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श्री-निशीथस्त्रम् । SHREE NISHİTH SÜTRAM
सा मागता जनागानिस्तानमगव्यात्यानित पण्डितमुनि श्रीकन्हैयालालनीन्महाराज
गसिंगाणानिमामि अष्टिा-कहां-बीमामलनी लानगरमा
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जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-ति-विरचितया
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपया व्याख्यया समलङ्कृतम्
श्री-निशीथसूत्रम् । SHRĒC Nishīthsūtram
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि-पण्डित
मुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः
गढसिवाणानिवासि श्रेष्ठिश्री-कानुगा-धींगडमलजी-मुलतानमलजी-कवाड़
महोदयपदत्तद्रव्यसाहाय्येन
प्रकाशकःअ० भा० श्वे० स्था०जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट
Y. प्रथमा-आवृत्तिः
प्रति १२००
वीर-संवत् २४९५
विक्रम संवत्
२०२५
ईसवीसन् १
१९६९
मूल्यम्-रु० २०-० immmmmmmMEREK९६६६६६६६६६
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भगवानु । श्री स... श्वे. स्थान पासी જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ઠે. ગરેડિયા કૂવા રેડ, ગ્રીન લેંજ पासे, सो , (सौराष्ट्र).
Published by Shri Akhil Bharat S. S.
Jain Shastroddhara Samiti, __Caredia Kuva Road, RAJKOT,
(Saurashtra), W. Ry. India.
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥
हरिगीतच्छन्दः
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा। हैं काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा॥१॥
भूख्य ३. २०-०
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રતિ ૧૨૦૦ વીર સંવત : ૨૪લ્પ " વિક્રમ સંવત ૨૦૨૫ ઈસવીસન ૧૯૬૯
સ્વામી શ્રીત્રિભુવનદાસજી શાસ્ત્રી શ્રી રામાનંદ પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ કાંકરિયા રોડ, અમદાવાદ-૨૨
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MARCH
SHETESH
AREERail
श्रीमान शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साब
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॥ श्री।। लाईफ मेम्बर सा. श्रीमान् शेठ कानुगा धिंगडमलजी सा० का संक्षिप्त
जीवन-चरित्र श्रीमान् शेठ कानुगा धिंगडमलजी मुलतानमलमी कुवाड गढसिवाणा के निवासी हैं। आपका जन्म सं० १९७९ पौषवदि दशमी के दिन गढसिवाणा में श्रीमान् कानुगा हेमराज जी सा० कुवाड के यहाँ हुआ, आपकी जन्मदात्री मातेश्वरी का नाम कन्नुबाई था। आप बचपन से ही बडे बुद्धिमान् और व्यापारकुशल हैं अतः आप को १२ वर्ष की अवस्था में शेठ मुलतानमलजी की पत्नी प्यारीबाई ने आपको गोद रक्खा । आप व्यापार के निमित्त बल्लारी गये, वहाँ गणेशमलजी प्रतापमलजी की दुकान पर रहकर बड़ी कुशलता के साथ व्यापार किया । आपकी कुशलता और नीतिमत्ता से प्रसन्न होकर सोलापुर के श्रीमान् शेठ भीमराज जी रतनचन्द्रजी ने आपको अपनी भागीदारी में रख लिया । आपने अच्छा व्यवसाय किया और धन उपार्जन किया। उसके बाद सं० २००७ में अहमदाबाद में आये और सा• गणेशमलजी वक्तावरमलजी की दुकान पर भागीदारी के साथ काम करने लगे। आपने अपने व्यवसाय में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की।
संवत् २०१८ में मृगसिरवदि छठ के शुभदिन में सा० धिंगडमल चन्दनमल के नाम से अपने स्वतन्त्र दुकान की।
__ आप धर्म ते प्रताप के सम्पत्तिशाली बने और ५०००) पाँच हजार रुपये देकर आप शास्त्रोद्धारसमिति के आजीवन सदस्य बने । आप बड़े उदार हैं । जीवदया आदि धार्मिककार्यों में आप उदारतापूर्वक खर्च करते हैं। धार्मिक तिथियों में उपवास पौषध आदि हर समय करते रहते हैं, साथ ही धार्मिक सेवा करते हैं । बेला, तेला, चोला, पचोला, अठाई आदि तपस्या भी करते हैं । जैसे ये धर्मात्मा हैं वैसे ही इनकी धर्मपत्नी पानकुँवरवाई भी दया पौषध सामायिक आदि धर्म ध्यान खूब करती हैं । आपने अनेक प्रकार की तपस्या की है और हर समय धर्म ध्यान का लाभ लेती रहती हैं।
आपकी मातेश्वरी श्री प्यारी बाइ भी परम धर्मात्मा हैं उन्हीं के पुण्य प्रताप से ये फले फूले हैं और धर्मध्यान में अग्रेसर बने हैं। आपकी सुपुत्री भाग्यवती का विवाह सा. ऋषभचन्द्रजी रांका के सुपुत्र रूपचन्द्रजी के साथ हुआ है। वे भी धर्मपरायण हैं श्रीमान् धिंगडमल जी का यह धार्मिक परिवार सब परिवार के लिये एक आदर्श रूप बने यहीं अभिलाषा है।
स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमिति राजकोट
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॥निशीथसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका ॥
॥ अथ प्रथमोद्देशकः॥ सू० सं०
विषयः
। मङ्गलाचरणम् । १ हस्तकर्मनिषेधः । २-९ अङ्गादानप्रकरणम् । १०-११ सचित्ततत्प्रतिष्ठितगन्धाघ्राणनिषेधः । १२-१५ अन्यतीर्थिकादिभिः पदमार्गोदकवीणिकासिककसौत्रिकादिचिलिमिलीनिर्मापण
निषेधः । १६-१९ एवम्- अन्यतीर्थिकादिभिः सूची-पिप्पलक-नखच्छेदनक-कर्णशोधनकानामु
त्तरकरण-तीक्ष्णतादिसंपादननिर्मापणनिषेधः । २०-२३ सूच्यादीनां निष्कारणयाचननिषेधः ।
११-१३ २४-२७ सूच्यादीनामविधिना याचननिषेधः ।
१३-१४ २८-३१ स्वार्थयाचितसूच्यादीनामन्यस्मै प्रदाननिषेधः । ३२-३५ यत्कार्यार्थयाचित-प्रातिहारिक-सूच्यादीनां तदन्यकार्यकरणनिषेधः ।। ३६-३९ सूच्यादीनामविधिना प्रत्यर्पणनिषेधः ।
१७-१८ ४०- अलाबुपात्रादीनामन्यतीर्थिकादिना परिघट्नादिनिषेधः । ४१- एवं दण्डकादीनां परिधट्टनादिनिषेधः ।
१९ ४२-४४ त्रटितपात्रे एकथिग्गलस्य, अपवादे त्रिथिग्गलादधिकथिग्गलस्य, अविधिथिग्गलस्य च निषेधः ।
२०-२१ ४५-४६ पात्रस्याविधिबन्धनत्रिकाधिकबन्धननिषेधः ।
२१-२२ ४७-४८ सार्दै कमासादुपरि सातिरेकबन्धनापलक्षणबन्धननिषेधः ।
२३-२४ ४९-५० वस्त्रस्यान्यजातीयवस्त्रथिग्गलत्रिथिग्गलाधिकथिग्गलनिषेधः ।
२५-२६ ५१-५८ वस्त्रस्याविधिप्सीवनादिनिषेधप्रकरणम् ।
२७-२९ ५९-६० अन्यतीर्थिकादिना गृहधूमपरिशाटनस्य, पूतिकर्माहारपरिभोगस्य च निषेधः । ३०-३२
॥ इति प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥१॥
१ः ।
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सू. सं.
१-८
३८
३९
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२
॥ अथ द्वितीयोद्देशकः ॥ विषयः
९
"
१० - १० पदमार्गोदकवीणिका सिक्कक सौत्रिकादिचिलिमिलीनां तथा सूची - पिप्पलक- नखछेदनक-क क- कर्णशोधनकानां च स्वहस्तेनोत्तरकरणनिषेधः ।
४५
५०
५१
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दारुदण्डकपाद प्रोञ्चनस्य-करण ग्रहण-धरण-वितरण- विभाजन - परिभोगद्वघर्धमासाधिकतद्धरण-शुष्कीकरण - निषेधः ।
अचित्तप्रतिष्ठितगन्धस्य रागद्वेषभावेन- आप्राणनिषेधः ।
१८ - २०
लघुस्वक ( ईषत् ) परुषवचन - मृषावादा ऽदत्तादाननिषेधः । २१- लघुस्वका चित्तशीतोष्ण जलेन हस्तादीनामुच्छोलनप्रधावननिषेधः । २२-२३ कृत्स्न (अखण्ड) चर्म - कृत्स्नवस्त्रधारण निषेधः ।
२४ -
अभिन्नवस्त्रधारण निषेधः ।
२५-२६ अलाबुपात्रादीनां दण्डकादीनां च स्वहस्तेन परिघट्टनादिनिषेधः । २७-३१ निजक-पर-वर-बल-लव- गवेषितपात्रधारण निषेधः ।
३२-३७ नैत्यिकाप्रपिण्ड-पिण्ड-नैत्यिका पार्द्ध भाग-भाग- न्यूनार्द्ध भागपरिभोगनैत्यिक
वासनिषेधः ।
दानात् पूर्वं पश्चाच्च संस्तवकरणनिषेधः ।
स्थिरवास - विहरमाणभिक्षुकयोः पूर्वपश्चात्संस्तुतकुले पूर्वं प्रविश्य पश्चाद् भिक्षाचर्यार्थ गमननिषेधः ।
५७-५९
४० - ४२ अन्यतीर्थिकादिना सह भिक्षार्थ गाथापतिकुलप्रवेश - विचारभूमि - विहारभूमि - गमन - ग्रामानुग्राम विहरणनिषेधः ।
५९-६२
४३ - ४४ गृहीतभोजनपानजातमध्यात् सुरभिवर्णाद्युपेताहारपानपरिभोगेतर
परिष्ठापननिषेधः ।
परिवर्द्धितमनोज्ञभोजनजातस्या दूरस्थित साधर्मिका दिपृच्छामन्तरेण परि
ष्ठापन निषेधः ।
४६ - ४९ सागारिकपिण्डग्रहण - परिभोगा - ऽज्ञाततत्कुल भिक्षार्थप्रवेश - तन्निश्रयाऽशनादियाचननिषेधः ।
ऋतुबद्धिकशय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणे पर्युषणोल्लङ्घननिषेधः ।
एवं वर्षावासिकशय्या संस्तारकस्य वर्षावासानन्तरं प्रत्यर्पणे दशरात्रो
ल्लङ्घननिषेधः ।
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पू. सं.
३३-३६
३६
३७-४०
४०-४३
४३-४४
४४-४८
४८
४९-५०
५०-५२
५२-५५
५५-५६
६२-६४
६५
६६-६९
७०
७०-७१
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३
सू. सं.
विषया ५२- ऋतुबद्धिक-वर्षावासिक शय्यासंस्तारकाधिक्ये तदनपसरणनिषेधः । ५३- प्रातिहारिकशय्यासंस्तारकस्य द्वितीयवारमाज्ञामन्तरेण बहिर्नयननिषेधः । ७२ ५४-५५ एवं सागारिकसत्कप्रातिहारिक-सागारिकसत्कशय्यासंस्तारकस्य बहिनयननिषेधः ।
७३-७४ ५६-५७ गृहीतप्रातिहारिक शव्यासंस्तारकं तस्वामिनेऽदत्वा, यथागृहीतं चादत्त्वा
विहारनिषेधः ।
प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्तारके विषणष्ट तदगवेषणनिषेधः । ५९- स्वल्पस्याप्युपधेरप्रतिलेखननिषेधः । ६०- प्रायश्चित्तकथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
॥ इति द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥२॥
॥ अथ तृतीयोदेशकः॥ आगन्त्रागाराऽऽरामागारादिषु अन्यतीर्थिकादिकमेकं पुरुषम् , एकास्त्रियम् , अनेकान् पुरुषान् , अनेकाः स्त्रियश्चाधिकृत्य तेभ्योऽवभाष्याव
भाष्य अशनादियाचननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि । ५-८ एवमेव कुतूहलार्थ गतेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः पूर्वोक्तरीत्या अशनादियाचननिषेधः ।
८०-८३ ९-१२ आगन्त्रागारादिस्थितान्यतीर्थिकायेकपुरुषबहुपुरुषकस्त्रीबहुस्त्रीभ्योऽ.
