वद् व्याख्येयमिति । ततः स किं कृतवानि-18 त्याह-'कुवलय'इत्यादि, तदसिरलं नरपतेर्हस्ताद् गृहीत्वा स सेनानीर्यत्रैवापातकिरातास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य || चापातकिरातैः सार्द्ध सम्पलग्नश्चाप्यभूयो मिति शेषः, तच्छन्दवाक्यं यच्छन्दवाक्यमपेक्षत इत्याहियते यदिति, 18 यत् किंविशिष्टमित्याह-कुवलयदलश्यामलं नीलोत्पलदलसदृशमित्यर्थः, चः समुच्चये, रजनिकरमण्डल-चन्द्रबिम्ब || तस्य निर्भ-सदृशं परिभ्राम्यमाणं यद्वर्तुलिततेजस्कत्वेन चन्द्रमण्डलाकारं दृश्यते इत्यर्थः, अथवा रजनिकरमण्डल-181 | निमें मुखे इति शेषः, शत्रुजनविना शनं, कनकरत्नमयो दण्डो-हस्तग्रहणयोग्यो मुष्टियस्य तत्तथा, नषमालिकानामकं 18 यत्पुष्पं तद्वत् सुरभिगन्धो यस्य तत्तथा, नानामणिमय्यो लता-बझ्याकारचित्राणि तासां भक्तयो-विविधरचनाताभिश्चित्रं-आश्चर्यकृत् , चा विशेषणसमुच्चये, प्रधौता-शाणोत्तारेण निष्किट्टीकृता अत एव 'मिसिमिसेंति'त्ति दीप्यमाना तीक्ष्णा धारा यस्य तत्तथा, दिव्यं खजरल-खड्गजातिप्रधानं लोकेऽनुपमान अनन्यसारंशत्वात् , तच्च पुनर्वहुगुणमस्तीति शेषः, कीदर्श-शा-वेणवः रूक्षा-वृक्षाः शृङ्गाणि महिषादीनां अस्थीमि प्रतीतानि दन्ता हस्त्यादीनां | कालायसं-लोहं विपुललोहदण्डकश्च-वरवनं हीरकजातीय तेषां भेदक, अत्र बनधमेन दुर्भेद्यानामपि भेदकत्वं कथितं, किं बहुना?-यावत्सर्वत्राप्रतिहतं, दुर्भेदेऽपि वस्तुनि अमीघशक्तिकमित्यर्थः, किं पुनर्जङ्गमानां-चराणां पशुमनुयादीनां देहेषु, अत्र यावच्छब्दो न संग्राहकः किन्तु भेदकशक्तिप्रकर्षाक्तयेऽवधिवधानः, अथ तस्य मानमाह-पश्चा
दीप अनुक्रम [८१-८३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ----------------------------------------------------- मूलं [१७] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]]
वाराधना
या वृतिः
हशदङलानि दी| यः षोडशांगुलानि विस्तीर्णः अर्दोगुलप्रमाणा श्रोणिः-वाहल्यं पिण्डो यस्य स तथा, ज्येष्ठं-उत्कृष्ट ।
३वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रमाणं यस्य स तथा, एवंविधः सोऽसिर्भणितः, यदन्यत्रासेात्रिंशदंगुलप्रमाणत्वं श्रूयते तन्मध्यममानापेक्षया, यदाह है | मेघमुखदेन्तिचन्द्री18| वराहा-"अंगुलशतामुत्तम ऊनः स्यात्पञ्चविंशतिः खगः।" एतयोः सङ्ख्ययोर्मध्ये मध्यम इति, उत्तरवाक्ययोजना |
वृष्टिय सू. |त प्राक कता, अथ सैन्येशायोधनादनन्तरं किं जातमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः आयोधनादनन्तरं स सुपेणः | ॥२३८॥
|| सेनापतिस्तानापातकिरातान् हतमथितेत्यादिविशेषणविशिष्टान् यावत्करणात् विहडिअधिद्धयपडागे किच्छप्पा-| णोवगए इति ग्राह्य, दिशो दिशि प्रतिषेधयति । अथ ते किं कुर्वन्तीत्याहतए गं ते आवाडचिलाया सुसेणसेणावइणा हयमहिमा जाब पडिसेहिया समाणा भीआ तत्था वहिआ उविग्गा संजायभया अस्थामा अबला अवीरिआ अपुरिसकारपरकमा अधारणिजमितिकगु अणेगाई जोअणाई अवकमति २ चा एगयओ मिलायति २ चा जेणेच सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छंति २ ता वालुआसंथारए संथरेंति २त्ता वालुआसंथारए दुरूहंति २ ता अट्ठमभचाई पगिण्हति २त्ता वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ जे सेसि कुलदेवया मेहमुद्दाणामं णागकुमारा देवा ते मणसी करेमाणा २ चिट्ठति । तए णं तेसिमावाढचिलायाणं अट्ठमभत्तंसि परिणमाणसि मेहमुहाएं णागकुमाराणं देवाणं आस
२३८॥ णाई चलंति, तए 4 ते मेहमुहा णागकुमारा देवा आसणाई चलिआई पासंति २ चा ओहिं पति २ ता आवाढचिलाए ओहिणा आभोएंति २त्ता अण्णमण्णं सहाति २ चा एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिा ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे आवाढचि
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गाथा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
------ मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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[५८]
लाया सिंधूए महाणईए वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा २ चिट्ठति, तं से खलु देवाणुप्पिा ! अम्हं आवाडचिलायाणं अंतिए पाउम्भवित्तएत्तिक? अण्णमण्णस्स अंतिए एअमढ परिसुणेति पडिमुणेत्ता ताए उचिट्ठाए तुरिआए जाव वीतिवयमाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे उत्तरतभरहे बासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छवि २ त्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणिआई पंचवण्णाई वत्थाई पवर परिहिआ ते आवाढपिलाए एवं क्यासी- भो आवाडचिलाया ! जणं तुम्भे देवाणुप्पिआ! वालुभासंथारोवगया उत्ताणगा अपसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा २ चिट्ठह तए णं अम्हे मेहमुहा गागकुमारा देवा तुभं कुलदेवया तुम्हें अंतिअण्णं पाउन्भूना, तं वदह णं देवाणुप्पिा ! किं करेमो के व भे मणसाइए!, तए णं ते आवाढचिलाया मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं अंतिए एअमहं सोचा णिसम्म हहतुद्वचित्तमाणदिआ जाव हिअया खडाए उट्ठन्ति २ चा जेणेव मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छति २ ता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलि कटु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्वाति २ ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिए! केइ अपत्थिअपत्थर दुरंतपंतलक्खणे जाव. हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं अम्हं विसयस्स उवरि विरिपणं हवमागच्छा, तं तहा णं धत्तेह देवाणुप्पिा ! जहा णं एस अन्दं विसयस्स उबरि विरिएणं णो हल्बमागच्छद, तए ण ते मेहमुहा मागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं वयासी-एस णं भो देवाणुप्पिा ! भरहे णाम राया पाउरतचकवट्टी महिद्धीए महज्जुईए जाव महासोक्खे, णो खलु एस सको केणइ देवेण वा दाणवेण वा किष्णरेण चा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पओगेण वा मतप्पओगेण वा उहवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहावित्र
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दीप
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्य
प्रत
सूत्रांक
181 मेघमुखदे
वृष्टिश्व सू.
[५८]
टीप
म तुम पिहयाएं भरहस्सरणी उपसर्ग करेंगीतिक तर्सि आवाडचिलायणि अतिओ अवमन्ति २ सा वैविअसkधारण वक्षस्कारे द्वीपशा- सम्मोहणति २ सा महाणीम विसवति ती अॅणैव भरहस्स रैणी विजयक्खंधारिणिवैसे तेणेव उजागति सा ऑप न्तिचन्द्रीविजयपखंधावारणिधेसस खिप्पामेव पतणुतणायंति खिप्पामेव विजुवायन्ति २ सा सिप्पामैव जुगर्मुसलमुद्विपमाणमेत्ताहि
वाराधनाया इचिः
धाराहि ओधमेषं सत्तर वासं वासिङ पवत्ता याचि होत्था । ( सूत्र ५८) ॥२३९॥ "तए णमित्यादि, ततस्ते आपातकिराताः सुपेणसेनापतिना हतमथिता यावत्प्रतिषेधिताः सन्तो भीता-भयाकुलाः
विस्ता-जष्टाः व्यथिता:-महारादिताः उद्विग्नाः-अथ पुनर्नानेन सार्द्ध युद्ध्यामहे इत्यपुनःकरणाशयवन्तः, ईदृशाः ।
कुत इत्याह-सञ्जातभया:-सम्यक् प्राप्तभयाः अस्थामान:-सामान्यतः शक्तिविकला: अबला:-शारीरशक्तिविकलाः पुरुषIS|| कार:-पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमस्ताभ्यां रहिताः अधारणीयं-धारयितुमशक्यं परवलमिति-1|| | कृत्वा अनेकानि योजनान्यपनामन्ति-अपसरन्ति पलायन्ते इत्यर्थः, ततः किं कुर्वन्तीत्याह-अवकमित्ता'इत्यादि,
अपक्रम्य ते आपातकिराता एकतः-एकस्मिन् स्थाने मेलयन्ति मेलापकं कुर्वन्तीत्यर्थः, मेलयित्वा च यत्रैव सिन्धुर्म-18 HRहानदी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च वालुकासंस्तारकान् संस्तृणन्ति-सिकताकणमयान् संस्तारान् कुर्वन्ति, 8
कर्वन्ति ॥२३९।। । संस्तीयं च वालुकासंस्तारकानारोहन्ति, मारुह्य चाष्टमभकं प्रगृह्णन्ति, प्रगृह्य च वालुकासंस्तारोपगता उत्तानका:HO ऊर्ध्वमुखशायिनः अवसना-निर्वस्त्राः, एवं च परमातापनाकष्टमनुभवन्त इत्युक्तं, अष्टमभक्तिका-दिनत्रयमनाहारिणः,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५८]
दीप
ये तेषां कुलदेवता:-कुलवत्सला देवा मेघमुखा नाम्ना नागकुमारा देवास्तान मनसि कुर्वन्तः २ तिष्ठन्तीति । अथ 11 ते देवाः किमकुर्वन्नित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः-चेतसि चिन्तानन्तरं तेपामापातकिरातानां अष्टमभक्ते परिण-18 18 मति सति परिपूर्णप्राये इत्यर्थः, मेघमुखानां नागकुमाराणां देवानामासनानि चलन्ति, ततस्ते मेघमुखा नागकुमारा IS| देवा आसनानि चलितानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चावधि प्रयुञ्जन्ति, प्रयुज्य चावधिना आपातकिरातानाभोगयन्ति, आभो-18
ग्य चान्योऽन्य शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमवादिषुरित्याह-एवं खल'इत्यादि. एवं-स्थमस्ति खलु:-18 18 | निश्चये हे देवानुप्रियाः! किं तदित्याह-जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे आपातकिराताः सिन्ध्वां महानद्यां वालु-11
कासंस्तारकान् उपगता:-प्राप्ताः सन्तः उत्तानका अवसना अष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवतान् भेषमुखनामकान || | नागकुमारान् देवान् मनसि कुर्वाणाः २ तिष्ठन्तीति , ततः श्रेयः खलु भो देवानुप्रिया । अस्माकमापातकिराता-S | नामन्तिके प्रादुर्भवितुं-समीपे प्रकटीभवितुमितिकृत्वा-पर्यालोच्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थ-अनन्तरोक्तमभिधेयं ।
प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, परस्परं साक्षीकृत्य प्रतिज्ञातं कार्य कर्त्तव्यमवश्यमिति दृढीभवन्तीत्यर्थः, प्रतिश्रवणा-SI ॥ नन्तरं ते यच्चकुस्तदाह-'पडिसुणेत्ता इत्यादि, प्रतिश्रुत्य च ते देवास्तयोत्कृष्टया त्वरितया गत्या यावद् व्यतित्रजन्तो।।
२ यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपो यत्रैव चोत्तरभरताई वर्ष यत्रैव च सिन्धुर्महानदी यत्रैव चापातकिरातास्तत्रैवोपागच्छन्ति II उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपक्षाः सकिंकिणीकानि पञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितास्तानापातकिरातानेवमवादिषुः, ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[५८]
श्रीजम्बू- किमवादिषुरित्याह-हं भो!'इत्यादि, हं भो! इति सम्बोधने आपातकिराताः यत् णं वाक्यालङ्कारे सर्वत्र यूयं ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- | देवानुप्रिया! वालुकासंस्तारकोपगता यावदष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवता मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् मनसि | मेघमुखदेन्तिचन्द्री
शाकुर्वाणा २ स्तिष्ठत, ततो वयं मेघमुखा नागकुमारा देवा युष्माकं कुलदेवताः सन्तो युष्माकमन्तिक प्रादुर्भूताः तद्ध-बाना या वृत्तिः
दत देवानुप्रियाः किं कुर्मः-किं कार्य विदध्मः किं आचेष्टामहे-कां चेष्टां कुर्मः-कस्मिन् व्यापारे प्रवामहे किं ॥२४०11वा भे-भवतां मनःस्वादितं-मनोऽभीष्टमिति कुलदैवतप्रश्नानन्तरं तें यदचेष्टन्त तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततस्ते ।
| आपातकिराता मेघमुखानां नागकुमाराणां देवानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य च 'हहतुडे'त्यादि प्राग्वत् उत्थान उत्था-कध्वं भवनं तया उत्तिष्ठन्ति-ऊलींभवन्ति इत्यर्थः, उत्थाय च यत्रैव मेघमुखा नागकुमारा देवास्तत्रैवोपा-18 गच्छन्ति, उपागत्य च 'करयले'त्यादि प्राग्वत्, मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति, ISIN वर्धयित्वा चैवमवादिषुरिति, यदवादिषुस्तदाह-एस 'मित्यादि, देवानुप्रिया ! एष कश्चिदप्रार्थितप्रार्थकादिविशे|पणविशिष्टो अस्मद्देशोपर्यागच्छति, तेन तथा प्रकारेण णमिति-एनं धत्तेह-प्रक्षिपत यथा पुन यातीति पिण्डार्थः,181 अथ यन्मेपमुखा ऊचुस्तदाह-'तए णमित्यादि, व्यकं, किमवोचुस्ते इत्याह-एस 'मित्यादि, हे देवानुप्रिया ! ॥२४॥ एष भरतो नाम राजा चतुरंतचक्रवत्ती महर्द्धिको महाद्युतिको यावन्महासौख्यःनो खलु एष भरतः शक्यः केनचि-118 देवेन वा-वैमानिकेन दानवेन वा-भवनवासिना किन्नरेणेत्यादि पदचतुष्क व्यन्तरविशेषवाचकं तेन वा शस्त्रप्रयोयेण
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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|| वा अग्निप्रयोगेण वा मन्त्रमयोगेण वा, त्रयाणामप्युत्तरोत्तरवलाधिकता ज्ञेया, शस्त्रेभ्योऽग्निस्तस्मान्मन्त्री बलाधिक 18|| इति, उपद्रवयितुं वा-उपद्रवं कर्तुं प्रतिषेधयितुं वा-युष्मद्देशाक्रमणरूपपापकर्मतो निवर्तयितुमिति, सर्वत्र वाशब्दः 18 समुच्चयार्थः, तथापि-इत्थं दुस्साघे कार्ये सत्यपि युष्माकं प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्ग कुर्म इतिकृत्वा
| तेषामापातकिरातानामन्तिकादपकामन्ति-यान्ति निस्सरन्तीत्यर्थः इति प्रतिज्ञातवन्तः, ततः किं कृतवन्त इत्याह|| 'अबक्कमित्ता वेउविअसमुग्याएण'मित्यादि, अपक्रम्य च-अजित्वा वैक्रियसमुपातेन-उत्तरवैक्रियार्थकप्रयत्नविशे||पेण समवनन्ति-आत्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति शरीराद् बहिर्विकिरन्तीत्यर्थः समवहत्य च तैरात्मप्रदेशैहीतैः पुदगलै-181
पानीक-अचपटलक विकुर्वन्ति विकुळ च यत्रैव भरतस्य विजयस्कन्धावारनिवेशस्तवैवोपगच्छन्ति उपागत्य च 181 विजयस्कन्धावारनिवेशस्योपरि क्षिप्रमेवेत्यादि सर्व पुष्कलसंवर्तकमेघाधिकार इव वाच्यं यावद्धर्षितुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवंस्ते। देवा इति । इति व्यतिकरे यदरताधिपः करोति तदाहतए णं से भरहे राया उपि विजयक्खंधावारस्स जुगमुसळमुहिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिँ ओघमेषं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ २ चा चम्मरयणं परामुसइ, तए पंसं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिवो जाव दुवालसजोषणाई तिरि पवित्यरइ तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया ससंधावारवले चम्मरवणं दुरूहइ २ त्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसद, लए ण णवणासहस्सकंचणसलापपरिमंदिभ महरिहं अउझं णिवणसुपसत्यवि सिहलकंचणसुपुढदद मिचराययवट्टलद्वअरविंदकण्णिभसमाणरूवं पस्थिपएसे
दीप
अनुक्रम
[८४]
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आगम
(१८)
ཝཱ + ཚིལླཱ ཡྻ
[८५-८७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ५९ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशाविचन्द्री - या वृत्तिः
॥२४१॥
अ. पंजरविग्रहशं, विविधभचिचित्वं मणिमुत्तपवालवत्त्तवणिकापंचवन्पित्रोअयणरूवरश्यं रयणमरीईसमोप्पणाकप्पकारमयुरंजि. पहियं रागलच्छिचिधं अजुणसुवण्णपंडुरपचत्युपदेसभा तहेव तवणिपट्टधम्मंतपरिगयं अद्विअसस्सिरीअं सारयरयभिअरविमउपठिषुण्णचंदमंडक्समाणरूवं परिंदवामष्पमाणपगर्वित्यद्धं कुमुद्रसंभव रण्णो- संचारिमं विप्राणं सूरातबवायवुद्धिदोसाण य रायकरं तवगुणेहिं उद्धं-अइयं बहुगुणदाणं पण विमुदकयच्छायें । चारयणं पहाणं सुद्ध अप्पपुण्याणं ॥ १॥ पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुहतरं वग्धारिअमलदामकलावं सारयधवलंब्भरययणिगरपगासं दिव्वं उत्तरयणं महिवइस्ल धरणिअलपुष्णइँदौ । तर नं से दिव्वे उत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुळे समाणे खिप्पामेव दुबालस जोअणाई पवित्थर साहिआई तिरिनं (सूत्रं ५९ )
'तर 'मित्यादि, ततो- दिव्यवर्मानन्तरं स भरतो राजा स्वसैन्ये, उक्तप्रकारेणा संतरात्रिप्रमाण कालेन ववर्षस्तं | मेषवृष्टिं जायमानां पश्यति दृष्ट्वा च चर्मरत्वं परामृशति, अत्रावसरागतं चर्मरत्नवर्णकसूत्रमतिदिशन्नाह - पॅप पा' मिल्लाने, | सर्व पूर्वमतः, 'तपण' मित्यादि कण्ठ्यं, अथेदं छत्ररलं कीदृशमिति जिज्ञासूनां तत्स्वरूपप्रकटनाग्राह- 'तपु प मिलादि, तत इति प्रस्ताक्लावाक्योपन्यासे, छत्ररलं महीपतेः- भरतस्त्र धरणितस्य पूर्णचन्द्र इव पूर्णचन्द्रो वर्चले इति योग, | किंविशिडी नयनवतिसहस्रप्रमाणाभिः काञ्चनमयालाकाभिः परिमण्डितं महार्घ- बहुमूल्यं अथवा महान - चक्रवर्ची तस अर्ह-योग्यं अयोध्यं-- अयोधनीयं अस्मिन् इष्टे न हि प्रतिभटानां शस्त्रमुष्ठिते इति भावः, निर्माण:-छिनत्यादिदोष
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३ वक्षस्कारे छत्ररत्नवर्णनं सू. ५९
॥२४१॥
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ..........----------------------------------------------- मलं [५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
रहितः सुप्रशस्तो-उमणोपेतावान् विशिष्टता-अतिमनोजः अथवा विशिष्ट अतिभारतया एकदण्जेन दुर्वहत्वाद प्रतिद॥ण्डसहितः ईशश्च यो लटः कासनमः सूपुष्टोऽतिभारसहत्वात् वण्डो यव तत्तथा, मृतु-सुकसालं पृथ्मृष्टत्वात राजत
रूप्यसम्बन्धि वृत्तं लष्टं यदरविन्दं तस्य कर्णिका-बीजकोशस्तेन समानं श्वेतत्वावृत्तत्वाच रूपं-आकारों यस्य तत्तथा, बस्तिप्रदेशो नाम छत्रमध्यभागवती दण्डप्रक्षेपस्थानरूपस्तत्र, चः समुबवे, पञ्जरेण-पञ्जराकारेण विराजितं, विविधाभिर्भकिमिा-विच्छित्तिभी रचनामकारश्चित्रं-चित्रकर्म यत्र तत्तभा, एतदेव विशिष्याइ-मणयः-प्राग्व्यावर्णितख| रूपा मुक्काप्रकाले प्रतीते तप्त-मूषोतीर्ण यचपनीयं-रकसुवर्ण पञ्चवर्णिकानि, सूत्रे मत्वर्थीय इकप्रत्यया, धौतानिशाणोत्सारेण दीसिमन्ति कृतानि रक्षानि मागव्यावर्णितस्वरूपाणि तैः रचितानि रूपाणि-पूर्णकलशादिमत्यवस्तूनामाकारा यत्र तत्तथा, पदव्यत्ययः माकृतत्वात्, तथा रत्नानां मरीचिसमर्पणा-समारचना तस्यां कल्पकरा-विधिकारिणः परिकर्मफारिण इत्यर्थः तैरतुसम्प्रदायक्रम रञ्जितं, यथोचितस्थानं रजदानात, मकारोऽलाक्षणिकः स्वार्थे ।
इलेको प्रत्यचौ प्राकृतशैलीभवी, राजलक्ष्मीचिन्हं अर्जुनाभिधानं यत्पाण्डुरस्वर्ण तेन प्रत्यवस्तृतः-आच्छादितः पृष्ठदेशIS भागो यस्य तत्तथा, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तश्चैवेति विशेषणान्तरपारम्भे मायमानं तत्कालध्मातमित्यर्थः यत्तप1 नीयं तस्य पसेन परिगत-परिवेष्टितं, चतुर्वपि प्रान्तेषु रक्कसुवर्णपट्टा योजिताः सन्तीति, पदव्यत्ययः पूर्वक्त् ॥ 19 अत पषाधिकसश्रीकं शारद-शरत्कालसत्को रजनिकर:-चन्द्रस्तद्विमळ-निर्मल प्रतिपूर्णचन्ब्रमण्डलसमानरूपं ततो
3000202000ccess90000
गाथा
दीप अनुक्रम [८५-८७]]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [५९]
द्वीपशा न्तिचन्द्र
गाथा
विशेषणसमासः, नरेन्द्रः-प्रस्तावाद् भरतस्तस्य व्यायामः-तिर्यकमसारितोभयबाहुप्रमाणो मानविशेषस्तेन प्रमाणेन वक्षस्कारे
प्रकृत्या-स्वभावेन विस्तृतं, यत्तु चक्रिपरामृष्ट साधिकद्वादशयोजनानि विस्तृणाति तदस्य कारणिको विस्तार इति छत्ररतवर्णया वृत्तिः
सूचितं, कुमुदानि-चन्द्रविकाशीनि तेषां खण्डं-वनं तद्वद्धबलं राज्ञो-भरतस्य 'संचारिम'त्ति सञ्चरणशीलं जङ्गमन सू. ५९
हाविमान आश्रयिणां सुखावहत्वात्, सूरातपवातवृष्टयः प्रतीतास्तासां ये दोषास्तेषां क्षयकरं यद्वा सूरातपवातवृष्टीनां || ॥२४२॥ 181दोषाणां च-विषादिजन्यानां क्षयकर, एतच्छत्रच्छायसमाश्रितानां हि विपादिदोषा अपि न प्रभवन्तीति विशेषः, तपो- ॥8
गुण:-पूर्वजन्माचीर्णतपोगुणमहिम्ना लब्धं भरतेनेति शेषः, अथ गाथाबन्धेन विशेषणान्याह विचित्रत्वात्सूत्रकार-1 प्रवृत्तेः, अहतं-न केनापि योधंमन्येन रणे खण्डितमित्यर्थः, बहूनां गुणानां-ऐश्वर्यादीनां दानं यस्य तत्तवा, ऋतूनां| हेमन्तादीनां विपरीता अथवा आर्षत्वात् पट्यर्थे पञ्चमीव्याख्यानेन ऋतुभ्यो विपरीता उष्णतौं शीता शीतत्तौ उष्णा 18 अत एव कृतसुखा छाया यस्य, सूत्रे कान्तस्य परनिपातो 'जातिकालसुखादेवा' (श्रीसिद्ध० अ०३ पा.१-सू०१५२)
इत्यनेन विकल्पविधानात्, छत्रेषु रलं-उत्कृष्टं प्रधानं छत्रगुणोपेतत्वात् , सुदुर्लभमल्पपुण्यानामिति, प्रमाणराज्ञास्वस्वकालोचितशरीरप्रमाणोपेतराज्ञां अष्टसहस्रलक्षणलक्षितत्वात् प्रमाणीभूतराज्ञां वा-षट्खण्डाधिपत्वेन सर्पराज-18
सम्मतत्वात् , एतेन वासुदेवादिब्युदासस्तेषां त्रिखण्डभोत्कृत्वात्, चक्रवर्तिना तपोगुणाना-सुचरितविशेषाणां फलानां | RI एकदेशभागरूपं, सूत्रे क्लीवलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , कोऽर्थः१-चक्राधिपपूर्जिततपसां फलं-सर्वस्वं नवनिधानचतुर्द-18!
दीप अनुक्रम [८५-८७]]
jmmitrar
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
-------------------- मूलं [५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
OM
प्रत सूत्रांक
गाथा
शरमादिषु विभक्तं, तेन तदेकदेशभूतमिदं छत्ररतं विमानवासेऽपि-देवत्वेऽपि दुर्लभतर, तत्र चक्रवर्तित्व-18| | स्थासम्भवात् , 'बग्धारिअ'त्ति प्रलम्बितो लम्बतयाऽवलम्बितो माल्यदाम्नां-पुष्पमालानां कलापः-समूहो यत्र तत्तथा, 18| समन्ततः पुष्पमालावेष्टितमिति भावः, शारदानि-शरत्कालभाचीनि धवलान्यभ्राणि-वाईयानि शारदश्च रजनिकर:-18 चन्द्रः तद्वत्प्रकाशो-भास्वरत्वजनित उद्द्योतो यस्य तत्तथा, दिव्यं-सहनदेवाधिष्ठितं शेषपदयोजना प्राक् कृतवास्ति, 18 अथ प्रकृतम्-'तए ण'मित्यादि, ततस्तद्दिव्यं छत्ररक्ष भरतेन राजा परामृष्टं-स्पृष्टं सक्षिप्रमेव चर्मरक्षवत् द्वादश-| योजनानि साधिकानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति, साधिकत्वं चात्र परिपूर्णचर्मरतपिधायकत्वेन, अन्यथा किरातकृतमपद्रवः स्वसैन्यस्य दुर्वारः स्यादिति ॥ अथ छत्ररक्षप्रविस्तरणानन्तरं यच्चके तदाहतए ण से भरहे राया छत्तरवणं खंधावारस्सुवरि ठवेइ २ ता मणिरयणं परामुसद वेढो जाव छत्तरयणस्स वत्थिमार्गसि ठवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअस्थमंतमेत्तसालिजबगोहूममुग्गमासतिलकुलत्यसद्विगनिष्फावचणगकोदवकोत्युंभरिकंगुवरगराळगअ
गधण्णावरणहारिअगअल्लगमूलगहलिहलाअवसतुंबकालिंगकविट्ठअंबबिलिअसवणि फायए सुकुसले गाहावहरवणेत्ति सव्वजणवीसुअगुणे । तए णं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूआणं सधण्णाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उबढवेति, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकमजोए समुयभूएणं सुदंसुदेणं सत्तरतं परिवसह'वि से बुराण विलिभं व भयं व विजए दुक्खं । भरहा हिवस्स रण्णो खंधावारस्सवि तहेव ॥ १॥ (सूत्र ६०)
दीप अनुक्रम [८५-८७]]
Similenni
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
1६01
गाथा
श्रीजम्यू-18| 'तए भ'मित्यादि, ततः स भरतः छत्रस्तं स्कन्धाकारस्योपरि स्थापयति स्थापयित्वा च ममिरवं परामृशति,8श्वक्षस्कारे द्वीपशा-1|| वेढो जाति अत्र मणिरतस्य बेधको-वर्णको यावदिति सम्पूर्णो बक्तव्यः पूर्वोका, सब तोतं चतरंगुबप्पसाण'-8|चमेरले धान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
मित्यादिका, परामृश्य च चर्मरनछत्ररलसम्पुटमिलननिरुवसूर्यचन्द्राखालोके सैन्येऽहर्निशमुद्योतार्थ खबरलास स्ति
भागे मणिरले स्थापयति, ननु एवं सति सकलसैम्यावरोधः समजनि, त्या च तत्र कथं भोजनादिविधिरित्याशमानं ॥२४३॥
प्रत्याह-'तस्त व अणतिवर मित्यादि, तस्य भरतस्य राज्ञः चो वाध्यान्तरथोतनार्थः गृहपतिरक-कौटुम्बिकरलम
स्तीति गम्यते, किंविशिष्ट !-इति-अमुना प्रकारेण सर्वजनेषु विश्रुता गुण्या यस्य सत्तया, इतीति किन विद्यते । भतिषर-अतिप्रधानं वस्तु अपरं यस्मात्तत्तथा, चारुरूपमिति व्यक्त, तथा शिला व शिला अतिस्थिरत्वेन चर्मरतं तत्र 1 निहितमात्राणां-उप्तमात्राणां न तु लौकिकप्रसिद्धभूमिखेटनप्रभृतिकर्मसापेक्षाणां 'अत्थमंतत्ति अर्थवतां-प्रयोजनकता
भक्षणाधणामित्यर्थः शाल्यादीनां निष्पादक, यद्वा शिलानिहितानां प्रात इति गम्यं शाल्यादीनां अधर्मसमेतक्तिअस्तमवति मित्रे-सूर्ये सायमित्यर्थः निप्पादक, संवादी चायमप्यर्थी, यदुक्तं श्रीहेमाचार्यकृते ऋषभचरित्र"चर्म-101 रले च सुक्षेत्र, इवोप्तानि विषामुखे । सायं धान्यान्यजावन्त, गृहिरसप्रभावतः॥३॥" इत्यादि, उभयत्र व्याक्काने | ॥२४॥
पदानां व्यत्ययेन निर्देश प्राकृतत्वात्, तत्र शालयः कलमाचा: यवा-हयप्रियाः गोधमा मुना मापालिमा कुलत्या 18| प्रतीताः पष्टिकार पयहोराः परिपच्यमानास्तन्दुलाः निष्पावायला पणकाः कोद्वा प्रतीताः 'को भरिति
दीप अनुक्रम [८८-९०]
Similemmitimes
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------------------- मूलं [६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६०
गाथा
|| कुस्तुम्मन्यो-धान्यककगाः कङ्गवो-गृहमिछरस्काः 'वरगति करट्टाः रालका-अल्पशिरस्का उपलक्षणात् मेस्त्राव
योऽन्येऽपि धान्यभेदा प्रायाः, अनेकानि धाम्या इति-धाम्यापत्राणि वरणो-यनस्पतिविशेषस्तत्पत्राणि पत्नभृतहनि है यानि हरितकानि पत्रचाकानि मेघमाववास्तुलकादीनि, पूर्व च कुस्तुंबरीशब्देन धान्यभेदः संगृहीतः इवानी तत्पत्राणां भक्ष्यत्वेन पत्रशाखेषु संग्रह इति न पौनरुत्य, अल्लगमूलगहलिह'त्ति आईकहरिने प्रतीते,पते च सूरणकन्दाघुपलक्षणभूते, मूलक-हस्तिदन्तकं, इदं च गृञ्जनादिमूलकोपलक्षणं, पतेन कन्दमूलशाके कथिते, अथ फलशाकान्याह-अलबुतुम्ब वपुष-चिर्भटजातीयं सुम्बकलिङ्गकपित्थामाम्लिकाः प्रतीताः, इदमपि फलशाकोपलक्षणं तेन जीवम्ल्यादिपरिग्रहः, अलाबुतुम्बयोर्लम्वत्ववृत्तत्वकृतो भेवा, सच तज्जातीयबीजकृत इति जनप्रसिद्धिः, सर्वशब्देन चोक्तातिरिकशाकादीनां ग्रहः, ननु यदि गृहपतिरक्षमचिरक्रियया मासंस्क्रियया धान्यादिकं निष्पादयति तर्हि किं चर्मरक्षे वीजयपमेन ?, तनिरपेक्षतयैव तत् निष्पादयतु, तस्य दिव्यशक्तिकत्वात् , उच्यते, इसरकारणकलापसंघटनपूर्वकत्वमेव कारणस्य | कार्यजनकत्वनियमात् , अन्यथा सूर्यपाकरसवतीकारा नलादयः सूर्यविद्यामहिमा रसवतीं परिपचन्तोऽपि तन्युलसूप-18 शाकवेषधारादिसामग्रीनापेक्षेरनिति, अत एव सुकुशलं-अतिनिपुणं निजकार्यविधावतिनिपुर्ण शेपं प्राग्योजितं, अधो
क्तगुणयोगि गृहपतिरसं यदवसरोचिसं चकार लदाह-तप ग'मित्यादि, ततः चर्मरक्षच्छन्नरलसम्पुनसंघटनानन्तरं 18| तव गृहपतिरसं भरतख राज्ञः स एव विवसस्तदिवस---उपस्थानविक्सस्तस्मिन् प्रकीर्णकानां-उप्तानां निष्पाविताना
दीप अनुक्रम [८८-९०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ..........----------------------------------------------- मलं [६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
गाथा
श्रीजम्ब- परिपाकदशा प्रापितानां पूतानां-निर्बुसीकृतानां सर्वधान्यानामनेकानि 'कुम्भसहस्राणि' कुम्भाना राशिरूपमान विशे-||श्वक्षस्कारे द्वीपशा- पणां सहस्राणि उपस्थापयति-उपढौकयति प्राभृतीकरोतीत्यर्थः, कुम्भमानं त्वेवमनुयोगद्वारसूत्रोक्तं-"दो असईओ चर्मरत्वे धान्तिचन्द्री-1|| पसई दो पसईओ सेइआ चत्वारि सेइआओ कुडओ चत्तारि कुडया पत्थो चत्तारि पत्थया आढयं चत्तारि आढया 81
न्यायुत्पाया चिः
दोणो सहि आढयाई जहण्णए कुंभे असीति आढयाई मज्झिमए कुंभे आढयसयं उकोसए कुंभे"त्ति, अत्र व्याख्या॥२४॥ अत्राशतिः-अवाङ्मुखहस्ततलरूपा मुष्टिरित्यर्थः तत्प्रमाणं धान्यमप्यशतिरेवोच्यते, तद्वत्प्रसूतिः-नावाकारतया व्यव-18
स्थापिता प्राञ्जलकरतलरूपोच्यते, द्वे प्रसृती सेतिका-मगधदेशप्रसिद्धो मानविशेषो, न तु इह प्रसिद्धा, तस्याः प्रस्थच-18 तुर्गुणत्वात् , चतस्रः सेतिकाः कुडवः-पल्लिकासमानो माप्यविशेषः, चत्वारः कुडवाः प्रस्थो माणकसमानं माध्य, चत्वारः प्रस्थाः आढका-सेतिकाप्रमाणः चत्वार आढका द्रोण:-चतुःसेतिकाप्रमाणः षष्ट्या आढकैः पञ्चदशभिद्ोण-2 रित्यर्थः जघन्यः अशीत्या आढकैविंशत्या द्रोणरित्यर्थः मध्यमः कुम्भः तथा आढकानां शतेन पञ्चविंशत्या द्रोणरित्यर्थः | उत्कृष्टः कुम्भ इति, अत्र च 'सबधण्णाणं ति सूत्रमुपलक्षणपरं तेनान्यदपि यत्सैन्यस्य भोजनोपयोगि तत् सर्वमुपन-12 यति, एवं सति तत्र भरतः कथं कियत्काल च स्थितवानित्याह-तए 'मित्यादि, ततो-गृहपतिरनकृतधान्योप-12||
॥२४४॥ स्थापनानन्तरं स भरतः चर्मरलारूढश्छत्ररत्नेन समवच्छन्न:-आच्छादितो मणिरतकृतोद्योतः समुद्रकसम्पुटं भूत 1 इव-प्राप्त इव सुखसुखेनेत्यर्थः सतरावं-सप्त दिनानि यावत्परिवसति, एतदेव व्यकीकुर्वनाह-णचि से खुहा ण
दीप अनुक्रम [८८-९०]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
-------------------- मूलं [६०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६०
गाथा
इत्यादि, न से-तस्य भरताधिपस्य राज्ञः क्षुद्-बुभुक्षा अपिशब्दः पद्यबन्धरवेन पादपूरणार्थ एवकारार्थो वा न || व्यलीक-वैलक्ष्यं दैन्यमित्यर्थः, नैव भयं नैव विद्यते दुःख, इयमेव गाथा श्रीवर्द्धमानसूरिकृत ऋषभचरित्रे तु एवं-18 'णवि से खुहा णवि तिसा व भयं' शेष प्राग्वत्, 'खंधे'त्यादि, स्कन्धावारस्यापि तथैव, यथा भरतस्य न क्षुदादि तथा सैन्यस्यापि नेत्यर्थः॥ ततः किं जातमित्याहतए णं तस्स भरहस्स रणो सत्तरसि परिणममाणंसि इमेआरूवे अन्मथिए चिंतिए पथिए मणोगए संकापे समुष्पमित्था केस गंभो! अपत्थिअपत्थए बुरंतपतलक्खणे जाव परिवज्जिए जे णं ममं इमाए एआणुरूवाए जाव अमिसमण्णागयाए उप्पि विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुहि जाव वासं वासइ। नए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेआरूवं अन्भस्थिों चिंतियं पत्थिों मणोगय संकप्पं समुष्पण्णं जाणिचा सोलस देवसहस्सा सण्यझिालं पर्वत्ता याविहोत्या, तए णं ते देवा सण्णबद्धवम्भिअकवया जाव गहिआउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुद्दा णागकुमारा देवा वेणेव उवागच्छंति २ ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासी-ई भो ! मेहमुद्दा णागकुमारा ! देवा अप्पत्थिअपत्थगा जाव परिवजिआ किण्णं तुभि ण याणह भरहं रायं चाउरंतचावहि महिद्विरं जाव उद्दवित्तए वा पडिसेहिचए वा तहावि णं तुम्मे भरहस्स रण्णो विजयखंघाचारस्स उपि जुगमुसलमुद्विपमाणमित्यादि धाराहि ओपमेघ सत्तरत्तं वासं वासह, तं एवमवि गते इत्तो खिप्पामेव अवक्रमह अहव अब पासह चित्तं जीवलोग, तर णं ते मेहमुद्दा णागकु. मारा देवा तेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा भीआ तत्था वहिआ उधिग्गा संजायभया मेघानीक पडिसाहरंति २ चा जेणेव आवाड
दीप अनुक्रम [८८-९०]
I
matoryen
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------- मलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
COA
प्रत
श्रीजम्यू
वक्षस्कारे आपातकिरातसाधनं
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
सुत्रांक
[६१
Receneasaercenera
॥२४५॥
गाथा:
चिलामा तेणेष म्यागच्छति २ आवाइपिसाप एवं वासी-एस ण देवाशुविधा ! सरहे राका महितीप जाय जो यस सका केप वेषेण का आप अतिप्पोपेण बाजार उपद्दवित्तए वा पडिसेहिलप बा हावि अ ते अम्हेविं देवाणुपिया! तुम्भ पिभट्ठयार भरहस्स रण्णो अवसग्गे कए, गच्छह तुम्भे देवाणुप्पिा ! हाया छपवालिकम्मा कयकोउवमंगलपायपिछत्सा उपासाङगा ओचूलगलिअच्छा अगाई बराई रवणाई गहाय पंजलिजा पायवडिभा भरई रायाणं सरणं उबेह, पणिबइअवच्छला खलु उत्तमपुरिसा पवि मे भरहस्स रण्यो अंलिआओ भथमिसिकटु, एवं बदित्ता जामेव दिसि पाउब्यूआ नामेव विसि पढिगया । सए से आयातनिहाया मेहमुहेहि गागकुमारेहिं देवेहिं एवं कुत्ता समाणा उखाए उठेलि २ सा पहाया कबपतिकाम्या कक्कोडमंगलपावच्छित्ता सापडसाडगा ओचूनगगिअच्छा अगाई बराई रमाई गहाय जेणेव भरहे राबा तेणेव उकागच्छंति २ सा करयलपरिग्महिलं जाय मस्थए बंजर्सि का भरदं राये जपणं विजएषां बद्धाविति २ ता अमगाई वराई रवणाई उक्णेति र सा एवं बवासी-बसुहर गुणहर जयहर, हिरिसिरिधीकिचिधारकरिव । लक्षणसहस्सधारक सत्यमिक् मे चिरं धारे ॥ १॥ यवइ गयवइ गरवइ णवणिहिवइ भरहवासपढमबई । बचीसजणवयसहस्सराय सामी चिरं जीव ॥२॥ पळमणरीसर ईसर हिमईसर महिमिधासहस्साणं । देवसयसाहसीसर चोइसरयणीसर जसंसी ॥३॥ सागरगिरिमेराग उत्तरवाईणमभिजि तुमए । ता अम्हे देवाणुस्फिअस्स विसए परिवसामो ॥४॥ही मं देवासुप्पिाणं इसी जुई असे बले वीलिए पुलिसकारपरचमे दिन्या देवसुई-दिवे देशाभाके उसे पत्ते अमिसमग्णालय, तं विद्या देवाणुपिआण इसी व जाये अमिसमण्णागर, त खामेनुक देवाणुप्पिा! खमंतु काशुप्पिला! संगम देवापुष्पिना माई सुनो २ एकरक्या
दीप अनुक्रम [९१-९५]
K
२४५॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------- ---------------------------------- मूलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६१]
गाथा:
चिकटू पंजलिउडा पायवडिओ मरहे राय सरणं विति । तए 4 से मरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अम्गाई पराई रयणाई परिच्छति २ ता ते आवाडचिलाए एवं क्यासी-गच्छह णं भो तुम्मे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिन्भया णिरुधिग्गा सुईसुहेणं परिवसह, गस्थि मे कत्तोकि मयमस्थिन्तिक सकारेइ सम्माणेइ सकारेत्ता सम्माणेचा पडिक्सिज्जेइ । तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सहावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं मो देवाणुप्पिआ! दोचपि सिंधूए महागईए पञ्चत्थिमं णिक्खुढं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्सुखाणि अ ओअवेहि २ ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि २ चा मम एअमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चत्पिाहि जहा दाहिणिलस्स ओयवर्ण सहा सर्व भाणिअई जाव पचणुभषमाणा विहरंति (सूत्र ६१) 'तएणं तस्स मरहस्स रण्णो सत्तरच मित्यादि, ततः समुद्गकभूततयाऽवस्थानानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सप्त-1 रात्रे परिणमति सति अयमेतद्पो यावत्सङ्कल्पः समुदपद्यत, तमेव प्रादुर्भावयन्नाह-'केस 'मित्यादि, कः एप भोः सैनिकाः अप्रार्थितप्रार्थकादिविशेषणविशिष्ठो यो मम अस्यामेतद्रूपायां यावद्दिन्यायां देवानामिव ऋद्धिर्देवस्य वा-राज्ञ ऋद्धिदेवर्धितस्यां सत्यां एवं दिव्यायां देवद्युतौ दिव्येन देवानुभावेन देवानुभागेन वा देवानामिव योऽनुभागोऽनुभावो | वा-प्रभावस्तेन सह लब्धायां-पासायामभिसमन्वागतायां सत्या उपरि स्कन्धाचारस्य 'जुगमुसलमुटि जाति युगमसलमुष्टिप्रमाणमात्राभिर्धाराभिर्वर्ष वर्षति-पष्टिं रीति, अन्न किरातगृवाणामेवः केपाश्चिदयमुपद्रवोपक्रम इति सामा-3 ग्यतो ज्ञानेऽपि 'मानधनानी प्रणा गर्वणर्मिता गिरस्त्वंकाररेकारबहुला एय भवेयुरिति क एप इत्यादिक आको
दीप अनुक्रम [९१-९५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], --------------------- ---------------------------------- मूलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [६१]
गाथा:
श्रीजम्बू-1|| शस्तन्त्र एकवचन निर्देशः यथा उपस्थितेष्वपि बहुषु वैरिषु स को वर्त्तते यो मामुपतिष्ठते इत्यादी, इति भूपतिभावं परि-1|३ वक्षस्कारे द्वीपशा- | भाव्य यक्षा यच्चस्तदाह-'तए णमित्यादि, ततश्च-उक्तचिन्तासमुत्पत्त्यनन्तरं भरतस्येममेताइवां यावत्सङ्कल्प आपातकि
18|| समुत्पन्नं ज्ञात्वा चतुर्दशरशापिष्ठायकदेवसहस्राणि चतुर्दश द्वे सहने स्वाङ्गाधिष्ठातृदेवभूते इत्येवं पोडशदेवसहस्राः। रातसाधन
यद्यपि स्त्रीरत्नस्य वैताब्यसाधने सम्पत्स्यमानत्वेन रत्लानां त्रयोदशसहस्रा एव सम्भवेयुस्तथापि सामान्यत एतद्वच-18| ॥२४६॥ नमिति, सन्नडुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन्-युद्धायोद्यता अभूवन्नित्यर्थः, कथमित्याह-'तए णमित्यादि, अनुवादसूत्रत्वा
प्राग्वत् , किमवोचुस्ते भरतस्य सन्निहिता देवा इत्याह-हं भो! मेघमुखा इत्यादि प्राग्वत् ,किमिति प्रश्ने न जानीयेत्यत्र 1 काकुपाठेन व्याख्येयं, तेन न जानीथ किं यूयं ?, अपि तु जानीथ, भरतं राजानं चतुरन्तचक्रवर्तिनं यदेष न कैश्चि19 दपि देवदानवादिभिः शस्त्रप्रयोगादिभिरुपद्रवयितुं वा प्रतिषेधयितुं वा शक्यते इति, अज्ञानपूर्विका हि प्रवृत्तिर्मह- 11
तेऽनाय प्रवर्तकस्य च बाद वालिशभावोद्भावनाय च भवेदिति भापयन्तस्ते यथा उत्तरवाक्यमाहुस्तथाऽऽह-तथापि-19॥ जगत्यजय्यं जानन्तोऽपीत्यर्थः पूर्य भरतस्य राज्ञो विजयस्कन्धावारस्योपरि याववर्ष पर्पत तत्-तस्मादेवमविमृष्टका-11 रितायां सत्यामपि गते-अतीते कार्ये किं बहु अधिक्षिपामः!, तस्य क्रियान्तरापादनेन संस्कारानईत्वात् , इतः क्षिप्र-8 ॥२६॥ मेवापकामत-मत्कुणा इवापयात, अथवेति विकल्पान्तरे यदि नापकामत तर्हि अद्य-साम्प्रतमेव पश्यत चित्रं जीव-18 लोक-वर्तमानभवादन्यं भवं पृथिवीकाथिकादिक, अपमृत्यु प्रामुतेत्यर्थः, क्रियादेशेऽत्र पञ्चमीप्रयोगः, ननु निरुपक
दीप अनुक्रम [९१-९५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६१]
गाथा:
मायुपां देवानामपमृत्योरसम्भवात् सबाधमिदं वचनं, उच्यते, सूत्राणां विचित्रत्वेन भयसूत्रत्वेन विवक्षणान्न दोषः। 'तए ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं मेघानीकं प्रतिसंहरन्ति-पनघटामपहरन्ति, वृष्टयुपरमे च ततः सम्पुटाञ्चक्रिसैन्यं निर्गच्छदुपलभ्य लौकिकैरुक्तं ब्रह्मणा सृष्टमिदमण्डकं तत इयं जगतः प्रसूतिरित्येवं सर्वत्र प्रवादोऽभूत्ततोऽपि च ब्रह्माण्डपुराणं नाम शास्त्रमभूदिति प्रसङ्गाद्धोध्यमिति, अथ यदुक्तमेवं क्यासित्ति तत्र किमवादिषुरित्याह-'तए - मित्यादि, हे देवानुप्रिया ! एष भरतो राजा महर्द्धिको यावन्नो खलु एष शक्यते देवादिभिरखप्रयोगादिभिर्यावन्नि
धयितुं तथापि अस्माभिर्देवानुप्रिया! युष्माकं प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्गः कृतः, तद्गच्छत देवानुप्रिया! यूर्य स्नाना| दिविशेषणाः आर्ची-सद्यःमानवशाजलक्लिन्नौ पटशाटकी-उत्तरीयपरिधाने येषां ते तथा, एतेन सेवाविधाबविलम्बः ४ सूचितः, अवचूलक-अधोमुखाञ्चलं मुत्कलाञ्चलं यथा भवत्येवं नियत्थं येषां ते तथा, एतेन परिहितवस्त्रबन्धनकाला8 वध्यपि न विलम्बो विधेय इति सूचितं, अथवाऽनेनाबद्धकच्छत्वं सूचितं, तदुपदर्शनेन स्वदैन्यं दर्शितमिति, बद्धक-18 ४च्छत्वदर्शने हि उत्कटत्वसम्भावनाया जनप्रसिद्धत्वात् , अग्र्याणि वराणि रलानि गृहीत्वा प्राञ्जलिकृता:-कृतमाञ्जलयः
पादपतिता:-चरणन्यस्तमौलयो भरतं राजानं शरणमुपेत-यात प्रणिपतितवत्सला:-प्रणम्रजनहितकारिणः खलु उत्तमपुरुषाः, नास्ति भे-भवतां भरतस्य राज्ञोऽन्तिकानयमिति कृत्वा इति उदित्वेत्यर्थः यस्या दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रति गता इति । अथ भग्नेच्छा म्लेच्छा यच्चकुस्तदाह-'तए णमित्यादि, सर्व गतार्थ, नवरं रत्नान्युपनयन्ति
@RSAGRODec
दीप अनुक्रम [९१-९५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ...--------------------------------------------------- मलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६१]
__ +
गाथा:
श्रीजम्बू-18 प्राभृतीकुर्वन्तीत्यर्थः, अथ यदुक्तं 'एवं वयासित्ति तत्र किमवादिषुरित्याह-'वसुहर' इत्यादि, हे वसुधर !-द्रव्यधर ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- षट्खण्डवर्तिद्रव्यपते इतियावत् , अथवा तेजोधर गुणधर-गुणवान् जयधर-विद्वेषिभिरधर्षणीय ! ही:-लज्जा श्री:- आपातकिन्तचन्द्रा- लक्ष्मीधृतिः-सन्तोषः कीर्तिः-वर्णवादः एतेपा धारक नरेन्द्रलक्षणसहस्राणां-अनेकलक्षणानां धारक णो-अस्माकं रातसाधन या वृत्तिः
म.६१ राज्यमिदं चिरं धारय-पालय इत्यर्थः, अस्मदेशाधिपतिर्भव चिरकालं यावदिति प्रथमगाथार्थः । 'हयवद गयवई ॥२४॥ इत्यादि हयपते ! गजपते ! हे नरपते! नवनिधिपते! हे भरतवर्षप्रथमपते ! द्वात्रिंशजनपदसहस्राणां-देशसह
साणां ये राजानतेषां स्वामिन् ! चिरं जीव २ इति द्वितीयगाधार्थः । 'पढमणसरीसर ईसर इत्यादि, हे प्रथमनरेश्वर! हे ऐश्वर्यधर! हे महिलिकासहस्राणां-चतुःषष्टिस्त्रीसहस्राणां हृदयेश्वर-प्राणवल्लभ देवशतसहस्राणां-रलाधिष्ठातृमागधतीर्थाधिपादिदेवलक्षाणामीश्वर ! चतुर्दशरत्नेश्वर ! यशस्विन इति तृतीयगाथार्थः॥ तथा 'सागर' इत्यादि, |सागर:-पूर्वापरदक्षिणाख्यः समुद्रः गिरि:-क्षुदहिमाचलस्तयोमर्यादा-अवधिर्यत्र तत्तथा. उक्कदिकत्रये समुद्राव-18 धिकमुत्तरतो हिमाचलावधिक, उत्तरापाचीन-उत्तरार्द्धदक्षिणार्द्धभरतं परिपूर्णभरतमित्यर्थः, त्वयाऽभिजितं, यदत्र | भरतस्य हिमवद्भिरिपर्यन्तता व्याख्याता तदवश्यं साधयिष्यमाणत्वेन 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् , अन्यथा | ॥२४७॥ नवनिधिपते ! चतुर्दशरलेश्वर.इत्यादिविशेषणानामप्यनुपपत्तिः,नवनिधीनां तथा सम्पूणचतुर्दशरलानामथैव सम्पत्स्यमा/ नत्वात् , ता-तस्माद् वयं देवानुप्रियस्य विषये परिवसामः, युष्माकं प्रजारूपाः म इत्यर्थः, इति चतुर्थगाथार्थः ।
दीप अनुक्रम [९१-९५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], ------------------ .................----------------- मलं [६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६१]
गाथा:
तथा अहो इति आश्चर्ये देवानुप्रियाणां ऋद्धिर्युतिर्यशो बलं वीर्य पुरुषकारः पराक्रमः एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत्, ऋयादीन्याश्चर्यकारीणि कुत इस्याह-दिव्या-सर्वोत्कृष्टा देवस्येव युतिः, एवं दिव्यो देवानुभावो देवानुभामो वा लब्धःप्राप्तः अभिसमन्वागतो देवपादरित्यध्याहार्य, परतः श्रुतेऽपि गुणातिशये आश्चर्योत्पत्तिः स्यात् दृष्टे तु सुतरामित्या
शयेनाह-तद् दृष्टा देवानुप्रियाणां ऋद्धिः-सम्पत्, चक्षुःप्रत्यक्षेणानुभूतेत्यर्थः, श्रवणतो दर्शनस्यातिसंवादकत्वात् , || एवं चैवेति उक्तन्यायेन दृष्टा देवानप्रियाणां गतिः, एवं यशोबलादिकमपि हटमित्यादि वाच्यं, यावदभिसमन्वा-IMS
गत इति पदं, यावत्पदसंग्रहस्तु 'इड्डी जसे बले वीरिएं' इत्यादिकोऽनन्तरोक्त एव, तत्क्षमयामो देवानुप्रिया वयं, सानुशयाशयत्वात् स्वबालचेष्टितं क्षमन्तां देवानुप्रियाः!, क्षन्तुमर्हन्ति-क्षमा कतुं योग्या भवन्ति देवानुप्रियाः महाशय-18। त्वात् , अत्र प्राकृतत्वाद्वर्तमानार्थे पञ्चमी, 'णाईत्ति नैव आई इति निपातोऽवधारणे भूय एवंकरणतायै सम्पत्स्या-18
मह इति शेषः, अन ताकारः प्राकृतशैलीभवः, इति कृत्वा प्राञ्जलिकृताः पादपतिता भरतं राजानं शरणमुपयान्ति, IS || अथ प्रसादाभिमुखभरतकृत्यमाह-'तए से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा 18| तेषामापातकिरातानामन्याणि वराणि रतानि प्रतीच्छति-गृह्णाति प्रतीच्छय च तानापातकिरातानेवमवादीत-गच्छत
8 भो! देवानुपियाः यूर्य स्वस्थानमिति शेषः, मम बाहुच्छायया परिगृहीता:-स्वीकृताः मया शिरसि दत्तहस्ताः निर्भया | 18| निरुद्विग्नाः-उद्धेगरहिताः सुखंसुखेन परिवसत, अत्र 'छायायां हो कान्ती वा' इत्यनेन (श्रीसिद्धहै० अ०८ पा०१सू०२४९)
दीप अनुक्रम [९१-९५]
Nimmitraryan
~150
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आगम
(१८)
ཝཱ + བྲཱལླཱ སྶ
[९१-९५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [६१] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्रीया वृत्तिः
॥२४८ ॥
सूत्रेण वैकल्पिक विधित्वान्न हकारत्वं नास्ति भे-भवतां कुतोऽपि भयमिति कृत्वा सत्कारयति सम्मानयति सत्कृत्य | सन्मान्य च प्रतिविसर्जयति-स्वस्थानगमनायातिदिशति । अथ किरातसाधनोत्तरकालं नरेन्दुः किं चक्रे इत्याह'तए णं से भरहे रायां सुसेण इत्यादि, ततः किरातसाधनानन्तरं भरतः सुषेणं सेनापतिं शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीत् गच्छ भो देवानुप्रिय । द्वितीयं अपिः समुच्चये पूर्वसाधितनिष्कुटापेक्षया सिन्ध्या महानद्याः पश्चिमपश्चिमभागवर्त्ति निष्कुटं - प्राग्व्यावर्णितस्वरूपं सिन्धुः नदी सागरः- पश्चिमाब्धिः उत्तरतः क्षुल्लहिमवद्भिरिर्दक्षिणतो वैताढ्यगिरिश्च तैर्मर्यादा यस्य तत्तथा, एतैः कृतविभागमित्यर्थः, शेषं प्राग्वत्, लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह- 'जहा दाहिणिल' इत्यादि, यथा दाक्षिणात्यस्य सिन्धुनिष्कुटस्य ओअवणं - साधनं तथा सर्वं भणितव्यं तावद्वतव्यं यावत्सेनानीर्भरतविसृष्टः पञ्चविधान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरति ॥ अथ तदनन्तरं किं जातमित्याह
तणं दिये चकरवणे अण्णया कयाइ आउघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं हिमवंतपढयाभिमुद्दे पयाते आदि होत्या, तए णं से भरदे राया तं दिव चकरयणं जाव चुद्धहिमवंतवासहपवयस्स अदूरसानंते दुवालसजोभणायामं जाब चुहिमवंत गिरिकुमारस्स देवस्स अहंमभतं परिण्डर, सहेब जहा मागइतित्यस्स जाव समुद्दरवभूअपिव करेमाणे २ उत्तरदिसाभिमुद्दे जेणेव चुल्लहिमवंतवासहरपचए तेणेव उवागच्छर २ ता चुल्लहिमवंतवासदरपद्ययं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ फुसित्ता तुरए णिगिन्छइ णिगिदित्ता तहेब जाव आयतकण्णायतं च काउण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्य
Fur Prote&P Cy
~ 151~
98080/%
वक्षस्कारे क्षुल्लक हिमवद्भिरिदवसाधनं सू. ६२
॥ २४८॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
se
est
प्रत
सूत्रांक [६२]
माणीम से णरवई जाव सबे मे ते विसयवासित्तिक? उद्धं बेहास उसु णिसिरइ परिगरणिगरिअमझे जाव तए ण से सरे भरहेणं रण्णा उल्नु वेहासं णिसहे समाणे खिप्पामेव बावत्तरि जोषणाई गंता चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराप णिवइए, नए णं से चुलहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सर णिवइ पासइ २ ता आसुरुत्ते रुढे जाव पीइदाणं सधोसहिं च मालं गोसीसचंदण कढगाणि जाब दहोदगं च गेण्हइ २ ता ताए उक्ट्ठिाए जाव उत्तरेणं चुलहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी जाव अण्णं देवाणुप्पिआणं उत्तरिल्ले अंतवाले जाव पडिविसजेइ (सूत्र६२)
'तए णं दिवे चकरयणे इत्यादि,ततः-औत्तराहसिंधुनिष्कुटसाधनानन्तरं तदिव्यं चकरने अन्यदा कदाचित् आयु| धगृहशालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्कम्य च अंतरिक्षप्रतिपन्नं यावत्पदात् 'जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिवतुडिअसहसण्णिणाएणं पूरेन्ते चेव अंबरतल'मिति, उत्तरपूर्वस्यां दिशि-ईशाने कोणे क्षुद्रहिमवत्पर्वताभिमुख प्रयातं चाप्यभवत्, ततः-शिबिरनिवेशात् क्षुद्रहिमवगिरिमध्यं यियासोंत्तरपूर्वायां चलनमेव ऋजुमार्गः, ततो नरेन्दुर्यत्कृतवांस्तदाह
तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयण मित्यादि, ततः स भरतस्तद्दिव्यं चक्ररत्नं अभिक्षुद्रहिमवद्भिरि प्रयातं दृष्टा 18| कौटम्बिकपुरुषाज्ञापन हस्तिरलप्रतिकल्पनं सेनासन्नाहनं स्नानविधानं हस्तिरलारोहणं मार्गागतपुरनगरदेशाधिपवशी-18 IS करणं तत्माभूतस्वीकरणं चक्ररत्नानुगमनं योजनान्तरितवसतिवसनं च करोतीत्यादिपिण्डार्थः प्रथमयावत्पदग्राह्यः, 18| अत्र थावत्पदसंग्राह्यसूत्रलिखने बहुविस्तरः स्यादिति तदुपेक्षा, ततः क्षुलहिमवनिरिसमीपे द्वादशयोजनायाम अत्र
दीप
अनुक्रम
[९६]
Simillenni
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२]
श्रीप
श्रीजम्बू- 18 यावच्छन्दानवयोजनविस्तीर्णादिविशेषणविशिष्टं स्कन्धावारं निवेशयति, वर्द्धकिरन शब्दयति पौषधशाला विधापयति || ३वक्षस्कारे
यावच्छन्दानवयाजना द्वीपशा-8 पौषधं च करोतीत्यादि ज्ञेयं, क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्य साधनायेति शेषः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावत्समुद्ररवभूत- क्षुल्लकहिमविचन्द्री
मिव कुर्वाणः कुर्वाण इति, अत्र 'तहेव'त्ति पदवाच्यमष्टमभक्तप्रतिजागरण तत्समापन कौटुम्बिकाज्ञापन सेनासन्नाहन ६ वगिरिदेवया चिः अश्वरथप्रतिकल्पनं स्नानविधानं अश्वरथारोहणं चक्ररतमार्गानुगमनं च करोतीत्यादि ज्ञेयं, सैन्यसमुत्थकलकलरवेणी
६२ २४९॥ समुद्ररवभूतमिव पृथिवीमण्डलं कुर्वन् २ उत्तरदिगभिमुखो यत्रैव च क्षुद्रहिमवर्षधरपर्वतः तत्रैवोपागच्छति उपागत्य
च क्षुलहिमवर्षधरपर्वतं त्रिकृत्वा-त्रीन् वारान् रथशिरसा-रथाप्रभागेन काकमुखेनेत्यर्थः स्पृशति, अतिवेगप्रवृत्तस्य 8 वेगिवस्तुनः पुरस्थप्रतिबन्धकभित्यादिसंघटने विस्ताडनेन वेगपातदर्शनादत्र त्रिरित्युक्तं, स्पृष्टा च तुरगान् निगृहाति-वेगप्रवृत्तान् वाजिनो रक्षति, तदनु वृत्तं यत्तदाह-णिगिण्हित्ता' इत्यादि, तुरगांश्चतुरोऽपि निगृह्य च तथैव-18॥ मागधतीर्थाधिकारवद्वक्तव्यं, कियडूरं यावदित्याह-यावदायतकायतं च कृत्वा इषुमुदारमिति, अत्र 'तहेव'ति वचनात् रथस्थापनं धनुर्ग्रहणं शरग्रहणं च वक्तव्यं, ततस्तं शरं तथाविधं कृत्वा तत्र इमानि वचनाम्यभाणीत् स नरपतिरत्र
यावत्पदेन 'हंदि सुर्णतु भवंतो' इत्यादि गाथाद्वयं वाच्यं सर्वे मे ते विसयवासीतिपर्यन्तं इति कृत्वा-इत्युचायें ऊर्ध्व-1॥२४९॥ 1] उपरि, एतच्च शुभपर्यायं स्यात् यथोललोकः शुभलोक इत्यादि अत उक्तं विहायसि-आकाशे क्षुद्रहिमवनिरिकु|| मारस्य तत्रावाससम्भवात् इषु निसृजति, 'परिगरणिगरिअमज्झो जाव'त्ति अत्रावसरे वाणमोक्षप्रकरणाधीतं परिग-1
अनुक्रम
[९६]
himitraa
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक [६२]
दीप
10 रणिगरिअमज्जो' इत्यादिपदोपलक्षितं यावच्छब्देन परिपूर्ण गाथाद्वयं वाच्यमिति । ततः किं जातमित्याह-तए 81
से इत्यादि, ततः स शये भरतेन राज्ञा ऊर्ध्वं विहायसि निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्विसप्तति योजनानि यावद् गत्वा क्षुद्र-18 हिमवद्गिरिकुमारस्य देवस्य मर्यादायामुचितस्थाने निपतति, 'तए णमित्यादि, ततः स क्षुद्रहिमवनिरिकुमारो देवो निजमर्यादायां शरं निपतितं पश्यति, दृष्ट्वा च आसुरुप्तो रुष्ट इत्यादिविशेषणविशिष्टो यावत्करणात् धुकुटिं करोति
अधिक्षिपति शरं गृह्णाति नाम च वाचयतीत्यादि ग्राह्य, प्रीतिदानं सर्वोषधीः-फलपाकान्तवनस्पतिविशेषान् राज्या||भिषेकादिकार्योपयोगिनः माला-कल्पद्रुमपुष्पमालां गोशीर्षचन्दनं च-हिमवतकुञ्जभवं कटकानि यावत्पदात् त्रुटितानि
वस्त्राणि आभरणानि शरं च नामाङ्कमिति ग्राह्य, ब्रहोदकं च-पद्मद्रहोदकं गृह्णाति, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टयाऽत्र याव-18 ॥ पदात् देवगल्या व्यतिब्रजति-भरतान्तिकमुपसर्पति विज्ञपयति चेति ज्ञेयं, उत्तरस्यां क्षुद्रहिमवतो गिरेमर्यादायां
अहं देवानुप्रियाणां विषयवासी यावत्पदात् अहं देवाणुप्पिआणत्तीकिंकरे इति ग्राह्य, अहं देवानुप्रियाणां औत्तरा18|| हो ठोकपालः, अन्न यावत्पदात् भीतिदानमुपनयति तद भरतः प्रतीच्छति, देवं सत्कारयति सम्मानयतीति ग्राह्य.