भिहत्य दीयमानाशनादि प्रतिषेध्य पुनः पश्चाद् गत्वाऽवभाष्यावभाष्य याचननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि।
८४-८६ १३- गृहपतिप्रतिषिद्धे कुले द्वितीयवारं तत्र भिक्षार्थप्रवेशनिषेधः । १४- संखडिप्रलोकनबुद्धया तत्र गत्वाऽशनादिग्रहणनिषेधः । भिक्षार्थ गतस्य त्रिगृहव्यवधानेनानीताशनादेर्ग्रहणनिषेधः । १६-७१ पादामार्जनादिप्रकरणम् ।
८८-१०६ १६-२१ आत्मनः पादयोः आमार्जन-प्रमार्जन-संबाहन-परिमर्दन-तैलादिम्रक्षणा
भ्यञ्जन-लोघाद्युल्लोलनोद्वर्तनाऽचित्तशीतोष्णजलोच्छोलन-प्रधावन-फूत्करण-.. रजननिषेधात्मकानि षट् सूत्राणि ।
८८-९१ २२-२७ एवं कायमाश्रित्य एतान्येव षट् सूत्राणि ।
८६
وه
१५
९२
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१००
~
१०३
~
सू. सं.
विषयः २८-३३ एवं कायणमाश्रित्यापि षट् सूत्राणि । ३४-३९ कायगतगण्डादौनां छेदन-तद्गतप्यादिनिस्सारण-विशोधना-ऽचित्त
शीतोष्णजलो च्छोलन-धावन-लेपनद्रव्यालेपन-विलेपन-तैलाद्यभ्यङ्गनम्रक्षण-धूपद्रव्यधूपन-अधूपन-निषेधात्मकानि षट् सूत्राणि । ९४-९९
पायुकृम्यादिनिस्सारणनिषेधसूत्रम् । ४१-४९ आत्मनो दोन वशिवावस्यादिरोमकर्तन नवे वपर कागि नव सूत्राणि । १०. ५०-५२ दन्तानामाघर्षण प्रघर्षणा-ऽचित्तशीतोष्णजलोच्छोलन -प्रधावन-फूत्करणरञ्जन-निषेधात्मकं सूत्रत्रयम् ।
१०१-१०२ ५३-५८ ओष्ठस्यामर्जनादिनिषेधपरकाणि षट् सूत्राणि । ५९-६० उत्तरोष्ठरोमदीर्घाक्षिपक्ष्मकर्त्तननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । ६१-६६ अक्ष्णोरामार्जनादिनिषेधपरकाणि षट् सूत्राणि ।
१०३ ६७-६८ दीर्घभ्ररोम-पार्श्वरोमकर्त्तननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
१०४ ६९-७० अक्ष्यादिमलकायस्वेदादिनिस्सारणविशोधननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । १०५ ७१ प्रामानुग्रामविहरणकाले शीर्षदौवारिकाकरणनिषेधः ।
___॥इति पादामार्जनादिप्रकरणम् ॥ ७२ शणकार्पासादिसूत्रेण वशीकरणसूत्रकरणनिषेधः ।
। उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् । ७३-८१ गृहादिषु, मृतकगृहादिषु, अङ्गारदाहादिषु, स्वेदायतनादिषु, अभिनव
गोलेहनिकादिषु, उदुम्बरादिवृक्षासन्नप्रदेशेषु, इक्षुवनादिषु, डागा(पत्रशाका) दिप्रत्यासन्नप्रदेशेषु अशोकवनादिषु च उच्चारप्रस्रणपरिष्ठापननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
१०७ ११७ ८२- रात्रौ विकाले वा स्वपरपात्रव्युत्सृष्टोच्चारप्रस्रवणस्य सूर्योदयात्पूर्वमप्रति
लेखितभूमौ परिष्ठापननिषेधः । .८३- पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः। ११२
॥ इति तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥३॥
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२१
११५ ११६
॥ अथ चतुर्थोद्देशकः॥ सू. स.
विषयः १-४ राज्ञः आत्मीकरणा-ऽर्चीकरणा-ऽच्छीकरणा-ऽर्थीकरणनिषेधविषयाणि चत्वारि । सूत्राणि ।
११३-११४ ५-२० एवम्-राजारक्षक-नगरारक्षक-निगमारक्षक-सर्वारक्षकेतिचतुर आश्रित्य
प्रत्येकम् आत्मीकरणादिपदचतुष्टयसंयोगेन तन्निषेधपरकाणि षोडश सूत्राणि ।
११४-११५ कृत्स्न (अखण्डित)-शालिगोधूमाघोषध्याहारनिषेधः ।
११५ आचायोपाध्यायादत्ताहारकरणनिषेधः । आचार्योपाध्यायाविदत्तविकृत्याहारकरणनिषेधः । परिज्ञान-प्रच्छन-गवेषणमन्तरेण पिण्डपातवाञ्छया स्थापनाकुलप्रवेशनिषेधः ।
११६-११७ निर्गन्थ्युपाश्रयेऽविधिना प्रवेशनिषेधः ।
११७-११८ निर्ग्रन्थ्या आगमनमार्गे दण्डकादिस्थापननिषेधः ।
११८-११९ अनुत्पन्ननवीनाधिकरणोत्पादननिषेधः ।
११९-१२२ २८ क्षामितव्युपशमितपुराणाधिकरणस्य पुनरुदीरणनिषेधः । मुखं विस्फार्य हसननिषेधः ।
१२४ ३०-३९ पार्श्वस्थादिसंसक्तपर्यन्तानां संधाटकदानाऽऽदाननिषेधपरकाणि दश सूत्राणि।
१२४-१२५ १०-६० उदकार्दादिविशेषणविशिष्टहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधपरकाणि एकविंशतिसूत्राणि ।
१२६-१२७ ६१-८० ग्रामारक्षक-देशारक्षक-सीमारक्षका-ऽरण्यारक्षक-सर्वारक्षकेतिपश्चसंख्यक
पुरुषानधिकृत्य प्रत्येकस्य आत्मीकरणा-ऽर्चीकरणा-ऽच्छीकरणा-ऽर्थीकर
णेति चतुरः पदान् संयोज्य निषेधपरकाणि विंशतिसूत्राणि । १२७-१२८ ८१-१३६ भिक्षोरन्योन्यस्य पादामार्जनादिशीर्षदौवारिकाकरणपर्यन्तनिषेधपरकाणि तृतीयोदेशसदृशानि षट्पञ्चाशत् सूत्राणि ।
१२८ १३७-१४६ उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् ।
१२९-१३३ अपारिहारिकस्य पारिहारिकं प्रति सार्द्धमशनादिग्रहणार्थ पृथक् पृथ
२७
१२३
२९
१४७
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व. सं.
१. सं.
१२
१४.
विषयः गुपविश्य भोजनार्थं च कथननिषेधः ।
१३४ १४८
पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्त कथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
१३४ -१३५ ॥ इति चतुर्थो देशकः समाप्तः ॥४॥
॥अथ पञ्चमोद्देशकः ॥ १-११
सचित्तवृक्षमूलाधः कायोत्सर्गादिसर्वसाधुक्रियानिषेधः । १३६ १३९ स्वसंघाच्या अन्यतीर्थिकादिना सीवननिषेधः ।
१४० १३ एवं स्वसंघाट्या दीर्घसूत्रकरणनिषेधः ।
पिचुमन्दादिवृक्ष पत्राणि अचित्तशोतोष्णजलेन विलोड्याहारकरणनिषेधः।
१४१ १५-२२ प्रातिहारिकसागारिकसत्कपादप्रोञ्छनकादीनां-यथाकथितसमयवैपरीत्येन प्रत्यर्पणनिषेधः,
१४१-१४३ २३-२४ प्रातिहारिकसागारिकसत्कशय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणानन्तरं द्वितीयवारमनुज्ञामन्तरेण तदधिष्ठाननिषेधः ।
१४४-१४५ २५ शणादिसूत्रेण दीर्घसूत्रकरणनिषेधः ।
१४५-१४६ २६-३४ सचित्त-चित्र-विचित्र-दारुदण्डादीनां प्रत्येकेषां करण-धरणपरिभोगनिषेधः ।
१४७-१४८ ३५-३६ नवनिवेशितप्रामादिलोहाकरादिषु अशनादिग्रहणनिषेधः । १४८-१४९ ३७-६१ मुखवीणिकादिकरण-वादन-तथाविधान्यानुदीर्णशब्दोदीरणनिषेधः । १४९-१५१ ६२-६४ मौदेशिक-सप्राभृतिक-सपरिकर्मवसतिप्रवेशनिषेधः ।
१५१-१५२ असांभोगिकैः सहाहारादिकरणे तत्प्रत्यया क्रिया न भवतीतिप्ररूपणनिषेधः, १५२ ६६-६८ वस्त्राद्यलाबुप्रभृतिपात्र-दण्डकादीनां सत्यपि कार्यक्षमत्वे तेषां छेदन. भेदन-परिभञ्जनं कृत्वा परिष्ठापननिषेधः ।
१५३-१५४ अतिरेकप्रमाणरजोहरणधरणनिषेधः ।
रजोहरणस्य शीर्षकरण बन्धनादि निषेधपरकाणि दश सूत्राणि । १५५-१५८ ८० . पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रति सेविनां प्रायश्चित्तकथनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः । १५८
॥इति पञ्चमोदेशकः समाप्तः ॥५॥
६९
७०-७९
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सू. सं. १-२६
२७
१-९२
१-९
॥ अथ षष्ठोद्देशकः ।।
विषयः मातृप्राम-मैथुनप्रतिज्ञेतिपदद्वयमधिकृत्य तद्विषयकनिषेधपरकाणि षडूविंशतिसूत्राणि ।
१५९-१७० उपरोक्तपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चितप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः। १७०
॥ इति षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥६॥
॥ अथ सप्तमोद्देशकः॥ षष्ठोदेशकवदेव मातृप्राममैथुप्रतिज्ञेतिपदद्वयमधिकृत्य तद्विषयकनिषेधपरकाणि द्विनवतिसूत्राणि ।
१७१-१८७ उपरोक्तपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनर्वकमुद्देशकसमाप्तिः । १८७ ॥ इति सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥७॥
॥ अथाष्टमोद्देशकः ॥ एकाकिन्या स्त्रिया सह आगन्त्रागारादिषु केषुचिदपि स्थानेषु विहारस्वाध्यायाशनाद्यशनोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनानायनिष्ठुरादिकथाकथननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
१८८-१९२ रात्रौ विकाले वा स्त्रीमध्यगततसंसक्ततत्परिवृतस्य प्रमाणातिक्रमण कथाकथननिषेधः ।
१९२-१९३ भिक्षोः स्वगणीयपरगणीयनिर्ग्रन्थ्या सह विहारे पुरतः पृष्ठतो गमनेऽवहतमनःसंकल्पादिविशेषणविशिष्टस्य स्वाध्यायाशनादिकरणोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनानार्यनिष्ठुरादिकथाकथननिषेधः। १९३-१९४ ज्ञातकाज्ञातकादीनामुपाश्रयान्तो रात्रौ संवासननिषेधः ।
१९४-१९५ ज्ञातकादीन् रात्रौ संवास्य तमाश्रित्य उपाश्रयाद्वहिनिष्क्रमणप्रवेशनि० । १९६ रात्रौ उपाश्रये संवासेच्छुज्ञातकादीनामप्रतिषेधे प्रायश्चितम् । १९६ राज-क्षत्रिय-मुदित-मूर्धाभिषिक्तानामिन्द्रमहादिमहोत्सवस्थितानां भिक्षाग्रहणनिषेधः ।
१९६-१९८ एवं पूर्वोक्तानां राजादीनामुत्तरशालादिषु विचरतां हयशालादिगतानां भिक्षाग्रहणनिषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
१९८-१९९
१६-१७
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पृ. सं.
सू. सं. १८-१९
विषयः राजादीनां संनिधिसंचयात् क्षीरदध्यादीनाम् उत्सृष्टपिण्डादीनां च ग्रहणनिषेधः ।
१९९-२०० पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशसमाप्तिः। २०१
॥ इत्यष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥८॥
॥ अथ नवमोद्देशकः ॥ राजपिण्डग्रहण-तत्परिभोग-राजान्तःपुरप्रवेशनिषेधः ।
२०२ राजान्तःपुरिकां प्रति राजान्तःपुरतो भिक्षानयनकथननिषेधः। २०३-२०४ राजान्तःपुरतो भिक्षामानीय तुभ्यं ददामीति वदन्त्या अन्तःपुरिकाया वचनस्वीकरणनिषेधः।
२०४ राज-क्षत्रिय-मुदित-मूर्धामिषिक्तानां द्वौवारिकादिभक्तग्रहणनिषेधः । २०५ पूर्वोक्तराजादीनां कोष्ठागारशालादिषड्दोषस्थानेषु परिज्ञानप्रच्छन-गवेषणमन्तरेण प्रवेशनिष्क्रमणनिषेधः ।
२०६-२०७ राजादीनां गच्छतामागच्छतामवलोकनेच्छया पदन्यासविचारनिषेधः । २०७-२०९ एवमेतेषां स्त्रीणामवलोकनेच्छया पदन्यासविचारनिषेधः २०९-२१० पूर्वोक्तानां राजादीनां मांसादिखादनार्थ बहिनिर्गतानामशनादिग्रहणनिषेधः।
२१० राजादीनां बलवर्धकाशनादि दृष्ट्वाऽनुत्थितायां सभायां तदशनादिग्रहणनिषेधः
२११ राजक्षत्रियादिनिवासासन्नप्रदेशे विहरणस्वाध्यायादिसर्वकार्यकरणनिः ।। २१२ राजादीनां विजययात्रासंस्थितानामशनादिग्रहणनिषेधः ।
२१३ एवं यात्राप्रतिनिवृत्तानामपि राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधः ।
२१४ एवं नदीयात्रा-गिरियात्रा-संप्रस्थितानां ततः प्रतिनिवृत्तानां च राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधः ।
२१४ राजादीनां महाभिषेके वर्तमाने तत्र प्रवेशनिर्गमननिषेधः ।
२१४ राजादीनां चम्पादिदशराजधानीषु द्वित्रिःकृत्वो निष्क्रमणप्रवेशनिषेधः। २१४-२१६
१५-१८
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७-९
अतीत
सू. सं.