|तथा कृत्वा च प्रतिविसर्जयति, अथाधिकोत्साहादष्टमभकं तपस्तीरयित्वा कृतपारणक एवावधिप्राप्तदिग्विजयाई ॥ कर्तुकामः श्रीऋषभभूः ऋषभकूटगमनायोपक्रमते
तए पं से भरहे राया तुरए णिगिव्हइ २ ता रदं परावत्तेइ २ चा जेणेब उसइकूड़े तेणेव उवागच्छद्र २ चा उसहकूह पव्वयं
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[९६]
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भरतस्य ऋषभकूट-गमनं, तत्र नामलिखनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [६३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६३]
नामलिखनं
गाथा:
श्रीजम्बू-18 विक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ २ ता तुरए निगिण्हइ २ ता रहं ठवेइ २. ता छत्तलं दुवालसंसिभ अवकणि अहिंगरणिसंठिों 1 ३वक्षस्कारे द्वीपशा- सोवणिों कागणिरयणं परामुसइ २ चा उसभकूडस्स पब्वयस्स पुरथिमिलंसि कडगंसि णामगं आउडेर-ओसप्पिणीइमीसे
ऋषभरटे न्तिचन्द्री- तइआएँ समाइ पच्छिमे भाए । अहमंसि चकवट्टी भरहो इअ नामधिज्जेणं ॥१॥ अहमंसि पडमराया अहयं भरहाहिवो णरवया वृतिः
रिंदो। णत्यि मई पडिसत्तू जिअं भए भारहं बासं ॥२॥ इतिकटु णामगं आउडेइ णामर्ग आउदित्ता रहं परावत्तेइ २ चा ॥२५॥
जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छा २ ता जाव चुहिम वंतगिरिकुमारस्स देवस्स अढाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिजिमखमइ २ ता जाब दाहिणि दिसि वेअद्धपच्चयामिमुहे पयाते आवि होत्था (सूत्र ६३) 'तए ण'मित्यादि, ततो-हिमवत्साधनानन्तरं स भरतो राजा तुरगान् निगृह्णाति-दक्षिणपार्श्वस्थहयावाकर्षति वामपार्श्वस्थहयौ पुरस्करोति, निगृह्य च रथं परावर्त्तयति परावय॑ च यत्रैवर्षभकूटं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च ऋषभकूट पर्वतं त्रिकृत्वो रथशीर्षण स्पृशति, स्पृष्ट्वा च रथं स्थापयति स्थापयित्वा च पट्तलं द्वादशान्त्रिक अष्टकर्णिकं अधिकरणिसंस्थितं सौवर्णिक-स्वर्णमयमष्टसुवर्णमयत्वात् काकणीरत्नं परामृशति, एतेषां पदानां व्याख्यान ||81 ॥२५॥
प्राग्वत्, परामृश्य च ऋषभकूटस्थ पर्वतस्य पौरस्त्ये कटके नामैव नामक स्वार्थे कप्रत्ययः 'आउडेइति आजुडति ४ IS सम्बद्धं करोति लिखतीत्यर्थः, कथं लिखतीत्याह-'ओसप्पिणि'इत्यादि, अवसर्पिण्याः, अत्र षष्ठीलोपः प्राकृतत्वात् ,
दीप
अनुक्रम [९७
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [६३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६३]
गाथा:
॥ अस्या तृतीयायाः समायाः-तृतीयारकस्य पश्चिमभागे तृतीये भागे इत्यर्थः, अहमस्मि चक्रवर्ती भरत इति नामधेयेननाम्ना ॥१॥ अहमस्मि प्रथमराजा-प्रधानराजा, प्रथमशब्दस्य प्रधानपर्यायत्वाद्यथा 'पढमे चंदजोगें' इत्यादी, एतद्-18 व्याख्यानेन ऋषभे प्रथमराजत्वं नागमेन सह विरुध्यते, अहं भरताधिपः-भरतक्षेत्राधिपः नरवरा:-सामन्तादयस्ते-181 पामिन्द्रः नास्ति मम प्रतिशत्रु:-प्रतिपक्षः जितं मया भारतं वर्षमिति कृत्वा नामकं 'आउडेइचि लिखति, अस्य सूत्रस्य निगमार्थकत्वान्न पौनरुक्त्यं, अथ कृतकृत्यो यद् व्यवस्थति तदाह-णामगं आउडित्ता' इत्यादि, नामक लिखित्वा रथं परावयति परावर्त्य च यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपामच्छति उपागत्य च अत्र यावत्पदात् तुरगानिगृह्णाति रथं स्थापयति ततः प्रत्यवरोहति मजनगृहं प्रविशति नाति ततः|| प्रतिनिष्कामति भुङ्क्ते बाह्योपस्थानशालायां सिंहासने उपविशति श्रेणीप्रश्रेणी: शब्दापयति खुल्लहिमवद्भिरिकुमारदेवस्थाष्टाहिकाकरणं सन्दिशति ताश्च कुर्वन्ति आज्ञा च प्रत्यर्पयन्तीति ग्राह्य, ततस्तदिव्यं चकरतं धुलहिमवद्भिरिकुमारस्य देवस्याष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्कम्य च यावच्छब्दादन्तरिक्षप्रतिपन्नादिविशेषणग्रहः, दक्षिणां दिशमुद्दिश्य वैताढ्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् ।
तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चकरयणं जाव वेअद्धस्स पञ्चयस्स उत्तरिः णितंचे तेणेव उवागच्छइ २ चा वेअद्धस्स पवयस्स उत्तरिल्ले णितवे दुवालसजोयणावामं जाव पोसहसालं अणुपविसइ जाव णमिविणमीणं विजाहरराईणं अहमभत्तं पनिण्हइ २ चा
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अनुक्रम [९७
अथ चक्रवर्तीभरतं स्त्रीरत्नस्य प्राप्ति-अधिकारः वर्ण्यते
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ----------------------------------------------------- मूलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
३वक्षस्कारे नमिविनमिसाधनं खीरतातिः
द्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः ॥२५॥
[६४]
1
.६४
गाथा:
पोसहमालाए जाब मिविणमिविजाहरायाणो मणसी करेमाणे २ मिट्टइ, शरण तस्स भरहस्स रण्णो अहमभत्तसि परिणाम- माणसि णमिविणमीविजाइस्रायाणो दिव्याए मईए चोइअमई अण्णमण्णस्स अति पाउम्भवंति २ ता एवं पयासी-सप्पण्णे खलु भो देवाणुप्पिा ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे राया चाउरंतचक्रवट्टी ने जीममेअंतीअपच्चुप्पण्यमणागयाणं विजाहरराईणं चकवट्टीण उवत्थाणिसं करेलए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिा ! अम्हेवि भरहस्स एणो उबत्याणि करेमो इति कटु विणमी णाऊणं चकवादि दिवाए मईप चोहअमई माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेअस्सिं स्वलनपाजुञ्ज ठिअजुषणकेसवहिमणई सबरोगणासार्ण बलकरि इच्छिअसीउहफासजुत्तं-तिसु वणुअंतिम तंब तिवलीगतिउण्णयं तिगंभीरं । तिसु कालं तिसु सेअंतिआयतं तिस अ विच्छिण्णं ॥१॥ समसरीरं भरहे वासंमि सबमहिलप्पहाणं सुंदरथणजघणवरकरचलणणयणसिरसिजदसणजणहिअयरमणमणहरि सिंगारागार जान जुत्तोवयारकुसलं अमरवहूर्ण सुरूवं रूवेणं अणुहरंती सुभई भईमि जोवणे बट्टमाणि इत्थीरयणं णमी अरयणाणि य कझाणि य तुडिआणि अ गेहइ २ त्ता ताए उनिहाए तुरिआए जाव उद्धृभाए विजाहरगईए जेणेब भरहे राया तेणेव उवागच्छंति २'चा अंतलिक्खपठिवण्णा सखिखिणीयाई जाव जएणं विजएणं वद्धाति २ सा एवं बयासी-अभिजिए णं देवाणुप्पिआ! जाब अम्हे देवाणुप्पिआणं आणत्तिकिंकरा इतिकट्ट सं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ! अम्हं इमं जाव विणमी इत्वीरयणं गमी रवणाणि समप्पेश् । तए णं से भरहे राया जाव पडिविसजेइ २ ता पोसहसालामो पडिणिक्लमइ २ सा मनणधरं अणुप-' विसइ २ ता भोअणमंडबे जाब नमिविनमीणं विजाहरराईणं अट्ठाहिअमहामहिमा, तए णं से दिवे चक्करयणे आउड्यरसालाओ
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
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IN२५१॥
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
------------------- मूलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४]
गाथा:
पविणिक्खमह जाब उत्तरपुरस्थिमं दिसिं गंगादेवीभाषणाभिमुहे सयाए मावि छोत्था, सब सवा सिंधुवत्तवया जाव नवरं कुंभट्टसहस रयणचित्तं णाणामणिकणारयणमतिभिचाणि अदुवे कणगसीहामणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति (सूत्र ६४) 'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा सदिव्यं चकरा दक्षिणादिशि पैतात्यपर्वताभिमुख प्रयातं पश्यति, दृष्टा च प्रमोदादि तावद् वक्तव्यं यावद् भरतो यत्रैव वैतान्यस्य पर्वतस्योत्तरपार्थवी नितम्बः-कटकस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य च वैतादयस्य पर्वतस्योत्तरभागवर्तिनि नितम्बे द्वादशयोजनायाम यावत्पदकरणात् नक्योजनविस्तीर्णमित्यादिकं । स्कन्धावारमिवेशादि वाच्यं, पौषधशालामनुप्रविशति भरतः, अत्र यावत्पदात् पौषधषिशेषणानि सर्वाणि वाच्यानि, नमिविनम्यो-श्रीऋषभस्वामिमहासामन्तकच्छमहाकच्छसुतयोर्विद्याधस्राज्ञोः साधनायाष्टमभकं प्रगृह्णाति प्रगृह्य च पौषधशालायां यावच्छब्दात् पौषधिकादिविशेषणविशिष्टो नमिविनमिविद्याधरराजानी मनसि कुर्वाणो मनसि कुर्वाणस्ति
ति, एते खगा अनुकम्प्याः एतेषामुपरि बाणमोक्षणेन प्राणदर्शनं न क्षत्रियधर्म इति सिन्ध्वादिसुरीणामिवानयोर्म| नसि करणमात्ररूपे साधनोपाये प्रवृत्तः, तेन न द्वादशवार्षिकयुद्धमप्यत्राभिहितं, यत्तु हेमचन्द्रसूरिभिरादिनाथचरित्रे शरमोचनादि चूर्णिकृता तु युद्धमात्रं द्वादशवर्षावधि अण्णे भणंतीत्युक्त्वा उक्तं तन्मतान्तरमवसेयमिति, अत्रा-11 न्तरे यजातं तदाह-तए णमित्यादि, तस्य भरतस्याटमभक्त परिणमति सति नमिविनमी विद्याधरराजानी दिव्यया दिव्यानुभावजनितत्वात् मत्या-ज्ञानेन चोदितमती-प्रेरितमतिको अवधिज्ञानाद्यभावेऽपि यत्तयोर्भरतमनोविषयक-19
20908050909609009999990
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४]
श्रीजम्बू- द्वीपशा- न्तचन्द्र या वृत्तिः ॥२५२॥
गाथा:
ज्ञानं तत्सौधर्मेशानदेवीनां मनःप्रविचारिदेवानां कामानुषकमनोज्ञानमिव दिव्यानुभावादवगन्तव्यं, अन्यथा तासा-३ वक्षस्कारे मपि स्वविमानचूलिकाध्वजादिमात्रविषयकावधिमतीनां तद्विरसाज्ञानासम्भवेन सुरतानुकूलचेष्टोन्मुखत्वं न सम्भवेदिति, नमिविनएतादृशावन्योऽन्यस्यान्तिकं प्रादुर्भवतः, प्रादुर्भूय च एवमवादिषातां, किमवादिषातामित्याह-'उप्पण्णे खलु'इत्यादि, मसाधन उत्पन्नः खलु:-अवधारणे भो देवानुप्रिया! जम्बूदीपे द्वीपे भरतवर्षे भरतनामा राजा चतुरन्तचक्रवत्ती तस्माजी
सू.६४ तमेतत्-कल्प एषोऽतीतवत्तैमानानागतानां विद्याधरराज्ञां चक्रवर्तिनामुपस्थानिक-प्राभृतं कर्तुं, तद् गच्छामो देवानु-18 प्रिया! वयमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक कुर्म 'इति कट्ट'इत्यादि इति कृत्वा-इति अन्योऽन्य भणित्वा विनमिरु-181 त्तरश्रेण्यधिपतिः सुभद्रां नाम्ना स्त्रीरत्तं नमिश्च दक्षिणश्रेण्यधिपती रक्षानि कटकानि त्रुटिकानि च गृह्णातीत्यन्वयः, अथ कीदृशः सन् विनमिः किं कृत्वा सुभद्रा कन्यारलं गृह्णातीत्याह-दिल्यया मत्यां नोदितमतिः सन् चक्रवर्तिनं 31 | ज्ञात्वा, अत्रानन्तरोकसूत्रतश्चक्रवर्तित्वे लब्धेऽपि यत् णाऊण चक्कवट्टिमित्याधुकं तत् सुभद्रा स्त्रीरत्नमस्यैवोप| योगीति योग्यताख्यापनार्थ, किंलक्षणां सुभद्रामित्याह-'मानोन्मानप्रमाणयुक्तां, तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता उन्मानं-18॥
॥२५२॥ तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता यश्च स्वमुखानि नव समुच्छ्रितः स प्रमाणोपेतः स्यात्, अयमर्थ:-जलपूर्णायां पुरुषप्र-8॥ |माणादीपदतिरिकायां महत्यां कुण्डिकायां प्रवेशितो यः पुरुषः सारपुद्गलोपचितो जलस्य द्रोणं त्रिटक्सौवर्णिकगणनापेक्षया द्वात्रिंशत्सेरप्रमाणं निष्काशयति जलद्रोणोना वा तां पूरयति स मानोपेतः, तथा सारपुद्गलोपचितत्वादेव
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
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आगम
(१८)
ུཊྛཡྻོཝཱ ཡྻཱ + ཊྛལླཱ ཡྻ
अनुक्रम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ६४ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीनम्पू. ४३
यस्तुलायामारोपितः सार्द्धभारं पलसहस्रात्मकं तुल्यति स उम्मानोपेतः, तथा यद्यस्यात्मीयमङ्गुलं तेनाङ्गुलेन द्वादशांगुलानि मुखं प्रमाणयुक् अनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात्, प्रत्येकं द्वादशांगुलैर्नवभिर्मुखै| रष्टोत्तरशतमङ्गलानां सम्पद्यते, ततश्चैतावदुच्छ्रयः पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात् एवं सुभद्राऽपि मानोन्मानप्रमाणयुक्ता, | तथा तेजस्विनीं व्यक्तं रूपं-सुन्दराकारो लक्षणानि च छत्रादीनि तैर्युकां स्थितमविनाशित्वाद्यौवनं यस्याः सा तथा, | केशवदवस्थिता - अवर्द्धिष्णवो नखा यस्याः सा तथा ततः पदद्वयकर्मधारये तां, अयं भावः- भुजमूलादिरोमाण्य| जहद्रोभस्वभावान्येव तस्याः स्युरिति, अन्यथा तत्केशपाशस्य प्रलम्बतया व्याख्यानं उत्तरसूत्रे करिष्यमाणं नोपपद्येत, सर्वरोगनाशनीं तदीयस्पर्शमहिना सर्वे रोगा नश्यन्तीति, तथा बलकरीं सम्भोगतो बलवृद्धिकरीं नापरपुरन्ध्रीणामिवास्याः परिभोगे परिभोक्कुर्बलक्षय इति भावः, ननु यदि श्रूयते समये हस्तस्पृष्टाश्वग्लानिदर्शनेन स्त्रीरत्नस्य स्वकामुक| पुरुषविभीषिकोत्पादनं तर्हि कथमेतदुपपद्यते १, उच्यते, चक्रवर्त्तिनमेवापेक्ष्यैतद्विशेषणद्वयस्य व्याख्यानात् यत्तु सत्यपि खीरले ब्रह्मदत्तचक्रभृतो दाहानुपशमः तत्र समाधानमधस्तनग्रन्थे दण्डवर्णन व्याख्यातोऽवसेयं, ईप्सिताऋतुविपरीतत्वेने च्छागोचरीकृता ये शीतोष्णस्पर्शास्तैर्युक्तां उष्णत शीतस्पर्शा शीतर्ती उष्णस्पर्शा मध्यमत्त मध्यम
१ तस्याः स्पर्शः चक्रवर्तिनः सर्वदोषनाशक इयर्थः, न चैवमन्तरामये दाघज्यरोपगते ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिनि व्यभिचारः, प्रत्यासन्नमृत्योखदानीं तत्स्पर्शसने सामर्थ्याभावात् अवश्यंभाविवस्तुत्वाच ( ही वृत्ती)
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------------------
-------------------- मूलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[६४]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 पर्शामिति भावः, त्रिषु स्थानेषु-मध्योदरतनुलक्षणेषु तनुका-कृशां तनुमध्या-तनूदरी तन्वङ्गीतिकविप्रसिद्धे, ननु सामु-३ वक्षस्कारे द्वीपशा- क्रिकेऽग्यान्यपि दन्तत्वगादीनि तनूनि कथितानि तथा च सति कर्थ तनूनां त्रिसङ्ग्याङ्कता युज्यते इति , उच्यते, 18
नमिविन
मिसाधनं WATRI विचित्रत्वात् कविरुचेखिकसयाविशिष्टानुप्रासभासुरं बन्धं निबनता अन्धकारेण स्त्रीपुंससाधारणानि यानि त्रिक-18 मीरजाति या वृत्तिः
रूपाणि लक्षणानि तानि तथैव निवद्धानि, यानि तु व्यधिकसङ्ख्याकानि तेभ्योऽत्र रसप्रस्तावात् केवलं स्त्रीजात्यचि-18 म.६४ ॥२५॥ तानि लक्षणानि समुचिस्यानुप्रासाभङ्गार्थ त्रिकरूपत्वेन निवद्धानि तेन नेहापरग्रन्थविरोधः, अत एव दन्तत्वगादीनि ।
तनून्यपि तस्या अब न विवक्षितानीति, एवमुत्तरत्रापि भाव्य, त्रिषु-दृगन्ताधरयोनिलक्षणेषु स्थानेषु ताम्रा-रक्तां, हगन्तरक्तत्वं हि स्त्रीणां दक्चुम्बने पुरुषस्यातीव मनोहरं भवतीति, यो वलयो-मध्यवर्तिरेखारूपा यस्याः सा तथा शता, अत्र द्वितीयैकवचनलोपः प्राकृतत्वात् , त्रिवलीकत्वं स्त्रीणामतिप्रशस्वं पुंसां तु तथाविधं न, यदाह-"शस्त्रान्तं शास्त्रीभोगिनमाचार्य बहुसुतं यथासख्यम् । एकद्वित्रिचतुर्भिवेलिभिर्विद्यान्नृपं त्ववलिम् ॥१॥" तथा त्रिषु-स्तनजघन-12 | योनिलक्षणेषु उन्नतां त्रिषु-नाभिसत्त्वस्वररूपेषु गम्भीरां त्रिषु-रोमराजीचूचुककनीनिकारूपेष्ववययेषु कृष्णां त्रिषुदन्तस्मितचक्षुर्लक्षणेषु श्वेता त्रिषु-वेणीबाहुलतालोचनेषु आयतां-प्रलम्बां त्रिषु-श्रोणिचक्रजघनस्थलीनितम्बबिम्बेषु ॥२५३।। विस्तीर्णा समशरीरां समचतुरस्रसंस्थानत्वात् , भरते वर्षे सर्वमहिलाप्रधानां, सुन्दरं स्तनजघनवरकरचलननयनं यस्याः ।। सा तथा ता, शिरसिजा:-केशाः दशना-दन्तास्तैर्जनहृदयरमणी-द्रष्टुलोकचित्तक्रीडाहेतुकं अत एव मनोहरी पश्चात्
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
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आगम
(१८)
ུཊྛཡྻོཝཱ ཡྻཱ + ཊྛལླཱ ཡྻ
अनुक्रम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ६४ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'सिङ्गारागारे त्यत्र यावत्पदात् सिङ्गारागारचारुवेसं संगयगयहसि अभणिअचिठ्ठिअविलाससल| लिअसंलावनिउण इति संग्रहः शृङ्गारस्य- प्रथमरसस्यागारं - गृहमिव चारुर्वेषो यस्याः सा तथा तां सङ्गता - उचिता गतहसितभणितचेष्टितविलासा यस्याः सा तथा तत्र गतं गमनं हसितं - स्मितं भणितं - वाणी चेष्टितं च-अपुरुषचेष्टा विलासो-नेत्रचेष्टा तथा सह ललितेन प्रसन्नतया ये संलापा:- परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, तथा युक्ताः| सङ्गताः ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदत्रयकर्मधारयः तां, अमरबधूनां सुरूपं-सौन्दर्य रूपेणानुहरन्तीं - अनुकुर्वतीं भद्रे - कल्याणकारिणि यौवने वर्त्तमानां, शेषं तु प्राग्योजितार्थं, 'गिण्हित्ता' इत्यादि, गृहीत्वा तयोत्कृष्टया त्वरितया यावदुद्भूतया विद्याधरगत्या यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नौ सकिंकिणीकानि यावत्पदात् पश्ञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिती इत्यादि जयेन विजयेन वर्द्धयतः वर्द्धयित्वा चैवमवादिपातां-अभिजितं देवानुप्रियैः यावत्शब्दात् सर्वं मागधगमवद्वाच्यं, नवरमुत्तरेणं चुल्लहिमवंत मेराए इति 'अम्हे णं देवाणुप्पि आणं विसयवासिणोत्ति आवां देवानुप्रियाणां आज्ञप्तिकिंकरावितिकृत्वा तत्प्रतीच्छन्तु देवानुप्रिया ! | अस्माकमिदं यावच्छन्दादेतद्रूपं प्रीतिदानमितिकृत्वा विनमिः स्त्रीरत्नं नमिश्च रत्नानि समर्पयति । अथ भरतो यदकापत्तदाह-- 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा यावच्छन्दात् प्रीतिदानग्रहणसत्कारणादि ग्राह्यं, प्रतिविसर्जयति | प्रतिविसृज्य च पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्राम्य च मज्जनगृहमनुप्रविशति अनुप्रविश्य च स्नानविधिः
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------------------ मलं [६४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४]
गाथा:
श्रीजम्बू-
पूर्णोऽत्र वाच्यः ततो भोजनमण्डपे पारणं वाच्यं, यावच्छब्दादत्र श्रेणिप्रश्रेणिशब्दनं अष्टाहिकाकरणाज्ञापनमिति, पूणा
३ वक्षस्कारे द्वीपशा- ततस्ता नमिविनम्योर्विद्याधरराज्ञोरष्टाहिका महामहिमां कुर्वन्तीति शेषः, आज्ञां च प्रत्यर्पयन्तीति प्रसङ्गाद् बोध्यमिति, नमिचिनः न्तिचन्द्री
मिसाधनं R अथ दिग्विजयपरमाणभूतस्य चक्ररत्नस्य को व्यतिकर इत्याह-'तए णमित्यादि, ततो-नमिचिनमिखचरेन्द्रसाधनाया वृत्तिः
स्त्रीरत्नातिः नन्तरं तद्दिन्यं चक्ररलमायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामतीत्यादिकं प्राग्वत् , नवरमुत्तरपौरस्त्यां दिशम्-ईशानदिशं, वैता
म.६४ ॥२५४॥ व्यतो गङ्गादेवीभवनाभिमुखं गच्छतः ईशानकोणगमनस्य ऋजुमार्गत्वात् , अत्र निर्णेतुकामेन जम्बूद्वीपालेख्य द्रष्टव्यं,
गङ्गादेवीभवनाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, सैव सर्वा सिन्धुदेवीवक्तव्यता गङ्गाभिलाषेन ज्ञेया यावत्प्रीतिदानमिति 1 गम्यं, नवरं तत्रायं विशेषः-रत्नविचित्रं कुम्भाष्याधिकसहनं, नानामणिकनकरसमयी, भक्तिः-विच्छित्तिस्तया विचित्रे
च द्वे कनकसिंहासने, शेष प्राभृतग्रहणसन्मानदानादिकं तथैव, थावदष्टाहिका महिमेति, यच्च ऋषभकूटतः प्रत्यावृत्तो 18न गङ्गां साधयामास तद्वैताब्यवर्त्तिविद्याधराणामनात्मसात्करणेन परिपूर्णोत्तरखण्डस्यासाधितत्वात् कथं गङ्गानिष्कु-18 18.टसाधनायोपक्रमते इत्यवसेयं, यच्चास्य गङ्गादेवीभवने भोगेन वर्षसहस्रातिवाहन श्रूयते तत्प्रस्तुतसूत्रे चूर्णी चानु-13 कमपि ऋषभचरित्रादवसेयम् ॥ अथातो दिग्यात्रामाह
२५४॥ तए णं से दिये चकारयणे गंगाए देवीए अवाहियाए महामहिमाए निवताए समाणीए आरपरसालाओ पडिणिक्समारता जाव गंगाए महाणईए पञ्चथिमिल्लेणं कूलेणं दाहिणदिसि खंडप्पवायगुहामिमुहे पयाए आवि होत्था, तते गं से भरहे राया जाव
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६५]]
जेणेब खंडपवायगुहा तेणेव ख्वागच्छह २त्ता सवा कयमालकवत्तव्वया अवा णवरि णमालगे देवे पीतिदाणं से आलंकारिअभंड कढगाणि अ सेसं सर्व तहेब जाव अहाहिआ महामः । तए णं से भरहे राया णहमालगस्स देवस्स अट्ठाहिआए म० णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सहावेइ २ चा जाव सिंधुगमो अब्बो, जाव गंगाए महाणईए पुरथिमिल्छ णिक्खुढं सगंगासागरगिरिमेराग समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेइ २ चा अग्गाणि वराणि रयणाणि पडिच्छह २ ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ २ ता दोचंपि सक्त्रंधावारवले गंगामहाणई विमलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणेणं उत्तरइ २ ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पञ्चोरुहइ २ चा अम्गाई वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता करयलपरिग्गहिरं जाव अंजलि कट्ट भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ २ ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेइ । तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अगाई वराई रयणाई पडिच्छइ २ ता सुसेणं सेणावई सकारेइ सम्माणेइ २ ता पडिविसजेइ, तर गं से सुसेणे सेणाबई भरहस्स रण्णो सेसपि तहेब जाव विहरद, तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ सुसेणं सेणावइरयणं सदावेइ २ ता एवं वयासी-आच्छणणं भो देवाणुप्पिा ! खंडगप्पवायगुहाए उत्तरिलस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि २ ता जहा तिमिसगुहाए तहा भाणिअव्वं जाव पि भे भवउ सेसं वहेब जाव भरहो उत्तरिखेगं दुवारेणं अईइ, ससिब्ब मेहंधयारनिवहं तहेव पविसंतो मंडलाई आलिहद, तीसे गं खंडगप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए जाव उम्ममाणिमग्गजलाओ णामं दुबे महाणईमो तहेव णवरं पश्चथिमिल्लाओ कडगाओ पढाओ समाणीओ पुरस्थिमेणं गंगं महाणई समति, सेसं वहेब णवरि पञ्चस्थिमियेणं फूलेणं गंगाए संकमवत्तन्वया तहेवत्ति, तए
दीप अनुक्रम [१०४]
Foesesesececene
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू
प्रत सूत्रांक [६५]]
द्वीपचात्रिचन्द्रीया चिः ॥२५५।।
दीप
खंडगष्पवायगुहाए वाहिणिलस्स दुबारस्स कवाडा. सयमेव महया २ कोंचारवं करेमाणा २ सरसरस्सगाई ठाणाई परोसकिस्था, तए | ३वक्षस्कारे णं से मरहे राया चक्करयणदेसियमग्गे जाव खंडगप्पवायगुहाओ दक्निणिल्लेणं दारेणं णीणेइ ससिब्ब मेहंधयारनिवहाओ (सूत्र६५) खण्डप्रपा'तए णमित्यादि, ततो-गङ्गादेवीसाधनानन्तरं तद्दिव्यं चक्ररलं गङ्गाया देव्या अष्टाहिकायां महिमायां निवृत्तायां |
ताधिपतृ
तमालसासत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति यावत्पदादन्तरिक्षप्रतिपन्नपदादिपरिग्रहः गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले
धनं निर्गदक्षिणदिशि खण्डप्रपातगुहाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् , ततः स भरतो राजा चक्ररतं पश्यतीत्यादिकं तावद्वकव्यं ॥ यावत्खण्डप्रपातगुहायामागच्छतीति पिण्डाः , सवों कृतमालवक्तव्यता-तमित्रागुहाधिपसुरवक्तव्यता नेतव्या-ज्ञात-18 व्येत्यर्थः, नवरं नाव्यमालको नृत्तमालको वा देवो गुहाधिपः प्रीतिदानं 'से' तस्य आलङ्कारिकभाण्डं-आभरणभृतभाजनं कटकानि च शेष-उक्तविशेषातिरिकं सर्व तथैव-सत्कारसन्मानादिकं कृतमालदेवतावद्वक्तव्यं यावदष्टा| हिका, अथ दाक्षिणात्यगङ्गानिष्कुटसाधनाधिकारमाह-'तए ण'मित्यादि, ततः-खण्डप्रपातगुहापतिसाधनानन्तरं स भरतो राजा नाव्यमालकस्य देवस्याष्टाहिकायां पूर्णायां सुषेणं सेनापति शब्दयति, शन्दयित्वा च 'जाव सिन्धुगमोति यावत्परिपूर्णः 'एवं बयासी-गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिआ! सिन्धुप'इत्यादिकः सिन्धुगम:-सिन्धुनदीनिष्कुटसाधन- २५५|| पाठो गङ्गाभिलापेन नेतन्यः यावद् गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटं-गङ्गायाः पश्चिमतो वहन्त्या सागरेण पूर्वतः|| परिक्षेपकारिणा गिरिभ्यां दक्षिणतो वैताम्येन उत्तरतो लघुहिमवता कृता या मर्यादा-व्यवस्था तया सह वर्त्तते यत्त-18
अनुक्रम [१०४]
JistilentineTAL
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६५ ]
दीप
अनुक्रम
[१०४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ६५ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Ebenist
तथा, अन्यत्सर्वं प्राग्वत् सूत्रतो व्याख्यातश्च गङ्गागमेन परिभावनीयं, अथ नाव्यमालदेवस्य वशीकरणप्रयोजनमाह'तए ण'मित्यादि, ततो गङ्गानिष्कुटसाधनानन्तरं स भरतः सुषेणं सेनापतिरत्नं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदित्यादिकं अत्र गुहाकपाटोद्घाटनाज्ञापनादिकं एकोनपञ्चाशन्मण्डला लेखनान्तं सर्वं तमिस्रागुहायामिव ज्ञेयं, अत्र यो विशेषस्तन्निरूपणार्थमाह-- 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याः - खण्डप्रपातगुहायाः बहुमध्यदेशभागे यावत्पदात् 'एत्थ ण'मिति पदमात्रमवसेयं, उन्मनजलानिमग्नजले नाना द्वे महानद्यौ स्तः, तथैव - तमिस्रा गुहागतोन्मग्नानिमग्नानदीगमेन ज्ञातव्ये, नवरं खण्डप्रपातगुहायाः पाश्चात्यकटकात् प्रन्यूढे सत्यौ पूर्वेण गङ्गां महानदीं समामुतः प्रविशतः, | शेषं विस्तारायामोद्वेधान्तरादिकं तथैव तमिस्रागतनदीद्वयप्रकारेणावसेयं, नवरं गङ्गायाः पाश्चात्यकूले संक्रमवतव्यतासेतुकरणाज्ञादानतद्विधानोत्तरणादिकं ज्ञेयं तथैव-प्राग्वद् ज्ञेयमिति, अथैतस्मिन्नवरे दक्षिणतो यजातं तदाह-'तर ण' मित्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थं, अथोद्घाटितयोर्गुहादक्षिणद्वारकपाटयोः प्रयोजनमाह - 'तर णमित्यादि, ततःकपाटोद्घाटनानन्तरं स भरतो राज्ञा चक्ररत्नदेशितमार्गः यावत्करणात् 'अणेगरायवर सहस्साणुआयमग्गे महया | किसी हणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअपिव करेमाणे' इति पदानां परिग्रहः, खण्डप्रपातगुहातो दक्षिणद्वारेण निरेति शशीव मेहान्धकारनिवहात्, प्राग्व्याख्यातं ननु चक्रिणां तमिस्रया प्रवेशः खण्डप्रपातया निर्गमः किंकारणिकः १, खण्डप्रपात्तया प्रवेशस्त मिस्रया निर्गमोऽस्तु, प्रवेशनिर्गमरूपस्य कार्यस्योभयत्र तुल्यत्वात् उच्यते,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
३वक्षस्कारे गङ्गाकूले |निधिमाप्तिः पश्चिमसाधनं विनीतागमश्च
[६५]
दीप
श्रीजम्बू-18|तमिस्रया प्रवेशे खण्डप्रपातानिर्गमे च सृष्टिः, तया च क्रियमाणस्य तस्य प्रशस्तोदकत्वात्, अन्यच्च खण्डप्रपातया
द्वीपशा-1 प्रवेशे आसन्नोपस्थीयमान ऋषभकूटे चतुर्दिकपर्यन्तसाधनमन्तरेण नामन्यासोऽपि न स्यादिति ॥ अथ दक्षिणभरता - न्तिचन्द्रीया चितगतो भरतो यच्चके तदाह॥२५६॥
तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पञ्चस्थिमिले कूले दुवालसजोअणायाम णवजोअविच्छिणं जाब विजयखंधावारणिवेसं करेइ, अवसिह तं चेव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभवं पगिण्हह, नए णं से भरहे राया पोसहसालाए जाव णिहिरवणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइत्ति, तस्स व अपरिमिअरत्तरयणा धुमक्खयमन्बया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुअजसा, तंजहा-"नेसप्पे १ पंडुअए २ पिंगलए २ सब्बरयण ४ महपउमे ५। काले ६ अ महाकाले ७ माणवगे महानिही ८ संखे ९॥१॥णेसप्पंमि णिवेसा गामागरणगरपट्टणाणं च । दोणमुहमडवाणं खंधावारावणगिहाणं ।। १॥ गणिअस्स य उप्पत्ती माणुम्माणस्स जं पमाणं च । घण्णस्स य बीआण य उप्पत्ती पंहुए भणिआ ॥२॥ सव्वा आभरणविही पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं | आसाण य हत्यीण व पिंगलगणिहिमि सा भणिआ ॥ ३॥ रयणाई सव्वरयणे चउदसवि वराई चक्कवहिस्स । उपजते एगिदिआई पंचिंदिआई च ॥४॥ वत्याण व उप्पत्ती णिप्फची चेव सबभत्तीणं । रंगाण य घोबाण य सव्वाएसा महापउमे ॥५॥ काले कालण्णाणं सब्बपुराणं च तिसुवि वसेसु । सिप्पसयं कम्माणि म तिणि पवाए हिअकराणि ॥६॥ लोहस्स व उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमुत्तसिळप्पवालाणं ॥ ७॥ जोहाण य उत्पत्ती
अनुक्रम [१०४]
एकसय
॥२५६॥
भरतस्य दक्षिनार्धभरते दिग्विजय-अर्थे गमनं, नव-निधय: प्राप्ति: वर्ण्यते
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[६६]
गाथा:
दीप
अनुक्रम [१०५
-१२०]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [६६] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
आवरणाणं च पहरणाणं च सव्वा य जुद्धणीई माणवगे दंडणीई अ ॥ ८॥ ट्टविही गाढगविद्दी कव्वस्स य चव्विहस्स उत्पत्ती । संखे महाणिहिंमी डिभंगाणं च सव्वेसिं ॥ ९ ॥ चकटुपट्टाणा अस्सेहा व जव य विक्खंभा । बारसदीहा मंजूससंठिआ जहवी मुद्दे ॥ १० ॥ वेरुलिअमणिकवाडा कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा । ससिसूरचक लक्खर्ण अणुसमवयणोववती या ॥ ११ ॥ पलिओवमईआ णिहिसरिणामा य तत्थ खलु देवा । जेसिं ते आवासा अकिज्जा आहिबया य ॥ १२ ॥ एए गव हिरयणा पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमुपगच्छति भरहाविवचवावीणं ॥ १३ ॥ वप णं से भरदे राया अमभत्तंसि परिणममाणंसि पो सहसालाओ पडिणिक्खमइ, एवं मनणपरपवेसो जाब सेणिपसेणिसद्दावणया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ, तप णं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिआए महामहिमाए णिब्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेणाबद्दरयणं सदावेइ २ ता एवं वयासीगणं भो देवाप्पि ! गंगामहाणईए पुरथिमि णिक्कुढं दुबंपि सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि २ चा एञमाणत्तिअं पञ्चप्पिणाहित्ति । तए णं से सुसेणे तं चैव पुव्ववण्णिअं भाणिअन्वं जाव ओअवित्ता तमाणत्तिअं पचप्पिणइ पडिविसज्जेइ जाव भोगभोगाई मुंजमाणे विहरह। तए णं से दिव्वे चक्करयणे अन्नया कयाइ 'उरसालाओ पडिणिक्खमइ २ चा अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअ जाव आपूरते चैव विजयक्खंधावारणिवेसं मज्जयंमज्झेणं णिग्गच्छ दाहिणपञ्चत्थिमं दिसिं विगीअं रायहाणि अभिमुद्दे पयाए आदि होत्या । तए णं से भर राया जाब पासइ २ त्ता हट्ठतु जाव कोटुंबिजपुरिसे सहावेइ २ चा एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाशुप्पि ! आमिसके जाब पथप्पिति (सूत्रं ६६ )
Fu Frale & Pinunate Cy
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www.jimryu
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६६ ]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१०५
-१२०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ६६ ] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥२५७॥
'तरण' मिलादि, ततो- गुहानिर्गमानन्तरं स भरतो राजा गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले द्वादशयोजनायामं नवयोजन विस्तीर्णं यावत्पदात् 'वरणगरसरिच्छं' इति ग्राह्यं, विजयस्कन्धावारनिवेशं करोति, अवशिष्टं वर्द्धकिरनशब्दाज्ञापनादिकं तदेव - यन्मागधदेवसाधनावसरे उक्तमिति, यावच्छब्दात्पौषधशालादर्भसंस्तार कसंस्तरणादि ज्ञेयं, निधिरलानामष्टमभक्तं प्रगृह्णाति, ततः स भरतो राजा पौषधशालायां यावत्पदात् 'पोसहि' इत्यादिकं 'एगे अबीए' इत्यन्तं पदकदम्बकं ग्राह्यं, निधिरत्नानि मनसि कुर्वन् २ तिष्ठति, इत्थमनुतिष्ठतस्तस्य किं जातमित्याह — 'तस्य य' इत्यादि, तस्य भरतस्य चशब्दोऽर्थान्तरारम्भे नव निधयः उपागता-उपस्थिता इत्यन्वयः, किंभूताः ? - अपरिमितानि | रक्तानि उपलक्षणादनेकवर्णानि रत्नानि येषु ते तथा, इदं च विशेषणं तन्मतापेक्षया बोध्यं यन्मते निधिष्वनन्तरमेव वक्ष्यमाणाः पदार्थाः साक्षादेवोत्पद्यन्ते इति, अयमर्थः एकेषां मते नवसु निधिषु कल्पपुस्तकानि शाश्वतानि सन्ति, तेषु च विश्वस्थितिराख्यायते, केषांचित्तु मते कल्पपुस्तकप्रतिपाद्याः अर्थाः साक्षादेव तत्रोत्पद्यन्ते इति, एनयोरपर| मतापेक्षया अपरिमिए इत्यादि विशेषणमिति, तथा ध्रुवास्तथाविधपुस्तक वैशिष्ट्यरूपस्वरूपस्यापरिहाणेः अक्षयाः अवयविद्रव्यस्यापरिहाणेः अव्ययास्तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः, अत्र प्रदेशापरिहाणियुक्तिः समयसंवादिनी पद्मवरवेदिका| व्याख्यासमये निरूपितेति ततोऽवसेया, अत्र पदद्वये मकारोऽलाक्षणिकः, ततः पदत्रयकर्मधारयः, सदेवा अधि| छायकदेवकृतसान्निध्या इति भावः लोकोपचयङ्कराः, अत्र नवा खितकृदन्ते 'रात्रे' (श्रीसि० अ० ६ पा० ४ सू० ११० )
For Prue&P Cy
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३वक्षस्कारे गङ्गाकूले निधिप्रा तिः पश्चिम साधनं वि नीतागमश्र सू. ६६
॥२५७॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
रिति सूत्रे योगविभागेन व्याख्याने तीर्थकरादिशब्दवत् साधुत्वं ज्ञेयं, यद्वा 'देवनागसुवण्णकिंनरगणस्सम्भूअ-18 भावच्चिए' इत्यादिवदार्पवादनुस्वारे लोकोपचयकरा:-वृत्तिकल्पककल्पपुस्तकप्रतिपादनेन लोकानां पुष्टिकारकाः लोकश विख्यातयशस्का इति, अथ नामतस्तानुपदर्शयति-तद्यथेत्युपदर्शने नैसर्पस्य देवविशेषस्थायं नैसर्पः, एवमग्रेऽपि भाव्यं, अथ यत्र निधौ यदाख्यायते तदाह-सप्पमित्यादि, नैसर्पनामनि निधी निवेशा:-स्थापनानि स्थापनवि-10
यो मामादीनां गृहपर्यन्तानां व्याख्यायन्ते, तत्र ग्रामो-वृत्त्यावृतः आकरो-यत्र लवणाद्युत्पद्यते नगरं-राजधानी पत्तनं-रत्नयोनिद्रोणमुख-जलस्थल निर्गमप्रवेशं मडम्ब-अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तोमरहितं स्कन्धावार:-कटकं आपणोहट्टः, गृह-भवनं उपलक्षणात् खेटकर्बटादिग्रहः १ ॥ अथ द्वितीयनिधानवक्तव्यतामाह-गणिअस्स'इत्यादि, गणितस्य-सण्याप्रधानतया व्यवहर्त्तव्यस्य दीनारादेः नालिकेरादेवो चशब्दात् परिच्छेद्यधनस्य मौक्तिकादेरुत्पत्ति| प्रकारः तथा मान-सेतिकादि तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, तथा उन्मानं-तुलाकर्षादि तद्विषय | यत्तदप्युन्मानं खण्डगुडादि धरिमजातीयं धनमित्यर्थः, ततः समाहारद्वन्द्वस्तस्य च यत्प्रमाणं लिङ्गविपरिणामेन तत्पा-18 | ण्डुके भणितमिति सम्बन्धः, धान्यस्य-शाल्यादेवीजानां च-वापयोग्यधान्यानामुत्पत्तिः पाण्डुके निधौ भणिता २॥
अथ तृतीयनिधिस्वरूपं निरूप्यते-'सबा आभरण'इत्यादि, सर्व आभरणविधिर्यः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथा-19 | श्वानां हस्तिनां च स यथौचित्येन पिङ्गालकनिधौ भणितः लिङ्गविपरिणामः प्राकृतौलीभवः ॥ अथ चतुर्थनिधिः
3900908690995030050000000
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६६]
गाथा:
श्रीजम्बू- 'रयणाई इत्यादि, रक्षानि चतुर्दशापि वराणि चक्रवर्तिनश्चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि च सप्त पञ्चेन्द्रि- श्वक्षस्कारे
याणि सर्वरत्नाख्ये महानिधावुत्पद्यन्ते, तदुत्पत्तिः तत्र व्यावयेत इत्यर्थः, अन्ये वेवमाहुः-उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् गङ्गाकूले न्तिचन्द्री- स्फातिमद्भवन्तीत्यर्थः ४ ॥ अथ पञ्चमो निधिः-'वत्थाण यइत्यादि, सर्वेषां वस्त्राणां च या उत्पत्तिस्तथा सर्वविभ- या वृचिः
ना
ति: पश्चिमकीनां-वस्त्रगतसर्वरचनानां रङ्गानां च-मञ्जिष्ठाकृमिरागकुसुम्भादीनां 'धोबाण यत्ति सर्वेषां प्रक्षालनविधीनां च या
18 साधनं वि॥२५८|| | निष्पत्तिः सर्वा एषा महापद्मनिधौ ५॥ अथ षष्ठो निधिः-काले कालण्णाण'मित्यादि, कालनामनि निधी काल-11 नीतागमश्च
ज्ञान-सकलज्योतिःशास्त्रानुवन्धि ज्ञान तथा जगति वयो वंशाः वंशः प्रवाहः आवलिका इत्येकार्थाः, तद्यथा-तीर्थ
करवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्च तेषु त्रिष्वपि वंशेषु यद्भाव्यं यच्च पुराणमतीतमुपलक्षणमेतद्वर्तमानं शुभा-18 ISM शुभ तत्सर्वमत्रास्ति, इतो महानिधितो ज्ञायत इत्यर्थः, शिल्पशत-विज्ञानशतं घटलोहचित्रवखनापितशिल्पानां पञ्चा
नामपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात् कर्माणि च-कृषिवाणिज्यादीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि त्रीण्येतानि प्रजाया Is हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वात् एतत्सर्वमत्राभिधीयते ६॥ अथ सप्तमो निधिः-'लोहस्स य'इत्यादि, लोहस्य च नानाविधस्योत्पत्तिर्भवति महाकाले निधौ, तत्र तदुत्पत्तिराख्यायते इत्यर्थः, तथा रूप्यस्य सुवर्णस्य च मणीनां-81
॥२५८॥ रचन्द्रकान्तादीनां मुकानां-मुक्ताफलानां शिलानां-स्फाटिकादीनां प्रवालानां च सम्बन्धिनां आकराणामुत्पत्तिर्भवति,18
महाकाले निधाविति योगः॥७॥ अथाष्टम:-'जोहाण यहत्यादि, योधानां-सूरपुरुषाणां चशब्दात, कातराणा-18
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], -------------------------------------------------------- मूल [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
| मुत्पत्तिरभिधीयते, यथा योधत्वं कातरत्वं च जायते तथाऽत्राभिधीयते इत्यर्थः, तथा आवरणानां च-खेट-18 | कानां सन्नाहाना वा प्रहरणानां-अस्यादीनां च सर्वा च युद्धनीति:--व्यूहरचनादिलक्षणा सर्वापि च दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिः-सामादिश्चतुर्विधा माणवकनाम्नि निधावभिधीयते, ततः प्रवर्तत इति भावः ॥ अथ नवमः'णट्टविही णाडगविहीं'इत्यादि, सर्वोऽपि नृत्यविधिः-नाव्यकरणप्रकारः सर्वोऽपि च नाटकविधिः-अभिनेयप्रबन्ध-18 | प्रपञ्चनप्रकारः तथा चतुर्विधस्य काव्यस्य ग्रन्थस्य-धाश्र्थश्कामश्मोक्ष४लक्षणपुरुषानिबद्धस्याथवा संस्कृत १-18 प्राकृता २ पभ्रंश ३ संकीर्ण ४ भाषानिबद्धस्य गद्य १ प २ गेय ३ चौर्ण ४ पदवद्धस्य वा उत्पत्ति:निष्पत्तिस्तद्विधिः, तत्राद्यं काव्यचतुष्कं प्रतीतं, द्वितीयचतुष्के संस्कृतप्राकृते सुबोधे अपभ्रंश:-तत्तद्देशेषु शुद्ध भाषितं । | सङ्कीर्णभाषा-शौरसेन्यादिः, तृतीयचतुष्के गद्य-अच्छन्दोबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत् पर्व-छन्दोबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत् गेयं-गन्धा रीत्या बद्धं गानयोग्यं चौर्ण-बाहुलकविधिवहलं गमपाठबहुलं निपातबहुल निपाताव्ययबहलं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवत् , अत्र चेतरयोर्गद्यपद्यान्तर्भावेऽपि यत्पृधगुपादानं तद्गानधर्माधेयधर्मविशिष्टतया विशेषणविवक्षणार्थ, शंखे महानिधी, तथा त्रुटिताङ्गानां च-तूर्याङ्गाणां सर्वेषां वा तथातथावाद्यभेदभिन्नानामुत्पत्तिः शङ्ख महानिधा
विति ९॥ अथ नवानामपि निधीनां साधारणं स्वरूपमाह-'चकट्ट'इत्यादि, प्रत्येकमष्टसु चक्रेषु प्रतिष्ठान-अवस्थान || शियेषां ते तथा, यत्र यत्र वाह्यन्ते तत्र तत्राष्टचक्रप्रतिष्ठिता एव वहन्ति, प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य परनिपातः, अष्टौ योज
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
।
Sanileon
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], --------------------------------------------------------- मूलं [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६६]
गाथा:
श्रीजम्यू- नानि उत्सेधा-पुच्चस्त्वं वे ते तथा, नव च योजनानीति गम्यते विष्कम्भेन-विस्तारेण नवयोजन विस्तारा इल द्वीपशा- दादशयोजनदीर्घा मंजूषावत्संस्थिताः, जाहन्या-गङ्गाका मुखे यत्र समुद्रं गतां प्रविशति तत्र सन्सीत्वः, 'इत्तूपुले। न्तिचन्द्री- वयं महामुखमागधवासिनः । अागतास्त्वां महाभाग!, त्वद्भाग्येन वशीकृताः ॥१॥” इति विषष्टीवचरिकोके या वृत्तिः
वल्पत्तिकालेच भरतविजयानन्तरं चक्रिणा सह पातालमार्गेण भाग्यवत्पुरुषाणां हि पदाधास्थितयो निधय इति | साधनं वि. ॥२५९॥ चकिपुस्मनुयास्ति, तथा बैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मयट्प्रत्ययस्व वृस्या उतार्थता, कनकमया-सौक-1|| नीतागमश्च
ः विविधस्तपतिपूर्णाः शशिसूरचक्राकाराणि लक्षयानि-चिहानि येषां ते तथा, प्रथमावहुवचनलोपः प्राकृलत्वात्।। का अनुरूपा समा-अविषमा वदनोपपत्तिः-द्वारघटना येषां ते तथा, पल्योपमस्थितिका निधिसहनामानः सल, नत्रच
निधिषु ते देवा येषां देवाना त एव निधयः आवासा:-आश्रयाः, किंभूता:-अक्रेया-अक्रवणीयाः, किमर्थमित्वाइ-19 |आधिपत्याय-आधिपत्य निमित्तं, कोऽर्थः-तेषामाधिपत्यार्थी कश्चित्क्रयेण-मूल्यदानादिरूपेण तान् न लभते इति, किन्तु पूर्वसुचरितमहिनैवेत्यर्थः, एते नव विधयः प्रभूतधनरलसंचयसमृद्धाः ये भरताधिपाना-पखण्डभरतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्तिनां वशमुपगच्छन्ति-वश्यतां यान्ति, एतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽप्येतद्विशेषणव्युदासः, निधिपकरणे
॥२५॥ चात्र स्थानाङ्गप्रवचनसारोद्धारादिवृत्तिगतानि बहूनि पाठान्तराणि ग्रन्थविस्तरभयादुपेक्ष्यैतत्सूत्रादर्शदृष्ट व पाठो व्याख्यातः। अथ सिद्धनिधानो भरतो यचके तदाह-तए समित्यादि खतं, अथ षट् खण्डदत्तदृष्टिभरतो यथो
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------ --------------------------------- मलं [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
सत्सहते तथाऽऽह-तएण'मित्यादि, इदमपि प्रायो व्यक, नवरं गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटमित्युक्ते उदीचीनमपि। स्यादिति द्वितीयमित्युक्तं, अवशिष्टे न अस्मैव प्राप्तावसरत्वात् , मजायाः पश्चिमतो वहन्त्याः सागराभ्यां-याच्यापाच्याभ्यां गिरिणा-वैतादयेनोत्तरवर्तिना कृता या मर्यादा-क्षेत्रविभागस्तया सह वर्तते यत्तत्तथा, अथ सुषेणो यचके |
तदाह-सए 'मित्यादि, तत:-स्वाम्बाज्ञप्त्यनन्तरं सुषेणस्तं निष्कुटं साधयतीत्यादि, तदेव पूर्ववर्णितं-दाक्षिणात्यIS सिन्युनिष्कुटवर्णितं भणितव्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावन्निएकुटं साधयित्वा तामाज्ञविका प्रत्यर्पयति, प्रतिविसृष्टो
यावद भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति ॥ अथ साधिताखण्डपखण्डे भरते सति बचकमुपचक्रमे तदाहतप 'मित्यादि, ततो-मङ्गादक्षिणनिफुटविजयानन्तरं तद् दिव्यं चक्रर अन्यदा कदाचिदायुधगृहात् प्रतिनि-RI कामति, विशेषणेकदेशा अमाशेषविशेषणस्वारणार्थ तेनान्तरिक्षप्रतिपच पक्षसहस्रर्सपरिवृत्तं दिव्यत्रुटिलसचिनादेनापूरकविकाम्परतलं विजयस्कम्धाचारविषेश मध्यमध्येन-विजयस्कन्धावारस्य मध्यभागेच निर्गच्छति, दक्षिणपश्चिमां दिसिं-ती विदिशं प्रति विनीता राजधानी क्षीकृत्वाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, अयं भावः-खण्डप्रपातगुहासनस्कन्धावारनिवेशाद् विनीता जिगमियो त्वभिमुखगमनं लापवायेति भावः, अथाभिविनीतं प्रस्थिते चक्रे भरतः चिके इलाह-तए पमित्यादि, स्ता-चक्रप्रस्थानादनन्तरं स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररत्नमित्यादि यावत्पश्यति ।
परतुष्टाविविशेषणः कौबुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया 1 आभिषेक्यं ६
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [3], ------------------------------------------------------ मुलं [६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
श्रीजम्बू
गाथा:
यावत्करणात् हस्तिरलं प्रतिकल्पयत सेना सन्नाहयत ते च सर्व कुर्वन्ति आज्ञा च प्रत्यर्पयन्ति ॥ अथोक्तमेवार्थ ३ वक्षस्कारे || दिग्विजयकालाधिकार्थविवक्षया विस्तरवाचनया चाह
भरतस्य न्तिचन्द्री
विनीतायां तए णं से भरहे राया अजिभरज्जो णिजिअसत्तू उप्पण्णसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णपणिहिबई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साया वृत्तिः
18 प्रवेशः . णुभावमगे सहीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं भरहं वासं ओयवे ओअवेचा कोडुंबियपुरिसे सद्दावेदर सा एवं स्वासी-खिप्पामेव
६७ ॥२६॥ भो देवाणुप्पिा ! आभिसेक हत्यिरयणं हयगयरह तहेव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई परवई दुरूढे । वए णं तस्स भरहस्स
रण्णो आभिसेक हस्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठहमंगलगा पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टिआ, तंजहा-सोत्विअसिरिव
छजाव दप्पणे, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्या य छत्तपडागा जाप संपविआ, तयणतरं च वेरुलिअमिसंतविमलदंडं जाव अहाणुपुबीए संपद्विरंतयणंतरं च णं सत्त एनिदिअरयणा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्धिा , तं०-चक्करयणे १ छत्त. रवणे २ चम्पारयणे ३ दंढरयणे ४ असिरवणे ५ मणिरयणे ६ कागणिरयणे , तयणतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओ अहाणुपुवीए संपडिआ, तंजहा-सप्पे पंडुयए जाब संखे, तयणतरं च णं सोलस देवसहस्सा पुरओ अहाणुपुष्वीए संपद्विआ, तयणतर चणं बत्तीसं रायवरसहस्सा अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तयणतरं च णं सेणावहरयणे पुरओ अहाणुपुठवीए संपट्टिए,एवं गाहावहरयणे
॥२६॥ बद्धहरयणे पुरोहिअरयणे, तयनंतरं च णं इत्थिरयणे पुरओ अहाणुपुत्वीए० तयणतरं च ण बत्तीसं उडुकल्लाणि सहस्सा पुरओ अहाणुपुष्पीए० तयणतरं च णं यत्तीसं जणवयकल्लाणिभासहस्सा पुरओ अहाणुपुब्बीए तयणतरं च णं बचीस बत्तीसइबद्धा णा
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[६]]
बगसहस्सा पुरओ अहाणुगुब्बीए. तयणतरं च णं तिष्णि सट्टा सूअसया पुरओ अहाणुपुवीए० तयणतरं च णं अट्ठारस सेणिप्पसेणीमो पुरओ० तथणतर चणं चउरासीई आससबसहस्सा पुरओ० तयणंतरं च णं चउरासीई हत्यिसयसहस्सा पुरजो भहाणुपुबीए. तयणतरं च ण छण्णउई मगुस्सकोडीओ पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तयणंतरं च बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पमिईओ पुरओ अहाणुपुब्बीइ संपडिआ तयणतरं च णं बहले असिग्माहा लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरगाहा पासग्गाहा फलगग्गाहा परसुग्गाहा पोत्थयग्गाहा वीणग्गाहा कूअग्गाहा हुड'फग्गाहा दीविअगाहा सएहिं सएदि रूवेडिं,एवं वेसेहिं विधेहि निओएहिं सएहिं २ वत्थेहिं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्विा , तयणंतर पणं बहवे इंडिणो मुंडिणो सिहडिणो जडिणो पिच्छिणो हासकारगा खेडकारगा दुवकारगा चाहुकारगा कंदपिआ कुकुहा मोहरिआ गायंता य दीवंता य (वार्यता) नचंता य इसंता य रमंवा य कीलंता य सासेंता य साता व जावेंता य रावेंदा य सौ ता य सोभावेंता य आलोअंता य जयजयसरं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुत्वीए संपविआ, एवं उववाइअगमेणं जाव तस्स रण्णो पुरमो महासा आसधरा उभओ पासिं णागा णागधरा पिढओ रहा रहसंगेही अहाणुपुवीए संपद्विआ इति । तए णं से भरहादिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इडीए पहिमकित्ती चक्करयणदेसिभमम्गे अणेगरायवरसहस्साणुभायमग्गे जाव समुश्वभूअंपिव करेमाणे २ सनिडीए सव्व. ज्जुईए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं गामागरणगरखेडकम्बदमडंच जाव जोअर्णतरिआर्हि वसहीहि वसमाणे २ जेणेव विणीआ रायहाणी तेणेव उवागाछइ उवागरिछत्ता विणीभाए गयहाणीए अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम णवजोयणविच्छिण्णं जाप संधावारणिवेसं करेइ २ चा बद्धहरयणं सदावेश २ ता जाव पोसहसालं अणुपविसइ २ चा विणीभाए रायहाणीए अट्ठमभत्तं पगिण्हा
दीप अनुक्रम [१२१]
COMPARAN
che chở Gạo
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
Casses
प्रत
न्तिचन्द्री-18 या वृचिः ॥२६१॥
श्वक्षस्कारे
भरतस्य | विनीतायां प्रवेशः मू. ६७
[६७]
२ चा जाव अहमभत्तं पडिजागरमाणे २ विहरइ । तए पं से भरहे सया अट्ठमभक्तसि परिणममाणसि पोसहसालाओ पडिषिक्वमइ २ चा कोर्चुचिअपुरिसे सदावेद २ ता तहेव जान अंजणगिरिकूडसमिभं गयवई परवई दूरूढे तं चेव सवं जहा वेडा णकार णव महाणिहिओ चत्तारि सेणाओ ण पविसंचि सेसो सो चेव गमो जाव जिग्घोसणाइपणं विणीआए रायाणीए मज्जामोणं जेणेव सए गिहे. जेणेव भवणवस्वडिसगपडिदुबारे वेणेव पहारेत्य गमणाए, लए गं तस्स भरहस्स रण्णो विषी रायवाणि मज्झमझेणं अणुपविसमाणस्स अप्पेगइआ देवा विणीअं रावहाणि सम्भंतरबाहिरिअं आसिअसम्मजिओवलितं करेंति अप्पेगइआ मंचाइमंचकलिअं करेंति, एवं सेससुवि परसु, अप्पेगइआ णाणाविहरागवसमुस्सियधयपडागामंडितभूमि अप्पेगा लाउल्लोइअमहिअं करेंति, अप्पेगइआ जाय गंधवटिभू करेंति, अप्पेगइआ हिरण्णवासं असिंति सुवण्णरवणक्दरआवरणवासं वासेंति, तए पं तस्स भरहस्स रणो विणीअं रायहाणि मझमझेणं अणुपविसमाणस्स सिंघाडम जाव महापहेसु बहवे अत्यत्थिआ कामस्थिआ भोगस्थिआ लाभत्थिा इद्धिसिआ किन्धिसिआ कारोडिा कास्त्राहिआ संखिया चकिमा मंगलिआ गृहमंगलिभा पूसमाणया बद्धमाणया लखमखमाइआ ताहि ओरालाहिं इवाहिं कताहिं पिशाहिं मणुनाहिं मणामाहिं सिवादि घण्याहिं मंगाहिं सस्सिरीआहिँ हिअयगमणिजाछि हिअवपल्हायणिज्नाहिं काहिं अणुवरवं अमिणदत्ता में अभिक्षुणता य एवं क्यासी-जय जय णया! जय जय भवा! भरं ते अजिअं जिणाहि जिअं पाळयाहि जिजमो क्साहि दो विक देवाण चंदो विव ताराणं चमसे बिव असुराण धरणे चित्र नागाणं बतूद पुक्सयसहस्साई बहूईओ पुब्बकोडीओ बने पुवकोटाकोडीओ विणीआए रायहाणीए पुणहिमवंतगिरिसागरमेरागस ब केवलकप्पस्स भरहस्स कासरस गामागरणगरखेडकच्चामडंबदोणशक्फ
दीप अनुक्रम [१२१]
Recene
-
२६१॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
I
प्रत
PAL
सत्रांक
[६]]
कृष्णासमसण्णिवेसेसु सम्म पयापालणोबज्जिालद्धजसे महया जाव आहेवचं पोरेवचं जाक विहराहित्तिक? जयजयसई पउंजंति, लए णं से भरहे राया गयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे२ क्यणमालासहस्सेहिं अमिथुब्बमाणे२ हिजयमालासहस्सेईि उष्णंदिजमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिापमाणे २ तिरूवसोहम्गगुणेहिं पिच्छिजमाणे २ अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २ दाहिणहत्येणं बहूर्ण णरणारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे २ भवणपंतीसहस्साई समइच्छमाणे २ तंतीतलतुडिअगीभवाइअरवेणं मधुरेणं मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे २ जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरवडिंसयदुवारे तेणेव उवागच्छइ रत्ता आभिसेक हस्थिरयणं ठयेइ २ ता अमिसेकाओ इत्थिरयणाओ पचोरुहइ २त्ता सोलस देवसहस्से सकारेइ सम्माणेइ २ चा बत्तीसं रायसहस्से सकारेइ सम्माणेइरत्ता सेणावइरयणं सकारेइ सम्माणेइरता एवं गाहावइरयणं वद्धहरयणं पुरोहियरयणं सकारेइ सम्माणेइ २ता तिणि सढे सूअसए सकारेइ सम्माणेइर का अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सक्कारेइ सम्माणेइ रत्ता अण्णेवि बहवे राईसर जाव सत्यवाहपमिईओ सकारेइ सम्माणेइ २ ता पडिविसज्जेइ, इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिासहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धेहिं णादवसहस्सेहिं सर्द्धि संपरिबुडे भवणवरष डिंसर्ग आइ जहा कुवेरो व देवराया कैलाससिहरिसिंगभूति, तए णं से भरहे राया मित्तणाइणिभगसयणसंबंधिपरिअणं पशुवेक्खा २ त्ता जेणेष मजणघरे तेणेव उवागकछइ २ चा जाच मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २त्ता भोअणभंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २त्ता उर्षि पासावरगए फुटमाणेहि मुइंगमस्थपहिं बत्तीसइबद्धेहिं णाडएहिं उचलालिजमाणे २ उवणचिजमाणे २ उवगिजमाणे २ महया जाव मुंजमाणे विहरत (सूत्रम् ६७)
दीप अनुक्रम [१२१]
see caceaeKEReacsease
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू
प्रत
सत्राक
[६७]
'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा अर्जितराज्यो-लब्धराज्यो निर्जितशत्रुरुत्पन्नसमस्तरत्नस्तत्रापि चकरलप्रधानो वक्षस्कारे द्वीपशा-12 नवनिधिपतिः समृद्धकोश:--सम्पन्नभाण्डागारः द्वात्रिंशद्राजवरसहौरनुयातमार्गः पट्या वर्षसहस्रैः केवलकल्प-परिपूर्ण 18|| भरतस्य
विनीतायां न्तिचन्द्री- भरतवर्ष साधयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमयादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! आभिषेक्यं. या वृत्तिः
प्रवेशः सू. IT'हत्थि'त्ति हस्तिवर्णकस्मारणं हयगयरह'त्ति सेनासन्नाहनस्मारणं तथैव पूर्ववत् स्नानविधिभूषण विधिसैन्योप-181 ॥२६२ स्थितिहस्तिरलोपागमनानि वाच्यानि, अञ्जनगिरिशृङ्गसदृशं गजपति नरंपतिरारूढवान् । अथ प्रस्थिते नरपती ||
के पुरतः के पृष्ठतः के पार्श्वतश्च प्रस्थितवन्त इत्याह-तए णमित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञः आभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सतः इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यथानुपूर्व्या-यथाक्रमं संपस्थितानि-चलितानि, तद्यथा-स्वस्तिकश्रीवत्सियावत्पदात् पूर्वोक्कमङ्गलकानि ग्राह्यानि, यद्यप्येकाधिकारप्रतिबद्धत्वेनाखण्डस्याधिकारसूत्रस्य लिखने युक्तिमत्तथापि IS सूत्रभूयिष्ठत्वेन वृत्तिर्दूरगता वाचयितणां सम्मोहाय स्यादिति प्रत्येकालापकं वृत्तिलिख्यते इति, 'तयणंतरं च णमित्यादि
तदनन्तरं च पूर्णजलभृतं 'कलशभृङ्गार'कलश:-प्रतीतः भृङ्गार:-कनकालुका ततः समाहारादेकवद्भावः, इदं च जलपूर्ण
वेन मूर्तिमद् ज्ञेयं, तेनालेख्यरूपाष्टमङ्गलान्तर्गतकलशादयं कलशो भिन्नः, दिव्येव दिव्या-प्रधाना चः समुच्चये स च ॥२६॥
व्यवहितसम्बन्धः छत्रविशिष्टा पताका च यावत्पदात् 'सचामरा दसणरइअ आलोअदरिसणिज्जा वाउडुअविजयवेजयंती ॥ अम्भुस्सिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए' इति ग्राह्य, अत्र व्याख्या-सचामरा-चामरयुक्ता दर्शने-प्रस्थातु
दीप अनुक्रम [१२१]
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Bee
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[६]]
दृष्टिपथे रचिता मङ्गल्यत्वात् अत एवालोके-बहिःप्रस्थानभाविनि शकुनानुकूल्यालोकने दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या, ततो | विशेषणसमासः,काऽसावित्याह-वातोडूता विजयसूचिका वैजयन्ती-पार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तः पताकाविशेषः प्राग्वत् । | उच्छ्रिता-उच्चा गगनतलमनुलिखन्ती अत्युच्चतया एते च कलशादयः पदार्थाः पुरतो यथानुपूळ संपस्थिता इति, 'तएण'मित्यादि, ततो वैडूर्यमयो भिसंत'त्ति दीप्यमानो विमलो दण्डो यस्मिंस्तत्तथा, यावत्पदात् पलम्ब कोरण्टमल्लदा-8 मोबसोहिअं चन्दमंडलनिभं समूसि विमलं मायवत्तं पवरं सिंहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउआजोगसमाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिअंति, अत्र व्याख्या-प्रलम्बेन कोरण्टाभिधानवृक्षस्य माल्यदाना-पुष्पमालयोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं समुच्छ्रितं-ऊध्वींकृतं विमलमातपत्र-छत्रं प्रवरं सिंहासनं १ च मणिरत्नमयं पादपीठ-पदासनं यस्मिंस्तत्तथा, स्वः-खकीयो राजसत्क इत्यर्थः पादुकायोगः-पादरक्षणयुगं तेन समायुक्तं, बहवः किरा:-प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः कर्मकरा:-ततोऽन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः पादात-18 | पदातिसमूहस्तैः परिक्षिप्त-सर्वतो वेष्टितं तैर्धतत्वादेव पुरतो यथानुपूर्ध्या संप्रस्थितं; 'तए ण'मित्यादि, ततः सप्त एके|न्द्रियरलानि पृथिवीपरिणामरूपाणि पुरतः संप्रस्थितानि, तद्यथा-चक्ररलादीनि प्रागभिहितस्वरूपाणि, चक्ररत्नस्य च
एकेन्द्रियरलाखण्डसूत्रपाठगदेवात्र भणनं, तस्य मार्गदर्शकत्वेन सर्वतः पुरः संचरणीयत्वाद्, अत्र च गत्यानन्तर्यस्य वक्तु| मुपक्रान्तत्वादिति, 'तयणंतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओं' इत्यादि, ततो नव महानिधयोऽयतः प्रस्थिताः पाता
दीप अनुक्रम [१२१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
प्रत
सत्रांक
[६७]
श्रीजम्बू-8 लमार्गेणेति गम्यं, अन्यथा तेषां निधिव्यवहार एव न सङ्गच्छते, तद्यथा-नैसर्पः पाण्डुको यावच्छ सर्व प्रावत, वक्षस्कारे
उक्ता स्थावराणां पुरतो गतिः किङ्करजनधृतत्वेन दिव्यानुभावेन का, जथ जनमाना गतेरवसर इति 'तपणेतरण भरतस्य न्तिचन्द्री
सोलस देव' इत्यादि, ततः षोडश देवसहस्राः पुरतो यथामुपूर्वा समस्थिता।, 'तयणतरचणं बत्तीस'मित्यादि,म्यक्तया वृत्तिः 'तए प'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं पुरोहितर-शान्तिकर्मकृत्, रणे प्रहारादिलानो मणिरमजलच्छटया वेदनोपशामक,
प्रवेशः सू. ॥२६३॥ हस्त्यश्वरलगमनं तु हस्त्यश्वसेनया सहैव विवश्यते तेन मात्र कथनं, 'तए 'मित्यादि, ततो द्वात्रिंशत् ऋतुकल्या
णिका-ऋषु षट्स्वपि कल्याणिका:-ऋतुविपरीतस्पर्शत्वेन सुखस्पर्शाः अथवाऽमृतकम्यात्वेन सदा कल्याणकारिण्यः न तु चन्द्रगुप्तसहायपर्वतभूपतिपाणिगृहीतमात्रप्राणहारिनन्दनृपनन्दिनीष द्विषकन्यारूपास्तासां सहनाः पुरतः प्रस्थि-18 ताः, समर्थविशेषणाद्विशेष्यं लभ्यते इति लक्षणगुणयोगाद्राजकन्या अन ज्ञेयास्तासामेव जन्मान्तरोपचितप्रकृष्टपुण्यप्रकृतिमहिना राजकुलोत्पत्तिवद् यथोक्कलक्षणगुणसम्भवात् जनपदामणीकन्यानामतनसूत्रेणाभिधानाच तास सहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्या-यथाज्येष्ठलघुपर्याय संपस्थिताः, तथा द्वात्रिंशत् 'जणक्य'त्ति जनपदामणीनो देशमु-18 ख्यानां कल्याणिकानां सहस्राः अग्रे तथैव, अत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराज्जनपदग्रहणेन जनपदापण्यो ज्ञेया:,
॥२६३॥ 18न चैवं स्वमतिकल्पितमिति वाच्यं, 'तावतीभिर्जनपदाग्रणीकन्याभिरावृतः' इति श्रीऋषभचरित्रे साम्मत्यदर्शनात् ,
तदनन्तरं द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशता पात्रः-अभिनेतव्यप्रकारैर्बद्धाः-संयुक्ता नाटकसहस्राः पुरतो यथानुपूर्ध्या
दीप अनुक्रम [१२१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[६]]
प्रथम प्रथमोढापितृप्राभृतीकृतनाटकं ततस्तदनन्तरोढानाटकमिति क्रमेण सम्पस्थिताः, एतेषां चोक्तसङ्गयाकता द्वात्रिं॥ शता राजवरसहनः स्वस्वकन्यापाणिग्रहणकारणे प्रत्येक करमोचनसमयसमापितकैकनाटकसद्भावात्, 'तयणंतरं च । Sणं तिणि सहा सूयसया' इत्यादि ततः त्रीणि सूपानां पूर्ववदुपचारात् सूपकाराणां शतानि षष्टानि-षष्टयधिकानि वर्ष-1 | दिवसेषु प्रत्येकमेकैकस्य रसवतीवारकदानात् , ततः कुम्भकाराद्या अष्टादश श्रेणयः तदवान्तरभेदाः प्रश्रेणयः ततः चतुर
शीतिरश्वशतसहस्राः ततश्चतुरशीतिहस्तिशतसहस्राः ततः पण्णवतिर्मनुष्याणां पदातीनां कोव्यः पुरतः प्रस्थिताः IST'तयणंतरं च ण'मित्यादि, ततो बहवो राजेश्वरतलवराः यावत्पदात् माइंघिअकोढुंबिय इत्यादिपरिग्रहः सार्थवाह
प्रभृतयः पुरतः सम्पस्थिताः अर्थः प्राग्वत्, 'तयणतरं च णमित्यादि, ततो बहवोऽसि:-खङ्गः स एव यष्टि:-दण्डोड-18 | सियष्टिस्ताहातग्राहिणः अधया असिश्च यष्टिश्वेति द्वन्द्वे तग्राहिण इति, एवमग्रेऽपि यथासम्भवमक्षरयोजना || कार्या, नवरं कुन्ताश्चामराणि च प्रतीतानि पाशा-तोपकरणानि उत्रस्तावादिबन्धनानि वा फलकानि- सम्पुटकफलकानि खेटकानि वा अवष्टम्भानि वा तोपकरणानि वा पुस्तकानि-शुभाशुभपरिज्ञानहेतुशास्खपत्रसमुदायरूपाणि || | वीणाग्राहा व्यक्तं, कुतपः-तैलादिभाजनं, हडफो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थे पूगफलादिभाजनं वा, पीढग्गाहा दीवि
अग्गाहा इति पदद्वयं सूत्रे रश्यमानमपि संग्रहगाथायामदृष्टत्वेन न लिखित, तव्याख्यानं स्वेवं-पीठ-आसन-11 | विशेषः दीपिका च प्रतीतेति, स्वकैः२-स्वकीयैः २ रूपैः-आकारैः एवं स्वकीयैः २ इत्यर्थः वषैः-वस्त्रालङ्काररूपैः चिहै:
అహరించింది
दीप अनुक्रम [१२१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
प्रत
सत्राक
या वृत्तिः
[६७]]
॥२६४॥
Recemercenterceleseseseseel
अभिज्ञानः नियोगः-व्यापारः स्वकीयैर्नेपथ्यैः-आभरणैः सहिता इति, अबद्धसूत्रे च पदानि न्यूनाधिकान्यपि लिपि-18३वक्षस्कारे प्रमादात् सम्भवेयुरिति तन्नियमार्थ संग्रहगाथा सूत्रबद्धा क्वचिदादर्श दृश्यते, यथा “असिलडिकुंतचावे चामरपासे || भरतस्य अ फलगपोत्थे अ। वीणाकूचग्गाहे तत्तो य हडप्फगाहे अ॥१॥" 'तय ण'मित्यादि, ततो बहवो दण्डिनो
विनीतायां दण्डधारिणः मुण्डिन:-अपनीतशिरोजाः शिखण्डिनः-शिखाधारिणः जटिनो-जटाधारिणः पिच्छिनो-मयूरादिपि-1॥
प्रवेशः सू.
६७ |च्छवाहिनः हास्यकारका इति व्यकं खेडु-द्यूतविशेषस्तत्कारकाः द्रवकारकाः-केलिकराः चाटुकारका:-प्रियवादिनः ।। कान्दपिका:-कामप्रधानकेलिकारिणः कुक्कुइआ इति-कौत्कुच्चकारिणो भाण्डाः, मोहरिआ इति-मुखरा वाचाला असम्बद्धप्रलापिन इति यावत् , गायन्तश्च गेयानि वादयन्तश्च वादित्राणि नृत्यन्तश्च हसन्तश्च रममाणाश्च अक्षा-18 दिभिः क्रीडयन्तश्च कामक्रीडया शासयन्तश्च-परेषां गानादीनि शिक्षयन्तः श्रावयन्तश्च-इदं चेदं च परुत् परारि भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रवणविषयीकारयन्तः जल्पन्तश्च-शुभवाक्यानि रावयन्तश्च शब्दान् कारयन्तः स्वजल्पितान्यनुवादयन्त इत्यर्थः शोभमानाच-स्वयं शोभयन्तः परान् आलोकमानाश्च-राजराजस्थावलोकनं कुर्वन्तः जयज
शब्दं च प्रयुञ्जानाः पुरतो यथानुपूर्व्या पूर्वोक्तपाठक्रमेण सम्पस्थिताः, इह गमे क्वचिदाद” न्यूनाधिकान्यपि पदानि ॥२६॥ दृश्यन्ते इति, एवमुक्तक्रमेण औपपातिकगमेन-प्रथमोपाङ्गगतपाठेन तावद् वक्तव्यं यावत्तस्य राज्ञः पुरतो महाश्वाःबृहत्तुरङ्गाः अश्वधरा-अश्वधारकपुरुषाश्च उभयतो-भरतोपवाह्यगजरत्नस्य द्वयोः पाईयो गा-गजा नागधरा-गज-19
दीप अनुक्रम [१२१]
992989000000000002
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Page #184
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
eeeee
सत्रांक
[६]]
|| धारकपुरुषाश्च, पृष्ठतो रथाः रथसङ्गेली-रथसमुदायः, देश्योऽयं शब्दः, चः समुच्चये, आनुपूर्ध्या सम्पस्थिताः, अत्र || यावत्पदसंग्रहश्चायं-सवर्णकसेनाङ्गानि, तत्राश्या:-'तयणतरं च णं तरमलिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिI अललिअलिअचलचवलचंचलगईर्ण लंघणवग्गणधावणधोरणतिवइजइणसिक्खियगईणं ललंतलामंगललायवरभूसणार्ण Tell मुहभंडगओचूलगथासगअहिलाणचामरगण्ड परिमण्डिअकडीणं किंकरवरतरुणपरिग्गहिआ अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरओ
अहाणुपुषिए संपडिति तदनन्तरं 'तरमलिहायणाण'ति तरो-वेगो बलं वा तथा 'मल्ल मलि धारणे' ततश्च तरोमल्ली
तरोधारको वेगादिकृत् हायन:-संवत्सरो वर्चते येषां ते तथा यौवनवन्त इत्यर्थः, अतस्तेषां वरतुरङ्गाणामिति योगः, IS 18 वरमलिभासणाणं'ति कचित्पाठः तत्र प्रधानमाल्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्धः, हरिमेला-बनस्पतिविशेषस्तस्या 8 मुकुल-कुड्मलं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां तथा तेषां ते शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, 'चंचुचिय'ति प्राकृतत्वेन |
चंचुरितं-कुटिलगमनं अथवा चंचुः-शुकचंचुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः उच्चित-उच्चिताकरणं पादस्योत्पाटनं चंचुचितं च ॥ तच्चलितं च-विलासवद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एव एवंरूपा चलो-वायुराशुगत्यात् तद्वचपलचञ्चला-181
अतीव चपला गतिर्येषां ते तथा तेषा, शिक्षित-अभ्यस्तं लंघन-ग देरतिक्रमण बलान-उत्कूईनं धावन-शीघ्रगमनं । || धोरणं-तिचातुर्य तथा त्रिपदी-भूमौ पदत्रयन्यासः पदत्रयस्योन्नमनं वा जयिनी-गत्यन्तरजयनशीला गतिश्च येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, ललन्ति-दोलायमानानि लामत्ति-भापत्वादू रम्याणि गललातानि-कण्ठे ||
दीप अनुक्रम [१२१]
श्रीजम्न, ४५
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
61
प्रत
सत्राक
[६७]
श्रीजम्यू-ग्यतालिका
ग्यस्तानि वरभूषणाणिवेषां ते तथा तेषा, तथा मुखमाण्डफ-मुखाभरणे भरपूजा-प्रलम्बगुच्छाः स्वासका-रणा- श्वक्षस्कारे द्वीपशा- कारा अग्वालङ्काराः अहिलाण-गुरुसंयमनं एसाम्येषां सन्तीति मुखभाण्डकाक्लस्वासकाहिलाणाः मत्वर्थीयलोपदर्श-18| भरतस्य न्तिचन्द्री
नादेवं प्रयोगः, तथा चमरीगण्डैः-चामरदण्डैः परिमण्डिता कटियेषां ते त्या ततः कर्मधारयस्तेषां, किङ्करभूता विनाताया या वृत्तिः वरतरुणा-परयुवपुरुषास्तैः परिगृहीतानां दवरकितानामित्यर्थः, अष्टोत्तरशतं मरतुरगाणां पुरतो यथाना सम्भ-13
॥ प्रवेशास. ॥२६॥ | खितं । अथेभा:-'तयणतरं चणे ईसिदंताणं इसिमत्तार्ण इसितुंगार्ण इसिपलंगडायविसालधवलदैताणे कंचणको
सीपविद्वदन्ताणं कंचणमणिरयणभूसिआणं पैरपुरिसांरोहगसंपउत्ताणं गयाणे अट्टसर्व पुरओं अहाणुपुबीए संपत्थिति
पहान्तानां-मनाग्माहितशिक्षाणां गजानामिति योगः ईषन्मत्तानो यौवनारम्भवत्तिस्वात् ईपत्तहानी-शानां तम्मा. A देव उच्छङ्ग इवोत्सङ्ग:-पृष्ठदेशः ईषदुत्सङ्गे उन्नता विशालाश्च यौवनारम्भंवर्तित्वादेव तेच ते धवलदस्तावेति समा-18
सोऽतस्तेषां, काशनकोशी-सुवर्णखोला तस्यां प्रविष्टा दन्ताः अर्थाद् विषाणाख्या येषां ते तथा तेषां, काश्चनमणिरतभूपितानामिति व्यक, वरपुरुषा-ये आरोहका निषादिनस्तैः सम्प्रयुक्ताना-सजिताना गजाना-नाजकलभामामष्टोत्तरे शतं पुरतो यथानुपूर्ध्या सम्प्रस्थितं । अथ रथा:-'तयणतरं च णं सछत्ताण सम्झवाणे सघंटाणं सपडागाणं सतोरण-1 ॥२६५॥ | वराणं सनंदिघोसाणं सखिखिणीजालपरिक्खिसाणं हेमवयचित्ततिणिसकणगणिजुतदारुगाणं कालायससुकपणेमिर्जतक-11 माणं सुसिलिट्ठवत्तमण्डलधुराणं आइण्णवरसुरगसुसंपउत्ताणं कुसलणरच्छेअसारहिसुसंपरगहिआणं बत्तीसतोणपरि-13
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[६]]
AS मंटिआणं सकेकडवडेंसगाणं सचाबसरपहरणावरणभरिअजुञ्जसज्जाणं अयुसर्य रहाणे पुरओ अहाणुपुषीर संपहिम AS इति, उक्तार्थ चेदं प्राक् पद्मपरवेदिकाधिकारगतरवर्णने, नवरमा विशेषणामा बहुवचन निर्देशः कार्यः, ततः उक्त-181 19 विशेषणानां स्थानामष्टशतं पुरतो यथानुपूO सम्पस्थित । अथ पदातयः-'तयणतरं ष णं असिसत्तिकुंततोमरसूलल-18
उडभिंडमालधणुपाणिसज पाइताणी पुरओ अंहाणुपुबीए संपत्थिअंति, सतः पदात्यनीक पुरतः सम्प्रस्थितं, कीर-3 शमिस्याह-अस्यादीनि पाणौ हस्ते या तत्तथा, सज च समामादिस्वामिकायें, तत्राखादीनि प्रसिद्धानि, नवरं शक्किा-त्रिशूलं शूलं तु पकशूलं 'लउड'
तिलकुदो मिंदिपालः प्रागुक्तस्वरूप इति । अथ भरता प्रस्थितः सन् पवि यद्यत् कुर्वन् यत्रागच्छति तदाह-'तए 'मित्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतसुकृतरतिदक्षा ॥ यावदमरपतिसन्निभया ऋखा प्रथितकीर्तिश्चक्ररक्षोपदिष्टमार्गोऽनेकराजवरसहस्रामुयातमागों यावत्समुद्ररवभूतामिव है
मेदिनी कुर्वन् २ सर्वा सर्वद्युस्या यावनिर्घोषनादिसेन युक्त इति गम्य, प्रामाकरनगरखेटकर्षटमडम्बयावत्पदात् । द्रोणमुखपत्तनाश्रमसम्बाधसहनमण्डितां सिमितमेदिनीकां वसुधामभिजयन् १ अध्याणि-वराणि रसानि प्रतीच्छन्
२ सदिव्यं चक्ररममनुगच्छन् योजनान्तरिताभिर्षसतिभिर्वसन् २ यत्रैव विनीता राजधानी तत्रयोपागच्छति ॥8 18 तत्रागतः सन् यदकरोत्तदाह-उबागडित्ता इत्यादि, व्यक्तं, मवरं विनीताया राजधाम्या भष्टमभक्तमित्यन्न विनी
ताधिष्ठायकदेवसाधनाय विनीतां राजधानी मनसि कुर्षन् र मष्टम परिसमापयतीत्यर्थः, नम्बिदमष्टमानुष्ठानमनर्थक
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्यू-18 वासनगर्याश्चक्रवर्तिनां पूर्वमेव वश्यत्वात् , उच्यते, निरुपसर्गेण वासस्थैर्यार्थमिति, यदाह-'निरुवसग्गपञ्चयर्थ विणीअं 8|३ वक्षस्कारे
रायहाणि मणसी करेमाणे २ अट्ठमभत्तं पगिण्हई' इति प्राकृतऋषभचरित्रे, अथाष्टमभक्तसमात्यनन्तरं भरतो यच्चके 8 भरतस्य न्तिचन्द्री
18 तदाह-'तए णमित्यादि, स्पष्टं, 'तहेव'त्ति पदसंग्रहश्चाभिषेक्यगजसज्जनमज्जनगृहमज्जनादिरूपः, अथ विनीताप्र-31 या वृत्तिः
प्रवेशः . वेशवर्णके लाघवायातिदेशमाह-'तं चेव सब'मित्यादि, तदेव सर्व वाच्यं यथा हेवा-अधस्तनसूत्रे विनीता प्रत्याग
६७ ॥२६६।।। मने वर्णनं तथाऽत्रापि प्रवेशे वाच्यमित्यर्थः, अत्र विशेषमाह-नवरं महानिधयो नव न प्रविशन्ति, तेषां मध्ये एकै-12
कस्य विनीताप्रमाणत्वात् कुतस्तेषां तत्रावकाश:, चतस्रः सेना अपि न प्रविशन्ति, शेषः स एव गमः-पाठो
वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह--यावन्नि?पनादितेन युको विनीताया राजधान्या मध्यंमध्येन-मध्यभागेन यववश का स्वकं गृहं यत्रैव च भवनवरावतंसकस्य-प्रधानतरगृहस्य प्रतिद्वार-बाह्यद्वारं तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्-चिन्तितवान् , प्रवृत्तवानित्यर्थः, प्रविशति चक्रिण्याभियोगिकसुरा यथा २ वासभवन परिप्कुर्वन्ति तथाऽऽह-तए णमित्यादि,
ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीतां राजधानी मध्यभागेन प्रविशतः अपि-बाढं एके केचन देवा विनीता साभ्यन्तरहा बाहिरिका आसिक्कसम्मार्जितोपलितां कुर्वन्ति, अप्येकके तां मञ्चातिमञ्चकलितां कुर्वन्ति, अप्येकके नानाविधराग-18॥२९॥ 18 वसनोचितध्वजपताकामण्डितां अध्येकके लाइउल्लोइअमहितां कुर्वन्ति, अध्येकके गोशीर्षसरसरतचन्दनददेरदत्त
पञ्चाङ्गुलितलेत्यादिविशेषणां कुर्वन्ति, कियद्यावदित्याह-यावद् गन्धवर्तिभूतां कुर्वन्ति, अमीषां विशेषणानामथैः ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
[६]]
प्राग्वत् , अप्येकके हिरण्यवर्ष वर्षन्ति-रूप्यस्याघटितसुवर्णस्य वा वर्ष वर्षन्ति, एवं सुवर्णवर्ष रनवर्ष बज्रवर्ष आभर
वर्ष वर्षन्ति, वाणि-हीरकाणि, पुनः प्रविशतो राज्ञो यदभूत्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीता राजधानी मध्यंमध्येनानुप्रविशतः शृङ्गाटकादिषु यावच्छब्दादत्र त्रिकचतुष्कादिग्रहः महापथपर्यन्तेषु स्थानेषु । बहवोऽार्थिप्रभृतयस्ताभिरुदारादिविशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरभिनन्दयन्तश्चाभिष्टुवन्तश्च एवमवादिषुरिति सम्बन्धः, तत्र शृङ्गाटकादिव्याख्या प्राग्वत् , अार्थिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिनो-मनोज्ञशब्दरूपार्थिनः भोगार्थिनो-मनोज्ञगन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनो-भोजनमात्रादिप्रात्यर्थिनः ऋद्धि-गवादिसंपदं इच्छन्त्येषयन्ति वा ऋोषाः स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् ऋत्येषिकाः किल्बिषिका:-परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डादयः कारोटिकाः-कापालिकाः ताम्बूलस्थगीवाहका वा करं-राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीला कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः कारबाधिता वा शांखि|| कादयः शब्दाः श्रीऋषभनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याख्याता इति ततो व्याख्येया इति, अथ ते किमवादिषुरित्याह-'जय
जय नन्दा।' इत्यादि पदद्वयं प्राग्वत् , भद्रं ते-तुभ्यं भूयादिति शेषः, अजितं प्रतिरिपुं जय जितं-आज्ञावशंवदं पालय,181 | जितमध्ये-आज्ञावशंवदमध्ये वस-तिष्ठ विनीतपरिजनपरिवृतो भूया इत्यर्थः, इन्द्र इव देवानां-बैमानिकानां मध्ये ऐश्वर्य-18|
भृत् , चन्द्र इव ताराणां-ज्योतिष्काणां चमर इवासुराणां दाक्षिणात्यानामित्यर्थः, एवं धरण इव नागानामित्यत्रापि ज्ञेयं, 18 I अन्यथा सामान्यतोऽसुराणामित्युक्के वलीन्द्रस्य नागानामित्युक्ते च भूतानन्दस्योपमानत्वेनोपन्यासो युकिमान् स्यात्,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[६७]
18 दाक्षिणात्येभ्व उदीच्यानामधिकतैजस्कत्वात् , बहूनि शतसहस्राणि याप पलीपूर्वकोटी पन्ही पूर्वकोटाकोट पिनी-18 ३वक्षस्कारे द्वीपशा-18ताया राजधाम्याः शुलहिमवद्भिरिसागरमादाकस्य केवलकस्पस्य भरतवर्षस प्रामाकरनगरखेटकर्बटमडम्बद्रोणबुल-18| भरतस्य, न्तिचन्द्री-18 18|| पत्तनाश्रमसभिवेशेषु सम्यक् प्रजापालनेनोपार्जित-साधं निजभुजबीर्याणिसं,
म ममुचिनेव सेवाशुपाल8|
विनीतायां था प्रति
प्रवेशः सू. घशो येन से तथा, 'महया जाव'त्ति यावत्पदात् 'हयणगीअवाइमसंतीतलताउतुडिअषणमुइंगपडुपवाइअरवर्ण । ॥२६॥ विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे' इति संग्रहः, आधिपत्यं पौरपत्यं अनापि यावत्पदात सामिसं भरिसं महत्तरगत
आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे'त्ति प्राय, अत्र व्याख्या पावत्, विचर इति कृत्वा जयजयशब्द प्रयुअम्ति।ग अथ विनीता प्रविष्टः सन् भरतः किं कुन् काजगामेत्याह-'तए से भरहे रावा णवणमालासहस्सहिं पिच्छि-18 जमाणे २'इत्यादि, ततः स भरतो राजा नयनमालासहस्रैः प्रेक्ष्यमाण २ इत्यादिविशेषणपदानि श्रीऋषभनिष्क्रमण-18 महाधिकारे व्याख्यातानीति ततो शेयानि, नवरं 'अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २' इत्यत्र जनपदागतानां जनाना पौरजनैरङ्गुलिमालासहस्रैर्दीमान इत्यपि, यत्रैव स्वकं गृह-पित्र्यः प्रासादः बत्रैव च भवनवरावतंसक-जगदर्तिवा
सगृहशेखरभूतं राजयोग्यं वासगृहमित्यर्थः तस्य प्रतिद्वारं तत्रैवोपागच्छति, सतः किं करोतीत्याह-'उवागच्छिचा ||२६७॥ IS इत्यादि, उपागत्य आभिषेक्य हस्तिर स्थापयति स्थापयित्वा च तस्मात्मत्यवरोहति, प्रत्यवरुहा व विसर्जनीयजनी ।।
हि विसर्जनावसरेऽवश्यं सत्कार्य इति विधिज्ञो भरतः षोडश देवसहस्रान् सत्कारबति सम्मानपति, सप्तो द्वात्रिंशत
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emperatoesc0e0aeraag
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------- -------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सत्रांक
[६]]
राजसहमान , ततः सेनापतिरक्षगृहपतिरनादीनि त्रीणि सत्कारवति सन्मानयति, सप्तः श्रीणि पटानियाधिकानि सूपशतानि-रसवतीकारशतानि, ततः अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणीः ततः अन्यानपि बहून् राजेश्वरतलवरादीन् सत्कारयति सन्मानयति सत्कार्य सम्मान्य च पूर्ण उत्सवेऽतिथीनिष प्रतिविसर्जयति, अथ यावत्परिच्छदो राजा यथा वासगृहं प्रविवेश तथाऽऽह-'इत्थीरयणेण'मित्यादि, स्त्रीरलेन-सुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहस्रर्द्वात्रिंशता जनपदकल्याणिकासहस्रः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्धबेर्नाटकसहस्रः सार्द्ध संपरिवृती भवनवरावर्तसकमतीति-प्रविशति, प्राकरणिकशत्वादनुकोऽपि भरतः कर्त्ता गम्यतेऽत्र वाक्ये, यथा कुबेरो-देवराजा धनदो-लोकपालः कैलास-स्फटिकाचलं, किल
क्षणं-भवनवरावतंसकं शिखरिशृङ्ग-गिरिशिखरं तद्भूत-तत्सदृशमुच्चत्वेनेत्यर्थः, लौकिकव्यवहारानुसारेणार्य दृष्टान्ता, । अन्यथा कुबेरस्य सौधर्मावतंसकनाम्न इन्द्रकविमानावुत्तरतो वल्गुविमाने वासस्य श्रूयमाणत्वादागमेन सह विरुझ्यते ॥ प्रविश्य यच्चके तदाह
तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कथाइ रजधुरै वितेमाणस्स इमेआरूवे जाव समुपवित्था, अमिजिए ण मए णिअगवल. वीरिअपुरिसकारपरकमेण चुलहिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं से खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अमिसेएणं अमिसिंचाचित्तपत्तिकदु एवं संपेहेति २ ता कहं पाउप्पभाए जाव जलते जेणेव मजणघरे जाव पडिणिक्त्रमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ सा सौहासणवरगए पुरत्याभिमुहे णिसीअति निसीइत्ता
RECORDEResea0eceneweseasoecond
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Elem
भरतस्य चक्रवर्तित्वेन अभिषेक:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Secca
श्रीजम्यू दीपशान्तिचन्द्री
Scerseercedeo
प्रत सूत्रांक [६८]
या वृत्तिः ॥२६॥
३वक्षस्कारे भरतख
चक्रवर्षि18वाभिषेक
म.६८
दीप
सोलस देवसहस्से बत्तीनं रायवरसहस्से सेणावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणि सट्टे सूअसा अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पमिअमओ सदावेइ २त्ता एवं वयासी-अभिजिए ण देवाणुप्पिा ! मए णिअगवलवीरिज जाव केवलकप्पे भरहे वासे वं तुब्भे णं देवाणुप्पिा ! ममं मयारायाभिसेविअरह, तए णं से सोलस देवसहस्सा जावप्पमिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा द्रुतुहकरयल मत्थए अंजलिं कटू भरहस्स रण्णो एअम सम्मं विणएणं पडिसुणेति, तए णं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा जाव अहमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरइ, तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि अभिजोगिए देवे सदावेद २ चा एवं बयासी-सिप्पामेव भो पेवाणुप्पिा! विणीआए राय हाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एगं महं अभिसेअमण्डवं विउब्वेह २ चा मम एमाणचिरं पञ्चप्पिणह, तए णं ते आमिओगा देवा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा जाव एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिमुणेति पडिसुणित्ता विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकर्मति २ ता वेउविअसमुग्घाएणं समोहणति २ चा संखिजाई जोअणाई दंडं णिसिरंति, तंजहारयणाणं जाव रिहाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेति २ चा अहासुहुमे पुग्गले परिआदिअंति २ चा दुचंपि उबियसमुग्घायेणं जाव सभोहणंति २ ता बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग विउति से जहाणामए आलिंगपुक्खरेद वा० तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एस्थ णं महं एग अमिसेअमण्डवं विजयंति अगेगखंभसयसण्णिविडं जाव गंधवट्टिभूअं पेच्छाघरमडबवण्णगोत्ति, तस्स णं अमिसेअमंडवस्स बहुमझदेसभाए एत्य णं मई एणं अमिसेअपेढं विउव्यंति अच्छे सण्हं, तस्स णं अमिसेअपेढस्स तिदिसि तओ विसोवाणपडिरूवए विउब्वंति, तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेभारूवे वण्णावासे पण्णचे जाव
अनुक्रम [१२२]
Deeeeeeee
॥२६८॥
~191~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
चोरणा, तस्स णं अमिसेअपेढस्स बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्य णं महं एग सीहासणं बिउम्बंति, तस्स णं सीहासणस्स अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव दामवण्णगं समति । तए गं ते देवा अभिसेअमंड विउठवंति २ ता जेणेव भरहे राया जाक पञ्चप्पिणंति, तए णं से भरहे राया भाभिओगाणं देवाणं अंतिए एअमहं सोचा णिसम्म हहतुह जाव पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता कोडुंबिअपुरिसे सरावेद २'ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आमिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह २'त्ता हयगय जाव सण्णाहेत्ता एअमाणत्तिों पचप्पिणह जाव पञ्चप्पिगंति, तए णं से भरहे राया मजणघरं अणुपविसइ जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दूरूडे, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आमिसेफ हस्थिरयणं दूरूढस्स समाणस्स इमे अवमंगलगा जो चेव गमो विणी पविसमाणस सो व णिक्खममाणस्तवि जाव अप्पडिबुज्झमाणे विणी गयहाणि मझमझेणं जिग्गच्छता जेणेव विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरथिमे दिसीमाए अमिसेअमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ चा अभिसेअमंडवदुवारे आमिसेकं हत्यिरयणं ठावेइ २. ता आमिसेक्काओ हस्थिरयणाओ पशोरुहइ २ ता इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बचीसाए बत्तीसइबद्धेहिं गाडगसहस्सेहिं सविं संपरिखुढे अभिसेजमंडवं अणुपविसइ २ ता जेणेव अमिसेअपेढे तेणेव उवागच्छा २त्ता अभिसेअपेठं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिलेणं तिसोवाणपविरूवएणं दूरूहइ २ चा जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छद २ ता पुरस्थामिमुहे सण्णिसण्णेत्ति । तए णे तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीस रायसहस्सा जेणेव अमिसेअमण्डवे तेणेव उबागल्छंति २ चा अमिसेभमंड अणुपविसंति २ ता अमिसेअपेदं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छति
ceserceaecedeseseseseseseaeeseccc
दीप
अनुक्रम [१२२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्द्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः ॥२६९॥
श्वक्षस्कारे भरतस्य चक्रवर्ति
प्रत
वाभिषेक
सुत्रांक [६८]
रता करयल जाब अंजलि को भरहं रायार्ष जएणं विनरण वाति महसणी णवासले जाइब ससुसमामा जाव पञ्जुवासंति, तए णं तस्स भरहस्स रणो सेणावहरयणे जाव सत्ववाहनामिईओ तेऽवि तह चेव ण दाहिणिही तिसीवाणपखिरूबएणं जाव पञ्जुमासंति, तए से भरहे राया आमिओगे देवे सदावेद २ एवं बवासी-खिप्पमिष भी देवाणुष्पिमा! ममं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाअमिसेमै उवट्ठवेह, तए 4 ते आमिओविश्य देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हहतुहुचिता जाव पत्तरपुरस्थिम दिसीभार्ग अवकमंति अवक्कमित्ता केउचिअसमुग्याएवं समीणति, एवं जहा विजयस्स हा इल्यान नाव पंचगवणे एगओ मिलायंति एगओ मिलाइत्ता जेणेव दाहिणभरहे वासे जेणेव विपीया राबहाणी तैष स्वागच्छति २ सा चिणीभं रावहाणि अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ जेणेच अमिसेअमंडये जेणेव भरहे गया तेणेव ज्यागच्छति २ सा तं गहत्य महग्धं महरिई महाराथामिसेअं उपवेंति, तए णं वं मरह रावाणं बत्तीस रावसहस्सा सोमणसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहससि उत्तरपोट्टवयाविजयंसि तेहिं साभाविपहि अ उत्तरवेउन्विएहि अ वरकमलपाटाणेहिं सुरभिकरवारिपडिपुण्णेहिं जाय महा महया रायामिसेएणं अभिर्सिचंति, अंमिसेओ जहा विजयस्स, अमिर्सिचित्ता पचे २ जाव अंजॉल कटु ताहि इटाहिं जहा पविसंतस्स भणिआ जाब विहराहित्तिकटु जयजयसई पर्यजति । तए णं है भरई रायाणं सेणावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणि म सहा सूअसया अट्ठारस सेणिप्पणीओ अण्णे अ बहवे जाब सत्ववाहप्पमिइली एवं व भनिसियति तेहिं परकमलपंइटाणेहिं तहेव जाव अमिथुर्णति अ सोलस देवसहस्सा एवं ष णवर पम्हसुकुमालाए जाव मउई पिणद्वेति, तयणंतरं च दुहरमलयसुगंधिपहिं गंधेहिं गायाई अम्भुक्छेति दिन्वं च सुमणोदामं पिणद्धेति, किं बाहुणा !, गहिमवेढिम जाप विभूसिर्भ
enecessesses
दीप
अनुक्रम [१२२]
8
॥२६९॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
ese
प्रत
सूत्रांक
Hade
eseseseseseseseases
[६८]
करेंति, तए ण से भरहे राया नहया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचिए समाणे को१षिअपुरिस सहापेइ २ चा एवं पयासी-सिपामेव मो देवाणुप्पिा ! हत्यिखंधवरगया विणीयाए रायहाणीए सिंघाडगतिगचउवायचर जाब महापहपहेसु महथा २ सरेणं उग्घोसेमाणा २ उस्मुकं उकरं उकिट्ठ अविणं अमिजं अभडपवेस अदंडकुदंडिमं आव सपुरनणवयं दुवालससंपच्छरिज पमोरं घोसेह २ ममेत्रमाणत्तिों पञ्चप्पिणहत्ति, तए ण ते कोडुंबिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हहतुहचिप्तमार्णदिया पीइमणा हरिसवसविसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पडिसुणेति २ ता खिप्पामेब हत्विखंभवसाया जाव पोसंति ९सा एभमापत्ति पञ्चप्पिणंति, नए णं से भरहे राया महया २ रायामिसेएणं अमिसित्ते समाणे सीहासणान्यो अब्भुढेइ २ ता इत्विरयणेयं जाव णाडगसहस्सेहिं सद्धि संपरिखुड़े अमिसेअपेढाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहाइ २ ता अभिसेअमंडवामो पडिणिक्समइ २ चा जेणेव आमिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई जाव दूरूदे, तए थे तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा अमिसेअपेढाओ उत्तरिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहंवि, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणाचहरयणे जाव सत्यवाहप्पभिईओ अमिसेअपेढाओ दाहिणिलेणं विसोवाणपडिरूवरण पश्चोरुहंति, 'तए णं तस्स भरहस्स रण्णो मानिसको हत्थिरथणं दूरुबस्स समाणस्स इमे अवमंगलगा पुरजो जाव संपत्थिना, जोऽविज मगरहमाणस्स गमो पढमो कुराचसाणो सो चेव इहपि कमो सफारजहो भयो जाव कुवेरोष देवराया कैलासं 'सिहरिसिंगभूमंति । तए णं से भरे राया मजणघरं अणुपविसइ २ ता जाव भीषणमंडबसि सुहासणवरगए अट्टममतं पारेर २ ता भीषणमंसपाभो पतिणिक्समा २ सा नपि मासायवरगए फूलमाणेहिं मुइंगमस्थपहिं जाव भुंजमाणे विहरद, लए ण से भरहे राचा दुवालससंद.
दीप
ReseReA
अनुक्रम [१२२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६८]
॥२७॥
पारिसिपमोसि णिवत्तसि समाणंसि जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छा २ चा जाव मजणघराओ पडिणिक्खमहत्ता ३वक्षस्कारे द्वीपशा- जेणेव बाहिरिशा वट्ठाणसाला जाव सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुद्दे णिसीआइ २ ता सोलस देवसहस्से सकारेइ सम्माणे २चा भरतस्य न्तिचन्द्री- पडिविसजेह २ता बत्तीसं रायवरसहस्सा सफारद सम्मागेइ २त्ता सेणावहरवणं सकारेइ सम्माणेइ २ ता जाव पुरोहियरवर्ण चक्रवर्तिया वृत्तिः
सकारेर सम्माणे २ ता एवं तिणि सट्टे सूआरसए अट्ठारस सेणिपसेणीओ सकारेइ सम्माणेइ २त्सा अण्णे अपहले राईसरत- स्वाभिषेका लबर जाव सत्यवाहपभिइओ सकारेइ सम्भाणेइ २ चा पडिविसजेति २ ता उर्षि पासायवरगए जाब विहर (सूत्र ६८)
स.६८ 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मित्राणि-सुहृदः ज्ञातयः-सजातीयाः निजका:-मातापितृभ्रात्रादयः स्वज|नाः-पितृव्यादयः सम्बन्धिनः-श्वशुरादयः परिजनो-दासादिः, एकवद्भावे कृते द्वितीया, प्रत्युपेक्षते-कुशलप्रश्नादिभिरापृच्छय २ संभाषत इत्यर्थः, अथवा चिरमदृष्टत्वेन मित्रादीनुत्कण्ठुलतया पश्यति-स्नेहदृशा विलोकयति, प्रत्युपेक्ष्य च यत्रैव मज्जनगृहं तत्रेवोपागच्छति उपागत्य च यावच्छब्दात् स्नानविधिः सर्वोऽपि वाच्यः, मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामतीत्यादि प्राग्वत् । अत्र च बाहुबल्यादिनवनवतिभ्रातृराज्यानामात्मसात्करणपूर्वक चक्ररसस्यायुधशालायां |प्रवेशनमन्यत्र प्रसिद्धमपि सूत्रकारेण नोकमिति नोच्यते इति, एवं विहरतस्तस्य यदुदपद्यत तदाह-तए ण'मित्यादि, ॥3॥२७॥
ततः तस्य भरतस्य राज्यधुरं चिन्तयतोऽन्यदा कदाचिदयमेतद्रूपः-उक्तविशेषणविशिष्टः सङ्कल्पः समुदपद्यत, सच 19 कः सङ्कल्प इत्याह-'अभिजिए णमित्यादि, अभिजितं मया निजकबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण क्षुल्लहिमवनिरिसा-1॥
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अनुक्रम [१२२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
18| गरमर्यादया केवलकल्प भरतं वर्ष तच्छ्रेयः खलु ममात्मानं महाराज्याभिषेकेणाभिषेचयितु-अभिषेकं कारयितुं इति ।
कृत्वा-भरतं जितमिति विचार्य एवं सम्प्रेक्षते-राज्याभिषेकं विचारयति, अर्थतद्विचारोत्तरकालीनकार्यमाह-संपेहिता' इत्यादि, व्यक्त, सिंहासने निषद्य यच्चके तदाह-निसीइत्ता'इत्यादि, कण्ठ्यं, किमवादीवित्याह-अभिजिएण|मित्यादि, अभिजितं मया देवानुनिया! निजकबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण क्षुद्रहिमवनिरिसागरमर्यादया केवलकल्यं । भरतं वर्ष तयूयं देवानुप्रिया! मम महाराज्याभिषेक वितरत दत्त कुरुतेत्यर्थः, आवश्यकचूादौ तु भक्त्या सुरनरास्तं महाराज्याभिषेकाय विज्ञपयामासुर्भरतश्च तदनुमेने, अस्ति हि अयं विधेयजनव्यवहारो यत्प्रभूणां समयसेवा-1 विधी ते स्वयमेवोपतिष्ठन्ते, सत्यप्येवं विधे कल्पे यद्भरतस्यात्रानुचरसुरादीनामभिषेकज्ञापनमुक्कं तद् गम्भीराधेकत्वा-13 दस्मादृशां मन्दमेधसामनाकलनीयमिति । अथ यथा ते अङ्गीचकुस्तथाह-'तए णमित्यादि, ततस्ते पोडश देवसहस्राः यावत्शब्दात् द्वात्रिंशद्राजसहस्रादिपरिग्रहः यावद्राजेश्वरतलचरा दिसार्थवाहप्रभृतयः इति, भरतेन राज्ञा इत्युक्ताः सन्तो 'हद्वतु'त्ति इहैकदेशदर्शनमपि पूर्णतदधिकारसूत्रदर्शकं तेन हतुद्वचित्तमाणदिआ इत्यादिपदानि ज्ञेयानि, | करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरस्थावर्च मस्तके अञ्जलिं कृत्वा भरतस्य राज्ञः एतं-अनन्तरोदितमर्थ सम्यम्-विनयेन
प्रतिशृण्वन्ति-अङ्गीकुर्वन्ति, अथ 'जलाल्लब्धात्मलाभा कृषिर्जलेनैव वर्द्धत' इति ज्ञातात्तपसाऽऽतं राज्यं तपसैवाभिन18न्दतीति चेतसि चिन्तयन् भरतो यदुपचक्रमे तदाह-'तए प'मित्यादि, प्राग्वत्, 'तए णं से भरहे' इत्यादि, ततः
दीप
अनुक्रम [१२२]
श्रीजम्पू. ४08
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
दीपशा
प्रत
सूत्रांक [६८]
श्रीजम्बू- 18स मरतोऽष्टमभक्त परिणमति सति आभियोग्यान देवान् शब्दवति शब्दचित्वा च एवमवादीत्, किमयादादित्वाए-18| ३वक्षस्कारे
खिप्पामेव'त्ति क्षिप्रमेव भी देवानुप्रिया विनीताया राजधान्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थः तस्यायन्स-18| भरतस् म्तिचन्द्रीया वृचिः
प्रशस्तत्वात् , अभिषेकाय मण्डपः अभिषेकमण्डपस्से विकुर्वत विकुव्यं च मम एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत, 'तए 'मित्यादि, चक्रवात ततस्ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हेष्टतुष्टादिपदानि प्राग्वत् एवं स्वामिन् ! यथैव यूयमादिशत ||
स्वाभिषेक ॥२७१॥ आज्ञया-खामिपादानामनुसारेण कुर्म इत्येवंरूपेण विनयेन वचनं प्रतिशृण्वस्ति-अभ्युपगच्छन्ति, 'पडिसणिता'।
॥ इत्यादि, प्रतिश्रुत्य प विनीताया राजधान्या उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपकामन्ति-गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमद
घातेन-उत्तरवैक्रियकरणार्थकप्रयाविशेषण समवन्नन्ति-आरमप्रदेशान् धूरतो विक्षिपन्ति, तरस्वरूपमेव कि-18 सोयानि योजनानि दण्ड इव दण्डा-उवाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशस्त निमजम्ति-शरीराद्वाहिनिष्काशयन्ति निसृज्य च तथाविधान पुद्गलान् आददते इति, एतदेवं दर्शयति, तद्यथा-रखाना-कतनादीनां पाप-18 | त्यदात् 'बइराणं वेरुलिआणं लोहिअक्साणं मसारगल्लाण हंसगम्भाणं पुलयाणं सोगन्धिआणं जोईरसाणं अणा । अंजणपुलयाण जाबरूवाणं अंकाणं फलिहाण'मिति संग्रहः, रिझणमिति साक्षादुपातं, एतेषां सम्बन्धिनो बधाबाव- २७१॥ रान्-असारान् पुगलान् परिशातयन्ति-त्यजन्ति यथासूक्ष्मान्-सारान् पुनलान् पर्याददते-गृहन्ति पर्यादाय च चिकीर्षितनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं बैंक्रियसमुद्घातेन समवन्ति, समवहत्य च बहुसमरमणीय भूमिमा बिक
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अनुक्रम [१२२]
Similentine
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
मन्ति, तद्यथा-'से जहा पामए आलिंगषुक्खरे हवा' इत्यादि, सूत्रतोऽर्थतञ्च प्राग्वत् , ननु रतादीनां पुदगला औदा-11 रिकास्ते च वैक्रिवसमुद्घाते कथं ग्रहणाः ', उच्यते, इह रक्षादिग्रहणं पुद्गलानां सारतामात्रप्रतिपादनाथ, मतु।
तदीयपुनलमहणार्थ, ततो रमादीनामिवेवि द्रष्टव्यं, अथवा औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिण-18 || मन्ते, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशाचधातथापरिणमनभावादतो न कबिदोष इति, पूर्ववैक्रियसमुद्धातस्य जीवप्रयत
रूपत्वेन क्रमक्रममन्दमन्दतरभावापनत्वेन बीणशक्तिकत्वात् इष्टकार्यासिद्धेः, अव समभूभागे ते यश्चक्रुस्तदाह'वस्स 'मित्यादि, तस्स बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे जब महान्तमेकमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति । बनेकसम्भशतसग्निविष्टं बावत्पदात् रामप्रमीयोपाङ्गगतसूर्याभदेवयामविमानवर्णको प्रायः सब कियत्वर्थतमिबाह-पावन पन्धर्विभूतमिति विशेषणं, अब एव सूत्रकृदेव साक्षादाह-प्रेक्षाहमण्डपपर्णको ग्राह्य इति, पतसूत्रयाख्ये सिद्धाक्तनाविवर्य के प्रारदाते इति नेहोच्यते, "तस्स पमित्यादि, तस्याभिषेकमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे
-अस्मिन् देखे महान्तावेकमभिपी विकुन्ति अ अन्तरजकत्वात् सण सूक्ष्मपुद्गलनिर्मितत्वात् , तस्स पमित्यादि, सापानिसोपानमतिपकवर्षकवदन वर्णव्यासो शेयः पावत्तोरणवर्णने । अधाभिषेकपौठभूमिवर्ण-13
नादि प्रतिपादयभाह-सबमिलावि लामिकपीठस्य बहुसमरमधीपो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस सममूभागस IS| मध्ये एक महत् सिंहासन निर्णन्ति लवकण्यासो विजयदेवसिंहासनखेव ज्ञेयः थावद्दानां, वर्णको यत्र तहाम
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अनुक्रम [१२२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
हीपशा
प्रत
सूत्राक [६८]
पशम.६८
श्रीजम्बू
||| वर्णकं सम्पूर्ण समस्तं सूत्रं वाच्यमिति शेषः, एनमेवार्थ निगमयन्नाह-'तए णमित्यादि, ततो-भरताज्ञानन्तरं ते ३वश्वस्कारे
| देवा उक्तविशेषणविशिष्टमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति विकुळ च यत्रैव भरतो राजा यावत्पदात् 'तेणेव उवागच्छन्ति २ भरतप न्तिचन्द्री- एअमाणत्तिों' इति ग्राह्य, 'तए ण'मित्यादि, व्यक, अर्थतत्समयोचितं भरतकृत्यमाह-'तए णमित्यादि, प्राग्वत्, चक्रवर्तिया वृत्तिः
'तए ण'मिति ततस्तस्य भरतस्य राज्ञः आभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि पुरतः सम्प्र॥२७२॥
स्थितानीति शेषः, अथ ग्रन्थलाघवार्थमतिदिशति-य एव गमो विनीतां प्रविशतः स एव तस्य निष्कामतोऽपि भरतस्य, | कियदन्तमित्याह-यावदप्रतिबुद्ध्यन् २ विनीतां राजधानी मध्यंमध्येन निर्गच्छति, शेष व्यक्तं, ततः किं चके इत्याह'पचोरुहिता इत्थीरयणेण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा खीरलेन सुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहौः द्वात्रिं-1ST शता जनपदकल्याणिकासहस्रः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्वर्नाटकसहस्रः सार्द्ध संपरिवृतोऽभिषेकमण्डपमनुप्रविशति अनु-18 प्रविश्य च यत्रैवाभिषेकपीठं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चाभिषेकपीठमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् २ 'स्वामिदृष्टे भकजनः प्रमोदतेतरा मिति आभियोगिकसुरमनस्तुष्ट यत्पादनतोरित्यमेव सष्टिक्रमाच पौरस्त्येन त्रिसोपानकप्रतिरूपकेण आरो-|| हति, आरुह्य च यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च पूर्वाभिमुखः सनिषण्णः-सम्यग् यथौचित्येनोपविष्टः, | ॥२७॥ अचानुचरा राजादयो यथोपचेरुस्तथाऽऽह-तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो द्वात्रिंशाद्राजसहस्राणि यत्रैवाभिफमण्डपः-तत्रैवोपागच्छतीत्यादि व्यकं, नवरमभिषेकपीठ अनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः २ उत्तरत आरोहतां प्रदक्षिणाकरणे
दीप
अनुक्रम [१२२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
नैव सृष्टिक्रमस्य जायमानत्वात् , 'तए णमित्यादि पाठसिद्धं, तए ण'मित्यादि ततः स भरतो राजा आभियोग्यान ६ शिदेवान् शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! मम महान् अर्थों-मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो
यस्मिन् स तथा तं महान् अर्घः-पूजा यत्र स तथा तं महं-उत्सवमहेंतीति महार्हस्तं महाराज्याभिषेकमुपस्थापयतसम्पादयत, आज्ञप्तास्ते यच्चक्रुस्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः-आज्ञस्यनन्तरं ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एव-16 मुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्टचित्तेत्यादिरानन्दालापको ग्राह्यः यावत्पदात् 'करयलपरिग्गहिअंदसणहं सिरसाव मत्थए अंजलिं
कटु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति २त्ता' इति ग्राह्य, व्याख्या च माग्वत्, अत्रातिदेशसू-18 18|त्रमाह-एवं-इत्थंप्रकारमभिषेकसूत्रं यथा विजयस्य-जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपदेवस्य तृतीयोपाने उकं तथानापि शेय-| | मिति, अत्र च सर्वाभिषेकसामग्री वक्तव्या, सा चोत्तरत्र जिनजन्माधिकारे वक्ष्यते, तत्र तत्सूत्रस्य साक्षादर्शितत्वात्,
तथापि स्थानाशून्यार्थ तथाशब्दसूचितसंग्रहदर्शनार्थ किश्चिल्लिख्यते, तदपि लाघवार्थ संस्कृतरूपमेव युक्तमिति 8 18| तथैव दर्श्यते, अष्टसहस्रं सौवर्णिककलशानां तथा रूप्यमयकलशानां तथा मणिमयकलशानामित्याचष्टजातीयकलशानां
एवं भृङ्गाराणां आदर्शानां स्थालानां पात्रीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानां वातकरकाणां चित्ररत्नकरण्डकानां पुष्पचनें-18 रीणां यावल्लोमहस्तकचङ्गेरीणां पुष्पपटलकानां यावलोमहस्तपटलकानां सिंहासनानां छत्राणां चामराणां समुद्कानां ध्वजानां धूपकडुच्छुकानां प्रत्येकमष्टसहस्रं विकुर्वन्ति विकुऱ्या च स्वाभाविकान् वैक्रियांश्चैतान् पदार्थान् गृहीत्या
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], -------------------------------------------- -------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
मू.६८
श्रीजम्बू-18 क्षीरोदे उदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, पुष्करोदे तवैव, ततो भरतैरावतयोर्मागधादितीर्थत्रये उदक सपो-11 द्वीपशा-16
३वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
महानदीचूदकं मृदं च ततः क्षुल्लहिमाद्रौ सर्वतूबरसर्वपुष्पादीनि, ततः पद्मद्रहपुण्डरीकद्रहयोरुदकमुत्पलादीनिक, पव मरतय प्रतिवर्ष महानद्योरुदकं मृदं च प्रतिवर्षधरं च सर्वतूबरसर्वपुष्पादीनि च ब्रहेषु च उदकोत्पलादीणि वृत्तवैताब्येषु च चक्रवात
सर्वतूबरादीनि विजयेषु तीर्थोदक मृदं च वक्षस्कारगिरिषु सर्वतूबरादीन् तथा अन्तरमदीषु उदकं मृदंच, ततो मेरी ॥२७॥ ॥ भद्रशालबने सर्वतूबरादीन ततो नन्दनवने सर्वतूबरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसक्ने सर्वतूवरादीना
सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम ततः पण्डकवने सर्वतूबरपुष्पगन्धादीम् गृहन्ति, गृहीत्वा पैकतः एकत्र मिलन्ति, एकत्र मिलित्वा यत्रैव दक्षिणार्द्धभरतवर्ष यत्रैव च विनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्वं च | विनीता राजधानीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः १ यत्रैवाभिषेकमण्डपो यत्रैव च मरतो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति अपागत्य च तत् पूर्वोकं महाथै महाघ महाई महाराज्याभिषेकोपयोगिक्षीरोदकाथुपस्करमुपस्थापयन्ति-उपडीकयन्ति । अथोत्तर-18 त्यमाई-'तए प'मित्यादि, ततस्तं भरतं राजानं द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि शोभने-नि:पंगुणपोषे 'तिधिकरणदिषस-18 नक्षत्रमुहूर्ते' तिथ्यादिपदानां समाहारद्वन्द्वस्ततः सप्तम्येकवचनं, तत्र तिथि:-रिकाम्दुदग्धादिदुष्टतिविम्यो मिश्रा ॥२७३॥ तिधिः करणं-विविष्टिदिवसो दुनिग्रहणोत्पातदिनादिभ्यो मिन्नदिवसा नक्षत्र-राज्याभिषेकीपयोगि श्रुत्यादित्रयोदश-18 नक्षत्राणामन्यतरत्, पदाह- अभिषिक्तो महीपालः, अतिज्येष्ठालघुधवैः । मृगानुराधापौष्पैच, चिर शास्ति भुम्क-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
राम् ॥ १॥"इति, मुहूर्त:-अभिषेकोक्तनक्षत्रसमानदैवत इति, अत्रैव विशेषमाह-उत्तरप्रौष्ठपदा-उत्तरभाद्रपदा मक्षत्रं || तस्य विजयो नाम मुहूर्स:-अभिजिदालयः सणस्तस्मिन् , अयं भाव:-मुहूर्तापरपर्यायः पञ्चदशकणात्मके दिवसेऽष्टम-MAIL क्षणः, तल्लक्षणं चेदं ज्योति शास्त्रप्रसिद्धं-"द्वौ यामौ घटिकाहीनी, द्वौ यामौ घटिकाधिको । विजयो नाम योगोऽयं, सर्वकार्यप्रसाधकः ॥ १॥" ततस्तैः पूर्वोकैः स्वाभाविकैरुत्तरवैक्रियैश्च वरकमले आधारभूते प्रतिष्ठान-स्थितिषों ते तथा तैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णः, अत्र चंदणकयवश्वएहि आविद्धकैठेगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहि करयलपरिग्गहिएहि मसहस्सेणं सोपण्णिअकलसाणं जाव अडसहस्सेणं भोमेजाण'मित्याविको अग्थो बावत्पदसंग्राह्य उत्तरत्र जिमजम्माभिषेकप्रकरणे व्यास्यास्यते सत्रास साक्षाद्दर्शितत्वात् , वाक्यसङ्गत्यर्थ च करणक्रियाविभागो दयते, उकविशेष-18 विशिष्टैः कलशैः सर्वोदकसर्वमृत्सर्वोपधिप्रभृतिवस्तुभिर्महता २-गरीयसा ३ राज्याभिषेकेणाभिषिचन्ति, अभिषेको यथा विजयस्य जीवाभिगमोपाने उक्तस्तथाऽत्र बोद्धव्यः, अभिषिच्य च प्रत्येकं २ प्रतिनृपं यावत्पदात् 'करयलपरि-18 महिमं सिरसावत्तं मत्थए' इति ग्राह्यं, अंजलिं कृत्वा तामिरिष्टाभिः अत्रापि 'कताहि जाव वग्गूहि अमिणेवंता में अभिथुर्णता य एवं वयासी-जब २ गंदा जय जय महा! मई ते अजिर्ज जिणाहि' इत्यादिको ग्रन्थस्तथा प्राद्यो वा | बिनीतां प्रविशतो मरतस्यार्थिप्रमुखयाचकजनैराशीरित्यर्थाद् गम्यं भणिता, कियरपर्यन्तमित्याह-यावद्विहरेति-181 18| कृत्वा जय २ शब्द प्रयुञ्जन्ति, नम्वत्र सूत्रेऽभिषेकसूत्र जीवाभिगमगतविजयदेवाभिषेकसूत्रातिदेशेनोक, साम्प्रतीन
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [६८]
श्रीजम्मू-18 तदीयादशेषु च 'अट्ठसएणं सोवण्णिअकलसाण'मित्यादि दृश्यते, अत्र च वृत्तौ 'अट्ठसहस्सेणं सोवण्णिअकलंसाण मित्यादि वक्षस्कारे द्वीपशा- दर्शितं तत्कथमनयोर्न विरोधः?, उच्यते, जीवाभिगमवृत्ती तानेव विभागतो दर्शयति, अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां भरतस्य न्तिचन्द्री- कलशानामष्टसहस्रेण रूप्यमयानां कलशानां अष्टसहस्रेण मणिमयानामित्यादिपाठाशयेनात्र लिखितत्वान्न दोषः, यदि ||
चक्रवर्चिया वृत्तिः | चात्र कलशानामष्टोत्तरशतसङ्ग्या स्यात्तदा तत्रैव सर्वसमवया अष्टभिः सहस्ररित्युत्तरग्रन्थोऽपि नोपपद्येत, किं च-दृश्यमान-18
खाभिषेका ॥२७॥ तत्सूत्रे विकुर्वणाधिकारे अट्ठसहस्सं सोवपिणअकलसाणं जाव भोमेजाणमित्यादि, अभिषेकक्षणे तु अट्टसएणं सोवण्णि-1
|अकलसाणमित्यादीत्यपि विचार्य । अथ शेषपरिच्छदाभिषेकवकन्यतामाह-तए ण'मित्यादि, ततो-द्वात्रिंशद्राज-16 | सहस्राभिषेकानन्तरं भरतं राजानं सेनापतिरत्नं यावत्पदात् गाहावइरयणे वडइरयणे इति ग्राह्यं, गृहपतिवर्द्धकिपु-18 रोहितरक्षानि त्रीणि च षष्टानि-पध्यधिकानि सूपशतानि अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणयः अन्ये च बहवो यावच्छन्दात् राजेश्वरादिपरिग्रहः, ततो राजेश्वरतलवरमाडम्बिअकौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतय एवमेव-राजान इवा-18 | भिपिश्चन्ति, तैर्वरकमलप्रतिष्ठानैस्तथैव कलशविशेषणादिकं ज्ञेयं, यावदभिनन्दन्ति अभिष्टुवन्ति च, ततः पोडशदे-181 वसहस्राः एवमेव-उक्तन्यायेनाभिषिञ्चन्ति, यत्तु आभियोगिकसुराणां चरमोऽभिषेकः तदरतस्य मनुष्येन्द्रत्वेन मनु-18||Rom ध्याधिकारान्मनुष्यकृताभिषेकानन्तरभावित्वेनेति बोध्यं, यद्वा देवानां चिन्तितमानतदात्वसिद्धिकारकत्वेन. पर्यन्ते || | तथाविधोत्कृष्टाभिषेकविधानार्थमिति, ऋषभचरित्रादौ तु पूर्वमपि देवानामभिषेकोऽभिहित इति, अब यो विशेषस्त
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
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सूत्रांक
[६८]
9 माह-'णवर'मिति, अयं विशेष:-आभियोगिकसुराणामपरेभ्योऽभिषेचकेभ्यः पक्ष्मलया-पक्ष्मवत्या सुकुमारया च अत्र | यावत्पदग्राह्यमिदं 'गन्धकासाइआए गायाई लूहॅति सरसगोसीसचन्दणेणं गायाई अणुलिपति २त्ता नासाणीसास-11
वायवोझ चक्खुहरं वेण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवलं कणगखइअंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अयं | दिवं देवदूसजुअलं णिसावेंति २त्ता हारं पिणझैंति २ ता एवं अद्धहारं एगावलि मुत्तावलिं रयणावलिं पालम्ब अंगयाई तुडिआई कडयाई दसमुद्दिआणंतर्ग कडिसुत्तर्ग वेअच्छगसुत्गं मुरविं कंठमुरविं कुण्डलाई चूडामणि चित्तस्यणुकर्ड'ति, अत्र व्याख्या-गन्धकापायिक्या-सुरभिगन्धकषायगव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया इति गम्य, गात्रा-18 णि-भरतशरीरावयवान् रूक्षयन्ति, रूक्षयित्वा च सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पन्ति, अनुलिप्य च देवदू-18 प्ययुगलं निवासयन्ति-परिधापयन्तीति योगः, कथम्भूतमित्याह-नासिकानिःश्वासवातेन वाह्य-यूरापनेयं श्लक्ष्णतरमित्यर्थः, अयमर्थ:-आस्वा महावातः नासावातोऽपि स्वबलेन तद्वलंयुगलं अन्यत्र प्रापयति, चक्षुहरं रूपातिशयत्वात्
अथवा चक्षुर्द्धर-चक्षुरोधकं घनत्वात् , अतिशायिना वर्णेन स्पर्शेन च युक्त हयलाला-अश्वमुखजलं तस्मादपि पेलव| कोमलमतिरेकेण-अतिशयेन अतिविशिष्टमुदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः धवलं प्रतीतं कनकेन खचितानि-विच्छु-18 | रितानि अन्तकर्माणि-अश्चलयोनिलक्षणानि यस्य तत् तथा आकाशस्फटिको नाम-अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्स-11 दशमभं अहतं दिव्यं निवास्य च हारं पिनह्यन्ति-ते देवाश्चक्रिणः कण्ठपीठे बनन्ति, 'एव'मिति एतेनाभिलापेनार्द्ध
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
श्रीजम्य-18| हारादीनि वाध्यानि बावन्मुकुटमिति, तत्र हाराहारी प्रतीती, एकावली धाग्वत, मुक्तावली-मुक्ताफलमयों कमका-18|३वक्षस्कारे
द्वापशावली-कनकमणिमयी रमावली-रसमयी पालम्ब:-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आत्मप्रमाण आभरण- भरतस्य न्तिचन्द्रीया वृचिः
विशेषः अङ्गदे त्रुटि के च प्राग्वत् कटके प्रसिद्ध दशमुद्रिकानन्त-हस्तांगुलिमुद्रादशकं कटिसूत्रक-पुरुषकव्यामरण चक्रवातवैकल्यसूत्रक-उत्तरासङ्ग परिघानीय-शृङ्खलकं मुरवी-मृदङ्गाकारमाभरण कण्ठमुरवी-कण्ठासनं तदेव कुण्डले व्यकि
वाभिषेक ॥२७५ पडामणिः प्राम्बत् चित्ररत्नोत्कट-विचित्ररकोपेतं मुकुट व्यक्त । 'तयणतरं च ददरमलय इत्यादि, तदनन्तर वर्वर
सू. ६८ मलक्सम्बन्धिनो के सुगन्धा:-शोभनवासास्तेषां गन्धः-शुभपरिमलो येषु ते तथा न्य-काश्मीरकर्पूरकस्तूरीमृतिगन्धबद्रव्यैः प्रकरणाद्रसभावमापावितैरभ्युक्षन्ति-सिञ्चन्ति ते देवा. भरत, कोऽर्थः 1-अनेकसुरमितव्यमिश्रघुसपरसच्छटकान् कुर्वन्ति, भरतवाससीति भावः, क्वचित् 'सुगन्धगन्धिएहिं गन्धेहिं भुकुति' इति पाठसत्र मकुर्वतीतिउलयन्ति, मन्धैः सुरभिचूर्णैः-सुरभिचूर्ण भरतोपरि क्षिपन्ति दिन्यं चः समुचये सुमनोदाम-कुसुममाली पिनयन्ति, किंबहुना उत्तेनेति गम्य, 'मंढिमवेढिम' वावत्पदात् 'पूरिमसंघाइमेण चउविहेणं महण कप्परक्सयपिव समल-IST कियति माह्य, अत्र व्याख्या-मन्थन ग्रन्थस्तेन निवृत्त प्रन्थिम, भावादिमप्रत्ययः, यत् सूत्रादिना अभ्यते तद्अम्बि-IS ॥२७॥ ममिति भावः, प्रचितं सद्धेष्यते यत्तद् वेष्टिमं, स्था पुष्पलंबूसको गेन्दुक इस्यर्थ पूरिमं येन वंशशलाकाविम -ISI शदि पूर्यते संघातिम यरपरस्परतो नाल संपात्यते, एवं विषेन चविधेन मास्येन कल्पवृक्षमिवालजकृतविभूषितं मरत
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८]
चक्रिणं कुर्वन्ति ते देवाः। आप कृताभियेको यचके तदाह-तए 'मित्यादि, ततः स भरतो राजा महतातिशायिना राज्याभिषेकेणाभिषिक्तः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत, तदेवाह-वियमेव भो देवानुप्रिया ! यूयं हस्तिस्कन्धयरमताः विनीतायाः राजधान्याः शृङ्गाष्टकत्रिकचतुष्कचत्वरादिषु प्राग्व्याख्यातेषु आरपदे महता र शब्देलोद्घोषयन्तो-जत्पन्तो जल्पन्तः, अब शत्रन्तस्यापि अविक्क्षणान कर्मनिर्देशः, आमीक्ष्ण्ये शियन, -
छुल्क यावक् द्वादश संवत्सरा कालो मानं यस्यातीति द्वादशसंवत्सरिकस्तं प्रमोदहेतुत्वात् प्रमोद-उत्सव पोषक्त लोपयित्वा च ममतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयता, उच्छुल्कादिपदव्याख्या प्राग्वत्, अथ ते आज्ञप्ताः यथा प्रवृत्तवन्तस्तथाऽह'तए कामिति, ततसे कौटुम्बिकपुरुषाः भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हटतुष्टचित्तानन्दिताः 'हरिसवसन्ति हर्षवधा-15 विसर्पदयाः विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य च क्षिप्रमेय हस्तिस्कन्धधरगताः यावत्पदात् विणीबार राय-13 हाणीप सिंघाउमतिगे'त्यादि माझं, कियदंतमित्याह-यावद् घोषयन्ति र स्वा च एतामाज्ञक्षिका प्रत्यार्पयन्ति । अब भरतः किचके इत्याह-साए ण'मिति, तत्तः स. भरतो राजा महत्ता २ राज्याभिषेकेणाभिपित्तः सन् सिंहासनाकम्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय च खीस्तेन यावत् 'बत्तीसाए उड्डुकल्लाणिसहस्सेहिं बत्तीसाए जणषयकल्लाणिसहस्सेहिं | शक्तीसाए बच्चीसइब हिं' इति आय, झात्रिंशता द्वाविंशबैनाटकसहती साई संगरिवृतोऽभिषेकपीठात पौरस्बेन । निसोपानप्रतिरूपकेणः प्रत्यकटोहति प्रत्याकमा गाभिवामण्डपात प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्ब चे क्वाभिपेक्या
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------------------------- ------ मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा-या
प्रत
सत्रांक
[६८]
श्रीजम्बू-1| हस्तिरलं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चाजनगिरिकूटसन्निभं गजपति यावच्छब्दात् नरवइत्ति ग्राह्य, नरपतिरारूढः, वक्षस्कारे
तदनु अनुचरजनो यथाऽनुवृत्तांस्तथाह-'तए ण'मित्यादि, व्यक्तं, अथ यया युक्त्या चक्री विनीतां प्रविवेश तामाह-1| भरतस्य न्तिचन्द्री
'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञ आभिषेक्यं हस्तिरलमारूढस्य सत इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यावच्छ- चक्रवात या वृत्तिः |ब्दाद्यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि, अत्र ग्रन्थविस्तरभयादतिदेशमाह-योऽपि चातिगच्छतो-विनीतां प्रविशतः क्रमः-परि
वाभिषेक
.६८ ॥२७६|| पाटी प्रथमोऽधस्तनसूत्रोक्तो भरतविनीताप्रवेशवर्णकः कुबेरदृष्टान्तभावितसूत्रावसानः स एव कम इहापि सरकारवि-13
रहितो नेतन्यः, अयं भावः-पूर्व प्रवेशे षोडशदेवसहस्रद्वात्रिंशदाजसहस्रादीनां सत्कारो यथा विहितस्तथा नात्रेति. | अस्य च द्वादशवार्षिकप्रमोदनिर्वर्त्तनोत्तरकाल एवावसरमाप्तत्वात्। अथ गृहागमनानन्तरं यो विधिस्तमाह-'तए णं से 18 भरहे राया मजणघर'मित्यादि, निगदसिद्धं प्राग् बहुशो निगदितत्वात् , एवं च प्रतिदिनं नवं २ राज्याभिषेकम-13॥
होत्सवं कारयतस्तस्य द्वादश वर्षाण्यतिक्रान्तानि, शचुंजयमाहात्म्यादौ तु राज्याभिषेकोत्सवस्थाने राज्याभिषेक एव द्वादशवार्षिकोऽभिहित इति, अथ तदुत्तरकाले यत्कृत्यं तदाह--"तए ण'मित्यादि प्राग्वत् ॥ ननु सुभूमचक्रवर्तिनः।। पशुरामहतक्षत्रियदाढाभृतस्थालमेव चकरलतया परिणतमिति श्रुतेश्चक्ररत्नानामनियतोत्पत्तिस्थानकत्वं ज्ञायते, तेन ॥२७६॥ प्रस्तुतप्रकरणे तेषां कोत्पत्तिरित्याशंक्याह-अथ चतुर्दशरताधिपतेर्भरतस्य यानि रक्षानि यत्रोदपर्यंत तत्तथाऽऽह
भरहस्स रण्यो पारयणे १ दंडरयणे २ असिरवणे ३ छत्तरयणे ४ एते णं चत्वारि पनिधियरवणे आतघरसालाए समुप्पण्णा, |
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३], ------------------------ ---------------------- मूलं [६८R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८R]
चम्मरयणे १ मणिरयणे २ कागणिरयणे ३ णव य महाणिहओं एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावहरयणे १ गाहावइरयणे २ बहरयणे ३ पुरोहिअरयणे ४ एए णं चत्तारि मणुअरयणा विणीआए राबहाणीए समुप्पण्णा, आसरयणे १ हत्थिरयणे. २ एए णं दुवे पंचिंदिअरवणा वेअद्धगिरिपायमूले समुप्पण्णा, सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिल्लाए विजाइरसेटीए समुप्पण्णे ( सूत्र ६८)
'भरहस्स रणों'इत्यादि, भरतस्य राज्ञश्चक्रादीनि चत्वारि एकेन्द्रियरवानि आयुधशालायां समुत्पन्नानि-लन्धस-10 कत्ताकानि जातानि एवमुत्तरसूत्रेऽपि बोय, तेन चर्मरक्षादीनि नव महानिधयश्च एतानि श्रीगृहे-भाण्डागारे समत्प-18
मानि-लब्धसत्ताकानि जातानीत्यर्थः, इत्थं च निधयः शाश्वतभावरूपाः कथमुत्पद्यन्ते इत्याशङ्का निरस्ता, ननु इदं
सूत्र पादाधःस्थितयस्तस्य, नवापि निधयोऽनिशम् । हेमाब्जानीव वृषभमभोर्विहरतोऽभवन् ॥१॥ इति ऋषभच-18 I|| रिश्रवचनेन अत्रैव पूर्वसूत्रेण च सह कथं न विरुध्यते ?, उच्यते, राज्ञां यत्र तत्र स्थितमपि कोशद्रव्यं कोश एव को कथ्यत इति लौकिकव्यवहारस्य सुप्रसिद्धत्वात् न दोषः, सेनापत्यादिमनुजरत्नानि चत्वारि विनीतायां समुत्पमानि, | अश्वरलहस्तिरले एते द्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्रले वैताब्यगिरेः पादमूले-मूलभूमौ समुत्पन्ने, सुभद्रानाम खीरसं उत्तरस्यां विद्याधरश्रेण्यां समुत्पन्नं ॥ अथ षट्खण्डं पालयंश्चक्री यथा प्रववृते तथाह
तए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्इं देवसाहस्सीणं बत्तीसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकहाणिसहस्साणं बत्तीसाए जणवयकहाणिआसहस्साणं बजीसाए बत्तीसइबद्धाणं णाडगसहस्साणं तिण्हं सट्ठीणं सूयारसयाणं अट्ठारसहं सेणिप्पसेणीणं चउरासीइए आससयसहस्साणं चउरासीइए वंतिसयसहस्साणं चतरासीइए रहसयसहस्साणं छण्णउइए
cिerstreesesencesesesesesesesececcces
दीप अनुक्रम [१२३]
Sa009005000000000000000002902
बीजम्बू, ४७
★ अत्र मूल-संपादने सूत्रक्रमाकने मुद्रणदोषस्य कारणात् 'सू०६८' इति द्विवारान् मुद्रितं
...भरत-नरदेवस्य धर्मदेवत्वं प्राप्ति:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
-------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SoSO900000
प्रत सूत्रांक
टीप
श्रीजम्मूमणुस्सकोडीणं यावत्तरीए पुरवरसास्साणं बत्तीसाए जणवयसहस्साणं छण्णउहए गामकोडीणं णवणइए दोणमुहसहस्साणं अड
३वक्षस्कारे द्वीपशा
यालीसाए पट्टणसहस्साणं पञ्चीसाए कस्बतसहस्साणं उसीसाए मदवसहस्साणं वीसाए आगरसहस्साणं सोलसण्हं चक्रिण: न्तिचन्द्रीखेडसहस्साणं पदसणं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगणपण्णाए कुरजाणं विणीभाए रायहाणीए चाहिमवंतगि
समृद्धि या वृतिः रिसागरमेरागस्स केवलकप्परस भरहस्स वासस्स अण्णेसि च बहूर्ण राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिक्षणं आहेवर्ष पोरेव
भद्रितं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे ओयणिहएमु कंटएमु उद्विभमलिएमु सव्वसत्तम णिजिएम २७७॥ भरदाहिने गरिंदे बरचंदणचषिोंगे बरहारराअवच्छे वरमउडविसिट्ठए वरवत्यभूसणधरे सम्बोउअमरहिकसमवरमालसोभि
असिरे वरणाडगनाडइनवरइस्थिगुम्म सद्धिं संपरिबुडे सबोसहिसबरवणसम्बसामइसमगे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुवकयतवप्पभावनिविद्वसंचिअफले मुंजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेजेत्ति (सूत्र ६९)
'तए ण'मिति, ततः-पट्खण्डभरतसाधनानन्तरं स भरतो राजा चतुदेशरतादीनां सार्थवाहप्रभृत्यन्तानामाधिप| त्यादिकं कारयन् पालयन् मानुष्यकानि सुखानि भुझे इत्यन्वयः, सर्व प्राग्वत् व्याख्यातार्थ, नवरं पपश्चाशतोऽन्तरो-18| दकानां-जलान्तर्वतिसन्निवेशविशेषाणां न तु समयप्रसिद्धयुग्मिमनुजाश्रयभूतानां षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपानां तेषु कस्या-18
प्याधिपत्यस्थासम्भवात् , एकोनपञ्चाशतः कुराज्यानां-भिल्लादिराज्यानामिति, केषु सत्सु सुखानि भुझे इत्याह-उपह-18॥२७७॥ I|| तेषु-विनाशितेषु निहतेषु प-अपहतसर्वसमृद्धिषु कण्टकेषु-गोत्रजवरिषु उद्धृतेषु-देशानिर्वासितेषु मर्दितेषु च-मान-10 18म्लानि प्रापितेषु सर्वशत्रुषु-अगोत्रजवैरिघु, एतत्सर्व कुतो भवतीत्याह-निर्जितेषु-भग्नवलेषु सर्वशत्रुषु उद्विप्रकार
अनुक्रम [१२४]
immitrinary
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६९]
दीप
वरिषु अत्र सर्वशत्रुविति पदं देहलीप्रदीपन्यायेनोभयत्र योज्यं, कीदृशो भरत इत्याह-भरताधिपो नरेन्द्रः चन्दनेन चर्चित-समण्डनं कृतमहं यस्य स तथा, वरहारेण रतिदं-द्रष्टणां नयनसुखकारि वक्षो यस्य स तथा, वरमुकुटविशिएका.चौँ तु 'वरमउडाविद्धए' इति,तत्र आविद्धए इति आविद्धं परिहितं परमुकुट अनेन स तथा, प्राकृतत्वात् पदव्य-18 त्ययः, वरववभूषणधरः सर्वर्तकसुरभिकुसुमानां माल्यैः-मालाभिः शोभितशिरस्क: वरनाटकानि-पात्रादिसमुदाय-18 रूपाणि नाटकीयानि च-नाटकप्रतिबद्धपात्राणि वरस्त्रीणां-प्रधानस्त्रीणां गुल्म-अव्यक्तावयवविभागवृन्दं तेन तृती
यालोप आर्षत्वात् सार्द्ध सम्परिवृतः सर्वोषध्यः-पुनर्नवाद्याः सर्वरलानि-कर्केतनादीनि सर्वसमितयः-अभ्यन्तरादि६ पर्षदस्ताभिः समग्रः-सम्पूर्णः, अत एव सम्पूर्णमनोरथः हतानां-पुमर्थत्रयभ्रष्टत्वेन जीवन्मृतानां अमित्राणां-शत्रूणां ।
मानमथनः, कीदृशानि सुखानि भुक्के इत्याह-पूर्वकृततपःप्रभावस्य निविष्टसंचितस्य-निकाचिततया संचितस्य तस्यैव है।
ध्रुवफलत्वात्, परनिपातः पदस्थापत्वात् , फलानि-फलभूतानि, कीदृशो भरतो?-भरते-अस्मिन् क्षेत्रे प्रथमभरता-18 | धिपत्वेन प्रसिद्धं नामधेयं-नाम यस्य स तथा, विशेष्यपदं तु 'तए णं से भरहे राया' इत्यत्रैवीकं, अनेनैकवाक्ये || द्विविशेष्यपदं कथमित्याशङ्का निरस्ता ॥ अथास्य नरदेवस्य धर्मदेवत्वमाप्तिमूलमाह
तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ जेणेष मजणघरे तेणेव उबागच्छइ २ त्ता जाव ससिब्ब पिअदसणे गरबई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव आवंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरत्यामिमुहे णिसीअइ २ ता आईसघरसि अत्तार्ण देहमाणे २ चिट्ठा, तए णं तस्स भरहस्स रणो सुभेणं परिणामेणं पसत्यहिं अज्झयसाणेहि लेसाहिं विसुज्झ
SacaSacacasasasasarasase
अनुक्रम [१२४]
भरतराज्ञ: केवलज्ञान, श्रामण्य, मोक्षप्राप्ति:
~210~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू द्वीपशा
प्रत
सूत्रांक
श्रामण्यं
[७०]
दीप अनुक्रम [१२५]
माणीहिं२ ईहापोहमगणगवेसणं करेमाणस्स तयावरिजाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकर अपुचकरणं पविट्ठस्स अणंते अणु- ३ वक्षस्कारे
चरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे, तए णं से भरहे केबली सयमेवाभरणालंकार ओमुभह | भरतख न्तिचन्द्री- २त्ता सयमेव पंचमुहि लो करेइ २ चा आर्यसपराओ पडिणिक्यमइ २ चा अंतेउरमझमकोण जिगरछा र चा दसहि | केवलं या वृत्तिः
रायवरसहस्सेहि सखि संपरिखुढे विणीअं रायहाणि मझमझेणं णिग्गच्छइ २ ता मज्झदेसे मुइंसुहेणं विहय २ सा जेणेव भट्ठा
वए पछते तेणेष उवागच्छद २ ता अट्ठावयं पायं सणिों २ दुरुहइ २ ता मेघषणसण्णिकासं देवसण्णिवार्य पुढविसिलापट्टय ॥२७८॥
मोक्षश्व
सू. ७० पडिलेहेइ २ ता संलेहणासूसणाझूसिए भत्तपाणपडिआइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे २ विहद, तए णं से भरहे केवली सत्तत्तरिं पुबसयसहस्साई कुमारासमझे बसित्ता एग वाससहस्स मंडलिअरायमज्झे वसित्ता छ पुग्यसयसहस्साई वाससहस्सूणगाई महारायमझे वसित्ता तेसीह पुनसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता एग पुखसयसहस्सं देसूणगं केवलिपरिआर्य पाणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामनपरिआय पाउणित्ता चउरासीइ पुब्बसयसहस्साई सम्बाउ पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपापएणं सवणेणं णक्सत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिजे आउए णामे गोए कालगए वीइकते समुजाए छिण्णजाइजरामरणवन्धणे सिखे पुढे मुत्ते परिणिल्युरे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ इति भरतचकिचरितं (सूत्रं ७०)
'तए 'मित्यादि, ततो-वर्षसहस्रोनषट्पूर्वलक्षावधिसाम्राज्यानुभवनानन्तरं स भरतो राजा अन्यदा कदाचियत्रैव ॥२७॥ 18|| मजनगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च यावच्छशीव प्रियदर्शनो नरपतिर्मजनगृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च
खवेषसौन्दर्यदर्शनार्थ यौवादर्शगृहं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखो ।
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७०]
दीप
अनुक्रम [१२५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Eikennitine
निषीदति निषद्य चादर्शगृहे आत्मानं प्रेक्षमाणः २-तत्र प्रतिविम्बितं सर्वाङ्गस्वरूपं पश्यन् पश्यंस्तिष्ठति - आस्ते, अत्र च 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति' रित्ययं सम्प्रदायो बोध्यः, तद्यथा - 'तत्र च प्रेक्षमाणस्य, स्वं वपुर्भरतेशितुः । अङ्गुल्या | एकतमस्या, निपपातांगुलीयकम् ॥ १ ॥ तदंगुल्या गलितमप्यंगुलीयं महीपतिः । नाज्ञासीद्वहिंगो बर्हभाराद्वर्हमिवै| ककम् ॥ २ ॥ वपुः पश्यन् क्रमेणेक्षांचक्रे तां चत्रयनूर्मिकाम् । अंगुलीं गलितज्योत्स्नां दिवा शशिकलामिव ॥ ३ ॥ अहो विशोभा किमसाबंगुलीति विचिन्तयन् । ददर्श पतितं भूमावंगुलीयं नरेश्वरः ॥ ४ ॥ किमन्यान्यपि विशोभाम्यङ्गान्याभरणैर्विना । इति मोक्तुं स आरेभे, भूषणान्यपराण्यपि ॥५॥ इति, एवं प्रवृत्तस्य तस्य किमजनीत्याह- 'तए ण-' मित्यादि, ततो-वपुर्न्यस्तभूषणमोचनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः शुभेन परिणामेन “अन्तःक्लिन्नस्य विष्ठाद्यैर्मलैः स्रोतोभवैर्बहिः । चिन्त्यमानं किमप्यस्य, शरीरस्य न शोभनम् ॥ १ ॥ इदं शरीरं कर्पूरकस्तूरीप्रभृतीन्यपि । दूषयत्येव पाथोदपयांस्यूपरभूरिव ॥ २ ॥ यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं तन्मध्याह्ने विनश्यति । तदीयरसनिष्पन्ने, काबे का नाम सारता १ ॥२३॥ इति शरीरासारत्व भावनारूपया जीवपरिणत्या प्रशस्तैरध्यवसानैः - उक्तस्वरूपैर्मनः परिणामः लेश्याभिःशुक्लादिद्रव्योपहितजीवपरिणतिरूपाभिर्विशुद्धयन्तीभिः - उत्तरोत्तरविशुद्धिमापद्यमानाभिरापद्यमानाभिर्निरावरणवपुर्वैरूप्यविषयकमीहापोहमार्गणागवेषणं कुर्वतस्तदावरणीयानां केवलज्ञानदर्शननिबन्धकानां चतुणां घातिकर्मणां क्षणसर्वथा जीवप्रदेशेभ्यः तदीयपुङ्गलपरिशाटनेन प्राग्व्याख्यातानुत्तरादिविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानदर्शनमुत्पन्नमिति,
File&in the Cy
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Desenegengese
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ----------------------
------ मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या वृत्तिः
[७०]
सू. ७०
दीप अनुक्रम [१२५]
श्रीजम्बू
कीदृशमित्याह-कर्मरजसा विकिरणकरं-विक्षेपकर, कीदृशस्य भरतस्य ?-अपूर्वकरणं-अनादौ संसारेऽपातपूर्व ४३वक्षस्कारे डीपशा-18| ध्यानं शुक्लध्यानं प्रविष्टस्य प्राप्तस्येत्यर्थः, अन्न च ईहादिपदेषु समाहारद्वन्द्वः, तत्रावग्रहपूर्वकत्वादीहादीनां प्रथम हा भरतस्य न्तिचन्द्री-18 तदादेखः, तथाहि-अये ! इह निरलंकारे वपुषि शोभा न दृश्यते इत्यवग्रहः, यथा दरस्थपुरोवर्तिनि वस्तुनि केवल किमिदमिति भावः, अथ सा शोभा औपाधिकी वा नैसर्गिकी वा इत्यवगृहीतार्थाभिमुखा मतिचेष्टा पर्यालोचनरूपा
मोक्षश्व ॥२७९॥ १७९॥181 ईहा, यथा तत्रैव स्थाणुर्वा पुरुषो वा, नन्वियं संशयाकारतया संशय एव, स च कथमुत्तरकालभाविसम्यग्निश्चयापर-18
पर्यायस्यापोहस्य हेतुर्भवति, विरुद्धकोट्यवगाहित्वादिति', उच्यते, उत्कटकोटिकसंशयरूपत्वेनास्याः सम्भावनारूपाया || 18| निश्चयकारणत्वस्याविरुद्धत्वात्, इयमोपाधिक्येव न नैसर्गिकी बाह्यवस्तुसंसर्गजन्यत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् इति ईहित- 18 विशेषनिर्णयरूपोऽपोहः, यथा तत्रैव स्थाणुरेवायं न पुरुष इति, अस्याः प्रकर्षापकर्षों बाह्यवस्तुप्रकर्षापकर्षानुविधायिनावि-18
त्यन्वयधर्मालोचनं मार्गणा यथा स्थाणौ निश्चेतव्य इह वल्युत्सर्पणादयो धर्माः सम्भवन्ति, स्वाभाविकत्वे उत्तानदृशां भारभूतस्याभरणस्य वपुषि धारणबुद्धिर्न स्यादिति गवेषणं, यथा तत्रैव इह शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्माना दृश्यन्ते इति, अत्र चेहादीनन्तरेण हानोपादानबुद्धिर्न स्यादिति तद्ग्रहणम् ॥ अथोत्पन्न केवलः किं करोतीत्याह- ॥२७९॥ 'तए ण'मित्यादि,ततः केवलज्ञानानन्तरंस भरतः आसनप्रकम्पावधिना शक्रेण केवलिन् ! द्रव्यलिङ्गं प्रपद्यस्व यथाऽहं। वन्दे विदधे च निष्क्रमणोत्सवमित्युक्तः सन् स्वयमेवाभरणभूतमलङ्कारं वस्त्रमाल्यरूपमवमुशति-त्यजति, अत्र भूषणा-12
Semesesekesese
Sanileoamil
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७०]
दीप
अनुक्रम [१२५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
लङ्कारस्य पूर्व त्यक्तत्वात् केशालङ्कारस्य च तित्यक्ष्यमाणत्वात् परिशेषात् वस्त्रमाल्यालङ्कारयोरवग्रहः, स्वयमेव | पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति कृत्वा च उपलक्षणात् सन्निहितदेवतयाऽर्पितं साधुलिङ्गं गृहीत्वा चेति गम्यं ततः शक्रवन्दितः सन् आदर्शगृहात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तःपुरमध्येमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य च दशभी राजसहस्रैः सार्द्धं संपरिवृतो विनीताया राजधान्या मध्यंमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य च मध्यदेशे - कोशलदेशस्य मध्ये सुखसुखेन विहरति । तदनु किं विधत्ते इत्याह- 'विहरित्ता जेणेव अट्ठावए' इत्यादि, विहृत्य च यत्रैवाष्टापदः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चाष्टापदं पर्वतं शनैः २ सुविहितगत्या 'दवदवस्त न गच्छिजा' इति वचनात् आरोहति आरुह्य च घनमेघसन्निकाशं - सान्द्रजलदश्यामं पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् देवानां सन्निपातः - आगमनं रम्यत्वात् यत्र स तथा तं, पृथि वी शिलापट्टक:- आसनविशेषस्तं प्रतिलेखयति, केवलित्वे सत्यपि व्यवहारप्रमाणीकरणार्थं दृष्ट्या निभालयति, प्रतिलिख्य च सिंहावलोकनन्यायेनात्रापि आरोहतीति बोध्यं संलिख्यते- कृशीक्रियते शरीरकषायाद्यनयेति संलेखना - तपोविशेपलक्षणा तस्या जोषणा सेवना तया जुष्टः सेवितो झूषितो वा क्षपितः यः स तथा प्रत्याख्याते भक्तपाने येन स तथा, कान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, 'पादोपगतः' पादो-वृक्षस्य भूगतो मूलभागस्तस्यैवाप्रकम्पतयोपगतम् - अवस्थानं यस्य स तथा कार्य-मरणमनवकांक्षन्- अवाञ्छन्, उपलक्षणाज्जीवितमप्यवाञ्छन्, अरतद्विष्टत्वाद्विहरति, अथ स भरतो यस्मिन् पर्याये यावन्तं कालमतिवाह्य निर्ववृते तथाह-- 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतः केवली सप्तसप्तर्ति
Fate&ione Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ------------------------
------ मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[७०]
| सू.७०
दीप अनुक्रम [१२५]
श्रीजम्मू
181 पूर्यशतसहस्राणि कुमारवासमध्ये-कुमारभावे उषित्वा भरतप्रसवानन्तरमेतावन्तं कालं ऋषभस्वामिनो राज्यपरिपा-18|श्वक्षस्कारे द्वीपशा- लनात्, एक वर्षसहनं माण्डलिकराजा-एकदेशाधिपतिः भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य माण्डलिकत्वं तन्मध्ये पित्वा पट भरतख 18 पूर्वसहस्राणि वर्षसहनोनानि महाराजमध्ये-चक्रवर्त्तित्वे उषित्वा त्र्यशीतिं पूर्वशतसहस्राणि अगारवासमध्ये गृहित्वे |
केवलं या वृत्तिः इत्यर्थः उपित्वा एकं पूर्वशतसहस्र अन्तर्मुहत्तोंन केवलिपोयं प्राप्य-पूरयित्वा गृहित्वे एव भावचारित्रप्रतिपत्त्यनम्त-IN
श्रामपं
मोक्षश्च IR८०॥ रमन्तर्मुहूर्तेन केवलोत्पत्तः, तदेव पूर्वशतसहस्रं बहुप्रतिपूर्ण-सम्पूर्ण, तेनान्तर्मुहर्जुनाधिकमित्यर्थः, भावचारित्रस्यात्र
विवक्षा न तु द्रव्यचारित्रस्य तस्य केवलानन्तरं प्रतिपत्तेः, श्रामण्यपर्याय-यतित्वं प्राप्य चतुरशीतिं पूर्वशतसह|| नाणि सर्वायुः परिपूर्य मासिकेन भकेन-मासोपवासैरित्यर्थः अपानकेन-पानकाहारवर्जितेन श्रवणेन नक्षत्रेण योगमु-181 |पागतेन चन्द्रेण सहेति गम्यं, क्षीणे वेदनीये आयुषि नाम्नि गोत्रे च भवोपवाहिकर्मचतुष्टयक्षये इत्यर्थः, 'कालगए' ॥ इत्यादि पदानि माग्वत्, इतिशब्दोऽधिकारपरिसमाप्तिद्योतका, स चायं-से केणठेणं भंते! एवं बुखाइ भरहे वासे २' इति सूत्रेण नामान्वर्थ पृच्छतो गौतमस्य प्रतिवचनाय 'तत्थ णं विणीआए रायहाणीए भरहे णाम राया चाउरंतचक्क-18 वट्ठी समुप्पज्जित्था' इत्यादिसूत्रर्भरतचरित्रं प्रपश्चितं, तच्च परिसमाप्तमित्यर्थः, तेन भरतः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यना-8॥२८॥ | दित्वादप्रत्यय इति निरुक्तवशाद् भरतं क्षेत्रमिति तात्पर्यार्थः । अथ प्रकारान्तरेण नामाम्वर्थमाह
भरहे भ इत्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए जाप पलिओवमहिईए परिवसह, से एएणद्वेणं गोभमा ! एवं बुधा भरहे वासे २ इति ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७१]
अदुत्तरं च णं गो०! भरहस्स वासस्स सासए णामधिजे पण्णत्ते जंण कयाइ ण आसि ण कयाई णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुर्वि च भवद अ भविस्सह अ धुवे णिअए सासए अक्खए अव्वए अवहिए णिये भरणे पासे (सूत्र-७१)
भरतश्चात्र देवो महर्द्धिको महाद्युतिको यावत्पदात् 'महायसे' इत्यादि पदकदम्बकं ग्राह्य, पल्योपमस्थितिकः परि-11 | वसति तद् भरतेति नाम, एतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते भरतं वर्ष २, निरुक्तं तु प्राग्वत् ॥ उक्कं यौगिकयुक्त्या नाम, || अथ तदेव रूच्या दर्शयति-'अदुत्तर'मिति, अथापरं चः समुच्चये णं वाक्यालङ्कारे गौतम! भरतस्य वर्षस्य शाश्वतं | नामधेयं निनिर्मित्तकमनादिसिद्धत्वाद्देवलोकादिवत् प्रज्ञप्त, शाश्वतत्वमेव व्यक्त्या दर्शयति-पन्न कदाचिन्नासीदित्यादि पावत्, एतेन भरतनाम्नश्चक्रिणो देवाच्च भरतवर्षनाम प्रवृत्तं भरतवर्षाच तयो म भरतं स्वकीयेनास्यास्तीति निरुकवशेन प्रावर्त्ततेत्यन्योऽन्याश्रयदोषो दुर्निवार इति वचनीयता निरस्ता॥ इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानअकबरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयुगप्रधानोपमानसाम्पतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरनमञ्जूषानाम्या
भरतक्षेत्रप्रवृत्तिनिमित्ताविर्भावकभरतचक्रिचरितवर्णनो नाम तृतीयो वक्षस्कारः ॥३॥ १ इति भरतक्षेत्रवत्तभ्यतानिवद्धः प्रथमोऽधिकारः (इति० ही पत्ती)।
दीप अनुक्रम [१२६]
Elec
IN
अत्र तृतिय-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~216
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मू
अथ चतुर्थवक्षस्कारः ॥४॥
प्रत
द्वीपनान्तिचन्द्रीया वृचिः ॥२८॥
४वक्षस्कारे 18 क्षुल्लहिम
वत्खरूपं 18सू. ७२
सूत्रांक
[७२]
SEA
दीप अनुक्रम [१२७]
अथ क्षुल्लहिमवगिरेरवसरःकहिणं भंते । जम्युरीये २ जुलहिमवते णामं वासहरपन्चए पण्णत्ते?, गोमा । हेमवयस्स बासस्स दाहिणेणं भरहस्स बासस्स उत्तरेणं पुरथिमलपणसमुदस्स पत्थिमेणं पचस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेण एत्य णं जम्बुरी वीवे चुलहिमवंते णाम वासहरपवए पुण्णते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुई पुढे पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुहं पुढे पञ्चत्थिमिलाए कोडीए पञ्चस्थिमिहं लवणसमुई पहे, एगं जोअणसयं उद्धं उच्चत्तेणं पणवीसं जोभणाई उबेहेणं एग जोभणसहस्स बावण्णं च जोषणाई दुवालस य एगूणवीसइ भाए जोअणस्स विक्खंभेणंति, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं पंच जोअणसहस्साई तिणि अ पण्णासे जोअणसए पण्णरस य एगूणवीस इभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडिणायया जाव पचत्यिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिलं लवणसमुई पुट्ठा चउब्वीसं जोभणसहस्साई णव य बत्तीसे जोअणसए अद्धभागं च किंचिविसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता, तीसे धणुपट्टे दाहिणेणं पणवीसं जोअणसहस्साई दोष्णि अ तीसे जोअणसए चत्वारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते, रुअगसंठाणसंठिए सब्बकणगामए अच्छे सण्हे तहेव जाव पडिरूवे
॥२८॥
Re
अथ चतुर्थ-वक्षस्कार: आरभ्यते
| अथ क्षुद्रहिमवंतपर्वतस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
-------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७२]
उभओ पासिं दोहि पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुष्हवि पमाणं वाष्पगोत्ति । चुहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णचे से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाणमंतरा देवा व देवीओ अ आसयंति जाव विहति (सूत्र-७२)
'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षलः क्षद्रोवा-महाहिमवदपेक्षया लघुहिमवान् क्षुलहिमवान् क्षुद्रहिम-16 वान (वा) नाम्ना वर्षधर:-पर्वतः प्रज्ञप्तः, वर्षे-उभयपार्थस्थिते द्वे क्षेत्रे धरतीति वर्षधरः, क्षेत्रद्वयसीमाकारी गिरिरित्यर्थः, 18स चासौ पर्वतश्च वर्षधरपर्वतः आख्यातस्तीर्थकृद्भिरिति, शेष सुगम, नवरं एकं योजनशतं ऊर्बोच्चत्वेन पंचविंशतियों-18 18 जनानि उद्वेधेन-भूगतत्वेन, उच्चत्वचतुर्थभागस्यैव भूगतत्वात् , एक योजनसहस्रं द्विपञ्चाशच योजनानि द्वादश चैको-18 18 नविंशतिभागान योजनस्य विष्कम्भेन, अस्योपपत्तिस्तु द्विगुणितजम्बूद्वीपच्यासस्य नवत्यधिकशतेन भागहरणे भवति,
क्षुद्रहिमवतो भरताद् द्विगुणत्वात् , अत्र च करणविधिर्भरतवर्ष विष्कम्भ इव ज्ञेयः, अथास्य बाहे आह-तस्स बाहा' | इत्यादि, तस्य-क्षुद्रहिमवतो बाहे प्रत्येकं पूर्वपश्चिमयोः पंच योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि पंचाशदधिकानि पंचदश च योजनस्यैकोनविंशतिभागान् एकस्य योजनकोनविंशतितमभागस्यार्द्ध च यावदायामेन प्रज्ञप्ते, सूत्रे च वच-18| नव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, स्थापना यथा-योजन ५३५० कला १५१ अस्य व्याख्यानं वैताब्याधिकारसूत्रतो ज्ञेयं, प्रायः
१ गुरुधशुषा बहुपणुपट्टेणं अद्विभ भाहा २५२३०, १४५२० १२, १०७०11३४५०५३५.२
दीप अनुक्रम [१२७]
3299990SO90sae
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Sanelem
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७२]
दीप अनुक्रम [१२७]
श्रीजम्बू- समसूत्रत्वात् । अर्थतस्य जीवामाह-'तस्स जीवा' इत्यादि, तस्य-क्षुद्रहिमवतो जीवा उत्तरतो ग्राह्या, प्राचीनप्रतीची-1 वक्षस्कारे
द्वीपशा- नायता, जाव पञ्चत्थिमिलाए इत्यादि प्राग्वत्, यावत्पदात् पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा इति पाइदखन्तिचन्द्रीमाह्य, आयामेन चतुर्विंशतियोजनसहस्राणि नव च द्वात्रिंशदधिकानि योजनशतानि अर्द्धभार्ग च-कलार्द्ध प्रज्ञप्ता
रूपं सू.७३ या चिः
किंचिद्विशेषोना किंचिदूना इत्यर्थः, किंचिदूनत्वं चास्या आनयनाय वर्गमूले कृते शेषोपरितनराश्यपेक्षया द्रष्टव्यं, २८२|| | अथास्याः परिधिमाह-'तीसे'इत्यादि, तस्याः क्षुद्रहिमवज्जीवायाः धनुःपृष्ठं दक्षिणतो-दक्षिणपार्थे पंचविंशतिः योजन-1
सहस्राणि द्वे च त्रिंशदधिके योजनशते चतुरश्च एकोनविंशतिभागान योजनस्य परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्त, यच्चात्र ISI'तीसे' इतिशब्देन जीवा निर्देशस्तत्स्वस्थ जीवापेक्षया स्वस्वधनुःपृष्ठस्य यथोक्तमानतोपपत्त्यर्थ, अन्यथा न्यूनाधिक18|| मानसम्भवात् , अथ पर्वतं विशेषणैर्विशिनष्टि-'रुअग'इत्यादि, रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वकनकमय इत्यादि प्राग्वत्, 18
नवरं द्वयोरपि पद्मवरवेदिकावनखण्डयोः प्रमाणं वर्णकश्च ज्ञातव्याविति शेषः । अथास्य शिखरस्वरूपमाह-'चुल्ल-18 | हिमवंत'मित्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं बहुसमत्वं चात्र नदीस्थानादन्यत्र शेयं, अन्यथा नदीश्रोतसां संसरणमेव न स्यात् ।
॥२८२॥ तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसमाए इत्व णं इके महं पउमरहे णाम दहे पण्णत्ते पाईणपडिणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे इक जोमणसहस्सं आयामेणं पंच जोअणसवाई विक्वंमेणं दस जोभणाई उम्मेहेणं अच्छे सहे रययामयकूले
अथ पद्मद्रहस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७३]
दीप
अनुक्रम [१२८]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [3]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू. ४८
,
जाव पासाईए जब पडिरूवेत्ति से णं एगाए पडमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्वओ समंता परिक्खिते वेइआवणसंडवण्णओ भाणिभव्योति, तस्स णं पउमदहस्स चंउदिसिं चन्तारि तिसोवाणपडिरुवगा पण्णत्ता, वण्णावासो भाणिभव्योति । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता, ते णं तोरणा णाणामणिमया, तस्स णं पउमदहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं महं एगे पडमे पण्णत्ते, जोअणं आयाम विक्खंभेणं अद्धजोजणं वाहणं दस ओभणाई उब्बेणं दो कोसे ऊसिए जलताओ साइगाई दसजोजणाई सम्बम्गेणं पण्णत्ता, से णं एगाए जगईए सव्वओ समता संपरिक्खिते जम्बुद्दीवजगइप्पमाणा कवि तह चैव पमाणेणंतिं, तस्स णं पडमस्स अयमेवे वण्णावासे पं० सं०-वइरामवा मूला रिट्ठामए कंदे वेरुलिआमए णाले वेरुलिआमयां वाहिरपत्ता जम्बूणयामया अतिरपत्ता तवणिज्जमया केसरा णाणामणिमया पोक्खरत्यिभाया कणगामई कणिगा, सा णं अद्धजोयणं आयामविक्खभेणं कोसं बाहेणं सव्वकणगामई अच्छा, तीसे णं कण्णिआए उपिं बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णामए आलिंग०, तस्स णं बहुसमरमणिज्जन्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए, एत्थ णं महं एगे भवणे प० को आयामेणं अद्धको विक्संमेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चतेणं अणेग संभसयसण्णिविद्वे पासाईए दरिसणिजे, तस्स णं भवणस्स तिदिसिं तओ दारा पं० ते णं द्वारा पञ्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेनं अढाइलाई धणुसवाई विक्संमेणं तावति चेव पवेसेणं सेआवरकणगभूमिआ जान वणमालाओ भवाओ, तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणि भूमिभागे पणत्ते से जहाणामए आलिंग०, तस्स णं बहुमज्झदे सभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेटिमा पं०, सा णं मणिपेडिआ पंचधणुसयाई आयामविसंभेणं अद्धाइलाई धणुसयाई बादल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा, तीसे णं मणिपेडिनाए उपि एत्थ णं महं एगे सयणजे पण्णत्ते सद
F Ervale & Puna e Oly
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esesese statsoevestocenes
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२८३॥
|| वक्षस्कारे
हमवतीयपमद्रहाधिकार
सूत्रांक
[७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
Secrates0000000000007
णिजवण्णभो भाणिभव्यो । से णं पउगे अण्णणं अवसरणं परमाणं तद चत्तप्पमाणमित्ताणं सबओ समंता संपक्सिते, ते ण पतमा अद्धजोअणं आयामचिक्खंभेणं कोसं बाहलेणं दसजोषणाई खब्वेहेणं कोसं ऊसिया जलंताओ साइरेगाई दसजोषणाई उच्चत्तेणं, तेसि ण पउमाणं अयमेआरुवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-वरामया मूला जाव कणगामई कण्णिा , साणं कण्णिा कोस आयामेणं अशकोसं वाहलेणं सबकणगामई अच्छा इति, तीसे ण कणिआए उप्पि बहुसमरमणिजे जाव मणीहि उत्सोभिए, तस्स णं परमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्य णं सिरीए देवीए चलण्हं सामाणिअसाहस्सीण चचारि पउमसाहस्सीओ पण्णताओ, तस्स णं पउमस्स पुरथिमेणं एत्य पंसिरीए देवीए चउण्डं महसरिआणं चत्तारि पउमा प०, तस्स णं पउमस्स दाहिणपुरथिमेण सिरीए देवीए अभितरिआए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहत्सीणं अट्ठ पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ. वाहिणेणं मज्झिमपरिसाए दसहं देवसाहस्सीण इस पउमसाहसीओ पण्णत्ताओ, दाहिणपस्थिमेणं बाहिरिआए परिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं वारस पउमसाहस्सीओ पण्णताओ, पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिबईणं सत्त पदमा पण्णता, तस्स पं पउमस्स चउदिसि सवो समंता इत्य ण सिरीए देवीए सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से ण तीहिं पउमपरिक्खे. बेहि सामो समंता संपरिक्खित्ते तं०-अभितरकेणं मज्झिमएणं वाहिरएणं, अमितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीस पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्तागो मनिझमए पषमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरए पलमपरिक्खेथे अडयालीसं पत्रमसयसाहस्सीमो पण्णतामो, एवामेव सपुत्वावरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीओ भवं. तीति अक्खायं । से केणढणे भंते ! एवं बुच्चइ-पउमदहे २., गोअमा! पउमबहे णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे उप्पलाई जाव
॥२८३॥
Jimillenniti
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
सयसहस्सपत्ताई पटमदहप्पमा पउमरहवण्णाभाई सिरीज इत्य देवी महिन्द्वीआ जाब पलिओक्महिईमा परिवसइ, से एएणद्वेणं जाव अदुत्तरं च णं गोअमा! पउमदहस्स सासए यामव्वेने पण्णत्ते ण फयाइ णासि न० (सूत्र ७३)
अर्थतन्मध्यवर्तिहदस्वरूपनिरूपणायाह-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-क्षुद्रहिलवतो बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य । बहुमध्यदेशभागे अत्रावकाशे एको महान् पद्मद्रहो नाम द्रहः पद्मद्रहो नाम इदो वा प्रज्ञप्तः, पूर्वापरायत उत्तरदक्षि-10 णविस्तीर्णः एक योजनसहनमायामेन पंच योजनशतानि विष्कम्भेन दश योजनान्युधेिन-उण्डत्वेन अच्छोऽनाविल
जलत्वात् , श्लक्ष्णः सारवजादिमयत्वात् , रजतमयकूल इति व्यक्त, अत्र यावत्करणात् इदं द्रष्टव्यं-समतीरे वइरा-18 ४ मयपासाणे तवणिज्जतले सुवण्णसुब्भरययामयवालुए वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे सुहोयारे महत्तारे णाणाम-16 णितित्वसुबद्धे चार कोणे अणुपुषसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संछन्नपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुअसुभगसोगंधिअपुंड-18
रीअसयवत्तफुल्लकेसरोवचिए छप्पयपरिभुज्जमाणकमले अच्छविमलसलिलपुण्णे परिहत्वभमंतमच्छ कच्छभअणेगसउण-18 18| मिहुणपरिअरिए' इति, पासादीए अत्र यावत्पदात् 'दरिसणिजे अभिरूवे इति, एतद्व्याख्या तु जगत्युपरिगतवा-18
प्यादिवर्णकाधिकारतो ज्ञेयेति, 'से ण'मित्यादि, स पद्मद्रहः एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, वेदिकावनखण्डवर्णको भणितव्यः, प्राग्वदित्यर्थः, 'तस्स प'मित्यादि व्यक्तं, 'तेसि ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं णाणामणिमयेत्ति वर्णकैकदेशेन पूर्णस्तोरणवर्णको ग्राह्यः, अथात्र पद्मस्वरूपमाह-'तस्स ण'-181
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
श्रीजम्प- मित्यादि, तस्य-पनद्रहस्य बहुमध्यदेशभागः अत्रान्तरे महदेकं पर्ण प्रज्ञप्त, एक योजनमायामतो विष्कम्भतश्च अर्द्ध- श्वक्षस्कारे
द्वीपशा- योजनं बाहल्येन-पिण्डेन दश योजनान्युद्वेधेन-जलावगाहेन द्वी कोशावुच्छ्रितं जलान्तात्-जलपर्यन्तात् , एवं सातिरे- हमवतीयन्तिचन्द्री-II काणि दश योजनानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि, जलावगाहोपरितनभागसत्ककमलमानमीलने एतावत एव सम्भवात् ।।
पबद्रहाया वृत्तिः
धिकार से णमित्यादि, तत्पद्ममेकया जगत्या-प्राकारकल्पया सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, सा च जगती जम्बूद्वीपजगतीप्र॥२८॥ माणा वेदितव्या, एतच्च प्रमाणे जलादुपरिष्टाद् ज्ञेयं, दशयोजनात्मकजलावगाहप्रमाणस्याविवक्षितत्वात् , गवाक्ष
कटकोऽपि-जालकसमूहोऽपि तथैव प्रमाणेन उच्चत्वेनाईयोजनं पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेनेत्यर्थः । अथ पद्मवर्णकमाह-'तस्स'त्ति तस्य-पद्मस्थायमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयानि मूलानि-कन्दादधस्तिर्यग्निर्गतजटा-18
समूहावयवरूपाणि अरिष्ठरत्नमयः कन्दो-मूलनालमध्यवर्ती ग्रन्धिः बैडर्यमयं नालं-कन्दोपरि मध्यवर्त्यवयवः वैडूर्य-18 IS मयानि बाह्यपत्राणि, अनार्य विशेषो बृहत्क्षेत्रविचारवृत्त्यादौ-बाह्यानि चत्वारि पत्राणि वैडूर्यमयानि शेषाणि तु रक्त-18
सुवर्णमयानि, जम्बूनदं-ईषद्कस्वर्ण तन्मयान्यभ्यन्तरपत्राणि, सिरिनिलयमिति क्षेत्रविचारवृत्ती तु पीतवर्णमयान्यु
कानि, तपनीयमयानि-रक्तस्वर्णमयानि केसराणि-कर्णिकायाः परितोऽवयवाः नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागा:-IN IS कमलबीजविभागाः कनकमयी कर्णिका-बीजकोशः, अथ कर्णिकामानाद्याह-"सा ण'मित्यादि, सा-कर्णिका अर्द्ध-12
योजनमायामेन विष्कम्भेन च क्रोश बाहल्येन-पिण्डेन सर्वात्मना कनकमयी, अत एव कनकमयीति पूर्वविशेषणेना
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------- -------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
है। वयवविभागेऽपि कनकमयत्वं स्यादित्याशङ्का निरस्ता, 'अच्छा' इत्येकदेशेन सण्हा इत्यादिपदान्यपि ज्ञेयानि, तेषां | व्याख्या च प्राग्वत् । 'तीसे णमित्यादि, एतानि सर्वाण्यपि निगदसिद्धानि, शयनीयवर्णकश्चायं जीवाभिगमोक्तः-18 'तस्स णं देवसयणिजस्स अयमेआरूवे वण्णावासे पं०, तंजहा-णाणामणिमया पडिपाया सोबण्णिाआ पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई जम्बूणयामयाई गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए चिच्चे रययामई तूली लोहिअक्खा-181 मया विब्बोअणा तवणिजमईओ गंडोवहाणियाओं' इति से णं सयणिजे सालिंगणवहिए उभओविब्बोअणे उभओ उण्णए मज्झेणयगम्भीरे गंगापुलिणवालआउद्दालसालिसए ओअविअखोमवुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आइणगरूअबूरणवणी| अतूल तुल्लफासे सुविरइअरयत्ताणे रत्तंसुअसंचुडे सुरम्मे पासादीए ४'इति, अत्र व्याख्या-तस्य देवशयनीयस्थायमे-18 8 तद्पो वर्णव्यासः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादाः, मुलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः प्रति-18|
पादाः, सौवर्णिकाः-सुवर्णमयाः पादा:-मूलपादाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईषादीनि, वज्रमया-वज्ररत्नपूरिताः | सन्धयः, 'नानामणिमए चिच्चे'इति चिचं नाम न्यूतं विशिष्ट वानमित्यर्थः, रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि विबो| अणा इति-उपधानकानि उच्छीर्षकाणीतियावत् , तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः गल्लमसूरकाणीत्यर्थः तच्छयनीयं । सह आलिङ्गनवा-शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत्तत्तथा, उभयतः-उभौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विब्बोअणे| उपधाने यत्र तत्तथा, उभयत उन्नतं मध्ये नतं च तत् नम्रत्वात् गम्भीरं च महत्त्वात् तत्तथा, मकापुलिनवालु
दीप अनुक्रम [१२८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
|धिकार
श्रीजम्यू-18| कायाः अवदालो-विदलनं पादादिन्यासे अधोगमनमिति तेन सालिसे इति-सदृशकं यत्तत्तथा, तथा 'ओअविति |8| वक्षस्कारे द्वीपशा-18
| विशिष्ट परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं दुकूलं-वस्त्रं तदेव पट्टः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा, 'आईणगे'-18 हैमवतीयन्तिचन्द्री
पमहात्यादि, प्राग्वत् , सुविरचितं रजखाणं-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां यत्र तत्तथा, रक्तांशुकेन-मशकदंशादि-18 या वृत्तिः
निवारणार्थकमशकगृहाभिधानवखविशेषेण संवृतं, अत एव सुरम्यं, 'पासादीए'इत्यादि पदचतुष्कं प्राग्वत् । अथास्य 8 ॥२८॥ प्रथमपरिक्षेपमाह-'से ण'मित्यादि, तत्पद्ममन्येनाष्टशतेन पद्माना 'तदोच्चत्वप्रमाणमात्राणां' तस्य-मूलपद्मप्रमाण
स्थाद्ध-अर्द्धरूपा उच्चरवे-उच्छ्रये प्रमाणे च-आयामविस्तारबाहल्यरूपे मात्रा-प्रमाणं येषां तानि तथा तेषां, सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, अत्र जलोपरितनभागे उच्चत्वस्य व्यवहारप्राप्तस्य विवक्षणादर्द्धप्रमाणं सम्भवत्यन्यथा जलावगाहसहितोच्चत्वविवक्षायामुत्तरसूत्रे सातिरेकपञ्चयोजनानि इति वक्तव्यं स्यात् सामान्यतः, उक्तमेव मानं व्यनक्ति'ते ण'मित्यादि, प्रागुक्तमायं, एषां वर्णकमाह-'तेसि णमित्यादि, व्यक्तं, 'सा ण'मित्यादि, इदमपि व्यक्तं, 'तीसे ण'-18 | मित्यादि, व्यकं, एषु च श्रीदेव्या भूषणादिवस्तूनि तिष्ठन्ति इति सूत्रानुक्तोऽपि विशेषो बोध्यः । अथ द्वितीयपद्मपरिक्षेपमाह-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-मूलपद्मस्यापरोत्तरस्यां-वायव्यकोणे उत्तरस्या उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे च ॥ | सर्वसङ्कलनया तिसूयु दिक्षु अत्रान्तरे श्रिया देव्याश्चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चत्वारि पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य । पास्य पूर्वस्यां दिशि अत्र श्रियाश्चतसृणां महत्तरिकाणां चत्वारि पद्मानि प्रज्ञप्तानि, अत्र प्राग्यावर्णितविजयदेव-18
दीप अनुक्रम [१२८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
॥ सिंहासनपरिवारानुसारेण पार्पयादिपद्मसूत्राणि वक्तव्यानि, सुगमत्वाच्च न विप्रियन्ते, यावत्पश्चिमायां सप्तानीकाधि
पतीनां सप्त पद्मानि । अथ तृतीयपद्मपरिक्षेपसमयः-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य मुख्यपद्मस्य चतसृणां दिशां समाहार18 श्चतुर्दिक् तस्मिन् चतुर्दिशि सर्वतः समन्तात् , अत्रान्तरे श्रिया देव्याः षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां षोडश पद्म8 सहस्राणि, तथाहि-चत्वारि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणस्यां एवं पश्चिमोत्तरयोः । अथोक्तव्यतिरिक्ताः अन्येऽपि त्रयः
परिवेषाः सन्तीत्याह-से णं पउमे' इत्यादि, तत्पद्मं त्रिभिरुक्तव्यतिरिक्तैः पद्मपरिक्षेपैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्त, 8 तद्यथा-अभ्यन्तरकेण-अभ्यन्तरभवेन मध्यमकेन-मध्यभवेन वाहिरकेण-बहिर्भवेन, एतदेव व्यनक्ति-अभ्यन्तरपद्म
परिक्षेपे द्वात्रिंशत्पद्मानां शतसहस्राणि-लक्षाणि मध्यमके चत्वारिंशत्पद्मलक्षाणि बाह्येऽष्टचत्वारिंशत्पालक्षाणि प्रज्ञशानि, इदं च पद्मपरिक्षेपत्रिकं आभियोगिकदेवसम्बन्धि बोध्यं, अत एव भिन्नत्रिकख्यापनपरं सूत्रं निर्दिष्टं, अन्यथा ॥ सूत्रकृत् चतुर्थपश्चमषष्ठपरिक्षेपाः इत्येवाकथयिष्यत्, ननु तर्हि आभियोगिकजातीयानामेक एवात्मरक्षकाणामिव |वाच्या, उच्यते, उच्चमध्यनीचकार्यनियोज्यत्वेनाभियोगिकानां भिन्नत्वेन परिक्षेपस्यापि भिन्नत्वात् , अथ परिक्षेपत्रिकस्य पद्मसर्वानमाह-एवमेव'इत्यादि, एवमेव-उत्कन्यायेन सपूर्वापरेण-सपूर्वापरसमुदायेन त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैरेका पद्मकोटी विंशतिश्च पद्मलक्षाणि भवन्तीत्याख्यातं मयाऽन्येश्च तीर्थकृद्धिः, सङ्ख्यानयनं च स्वयमभ्यूह्य, षण्णां पद्मपरिक्षेपाणां मुख्यपझेन सह मीलने सैव सङ्ख्या पश्चाशत्सहस्रकशतविंशत्यधिका ज्ञातव्या, स्थापना यथा-१२०५०१२०, ननु
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
-------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
कमलानि कमलिन्याः पुष्परूपाणि भवन्ति, मूलं कन्दश्च कमलिन्या एव भवतः, नतु कमलस्य, तत्कथमत्र मूलकन्दावुक्ती, वक्षस्कारे | उच्यते, कमलान्यत्र न वनस्पतिपरिणामानि, किन्तु पृथिवीकायपरिणामरूपाः कमलाकारवृक्षास्तेन तेषामिमौ न विरु-131
हैमवतीय
पबद्रहान्तिचन्द्र द्धाविति, अत्राद्यपरिक्षेपपद्मानां मूलपद्मादर्द्धमानं सूत्रकृता साक्षादुक्तं, उत्तरोत्तरपरिक्षेपपद्मानां तु पूर्वपरिक्षेपपद्मे-13 भ्योऽर्द्धार्द्धमानता युक्तितः सङ्गच्छते विजयप्रासादपंकेरिच, अन्यथाऽस्पर्धिकमहर्द्धिकदेवानामाश्रयतारतम्यं चतुर्थादिम-ISITY
धिकारः ॥२८॥
हापरिक्षेपपनानामवकाशः शोभमानस्थितिकत्वं च न सम्भवेत्, अर्वार्द्धमानता चैवम्-मूलपा योजनप्रमाणं आये 18| परिक्षेपे पद्मानि द्विक्रोशमानानि द्वितीये क्रोशमानानि तृतीयेऽर्द्धकोशमानानि चतुर्थे पञ्चधनुःशतमानानि पञ्चमे सार्द्ध-18
द्विशतधनुर्मानानि षष्ठे सपादशतधनुर्मानानि, तथा मूलपद्मापेक्षया सर्वपरिक्षेपेषु जलादुच्छ्यभागोऽप्योर्द्धक्रमेण ज्ञेयः, 18| यथा मूलपमं जलात् क्रोशद्वयमुच्छ्ये आधे परिक्षेपे क्रोश उच्छ्रयः द्वितीये क्रोशार्द्ध तृतीये कोशचतुर्थाशः चतुर्थे || | कोशाष्टांशः पञ्चमे क्रोशषोडशांशः षष्ठे कोशद्वात्रिंशांश इति, एवमेव मूलपद्मापेक्षया परिक्षेपपद्मानां बाहत्यमप्य -18||
ईक्रमेण वाच्यं । ननु षट् परिक्षेपा इति विचार्य, योजनात्मना सहनत्रयात्मकस्य धनुरात्मना द्विकोटिद्विचत्वारिंशल्ल-15 क्षप्रमाणस्य द्रहपरमपरिघेः षष्ठपरिक्षेपपद्मानां पष्टिकोटिधनुःक्षेत्रमातव्यानां एकया पंक्त्त्या कथमवकाशः सम्भवति। एवं ॥२८॥ प्रथमपरिक्षेपवर्ज शेषपरिक्षेपाणामपि तत्परिधिमानपझमाने परिभाच्य वाच्यं, उच्यते, षट् परिक्षेपा इत्यर्व पजातीयाः | परिक्षेपा इति माय, आधा मूलपनार्धमाना जातिः द्वितीया तत्पादमाना तृतीया बदष्टममागमाना चतुर्थी तत्वोड
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
|शभागमाना पश्चमी तद्द्वात्रिंशत्तमभागमाना षष्ठी तच्चतुःषष्टितमभागमाना, ततश्च तत्परिधिक्षेत्रपरिक्षेपपद्मसङ्ख्या पद्मविस्तारान् परिभाव्य यत्र यावत्यः पंक्तयः सम्भवंति गणितज्ञेन करणीयास्तत्र तावतीभिः पंक्तिभिरेक एव परिक्षेपो ज्ञेयः, पद्मानामेकजातीयत्वात्, किमुक्कं भवति ?-महापरिक्षेप एकया पंक्तया न सम्माति, इह परिधिक्षेत्रस्या-11 ल्पत्वात् , पद्मानां च बहुत्वात् , ततः पंक्तिभिः पद्मानि पूरणीयानि, एवं परिक्षेपः पूर्णो भवति, द्रहपरिधिश्च प्रति-18 परिक्षेपं भिन्नमानकत्वात् सपद्मपरिक्षेपो भिन्न एव लक्ष्यते इति, न च द्रहक्षेत्रस्याल्पत्वमिति वाच्यं, अत्र गणितप- 1 || | दक्षेत्रस्य पञ्चलक्षयोजनप्रमाणत्वात् , सहस्रयोजनप्रमाणायामस्य पञ्चशतयोजनविष्कम्भेन गुणने एतावत एव लाभात् , || | पद्मावगाढक्षेत्रं तु सर्वसङ्ख्यया विंशतिः सहस्राणि पञ्चाधिकानि योजनानां षोडशभागीकृतस्यैकस्य योजनस्य त्रयोदश ||
भागाः, २००५.२ तथाहि-मूलपद्मावगाहो योजनमेकं जगती द्वादश योजनानि मूले पृथुरिति, जगतीपूर्वापरभाग-18 IS सत्कमूलव्यासयोर्मीलनेन पञ्चविंशतिर्योजनानीति, तथा तत्परिधौ प्रथमः परिक्षेपोऽष्टोत्तरशतपझानां तदवगाहक्षेत्र
| सप्तविंशतियोजनानि, अर्द्धयोजनप्रमाणत्वेन तेषामेकस्मिन् योजने चतुर्णामवकाशाच्चतुर्भिरष्टोत्तरशते भक्के एताव-18| | तामेव लाभात् , ननु योजनार्द्धमानवतां तावतां चतुःपञ्चाशद् योजनानि सम्भवेयुरिति, सत्यं, क्षेत्रबहुत्वादेकपंन्या
व्यवस्थितत्वेन प्रत्येक योजनचतुर्थांशावगाहकत्वेन च उक्तसव समुचिता, अत्र पद्मरुद्धक्षेत्रस्यैव भणनादिति, तथा | IS, द्वितीयः परिक्षेप एकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्राणां, तदवगाहक्षेत्र द्वे सहने पञ्चविंशत्यधिकं शतं च योजनानां एका-181
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७३]
दीप
अनुक्रम
[१२८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्यूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥२८७॥
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दश च भागा योजनस्य षोडशभागीकृतस्य २१२५ उपपत्तिस्तु योजनपादप्रमाणत्वादिमानि षोडश मान्तीति २४०११ इत्ययं परिक्षेपपद्मराशिः षोडशभिर्भज्यते, आगच्छत्यनन्तरोको राशिः अस्यां च परिक्षेपजाती पंक्तयः सूत्रोचस्वत्वदिशि निवेशनीयपद्मनिवेशनेन विषमवृत्ताः सम्भाव्यन्ते, पद्मानां विषमसङ्ख्याकत्वादिति, अथ तृतीयः परिक्षेपः पोटशसहस्रपद्मानां तदवगाहक्षेत्रं द्वे शते पञ्चाशदधिके योजनानां २५०, उपपत्तिस्तु अमूनि योजनाष्टमभागप्रमाणत्वाद्योजने चतुःषष्टिर्मान्तीति चतुःषष्ट्या १६००० प्रमाणः पद्मराशिर्भज्यते, उपतिष्ठते चायं राशिः अत्र च पंक्तयः समवृत्ता एव निवेशनीयाः, यथेच्छं चतुर्दिक्षु पद्मानां निवेशनादिति, अथ चतुर्थः परिक्षेपो-द्वात्रिंशलक्षपद्मानां तदवगाहक्षेत्रं द्वादश सहस्राणि पञ्चशताधिकानि योजनानां १२५००, आनयनोपायस्तु एषां योजनपोडशभागप्रमाणत्वायोजने २५६ मान्तीति पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयेन ३२००००० इत्ययं पद्मराशिर्भज्यते, ततो यथोक्तो राशिरायातीति, | अथ पञ्चमः परिक्षेपः चत्वारिंशलक्षपद्मानां तदवगाहक्षेत्रं त्रीणि सहस्राणि नव शतानि च षडधिकानि योजनानां चत्वा| रश्च षोडशभागा योजनस्य ३९०६ ४, उपपत्तिस्तु एषां योजनद्वात्रिंशत्तमांशप्रमाणत्वादमूनि योजने १०२४ मान्तीति | चतुर्विंशत्यधिकसहस्रेण ४०००००० रूपकस्य पद्मराशेर्भागहरणेन प्राप्यते यथोक्तराशिरिति, अथ षष्ठः परिक्षेपः- अष्टचत्वारिंशलक्षं पद्मानां तदवगाहक्षेत्रं एकादश शतानि एकसप्तत्यधिकानि योजनानां चतुर्दश च षोडशभागाः योजनस्य ११७१६, उपपत्तिश्चात्र - अमीषां योजनचतुःषष्टितमांशप्रमाणत्वाद्योजने ४०९६ मान्तीति षण्णवत्यधिकचतुःस
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पद्मद्रहा
विकार:
सू. ७३
॥२८७॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------- -------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
। हनै ४८००००० रित्यस्य पद्मराशेर्भागहरणात् यथोक्तो राशिरुपपद्यत इति पूर्वापरपझक्षेत्रयोजनमीलनेन च पूर्वोक्तं !
सर्वानं सम्पद्यते, परिक्षेपाश्चात्र वृत्ताकारेण बोझ्याः क्षेत्रस्य बहुत्वात् सम्भवन्तीति, पंक्तयश्चात्र द्रहक्षेत्रस्यायतचतुर-18 IS सत्वेन आयामविस्तारयोर्विषमत्वेऽपि पश्चशतयोजनमर्यादयैव कर्तव्या, ततः परं व्याससत्कपश्चशतयोजनानां पर्यव8 सितत्वात् , शोभमानाश्चोतरीत्यैव भवन्तीति । किञ्च-इमानि पद्मानि शाश्वतानि पार्थिवपरिणामरूपत्वात् , वानस्प-15
तान्यपि बहूनि तत्रोत्पद्यन्ते, यदाहुः श्रीउमाखातिवाचकपादाः खोपज्ञजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे-'नीलोत्पलपुण्डरी-18 IS कशतपत्रसौगन्धिकादिपुष्पाशित" इति, अन्यथा श्रीवाखामिपादाः श्रीदेवतासमर्पितानुपमेयमहापमानयनेन पुरिका-1
पुर्या कथं जिनप्रवचनप्रभावनामकार्षुरिति ? एतानि च न शाश्वतानि, तत्रत्यश्रीदेवतादिभिरवचीयमानत्वात् , यदूचुः, श्रीहेमचन्द्रसूरयःखोपज्ञपरिशिष्टपर्वणि-"तदा च देवपूजार्थमवचित्यैकमम्बुजम् । श्रीदेच्या देवतागारं, यान्त्या | | वर्षिरक्ष्यत ॥ १॥" इति, नन्वयमनन्तरोकोऽर्थः कथं प्रत्येतव्यः१, उच्यते, इदमेव द्वितीयपरिक्षेपसूत्रं प्रत्यायक, तथाहि-अत्रैकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्रकमलानि उक्तदिशि माययितव्यानि, तानि च क्रोशमानानि एकपक्क्या च
तदाऽवकाशं लभेत यदा द्वितीयपद्मपरिधिरेकादशाधिकचतुर्विंशत्सहस्रकोशप्रमाणः स्यात्, स च तदा स्याद् यदा 5 18| मूलक्षेत्रायामव्यासौ साधिकषड्विंशतिशतप्रमाणौ स्याता, ती प्रस्तुते न स्तः, तेन यथासम्भवं पंक्तिभिर्द्वितीयपरिक्षेप॥ पद्मजातिः पूरणीयेति तात्पर्य, एवसन्यपरिक्षेपेष्वपि यथासम्भवं भावना कार्येति, अथ कथमयमर्थः सिद्धान्ततां प्रापित
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
श्रीजम्बू-18| इति ?, उच्यते, अन्यथाऽनुपपत्त्या, न हि यथाक्षरमात्रसन्निवेश सूरयः सूत्रव्याख्यानपरा भवन्ति, किन्तु प्रापरा- वक्षस्कारे द्वीपशा- विरोधेन, यदुक्तम्-"जं जह मुत्ते भणि तहेव तं जइ विआलणा नस्थि । किं कालिआणुओगो दिवो दिटिप्पहा
साहेमवतीयन्तिचन्द्रा- गणेहि ॥१॥इति [यद्यथा सूत्रे भणितं तथैव तत् यदि विचालना नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टो-दृष्टिप्रधानैः ।
पाद्रहाया वृत्तिः
धिकार: ॥१॥] अलं प्रसङ्गेनेति । अथ पद्मदहनामनिरुक्तं पृच्छन्नाह-'सेकेणटेश'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमु
सू. ७३ ॥२८॥ च्यते-पद्मद्रहः पद्मद्रह इति, गौतम! पद्मद्रहे तत्र तत्र देशे-तस्मिन् देशे २ बहूनि उत्पलानि यावत् शतसहस्रप-1
त्राणि पद्मद्रहप्रभाणि-पद्माद्रहाकाराणि आयतचतुरस्राकाराणीत्यर्थः, एतेन तत्र वानस्पतानि पद्मद्रहाकाराणि पद्मानि बहुनि सन्ति, न तु केवलं पार्थिवानि वृत्ताकाराणि महापद्मादीन्येव तत्र सन्तीति ज्ञापितं, तथा पद्मद्रहवर्णस्यैवा
भा-प्रतिभासो येषां तानि तथा, ततस्तानि तदाकारत्वात्तवर्णत्वाच्च पद्मद्रहाणीति प्रसिद्धानि, ततस्तद्योगादयं जला-18 Sशयोऽपि पदारहा, उभयेषामपि च नानामनादिकालप्रवृत्तत्वेन नेतरेतराश्रयदोषः, अथ पार्थिवपद्मतोऽप्यस्य नामप्रवृ-13 तिर्जाताऽस्तीति ज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामनिबन्धनमाह-श्रीश्च देवी पनवासाऽत्र परिवसति, ततश्च श्रीनिवास-3 योग्यपद्माश्रयत्वात् 'पद्मोपलक्षितो द्रह इति पद्मद्रह आख्यायते, मध्यपदलोपिसमासात्, समाधानं शेष प्राग्वत् । अथ गङ्गामहानदीस्वरूपमाह
२८८॥ तस्स उणं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरस्थाभिमुही पञ्च जोअणसवाई पथएणं गंता गंगा
अथ गङ्गा-महानद्य: वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [१२९]
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वत्तणकूटे आवत्ता समाणी पञ्च तेवीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता मया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोमणसइएणं पवाएणं पवडा, गंगा महाणई जओ पवडइ इत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, सा णं जिभिआ अद्धजोअणं आयामेणं छ सकोसाइं जोषणाई विक्वंभेणं अद्धकोस बाहलेणं मगरमुहविउद्दसंठाणसंठिा सबवइरामई अच्छा सण्हा, गंगा महाणई जत्थ पवडइ एत्व णं मह एगे गंगप्पवाए कुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते साल जोषणाई आयामविकसभेणं णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिल परिक्खेवणं, दस जोषणाई उब्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले समतीरे बइरागयपासाणे वइरतले सुवण्णसुम्भरययामयवालुआए वेरुलिअमणिफालिअपडलपञ्चोपदे महोआरे सुहोत्तारे णाणामणितित्थमुबजे बड़े अणुपुण्यसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संकष्णपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुअणलिणसुभगसोगंधिभपोंडरीभमहापोंढरीजसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुलफेसरोवचिए छप्पयमयरपरिभुजमाणफमले अच्छविमलपत्थसलिले पुणे पढिहत्थभमन्तमच्छकच्छभअणेगसरणगणमिहुणपविभरियसदुबइम महरसरणाइए पासाईए । से णं एगाए पउमवरखेड्याए एगण व वणसण्डेणं सबओ समता संपरिक्सिसे पहआवणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणिभव्यो, तस्स णं गंगष्पवायकुंडरस तिदिसिं तओ तिसोवाणपढिरूवगा पं०, तंजहा-पुरस्थिमेणं दाहिणणं पचत्यिमेणं, तेसि गं सिसोवाणपढिरूवगाणं अयमेयारूबे वण्णावासे पण्णत्ते, संजहा-बहरामया जेम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलिआमया खंभा सुवण्णशप्पमया फलया लोहिक्खमईओ सूईभो वयरामया संधी णाणामणिमया आलंबणा आलंवणबाहाओति, तेसि णं तिसोवाणपतिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पण्णचा, ते ण तोरणा णाणामणिमया णाणामणिमएस संमेसु उवणिविट्ठसंनिविद्या विविहमत्ततरोवइआ विविहतारारूपोवधिमा ईहामिअउसह
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
श्रीजम्बून्तिचन्द्रीया वृत्तिः
सूत्रांक [७४]
॥२८९॥
दीप
तुरगणरमगरविहगवालगकिण्णरररुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइभापरिगयाभिरामा विजाहर- शिवक्षस्कारे जमलजुअलजंतजुत्ताविव अधीसहस्समालणीआ रूवगसहस्सकलिआ मिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोअणलेसा सुहफासा सस्सिरीअरूबा घंटावलिचलिअमहुरमणहरसरा पासादीआ, तेसिणं तोरणाणं उपरि बहवे अट्ठमंगलगा पं०, तं०-सोथिए सिविच्छे जाव पडिरूवा, तेसि ण तोरणाणं उवरि बहवे किण्हचामरज्मया जाव सुकिल्लचामराया अच्छा सल्हा रुष्पपट्टा बइरामयदण्डा जलयामलगंधिआ सुरम्मा पासाईया ४, तेसि पण तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइच्छत्ता पडागाइपडागा घंटाजुअला चामरजुअला उप्पलहत्यगा पटमहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्यगा सब्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूषा, तस्स णं गंगापवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते अट्ट जोषणाई आयामविक्वंभेणं साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्सवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सबवइरामए अच्छे सण्हे, से णं एगार पक्षमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्बओ समन्ता संपरिक्खिते वण्णओ भाणिअब्बो, गंगादीवस्स णं दीवस्स उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, तस्स णं पाहुमज्मदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं च कोसं उद्धृ उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविढे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिजे, से केणटेणं जाव सासए णामधेजे पण्णते, तस्स गं गंगप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाणई पनूढा समाणी उत्तरद्वभरहवासं एजेमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आउरेमाणी
॥२८९॥ २ अहे खण्डप्पवायगुहाए वेअपव्ययं दालइत्ता दाहिणभरहवासं एजेमाणी २ दाहिणभरहवासस्स बहुमज्दादेसभागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोइसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालात्ता पुरत्विमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, गंगा गं
अनुक्रम [१२९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[७४]
दीप अनुक्रम [१२९]
महाणई पबहे छ सकोसाई जोषणाई विक्खंभेणं अद्धकोस उव्वेहेणं तयणतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे बासहि जोषणाई अद्धजोअणं च विक्खंभेणं सकोसं जोअणं उव्वेहेणं उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता पेइमावणसंडवण्णओ भाणिअव्यो, एवं सिंधूएवि अव्वं जाव तस्स ण पउमदहस्स पश्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधुआवसणकूडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुंडं सिंधुदीबो अट्ठो सो चेब जाव अहेतिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालइत्ता पञ्चत्थिमाभिमुही आवचा समाणा चोइससलिला अहे जगई पञ्चत्थिमेणं लवणसमुई जाव समप्पेइ, सेसं तं वत्ति । तस्स णं पउमइहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पबूढा समाणी दोणि छावत्तरे जोअणसए छच एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पन्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, रोहिसाणामं महाणई जो पबडइ एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णता, सा ण जिम्भिआ जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं कोस बाहलेणं मगरमुहविषट्ठसंठाणसंठिा सव्ववइरामई अच्छा, रोहिअंसा महाणई जहिं पवडद एत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुण्डे णाम कुण्डे पण्णत्ते सवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं तिण्णि असीए जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवणं, दसजोषणाई उम्वेणं अच्छे कुंचवण्णओ जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअंसाववायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगो रोहिलसा णामं दीवे पण्णत्ते सोलस जोषणाई भायामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोषणाई परिक्खेवणं दो कोसे ऊसिए जलताओ सब्बरयणाभए अच्छे सल्हे सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो अ भाणिअब्बोन्ति, तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुंडस्स उत्तरिक्षणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एजेमाणी २ चउद्दसहि सलिलासहस्सेदि आपूरेमाणी २ सदावइबट्टवेजद्धपब्वयं अद्धजोमणे
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [७४]
दीप
असंपत्ता समाणी पञ्चत्यामिगही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभवमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे
४वक्षस्कारे जगई दालात्ता पचत्थिमेण लवणसमुदं समपेइ, रोहिअंसा णं पबहे अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं कोसं उग्वेदेणं तयणतरं च
पबइदनिन्तिचन्द्री- णं मायाए २ परिषद्धमाणी २ मुहमूले पणवीसं जोअणसयं विक्संभेणं अद्भाइजाई जोअणाई उबेहेणं उभो पासिं दोहिं पउमबर
गैताः गङ्गाया वृत्तिः वेइआर्हि दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता (सूत्र ७४)
सिन्धुरोहि॥२९॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-पद्मद्रहस्य पौरस्त्येन तोरणेन गङ्गा नाम्नी महानदी-स्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्रनदी-18
तांशाः स. || सम्पदुपेतत्वेन स्वतन्त्रतया समुद्रगामित्वेन च प्रकृष्टा नदी, एवं सिन्ध्वादिष्यपि ज्ञेयं, प्रब्यूढा-निर्गता सती पूर्वाभि-18|
मुखी पञ्च योजनशतानि पर्वतोपरीत्यर्थः अथवा णमिति प्राग्वत् पर्वते गत्वा गङ्गावर्तननानि कूटे, अत्र सामीप्ये हा सप्तमी वटे गावः सुशेरते इत्यादिवत् , गङ्गावर्तनकूटस्याधस्तादावृत्ता सती प्रत्यावृत्त्येत्यर्थः, पञ्चयोजनशतानि प्रयो-13 विंशत्यधिकानि श्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महान् यो घटस्तन्मुखादिव प्र. त्तिः-निर्गमो यस्य स तथा तेन, अयमर्थः यथा घरमुखाजलौघो निर्यन खुभिखुभितिशब्दायमानो बलीयांश्च निर्याति ||
तथाऽयमपीति, मुक्तावलीनां-मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन तत्संस्थानेनेत्यर्थः सातिरेकं योजनशतं क्षुद्रहिमवच्छि-ARTeam 6|| खरतलादारभ्य दशयोजनोद्वेषमपातकुण्डं यावद्धारापातात मानमस्येति सातिरेकयोजनशतिकस्तेन. तथा प्रपातेन-1 8 प्रपतज्जलौघेन, अत्र करणे तृतीया, प्रपतति-प्रभातकुण्डं प्रामोतीत्यर्थः, दक्षिणाभिमुखगमनपश्चयोजनशतादिसङ्ख्या ।
अनुक्रम [१२९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७४]
स्वेवम्-हिमवद्भिरिव्यासात् योजन १०५२ कला १२ रूपात् गङ्गाप्रवाहव्यासे योजन ६ क्रोश १ प्रमिते शोधिते | शेष १०४६ कोशे तु पादोनं कलापशकं तत्कलाद्वादशकात् शोध्यं ततः शेषाः सप्त सपादाः कलाः, गङ्गाप्रवाहः पर्वतस्य मध्यभागेन पद्मद्रहाद्विनिर्याति तेनास्या दक्षिणाभिमुखगङ्गाप्रवाहोनगिरिव्यासार्द्धस्य गन्तव्यत्वेन गङ्गाच्यासोनो गिरिव्यासः योजन १०४६ कलासपादसप्त ७ रूपोऽद्धीक्रियते जातं यथोक्तं योजन ५२३ कला ३, यद्यप्यत्र कलात्रिक किश्चित्समधिकार्द्धयुक्तमायाति तथाऽप्यल्पत्वान्न विवक्षितमिति । अथ जिव्हिकाया अवसर:-'गङ्गामहाण जओ पवडइ इत्थ ण'मित्यादि, गङ्गा महानदी यतः स्थानात् प्रपतति अचान्तरे महती एका जिव्हिका प्रणा-18 लापरपोया प्रज्ञप्ता, 'सा ण'इत्यादि, सा जिव्हिका अर्द्धयोजनमायामेन पट सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन गङ्गा-11 |मूलव्यासस्य मातव्यत्वात् अर्द्धकोशं बाहल्येन-पिण्डेन विवृत-प्रसारितं यन्मकरमुख-जलचरविशेषमुखं तसंस्था-1
नसंस्थिता विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत् सर्वात्मना वज्रमयी इत्यादि कण्ठयं । अथ प्रपातकुण्डस्वरूपमाह-'गंगा 8| महाण इत्यादि, गङ्गा महानदी यत्र प्रपतति अत्रान्तरे महदेकं गङ्गाप्रपातकुण्डं नाम यथार्थनामकं कुण्डं प्रज्ञप्त, 1
पष्टिं योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, अब करणविभावनायां 'भूले पण्णासं जोअणवित्थारो ५० उवरिं सट्ठी ६.' इति ।
विशेषोऽस्ति, श्रीउमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमाससूत्रादावपि तथैव, इत्थं च कुण्डस्य यथार्थनामतोपपत्तिरपि । ॥ भवति, एवमन्येष्वपि यथायोग ज्ञेयमिति, तथा नवतं-नवत्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण, श्रीजिन
दीप अनुक्रम [१२९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
18गतामा
प्रत सूत्रांक [७४]
दीप अनुक्रम [१२९]
श्रीजम्यू-18| भद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः खोपज्ञक्षेत्रविचारसूत्रे-'आयामो विक्खंभो सहि कुंडस्स जोषणा हुंति । नउअसयं किंचूर्ण|8|| ४वक्षस्कारे द्वीपशा-18 परिही दसजोअणोगाहो ॥१॥” इत्यूचुः, तत्तावपि श्रीमलयगिरिपादास्तथैव, करणरीत्याऽपि तथैवागच्छति, तेन इदनिन्तिचन्द्री
| प्रस्तुतसूत्रं गम्भीरार्थ बहुश्रुतैर्विचार्य नास्मादृशां मन्दमेधसां मतिप्रवेश इति, यता प्रस्तुतसूत्रं पद्मवरवेविकासहित-18 या चिः
सिन्धुरोहिकुण्डपरिधिविवक्षया प्रवृत्तमिति सम्भाव्यते, तेन न दोषा, तत्त्वं तु केवलिगम्यमिति, दश योजनान्युद्धेधेन-उण्डत्वेन ॥२९॥ अच्छ-स्फटिकवत हिनिर्मलप्रदेश श्लक्ष्ण-लक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिःप्रदेशं रजतामयं-रूप्यमयं कुलं यस्य तत्तथा समं ||
न गर्रासद्भावतो विषम तीरवर्तिजलापूरितं स्थान यस्मिन् तत्तथा, वज्रमयाः पाषाणाः भित्तिबन्धनाय यस्य तत् 8 तथा, वजमयं तलं यस्य तत्तथा, सुवर्ण-पीतहेम सुभं-रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मय्यो वालुका यस्मिन् तत्तथा,
वैडूर्यमणिमयानि स्फटिकरलसम्बन्धिपटलमयानि प्रत्यवतटानि-तटसमीपवय॑भ्युन्नतप्रदेशा यस्य तत्तथा, सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यस्मिन् तत्तथा सुखेनोत्तारो-जलमध्याद् बहिर्विनिर्गमनं यस्मिन् तत्तथा, ततः पूर्वपदविशे
पणसमासः, तथा नानामणिभिः सुबद्धं तीर्थ यत्र तत्तथा, अत्र बहुत्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् [81 IN प्राकृतशैलीवशाद्वा, तथा वृत्त-वर्तुलं आनुपूपेण-क्रमेण नीचैनींचस्तरभावरूपेण सुप्त-अतिशयेन यो जातो वमः-18 ॥२९१॥
केदारोजलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्तापं जलं यस्मिन् तत्तथा संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यस्मिन् | तत्तथा, अत्र बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि-पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि बिसानि-कन्दाः मृणालानि-पद्मनालानि,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[७४]
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दीप अनुक्रम [१२९]
|बहूनामुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहनपत्राणा प्रफुल्लाना-विकस्वराणां
केसरैः-किंजल्कैरुपशोभितं-भृतं, विशेषणस्य व्यस्ततया निपातः प्राकृतत्वात्, षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कम|लानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यस्मिन् तत्तथा, अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरहि-118
तेन पथ्येन-आरोग्यकरणेन सलिलेन पूर्ण, तथा पडिहत्या-अतिप्रभूताः देशीशब्दोऽयं भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र | तत्तथा, अनेकशकुनिमिथुनकानां प्रविचरित-इतस्ततो गमनं यत्र तत्तथा ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा शब्दो|अतिक-उन्नतशब्दकं सारसादिजलचररुतापेक्षया मधुरस्वरं च हंसधमरादिकूजितापेक्षया एवंविधं नादित-विलपितं
यत्र तत्तथा, अत्र च यत् कानिचिद्विशेषणानि प्रस्तुतसूत्रहश्यमानादर्शापेक्षया व्यस्ततया लिखितानि सन्ति तजीवाभि-18|| || गमवाप्यादिवर्णकसूत्रस्य बहुसमानगमकतया तदनुसारेणेति बोध्यं, एवंमन्यत्रापि, पासाईए'त्ति, अनेन 'पासाईए दरि| सणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे' इति पदचतुष्टयं ग्राह्यं, तच्च प्राग्वत् । अथाच पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह-से णं इत्यावि, 18 व्यकं, अत्र सुखावतारोत्तारी कथं भवन इत्याह-तस्स णमित्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य त्रिदिशि-दिक्त्रये वक्ष्य|माणलक्षणे त्रीणि सोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एतद्व्याख्या प्राग्वत् , शेष व्यकं, 'तेसि 'मित्यादि, व्यक्तं, जग-12 तीवर्णकतुल्यत्वात्, नवरं आलम्बना:-अवतारोत्तारयोरालम्बनहेतुभूताः अवलम्बनबाहावयवाः, अवलम्बनवाहा नाम॥ द्वयोः पार्श्वयोरवलम्बनाश्रयभूता भित्त्यः, 'तेसि 'मित्यादि, तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं २ तोर
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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अनुक्रम [१२९]
श्रीजम्यू-18णानि प्रज्ञप्तानि तानि तोरणानि नानांमणिमयानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टानि-सामीप्येन स्थितानि तानि च ४वक्षस्कारे द्वीपशा-18 कदाचिञ्चलानि स्थानभ्रष्टानीत्यर्थः अथवा अपदपतितानि भवेयुरिति सन्निविष्टानि-सम्यग् निश्चलतया अपदपरिहारेण च पाइदनिन्तिचन्द्री-18 निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, विविधा-नानाविच्छित्तिकलिता मुक्ताः-मुक्ताफलानि अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि गताः गङ्गाया पुचिः सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति, अन्तरान्तरा ओअविआ-आरोपितानि यत्र तानि तथा विविधैस्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचि
सिन्धुरोहि॥२९॥
8 तांशाः सू. IN तानि, तोरणेषु हि शोभा तारिका निबध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपि. ईहामगाः-वृकाः ऋषभा-वृषभाः व्याला-18
७४ भुजगाः रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टपदाः चमरा-आठव्या गावः बनलता-अशोकादिलताः प्रतीताः पद्मलता:पमिन्यः शेष प्रतीत, एतासां भक्तयो-विच्छित्तयस्ताभिश्चित्राणि, स्तम्भोगतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या बज्रवेदिकया परि-18 गतानि-परिकरितानि सन्ति यानि अभिरामाणि-अभिरमणीयानि तानि तथा, विद्याधरयो:-विशिष्टशक्तिमत्पुरुष-18 विशेषयोर्यमल-समश्रेणीकं युगलं-द्वन्द्धं तेनैव यन्त्रेण-सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तानि, आर्णत्वाच्चैवंविधः इसमासः, अथवा प्राकृतत्वेन तृतीयालोपात् विद्याधरयमलयुगलेनेवेति, शेष पूर्ववत् , अर्चिषां-मणिरलप्रभाणां सह1| र्मालनीयानि-परिवारणीयानि रूपकसहस्रकलितानीति स्पष्ट, भृशं-अत्यर्थ मान-प्रमाणं येषां तानि तथा, 'मिम्भि-18
समाण'त्ति 'भासेर्भिस' (श्रीसिद्ध. अ०८ पा.४०२०३) इत्यनेन भिसादेशे प्रकृष्टार्थप्रत्यये च रूपसिद्धिः, I
IS अत्यर्थ देदीप्यमानानि लोकने सति चक्षुषो लेशः-लेषो यत्र तानि त्रिपदो बहुव्रीहिः, पदविपर्यासः प्राकृतत्वात्, Sanelentine
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------------........