विषयः २१-३० राजादीनां क्षत्रियादि-नटा-द्यश्वादि-पोषक-दमक-मर्दक-मार्जकाऽऽरोहक
साहकादि-वर्षधरादि-कुब्जादिदासीरूपपरनिमित्तनिष्कासिताशनादिग्रहणनिषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
२१६-२२१ पूर्वोक्त प्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
२२२ ॥ इति नवमोद्देशकः समाप्तः॥९॥
॥ अथ दशमोद्देशकः ॥ १-१ भदन्तं (आचार्योपाध्यायपर्यायज्येष्ठ) प्रति आगाढपरुषतदुभयवचनात्याशातनाकरणनिषेधः ।
२२३-२२५ अनन्त काययुक्ताहाराधाकर्माहारनिषेधः ।
२२६-२१८ भतीत-वर्तमाना-ऽनागतनिमित्तकथननिषेधः ।
२२९-२३० १०-११ शैक्षस्य विपरिणमनापहरण निषेधः ।
२३१-२३३ १२-१३ दिशस्य (आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीप्रभृतेः) विपरिणमनापहरणनिषेधः २३४-२३६
अन्यगच्छीयादेशस्यागमनकारणपृच्छामन्तरेण त्रिरात्रादपिकसंवासननिषेधः ।
२३६-२३७ १५ एवं साधिकरणाव्युपशमित कलहस्य त्रिरात्रादधिकसंवासननिषेधः। २३८ १६-१९ उद्घातिकानुद्घातिकविषये वैपरोत्येन कथनप्रायश्चित्ताऽदाननिषेधः २३९-२४० २०-२३ उद्घातिकमुद्घातिकहेतुमुद्घातिकसंकल्पं तत्सर्वविशेषणविशिष्टं च श्रुत्वा तैः सह संभोगनिषेधः ।
२४१-२४२ २४-२७ एवम्-अनुद्घातिकमाश्रित्य चत्वारि सूत्राणि ।
२४२ २८--३१ एवमेव उद्घातिकानुद्घातिकसंमिश्रणमाश्रित्य चत्वारि सूत्राणि । ३२ उद्गतवृत्तिकानस्तमितमनःसंकल्पस्य संस्तृतनिर्विचिकित्सासंपन्नस्य
गृहीताशनादेरनुद्गताऽस्तमितपरिज्ञाने तत्परिभोगनिषेधः । ३३ एवं संस्तृतविचिकित्सासंपन्नस्य तज्ज्ञाने गृहीताशनादेः परिभोगनिषेधः । २४१ ३१-३५ एवमेव असंस्तृतनिर्विचिकित्सासंपन्नसंस्तृतविचिकित्सासंपन्नविषयक सूत्रद्वयम् ।
२४५-२४६ ३६ रात्रौ विकाले च मुखसमागतसपानसभोजनोद्गालप्रत्यवगिलननिषेधः । २१६
२४२
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४०
४१
४२
४३
४४
४५
४६
४७
४८
४९
सू. सं.
विषयः
३७-३८ ग्लाने श्रुते ज्ञाते च तदगवेषणस्य- उन्मार्गप्रतिपथगमनस्य च निषेधः । ग्लानवैयावृत्त्यसमुत्थितस्य तत्प्रायोग्यद्रव्यजातालाभे आचार्यादेरकथन
३९
१-३
४-६
७
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८
१०
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॥ इति दशमोद्देशकः समाप्तः ॥ १० ॥ ॥ अथैकादशोद्देशकः ॥
निषेधः ।
२५०
२५१-२५२
२५३
२५३-२५४
२५४
एवं पूर्वोक्तस्य स्वलाभेन ग्लानाsतृप्तौ पश्चात्तापाऽकरणनिषेधः । प्रथमप्रावृट्काले आषाढमासे - ग्रामानुग्रामविहरणनिषेधः । वर्षावासनिवासकरणानन्तरं ग्रामानुग्रामविहरणनिषेधः । अपर्युषणायां पर्युषणा करणनिषेधः । एवं पर्युषणायामपर्युषणाकरणनिषेधः । पर्युषणायां गोलोममात्रकेशधारर्णानिषेधः । पर्युषणायां - संवत्सरी दिने - अल्पाहारस्यापिनिषेधः । अन्यतीर्थिकगृहस्थैः सह पर्युषणा- सांवत्सरिकप्रतिक्रमण करणनिषेधः ।
२५५
२५६
२५७
२५८
२५८
प्रथम समवसरण - वातुर्मास प्राप्तचीवर ग्रहणनिषेधः । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वक मुद्देशक परिसमाप्तिः । २५९
पू. सं.
२४७-२४९
२६१-२६२
अयःपात्रताम्रपात्रादीनां करण-धरण- परिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि । २६०-२६१ अयः बन्धनादिकरण - धरण - परिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि । अर्द्धयोजनमर्यादातः परं पात्रग्रहणवाञ्छया गमननिषेधः । अर्द्धयोजनमर्यादातः परं सापायमार्गे अभिहृतमागत्य दीयमानपात्रग्रहण -
२६२
निषेधः ।
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९ - १०
धर्मावर्णवादस्याधर्मवर्णवादस्य च निषेधः ।
११–३३ अन्यतीर्थिकगृहस्थयोः पादामार्जननिषेधपरक सूत्रादारभ्य शीर्षदौवारिका - करण निषेधपर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि तृतीयोदेशक सदृशानि । ६४ - ६९ आत्मपरयोः भापन - विस्मापन विपर्यासननिषेधः । मुखवर्ण-जिनोक्त विपरीतवस्तु प्रशंसननिषेधः ।
७०
७१
राज्यविरुद्ध राज्ये गमना -ऽऽगमननिषेधः । ७२-७३ दिवसभोजनावर्णवाद रात्रिभोजनवर्णवादनिषेधः ।
२६३
२६३-२६४
२६४-२६५
२६५-२६९
२६९-२७०
२७०
२७१
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२७५
सू. सं. विषयः
पृ. सं. ७४-७७ दिवागृहीतस्य दिवसे, दिवागृहीतस्य रात्रौ, रात्रिगृहीतस्य दिवसे, रत्रिगृहीतस्य रात्रौ परिभोगनिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
२७१-२७२ ७८-७९ अशनादेः पर्युषितकरणस्य तादृशस्वल्पस्याप्यशनादेराहरणस्य च निषेधः । २७३ ८० मांसमत्स्यादिभोज्यस्थाने तदाशया तत्पिपासयाऽन्यवसतौ रात्रिव्यतिक्रमणनिषेधः ।
२७३ ८१ निवेदनपिण्डपरिभोगनिषेधः ।
२७४ ८२-८३ यथाछन्दप्रशंसमवन्दननिषेधः । ८४-८६ अयोग्यज्ञातकप्रव्राजनोपस्थापनस्य तत्कृतवैयावृत्त्यस्य च निषेधः । २७६ ८७-९० सचेलकस्य सचेलमध्ये, अचेलमध्ये च, एवमचेलकस्य सचेलमध्ये अचेलमध्ये च संवसननिषेधः ।
२७७-२७८ ९१ पर्युषितपिप्पल्याधाहारनिषेधः ।
२७८ गिरिपतनादिबालमरणनिषेधः।
२७९-२८० ९३ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः । २८१
॥इत्येकादशोदेशकः समाप्तः ॥११॥
॥अथ द्वादशोद्देशकः ॥ करुणाप्रतिज्ञया त्रसप्राणजातेस्तृणादिपाशेन बन्धननिषेधः बद्धस्य च मोचननिषेधः ।
२८२-२८३ अभीक्ष्णं प्रत्याख्यानभञ्जननिषेधः ।
२८४ सचित्तवनस्पतिकायसंयुक्ताहारनिषेधः ।
२८५ सलोमचर्मधारणनिषेधः ।
२८५ 'पर-(गृहस्थ)-वस्त्राछन्नतृणादिपीठकाधिष्ठाननिषेधः ।
२८५ निम्रन्थीसंघाच्या निम्रन्थस्य गृहस्थद्वारा सीवननिषेधः । पृथिवीकायादेरल्पमात्रारम्भस्यापि निषेधः । सचित्तवृक्षारोहणनिषेधः ।
२८७ १०-१३ गृहस्थपात्रभोजन-तद्वस्त्रपरिधान-तन्निषद्योपवेशन तच्चिकित्साकरणनिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
२८७-२८८ पुरःकर्मकृतहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधः ।
२८८-२८९ १५ गृहस्थान्यतीथिकानां शीतोदकपरिभोगयुक्तहस्तादिनाऽशनादिग्रहणनिषेधः ।
२८९-२९०
२८६
२८६
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500
सू. सं. विषयः
पृ.सं. १६-२९ काष्ठकर्मादीनां १६, वप्रादीनां १७, कच्छादीनां १८, प्रामादीनां १९,
प्रामादिमहानां २०, प्रामादिवधानां २१, प्रामादिपथानां २२, प्रामादिदाहानाम् २३, अश्वादिशिक्षणस्थानानाम् २४, अश्वादियुद्धस्थानानां २५, गोयूथिकादिस्थानानाम् २६, अभिषेकस्थानानां २७, डिम्बडमरादिस्थानानां २८, नानाविधमहोत्सवगतानां गानादि कुर्वतामशनादि भुञ्जतां स्यादिजनानां च २९, चक्षुषा दर्शनेच्छया मनसि विचारकरणस्यापि निषेधः ।
२९०-२९७ ऐहलोकिकपारलोकिकदृष्टादृष्टश्रुताश्रुतज्ञाताज्ञातरूपेषु परिष्वङ्गादिनिषेधः ।
२९८-२९९ प्रथमपौरुषीगृहीताहारस्य पश्चिमपौरुषीव्यतिक्रमणे निषेधः ।
२९९ अशनादेरर्द्धयोजनमर्यादाव्यतिक्रमणनिषेधः । ३३-३६ दिवागृहीतगोमयेन दिवा, दिवागृहीसगोमयेन रात्रौ, रात्रिगृहीतगोम
येन दिवा, रात्रिगृहीतगोमयेन रात्रौ-कायवणस्याऽऽलेपन-विलेपननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि ।
३००-३०१ ३७-४० एवमेवालेपनजातेन कायवणस्यालेपनविलेपननिषेधविषयेऽपि चत्वारि
सूत्राणि । ४१-४२ अन्यतीथिंकगृहस्थद्वारा स्वोपधिवाहन-तन्निमित्ताशनादिदाननिषेधः। ३०२ ४३ गङ्गादिपञ्चमहानदीनां मासमध्ये एकद्विःकृत्व उत्तरणसंतरणनिषेधः । ३०३ ४४ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः। ३०४
॥ इति द्वादशोद्देशकः समाप्तः ॥१२॥
॥ अथ त्रयोदशोदेशकः ॥ १-८ सचित्तसरजस्कादिविशेषणविशिष्टायां पृथिव्यां स्थानशय्यादिकरणनिषेधपरकाणि अष्टौ सूत्राणि ।
३०५-३०८ १-११ दुर्बद्धदुनिक्षिप्तादिविशेषणविशिष्टे स्थूणादौ कुलिकादौ स्कन्धादौ स्थाननिषद्यादिकरणनिषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि ।
३०९-३११ १२ अन्यतीथिकादीनां शिल्पश्लोकादिशिक्षणनिषेधः ।
३११-३१२
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ब. सं.