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प्रत सूत्रांक
[७४]
|शेष सुबोधं, नवरं घण्टावले, वशेन चलिताया मधुरो मनोहरश्च स्वरो येषु तानि तथा, 'तेसि ण'मित्यादि, अस्य || | व्याख्या प्राग्वत्, 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः एवं नीलचामरध्वजादयोऽपि वाच्याः, ते च सर्वेऽपि कथंभूता इत्याह-अच्छा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः, श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापिताः, रूप्यमयो बज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते तथा, वजमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषा ते तथा, जलजानामिव | जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, 'अतोऽनेकस्वरा' (श्रीसिद्ध० अ०७ पा०२ सू०६)दितीकप्रत्ययः, अत एव सुरम्याः, पासाईआ इत्यादि प्राग्वत्, 'तेसि णमित्यादि, अस्य व्याख्या प्राग्वत्। अथ गङ्गाद्वीपवक्तव्यतामाह-'तस्स गङ्गप्पवाय इत्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेको गङ्गादेव्यावासभूतो द्वीपो गङ्गाद्वीप इति नाना द्वीपः प्रज्ञप्तः, मध्यलोपी समा-18 |सात् साधुः, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भेन सातिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण द्वौ कोशी याषदुच्छ्रितो 18
जलान्तात्-जलपर्यन्तात् सर्वतोवर्तिजलस्य जलानावृतस्य क्षेत्रस्य द्वीपव्यवहारात्, शेष व्यक्तं, 'से ण'मित्यादि, स गङ्गा-18 18 द्वीप एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तः, वर्णकश्च भणितव्यो जगतीपद्मवरवेदि-1 18 कावदिति, अथ तत्र यद्यदस्ति तदाह-'गंगादीवस्स ण'मित्यादि, गङ्गाद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः,
दीप अनुक्रम [१२९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
दीप अनुक्रम [१२९]
श्रीजम्यू-1| तस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे गङ्गाया देव्या महदेकं भवनं प्रज्ञप्त, आयामादिविभागादिकं शय्यावर्णकपर्यन्तं सूत्रं वक्षस्कारे
द्वीपशा- सव्याख्यानं श्रीभवनानुसारेण ज्ञेयं, अथ नामान्वर्थ पृच्छति-से केणद्वेण'मित्यादि, व्यक्तं, अथ गङ्गा यथा यत्र समुप- पूछाइदनिन्तिचन्द्री-
सय या चिः
सर्पतितथाऽऽह-'तस्स णमित्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन प्रब्यूढा-निर्गता सती गङ्गामहा
नदी उत्तरार्द्धभरतवर्ष इयूती २-गच्छन्ती २ सप्तभिः सलिलाना-नदीनां सहस्रैरापूर्यमाणा २-भ्रियमाणा अधः खण्ड-1ST शास. ॥२९॥
प्रपातगुहाया वैताढ्यपर्वतं दारयित्वा-भित्त्वा दक्षिणार्द्धभरतं वर्ष इयूती २ दक्षिणार्द्धभरतवर्षस्य बहुमध्यदेशभाग | | गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहः समना-संपूर्णा आपूर्यमाणा इत्यर्थः अधोभागे जगतीं-18 | जम्बूद्वीपप्राकारं दारयित्वा पूर्वेण लघणसमुद्र समुपसर्पति-अवतरतीत्यर्थः, अथास्या एवं प्रवहमुखयोः पृथुत्वोवैधौ
दर्शयति-'गंगा 'मित्यादि, गङ्गा महानदी प्रवहे यतः स्थानात् नदी वोढुं प्रवर्त्तते स प्रवहः पद्मदात्तोरणान्नि-1 |र्गम इत्यर्थः, तत्र पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन, तथा क्रोशार्द्धमुद्वेधेन, महानदीनां सर्वत्रोद्वेधस्य स्वव्यासप-1|| चाशत्तमभागरूपत्वात् , अस्तीति शेषः, 'तदनन्तर'मिति पद्मदहतोरणीयव्यासादनन्तरं एतेन यावत् क्षेत्रं स ब्या-IRA
॥२९॥ IS सोऽनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरमित्यर्थः, एतेन च योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणाHSI लनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वाऽभिहितः स नेति, श्रीअभयदेवसूरिपादैः समवायाजवृत्ती श्रीमलयगिरिपादैश्च वृह-11
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७४]
क्षेत्रसमासवृत्तौ पद्मदहतोरणनिर्गमपरत्वेनैव व्याख्यानात्, एवमुद्वेधेऽपि ज्ञेयं, मात्रया २-क्रमेण २ प्रतियोजन । समुदितयोरुभयोः पाईयोर्धनुर्दशकवृझ्या प्रतिपावं धनुःपञ्चकवृद्ध्येत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ मुखे-समुद्रप्रवेशे द्वापष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनं च विष्कम्भेन, प्रवहमानान्मुखमानस्य दशगुणत्वात् , सक्रोशं योजनमुद्वेधेन सार्द्धद्वापष्टियोजन
प्रमाणमुखव्यासस्य पश्चाशत्तमभागे एतावत एवं लाभात् , उभयोः पाश्वयोः द्वाभ्यां पदावरवेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च || 15| सम्परिक्षिप्ता गङ्गेत्यर्थः, प्रतियोजनधनुर्दशकवृद्धिस्त्वेयम्-मुखव्यासात् प्रवहन्यासेऽपनीतेऽवशिष्टे धनूरूपे कृते सरि-18
दायामेन भक्के लब्धं इष्टप्रदेशगतयोजनसङ्ख्यया गुण्यते यावत् स्यात्तावत्युभयपार्श्वयोवृद्धिर्वाच्या, तथाहि-गङ्गायाः 18 अवहे व्यासः योजन ६ कोश १ मुखे तु योजन ६२ क्रोश २, तत्र मुखव्यासात् प्रघहव्यासेऽपनीते जातं योजन ५६ 18 कोश १, योजनानां च क्रोशकरणाय चतुभिर्गुणने उपरितनैकक्रोशप्रक्षेपे च जातः २२५ क्रोशे च धनुषां सहस्रदय| मिति सहस्रद्वयेन गुण्यन्ते जातानि धनूंषि ४५००००, ततः पञ्चचत्वारिंशता सहस्रर्भज्यन्ते लब्धानि १० धनूंषि एकेन गुण्यन्ते जातानि १०, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात्, एतावती च समुदितयोरुभयोः पार्थयोः प्रबहादेक-|
दीप अनुक्रम [१२९]
१यतु 'सबोयण समोस मिति क्षेत्रसमासगाथा व्याख्यानयंता धीमलयगिरिमरिणा 'प्रबहे-पदाहदाद्विनिर्ममे पदयोजनानि सोशानि गजानद्या विस्तार' इति । 10 भणितं तव मकरमुखजिडिकाया विनिगमं यावत् अविशेषेण विवक्षणार, अन्यथा 'गङ्गासिंधू गं महाणईओ पणवीसे गाउयाई-तथा गंगासिधू गं महाणईलो
पबहे साइरेग चटनीस कोसे वित्थरेण पण्णत्ताओ"त्ति समवायालेन सह विरोधः सात् (ही पूती)।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------- ------ मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
श्रीजम्बू-
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२९॥
[७४]
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दीप अनुक्रम [१२९]
मिन् योजने गते जलवृद्धिः, अथ मूलाधोजनद्वयान्ते यदा वृद्धिातुमिष्यते तदा दश धनूंषि द्विकेन गुण्यन्ते वक्षस्कारे जातानि २० एतावती प्रवहादुभयपाययोजनद्विकान्ते वृद्धिः स्यात्, अस्थाश्चाः १०, एतावत्येकपाश्र्षे वृद्धिः, एवं पाइदनिसर्वत्र भाव्यं । अथ गङ्गायामादीन्यन्यत्रावतारयति-'एवं सिंधु इत्यादि, एवं सिन्ध्वा अपि स्वरूप नेतव्यं यावत्तस्य | KTM | पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी निर्गता सती पश्चिमाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा सिन्ध्या
सिन्धुरोहि
तांशाः . वर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा
७४ | महता घटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्मपातेन प्रपतति, सिन्धुमहानदी यतः प्रपतति अत्र महती जितिका वाच्या, सिन्धु-18| महानदी यत्र प्रपतति तत्र सिन्धुप्रपातकुण्डं वाच्यं, तन्मध्ये सिन्धुद्वीपो वाच्योऽर्थः स एव यथा गङ्गाद्वीपप्रभाणि | गङ्गाद्वीपवर्णाभानि पद्मानि तथा सिन्धुद्वीपप्रभाणि सिन्धुद्वीपवर्णाभानि पद्मानि सिन्धुद्वीप इत्युच्यते, अन यावत्पर्यन्तं | सूत्रं वाच्यं तथाह-यावदधस्तमिस्रागुहाया इत्यादि, अत्र यावत्करणादिदं-'तस्स णं सिन्धुप्पवायकुंडस्स दक्खिणि-18
खेणं तोरणेणं सिन्धुमहाणई पबूढा समाणी उत्तरद्धभरहवास एजेमाणी २ ससिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २' इति संग्रहः, | अधस्तमिस्रागुहाया वैताढ्यपर्वतं दारयित्वा 'देशदर्शनादेशस्मरण मिति 'दाहिणभरहवासस्स बहुमज्भदेसभागं गंता' 8 ॥२९॥ | इति पदानि बोध्यामि, पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहौः समग्रा-पूर्णा जगतीमधो दारयित्वा । पश्चिमायां लवणसमुद्रं समुपसर्पति, शेष-उतातिरिक्त प्रवहमुखमानादि तदेव-गङ्गामानसमानमेव ज्ञेयम्, अथ पद्म-18
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७४]
दीप
अनुक्रम
[१२९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
द्रहनिर्गततृतीयनदीस्वरूपमाह - 'तस्स ण' मित्यादि, व्यक्तं नवरं द्वे षट्सप्तत्यधिके योजनशते पट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य एतावतीं भुवं उत्तराभिमुखी - हैमवतक्षेत्राभिमुखी पर्वतेन गत्वा, अत्रोपपत्तिः - हिमवद्व्यासाद्रहव्यासेऽपनीते शेषहिमवन्यासेऽर्द्धकृते एतावत एव लाभात्, मनु गङ्गायां दक्षिणाभिमुखं गिरिगमनं पश्च योजनशतानि २३ योजनानि कलात्रिकं च समधिकमिति, अस्यास्तु षट्सप्तत्यधिके द्वे शते षट् च कलाः किमित्येतावदन्तरं १, उच्यते, गङ्गायाः गिरिमध्यवर्त्तिना पूर्वदिक्तोरणेन निर्गतायाः पञ्चशतयोजनपूर्वाभिमुखगमनानन्तरं दक्षि| णादिग्गामिन्याः स्वव्यासरहितगिरिव्यासार्द्धगामित्वं, एवं सिन्ध्या अपि पञ्चशतयोजनपश्चिमाभिमुखगमनादनु, अस्यास्तु उत्तरदितोरणेन निर्गतायाः उत्तरगामिन्या द्रहव्यासशुद्ध गिरिव्यासार्द्धगामित्वमिति भेदः । अथास्या जिन्हि - कामाह - 'रोहिअं' इत्यादि, व्यक्त, नवरं आयामे योजनंविष्कम्भमानेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि - सार्द्धद्वादशयोजनानि बाहल्ये क्रोर्श, गङ्गाजिव्हिक्राया अस्था द्विगुणत्वात् । अथ कुण्डस्वरूपमाह - 'रोहिअंसा' इत्यादि, प्रायः प्रकदार्थ, परमायामविष्कम्भयोविंशत्यधिकं, गङ्गाप्रपातकुण्डादस्य द्विगुणत्वात्, अथात्र द्वीपमाह - 'तस्स ण' मित्यादि, प्रकटार्थ, 'से केणद्वेणं भन्ते । एवं बुच्चइ रोहिअंसादीवे २' इत्याद्यभिलापेन ज्ञेयः सम्प्रत्यस्या येन तोरणेन निर्गमो यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यात्रांश्च नदीपरिवारो यत्र च संक्रमस्तथाऽऽह - 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य - रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औतराहेण तोरणेन रोहितांशा महानदी प्रब्यूढा - निर्गता सती हैमवतं वर्ष इयूती २- गच्छन्ती २ चतुर्दशभिः
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७४]
दीप
अनुक्रम
[१२९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२९५॥
सलिलासहस्रैः आपूर्यमाणा २ शब्दापातिनामानं वृत्तवैताढ्यपर्वतं अर्द्धयोजनेनासम्प्राप्ता सती पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हैमवन्तं वर्षं द्विधा विभजन्ती २ अष्टाविंशत्या सलिला सहस्रैः समग्रा - परिपूर्णा जगतीं अधो दारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्रं प्रविशति, अस्या एव मूलविस्तारायाह - 'रोहिअंसा ण' मित्यादि, रोहितांशा प्रवहे मूलेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेन, प्राच्यक्षेत्रनदीतो द्विगुणविस्तारकत्वात्, क्रोशमुद्वेधेन प्रवहव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, तदनन्तरं मात्रया २ - क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोर्धनुविंशत्या वृद्ध्या प्रतिपार्श्व धनुर्दशकवृज्येत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ मुखमूले समुद्रप्रवेशे पंचविंशतं योजनशतं विष्कम्भेन, प्रवहव्यासाद्दशगुणत्वात्, अर्द्धतृतीयानि योजनानि उद्वेधेन मुखव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात् शेषं प्राग्वत् ॥ अथ हिमवति कूटाम्याह
चुल्लहिमवन्ते णं भन्ते! वासहरपए क कूडा पं०, गोय० ! इकारस कूडा पं० [सं० सिद्धाययणकूडे १ चुहहिमबन्तकूडे २ भरहकूडे २ इलादेवीकूडे ४ गंगादेवीकूडे ५ सिरिकूडे ६ रोहिअंसकूडे ७ सिन्धुदेवीकूडे ८ सुरदेवीकूडे ९ हेमचयकूडे १० समणकूडे ११ । कहि णं भन्ते । चुहिमवन्ते वासहरपक्षए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पं० १, गोअमा ! पुरच्छिम लवणसमुदस्स पचत्थिमेणं चुल्लहिमवन्त कूडल्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं मन्झे तिष्णि अ पण्णत्तरे जोअणसए विक्खभेणं उपिं अद्वाइज्जे जोअणसए विक्संमेणं मूले एवं जोअसहस्सं पंच व एगासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्त्रेवेणं मझे एवं जोअणसहस्सं एगं च छलसी जोअणसयं
क्षुद्रहिमवन्त पर्वतस्य सिद्धायतन आदि कुटानां वर्णनं क्रियते
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४ वक्षस्कारे
हिमवति कूटानि
सू. ७५
।।२९५||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]
दीप अनुक्रम [१३०]
किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवणं उपि सत्तइकाणउए जोअणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवणं, मूले विच्छिण्णे ममें संसित्ते उपि तणुए गोपुषछसंठाणसंठिए सवरयणामए अच्छे, से गं एगाए पउमवरवेइआए एगेण व वणसंडेणं सबओ समता संपरिक्सिसे सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जास्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते पण्णासं जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोभणाई विकृखंभेणं छत्तीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ भाणिअव्वो। कहि णं भन्ते ! चुहिमवन्ते वासहरपव्यए चुहिमवन्तकूडे नाम कूडे पण्णत्ते , गो० ! भरहकूडस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणकूहस्स पञ्चत्थिमेणं, एस्थ णं चुहिमवन्ते वासहरपब्वए युलहिमवन्तकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्वेषो जाव बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसमाए एत्थ णं महं एो पासायव.सए पण्णत्ते वासहि जोभणाई अद्धजोअणं च उच्चत्तेणं इकतीसं जोषणाई कोसं च विक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिअपहसिए विव विविहमणिरवणभत्तिचित्ते बाबुअविजयवेजयंतीपढागच्छत्ताइच्छत्तक लिए तुंगे गगणतलममिलंघमाणसिहरे जालंतररयणपंजरुम्मीलिएस मणिरयणथूमिआए विअसिअसयवत्तपुंडरीअतिलयरयणद्धचंदचिसे णाणामणिमयदामाउंकिए अंतो वहिं च सण्हवइरतकणिजरुइलवालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीअरूवे पासाईए जाव पटिरूवे, तस्स गं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पं० जाव सीहासणं सपरिवार, से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुश्चइ चुलहिमन्तकूडे २१, गो०! चुहिमवन्ते णामं देवे महिदीए जाव परिवसइ, कहि णं भन्ते ! चुलहिमवन्तगिरिकुमारस्त देवस्स चुलहिमवन्ता णाभं रायहाणी पं०१, गो०1 चुहिमवन्तकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेने वीवसमुरे बीईवइचा अण्णं जम्बुद्दी २ दक्खिणेणं बारस जोअणसहस्साई भोगाहित्ता इरथ णं चुलहि
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७५ ]
दीप
अनुक्रम
[१३०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२९६॥
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मवन्तरस गिरिकुमारस्स देवस्स चुहिमवन्ता णामं रायहाणी पं० वारस जोयणसहस्साई आयामविक्संभेणं, एवं बिजवरायहाणीसरिसा भाणिअव्वा, एवं अवसेसाणवि कूडाणं वतव्वया जव्वा आयामविक्खंभपरिक्खेवपासा यदेवयाओ सीहासणपरिवारो अहो अ देवाण व देवीण य रायहाणीओ अब्बाजो, चउसु देवा पुढहिमवन्त १ भरह २ हेमवय ३ बेसमणकूडे ४, सेसेसु देवयाओ से केणणं भन्ते । एवं बुझइ चुडहिमवन्ते वासहरपण्यए १२, गो० । महाहिमवन्तवासहरपथ्वयं पणिहाय आयामु चतुब्वेविक्संभपरिक्लेवं पहुच ईसिं खुट्टतराए चैव हस्सतराए चेत्र णीअतराए चेव, चुडहिमवन्ते अ इत्य देवे महिद्धीए जाय पलिओ मइिए परिवसद से एएणणं गो० ! एवं बुचर - चुल्लहिमवन्ते वासहरपब्वए २, अदुत्तरं च णं गो० ! चुल्लहिमवन्तस्स सासए णामधे पण्णत्ते जंण कबाइ णासि ( सूत्रं ७५ )
'हिमवन्ते 'मित्यादि, व्यकं, नवरं सिद्धायतनकूटं क्षुल्लहिमवगिरिकुमार देवकूटं भरताधिपदेवकूटं, इलादेवीसुरादेवीकूटे तु षट्पञ्चाशद्विक्कुमारीदेवीवर्गमध्यगतदेवीकूटे, गङ्गादेवीकूटं श्रीदेवीकूटं रोहितांशादेवीकूटं सिन्धुदेवीकूटं हैमवतवर्षेशसुरकूटं वैश्रमणलोकपालकूटं । अथ तेषामेव स्थानादिस्वरूपमाह – 'कहि णमित्यादि, क भदत! लहिमद्वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञतं ?, 'गौतमे'त्यादि निर्वचनसूत्रं व्यकं, नवरं पचयोजनशतान्युचत्वेन मूले पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन मध्ये त्रीणि च योजनशतानि पञ्चसप्ततानि पञ्चसप्तत्यधिकानि विष्कम्भेन उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन मूले एकं योजनसहस्रं पक्ष एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किश्चि
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४ वक्षस्कारे हिमबति कूटानि
सू. ७५
॥ २९६ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]
दीप अनुक्रम [१३०]
18 द्विशेषाधिकानि किंचिदधिकानीत्यर्थः, मध्ये एक योजनसहनं एकं षडशीत्यधिक योजनशतं किंचिद्धिशेषोन किंचि
दूनमित्यर्थः, अयं भाव:-एक सहस्रमेक शतं पश्चाशीतिर्योजनानि पूर्णानि शेषं च क्रोशत्रिकं धनुषामष्टशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि इति किंचित्पडशीतितमं योजनं विवक्षितमिति, तथा उपरि सप्त योजनशतानि एकनवत्यधिकानि किंचिदनानि परिक्षेपेण, अत्राप्ययं भावा-सप्त शतानि नवतियोजनानि पूर्णानि, शेष कोशद्विकं धनुषा सप्त शतानि || पंचविंशत्यधिकानीति किंचिद्विशेषोनं एकनवतितमं योजनं विवक्षितं, परिक्षेपेणेति सर्वत्र प्राचं, शेष स्पष्टं ॥ अथात्र पनवरवेदिकाद्याह-'से ण'मित्यादि प्रकटं, अत्र यदस्ति तत्कथनायोपक्रमते-सिद्धाययण'मित्यादि, निमदसिद्धं, नवरं प्रथमयावत्पदेन वैताब्यगतसिद्धायतनकूटस्येवात्र वर्णको ग्राह्यः, द्वितीयेन तद्गतसिद्धायतनादिवर्णक इति ॥18॥ अथात्रैव क्षुद्रहिमवगिरिकूटवक्तव्यमाह-'कहिण'मित्यादि, व भदन्त ! क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूट नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, 'गौतमे'त्यादि उत्तरसूत्रं प्राग्वत् , नवरं 'एवं जो चेवे'त्यादि अतिदेशसूत्रे 'एव'मित्युकप्रकारेण य एवं सिद्धायतनकूटस्योञ्चत्वविष्कम्भाभ्यां युक्तः परिक्षेप: उच्चत्वविष्कम्भपरिक्षेपः, मध्यपदलोपी समासः, स एव इहापि
हिमवत्कूटे बोध्य इत्यर्थः, इदं च वचनं उपलक्षणभूतं तेन पद्मवरवेदिकादिवर्णनं समभूमिभागवर्णनं च ज्ञेयं, किय-18 MS पर्यन्तमित्याह-यावद्बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः,
प्रासादाना-आयामाद्विगुणोच्छ्रितवास्तुविशेषाणामवतंसक इच-शेखरक इव प्रासादावतंसकः प्रधानप्रासाद इत्यर्थः,सच
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७५]]
म.७५
दीप अनुक्रम [१३०]
श्रीजम्बू-18| प्रासादो द्वापष्टिं योजनान्ययोजनं च उच्चत्वेन एकत्रिंश योजनानि कोश च विष्कम्भेन समचतुरनवाया | ४वक्षस्कारे द्वीपशा-18 | सूत्रकृता न कृता, तत्र हेतुर्वंताढ्यकूटगतप्रासादाधिकारे निरूपित इति ततो ज्ञेयः, कीदृश इत्याह-अम्युद्गता-आक
हिमवति न्तिचन्द्री
कूटानि या तिः
मुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-प्रवलतया सर्वासु दिक्षु प्रसूता यद्वा अभ्रे-आकाशे उद्गता उत्सृता-प्रबलतया
| सर्वतस्तिर्यक् प्रसृता एवंविधा या प्रभा तया सित इव-बद्ध इव तिष्ठतीति गम्यते, अन्यथा कथमिव सोऽत्युच्चैनि-18 ॥२९७॥ रालम्बस्तिष्ठतीति भावः, अत्र हि उत्प्रेक्षया इदं सूचितं भवति-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् आयततया याः प्रासादप्रभास्ताः किल18
| रजवस्ताभिर्बद्ध इति, यदिवा प्रबलश्वेतप्रभापटलतया प्रहसित इव-प्रकर्षेण हसित इवेति, विविधा-अनेकप्रकारा ये 81 81 मणयो रत्नानि च, मणिरत्नयोर्भेदश्चात्र प्राग्वत् , तेषां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रो-नानारूप आश्चर्यवान् वा, बातो-18
घृता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीनान्यो याः पताकाः अथवा विजया इति वैजयन्तीनां
पार्थकणिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिच्छवाणि-उपर्युपरि-181 18 स्थितान्यातपत्राणि तैः कलितः तुङ्गः उच्चस्त्वेन सार्द्धद्वापष्टियोजनप्रमाणत्वात् , अत एव गगनतलमभिलधयद्-अनुलिख-8 18 च्छिखरं यस्य स तथा, जालानि-जालकानि गृहभित्तिषु लोके यानि प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि 8 ॥२९७॥
रचना वा यस्मिन् स तथा, सूत्रे चान विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, पञ्जरादुन्मीलित इव-बहिष्कृत इव, यथा किमपि % वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहिः कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति एवं सोऽपि प्रासादावतंसक इति भावः, अथवा ||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]
दीप अनुक्रम [१३०]
18 जालान्तरगतरलपञ्जर-रत्नसमुदायविशेषः उन्मीलित इवं उन्मिपितलोचन इवेत्यर्थः, माणकनकमयस्तृपिकाक इति
प्रतीत, विकसितानि-विकस्वराणि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च-कमलविशेषाः द्वारादिषु तैश्चित्रो-नानारूप आश्चर्यवान् 8वा, नानामणिमयदामालत इति व्यक्तं, अन्तर्वहिश्च श्लक्ष्णो-मसृणः स्निग्ध इत्यर्थः, तपनीयस्य-रक्तसुवर्णस्य रुचिरा 8 या वालुका-कणिकास्तासां प्रस्तटः-प्रतरः प्राङ्गणेषु यस्य स तथा, शेषं पूर्ववत् , 'तस्स णमित्यादि, व्यक्तं, अथास्य
नामान्वर्थ व्याचिख्यासुराह--'से केणटेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-क्षुद्रहिमवत्कूट २१, गौतम! क्षिहिमवतामा देवो महर्द्धिको यावत् अत्र परिवसति तेन 'क्षुद्रहिमवन्तकूट'मिति क्षुद्रहिमवत्कृट, अत्र च सूत्रेड-12
टमपि से तेण चुहिमवन्तकूडे २' इत्येतद्रूपं सूत्रं बोध्यं, अन्वर्थोपपत्तिश्चात्र दक्षिणाभिरतकूटस्पेव ज्ञेयेति । अथास्य राजधानीवक्तव्यमाह-'कहि णमित्यादि, उत्तानार्थ, क्षुल्लहिमवती क्षुद्रहिमवती वा राजधानी 'एव'मित्युक्तप्रकारेण यथौचित्येनेति, 'एव'मित्यादि, एवमिति-क्षुद्रहिमवत् कूटन्यायेनावशेषाणामपि भरतकूटादीनां वक्तव्यता नेतन्या, आयामविष्कम्भपरिक्षेपाः अत्रोपलक्षणादुच्चत्वमपि तथा प्रासादास्तथैव, देवताः अत्र देवताशब्दो देवजाति
वाची तेन भरतादयो देवा इलादेवीप्रमुखा देव्यश्च ततो द्वन्द्वे ताः, तथा सिंहासन परिवारोऽर्थश्च स्वस्वनामसम्बन्धी IS तथा देवानां देवीनां च राजधान्यो नेतव्या इति, चतुर्पु क्षुलहिमवदादिकूटेषु देवा अधिपाः शेषेषु देवता-देव्यः, तत्र R| इलादेवीसुरादेव्या षट्पश्चाशद्दिकुमारीगणान्तर्वतिन्यौ ज्ञेये एषां च कूटानां व्यवस्था पूर्व २ पूर्वस्यामुत्तरमुत्तरम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा-16 वर्षधरपत्र
हैमवतं
प्रत सूत्रांक [७५]
दीप अनुक्रम [१३०]
श्रीजम्बू1 परस्यामिति, अथास्य क्षुद्रहिमवत्त्वे कारणमाह-से केणद्वेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-क्षुल्लहिम-13
ध्वक्षस्कारे 18| बर्षधरपर्वतः २१, गौतम! महाहिमवर्षधरपर्वतं प्रणिधाय प्रतीत्याश्रित्येत्यर्थः आयामोच्चत्वोद्वेधविष्कम्भपरिक्षेप, 18 न्तिचन्द्री18 अत्र समाहारद्वन्द्वस्तेन सूत्रे एकवचनं, प्रतीत्य-अपेक्ष्य ईषत्क्षुद्रतरक एव-लघुतरक एव यथासम्भवं योजनाया विधे-15
वर्ष मू.७६ या वृत्तिः
|यत्वेनायामाद्यपेक्षया इवतरक एवोद्वेषापेक्षया नीचतरक एवोच्चत्वापेक्षया, अन्यच क्षुद्रहिमवाश्चात्र देवो महर्द्धिको ॥२९८॥ यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति, शेष प्राग्वत् ॥ अथानेन वर्षधरेण विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यमाह
कहि णं भन्ते । जम्बुरीवे दीवे हेमबए णाम वासे पं०१, गो०1 महाहिमवन्तस्स वासहरपवयस्स दक्खिणेणं चलहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमळवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्य णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए । णाम वासे पण्णचे, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलिकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिलाए कोहीए पुरथिमिलं लवणसमुई पुढे, पास्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, दोणि जोअणसहस्साई एगं च पंचुर जोगणसय पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चत्यिमेणं छज्जोअणसहस्साई सत्त व पणवण्णे जोजणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुहा पुरस्थि
18||२९८॥ मिल्लाए कोडीए पुरथिमि लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा सत्ततीसं जोअणसहस्साई च पत्रवत्तरे जोअणसए सोलस य एगूणवीसझमाए जोमणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं, तस्स घj वाहिणेष महतीसं जोमणसहस्साई सत्त व पत्ताले
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अथ हैमवत-क्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७६]
दीप अनुक्रम [१३१]
जोअणसए दस य एगूणवीसहभाए जोअणस्स परिक्खेवणं, हेमवयस्स णं भन्ते ! वासस्स केरिसए आयारभावपटोभारे पण्णत्ते !,
गो! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं तइअसमाणुभाषो अव्वोत्ति (सूत्र ७६) __ 'कहिणमित्यादि, व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य ।
दक्षिणेणे त्यादि, व्यक्तं, अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतनाम वर्ष प्रज्ञप्तमित्यादि सर्व प्राग्वत्, नवरं पल्यङ्कसंस्था| नसस्थितं आयतचतुरनत्वात् , तथा द्वे योजनसहने एकं च पश्चोत्तरं योजनशतं पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य यावद्विष्कम्भेन, क्षुद्रहिमगिरिविष्कम्भादस्य द्विगुणविष्कम्भ इत्यर्थः, अथास्य बाहाद्याह-'तस्स बाहा इत्यादि, व्यक्तं, 'तस्स जीवा उत्तरेण मित्यादि, प्राग्वत्, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि पटू चतुःसप्ततानि योजनशतानि पोडश कलाः किंचिदूना आयामेनेति, 'तस्स घणु'मित्यादि, तस्य धनुःपृष्ठमष्टत्रिंशद्योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानि| चत्वारिंशदधिकानि.योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, अथ कीरामस्य स्वरूप-13 || मित्याह-'हेमवयस्स ण'मित्यावि, व्याख्यातमार्य, नवरं 'एव'मिति उक्तप्रकारेण तृतीयसमा-सुषमदुषमारक-18 |स्तस्यानुभाव:-स्वभावः स्वरूपमितियावत् नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीय इत्यर्थः ॥ अथात्र क्षेत्रविभागकारिगिरि-18 स्वरूपं निर्दिशति
कहि गं भन्ते ! हेमवए वासे सहावई णामं बट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते?, गोमा ! रोहिआए महाणईए पञ्चच्छिमेणं रोहिसाए
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अथ वृत्तवैताढ्यपर्वतस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
-------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
सू.७७
[७७]
दीप अनुक्रम [१३२]
श्रीजम्या महाणईए पुरथिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्व ण सद्दावई णाम बट्टवेअपव्वए पण्णते, एग जोअणसहस्सं उद्धं वक्षस्कारे द्वीपशा
उच्चचेणं अद्धाइजाई जोअणसथाई उबेहेणं सव्वत्थसमे पल्लगसंठाणसंठिए एगं जोअणसहस्सं आयामविक्संभेणं तिणि जोअण- 18 शब्दापान्तिचन्द्री- सहस्साई एगं च बावडं जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सम्बरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइआए
| तिवैतात्यः या वृत्तिः
एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते, वेइआवणसंडवण्णओ भाणिअव्यो, सहावइस्स ण पट्टवेअखपवयस्स उवार ॥२९॥ बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए
पण्णत्ते बावहि जोअणाई अजोवणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसं जोअणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवार, से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ सदावई वट्टवेयद्धपव्वए ! २, गोअमा ! सद्दावइवट्टवेअद्धपव्वए गं खुदा खुदिआसु बाबीसु जाव बिलपंतिआसु बहवे उप्पलाई पउमाई सद्दावइप्पभाई सहावइवण्णाई सद्दावतिवण्णाभाई सद्दावई अ इत्थ देवे महिदीए जाव महागुभावे पलिओवमठिइए परिवसइत्ति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पब्बयस्स दाहिणेणं अण्णमि जम्बुद्दीवे दीवे । (सूत्र ७७) 'कहि णं भन्ते इत्यादि, क भदन्त ! हैमवतवर्षे शब्दापतीनाम्ना वृत्तवैताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, वैताढ्यान्वर्धस्तु ॥२९९॥ मागुक्तः, असौ च वृत्ताकारो न भरतादिक्षेत्रवर्तिवैताठ्यपर्वतवत् पूर्वापरायतस्तेन वृत्तवैताब्य इत्युच्यते, अत एव | एतत्कृतः क्षेत्रविभागः पूर्वतोऽपरतश्च भवति, यथा पूर्वहेमवतमपरहैमवतमिति, आह-पञ्चकलाधिकैकविंशतिशतयो
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
-------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[७७]
दीप अनुक्रम [१३२]
जनप्रमाणविस्तारस्य हैमवतस्य मध्यवत्ती योजनसहस्रमान एष गिरिः कधं क्षेत्रं द्विधा विभजति ?, उच्यते, प्रस्तुत-1 क्षेत्रव्यासो हि उभयोः पार्श्वयोः रोहितारोहितांशाभ्यां नदीभ्यां रुद्धः मध्यतस्त्वनेन, अथ नदीरुद्धक्षेत्रं वर्जयित्वाऽवशिष्टक्षेत्रमसौ द्विधा करोतीत्यस्मिन्नन्वर्थवती वैतान्यशब्दप्रवृत्तिरिति, एवं शेपेष्वपि वृत्तवैताढ्येषु स्वस्वक्षेत्रस्वस्वनदी-15 | नामभिलापेन भान्यं, दिग्विभागनियमनं सुलभमिति न व्याख्यायते, एकं योजनसहस्रमूर्बोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि || | योजनशतान्युद्वेधेन सर्वत्र समः-तुल्योऽधोमध्योर्ध्वदेशेषु सहनसहनविस्तारकत्वात् , अत एव पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः, पल्यश्च-ललाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन निर्मापितो धान्याधारकोष्ठकः, एकंयोजनसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यांत्रीणि योजन
सहस्राणि एकं च द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषेण करणवशादागतेन सूत्रानिर्दिष्टेन राशिना अधिक परिक्षेपेण IS प्रज्ञप्त, सर्वात्मना रसमयः, केचन रजतमयान् वृत्तवैताब्यानाहुः परं तेषामनेन ग्रन्थेन सह विरुद्धत्वमिति । अधात्र
पद्मावरवेदिकाद्याह-से णमित्यादि, व्यक्त, 'सहावइस्स ण'मित्यादि, व्यक्तं ॥ अथ नामार्थ निरूपयन्नाह| 'से केणढेणं भन्ते ।'इत्यादि, प्रागुक्तऋषभकूटप्रकरणवद् व्याख्येयं, नवरं ऋषभकूटप्रकरणे ऋषभकूटप्रभैः ऋषभकूटवणरुत्पलादिभिर्कपभकूटनामनिरुक्तिदर्शिता अत्र तु शब्दापातिप्रभैः शब्दापातिवणः उत्पलादिभिः शब्दापातिवृत्तवैतान्यनामनिरुक्तिर्द्रष्टव्या, शब्दापाती चात्र देवो महर्द्धिको यावन्महानुभावः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, अथ शब्दापातिदेवमेव विशिनष्टि-से णं तत्थ'इत्यादि, स-शब्दापाती देवस्तत्र-प्रस्तुतगिरौ चतुर्णा सामानिकसहस्राणां
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्राक
[७७]
दीप अनुक्रम [१३२]
श्रीजम्बू- यावत्पदात् विजयदेववर्णकसूत्रं सर्वमपि ज्ञेयं व्याख्येयं च, कियत्पर्यन्तमित्याह-राजधानी मन्दरस्य दक्षिणस्यामन्य- विक्षस्कारे द्वीपशा-1 स्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादशेषु एतत्सूत्रदृष्टोऽपि 'पलिओवमठिई परिवसती'त्ययं सूत्रादेशः पूर्वसूत्रे जमवतान्वन्तिचन्द्री
थेः सू.७८ यद्योजितस्तद्बहुषु विजयदेवप्रकरणादिसूत्रेष्वित्थमेव दृष्टत्वात् , बहुग्रन्थसाम्मल्येन क्वचिदादर्शवैगुण्यमुद्भाव्यान्यथा || या वृचिः
योजनं बहुश्रुतसम्मतमेवास्ति इत्यलं विस्तरेण, ननु अस्य शब्दापातिवृत्तवैताम्यस्य क्षेत्रविचारादिनन्धेषु अधिपः ॥३०॥ स्वातिनामा उक्तः तत्कथं न तैः सह विरोध:१, उच्यते, नामान्तरं मतान्तर वा। अथ हैमवतवर्षस्य नामार्थं पृच्छति
से केणडेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २१, गोअमा! चुलहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपब्वएहिं दुहओ समवगूड़े णिचं हेम दुलइ णिचं हेमं दुलइत्ता णिचं हेमं पगासइ हेमवए अ इत्य देवे महिद्धीए पलिओवमटिइए परिवसइ, से तेणवेणं । गोअमा! एवं बुचद हेमबए वासे हेमवए वासे (सूत्र ७८)
से केणटणं इत्यादि, अथ केनार्थेन भगवनेवमुच्यते-हैमवतं वर्ष हैमवतं वर्षमिति !, गौतम! क्षुद्रहिम-18 वन्महाहिमवद्ध्यां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातो-दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समवगाढं-संश्लिष्टं ततो हिमवतोरिदं हैमवतं, अयं । | भाव:-क्षुद्रहिमवतो महाहिमवतश्चापान्तराले तत् क्षेत्र, ततो द्वाभ्यामपि ताभ्यां यथाक्रममुभयोर्दक्षिणोत्तरपार्ययोः ॥३०॥ कृतसीमाकमिति भवति तयोः सम्बन्धि यदिवा नित्यं-कालत्रयेऽपि हेम-सुवर्ण ददाति आसनप्रदानादिना प्रयच्छति, 5 कोऽर्थः-तत्रत्ययुग्मिमनुष्याणामुपवेशनाद्युपभोगे हेममया शिलापट्टका उपयुज्यन्ते, तत उपचारेण ददातीत्युकं, नित्यं
censesedeseseserner
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[७८]
8 हेम-प्रकाशयति, ततो हेम नित्ययोगि प्रशस्य वाऽस्यास्तीति हेमवत् हेमवदेव हैमवतम् , प्रज्ञादेराकृतिगणतया 'प्रज्ञा
दिभ्यः' (श्रीसिद्ध० अ०७-पा० २ सू०१६५) इति स्वार्थेऽण प्रत्ययः, हैमवतश्चात्र देवो महर्बिकः पल्योपमस्थि- |तिक परिवसति, तेन तद्योगाद्धैमवतमिति व्यपदिश्यते, हैमवतो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यभ्रादित्वादप्रत्यये वा॥ अथास्यैवोत्तरतः सीमाकारी यो वर्षधरगिरिस्तं विचक्षुराह
कहि ण भन्ते ! जम्बुदरीचे २ महाहिमवन्ते णाम वासहरपध्वए पं०१, गो०/ हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स चासस्स सत्तरेण . पुरथिमळवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेण पञ्चत्थिमळवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ ण जम्बुद्दीवे वीवे महाहिमवंते णाम वासहरपञ्चए पण्णत्ते, पाईणपढीणायए उदीणवाहिणविच्छिण्णे पलियकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाब पुढे पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चथिमिलं लवणसमुदं पुढे दो जोअणसयाई उद्धं उचशेणं पण्णास जोषणाई उब्बेहेणं चत्तारि जोअणसहस्साई दोष्णि अ दसुत्तरे जोअणसए दस य एगणकीसइभाए जोअणस्स विक्खमेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं णव जोअणसहस्साई दोणि अ छावत्तरे जोअणसए णत्र य एगूणवीसइभाए जोअगस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुई पुट्ठा पचस्थिमिल्लाए जाब पुट्टा तेवण्णं जोअणसहस्साई नव य एगतीसे जोमणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस किंचिविसेसाहिए आयामेणं, तस्स घणु वाहिणणं सचायण्णं जोजणसहस्साई दोणि अ तेणउए जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए सवरय
दीप अनुक्रम [१३३]
Recenel
औजम्मू. ५१
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७९]
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३०॥
दीप
णामए अच्छे उभगो पासि पोदि परमवरवेशमाहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । महाहिमवन्तरस णं वासहरपवयस्स पापि ॥४॥श्वक्षस्कारे बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, जाव णाणाबिहपञ्चवण्णेहिं मणीहि अ तणेहि अ उक्सोमिए जाव आसयंति सयंति य (सूत्रं७९) 18 महाहिम
कहि भन्ते इत्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं द्वे योजनशते उच्चत्वेन क्षुद्रहिमवर्षधरतो द्विगुणोच्चत्वात पश्चाशद्यो- वान परत जनान्यदेषेन-भूप्रविष्टत्वेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रगिरीणां स्वोच्चत्वचतुर्थीशेनोद्वेधत्वात् , चत्वारि योजनसहस्राणि द्वेच . योजनशते दशोत्तरे दश च योजनेकोनविंशतिभागान् विष्कम्भेन हैमवतक्षेत्रतो द्विगुणत्वात्, अथास्य बाहादिसूत्र-18 माह-तस्सत्ति, सूत्रत्रयमपि व्यकं, प्रायः प्राग्व्याख्यातसूत्रसदृशगमकत्वात् , नवरं अवास्य सर्वरलमयत्वमुक्तं, बृह-12
क्षेत्र विचारादौ तु पीतस्वर्णमयत्वमिति तेन मतान्तरमवसेयम् , अनेनैव मतान्तराभिप्रायेण जम्बूद्वीपपट्टादावस्य पीत-18 | वर्णत्वं दृश्यते, अथास्य स्वरूपाविर्भावनायाह-'महाहिमवन्तस्स ण'मित्यादि, सर्व जगतीपद्मवरवेदिकावन| खण्डवर्णकवद् ग्राह्यं ॥ सम्प्रति अत्र ह्रदस्वरूपमाह--
महाहिमवंतस्स णं बहुमशदेसभाए एच एगे महापउमदहे णाम दहे पण्णत्ते, दो जोमणसहस्साई आयामेणं एग जोअणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोअणाई सव्ये हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयाम विक्संभाविहूणा जा चेव पउमदहस्स बत्तत्वया सा चेव णेअवा, पउमप्पमाणं दो जोअणाई अट्ठो जाव महापउमदहबण्णाभाई हिरी अ इत्थ देवी जाव पलिभोवमहिश्या परिवसइ, से एएणडेणं गोअमा! एवं वुथइ, अदुत्तरं च गं गोमा ! महापउमदहस्स सासए णामधिजे पं० जण कयाइ णासी ३ तस्स णं महाप
अनुक्रम [१३४]
॥३०॥
अथ द्रह-स्वरुपं वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SE
प्रत
सूत्रांक
[८०]
दीप
उमदहस्स दक्खिणिलेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणामिमुही पवएणं गंता मया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडाइ, रोहिआ ण महाणई जो पषबा एत्थ णं महं एगा जिभिया पं०, साणं जिभिआ जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोअणाई विक्संमेणं कोसं वाहहणं मगरमुहविउद्यसंठाणसंठिआ सम्बवइरामई अच्छा, रोहिआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्य णं महं एगे रोहिअप्पबायकुंडे णामं कुंडे पं० सवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं सिण्णि असीए - जोअणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं इस जोषणाई उब्बेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओ, बहरतले वट्टे समतीरे जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअप्पबायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस जोषणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोअणाई परिक्खेवणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सन्वयइरामए अच्छे, से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते, रोहिअदीवस्स गं दीवस्ल उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्व णं महं एगे भवणे पण्णते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अहो अ भाणिभन्यो । तस्स रोहिअप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पढा समाणी हेमवयं वासं एजेमाणी २ सहावई बट्टवेअद्भपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता पुरत्यामिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइचा पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अमुहे अ भाणिअब्बा इति जाव संपरिक्खित्ता । तस्स ण महापउमइहस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच
अनुक्रम [१३५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
द्वीपशा-18 न्तिचन्द्रीया वृचिः ॥३०२॥
[८०]
दीप अनुक्रम [१३५]
य एगूणवीसहभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गता महया घडाहपवतिएणं मुताबलिहारसंठिएणं साइरेगदुजोअणसइएणं
वक्षस्कारे पवाएणं पपडद, हरिकता महाणई जओ परसह एस्थ णं महं एगा जिविभा ५० दो जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोअणाई वि
महाहिमकक्खंभेणं अद्धं जोअणं बाहलेणं मगरमुहविउहसंठाणसंठिआ सम्वरयणामई अच्छा, हरिकता णं महाणई जहिं पवडइ एस्थ गं ति इंद्रादि महं एगे हरिकंसप्पवायकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते दोषिण अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं सत्तअउणढे जोपणसए परिक्खेवेणं मू.८० अच्छे एवं कुण्डवत्तवया सव्वा नेयम्या जाव तोरणा, तस्स ण हरिकंतष्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एत्व णे महं एगे हरिकंतदीवे णाम दीये पं० बत्तीसं जोअणाई आयामविक्वंभेणं एगुत्तर जोअणसय परिक्खेवणं दो कोसे असिए जळताओ सबरयणामए अच्छे, से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिखित्ते वण्णओ भाणिअव्वोत्ति, पमाणं च सयणिजं च अट्ठो अ माणिअब्यो । तस्स णं हरिकतप्पवायकुण्ठस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं जाव पवूडा समाणी हरिवस्सं वासं एनेमाणी २ विअडावई वट्टवेअद्धं जोअणेणं असंपत्ता पञ्चत्वाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, हरिकता णं महाणई पबहे पणवीस जोषणाई विक्खम्मेणं अवजोमणं उल्वेहेणं तवणंतरं च णं मावाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाइजाई जोअणसयाई विक्खम्भेणं पञ्च जोगणाई उब्वेदेणं, उभओ पासिं दोहि पलमपरवेइमाहिं दोहि अ वणसंडेहि संपरिक्सित्ता (सूत्र ८०)
॥३०॥ 'महाहि इत्यादि प्रायः पद्मद्रसूत्रानुसारेण व्याख्येयं । अथैतद्दक्षिणद्वारनिर्गतां नदी निर्दिशमाह-'तस्स ण'मि-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
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सूत्रांक
[८०]
त्यादि, तस्य महापद्मद्रहस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती पोडश पञ्चोत्तराणि योजन|| शतानि पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तिकेन मुक्तावलिहारसं॥ स्थितेन सातिरेकद्वियोजनशतिकेन, सातिरेकत्वं च रोहिताप्रपातकुण्डोधापेक्षया बोध्यं, प्रपातेन प्रपतति, पोडशेत्यादि18 सङ्ख्यानयनं तु चतुःसहस्रद्विशतदशयोजनतदेकोनविंशतिभागात्मक [भागदश] कागिरिव्यासात् सहस्रयोजनात्मके द्रह
व्यासेऽपनीते सत्यीकृताद्भवति, अन्यत् सर्वं रोहितांशागमेन वाच्यं, अथ सा यतः प्रपतति तदास्पदं दर्शयति
रोहिआ ण'मित्यादि, प्राग्वत् ,अथ यत्र प्रपतति तदाह-रोहिआ ण'मित्यादि, प्राग्व्याख्यातप्रायं, नवरं सविंशतिक 1. योजनशतं गङ्गाप्रपातकुण्डतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् , त्रीणि योजनशतानि अशीत्यधिकानि किश्चिद्विशेषोनानि,
जनत्वं करणेन यो० ३७९ क्रोशः १ कियद्धनुरधिकस्तेन किञ्चिदूनाऽशीतिरुक्ता इत्यर्थः, परिक्षेपेणेति । अधुनाऽस्य द्वीपवक्तव्यमाह-तस्स ण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं गङ्गाद्वीपतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् पोडश योजनानि रोहिता-18
द्वीपप्रमाणमित्यर्थः, से णमित्यादि, सुगम, रोहिअदीव' इत्यादि, सुगम, नवरं शेष विष्कम्भादिकं प्रमाणं तदेव, कोऽर्थः18 अर्द्धकोशं विष्कम्भेन देशोनकोशमुच्चत्वेनेति, चशब्दाद्रोहितादेवीशयनादिवर्णकोऽपि, अर्थश्च 'से केणडेणं भन्ते ! 18|| रोहिअदीबे'इत्यादि, सूत्रावगम्यः, सम्पति यथेयं लवणगामिनी तथाऽऽह-तस्से त्यादि, तस्य-रोहिताप्रपातकुण्डस्य 18 दाक्षिणात्येन तोरणेन द्वारेणेत्यर्थः रोहिता महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती हैमवतं वर्ष आगच्छन्ती २ हैमवतक्षेत्राभि
दीप
अनुक्रम [१३५]
Sanelemmalin
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[८०]
दीप
श्रीजम्बू-मुखमायान्तीत्यर्थः शब्दापातनामानं वृत्तवैताब्यपर्वतमर्द्धयोजनेन क्रोशद्वयेनासम्प्राप्ता-असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः । वक्षस्कारे द्वाप पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभजन्ती २-द्विभागं कुर्वती २ अष्टाविंशत्या सलिलासहस्रैः समग्रा-पूर्णा,
महाहिमकन्तिचन्द्री- पुर
ति इंद्रादि या वृत्तिः । भरतनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात् , अधोभागे जगती-जम्बूद्वीपकोट्ट दारयित्वा पूर्वभागेन लवणसभुद्रं समुपसर्पति,
र प्रविशतीत्यर्थः, अथ लाघयार्थ रोहितांशातिदेशेन रोहितावक्तव्यमाह-रोहिआ णन्ति, अतिदेशसूत्रत्वादेव प्राग्वत् । ॥३०॥ ॥ अथास्मादुत्तरगामिनीयं नदी वावतरतीत्याशंक्याह-'तस्स ण'मिति व्यकं, 'हरिकता' इत्यादि कण्ठ्यं, अत्र 'सवरय-11
णामईति पाठो बहादर्शदृष्टोऽपि लिपिप्रमादापतित एव सम्भाव्यते, बृहत्क्षेत्रविचारादिषु सर्वासां जिहिकानां | | वज्रमयत्वेनैव भणनात् , जलाशयानां प्रायो वज्रमयत्वेनैवोपपत्तेश्च, हरिकता ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं हरिकांता-18| |प्रपातकुण्डं द्वे योजनशते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्त योजनशतानि एकोनषष्टानि-एकोनपश्यधिकानि । परिधिना इति, 'तस्स ण'मित्यादि, सूत्रत्रयं प्राक् सूत्रानुसारेण बोद्धव्यं, नवरं विकटापातिनं वृत्तवैतादयं योजनेना-18 सम्प्राप्ता पश्चिमेनावृत्ता सती इरिवर्ष नाम क्षेत्रं वक्ष्यमाणस्वरूपं द्विधा विभजमाना २ षट्पञ्चाशता नदीसहौः।
॥३०॥ समग्रा-परिपूर्णा, हैमवतक्षेत्रनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात् , पश्चिमेन भागेन लवणोदधिमुपैति । सम्प्रत्यस्याः प्रवा-1 18| हादि कियन्मानमित्याह-'हरिकता'इत्यादि, हरिकान्ता महानदी प्रबहे-द्रहनिर्गमे पञ्चविंशतियोजनानि विष्क-||
म्भेन अर्द्धयोजनमुद्धेधेन तदनन्तरं च मात्रया २-क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोः चत्वारिंशद्धनु-18
अनुक्रम [१३५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[८०]
दीप
क्या, प्रतिपाय धनुर्विशतियेत्यर्थः, परिवर्द्धमाना २ मुखमूले-समुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन पञ्चयोजनान्युद्वेधेन, उभयोः पार्श्वयोभ्यिां पावरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता ॥ अथै| तस्य कूटवक्तव्यमाह
महाहिमवन्ते णं भन्ते । वासहरपथए कद कूडा पं०१, गो० अट्ठ कूडा प०, ०-सिद्धाययणकूडे १ महाहिमवन्तकूडे २ हेमत्रयकूडे ३ रोहिअकूडे ४ हिरिकूडे ५ हरिकंतकूडे ६ हरिवासकूडे ७ वेरुलिअकूडे ८, एवं चुलहिमवतकूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव अब्बा, से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुबइ महाहिमवते वासहरपवए २१, गोअमा! महाहिमवंते गं बासहरपचए चुलाहिमचंतं वासहरपवर्ष पणिहाय आयामुञ्चतुव्वेहविक्खम्भपरिक्खेवेषं महंसतराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते में इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ (सूत्रं ८१)
'महाहिमवन्ते'त्ति, महाहिमवति वर्षधरपर्वते भगवन् ! कति कूटानि?, गौतमेत्यादि सूत्रं सुगम, कूटानां नामार्थ18 स्वयं-सिद्धायतनकूट महाहिमवदधिष्ठातृकूटं हैमवतपतिकूटं रोहितानदीसुरीकूट हीसुरीकूटं हरिकान्तानदीसुरीकूट
हरिवर्षपतिकूटं वैडूर्य कूटं तु तद्रलमयत्वात् तत्स्वामिकत्वाञ्चेति, 'एव'मिति कूटानामुञ्चत्वादि सिद्धायतनप्रासादानां च मानादि तत्स्वामिनां च यथारूपं महर्दिकत्वं यत्र च राजधान्यस्तत्सर्व अत्रापि वाच्यं, केवलं नामविपर्यास एव 81 देवानां तद्राजधानीनां चेति । साम्पतं महाहिमवतो नामा निरूपयन्नाह--'से केणटेण'मित्यादि, व्यक्तं नवरमुत्त
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------ मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [१३६]
श्रीजम्बू- रसूत्रे महाहिमवान् वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधरपर्वतं प्रणिधाय-प्रतीत्य क्षुद्रहिमवदपेक्षयेत्यर्थः, योजनाया विचि-8 वक्षस्कारे द्वीपशा-शत्रत्वात् आयामापेक्षया दीर्घतरक एव उच्चत्वाद्यपेक्षया महत्तरक एवेति, अथवा महाहिमवन्नामाऽत्र देवः पल्योपमस्थि-18 महाहिमकन्तिचन्द्री तिकः परिवसति, सूत्रे आयामोच्चत्वेत्यादावेकवद्भावः समाहाराद् बोध्यः ॥ अथ हरिवर्षनामकवर्षावस:
ति कूटानि या वृत्तिः
कहि णं भन्ते! जम्बुद्दीचे दीवे हरिवासे णाम वासे पं०, गो०! णिसहस्स वासहरपव्ययस्त दक्षिणेणं महाहिमवन्तवासह- हरिवर्ष ॥३०॥ रपब्वयस्स उत्तरेण पुरथिमलवणसमुहस्स पञ्चस्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ हरिवासे णाम वासे
मू.८२ पण्णत्ते एवं जाव पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पचत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे अट्ट जोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खम्भेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं तेरस जोषणसहस्साई तिणि अ एगसट्टे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणंति, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरत्थिमिलाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्ठा तेवत्तरि जोअणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स धणुं वाहिणणं चउरासीई जोअणसहस्साई सोलस जोअणाई चचारि एगूणवीसइ. भाए जोअगस्स परिक्खेवणं। हरिवासस्स णं भन्ते! वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे पं०, गोअमा! बहुसमरमणिजे
॥३०४॥ भूमिभागे पण्णाचे जाव मणीहिं तणेदि अ उचसोमिए एवं मणीणं वणाण य वण्णो गन्धो फासो सदो भाणिभव्यो, हरिखासे गं तत्व २ देसे तहिं २ बहुवे बुड्ढा खुहिआओ एवं जो मुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो बत्तव्योति । कहि ण भन्ते! हरि
aeeserSA
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आगम
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सूत्रांक
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दीप
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
बासे वासे बिअडाव णामं वट्टवेअद्धपव्व पण्णत्ते ?, गो० ! हरीए महाणईए पञ्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरत्थिमेणं हरिबासस्स २ बहुमच्झदेसभाए एत्थ णं विअष्टावई णामं बट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते, एवं जो चैव सहावइस्स विक्खमुच्चतुब्बेहपरिक्वठाण वण्णावासो अ सो चैत्र विअडावइस्सवि भाणिअच्वो णवरं अरुणो देवो पडमाई जाब विअडावदवण्णाभाई अरुणे अ इत्थ देवे महिद्धीए एवं जाब दाहिणेणं रायहाणी अव्वा, से केणद्वेण भन्ते ! एवं बुचर- हरिवासे हरिवासे ?, गोअमा ! हरि बासे णं वासे मणुआ अरुणा अरुणो भासा सेआ णं संखदलसण्णिकासा हरिवासे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाब पलिओ मडिए परिसर से तेण गोमा ! एवं बुचर (सूत्रं ८२ )
'कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं अष्टौ योजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि एकविंशअत्यधिकानि एकं चैकोनविंशतितमं भागं योजनस्य विष्कम्भेन, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भकत्वादिति । अधुनाऽस्य बाहादित्रयमाह -- "तस्स बाहा' इत्यादि, 'तस्स जीवा' इत्यादि, 'तस्स धणु' मित्यादि, सूत्रत्रयमपि व्यक्तं ॥ अथास्य स्वरूपं पिपृच्छिपुराह - 'हरिवास' इत्यादि, हरिवर्षस्य वर्षस्य भगवन्! कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञतः ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अन्त्रातिदेशवाक्यमाह - यावन्मणिभिस्तृणैश्चोपशोभितः, एवं मणीनां तृणानां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दश्च भणितव्यः पद्मवर वेदिकानुसारेणेत्यर्थः, अत्र जलाशयस्वरूपं निरूपयन्नाह - 'हरिवासे णमित्यादि, क्षेत्रस्य सरसत्वेन तत्र तत्र देशप्रदेशेषु क्षुद्रिकादयो जलाशया अखाता एव सन्तीत्यर्थः, अत्रैकदे
Fur Ervate & Pune Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा
प्रत
हरिवर्ष
सूत्रांक
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३०५॥
[८२]
दीप अनुक्रम [१३७]
968993909200000
शग्रहणेन सर्वोऽपि वाप्यादिजलाशयालापको ग्राह्यः, अत्र कालनिर्णयार्थमाह-एवं जो सुसमाए इत्यादि, एवं-18 वक्षस्कारे उक्तप्रकारेण वर्ण्यमाने तस्मिन् क्षेत्रे यः सुषमायाः-अवसर्पिणीद्वितीयारकस्यानुभावः स एवापरिशेषः-सम्पूर्णों वक्तव्यः,181
सू.८२ सुषमाप्रतिभागनामकावस्थितकालस्य तत्र सम्भवात् ॥ अथास्य क्षेत्रस्य विभाजकगिरिमाह--'कहिण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्त, उत्तरसूत्रे हरितो-हरिसलिलाया महानद्याः पश्चिमायां हरिकान्ताया महानद्याः पूर्वस्या हरिवर्षस्य २ बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे विकटापातिनामा वृत्तवैताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, अत्र निगमयंल्लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह-एवं विकटापातिवृत्तवैताम्यवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिनो विष्कम्भोश्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानानां वर्णव्यासो-वर्णकग्रन्थविस्तरः चकारात्तत्रत्यप्रासादतत्स्वामिराजधान्यादिसंग्रहः, विकटापातिप्रभाणि विकटापातिवर्णाभानि च तेन विकटापातीति नाम, अरुणश्चात्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि तथा नाम प्रसिद्धम् , आह-विसदृशनामकदेवाद्विकटापातीति नाम कथमुपपद्यते ?, उच्यते, अरुणो विकटापातिपतिरिति तत्कल्पपुस्तकादिषु आख्यायते, सामा-1 | निकादीनामप्यनेनैव नाम्ना प्रसिद्ध इति सामर्थ्याद्विकटापातीति, सुस्थितलवणोदाधिपतेर्गोतमाधिपतित्वाद् गौतमद्वीप इव, बृहत्क्षेत्रविचारादिषु हैरण्यवते विकटापाती हरिवर्षे गन्धापातीत्युक्तं, तत्त्वं तु केवलिगम्यं, एवं यावद्दक्षिणस्यां दिशि ||३०५॥ मेरो राजधानी नेतव्या, अथ हरिवर्षनामार्थ पिपृच्छिषुराह-'से केणटेणं इत्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, उत्तरसूत्रे हरिवर्षे ॥३॥ २ केचन मनुजा अरुणा-रक्तवर्णाः, अरुणं च चीनपिष्टादिकं आसन्नवस्तूनि अरुणप्रकाशं न कुरुते अभास्वरत्वाद्
Italliambrinyaaya
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८२]
दीप अनुक्रम [१३७]
IN| इमे चन तथा इत्याह-अरुणावभासा इति, केचन श्वेताःणं पूर्ववत् शङ्खदलानि-शसखण्डास्ते हि अतिश्वेताः ।।
स्युस्तेषां सन्निकाशा:-सदृशाः तेन तद्योगाद्धरिवर्ष क्षेत्रमुच्यते, कोऽर्थ:-हरिशब्देन सूर्येश्चन्द्रश्च तत्र केचन मनुष्याः सूर्य इवारुणा अरुणावभासाः, सूर्यश्चात्र रक्तवर्णप्रस्तावादुद्गच्छन् गृह्यते, केचन चन्द्र इव श्वेता इति, हरय श्य | | हरयो मनुष्याः, साध्यवसानलक्षणयाऽभेदप्रतिपत्तिः, ततस्तद्योगात् क्षेत्रं हरय इति व्यपदिश्यते, हरयश्च तद्वर्ष च हरिवर्ष, यदा च मनुष्ययोगात् हरिशब्दः क्षेत्रे वर्तते तदा स्वभावाद्वहुवचनान्तः प्रयुज्यते, यदाह तत्त्वार्थमूलटी-| काकृद् गन्धहस्ती-"हरयो विदेहाश्च पश्चालादितुल्या" इति, चदिवा हरिवनामा अत्र देव आधिपत्यं परिपाल-IS यति तेन तद्योगादपि हरिवर्ष ॥ अथानन्तरो क्षेत्रं निषधाइक्षिणस्यामुक्तं तर्हि स निषधः कास्तीति पृच्छतिकहि णं भन्ते । जम्बुद्दीवे २ णिसहे णामं वासहरपल्यए पण्णते?, गोमा ! महाविदेहस्स पासस्स दक्खिणेण हरिवासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुरीचे दीवे णिसहे णाम वासहरपव्यए पण्णते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पञ्चत्धिमिल्लाए जाब पुढे, चत्तारि जोषणसयाई उद्धं उचत्तेणं चत्तारि गाउअसयाई उव्वेहेणं सोलस जोअणसंहस्साई अढ व बायाले जोअणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्षम्मेणं, तस्स पाहा पुरथिमपञ्च स्थिमेणं पीस जोमणसहस्साई एग च पणहूँ जोअणसयं दुणि अ एगूणवीसइभाए जोभणस्स अद्धभागं च मायामेणं, तस्स जीवा उत्तरेण जाव चउणवईजोअणसहस्साई एगं च ठप्पण्णं जोअणसयं दुणि अ एगूणवीसहभाए
अथ निषधपर्वतस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८३]
दीप अनुक्रम [१३८]
श्रीजम्बू
14 जोमणस्स आयामेणंति, तस्स धणु दाहिगणं एग जोअणसयसहस्सं चवीसं च जोअणसहस्साई तिणि छायाले जोअणसए णव श्वक्षस्कारे द्वीपशा
य एगणवीसइभाए जोमणस्स परिक्खेषेणंति रुअगसंठाणसंठिए सवतवणिज्जमए अक्छे, उमओ पासिं दोहि पठमवरदाहिं शनिपधः पन्तिचन्द्री- दोहि अबणसंडेहिं जाव संपरिक्खिते, णिसहस्स ण वासहरपब्वयस्स उपि बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णसे जाप आसयंति चंतासू.८३ या वृत्तिः
सयंति, तस्स ण बहुसमरमणिजस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिमिछिदहे णाम दहे पण्णते, पाईपची॥३०६॥
णायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोभणसहस्साई आयामेणं दो जोमणसहस्साई विक्खम्भेणं दस जोषणाई जम्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामचकूले, तस्स णं तिगिच्छिरहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोणिपडिरूवगा पं० एवं जाव आयामविक्सम्भविहूणा जा व महापउमदहस्स वत्तव्बया सा घेव तिगिछिदहस्सवि वत्तब्बया तं चेव पउमदहप्पमाणं अट्ठो आव तिगिठिवण्णाई, पिई अ इस्थ देवी पलिओवमहिईआ परिवसइ, से तेणतुणं गोयमा! एवं वुचइ तिगिछियौ तिनिछिदहे (सूत्र ८३) 'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक, उत्तरसूत्रे महाविदेहस्य वर्षस्य दक्षिणस्यां हरिवर्षस्योत्तरस्यां पौरस्त्यलवणोदस्य | पश्चिमायां पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीने-1 | | त्यादि प्राग्वत् , चत्वारि योजनशतान्यू;ञ्चत्येन चत्वारि गव्यूतशतान्युद्वेधेन-भूप्रवेशेन मेरुवर्जसमयक्षेत्रगिरीणां ॥३०॥ || स्वोच्चत्वचतुर्थांशेनोद्वेधत्वात् , पोडश योजनसहस्राणि द्विचत्वारिंशानि-द्विचत्वारिंशदधिकानि अष्टौ च योजनशतानि |
द्वौ च एकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेन, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भमानत्वात् , अथ बाहादिसूत्रत्रयमाह
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
Scenesesesed eeeeeeeeeee
'तस्स वाहाँ'इत्यादि, 'तस्स जीवा' इत्यादि, अथ यावत्पदात् पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा पुरस्थिमि| लाए लवणसमुहं जाव पुट्ठा इति ग्राह्य, 'तस्स घणु मित्यादि सर्व पूर्वसूत्रानुसारेण व्याख्येयं । अथ निषधमेव विशे-18 पणैर्विशिनष्टि-रुअग'इत्यादि, अत्र यावत्पदात् सचओ समंता इति ग्राह्यं, शेष प्राग्वत् । अथास्य देवक्रीडायो-18 ग्यत्वं वर्णयन्नाह-णिसह इत्यादि, अत्र यावत्पदात् आलिङ्गपुष्करादिपदकदम्बकं बोध्यं । अथ इदवक्तव्यावसर:-18 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेत्रान्तरे महानेक: तिगिछि:-पौष्परजस्त-18
प्रधानो द्रहस्तिगिंछिद्रहो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः, प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिंछि' इति निपातः देशीशब्दो वा, अन्यत् || | सर्व प्रागनुसारेणेति, अथास्यातिदेशसूत्रेण सोपानादिवर्णनायाह-'तस्स णमित्यादि, तस्य-तिगिंछिद्रहस्य चतुर्दिा चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एवमित्थंप्रकारेण इदवर्णके क्रियमाणे यावच्छब्दोऽत्र कानवाच्यव्ययं , तेन यावत्परिपूर्णा यैव महापद्मद्रहस्य वक्तव्यता आयामविष्कम्भविहीना सैव तिगिंछिद्रहस्य वक्तव्यता, एतदेव व्यक्त्या आचष्टे-'तं चेव'इत्यादि, तदेव-महापद्मद्रहगतमेव पद्मानां-धृतिदेवीकमलानां प्रमाण-एककोटिविंशतिलक्षपञ्चाशत्सहस्रक शतविंशतिरूपं, अन्यथाऽत्र पद्मानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापद्मद्रहगतपोभ्यो द्विगुणत्वेन विरोधापातात्, द्रहस्य च प्रमाणमुद्धेधरूपं बोध्यं, आयामविष्कम्भयोः पृथगुक्तत्वादिति, अर्थः तिगिंछिद्रहस्य वाच्यः, 18
दीप अनुक्रम [१३८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
वक्षस्कारे सनदीकति
सुत्राक
न्तिचन्द्रीया वृचिः ॥३०७॥
Recenea
[८३]
दीप
स चैर्य से केणद्वेण भन्ते! एवं पुषइ-तिर्गिछिदहे ' इत्यादि पारसूत्रानुसारेण वाच्यं यावत् तिगिछिद्रहवर्णाभानि उत्पलादीनि घृतिश्चात्राधिपत्यं परिपालयति 'से तेणटेणं इत्यादि प्राग्वत् ॥ अथास्माद्या दक्षिणेन नदी प्रवहति तामाह- तस्स णं तिगिरिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पबूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साई चत्तारिअ एकवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणामिमुद्दी पचएणं गता महया घडमुहपवित्तिएणं जाब साइरेगचउजोमणसइएणं पवाएणं पवइ, एवं जा पेव हरिकन्ताए बत्तन्वया सा चेव हरीएवि अब्बा, जिभिआए कुंडस्स दीवस्स भवणस त व पमाण अट्ठोऽवि भाणिभव्यो जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुई समप्पड, तं व पवहे अ मुहमूले अ फ्माण बहो म जो हरिकम्ताए जाव वणसंडसंपरिक्सिन्ता, तरस गं तिगिछिरहस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं सीओमा महाणई पबूदा समाणी सत्त जोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसहभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही पवएणं गंता मया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेगचउजोअणसइएणं पवारणं पवडइ, सीओआ णं महाणई जओ पवडइ एल्थ णं महं एगा जिभिषा पण्णचा चत्तारि जोषणाई आयामेणं पण्णास जोषणाई विक्खम्भेणं जोअणं पाहणं मगरमुहविउडुसंठाणसंठिा सबबरामई अच्छा, सीओआ णं महाणई जहिं पवडद एत्य णं महं एगे सीओअप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते चत्तारि असीए जोअणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरसअट्ठारे जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्वेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया अठवा जाव तोरणा । तस्स णं सीओअप्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एत्थ महं एगे सीओअदीवे णाम दीवे पण्णत्ते
अनुक्रम [१३८]
senese
॥३०७॥
I
ndimetrinary
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८४]
दीप
अनुक्रम [१३९]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
जोभणाई आयामविश्वम्भेणं दोष्ण घिउत्तरे जोजणसर परिक्वेवेणं दो कोसे ऊलिए जलताओ सज्जवइरामए अच्छे सेसं तमेव बेइयावणसं भूमिभागभवणसयजिनअट्ठो भाणिअवो, तस्स णं सीओोजपवावकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणं सीभोजा महाणई पवूढा समाणी देवकुरुं एखेमाणा २ चित्तविचिचकूडे पव्व निसटदेव कुरुसूरसुलस विज्जुप्पभदहे अ दुद्दा विभयमाजी २ चउरासीए सलिला सहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भदसालवणं एजेमाणी २ मंदरं पव्वयं दोहिं जोअनेहिं असंपत्ता पथत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी अहे विज्जुप्पभं वक्खारपव्वयं दारइत्ता मन्दरस्स पव्वयस्स पचत्थिमेणं अवरविदेदं वासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्वट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलास हस्सेहिं आपूरेमाणी २ पश्चहिं सलिलासय सहरसेहिं दुतीसाए असलिलासहस्सेहिं समग्गा आहे जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पचत्थिमेणं लवणसमुदं समप्येति, सीओआ णं महाणई पवहे पण्णासं जोभणारं विक्खम्भेणं जोअणं उब्वेद्देणं, तयणंतरं च णं मायाए २ परिषद्धमाणी २ मुहमूले पथ्य जोअणसयाई विक्खम्भेणं दस जोभणाई उब्बेणं उभओपासिं दोहिं पडमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता । जिसढे णं भन्ते ! वासहरपव्व णं कति कूडा पण्णत्ता, गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तंजहा- सिद्धाययणकूडे १ णिसढकूडे २ हरिवासकूडे पुव्वविदेहकूडे ४ हरिकूडे ५ घिईकूडे ६ सीओओकूडे ७ अवरविदेहकूडे ८ रुअगकूडे ९ जो चेव चुहाहिमवत्तकूडाणं उचत्तविक्खम्भपरिक्षो पुवणिओ रायहाणी असंचैव इहंपि अव्वा, से केणद्वेणं भन्ते ! एवं दुबइ सिहे वासहरपच्चए २१, गोलमा ! जिस णं बासहरपव्वद बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिआ उसभसंठाणसंठिआ, जिसहे अ इत्थ देवे महिडीए जान पलिओदमट्टिई परिवसद से तेणद्वेणं गोअमा! एवं युबइ सिहे वासहरपव्वर २ (सूत्रं ८४ )
For Private & Use Only
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------ मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
सुत्राक
[८४]
'तस्त 'मित्यादि तस्य तिगिंछिद्रहस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन हरिनाम्नी हरिसलिलाऽपरपर्याया महानदी प्रव्यूढा द्वीपशा-1|| सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि एकं च एकोनविंशतिभागं योज-1 न्तिचन्द्री-नस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा इत्यादि प्राग्वत् , गिरिगन्तव्योपपत्तिस्तु षोडशसहस्राष्टशतद्वाचत्वारिंशद्योजनया वृत्तिः
प्रमाणाषिधण्यासाद् द्विसहस्रयोजनप्रमाणे इदव्यासेऽपनीते शेषेऽर्कीकृते भवतीति । निगमयन्नतिदेशसूत्रमाहएव'मित्यादि, एवं'मित्युक्तप्रकारेण यैव हरिकान्ताया वक्तव्यता सैव हरितोऽपि महानद्या नेतन्या, जिव्हिकाया हरि-19 कुण्डस्य हरिद्वीपस्य भवनस्य च तदेव प्रमाणं हरिकान्ताप्रकरणोक्तमवसेयं, अर्थोऽपि हरिद्वीपनाम्नो वाच्यः, अत्र यावस्पदवाच्यं साक्षाहिखितं च सर्व हरिकान्ताप्रकरण इव ज्ञेयं ॥ अथास्माद्या उत्तरेण नदी प्रवहति तामाह-'तस्स णं |5|| तिमिछिद्दह'इत्यादि, व्यकं, गिरिगन्तव्यं तु हरिन्नद्या इवावसेयं, अथास्या जिव्हिकास्वरूपमाह-'सीओआ'इत्यादि, | उत्तानार्थ, नवरमायामेन चत्वारि योजनानि, हरिन्नदीजिन्हिकाद्विगुणत्वात् , पश्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन हरिन्न180 दीप्रवहतो द्विगुणस्य सीतोदाप्रवहस्य मातव्यत्वात्, एवं बाहल्यमपि पूर्वजिव्हिकातो द्विगुणमवसेयम्, अथ कुण्ड
स्वरूपमाह-'सीओआ णं महाणई जहिं'इत्यादि, 'एत्थ णमित्यादि, अत्र कुण्डस्य योजनसङ्ख्या हरिकुण्डतो द्वैगुण्ये- ॥३०॥ 181 नोपपादनीया । अथ सीतोदाद्वीपस्वरूपमाह-तस्स ण'मित्यादि, अत्र शीतोदाद्वीपः आयामविष्कम्भाभ्यां चतुःष-1|| 18iष्टियोजनानि पूर्वनदीद्वीपतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् , व्यधिके द्वे शते परिक्षेपेण, अत्र सूत्रेऽनुक्कमपि करणवशात् ।
Generapraone9909000000
दीप अनुक्रम [१३९]
SmElemer
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४]
दीप
|| किश्चित्साधिकत्वं ज्ञेयं, द्वौ कोशी जलादुत्थितः सर्ववज्रमयः अच्छः शेषमुक्कातिरिकं गङ्गाद्वीपप्रकरणोक्तमवसेयं, तच्च । विनेयमारणार्थ नामतो निर्दिशति-वेदिकावनखण्डभूमिभागभवनशयनीयानि बाच्यानि, अत्र सूत्रे विभक्तिलोपः।
प्राकृतत्वात् , अर्थश्च शीतोदाद्वीपस्य गङ्गाद्वीपवत् भणितव्य इति । अथ यथेयं पयोधिमुपयाति तथाह-तस्स 18 । सीओअप्पवाय' इत्यादि, तस्य शीतोदाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन शीतोदा महानदी प्रब्यूढा सती देवकुरून् || | इयूती २-गच्छन्ती २, अन्न सूत्रे एकवचनं आकारान्तत्वं च प्राकृतत्वात्, चित्रविचित्रकूटी पर्वती पूर्वापरकूलब-18 तिनी निषध १देवकुरु २ सूर ३ सुलस ४ विद्युत्मभ ५ द्रहांश्च द्विधा विभजन्ती २-तन्मध्ये वहन्ती २, अत्रेयं । | विभागयोजना-चित्रविचित्रकूटपर्वतयोर्मध्ये वहनेन चित्रकूट पर्वतं पूर्वतः कृत्वा विचित्रकूटं च पश्चिमतः कृत्वा 81
| देवकुरुषु वहन्ती इति, द्रहांश्च पश्चापि समश्रेणिवर्तिन एकैकरूपान् द्विभागीकरणेन वहन्तीति, अत्रान्तराले देवकुरु18 वर्तिभिश्चतुरशीत्या सलिलासहस्रैरापूर्यमाणा २ भद्रशालवनं-मेरुप्रथमवनं इयूती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्याIS| मसम्प्राप्ता, शीतोदामेर्वोरष्टौ कोशा अन्तरालमित्यर्थः, ततः पश्चिमाभिमुखी परावृत्ता सती विद्युत्प्रभं वक्षस्कारपर्वतं 18 नैर्ऋतकोणगतकुरुगोपकगिरिमधो दारयित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेनापरविदेहवर्ष-पश्चिमविदेहं द्विधा विभ18| जन्ती २, एकैकस्माचक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ नदीसहस्रैरापूर्यमाणा २ तथाहि-अस्या दक्षिणकूलगतविजया-1 || टके द्वे द्वे महानद्यौ गङ्गासिन्धुनाम्नी चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारे उत्तरकूलवार्तिविजयाष्टके च द्वे द्वे महानद्यौ
अनुक्रम [१३९]
Ge
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू
प्रत
सत्राक
[८४]
दीप अनुक्रम [१३९]
रक्तारक्तवतीनानी तावत्परिवार स्त इति प्रतिषिजयमष्टाविंशतिनदीसहस्राणि, अथ सर्वाप्रेणास्था नदीपरिवारं विशेषण- वक्षस्कारे द्वीपशा-18द्वारेणाह-पञ्चभिर्नदीलक्षद्वात्रिंशता च नदीसहस्रः समप्रा-परिपूर्णा, तथाहि-अस्या उभयकूलवर्सिविजयषोडशकेऽष्टा- सनदीकतिन्तिचन्द्री
18|विंशतिनंदीसहस्राणीत्यष्टाविंशतिसहस्राणि पोडशभिर्गुण्यंते, जातं चतुर्लक्षाण्यष्ट चत्वारिंशत्सहस्राणि, अत्र राशी कुरु- गिछिद्रहया चिः 18 गत ८४ सहस्रनदीप्रक्षेपे जातं यथोक्तं मानमिति, अघो जयन्तस्य द्वारस्य-पश्चिमदिग्वर्तिजम्बूद्वीपद्वारस्य जगती
वणेनं
सू.८४ ॥३०९॥ 18. दारयित्वा पश्चिमेन-पश्चिमभागेन लघणसमुद्रं समुपसर्पतीति । अधुनाऽस्खा विष्कम्भाधाह-'सीओआइत्यादि,
18 शीतोदा महानदी प्रवहे-इदनिर्गमे पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्भेन, हरिनदीप्रवहादस्याः प्रवहस्य विगुणस्त्रात्,18 18 योजनमुद्देधेन-उण्डत्वेन, पञ्चाशद्योजनानां पश्चाशता भागे एकस्यैव लामात्, तदनन्तर मात्रया २-क्रमेण २18
प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्थयोरशीतिधनुर्वृड्या, प्रतिपाय चत्वारिंशद्धनुर्ववेत्यर्थः, परिवर्बमामा २ मुखमूले-18 समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनशतानि निकम्मेन प्रवहविष्कम्भापेक्षया मुखविष्कम्भस्य दशगुणत्वात् , दशयोजनान्युद्वेधेन, आद्यप्रवहोद्वेधापेक्षयाऽस्य दशगुणत्वात्, शेषं व्यक्तं ॥ अथ निषधे कूटवक्तव्यमाह-'णिसढे 'मित्यादि,
॥३०९॥ यथा सीतोदाया उत्तरकूल विजयेषु रकारकवत्यौ दक्षिणकूलकाये च महासिंधू तथा न शीतायाः किन्तु उत्तरतो गासिन्धू दक्षिणत इतरे इति (ही पत्ती)३ गंगादिसीतोदापर्यन्तनदीनां प्रसप्रवेशनिमित्तं समुद्रोऽपि तत्र तत्र प्रदेशे अनाविजयस्थित्या बायनलप्रवेशोचितप्रणालबुला संभाव्यते अतो न किंचिदनुप-10 || पत्रं (ही पूती)। तेन योजनसहखनिम्नत्वे कथं शीतोदायाः ममुळे प्रवेश इति नाशल्यं ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४]
18 सिद्धायतनकूट निषधवर्षधराधिपवासकूट हरिवपक्षेत्रपतिकूट पूर्वविदेहपतिकूटं हरिसलिलानदीसुरीकूटं धृति:-तिगि
छिद्रहसुरी तस्याः कूट शीतोदामदीसुरीकूट अपर विदेहपतिकूट रुचकः-चक्रवालगिरिविशेषस्तदधिपतिकूट, अत्र
वक्तव्येऽतिदेशसूत्रमाह-'जो चेष'इत्यादि, य एव क्षुद्रहिमवति कूटानामुच्चत्वविष्कम्भाम्यां सहितः परिक्षेपः उच्चत्व18 विष्कम्भपरिक्षेपः, चशब्दात् कूटवर्णकः पूर्ववर्णितः-अधस्तनमन्थोकः स एव इहापि ज्ञातम्या, तथाहि-पश्चयो18 जनशताम्युच्चत्वं मूलविष्कम्भश्चेत्यादि, राजधानी च सैव इहापि नेतव्या, अत्र लिङ्गविपरिणामेनार्थयोजना इति,
कोऽर्थः । यथा क्षुद्रहिमवनिरिकूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसङख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्याम्यस्मिन् जम्बूद्वीपे । क्षुद्रहिमवती नानी राजधानी तथा इहापि निषधा नाम राजधानीति, अधुनाऽस्य नामाई प्रश्रयवाह--से केणढण'-18 मित्यादि, व्यक्तं, नवरं निषधे वर्षधरपर्वते बहूनि कूटानि निषधसंस्थानसंस्थितानि, तत्र नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो-वृषभः पृषोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः तत्संस्थानसंस्थितानि, एतदेव पर्यायान्तरेणाह-- | वृषभसंस्थितानि, निषधश्चात्र देव आधिपत्य परिपालयति, तेन निषधाकारकूटयोगाग्निषधदेवयोगाद्वा निषध इति व्यवहियते इति ॥ अथ यन्निषधसूत्रे 'महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेण मित्युक्तं तत् किं महाविदेहमित्याहकहि णं भन्ते! जम्मुहीये दीवे महावि देहे णामं वासे पण्णत्ते !, गोअमा! णीलवम्सस्स बासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं णिसहस्स वासहरपत्यस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पचत्थिमेण पञ्चत्थिमलवणसमुएस्स पुरस्थिमेणं एत्थं णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे गार्म
दीप
200000000000000000
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अनुक्रम [१३९]
Taimmitraryaru
अथ महाविदेहक्षेत्रस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू-18 द्वीपशान्तिचन्द्रीया पुचिः
वक्षस्कारे 10 महाविदेह 8 वर्णन
प्रत
सूत्रांक
[८५]
॥३१॥
eseseseeocaeeeeee
दीप अनुक्रम [१४०]
वासे पणते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुरं पुढे पुरथिम जाव पुढे पञ्चस्थिमिलाए कोडीए पथस्थिमिळ जाव पुढे तित्तीसं जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए जोभणसए बचारि अ एगूणवीसहभाए जोअणस्स चिक्खम्भेणति, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं तेत्तीसं जोअणसहस्साई सत्त य सत्तसट्टे जोअणसए सत्त य एगूणवीसहभाए जोअणस्स आयामेणंति, तरस जीवा बहुमझदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरथिमिलाए फोडीए पुरथिमिल जाव पुट्ठा एवं पथिमिलाए जाव पुट्ठा, एग जोयणसयसहस्सं आयामेणंति, तस्स पणुं उभभो पासिं उत्तरदाहिणेणं पगं जोयपसयसहस्सं अट्ठावणं जोअगसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोअणसवं सोलस य एगूणवीसहभागे जोयणस्स किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणंति, महाविदेहे णं वासे चउबिहे चउप्पडोआरे पण्णते, तंजहा-पुषविदेहे १ अवरविदेहे २ देवकुरा ३ उत्तरकुरा ४, महाविदेहस्स णं भन्ते ! बासस्स केरिसए आगारभावपढोआरे पण्णत्ते ?, गोमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव । महाविदेहे णं भन्ते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते , तेसि णं मणुआणं छबिहे संघयणे छबिहे संठाणे पञ्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जपणेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुल्चकोडीआज पालेन्ति पालेता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अप्पेगइआ सिप्रति जाव अंतं करेन्ति । से केण्डेणं भन्ते! एवं बुच्चइ-महाविदेहे वासे २१, गोअमा! महाविदेदे णं वासे भरहेरवयहेमषयहेरण्णवयहरिबासरम्मगवासेहियो आयामविक्खम्भसंठाणपरिणाहणं विच्छिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए थेष सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहा य इत्य मणूसा परिवसंति, महाविदेहे अ इत्थ देवे
॥३१॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------- ------ मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८५]
दीप अनुक्रम [१४०]
Recemeseseksee
महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोभमा! एवं वुइ-महाविदेदेहे वासे २, अदुत्तरं च णं गोभमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए, गामवेजे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि ३ (सूत्र ८५) 'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! इत्यादि सूत्रं स्वयं योग्य, नवरं महाविदेहं नाम वर्ष-चतुर्थ क्षेत्रं प्रज्ञप्तं ?, गौतम! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्रविभागकारिणो दक्षिणेनेत्यर्थः 'णिसहस्स'इत्यादि व्यक्तं, नवरं पल्याङ्कसंस्था-18 नसंस्थितमायतचतुरस्नत्वात् , विस्तारेण त्रयविंशयोजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चतुरशीत्यधिकानि चतुरश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन, निषधविष्कम्भाद् द्विगुणविष्कम्भकत्वात्, अथ बाहादिसूत्रत्रयमाह-- 'तस्स बाहा' इत्यादि, तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य पूर्वापरभागेन बाहा प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि सप्त च योजन-11 शतानि सप्तषष्टयाऽधिकानि सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनेति, ननु "महया धणुपडाओ डहरागं सोहिआहि घणुपर्छ। जं तत्थ हवइ सेसं तस्सद्धे णिहिसे वाहं ॥१॥” इति वचनात् महतो धनुःपृष्ठाद् विदेहानां दक्षिणार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च सम्बन्धिनो लक्षमेकमष्टपञ्चाशत्सहस्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजनानां पोडश च | कलाः सार्धाः योजन १५८११३ कलाः १६ कलार्द्ध चेत्येवंपरिणामाल्लधु धनुःपृष्ठं निषधादिसम्बन्धि लक्षमेकं चतुर्विशतिसहस्राणि चीणि शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनानां नव च कला योजन १२४३४६ कला ९ इत्येवंपरिमाणं शोधय, ततश्च शेपमिदं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि सप्तपष्टचधिकानि योजनानां सप्त च कलाः सा ः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
न्तिचन्द्री-18
सूत्रांक
[८५]
दीप अनुक्रम [१४०]
श्रीजम्यू-1 योजनानां १३७६७ कला ७ कलाई च, एराम पोडश योजनसहखाणि अष्टौ शतानि वशीत्यधिकानि योजनानां वक्षस्कारे द्वीपशा-1 प्रयोदश च कलाः सपादाः इत्येवंरूपा बाहा घिदेहानां सम्मति, अत्र तु अवविंशत्सहस्रादिरूपा उक्ता सस्किमिति , महाविदेह
| उच्यते, सर्वत्र वैताब्यादिषु पूर्ववाहा अपरधाहा च चावती दक्षिणसस्तावती उत्तरतोऽपि परं व्यवहितत्वेन सा सम्मी- या वृतिः
वर्णन ल्व नोका, इयं तु सम्मिलितत्वात् संमील्यैवोक्ता सूत्रे दक्षिणवाहाप्रमाणैवोत्तरघाहेत्येनमर्थ बोधवितुमिति । अथास्य ॥३१॥ || जीवामाह-'तस्स जीवा'इत्यादि, तस्य विदेहस्य जीवा बहुमध्यदेशभागे विदेहमध्ये इत्यर्थः, अन्वेषां तु वर्षवर्ष-18
धराणां चरमप्रदेशपतिजींवा अस्य तु मध्यप्रदेशपतिरित्यर्थः, इयमेव च जम्बूद्वीपमध्यं अत एव चायामेन लक्षयो|| जनमाना, मध्यमात्परतस्तु जम्बूद्वीपस्य सर्वत्र दक्षिणत उत्तरतो वा लक्षाच्यूनन्यूनमानत्वात् , अथास्य धनु पृष्ठमाहII 'तस्स धणु इत्यादि, तस्य विदेहस्योभयोः पार्श्वयोः एतदेव विवृणोति-'उत्तरदाहिणणं'ति उत्तरपार्श्वे दक्षिणपायें |
|वा एकं योजनलक्षं अटपश्चाशच योजनसहस्राणि एकं च योजनशतं त्रयोदशोत्तरं पोडश कोनविंशतिभागान || IS योजनस्य किंचिद्विशेषाधिकान् परिक्षेपेण, यच्चान्यत्र सार्बाः पोडश कला उक्तास्तदत्र किंचिद्विशेषाधिकपदेन संगृ
हीत, उद्धरितकलांशास्तु न विवक्षिता इति, अत्राधिकार्थसूचनार्थ करणान्तरं दय॑ते-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिस्रो लक्षाः ॥३१॥
षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां क्रोशत्रयमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशांगुलान्येकमागुलं योजन ११||३१६२२७ कोश ३ घनूंषि १२८ अंगुल १३ अर्बागुलं , तत्र योजनराशिरडींक्रियते, लब्धमेकं लक्षमष्टापञ्चाशत्स-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[८५]
दीप अनुक्रम [१४०]
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हस्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजन १५८११३, यवेक योजनं शेष तत्कलाः क्रियन्ते लब्धाः एकोनविंशतिः कोशत्रये च लब्धाः सपादाश्चतुर्दश कलाः उभयमीलने जाताः सपादास्त्रयस्त्रिंशत् कलाः सासामढ़ें लब्धाः सार्द्धाः | षोडश कलाः, यश्च कलाया अष्टमो भागोऽधिक उद्धरति यानि च धनुषामः लब्धानि चतुःषष्टिर्धनूंषि यानि च ||
सार्द्धत्रयोदशांगुलानामढे पादोनानि सप्तांगुलानि तदेतत्सर्वमरूपत्वान्न विवक्षितमिति ॥ अधुना विदेहवर्षस्य भेदान्नि-1 | रूपयन्नाह---'महाविदेहे णमित्यादि, महाविदेहं वर्ष चतुर्विषं-चतुष्प्रकारं पूर्व विदेहाद्यन्यतरस्य महाविदेहत्वेन व्यप-1 दिश्यमानत्वात् , अत एव चतुर्यु-पूर्वापरविदेहदेव कुरूत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतार:-समवतारो विचारणी-||
यत्वेन यस्य तत्तथा, चतुर्विधस्य पर्यायो वाऽयं, तत्र पूर्वविदेहो यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतः प्राग्विदेहः, पर्व पश्चिमतः सोऽप| रविदेहः दक्षिणतो देवकुरुनामा विदेहः उत्तरतस्तु उत्तरकुरुनामा विदेहा, ननु पूर्वापर विदेहयोः समानक्षेत्रामुभाषक-131
त्वेन महाविदेहव्यपदेश्यताऽस्तु, देवकुरुत्तरकुरूणां स्वकर्मभूमिकरवेन कथं महाविदेहत्वेन व्यपदेशः', उच्यते, प्रस्तुत| क्षेषयोभरताद्यपेक्षवा महाभोगत्वात् महाकायमनुष्ययोगित्वान्महाविदेहदेवाधिष्ठेयत्वाच महाविदेहवाध्यता समुचिते
| वेति सर्व सुस्थं । अथास्य स्वरूपं वर्णयितुमाह-'महाधिदेह'इत्यादि, प्राग्वत्, अत्र यावत्करणात् 'आलिंगपुक्सरे KRIEषा जाव णाणाविहपञ्चवण्णेहिं मणीहि तणेहि अ उवसोभिए'इति, सम्मखन मनुजस्वरूपमाह-महानिदेहे ण'-18
मित्यादि, प्राग्वत्, आभ्यां सूत्राभ्यामस्य कर्मभूमित्वमभाणि अन्यथा कर्षकादिप्रवृत्तानां सृणादीनां कृत्रिमत्वं सर्व
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------ मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
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सूत्रांक
दीप अनुक्रम [१४०]
श्रीजम्बू- जाताना च मनुष्याणा पञ्चमगतिगामित्वं न स्यात्, अथास्य नामार्थ प्रश्रयन्नाह-'से केणटेण मित्यादि, प्राग्वत्, वक्षस्कारे
द्वीपशा-1 प्रश्नसूत्रं सुगन, उत्तरसूत्रे-गौतम! महाविदेहो वर्ष भरतैरावतहमवतहरण्यहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः आयामविष्कम्भसंस्थान-11 न्तिचन्द्री
| परिणाहेन, समाहारादेकवद्भावः, तत्रायामादित्रिकं प्रतीतं, परिणाहः-परिधिः, अत्र च व्यस्ततया विशेषणनिर्देशेऽपि या वृचिः
| योजना यथासम्भवं भवतीत्यायामेन महत्तरक एव लक्षप्रमाणजीवाकत्वात्, तथा विष्कम्भेन विस्तीर्णतरक एव ॥३१२॥ साधिकचतुरशीतिषट्शताधिकत्रयस्त्रिंशद्योजनसहरप्रमाणत्वात्, तथा संस्थानेन पल्यरूपेण विपुलतरक एव पार्श्वद्व
| येऽपीपयोस्तुल्यप्रमाणत्वात्, हैमवतादीनां पल्यङ्कसंस्थितत्वेऽपि पूर्वजगतीकोणानां संवृतत्वेन पूर्वापरेषयोवैषम्यादिति, तथा परिणाहेन सुप्रमाणतरक एव, एतद्धनुःपृष्ठस्य जम्बूद्वीपपरिध्यमानत्वादिति, अत एव महान्-अतिशयेन विकृटो-गरीयान् देहः-शरीरमाभोग इतियावत् येषां ते महाविदेहाः, अथवा महान्-अतिशयेन विकृष्टो-गरीयान् देह:शरीर कलेवरं येषां ते तथा, ईशास्तत्रत्या मनुष्याः, तथाहि-तत्र विजयेषु सर्वदा पञ्चधनुःशतोच्छ्रया देवकुरूत्तर-18 ९ कुरुषु त्रिगब्यूतोच्छ्याः ततो महाविदेहमनुष्ययोगादिदमपि क्षेत्रं महाविदेहाः, महाविदेहश्च शब्दः स्वभावाद् बहुवच
३
॥१२॥ नान्त एव, एतच्च प्रागेवोक्तं, ततो बहुवचनेन व्यवहियते, दृश्यते च क्वचिदेकवचनान्तोऽपि, तदपि प्रमाणं, पूर्वम-13 । हर्षिभिस्तथाप्रयोगकरणात् , अथवा महाविदेहनामा देवोऽत्राधिपत्यं परिपालयति, तेन तद्योगादपि महाविदेह इति,
| शेष प्राग्वत् ॥ सम्प्रत्युत्तरकुरूर्वकुकामस्तदुपयोगित्वेन प्रथमं गन्धमादनवक्षस्कार गिरिप्रश्चमाह
POjmetrina
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे गन्धमायणे णामं वक्खारपचए पण्णत्ते!, गोअमा! भीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं मंदरस्स फवयस्स उत्तरपत्थिमेणं गंधिलाबइस्स विजयस्स पुरच्छिमेमं उत्तरकुराए पचत्यिमेणं एवणं महाविदेहे गाने गन्धमायणे णामं वक्खारपन्चए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपढीणविच्छिपणे तीसं जोअणसहस्साई दुण्णि ब उत्तरे जोअबसर छच्च य एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं णीलवंतवासहरपब्वयंतेणं चत्वारि जोअणसयाई उद्धं उच्चतेगं चचार माउअसयाई सम्बहेणं पच जोमणसयाई विषसम्मेणं तवर्णतरं च णं मायाए २ उस्सेहुव्वेहपरिवद्धीए परिवद्धमाणे २ विक्सम्भपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदरपवयंतेणं पञ्च जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च गाउअसयाई उबेहेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं विक्खम्भेणं पण्णत्ते गयदन्तसंठाणसंठिए सबस्यणामए अच्छे, उभजो पासिं दोहि पउमवरवेइआर्हि दोहि अ वणसंडेहि सबभो समन्ता संपरिक्खिसे, गन्धमायबास गं बक्खारसायस्स कपि बहुसमरमषिले भूमिभागे जाव आसयन्ति । गन्धमावणे णं वक्वारपाए कति कूड़ा षण्णता !, मो०! सत्त कूडा, तंजा सिहाययणकूडे १ गन्धमायणकूहे २ गंधिलाईकूडे ३ उत्तरकूरुकुठे ४ फलिहकूडे ५ कोहिमक्सकूढे ६ माणवकूडे ७ । काहि भ अन्ते! कंगाषणे वारपार सिद्धाययणकूल्हे णामं कूडे पन्चत्ते, मोअमा! मंदरस्स पथक्स्स उत्तरपस्चिमेणं गंधमायकूशस्त्र दाहियापुरस्थियेणं, एत्य णं धमायणे वक्खारपवए सिद्धाक्यणकडे णामं कूट पण्णत्ते, जब चुहिमवन्वे सिद्धारमाकूडस्स अमायं तं व एएसिं सधेसि भाणिमन्वं, एवं चेन चियिसाहिं तिण्णि कहा भाणिमब्वा, चमत्वेत तिभस्स सतरपश्चस्थिमेणं पचमक्स वाहिणेणं, सेसा उ उत्तरदाहियोणं, फलिहलोहिमक्स भोगकरभोगबईमो देक्यामो सेसेसु सरिसणामया देवा, मुवि पासायचवेंगा गयहाजीभो विदिसासु, से केणडेणं मन्ते! एवं वुच्चइ
दीप अनुक्रम
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[१४१
-१४२]
ae
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
III
वक्षस्कारे
द्वीपक्षा
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
श्रीजम्बून्तिचन्द्रीया वृतिः ॥३१॥
ccecene
गन्धमादनिःमू.८६ IS उत्तरकुरवः
म.८७
दीप अनुक्रम
गंधमायणे पक्वारपव्यए २१, गो०! गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स गंधे से जहा णामए कोहपुडाण वा जाब पीसिजमाणाण वा उकिरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा जाव ओराला मणुण्णा जाव गंधा अमिणिरसवन्ति, भवे एआरुवे!, णो इणडे समझे, गंधमायणस्स णं इत्तो पतराए चेव जाव गंधे पण्णते, से एएणद्वेणं गोअमा! एवं वुशद गंधमायणे वक्खारपबए २, गंधमायणे अ इत्य देवे महितीए परिवसइ, अदुत्तरं च णं सासए णामधिजे इति । (सूत्र ८६) कहि णं भन्ते ! महाविदेहे चासे उत्तरकुरा णामं कुरा पं०, गो० 1 मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं गीलवन्तरस वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं गन्धमायणस्स वक्खारपण्वयस्स पुरत्थिमेणं मालबन्तस्स बक्खारपब्वयस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पणत्ता पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिा इक्कारस जोअणसहस्साई अट्ठ व बायाले जोअणसए दोण्णि अ एगूणबीसइभाए जोअणस्स विक्खम्मेणंति, तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्वयं पुढा, जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिहं बक्सारपञ्चयं पुट्ठा एवं पञ्चस्थिमिलाए जाव पचत्थिमिलं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवणं जोभणसहस्साई आयामेणन्ति, तीसे णं घणु दाहिणेणं सहि जोअणसहस्साई चत्तारि अ अद्वारसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्सेवेणं, उत्तरकुराए णं भन्ते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते !, गोयमा! बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुष्ववणिमा जव सुसममुसमावत्तम्बया सच्चेव णेअब्वा जाव पजमगंधा १ मिअगंधा २ अममा ३ सहा ४ तेतली ५ सणिचारी ६ (सूत्र ८७)
[१४१
| ॥३१३॥
-१४२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
'कहिणमित्यादि, भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो नाम वक्षसि-मध्ये स्वगोप्य क्षेत्रं द्वौ संभूय कुर्वन्तीति ॥ | वक्षस्काराः, तज्जातीयोऽयमिति वक्षस्कारपर्वतो गजदन्तापरपर्यायः प्रज्ञप्तः१, गौतम ! नीलवनानो वर्षधरपर्वतस्य | दक्षिणभागेन मन्दरस्य पर्वतस्य-मेरोरुत्तरपश्चिमेन-उत्तरस्याः पश्चिमायाश्च अन्तरालवर्तिना दिग्विभागेन वायव्यकोणे | इत्यर्थः, गन्धिलावत्याः-शीतोदोत्तरकुलवर्तिनोऽष्टमविजयस्य पूर्वेण उत्तरकुरूणां सर्वोत्कृष्टभोगभूमिक्षेत्रस्य पश्चिमेन | अत्रान्तरे महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणयोरायतः प्राचीनप्रतीचीनयोः-पूर्वप|श्चिमयोर्दिशोः विस्तीर्णः, त्रिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे योजनशते षट् च एकोनविंशतिभागान योजनस्याया| मेन, अत्र यद्यपि वर्षधराद्रिसम्बद्धमूलानां वक्षस्कारगिरीणां साधिकैकादशाष्टशतद्विचत्वारिंशद्योजनप्रमाणकुरुक्षेत्रान्तर्वर्तिनामेतावानायामो न सम्पद्यते तथाऽप्येषां वक्रभावपरिणतत्वेन बहुतरक्षेत्रावगाहित्यात् सम्भवतीति, नीलवर्षधरसमीपे चत्वारि योजनशतानि ऊर्बोच्चत्वेन चत्वारि गन्यूतशतानि उद्वेधेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन, तदनन्तरं मात्रया २-क्रमेण क्रमेणोत्सेधोद्वेधयो:- उच्चत्वोण्डत्वयोः परिवृख्या परिवर्द्धमानः २ विष्कम्भपरिहाण्या परिहीयमाणः २ मन्दरपर्वतस्य मेरोरन्ते-समीपे पश्चयोजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन पञ्चगव्यूतिशतानि उद्वेधेन अंगुलस्थास-I8॥
अवभागं विष्कम्भेन प्रज्ञप्तः, गजदन्तस्य यत्संस्थान-पारम्भे नीचत्वमन्ते उच्चत्वमित्येवरूपं तेन संस्थितः, सर्वाIS मना रत्नमयः, श्रीउमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे तु कनकमय इति, शेष प्राग्वत् , अवास्य भूमिसौ-|३||
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दीप अनुक्रम
[१४१
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
मान
दीपशा
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
दीप अनुक्रम [१४१-१४२]
श्रीजम्यू|| भाग्यमावेदयति-'गन्धमायण'इत्यादि, गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अत्र ||
श्वक्षस्कारे - यावत्पदाद्वैताब्याद्रिशिखरतलवर्णकगतं सर्व बोध्यं । सम्प्रत्यत्र कूटवक्तव्यतामाह-'गन्धमायण'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं |
गन्धमादन्तिचन्द्री- स्फटिककूट स्फटिकरलमयत्वात् लोहिताक्षकूट लोहितरत्नवर्णत्वात् , आनन्दनानो देवस्य कूटमानन्दकूटं । ननु यथा नः सू.८६ या वृचिः वैताब्यादिषु सिद्धायतनादिकूटव्यवस्था पूर्वापरायतत्वेन तद्वदत्रापि उत कश्चिद्विशेष इत्याह-'कहि णं भन्ते !'इत्यादि, IST
उत्तरकुरवः Pा व्यक्तं, नवरं यथा वैताब्यादिषु सिद्धायतनकूटं समुद्रासनं पूर्वेण ततः क्रमेण शेषाणि स्थितानि तथाऽत्र मन्दरासन्नं
सिद्धायतनकूट मन्दरादुत्तरपश्चिमायां वायव्यां दिशि गन्धमादनकूटस्य तु दक्षिणपूर्वस्यां-आग्नेय्यामस्ति, यदेव क्षुद्र-18 हिमवति सिद्धायतनकूटस्य प्रमाणं तदेवैतेषां सर्वेषां सिद्धायतनादिकटानां भणितव्यं, अर्थाद् वर्णनमपि तद्वदेवेति, व्यवस्था तु शेषकूटानामत्र भिन्नप्रकारेणेति मनसिकृत्याह-एवं चेव'इत्यादि, एवं चेवेत्येवं-सिद्धायतनानुसारेण विदि-18 धु-वायव्यकोणेषु त्रीणि कूटानि सिद्धायतनादीनि भणितव्यानि, उक्तवक्तव्यानां मिश्रितनिर्देशस्तु एवं चत्तारिवि .
दारा भाणिअथा' इति सूत्र विवरणोकयुक्त्या समाधेयः, अयमर्थः-मेरुत उत्तरपश्चिमायां सिद्धायतनकूट, तस्मादुत्तर-1 18 पश्चिमायां गन्धमादनकूटं तस्माच गन्धिलावतीकूटमुत्तरपश्चिमायामिति, अत्र तिस्रो वायव्यो दिशः समुदिता विष- ॥१४॥
|क्षिता इति बहुत्वेन निर्देशः, चतुर्थमुत्तरकुरुकूटं तृतीयस्थ गन्धिलावतीकूटस्योत्तरपश्चिमायां पश्चमस्य स्फटिककूटस्य।
ISHदक्षिणतः, ननु यथा तृतीचा गन्धिळावतीकूटाच्चतुर्व उत्तरकुरुकूटमुत्तरपश्चिमायां चतुर्थाच तृतीयं दक्षिणपूर्वस्वां anti
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
तथा पञ्चमात् स्फटिककृटात् कथं दक्षिणपूर्वस्यां चतुर्थ कूटं न सङ्गच्छते ?, उच्यते, पर्वतस्य वक्रत्वेन चतुर्थकूटत 81 एव दक्षिणपूर्वा प्रति बेलनात् पश्चमाचतुर्थ दक्षिणस्यामिति, शेषाणि स्फटिककूटादीनि श्रीणि उत्तरदक्षिण-81 णिव्यवस्थया स्थितानि, कोऽर्थः -पंचमं चतुर्थस्योत्तरतः षष्ठस्य दक्षिणतः पठं पंचमस्योत्तरतः सप्तमस्य दक्षि-18 णतः सप्तमं षष्ठस्योत्तरत इति परस्परमुत्तरदक्षिणभाव इति, अत्र पंचशतयोजनविस्ताराण्यपि कूटानि यत् । कमहीयमानेऽपि प्रस्तुतगिरिक्षेत्रे मान्ति तत्र सहस्राङ्ककूटरीतिज्ञेया, अथैषामेवाधिष्ठातृस्वरूपं निरूपयति-'फलि-14 हलोहिअक्खे' इत्यादि, स्फटिककूटलोहिताक्षकूटयोः पंचमषष्ठयो गङ्कराभोगवत्यौ द्वे देवते-दिक्कुमायौँ वसतः,
शेषेषु कूटसदृशनामका देवाः, षट्स्वपि प्रासादावतंसकाः स्वस्वाधिपतिवासयोग्याः, एषां च राजधान्योऽसयाततमे । 18 जम्बूद्वीपे विदिक्षु उत्तरपश्चिमासु । सम्प्रति नामार्थ पिपृच्छिषुराह-से केणटेणं इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, उत्तरसूत्रे 18 गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धः स यथा नाम कोष्ठपुटानां यावत्पदात् तगरपुटादीनां संग्रहः पिष्यमाणानां वा18| संप्यूय॑मानानां उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमानानां वा यावत्पदात् भाण्डात् भाण्डान्तरं या 18 संहियमाणानामिति, उदारा-मनोज्ञाः यावत्पदात् गन्धा इति कर्तृपदं, अभिनिःस्रवन्ति, एवमुक्के शिष्यः पृच्छति| भवेदेतद्रूपो गन्धमादनस्य गन्ध इति ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, गन्धमादनस्य इतो-भवदुक्काद् गन्धादिष्टतरक एव यावत्करणात् कान्ततरक एवेत्यादिपदग्रहः, निगमनवाक्ये तेनार्थेन गौतम एवमुच्यते, गन्धेन स्वयं माद्यतीवS
दीप अनुक्रम [१४१-१४२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
दीप अनुक्रम [१४१-१४२]
श्रीजम्बू-18 मदयति वा तन्निवासिदेवदेवीनां मनांसि इति गन्धमादनः, 'कृद्धहुल' (श्रीसिद्ध अ०५पा०१ सू०२)मिति वचनात् | वक्षस्कारे
र कर्तर्यनप्रत्ययः, 'घभ्युपसर्गस्य ३ (श्रीसिद्ध० अ०३ पा०२ सू०८५) त्यत्र बहुलाधिकारादतिशायितादिवत् मकाराका-18 गन्धमादन्तिचन्द्री| रस्य दीर्घत्वमिति, गन्धमादननामा चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति, तेन तद्योगादिति नाम, अन्यत् सर्व प्राग्वत् ॥ अथ |
नाम.८६ या इचिः | यासामुपयोगित्वेन गन्धमादनो निरूपितस्ता उत्तरकुरू: निरूपयति-'कहि 'मित्यादि, क भदन्त ! महाविदेहे वर्षे ||
उत्तरकुरवः
मू.८७ ॥३१५॥ उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः', गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणतो गन्धमा-1
॥ दनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वतो वक्ष्यमाणस्वरूपस्य माल्यवतः पश्चिमतः अत्रान्तरे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः,
प्रापश्चिमायता उत्तरदक्षिणा विस्तीर्णाः अर्द्धचन्द्राकारा एकादशयोजनसहस्राण्यष्टौ शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि |
द्वौ चैकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेन, अत्रोपपत्तिर्यथा महाविदेहविष्कम्भात् ३३५८४ कला ४ इत्येवरूपात् 18 मेरुविष्कम्भेऽपनीते शेषस्याढ़ें कृते उक्ताङ्कराशिः स्यात् , ननु वर्षवर्षधरादीनां क्रमव्यवस्था प्रज्ञापकापेक्षयाऽस्ति यथा
प्रज्ञापकासनं भरतं ततो हिमवानित्यादि, ततो विदेहकथनानन्तरं क्रमप्राप्ता देवकुरुर्विमुच्य कथमुत्तरकुरूणां निरू18| पर्ण', उच्यते, चतुर्दिग्मुखे विदेहे प्रायः सर्व प्रादक्षिण्येन व्यवस्थाप्यमानं समये श्रूयते, तेन प्रथमत. उत्तरकुरुकथन |8|| ॥३१५॥ 18| भरतपार्श्वस्थी विद्युत्प्रभसौमनसी विहाय गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारप्ररूपणं भरतासन्नविजयान विहाय कच्छमहा18|कच्छादिविजयकथनं चेति, अर्थतासां जीवामाह-'तीसे इत्यादि, तासामुत्तरकुरूणां, सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात्,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]]
दीप अनुक्रम
जीवा-उत्तरतो नीलबद्वर्षधरासन्ना कुरुचरमप्रदेशश्रेणिः पूर्वापरायता द्विधा पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, हा एतदेव विवृणोति, तद्यथा-पौरस्त्यया कोव्या पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वतं माल्यवन्तं स्पृष्टा पाश्चात्यया पाश्चात्यं गन्धमा
दननामानं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि आयामेन, तत्कथमिति !, उच्यते, मेरोः पूर्वस्यां दिशि || भद्रशालवनमायामतो द्वाविंशतियोजनसहस्राणि एवं पश्चिमायामपि, उभयमीलने जातं चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि मेरु-10 | विष्कम्भे दशसहस्रयोजनात्मके प्रक्षिप्ते जातं चतुष्पश्चाशयोजनसहस्राणि, एकैकस्य वक्षस्कारगिरेवर्षधरसमीपे पृथुत्वं ||
पञ्च योजनशतानि ततो द्वयोर्वक्षस्कारगिर्योः पृथुत्वपरिमाणं योजनसहस्रं तत्पूर्वराशेरपनीयते, जातः पूर्वराशिस्त्रि18] पश्चाशयोजनसहस्राणीति । अथैतासां धनुःपृष्ठमाह--'तीसे णं धणुं दाहिणेण'मित्यादि, तासां धनुःपृष्ठं दक्षिणतो
मेर्वासन्न इत्यर्थः, षष्टियोजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि अष्टादशानि-अष्टादशाधिकानि द्वादश चैकोनविंशति-18 |भागान् योजनस्य परिक्षेपेण, तथाहि-एकैकवक्षस्कारगिरेरायामस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे षट् च कला, IS ततो द्वयोर्वक्षस्कारयोर्मीलने यथोक्तं मानमिति, अर्थतासां स्वरूपप्ररूपणायाह--'उत्तरकुराए ण'मित्यादि, उत्तरकुरूणां भदन्त ! कीदृश आकारभावप्रत्यवतार:-स्वरूपाविर्भावः प्रज्ञप्तः, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, एवमुक्तन्यायेन पूर्व भरतप्रकरणे वर्णिता या एव सुषमसुषमायाः आधारकस्य वक्तव्यता सैव निरवशेषा नेतव्या,
wa00000000000000osasaradeecaram
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -------------------
------- मूलं [८६-८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे | यमकपर्वत
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
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वर्णनं
सू.८८
॥३१६॥
दीप अनुक्रम [१४१-१४२]
बजाय कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत्पट्मकाराः पद्मगन्धादयो मनुष्यास्तावदिति ॥ उक्तोत्तरकुरुवक्तव्यताऽथ तद्वर्तिनी यम-
IS कपर्वतौ प्ररूपयतितिचन्द्री- कहिणं भन्ते! उत्तफुराए जमगाणाम दुवे पव्वया पण्णत्ता !, गोअमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिलाओ या वृत्तिः परिमन्ताओ अट्ठजोअणसए चोतीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अयाहार सीआए महाणईए उमओ फूले एत्थ ण
जमगाणार्म दुवे पचया पण्णत्ता, जोअणसहस्सं उर्दू उच्चत्तेणं अट्ठाइजाई जोअणसवाई उचेहेणं मूले एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खम्भेणं मझे अट्ठमाणि जोअणसयाई आयामविस्वम्भेणं उरि पंच जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं मूले तिष्णि जोअणसहस्साई एगं च बाब8 जोअणसचं किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवणं मझे दो जोअणसहस्साई तिण्णि बावत्तरे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेषेणं उपरि एगं जोअणसहस्सं पञ्च य एकासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुआ जमगसंठाणसंठिआ सञ्चकणगामया अच्छा सण्हा पत्तेअं २ पङमवरबेइआपरिक्खिता पत्ते २ वणसंडपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमवरवेइआओ दो गाऊआई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च धणुसयाई विक्सम्मेणं, बेइमावणसण्डवण्णओ भाणिअब्बो, तेसिणं जमगपश्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पं०, ते णं पासायवडेंसगा बाबढि जोभणाई अद्धजोअणं च उद्धं उत्तेणं इकतीसं जोषणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पासायवण्णओ भाणिअव्यो, सीहासणा सपरिवारा जाव एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस महासणसाहस्सीमो पण्णताओ, से केणढणं भन्ते!
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18॥३१६॥
Aimmitrina
अथ यमको पर्वतौ वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------ --------------------------------- मलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
गाथा:
Receneecene
एवं बुचर जमगा पन्चया २१, गोधमा । जमगपघण्मु णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे खुड्डाखुड्डियासु वाचीसु जाव बिलपतियासु बहवे उप्पलाई जाव जमगवण्णाभाई जमगा य इत्थ दुवे देवा महिनीया, ते णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाब भुषमाणा विहरति, से तेणतुणं गो०1 एवं बुधइ-जमगपच्या २, अदुत्तरं च णं सासए णामधिजे जाव जमगपवया २ । कहि णं भन्ते! जमगाणं देवार्ण जमिगाओ रायहाणीमो षण्णचाओ!, गोश्रमा! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अण्णमि जम्बुद्दीवे २ वारस जोअणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाभो रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोअणसहस्साई आयामविक्खम्भेणं सत्ततीसं जोअणसहस्साई णव य अडयाले जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खयेणं, पत्ते २ पायारपरिक्खित्ता, ते णं पागारा सत्तत्तीसं जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं मूले अद्धत्तेरस जोअणाई विक्खम्मेण मझे छ सकोसाई जोअणाई विक्खम्भेणं उवरि तिणि समद्धकोसाई जोषणाई विक्खम्भेणं मूले विच्छिण्णा मझे संखिया उप्पि तणुआ वादि वट्टा अंसो चउरंसा सवरयणामया अच्छा, ते णं पागारा जाणामणिपञ्चवण्णेहिं कविसीसएहिं उबसोहिमा, तं- अहा-किण्हेहिं जान सुकिहहिं, ते ण कविसीसगा अद्धकोसं आयामेण देसूर्ण भद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च धणुसयाई बाहलेणं सवमणिमया अच्छा, जमिगाणं रायहाणीणं एगीगाए याहाए पणवीसं पणवीसं दारसयं पण्णत्तं, ते णं दारा बावहिं जोभणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं इक्वतीसं जोषणाई कोसं च विक्सम्मेणं वावइ चेव पवेसेणं, सेआ वरकणगथूमिमागा एवं रायप्पसेणइजविमाणवतव्वयाए दारवण्यओ जाव अमंगलगाइंति, जमियाणं रायहाणीणं चउदिसिं पञ्चपञ्च जोमणसए अबाहाए चत्वारि वणसण्डा पण्णता, तंजहा-असोगवणे १ सत्तिवण्णवणे२ चंपगवणे२ चूअवणे४, ते णं वणसंडा साइरेगाई पारसजोषण
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
श्रीजम्मू
द्वीपशा न्तिचन्द्रीया चिः ॥३१७॥
४वक्षस्कारे यमपर्वत
वर्णनं मू.८८
गाथा:
सहस्साई आयामेण पञ्च जोअणसयाई विक्खम्भेणं पत्ते २ पागारपरिक्खिता किण्हा वणसण्डवण्णओ भूमीओ पासायक्वेंसगा य भाणिसव्वा, जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णगोत्ति, तेसि णं बहुसमरमणिवाणं भूमिभागाणं बहुमक्सदेसभाए एत्थ ण दुवे उवयारियालयणा पण्णचा, बारस जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं तिष्णि जोमणसहस्साई सत्त य पञ्चाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं अद्धकोसं च बाहलेणं सव्वजंवूणयामया अच्छा, पत्ते पत्ते पउमवरवेइआपरिक्खित्ता, पत्ते पत्ते वणसंडवण्णो भाणिअन्वो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउरिसिं भूमिभागा य भाणिभब्बत्ति, तस्स णं बहुमझदेसभाए एत्थ णं एगे पासायव.सए पण्णत्ते बावहिं जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेण इकतीसं जोअणाई कोसं च आयामविक्सम्मेण वणो उल्लोआ भूमिभागा सीहासणा सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ ( एत्थ पढमापंती ते णं पासायवेडिंसगा) एकतीसं जोषणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्धसोलसजोअणाई आयामविक्खम्भेणं बिइअपासायपंती ते णं पासायबरें. सया साइरेगाई अद्धसोलसजोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अट्ठमाई जोअणाई आयाम विक्खम्भेणं तइमपासायपंती ते ण पासायवडेंसया साइरेगाई अट्ठमाई जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अहजोअणाई आयामविक्खम्भेण वण्णी सीहासणा सपरिवारा, तेसि गं मूलपासायवासियाणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए. एत्य णं जमगाणं देवाणं सहाओ मुहम्माओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरस जोअणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोअणाई चिक्खम्भेणं णव जोअणाई उद्धं उथत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठा सभावण्णओ, तासिणं सभाणं सुहम्माणं तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता, ते णं दारा दो जोभणाई उद्धं उच्चत्तेणं जोअणं विक्सम्मेणं तावइअं चेव पवेसेणं, सेआ वण्णओ जाव वणमाला, तेसि णं दाराणं पुरओ पत्ते २ तओ मुहमंडवा पण्णचा, ते णं मुहमंडवा
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
cिesesesesesesekse
IN३१७॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Secedeoece4
[८८]
गाथा:
Recestedesestaemedecesesesesea
अद्धत्तेरसजोषणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोषणाई विक्सम्मेणं साइरेगाई दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव दारा भूमिभागा यत्ति, पेच्छापरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागो मणिपेडिआओत्ति, ताओ णं मणिपेढिआओ जोअणं आयामविक्खम्भेणं अद्धजोभणं बाहलेणं सव्वमणिमईमा सीहासणा माणिअब्बा, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढिआओ पण्णताओ, ताओ णं मणिपेडिआभो दो जोषणाई मायामविक्खम्मेणं जोअणं बाहलेणं सव्वमणिमईओ, तासि णं उप्पि पत्ते २ तो थूभा, ते पंधूभा दो जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं दो जोभणाई आयामविक्खम्भेणं सेा संखतल जाव अहमंगलया, तेसि णं थूभाणं बरहिसि चत्तारि मणिपेढिाओ पण्णताओ, ताओ ण मणिपेदिआओ जोअणं आयामविक्खम्भेणं अद्धजोअणं वाहलेणं, जिणपडिमाओ वत्तव्याओ, बेइअरुक्खाणं मणिपेदिभाओ दो जोषणाई आयामविक्खम्भेणं जोअणं पाहलेणं चेअरुक्सवण्णोति, तेसिणं पेइअरुक्खाणं पुरो ताओ मणिपेढिआओ पण्णताओ, ताओ गं मणिपेढिआओ ओयणं आयामविक्सम्मेणं अद्धजोअणं पाहलेणं, तासि णं उम्पि पत्ते २ महिवनया पण्णत्ता, ते णं अट्ठमाई जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं भद्धकोस सब्वेहेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं बइरामयवट्ट वष्णो वेइआवणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणिअव्वा, तासि णं सभाणं सुहम्माणं छशमणोगुलिआसाहस्सीओ पण्णचाओ, तंजहा-पुरत्विमेणं दो साहस्सीओ पण्णत्ताओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दक्खिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं एगा जाव बामा चिलुतित्ति, एवं गोमाणसिभामओ, णवर धूवघडिआओत्ति, तासि णं सुहम्माण सभाणं अंतो यासमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, मणिपेढिआ दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं जोअणं वाहलेणं, तासि गं मणिपेढिआणं उप्पि माणवए चेइनखम्मे महिदायप्पमाणे उवरि छकोसे ओगाहिचा हेवा छकोसे वज्जिता जिणसकहाओ पण्णचाओत्ति, माणवगस्स पुवेणं सीहासणा सप
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
श्रीजम्बू
रिचारा पत्थिमेणं सयणिचवण्णओ, सणिजाणं उत्तरपुरथिमे दिसिभाए खुगमहिंदज्मया मणिपेढिआविहणा महिंदज्झयद्वीपशा
४वक्षस्कारे पमाणा, तेसिं अवरेणं चोप्फाला पहरणकोसा, तस्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा जाव चिट्ठति, सुहम्माणं उप्पि अट्ठमं..- यमकृपर्वत न्तिचन्द्री
लगा, तासि णं उत्तरपुरस्थिमेणं सिद्धाययणा एस चेव जिणघराणवि गमोति, णवरं इमं णाणत्-एतेसि णं बहुमझदेसभाए वर्णनं या वृत्तिः पत्तेभं २ मणिपेनिमामो दो जोषणाई आयामविक्खम्भेणं जोअणं बाहल्लेणं, तासि उपि पत्ते २ देवच्छंदया पण्णत्ता, दो
सू.८८ ॥३१॥
जोषणाई आयामविक्खम्भेणं साइरेगाई दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं सव्वरयणामया जिणपडिमा बण्णओ जाव धूवकडुच्छुगा, एवं अवसेसाणवि सभाणं जाव उववायसभाए सयणिज हरओ अ, अभिसेअसभाए बहु आभिसेके भंडे, अलंकारिअसभाए बहु अलंकारिअभंडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा दो जोअणाई आवामविक्खम्भेणं जोअणं वाहणं जावत्ति,-उववाओ संकप्पो अमिसेअविहूसणा य ववसाओ । अचणिअसुधम्मगमो जहा य परिवारणाइदी ।।१॥ जावइयमि पमाणमि हुँति जमगाओं पीलबंताओ । तावासमन्तरं खलु जमगदहाणं दहाणं ॥२॥ (सूत्र ८८) 'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, गौतम! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् इत्यत्र दाक्षिणात्यं चरमान्तं आरभ्येति ज्ञेयं, क्यब्लोपे पञ्चमी, दाक्षिणात्याचरमान्तादा-18
॥३१८॥ परभ्याक् िदक्षिणाभिमुखमित्यर्थः, अष्टौ योजनशतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि चतुरश्च सप्तभागान् भोजनस्याबाधया-18॥ 8 अपान्तराले कृत्वेति शेषः शीताया महानद्या उभयोः कूलयोः एकः पुर्वकूले एकः पश्चिमकूळे इत्यर्थः, अवान्तरे
metroyen
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
यमकी नाम द्वौ पर्वती प्रज्ञप्तौ, एक योजनसहस्रमूर्वोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतान्युद्वेधेन उच्छ्यचतुर्थांशस्य भूम्य-18 बगाहात् मूले योजनसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां वृत्ताकारत्वात् मध्ये-भूतलतः पञ्चयोजनशतातिक्रमेऽोष्टमानि योज-18 |नशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां उपरि-सहस्रयोजनातिक्रमे पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां भूले त्रीणि योजनस-11 हस्राणि एक च योजनशतं द्वाषष्टयधिक किंचिद्विशेषाधिकं कियत्कलमित्यर्थः, परिक्षेपेण, एवं मध्यपरिधिरुपरितन-10 परिधिश्च स्वयमभ्यूह्यौ, मूले विस्तीर्णी मध्ये संक्षिप्तावुपरि तनुको यमकौ-यमलजाती भ्रातरौ तयोर्यत्संस्थानं तेन सं| स्थिती, परस्परं सदृशसंस्थानावित्यर्थः, अथवा यमका नाम शकुनिविशेषास्तत्संस्थानसंस्थिती, संस्थानं चानयोर्मूलतः प्रारभ्य संक्षिप्तसंक्षिप्तप्रमाणत्वेन गोपुच्छस्येव बोध्यं, सर्वात्मना कनकमयौ शेष व्यक्तं, अष्टशतायटोत्पत्तिरेवं-नीलव-181 द्वर्षधरस्य यमकयोश्च प्रथमं यमकयोः प्रथमदस्य च द्वितीय प्रधमइदस्य द्वितीयाहदस्य च तृतीयं द्वितीयइदस्य तृतीयहूदस्य च चतुर्थ तृतीयहूदस्य चतुर्थदस्य च पंचमं चतुर्थदस्य पंचमहदस्य च षष्ठं पंचमझदस्य वक्षस्कारगिरिपर्यन्तस्य च सप्तमं एतानि च सप्ताप्यन्तराणि समप्रमाणानि, ततश्च कुरुविष्कम्भात् योजन ११८४२ कला २ इत्येवं-18 | रूपात् योजनसहनायामयोर्यमकयोः योजनसहनमेकं तावत्प्रमाणायामानां पंचानां दानां च योजनसहनमे() | उभयमीलने योजनसहस्रषटकं शोध्यते शोधिते च जातं योजन ५८४२ कला २ ततः सप्तभिर्भागे हते ८३४४, यद्यावशिष्टं कुरुसत्कं कलाद्वयं तदल्पत्यास विवक्षितमिति । अत्रैवानन्तरीकवेदिकावनखण्डप्रमाणाधाह--'ताओ
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
श्रीप्नायू. ५४
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सनलमामानाTollक्षस्कार
[८८]
न्तिचन्द्री
गाथा:
॥३१॥
'मित्यादि, व्यक्तं, सम्प्रत्येतयोर्यदस्ति तदाह-'तेसि णमित्यादि, तयोर्यमकपर्वतयोरुपरि पहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अत्र पूर्वोक्तः सर्वो भूभागवर्णक उन्नेतव्यः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावत्तयोबहुसमरमणीयस्य भूभागस्य बहुम-18 यमकपर्वत
8|| ध्यदेशभागे द्वौ प्रासादावतंसकी प्रज्ञप्ती, अथ तयोरुच्चत्वाद्याह-'ते ण'मित्यादि, निरवशेष विजयदेवप्रासादसिंहा- वर्णन या वृत्तिः | सनादिव्यवस्थितसूत्रबद्वक्तव्यं, नवरं यमकदेवाभिलापेनेति, अथानयोर्नामा प्रश्नयन्नाह-'सेकेणडेण मित्यादि, सू.८८
प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे यमकपर्वतयोस्तत्र तत्र देशे तत्र तत्र प्रदेशे क्षुद्रक्षुद्रिकासु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानिश अत्र यावत्पदात् कुमुदादीनि वाच्यानि, तथा यमकप्रभाणीति परिग्रहः, तत्र यमको-यमकपर्वतस्तत्प्रभाणि तदाका-18 राणीत्यर्थः, तथा यमकवर्णाभानि-यमकवर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः, यदिवा यमकाभिधानी द्वौ देवी महर्चिको अन्न परि-181 | वसतस्तेन यमकाविति शेष प्राग्वत् , अथानयो राजधानीप्रश्नावसर:-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! यमकयोदेवयोर्य-15 | मिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते ?, गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेणान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादशयो-18 जनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे यमकयोर्देवयोर्यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, द्वादशयोजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रिंशद्योजनसहस्राणि नव च योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, प्रत्येकं २ढे।
॥३१९॥ ||| अपि प्राकारपरिक्षिप्ते, कीदृशौ तौ प्राकाराविति तत्स्वरूपमाह--'ते णं पामारा'इत्यादि, तो प्राकारी सप्तत्रिंशद्यो
जनानि योजना सहितानि ऊर्बोच्चत्वेन मूले अर्द्ध त्रयोदशं योजनं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेन |
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
INi mmitrary.org
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
SeSRO
[८८]
गाथा:
MS|| मध्ये पटू सोशानि योजनानि विष्कम्भेन, मूल विष्कम्भतो मध्यविष्कम्भस्यार्द्धमानत्वात् , उपरि त्रीणि साईक्रोशानि IS योजनानि विष्कम्भेनास्यापि मध्यविष्कम्भतोऽर्द्धमानत्वात् , अत एव मूले विस्तीर्णावित्यादि पदत्रयं विवृतप्रायं, बहिहात्ती अनुपलक्ष्यमाणकोणत्वात् अन्तश्चतुरस्त्री उपलक्ष्यमाणकोणत्वात् शेष प्राग्वत्, अथानयोः कपिशीर्षकवर्णक-18
माह-'तेणं पागाराणाणामणि'इत्यादि, तौ प्राकारौ नानामणीनां पारागस्फटिकमरकताअनादीनां पंचप्रकारा वर्णा MS| येषु तानि तथा तैः कपिशीर्षकैः-प्राकाराग्ररुपशोभिती, एतदेव विवृणोति तद्यथा-कृष्णैर्यावच्छुक्कैरिति, अर्थतेषां कपि
शीर्षकाणामुच्चत्वादिमानमाह-'ते णमित्यादि, निगदसिद्धं, अथानयोः कियन्ति द्वाराणीत्याह-'जमिगाण'मित्यादि, 18| यमिकयो राजधान्योरेकैकस्यां वाहायां पार्थे पंचविंशत्यधिकं २ द्वारशतं प्रज्ञप्तं, तानि द्वाराणि द्वाषष्टियोजनानि
अर्द्धयोजनं च ऊोंचत्वेन एकत्रिंशयोजनानि कोशं च विष्कम्भेन तावदेव प्रवेशेन श्वेतानि वरकनकमपिकाकानि, लाघवार्थमतिदेशेनाह-एवं राजप्रश्नीये यद्विमानं सूर्याभनामकं तस्य वक्तव्यतायां यो द्वारवर्णकः स इहापि ग्राह्यः,
कियत्पर्यन्तमित्याह-यावदष्टाष्टमङ्गलकानि, अत्रातिदिष्टमपि सूत्र न लिखितं, विजयद्वारप्रकरणे सूत्रतोऽर्थतश्च लिखि18 तत्वात् अतिदिष्टत्वस्योभयत्रापि साम्याञ्चेति, अथानयोर्बहिर्भागे वनखण्डवक्तब्यमाह-'जमियाण'मित्यादि, यमि
कयो राजधान्योश्चतुर्दिशि चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंस्तथा, पूर्वादिष्वित्यर्थः, पंचपंचयोजनशतान्यवाधायां अपान्तराले कृत्वेति गम्यते चत्वारि वनखण्डानि प्रज्ञप्तानि,तद्यथा-अशोकवनं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं आघवनमिति,
Caesencesces
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
न्तिचन्द्री-18 या वृत्तिः ॥३२०॥
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
श्रीजम्यू
॥ अर्थतेषामायामाद्याह-'ते णं वणसण्डा इत्यादि, ते च बनखण्डा। सातिरेकाणि द्वादशयोजनसहस्राणि आयामेन द्वीपशा- | पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येक २ प्राकारः परिक्षिताः, कृष्णा इतिपदोपलक्षितो जम्बूद्वीपपावरवेविकाप्रकर-18 यमपर्वत
राणलिखितः पूर्णों वनखण्डवर्णको भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्याः, भूमयश्चैवम्-'तेसि णं वडसंडाणं असो बहुस-18|| वर्णनं
मरमणिजा भूमिभागा पण्णत्ता, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाच णाणाविहपंचवण्णेहि तणेहिं मणीहि अ INउवसोभिआइति, प्रासादसूत्रमप्येवं 'तेसि पं वणसंडाणं बहुमझदेसभाए पत्ते २ पासायव.सए पण्णते,
तेणं पासायवडेंसया चावहिं जोषणाई अजजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं इक्वतीसं जोअणाई कोर्स च विक्खम्भेणं अभ-1 ग्गयमसिअपहसिआ इव, तहेव बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे उल्लोओ सीहासणा सपरिवारा, तत्थ ण चत्तारि देवा महिही आ जाव पलिओवमट्टिइआ परिवसंति तं०-असोए सत्तिवण्णे चपए चूए' इति, अत्राशोकवनप्रासादेऽशोकना
मा देवः, एवं त्रिवपि तत्तन्नामानो देवाः परिवसन्तीत्यर्थः, अथानयोरन्तर्भागवर्णकमाह-जमिगाण'मित्यादि, यमि-1 18कयो राजधान्योरन्तर्मध्यभागे बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, वर्णक इतिसूत्रगतपदेन 'आलिंगपुक्खरेइ वा जाव पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए वणसंडविहुणो जाव बहवे देवा य देवीओ अ आसवैति जाव विहरती'त्यन्तो ग्राह्यः,81
॥३२०॥ 18|अत्र च उपकारिकालयनसूत्रमादर्शष्यदृश्यमानमपि राजप्रश्नीयसूर्याभविमानवर्णके जीवाभिगमे विजयाराजधानी-18
वर्णके च दृश्यमानत्वात् 'तिण्णि जोअणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोअणसए परिक्खेवेण'मित्यादिसूत्रस्थान्य-18 mailo
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४],-------------....... --------------------------------- मलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
थानुपपत्तेच जीवाभिगमतो लिख्यते, आदर्शप्वदृश्यमानत्वं च लेखकवैगुण्यादेवेति, सद्यथा-'तेसि ण'मित्यादि, ॥ तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे द्वे उपकारिकालयने प्रशसे, उपकरोति-उपष्ट
माति प्रासादावतंसकानित्युपकारिका-राजधानीप्रभुसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र स्वियमुपकार्योपकारि| केतिप्रसिद्धा, उक्तं च-गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिके"ति सा लयनमिव-गृहमिव ते च प्रतिराजधानि भवत इति द्वे उक्के, द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त च योजनशतानि पश्चनवत्यधिकानि परिक्षेपेण, अर्द्धकोश-धनुःसहस्रपरिमाणं बाहल्येन सर्वात्मना जाम्बूनदमये अच्छे प्रत्येकं २ मत्युपकारिकालयनं पद्मवरवेदिकापरिक्षिप्से प्रत्येक २ वनखण्डवर्णको भणितव्यः, स च जगतीगतपद्मवरवेदिकास्थवनखण्डानुसारेणेति, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-आरोहावरोहमार्गास्तानि चतुर्दिशि-पूर्वादिदिक्षु शेयानि तोरणानि चतुर्दिशि भूमि-18 भागश्चोपकारिकालयनमध्यगतो भणितव्यः, तत्सूत्राणि जीवाभिगमोपाङ्गगतानि क्रमेणैव--से णं वणसंडे देसूणाई दो जोअणाई चक्कवालविक्खंभेणं उवयारिआलयणसमए परिक्लेवेणं तेसि णं उबयारिआलयणाणं चहिसिं पत्तारि | तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता, वण्णओ, 1 तेसिणं उवयारियालयणाणं उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णसे जाव मणीहिं स्वसोभिए'इति, अत्र व्याख्या | सुगमा, अथ यमकदेवयोर्मूलप्रासादस्वरूपमाह-तस्स म'मित्यादि, तस्योपकारिकाढयनल बहुमध्यदेशभागे अत्रा
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
18/न्तरे एकः प्रासादावतंसका प्रज्ञप्तः द्वापष्टिं योजनान्यर्द्धयोजनं च ऊर्वोचत्वेन एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चायीमवि-18 कम्भाभ्यां वर्णको विजयप्रासादस्खेव वाच्यः, उल्लोको-उपरिभागी भूमिभागी-अधोभागी सिंहासने सपरिवारे-सामानि-18
वक्षस्कारे
यमकूपर्वत तिचन्द-18 कादिपरिवारभद्रासनव्यवस्थासहिते, यश्चात्र उपकारिकालयनस्य प्रासादावतंसकस्य चैकवचनेन विवक्षा उल्लोकभूमि
वर्णनं या वृत्ति: 18/भागसिंहासनानां च द्विवचनेन विवक्षा तत्सूत्रकाराणां विचित्रप्रवृत्तिकत्वादिति, अथास्य परिवारप्रासादग्ररूपणामाह-18 ॥३२१॥
18 एवं पासायपंतीओ'इत्यादि, एवं-मूलप्रासादावतंसकानुसारेण परिवारप्रासादपङ्कयो ज्ञातव्या जीवाभिगमतः, पङ्क-18 18 यश्चात्र मूलप्रासादतश्चतुर्दिक्षु पद्मानामिव परिक्षेपरूपा अवगन्तब्याः, न पुनः सूचिश्रेणिरूपाः, तत्र प्रथमप्रासामं-18
|क्तिपाठ एवं-से णं पासायव.सए अण्णेहिं चउहिं तदद्भुञ्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं सबओ समन्ता संपरि-18
|क्खित्ते' स प्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः, अत्रोच्चत्वशब्देनोत्सेधो गृह्यते प्रमाण18| शब्देन च विष्कम्भायामी, तेन मूलप्रासादापेक्षया अर्घोच्चत्वविष्कम्भायामैरित्यर्थः, सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता,
एषामुञ्चत्वादिकं तु साक्षात् सूत्रकृदेवाह-एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चोच्चत्वेन, सार्द्धद्वापष्टियोजनानामः एतावत एव लाभात्, सातिरेकाणि-अर्द्धक्रोशाधिकानि अर्द्धषोडशानि-सार्द्धपञ्चदशयोजनानि विष्कम्भायामाभ्यामिति, अथ द्वितीयप्रासादपंक्तिः, तत्पाठश्चैवम्-'ते णं पासायव.सया अण्णेहिं चरहिं तदडुच्चत्तप्पमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं ॥३२१॥ | सघओ समन्ता संपरिक्खित्ता'इति, ते प्रथमपंक्तिगताश्चत्वारः प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्वविष्कम्भायामै-12||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
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| मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागप्रमाणैः प्रासादैः परिक्षिप्ताः, अत एवैते षोडश प्रासादाः सर्वसङ्ख्यया स्युः, एषामुच्चवादिकं तु साक्षादेव सूत्रकृदाह-ते प्रासादाः सातिरेकाणि-अर्द्धकोशाधिकानि सार्बपञ्चदशयोजनाम्युच्चत्वेन सातिरे-12 काणि-क्रोशचतुर्थांशाधिकानि अष्टिमयोजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यामिति, अथ तृतीया पंक्तिः, तत्सूत्रमेवम्-'ते णं | |पासायव.सया अण्णेहिं चउहिं तदडुश्चत्तप्पमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता' ते द्वितीयप| रिधिस्थाः षोडश प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदर्बोच्चत्वविष्कम्भायामैर्मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टांशप्रमाणोच्चत्वविष्कम्भा६|| यामैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, अत एवैते तृतीयपंक्तिगताश्चतुःषष्टिप्रासादाः, एतेषामुच्चत्वादिप्रमाणे सूत्र| कृदाह-ते चतुःषष्टिरपि प्रासादाः सातिरेकाण्यष्टिमयोजनान्युच्चत्वेन सातिरेकत्वं च प्राग्वत् , अध्युष्टानि-अर्द्धतृतीयानि सातिरेकाणि सार्द्ध क्रोशाष्टांशाधिकानि विष्कम्भायामाभ्यां, एषां सर्वेषां वर्णकः सिंहासनानि च सपरिवाराणि प्राग्वत् । अत्र च पंक्तिप्रासादेषु सिंहासनं प्रत्येकमेकैकं, मूलप्रासादे तु मूलसिंहासनं सिंहासनपरिवारोपेतमित्यादि क्षेत्रसमासवृत्तौ श्रीमलयगिरिपादाः तथा प्रथमतृतीयपंक्स्योर्मूलप्रासादे परिवारे भद्रासनानि द्वितीयपंक्तौ च परिवारे || पद्मासनानि इति जीवाभिगमोपाङ्गे इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम् , यद्यपि जीवाभिगमे विजयदेवप्रकरणे तथा श्रीभगवत्यङ्गवृत्तौ चमरप्रकरणे प्रासादपंक्तिचतुष्कं तथाप्यत्र यमकाधिकारे पंक्तित्रयं बोध्यं, पंक्तित्रयप्रासादसंग्रह
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दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------ ------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
श्रीजम्बू
पर्वत
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
- मूलप्रासादेन सह सर्वसंख्यया पश्चाशीतिः प्रासादाः ८५, अथात्र सभापञ्चकं प्रपंचयितुकामः सुधा-श ४वक्षस्कारे द्वीपशान्तिचन्द्री-18
सभास्वरूप निरूपयति-तेसि ण'मित्यादि, तयोर्मूलप्रासादावतंसकयोरुत्तरपूर्वस्यां-ईशानकोणेऽत्रैतस्मिन् भागे।
यमकयोदेवयोग्ये सुधर्मे नाम सभे प्रज्ञप्ते, सुधर्माशब्दार्थस्तु सुष्टु-शोभनो धर्मो-देवानां माणवकस्तम्भवति-80 | सू.८८ ॥३२२॥
जिनसक्थ्याशातनाभीरुकत्वेन देवाङ्गनाभोगविरतिपरिणामरूपो यस्यां सा तथा, वस्तुतस्तु सुष्टु-शोभनो धौ-11 राजधर्मः समन्तुनिमन्तुनिग्रहानुग्रहस्वरूपो यस्यां सा तथा, ते चार्द्धत्रयोदशयोजनाम्यायामेन सक्रोशानि पर | योजनानि विष्कम्भेन नवयोजनान्यूर्वोच्चत्वेन, अत्र लाघवार्थ सभावर्णकसूत्रमतिदिशति, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे 18 इत्यादिपदसूचितः सभावर्णको जीवाभिगमोक्तो ज्ञेयः, स चैवं-'अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठाओ अब्भुग्गयसुकयवइरवेइआतोरणवररइअसालभंजिआसुसिलिट्ठविसिट्ठसंठिअपसत्थवेरुलिअविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयणखचिअउज्ज-81 लबहसमसुविभत्तभूमिभागाओ ईहामिगउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्ति-8 |चित्ताओ खंभुग्गयवइरवेइआपरिगयाभिरामाओ विजाहरजमलजुअलजंतजुत्ताओविव अच्चीसहस्समालणीआओ
| रूवगसहस्सकलिआओ भिसमाणीओ भिब्भिसमाणीओ चक्खुल्लोअणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीअरूवाओ कंचणम-18| ॥३२२॥ ॥णिरयणधूभिआगाओ गाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडिअअग्गसिहराओ धवलाओ मरीइकवयविणिम्मुअंतीओ XII
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------......... --------------------------------- मलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
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गाथा:
लाउल्लोइअमहिआओ गोसीससरससुरभिरत्तचन्दणदद्दरदिण्णपंचंगुलितलाओ उवचिअचन्दणकलसाओ चन्दणघड| सुकयतोरणपडिदुवारदेसभागाओ आसत्तोसत्तविलवट्टवग्यारिअमल्लदामकलावाओ पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिआओ कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवडझंतमघमतगन्धुडुआभिरामाओ सुगंधवरगंधिआओ गन्धवट्टिभूआओ अच्छरगणसंघविकिण्णाओ दिवतुडिअसद्दसंपणदिआओ सबरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ'इति, अत्र | व्याख्या तु सिद्धायतनतोरणादिवर्णकेषु उच्छवृत्तिन्यायेन सुलभेति न पुनरुच्यते नवरं अप्सरोगणानां-अप्सरःपरिवा| राणां यः संघः-समुदायस्तेन सम्यक्रमणीयतया विकीर्णा-आकीर्णा दिव्यानां त्रुटिताना-आतोद्यानां ये शब्दास्तैः सम्यक् ।
श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षण नदिता-शब्दवती, शेष प्राग्वत् , अथास्यां कति द्वाराणीत्याह-'तासि णं सभाण'मित्यादि,18 । तयोः सभयोः सुधर्मयोस्त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, पश्चिमायां द्वाराभावात् , तानि द्वाराणि प्रत्येक वे योजने
| ऊर्बोच्चत्वेन योजनमेकं विष्कम्भेन तावदेव-योजनमेकं प्रवेशेन, श्वेता इत्यादि पदेन सूचितः परिपूर्णो द्वारवर्णको ॥ वाच्यो यावद्वनमाला, अथ मुखमण्डपादिषटुनिरूपणायाह-'तेसि णं दाराण'मित्यादि, तेषा द्वाराणां पुरतः प्रत्येक 1812 त्रयो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ता, सभाद्वाराप्रवर्तिनो मण्डपा इत्यर्थः, ते च मण्डपा अर्द्धत्रयोदशयोजनाभ्यायामेन षट् || 18 सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन सातिरेके द्वे योजने ऊर्बोच्चत्वेन, एतेषामपि 'अणेगखभसयसण्णिविद्वा' इत्यादि || 18 वर्णनं सुधर्मासभा इव निरवशेष द्रष्टव्यं, यावद् द्वाराणो भूमिभागानां च वर्णनं, यद्यप्यत्र द्वारान्तमेव सभावर्णन
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४]......................
---------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
श्रीजम्यू-18तदातद । तदतिदेशेन मुखमण्डपसूत्रेऽपि तावन्मात्रमेवायाति तथापि जीवाभिगमादिषु मुखमण्डपवर्णके भूमिभागवर्णकस्य दृष्ट
४वक्षस्कारे द्वीपशा- त्वात् अत्रातिदेशः, अथ प्रेक्षामण्डपवर्णकं लाघवादाह-पेच्छाघरमण्डवाण'मित्यादि, प्रेक्षागृहमण्डपानां-रङ्गम- यमकपर्वत न्तिचन्द्री- ण्डपानां तदेव-मुखमण्डपोक्तमेव प्रमाणं, भूमिभाग इतिपदेन सर्व द्वारादिकभूमिभागपर्यन्तं वाच्यं, एषु च मणिपी-18 वर्णनं या धूचिः
IN ठिका वाच्या, एतावदर्थसूचकमिदं सूत्रम्-'तेसि णं मुहमण्डवाणं पुरओ पत्ते २ पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता. ते णं|| ॥३२॥ पेच्छाघरमंडवा अखत्तेरसजोषणाई आयामेणं जाव दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव मणिफासो, तेसि णं बहुमज्झ-181
।। देसभाए पत्ते २ वरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसिणं बहुमज्झदेसभाए पत्ते २ मणिपेढिआओ पण्णताओ'त्ति || | उक्तप्राय, नवरमक्षपाट:-चतुरस्राकारो मणिपीठिकाधारविशेषः, अस्याः प्रमाणाद्यर्थमाह-'ताओ णं मणिपेडिआओ जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअणं बाहलेणं सबमणिमईओ सीहासणा भाणिअबा' इति, अन सिंहासनानि भणितव्यानि सपरिवाराणीत्यर्थः, शेषं व्यक्तम् , अथ स्तूपावसरः-'तेसि णमित्यादि, तेषा प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो मणिपीठिकाः, अत्र बहुवचनं न प्राकृतशैलीभवं यथा द्विवचनस्थाने बहुवचनं हत्था पाया इत्यादिषु, किन्तु बहुत्व-1 | विवक्षार्थ, तेनान तिसषु प्रेक्षागृहमण्डपद्वारदिक्षु एकैकसद्भावात् तिम्रो ग्राह्याः, अन्यत्र जीवाभिगमादिपु तथा ||
॥३२॥ || दर्शनात्, अर्थतासां मानमाह-साओ ण'मित्यादि, कण्ठ्यं, यद्यप्येतत्सूत्रादर्शषु जोअणं आयामविक्खम्भेणं अद्धजो-||
| अणं बाहलेण'इति पाठो दृश्यते तथापि जीवाभिगमपाठदृष्टत्वेन राजप्रश्नीयादिषु प्रेक्षामण्डपमणिपीठिकातः स्तूपमणि-!
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------ --------------------------------- मलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
| पीठिकाया द्विगुणमानत्वेन दृष्टत्वाचायं सम्यक् पाठः सम्भाव्यते, आदर्शेषु लिपिप्रमादस्तु सुप्रसिद्ध एव, अथ स्तूप
वर्णनायाह-'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ स्तूपाः प्रज्ञप्ताः, जीवाभिगमादौ तु चैत्यस्तूपा 18| इति, द्वे योजने ऊर्वोच्चत्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति देशोने द्वे योजने IS आयामविष्कम्भाभ्या ग्राह्ये, अन्यथा मणिपीठिकास्तूपयोरभेद एव स्यात् , जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने IS उच्चत्वमित्यर्थः, ते च श्वेताः, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति-'संखदल'त्ति यावत्करणात् 'संखदलविमलनिम्मलदधि
घणगोखीरफेणरययनिअरप्पगासा सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत्, कियहरं प्राह्यमित्याह-यावदटाष्टमङ्गलकानीति । अथ तच्चतुर्दिशि यदस्ति तदाह-'तासि णं थूभाणमित्यादि, तेषां स्तूपानां प्रत्येक चतुर्दिा चतम्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेन अर्द्धयोजनं बाहल्येन, अन्न जिनप्रतिमा है | वक्तव्याः, तत्सूत्रं चेदम्-'तासि णं मणिपेदिआणं उप्पि पत्ते पत्ते चत्तारि जिनपडिमाओ जिणुस्सेहप्पमाणमि
ताओ पलिअंकसण्णिसण्णाओ भाभिमुहीओ सणिक्खित्ताओ चिट्ठति, तंजहा-उसभा बद्धमाणा चन्दाणणा|| हावारिसेणा' इति, एतद्वर्णनादिक वैताम्ये सिद्धायतनाधिकारे प्रागुक्तं, गताः स्तूपाः, 'चेहजरुक्खाण'मित्यादि, व्यक्तम्, 18 अत्र चैत्यवृक्षवर्णको जीवाभिगमोक्को वाच्यः, स चायम्-'तेसि ण चेइअरुक्खाणं अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णते, 8 तं०-यहरमूलरययसुपइटिअविडिमा रिट्ठामयकंदघेरुलिअरुइलखंधा सुजायवरजायस्वपढमविसालसाला णाणामणि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
श्रीजम्बू- रयणविविहसाहप्पसाहवेरुलिअपत्ततवणिज्जपत्तवेटा जम्बूणयरत्तमउअसुकुमालपवालपल्लववरकुरधरा विचित्तमणिरय- विक्षस्कारे
द्वीपशाणसुरभिकुसुमफलभरणमिअसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीआ सउज्जोआ अमयरससमरसफला अहिअमणनयणणि-शयमकृपवेत न्तिचन्द्री
इकरा पासादीआ जाव पडिरूवा ४'इति, अत्र व्याख्या-तेषां चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-- पणन या वृत्तिः
सू.८८ वज्ररत्नमयानि मूलानि येषां ते वज्रमूला तथा रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊर्ध्ववि-18 ॥३२४॥ निर्गता शाखा येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते तथा तथा वैडूर्यरनमयो रुचिरः
स्कन्धो येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, सुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं बरं-प्रधानं यजातरूप-रूप्यं तदात्मिकाः प्रथमिका-मूलभूता विशालाः शाला:-शाखा येषां ते तथा, नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखा-मूलशाखाविनि| र्गतशाखाः प्रशाखाः-शाखाविनिर्गतशाखा येषा ते तथा, तथा वैडूर्याणि-वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा, तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, जाम्बू-ISH नदा-जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्तवर्णा मृदुसुकुमारा-अत्यन्तकोमलाः प्रवाला-ईषदुन्मीलितपत्रभावरूपाः पल्लवा-जातपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा घरांकुरा:-प्रथममुद्भिद्यमानास्तान् धरन्ति ये ते तथा, विचित्रमणिरक्षमयानि सुर-18 भीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता-नाम ग्राहिताः शाखा येषां ते तथा, सती-शोभना छाया येषां ते 81 सच्याः , एवं सत्प्रभाः अत एव सश्रीकाः तथा सोद्घोताः मणिरज्ञानामुषोतभावाद, अमृतरससमरसानि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------........ ---------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
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18| फलानि येषां ते तथा, अधिकं नयनमनोनिर्वृतिकराः, शेष प्राग्वत् , 'ते णं चेइअरुक्खा अन्नेहिं बरहिं तिलयल-11
वयछत्तोवगसिरीससत्तिवण्णलोधवचंदणनीवकुडयकयंवपणसतालतमालपिआलपिअंगुपारावयरायरुक्खनन्दिरुक्खेहिं 18 सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ता'इति, ते चैत्यवृक्षा अन्यैर्बहुभितिलकलवगच्छत्रोपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलोध्रधवचन्द-18 ननीपकुटजकदम्बपनसतालतमालप्रियालप्रियंगुपारापतराजवृक्षनन्दिवृक्षः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिताः, एते च | वृक्षाः केचिन्नामकोशतः केचिल्लोकतश्चावगन्तव्याः, 'ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवन्तो कंदवन्तो जाव सुरम्मा' ते च तिलकादयो वृक्षा मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्रथमोपाङ्गतोऽबसेयं यावत्सुरम्या इति, 'ते णं तिलया जाव नन्दिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता' ते च तिलकादयो वृक्षाः अन्याभिभिः पद्मलताभिर्यावच्छचामलताभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, यावच्छब्दादत्र नागलता-13 चम्पकलताद्या ग्रहणीयाः, 'ताओ ण पउमलयाओ जाव सामलयाओ निश्चं कुसुमिआओ जाव पडिरूवाओ' ताथ | पद्मलताद्या नित्यं कुसुमिता इत्यादि लतावर्णनं यावत्प्रतिरूपाः, 'सि णं चेइअरुक्खाणं उप्पिं अमंगलया बहवे झया छत्चाइच्छत्ता, तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजाः छत्रातिच्छत्राणीत्यादि चैत्यस्तूपकवद्वक्तव्यं । गताश्चैत्यवृक्षाः, अथ महेन्द्रध्वजायसर:--'तेसि णं चेइअरुक्खाण'मित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतस्तिस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भाभ्यां अर्धयोजनं बाहल्येन, 18
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्बासिणं उर्षि पत्तेइत्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञयाः, ते चाष्टिमानि-साई-%
४वक्षस्कारे द्वीपशा-18|| सप्तयोजनानि ऊर्बोच्चत्वेन अर्द्धक्रोशं-धनुःसहस्रमुद्वेधेन-उण्डत्वेन तदेव बाहल्येन, 'वइरामयवदृ'इतिपदोपल-18 यमकूपर्वत न्तिचन्द्री-|| क्षितः परिपूणों जीवाभिगमायुक्तवर्णको ग्राह्यः, स चायम्-'बइरामयबद्दलसंठिअसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइद्विआ अणे
वर्णनं या वृत्तिः "|| गवरपञ्चवण्णकुडभीसहस्सपरिमण्डिाभिरामा वाउडुअविजयवेजयन्तीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिआ तुंगा गगणतलमभि
सु.८८ ॥३२५018 लंघमाणसिहरा पासादीआ जाय पडिरूवा'इति, अत्र व्याख्या-वज्रमयाः तथा वृत्त-वर्तुलं लष्टं-मनोज्ञं संस्थितं
R|| संस्थानं येषां ते तथा तथा मुश्लिष्टा यथा भवन्ति एवं परिघृष्टा इव खरशाणया पाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिपष्टाः। |तथा मृष्टाः-सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव तथा सुप्रतिष्ठिताः-मनागप्यचलनात् तथा अनेकवर:-प्रधानः पञ्चवर्णैः
कुडभीना-लघुपताकानां सहस्त्रैः परिमण्डिताः सन्तोऽभिरामाः शेष प्राग्वत्, 'तेसि णं महिंदज्झयाणं उप्पिं अट्ठहम-18| |ङ्गलया झया छत्ताइछत्ता' इत्यादि सर्व तोरणवर्णक इव वाच्यं जीवाभिगमत इति । उक्का महेन्द्रध्वजाः, अथ पुष्क| रिण्यः ताश्च वेइआवणसंड' इत्यादिपर्यन्तसूत्रेण संगृह्यते, तथाहि-तेसि णं महिंदज्झयाण पुरओ तिदिसि तओ गंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ अद्धतेरसजोषणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोअणाई विक्खम्भेण दसजोषणाई उके- ॥३२५॥
हेणं अच्छाओ सहाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्ते २ पउमवरवेइआपरिक्खित्ताओ पत्तेअं २ वणसण्डपरिक्खित्ताओ ISवण्णओ' तथा 'तासि णं णम्दापुक्खरिणीणं पत्ते २ तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसो-181
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------ ---------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
गाथा:
वाणपडिरूवगाण वण्णो तोरणवण्णओ अ भाणिअबो जाव छत्ताइछत्ताई' इति, अत्र जगतीगतपुष्करिणीवत सर्व ॥ वाच्य, अथ सुधर्मसभायां यदस्ति तदाह-'तासि ण'मित्यादि, तयोः सभयोः सुधर्मयोः षट् मनोगुलिकानां-पीठि-1 कानां सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-पूर्वस्या द्वे सहने पश्चिमायां दे सहने दक्षिणस्यामेकं सहस्रं उत्तरस्यामेकं सहनं, | 'जाव दामा' इत्यत्र यावत्पदादिदं ग्राह्यम्-'तासु णं मणोगुलिआसु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसि णं सुवण्णरुप्पमएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदन्तगा पण्णत्ता,तेसु णं वइरामएसु नागदन्तेसु बहवे किण्हमुत्तवग्धारि-1 अमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारिअमलदामकलावा, तेणं दामा तवणिजलंबूसगा चिति'त्ति सर्व विजयद्वारव-1 द्वाच्यम्, अनन्तरोक्तं गोमानसिकासूत्रेऽतिदिशति-'एवं गोमाणसिआओ'इत्यादि,एवं-मनोगुलिकान्यायेन गोमानस्य:शय्यारूपाः स्थान विशेषा वाच्याः, नवरं दामस्थाने धूपवर्णको वाच्यः,अथास्या एव भूभागवर्णकमाह-'तासि ण'मित्यादि, तयोः सुधर्मयोः सभयोः अन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अत्र मणिवर्णादयो वाच्याः, उल्लोकाः पद्मलतादयोऽपि च चित्ररूपाः, अत्र विशेषतो यद्वक्तव्यं तदाह-'मणिपेढिा' इत्यादि,अत्र सुधर्मयोर्मध्यभागे प्रत्येक मणिपीठिका वाच्या,13 दे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनं बाहल्येन,'तासिण'मित्यादि,तयोमणिपीठिकयोरुपरि प्रत्येक माणवकनानि चैत्य-18 | स्तम्भे महेन्द्रध्वजसमाने प्रमाणतोऽwष्टमयोजनप्रमाण इत्यर्थः वर्णकतोऽपि महेन्द्रध्वजवत् , उपरि षट् क्रोशान् अवगाह्य | 18 उपरितनपटुक्रोशान वर्जयित्वेत्यर्थः अधस्तादपि षट् क्रोशान वर्जयित्वा मध्येऽधपञ्चमेषु योजनेषु इति गम्यं, जिनसक्थीनि,
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
18
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गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
सीजन- व्यन्तरजातीयानां जिनदंष्ट्राग्रहणेऽनधिकृतत्वात् , सौधर्मशानचमरवलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणात्, प्रज्ञप्तानीति, शेषो ववस्कारे
द्वीपशा- वर्णकश्चात्र जीवाभिगमोक्को ज्ञेया, स चाय--'तस्स णं माणवगचेइअस्स सम्भस्त उवरि छक्कोसे ओगाहिता हिहावि | यमकपर्वत न्तिचन्द्री-
1छकोसे वजित्ता मज्झे अद्धपञ्चमेसु जोमणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णता, तेसु णं बहवे वरामया || वर्णेनं या वृचिःणागदन्तगा पण्णता, तेसु णं बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता, तेसु णं वहवे वइरामया गोलयवट्टसमुग्गया पण्णत्ता, 138118|तेसु णं बहवे जिणसकाहाओ सणिखित्ताओ चिट्ठन्ति,जाओणं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बर्ण वाणमन्तरार्ण देवाण ।
य देवीण य अञ्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइ पजुवासणिज्जाओं' इति, अत्र व्याख्या-'तस्स णमित्याद्यारभ्य वज्जित्ता' इति पर्यन्तं प्रायः प्रस्तुतसूत्रे साक्षाद् दृष्ट-S| त्वादनन्तरमेव व्याख्यातं, मध्येऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु अवशिष्टयोजनेवित्यर्थः, अत्रान्तरे बहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्रज्ञप्तानि. तेषु फलकेषु बहवो वामया नागदन्तकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि शिक्य-11 कानि प्रज्ञतानि, तेषु शिक्यकेषु बहवो वज्रमया गोलको-वृत्तोपलस्तद्वद् वृत्ताः समुद्गका:-प्रसिद्धाः प्रज्ञप्ताः, तेषु समु-13 दिकेषु बहूनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि यमकयोर्देवयोः अन्येषां च बहूनां यमकराजधानीवास्तव्यानां | ॥३२६॥ 8वानमन्तराणां देवानां देवीनां च अर्थनीयानि चन्दनादिना वन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना सत्का-10
रणीयानि वस्त्रादिना सन्माननीयानि बहुमानकरणतः कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानीति, एतदा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------........ --------------------------------- मलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
शातनाभीरुतयैव तत्र देवा देवयुवतिभिर्न सम्भोगादिकमाद्रियन्ते नापि मित्रदेवादिभिर्हास्यक्रीडादिपराः स्युरिति, ननु जिनगृहादिषु जिनप्रतिमानां देवानामर्चनीयत्वादिकमाशातनात्यागश्च युक्ती, तासां सद्भावस्थापनारूपत्वेनाराध्यतासङ्कल्पप्रादुर्भावसम्भवात् , न तथा जिनदंष्ट्रादिषु, तेन कथं तौ घटेते, पूज्यानामङ्गानि पूज्या इव पूज्यानीति | सङ्कल्पस्यात्रापि प्रादुर्भावात् पूज्यत्वं महावैरोपशमकगुणवत्त्वेन च, अस्मिन्नर्थे पूज्यश्रीरलशेखरसूरीन्द्रोपजश्राद्धविधिवृत्तिसम्मतिः, तथाहि परीक्षाप्राप्तनिर्लोभतागुणं रतसारकुमारं प्रति चन्द्रशेखरवच:-"हरिसेनानीहरिणेगमेप्यनिमिषाग्रणीः । युक्तमेव तव श्लाघां, कुरुते, सुरसाक्षिकम् ॥१॥ वक्ति स्म विस्मयस्मेरः, कुमारः स सुराप्रणी। मामश्लाघ्य श्लाघते किं ?, सोऽप्युवाच शृणु ब्रुवे ॥२॥ नव्योत्पन्नतयाऽन्यहि, सौधर्मेशानशक्रयोः। विवादोऽभूद्विमानार्थ, हार्थमिव हर्मिणोः ॥ ३ ॥ विमानलक्षा द्वात्रिंशत्तथाऽष्टाविंशतिः क्रमात् । सन्त्येतयोस्तथाऽप्येतो, विवदेते स्म धिम् भवम् ॥ ४ ॥ तयोरिवोवींश्वरयोविमानचिपलुब्धयोः ।नियुद्धाविमहायुद्धान्यप्यभूवन्ननेकशः ॥ ५॥ निवार्यते हि कलहस्तिरश्चां तरसा नरैः । नराणां च नराधीशैनराधीशां सुरैः कचित् ॥६॥ सुराणां च सुराधीशैः, सुराधीशां पुनः कथम् । केन वा स निवार्येत, वनाग्निरिव दुःशमः ॥७॥ युग्मम् । माणवकाख्यस्तम्भस्थाईदंष्ट्राशान्तिवारिणा । आधिव्याधिमहादोषमहावैरनिवारिणा ॥ ८॥ कियत्कालव्यतिक्रान्ती, सिक्ती महत्तः सुरैः । बभूवतुः प्रशान्ती ती, किंवा सिध्येन्न तज्जलात् ॥९॥ युग्मम् । ततस्तयोमिथस्त्यक्तवैरयोः सचिवद्धयोः । मोचे पूर्वव्यवस्थैर्य, सुधियां
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्य- समये हि गीः॥१०॥ सा चैवम्--दक्षिणस्यां विमाना ये, सौधर्मेशस्य तेऽखिलाः । उत्तरस्यां तु ते सर्वेऽपीशा-18| वक्षस्कारे
द्वीपशा- नेन्द्रस्य सत्तया ॥११॥ पूर्वस्यामपरस्यां च, वृत्ताः सर्वे विमानकाः । त्रयोदशापीन्द्रकाश्च, स्युः सौधर्मसुरेशितुः यमकृपर्वत त्रिचन्द्री- १२॥ पूर्वापरदिशोत्यस्राश्चतुरस्राश्च ते पुनः । सौधर्माधिपतेर , अर्द्धा ईशानचक्रिणः ॥ १३ ॥ सनत्कुमारमा- बणेनं या वृत्तिः
| हेन्द्रेऽप्येष एव भवेत् क्रमः । वृत्ता एव हि सर्वत्र, स्युर्विमानेन्द्रकाः पुनः ॥ १४ ॥ इत्थं व्यवस्थया चेतःस्वास्थ्य- ८. ॥३२॥ मास्थाय सुस्थिरौ । विमत्सरौ प्रीतिपरी, जज्ञाते तो सुरेश्वरौ ॥१५॥” इति अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-'माणक्गस्स'इत्यादि,
माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि सुधर्मायामेव सभायां सिंहासने सपरिवारे सः, यमकदेवयोः
प्रत्येकमेकैकसद्भावात् , तस्मादेव पश्चिमायां दिशि शयनीये वर्णकश्च तदीयः श्रीदेवीवर्णनाधिकारे उक्तः, शयनी18ययोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजौ स्तः, तौ च मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणी, सार्द्धसप्तयोजनप्रमाणावु-18 18वेनार्द्धक्रोशमुद्वेधेन-बाहल्याभ्यामित्यर्थः, ननु यदीमौ प्रागुक्तमहेन्द्रध्वजतुल्यौ तवा किमिमी क्षुल्लकेन विशे-18|| 18 पिती ?, उच्यते, मणिपीठिकाविहीनी, अत एव क्षुल्लौ, कोऽर्थः ?-द्वियोजनप्रमाणमणिपीठिकोपरिस्थितस्वेन पूर्वे || 18|| महान्तो महेन्द्रध्वजास्तदपेक्षया इमौ च क्षुलावित्यर्थादागतमिति, तयोः क्षुल्लमहेन्द्रध्वजयोरेकैकराजधानी-18
8 ॥३२७॥ 18 सम्बन्धिनोरपरेण पश्चिमायां घोपालो नाम प्रहरणक्रोशः-प्रहरणभाण्डागारं, तत्र पनि परिषरक्षप्रमुखाणि 181 18| यावत्पदात् पहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'सुहम्माण'मित्यादि, सुधर्मयोरुपर्यधाष्टमङ्गलकानि इत्यादि |8||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८८]
गाथा:
ताव यकव्यं यावत् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरक्षमया इत्यादि । सुधर्मसभातः परं किमस्तीस्थाहतासि ॥'-11 । मित्यादि, तयोः सुधर्मसभयोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि द्वे सिद्धायतने प्रज्ञप्ते इति शेषः, प्रतिसभमेकैकसझावादिति, अत्र ||
लाघवार्थमतिदेशमाह-एष एव-सुधर्मासभोक्त एव जिनगृहाणामपि गमः-पाठोऽवगन्तव्यः, स चायम्-'सेणं सिद्धाययणा अद्धतेरसजोषणाई आयामेणं छस्सकोसाई विक्खम्भेणं णव जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठा' | इत्यादि, यथा सुधर्मायास्त्रीणि पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि द्वाराणि तेषां पुरतो मुखमण्डपाः तेषां च पुरतः प्रेक्षामण्डपाः || तेषां पुरतः स्तूपाः तेषां पुरतश्चैत्यवृक्षाः तेषां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्तास्तदनु सभायां । षड् मनोगुलिकासहस्राणि पडू गोमानसीसहस्राण्युक्तानि एवमनेनैव क्रमेण सर्व वाच्यम् , अत्र च सुधर्मातो यो विशे-18 | पस्तमाह-'णवरं इमणाणसं'इत्यादि व्यक्तम् , अथ सुधर्मासभोक्तमेव समाचतुष्केऽतिदिशमाह-एवं अवसेसाणवि इत्यादि, एवं सुधर्मान्यायेन अवशिष्टानामुपपातसभादीनां वर्णनं ज्ञेयं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावदुपपातसभायांउत्पित्सुदेवोत्पत्त्युपलक्षितसभायां शयनीयं वर्णनीयं तच्च प्राग्वत्,तथा ह्रदश्च वक्तव्यो नन्दापुष्करिणीमानः,स चोत्पन्नदेवस्य ।
शुचित्वजलक्रीडादिहेतुः, ततोऽभिषेकसभायां-अमिनवोत्पन्नदेवाभिषेकमहोत्सवस्थानभूतायां बहु आभिषेक्यं-अभि-81 |पेकयोग्यं माण्ड वाच्यं, तथा अलङ्कारसभायां-अभिषिक्तसुरभूषणपरिधानस्थानरूपायां सुबहु अलङ्कारिकभाण्डं-अलकारयोग्यं भाण्डं तिष्ठति, व्यवसायसभयो:-अलंकृतसुरशुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपयोः पुस्तकरने ततो बलिपीठे॥8॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्यू
अर्थनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नसुरयोलिविसर्जनपीठे वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनं बाहल्येन यावत्पदात् 'सब- वधस्कारे द्वीपशा
रयणामया अच्छा पासाईआ ४' ततो नन्दाभिधाने पुष्करिण्यो बलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मासां जिगमिषतोरभिनवो-18 न्तिचन्द्री-18 पारयोर्हस्तपादप्रक्षालनहेतुभूते, अत एव सूत्रे प्रथमोक्ते अपि नन्दापुष्करिण्यौ प्रयोजनक्रमशात् पश्चाद् व्याख्याते | या वृचिः
क्रमप्राधान्या व्याख्यानस्य, अथ यथा सुधर्मासभातः उत्तरपूर्वस्यां दिशि सिद्धायतनं तथा तस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि 8.८० ||३२८॥
उपपातसभा, एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् परं परमुत्तरपूर्वस्यां वाच्यं यावदलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दा पुष्करिणीति, अत्र च 'जमिगाओ रायहाणीओ' इत्यादिसूत्रेषु द्विवचनेन, 'तासिं जाव उप्पिं माणवए चेइअखम्भे' इत्यादिसूत्रेष्वेक-181 वचनेन निर्देशः सूत्रकाराणां प्रवृत्तिवैचित्र्यादिति ॥ वर्णिते यमिकाभिधे राजधान्यौ, अथानयोरपिपयोर्यमकदेवयो-181 | रुत्पत्त्यादिस्वरूपाख्यानाय विस्तरारुचिः सूत्रकृत् संग्रहगाधामाह-'उपवाओ संकप्पो'इत्यादि, उपपातो-यमकयो|| देवयोरुत्पत्तिर्वाच्या, ततः उत्पन्नयोः सुरयोः शुभव्यवसायचिन्तनरूपः सङ्कल्पः, ततोऽभिषेक:-इन्द्राभिषेकः, ततः
|| विभूषणा-अलङ्कारसभायामलङ्कारपरिधान, ततो व्यवसायः-पुस्तकरलोद्घाटनरूपः, ततः अर्चनिका-सिद्धायतनाद्यर्चा, || ततः सुधर्मायां गमनं, यथा च परिवारणा-परिवारकरणं स्वस्वोक्तदिशि परिवारस्थापनं यथा यमकयोर्देवयोःसिंहासनयो।
R ॥३२८॥ परितो वामभागे चतुःसहस्रसामानिकभद्रासनस्थापन सैव ऋद्धिः-सम्पत् रूपनिष्पत्तिस्तु "णिज बहलं नानः कृगादिषु' (श्रीसिद्ध० अ०३ पा०४ सू०४२) इत्यनेन करणार्थे 'णिवेत्त्यासनथघट्टवन्देरनः' (श्रीसिद्ध अ०५पा०३सू०१११)
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८८]
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गाथा:
इत्यनेन चानप्रत्यये स्त्रीलिङ्गीय आप्प्रत्यये साधुः तथा वाच्यं 'जीवाभिगमादिभ्यः। अथ यमको द्रहाश्च यावता.. अन्तरेण परस्परं स्थितास्तन्त्रिणेतुमाह-जावइयं'इत्यादि, यावति प्रमाणे-अन्तरमाने नीलवतो यमकी भवतः खलु-18 निश्चितं तावदन्तरं योजनसप्तभागचतुर्भागाभ्यधिकचतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं यमकद्रहयोहाणां च पोध्यमिति || | शेषः, उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ॥ अथ येषां इदानामन्तरमानमनन्तरमुक्तं तान् स्वरूपतो निर्दिशति
कहिण भन्ते ! उत्तरकूराए णीलवन्तहहे णाम वहे पण्णत्ते, गोजमा ! जमगाणं दक्विणिल्लाओ चरिमन्ताओ अट्ठसए चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अवाहाए सीआए महाणईए बहुमझदेसभाए एत्य ण णीलवन्तददे णाम दहे पण्णत्ते दादिणउत्तरायए पाईगपडीणविच्छिण्णे जहेव पउमड़हे तहेव वण्णओ अव्वो, णाणत्वं दोहिं पउमवरवेइआदि दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते, णीलवन्ते णामं णागकुमारे देवे सेसं तं चेव अवं, णीलवन्तदहस्स पुब्वावरे पासे दस २ जोषणाई अबाहाए एत्य णं वीसं कंचणगपचया पण्णत्ता, एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं-मूलंमि जोअणसयं पण्णतरि जोभणाई मज्झमि । नवरितले कंचणगा पण्णास जोषणा हुँति ॥ १॥ मूलंमि तिणि सोले सत्तत्तीसाई दुणि मझमि । अट्ठावण्णं च सर्व उवरितले परिरओ होइ ॥ २ ॥ पढमिस्थ नीलवन्तो १ वितिओ उत्तरकुरू २ मुणेअव्यो । चंददहोत्थ तइओ ३ एरावय ४ मालवन्तो अ५॥ ३ ॥ एवं वण्णओ अट्ठो पमाणं पलिओवमट्टिइआ देवा (सूत्रं ८९) 'कहि णमित्यादि, क भदन्त! उत्तरकुरुषु २ नीलवद्हो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! यमकयोर्दाक्षिण्या चर
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दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८९]
द्वीपशान्तिचन्द्री
गाथा:
श्रीजम्ब-18मान्तादष्ट शतानि चतुर्विंशदधिकानि चत्वारि च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया कृत्वा इति गम्यं, अपाम्तराले वक्षस्कारे
मुक्त्वेति भावः, शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे नीलवद्व्हो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः, दक्षिणोत्तरायतःप्राचीनप्रती- नीलबदाचीनविस्तीर्णः,पद्मद्रहश्च प्रागपरायतः उदग्दक्षिणपृथुरिति पृथग्विशेषणं, यथैव पद्महे वर्णकस्तथैव नेतव्यः, नानात्वमिति
दिब्रहकाया वृत्तिः
अनपर्वताः विशेषोऽयं, द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, अर्य भावः-पद्मद्रह एकया पद्मवरवेदिकया । ॥३२९॥
एकेन च वनखण्डेन परिक्षिप्तः, अयं तु प्रविशन्त्या निर्यान्त्या च शीतया महानद्या द्विभागीकृतत्वेनोभयोः पार्श्वयोवर्ति-1|| नीभ्यां वेदिकाभ्यां युक्त इति सम्यक, अर्थश्च नीलवर्षधरनिभानि तत्र तत्र प्रदेशेषु शतपत्रादीनि सन्ति अथवा नीलवभामा नागकुमारो देवोऽत्राधिपतिरिति नीलवान इद इति, शेषं पद्मादिकं तदेव नेतव्यं, पमद्रह इव पद्ममानसङ्ख्या -18 परिक्षेपादिकं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ अथ काश्चनगिरिव्यवस्थामाह--णीलवन्त' इत्यादि, नीलबद्रहख पूर्वापरपाईयोः | प्रत्येक दशदशयोजनान्यबाधया कृत्वेति गम्यं, अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे दक्षिणोत्तरश्रेण्या परस्परं मूले | ३ सम्बद्धाः अन्यथा शतयोजनविस्ताराणामेषां सहस्रयोजनमाने द्रहायामेऽवकाशासम्भव इति, विंशतिः कापानकपर्वताः ॥ प्रज्ञताः, एक योजनशतमूर्वोच्चत्वेन, गाथाद्वयेनैतेषां विष्कम्भपरिक्षेपावाह-मूले योजनशतं मध्ये-मूलतः पञ्चाश-||
8 ॥३२९॥ योजनोवंगमने पश्चसप्ततिर्योजनानि उपरितने-शिखरतले पञ्चाशयोजनानि विस्तारेण भवंति काश्चनकाभिधाः पर्वताः || १॥ मूले त्रीणि योजनशतानि षोडशाधिकानि मध्ये द्वे योजनशते सप्तत्रिंशदधिके अष्टपश्चाशदधिकयोजनशत।
दीप अनुक्रम [१४६-१५०]
~313
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८९]
गाथा:
उपरितले परिरयः-परिधिरिति॥२॥ इह च मूले परिधी मध्यपरिधौ च किंचिद्विशेषाधिकरवं गाथावधानुलोम्यादनुकमप्यवसेयं ॥ अथ सङ्ख्याक्रमेण पथानामपि दानां नामान्याह-'पढमित्थ'इत्यादि, प्रथमो नीलवान् द्वितीय उत्तरकुरुआतव्यः चन्द्रद्रहोऽत्र तृतीयः ऐरावतश्चतुर्थः पञ्चमो माल्यवांश्च, अथानन्तरोकानां काञ्चनाद्रीणां एषां च द्रहादीनां स्वरूपप्ररूपणाय लाघवार्थमेकमेव सूत्रमाह-एवं वपणओ'इत्यादि, एवं-उक्तम्यायेन नीलवन्द्रन्यायेनेत्यर्थः उत्तरकु| रुहदादीनामपि ज्ञेयः पनायरवेदिकावनखण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलपद्माष्टोत्तरशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यतापि, तथैवार्थ:-उत्तरकुर्वाद्रिद्रनामान्वर्थः उत्तरकुरुहूदप्रभोत्तर कुरुइदाकारोत्पलादियोगादुत्तरकुरुदेवस्वामिकत्वाच्चोत्तरकुरुहूद इति, चन्द्रहदप्रभाणि-चन्द्रहदाकाराणि चन्द्रहदवर्णानि चन्द्रश्चात्र देवः स्वामीति चन्द्रदा , ऐरावत-उत्तरपार्श्ववर्तिभरतक्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रविशेषस्तत्प्रभाणि-तदाकाराणि, आरोपितण्यधनुराकाराणीत्यर्थः, | उत्पलादीनि ऐरावतश्चात्र देवः प्रभुरित्यैरावता, माल्यवक्षस्कारनिभोत्पलादियोगाम्माल्यवदेवस्वामिकत्वाच माल्यव-ISM IS द्द इति, प्रमाणं च सहस्रं योजनान्यायामस्तदर्द्ध विष्कम्भ इत्यादिकं, पल्योपमस्थितिकाश्चात्र देवाः परिवसन्ति,
तत्राद्यस्य नागेन्द्र उक्तः, शेषाणां व्यन्तरेन्द्राः, काश्चनाद्रीणां च वर्णको यमकाद्रिवद्वाच्यः, अर्धश्च काशनवर्णोत्पला| दियोगात् काश्चनाभिधदेवस्वामिकत्वाञ्च काञ्चनाद्रयः, प्रमाणं योजनशतोच्चत्वं मूले योजनशतं विस्तार इत्यादिक | उत्तरकुरुहूदादिशेपद्रहपार्श्ववर्तिकाञ्चनाचलापेक्षयेदं बोध्यं, अथवा प्रमाणं प्रतिइदं विंशतिः प्रतिपाई दश सर्वस
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दीप अनुक्रम [१४६-१५०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [८९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८९]
या वृत्तिः
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४६-१५०]
श्रीजावाडख्यया शतमित्यादिक पल्योपमस्थितिकाश्चात्र देवा इति राजधान्यश्चैतेषामत्रानुका अपि यमकदेवराजधानीव-11वकारे द्वीपशा
द्वाच्याः परं तत्तदमिलापेनेति ॥ अथ यन्नाम्ना इदं जम्बूदी ख्यातं तां सुदर्शनानानी जम् विवक्षुस्तदधिष्ठानमाह-- जम्वृक्षन्तिचन्द्री
वर्णनं 'कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए २ जम्बूपेढे णाम पेढे पण्णते?, गोअमा! णीलवन्तरस वासहरपब्जयस्स दक्षिणेणं मन्दरस्स उत्त.