विषयः
१३-१६ अन्यतीर्थिक गृहस्थं प्रति आगाढ - परुषा - ssगाढपरुषेतितदुभयवचनस्य, तयोरत्याशातनयाऽऽशातनस्य च निषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि । १९-३१ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां कौतुककर्म - भूतिकर्मादिकरणनिषेधपरकाणिपञ्चदश सूत्राणि ।
१-४
५
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६
१३
७० - ८३ धात्रीपिण्डादिचतुर्दशपिण्डपरिभोगनिषेधपरकाणि चतुर्दश सूत्राणि । पूर्वोक्तप्रायश्चितस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वक मुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
८४
७
३१५ - ३१८
३१८-३१९
३२ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां मार्गपरिभ्रष्टानां मार्गादिप्रवेदननिषेधः । ३३–३४ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां धातुनिधिप्रवेदननिषेधः ।
३१९-३२०
३५-४५ जलपात्राऽऽदर्शादिषु आत्मनो मुखादिदर्शननिषेधपरकाणिएकादश सूत्राणि । ३२१-३२२ ४६-४९ वमन विरेचन - वमन विरेचनेति तदुभयाऽऽरोग्यप्रतिकर्मकरणनिषेधपरकाणि
चत्वारि सुत्राणि ।
५० - ६९ पार्श्वस्थकुशीलादीनां दशानां वन्दनप्रशंसनेतिद्वयनिषेधपरकाणि विंशति
सूत्राणि ।
८-९
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॥ इति त्रयदोशोदेशकः समाप्तः ॥ १३॥ ॥ अथ चतुर्दशोदेशकः ॥
क्रीत-प्रामित्य-परिवर्त्ताऽऽच्छेद्यदोषदूषितदीयमानपात्रग्रहणनिषेधः । गणि विशेष मुद्दिश्य स्थापितातिरेक पात्रस्य तमनापृच्छ्यान्यस्मै वितरण -
निषेधः ।
अतिरेक पात्रस्य परिपूर्ण हस्ताद्यङ्गोपाङ्गक्षुल्लकादिभ्यो दाननिषेधः । एवं हस्ताङ्गोपाङ्गहीनेभ्योऽतिरेक पात्रस्याऽदाननिषेधः ।
अनळा-(स्खण्डितावयवा ) दिविशेषणविशिष्टपात्रस्य धारणनिषेधः तद्वियरीतस्याधारणनिषेधश्च ।
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पू. सं.
३१२-३१४
३२२-३२३
१०- ११ वर्णयुक्तपात्रस्य विवर्णकरण निषेधः विवर्णस्यव वर्णयुक्तकरणनिषेधः । १२-३१ ‘मया नूतनं पात्रं लब्धम्' इति कृत्वा शोभानिमित्तं तस्य तैलादिम्रक्षणप्रभूतिनिषेधपरकाणि विंशतिसूत्राणि ।
३२४-३२६
३२७-३२८
३२९
३३०-३३५
३३५-३३६
३३७
३३८
३३८
३३९
३३९-३४१
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५७
म. सं.
विषयः ३२-४२ सचित्तसस्निग्धादिपृथिवीप्रभृतिस्थानेषु पात्रस्यातापनादिनिषेधपरकाणि त्रयोदशोदेशकोक्तगमसदृशानि एकादश सूत्राणि ।
३४१-३४२ ४३-५४ पात्रस्थितपृथिव्यप्तेजोवनस्पतिसम्बन्धिकन्दादिसप्तौ-षधिबीज-त्रसप्राण
जातनिस्सारणस्य, पात्रस्थितपृथिव्यादित्रसप्राणजातान्तं निस्सार्य दीयमानपात्रग्रहणस्य च निषेधपरकाणि द्वादश सूत्राणि ।
३४२ पात्रकोरण-कोरितदीयमानपात्रग्रहणनिषेधः ।
३४३ ग्रामान्तः, ग्रामपथि ज्ञातकादिभ्योऽवभाण्यावभाष्य पात्रयाचननिषेधः । ३४३-३४४
परिषद्गतज्ञातकादीन् उत्थाप्यावभाण्यावभाष्य पात्रयाचननिषेधः । ३४४-३४५ ५८-५९ पात्रनिश्रया ऋतुबद्धवर्षावासनिवासनिषेधपरक सूत्रद्वयम् ।
३४५ ६० पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशपरिसमाप्तिः। ३४६
॥इति चतुर्दशोद्देशकः समाप्तः ॥१४॥
॥अथ पञ्चदशोदेशकः॥ १-३ भिक्षोरन्यभिक्षून् प्रति-भागाढ-परुषा-ऽऽगाढपरुषमिश्रितवचननिषेधः । ३४७-३४८
एवं भिक्षोरन्यभिक्षूणामत्याशातनयाऽऽशातननिषेधः । । ३४८-३४९ सचित्ताम्रस्य परिभोग-विदशन-(चूषन)-निषेधपरकं सूत्रद्वयम् ।
३४९ ७-८ सचित्ताम्रतत्पेशी-(चीरिका)-प्रभृतीनां परिभोगविदशननिषेधपरक सूत्रद्वयम् ।
३४९-३५० ९-१२ सचित्तप्रतिष्ठिताम्रपरिभोगविदशनतत्पेशिकादिपरिभोगविदशननिषेधपरकाणि चत्वारि सूत्राणि।
___ ३५०-३५१ १३-६८ अन्यतीर्थिकगृहस्थाभ्यामात्मपादयोरामार्जनादिनिषेधपरकाणि तृतीयोदेशगमसदृशानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि ।
३५१-३५२ ६९-७७ आगन्त्रागारादिषु १, उद्यानादिषु २, भट्टाऽट्टालिकादिषु ३,
उदकादिषु ४, शून्यगृहादिषु ५, तृणगृहादिषु ६ यानगृहादिषु ७, पण्यगृहादिषु ८, गोणगृहादिषु ९ च उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।।
३५२-३५६ ७८-७९ अन्यतीर्थिकगृहस्थेभ्योऽशनादिपात्रादिदाननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । ३५७ ८०-१०३ पार्श्वस्थादिद्वादशभ्योऽशनादिदानस्य, तेभ्योऽशनादिग्रहणस्य च निषेधपरकाणि चतुर्विंशतिसूत्राणि ।
३५७-३५८
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सू. सं.
१०४
१६१ - १९६२
१६३
विषयः
चतुर्विधयाचनानिमन्त्रणा वस्त्रस्य परिज्ञानपृच्छागवेषणमन्तरेण ग्रहण
निषेधः ।
१०५ - १६० विभूषाप्रतिज्ञया - आत्मनः पादयोरामार्जनादिनिषेधपरकाणि तृतीयोद्देशगम सदृशानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि । बिभूषाप्रतिज्ञया वस्त्राद्युपकरणस्य धारणधावननिषेधपरकं सूत्रद्वयम् । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चितप्रदर्शनपूर्वक मुद्देशपरि
१-३
४-९
१०
११
१२
१३
१४-२२
२३
२४
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समाप्तिः ।
१५
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॥ इति पञ्चदशोदेशकः समाप्तः ॥ १५ ॥ ॥ अथ षोडशोद्देशकः ॥
सागारिक-सोदक-साग्निकशय्या - वसति प्रवेशनिषेधपरकाणि त्रीणि
सूत्राणि ।
सचि सेक्षुतल्पेशिका दिपरिभोग-विदशन- (चूषण) - निषेधः ।
अरण्यादिगामिनामशनादिग्रहणनिषेधः ।
सत्यन्यस्मिन् सुलभे देशेऽनेकदिवसगमनीयाट वीरूपमार्गे विहारेच्छया मनसि विचारकरणनिषेधः ।
वसुराजिक - ज्ञानदर्शनचारित्राराधकम् - अवसुराजिकत्वेन कथननिषेधः । अबसुराजिकं वसुराजिकत्वेन कथननिषेधः ।
वसुराजिकगणाद् अवसुराजिक गणसंक्रमणनिषेधः ।
३५८-३५९
व्युद्महव्युत्क्रान्तानाम् (कलहं कृत्वा निसृस्तानाम् ) अशनादिदानाssदान-वस्त्रादिदानाssदान -- वसतिदानाऽऽदान - - वसतिप्रवेश स्वाध्यायदानाssदाननिषेधपरकाणि नव सूत्राणि ।
एवं सत्यन्यस्मिन् सुलभे देशे अनार्य म्लेच्छप्रत्यन्तरूप दस्युस्थानेषु विहारेच्छया मनसि विचारकरण निषेधः ।
२५- ३४ जुगुप्सित कुलेषु अशनादिग्रहण - वस्त्रादिग्रहण-वसतिग्रहण-स्वाध्यायकरणों-देशन- समुदेशन प्रशंसन-वाचन- ग्रहण - परिवर्तन- निषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
३५-३७ भुक्तावशिष्टाशनादेः पृथिवी संस्तारक शिक्ककेषु निक्षेपणनिषेधपरकाणित्रीणि सूत्राणि ।
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पृ. सं.
३५९-३६०
३६०
३६२-३६४
३६५
३६५
३६६
३६६
३६७
३६१
३६७-३६९
३७०
३७१-३७४
३७४-३७५
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स० सं० विषयः
पृ० सं० ३८-३९ अन्यतीर्थिकगृहस्थैः सहोपविश्य तैः परिवेष्टितो भूत्वा वाऽऽहारपरिभोगनिषेधः ।
३७५-३७६ आचार्योपाध्यायादीनां शय्यासंस्तारके पादेन संघट्टिते हस्तेनाननुज्ञाप्य (अपराधमक्षमाप्य) गमननिषेधः ।
३७६-३८७ प्रमाण-गणनातिरिक्कोपधिधारणनिषेधः ।
३७८ सचित्तपृथिव्यां जीवप्रतिष्ठितादिदुर्बद्धादिविशेषणविशिष्टे च स्थाने उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापननिषेधः ।
३९८-३७९ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
३७९-३८. ॥इति षोडशोदेशकः समाप्तः ॥१६॥
॥ अथ सप्तदशोद्देशकः ॥
। कौतूहलपतिज्ञाप्रकरणम् । कौतूहलप्रतिज्ञया त्रसप्राणजातस्य तृणपाशकादिना बन्धननिषेधः। ३८१
एवं बदस्य मोचननिषेधः । ३-५
कौतूहलप्रतिज्ञया तृणमुखमालिकानां करण-धरण-परिभोग निषेधपरकाणि त्रीणि सूत्राणि ।
३८३-३८१ एवम्-अयोलोह-ताम्रलोहादीनां करणधरणपरिभोगनिषेधपरकाणि त्रीणि
सूत्राणि । ९-११ एवम्-हारार्द्धहारादीनां करणधरणपरिभोगनिषेधविषयाणि त्रीणिसूत्राणि । ३८५-३८६ १२-१४ एवम्-आजिन( मृगचर्म )वस्त्रादीनां करण-धरण-परिभोग-निषेधविषयाणि सप्तमो देशकगमसदृशानि त्रीणि सूत्राणि ।
३८६-३८७ । कौतूहलपतिज्ञापकरणं समाप्तम् । १५-७० निर्ग्रन्थेन अन्यनिम्रन्थस्यान्यतीर्थिकगृहस्थद्वारा-पादामार्जनादिसंपादन
निषेधपरकाणि तृतीयोदेशगमसदृशानि शीर्षद्वौवारिकापर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि ।
३८७-३८९ ७१-१२६ एवम्-निर्ग्रन्थेन निम्रन्ध्याः । १२७-१८२ एवम्-निर्गन्ध्या निम्रन्थस्य । १८३-२३८ एवम्-निम्रन्थ्या-निम्रन्थ्याः ।
३८२
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विषयः २३९ निम्रन्थस्य सदृशान्यनिम्रन्थाय स्वोपाश्रये सत्यवकाशेऽवकाशाऽदान- . निषेधः ।
३८९ २४० एवं निर्मन्ध्या सदृशान्यनिम्रन्थीविषये सूत्रम् ।
३८९-३९० २४१-२४३ मालावहृतकोष्ठायुक्तमृत्तिकोपलिप्ताशनादेर्ग्रहणनिषेधपरकं सूत्रत्रयम्। ३९०-३९१ २४४-२४७ सचित्तपृथिव्यपूतेजोवनस्पतिप्रतिष्ठिताशनादेर्ग्रहणनिषेधपरकं सूत्रचतुष्टयम् ।
३९१-३९२ २४८ अत्युष्णाशनादेर्मुखशूर्पादिवायुना फूकृत्य दीयमानस्य ग्रहणनिषेधः । ३९२-३९३ २४९ अत्युष्णाशनादेर्ग्रहणनिषेधः ।
३९३ २५० उत्सेकिमादिपानकानामधुनाधौतादिविशेषणविशिष्टानां ग्रहणनिषेधः । ३९३-३९४ २५१ आत्मन आचार्यपदयोग्यलक्षणप्रतिपादननिषेधः ।
३९४ २५२- भिक्षोः गानहसनादिकरणनिषेधः । । २५३-२५६ मेर्यादि-तालादि-वीणादि-शङ्खादिशब्दानां कर्णश्रवणवाञ्छ्या मनसि विचारकरणनिषेधपराणि चत्वारि सूत्राणि।
३९६-३९८ २५९-२७० वप्रादिसूत्रादारभ्य ऐहलोकिकादिरूपाध्युपपत्तिपर्यन्तानि द्वादशो. देशकगमसदृशानि निषेधपराणि चतुर्दश सूत्राणि ।
३९८-३९९ २९१ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः। ४००
॥ इति सप्तदशोदेशकः समाप्तः ॥१७॥
॥ अथाष्टादशोद्देशकः ॥ अनर्थ (अकारणं) नावारोहणनिषेधः ।
४०१-४०२ २-५ नौकाविषये क्रयण-प्रामित्य-परिवर्तनाऽऽच्छेद्यनावारोहणनिषेधविष
याणि चतुर्दशोदेशकगमसदृशानि चत्वारि सूत्राणि । ४०२-४०३ ५-७ नौकायाः स्थलाजलेऽवकर्षणस्य, जलास्थले उत्कर्षणस्य च निषेधविषय
४०३-४०१
३९५
सूत्रद्वयम् ।
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पृ. सं.
४०५
१६
विषयः नौकाजलोसिञ्चननिषेधः । जलपङ्कमग्ननौकाया उत्प्लावन (उपर्युत्थापन) निषेधः । प्रतिनाविकं कृत्वा नावारोहणनिषेधः । जलप्रवाहाभिमुख-(जलप्रवाहानुसार )-गामिनीनौकारोहणनिषेधः । ४०५ योजनार्द्धयोजनवेलागामिनीनावारोहणनिषेधः । नौकाया आकर्षावण-क्षेपन-कर्षणनिषेधः । नौकाया अरित्रकादिनौकाचालकसाधनैश्चालननिषेधः । नौकादेकभाजनादिना नौकोत्सिञ्चननिषेधः ।
नौकागतजलागमच्छिद्रस्य हस्तादिना निरोधननिषेधः । १७-३२ नौगित-जलगत-पङ्कगत-स्थलगत-साधुदातृरूपपदद्वयस्य परस्पर
विपर्यासेन दातुरशनादिग्रहणनिषेधकषोडशभङ्गात्मकानि षोडश सूत्राणि षोडशभङ्गप्रदर्शककोष्ठकं च ।
४०७-४०९ ३३-९० वनक्रयणनिषेधसूत्रादारभ्य वस्त्रनिश्रया वर्षावासनिवासनिषेधसूत्र
पर्यन्तानि कोरणसूत्रवर्जितचतुर्दशोदेशकगमसदृशानि अष्टपश्चाशत्सूत्राणि ।
४१०-१११ ९१ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकसमाप्तिः ।
॥इति अष्टादशोद्देशकः समाप्तः ॥१८॥
॥अथ एकोनविंशतितमोद्देशकः ।। १ विकृतस्य-(दाक्षासवादिप्रपाणकद्रवद्रव्यजातस्य ) क्रयणकापणक्रीतस्याहृत्य दीयमानस्य ग्रहणनिषेधः ।
४१३ २-४ एवं विकृतस्य प्रामित्यपरिवर्तनाच्छेद्यविषयेऽपि त्रीणि सूत्राणि । ४१४-४१५ ग्लानार्थ विकृतिदत्तित्रयादधिकग्रहणनिषेधः ।
४१५-४१७ विकृतिं गृहीत्वा प्रामानुग्रामविहरणनिषेधः ।
४१. विकृतिगलनगालनयोः गालितविकृतेर्दीयमानस्य च ग्रहणनिषेधः । ४१७-४१८
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:
सू. सं. विषयः
पृ.सं. पूर्वादिषु चतसृषु सन्ध्यासु स्वाध्यायकरणविषेधः । कालिकश्रुतस्य पृच्छात्रयादधिकपृच्छाकरणनिषेधः ।
११८-११९ दृष्टिवादस्य पृच्छासप्तकादधिकपृच्छाकरणनिषेधः ।
४१९ इन्दमहादिषु चतुषु महामहेषु स्वाध्यायकरणनिषेधः ।
४१९-४२० सुप्रीष्मिकादिषु चतसृषु महाप्रतिपत्सु स्वाध्यायकरण निषेधः ।
४२० स्वाध्याययोग्यपौरुषीचतुष्टयस्यातिक्रमणनिषेधः ।
४२०-४२१ रात्रिन्दिवे कालचतुष्टयसम्बन्धिस्वाध्यायाकरणनिषेधः ।
४२१ अस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायकरणनिषेधः ।
४२२ मात्मनोऽस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायकरणनिषेधः ।
४२२ अधस्तनानाम्-आदिभूतानां-समवसरणानां (संमिलितसूत्रार्थरूपाणां) वाचानमन्तरेण उपरितन-(अग्रेतन)-समवसरणवाचननिषेधः।
४२२-४२३ आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धगतनवब्रह्मचर्याध्ययनवाचनमन्तरेण उपरिमसूत्र (छेदसूत्र) वाचननिषेधः ।
४२३ अपात्रस्य वाचनादाननिषेधः ।
१२३-१२४ पात्रस्य वाचनाया अदाननिषेधः ।
१२४-४२५ अन्यक्काय वाचनादाननिषेधः ।
४२५ व्यक्ताय वाचनाया अदाननिषेध ।
४२५ सदृशयोईयोर्मध्ये एकस्य शिक्षणनिषेधः ।
४२५-४२६ आचार्योपाध्यायाऽनध्यापितशास्त्रवाण्या अध्ययननिषेधः । २५ अन्यतीर्थिक गृहस्थेभ्यः सूत्रार्थवाचनादान निषेधः ।
४२७ २६ एवमन्यतीर्थिकगृहस्थेभ्यः सूत्रार्थवाचनाग्रहणनिषेधः । २७-३६ पार्श्वस्थादिसंसक्तपर्यन्तानां वाचनादानस्य, तेभ्यो वाचनाग्रहणस्य च निषेधपरकाणि दश सूत्राणि ।
१२७-४२८ पूर्वोक्तप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रदर्शनपूर्वकमुद्देशकपरिसमाप्तिः ।
॥ इति एकोनविंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥१९॥
:
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* *
४२६
४२८
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स. सं.
पृ.सं.
४३५
१३
४३५
विषयः
॥ अथ विंशतितमोद्देशकः ॥ मासिकादिपाञ्चमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रतिसेविनाम् अकपटभावेनाऽऽलोचयतां मासिकादिपाञ्चमासिकपर्यन्तप्रायश्चित्तदानम् , कपटभावेनालोचयतामेकैकमासवृद्धया पाण्मासिकपर्यन्तप्रायश्चित्त-- दानम् । पाण्मासिकप्रायश्चित्तादुपरिप्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चिते वा त एव
षण्मासाः प्रायश्चित्तत्वेन भवन्तीति प्रतिपादकानि षट् सूत्राणि । ४२९-४३१ ७-१२ एवमेव 'बहुसो' इतिपदं संयोज्य पूर्वोक्तसदृशानि षट् सूत्राणि ।
एवं मासिकादारभ्य पाञ्चमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रतिसेविनामे - कत्रमिश्रितसूत्रम् । एवं 'बहुसोवि' इति पदसंयोजनमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम् ।
४३६ एवमेव 'साइरेग' सातिरेक-पदसंयोजनमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम् । ४३६ एवम् 'बहुसोवि साइरेग' इति पदद्वयमाश्रित्य मिश्रितसूत्रम्। ४३७-४३८ 'मासिय वा साइरेगमासियं वा' इत्यादिक्रमेण पाञ्चमासिकपर्यन्त परिहारस्थानानां मध्ये एकतमपरिहारस्थानप्रतिसेविनः प्रायश्चित्तसेवन प्रकारप्रदर्शनम् ।
४३९-४४२ १८-२० एवमेव प्रायश्चित्तसेवनप्रकारप्रदर्शकाणि त्रीणि सूत्राणि । ४४२-४४५ २१-२६ षाण्मासिकपाञ्चमासिकेति एकैकन्यूनमासिकपरिहारस्थानप्रस्थापि
तानगारस्यान्तरापरिहारस्थानप्रतिसेवनालोचनायामारोपणाविधिप्रदर्शकाणि षट् सूत्राणि ।
४४६-४४८ एवमग्रे विंशतितमोद्देशकपरिसमाप्तिपर्यन्तं परिहारस्थानप्रस्थापितानगास्यारोपणाविधिप्रदर्शकाणि विंशतिसूत्राणि ।
॥ इति विंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥२०॥ OPPOPPPPMPPPPPPowe
इति निशीथसूत्रस्य विषयानुक्रमणिका समाप्ताः ॥ ஒருருருருற் றற்ற்முறை மற்ற்ற்ற்ற ருக
४४९-४५८
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શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ
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વીરાણી-રાજકોટ
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(સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ
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શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ
વીરાણું–રાજકોટ,
વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દજી સા. નાના – અનિલકુમાર જૈન (દત્તા)
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(સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ
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સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેક્લાલ
શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ
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સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચંદ શાહ
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મદ્રાસ.
+ કામ કરી શકાય
શ્રીમાન ર લા. જમનદાની જા.
માં . અનીરવ (સપરિવાર)
૧ અમીચંદભાઈ થા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા
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વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાન મૂલચંદજી
જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી બરડિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા
श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया
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આમુરીશ્રીઓ
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શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ
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શેઠશ્રી મિશ્રી લાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા.
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(સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ
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સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા.