रेण मालवन्तस्स पक्खारपवयरस पश्चस्थिमेणं सीमाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्य णं उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे णाम पेढे ॥३३०॥
पण्णते, पञ्च जोमणसयाई आयामविक्खम्मेणं पण्णरस एकासीयाई जोअणसयाई किंचिविसेसाहिबाई परिक्खेवणं, बहुमनादेसभाए पारस जोषणाई थाहलेणं तयणन्तरं च णं मायाए २ पदेसपरिहाणीए २ सव्वेसु णं चरिमपेरतेसु दो दो गाऊमाई बाहलेणं सबजम्बू गयामए अच्छे से णं एगाए पउमबरवेइआए एगेण य वणसंडेणे सम्बओ समन्ता संपरिक्खिते दुण्डंपि वण्णओ, तस्स णं जम्बूपेढस्स चउदिसि पए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पणत्ता वणो जाच सोरणाई, तस्स णं जम्यूपेढस्स बहुममदेसभाए एव ण मणिपढिा पग्णता अहजोअगाई आयाम विक्खम्भेगं चत्तारि जोभणाई बादले ग, तीसे णं मणिपेदि. आए उणि एत्थ जम्यूमुसणा पणत्ता, अह जोअगाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोअगं तम्हेणं, तीसे ण संधो दो जोषणाई बढ़ उच्चत्तेणं अद्धजोअणं बाहल्लेणं, तीसे णं साला छ जोअण्णाई उद्धं उच्चत्तेण बहुमज्झदेसभाए अहजोभणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई
॥३३०॥ अट्ठ जोअणाई सव्वग्रोणं, तीसे णं अबमेआरूवे वणावासे पं०-बहरामया मूला रययसुपइट्ठिअविडिमा जाव अहिअमणणिब्बुइकरी पासाईआ दरिसणिज्जा, जंवूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला ५०, तेसि णं सालाणं बहुमझदेसभाए एत्य गं
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अथ जम्बू/सुदर्शन वृक्षस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ---------------------- --------------------------------- मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
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सिद्धाययणे पण्णते, कोसं आयामेणं अद्धकोस विक्खम्भेणं देसूगर्ग कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविढे जाव दारा पचवणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव वणमालाओ मणिपढिआ पञ्चधणुसयाई आयामविक्खम्भेणं अद्धाइलाई धणुसयाई बाहलेणं, तीसे गं मणिपेढिआए उपि देवच्छन्दए पंचधणुसयाई आयामविक्खम्भेणं साइरेगाई पञ्चधणुसयाई उद्धं उपत्तेणं, जिणपडिमावपणभो अन्योत्ति । तत्थ णे जे से पुरथिमिले साले एत्व णं भवणे पण्णते, कोसं आयामेणं एवमेव णवरमित्य सयणिज सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा य सपरिवारा इति । जम्बू ण बारसहिं पठमवरवेइआदि सब्बओ समन्ता संपरिक्सित्ता, बेइमाणं वण्णओ, जम्बू णं अण्णेणं अट्ठसएणं जम्पूर्ण तदद्धच्चत्ताणं सव्वो समन्ता संपरिक्खित्ता, तासि णं वण्णओ, ताओ णं जम्बू छहि पउमवरवेइहिं संपरिक्खित्ता, जम्बूए णं सुदसणाए उत्तरपुरथिमेणं उत्तरेणं उत्तरपञ्चस्थिमेणं एत्य णं अणाढिमस्स देवस्स चाटण्हं सामाणिअसाहस्सीणं चत्तारि जम्यूसाहस्सीओ पाणचाओ, तीसे णे पुरस्थिमेणं चलण्डं अगमहिसीर्ण पत्तारि जम्बूभो पण्णत्ताभो, दक्षिणपुरथिमे दक्सिणेणं तह अवरदक्खिणेणं च । अट्ठ दस बारसेव व भवन्ति जम्बूसहस्साई ॥१॥ अणिआहिवाण पचत्थिमेण सत्तेव हॉति जम्बूओ। सोलस साहस्सीओ चउदिसि आयरक्खाणं ॥ २॥ जम्बूए णं तिहिं सइएहिं वणसंडेहि सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ता, जम्बूए णं पुरथिमेणं पण्णास जोषणाई पढमै वणसंडं ओगाहिता एत्य णं भवणे पण्णते कोसं आयामेणं सो चेव वण्णओ सयणिजं च, एवं सेसासुवि विसासु भवणा, जम्बूर णं उत्तरपुरथिमेणं पढमं वणसण्डं पण्णासं जोअणाहं ओगाहित्ता एत्य णं चचारि पुक्खरिणीओ पण्णताओ, जहा-पचमा १ परमप्पभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ४, ताओ णं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खम्भेणं पञ्चषणुसयाई उन्हेणं वण्णो तासिणं मज्झे पासायव.सगा कोर्स
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
| वक्षस्कारे
सूत्रांक
[१०]
श्रीजम्बू-18 द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३३॥
स.९०
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गाथा:
आयामेणं अद्धकोसं विक्खम्भेणं देसूर्ण कोसं उद्धं पच्चत्तेणं वण्णओ सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसामु, गाहा-पउमा परमप्पभा चेब, कुमुदा कुमुदष्पहा । उप्पलगुम्मा णलिणा, उप्पला उप्पलुज्जला ॥ १ ॥ भिंगा भिग्गप्पभा घेव, भंजणा कजलप्पभा । सिरिकता सिरिमहिमा, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया ।। २ ॥ जम्बूए णं पुरथिमिलस्स भवणस्स उत्तरेणं सत्तरपुरस्थि
नमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं एत्व णे कूडे पण्णते अढ जोमणाई उद्धं प्रा..
प्रा. उच्चत्तेणं दो जोअणाई उज्वेहेणं मूले अट्ठ जोगणाई आवामविक्खम्भेणं बहुमझदे
सभाए छ जोषणाई आयामविक्खम्भेणं उवरिं चत्तारि जोषणाई आयामविक्सम्भेण-पणवीसहारस बारसेव मूले अमज्झि उवरि च । सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो ॥ १॥ मूले विच्छिण्णे मझे संखिचे उबर तणुए सबकणगामए अच्छे बेइआवणसंडवण्णओ, एवं सेसावि कूड़ा इति । जम्बूए णं सुर्वसणाए दुवालस णामधेजा पं०, तं०-सुदंसणा १ अमोहा २ य, सुप्पबुद्धा ३
असोहरा ४ । विदेहजम्बू ५ सोमणसा ६, णिअया ७ णिचमंडिआ ८ ००
... |॥१॥ सुभदा य ९ विसाला य १०, सुजाया ११ सुमणा १२ विआ । ole ____
सुदंसणाए जम्बए, णामधेचा दुवालस ॥२॥ जम्बूए णं अट्ठमंगलगा,
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दक्षिण
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
.
॥३३॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------------------------------------- मुलं [१०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
से केणद्वेणं भन्ते! एवं युवा-अम्बू सुदसणा २१, गोअमा! जम्बूए णं सुदसणाए अणाढिए णाम जम्बुद्दीवाहिबई परिवसइ महिद्धीए, से 4 सस्थ चषण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाव मायरक्खदेवसाहस्सीणं, जम्बुद्दीवस्स गं दीवस्स जम्बूए सुदसणाए अणाढिआए रायहाणीए अण्णेसि च बहूणं देवाण व देवीण य जाब विहरइ, से तेणद्वेणं गो०! एवं वुश्चइ, मदुरुत्तरा ण प णं गोधमा । जम्बूसुदंसणा जाव भुवि च ३ धुवा णिआ सासया अक्खया जाव अवहिमा । कहिणं भन्ते। अणाढिअस्स देवस्स अणादिआ णामं रायहाणी पण्णता?, गोअमा ! जम्बुद्दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चेव पुन्ववणि जमिगापमाणं तं चेव अम्ब, जाव उववाओ अमिसेओ अ निरवसेसोसि (सूत्रं ९०) । 'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठ नाम पीठं प्रज्ञप्तं 1, निर्वचनसूत्रे गौतमेत्यामन्त्रणं गम्यं, नील-18॥ वतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य गजदन्तापरपर्यायस्य पश्चिमेन-1 पश्चिमायां शीताया महानद्याः पूर्वकूले-शीताद्विभागीकृतोत्तरकुरुपूर्वार्द्ध तत्रापि मध्यभागे अत्रान्तरे उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्बूपीठ नाम पीठ प्रज्ञप्त, पश्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भेन योजनानां पञ्चदशशतान्येकाशीत्यधिकानि किंचिद्विशे
पाधिकानि परिक्षेपेण बहुमध्यदेशभागे विवक्षितदिक्मान्तादर्घतृतीयशतयोजनातिक्रमे इत्यर्थः, बाहल्येन द्वादश योज-18| 18|| नानि, तदनन्तरं मात्रया २-क्रमेण २ प्रदेशपरिहाण्या परिहीयमाणः २ 'सब्वेसु'त्ति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी ||| 1.|| तेन सर्वेभ्यश्चरमप्रान्तेषु मध्यतोऽर्द्धतृतीययोजनशतातिक्रमे इत्यर्थः, द्वौ क्रोशौ बाहल्येन, सर्वोत्मना जाम्बूनद-18|
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९०]
गाथा:
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
श्रीजम्यू-1 मयं, 'अच्छ'मित्यादि, 'सेणं एगाए पउम'इत्यादि, तदिति अनन्तरोकं जम्बूपीठं एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च श्ववस्कारे द्वीपशा-18 वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तमिति शेषः, द्वयोरपि पावरदिकावनखण्डयोर्वर्णकः स्मर्त्तव्यः प्राक्तनः । जम्बुपक्षच न्तिचन्द्री
वच जघन्यतोऽपि चरमान्ते द्विकोशोचं कथं सुखारोहावरोहमित्याशवधाह-'तस्स 'मित्यादि, तस्य जम्बूपीठस्य चतु-121 या वृत्तिः
सू.९० |दिशि एतानि दिनामोपलक्षितानि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एतानि च त्रीणि मिलितानि द्विकोशो॥३३२॥18|चानि भवन्ति कोशविस्तीर्णानि अत एव प्रान्ते द्विकोशवाहल्यात पीठात् उत्तरतामवतरतां च सुखावहद्वारभूतानि
वर्णकश्च तावद्वक्तव्यो यावत् तोरणानि, 'तस्स णमित्यादि, व्यकं, 'तीसे 'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि [अन्न जम्बूः सुदर्शनानाम्नी प्रज्ञप्ता, अष्ट योजनान्यूर्वोच्चत्वेन अर्बयोजनमुद्वेपेन-भूमवेशेन, अथास्या एवोच्चत्वस्याष्ट योजनानि विभागतो द्वाभ्यां सूत्राभ्यां दर्शयति-तीसे 'मित्यादि, तस्या जम्ग्वाः स्कन्धा-कन्दादुपरितनः18 | शाखाप्रभवपर्यन्तोऽवयवो द्वे योजने अध्वोच्चत्वेनाईयोजनं बाहल्येन-पिण्डेन तस्याः शाला विडिमापरपोया दिक्18||मस्ता शाखा-मध्यभागप्रभवा ऊर्ध्वगता शाखा पद योजनान्यूथ्योंचत्वेन, तथा बहुमध्यदेशभागे प्रकरणाजम्यूरिति 181
गम्यम्, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तान्येवास्याः स्कन्धोपरितनभागाचतसबपि दिक्षु प्रत्येकमेकैका शाखा|8|| ॥३३॥ निर्गता ताश्च कोशोनानि चत्वारि योजनानि, तेन पूर्वापरशाखादैर्ध्यस्कन्धवाहत्यसम्बनध्ययोजनमीलनेनोकसराख्यानयन, बहुमध्यदेशभागश्चात्र व्यावहारिको ग्राह्या, वृक्षादीनां शाखाप्रभवस्थाने मध्यदेशस्य लोकेन्यवाहियमाण
Recence
Similennium
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
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गाथा:
| त्वात् , पुरुषस्य कटिभाग इव, अन्यथा विडिमाया द्वियोजनातिक्रमे निश्चयप्राप्तस्य मध्यभागस महणे पूर्वापरशा-18
खाद्वय विस्तारस्य ग्रहणसम्भवः विषमश्रेणिकत्यात्, अथवा बहुमध्यदेशभागः शाखानामिति गम्यते, कोऽर्थः-यतश्चशतुर्दिक्शाखामध्यभागस्तस्मिन्नित्यर्थः, अष्टयोजनानयनं तु सथैव, उच्चत्वेन तु सर्वाग्रेण-सर्वसङ्ख्यया कन्दस्कन्धविडिमापरिमाणमीलने सातिरेकाण्यष्टौ योजनानीति, अथास्या वर्णकमाह-तीसे ण'मित्यादि, तस्या जम्म्या अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, वज्रमयानि मूलानि यस्याः सा वज्रमयमूला तथा रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमाबहुमध्यदेशभागे ऊर्ध्वविनिर्गता शाखा यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पदद्वयकर्मधारयः, यावत्पदात् चैत्यवृक्षवर्णकः सर्वोऽप्यत्र वाच्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-अधिकमनोनिवृतिकरी प्रासादीया दर्शनीया इत्यादि । अथा-18 स्याः शाखाव्यतिमाह-'जंबूए ण'मित्यादि, जम्ध्वाः सुदर्शनायाः चतुर्दिशि चतस्रः शाला:-शाखा: प्रज्ञप्ताः, तासां || शालाना बहुमध्यदेशभागे उपरितनविडिमाशालायामित्यध्याहार्य जीवाभिगमे तथा दर्शनात् , शेष सुलभं वैताव्यसिद्धकूटगतसिद्धायतनप्रकरणतो ज्ञेयमित्यर्थः, अत्र पूर्वशालादौ यत्र यदस्ति तत्र तबकुमाह-'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र-तासु चतसृषु शालासु या सा पौरस्त्या शाला सूत्रे प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः अत्र भवनं प्रज्ञप्तं क्रोशमायामेन 'एवमेवेति सिद्धायतनवदिति, अर्द्धक्रोश विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमुञ्चत्वेनेति प्रमाण द्वारादिवर्णकश्च वाच्यः, नवरमत्र शयनीयं वाच्यं, शेषासु दाक्षिणात्यादिशालासु प्रत्येकमे फैकभावेन त्रयः प्रासादावतंसकाः सिंहासनानि सपरिवाराणि ॥
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Capacecasasava
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ...--------------------------------------------------- मलं [१०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
न्तिचन्द्री
[९०]
स.९०
गाथा:
श्रीजम्बू-18 च बोद्धव्यानि तेषां प्रमाणं च भवनवत्, तत्र खेदापनोदाय भवनेषु शयनीयानि प्रासादेषु स्वास्थानसभा इति, ननु वक्षस्कारे द्वापशा- भवनानि विषमायामविष्कम्भानि पद्मद्रहादिमूलपद्मभवनादिषु तथा दर्शनात् प्रासादास्तु समायामविष्कम्भाः दीर्घवै-19 जम्वृक्षया वृचिः
ताम्यकटगतेषु वृत्तवताब्यगतेषु विजयादिराजधानीगतेषु अन्येष्वपि विमानादिगतेषु च प्रासादेषु समचतुरसत्वेन समाया-हा
मविष्कम्भत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् तत्कथमत्र प्रासादानां भवनतुल्यप्रमाणता घटते ?, उच्यते, 'ते पासाया कोसं || ॥३३३॥ समूसिआ अद्धकोसविच्छिण्णा' इत्यस्य पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणोपज्ञक्षेत्रविचारगाथार्द्धस्य वृत्ती-ते प्रासादाः18 पक्रोशमेकं देशोनमिति शेषः समुच्छ्रिता-उच्चाः क्रोशार्द्ध-अर्द्धकोशं विस्तीर्णाः परिपूर्णमेक कोशं दीर्घा इति श्रीमल-13
|यगिरिपादाः तथा जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे "प्राच्ये शाले भवनं इतरेषु प्रासादाः मध्ये सिद्धायतनं सर्वाणि विज| यार्बमानानी"ति श्रीउमास्वातिवाचकपादाः तथा तपागच्छाधिराजपूण्यश्रीसोमतिलकसूरिकृतनव्यबृहत्क्षेत्रविचार-18 & सत्कायाः "पासाया सेसदिसासालासु बेअद्धगिरिगयब तओ" इत्यस्या गाथाया अवचूर्णी-"शेषासु तिमधु शालासु
प्रत्येकमेकैकभावेन तत्र त्रयः प्रासादा:-आस्थानोचितानि मन्दिराणि देशोनं क्रोशमुच्चाः क्रोशाई विस्तीर्णाः पूर्ण18 ४ कोश दीर्घाः" इति श्रीगुणरत्नसूरिपादाः यदाहुः तदाशयेन प्रस्तुतोपाङ्गस्योत्तरत्र जम्बूपरिक्षेपकवनवापीपरिगतप्रासा-18
३३३॥ दप्रमाणसूत्रानुसारेण च इत्येवं निश्चिनुमो जम्बूप्रकरणप्रासादा विषमायामविष्कम्भा इति, यत्तु श्रीजीवाभिगमसूत्रवृत्ती 'क्रोशमेकमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अर्द्धकोश विष्कम्भेने'त्युकं तद्गम्भीराशयं न विद्मः । अथास्याः पद्मवरवेदिकादिस्वरू
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ...--------------------------------------------------- मलं [१०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
18/पमाह-जंबू ण'मित्यादि, जम्बूदिशभिः पद्मवरवेदिकाभिः-प्राकारविशेषरूपाभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिता, 18| वेदिकाना वर्णकः प्राग्वत् , इमाश्च मूलजम्बूं परिवृत्त्य स्थिता ज्ञातव्याः, या तु पीठपरिवेष्टिका सा तु प्रागेवोक्ता ।।
अथास्याः प्रथमपरिक्षेपमाह--'जंबू ण'मित्यादि, जम्बूः णमिति वाक्यालङ्कारे अन्येनाष्टशतेन-अष्टोत्तरशतेन जम्बू-18 वृक्षाणां तदद्धोच्चत्वानां तस्या मूलजम्ब्वाः अर्द्धप्रमाणमुच्चत्वं यासां तास्तथा तासां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिता
उपलक्षणं चैतत् तेनोवैधायामविस्तारा अपि अर्द्धप्रमाणा ज्ञेयाः, तथाहि-ता अष्टाधिकशतसङ्ख्या जम्ब्वः प्रत्येक 18 चत्वारि योजनान्युच्चैस्त्वेन क्रोशमेकमवगाहेन एक योजनमुच्चः स्कन्धः त्रीणि योजनानि विडिमा सर्वाग्रेणोच्चैस्त्वेन 18 18 सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि तत्रैकका शाखा अर्द्धकोशहीने द्वे योजने दीर्घा कोशपृथुत्वः स्कन्ध इति भवन्ति
सर्वसंख्यया आयामविष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि, आसु चानाहतदेवस्याभरणादि तिष्ठति, एतासां वर्णकज्ञापनायाह-18 'तासि णं वण्णओ'त्ति तासां च वर्णको मूलजम्बूसदृश एवेति, अथासां यावत्यः- पद्मवरवेदिकास्ता आह–'ताओ ! ण'मित्यादि, उत्तानार्थ, नवरं प्रतिजम्यूवृक्षं पटू षट् पद्मवरवेदिका इत्यर्थः, एतासु च १०८ जम्बूषु अत्र सूत्रे जीवा-181 भिगमे वृहत्क्षेत्रविचारादौ सूत्रकृद्भिः वृत्तिकृद्भिश्च जिनभवनभवनप्रासादचिन्ता कापि न चक्रे बहवोऽपि च बहुश्रुताः श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णिणकारादयो मूलजम्बूवृक्षगततत्प्रथमवनखण्डगतकूटाष्टकजिनभवनैः सह सप्तदशोत्तरं शतं 12 जिनभवनानां मन्यमानाः इहाप्येकै सिद्धायतनं पूर्वोक्तमान मेनिरे ततोऽत्र तत्त्वं केवलिनो विदुरिति । सम्पति ||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०]]
गाथा:
श्रीजम्बू- शेषान् परिक्षेपान् वक्तुं सूत्रचतुष्टयमाह-'जंबूए 'मित्यादि, जम्ब्याः सुदर्शनायाः उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे 8 वक्षस्कारे द्वीपशा- 1 उत्तरस्थामुत्तरपश्चिमायां-वायव्यकोणे अत्रान्तरे दिक्त्रयेऽपीत्यर्थः अनाहतनाम्नो-जम्बूद्वीपाधिपतेर्देवस्य चतुर्णी 8
जम्बूवक्षन्तिचन्द्री
वर्णन सामानिकसहस्राणां चत्वारि जम्बूसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, 'तीसे णमित्यादि, कण्ठ्यं, गाथाबन्धेन पार्षद्यदेवजम्बूराहया चिः
दक्खिण'इत्यादि, दक्षिणपौरस्त्ये-आग्नेयकोणे दक्षिणस्यां अपरदक्षिणस्या-नैर्ऋतकोणे चः समुच्चये एतासु तिसपुर ॥३३॥ दिक्षु यथासंख्यं । अष्ट दश द्वादश जम्बूनां सहस्राणि भवन्ति, एवोऽवधारणे तेन नाधिकानि न न्यूनानीत्यर्थः, चः18
प्राग्वत् , अनीकाधिपजम्बूस्तृतीयपरिक्षेपजम्यूश्च गाथाबन्धेनाह–'अणिआहिवाण'इत्यादि, अनीकाधिपानां-गजादि-12 | कटकाधीशानां सप्तानां सप्तव जम्बूः पश्चिमायां भवन्ति, द्वितीयः परिक्षेपः पूर्णः ॥ अथ तृतीयमाह-आत्मरक्षका-113 ISणामनाहतदेवसामानिकचतुर्गुणानां षोडशसहस्राणां जम्ब्बः एकैकदिक्षु चतुःसहनश्सद्भावात् षोडश सहस्राणिश
भवन्ति, यद्यपि चानयोः परिक्षेपयोर्जम्बूनामुच्चत्वादिप्रमाणं न पूर्वाचायश्चिन्तितं तथापि पद्मादपद्मपरिक्षेपन्यायेन 18| पूर्वपूर्वपरिक्षेपजम्म्बपेक्षयोत्तरोत्तरपरिक्षेपजम्म्वोऽर्द्धमाना ज्ञातव्याः, अत्राप्येकैकस्मिन् परिक्षेपे एकैकस्यां पक्की ।
| क्रियमाणायां क्षेत्रसाङ्कीर्येनानवकाशदोषस्तथैवोद्भावनीयस्तेन परिक्षेपजातयस्तिनस्तथैव वाच्याः, सम्पत्यख्या एव वनत्रय-18॥३३॥ ॥ परिक्षेपान् वक्तुमाह-जंबूए ण'मित्यादि, सा परिवारेति गम्य, त्रिभिः शतिकैः-योजनशतप्रमाणैर्वनखण्डः सर्वतः ।। 18 सम्परिक्षिप्ताः, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन बाझेनेति, अधात्र यदसि तदाह-'जंबूर 'मित्यादि, जम्ब्याः सप-
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------ --------------------------------- मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९०]
गाथा:
रिवारायाः पूर्षण पश्चाशद्योजनानि प्रथमवनखण्डमवगाह्यात्रान्तरे भवनं प्रज्ञप्त, कोशमायामेन, उच्चत्वादिकथनाया-131 तिदेशमाह-स एव मूलजम्बूपूर्वशाखागतभवनसम्बन्धी वर्णको ज्ञेयः, शयनीयं चानाहतयोग्यं, एवं शेषास्वपि दक्षि-I91 णादिदिक्षु स्वस्वदिशि पश्चाशद्योजनान्यवगाह्याद्ये बने भवनानि वाच्यानि, अथात्र बने वापीस्वरूपमाह-'जंबूए णं| | उत्तरे' त्यादि, जम्बाः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे प्रथमं वनखण्डं पञ्चाशयोजनान्यवगाह्मानान्तरे चतन्नः पुष्करिण्यः || | प्रज्ञप्ताः, पताच न सूचीश्रेण्या व्यवस्थिताः किन्तु स्वविदिग्गतप्रासादं परिक्षिप्य स्थिताः, तेन प्रादक्षिण्येन तन्नामा-|| न्येवं-पद्मा पूर्वस्यां पद्मप्रभा दक्षिणस्यां कुमुदा पश्चिमायां कुमुदप्रभा उत्तरस्थां, एवं दक्षिणपूर्वोदिविदिग्गतवापीष्वपि । वाच्यं, ताश्च क्रोशमायामेन अर्द्धकोश विष्कम्भेन पञ्चधनुःशतान्युद्वेषेनेति । अथात्र वापीमध्यगतप्रासादस्वरूपमाह'तासि 'मित्यादि, तासां वापीनां चतराणां मध्ये प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ता, बहुवचनं च उक्तवक्ष्यमाणानां यापीनां || प्रासादापेक्षया द्रष्टव्यं, तेन प्रतिवापीचतुष्कमेकैकमासादभावेन चत्वारः प्रासादार, एवं निर्देशो लाघवार्थ, कोशमा-॥॥ यामेनार्द्धक्रोशं विश्कम्भेन देशोनं क्रोशमुच्चत्वेन, वर्णको मूलजम्बूदक्षिणशाखागतप्रासादवद् ज्ञेयः, एषु पानाहत-॥४॥ देवस्य क्रीडा सिंहासनानि सपरिवाराणि वाच्यानि, जीवाभिगमे त्वपरिवाराणि, एवं शेषासु दक्षिणपूर्वादिषु विदिक्षु || वाप्यः प्रासादाश्च वक्तव्याः, एतासां नामदर्शनाय गाथाद्वयं, पद्मादयः प्रागुकाः पुनः पधबन्धनद्धत्वेन संगृहीता [8| इति न पुनरुक्तिः, एताश्च सर्वा अपि सत्रिसोपानचतुर्दाराः पद्मवरवेदिकावनखण्डयुक्ताश्च बोध्या:, अथ दक्षिणपू
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सुत्रांक
[९०]
सू.९०
गाथा:
श्रीजम्बू- वस्या उत्पलगुल्मा पूर्वस्यां नलिना दक्षिणस्या उत्पलोज्ज्वला पश्चिमायां उत्पला उत्तरस्यां तथा अपरदक्षिणस्यां वक्षस्कारे द्वीपशा-18
T|| भृङ्गा भृङ्गप्रभा अञ्जना कज्जलप्रभा तथा अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया, चैवशब्दः प्राग्वत् , 18 जम्बूवृक्षन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
अधास्य वनस्य मध्यवत्तींनि कूटानि स्वरूपतो लक्षयति-'जंबूए ण'इत्यादि, जम्ब्वा अस्मिन्नेव प्रथमे वनखण्डे पौर-1 वर्णनं
स्त्यस्य भवनस्य उत्तरस्यां उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणसत्कस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणस्यां अत्रान्तरे कूटं प्रज्ञप्तं || ॥३३५॥ अष्टौ योजनान्यूयोश्चत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन, वृत्तत्वेन य एव आयामः स एव विष्कम्भ इति, मूलेऽष्ट योजनान्या-1
यामविष्कम्भाभ्यां बहुमध्यदेशभागे, भूमितश्चतुर्षु योजनेषु गतेष्वित्यर्थः, षड् योजनान्यायामविष्कम्भाभ्या, उपरि-18| | शिखरभागे चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, अथामीषां परिधिकथनाय पद्यमाह-'पणवीसे'त्यादिक, सर्व प्रथम-18 Sपाठगतऋषभकूटाभिलापानुसारेण वाच्यं, नवरं पञ्चविंशति योजनानि सविशेषाणि किश्चिदधिकानि मले परिरय । IS| इत्यादि यथासंख्यं योज्यम् , जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणैस्तु 'अदुसहकूडसरिसा सवे जम्बूणयामया भणिआ'। इत्यस्यां S| गाथायामृषभकूटसमत्वेन भणितत्वात् द्वादश योजनानि अष्टौ मध्ये घेत्यूचे, तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्यं, एषु च प्रत्येक | जिनगृहमेकैकं विडिमागतजिनगृहतुल्यमिति, अथ शेषकूटवक्तव्यतामतिदेशेनाह-'एवं सेसावि कूडा'इति, एवमुक्त-18| ॥३३५॥ भरीत्या वर्णप्रमाणपरिघ्यायपेक्षया शेषाण्यपि सप्त कूटानि बोध्यानि, स्थानविभागस्त्वयं तेषां. तथाहि-पूर्वदिग्भाविनो। भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतो द्वितीय कूटं तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य ।।
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
| पूर्वतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतसकस्य पश्चिमायां तृतीयं तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां दक्षिणापरदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतश्चतुर्थ तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणापरदिग्भाविनः || प्रासादावतंसकस्योत्तरतः पश्चम तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्योत्तरतः उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य 3 | दक्षिणतः षष्ठं तथा उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः सप्तम तथा उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वतः उत्तरपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य अपरतोऽष्टममिति, अत्रैषां स्थापना यथा यन्त्र तथा विलोकनीया, अथ जम्ब्वा नामोत्कीर्तनमाह-'जंबूए ण'मित्यादि, जम्ब्याः सुदर्शनायाःद्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मुठु-शोभनं नयनमनसोरानन्दकत्वेन दर्शनं यस्याः सा तथा, अमोघा-सफला, इयं हि स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभावस्यैवायोगात्, सुष्टु-अतिशयेन प्रबुद्धा-उत्फुल्ला उत्फुल्लफुल्लयोगादियमप्युत्फुल्ला, सकलभुवनव्यापक यशो धरतीति यशोधरा, लिहादित्वादच्,' जम्बूद्वीपो ह्यनया जम्ब्वा भुवनत्रयेऽपि विदितमहिमा ततः सम्पन्नं यथोक्तयशोधारित्वमस्याः, विदेहेषु जम्बूः विदेहजम्बूर्विदेहान्तर्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् , सौमनस्यहेतुत्वात् सौमनस्या, न हि तां पश्यतः कस्यापि मनो दुष्ट भवति, नियता सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात् नित्यमण्डिता सदा भूषणभूषितत्वात् , सुभद्रा-शोभनकल्याणभाजिनी, न यस्याः || कदाचिदुपद्रवसम्भवो महर्धिकेनानितत्वात् , चः समुच्चये, विशाला-विस्तीर्णा, चः पूर्ववत् , आयामविष्कम्भाभ्यामु
Recenese
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Receedeseperses
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------ ---------------------------------- मलं [९०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९०]
गाथा:
श्रीजम्बू- चत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात् , शोभनं जातं-जन्म यस्याः सा सुजाता, विशुद्धमणिकनकरत्नमूलद्रव्यजनिततया वक्षस्कारे
द्वीपशा- जन्मदोषरहितेति भावः, शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनाः, अपि चेति समुच्चये, अत्र जीवाभिगमादिषु जम्मूक्षन्तिचन्द्रीविदेहजम्ब्वादीनां सुदशर्नादीनां च नाम्नां व्यत्यासेन पाठो दृश्यते तत्रापि न कश्चिद्विरोध इति, 'जंबूए णं अट्ठट्ठमंग-2
| वर्णन या वृत्तिः
लगा' इति व्यक्त, उपलक्षणाद् ध्वजच्छत्रादिसूत्राणि वाच्यानीति, सम्प्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिपूच्छियुरिदमाह-12 ॥३३६॥ से केणटेण मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे गौतम ! जम्ब्वां सुदर्शनायामनाहतो नाम जम्बूद्वीपाधिपतिन
IS आता-आदरविषयीकृताः शेषजम्बूद्वीपगता देवा येनात्मनोऽनन्यसदृशं महर्दिकत्वमीक्षमाणेन सोऽनाहत इति ॥3
यथार्थनामा परिवसति, महर्द्धिक इत्यादि प्राग्वत्, स च चतुर्णा सामानिकसहस्राणां यावदात्मरक्षकसहस्राणां जम्बूद्वीपस्य जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अनाहतनाम्न्या राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चानादृताराज-ISM |धानीवास्तव्यानामाधिपत्यं पालयन् यावद्विहरति, तदेतेनार्थेन एवमुच्यते-जंबूसुदर्शनेति, कोऽर्थः।-अनादृतदेवस्य | सदृशमात्मनि महर्द्धिकत्वदर्शनमत्रकृतावासस्येति, सुष्टु-शोभनमतिशयेन वा दर्शन-विचारणमनन्तरोकस्वरूपं चिन्त-18 नमितियावत् अनाहतदेवस्य यस्याः सकाशात् सा सुदर्शना इति, यद्यष्यनाहता राजधानीप्रश्नोत्तरसूत्रे सुदर्शना
॥३३६॥ शब्दप्रवृत्तिनिमित्तप्रश्नोत्तरसूत्रनिगमनसूत्रान्तर्गते बहुष्वादशेषु दृष्टे तथापि से तेणवेण'मित्यादि निगमनसूत्रमुत्तर-18 सूत्रानन्तरमेव वाचयितणामन्यामोहाय सूत्रपाठेऽस्माभिलिखितं व्याख्यातं च, उत्तरसूत्रानन्तरं निगमनसूत्रस्यैव यौक्ति
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mtrinyay.
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------- .................----------------- मलं [१०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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गाथा:
कत्वादिति, अथापरं गौतम! यावच्छब्दाज्जम्ब्वाः सुदर्शनाया एतच्छाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तं, यन्न कदाचिन्नासीदित्या-18
दिकं ग्राह्य, नाम्नः शाश्वतत्वं दर्शितम् , अथ प्रस्तुतवस्तुनः शाश्वतत्वमस्ति नवेत्याशङ्का परिहरन्नाह-जंबुसुदंसणा' 8 इत्यादि, व्याख्याऽस्य प्राग्वत् , अथ प्रस्तावादस्य राजधानी विवक्षुराह-'कहिणं भन्ते ! अणाढिअस्स'इत्यादि, गतार्थ,
नवरं यदेव प्राग्वणितं यमिकाराजधानीप्रमाणं तदेव नेतव्यं यावदनातदेवस्योपपातोऽभिषेकश्च निरवशेषो वक्तव्य इति शेषः ॥ अथोत्तरकुरुनामार्थ पिपृच्छिषुरिदमाह
से केण?णं भन्ते! एवं शुभइ उत्तरकुरा २१, गोजमा ! उत्तरकुराए उत्तरकुरूणाम देवे परिवसइ महिन्दीए जाव पलिओबमहिए, से तेणडेणं गोअमा! एवं बुचड उत्तरकुरा २, अदुत्तरं च णति आव सासए । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे मालवंते णार्म वक्खारपब्धए पण्णत्ते, गो०! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं णीलबंतस्स वासहरपव्ववस्स दाहिणेणं उत्तरकुराए पुरथिमेणं वच्छस्स चकवट्टिविजयस्स पचत्थिमेणं एत्य ण महाविदेहे वासे माळवंते णाम बक्सारपब्बए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपढीणविच्छिपणे जंचेच गंधमावणस्स पमाण विस्वम्भो अ णवरमिमं णाणत्तं सब्यबेरुलिआमए अवसिट्ट तं चेष जाव गोममा! नब कूडा पण्णत्ता, तंजहा-सिद्धाययणकूडे० सिद्धे यमालवन्ते उत्तरकुरु कच्छसागरे रयए। सीओय पुण्णभद्दे हरिस्सहे पेव बोद्धध्वे ॥ १॥ कहिणे भन्ते! मालवन्ते वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णाम कूडे पण्णते !, गोभमा! मन्दरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं मालवंतस्स कूडस्स दाहिणपञ्चस्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णते पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिहूं तं व जाव
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
श्रीजम्पू. ५७
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मूलं [९१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
[९१
गाथा:
श्रीजम्बू-18 रायहाणी, एवं मालवन्तस्स कूडस्स उत्तरकुरुकूडस्स कच्छकूलस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहि अधा, कसरिसणासया ॥४वक्षस्कार द्वीपशा-शा
देवा, कहि णं भन्ते | मालवन्ते सागरकूडे नाम कूडे पण्णते!, गोभमा ! कच्छकूलस्स उत्तरपुरस्थिमेणं रययकूडस्स दक्खिणेणं उत्तरकुरुन्तिचन्द्रीएत्य णं सागरफूले णामं कूढे पण्णते, पंच जोअणसवाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिह तं चेव सुभोगा देवी रायहाणी उत्तरपुर थिमेण
माल्यवदा
दिवक्षस्काया वृत्तिः रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्ठा कूड़ा उत्तरदाहिणेणं अव्वा एकेणं पमाणेणं (सूत्रं ९१) राः स.९१ ॥३३७॥ 'सेकेणटेण'मित्यादि, प्रतीतं, नवरं उत्तरकुरुनामाऽत्र देवः परिवसति, तेनेमा उत्तरकुरव इत्यर्थः, अथ यस्माद-12
शत्तरकुरवः पश्चिमायामुक्तास्तं माल्यवन्तं नाम द्वितीयं गजदन्ताकारगिरि प्ररूपयति-कहिण'मित्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, 12
उत्तरसूत्रे-गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्ये-ईशानकोणे नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यामुत्तरकुरूणां पूर्वस्यां । | कच्छनामश्चक्रवत्तिविजयस्य पश्चिमायामत्रान्तरे महाविदेहेषु माल्यवन्नाम्ना वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्त इति शेषः, पूर्वदक्षि-18 णयोरायतः पूर्वपश्चिमयोविस्तीर्णः, किंबहुना विस्तरेण ?, यदेव गन्धमादनस्य पूर्वोक्तवक्षस्कारगिरेः प्रमाणं विष्कम्भश्च । तदेव ज्ञातव्यमिति शेषः, नवरमिदं नानात्व-अयं विशेषः, सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमयः, अवशिष्टं तदेव, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव'त्ति, सुलभ, नवरं उत्तरसूत्रे उक्तमपि सिद्धायतनकूटं यत्पुनरुच्यते 'सिद्धे य मालवन्ते' इति तद् गाथा- R ॥३३७॥ बन्धेन सर्वसंग्रहायेति, सिद्धायतनकूटं चः पादपूरणे माल्यवत्कूटं प्रस्तुतवक्षस्काराधिपतिवासकट उत्तरकुरुकूट-18| उत्तरकुरुदेवकूट कच्छकूट-कच्छविजयाधिपकूट सागर कूटं रजतकूटं, इदं चान्यत्र रुचकमिति प्रसिद्ध, शीताकूट-शी-18||
दीप अनुक्रम [१६३-१६५]
SimilemnitineK
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
---------------------- मूलं [९१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[९१]
गाथा:
तासरित्सुरीकूट, पदैकदेशे पदसमुदायोपचार इति सिद्धिः, चः समुच्चये, पूर्णभद्रनाम्नो व्यन्तरेशस्य कूटं पूर्णभद्रकूटम् , हरिस्सहनाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूट हरिस्सहकूट, चैवशब्दः पूर्ववत् , सम्प्रत्यमीषां स्थानप्ररूपणायाहकहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे प्रत्यासन्नमाल्यवत्कूटस्य दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे, अत्र सिद्धायतनकूटं प्रज्ञप्तमिति गम्यं, पञ्च योजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन अवशिष्टं मूलविष्कम्भादिक वक्तव्यं तदेव गन्धमादनसिद्धायतनकूटवदेव वाच्यं, यावदाजधानी भणितव्या स्यात्, अयमर्थः-सिद्धाय-|| तनकटवर्णके सामान्यतः कूटवर्णकसूत्रं विशेषतः सिद्धायतनादिवर्णकसूत्रं च यमपि वाच्यं, तन्त्र सिद्धायतनकूटे। राजधानीसूत्रं न सङ्गच्छते इति राजधानीसूत्रं विहाय तदधस्तनसूत्रं वाच्यमिति, अत्र यावच्छन्दो न संग्राहकः किन्त्व-11
वधिमात्रसूचका, यथा 'आसमुद्रक्षितीशाना'मित्यत्र समुद्रं विहाय क्षितीशत्वं वर्णितमिति, लाघवार्थमत्रातिदेशमाह18| 'एवं मालवन्तस्स' इत्यादि, एवं सिद्धायतनकूटरीत्या माल्यवत्कूटस्य उत्तरकुरुकूटस्य कच्छकूटस्थ वक्तव्यं, शेयमिति
गम्यं, अथैतानि कि परस्परं स्थानादिना तुल्यानि उतातुल्यानीत्याह-एतानि सिद्धायतनकूटसहितानि चत्वारि परस्परं IS| दिग्भिरीशानविदिग्रूपाभिः प्रमाणैश्च नेतन्यानि, तुल्यानीति शेषः, अयमर्थः-प्रथमं सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तरपूर्वस्या
दिशि ततस्तस्य दिशि द्वितीय माल्यवस्कूटं ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूटं ततोऽप्यस्यां दिशि कच्छकूट, एतानि चत्वार्यपि कूटानि विदिग्भावीनि मानतो हिमवत्कूटप्रमाणानीति, कूटसदृग्नामकाश्चात्र देवाः, अत्र 'यावत्स-5
दीप अनुक्रम [१६३-१६५]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
--------------------- मूलं [११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे सहस्राबाट माल्यवाद वसू.९२
[९१]
गाथा:
श्रीजम्बू- म्भवं विधिप्राप्ति'रिति न्यायात् सिद्धकूटवर्जेषु त्रिषु कूटेषु कूटनामका देवा इति बोध्यं, सिद्धायतनकूटे तु सिद्धा-
द्वीपशा- यतनं, अन्यथा-"छसयरि कूडेसु तहा चूलाचउ वणतरूम जिणभवणा। भणिआ जम्बुद्दीवे सदेवया सेस ठाणेसु॥१॥" न्तिचन्द्री
1 इति खोपज्ञक्षेत्रविचारे रतशेखरसूरिवचो विरोधमापद्यतेति, अथावशिष्टकूटस्वरूपमाह-'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं या वृत्तिः
सुगमम् , उत्तरसूत्रे कच्छकूटस्य चतुर्थस्योत्तरपूर्वस्यां रजतकूटस्य दक्षिणस्यामत्रान्तरे सागरकूटं नाम कूट प्रज्ञतं, पञ्च॥३३८॥ 8 योजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन अवशिष्टं मूलविष्कम्भादिकं तदेव, अत्र सुभोगानाम्नी दिकुमारी देवी अस्था राजधानी
18 मेरोरुत्तरपूर्वस्या, रजतकूटं षष्ठं पूर्वस्मादुत्तरस्यां अत्र भोगमालिनी दिकुमारी सुरी राजधानी उत्तरपूर्वस्या, अवशिष्टानि 18 शीताकूटादीनि उत्तरदक्षिणस्यां नेतव्यानि, कोऽर्थः?-पूर्वस्मात् २ उत्तरोचरमुत्तरस्यां २ उत्तरमादुत्तरस्मात्पूर्व २ दक्षि&ाणस्यां २ इत्यर्थः, एकेन तुल्येन प्रमाणेन सर्वेषामपि हिमवत्कूटप्रमाणत्वात् । अथ नवमं सहस्राङ्कमिति पृथग्निर्देष्टुमाह
कहि भन्ते! मालबन्ते हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णते!, गोअमा ! पुण्णभइस्स उत्तरेणं णीलवन्तस्स दक्खिणेणं एस्थ ण हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, एग जोअणसहस्सं उद्धं उचचेणं जमगपमाणेणं अव्वं, रायहाणी उत्तरेणं असंखेजे दीवे अण्णमि जम्बुरीवे दीवे सत्तरेणं बारस जोमणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य णं हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्सहाणामं रायहाणी पण्णता, पररासीइं जोमणसहस्साई आयामविक्सम्मेणं वे जोअणसयसहस्साई पण्णढि च सहस्साई छच छत्तीसे जोमणसए परिक्खेवणे सेसं जहा चमरचयाए रायहाणीए वहा पमाणं भाणिभव्य, महिनीए महज्जुईए, से केणद्वेणं मन्ते! एवं दुखद माकने प्रसार
दीप अनुक्रम [१६३-१६५]
8
॥३३८॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------- ------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९२]
पम्वर २१, गोभमा ! मालवन्ते णं वक्खारपब्बए तत्य तत्थ देसे तहिं २ बहवे सरिआगुम्मा णोमालिआगुम्मा जाव मगदन्तिआगुम्मा, ते णं गुम्मा दसवण्णं कुसुमं कुसुमेति, जेणे तं मालवन्तस्स चक्वारपवयस्स बहुसमरमणि भूमिभागं वायविधुअगसालामुक्पुप्फपुंजोवयारकलिसे करेन्ति, मालवंते अ इत्थ देवे महिडीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं वुभाइ, अदुत्तरं च णं जाब गिचे (सूत्र ९२)
'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! माल्यवति वक्षस्कारगिरी हरिस्सहकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! पूर्णभद्र-३॥ । स्योत्तरस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यां अत्रान्तरे हरिस्सहकूट नाम कूटं प्रज्ञप्त, एक योजनसहरमूवोच्चत्वेन । 18 अवशिष्टं यमकगिरिप्रमाणेन नेतव्यं, तदम्-'अद्धाइजाई जोअणसयाई उबेहेणं मूले एगं जोअणसहस्सं आयाम18| विक्खम्भेण'मित्यादि, आह पर:-५०० योजनपृथुगजदन्ते १००० योजनपृथु इदं कथमिति, उच्यते, अनेन गज-18 1 दन्तस्य ५०० योजनानि रुद्धानि ५०० योजनानि पुनर्गजदन्ताद्वहिराकाशे ततो न कश्चिद्दोष इति, अस्य चाधिप-13
स्थापरराजधानीतो दिक्प्रमाणायैर्विशेष इति तां विवक्षुराह-रायहाणी इत्यादि, राजधानी उत्तरस्वामिति, एतदेव | विवृणोति-'असंखेजदावे'त्तिपदं स्मारकं तेन 'मन्दरस्स पञ्चयस्स उत्तरेणं तिरिअमसंखेजाई दीवसमुदाई वीईवइचा' इति ग्राह्यम् , अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरस्यां द्वादशयोजनसहवाण्यवगाह्य अत्रान्तरे हरिस्सहदेवस्य हरिस्सहनाम्नी राजधानी प्रज्ञप्ता चतुरशीतियोजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजनलक्षे पञ्चषष्टिं च योजनसहस्राणि
दीप अनुक्रम [१६६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९२]
दीप
श्रीजम्बु- पटू च द्वात्रिंशदधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण, शेषं यथा चमरचशाया:-चमरेन्द्रराजधान्याः प्रमाणं भणितं १४वक्षस्कारे
18| भगवत्यक्के तथा प्रमाणे प्रासादादीनां भणितव्यमिति, महिद्धीए महजुईए' इति सूत्रेणास्य नामनिमित्तविषयके प्रश्न-1 सहस्राकट न्तिचन्द्रीनिर्वचने सूचिते, ते चैवं-'से केणद्वेणं भन्ते ! एवं बुबइ हरिस्सहकूडे २१, गोअमा! हरिस्सहकूडे वहवे उष्पलाई
मास्यवदया वृतिः
|पउमाई हरिस्सहकूडसमवण्णाई जाव हरिस्सहे णाम देवे अ इत्थ महिद्धीए जाव परिवसइ, से तेणडेणं जाव अदुत्तरं । ॥३३९॥ चणं गोअमा! जाव सासए णामधेजे इति, अधास्य वक्षस्कारस्य नामार्थ प्रश्नयति-से केणटेण'मित्यादि, प्रश्नार्थः
प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! माल्यवति वक्षस्कारपर्वते तत्र तत्र देशे-स्थाने तस्मिन् तस्मिन् प्रदेशे-देशैकदेशे इत्यर्थः । | बहवः सरिकागुल्माः नवमालिकागुल्माः यावन्मगदन्तिकागुल्माः सन्तीति शेषः, ते गुल्माः क्षेत्रानुभावतः सदैव पञ्चवर्ण कुसुमं कुसुमयन्ति-जनयन्ति इत्यर्थः, ते गुल्मास्तं माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य बहुसमरमणिकं भूमिभाग | वातविधुताग्रशालामुक्तपुष्पपुझोपचारकलितं कुर्वन्ति, एतदर्थः प्राग्वत् , ततो माल्यं-पुष्पं नित्यमस्यास्तीति माल्यवान है माल्यवान्नाम्ना देवश्चात्र महर्बिको यावत्पल्योपमस्थितिकः तेन तद्योगादयमपि माल्यवान् , 'अथापरं चेत्यादि, प्राग्वत् ।। । इह द्विविधा विदेहाः, तद्यथा-पूर्वविदेहा अपरविदेहाश्च, तत्र ये मेरोः प्राक् ते पूर्व विदेहाः ते च शीतया महा-18
IN ॥३३९॥ नद्या दक्षिणोचरभागाभ्यां द्विधा विभकाः, एवं ये मेरोः पश्चिमायां ते अपरविदेहास्तेऽपि तथैव शीतोदया द्विधा विभकाः, एवं विदेहानां चत्वारो भागाः दर्शिताः, सम्प्रत्यमीषु विजयवक्षस्कारादिव्यवस्थालाघवाई पिण्डार्थगत्या
अनुक्रम [१६६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
-------- मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९२]
| सूत्रकृद्दर्शयिष्यमाणरीत्या बोधनीयानां दुर्योधा इति विस्तरतो निरूप्यते, तत्रैकैकस्मिन् भागे यथायोगं माल्यवदादेर्गजदन्ताकारवक्षस्कारगिरेः समीपे एको विजयः तथा चत्वारः सरलवक्षस्कारास्तिस्रश्चान्तनद्यः, एषां सतानां वस्तू-16 नामन्तराणि षट्, सर्वत्राप्यन्तराणि रूपोनानि भवन्ति तथाऽत्र, प्रतीतमेतञ्चतसृणामङ्गुलीनामप्यन्तरालानि त्रीणीति, ततोऽन्तरे २ एकैकसद्भावात् षड् विजयाः, एते चत्वारो वक्षस्कारादय एकैकान्तरनद्याऽन्तरितास्ततश्चतुर्णामद्री-पहा णामन्तरे सम्भवत्यन्तरनदीत्रयमिति व्यवस्था स्वयमवसातव्या, तथा वनमुखमवधीकृत्यैको विजय इति प्रतिविभागं || | सिद्धा अष्टौ विजयाः चत्वारो वक्षस्कारास्तिस्रोऽन्तरनद्यो वनमुखं चैकमिति, इयमत्र भावना-पूर्व विदेहेषु माल्यवतो | गजदन्तपर्वतस्य पूर्वतः शीताया उत्तरत एको विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमो वक्षस्कारः ततोऽपि पूर्वस्यां द्वितीयो विजया ॥ ततोऽपि पूर्वस्यां प्रथमान्तरनदी, अनेन क्रमेण तृतीयो विजयः द्वितीयो वक्षस्कारः चतुर्थो विजयः द्वितीयान्तरनदी पञ्चमो विजयः तृतीयो वक्षस्कारः षष्ठो विजयः तृतीयान्तरनदी सप्तमो विजयः चतुर्थो वक्षस्कारः अष्टमो विजयः।। ततश्चैकं वनमुखं जगत्यासन्नं, एवं शीताया दक्षिणतोऽपि सौमनसगजदन्तपर्वतस्य पूर्वतोऽयमेव विजयादिक्रमो वाच्यः,18 तथा पश्चिमविदेहेषु शीतोदाया दक्षिणतो विद्युत्प्रभस्य पश्चिमतोऽप्ययमेव क्रमः, तथा शीतोदाया उत्तरतोऽपि गन्ध-15 मादनस्य पश्चिमत इति । अथ प्रादक्षिण्येन निरूपणेऽयमेव हि आद्य इति, प्रथमविभागमुखे कच्छविजयं विवक्षुराह-1
दीप अनुक्रम [१६६]
BOOR00a0000000000000000
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मूलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशा-18
ध्वक्षस्कारे कच्छविजयाम.९३
[९३]
न्तिचन्द्रीया वृतिः ॥३४०॥
Sceaerrectव्य
गाथा
कहि णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छेणामं विजए पण्णत्ते !, गोत्रमा! सीए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपवयस्स दक्सिणेणं चित्तकूडस्स वक्खारपवयस्स पचस्थिमेण मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्य पं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे पलिअंकसंठाणसंठिए गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयद्धेण य पब्बएणं छन्भागपविभत्ते सोलस जोअणसहस्साई पंच य बाणउए जोअणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं दो जोअणसहस्साई दोणि अ तेरसुत्तरे जोअणसए किंचिबिसेसूणे विक्सम्मेणंति । कच्छस्स णं विजयस्स बहुमझदेसभाए एत्थ गं वेअद्धे णाम पव्वए पण्णत्ते, जेणं कच्छं विजयं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठर, संजहा-दाहिणद्धकच्छं च उत्तरद्धकच्छ चेति, कहि णं भन्ते! जम्युद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पं०१, गोअमा! वेअद्धस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं चित्तकूडस्स बक्खारपव्ययस्स पञ्चत्थिमेणं मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं एस्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए प० उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे अट्ठ जोअणसहस्साई दोणि अ एगसत्तरे जोअणसप एकं च एगूणवीसहभागं जोअणस्स आयामेणं दो जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेरसुत्तरे जोअणस्सए किंचिविसेसूणे विषसम्मेणं पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणद्धकच्छस्स णं भन्ते! विजयस फेरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते!, गोअमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, जहा-जाव कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चैव, दाहिणद्धकल्छे णं भन्ते ! विजए मणुआणं के रिसए आवारभावपडोभारे पण्णते, गोभमा ! तेसि ण मणुआण छविहे संघयणे जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेंति । कहिण भन्ते! जम्बुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे विजए वेअद्धे णामं पव्वए!, गोममा! दाहिण
दीप अनुक्रम
[१६७
॥३४॥
-१६९]
R
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मूलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९३]
कच्छविजयरस उत्तरेणं उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणेणं चित्तकूडस्स पञ्चत्थिमेणं मालवन्तस्स वक्खारपञ्जयस्स पुरथिमेणं पत्थ णं कच्छे विजए वेभडे णाम पनए पण्णते, तंजहा--पाईणपढीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहावक्वारपबए पुढे-पुरथिमिलाए कोडीए जाव दोहिवि पुढे भरहवेअद्धसरिसए णवरं वो बाहाओ जीवा घणुपटुं च ण कायचं, विजयविक्खम्भसरिसे आयामेणं, बिक्खम्भो उच्चत्तं उबेहो तहेव च विजाहराभिओगसेडीओ तहेब, णवरं पणपण्णं २ विजाहरणगरावासा पं०, आभिओगसेडीए उत्तरिताओ सेढीओ सीआए ईसाणस्स सेसाओ सकस्सत्ति, कूडा-सिद्धे १ कच्छे २ खंडग ३ माणी ४ वेअद्ध ५ पुण्ण ६ तिमिसगुहा ७। कच्छे ८ बेसमणे वा ९ वेअद्धे होति कूडाई॥१॥ कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे पत्तरद्धकच्छे णाम विजए पण्णत्ते !, गोअमा! यद्धस्स पचयस्स उत्तरेण णीलवन्तस्स वासहरपञ्चयस्स दाहिजेणं मालवन्तस्स बक्सारपञ्चयस्स पुरस्थिमेणं चित्तकूडस्स बक्खारपव्ययस्स पञ्चस्थिमेणं एत्व णं जम्बुद्दीवे दीवे जाव सिमन्ति, तदेव णेअब सव्वं कहि णं भन्ते । जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरखकच्छे विजए सिंधुकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते, गोअमा ! मालवन्तरस वक्सारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं उसभकूडस्स पचस्थिमेणं णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणिल्ले णितंये पत्थ पं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सत्तरदृकच्छविजए सिंधुकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सहि जोअणाणि आयामविक्खम्भेणं जाव भवणं अट्ठो रायहाणी अणेअब्बा, भरहसिंधुकुंडसरिसं सब भब्ब, जाव तस्स सिंधुकुण्डस्स दाहिणिलेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्धकच्छविजयं एज्जेमाणी २ सत्ताह सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपब्बयं दालयित्ता दाहिणकच्छविजयं एज्जेमाणी २ चोदसहि सलिलासहस्सेहिं समम्गा वाहिणेणं सीयं महाणई समप्पेइ, सिंधुमहाणई पबहे अ मूले अ भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं
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गाथा
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मूलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९३]
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः ॥३४१॥
गाथा
जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्सित्ता । कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धकच्छबिजए उसभकूडे णामं पब्बए पण्णते?, गोअमा! सिंधुकुं- श्ववस्कारे डस्स पुरथिमेणं गंगाकुण्डस्स पञ्चस्थिमेणं णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धककछविजए उसहकूडे कच्छविजणाम पव्वए पण्णत्ते, अट्ठ जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणिअव्वा । कहि णं भन्ते ! या सू.९३ उत्तरकन्छे विजए गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णसे!, गोअमा! चित्तकूडस्स वक्यारपब्वयस्स पञ्चस्थिमेणं उसहकूटस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं णीलवन्तस्स वासहरपन्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्ध णं उत्तरकच्छे गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते सहि जोषणाई आयामविक्खम्भेणं तहेव जहा सिंधू जाब वणसंडेण य संपरिक्खिता । से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुधइ कच्छे विजए कच्छे विजए!, गोअमा! कच्छे विजए वेअद्धस्स पन्वयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं गंगाए महाणईए पचत्यिमेणं सिंधूए महाणईए पुरथिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं खेमाणामं रायहाणी पं० विणीआरायहाणीसरिसा भाणिअव्वा, तत्व खेमाए रायहाणीए कच्छे णामं राया समुप्पज्जइ, महया हिमवन्त जाव सर्व भरहोअवणं भाणिअव्वं निक्षमणवर्ज सेसं सतवं भाणिअव्वं जाव भुंजए माणुस्सए सुहे, कच्छणामधेने अ कच्छे इत्थ देवे महबीए जाब पलिभोवमहिईए परिवसह, से एएणद्वेणं गोअमा! एवं बुचा कच्छे विजए कच्छे विजए जाव णिचे ( सूत्रं ९३) 'कहि णं भन्ते'त्तिक भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, गौतम! शीताया ||३||
सीताया ॥३४१॥ महानद्या उत्तरस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटसरलवक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां माल्यवतो गजद-15॥ न्ताकारवक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वस्या अत्रान्तरे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम चक्रवर्तिविजेतव्यभूविभागरूपो विजयः॥
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------- ----------------------------- मूलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९३]
गाथा
प्रज्ञप्तः, सर्वात्मना विजेतव्यश्चक्रवर्त्तिनामिति विजयः अनादिप्रवाहनिपतितेयं संज्ञा तेनेदमन्वर्थमात्रदर्शनं न तु साक्षात्प्रवृत्तिनिमित्तोपदर्शनमिति, उत्तरदक्षिणाभ्यामायतः पूर्वापरविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः आयतचतुरनत्वात्, गङ्गासिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैताद्व्येन च पर्वतेन षड्भागप्रविभक्तः षट्खण्डीकृत इत्यर्थः, एवमन्येऽपि || विजया भाव्या, परं शीताया उदीच्याः कच्छादयः शीतोदाया याम्याः पक्ष्मादयो गङ्गासिन्धुभ्यां पोढा || कृताः, शीताया थाम्या वच्छादयः शीतोदाया उदीच्या वप्रादयो रकारक्तवतीभ्यामिति, उत्तरदक्षिणायतेति | विवृणोति-पोडश योजनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि द्विनवत्यधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागी योजनस्यायामेन, अत्रोपपत्तिर्यथा-विदेहविस्तारात् योजन ३३६८४ कला ८ रूपात् शीतायाः शीतोदाया वा विष्कम्भो योजन ५०० रूपः शोध्यते, शेषस्थाढ़ें . लभ्यते यथोक्तं मानं, इह यद्यपि शीतायाः शीतोदाया वा समुद्रप्रवेशे एव पञ्चशतयोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽन्यत्र तु हीनो हीनतरस्तथापि कच्छादिविजयसमीपे उभयकूलवर्त्तिनो रमणप्रदेशावधिकृत्य पश्चयोजनशतप्रमाणो विष्कम्भः प्राप्यत इति, प्राचीनप्रतीचीनेति विवृणोति-द्वे योजनसहस्र द्वे च योजनशते त्रयो
दशोत्तरे किश्चिदूने, अत्राप्युपपत्तिर्यथा-इह महाविदेहेषु देवकुरूत्तरकुरुमेरुभद्रशालवनवक्षस्कारपर्वतान्तरनदीवनमु। खव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र विजयाः, ते च पूर्वायरविस्तृतास्तुल्यविस्ताराः, तत्रैकस्मिन् दक्षिणभागे उत्तरभागे वाऽष्टौ
वक्षस्कारगिरयः, एकैकस्य पृथुत्वं पंचयोजनशतानि, सर्ववक्षस्कारपृथुत्वमीलने चत्वारि योजनसहस्राणि, अन्तरनद्यश्च
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९३]
गाथा
श्रीजम्यू- षट् एकैकस्याश्चान्तरनद्या विष्कम्भः पंचविंशं योजनशतं ततः सर्वान्तरनदीपृथुत्वमीलने जातानि सप्त शतानि पंचा-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- शदधिकानि ७५०, द्वे च वनमुखे एकैकस्य वनमुखस्य पृथुत्वमेकोनत्रिंशच्छतानि द्वाविंशत्यधिकानि २९२२, उभय- कच्छविजन्तिचन्द्री
पृथुत्वमीलने जातानि अष्टापञ्चाशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५८४४, मेरुपृथुत्वं दशसहस्राणि १००००, पूर्वा-IN या वृत्तिः
परभद्रशालवनयोरायामश्चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि ४४०००, सर्वमीलने जातानि चतुःषष्टिसहस्राणि पंचशतानि चतुर्न-1 ॥३४२॥ वत्यधिकानि ६४५९४, एतज्जम्बूद्वीपविस्तारात् शोध्यते, शोधिते च सति जातं शेष पंचत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि ||
शतानि षडुत्तराणि ३५४०६, एकैकस्मिंश्च दक्षिणे उत्तरे वा भागे विजयाः षोडश, ततः षोडशभिर्भागे हृते लब्धानि द्वाविंशतिशतानि किंचिदूनत्रयोदशाधिकानि २२१३, त्रयोदशस्य योजनस्य पोडशचतुर्दशभागात्मकत्वात् , पतावानेवैकैकस्य विजयस्य विष्कम्भः । अयं च भरतवद्वैताढ्येन द्विधाकृत इति तत्र तं विवक्षुराह-कच्छस्स 'मित्यादि, कच्छस्य विजयस्य बहुमध्यदेशभागे वैतादयः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यः कच्छ विजयं द्विधा विभशस्तिष्ठति, तद्यथा-दक्षि-19 णार्द्धकच्छ चोत्तरार्द्धकच्छं च, चशब्दौ उभयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाौँ । दक्षिणार्धकच्छं स्थानतः पृच्छन्नाह-'कहि ज- मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहनाम्नि वर्षे दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रज्ञतः, गौतम वैताळय-13॥३२॥
पर्वतस्य दक्षिणस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां मास्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्व ॥ पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे यावत् दक्षिणाकच्छो नाम विजयः प्रता, उत्तरेत्यादिविशेषण माग्य बोध्य, MSI
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
--------------------- मलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९३]
गाथा
अष्टौ योजनसहस्राणि द्वे च एकसप्तत्युत्तरे योजनशते एक चैकोनविंशतिभाग योजनस्खायामेन, एतदवोत्पतिश्च पोड-18 शसहस्रपञ्चशतद्विनवतियोजनकलाद्वयरूपात् कच्छविजयमानात् पंचाशद्योजनप्रमाणे वैताम्यव्यास (उपनीते ततोs)-18 टीकृते भवति, शेष प्राग्वद् अयं च कर्मभूमिरूपोऽकर्मभूमिरूपो वेति निर्णेतुमाह-'दाहिणद्ध'इत्यादि, दक्षिणार्ध-18
भरतप्रकरण इवेदं निर्विशेष व्याख्येय, अत्र मनुजस्वरूपं पृच्छति-'दाहिण इत्यादि, कण्ठ्यं, अथास्य सीमाकारिणं वैताळ्य 1 इति नाम्ना प्रतीतं गिरि स्थानतः पृच्छति'कहि ण'मित्यादि, स्पष्ट, नवरं द्विधा वक्षस्कारपर्वती-माल्यवचित्रकूटय-11
क्षस्कारी स्पृष्टः, इदमेव समर्थयति-पूर्वया कोव्या यावत्करणात् 'पुरथिमिलं धक्खारपश्चर्य पञ्चथिमिल्लाए कोडीए | पञ्चस्थिमिल्लं वक्खारपवयं'इति बोध्यं, तेन पौरस्त्यं वक्षस्कार-चित्रकूट नामानं पाश्चात्यया कोव्या पाश्चात्यं वक्षस्कार-माल्यवन्त, अत एव द्वाभ्यां कोटिभ्यां स्पृष्टः, भरतवैताव्यसदृशकः रजतमयत्वात् रुचकसंस्थानसंखितत्वाच,
नवरं द्वे बाहे जीवा धनु:पृष्ठं च न कर्त्तव्यमवऋक्षेत्रवर्तित्वात्, लम्बभागश्च न भरतवैताव्यसदृश इत्याह-विजयस्य 18| कच्छादेर्यो विष्कम्भः-किंचिदूनत्रयोदशाधिकद्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश आयामेन, कोऽय!-विजयस्य यो
विष्कम्भभागः सोऽस्यायामविभाग इति, विष्कम्भः-पंचाशयोजनरूपः, उच्चत्वं-पंचविंशतियोजनरूपं उद्वेधः-पंचर्षि-11 || शतिक्रोशात्मकस्तथैव-भरतवैतात्यवदेवेत्यर्थः, उच्चत्वस्य प्रथमदशयोजनातिक्रमे विद्याधरण्यौ तथैव, नवरमिति || 19 विशेषः पंचपंचाशत् २ विद्याधरनगराबासाः प्रज्ञप्ताः, एकैकस्यां श्रेणी-दक्षिणश्रेणी उत्तरश्रेणी वा, भरतवैताब्ये तु
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ..........----------------------------------------------- मलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९३]
गाथा
श्रीजम्बू- दक्षिणत: पञ्चाशदुत्तरतस्तु षष्टि गराणीति भेदः, आभियोग्यश्रेणी तथेवेति गम्यं, कोऽर्थः -विद्याधरश्रेणिभ्यामूद्ध वक्षस्कारे द्वापशा-18| दशयोजनातिक्रमे दक्षिणोत्तरभेदेन दे भवतः, अत्राधिकारात् सर्ववैताच्याभियोग्यश्रेणिविशेषमाह-उत्तरदिकस्थाः |
कच्छविजन्तिचन्द्री
IS यः सू. ९३ या वृचिः
| आभियोग्यश्रेणयः शीताया महानद्या ईशानस्य-द्वितीयकल्पेन्द्रस्य शेषाः-शीतादक्षिणस्थाः शक्रस्य-आद्यकस्पेन्द्रस्य,
8 किमकं भवति?-शीताया उत्तरदिशि ये विजयवैतादयास्तेषु या आभियोग्यश्रेणयो दक्षिणगा या उत्तरगा वा ताः ॥३४॥ 18| सर्वाः सौधर्मेन्द्रस्येति, बहुवचनं चात्र विजयवर्तिसर्ववैताब्यश्रेण्यपेक्षया द्रष्टव्यं, अथ कूटानि वक्तव्यानीति तदुद्दे-18
शमाह-कुडा'इति, व्यक्तम्, अथ तन्नामान्याह-'सिद्धे'इत्यादि, पूर्वस्यां प्रथम सिद्धायतनकूट, ततः पश्चिमदिशम-181 वलम्ब्येमान्यष्टावपि कूटानि वाच्यानि, तद्यथा-द्वितीयं दक्षिणकच्छार्द्धकूट, तृतीयं खण्डप्रपातगुहाकूटं चतुर्थ || माणीति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् माणिभद्रकूट शेष व्यक्तं, पर विजयवंताब्येषु सर्वेष्वपि द्वितीयाष्टमटे || स्वस्वदक्षिणोत्तरार्द्धविजयसमनामके यथा द्वितीयं दक्षिणकच्छार्द्धकूट अष्टममुत्तरकच्छार्द्धकूट इतराणि भरतवैतादयकूटसमनामकानीति । अथोत्तरार्द्धकच्छ प्रश्नयति-'कहि णमित्यादि, व्यक्तं, तथैव दक्षिणार्धकच्छवद् ज्ञेयं यावत्सिझन्तीति, अथैतदन्तर्वर्तिसिन्धुकुण्डं वक्तव्यमित्याह-'कहि 'मित्यादि, व्यक्त, परं नितम्बा-कटका, लाघवार्थमतिदेशमाह-'भरतसिन्धुकुण्डसरिसं सब्वं णेअई' इत्यादि, स गतार्थ, गङ्गागमेन व्याख्यातत्वात् , तत्रैव ऋषभकू.
॥३४३॥ टवक्तव्यमाह-'कहिण'मित्यादि, प्राग्वत् , अथ गङ्गाकुण्डप्रस्तावनार्थमाह-'कहि ण मित्यादि, सिन्धुकुण्डगमो निर्वि
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"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------------------
------------------- मूलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[९३]
गाथा
18 शेषः सर्वोऽपि वाच्यः, परं ततो गङ्गानदी खण्डप्रपातगुहाया अधो वैताब्यं विभिद्य दक्षिणे भागे शीतां समुपसर्पतीति,!
ननु भरते नदीमुख्यत्वेन गङ्गामुपवये सिन्धुरुपवर्णिता इह तु सिन्धुरुपवर्ण्य सा वर्ण्यते इति कथं व्यत्ययः, उच्यते, इह माल्यवक्षस्कारतो विजयप्ररूपणायाः प्रकान्तत्वेन तदासन्नत्वात् सिन्धुकुण्डस्य प्रथम सिन्धप्ररूपणा ततो गङ्गाया | इति । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते कच्छो विजयः कच्छो विजयः!, गौतम! कच्छे विजये वैताव्यस्य दक्षिराणस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां गङ्गायाः महानद्याः पश्चिमायां सिन्धोर्महानद्याः पूर्वस्यां दक्षिणार्धकच्छविजयस्य बहुमध्यदेशभागे-मध्यखण्डेऽत्रान्तरे क्षेमानान्ना राजधानी प्रज्ञप्ता, विनीताराजधानीसरशी भणितव्या, विनीता-1 वर्णकः सर्वोऽप्यत्र याच्य इत्यर्थः, तत्र क्षेमायां राजधान्यां कच्छो नाम-राजा चक्रवती समुत्पद्यते, कोऽर्थः -यस्तत्र । षट्खण्डभोक्ता समुत्पद्यते स तत्र लोकै 'कच्छ' इति व्यबहियते, अत्र वर्तमाननिर्देशेन सर्वदापि यथासम्भवं चक्रवर्युत्पत्तिः सूचिता, न तु भरत इव चक्रवर्तुत्पत्ती कालनियम इति, 'महयाहि मवन्ते'त्यादिकः सर्वो ग्रन्थो वाच्यः यावत्सर्वं भरतस्य क्षेत्रस्य ओअवणमिति-साधनं स्वायत्तीकरणं भरतस्य चक्रिण इति शेषः, निष्क्रमण-प्रवज्याप्रातेपत्तिस्तद्वर्ज भणितव्यं, भरतचक्रिणा सर्वविरतिदृहीता कच्छचक्रिणस्तु तद्ग्रहणेऽनियम इति, कियत्पर्यन्तमित्याहयावद् भुङ्क्ते मानुष्यकानि सुखानि, अथवा कच्छनामधेयश्चात्र कच्छे विजये देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति | तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-कच्छराजस्वामिकत्वात् कच्छदेवाधिष्ठितत्वाच्च कच्छविजयः २ इति, यावन्नित्य इत्यन्त-18
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"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मलं [९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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वक्षस्कारे चित्रकूट | वक्षस्कार सू.९४
सुत्रांक
903929
[९३]
दीप
श्रीजम्बू-18मन्योऽन्याश्रयनिवारणार्थकं सूत्रं प्राग्वदेव योजनीयमिति ॥ गतः प्रथमो विजयः, अथ यतोऽयं पश्चिमायामुकं
द्वीपशा- चित्रकूटं वक्षस्कार लक्षयन्नाहन्तिचन्द्रीया वृचिः
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे चासे चित्तकूडे णामं वक्खारपञ्बए पण्णते?, गोअमा 1 सीआए महाणईए उत्तरेणं
णीलवन्तरस वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं कच्छविजयस्स पुरथिमेणं सुकच्छविजयस्स पञ्चस्थिमेणं एत्व णं जम्बुद्दीवे दीवे महावि॥३४४॥
देहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपब्वए पण्णचे, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सोलसजोअणसहस्साई पञ्च व वाणउए जोअणसए दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयायेणं पञ्च जोअणसयाई विक्खम्भेणं नीलवन्तवासहरपन्वर्यतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊअसयाई उल्लेहेणं तयणतरं च णं मायाए २ उस्सेहोबेहपरिवुद्धीए परिवद्धमाणे २ सीआमहाणईअंतेणं पच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च गाऊअसवाई उज्वेहेणं अस्सखन्धसंठाणसंठिए सन्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिकवे उभयो पासि दोहिं पठमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते, वण्णओ दुल्हनि, चित्तकूडस यात्रारफावपस्स कपि बहुसपरमणिले भूमिभागे पम्पले जाव आसयन्ति, चित्तकूड़े पं भन्ते ! वक्खारपन्यए कति कृष्ण पक्षा, गोषमा ! चारि कूका पण्णचा, तंजहा–सिद्धाययणकूले चित्तकूहे कच्छकूडे मुकच्छकूडे, समा उत्तराहियेयं पकणांति, पळसं सीबाए उत्तर पळत्यए नीलान्दास बासहरपल्वयल्स बाहिणेणं एत्य गं चित्तकूड़े गाम देवे महिढीए जाब गयागी मेचि (सूर्व९४) 'कहि न मिखादि, सुलभ, नवरं भामामः पोडसमहामोजमाहिती विजाबसमान प्रक, दिया विजयक
अनुक्रम [१७०]
॥३४॥
अथ चित्रकुट-वक्षस्कारस्य वर्णनं क्रियते
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वक्षस्कार [४], ------------------------------------------ ---------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४]
दीप अनुक्रम [१७०]
ISस्काराणां च तुल्यायामत्वात् , तेन तत्करणं प्राग्वदेव, विष्कम्भे तु पञ्च योजनशतानीति विशेषस्तेन, ननु सानि कथ-II 18| मिति, उच्यते, जम्बूद्वीपपरिमाणविष्कम्भात् षण्णवतिसहस्त्रेषु शोधितेषु भवशिष्टानि चत्वारि सहस्राणि एकस्मिन 8
दक्षिणभागे उत्तरे वाऽष्टौ वक्षस्कारगिरयस्ततोऽष्टभिविभज्यन्ते, ततः सम्पद्यते वक्षस्काराणां प्रत्येकं पूर्वोक्तो विष्कम्भः, IRIइह हि विदेहेषु विजयान्तरनदीमुखवनमेवादिव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र वक्षस्कारगिरयस्ते पूर्वापरविस्तृताः सर्वत्र तुल्य-12 18 विस्तारास्ततोऽस्य करणस्यावकाशः, तत्र विजयषोडशकपृथुत्वं पंचत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षडुत्तराणि ३५४०६,
अन्तरनदीषट्कपृथुत्वं सप्त शतानि पंचाशदधिकानि ७५० मेरुविष्कम्भपूर्वापरभद्शालवनायामपरिमाणं चतुःपंचाशसहस्राणि ५४००० मुखवनद्वयपृथुत्वमष्टापञ्चाशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५८४४, सर्वमीलने जातानि षण्णपनिसहखाणि ९६००० इति, तथा नीलवर्षधरपर्वतसमीपे चत्वारि योजनशतान्यूचोंचत्वेन चत्वारि मन्यूतशतानि | उद्वेधेन तदनन्तरं च मात्रया २-क्रमेण २ उत्सेधोद्वेधपरिवृझ्या परिवर्द्धमानः२, यत्र यावदुश्चत्वं तत्र तञ्चतुर्थभाग उद्वेध इति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यामधिकतरोरभवन्नित्यर्थः, शीतामहानद्यन्ते पंचयोजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन पंचमब्यूतमतान्युद्धेधेन, अत एवाश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः प्रथमतोऽतुङ्गत्यात् क्रमेणान्ते तुङ्गत्वात्, सर्वरत्नमयः, शेषं प्राग्वत् । अथास्य शिख-IS एसौभाग्यमावेदयति-चित्तकूडस्स 'मित्यादि, व्यक्तं, अधात्र कूटसङ्ख्यार्थ पृच्छति-चित्तकूडे इलादि, पदयोजना सुलभा, भावार्थस्त्वयम् -परस्परमेवानि चत्वार्यपि कूटानि उत्तरदक्षिणभावेन समानि-तुल्यानीस्यर्थः, तथाहि-प्रथम ||
Deceases
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------------
------- मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे शेषविज
द्वीपश्चा
प्रत सूत्रांक [९४]
दीप
अनुक्रम [१७०]
श्रीजम्ब-18|| सिद्धायतनकूटं द्वितीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटं च सिद्धायतनकूटस्योत्तरस्यां, एवं प्राक्तनं प्राक्तनं अग्रेत-1
नाद् अग्रेतनादक्षिणस्या अग्रेतनमतनं पाकनात् २ उत्तरस्यां ज्ञेयं, तहिं शीतानीलवतोः कस्यां दिशि इमानीत्याह- न्तिचन्द्री
प्रथमकं शीताया उत्तरतः चतुर्थकं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणत इति, सूत्रपाठोतक्रमबलात् द्वितीयं चित्रनामक या वृतिः
प्रथमादनन्तरं ज्ञेयं, तृतीयं कच्छनामकं चतुर्थादाक् ज्ञेयमिति, चित्रकूटादिषु वक्षस्कारेष्वेवं कूटनामनिवेशे पूर्वेषां | ॥३४५॥ ॥ सम्प्रदायः सर्वत्राद्यं सिद्धायतनकूट महानदीसमीपतो गण्यमानत्वाद् द्वितीयं स्वखवक्षस्कारनामकं तृतीयं पाश्चात्य
विजयनामक चतुर्थ प्राच्यविजयनामकमिति, अथास्य नामार्थ प्ररूपयति-'एत्थ ण'मित्यावि, अत्र चित्रकूटनामा देवः परिवसति तद्योगाच्चित्रकूट इति नाम, अस्य राजधानी मेरोरुत्तरतः शीताया उत्तरदिग्भाविवक्षस्काराधिपतित्वात् , एवमग्रेतनेष्वपि वक्षस्कारेषु यथासम्भवं वाच्यमिति ॥ गतः प्रथमो वक्षस्कारः, अधुना द्वितीयविजयप्रश्नावसर:कहि णं भन्ते! जम्बुडीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजए पण्णत्ते!, गोमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पञ्चस्थिमेणं चित्तकूडस्स बक्सारपव्ययरस पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीवे .. दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजए पण्णते, उत्तरदाहिणायए जहेब कच्छे विजए तहेव सुकरछे विजए, णवर नेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुप्पज्जा तहेव सव्वं । कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे पण्णत्ते !, गो० मुकच्छविजयस्स पुरस्थिमेणं महाकच्छरस विजयरस पञ्चस्थिमेणं णीलवन्तस्स चासहरसव्वयस्स दाहिणिले णितम्बे एत्थ णं जम्यु
॥३४५॥
अथ महाविदेहक्षेत्रस्य द्वितिय-विजयस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ---------------------- --------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
गाथा:
दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे णामं कुण्डे पण्णते, जहेब रोहिअंसाकुण्डे नहेब जाव गाहावइदीवे भवणे, तस्स णं गाहावइस्स कुण्डस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहाबई महाणई पबूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभवमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीजे महाणई समप्पेइ, गाहावई णं महाणई पवहे अ मुहे अ सम्वत्थ समा पणवीसं जोअणसयं विक्खम्भेणं अद्धाइजाई जोअणाई उज्बेहेणं उभओ पासिं दोहि अ पउगवरवेइाहिं दोहि अ वणसण्डेहिं जाव दुहवि षण्णओ इति । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजये पण्णत्ते , गोअमा! णीलंबन्तरस वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं पम्ह कूडस्स वक्खारपब्वयस्स पचत्थिमेणं गाहावईए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकल्छे णामं विजए पण्णते, सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्व देवे महिडीए अहो अ भाणिभव्यो। कहि णं भन्ते ! महाविदेहे बासे पम्हकूड़े णामं वक्खारपब्बए पण्णचे, गोअमा! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरथिमेणं कच्छाचईए पशत्थिमेण एस्थ णं महाविदेहे वासे पम्हफूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सेसं जहा चित्तकूटस्स जाव आसयन्ति, पम्हकूडे चत्तारि कूडा पं० २०-सिद्धाययणकूले पम्हकूडे महाकच्छकूड़े कच्छावाकूडे एवं जाव अट्ठो, पम्हकूडे इत्थ देवे महद्धिए पलिओवमठिईए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं चुगद । कहि णं भन्ते! महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम विजए पं०१, गो०! णीलवन्तस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेण दहावतीए महाणईए पचरिथमेण पम्हकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ ण महाविदेहे वासे करछगावती णामं विजए पं० उत्तरदान हिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छगावई अ इत्य देवे, कहि ण भन्ते! महाविदेहे वासे
esesesesesesesesecessaecseceae
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वक्षस्कारे यादि सू.
शेषविज
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः
[९५]
॥३४६॥
गाथा:
दहावई कुण्ड गाम कुण्डे पण्णत्ते!, गोअमा! आवत्तस्स विजयस्स पञ्चत्यिमेणं कच्छगाचईए विजयस्स पुरथिमेणं णीलवन्तस्स दाहिणिले णितंये एत्थ ण महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पं० सेसं जहा गाहावईकुण्डरस जाव अट्ठो, तस्स ण दहाबईकुण्डस्स दाहिणणं तोरणेणं दहाबई महाणई पवूढा समाणी कच्छावईआबचे विजए दुइा विभयमाणी २ दाहिणेणं सीखें महाणई समापेड़, सेसं जहा गाहावईए । कहि पं भन्ने! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते १, गोभमा ! णीलयन्तस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं णलिणकूडस्स वक्खारपवयस्स पञ्चस्थिमेण दहावतीए महाणईए पुरस्थिमेणं एस्थ महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णते, सेसं जहा कच्छरस विजयस्स इति । कहि गं भन्ते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं बक्सारपब्वए पण्णचे !, गो०! पीलवन्तस्स दाहिणेणं सीआए उत्तरेणं मंगळावइस्स विजयस्स पत्थिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ पं महाविदेहे वासे गलिगकूडे णामं वक्खारपब्बए प्राणचे, उत्तरदाहियए पाईणपडीणविच्छिष्णे सेसं जहा चित्तकूडरस जाव आसयन्ति, णलिणकूड़े णं अन्ते! ऋतिकुटा पं०१, ग्रोअमा! पत्तारि कूड़ा पण्णता, संजहा-सिद्धाययणकूडे णलिणकूढे आवंचकूडे अंपळाबतकडे, ए छुड़ा मामा. रायहाणीनो उत्तरेणं । कहि व भन्ते! महाविदेहे से मंगलावत्ते ग्रामं विजए पण्णते?, गोममा शीलबन्नस बक्सिम्मेण सीमाए इच्चरेवं गठिणहस्स पुरत्यिमे पंकावईए पञ्चत्यिमेणं पत्थ ण मंगलाक्चे णाम बिखए णजे, जहाछमा विजए. बहा एसो आणिग्रन्बो पचन प्रयामते अब देने परिवसइ, से एछामं । कहि भन्ते । महासिवेरे
पाई एकाने, हेमा मसाल सिमो पुलकविजयास आत्यिक गोलमाल-भारती, यथा
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
॥३४६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------- ......---------------------------- मल [९५] + गाथा : पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
Recenesses
गाथा:
वई जाव कुण्ठे पण्णते तं चेव गाहावइकुण्डपमाणं जाव मंगलावत्तपुक्खलावतविजये दुहा विभयमाणी २ अवसेससं वजथेच गाहाकईए । कहि गं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलाबते णाम विजए पण्णत्ते !, गोअमा! णीलवन्तस्स दाहिजेणं सीआए उत्तरेणं पंकावईए पुरस्थिमेण एकासेलस्स बक्खारपब्वयस्स पचत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावते णाम विजए पण्णत्ते जहा कच्छविजए तहा भाणिभवं जाब पुक्खले अ इत्य देवे महिदिए पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से एएणड्डेण० कहिणे भन्ते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपवए पं०१, गो०! पुक्खलावत्तचकवट्टिविजयस्स पुरस्थिमेण पोक्खलावतीचकवट्टिविजयस्स पचत्यिमेणं णीळयन्तस्स दक्खिणेणं सीआए उत्तरेणं, एस्थ ण एगसेले णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते चित्रकूडगमेणं अव्यो जाव देवा आसवन्ति, चत्तारि कूडा, तं०सिद्धाययणकूडे एगसेलकूडे पुक्खलाबत्तकूढे पुक्खलाबई कूडे, कूठाणं तं चेव पञ्चसइ परिमाणं जाव एगसेले अ देवे महिद्धीए । कहि ण भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलाई णामं चक्रवट्टिविजए पण्णत्ते !, गोअमा, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं सीआए उत्तरेणं उन्तरिहस्स सीभामुहवणस्स परथिमेणं एगसेलस्स बक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं, एत्व ण महाविदेहे वासे पुक्खलाबई णाम विजए पश्यन्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई अ इत्थ देवे परिवसइ, एएणतुणं । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे सीआए महाणईए उत्तरिले सीआमुइवणे णाम वणे ५०, गोजमा! णीलवन्तस्स दक्षिणेणं सीमाए उत्तरेणं पुरत्थिमालवण्यसमुहस्स पचत्यिमेणं पुक्खलावद्दचकवट्टिविजयस्स पुरस्थिमेणं, एत्य णं सीआमुहवणे णार्म वणे पणते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिष्णे सोळसजोअणसहस्साई पञ्च य वाणवए जोमणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं सीआए महार्णइए अन्तेणं दो जोअणसहस्साई नव य बाबीसे जोअणसए विक्खम्भेणं तयणतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------- --------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५]
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्री
या वृतिः ।
॥३४७॥
गाथा:
भीलवन्तवासहरपन्नयंतेणं एवं एगूणवीसहभागं जोअणस्स विक्रमेणंति, से गं एगाए पउमवरनेइमाए एगेण व वणसण्टेणं ४वक्षस्कारे संपरिक्खित्तं वण्णो सीआमुहवणस्स जाव देवा आसयन्ति, एवं उत्तरिलं पास समत्तं । विजया भणिआ । रायहाणी) इमाओ-खेमा १ खेमपुरा २ चेव, रिहा ३ रिटुपुरा ४ तहा । खरगी ५ मंजूसा ६ अविअ, ओसही ७ पुढंरीगिणी ८॥१॥ सोउस विज्जाहरसेडीओ तावइआओ अमिओगसेढीओ सन्बाओ इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजण्मु कच्छवत्तच्चया जाव अट्ठो राषाणो सरिसणामगा विजएसु सोलसण्डं वक्खारपब्बयाणं चित्तकूडवत्तन्वया जाव कूडा चत्वारि २ बारसण्डं गईणं गाहावइबत्तनया जाव उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइआर्हि वणसण्डेहि अ वण्णओ (सूत्र ९५)
'कहि णमित्यादि, सर्व सुगम कच्छतुल्यवक्तव्यत्वात् , नवरं खेमपुरा राजधानी सुकच्छस्तत्र राजा चक्रवत्ती समुत्पद्यते, विजयसाधनादिकं तथैव सर्व वक्तव्यमिति शेषः । उक्तः सुकच्छः, अथ प्रथमान्तरनद्यवसर:- कहिणं भन्ते । इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावत्या अन्तरनद्याः कुण्ड-प्रभवस्थानं ग्राहावती-18 | कुण्डनाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! सुकच्छस्य विजयस्य पूर्वस्यां महाकच्छस्य विजयस्य पश्चिमायां नीलवतो वर्षधर-16 पर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे, अत्र-सामीपिकेऽधिकरणे सप्तमी तेन नितम्बसमीपे इत्यर्थः, अत्र जम्बूद्वीपे द्वीपे महा-१॥३४७॥ विदेहे वर्षे प्राहावतीकुण्डं प्रज्ञप्तं, यथैव रोहितांशाकुण्डं तथेदमपि विंशत्यधिकशतयोजनायामविष्कम्भमित्यादि-18 रीत्या ज्ञेयं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद् ग्राहावती द्वीपं भवनं चेति, उपलक्षणं चैतत् , तेनार्थेन सूत्रमपि भावनीयम् ।
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ...--------------------------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
गाथा:
| तथाहि-से केणद्वेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ गाहावई दीवे गाहावई दीवे ?, गोअमा। गाहावई दीवे गं बहूई उप्पलाई
जाव सहस्सपत्ताई गाहावईदीवसमप्पभाई समवण्णाई' इत्यादि, अथास्माद्या नदी प्रवहति तामाह-'तस्स ण'मित्यादि || | व्यक्तं, नवरं पाहा:-तन्तुनामानो जलचरा महाकायाः सन्त्यस्यामिति ग्राहावती, मतुष्प्रत्यये मस्य वत्वे डीप्रत्यये ।
रूषसिद्धिः दीर्घत्वं चात्राकृतिगणत्वात् 'अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मता' (श्रीसिद्ध०अ०३पा०२ सू०७८) वित्य-5 |नेन, महानदी प्रव्यूढा सती सुकच्छमहाकच्छौ विजयी द्विधा विभजन्ती २ अष्टाविंशत्या नदीसहस्रः समना-सहिता | दक्षिणेन भागेन-मेरोदक्षिणदिशि शीता महानदी समुपसर्पति, अथास्य विष्कम्भादिकमाह-गाहावई ण'मित्यादि,
ग्राहावती महानदी प्रबहे-ग्राहावतीकुण्डनिर्गमे मुखे-शीताप्रवेशे च सर्वत्र मुखप्रवहयोरन्यत्रापि स्थाने समा-समIS|| विस्तरोद्वेधा, एतदेव दर्शयति-पंचविंशत्यधिक योजनशतं विष्कम्भेन, अर्द्धतृतीयानि योजनान्युद्वेधेन, सपादशत
योजनानां पंचाशत्तमभागे एतावत एव लाभात् , पृथुत्वं च प्राग्वत् , तथाहि-महाविदेहेषु कुरुमेरुभद्रशालविजयवक्षस्कारमुखवनव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रान्तरनद्यः, ताश्च पूर्वापरविस्तृतास्तुल्यविस्तारप्रमाणास्तत एव तत्करणावकाशः,
तत्र मेरुविष्कम्भपूर्वापरभद्रशालवनायामप्रमाणं चतुःपंचाशत्सहस्राणि विजय१६पृथुत्वं पंचत्रिंशत्सहस्राणि चतु:॥ शतानि षडुत्तराणि वक्षस्कार ८ पृथुत्वं चत्वारि सहस्राणि मुखवनद्वय २ पृथुत्वं ५८४४, सर्वमीलनेन नवनवतिसह-II
खाणि द्वे शते पंचाशदधिके, एतज्जम्बूद्वीपविष्कम्भलक्षाच्छोध्यते शोषिते च जातं सप्तशतानि पंचाशदप्राणि, एतच्चर
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------------------------------------------ मुलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९५]]
श्रीजम्मू- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३४८||
Roceae
गाथा:
दक्षिणे उत्तरे वा भागेऽन्तरनद्यः षट् सन्तीति पभिविभज्यते लब्धः प्रत्येकमन्तरनदीनामुक्तको विष्कम्भ इति, आया- वक्षस्कारे | मस्तु विजयायामप्रमाणविजयवक्षस्कारान्तरनदीमुखवनानां समायामकत्वात् , ननु 'जावइया सलिलाओ माणुसलोगमि | शेष विजसबंमि ॥ २९ ॥ पणयालीस सहस्सा आयामो होइ सबसरिआणं' इति वचनात् कथमिदं सङ्गच्छते?, उच्यते, यादि सू. | इदं वचनं भरतगङ्गादिसाधारण, तेन यथा तत्र नदीक्षेत्रस्याल्पत्वेनानुपपत्तावुपपत्त्यर्थं कोट्टाककरणमाश्रयणीयं तथा-।। |ऽत्रापि, अत्र श्रीमलयगिरिपादाः क्षेत्रसमासवृत्ती जंबूद्वीपाधिकारे एताश्च पाहावतीप्रमुखा नद्यः सर्वा अपि सर्वत्र कुण्डाद्विनिर्गमे शीताशोतोदायाः प्रवेशे च तुल्यप्रमाणविष्कम्भोद्वेधा इत्युक्त्वा यत्पुनर्धातकीखण्डपुष्करार्दाधिकारयोर्नदीनां द्वीपे द्वीपे द्विगुणविस्तारं व्याख्यानयन्तः प्रोचुः यथा जम्बूद्वीपे रोहितांशारोहितासुवर्णकूलारूप्यकूलानां ग्राहावत्यादीनां च द्वादशानामन्तरनदीनां सर्वाग्रेण पोडशानां नदीनां प्रवाहविष्कम्भा द्वादशयोजनानि सार्दानि | | उद्वेधः क्रोशमेक समुद्रप्रवेशे ग्राहावत्यादीनां च महानदीप्रवेशे विष्कम्भो योजन १२५ उद्वेधो योजन २ क्रोश २॥3॥ इति तन्न पूर्वापरविरोधि, यतस्तत्रैव तैः "अत्र लघुवृत्त्यभिप्रायेण प्रबहप्रवेशयोर्विशेषोऽभिहित" इति कथनेन समाहितम् , एषमन्योऽपि लघुवृत्तिगतस्तत्राभिप्रायो दर्शितो वर्तते, उभयत्रापि तत्त्वं तु सर्वविदो विदन्ति, किंच-आसवं सर्वत्र ॥३४८॥ समविष्कम्भत्वे आगमवद्युतिरप्यनुकूला, तथाहि-आसां विष्कम्भवैषम्य उभयपार्चवर्तिनोविजययोरपि विष्कम्भवैषम्यं स्यादिष्यते च समविष्कम्भकत्वमिति, शेष व्यक्तमिति, अथ तृतीय विजयं, प्रश्नयनाह-'कहि 'मित्यादि,
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------ --------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
गाथा:
स्पष्टं, नवरं यावत्पदात् 'तत्थ णं अरिद्वाए रायहाणीए महाकच्छे णामं राया समुपजइ, महया हिमवन्त जाच सर्व भरहोअवणं भाणिअब, णिक्खमणवज सेसं भाणिअब, जाव मुंजइ माणुस्सए सुहे, महाकच्छणामधेजे' इति ग्राह्य, ईदृशेनाभिलापेनार्थो महाकच्छशब्दस्य भणितव्यः। सम्पति ब्रह्मकूटप्रश्नः--'कहि 'मित्यादि, सर्व व्यक, ब्रह्मकू-18 टनामा द्वितीयो वक्षस्कारः चित्रकूटातिदेशेन यावत्पदादायामसूत्रादिकं भूमिरमणीयसूत्रान्तं च सर्व वाच्यम् । अथात्र || || कूटवक्तव्यतामाह-प्राकूडे चत्तारि कूडा'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं एवं चित्रकूटवक्षस्कारकूटन्यायेन वाच्यं, यावत्क-18 | रणात् समा उत्तरदाहिणेणं परुष्परंतीत्यादि प्राय, अर्थो-ब्रह्मकूटशब्दार्थः, 'से केणटेणं भन्ते! एवं चुचाइ-माकडे||%
' इत्यालापकेन उल्लेख्यः, ब्रह्मकूटनामा देवश्चात्र पस्योपमस्थितिकः परिवसति, तदेतेनार्थेनेति सुगमं। अथ चतुर्थ-18 विजयः-'कहिण'मित्यादि, व्यक्तं, परं द्रहावत्याः अन्तरनद्याः पश्चिमायां कच्छगावतीविजयः कच्छा एवं कच्छका:-8
मालुकाकच्छादयः सन्त्यस्यामतिशांयिन इति 'अनजिरेति सूत्रे (श्रीसि०अ०३पा०२सू०७८) शरादीनामाकृतिगणत्वेन || सिद्धिः, शेष प्राग्वत् , अथायमनन्तरोत्तो विजयो यस्याः पश्चिमायां तामन्तरनदी लक्षयितुमाह-कहिण'मित्यादि, 12
प्रश्नसूत्रं व्यकं, उत्तरसूत्रे आवर्तनाम्नः पूर्वदिग्वर्तिनो विजयस्य पश्चिमायां कच्छावत्या विजयस्य पूर्वस्यां यावद् द्रावतीAS कुण्ड नाम कुण्डं प्रज्ञवं शेषं यथा ग्राहावतीकुण्डस्य स्वरूपाख्यानं पाहावतीद्वीपपरिमाणभवनवर्णकनामार्थकथनप्रमुखं ।
तथा ज्ञेयं, नवरं द्रहावतीद्वीपो द्रहावतीदेवीभवनं द्रहावतीप्रभपनादियोगाद् द्रहावतीति नामार्थः समधिगम्यः, द्रहा
cerseatseenaceaeeacaceae
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
श्रीजम्यू.५
TA
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 अगाधजलाशयाः सन्त्यस्यामिति द्रहावती साधनिकाप्राग्वत्,अथ यथेयं महानदी समुपैति तथाऽऽह-'तस्स णमित्यादि |
ह-तस्सणामित्यादि, वक्षस्कारे द्वीपशा- |उक्तमायम,अथ पञ्चमो विजयः-'कहिण'मित्यादि,व्यक्तम् ,अथ तृतीयो वक्षस्कार:-'कहिण'मित्यादि,सूत्रद्वयमपि व्यक्तं,
शेषविजन्तिचन्द्री- नवरं द्वितीयसूत्रे कूटानि पञ्चशतिकानि-पंचशतप्रमाणानीति, अथ षष्ठो विजया-'कहिण'मित्यादि, स्पष्ट, पावत्या- | यादि . या वृत्तिः
॥ स्तृतीयान्तरनया इति, अथ तृतीयान्तरनद्यवसर:-'कहि ण'मित्यादि, प्रायः प्राग्वत् , नवरं पङ्कोऽतिशयेनास्त्यस्या॥३४९॥ मिति पावती प्राग्वद्भपसिद्धिः, अथ सप्तमविजयावसर:-'कहिण'मित्यादि व्यक्तं, अथ चतुर्थवक्षस्कार:-'कहिण'-18
मित्यादि, सर्व स्पष्ट, नवरं पुष्कलावतः सप्तमो विजयः स एव चक्रवर्तिविजेतव्यत्वेन चक्रवत्ति विजय इत्युच्यते, एवं | पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयोऽपि बोध्यः, सम्पत्यष्टमो विजयः-'कहि णं भन्ते । महाविदेहे इत्यादि, प्रकटार्थ, ISI || नवरं औत्तराहस्य शीतामहानद्या मुखवनस्य-अनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणस्वरूपस्य शीतामहानदीनीलवद्वर्षधरमध्यवर्तिमुख-18॥
वनस्य पश्चिमायामित्यर्थः, दाक्षिणात्यापछीतामुखवनादयं वायव्यां स्यादिति औत्तराहग्रहणमिति, अथानन्तरमेवोक्तं ।। || शीतामुखवनं लक्षयज्ञाह-'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त! महाविदेहे वर्षे शीताया महानद्या उत्तरदिग्पर्तिशीतायाः181 8 मुखे-समुद्रप्रवेशे वनं शीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् , अत्र शीतामुखेत्यनेन शीतोदावनमुखद्वयं उत्तरेत्यनेन च 18|| दाक्षिणात्य शीतामुखवन निरस्त, तथाहि-चत्वारि मुखवनानि-एक शीतानीलवतोर्मध्ये १ द्वितीयं शीतानिषधयोः |
तृतीयं शीतोदा निषधयोः ३ चतुर्थं शीतोदानीलवतोः ४ एषां मध्ये आद्यस्यैव शीतात उत्तरेण दर्शनात्, गौतम! ॥३४९॥
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
poecececenese
गाथा:
नीलवतो दक्षिणस्यां शीताया उत्तरस्यां पौरस्त्यलघणसमुद्रस्य पश्चिमायां पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयस्य पूर्वस्या अत्रान्तरे॥ शशीता मुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ,उत्तरदक्षिणायतेयादिविशेषणानि विजयवद्वाच्यानि,इह विजयवक्षस्कारगिर्यन्तरनद्यः |
सर्वत्र तुल्यविस्ताराः वनमुखानि तु निषधसमीपे नीलवत्समीपे चाल्पविष्कम्भानि शीताशीतोदोभयकूलपार्थे तु पृथुवि। कम्भानि जगत्यनुरोधात्,तथाहि-पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि निषधानीलवतो वाऽऽरभ्य जगती वक्रगत्या शीतां शीतोदां। | वा प्राप्ता, जगतीसंस्पर्शवतीनि च मुखवनानि, ततस्तदनुरोधाद् दर्शयति-शीतामहानद्यन्ते द्वे योजनसहने नव च द्वाविं
| शत्यधिकानि योजनशतानि विष्कम्भेन, अत्रोपपत्तिः प्राग्वत् , विजयवक्षस्कारायन्तरनदीमेरुपृथुत्वपूर्वापरभद्रशालवना1 याममीलने जातानि ९४१५६,अस्य राशेर्जम्बूद्वीपपरिमाणात् शोधने शेष ५८४४, अस्य शीताशीतोदयोरेकस्मिन् दक्षिणे
उत्तरे वा भागे द्वे मुखयने इति द्वाभ्यां भागे हते आगतानि द्वाविंशत्यधिकान्येकोनत्रिंशद्योजनशतानि २९२२,
अन च तेवीसे इति पाठोऽशुद्धः, एतच्च पृथुत्वपरिमाणं न सर्वत्र शीताशीतोदयोर्मुखप्रत्यासत्तावेतत्करणावकाशादत्रैव || महाविदेहवर्षस्य सर्वोत्कृष्ट विस्तारलाभादित्याह-तदनन्तरं च मात्रया २-अंशेनांशेन परिहीयमानं २-हानिमुपगच्छद्
नीलबद्वर्षधरपर्वतान्ते एकमेकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेन,एकां कलां यावत्पृथुत्वेनेत्यर्थः, 'कालाध्वनोाप्ता(श्रीसिद्ध० अ०२पा०२ सू०४२) वित्यनेन द्वितीया, अत्र करणं-मुखवनानां सर्पलघुर्विष्कम्भो वधरपा ततो वर्षधरजीवात इदं करणं समुत्तिष्ठति, तथाहि-प्रस्तुते नीलवज्जीवा चतुर्नवतिसहस्राणि शतमेकं षट्पञ्चाशदधिकं योज
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
गाथा:
|| नानां दे चैकोनविंशतिभागरूपे कले योजनस्य ९४१५६ कला २, अथ पूर्वोक्तानि विजय १६ वक्षस्कारः ८ अन्तर-1 श्रीजम्बू-1
वक्षस्कारे || नदी ६ गन्धमादन १ माल्यवत् १ गजदन्तपृथुत्वोत्तरकुरुजीवापरिमाणान्येकत्र मील्यन्ते, जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि ॥ न्तिचन्द्री-10 शतमेकं षट्पश्चाशदधिकं ९४१५६, एतस्मिन् प्रागुक्काज्जीवापरिमाणाच्छोधिते शेष द्वे कले तत् एकस्मिन् दक्षिणे या वृत्तिः 8 उत्तरे वा भागे शीताशीतोदासत्के द्वे बने इति द्वाभ्यां भज्यते आगतैका कला इति, ननु विजयवक्षस्कारादीनां सर्वत्र ॥३५०॥
| तुल्यविस्तारकत्वेन वनमुखानां च वर्षधरसमीपे एककलामात्रविष्कम्भकत्वेन सप्तदशकलाधिकैकोनविंशयोजनशतप्र-|| 18|माणः शेषजम्बूद्वीपक्षेत्रविभागः कुत्रान्तर्भावनीयः, उच्यते, अत्र जगत्या वृत्तत्वेन सङ्कीर्णभूतत्वात् समाधेयं, अय-||
मर्थ:-पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि निषधान्नीलवतो वा आरभ्य जगती वक्रगल्या शीताशीतोदे प्राप्ता, जगतीसंस्पर्श|वत्तीनि च वनमुखानि ततस्तदनुरोधात् वर्षधरसमीपे तेषां स्तोको विष्कम्भः शीताशीतोदासमीपे तु भूयानिति, एपा| मिष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय सूत्रेऽनुक्तमपि प्रसङ्गगत्या करणमुच्यते-अतिक्रान्तं योजनादिकं गुरुपृथुत्वेन २९३२ इत्येवंरूपेण गुण्यते, गुणितश्च योजनराशिः कलीकरणार्थमेकोनविंशत्या गुण्यते, तन्मध्ये च गुरुपृथुत्वगणितः कलाराशिः प्रक्षिप्यते, ततः कलीकृतेन बनायामपरिमाणराशिना हियते, ततो लभ्यते इष्टस्थाने बनमुखविष्कम्भः, यथा ॥३५०॥ यथा निषधान्नीलवतो वा षोडशसहस्राणि पंच शतानि बिनवत्यधिकानि योजनानां द्वे च कले इत्येतावद् गत्वा वि-18 कम्भो ज्ञातुमिष्टः तेनैष राशिर्धियते १६५९२ कला २, घृत्वा च एकोनत्रिंशच्छतैर्वाविंशत्यधिकैर्गुण्यते, जातो योज-18
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४],-------------......... .--------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९५]]
गाथा:
क नराशिः ४८४८१८२४, कलायमपि २९२२ अनेनैव गुण्यते जातः कलाराशिः ५८४४, ततो योजनराशी ४८४८-18 II १८२४ सर्वर्णिते जातं ९२११५४६५६ ततः कलाराशिः ५८४४ क्षेपे जातं ९२११६०५०० ततोऽस्य मुखबनाया| मेन १६५९२ सवर्णितेन कलाद्वययुक्तेन ३१५२५० भागे हृते लब्ध इष्टस्थाने २९२२ योजनरूपो विष्कम्भः, एव-18 मन्यत्रापि भावनीयम् । अथास्य पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह-से गं एगाए पउ०'इत्यादि, तम्मुखवनमेकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सम्परिक्षिप्तम् । अथ शीतामुखवनस्य वर्णको वाच्यः-किण्हे किण्होभासे इत्यादि,
का कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद्देवता आसते शेरते इत्यादि, अत्र विजयदिशि पावरवेदिका गोपिका लवणदिशि तु ||जगत्येव गोपिका इत्येका, इयं च पद्मवरवेदिका जगतीवन्मुखवनव्यास एवान्तलींना, यत्र तु वनव्यासः कलाप्रमा
णस्तत्र विजयव्यासं रुणद्धीति तात्पर्य, अन्यथा विजयादिभिर्जम्बूद्वीपस्य परिपूर्णलक्षपूर्तावुभयतो जगल्यादेः काबकाशः स्यात्, अत एवाह-"अविवक्खिऊण जगई सवेइवणमुहचउकपिहुलत्तं । गुणतीससयदुवीसं णइंति गिरिति |एगकला ॥१॥" [विवक्षित्वा जगतीं सवेदिकावनमुखचतुष्कपृथुत्वं । एकोनत्रिंशच्छतानि द्वाविंशत्यधिकानि नदी
पार्षे गिरिपाचे एका कला ॥१॥] इति, अथोपसंहारमाह-एवं उत्तरिल' इत्यादि, एवं-विजयादिकथनेन उत्तरदि॥ ग्यर्ति पार्य समाप्तम् , प्राच्यमिति शेषः, प्राक् चतुर्विभागतयोद्दिष्टस्य विदेहक्षेत्रस्य प्राच्योत्तरपार्च विजयादिकथना
पेक्षया पूर्ण निर्दिष्टमित्यर्थः । अथ प्रतिविजयमेकैकां राजधानी निर्दिशन्नाह–'विजया' इत्यादि, विजया भणिता,
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दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
गाथा:
अत्र च भणितानामपि विजयानां यत्पुनर्भणनमुक्तं तद्राजधानी निरूपणार्य, राजधान्यश्चमाः पद्यबन्धेन संगृह्णाति, ६
28 वक्षस्कारे द्वीपशा- कच्छविजयतः क्रमेण नामतो ज्ञेयाः, क्षेमा १ क्षेमपुरा २ अरिष्टा ३ अरिष्ठपुरा ४ तथा खङ्गी ५ मंजूषा ६ अपि चेति शेषविजन्तिचन्द्री- 18 समुच्चये औषधी ७ पुंडरीकिणी ८ इति, एताः शौताया औदीच्यानां विजयानां दक्षिणार्धमध्यमखण्डेषु वेदितव्याः, यादि स. या चिः
|अथैषु श्रेणिस्वरूपमाह-'सोलस विज्जाहरसेढीओ'इत्यादि, उक्केष्वष्टसु विजयेषु पोडश विद्याधरश्रेणयो वाच्या, ॥३५१॥ 18 प्रतिवैतान्य श्रेणिद्वयद्वयसम्भवात् , आसु च विद्याधरश्रेणिषु प्रत्येक दक्षिणोत्तरपाईयो। पञ्चपञ्चाशनगराणि वाच्यानि,
॥ उभयत्रापि वैताब्यस्य समभूमिकत्वात् , तावत्यः आभियोग्यश्रेण्यो वाच्याः षोडश इत्यर्थः, सर्वाश्चेमा अभियोग्य-101
श्रेणय ईशानेन्द्रस्य मेरुतः उत्तरदिगपतित्वात् , अत्र च विद्याधरश्रेणिसूत्र आदर्शान्तरेष्वदृष्टमपि प्रस्तावादाभियो8 ग्यश्रेणिसङ्गत्यनुपपत्तेश्च प्राकृतशैल्या संस्कृत्य मया लिखितमस्तीति बहुश्रुतैर्मयि सूत्राशातना न चिन्तनीयेति, उत्तर-18 18 वापि सूत्रकारेण संग्रहगाथायामाभियोग्यश्रेणिसंग्रहो विद्याधरश्रेणिसंग्रहपूर्वकमेव वक्ष्यते । अथ शेषविजयवक्षस्कारा-181
दीनां स्वरूपप्ररूपणाय लाघवाशनातिदेशसवमाह--सव्वेसुइत्यादि, सर्वेषु विजयेषु कच्छवक्तव्यता ज्ञेया, याव-ISITam 1 दर्थो-विजयानां नाम निरुक्तं, तथा विजयेषु विजयसदृशनामका राजानो ज्ञेयाः, तथा षोडशवक्षस्कारपर्वतानां चित्र
कूटवक्तव्यता शेया यावच्चत्वारि २ कूटानि व्यावर्णितानि भवन्ति, तथा द्वादशानां नदीना-अन्तरनदीनामित्यर्थः ।।
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४].....................
------------------------------- मलं [९५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [९५]]
गाथा:
पाहावतीवक्तव्यता ज्ञेया यावदुभयोः पार्श्वयोर्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां वनखण्डाभ्या च सम्परिक्षिप्ता वर्ण-18 कश्चेति । अथ द्वितीयं विदेहविभागं निर्देष्टुमाह-- कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णाम बणे पण्णचे?, एवं जह चेव उत्तरिशं सीआमुहवणं तह व दाहिणपि भाणिअव्वं, णवर णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं सीए महाणईए दाहिणेणं पुरस्थिमळवणसमुदस्स पञ्चत्यिमेणं बंच्छस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीभाए महाणईए दाहिणिल्ले सीआमुहवणे णार्म वणे पं० उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवर णिसहवासहरपव्वयंतेणं एगमेगूणवीसहभागं जोअणस्स विक्सम्भेणं किण्हे किण्होभासे जाव महया गन्धद्धाणिं मुअंते जाव आसयन्ति उभओ पासिं दोहिं पठमवरवेइमाहि वणव्वपणओ इति । कहि णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णाम विजए पणते, गोअमा! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीआए महाणईए दाहिणणं दाहिणिहस्स सीआमुहवणस्स पञ्चस्थिमेणं ति उसस्स वक्खारपवयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णाम विजए पण्णत्ते तं व पमाणं मुसीमा रायहाणी १, तिउडे वक्वारपन्चए सुवच्छे विजए कुण्डला रायहाणी २, तत्तजला गई महावच्छे विजए अपराजिआ रायहाणी ३, वेसमणकूते वक्वारपवए बच्छावई विजए पर्भकरा रायहाणी ४, मत्तजला गई रम्मे विजए अंकाबई रायहाणी ५, अंजणे बक्सारपत्रए रम्मगे विजए पम्हावई, रायहाणी ६, सम्मत्तजला महाणई रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७, मायंजणे वक्सारपब्वए मंगलावई विजए रख
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अथ महाविदेहस्य वर्णने द्वितियम् विदेह-विभाग वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------- ------------------------------- मूलं [१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९६]
सू.९६
गाथा:
श्रीजम्बूणसंचया रायहाणीति ८, एवं जह चैव सीआए महाणईए उत्तरं पास तह चेव दक्खिणिलं भाणिअव्वं, दाहिणिलसीआमुहब-
IS| विदेहद्वि
n द्वीपशा- णाइ, इमे वक्खारकूटा तं--तिउडे १ वेसमणकूडे २ अंजणे ३ मायंजणे ४, [ गईउ तत्तजला १ मत्तजला २ उम्मत्तजला 18|
वीयभाग: न्तिचन्द्री- ३, विजया तं०-बकछे सुबच्छे महावच्छे चउत्थे वच्छगावई । रम्मे रम्मए चेव, रमणिज्जे मंगलावई ॥१॥ रायहाणीओ, या चिः जहा-सुसीमा कुण्डला चेन, अवराइअ पहंकरा। अंकावई पम्हावई सुभा रयणसंचया ॥२॥ बच्छस्स विजयस्स णिसहे ॥३५२॥
दाहिणेणं सीआ उत्तरेणं दाहिणिलसीदामुहवणे पुरथिमेणं तिउडे पञ्चत्थिमेणं सुसीमा रायहाणी पमाणं तं घेवेति, वच्छाणतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला णई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपब्वए वच्छावई विजए मत्तजला गई रम्मे विजए अंजणे वक्खारपव्वए रम्मए विजए उम्मत्तजला णई रमणिज्जे विजए मायंजणे वक्खारपव्वए मंगलावई विजए (सूत्र९६) 'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे शीतामहानद्या दाक्षिणात्य शीतामुखवनं शीतानि-18 पधमध्यवतीत्यर्थः अतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्रं स्वयं भाव्यं, परं वच्छस्य विजयस्य-विदेहद्वितीयभागाधविजयस्य पूर्वत इति । अथ द्वितीये महाविदेहविभागे विजयादिव्यवस्थामाह-'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः सुलभः, उत्तरसूत्रे निषधस्य || वर्षधरपर्वतस्योत्तरस्यां शीताया महानद्या दक्षिणस्यां दाक्षिणात्यस्य शीतामुखवनस्य पश्चिमतः त्रिकूटस्य वक्षस्कारपर्व- ॥३५२॥
तस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो विजयः प्रज्ञप्तः, सुसीमा राजधानी विजयविभाजक त्रिक13 टनामा वक्षस्कारपर्वतः १ सुवच्छो विजयः कुण्डला राजधानी ततजलाऽन्तरनदी २ महावत्सो विजयः अपराजिता
दीप अनुक्रम [१७४-१७७]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------....... --------------------------------- मलं [९६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९६]
गाथा:
राजधानी वैश्रमणकूटो नाम वक्षस्काराद्रिः ३, वत्सावती विजयः प्रभङ्करा राजधानी मत्तजला नदी ४, रम्यो विजयः अकावती राजधानी अञ्जनो वक्षस्कारः५,रम्यको विजयःपक्ष्मावती राजपू: उन्मत्तजला महानदी रमणीयो विजयः शुभा राजपू:मातञ्जनो वक्षस्काराद्रिः ७, मङ्गलावती विजयः रत्नसञ्चया नगरी ८, सुलभसूत्रे शब्दसंस्कार एव विवरणमिति, इमाश्च राजधान्यः शीतादक्षिणदिग्भाविराजधानीत्वेन विजयानामुत्तरार्द्धमध्यमखण्डेषु ज्ञेयाः, अथ विजयादीनां व्यासादिसाम्ये दर्शितेऽपि केनचित्प्रकारेण न पार्श्वयोः परस्परं भेदो भविष्यतीत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह| 'एवं जह'इत्यादि, एवं-पागुक्कमकारेण यथैव शीताया महानद्या उत्तरं पार्श्व प्राच्यमिति शेषः तथैव दाक्षिणात्यं | पार्थमिति शेषः भणितव्यं, अब विशेषणद्वारेण संग्रहमाह, किंविशिष्टमिदं पार्श्वम्-दाक्षिणात्यशीतामुखवनमादी| यत्र तद् दाक्षिणात्यशीतामुखवनादि, अनेन यथा प्रथमविभागस्य कच्छविजय आदिरुक्तस्तथा द्वितीयविभागस्य दाक्षि|णात्यशीतामुखवनमादिरुक्कमिति, तथा इमे वक्ष्यमाणा वक्षस्कारकूटाः, कूटशब्देनात्र कूटान्येषां सन्तीत्यधादित्वादप्रत्यये कूटा:-पर्वताः, तद्यथा-त्रिकूटेत्यादि, विजयानां राजधानीनां च संग्रहाय पद्यमेकैक, इमानि च संग्रह-18 सूत्राणि सुखप्रतिपत्तिहेतुभूतानीति न पुनरुक्तिर्विभाव्या, अथ पूर्वसूत्रालब्धेऽपि वत्सविजयदिग्नियमे विचित्रत्वात् सूत्र-181 | प्रवृत्ते रीत्यम्तरमाह-वच्छस्स'इत्यादि, वत्स्यस्य विजयस्य निषधो दक्षिणेन तथा तस्यैव शीता उत्तरेणेत्यादि स्पष्ट, न चैवं निषधादयो लक्ष्या: लक्षणं वत्सविजय इति वाच्यं, लक्ष्यलक्षणभावस्य कामचारात्, प्रस्तुते च प्रकरणबलात्
Dose
दीप अनुक्रम [१७४-१७७]
~360
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९६]
गाथा:
टीप
अनुक्रम
[r७४
-१७७]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९६] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥३५३॥
वत्स एव लक्ष्यत इति, सुसीमा राजधानी प्रमाणं तदेव - अयोध्यासम्बन्ध्येष, प्रमाणाभिधानाय राजधान्याः पुनरुपन्यासेन न पुनरुक्तिदोषः, अथैषां विजयादीनां स्थानक्रमदर्शनायाह — 'वच्छाण 'मित्यादि, सुगमं, नवरं वत्सानन्तरं त्रिकूटः पश्चिमत इति बोध्यं, अन्यथा पूर्वतो दाक्षिणात्यशीतामुखवनस्य प्रतिपत्तिः स्यादित्युक्तो द्वितीयो विदेहवि - भागः । अथ क्रमायातं गजदन्तगिरिं सौमनसाख्यं लक्षयितुमाह
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्वर पण्णत्ते ?, गो० णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मन्दरस्स पब्बयस्स दाहिणपुरत्थिमेण मंगलावईविजयस्स पचत्यिमेणं देवकुराए पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेवासे सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिणे जहा मालवन्ते वक्खारपव्वए तदा णवरं सव्वरययामए अच्छे जाव पडिवे, णिसहवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊअसयाई उध्वेहेण सेसं वहेव सव्वं वरं अट्टो से गोजमा ! सोमणसे णं वक्खारपव्वए बहवे देवा य देवीओ अ सोमा सुमणा सोमणसे अ इत्थ देवे ' महिद्धीप जाव परिवस से एएणडेणं गोअमा ! जाव णिचे । सोमणसे वक्त्रारपत्वए कइ कूढा पं० १, गो० ! सत्त कूडा पं०, तं०-सिद्धे १ सोमणसे २ विञ बोद्धब्वे मंगळावईकूठे ३ । देवकुरु ४ बिमल ५ कंचण ६ बसिहकूले ७ अ बोद्धव् ॥ १ ॥ एवं सब्बे पञ्चसइआ कूडा, एएसिं पुच्छा दिसिविदिसाए भाणिअव्वा जहा गन्धमायणस्स, विमलकवणकूडे णवरिं देवयाओ सुषच्छा वच्छमित्ता य अवसिट्ठेसु कूडेसु सरिसणामया देवा रायहाणीओ दक्खिणेणंति । कहि णं भन्ते । महाविदेहे
F Ervale & Puna e Oly
~361~
४वक्षस्कारे
सौमनसदे
बकुरवः चित्रविचि
त्रकूटौ नि पधादिद्रहाः सू. ९७ ९८-९९
।।३५३॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------- --------------------------- मूलं [९७-९९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Receae
[९७-९९]
गाथा:
वासे देवपुराणामं कुरा पण्णता!, गोजमा! मन्चरस्स पव्वयस्स दाहिणेण णिसहस्स पासहरपष्ययण्स उत्सरेण विजुष्पहस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं सोमणसवक्खारपष्क्यस्स पच्चस्थिमेणं एत्व में महाविदेहे वासे देवकुराणामं करा पण्णता पाईपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा इकारस जोअणसहस्साई अट्ठ य वायाले जोजणसए दुणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खम्भेणं जहा उत्तरकुराए वत्तन्वया जान अणुसज्जमाणा पम्हगन्धा मिअगन्धा अममा सहा तेतली सणिचारीति ६ (सूत्र९७) कहिणं भन्ते! देवकुराए चित्तविचित्त कूडाणाम दुवे पव्वया प०, गो०!, णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरिछाओ चरिमंताओ अट्ठचोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए पुरथिमपञ्चत्थिमेणं उभभोकूले एव्य गं चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे पव्वया पं०, एवं जव जमगपछयाणं सच्चेव, एएसि रायहाणीओ दक्खिणेणंति (सूत्र९८)। कहि णं भन्ते! देवकुराए २ णिसढरहे णाम दहे पण्णते !, गो०! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं पचयाणं उत्तरिल्लाओ चरिमन्ताओ अहचोतीसे जोमणसए बचारि अ सत्तभाए जोमणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए बहुमजादेसभाए पत्थ णं णिसहरहे णामं दहे पणचे, एवं जव मीलयंतसत्तरकुश्चन्देरावयमालवंताणं वत्तया सच्चेच णिसहदेवकुरुसूरसुलसविष्णुप्पाणं अवा, राय
हाणीओ दक्षिणेणंति । (सूत्र ९९) 8 'कहि गमित्यादि, क भदन्तेत्यादिप्रश्नः सुलमा, उत्तरसूत्रे निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां मन्दरस्य पर्वतसर RI पूर्वदक्षिणस्या-मानेयकोणे मङ्गलावतीविजयस्य पश्चिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां यावत् सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः प्रशसः
दीप अनुक्रम [१७८-१८२]
एeaceae
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [९७-९९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
सूत्रांक
[९७-९९]
गाथा:
18|| इत्यादि सर्व माल्यवद्गजदन्तानुसारेण भाव्यं, यत्तु सप्रपञ्चं प्रथम व्याख्याते गन्धमादनेऽतिदेशयितव्ये माल्यवतो- वक्षस्कार द्वीपशा- तिदेशनं तदस्यासन्नवर्तित्वेन सूचकारशैलीवैचित्र्यज्ञापनार्थ, नवरं सर्वात्मना रजतमयोऽयं माल्यवास्तु नीलमणिमयः, सामनसद न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
अयं च निषधवर्षधरपर्वतान्ते चत्वारि योजनशतान्यूर्योच्चत्वेन चत्वारि गब्यूतिशतान्युद्वेधेन माल्यवास्तु नीलवत्स-चित्रविचि
मीपे इति विशेषः, अर्थे च विशेषमाह-'से केण?ण'मित्यादि, प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम ! सौमनसवक्षस्कारपर्वते वकूटौ नि॥३५४॥ बहवो देवा देव्यश्च सौम्याः कायकुचेष्टाया अभावात् सुमनसो-मनःकालुष्याभावात् परिवसन्ति, ततः सुमनसा
मयमावास इति सौमनसः, सौमनसनामा चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति तेन तद्योगात् सौमनस इति, से एएणटेण'मित्यादि, प्राग्वत्, 'सौमनसे' इति प्रायः सूत्रं व्यकं, नवरमेषां कूटानां पृच्छेति-प्रश्नसूत्ररूपा दिशि विदिशि
च भणितव्या, 'कहि णं भन्ते ! सोमणसे वक्खारपवए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' इत्यादिरूपा, यथा || गन्धमादनस्य-प्रथमवक्षस्कारगिरेः सप्तानां कूटानां दिग्विदिग्वक्तव्यता तथाऽत्रापि, अत्र चासन्नत्वेन प्रागतिदे-18 | शितोऽपि माल्यवान्नवकूटाश्रयत्वेन कूटाधिकारे उपेक्षित इति, कूटानां दिग्विदिग्वक्तव्यता यथा-मेरोः प्रत्यासन दक्षिणपूर्वस्यां दिशि सिद्धायतनकूट तस्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि द्वितीयं सौमनसकूट, तस्यापि दक्षिणपूर्वस्यां 81
दिशि तृतीयं मङ्गलावतीकूट, इमानि त्रीणि कूटानि विदिग्भावीनि मङ्गलावतीकूटस्य दक्षिणपूर्वस्या पश्चमवि19 मलकूटस्योत्तरस्यां चतुर्थ देवकुरुकूट, तस्य दक्षिणतः पश्चम विमलकूट, तस्यापि दक्षिणतः पर्छ. काशनकूट, अस्यापि च
दीप अनुक्रम [१७८-१८२]
A
immitrarelu
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ------------------- --------------------------- मलं [९७-९९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
sesesesesewers
[९७-९९]
गाथा:
दक्षिणसो निफ्धस्योत्तरेण सप्तमं वासिष्ठकूट, सर्वाणि रत्नमयानि परिमाणतो हिमवत्कूटतुल्यानि प्रासादादिकं सर्व । 18 तद्वत्, विमलकूटे सुधत्सा देवी काञ्चनकूटे वत्समिस अवशिष्टेषु कूटेषु कूटसदृशनामानो देवाः, तेषां राजधान्यो Troll मेरोदक्षिणत इति । इदानी देवकुरवः-'कहिणं भन्ते । इत्यादिक भदन्त ! महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः181
प्रज्ञता:१, गौतम! मन्दरगिरेदेक्षिणतो निषधानेरुत्तरतो विद्युत्प्रभवक्षस्कारादेनरुतकोणस्थगजदन्ताकारगिरेः पूर्वतः। सौमनसवक्षस्काराद्रेः पश्चिमायां अत्रान्तरे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, शेष प्राग्वत् , इमाश्चोत्तरकुरूणां अमल
जातका इवेति तदतिदेशमाह-यथोत्तरकुरूणां वक्तव्यता, कियङ्करमित्याह-यावदनुसज्जन्त:-सन्तानेचानुवर्तमानाः ९ सन्ति, वर्तमान निर्देशः कालत्रयेऽप्येतेषां सत्ताप्रतिपादनार्थ, आह-के ते इत्याह-पद्मगन्धाः १ मृगमा २ अममाः 19॥३ सहाः ४ तेजस्तलिनः ५ शनैश्चारिणः ६, एते मनुष्यजातिभेदाः, एतद्व्याख्यानं पाक सुषमासुषमायनत्ये ज्ञेयं ।।। TS| अर्थतासूत्तरकुरुतुल्यवकच्यत्वेन यमकाविच चित्रविचित्रकूटी पर्वतौ स्थानतः पृच्छति-'कहिणं भन्ते । देवकुराए
चित्तविचित्तकूटा' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं एवं-उत्कन्यायेन यैव यमकपर्वतयोर्वकव्यता इति शेषः सैवैतयोश्चित्रविचित्रकूटयोः एतदधिपतिचित्रविचित्रदेवयो राजधान्यौ दक्षिणेनेति, अथ इदपञ्चकस्वरूपमाह-'कहिण'मित्यादि, एवमुक्तालापकानुसारेण वैव नीलवदुत्तरकुरुचन्द्रैरावतमाल्यवतां पञ्चानां द्राणां उत्तरकुरुप वक्तव्यत्ता सैव निषध-161
दीप अनुक्रम [१७८-१८२]]
rocersectroe
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [१००-१०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू
[१००
एलese
-१०१]
गाथा:
॥ देवकुरुसूरसुलसविद्युत्भनामकानां नेतन्या, एतदीयाधिपसुराणां राजधाग्यो मेरुतो दक्षिणेनेति शेषः । अथैतास ध्वक्षस्कारे जम्बूपीठतुल्यं वृक्षपीठं कास्तीति पृच्छन्नाह
कूटशाल्म
ली सू.१०० या वृत्तिः कहि णं भन्ते ! देवकुराए २ कूडसामलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते !, गोअमा! मन्दरस्स पचयस्स दाहिणपञ्चस्टिमेणं णिसइस्स वासहर
विद्युत्तमः पव्ययस्स उत्तरेणं विजुप्पभस्स बक्सारपवयस्स पुरस्थिमेणं सीओआए महाणईए पञ्चस्थिमेणं देवकुरुपपस्थिमयस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ ण देवकुराए कुराए कूडसामली पेढे णाम पेढे पं०, एवं जव जम्बूए सुदंसणाए बत्तव्यया सभेष सामलीएवि भाणिभव्या णामविहूणा गरलदेवे रायहाणी दक्षिणेणं अवसिह चेव जाव देवकुरू अ इत्थ देवे पलिओवमटिइए परिवसइ, से तेणडेणं गो! एवं युथइ देवकुरा २, अदुत्तरं च णं देवकुराए० (सूत्रं १००) कहि णं भन्ते । जम्युरीवे २ महाविदेहे वासे विलुप्पभे णामं वक्सारपध्यए पन्नते!, गो.1 णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं मन्दरस्स पबयस्स दाहिणपत्थिमेणं देवकुराए पञ्चत्धिमेणं पम्हस्स विजयस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे विजुप्पमे वक्खारपञ्चए पं०, उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवन्ते णवरि सवतवणिजमए अच्छे जाव देवा आसयन्ति । विज्जुप्पभे णं भन्ते! वक्खारपब्वए कइ
18॥३५५॥ कूडा पं० १, गो०! नव कूडा पं०, तं०-सिद्धाययणकूडे विजुप्पभकूडे देवकुरुकूडे पम्हकूडे कणगकूडे सोवत्थिअकूडे सीओआकूडे सयजलकूडे हरिकूडे । सिद्धे अ विज्जुणामे देवकुरू पम्हकणगसोवत्थी । सीओआ य सयजलहरिकूड़े चेव बोल्वे ॥१॥ एए हरिकूडवजा पञ्चसइआ णेअब्बा, एएसि कूडाणं पुच्छा दिसिविदिसाओ अब्बाओ जहा मालवन्तस्स हरिस्सहकूडे तह चेब
दीप अनुक्रम
[१८३
sesesescene
-१८६]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [१००-१०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
+
गाथा:
हरिकुडे रायहाणी जह चेव दाहिणेणं चमरचंचा रायहाणी तह अब्बा, कणगसोवत्थिअकूडेसु वारिसेणषणायामो दो देवयाओ अवसिहेसु कूडेसु कूडसरिसणामया देवा रायहाणीओ दाहिणेणं, से केणढणं भन्ते! एवं बुखह-विजुप्पमे वक्खारपब्बए २१, गोभमा! विष्णुप्पभे णं वक्खारपव्वए विजुमिव सवओ समन्ता ओभासेइ उज्जोवेइ पभासइ विजुप्पमे य इत्य देवे पलिओवमहिए आव परिवसइ, से एएणद्वेणं गोअमा! एवं युवा विज्जुप्पमे २, अदुत्तरं च णं जाय णियो (सूत्र १०१)
कहिण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , नवरं कुटाकारा-शिखराकारा शाल्मली तस्याः पीठं, उत्तरसूत्रे मन्दरस्य | पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे निषधस्योत्तरस्यां विद्युत्प्रभवक्षस्कारस्य पूर्वतः शीतोदाया महानद्याः पश्चिमायां । देवकुरूणां शीतयोत्तरकुरूणामिव शीतोदया द्विधाकृतानां पश्चिमार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र-प्रज्ञापक निर्दिष्टदेशे || देवकुरुषु कूटशाल्मल्याः कूटशाल्मलीपीठं प्रज्ञप्तम् , एवमुक्तसूत्रानुसारेण यैव जम्ब्याः सुदर्शनाया वक्तव्यता सैव शा-1 स्मस्या अपि भणितच्या, अत्र विशेषमाह-नामभिः प्राग्व्यावर्णितैर्द्वादशभिर्जम्बूनामभिर्विहीना, इह शाल्मलीनामानि न सन्तीत्यर्थः, तथा अनाहतस्थाने गरुडदेवोऽत्र, गरुडो-गरुडजातीयो वेणुदेवनामा मतान्तरेण गरुडवेगनामा [ वा देवा, राजधाग्यस्य मेरुतो दक्षिणस्या, तथा सूत्रेऽनुक्तमपीदं बोध्यं-अस्य पीठं कूटानि च प्रासादभवनान्तरालवतीनि रजतमयानि जम्बूवृक्षस्य तु स्वर्णमयानि, अपि चायं शाल्मलीवृक्षो यदा तदा वा सुपर्णकुमाराधिपवेणुदेववेणुदालिक्रीडास्थानं, तथा चाह सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृत् शाल्मलीवृक्षवक्तव्यताबसरे-"तत्थ वेणुदेवे वेणुदाली अ वसई"18
दीप अनुक्रम
[१८३
Rece
-१८६]
Simillenni
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [१००-१०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
-१०१]
गाथा:
श्रीजम्प-13 तयोहिं सत् क्रीडास्थान"मिति, अवशिष्टं तदेव-जम्बूमकरणप्रोक्तमेव यो विशेषः स दर्शित इत्याशियत्पर्यन्यामि-18 वक्षस्कारे द्वीपक्षा-15 यह-यावद्देवकुरुनोखा देवोऽब परिक्सति, तेनार्थन देवकुरको देवकुरवः, अथापरमित्यादि भाग्यमबत- कूटशाल्मन्तिचन्द्री-18यस्कारासर-कहि 'मित्यादि, सर्व स्पष्ट, माल्यवदतिदेशेन वाच्यत्वात् नवमयं सर्वात्मना रकमयमय: या वृतिः शान कटवाव्यतामाह-विज्जुप्पो इत्यादि, प्रश्नसूत्र व्यकं, उत्तरसूत्रे सिद्धायतचकूट विद्युत्वभवक्षात्कारनामा
विधुत्तमः
..१ ॥३५६18 कूट देवकुरुनाना कूटं पक्ष्मविजयकूट कनककूटं सोचस्तिककूष्टं शीतोदाकूट शतज्वलकूट हरिनानो दक्षिणभेण्यधि
पविद्यालमारेन्द्रय कूष्ट हरिकूट, उक्कमेव संग्रहगाधयाऽऽह-सिद्धे अविण्जुनामे इत्यादि, एताति हरिकूटा (पी) नि पल-11 शतिकानि ज्ञातव्यानि, एतेषां कूटानां 'कहि णं भन्ते ! विजुष्पमे वखारपषए सिद्धाययणकडे णार्य कडे पण्ण"। इत्येवंरूपायां पृच्छायां दिशो घिदिशश्च ज्ञेयाः, यथायोगमवस्थित्याधारतया वाच्या इत्यर्थः, तथाहि मेरोईक्षिा-181
श्चिमायां दिशि मेरोरासन्नमाद्यं सिद्धार्थतनकूट तस्य दक्षिणपश्चिमायां दिशि विद्युत्मभकूट ततोऽपि तसा दिशि वृक्षीय 181 18|देवकसकट तस्यापि तस्यामेव दिशि चतुर्थ पक्ष्मकूटं एतानि चत्वारि कूटानि विदिरभावीनि, चतुर्थस्य दक्षिण-181
पथिमायां षष्ठख कूटस्योत्तरतः पञ्चमं कनककूटं तस्य दक्षिणतः षष्ठं सौवस्तिककूटं तस्यापि दक्षिणतः मम शीतो-12 ॥३५६॥ 18||दाकूट तस्यापि दक्षिणतोऽष्टमं शतज्वलकूट, नवमस्य सविशेषत्वेन हरिस्सहातिदेशमाह-यथा मालावधस्कारस्य
हरिस्माहकूटं तक्षेत्र हरिकूटं बोद्धव्यं सहस्रयोजनोचं अर्द्धतृतीयशतान्यवगाढं मूले सहस्रयोजमानि च शत्यादि, तथा I
दीप अनुक्रम
[१८३
-१८६]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], --------------------------------------------------------- मूलं [१००-१०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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गाथा:
पृथुत्यविषयकावाक्षेपपरिहारी तथैव वाथ्यौ, नवस्मष्टमतो दक्षिणतः इदं निषधासमित्यर्थः, हरिकारकूट उत्तरतो। नीबदासवं, अस्य राजधामी यथैव दक्षिणेन चमरचञ्चा राजधानी तथैव ज्ञेया, कनकसौवस्तिककूष्टकोरिणामला-181 हके विकुमायौँ वे देवते, अवंशिष्टेषु विद्युत्मभादिषु कूटेषु कूटसदृशनामानो देवा देच्यश्च सजधान्यो दक्षिणेन, यद्य-81 प्युत्तरकुरुषक्षस्कारयोर्यथायोग सिद्धहरिस्सहकूटवर्जकूटाधिपराजधान्यो अथाक्रमं वायव्यामैशान्यों च भागनिहिता-181 स्तथा देवकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्धहरिकूटवर्जकूटाधिपराजधान्यो यथाक्रममाग्नेय्या नैर्ऋत्यां च वक्तुमुचितास्तथापि प्रस्तुतसूत्रसम्बन्धियावदादशेषु पूज्यश्रीमलयगिरिकृतक्षेत्रपिचारवृत्ती च तथादर्शनाभावात् अस्माभिरपि राजधान्यो दक्षिणेनेत्यलेखि । अथास्य नामनिमित्तं पिपृच्छिषुराह-से केण?ण' मित्यादि, उत्तरसूत्रे विद्युत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतो विद्युदिव रक्तस्वर्णमयत्वात् सर्वतः समन्तादधमासते द्रष्ट्रणां चक्षुषि प्रतिभाति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, पतदेव दृढयति-भास्वरत्वादासन्नं वस्तु द्योतयति, स्वयं च प्रभासते-शोभते, तेन विद्युदिव प्रभातीति विद्युत्मभः, विद्युत्मभश्चात्र देवः परिवसति तेन विद्युत्प्रभः, शेष प्राग्वत् ॥ अथ महाविदेहस्य दाक्षिणात्यपश्चिमनामानं तृतीय विभाग वक्तुं तद्गतविजयादीनाह--
एवं पाहे विजए अस्सपुरा रायहाणी अंकावई मयखारपब्वए १, सुपम्हे विजए सीहपुरा सबहाणी खीसेका माहगाई २, मक्षपम्हे विजए महापुरा रायहाणी पम्हावई वक्खारपब्वए ३, पम्हगावई विजए विजयपुर रायहाणी सीअसोआ महावई ४, संचे मिजए अवराहा
990
दीप अनुक्रम
[१८३
-१८६]
अथ महाविदेहस्य वर्णने तृतियम् विदेह-विभाग वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------- ---------------------------- मल [१०२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशा-18 न्तिचन्द्रीया दृचिः
४वक्षस्कारे पक्ष्माया वप्राधाच विजयाः सू.१०२
[१०२]
॥३५७॥
गाथा:
रायहाणी आसीविसे वक्खारपब्बए ५, कुमुदे विजए भरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई ६, गलिणे विजए असोगा रायहाणी सुहावहे वक्सारपब्बए ७, णलिणावई विजए बीयसोगा रायहाणी ८ दाहिणिल्ले सीओआमुहवणसंडे, उत्तरिलेवि एमेव भाणिअब्बे जहा सीआए, वप्पे विजए विजया रायहाणी चन्दे वक्खारपब्बए १, सुवप्पे विजए जयन्ती रायहाणी ओम्मिमालिणी णई २, महावप्पे विजए जयन्ती रायहाणी सूरे वक्खारपवए ३, वप्पावई विजए अपराइआ रायहाणी फेणमालिणी गई ४, बग्गू विजए चकपुरा रायहाणी णागे वक्खारपम्बए ५, सुवग्गू विजए खग्गपुरा रायहाणी गंभीरमा लिणी अंतरणई ६, गन्धिले विजए अवमा रायहाणी देवे वक्खारपम्बए ७, गंधिलाई विजए अओज्झा रायहाणी ८, एवं मन्दरस्स पव्वयस्स पञ्चस्थिमिलं पास भाणिअव्वं तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया, तं-पम्हे सुपम्हे महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई । संखे कुमुए णलिणे, अट्ठमे गलिणावई ॥१॥ इमाओ रायहाणीओ, तं०-आसपुरा सीहपुरा महापुरा चेव हवइ विजयपुरा । अवराइभा य अरया 'असोग तह वीअसोगा य ॥२॥ इमे वक्खारा, तंजहा-अंके पन्हे आसीविसे सुहाघहे एवं इत्व परिवाढीए दो दो विजया कूइसरिसणामया भाणिजव्या दिसा विविसाओ अ भाणिअव्वाओ, सीओभामुहवणं च भाणिअव्वं सीओभाए दाहिणिलं उत्तरितं च, सीओभाए उत्तरिले पासे इमे विजया, तंजहा-चप्पे सुवप्पे महावप्पे चउत्थे वप्पयावई ।वागू अ सुवम्गू अ, गंधिले गंधिलावई ॥१॥ रायहाणीओ इमाओ तंजहा-विजया वेजयन्ती जयन्ती अपराजिमा । चकपुरा खग्गपुरा हवइ अवज्झा अउज्झा य ॥२॥ इमे वक्खारा तंजहा-चन्दपब्वए १ सूरपबर २ नागपश्चए ३ देवपचए ४, इमामो गईओ सीओआए महाणईए दाहिणिले कूले-खीरोभा सीहसोभा अंतरवाहिणीओ गईमो ३, उम्मिमालिणी १ फेणमालिणी २ गंभीरमालिणी ३ उत्तरिविजयाणन्तरा
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दीप अनुक्रम [१८७-१९३]]
50000000000000000000
॥३५७॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------
------------------------- मूलं [१०२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
उत्ति, इत्थ परिवाडीए दो दो कूड़ा विजयसरिसणामया भाणिअव्वा, इमे दो दो कूडा अवद्विआ तंजहा-सिद्धायथणकूडे पञ्चयसरि- 18 सणामकूडे (सूत्रं १०२)
'एवं पम्हे विजए'इत्यादि, स्पष्टेऽप्यत्र लिपिप्रमादाद् धम इति तन्निरासाय शब्दसंस्कारमात्रेण लिख्यते-पक्ष्मो18 विजयः अश्वपुरी राजधानी, सूत्रे चाकारः आपत्वात् , एवमग्रेऽपि, अडावती वक्षस्कारपर्वतः सुपक्ष्मो विजयः सिंह-18 पुरा राजधानी क्षीरोदा अन्तरनदी २, महापक्ष्मो विजयः महापुरी राजपू: पक्ष्मावती वक्षस्कारः ३, पक्ष्मावती 8 विजयः विजयपुरी राजधानी शीतस्रोता महानदी ४, शंखो विजयः अपराजिता नगरी आशीविषो वक्षस्कारः ५, कुमुदो विजयः अरजपूः अन्तर्वाहिनी नदी नलिनो विजयः अशोका पू: सुखावहो वक्षस्कारः, नलिनावती विजयः | सलिलावतीति पर्यायः, वीतशोका राजधानी ८ दाक्षिणात्यं शीतोदामुखवनखण्डमिति । अथ चतुर्थविभागावसरः
'उत्तरिले' इत्यादि, एवमेवोकन्यायेनैव दाक्षिणात्यशीतामुखवनानुसारेणोत्तरदिग्भाविशीतोदामुखवनखण्डे भणितव्यं,8 || यथा शीतायाः औत्तराहमुखवनं व्याख्यातं तथा व्याख्येयमित्यर्थः, चतुर्थविभागविजयादयस्त्विमे-यमो विजयो । विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः १, सुवप्रो विजयो वैजयन्ती राजधानी और्मिमालिनी नदी २, महा
वो विजयो जयन्ती राजधानी सूरो वक्षस्कारपर्वतः ३, वप्रावती विजयोऽपराजिता राजधानी फेनमालिनी नदी 18| ४, वल्गुर्विजयश्चक्रपुरा राजधानी नागो वक्षस्कारः ५, सुवल्गुर्विजयः खड्गपुरी राजधानी गम्भीरमालिनी अन्तर
90000saasoosa9200000
गाथा:
दीप अनुक्रम [१८७-१९३]]
Pas000000000000
Sanilon
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------- ---------------------------- मल [१०२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
गाथा:
श्रीजम्यू- नदी, गम्भीरं जलं मलते-धारयतीति गम्भीरमालिनी, एवं औमिमालिनी फेनमालिनीति ६, गम्धिलो विजयोऽवध्या ४वक्षस्कारे द्वीपशा-18| राजधानी देवो वक्षस्कारः ७, गन्धिलाचत्ती विजयोऽयोध्या राजधानी, एवं-उक्ताभिलापेन शीतोदाकृतविभाग- पक्ष्माषा न्तिचन्द्री
वाद्याथ द्वयगतविजयादिनिरूपणेनेत्यर्थः मन्दरस्य पाश्चात्यं पार्श्व भणितम्यमिति, अथात्र संग्रहमाह-तत्य लाब सीओशा
विजया: या वृतिः इत्यादि, विवृतप्रायं, नवरं तत्र संग्रहे विवक्षितव्ये तावदिति भाषाक्रमे अग्रेति पदैकदेशे पदसमुदायोपचासत् अङ्का- म.१०२
वती, 'एवं पम्हेति' पक्ष्मावतीति, अथ द्वात्रिंशत्तोऽपि विजयानां नामानयनोपायमाह-एवं इत्य परिवाडी इत्यादि, एवम्-उक्तरीत्या अत्र-परिपाव्यां विभागचतुष्टयगतविजयानुपूर्ध्या द्वौ विजयी कूटसहशामकी भणितच्यो, । स्वस्वविजयविभेदकवक्षस्कारगिरितृतीयचतुर्थकूटसदृशामकावित्यर्थः, तथाहि-चित्रकूटवक्षस्कारे कूष्टचतुष्टयमध्ये आद्यं सिद्धायतनकूटं ततः स्ववक्षस्कारनामकं ततस्मृतीयं कच्छनामकं चतुर्थ सुकच्छनामकं तेन कच्छ-मुकच्छविजया
वित्यर्थः, एवं सर्वत्र भावनीयमिति, दिशः-याच्याथाः विपरीतदिशो विदिशश्च भणितव्याः, यथा प्राण्या: बीपी हादीच्याश्चापाची, एवं दिविदिग्नियमः कार्यः, स्थाहि-कच्छो विजयः शीताया महानया उत्तरख्यां मीळवतो वर्ष-181
धरस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटसरळवक्षस्कारपर्वतम पश्चिमायां माल्यवतो मजदन्ताकारपक्षस्कारपर्वतका लामिति ॥३५८॥ एवं मुकच्चादिड विजयेष्वपि स्वस्वदिश्यवस्त्वनुसारेण तत्तहिनियमः कार्यः, एवं शीतोदामुखवनं च भणितव्यं, तद्विभागलो दर्शवति-शीतोदायाः दाक्षिणावं चौतराई बेति, अब चतुर्थविज्ञानमनिवासादि योलाएर
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------ ------------------------- मूलं [१०२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
गाथा:
इत्यादि, सम्प्रत्यनुक्कपूर्व पाश्चात्यविभागयगतास्तरनदीसंग्रहमाह--'सीओआइत्यादि, माहवत, नवरं इसरिलवि| जयाण' इति औत्सराहविजयानां, "अंतरान्ति अन्तरनद्यः 'ते लुग्वा' (श्रीसिद्ध० अ० ३ पा० २ सू.१०८का | इत्यनेन उत्तरपदलोपः, यत्तु पूर्वविभागे विजयादिसंग्रहः प्राच्यविभागद्वयेऽन्तरनदीसंग्रहश्च नोकस्तत्र सूत्रकाराणां
प्रवृत्तिविचित्र्यं हेतुर्व्यवच्छिन्नसूत्रता वेति । अत्र सरलवक्षस्कारकूटेषु नामव्यवस्थोपायमाह-'इत्य परिवाडीए 18| इत्यादि, अत्र परिपाव्या अर्थाद्वक्षस्कारानुपूा द्वौ द्वौ कटौ विजयसदृशनामको भणिसव्यौ, भय भावः-प्रतिवमस्कार।
चत्वारि २ कूटानि, तत्रायद्वयं नियस, तच्च सूचकार एव व्यक्तीकरिष्यतीति, अपरं च यमनियतं तत्र यो यो पक्षस्का-18 रगिरियौँ यो विजयौ विभजति तन्मध्ये यो यः पाश्चात्यो विजयस्तशामक तस्मिन् वक्षस्कारे तृतीय कूट, यो यचाप्रिमो || 8| विजयस्तन्नामकं चतुर्थ कूट, द्वौ द्वौ चावस्थितौ कूटौ, तद्यथा-एक सिद्धायतनकूटं द्वितीयं पर्वतसदृशनामकं कूट, 18| वक्षस्कारसदृशनामकमित्यर्थः, कस्मिन्नपि वक्षस्कार इमे. नाझी न ब्यभिचरत इत्यवस्थिती, बनु सिद्धायतनकूटमव-18 18| स्थितमिति युक्तं, पर्वतसदृग्नामकं तु भिन्न वक्षस्कारनामानुयायित्वेन कथमवस्थितमिति, उच्यते, पतसहग्नाम-13
| कत्वेन धर्मेणास्यावस्थित्तस्वं, एतादृशधर्मस्य सर्वेष्वपि वक्षस्कारद्वितीयकूटेषु अव्यभिचारात्, न च तर्हि अपरकूट-18 8| यस्य विजयसमनामकरन धर्मेणावस्थितत्वं भवतु, उक्तधर्मस्य सर्वत्राव्यभिचारात इति वाच्यम्, विजयसमनामकस्य |
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दीप अनुक्रम [१८७-१९३]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------
------------------------- मल [१०२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीपमा
18 वक्षस्कारे
[१०]
श्रीजम्बू- न्तिचन्द्रीया चिः ॥३५९॥
गाथा:
धर्मस्य द्वयोः कूटयोः साधारण्येनान्यतरानिश्चयेन झटिति नामव्यवहारानुपपत्तेरिति । सम्प्रति महाविदेहवर्षस्य । | पूर्वोपरविभागकारिणं मेलं पृच्छन्नाह--
| मेरुपर्वतः कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ महाविदेदे वासे मन्दरे णामं पत्रए पण्णते, गोअमा! उत्तरकुराए दक्खिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुज्व
सू.१०३ विदेहस्स बासस्स पचत्थिमेणं अपरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं जम्बुहरीवस्स बहुमजादेसभाए एत्थ णं जम्धुरीये दीवे मन्दरेणामं पवए पण्णते, णवणउतिजोअणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं एग जोअणसहस्सं उव्वेहेणं मूले दसजोअणसहस्साई णवई च जोभणाई दस य एगारसभाए जोअणरस विक्खम्भेणं, घरणिअले दस जोअणसहस्साई विक्यम्भेणं तयणन्तरं च णं मायाए २ परिहायमाणे परिहायमाणे उवरितले एग जोअणसहस्सं विक्खंभेणं मूले एकत्तीसं जोअणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोअणसए तिष्णि अ एगारसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं धरणिअले एकत्तीस जोभणसहस्साई छच्च तेवीसे जोअणसए परिक्खेवेर्ण उवरितले तिणि जोमणसहस्साई एगं च बावह जोअणसयं किंचिबिसेसाहिलं परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे मञ्झे संखित्ते उवरि तणुए गोपुरछसंठाणसंठिए सबरयणामए अच्छे सण्हेति । से गं एगाए पउमबरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्यओ समन्ता संपरिक्खिते वण्णओत्ति, मन्दरे णं भन्ते! पयर का वणा पं०१, गो०! चत्तारि वणा पं०,०-भहसालवणे १ गन्दणवणे २ सोमणसवणे ३ पंचगवणे ४, कहि णं भन्ते! मन्दरे पब्बए भद्दसालवणे णामं वणे पं०१, गोअमा! धरणिअले एस्थ ण मन्दरे पब्वए भइसालवणे णाम
॥३५९॥ वणे पण्णत्ते पाईणपढीणायए उद्दीणदाहिणविच्छिण्णे सोमणसविज्जुष्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्सारपव्वएहिं सीआसीओआहि अ महाणईहिं अट्ठभागपविभते मन्दरस्स पब्बयस्स पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं बावीसं बावीसं जोअणसहस्साई आयामणं उत्तरदाहिणेषं
दीप अनुक्रम [१८७-१९३]]
Secenestseees
desesesevercenesesed
Sinileoniummer
अथ मेरुपर्वत-वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मुलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०३]
अद्धाइजाई अड्डाइजाई जोअणसयाई विक्खम्भेणंति, सेणं एगाए पउमवरवेश्याए एगेण य वणसंडेणं सबो समन्ता संपरिक्खित्ते दुव्हवि वण्णओ भाणिअव्वो किण्हे किण्होभासे जाव देवा आसयन्ति सयन्ति, मन्दरस्स णं पव्वयस्स पुरस्थिमेणं भहसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णते पण्णासं जोअणाई आयामेणं पणवीसं जोअषाई विक्ख. म्भेणं छत्तीसं जोमणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविहे वण्णओ, तस्स णं सिद्धाययणस्स ति दिसि तओ दारा पं०, तेथे दारा अट्ठ जोमणाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि जोअणाई विक्खम्भेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेआ बरकणगथूमिआगा जाव वणमालामो भूमिभागो अभाणिअबो, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगा मणिपेढिया पण्णता अट्ठजोषणाई आयामविक्ख. म्भेणं चत्तारि जोषणाई बाहल्लेणं सब्बरयणामई अच्छा, तीसे णं मणिपेडिआए उवरि देवच्छन्दए अट्टजोअणाई आयामविक्सम्भेणं साइरेगाई अट्ठजोमणाई उद्धं उपत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ देवच्छन्दगस्स जाव धूवकछुआर्ण इति । मन्दरस्सणं पब्वयस्स दाहिणेणं भहसालवणं पण्णास एवं चउदिसिपि मन्दरस्स भदसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणिवा, मन्दरस्स गं पवयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भहसालवणं पण्णास जोअणाई ओगाहित्ता एत्य णं चचारि णन्दापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, सं०-पउमा १ पउमप्पभा २ येव, कुमुदा ३ कुमुवप्पमा ४, ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोषणाई विक्खम्भेणं दसजोषणाई उज्वेदेणं वण्णओ वेइआवणसंडाणं माणिअब्बो, चउद्दिसि तोरणा जाव तासि णं पुक्खरिणीर्ण बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो पासायवडिसए पण्णत्ते पञ्चजोअणसयाई उद्धं उपत्तेणं अद्धाइजाई जोअणसयाई विक्खंभेणं,अग्भुग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासायबाडिंसओ भाणिअब्बो, मंदरस्स गं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीभो उप्पल
Reachesecedesesesecene
गाथा:
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वक्षस्कारे मेरुपर्वतः
[१०३]]
श्रीजम्बू-18 द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३६०॥
गाथा:
गम्माणलिणा उप्पळा उप्पलजला व पमाणं मोपासायचाहिंसो समास्स सपरिवारो तेषां पियामेवंजालमपचारिप- णचि पुक्सारिणीओ निंगा मिगनिभा पेच, अंजणा अंगणाप्पभा । पासायवर्शिसभो सकस्स सीदासणं सपरिवार, उत्तरपुरत्यिमेणं पुषसरिणीमो-सिरिकता १ सिरिचन्दा २ सिरिमहिमा ३ चेव सिरिणिल्या ४ । 'पासायवडिंसओ ईसाणम्स सीधामणं सपरिमारंति । मन्यरेणं भन्ते! पव्यए महसालवणे कह दिसाहस्थिकूण पं०१, गो०! अट दिसाहत्यिकूडा पण्णता, संजहा-पउमुत्तरे १णीलवन्ते २ सुत्थी ३ अंजणागिरी ४ । कुमु अ ६ पळासे अ६, डिंसे ७ रोभणागिरी ८ ॥१॥ कहिणे भन्ते ! मन्दरे पधए भदसालवणे परमुत्तरे णाम दिसाहस्थिकूडे पं०, गोअमा ! मन्दरस्स पल्क्यस्स उत्तरपुरस्थिमेणं पुरथिमिलाए सीआए उत्तरेणं एत्थ णं पत्रमुत्तरेणाम दिसाइस्थिडे पण्याचे पञ्चजोअपासयाई उद्धं उच्चतेणं पश्चगाउमसयाई उवेहेणं एवं विषखम्भपरिक्सेवो भापिाअध्वो चुलहिमवन्तसरिसो, पासायाण स तं व पउमुखो देवो रायहाणी उपारपुषत्यिमेण ।। एवं णीलवन्तदिसाहस्थिडे मन्दरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं पुरथिमिलाए सीमाए इक्षिणेणं एअस्सवि मीलवन्तो देवो रावहाणी दाहिणपुरस्थियेणं २, एवं सुहत्यिदिसाइथिकूडे अंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरथिमेणं एअस्मावि मुहत्थी देको रामापी दाहिणपुरस्थिमेणं ३, एवं चेव अंजणागिरिदिसाहत्थिडे मन्दरस्स दाहिणपञ्चत्यिमेणं दक्विाणिलाए स्वभोमार पत्थिोणं, पजस्मवि अंजणागिरी देवो यहाणी दाक्षिणपथस्थिमेणं ४, एवं कुमुदे चिदिसाइरिया मन्दस्स्स दाहिणपारियोण 'पत्वादिमिलाए सीमोभाए एक्सिणेणं एअस्सचि कुमुधो देवो रायहायी दाहिणपञ्चस्थिमेयं ५, पवं पलाने विविखाइलिको मन्द सत्तापक स्थिमेणं पञ्चयिमिकाए सीओचाए उत्तरेणं एभस्मावि मलामो रेको दायहमी वरपकत्यिो पर्व को विस्मिाइदियो
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------
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प्रत
सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
मन्दरस्स उत्तरपञ्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए महाणईए पञ्चस्थिमेणं एअस्सवि वडेंसो देपो रायहाणी उत्तरपञ्चत्यिमेणं, एवं रोअणागिरी दिसाइथिकूडे मंदरस्स उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरिलाए सीआए पुरथिमेणं एयस्सवि रोअणागिरी देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं (सूत्रं १०३) 'कहि प'मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! उत्तरकुरूणां दक्षिणस्यां देवकुरूणां उत्तरस्यां पूर्वविदेहस्य वर्षस्य । पश्रिमायां पश्चिममहाविदेहस्य वर्षस्य पूर्वस्यां जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्रान्तरे जम्मूद्वीपे द्वीपे मन्दरो। नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, नवनवतियोजनसहस्राणि ऊर्बोच्चत्वेन एक योजनसहनमुद्वेधेन सर्वाग्रेण पूर्ण लक्षमित्यर्थः, वक्ष्यमाणचूलासत्कानि चत्वारिंशद्योजनानि त्वधिकानि, उच्छ्यचतुर्थांशो भूम्यवगाहस्तु मेरुवर्जपर्वतेषु ज्ञेय इति, मूले-कन्दे । दशयोजनसहस्राणि नवतिं च योजनानि दश चैकादशभागान् योजनस्य विष्कम्भेन १०.९० अंशाः १०, एकाद|शरूपेण छेदेन क्रमादपचीयमानविष्कम्भोऽसौ धरणीतले समे भागे दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन, मूलतो योजन-11 सहस्रमूर्द्धगमने मूलगतानि नवतियोजनानि दश च एकादशभागा योजनस्य तुत्रुटुरित्यर्थः, तदनन्तरं मात्रया २ ऊर्ध्व
गमने-उच्चत्वस्य योजनैकादशांशवृद्ध्या विष्कम्भस्य योजनैकादशांशहानिस्तथोच्चत्वैकादशयोजनवृद्ध्या विष्कम्भक-10 ॥ योजनहानिः एवमेकादशयोजनशतवृख्या योजनशतहानिः तथा एकादशयोजनसहस्रवृङ्ख्या योजनसहस्रहानिरित्येवं-161
रूपेण परिमाणेन परिहीयमाणः२ उपरितले-शिरोभागे यत्र चूलिकाया उद्भवस्तत्र एक योजनसहनं विष्कम्भेन, समभू-18
ectroeceeeeseseses
दीप अनुक्रम [१९४
-१९६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशा- न्तिचन्द्री- या वृत्तिः
[१०३]
॥३६॥
गाथा:
eeseaseseeroesese
तलतो नवनवतियोजनसहनाण्यूर्ध्वगमने पृथुत्वगत्तनवयोजनसहस्त्राणि तुत्रुटुरित्यर्थः, अथास्य परिधिः-मूले एक-1 वक्षस्कारे त्रिंशद्योजनसहस्राणि नव च शतानि दशोत्तराणि श्रीश्चैकादशभामान् योजनस्य परिक्षेपेण, धरणीतले एकत्रि-18 मेरुपर्वतः शयोजनसहस्राणि षट् च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण उपरितले त्रीणि योजनसहस्राणि एक 18 सू. १०३ . च द्वापश्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण, अथाद्यपरिधिगणितं मूले विष्कम्भस्य सच्छेदत्वाद्विष-181 ममिति दयते-मूले च विष्कम्भो दशयोजनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्य १००९०: तत्र 18 योजनराशावैकादशभागकरणार्थमेकादशभिर्गुणिते उपरितनदशभागक्षेपे च जाता एकादशभागा लक्षमेकादश च8 सहस्राणि १११००० ततोऽस्य राशेर्वर्गकरणे जातं एकको द्विकस्त्रिको द्विकः एककः पटू च शून्यानि |१२३२१००००.. ततोऽस्य दशभिर्गुणने जातानि सप्त शून्यानि १२३२१००००००० अथास्य वर्गमूलानयने । | लब्धखिकः पञ्चक एककः शुन्यमेकको द्विकः ३५१०१२ अथास्य योजनकरणार्थ ११ भागः लब्धं योजन || ३१९१० अंश २, शेष ५७५८५६१७०२०२४, अर्द्धाभ्यधिकत्वाद्रूपे दत्ते अंशाः ३, समभूतलगतपरिधावपि ३१६२२/
8 n योजनानि अवशिष्टांशानामर्द्धाभ्यधिकत्याद्रूपे दत्ते त्रयोविंशतिर्योजनानि, शिखरपरिधी चार्द्धतो न्यूनत्वादशानां सूत्रे || किंचिदधिकत्वं न्यवेदि, अत एच मूले विस्तीणों मध्ये संक्षिप्तः उपरि तनुकः अर्व मेखलाद्वयाविवक्षया उदस्तगोपुच्छा-11 | कारेण संस्थितः सर्वात्मना रलमयः, इदं च प्रायोषचनं, अन्यथा काण्डत्रयविवेचने आयकाण्डप पृथ्ब्युपलशर्करा-121
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मुलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
वज्रमयत्वं तृतीयकाण्डे जाम्बूनदमवत्वं च भणिष्यमाणं विरुणद्धि, शेष प्राग्वत् । अथात्र पद्मवरवेदिकाद्याह|'से णं एगाए' इत्यादि, व्यतं, अत्र चारोहेऽवरोहे च इष्टस्थाने विस्तारादिकरणानि सूत्रेऽनुक्तान्यपि उत्तरग्रन्थे बहूपयोगानीति दयन्ते-तत्र कन्दादारोहे करणमिदं-ऊवंगतस्य यत्र योजनादौ विस्तारजिज्ञासा तस्मिन् योजनादिके एकादशभिर्भक्त यल्लब्धं तस्मिन् कन्दविस्तारादपनीते यदवशिष्टं स तत्र प्रदेशे मेरुव्यासः, तथाहि-कन्दाद्योजनल-18| क्षमूर्ध्व गतस्त तो योजनलक्षं प्रियते तस्मिन्नेकादशभिर्भक्के लब्धानि नबतिशतानि नवत्यधिकानि योजनानां दश चैकादशभागा योजनस्य अस्मिन् कन्दव्यासात् दशयोजनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्येत्येवंपरिमाणादपनीयते शेष योजनसहस्र, एतावानत्र प्रदेशे मेरूपरितले व्यासः, अथवा योजनसहस्रमारूढस्ततो योजन-18 सहने एकादशभिर्भक्के लब्धानि नवतियोजनानि दश चैकादशभागा योजनस्य अस्मिन् पूर्वोक्तात् कन्दव्यासाच्छोधिते | शेष दशयोजनसहस्राणि एवमन्यत्रापि भाव्यं । अथ शिखरादवरोहे करणं, यथा मेरुशिखरादवपत्य यत्र योजनादौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन् योजनादिके एकादशभिर्भक्के बल्लब्धं तत्सहितं तत्र प्रदेसे मेरुच्यासमानं, यथा शिखरा-3 योजनलक्षमवतीर्णस्ततो लक्षे एकादशभिर्भक्के लब्धानि नपति शतानि नवत्यधिकानि दझ चैकादशभागाः अस्मिन् । | योजनसहनप्रक्षेपे जातानि १०.९० इयान कन्दे व्यासः, अथवा शिखरानवनवतियोजनसहस्राण्यवतीर्णस्त सस्तेपामेकादशभिर्भागे हते लब्धानि नवसहस्राणि तानि सहस्रसहितानि जातानि दशसहस्राणि एतावान् धरणीतले
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०३
गाथा:
श्रीजम्बू
| विस्तारः, एवमन्यत्रापि, अथ मेरी मूलादारोहे मौलितोऽवरोहे च विष्कम्भविषयकहानिवृद्धिज्ञानार्थ करणमिद-उपरि-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- 18| तनाधस्तनयोविस्तारयोविश्लेषे कृते तयोर्मध्यवर्तिना पर्वतोच्छ्रयेण भक्ते यल्लब्धं सा हानिर्वृद्धिश्च, तथाहि-उपरितने || मरुपवतः न्तिचन्द्रीविस्तारे योजनसहनं अधस्तनाद्योजन १००९०% इत्येवरूपाच्छोधिते शेष ९०९०% सवर्णनार्थ योजनराशिमेका-18
सू.१०३ या वृत्तिः
दशगुणीकृत्य अधस्तना दश भागाः प्रक्षेप्याः जातं." अस्य च भजनार्थ मध्यवर्तिनि पर्वतोच्छ्रये १००००० ॥३६२॥ | इत्येवरूपे एकादशगुणे कृते जात पन्थ ५ अत्र छेदराशेरेकादशगुणत्वाद्भागाप्राप्तौ उभयोलक्षणापवः कृते जातं
+ इयती प्रतियोजनं हानिर्वृद्धिश्च, तथा इदमेव लब्धमद्धीकार्य एककस्या सम्भवात् छेद एवं द्विगुणीक्रियते 18 जातं इयं मेरोरेकस्मिन् पार्षे वृद्धिोनिश्चेति । अथोच्चत्वपरिज्ञानाय करणमिदं-मेरोयंत्र भूतलादौ प्रदेशे यो यावान् विस्तारः तस्मिन् मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं तदेकादशभिगुणितं सत् यावद् भवति तावत्प्रमाण उत्सेधः, तथाहि-शिखरव्यासो योजनसहनं तस्मिन् कन्दव्यासात् पूर्वोक्ताच्छोधिते शेष नबतिसहस्राणि नवत्यधिकानि दश || चिकादशभागा योजनस्वेत्येतदात्मकं योजनराशिरेकादशभिर्गुण्यते जातं ९९९९० ये च दशैकादशभागास्तेऽपि
॥३६॥ एकादशभिर्गुण्यन्ते जातं ११० तस्यैकादशभिर्भागे हते लब्धानि दश योजनानि पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातं योजनानां लक्ष, एतावदधोविस्तारोपरितनविस्तारयोरन्तरे उच्चत्वं, एवं मध्यभागादावप्युञ्चत्वपरिमाणं भावनीयमिति । नन्दिा कस्मा-01
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
Dececeaeeeeeeeeeeeeeesese
देकादशलक्षणः छेदः कस्माद्वा तेन शेष गुण्यते ?, उच्यते, एकादशानां योजनानामन्ते एक योजनं एकादशानां योजनशतानामन्ते एकं योजनशतं एकादशानां योजनसहस्राणामन्ते एक योजनसहस्रं त्रुयति तत एकादशलक्षणः छेदः, तेनोचवपरिज्ञानाय विस्तारशेष गुण्यते, अन्यथा योजनानां दशसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्वेत्येवं विस्तारात् कन्दादारोहणे धरणीतले नवतिर्योजनानि दश चैकादशभागाः कथं त्रुध्येयुरिति, ननु मेललाद्वये प्रत्येक परितः पञ्चयोजनशतविस्तारयोर्नन्दनसौमनसवनयोः सद्भावात् प्रत्येक योजनसहनस्य युगपत् अटिः ततः किमित्येकादशभागपरिहाणिः!, उच्यते, कर्णगत्या समाधेयमिति, का च कर्णगतिरिति चेत्, उच्यते, कन्दा-18 दारभ्य शिखर यावदेकान्तऋजुरूपायां दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्वापि कियदाकाशं तत्सर्व कर्णगत्या मेरो-18 रामाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादशभागपरिहाणि परिवर्णयन्ति, अयं चार्थः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैरपि विशेषणवत्यां लवणोदधिधनगणितनिरूपणावसरे दृष्टान्तद्वारेण ज्ञापित एवेति ॥ सम्प्रत्येतद्गत-18 वनखण्डवक्तव्यतामाह-'मन्दरे ण मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यकं, उत्तरसूत्रे चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्रा:-18
सद्भूमिजातत्वेत सरलाः शाला: साला वा-तरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं भद्रसालं वा, अथवा भद्रा शाला-वृक्षा 18 यत्र तत् भद्रशालं नन्दयति--आनन्दयति देवादीनिति नन्दनं सुमनसा-देवानामिदं सौमनसं देवोपभोग्यभमिकास18 नादिमत्त्वात् पण्डते-च्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सर्ववनेन्वतिशायितामिति णकपत्यये पण्डके, इमानि चत्वा-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मुलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
श्रीजम्बू- पि स्वस्थाने मेरुं परिक्षिप्य स्थितानि, आधषनं स्थानतः पृच्छति-कहिबमित्याधि, प्रश्नः प्राग्वत्, निर्णचनसूत्रे वक्षस्कारे
18 मेरुपर्वतः द्वीपशा-1 गौतम! धरणीतलेऽत्र मेरौ भन्नशालवनं प्रज्ञप्त, प्राचीनेत्यादि प्राग्वत् , सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवनिक्ष-18 न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
स्कारपर्वतैः शीताशीतोदाभ्यां च महानदीभ्यामष्टभागप्रविभक्त-अष्टधाकृतं, तपथा-एको भागो मेरोः पूर्वतः १ 18 द्वितीयोऽपरतः २ तृतीयो विद्युत्प्रभसौमनसमध्ये दक्षिणतः ३ चतुर्थों गन्धमादनमाल्यवन्मध्ये उत्तरतः ४ तथा ॥३६३॥
॥ शीतोदया उत्तरतो गच्छन्त्या दक्षिणखण्डं पूर्वपश्चिमविभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः पञ्चमो भागः ५ तथा पश्चिमतो || गच्छन्त्या पश्चिमखण्डं दक्षिणोत्तरविभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः षष्ठो भागः तथा शीतया महानद्या दक्षिणाभिमुखं गच्छन्त्या उत्तरखण्डं पूर्वपश्चिमभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः सप्तमो भागः ७ तथा पूर्वतो गच्छन्त्या पूर्वखण्डं | दक्षिणोत्तरविभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धोऽष्टमो भागः८, स्थापना यथा| मन्दरस्य पूर्वतः पश्चिमतश्च द्वाविंशतिं २ योजनसहस्राण्यायामेन, कथमिति चेत्, उच्यते, कुरु- | INI जीवा त्रिपञ्चाशयोजनसहस्राणि ५३०००, एकैकस्यां च वक्षस्कारगिरेर्मूले पृधुत्वं पञ्चयोजन- प.
18॥३६॥ शतानि ततो तयोः शैलयोर्मूले पृथुत्वपरिमाणं योजनसहवं तस्मिन् पूर्वराशी प्रक्षिसे जातानि 18 चतुःपञ्चाशद् योजनसहस्राणि ५४०००, तस्मान्मेरुव्यासे शोधिते शेष चतुश्चत्वारिंशद्योजन
दीप
अनुक्रम [१९४-१९६]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४],.........................