બાલિયા પાલી મારવાહ
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सम्यक्
। श्रीवीतरागाय नमः ।
जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल- व्रतिविरचित - चूर्णि - बरिसमलङ्कृतम्
श्रीनिशीथसूत्रम्
प्रथमोद्देशः प्रारभ्यते
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तत्र क्रमः
मूलं छायाऽथचूर्णी च तदन्ते भाग्यभाषणम् भाग्याऽवचूरिरन्ते स्यादित्थमत्र क्रमो भवेत् ।।
श्रीमङ्गलाचरणम्
अर्थप्रदं वीरजिनं प्रणम्य, लब्धेर्धरं गौतममाप्तशक्तिम् । श्रीघासिलालेन वितन्यते यद्, भाव्यादिकं चात्र निशीथसूत्रे ॥१॥
-भाष्याs
श्रीभगवन्महावीरभाषितागमेषु छेदसुत्राणि चत्वारि सन्ति, तत्र प्रथमं निशीथसूत्र वर्तते I तत्र पूर्व छेदसूत्रेति कोऽर्थः ? तत्राह - छेदनं छेदः खण्डनम् प्रस्तुते दूषित पर्यायस्य न्यूनीकरणं छेदः । यथा शेषशरीररक्षार्थ रोगादिदूषित शरीरैकदेशस्य छेदनमिव शेषपर्याय संरक्षणार्थं दूषित - पूर्वपर्यायस्य छेदात्वाच्छेदः, तदर्थप्रतिपादिकानि सूत्राणि छेदसूत्राणि प्रोच्यन्ते, तेष्विदं निशीथसूत्रं प्रथमं विद्यते ।
अथ निशीथेति शब्दस्य कोऽर्थ: : तत्राह - पापं निशद्यते शात्यते यत्र इति निशीथः ' शल शातने' इत्यस्मात् पृषोदरादित्वात् सिद्धम् १ | निर् निश्चयेन श्रुतं पठनमिति निशीथः २ । अथवा एतत्पठनमन्तरेण नितरां शुद्धाचारो नैव पालयितुं शक्यते तस्मादयं निशीथः ३ ।
अथवा - मोक्षमार्गप्रच्युतान् पुनरपि मोक्षमार्गमानीय पूर्वकृतकर्माणि तपोद्वारा निजीर्य प्रायश्चित्ताssतापे तापयित्वा निश्चयेन शोधयति आत्मानं यः स निशीथः ४ ।
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अथवा – उन्मार्गगतान् निश्चयेन शुद्धिमार्गे स्थापयति इति निशीथः ५ । अथवा सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत पोलक्षणं सुवर्ण प्रायश्चित्ताग्नौ संताप्य नितरां शोधयति इति निशीथः ६ ।
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निशीथसूत्रे वस्तुतस्तु निशि रात्राविव यत्र अप्रकाशे गुप्तरूपेण श्रुतं स्थाप्यते पठ्यते स निशीथः । पृषोदरादित्वासिद्धम्, उपयुक्ताः सर्वा व्युत्पत्तयः पृषोदरादित्वात् सम्पद्यन्ते ७ । अथवा- अपात्रेभ्यो यद् न प्रकाश्यते अनेन इति स निशीथः ८ । अथवा निशेरते जीवा अस्मिन् मिथ्यात्वाऽविरत्यादिगाढान्धकारे इति निशीथः, 'नि-पूर्वकात्' शीङ् स्वप्ने' इत्यस्मात् धातोः 'निशीथगोपीथावगथाः' (उणा० पा० २ सू० ९) इति थक् प्रत्यये निशीथशब्दसिद्धिः, तत् मिथ्यात्वादिजनितकर्ममलप्रक्षालकं सूत्रमपि निशीथपदेन मशकार्थों धूम इतिवद् उच्यते, आलोचनादिप्रायश्चित्तविधायके विधौ खल्वियमागमिकी संज्ञा विज्ञेया ९।।
यथा--लौकिकानि विद्यामन्त्रयोगचूर्णादिप्रतिपादिकानि सूत्राणि अपरिपक्कबुद्धीनां न प्रकाश्यन्ते, तथैवेदमपि सूत्रम् अपरिपक्वबुद्धीनां पुरतो न प्रकाश्यते । के ते अपरिणतबुद्धयः ? इति तान् दर्शयति-अबहुश्रुताः, अकृतसूत्राः, रहस्यभेदकाः, सूत्रप्रत्यनीकाः, मिथ्यात्ववासितबुद्धयः, जिनवचनरहस्यानभिज्ञाः वैराग्यवासनावर्जिताः, दुर्बलचारित्राः अवसन्नाः पार्श्वस्थाः कुशीलाः संसक्ताः यथाच्छंदाः, इत्यादयोऽपरिणतबुद्धयः कथ्यन्ते ।
एतेभ्यः इदं सूत्रं न देयमिति, एतेषां सूत्रदाने प्रवचनस्य लघुता, घातः, उड्डाहः, तथा दुर्लभबोधित्वं च जायते । अत इदं निशीथाभिधं सूत्रं योग्येभ्यो देयम् । तेषामबहुश्रुतादीनां प्रतिपक्षा बहुश्रुतादयो विज्ञेयास्तेभ्यो देयमिति भावः । कथमेवम् ? यतः 'गच्छतः स्खलनं चैव' इति न्यायात् संयममार्गे विचरतः कदाचित् प्रमादादतिचारादिसंभवः । तद्विशुद्धिः प्रायश्चित्तेन भवतीति प्रायश्चित्तं च वस्तुत्रयं संभवति तथाहि –प्रतिसेवकः १ प्रतिसेवना २ प्रतिसेवितव्यं चेति ३ । तत्र प्रतिसेवकः प्रतिसेवनकर्ता, स द्विविधः, गीतार्थाऽगीतार्थभेदात् । प्रतिसेवनाशब्देनाऽत्र भावो गृह्यते, स द्विविधः कुशलाऽकुशलभेदात् । प्रतिसेवितव्यं सेवनीयं वस्तु, तदपि द्विविधं संयमाऽसंयमभेदात् । अत्र मुनेर्या कुशलप्रतिसेवना, तस्याः नात्राधिकारः तस्याः कुशलत्वेन प्रायश्चित्ताविषयत्वात् , प्रस्तुतसूत्रस्य च दोषशुद्धयर्थं प्रायश्चित्तविधायकत्वात् , अतोऽत्राऽकुशलप्रतिसेवनाया अधिकारः। तद्विशुद्धयर्थमिदं सूत्रं प्रारभ्यते, तस्येदमादिमं सूत्रम्- 'जे भिक्खू हत्यकम्म' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥ छाया-यो भिक्षुः हस्तकर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे' यः कश्चित् 'भिक्खू' भिक्षुः निरवधभिक्षणशीलः । यद्वा भिनत्ति ज्ञानावरणीयाधष्टविधं कर्मेति भिक्षुः साधुः, अत्र भिक्षुशब्देन साध्वी चापि गृह्यते । तेन-साधुर्वा साध्वी वेत्यर्थः 'हत्थकम्म' हस्तकर्म हस्तः शरीरैकदेशः तेन कर्म करणं व्यापारः, तत् हस्तकर्म, उपस्थविषये हस्तादिनाऽतिक्रमापाचरणं करोति स्वयं, कारयति परेण, कुर्वन्तं चान्यं
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १-५
अकुशलप्रतिसेवना 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स गुरुमासिकप्रायश्चित्तभाग्भवतीति प्रथमोदेशके सर्वसूत्रेषु संयोजनीयम् ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ ॥ सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं काष्ठेन वा किलिंचेन वा अंगुलिकया वा शलाकया वा संचालयति संचालयंतं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू अंगादाणं' इति 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् तत्राङ्गानि अष्टौ तानि चेमानि शिरः १ उरः २ उदरम् ३ पृष्ठम् ४ बाहुद्वयम् ५-६ ऊरुद्वयम् ७.८ चेति । उपलक्षणात् उपाङ्गनामानि ग्राह्याणि, तानि चेमानि-कौँ नासिके अक्षिणी जो हस्तपार्थाः नखाः केशाः श्मश्रु अंगुल्यः तलोपतलाः-हस्ततल-पादतल -समीपस्था भागाः, तेषाम् आदानम् उत्पत्तिकारणम् अङ्गादानम् उपस्थचिह्नम् तत् 'कटेण वा' काष्ठेन वा खदिरादिकाष्ठखण्डेन 'किलिंचेण वा' किलिञ्चेन वा वंशादिशलाकया वा । 'अंगुलियाए वा' अङ्गुलिकया- करचरणांगुलिना वा 'सिलागाए वा' शलाकया लोहादिनिर्मितशलाकया वा 'संचालेइ' संचालयति प्रेरयति, 'संचालतं वा' संचालयन्तं प्रेरयन्तम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवतीति भावः । अत्र दृष्टान्तमाह
यथा कोऽपि पुरुषः सुखसुप्त सिंह काष्ठयष्टयादिना संचालयति तदा स सिंहः तं संचालक विनाशयति । एवमेव पुरुषचिह्नसंचालकस्य मुनेश्चारित्रजीवनं विनश्यतीति ॥ सू०२ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥सू० ३॥
__छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं संवाहयति वा परिमर्दयति वा संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः मुनिः 'भंगादाणं' अङ्गादानम् पूर्वोक्तलक्षणम् 'संवाहेज्ज वा' संवाहयति वा सामान्येन मर्दयति 'पलिमद्देज्ज' वा परिमर्दयति विशेषेण मर्दयति 'संबाहंतं वा' संवाहयन्तं वा 'पलिमदंतं वा परिमर्दयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवतीति ।
___ अत्र दृष्टान्तमाह--यथा सुखोपविष्टं सुप्तं वा सर्प कोऽपि मर्दयति हस्तपादादिना तदा स सर्पः स्वमर्दकस्य जीवितं विनाशयति तथैव मर्दितं पुरुषचिह्न मुनेश्चारित्रं ध्वंसयतीति भावः ।
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा नवणीण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगतं वा मक्तं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुः अङ्गादानं तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्य यति अक्षयति, अभ्यंगयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू तेल्लेण वा' इति । 'जे भिक्खु' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानं पूर्वोकलक्षणम् ' तेल्लेण वा' तैलेन वा तिलादितैलेन वा 'घरण वा' घृतेन वा 'वसाए वा ' वसा स्निग्धपदार्थजातेन 'णवणीएण वा' नवनीतेन 'मक्खन ' इति प्रसिद्धेन 'अभंगेज्ज वा ' अभ्यङ्गयति मर्दयति 'मक्खेज्ज वा' म्रक्षयति विशेषेण मर्दयति 'अभंगतं वा' अभ्यङ्गयन्तं वा 'मक्खतं वा' प्रक्षयन्तं 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ।
अत्र दृष्टान्तमाह--यथा प्रज्वलिताग्नौ घृतादिना परिषिश्चिते सति असौ प्रज्वलितोऽग्निर्गृहादिकं प्रज्वलयति तथैव अङ्गादानं तैलादिना मर्दकस्य चारित्रं विध्वंसयतीति भावः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा लोद्देण वा पउमचुण्णेण वाहाणेण वा सिणाणेण वा चुण्णेर्हि वा उब्वट्टेइ परिखट्टेइ उब्वतं वा परिवट्टंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५ ॥
छाया - यो भिक्षुः अङ्गादानं कल्केन वा लोघेण वा पद्मचूर्णेन वा स्नानेन वा स्नपनेन वा चूर्णैर्वा वर्णैर्वा उद्वर्तयति, परिवर्त्तयति उद्वर्त्तयन्तं वा परिवर्त्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'कक्केण वा, कल्केन वा' कल्कोऽनेक सुगन्धिद्रव्यनिष्पन्न उद्वर्त्तनविशेष:, तेन, 'लोद्देण वा' लोध्रेण वा सुगन्धद्रव्यविशेषेण 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन वा सुगन्धिकमलपुष्पचूर्णेन वा 'हाणेण वा' स्नानेन वा सामान्यस्नानेन वा 'सिणाणेण वा' स्नपनेन वा विशेषस्नानेन वा सुगन्धाऽऽमोदभरितजलस्नानेनेत्यर्थः । 'चुण्णेहिं वा' चूर्णैर्वा यवादिपिष्टैः 'वण्णेहिं वा' वर्णैर्वा अबीरादिचूर्णविशेषैः, 'उच्वट्टेइ' उद्वर्त्तयति सामान्यतो मर्दयति 'परिवर' परिवर्तयति विशेषतो मर्दयति, 'उब्वहृतं वा' उद्वर्त्तयन्तं वा 'परिवर्द्धतं वा' परिवर्त्तयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तार्हो भवतीति ॥ सू० ५ ॥
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० ६-११
अकुशलप्रतिसेवना ५ अत्र दृष्टान्तमाह-यथा खड्गादिशस्त्रस्य मर्दनेन हस्तादेश्छेदो भवति तथैव गुप्तेन्द्रिय मर्दनेन संयमस्य छेदो भवतीति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलंतं वा पधावंतं वा साइज्जइ॥६॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादान शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयति वा प्रधावति वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू०६॥
चूर्णी--'जे भिक्खू सीओदगक्यिडेण वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकृतेन वा विकृतम् विकारप्राप्तम् अचित्तं सत् शीतोदकं शीतोदकविकृत्तम् अचित्तशीतजलं तेन, 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकृतेन वा विकृतम् अग्निशस्त्रेणाऽचित्तीकृतं यत् उष्णोदकम् उष्णजलम् उष्णोदकविकृतं तेन, 'उच्छोलेज्ज वा' उत्क्षालयति वा सामान्येन तस्य क्षालनं करोति 'पधोवेज्ज वा' प्रधावति वा प्रकर्षेण धावति क्षालयति 'उच्छोलतं वा' उत्क्षालयन्तं वा 'पधोवेतं वा' प्रधावन्तं वा प्रकर्षण तस्य क्षालनं कुर्वन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग् भवतीति ।
अत्र दृष्टान्तमाह-यथा एकस्य कस्यचित्पुरुषस्य रोगवशात् नेत्रं नष्टम् तदा स वैधेन चिकित्सां कारयति । स वैद्यः औषधिमिश्रितजलेन नेत्रं घष्ट्वा धृष्ट्वा वारं वारं प्रक्षालयति एवं करणेन नेत्रपीडा दुरधिसह्या समुत्पन्ना, तया स मरणमासादितवान् । एवमेव मुनेरङ्गादानस्य प्रक्षालनेन मोहोदयात् चारित्रजीवितं विनश्यतीति । सू० ६ ॥ सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ णिच्छलंतं वा साइज्जइ ॥७॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं निश्छादयति निश्छादयन्तं वा स्वदते ॥सू०७॥