-------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
सहखाणि ४४००० पाम द्वाविंशतियोजनसहस्राणि २२००० पूर्वतः पश्चिमतश्च भवन्ति, अथवेदमुपपत्त्यन्तर-शीताव-11 नमुखं २९२२ योजनानि अन्तरनदीपटूं ७५० योजनानि वक्षस्काराष्टकं ४००० योजनानि विजयषोडशकपृथुत्वं ३५४०६१ योजनानि शीतोदावनमुखं २९२२ योजनानि एतेषां विस्तारसर्वाग्रमीलने षट्चत्वारिंश योजनसहस्राणि एतच्च लक्षप्रमाण-18
महाविदेहजीवायाः शोध्यते शेष चतुःपञ्चाशवयोजनसहस्राणि एतावद्भद्रशालवनक्षेत्रं तच्च मेरुसहितमिति धरणीतलस18| कदशयोजनसहस्रशोधने शेष चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तस्यार्द्ध एकैकपाधं द्वाविंशतिर्योजनसहस्राणीति, उत्त
रतो दक्षिणतश्चार्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन, दक्षिणत उत्तरतश्च तन्नद्रशालवनमर्द्धतृतीययोजनशतानि यावद् देवकुरुत्तरकुरुषु प्रविष्टमित्यर्थः, अत एव देवकुरुमेरूत्तरकुरुव्यासरुद्धे विदेहव्यासे क भद्रशालवनाकाश इति प्रश्नो दूरापास्त इति । अथैतवर्णनातिदेशायाह-सेणं एगाए'इत्यादि, प्राग्वत् , अथात्र सिद्धायतनादिवक्तव्यमाह-- 'मन्दरस्स'इत्यादि, मेरोः पूर्वतः पञ्चाशयोजनानि भद्रशालवनमवगाह्य-अतिक्रम्यात्रान्तरे महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं, पञ्चाशद्योजनाभ्यायामेन पञ्चविंशतिर्योजनानि विष्कम्भेन पत्रिंशद्योजनानि ऊर्बोच्चत्वेन अनेकस्तम्मशतसन्निविष्टे-18 त्यादिकः सूत्रतोऽर्थतश्च वर्णकः प्रागुतो प्रायः । अथात्र द्वारादिवर्णकसूत्राण्याह-'तस्स णमित्यादि, प्राग्वत्,8 'तस्स'त्ति, 'तीसे 'मित्यादि, सूत्रद्वयं व्यक्त । अथोकरीतिमवशिष्टसिद्धायतनेषु दर्शयति-'मन्दरस्स'इत्यादि, मन्दरस्य 8 पर्वतस्य दक्षिणतो भद्रशालवनं पञ्चाशयोजनान्यवगा त्याद्यालापको ग्राह्यः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि मन्दरस्य भद्रशालवने
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], -------------------------------------------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
द्वीपशा
[१०३]
गाथा:
श्रीजम्यू-1| चत्वारि सिद्धायतनानि भणितव्यानि, यच्च त्रिवतिदेष्टव्येषु चत्वार्यतिदिष्टानि तत्र जम्बूद्वीपद्वारवर्णके एवं चत्तारिवि ॥ वक्षस्कार दारा भाणिअबा' इत्येतत्सूत्रव्याख्यानमनुस्मरणीयम् । अथैतद्गतपुष्करिण्यो वक्तव्या:--'मन्दरस्स'इत्यादि, सुगम,
| मेरुपर्वतः न्तिचन्द्री
म.१०३ अधासा प्रमाणाचाह-'ताओ णमित्यादि, मेरोरीशान्यां दिशि भद्रशालवनं पञ्चाशयोजनान्यवगाह्यात्रान्तरे चत-1131 या वृतिः
स्रो नन्दा-नन्दाभिधानाः शाश्वताः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः, आसां च पादक्षिण्येन नामानि पद्मा पद्मप्रभा कुमुदा कुमु-18 ॥३६४॥ दप्रभा चैवः समुच्चये ताश्च पुष्करिण्यः पञ्चाशयोजनान्यायामेन पंचविंशति योजनानि विष्कम्भेन दशयोजनान्यु-S
देधेन-उण्डत्वेन वर्णको वेदिकावनखण्डाना भणितव्यः प्राग्वत्, यावचतुर्दिशि तोरणानि । अर्थतासां मध्ये यदस्ति ।। तदाह-'तासि ण'मित्यादि, तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः ईशानदेवेन्द्रस्य देवराज्ञः प्रासा| दावतंसकः प्रज्ञप्तः, कोऽर्थः ?-तं प्रासादं चतस्रः पुष्करिण्यः परिक्षिप्य स्थिता इति, पञ्चयोजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन समचतुरस्रत्वादायामेनापि, 'अभुग्गयमूसिइत्यादि प्रासादानां वर्णन माग्वत्, एवमुक्ताभिलापानुसारेण सपरिवारः-ईशानेन्द्रयोग्यशयनीयसिंहासनादिपरिवारयुकः प्रासादावतंसको भणि-18 तव्यः, अथ प्रादक्षिण्येन शेषविदिग्गतपुष्करिण्यादिप्ररूपणायाह-'मन्दरस्स'इत्यादि, मेरोः एवमितिपदमुक्ताति-16 देशार्थं तेन 'भहसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता' इत्यादि ग्राह्य, नवरं दक्षिणपूर्वस्यामिति-आग्नेय्यां दिशी-18 त्यर्थः, ताथोत्पलगुष्मादयः पूर्वक्रमेण तदेव प्रमाण-ईशानविदिग्गतप्रासादप्रमाणेनेत्यर्थः, दक्षिणपश्चिमायामपि नैर्ऋत्यां 18
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93000202829000
18॥३६॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------
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सूत्रांक
[१०३]
गाथा:
विदिशि पुष्करिण्यो भृङ्गाद्याः प्रादक्षिण्येन ज्ञेयाः, प्रासादावतंसकः शक्रस्य सिंहासनं सपरिवार, उत्तरपश्चिमायाNe वायव्यां विदिशि पुष्करिण्यः श्रीकान्ताद्याः प्रासादावतंसकः ईशानस्य सिंहासनं सपरिवारं, अत्र उत्तरदिक्सम्बद्धत्वेन
ऐशानवायव्यप्रासादौ ईशानेन्द्रसरको दक्षिणदिक्सम्बद्धत्वेन आग्नेयनैऋतप्रासादौ शकेन्द्रसत्काविति । सम्पति दिग्ग
जकूटवक्तव्यतामाह-'मन्दरेणं भन्ते । पब्वए'इत्यादि, प्रश्नसूत्रे दिक्षु-ऐशान्यादिविदिक्प्रभृतिषु हस्त्याकाराणि 18 कूटानि दिग्रहस्तिकूटानि, कूटशब्दवाच्यानामप्येषां पर्वतत्वव्यवहारः ऋषभकूटप्रकरण इव ज्ञेयः, स्थानाङ्गेऽष्टमस्थाने
तु पूर्वादिषु दिक्षु इस्त्याकाराणि कुटानीति, उत्तरसूत्रे पद्मोत्तरेति श्लोकः, पद्मोत्तरः नीलवान सुहस्ती अञ्जनागिरिः
'अञ्जनादीनां गिरा (श्रीसिद्ध० अ०३ पा० २ सू.) वित्यादिना दीर्घः, कुमुदः पलाशः अवतंसः रोचनागिरिः, 18 अन्यत्र रोहणागिरिः, अत्रापि दीर्घत्वं प्राग्वत्, अथैषां दिगव्यवस्थां पृच्छन्नाह कहि णमित्यादि, क भदन्त ।
मेरौ भद्रशालवने पद्मोत्तरो नाम दिग्रहस्तिकूटः प्रज्ञप्तः, गौतम! मन्दरस्यैशान्यां पौरस्त्याया:-मेरुतः पूर्वदि-150 ग्वतिन्याः शीताया उत्तरस्यां, अनेनोत्तरदिग्वर्जिन्याः शीताया व्यवच्छेदः कृतः, अत्रान्तरे पद्मोत्तरो नाम दिग्रह-1 स्तिकूटः प्रज्ञप्तः, ऐशानवापीचतुष्कमध्यस्थप्रासादप्राच्यजिनभनवयोरन्तरालवचीत्यर्थः, अत एव दिग्रहस्तिकूटा अपि मेरुतः पञ्चाशद्योजनातिक्रम एव भवन्ति, प्रासादजिनभवनसमश्रेणिस्थितत्वात् , पञ्चयोजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन पञ्च-18 गन्यूतशतान्युह्येपेन एवमुञ्चत्वन्यायेन विष्कम्भः, अत्र विभकिलोपः प्राकृतत्वात्, परिक्षेपश्च भणितव्यः, तथाहि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------------- --------------------- मलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक [१०३
गाथा:
श्रीजम्यू- मूले पायोजमशतानि मधे त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यपिकानि उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानीत्येवरूपो वक्षस्कारे
| विष्कम्भः, तथा मूले पञ्चवशयोजनशतानि एकाशीत्यधिकानि मध्ये एकादशयोजनशतानि पडशीत्यधिकाचि फिशि-18 मेरुपर्वता न्तिचन्द्री-18 या चिः
। दूनानि उपरि सक्षयोजनशतान्येकनवत्यधिकानि किश्चिदूनानीति परिक्षेपः प्रासादानां च एतद्वर्तिदेवसरकानां तदेव |
प्रमाणमिति गम्यं यत् क्षुद्रहिमवत्कूटपतिप्रासादस्येति, अत्र बहुवचननिर्देशो वक्ष्यमाणदिग्रहस्तिकूटवर्तिप्रासादेष्वपि । ॥३६५॥ समानप्रमाणसूचनार्थ, पद्मोत्तरोऽत्र देवः तस्य राजधानी उत्तरपूर्वस्यां उक्तविदिग्वर्तिकूटाधिपत्वादस्येति, अथ शेषेषु ।
|| उक्तन्यायं प्रदक्षिणाक्रमेण दर्शयवाह-एवं नीलवन्त' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं एवमिति-पद्मोत्तरन्यायेन नीलवन्नाना।
दिगतिकटः मन्दरख दक्षिणपूर्वस्यां पौरस्त्यायाः शीतायाः दक्षिणस्या, ततोऽयं प्राच्यजिनभवनाद्येयप्रासादयोISI मध्ये ज्ञेयः, एतस्यापि नीलवान देवः प्रभुस्तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति, 'एवं सुहस्थि'इत्यादि, नवरं दाक्षिणा-19
त्याया-मेरुतो दक्षिणदिग्वर्तिन्याः शीतोदायाः पूर्वतः, अनेन मेरुतः पश्चिमदिग्वर्त्तिन्याः शीतोदायाः व्यवच्छेदः कृतः, 1 अबान्तरे सुहत्यिदिग्रहस्तिकूटः ३, आग्नेयप्रासाददाक्षिणात्यजिनभवनमध्यवचीत्यर्थः, एतस्यापि सुहस्ती देवः राजधानी || तस्य दक्षिणपूर्वस्यां, नीलवत्सुहस्तिनोरेकस्यामेव दिशि राजधानीत्यर्थः, एवं समविदिग्वतिनो दिगृहस्तिकूटाधिप-18
॥३६५|| | योरेकस्यां विदिशि राजधानीद्वयं २ अग्रेऽपि भाव्यं, 'एवं चेव'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं दाक्षिणात्यजिनगृहनैर्ऋतपा-18 HS सादयोर्मध्ये इत्यर्थः ४, 'एव'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं पाश्चात्यायाः-पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः शीतोदाया दक्षिणस्या
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
JimilennitimRU
~385
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], --------------------------- -------------------- मूलं [१०३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०३]
09009-90
गाथा:
मिति, नैतपासादपाश्चात्यजिनभवनयोर्मध्यवत्तीत्यर्थः, 'एव'मिति, व्यक्त, पाश्चात्वमिनभवनवायव्यप्रासादयोरन्तरे
इत्यर्थः, 'एवं वडेंस विदिसाहत्यिकूडे इत्यादि, गतार्ष, नवरं औत्तराह्याः मेरुतः उत्तरदिग्वर्तिन्याः शीतायाः पश्चि-IN ३ मतः, अनेन पूर्वदिग्वनिम्याः शीतायाः व्यवच्छेदः कृतः, वायव्यप्रासादौत्तराहमवनयोर्मध्यवर्तीत्यर्थः ‘एवं रोषणागिरी दिसाहत्थिकूडे'इत्यादि व्यक्तं, नवरं औत्तराद्याः-शीतायाः पूर्वतः औत्तराह्यजिनभवनशानप्रासादयोरन्तराले इत्यर्थः, एषु च बहुभिः पूर्वाचायः शाश्वतजिनभवनसूत्रेषु जिनभवनान्युच्यन्ते इह तु सूत्रकृता नोक्तानि तेन | तत्त्वं केवलिनो विदन्ति, अत एवोक्तं रत्नशेखरसूरिभिः खोपज्ञक्षेत्रविचारे-“करिकूडकुण्डनइदहकुरुकंचणजमलसम-1 | विअहेसुं । जिणभवणविसंवाओ जो तं जाणंति गीअत्था ॥१॥” इति, [हस्ति कूटकुण्डनदीद्रहकुरुकाञ्चनयमकवृत्त-11 वैताब्येषु । यो जिनभवनविसंवादस्तं गीतार्था जानन्ति ॥१॥]” अथैषां वापीचतुष्कप्रासादानां जिनभवनानां करिकूटानां च स्थाननियमनेऽयं वृद्धानां सम्प्रदायः, तथाहि-भद्रशालवने हि मेरोश्चतस्रोऽपि दिशो नदीद्वयप्रवाहः रुद्धाः, | अतो दिक्ष्वेव भवनानि न भवन्ति, किन्तु नदीतटनिकटस्थानि भवनानि गजदन्तनिकटस्थाः प्रासादा भवनप्रासा-18 | दान्तरालेष्वष्टसु करिकूटाः, अत एव विशेषतो दयते-मेरोरुत्तरपूर्वस्यामुत्तरकुरूणां बहिः शीताया उत्तरदिग्भागे | पश्चाशयोजनेभ्यः परः प्रासादः तत्परिक्षेपिण्यश्चतस्रो वाप्यः, एवं शेषेष्वपि प्रासादेषु ज्ञेयं, मेरोः पूर्वस्यां शीतायाः19 दक्षिणतः ५० योजनेभ्यः परं सिद्धायतनं, मेरोदक्षिणपूर्वस्वां ५० योजनातिकमे देवकुरूणां बहिः शीताया दक्षिणत |
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
Jonileon
~386
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०३]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१९४
-१९६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [१०३ ] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥३६६ ॥
कू.भ. कृ.
कू. भ. कू.
| एव प्रासादः मेरोर्दक्षिणतः ५० योजनातिक्रमे देवकुरूणां मध्ये शीतोदायाः पूर्वतः सिद्धायतनं, मेरोरपरदक्षिणतः ५० योजनान्यवगाह्य देवकुरूणां बहिः शीतोदाया दक्षिणतः प्रासादः मेरोः पश्चिमायां प्रा. ५० योजनातिक्रमे शीतोदाया उत्तरतः सिद्धायतनं मेरोरपरोत्तरस्यां ५० योजनान्यवगाह्योत्तरकुरूणां भ. | बहिः शीतोदाया उत्तरत एव प्रासादः, मेरोरुत्तरतः पञ्चाशयोजनेभ्यः उत्तरकुरूणां मध्ये शीतायाः प्रो. पश्चिमतः सिद्धायतनमिति, एतेषां चाष्टस्वन्तरेष्वष्टौ कूटा इति, अत्र सुखावबोधाय स्थापना यथाकहि ण भन्ते! मन्दरे पर णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते !, गो० ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पश्चाजोअणसाई उद्धं उपत्ता एत्थ णं मन्दरे पञ्चए णन्दणवणे णामं वणे पण्णत्ते पञ्चजोअणसबाई चकवालविक्खम्भेणं वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जे णं मन्दरं पञ्चयं सव्वओ समन्ता संपरिक्खिताणं चित्ति णवजोअणसहस्साई णव य चप्पण्णे जोअणसए छबेगारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भो एगत्तीसं जोअणसहस्साई बतारि अ अडणासीए जोअणसए किंचिचिसेसाहिए बाहिँ गिरिपरिरएणं अट्ठ जोअणसहस्सा णव य चउप्पण्णे जोअणसए उबेगारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिबिक्सम्भो अड्डाबीसं जोअणसहस्साइं तिष्णि य सोलसुत्तरे जोमणसए अट्ठ य इकारसभाए जोमणस्स अंतो गिरिपरिरएणं, से णं एवाए पउमवरवेइआए एगेण च वणसंडेणं सबओ समन्ता संपरिक्खिते वण्णओ जाव देवा आसयन्ति, मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरत्यिमेणं एत्य णं मई एगे सिद्धाययणे प० एवं चउद्दिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिसासु पुक्खरिणीओ तं चैव पमाणं सिद्धाययणाणं
Fur Prate&P Cy
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प्रा.
वक्षस्कारे मेरो नन्दनादिवनानि स्.
१०४
॥३६६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------
---------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
पुक्खरिणी च पासायवडिंसगा तह चेव सोसाणाणं तेणं चेव पमाणेणं, गंदणवणे जे भन्ते ! का कूडा पं०१, गोभमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तंजहाणन्दणवणकूढे १ मन्दरकूढे २ णिसहकूडे ३ हिमवपकूले ४ रययकूडे ५ रुअगकूडे ६ सागरचित्तकूडे ७ वइरकूडे ८ बलफूडे ९ । कहि ण भन्ते ! णन्दणवणे गंदणवणकूडे णाम फूडे पं०१, गोभमा ! मन्दरस्स पञ्चयस्स पुरस्थिमिल्लसिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमिल्लस पासायवडेंसयस्स दक्षिणेणं, एत्थ पणन्दणवणे गंदणवणे णाम कूडे पण्णत्ते पचसहा फूटा पुष्ववणि माणिअब्बा, देवी मेईकरा रायहाणी विदिसाएत्ति १, एआदि व पुन्वामिलावणं भला इमे कूड़ा इमाहि दिसाहिं पुरथिमिलस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं मन्दरे फूडे मेहाई राबहाणी पुषेण २ दक्खिणिलस्स भवणस्स पुरथिमेणं दाहिणपुरथिमिल्लस पासायव.सगस्स पचस्थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी रायहाणी दक्खिणेणं ३ दक्खिगिल्लस भवणस्स पञ्चस्थिमेण दक्षिणपञ्चस्थिमिलस्स पासायवठेसगस्स पुरथिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्षिणेग ४ पञ्चस्थिमित्त भवणस्स दक्षिणेणं दाहिणपथिमिलस्स पासायवढेसगस्स उत्तरेणं रखए कूडे मुबच्छा देवी रायहाणी पच्चस्थिमेणं ५ पञ्चविमिल्लस भवणस्त उत्तरेग उत्तरपञ्चस्थिमिल्लस पासायवडेंसगस्स दक्खि
र्ण रुभगे कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पथरिथमेणं ६ उत्तरिल्लस भवणस्स पञ्चत्यिमेणं उत्तरपचत्पिमिलस्स पासायवःसगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते कूडे वइरसेगा देवी रायवाणी उत्तरेणं ७ उत्तरितस्स भवणस्स पुरस्थिमेणं उत्तरपुरथिमिलस पासायवसगस्स पचत्थिभेणं वदरकूटे बलाया देवी रायहाणी उत्तरेणंति ८. कहिण भन्ते ! गन्दणवणे बळकूडे णाम फूडे पण्णते,
attatreesesercenesesea
दीप
अनुक्रम [१९७]
श्रीजम्बू. ६२
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४],------------------..........
------ मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या वृत्तिः
[१०४]
दीप अनुक्रम [१९७]
श्रीजम्बू-18 गोषमा! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्यिमेणं एत्थ पावणणे बलकूडे शाम के प० व हरिस्साकस
वृक्षस्कार
मेरी नन्दद्वीपशा-1 रायहाणी अतं चैव बलकूडस्सवि, गवरं बलो देवो यहाणी सत्तरपुरस्थिमेणंति (पूर्व १०४) न्तिचन्द्री
8 नादिवनाअथ द्वितीयवनं पृच्छमाह-कहिण'मित्यावि, प्रश्नः प्रतीता, उत्सरसूत्रे गौतम! भद्रशालवनस्य बसमस्मणी- नि.
|| याङ्कमिभागात् पश्चयोजनशतान्यूर्वमुत्पत्त्य-मत्वाऽवतो वर्द्धिष्णाविति गम्यं मरदरे पर्वते एतस्मिन प्रदेशे नन्दन-181 |१०४ ॥३६७।। || वनं नाम बनं प्रज्ञप्त, पञ्चयोजनशतानि 'चक्रकालविष्कम्भेन' चकवाल-विशेषस्य सामान्येऽनुप्रवेशात् समचकवालं|81
|| तख यो विष्कम्भा-स्वपरिक्षेपस्य सर्वतः समप्रमाणतया विष्कम्भस्तेन, अनेन विषमचक्रबालाविविष्कम्भनिरासः, अत। एव वृत्तं, तच मोदकादिवत् धनमपि स्यादत माह-वलयाकारं-मध्येशुपिरं यत् संस्थानं तेन संस्थितं, इदमेव द्योत
यति-यन्मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य-वेष्टयित्वा तिश्चति । अथ मेरोबहिर्विष्कम्भादिमानमाह-णवजो-18 || अण'इत्यावि, मेखलाविभागे हि गिरीणां बाह्याभ्यन्तररूपं विष्कम्भवयं भवति, तत्र मेरी बाह्यविष्कम्भोऽयं-नवयो-181 || जनसहस्राणि नव शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि षट् चैकादशभामा योजनस्य, तथाहि-मेरोरुमेकस्मिन् योजने गते [8Insan | विष्कम्भसम्बन्धी एक एकादशभागो योजनस्य मतो लभ्यते इति प्रागुकं ततोऽत्र त्रैराशिक-पोकयोजनारोहे मेरो-12
परि व्यासस्यापचयः सर्वत्रैकादशो भागो योजनस्यैको लभ्यते ततः पञ्चशतयोजनारोहे कोऽपचयो लभ्यते ।, लब्धानि । ४५ योजनानि, एतत् समभूतलगतज्यासात् दशयोजनसहस्ररूपात् त्यज्यते जातं यथोकं मानं, एतच नन्दनव
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
दीप अनुक्रम [१९७]
PL नस्य बहिः पूर्वापरयोरुत्तरदक्षिणयोर्वा अन्तयोः सम्भवति, अतो नन्दनवनावहितित्वेन बाहो निरिविकाभः, तथा
एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि एकोनाशीवधिकानि किचिद्विशेषाधिकाचि इत्ययं बाह्यो गिस्पिरिरयो मेकपरिधिरित्यर्थः, पमिति वाक्यालङ्कारे अन्तगिरिविष्कम्भो नन्दचक्कादळक यो गिरिविस्तारः सोऽष्टयोजनसहस्राणि नव च योजनशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि षट् च एकादशभागा योजनस्वेत्येतावत्प्रमाणः, अयं च बाह्यगिरिविशाकम्भे सहस्रोचे यथोकः स्यात्, तथा अष्टाविंशतियोजनसहखाणि श्रीणि च योजनशतानि पोडशाषिकाचि अष्ट
चैकादयभागा योजनस्तावप्रमाणोऽन्तगिरिपरिरय इति, पासिति प्रावत् । अथात्र पावरवेविकाचाह-से || HI प्रसाए पड़म'इत्यादि, व्यकं, अथात्र सिद्धायक्वादिवक्तव्यमारभ्यते-'मन्दरस्म पमित्यादि, मन्दस्स्य पूर्वस्त्रां मत्र
चन्दने पञ्चाशयोजनाविक्रसे महदेकं सिद्धायननं प्रज्ञप्तम्, एवमिति-भवशालबनानुसारेण चतसृषु विधुपवारि सिद्धायकवानि विदिक्षु पुष्करिण्यः, तदेव प्रमाण सिद्धायतवानां पुष्करिणीनां च बन्नद्रशाले उक्त प्रासादावतंसकास्तथैव चक्रेशानयोर्वाच्याः यथा भद्शाले दक्षिणविकसम्बद्धवविदिग्वर्तिनः प्रासादाः शक्रस्प तथोत्तरदिसम्बद्धविधिग्वर्जिनस्तु शान्द्रस तेनैव प्रमाणेन-पश्चयोजनशतोच्चत्वाविजेति, अत्र च पुष्करिणीच नामानि सूत्रकारालिखितवालिपिनमादाद्वा आदुर्दोषु च दृश्यन्ते इति तत्रैशान्यादिप्रासादक्रमाक्मिानि नामानि द्रष्टव्यानि पूज्यप्रणीतक्षेत्रविचारतः बन्दोत्तस १ जन्दा र सुनन्दा ३ नन्दि वर्जना ४ तथा नन्दिषेणा १ अमोघा २ गोस्तूपा ३ सुदर्शना ४ तथा
Rataeanta
Sanilon
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------------- ------------------------ मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
मेरौ नन्द
प्रत सूत्रांक
[१०४]
दीप
श्रीजम्बू
भद्रा १ विशाला २ कुमुदा ३ पुण्डरीकिणी ४ तथा विजया १ वैजयन्ती २ अपराजिता ३ जयन्ती ४ इति, कूटान्यपि वक्षस्कारे द्वीपशा
मेरुतस्तावत्येवान्तरे सिद्धायतनप्रासादावतंसकमध्यवर्तीनि ज्ञातव्यानि, तत्र यो विशेषस्तमाह-पन्दणवणे णमित्यादि, न्तिचन्द्री- कं, भद्रशालेऽष्टौ कूटानि इह तु नव ततः सङ्ख्यया नामभिश्च विशेषः, तेष्वाचं स्थानतः पृच्छति-कहि ण'-1 नादिवना
निसू. या वृत्तिः मित्यादि, क भदन्त! नन्दनवने नन्दनवन कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य सम्बन्धिनः पौरस्त्य
१०४ ॥३६॥
सिद्धायतनस्योत्तरतः उत्तरपौरस्त्ये-ईशानदिग्वर्तिनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन एतस्मिन् प्रदेशे नन्दनवनकूटं नाम कूट
प्रज्ञप्त, अत्रापि मेरुतः पश्चाशयोजनातिक्रम एवं क्षेत्रनियमो बोध्या, अन्यथाऽस्य प्रासादभवनयोरन्तरालवर्तित्त्वं न शासात्, अथ लाघवार्थमुक्तस्य वक्ष्यमाणानां च कूटानां साधारणमतिदिशति-पञ्चशतिकानि कूटानि पूर्व विदिग्रहस्तिकू-18
प्रकरणे वर्णितानि उच्चत्वव्यासपरिधिवर्णसंस्थानराजधानीदिगादिभिः तान्यत्र भणितव्यानीति शेषः, सदृशगमत्वात्, अत्र देवी मेघड्करा नाम्नी अस्य राजधानी विदिशि अस्य पद्मोत्तरकूटस्थानीयत्वेन राजधानीविदिगुत्तरपूर्वा ग्राह्या, अथ शेषकूटानां तद्देवीनां तद्राजधानीनां च का व्यवस्था इत्याह-'एआर्हि'इत्यादि, एताभिर्देवीभिश्चशब्दाद् राजजधानीभिरनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणाभिः सह पूर्वाभिलापेन नन्दनवनकूटसत्कसूत्रगमेन नेतव्यानि इमानि वक्ष्यमाणानि ॥३६८॥ ISकुटानि इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्दिग्भिः, एतदेव दर्शयति-'पुरथिमिलस्स'इत्यादि, इदं च सर्व भद्रशालवनगमसदृशं
तेन तदनुसारेण व्याख्येयं, विशेषश्चात्राय-पञ्चशतिके नन्दनवने मेरुतः पञ्चाशयोजनान्तरे स्थितानि पञ्चश्नतिकानि
अनुक्रम [१९७]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४],-----------------...........
---------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४]
कूटानि किञ्चिन्मेखलातो बहिराकाशे स्थितानि बोध्यानि बलकूटवत्, एतत्कूटवासिन्यश्च देव्योऽष्टौ दिक्कुमार्यः अत्र नवमं कूटं सहस्राङ्कमिति पृथक् पृच्छति-'कहिणमित्यादि, क भदन्त ! नन्दनवने बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञतम् , गौतम! मेरोरीशानविदिशि नन्दनवनं अत्रान्तरे बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्त, अयमर्थ:-मेरुतः पश्चाशयोजनातिक्रमे ईशानकूणे ऐशानप्रासादस्ततोऽपीशानकोणे बलकूटं, महत्तमवस्तुनो विदिशोऽपि महत्तमत्वात् , एवमनेनाभिलापेन |यदेव हरिस्सहकूटस्य-माल्यवद्वक्षस्कारगिरेनवमकूटस्य प्रमाण सहस्रयोजनरूपं, यथा चाल्पेऽपि स्वाधारक्षेत्रे महतो-18 ऽप्यस्यावकाशः या च राजधानी चतुरशीतियोजनसहनप्रमाणा तदेव सर्व बलकूटस्यापि नवरमत्र बलो देवस्तत्र तु हरिस्सहनामा । अथ तृतीयवनोपक्रमः
कहि णं भन्ते! मन्दरए पव्वए सोमणसवणे णाम वणे प०१, गोअमा! णदणवणस्स बहुसमरमणिज्वाओ भूमिभागाओ अद्धतेबढि जोमणसहस्साई उई उप्पहत्ता एत्य गं मन्दरे पत्रए सोमणसवणे णाम वणे पण्णते पचजोषणसयाई चयावालविक्खम्भेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जेणं मन्दरं पव्वयं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठर, चत्तारि जोमणसहस्साई दुणि य बावत्तरे जोअणसए अढ व इकारसभाए जोअणस्स चाहिं गिरिविक्खम्भेणं तेरस जोअणसहस्साई पच य एकारे जोअणसए छच इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं तिणि जोअणसहस्साई दुणि अ बाक्तरे जोमणसए अह य इकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्सम्भेणं दस जोमणसहस्साई तिष्णि अ अउगापण्णे जोअणसए तिणि भइकारसभाए जोमणस्स अंतो गिरि
दीप अनुक्रम [१९७]
seeeeeeseseseseae
se
अथ सोमनसवनस्य वर्णनं क्रियते
~392
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------------
------ मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
सार
Deeas
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः ॥३६९॥
[१०५]
दीप
जनाले पुगाए परमवखेइमाए एगेण य वणसंडेणं मामो ममता संपरिकिसने कामको किन्ने किये
। यन्ति एवं कूडवजा सथैव णदणवणवत्तव्यया भाणियव्या, तं चेव मोचाहिऊमा जाव पासायबासगा सीसामापति (सवं१०५)
सोमनसब
नं.१०५ 'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! मेरौ सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् १, गौतम । मन्दनवनस्य बहुसमरमणीपाद भूमिभागादर्द्धत्रिषष्टिं सार्द्धद्वापष्टिरित्यर्थः योजनसहनाण्यूद्धमुत्पत्त्यात्रान्तरे मन्दरपर्वते सौमनसवनं नाम वन प्रज्ञसं, पञ्चयोजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेनेत्यादिपदानि प्राग्वत् , यम्मन्दर पर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य तिष्ठति, एतच्च कियता विष्कम्भेन कियता च परिक्षेपेणेत्याह-'चत्तारी' त्यादि, प्रथममेखलायामिव द्वितीयमेखला-18 सामपि विष्कम्भद्वयं वाच्यं, वत्र बहिर्गिरिविष्कम्भेन चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विसप्तत्यधिके अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, एतदुपपत्तिरेवं-धरणीतलात् सौमनसं यावद् गमचे प्रेरूच्छ्यस्य १३ सहस्रयोजनाम्यति-18 कान्तानि एषां चैकादशभिर्भागे लब्धं ५७२७३ अस्मिंश्च राशी धरणीतलगतमेरूच्यासायसहस्रयोजनप्रमामाच्छोधिते है। जातं यथोक्तं मानमिति, पहिगिरिपरिरयेण त्रयोदय योजनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि एकादशानि-एकादशाधि-1 कानि षट् च एकादशभागा योजनस्य, तथाऽन्तर्गिरिविकम्भेन श्रीणि योजनसहस्राणि वे वासप्तत्यधिक योजनबते 8॥३६९॥ अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, उपपत्तिस्तु बहिर्गिरिविष्कम्भात् उभयतो मेखलायच्यासे पञ्चशतश्योजकरूपेड-18 पनीते यथोकमानं, अन्तगिरिपरिरयेण तु दश सहस्रयोजनानि श्रीणि च बोजवसतानि एकोनपश्चादधिकाति प्रय-18
अनुक्रम [१९८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ---------------------------------------------- ------ मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०५]
दीप
बडादशभासा योजननेति । अथास्य वर्णकसूत्र-'से पांएगा' इत्यादि, स्य, नवरं एवमुक्ताभिलापेन स्टपर्खा व नन्दनवनवकन्यता अणितन्या, कियत्पर्यन्तमित्याह-वन्तदेव मेरुतः पञ्चाशद्योजक क्षेत्रमवगाव यावत्यामा दावतंसकाः शकेशाचबोरिति, बापीनामानि त्विमानि तेवव क्रमेण, सुमनाः १ सौमनसा २ सौमनांसा सौम-18 नस्या वा मनोरमा ४ तथा उत्तरकुरुः १ देवकुरुः २ वारिशेपमा ३ सरस्वती ४ वा विशाला १मापभना २ अभ-18 यसेना सोहिणी ४ तथा भनोत्तरा १ भद्रा २ सुभद्रा ३ भद्रावती झजवती का । अथ चतुर्थ वर्ना . कहि गं भन्ते ! मन्दरपब्वए पंचगवणे मार्म वणे प०, गो०! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीस जोअणसहस्साई उर्दू उत्पत्ता एत्य पं मन्दरे पन्वए सिहरतले पंडगवणे णाम वणे पण्णसे, चत्वारि चउणउए जोयणसए चक्कबालविक्खम्भेणं बढे बळ्याफारसंठाणसंठिए, जे गं मंदरचूलिअं सबओ समन्ता संपरिक्खिताणं चिट्ठद तिणि जोमणसहस्साई एगं च बाबढ जोमणसयं किंचिबिसेसाहिन परिक्षेवेणं, से णं एगाए पलमवरवेइआए एगेण व वणसंडेणं जाव किण्हे देवा भासयवि, पंडगनणय महासभाए एल्यण मंबरमूलिमा काम चूलिभा पण्णत्ता चत्तालीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले वारस जोभणाई विकसम्भेषं मझे अट्ठ जोअणाई विक्सम्मेमं उम्पि चमरि जोमणाई विक्खम्भेयं मूले साइस्माई सत्तात्तीक जोआणाई परिक्खेवेणं मजो सारेगावं पणवीस जोअण्णाई परिक्खेवणं उप्पि साइरेगाई.वारस जोनागाई परिक्सवेणं मूते विच्छिण्णा महो संक्षिचा पर्षि व्युमा मोपुच्छसंठापसंठिा समवेरुलिआई अच्छा सा में पाए परमवरवेइभए मक
अनुक्रम [१९८]
JimilennitiNI
अथ पण्डकवनस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],-----------------.........
------ मूलं [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०६]]
दीप अनुक्रम [१९९]
श्रीजम्बू- संपरिक्खित्ता इति उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे जाव सिद्धाययण बहुमदेसभाए कोस आयामेणं अद्धकोस विक्खम्भेणं ४वश्वस्कारे द्वीपशा- देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसय जाव धूवकडुच्छुगा, मन्दरचूलिआए णं पुरथिमेणं पंडगवर्ण पण्णासं जोषणाई पण्डकवन न्तिचन्द्री- ओगाहित्ता एस्थ गं महं एगे भवणे प० एवं जच्चेव सोमणसे पुत्ववणिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायव.सगाण य सो या वृचिः
वेब अन्वो जाव सकीसाणवडेंसगा तेणं चेव परिमाणेणं (सूत्र १०६) ॥३७०॥ 'कहिण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे सौमनसवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्व पत्रिंशद्योजन-18
सहस्राणि उत्पत्य तत्र देशे मन्दरे पर्वते शिखरतले-मौलिभागे पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञ, 'चत्वारि योजनशतानि चतुर्नवत्यधिकानि चक्रवालविष्कम्भेन, एतदुपपत्तिस्तु सहस्रयोजनप्रमाणाच्छिखरण्यासान्मध्यस्थितचूलिकामूलण्यासे
द्वादशयोजनप्रमाणे शोधितेऽवशिष्टेऽधीकृते यथोक्तमान, यत्पण्डकवनं मन्दरचूलिका सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य । 19 तिष्ठति, यथा नन्दनवनं मेरुं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य स्थितं तथेदं मेरुचूलिकामिति, त्रीणि योजनI/ सहस्राणि एकं च द्वाषष्ट-द्वापष्ट-वधिक योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेणेति, अथास्य वर्णकमाह
'से 'इत्यादि, व्यक्त, या च पण्डकवनमभिवाप्य स्थिता सा क चूलिकेत्याह-'पंडगवणे'त्ति पण्डकवनस्य ॥३७०॥ मध्ये द्वयोश्चक्रवालविष्कम्भयोर्विचाले अत्रान्तरे मन्दरस्य-मेरोथूलिका-शिखा इब मन्दरचूलिका नाम चूलिका प्रज्ञप्ता, चत्वारिंशतं योजनान्यूवोच्चत्वेन मूले द्वादश योजनानीत्यादिसूत्रं प्राग्वत् , केवलं सर्वात्मना वैडूर्यमयी
ecease
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------------------------------- ---------- मूलं [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०६]]
॥ नीलवर्णत्वात् । साम्प्रतं सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचवितणामपूर्वार्थजिज्ञापयिषया चूलिकाया इष्टस्थाने विष्कम्भपरि
ज्ञानाय प्रसङ्गगत्योपायो लिख्यते, यथा तत्राधोमुखगमने करणमिदं-चूलिकायास्सर्वोपरितनभागादवपत्य चत्र योजनादावतिक्रान्ते विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिक्रान्तयोजनादिके पञ्चभिर्भक्के लब्धराशिश्चतुर्भिर्युतस्तत्र व्यासः स्यात्, तत्र उपरितलाविंशतियोजनाम्यवतीर्णस्ततो विंशतिर्धियते तस्याः पञ्चभिर्भागे लब्धाश्चत्वारः ते चतुर्भिः सहिताः
अष्टौ एतावानुपरितलादिशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि भावनीयं, यदा तूर्ध्वमुखगत्या विष्कम्भजिज्ञासा 18 तदाऽयमुपाय:-चूलिकाया मूलादुत्पत्य यन्त्र योजनादौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिकान्तयोजनादि के पंचभिर्भके यल्लब्ध || ४ तावत्प्रमाणे मूलविष्कम्भादपनीते अवशिष्टं तब विष्कम्भः, तथाहि-मूलास्किल विंशतिर्योजनान्यूर्व गतस्ततो विंशतिधियते तस्याः पंचभिर्भागे लब्धानि चत्वारि योजनानि तानि मूलविष्कम्भाद् द्वादशयोजनप्रमाणादपनीयते शेषाण्यष्टौ एतावान् मूलादूर्व विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि भावनीयं, यथा मेरौ एकादशभिरंशेरेकोऽशा एकादशभियोजनैरेक योजनं व्यासस्य चीयते अपचीयते तथाऽस्यां पञ्चभिरंशेरेकोऽशः पञ्चभियोजनैरेक योजनं व्यास-10 स्येति तात्पर्यार्थः, अत्र वीज-द्वादशयोजनप्रमाणाचूलाव्यासादारोहे चत्वारिंशद्योजनेषु गतेषु अष्टौ योजनानि त्रुट्यन्ति 8 अवरोहे च तान्येव वर्द्धन्ते ततस्त्रैराशिकस्थापना । ४०१ मध्यराशावन्त्यराशिना गुणिते एकेन गुणितं तदेव है भवतीति जाता अष्टी अस्य राशेश्चत्वारिंशता भजने भागाप्राप्ती द्वयो राश्योरष्टनिरपवतें जातं । अथास्य वर्णक-18
ABReceaesesesses
दीप अनुक्रम [१९९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४],-----------------...........
------ मूलं [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे
सू.१०६
प्रत सूत्रांक [१०६]]
दीप अनुक्रम [१९९]
श्रीजम्- सूत्रम्-'साएगाए पउमवर जावं इत्यावि, माग्वत्, अथास्यां बटुसमरमपीयभूमिभागवर्णन सियतनवर्णन
द्वाप चातिदेशेनाह--'उपि बहुसम इत्यादि, अस्याथूलिकास उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, सच पावत्सद-18 न्तिचन्द्रीया वृचिः
करणात् 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरे इ वा' इत्यादिको प्रायः, तथा तस्य बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं काच्च,
कोशमायामेनार्द्धकोश विष्कम्भेन देशोनं कोशमुच्चत्वेन अचेकस्तम्भशतसन्निषिष्टमित्याविकः सिद्धायतनवर्गको काच्यो ॥३७१॥
याववकडच्छुकानामष्टोत्तरं शतमिति, अथ प्रस्तुतवने भवनप्रासादाविवक्तव्यगोचरं सूत्र-मन्दरचूलिआइत्यादि, मन्दरचूलिकाया: पूर्वतः पण्डकवनं पश्चाशद्योजनान्यवगाह्य अत्रान्तरे महदेकं भवन-सिद्धायतनं प्रज्ञप्त, एवमुक्ताभिलापेन य एव सौमनसवने पूर्ववणितो-नन्दनवनप्रस्तावोक्तो गमः कूटवर्जः सिद्धायतनादिव्यवस्थाधायकः सहशालापकः पाठः स एवात्रापि भवनानां पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानां च ज्ञातव्यः, यावच्छकेशानप्रासादावतंसकारतेनैव प्रमाणेचेति, अत्र वापीनामाचि प्रागुक्तयुक्त्या सूत्रेऽदृष्टान्यपि ग्रन्थान्तरतो लिख्यन्ते, तद्यथा-ऐशावप्रासादे पूर्वादिक्रमेण पुण्ड्रा १ पुण्डूप्रभा २ सुरक्का ३ रक्तावती ४ आग्नेयप्रासादे शीररस १ इक्षुरसा २ अमृतरसा ३ वारुणी ||४ नैऋतप्रासादे शंखोत्तरा १ शङ्का २ शतावरी ३ बलाहका ४ कावव्यप्रासादे पुष्पोत्तरा १ पुष्पयती २ सुपुष्पा IS| पुष्पमालिनी ४ चेति । अथात्राभिषेकशिलावकन्यतामाहIS पण्डकवणे णं भन्ते! वणे कइ अमिसेअसिलामो पण्णताओ?, गोअमा! चत्तारि अभिसेअसिलाओ ५०,०-पंखुसिला ।
॥३७१।।
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [१०७ ]
दीप
अनुक्रम [२००]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ १०७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
प्रण्डुकंक्लसिला २ रसिला ३ रक्तकम्बलसिलेति ४ । कहि भन्ते! पण्डमवणे मण्डसिलामानं सिला पक्का १, गोमा ! मन्दस्कुलिआए पुरत्थिमेणं पंडगवणपुर स्थिमपेरंते, एत्थ णं पंहगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणावया पाईणपढीभविच्छिण्णा अवचन्दसंठाणसंटिआ पंचजोअणसयाई आयामेणं श्रद्धालाई जोअणसयाई क्सिम्भेणं चार जोभणाई बाइछेणं सवकणगामई अच्छा वेइआवणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खिता वण्णओ, वीसे णं पण्डुसिलाए बदिसिं चत्तारि तिम्रोवाणपरुिवगा पण्णत्ता जाव तोरणा वण्णओ, तीसे णं पण्डुसिलाए उपि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते जाव देवा आसयन्ति, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता पथ्य धणुसयाई श्रायामविक्सम्भेणं अद्धाइज्वाइं घणुसयाई बाइलेणं सीहासणवण्णओ भाणिअब्वो विजयदुसवज्जोत्ति । तत्थ णं जे से उत्तरिले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणत्रवाणमन्तरजोइसिनेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ कच्छाइआ तित्थयरा अभिसिञ्चन्ति तत्थ णं जे से दाहिणि सीहास तत्थ णं बहूहिं भवण जाव वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ वच्छाईआ तित्ययरा अभिसिञ्चन्ति । कहि णं ते! पण्डंगवणे पण्डुकंबलासिटाणामं सिला पण्णत्ता ?, गोक्षमा! मन्दरचूलिआए दक्खिमेणं पण्डगवणदाहिणपेरंते, एत्थ पंगवणे पंडुकंवलसिलाणामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उत्तरवाहिणविच्कृिण्णा एवं तं चैव पमाणं तवया य भाणिअब जाब तस्स णं बहुतमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीहासणे ५० तं चैव सीहासणप्यमाणं त्थ णं महिं भवणवर जाव भारहगा वित्वयरा अहिसिश्चन्ति कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे रचसिला णामं सिला प० १, सो० ! मन्दर चूलिआए पश्चत्थिमेणं पण्ढगवणपञ्चत्थिमपेरते, एत्थ में पहगवणे रक्तसिला णामं सिल पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया
Fu Frale & Pinunate Cy
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Sirjantarya
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------------------------------- ----------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
प्रत सूत्रांक
Nati
[१०]
॥३७२।।
पाईणपडीणविच्छिण्णा आव चेव. पमाण सम्बतवणिजमई अच्छा उत्तरदाहिणेणं एत्थ ण दुवे सीहासणा पण्णता, सत्य ण M४वक्षस्कारे जे से दाहिणिले सीहासणे तस्य गं बहूहिं भवण. पम्हाइमा तित्ययरा अहिसिञ्चन्ति, तत्थ गंजे से उत्तरिले सीहासणे तत्व ण अभिषेकबहुहिं भवण जाव वपाइमा तित्वपरा अहिसितंति, फहिणं भन्ते! पण्डरायणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता !, गोमा!
शिलाःसू.
१०७ मंदरचूलिआए उत्तरेणं पंडगवणउत्तर चरिमंते एत्थ पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा सञ्बत वणिजमई अच्छा जाव मझदेसभाए सीहासणं, तत्व णं वहूहिं भवणवइ जाव देवेहिं देवीहि अएरावयगा तित्थयरा अहिसिञ्चन्ति (सूत्र १०७)
पण्डकवने भदन्त! कति अभिषेकाय-जिनजन्मस्नात्राय शिलाः अभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः, गौतम! चतस्रोऽभिषेक| शिलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पाण्डुशिला १ पाण्डुकम्बलशिला २ रक्तशिला ३ रक्तकम्बलशिला ४ अन्यत्र तु पाण्डुकम्पला| १ अतिपाण्डुकम्बला २ रक्तकम्बला ३ अतिरक्तकम्बलेति ४ नामान्तराणीति । सम्प्रति प्रथमायाः स्थानं पृच्छतिकहिण' मित्यादि, प्रश्नःप्रतीतः, उत्तरसूत्रे मन्दरचूलिकायाः पूर्वतः पण्डकवनपूर्वपर्यन्ते पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता, ISI उत्तरतो दक्षिणतश्चायता पूर्वतोऽपरतश्च विस्तृता अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता पञ्चयोजनशतान्यायामेन-मुखविभागेन ॥३७२।। अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन-मध्यभागेन, अर्द्धचन्द्राकारक्षेत्राणामेवमेव परमव्याससम्भवात्, अत एवास्याः परमग्यासः शरत्वेन लम्बो जीवात्वेन परिक्षेपो धनु-पृष्ठत्वेन तत्करणरीत्या आनेतव्या, तथा चत्वारि योजनानि बाह
9000000000393
दीप
अनुक्रम [२००]
Raese
अथ पण्डकवने जिनजन्माभिषेकशिलाया: वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०७]
दीप
ल्येन-पिण्डेन सर्वात्मना कनकमयी प्रस्तावादर्जुनसुवर्णमयी अच्छा वेदिकावनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता, वक्रता च चूलिकासन्ना सरलता तु स्वस्वदिक्क्षेत्राभिमुखा, वर्णकश्च वेदिकावनखण्डयोर्यतच्या, चतुर्योजनो||च्छ्रिता च शिला दुरारोहा आरोहकाणामित्याह-तीसे ण'मित्यादि, तस्यां शिलायां चतुर्दिशि चत्वारि विसोपानप्र
तिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां च वर्णको वाच्यो यावत्तोरणानि । अथास्या भूमिसौभाग्यमावेदयन्नाह-'तीसे प'मित्यादि, शतस्याः-पाण्डुशिलायाः उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावद्देवा आसते शेरते इत्यादि, अथात्राभिषेकासशनवर्णनायाह-तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे उत्तरतो दक्षिणतच अचान्तरे द्वे अभिषेकसिंहासने-जिनजन्माभिषेकाय पीठे प्रज्ञ पंचधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धतृतीयानि धनुनतानि बाहल्येन उच्चत्वेनेत्यर्थः, अत्र च सिंहासनवर्णको भणितव्यः, स च विजयदुष्यवर्ज:-उपरिभागे विजयनामक
चन्द्रोदयवर्णनारहित इत्यर्थः, शिलासिंहासनानामनाच्छादितदेशे स्थितत्वात् , अत्र च सिंहासनानामायामविष्कम्भII योस्तुल्यत्वेन समचतुरनतोक्का, नन्वत्रकेनैव सिंहासनेनाभिषेके सिद्धे किमर्थं सिंहासनद्वयमित्याह-'तस्थ'मित्यादि, तत्र-तयोः सिंहासनयोर्मध्ये 'से' इति भाषालङ्कारे बदौचराहं सिंहासनं तत्र बहुभिर्भवनपतिव्यन्तरज्योति
वैमानिकदेवदेवीभिश्च कच्छादिविजयाष्टकजातास्तीर्थकराः अभिषिच्यन्ते-जन्मोत्सवार्थ मप्यन्ते, यत्तु दाक्षिणावं सिंहासन बत्र बच्चादिका इति, अत्रायमर्थः-एषा हि चिला पूर्वदिग्मुखा एतद्दिगभिमुखं च क्षेत्र पूर्वमहा विदेहास्वं
अनुक्रम [२००]
Pos
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----------------------------
----------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०]
दीप
भीजम्बू
18 तत्र च युगपज्जगद्गुरुयुगं जन्मभाग् भवति तत्र शीतोत्तरदिग्पतिविजयजातो जगद्गुरुरुत्तरदिग्वतिनि सिंहासने- वधस्कारे द्वीपशा
| भिषिच्यते, तस्या एवं दक्षिणदिग्वत्र्तिविजयजातो जगद्गुरुदक्षिणदिग्वर्तिनीति । इदानी द्वितीयशिलाप्रश्नावतार:-MMENT न्तिचन्द्री
शिलामू.. कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे मेरुचूलिकाया दक्षिणतः पण्डकवनदाक्षिणात्यपर्यन्ते पाण्डुकम्बला नानी या वृत्तिः
१०७ शिला प्रज्ञप्ता, माकपश्चिमायता उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा, आद्या तु प्रापश्चिमविस्तीर्णा उत्तरदक्षिणायतेत्येतद्विशेषणद्वयं | ॥३७॥ विहायान्यत प्रागुक्तमतिदिशति-एवमेवोकाभिलापेन तदेव प्रमाणं शिलायाः पश्चयोजनशतायामादिकं वक्तव्यता!!
चार्जुनस्वर्णवर्णादिका भणितव्या यावत्तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तदेव पञ्चधनुःशतादिकं सिंहासनप्रमाणमुञ्चत्वादी ज्ञेयं, तत्र बहुभिर्भवनपत्यादिभिर्देवैर्भारतका-भरतक्षेत्रोत्पन्नास्तीर्थकृतोऽभिपिच्यन्ते, ननु पूर्वशिलायां सिंहासनद्वयं अन तु एक सिंहासनं किमिति ?, उच्यते, पषा हि शिला दक्षिणदिगभिमुखा तद्दिगभिमुखं च क्षेत्र भारताख्यं तत्र चैककालमेक एव तीर्थकृदुत्पद्यते इति तदभिषेकानुरोधेनैकत्वं सिंहासनस्येति । अथ तृतीयशिला-कहि णमित्यादि, इदं च सूत्र पूर्वशिलागमेन बोध्यं, केवलं वर्णतः18 ३ सर्वात्मना तपनीयमयी रक्तवर्णत्वात् , सिंहासनद्वित्वभावना त्वेव-एषा पश्चिमाभिमुखा तद्दिगभिमुखं च क्षेत्रं पश्चिम-18| ॥३७॥
महाविदेहाख्यं शीतोदादक्षिणोत्तररूपभागद्वयात्मक, तत्र च प्रतिविभागमेकैकजिनजन्मसम्भवाद्युगपजिनद्वयमुत्पद्यते, 18 तत्र दाक्षिणात्ये सिंहासने दक्षिणभागगतपक्ष्मादिविजयाष्टकजाता जिनाः स्नप्यन्ते औत्तराहे च उत्तरभागगतवप्रादि
अनुक्रम [२००]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------------
------ मूलं [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०७]
विजयाष्टकजाता इति, सम्प्रति चतुर्थी शिला-'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे सर्व द्वितीयशिलानु
सारेण वाच्यं, वर्णतश्च सर्वतपनीयमयी, श्रीपूज्यैस्तु सर्वा अर्जुनस्वर्णवर्णा उक्का इति, 'ऐरावतका' इति ऐरावतक्षे|| प्रभवाः, सिंहासनस्यैकत्वं भरतक्षेत्रोक्तयुक्त्या वाच्यम् ॥ अथ मेरौ काण्डसङ्ख्यां जिज्ञासुगौतमः पृच्छति
मन्दरस्स Q भन्ते ! पव्वयस्स का कण्डा पण्णता ?, गोयमा ! तओ कंटा पण्णत्ता, तंजहा-हिहिले कंटे मझिले कण्डे उवरिल्ले कण्डे, मन्दरस्सणं भन्ते! पन्वयस्स हिहिले कण्हे कति विहे पण्णत्ते!, गोअमा! चउठिवहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढवी १ उवले २ वइरे ३ सकरा ४, मज्झिमिल्ले णं भन्ते! कण्डे कतिविहे पं०१, गोअमा! चलम्बिहे पणत्ते, संजहा-अंके १ फलिहे २ जायरूले ३ रयए ४, उवरिले कण्डे कतिविहे पण्णते?, गोअमा! एगागारे पण्णचे सव्वजम्घूणयामए, मन्दरस्स णं भन्ते । पञ्वयस्स हेहिले कण्डे केवइ बाहलेणं पं०१, गोयमा! एगं जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते, मज्झिमिले कपडे पुच्छा, गोअमा! तेवढ़ि जोअणसहस्साइं बाहलेणं पं०, उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा! छत्तीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पं०, एवामेव सपुव्यावरेणं मन्दरे पञ्चए एग जोअणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णते। (सूत्र १०८)
'मन्दरस्स णमित्यादि, मेरोर्भदन्त ! पर्वतस्य कति काण्डानि प्रज्ञप्तानि ?, काण्डं नाम विशिष्टपरिणामानुगतो | विच्छेदः पर्वतक्षेत्रविभाग इतियावत्, गौतम ! त्रीणि काण्डानि प्रज्ञतानि, तपथा-अधस्तनं काण्डं मध्यम काण्ड || उपरितनं काण्डं, अथ प्रथमं काण्डं कतिप्रकारमिति पृच्छति-'मन्दरस्स'इत्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, निर्वचनसूत्रे पृथ्वी
दीप
अनुक्रम [२००]
INimtriaryay
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],----------------..........
------ मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०८]
दीप
श्रीजम्बू- 18मतिका उपला-पाषाणाः बजाणि-हीरकाः शर्करा-कर्करिकाः एतम्मयः कन्दो मम्दरस्य, एतदेव हि प्रथमं का vaar
पित द्वीपशा-18|| सहनयोजनप्रमाणं, ननु प्रथमकाण्डस्य चतुप्रकारत्वात् तदीययोजनसहस्रस्य चतुर्विभजने एकैकपकारस्थ बोजमस-18 मेरुकाण्डान्तिचन्द्री-18 चतुर्थाशप्रमाणक्षेत्रता स्यात् तथा च सति विशिष्टपरिणामानुगतविच्छेदरूपत्वात् त एव काण्डसख्यां कथं नानि सू.१०८ या चिः
18वर्द्धयन्तीति !, उच्यते, कचित्पृथ्वीबहुलं कचिदुपलबहुलं क्वचिद् वज्रबहुलं क्वचिच्छर्करावहुलं, इदमुक्तं भवति-उक्क॥३७४॥ |चतुष्टयमन्तरेणान्यत् किमप्यङ्करलादिकं न तदारम्भकमिति अतो नैयत्येन पृथिव्यादिरूपविभागाभावान काण्ड-18
सडल्यावर्धनावकाश इति, मध्यकाण्डगतवस्तुपुच्छार्थमाह-मज्झिमिले' इत्यादि, अङ्करत्नानि-स्फटिकरक्षानि जात-18
रूप-सुवर्ण रजतं-रूष्यम् , अनापीयं भावना-कचिदङ्कबहुलमित्यादि, अथ तृतीय काण्ड-'उबरिले' इत्यादि, प्रश्नो 18| व्यकः, उत्तरसूत्रे एकाकारं-भेदरहितं सर्वात्मना जाम्बूनदं-रक्तसुवर्ण तन्मयमिति । काण्डपरिमाणद्वारा मेरुपरिमा
णमाह-'मन्दरस्स ण'मित्यादि, भगवन् ! मन्दरस्याधस्तनं काण्डं कियद्वाहल्येन-उच्चत्वेन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! एक योजनसहनं बाहल्येन प्रज्ञप्त, मध्यमकाण्डे पृच्छा-प्रश्नपद्धतिर्वाच्या, सा च 'मन्दरस्स णं भन्ते ! पवयस्स ममिमिले ||
काण्टे केवडयं वाहलेणं पण्णते?" इत्यादिरूपा स्वयमभ्यूया, गौतम! त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम्, । अनेन भद्रशालवनं नन्दनवनं सौमनसवनं वे अन्तरे चैतत् सर्व मध्यमकाण्डे अन्तर्भूतमिति, यसु समवाया । शाअष्टचिंचचमे समवाये द्वितीयकाण्डविभागोऽष्टत्रिंशत्सहसयोजनान्युञ्चत्वेन भवतीत्युकं तन्मतान्तरेणेति, एवमुप-11
अनुक्रम [२०१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------------------
----------- मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०८]
दीप
aeneraeoeasanacc0000000000000000
रितने काण्डे पृच्छा ज्ञेया, पत्रिंशद्योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रक्षम् , एवमुक्तरीत्या 'सपुवावरेण' पूर्वापरमीलनेन मन्दरपर्वतः एक योजनशतसहस्रं सर्वाप्रेण-सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः, ननु चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा शिरःस्था चूलिका मेरूप्रमाणमध्ये कथं न कथिता, उच्यते, क्षेत्रचूलात्वेन तस्याः अगणनात्, पुरुषोच्छ्यगणने शिरोगतकेशपाशस्येवेति, इयं च सूत्रत्रयी एकार्थप्रतिबद्धत्वेन समुदितैवालेखि । अथ मेरोः समयप्रसिद्धानि षोडश नामानि प्रश्नयितुमाह
मन्दरस्स पं भन्ते ! पब्बयस कति णामधेना पण्णता ?, गोअमा! सोलस णामधेजा पण्णत्ता, जहा-मन्दर १ मे २ मणी-- रम ३ सुदंसण ४ सर्वपमे अ५ गिरिरावा ६।रवणोचय ७ सिलोचय ८ मझे लोगस्स ९ गाभी य १० ॥१॥ अच्छे 'अ ११ सूरिआवचे १२, सूरिआवरणे १३ तिआ । उत्तमे १४ अ विसादीअ १५, बठेसेति १६ अ सोलसे ॥ २॥ से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुश्चइ मन्दरे पबए २१, गोजमा! मन्दरे पबए मन्दरे णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओबमहिए, से तेणडेणं गोअमा! एवं युषा मन्दरे पब्बए २ अदुत्तरं तं घेवत्ति । (सूर्य १०९)
'मन्दरस्स ण'मित्यावि,मन्दरस्य पर्वतस्य भगवन्! कति नामधेयानि-नामानि प्रज्ञतानि', गौतम! पोडश नाम-II | धेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'मन्दरे'त्यादि गाथाद्वयं, मन्दरदेवयोगात् मन्दरः१, एवं मेरुदेवयोगात् मेरुरिति, नन्वेचं | मेरो स्वामिवयमापयेतेति चेत्, उच्यते, एकस्यापि देवस्य नामद्वयं सम्भवतीति न काप्याशङ्का, निर्णीतिस्तु बहुश्रुस-1 गम्येति २, तथा मनांसि देवानामप्यत्तिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः ३, तथा सा-शोभनं जाम्बूनदमयतया रत्न
अनुक्रम [२०१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ------------------- -------------------------- मूलं [१०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[१०९]
गाथा:
श्रीजम्यू- बहुलतया च मनोनिवृतिकरं दर्शनं यस्यासौ सुदर्शनः ४, तथा रत्नबहुलतया स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा प्रभा-प्रकाशो वक्षस्कारे द्वीपशा- यस्यासी स्वयम्प्रभः ५, चः समुच्चये, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चत्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा गिरि-18 मेरुनामा
16 राजा, तथा रवानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चयः-उपचयो यत्र स रत्नोच्चयः ७, तथा शिलाना-पाण्डशिला-13 या चिः
है। दीनामूर्ध्व-शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स शिलोचयः८, तथा लोकस्य मध्यं, अस्य सकललोकमध्यवर्तित्वात...॥ ॥३७५॥ नन्वत्र लोकशब्देन चतुर्दशरज्वात्मकलोके व्याख्यातव्ये 'घम्माइ लोगमज्झं जोअणअस्संखकोडीहिं' इति वचनात् |
18| समभूतलादलप्रभाया असंख्याताभिर्योजनकोटीभिरतिक्रान्ताभिर्लोकमध्यं तत्र च मेरोरसम्भवेन बाधितं व्याख्यान,181 |8|| अथ लोकशब्देन तिर्यग्लोकस्तस्याप्यष्टादशशतयोजनप्रमाणोच्चस्यास्मिन्नेवान्तलीनत्वात् कुतस्तरामस्य लोकमध्यवर्ति-18
त्वमिति चेत्, उच्यते, तिर्यग्लोके तिर्यग्भागस्य स्थालाकारैकरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भस्यात्र लोकशब्देन विवक्षणात् 18 तस्य मध्यं, मेरुः तन्मध्यवत्तीत्यर्थः, अस्मात् सर्वतोऽप्यलोकस्य पञ्चसहस्रोनार्द्धरज्जुप्रमाणेन दूरव्यवहितत्वात् , अत ||
एवोपलक्षणादलोकस्याप्यसौ मध्यं अस्मात् सर्वतोऽप्यलोकस्यानन्तयोजनप्रमाणत्वात् ९, एवं 'नाभी यत्ति अत्र
च देहलीप्रदीपन्यायेन लोकशब्दस्य संयोजनात् लोकनाभिः, अत्र भावना तु उक्तन्यायेनैव १०, चः समु- ॥३७५॥ 18| चये, अथ श्लोकबन्धेन 'अच्छे' इत्यादि, अच्छः-सुनिर्मल: जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् , चतुर्थोके षोडशसमवाये तु अत्थे |
इति पाठः, तत्र अनेन ह्यन्तरितः सूर्यादिरस्त इत्यभिधीयते, इदं च पूर्वापरमहाविदेहापेक्षया ज्ञेयं, अतोऽयमपि कारणे ।
दीप अनुक्रम [२०२-२०५]]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------------- -------------------------- मूलं [१०९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०९]
गाथा:
90000000000000000000000000000
|कार्योपचारादस्त इति ११, तथा सूर्या उपलक्षणमेतत्तेन चन्द्रादयश्च प्रदक्षिणमावर्त्तन्ति यस्य स सूर्यावर्तः १२, तथा सूर्यैरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्च समन्ताद् भ्रमणशीलैरात्रियते स्म-वेष्टयते स्मेति सूर्यावरणः 'कृबहुल' (श्रीसिद्ध०६-१-११५।१-२) मिति वचनात् कर्मण्यनत्प्रत्ययः १३, इतिशब्दो नामसमाप्तौ चः समुच्चये, तथा | उत्तमो गिरिषु सर्वतोऽप्यधिकसमुन्नतत्वात् , समवायाङ्क तु उत्तर इति पाठः, तत्र उत्तरत:-उत्तरदिग्वती सर्वेभ्यो भरतादिवर्षेभ्य इति, यदाह-"सर्वेपामुत्तरो मेरु"रिति, ननु भरतादिभ्यः उत्तरदिग्वर्तित्वं जम्बूद्वीपपट्टादौ विलोकनेन सुज्ञेयं ऐरावतादिभ्यः कथमुत्तरदिग्वर्तित्व ?, उच्यते, यत्क्षेत्रीयाणां यस्यां दिशि सूर्योदयः तरक्षेत्रीयाणां सा पूर्वेति सर्वेषां सम्प्रदायः, तेन तदनुसारेण तत्तत्क्षेत्रेषु पूर्वादिदिग्व्यवहारं जम्बूद्वीपपट्टादौ गुरुहस्तकलातः परिभाव्यैरावतादिभ्योऽप्यस्योत्तरदिग्वतित्वमवसेयं १४, चः समुच्चये, दिशामादिः-प्रभवो दिगादिः, तथाहि-रुचकादिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्ती ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते १५, तथाऽवतंस:-शेखरः गिरीणां श्रेष्ठ इत्यर्थः १६, चः पूर्ववत् , अस्यैवार्थस्य निगमनमाह-इति पोडशः ।। अथ यदुक्तं-पोडशसु नामसु मन्दरेति मुख्यं नाम तनिदान पिपृच्छिषुराह-से केणटेण'मित्यादि, व्यक्तम् ॥ उक्का महाविदेहाः अथ तत्परतोवर्तिनं नीलवन्तं नाम गिरि पिच्छिषुराहकहि णं भन्ते! जम्बुद्दीचे दीवे णीलवन्ते णामं वासहरपव्वए पणते?, गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मगवासस्स
दीप अनुक्रम [२०२-२०५]
serseseseseseseserce
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], --------------
---------------------- मलं [११०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
म.२.५
सूत्रांक
[११०]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया पृत्तिः ॥३७६।।
mesesesesese
[४वक्षस्कारे नीलबनिखिर्णनं० सू. ११०
गाथा:
दक्षिणेणं पुरस्थिमिछलवणसमुहस्स पचस्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीचे २ णीलवन्ते णाम वासहरपचए पण्णसे पाईणपडीणायए नदीणदाहिणविच्छिण्णे णिसहवत्तव्वया णीलबन्तस्स भाणिअव्या, णवरं जीवा दाहिणेणं घणु उत्तरेणं एत्य णं फेसरिदहो, पाहिणेणं सीआ महाणई पवूदा समाणी उत्तरकुर एजेमाणी २ जमगपव्यए णीळयन्तउत्तरकुरुचन्देरावतमालवन्तरहे अ दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भइसालवणं एजेमाणी २ मन्दर पव्वयं दोहिं जोभणेहिं असंपत्ता पुरत्याभिमुही आवचा समाणी महे मालवन्तवक्खारपब्वयं पालयिता मन्दरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पुष्यविषहवास दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चावहिविजयाओ मट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पचर्हि सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई बालहत्ता पुरथिमेण सणसमुरं समप्पेइ, अवसिद्ध तं वत्ति । एवं णारिकतावि उत्तराभिमुही अव्वा, वरमिमं णाणसं गम्भावइवटवेअपव्ययं जोमणेणं असंपत्ता पचल्याभिमुही आवत्ता समाणी अवसिद्ध तं चेव पवहे अ मुहे अ जहा हरिकन्तासलिला इति । णीलवन्ते णं भन्ते ! बासहरपब्बए कइ कूड़ा पण्णात्ता, गोभमा! नव कूडा पं०, तंजहा-सिद्धाययणको० सिद्धेणीले २ पुष्यविदेहे । सीमा
यस कित्ति ५ णारी अ६।अवरविदेहे ७ रम्मगकूड़े ८ अवसणे चेव ॥१॥ सब्वे एए कूडा पञ्चसइया रायहाणीउ ..(उत्तरेणं । से केजदेणं भन्ते ! एवं वुथर-णीलवन्ते वासहरपत्रए २६, गोअमा! जीले गीलोभासे णीलवन्ते अ इत्य देवे महि
दीए जाब परिवसइ सम्ववेरुलिआमए, णीलवन्ते जाव णिचेति (सूत्र ११०)
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दीप अनुक्रम [२०६-२०८]
॥३७६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------------------------------------- मलं [११०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११०]
गाथा:
'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान्नाम्ना वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः!, उत्तरसूत्र व्यक्तं, नवरं रम्प-1 कक्षेत्र महाविदेहेभ्यः परं युग्मिमनुजाश्रयभूतमस्ति तस्य दक्षिणतः, अयं च निषधवन्धुरिति तत्साम्येन लापर्व दर्शयति-णिसह'इत्यादि, निषधवक्तव्यता नीलवतोऽपि भणितम्या, नवरमस्य जीवा-परम आयामो दक्षिणतः, उत्तरतः। क्रमेण जगत्या वक्रत्वेन न्यूनतरत्वात् , धनुःपृष्ठमुत्तरतः, अत्र केसरिद्रहो नाम द्रहः, अस्माच शीता महानदी प्रव्यूहा सती उत्तरकुरून् इयूती २-परिगच्छन्ती २ बमकपर्वती नीलवदुत्तरकुरुचन्द्ररावतमाल्यवनामकान् पश्चापि ग्रहांश्च द्विधा विभजन्ती ३ चतुरशीत्या सलिलासहरापूर्यमाणा २ भद्रशालयनमियूती २-आगच्छन्ती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां | योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पूर्वाभिमुखी परावृत्ता सती माल्यववक्षस्कारपर्वतमधो विदार्य मेरोः पूर्वस्या पूर्वमहाविदेह ॥
द्विधा विभजन्ती २ एकैकस्माञ्चक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ सलिलासहरापूर्यमाणा र आत्मना सह पञ्चभिर्नदी18 लात्रिंशता च सहस्रः समना अधो विजयस्य द्वारस्य जगतीं विदार्य पूर्वस्या लवणसमुद्रमुपैति, अवशिष्ट प्रवहन्या
सोण्डत्वादिकं तदेवेति-निषधनिर्गतशीतोदाप्रकरणोक्कमेव, अथास्मादेवोत्तरतः प्रवृत्तां नारीकान्तामतिदिशति-'एवं नारीकता'इत्यादि, एवमुकन्यायेन नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतन्या, कोऽर्थः-यथा नीलवति केसरिद्रहाद् दक्षिणाभिमुखी शीता निर्गता तथा नारीकान्ताऽप्युत्तराभिमुखी निर्गता, तर्हि अस्याः समुद्रप्रवेशोऽपि तद्वदेवेत्याशमानमाह-नवरमिदं नानात्वं गन्धापातिनं वृत्तवैताब्यपर्वतं योजनेनासम्माचा पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती इत्यादि-18
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दीप अनुक्रम [२०६-२०८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ............................--
--------------------- मूलं [११०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[११०]
११०
गाथा:
श्रीजम्यू- कमवशिष्टं सर्व तदेव हरिकान्तासलिलावद्भाव्यं, तद्यथा-'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिला-18| वक्षस्कारे
संहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइ ३ त्ता पचत्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ'त्ति, अत्र चावशिष्टपदसंग्रहे प्रवहमुख- नीलवनिन्तिचन्द्री
व्यासादिकं न चिन्तितं, समुद्रप्रवेशावधिकस्यैवालापकस्य दर्शनात्, तेन तत् पृथगाह-अवहे च मुखे च यथा हरिकान्ता रिमू या वृचिः
सलिला, तथाहि-प्रवहे २५ योजनानि विष्कम्भेन अर्द्धयोजनमुद्वेधेन मुखे २५० योजनानि विष्कम्भेन ५ योजना-18 ॥३७७॥ न्युद्वेधेनेति, यच्चात्र हरिसलिलां विहाय प्रवहमुखयोहरिकान्तातिदेश उक्तस्तत्हरिसलिलाप्रकरणेऽपि हरिकान्ताति-18
देशस्योक्तत्वात् , अथात्र कुटानि प्रष्टव्यानि-णीलवन्ते ण'मित्यादि, नीलवति भदन्त ! वर्षधरपर्वते कति कूटानि | । प्रज्ञप्तानि?, गौतम! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूट, अत्र नवानामप्येकत्र संग्रहायेयं गाथा-'सिद्धे'त्ति
सिद्धकूट-सिद्धायतनकूट, तच्च पूर्वदिशि समुद्रासन्नं, ततो नीलवत्कूट-नीलवद्वक्षस्काराधिपकूट, पूर्वविदेहाधिपकूट शीताकूट-शीतासुरीकूट, चः समुच्चये, कीर्त्तिकूट-केसरिदहसुरीकूटं नारीकूट-नारीकान्तानदीसुरीकूट, चः पूर्ववत् । | अपरविदेहकूट-अपरविदेहाधिपकूटं रम्यककूट-रम्यकक्षेत्राधिपकूटं उपदर्शनकूट-उपदर्शननामकं कूट, एतानि च
कूटानि हिमवत्कूटवत् पश्चशतिकानि-पञ्चशतयोजनप्रमाणानि वाच्यानि वक्तव्यताऽपि तद्वत्, कुटाधिपानां राजधा- ||३७७॥ ॥ न्यो मेरोरुत्तरस्याम् । अथास्य नामनिबन्धनं पृच्छन्नाह से केणट्रेणं' इत्यादि, प्रश्नः प्राग्वत, उत्तरसूत्रे चतुर्थों वर्ष-18
घरगिरिनालो-नीलवर्णवान् नीलावभासो-नीलप्रकाशः आसन्नं वस्त्वन्यदपि नीलवर्णमयं करोति तेन नीलवर्णयोगा-15
दीप अनुक्रम [२०६-२०८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
------------------- मूलं [११०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
शनीलवान , नीलांश्चात्र महद्धिको देवः पस्योपमस्थितिको यावत्परिवसति तेन तद्योगाद्वा नीलवान , अथवा असौ ISI सर्ववैडूर्यरत्नमयस्तेन वैडूर्यरत्नपर्यायकनीलमणियोगानीलः शेष प्राग्वत् । अथ पश्चमं वर्ष प्रश्नयनाह
Acce
[११०]
गाथा:
कहि णं भन्ते। जम्बुद्दीवे २ रम्मए णाम वासे पण्णत्ते, गो०णीलवन्तस्स उत्तरेणं रुप्पिरस दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पञ्चस्थिमेणं पत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एवं जह व हरिवासं तह व रम्मयं वासं भाणिअव्वं, णवर दक्खिणेणं जीवा उत्तरेण धणु अवसेसं सं चेव । कहि णं भन्ते। रम्मए वासे गन्धावईणामं पट्टवेअद्धपव्वए पण्णते, गोजमा! णरकन्ताए पञ्चत्यिमेणं णारीकन्ताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमादेसभाए एत्थ णं गन्धावईणामं वट्टवेअद्धे पव्वए पण्णते, जं चेव विश्रडावइस्स तं व गन्धावइस्सवि वत्तव्वं, अट्ठो बहवे उप्पलाई जाव गंधावईवण्णाई गन्धावइप्पभाई पउमे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमहिईए परिवसइ, रायहाणी उत्तरेणन्ति । से केणद्वेणं भन्ते । एवं बुच्चइ रम्मए वासे २१, गोलमा ! रम्मगबासे णं रम्मे रम्मए रमणिले रम्मए अ इत्य देवे जाव परिवसइ, से तेणटेणं० । कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ रुप्पी गाम बासहरपवए पण्णत्ते, गोअमा ? रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्षिणेणं पुरथिमळवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलबणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीवे दीये रुप्पी णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते पाईणपडीणायए उद्दीणदाहिणविच्छिण्णे, एवं जा चेव महाहिमवन्तवत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्सवि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव महापुण्डरीए दहे णरकन्ता णदी दक्षिणेणं णेमब्बा जहा रोहिमा पुरत्यिमेणं गच्छद, रुप्पकूला उत्तरेणं अव्या जहा हरिकन्ता पथरिथमेणं गच्छद
BARSAARCce
दीप अनुक्रम [२०६-२०८]
Jantlema
अथ रम्यकवर्षक्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मूलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ભરૂ૭૮ા
वक्षस्का
रम्यकादीIS निसू.१११
[१११]
गाथा
अवसेसं तं वति । किमि गं भन्ते! वासहरपब्बए कह कूडा पं०१, गो. अट्ट कूला पं० त०-सिद्धे १ रुप्पी २ रम्मग ३ परकम्ता ४ बुद्धि ५ रुपकूला वा हेरण्णवच ७ मणिकंचण ८ अट्ट य रुप्पिमि कूड़ाई ॥१॥ सव्वेवि एए पंचसइआ रायहाणीमो जसरेण । सेकेण्डेणं भन्ते! एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरपब्बर २१, गोअमा! रुप्पीणामवासहरपव्वए रुप्पी हप्पपट्टे रुप्पोभासे सम्बकापामए रुपी अ इत्थ देवे पलिभोवमट्टिईए परिवसह, से एएणडेणं गोअमा! एवं बुधइत्ति । कहि णं भन्ते ! जम्बुहीवे २ हेरण्णकए णानं वासे पण्णत्ते, गो०! रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पत्धिमेणं पञ्चत्यिअलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीचे दीचे हिरण्यवए नासे पण्णत्ते, एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयंपि भागिअब, णवर जीवा दाहिजेणं उत्तरेणं धणुं अवसिटुं तं चेवत्ति । कहिणं भन्ते! हेरण्णवए वासे मालबन्तपरिआए णामं वहवेभदपव्वए पं०१, मो०! सुवण्णकूलाए पचत्विमेणं रुष्पकूलाए पुरत्यिमेण एव गं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्मदेसभाए मालवन्तपरिआए णामं कवेअवे पं० जह चेव सहावइ तह व मालवंतपरिमाएवि, अट्ठो उप्पलाई पउमाई मालवन्तप्पभाई मालवन्तवण्याई मालवन्तवण्णाभाई पभासे अ इत्थ देवे महितीए पलिओवमहिए परिवसइ, से एएणद्वेण०, राबहाणी उत्तरेणंति । से केणद्वेण भन्ते! एवं बुबह-हेरण्णवए वासे २१, गोअमा! हेरण्णवएणं वासे रुप्पीसिहरीहिं वासहरपव्यएहि दुहओ समवगूढे गिवं हिरण दलद जिवं हिरणं मुंचइ णिशं हिरणं पगासइ हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एएणद्वेणंति । कहि णं मन्ते ! जम्युहीवे दीवे सिहरी णामं पासहरपवए पण्णते!, गोगमा ! हेरण्णक्यस्स उत्तरेण एराक्यस्स दाहिनेणं पुरविमलवणसमुदस्स पचत्विमेण पञ्चस्थिमलवणसमु. हस्स पुरथिनेणं, पर्वजह जुबहिमवन्तो वह पेव सिहरीन मी जीवा पाहिजेणं क्यु दरेवरित पुसरी दहै
दीप अनुक्रम
[२०९
IS॥३७८॥
-२११]
Simillennisix
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मल [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
गाथा
मुवष्णकला महाणई दाहिणेणं भव्या जहा रोहिअंसा पुरथिमेयं गच्छा, एवं जह चेव गंगासिन्धो सह पेच रतारपाजो गेमब्वाबो पुरथिमेणं रत्ता पचत्यिमेण रत्तवई अबसिहं तं चेन, [अनसेसं भाणिअवंति]। सिहरिम्मियं भन्ते! वासहरपम्बए का कूड़ा पण्णता !, गो० इकारस कूडा पं० त०-सिद्धाययणकूडे १ सिहरिकूढे २ हेरण्णवयकूडे ३ मुवण्णकूलाकूडे ४ मुरादेवीकूड़े ५ रचाकूड़े ६ लच्छीफूडे ७ रत्तवईकूड़े ८ इलादेवीकूडे ९ एरवयकूडे १० तिगिच्छिकूडे ११, एवं सब्वेवि कूड़ा पंचसहभा रायहाणीयो उत्तरेणं । से फेणद्वेणं भन्ते! एवमुच्चा सिद्दरिवासहरपब्वए २१, गोअमा! सिहरिमि वासहरपव्वए बहने कूडा सिहरिसठाणसंठिआ सन्वरयणामया सिहरी अ इत्य देवे जाव परिवसइ, से तेणद्वेण । कहि णं भन्ते । जम्बुरीने वीवे एरावए णाम वासे पण्णते, गोभमा। सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलषणसमुहस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्यिमेणं पचत्थिमळवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं, एत्य णं जम्बुडीवे दीवे एरावए णाम कासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्स वत्तव्वया सव सपा निरवसेसा
अब्बा सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणा णवर एरावसे पावट्टी परावओ देवो, से तेणडेणं एरावए वासे २ । (सूत्र १११) प्रश्नः मतीता, उत्तरसूत्रे नीलवच उत्तरस्वं रुक्मिणो-वक्ष्यमाणस्य पश्चमवर्षकराद्रेर्दक्षिणस्यां एवं बथैव हरिवर्ष तथैव रम्यक वर्ष यश्च विशेषः सनबरमित्यादिना सूत्रेण साक्षादाह-'दक्षिणेणं जी'त्यादि, व्यक्तम् , अय यदुक्क नारीकान्ता नदी रम्पकवर्ष मच्छन्ती शन्धापातिन वृत्तवताव्यं योजनेनासम्प्राप्ठेति, तदेष गन्धापाती कास्तीति पृच्छति-पहि 'मित्यादिक भदन्त ! रम्पके वर्षे वयापाती नाम इवतान्यपर्वतः प्रज्ञतः, गौतम! नरका
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
श्रीभम्न.YMS.
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ----------------------------------------------------- मलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
220
प्रत
सूत्रांक
वक्षस्कारे
[१११]
॥३७९॥
गाथा
श्रीजम्प- न्ताया महानद्याः पाश्चमाया नारीकान्तायाः पूर्वस्यां रम्यकवर्षस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे गन्धापाती नाम पत्त-18
द्वीपशा-18 वैताझ्यः प्रज्ञप्तः, यदेव विकटापातिनो हरिवर्षक्षेत्रस्थितवृत्तवैताब्यस्योच्चत्वादिकं तदेव गन्धापातिनोऽपि वक्तव्यं, यच्च न्तिचन्द्री-18|सविस्तरं निरूपितस्य शब्दापातिनोऽतिदेशं विहाय विकटापातिनोऽतिदेशः कृतस्तत्र तुल्यक्षेत्रस्थितिकत्वं हेतुः, अत्र
शनिसू-१११ या वृचिः
18| यो विशेषस्तमाह-अर्थस्त्वयं-यक्ष्यमाणो बहून्युत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि-तृतीयवृत्तवैताब्यवर्णानि गम्धापा-18 ॥ तिवर्णसदृशानीत्यर्थः रक्तवर्णत्वात् गन्धापातिप्रभाणि-न्धापातिवृत्तवैताळ्याकाराणि सर्वत्र समत्वात् तेन तद्वर्ण-18
खात् तदाकारत्वाच गन्धापातीनीत्युच्यन्ते, पद्मश्चात्र देवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तयोगा-18 || सरस्वामिकत्वाच गन्धापातीति, यथा च विसदृशनामकस्वामिकत्वेन नामान्वर्थोपपत्तिस्तथा प्रागभिहितं, अस्याधिपस्य राजधान्युत्तरस्यां। अथ रम्यकक्षेत्रनामनिवन्धनमाह-से केणटेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेरम्यक वर्ष २१, गौतम! रम्यक वर्ष रम्यते-क्रीच्यते नानाकस्पद्रुमैः स्वर्णमणिखचितैश्च तैस्तैः प्रदेशेरतिरमणीयतया 8 रतिविषयता नीयते इति रम्यं रम्यमेव रम्यकं रमणीयं च त्रीण्येकाथिकानि रम्यतातिशयप्रतिपादकानि, रम्यकश्चात्र
देवो यावत् परिवसति तेन तद् रम्यकमिति व्यवहियते । अथ पञ्चमो वर्षघर:-'कहिणं भन्ते !' क भदन्त ! ॥३७९॥ । जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम! रम्यकवर्षस्य उत्तरस्यां वक्ष्यमाणहैरण्यवतक्षेत्रस्य दक्षि1 णस्यां पूर्वलवणसमुद्रस्य पश्चिमात्यां पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मीनाना पञ्चमो वर्षधरः
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
--------------------- मलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उत्तरदक्षिणयोर्विस्तीर्णः, एवमुक्तानुसारेण यैव महाहिमवद्वर्षधरवक्तव्यता सैव रुक्मि-181 शाणोऽपि पर दक्षिणतो जीवा उत्तरस्यां धनुःपृष्टं अवशेष-व्यासादिकं तदेव-द्वितीयवर्षधरप्रकरणोक्कमेव, द्वयोः परस्परं | | समानत्वात् , महापुण्डरीकोऽत्र द्रहो महापद्मद्रहतुल्या, अस्माञ्च निर्गता दक्षिणतोरणेन नरकान्ता महानदी नेतव्या,
अत्र च का नदी निदर्शनीयेत्याह-'जहा रोहिय'त्ति यथा रोहिता 'पुरथिमेणं गच्छईत्ति पूर्वेण गच्छति समुद्रमिति | शेषः, यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मद्रहतो दक्षिणेन प्रव्यूढा सती पूर्वसमुद्रं गच्छति तथैषाऽपि प्रस्तुतवर्षधराइक्षिणेन निर्गता पूर्वेणाब्धिमुपसर्पतीति भावः, रूप्यकूला उत्तरेण-उत्तरतोरणेन निर्गता नेतन्या, यथा हरिकान्ता हरिवर्षक्षेत्रवाहिनी महानदी 'पच्छत्थिमेणं गच्छइ'त्ति पश्चिमाब्धि गच्छति, अथ नरकान्तायाः समानक्षेत्रवर्तित्वेन
हरिकान्तायाः रूप्यकुलायास्तु रोहिताया अतिदेशो वक्तुमुचित इत्याह-अवशेष-गिरिगन्तव्यमुखमूलव्याससरित्IS सम्पदादिकं वक्तव्यं तदेवेति-समानक्षेत्रवर्तिसरित्प्रकरणोक्तमेव, तच्च नरकान्ताया हरिकान्ताप्रकरणोतं रूप्यकूला
यास्तु रोहिताप्रकरणोतं, यत्तु नरकान्ताया अतुल्यक्षेत्रवर्तिन्या रोहितया सह रूप्यकूलायास्तु हरिकान्तया सहातिदेशकथनं तत्र समानदिनिर्गतत्वं समानदिग्गामित्वं च हेतुः । अथात्र कूटवक्तव्यमाह-रुष्पिमि ण'मित्यादि, रुक्मिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमं समुद्रदिशि सिद्धायतनकूट ततो रुक्मिकूट-पञ्चमवर्षधरपतिकूटं रम्यकूट-रम्यकक्षेत्राधिपदेवकूटं नरकान्तानदीदेवीकूटं बुद्धिकूट
Boemesesecene
गाथा
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
JinEllennia
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
--------------------- मूलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१११]
गाथा
श्रीजम्बू
महापुण्डरीकद्भहसुरीकूटं रूप्यकूलानदीसुरीकूट हैरण्यवतकूट-हैरण्यवतक्षेत्राधिपदेवकूटमणिकाञ्चनकूट, एतानि प्राग्प-18 वक्षस्कारे
रायतश्रेण्या व्यवस्थितानि पञ्चशतिकानि सर्वाण्यपि, राजधान्यः कूटाधिपदेवानामुत्तरस्यां । सम्प्रत्यत्र नामगिदान रम्यकादीन्तिचन्द्री-18 पर्यनयुद्धे-से केण?ण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-रुक्मी वर्षधरपर्वतः २ इति', गौतम ! रुक्मी | निस.१११ या वृतिः
18 वर्षधरपर्वतो रुक्म-रूप्यं शब्दानामनेकार्थत्वात् तदस्यातीति रुक्मी एष सर्वदा रूप्यमयः शाश्वतिक इति नित्य॥३८॥ योगे इन् प्रत्ययः, 'रूप्यावभासो' रूप्यमिव सर्वतोऽवभास:-प्रकाशो भास्वरत्वेन यस्यासौ तथा, एतदेव व्याचष्टे
सर्वात्मना रूप्यमय इति, रुक्मी चात्र देवस्ततस्तन्मयत्वात् तत्स्वामिकत्वाच्च रुक्मीति ध्यपदिश्यते । अथ पठं वर्षे | विभावयितुमाह-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे हैरण्यवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम्, गौतम ! रुक्मिणो वर्षक| रस्योत्तरस्यां शिखरिणो वक्ष्यमाणवर्षधरस्य दक्षिणस्यां 'पुरथिम' त्यादि प्राग्वत् अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यत्र
तनाम वर्ष प्रज्ञप्तम् , एवमुक्कामिलापेन यथैव हैमवतं तथैव हैरण्यवतमपि भणितव्यं, 'नवर'मित्यादि पाठसिद्ध, अब|शिष्ट-व्यासादिकं तदेव-हरण्यवतवर्षप्रकरणोकमेवेति । अथ माल्यवत्पर्यायो वृत्तवैतात्यः कास्तीति पृच्छति कहि 'मित्यादि, कभदन्त । हैरण्यवसवर्षे माल्यवत्पर्यायो नाम वृत्तवैताब्यपर्वतः प्रज्ञप्तः', गौतम! सुवर्णफूलाया
॥३८॥ अवैव क्षेत्रे पूर्वगामिमहानद्याः पश्चिमतो रूप्यकूलायाः अत्रैव पश्चिमगामिमहानद्याः पूर्णतः हैरण्यवतस्य वर्गस्य बहुमराध्यदेशभागेऽवान्तरे माल्यवपर्यायो नाम वृत्तवैवान्यपर्वतः प्रसा, मथैव शब्दापाती तथैव मास्पबत्सर्याया, विशेष
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------------------
-------------------- मुलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
गाथा
इस्त्वषे इति समाह-अर्थोऽयं उत्पलानि-पनामि उपलक्षणात शसपनादिप्रहः माल्यवत्प्रमाणि माल्यवर्णानि गाववर्षाभानीति माग्वत् , प्रभासश्चात्र देवः पल्योपमस्थितिका परिवसति से तेणतुण मित्यादि निगममत्रं प्राग्वत्, राजधानी तस्सोत्तरस्यां शब्दापातिनस्तु दक्षिणस्यां मेरोरिति, अथ हैरण्यवतनानोऽर्थव्यक्तये पृच्छति सेकेण्डेणमित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हैरण्यवतं वर्ष हैरण्यवतं वर्षमिति?, गौतम! हैरण्यवतं वर्ष सक्सिवितरियो । वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः-उभयोर्दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समुपगूढं-समालिङ्गितं, कृतसीमाकमित्यर्थः, अब कथमाया।
समालिङ्गितत्वेनास्य हैरण्यवतमिति नाम सिद्धं !, उच्यते, रुक्मी शिखरी च द्वाषप्येतौ पर्षतौ यथाक्रम सम्याग-1 18 मयो यच यन्मयं तत्र तद्विद्यते हिरण्यशब्देन सुवर्ण रूप्यमपि च ततो हिरण्य-सुघर्ण विद्यते यवासी हिरवान। 18| शिखरी हिरण्यं-रूप्यं विद्यते बस्थासौ हिरण्यवान्-रुक्मी द्वयोः हिरण्यवतोरिदं हैरण्यवतम् , यदिषा हिरण्यं जनेया। 18 आसमप्रदानादिना प्रयञ्चति अथवा दर्शनमनोहारितया सत्र तत्र प्रदेशे हिरण्यं जमेभ्यः प्रकाशयति, साहि
बहबस्तत्र मिथुनकमनुष्याणामुपवेशनशयनाविरूपोपभोगयोग्या हिरण्यमयाः शिलापहकाः सन्ति पस्वन्तिम प्यास्तत्र तत्र प्रदेशे मनोहारिणो हिरण्यमयानिवेशान ततो हिरण्यं प्रशस्वं प्रभूतं नित्ययोगि बाऽस्यातीति हिरण्यक्त तदेव हरण्यवतं, स्वार्थेऽणप्रत्ययः, यदिवा हैरण्यवतनामात्र देवः पस्योपमस्थितिका जापिपरवं परिपायसिनेसस्वामिकत्वाद्धरण्यवतम् । अथ पवर्षभरावसर:-कदिप'मित्यादिक भदन्त । जम्बूद्वीपे डीपे विसरमामय
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------
---------------------- मूलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
गाथा
श्रीवम्- धरपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम। हैरण्यवतस्योत्तरस्या ऐरावतस्य-वक्ष्यमाणसप्तमक्षेत्रस्य दक्षिणस्या 'पुरत्यिमे स्यादि श्वश्वस्तारे
प्राग्वत्, एवमुक्ताभिलापेन यथा क्षुद्रहिमवान् तथैव शिखर्यपि, नवरं जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अवशिष्टं तदेवेति- न्तिचन्द्री
रम्पकादीया चिः
क्षुद्रहिमवत्प्रकरणोक्कमेव, तत्र पुण्डरीको द्रहः, तस्मात्सुवर्णकूला महानदी दक्षिणेन निर्गता नेतव्या, परिवारादिना च निस.१११
यथा रोहितांशा, सा च पश्चिमायां समुद्रं प्रविशति इयं च पूर्वस्यामित्यत आह-'पुरस्थिमेणं गच्छई' एवमुक्ताभि॥३८॥
लापेन सुवर्णकूलायाः रोहितांशातिदेशन्यायेन, यथैव गङ्गासिन्धू तथैव रक्तारकवत्यौ नेतव्ये, तत्रापि दिग्व्यक्तिमाहपूर्वस्या रका पश्चिमायां रक्तावती अवशिष्टं तदेव-गङ्गासिन्धुपकरणोक्तमेव सम्पूर्ण नेतव्यं, अथात्र कूट| वक्तव्यमाह-सिहरिम्मिणं भन्ते! वासहरपथए'इत्यादि, शिखरिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! ६ एकादश कूटानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-पूर्वस्यां सिद्धायतनकूट, ततः क्रमेण शिखरिकूट-शिखरिवर्षधरनाम्ना कूटं हैरण्य
वतक्षेत्रसुरकूटं सुवर्णकूलानदीसुरीकूटं सुरादेवीदिकुमारीकूटं रक्कावर्तनकूटं लक्ष्मीकूट-पुण्डरीकद्रहसूरीकूद रताव
त्यावर्तनकूटं इलादेवीदिक्कुमारीकूटं तिगिच्छिद्रहपतिकूट एवं सर्वाण्यप्येतानि पञ्चशतिकानि ज्ञातव्यानि, क्षुद्रहिमवत्M कूटतुल्यवक्तव्यताकानि ज्ञेयानि, एतत्स्वामिना राजधान्य उत्तरस्यामिति । अथास्य नामनिबन्धनं प्रष्टुमाह से केण-18
18 ॥३८१॥ टेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते शिखरीवर्षधरपर्वतः २१, गौतम! शिखरिणि पर्वते बहूनि कूटानि I 18 शिखरी-वृक्षस्तत्संस्थानसंस्थितानि सर्वरलमयानि सन्तीति तद्योगाच्छिखरी, कोऽर्थः-अत्र वर्षधराद्रौ यानि सिद्धाय
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----------------
-------------------- मुलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
गाथा
तनकूटादीन्येकादश कूटान्युक्तानि तेभ्योऽतिरिक्तानि बहूनि शिखराणि वृक्षाकारपरिणतानि सन्तीति, अनेन चान्येभ्यो वर्षधरेभ्यो ब्यावृत्तिः कृता, अन्यथा तेषामपि कूटवत्वेन शिखरित्वव्यपदेशः स्यादिति, अथवा शिखरी चात्र देवो महर्बिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति तेन तत्स्वामिकत्वात् शिखरीति, से तेणढण'मित्यादि निगमन-18 वाक्यं पूर्ववदिति । अथ सप्तमवर्षावसर:-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ।, गौतम! शिखरिणो वर्षधरस्योत्तरस्या उत्तरदिग्वतिनो लवणसमुद्रस्य दक्षिणस्या 'पुरस्थिमे त्यादि प्राग्वत् अत्रान्तरे॥४ जम्बूद्वीपे ऐरावतं नाम वर्षे प्रज्ञावं, स्थाणुबहुलं कण्टकबहुलं एवमनेन प्रकारेण यैव भरतस्य वक्तव्यता सेवास्थापि सर्वा निरवशेषा नेतव्या, यतो यन्मेरोदक्षिणभागे तमिरवशेषमुत्तरेऽपि भागे भवति, यथा वैतात्येन द्वेषाकृत भरतमि-18|| त्यायुक्तं तथैवैरावतेऽपि विज्ञेयमिति, सा च कथंभूतेत्याह-सओअवणा-पट्खण्डैरावतक्षेत्रसाधनसहिता सनिक्स-181 मणा-दीक्षाकल्याणकवर्णकसहिता सपरिनिर्वाणा-मुक्तिगमनकल्याणकसहिता, नवरं राजनगरी क्षेत्रदिगपेक्षया ऐरावतोत्तरार्द्धमध्ये तापक्षेत्रदिगपेक्षया त्वेषाऽपि दक्षिणार्द्ध एव केवलमिह शास्त्रे क्षेत्रदिगपेक्षया व्यवहारः, क्षेत्रविक् च 'इंदा | विजयदाराणुसाराओं इत्यादिना भावनीयेति, तथा वैतादयश्चात्र विपर्ययनगरसङ्ख्या, जगत्यनुरोधेन क्षेत्रसाङ्कीयात्, 18| तथैरावतनामा चक्रवर्ती वक्तव्यः, कोऽर्थः?-यथा भरतक्षेत्रे भरतश्चक्रवती तस्य च दिग्विजयनिष्क्रमणादिकं निरूपितं
तथैरावतचक्रवर्तिनो वाच्यं, अनेन चैरावतस्वामियोगादरावतमिति नाम सिद्धं, अथवा ऐरावतो नाम्नाऽत्र
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------------------
-------------------- मूलं [१११] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१११]
भीजम्बू- देवो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति चेत्यध्याहार्य, तेन तत्स्वामिकत्वादेरावतमिति व्यवहियते इति ६ वक्षस्कारे द्वीपशा- निगमनवासं स्वयमम्यूह्यम् ॥
रम्यकादीन्तिचन्द्री-18
निप.१११ या इतिः
इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविसयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीजकम्बर॥३८२॥
सुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसवेंजगज्जन्तुजाताभयप्रदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपमोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचिताया जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ रनमषानामयाँ क्षुद्रहिमवदादिवर्षधरैरावतान्तवर्ष
वर्णनो नाम चतुषों वक्षस्कारः ॥
गाथा
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
me
-
R८॥
अत्र चतुर्थ-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
भाग
जंबूद्वीप-उवंगसूत्र [७/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) ।
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भाग
कलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
५३८
३८४
३१४ ४८०
४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१०
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कुलपृष्ठ ६१४ ३७६
४२६
३४४
26
३१२
३३०
४६६
४४२
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
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४८२
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५२८
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नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
आगम [18/21
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "जम्बदवीप-प्रज्ञप्ति (उपांगसत्र-७/२)" [मलं एवं शांतिचंद्र विहिता वत्तिः।
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त:
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-24
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आवास आजम आजमा
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
RE
नम्र
REE
C
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
पEO
ORIEOHIEOS
TOSEa
JAN
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________________ आजम आगम आगम आ मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आप आजम आगम आगम आगम आगम "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: [2] आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम आगम आगम आगमणमा आगम आगम ~426