चूर्णी--'जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् ‘णिच्छलेइ' निश्छादयति निरावृणोति पुरुषचिह्नत्वचमपाकरोति 'निश्छालेत' निश्छादयन्तम् 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग्भवति ।
अत्र दृष्टान्तमाह-यथा कोऽपि पुरुषः सुखसुप्ताजगरसर्पस्य मुखं स्फाटयति तमसौ सर्पः गिलति तथा एवं कर्तुमुनेश्चारित्रं नश्यति ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अंगादाणं जिग्घइ जिग्चंतं वा साइज्जइ ॥सू०८॥ छाया-यो भिक्षुः अङ्गादानं जिघ्रति जिघ्रन्तं वा स्वदते ॥ सू०८ ॥
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निशीथसूत्रे
चूर्णी -- 'जे भिक्खू अङ्गादाणं जिग्घर' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् जिग्ध जिति नासिकया तद्गन्धं गृह्णाति यद्वा हस्तेन मर्दयित्वा हस्ताऽऽगतं गन्धं जिप्रति 'जिग्वंतं' जिघंन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते तनुमोदते स चारित्रदोषभाग्भवति ।
अत्र दृष्टान्तमाह
यथा कोsपि घातक गन्धपदार्थं नासिकया जिघ्रति तस्य तद्गन्धेन प्राणवियोजनं भवति । यद्वा यथा कश्चित् राजकुमारः वैद्येन प्रतिषिद्धोऽपि आनं जिघ्रति आम्रं जिघ्रतस्तस्य 'आम्र' नामको व्याधिः समुत्पन्नः गन्धप्रियेण कुमारेण गन्धं जिघ्रता स्वात्मा जीविताद् भ्रंशितः । तथैवा - sङ्गादानं जिघ्रन्मुनिर्मोहोदयेन स्वात्मानं संयमजीविताद् भ्रंशयति ॥ सू० ८ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुपवेसित्ता सुक्कपाले णिग्घाएइ णिग्घायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९ ॥
छाया -- यो भिक्षुः अङ्गादानम् अन्यतरस्मिन् अचिन्त स्रोतसि अनुप्रवेश्य शुक्रपुद्गलान् निर्घातयति निर्घातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'अण्णयरंसि' अन्यतरस्मिन् बहूनां मध्ये एकस्मिन् कस्मिंश्चित् 'अचित्तंसि' अचित्ते 'सोयंसि' स्रोतसि - वलयादिच्छिद्रे 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य 'सुक्क - पोगले' शुकपुद्गलान् 'णिग्याए ' निर्घातयति - विनाशयति साधुर्निःसारयति, साध्वी च स्वयोनौ कदलीफलादि प्रवेश्य रजः पुद्गलान् निस्तारयति 'णिग्घायंतं वा' निर्घायन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते ससा च दोषभाग् भवति आत्मविराधनावान् भवति साध्वी दोषभागिनी आत्मविराधनावती भवति शुक्ररजःक्षयेण म्रियते इत्यर्थः एवं सर्वत्र साध्वीविषयेऽपि संयोज्यम् ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू सचित्तं गंध जिग्घइ, जिग्धंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ सूत्रम् -- जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं गंध जिग्घर जिग्घंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया - यो भिक्षुः सचित्तं गन्धं जिघ्रति जिघ्रन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥ यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितं गन्धं जिघ्रत जिघ्रन्तं वा स्वदते ।। सू० ११ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू सचित्तं गंधं' इति । स्पष्टम् । नवरम् - सचित्तं गन्धं पुष्पफलाद्याश्रितम् । उपलक्षणादचित्तं गन्धं चन्दनादिकमपि जिघ्रति, सचित्तप्रतिष्ठितमिति सचित्तज लघटाद्युपरि स्थापितं सचित्तमचित्तं वा गन्धं त्रिति स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० १०-११॥
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १२-१४
अकुशलप्रतिसेवना ७ सूत्रम्-जे भिक्खू पदमग्गं वा संकमं वा अवलंबणं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुः पदमार्ग वा संक्रमं वा अवलम्बनं वा अन्यतीर्थिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘पदमग्गं वा' पदमार्ग वा पदस्थानमार्ग वा 'संकमं वा' संक्रमं वा-जलपङ्काघुल्लङ्घनार्थ पाषाणादिस्थापनम् 'अवलम्बनं वा'-यदवलम्ब्य ऊर्ध्वमारुत्यते, तद्वस्तु सोपानादिकम् 'अण्णउत्थिएण वा' अन्यतीर्थिकेन वा शाक्यादिना 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा 'कारेइ' कारयति 'कारंतं वा' कारयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स दोषभाग्भवतीति ॥ सू०१२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दगवीणियं वा अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा कारेइ करतं वा साइज्जइ॥सू० १३॥
छाया-यो भिक्षुः उदकवीणिकाम्-अन्यतीर्थिकैर्वा गृहस्थैर्वा कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू दगवीणियं इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षः निरवद्य भिक्षणशीलः श्रमणः । 'दगवीणियं' उदकवीणिकाम् , तत्र-उदकस्य-जलस्य वीणिका वाहः प्रणाली, जलनालिकेति लोकप्रसिद्धा वर्षादिजलनिर्गमनाय तामुदकवीणिकाम् । 'अन्न उत्थिएहिं वा' अन्ययूथिकैः वा अथवा 'गारथिएहि वा' गृहस्थैः श्रावकैर्वा 'कारेई' कारयति । अथवा 'कारेंतं वा साइज्जइ' कारयन्तं जनप्रवाहं स्वदते-अनुमोदते । अर्थात्-यः साधुः जल प्रणाली स्वयमेव करोति अथवा श्रावकादिद्वारा कारयति अथवा-जलस्य निःसारणार्थ मार्ग कुर्वन्तं अन्यमनुमोदते यथा सम्यक्कृतं भवतेत्यादि स साधुः प्रायश्चित्तभाग् भवति, जलप्रवाहकरणे एकेन्द्रियादि षड्जीवानामुपमर्दस्याऽवश्यं संभवात् इति ॥ सू० १३ ॥ भाष्यम्-नालिया दुविहा वुत्ता, संबद्धा च तहेयरा !
संबद्धा तिविहा गेज्जा, वक्खमाणपभेयओ ॥१॥ छाया -नालिकाद्विविधा प्रोक्ता संबद्धा च तथेतरा ।
संबद्धा त्रिविधा शेया वक्ष्यमाणप्रभेदतः ॥१॥ अवचूरी-'जलनालिया' इति । 'नालिया' नालिका जलनालिका, यस्य जलप्रवाहस्य करणेऽन्यद्वारा वा करणे, तदनुमोदने साधूनां प्रायश्चित्तं कथितम् । जलप्रवाहो द्विविधः
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८
निशीथ सूत्रे
द्विप्रकारको भवति, एको वसति संबद्धो द्वितीयस्तदितरः, वसत्यसंबद्धः । पुनश्च वसति संबद्धो जलप्रवाहो वक्ष्यमाणप्रभेदतस्त्रिविधः त्रिप्रकारको भवति । अर्थात् वर्षासमये वा - उदकवीणिका क्रियते सा द्विविधा वसतिसंबद्धा तदितरा च । तत्र वसतिसंबद्धा त्रिविधा भवति, उपरि संबद्धावसतिमध्यसंबद्धा नीचैः संबद्धा च तत्र याऽसौ वसतिसंबद्धा - वाह्या सा नियमतः परिगलन - रूपा । याऽसावन्तः संबद्धा: - सा भूमौ निपतति, याऽसौ वसतिसंबद्धा - उपरिसम्बद्धा सा हतले छिद्रादिद्वारा वर्षासंबन्धिजलमुपाश्रये प्रविशति ॥ सू० १३ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खु सिक्कगं वा सिक्कणंतगं वा अण्ण उत्थिकेण वा गारस्थिएण वा कारेइ करेंतें वा साइज्जइ ॥ सू० १४ ॥
छाया -यो भिक्षुः शिक्कं वा शिक्कांतकं वा अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू सिक्कगं वा' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः निरवद्यभिक्षणशीलः, 'सिक्कगं वा सिक्कणंतगं वा' शिक्कं वा शिक्कांतकं वा, तत्र शिक्कं “सीक" इति लोकप्रसिद्धम् । अथवा - यादृशो हि परिव्राजकस्य भवति भिक्षान्नस्थापनाय मूषक - मार्जारादिभ्यो भिक्षान्नस्य रक्षणाय संकेतितपात्र विशेषः । तथा शिक्कान्तरं शिक्कस्य पिधानं तदाच्छादकं वा, 'अन्न उत्थिषण वा गारस्थिपण वा' अन्ययूथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन शाक्यभिक्षुकादिना गृहस्थेन केनचित् श्रावकादिना वा 'करेइ' कारयति - स्वयं करोति, अथवा - अन्यद्वारा कारयति, 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते - अनुमोदनं करोति स साधुः प्रायश्चित्तस्य भागी भवतीति ॥ सू० १४ ॥
अत्राह भाष्यकार -
भाष्यम् – सिक्कगं दुविहं वृत्तं तसथावर निम्मियं । पढमं अंडजाजायं वीयं य विविहं मयं ॥ ॥ छाया - शिक्ककं द्विविधं प्रोक्तं त्रसस्थाबर निर्मितम् । प्रथममण्डजाज्जातं द्वितीयं च विविधं मतम् ॥ ॥
अवचूरि : - 'सिक्कगं दुविहं' इत्यादि । साधुभिरनिष्पाद्यं शिक्ककं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति । सस्थावरनिर्मितम् - त्रसकाय जीवदेहेन संपादितम्, तथा स्थावरका यजीवदेहेन निर्मित संपादितम् । तत्र द्विविधशिक्ककमध्ये प्रथमम् - अंडजात् - अंडज - मयूर - हंसादिजीव पक्षात्संपा दितम् | अंडजदेहात् - वालयदेहात् पट्टकोशिकादिजीवविशेषात् स्नायुतो वा जायमानम् । द्वितीय स्थावरजीवदेहनिर्मितन्तु विविधम् अनेकप्रकारकं भवति । तथाहि - कार्पास - नारिकेल - मुञ्ज -दर्भ
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टीका० उ० १ सू० १४-१७
अकुशलप्रति सेवना ९
स्थूलवंशादिविविधवनस्पतिमिर्मितम् । एतेषामन्यतमेन यो भिक्षुः स्वयं शिक्ककं करोति, अथवा - शाक्यभिक्षुकादिभिरन्यतीर्थिकेन गृहस्थश्रावकादिना वा कारयति, अथवा कुर्बन्तं तमनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलिं वा अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कारेइ करेंतें वा साइज्जइ || सू० १५ ॥
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छाया - यो भिक्षुः सौत्रिकां वा रज्जुकां वा चिलमिलि वा अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः सोत्तियं वा' सौत्रिकां वा-सूत्रभवां वा 'रज्जुयं वा' रज्जुकीं वा रज्जुः 'डोरी' लोकप्रसिद्धा तया शणकादिरज्जुभिर्वा निर्मिता ताम् 'चिलिमिलिं वा' चिलिमिलिकां वा तत्र चिलमिलिका - आहारकरणाय -शयनाय वा कल्पिता वस्त्रादिमयीजवनिका 'पडदा' इति लोकप्रसिद्धा ताम् 'अन्न उत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यतीर्थिकेन वा 'गारस्थिएण वा' गृहस्थेन कलत्रादिपरिवारपरिवृत श्रावकेण वा 'कारेइ' कारयति - स्वयं निर्माति अन्यद्वारेण वा निर्मापयति । 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते - अनुमोदते, कुर्वतोऽनुमोदनां करोति स श्रमणो लभते प्रायश्चित्तम् |
भाष्यम् - सुत्त रज्जुनक्केहिं च दंडकडगेहिं तहा ।
चिलिमिली खु पंचा भिक्खुहिं करणिज्जा नो || ||
छाया -सूत्ररज्जुवल्कलैश्च दण्डः कटकैस्तथा । चिलमिली खलु पंचधा भिक्षुभिः क्रियमाणा नो ॥ ॥
I
अवचूरि : - 'सुत्तरज्जु' इत्यादि । चिलमिली शयनाहारादिकरणाय निर्मिता गृहप्रति रूपिका जवनिका, एतादृशी चिलमिली पंचधा - पंचभिर्भेदैर्विभिन्नाः । सा साधुभिर्न करणीया तत्र पंचप्रकारान् भेदान् दर्शयति- 'सुत्ते ' इत्यादि । सूत्रमयी चिलमिली प्रथमा १, तत्र सूत्रेण-कार्पासिकेन - तदन्येन वा मेषादिकेशनिर्मितेन सूत्रेण वा या कृता सा सूत्रमयी चिलमिली १ । रज्जुमयी - रज्जुनिर्मिता "दोरी" ति प्रसिद्धा द्वितीया २ । 'वक्के' ति- वल्कलमयी, वल्कलं वृक्षत्वक् तया निर्मिता तृतीया ३, वंशो दंडादिः कटकमयोजवनिका ताभ्यां वंशकटकादिभ्यां चतुर्थी पंचमी च, एषा पञ्चप्रकारा चिलमिली साधुभिर्न कार्या ॥ सू० १५ ॥
२
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निशीथसूत्रे mmmmmmmmmmm
सूत्रम्-जे भिक्खू सूचीए उत्तरकरणं वा अन्नउथिएण वा गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६॥
छाया-यो भिक्षुः सूच्या उत्तरकरणम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः 'सूचीए उत्तरकरण' सूच्या उत्तरकरणम्, तत्र 'सूची सूई' इति प्रसिद्धा, तस्या उत्तरकरणं तीक्ष्णतादिसंपादनम् । 'अन्नउत्थिरण वा' अन्ययूथिकेन तीर्थान्तरिकेण 'गारथिएण वा' गृहस्थेन श्रावकादिना वा करोति 'करेंतं वा साइज्जई' कुवेन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुः सूच्योत्तरकरणमन्यतीथिंकेन करोति अथवा कुर्वन्तमनुमोदते, स साधुः माज्ञाभंगादिकान् दोषान् प्राप्नोति ॥ सू० १६ ॥
अत्राह भाष्यकार :-- भाष्यम्-बिलवड्ढकरणं लण्हस्स करणं तहा ।
पज्जलणं उजुकरणं उत्तरकरणं बुहा ॥ छाया-बिलवर्धनकरणं ग्लक्ष्णस्य करणं तथा ।
प्रज्वलनम् ऋजुकरणमुत्तरकरणं बुधाः ॥ अवचूरिः--'बिलवड्ढकरणं इत्यादि । सूच्या-उत्तरकरणम् तत्र किमिद मुस्तरकरणं तबाह भाष्यकारः बिलवर्धनकरणमित्यादि । बिलवर्धनकरणं सूच्या यत्-बिलं छिद्रं तस्य बर्द्धनं वृद्धिः तस्य करणं संपादनम् , तथा-श्लक्ष्णस्य-मूच्छितस्य कार्ये मन्दतामुपगतस्य तीक्ष्णीकरणम्-शिला घर्षणादि । तथा पज्जलणं प्रज्वलनम्-मन्दलौहस्याऽग्नौ संताप्य सन्ताड्य जले प्रक्षिप्योज्वलीकरणम् । तथा ऋजुकरणम्-वक्रस्य-कुटिलस्य सरलता संपादनम् । एतत्सर्वमुत्तरकरणशब्देन प्रतिपादितम् । सूच्याः उत्तरकरणे यस्मादग्निकायविराधनद्वारा षट्कायविराधना आज्ञाभंगादिका दोषा भवन्ति । तस्मात्सूच्या उत्तरकरणं न कुर्यान्नवा-कुवन्तमनुमोदयेत्, अन्यथा प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ १६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७॥
छाया-यो भिक्षुः पिप्पलकस्य उद्धरकरणमन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू. १७ ॥
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चूर्णी-भाष्यावचूरी टोका० उ० । सू० १८-२२ अकुशलप्रतिसेवनां १
चर्णी-'जे भिक्ख' इति । 'जे भिक्ख' यो भिक्षुः साधुः 'पिप्पलगस्स' पिप्पलकस्य- कतरिकायाः 'कैंची' तिलोकप्रसिद्धस्य । 'उत्तरकरणं' उत्तरकरणम् पिप्पलकस्य तीक्ष्णा दिसंपादनम् अपरभागस्य लोहकारगृहं गत्वा ऋजुतादिसंपादनम् । तथा--षोडशसूत्रोक्तं सर्वमिहोत्तरकरणशब्देन ज्ञातव्यमिति संक्षेपः ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नहच्छेयगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा-गारथिएण वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १८॥
छाया-यो भिक्षुः नस्त्रच्छेदकस्य उत्तरकरणम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन पा करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'नहच्छेयगस्स' नख 'छेदकस्य, नख पादजं, हस्तजं वा छिनत्ति येन स नखच्छेदकः 'नहरनी' ति लोकप्रसिद्धः तस्य नखच्छेदकस्य-उद्धरकरणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते, पूर्वसूत्रवत् दोषभाग्भवतीति ज्ञातव्यम् ।। सू० १८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणं अन्न उत्थिएण वा गारथिएण वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ॥ १९॥
छाया- यो भिक्षुः कर्णशोधनकस्य उत्तरकरणमन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन या करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९ ।। ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'कण्णसोहणगस्स' कर्णशोधनकस्य, येन साधनविशेषेण कर्णयोरन्तर्वर्तिमलमपनीयते-तत्कर्णशोधनकम् , एतादृशस्य कर्णशोधनकस्य । उत्तरकरणं नाम- केनचित् शस्त्रविशेषेण तीक्ष्णीकरणं, त्रुटितस्य लोहकारगृहे संधापनादिकरणम् । एतादृशमुत्तरकरण पूर्ववत् ज्ञेयम् ॥ सू० १९॥ सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णट्ठयाए सई जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥२०॥
छाया-यो भिक्षुरनथतया सूची याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णट्टयाए' अनर्थतया पयोजन विना, अन्यतीथिंकेभ्यः श्रावकेभ्यो वा 'सूई जायइ' सूची याचते. कारणमन्तरेणैव सूचीयाचनां कुरुते । अथवा -'जायंतं वा साइज्जइ याचमानमन्यं स्वदते अनुमोदते । यो भिक्षुः कारणमन्तरेणेव श्रावकादिभ्यः सूची स्वयं याचते-प्रार्थयति. सदोषभागू भवतीति ॥सू०२०॥
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निशीथसूत्रे अन्यसंयतार्थ याचकं याचमानं वाऽनुमोदयतो भिक्षुकस्य के दोषा भवन्ति तत्राह भाष्यकार:--'अकारणं' इत्यादि । भाष्यम्-अकारणं जायमाणे भिक्खू सई च पोसगो ।
आणाणवटामिच्छत्तं तहेव य विराहणं ॥ छाया-अकारणं याचमानो भिक्षुः सूची च पोषकः ।
आशानवस्थामिथ्यात्वं तथैव च विराधनम् ॥ अवचूरी-'अकारणं' इति । भिक्षुर्निरवद्यभिक्षवृत्तिमान् श्रमणः सूच्याः याचनां कुर्वन् सूची याचमानस्य पोषकोऽनुमोदको वा साधुः आज्ञाभंगदोषान् प्राप्नोति । न खल्वेतादृशी तीर्थकरस्याज्ञा, यत्--साधुभिः अन्यार्थ सूच्याः याचनां करोतु । ततश्च तथाकुर्वन् श्रमणस्तीर्थकराज्ञाभंगं प्राप्नोति, तथाऽनवस्थादोषोऽपि प्रसज्जते तथा कर्तुः एवं मिथ्यात्वदोषं चापि प्राप्नोति तथैव विराधनम् आत्मविराधनां--संयमविराधनां--भाषासमितिविराधनां च प्राप्नोति ॥ सू० २० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः अनर्थतया पिप्पलकं याचते याचमान वा स्वदते ॥२० २१ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इति । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणहयाए' अनर्थतयानिष्प्रयोजनम् , कारणं विनेत्यर्थः । 'पिप्पलगं' पिप्पलकम्-'कैंची' ति लोकप्रसिद्धम् 'जायई' याचतेअन्यतीर्थिकादिभ्यः । 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० २१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए कण्हसोहणं जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुरनर्थतया कर्णशोधनकं याचते, योचमानं वा स्वदते ॥ सू० २२ ॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'अणट्टयाए' अनर्थतया, तत्रार्थः प्रयोजनम्-न-अर्थः इत्यनर्थः प्रयोजनाभावः । तमुद्दिश्य--कण्णसोहणं' कर्णशोधनकम् , कर्णमलमपहर्तु, साधनविशेषलक्षणम् । 'जायई' याचते, अन्यतीर्थिकेभ्यो गृहस्थेभ्यो वा । जायंत वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते -अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाम् भवति ॥ सू० २२ ॥
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घूर्णी-भाष्यावधी टीका० उ० १ सू० २३-२८ अकुशलप्रतिसेवना १३
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठयाए णहच्छेयणं जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३॥ - छाया-यो भिक्षुः अनर्थतया नखच्छेदन कं याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २३ ॥
चर्णी-जे भिक्ख' इति । 'जे भिक्ख यो भिक्षुः-श्रमणः अणट्टयाए' अनर्थतया प्रयोजनं विनैव 'णहच्लेयणगं' नखच्छेदनकम् नखच्छेदनिकाम् – “नहरनी" ति लोकप्रसिद्धाम् 'जायइ' याचते अत्यतीर्थिकेभ्यः श्रावकेभ्यो वा 'जायंत वा साइज़्जइ' याचमानमन्यं स्वदतेअनुमोदते स आज्ञाभंगानवस्थात्मविराधनासंयमविराधनादिदोषैः प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० २३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए सूई जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥२४॥ छाया-यो भिक्षुः अविधिना सूची याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अविहिए' अविधिना 'सूई जायई' सूची याचते, तत्र विधि;--स्वसमयप्रसिद्धो नियमः तं विना । अर्थात् मह्यं कार्यमुपस्थितं सीवनस्याऽतः सूची मे देहि, कार्यं कृत्वा पुनरावर्तयिष्यामि-इति कथनमन्तरेणैव सूच्यायाचनम् अविधिना याचितं भवति । 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते । अर्थात्यः श्रमणः विधिमन्तरेणैव याचनां करोति-यश्च याचमानं तमनुमोदते, सोऽपि प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ २४ ॥ भाष्यम्-काहं वत्थस्स संहाणं तिकिच्चा जे उ जायइ ।
करेइ अन्न संहाणं एसोऽविही उदाहिओ ॥ छाया-करिष्ये वस्त्रस्य संधानमिति कृत्वा यस्तु याचते ।
करोत्यन्यस्य संधानमेषोऽविधिरुदाहृतः ॥ अवचूरिः--'काई' इत्यादि । कोऽपि साधुः कस्यचित् श्रावकादे गतवान् तत्र गत्वा सूची याचमानो वदति-भो देवानुप्रिय ! श्रावकः ! अहं वस्त्रस्य प्रावरणस्य संधानं करिष्ये इति कृत्वा कथयित्वा सूची याचते । किंतु तया प्रावरणार्थ याच्यमानया सूच्या चोलपट्टादिकस्य संधानं करोति । एष अविधिरुदाहृतः कथितः । अनेन विधिना यो याचते याचमान वा स्वदते अनुमोदते, स भिक्षुर्दोषभागिति । एवं पिप्पलकादिसूत्रेष्वपि बोद्धयम् ॥ सू० २४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५॥
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निशीथसूत्रे
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amaramannaari
छाया-यो भिक्षुः अविधिना पिप्पलकं याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः साधुः अविधिना पिप्पलकंपिप्पलको नाम पात्रमुखादिकरणप्रयोजनकः किञ्चिद्वको हस्वक्षुरविशेषस्तम् याचते, याचमानं वा स्वदते अनुमोदयतीति पूर्ववत् ॥ सू० २५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहोए नहच्छेयणगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥
छाया-यो भिक्षुरविधिना नखच्छेदनकं याचते याच मानं वा स्वदते । सू० २६ ।।
चूर्णी---'जे मिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'अविहीए' अविधिना, 'नहच्छेयणगं' नखच्छेदनकम् 'जायई' याचते, अन्येन याचयति, 'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्राग्वत् ॥ सू० २६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ २७॥
छाया-यो भिक्षुरविधिना कर्णशोधनकं याचते, याचमान वा स्वदते सू०॥२७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अविहीए' अविधिना 'कण्हसोहणगं' कर्णशोधनकम् 'जायइ' याचते 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते- इति पूर्ववत् ॥ सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा एगस्स अट्ठाए सूई जाइत्ता अण्णमपणस्स अणुप्पएइ, अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८॥
छाया--यो भिक्षुरात्मनः एकस्यार्थाय स्वीं याचित्वा अन्योन्यस्याऽनुप्रददाति, अनुप्रददतं वा स्वदते ।। सू० २८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित्--श्रमणः 'अप्पणो एगस्स अट्ठार' आत्मन एकस्यार्थाय, तत्रात्मनः स्वस्याऽर्थाय प्रयोजनाय । 'सूई जाइत्तए' सूची याचित्वा, कश्चित् श्रमणः गृहस्थकुलं गतो भवेत् तत्र गत्वा मम वस्त्रसंधानाय सूच्याः आवश्यकतेति कथयित्वा सूची याचमानः सूची प्राप्नोति प्राप्य च स्ववसतिमागत्य । 'अण्णमण्णस्स' अन्योऽन्यस्य--अन्यस्मै साधवे 'अणुप्पएइ' अनुप्रददाति, अनुप्रदापयति । 'अणुप्पयेतं व, साइज्जई' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभागिति संक्षेपः ।। सू० २०॥
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पूर्णी-भाज्यावरी, टीका उ०१ सू० २९-३४
अकुशलप्रतिसेवना ५
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए पिप्पलगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अनुप्पएइ अनुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मन एकस्यार्थाय पिप्पलकं याचित्वा अन्योऽन्यस्थानुप्रददाति प्रददतं वा स्वदते ॥ सू० २९॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः 'अप्पणो एगस्स अट्टाए' आत्मनः स्वस्यैकस्यार्थाय-प्रयोजनाय । 'पिप्पलगं जाइत्ता' पिप्पलक-कतरिका याचित्वा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अणुप्पएई' अनुप्रददाति, 'अनुप्पयंतं वा साइज्जइ' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते इति पूर्ववत् ।। सू० २९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू एगस्स अट्ठाए नहच्छेयणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३०॥
छाया यो भिक्षुरात्मन एकस्यार्थाय नखच्छेदनक याचित्वा भन्योऽन्यस्याऽनुप्रददाति अनुप्रददतं वा स्वदते ॥ सू० ३० ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'अप्पणो एगस्स अट्ठाय' आत्मनः स्वस्यैकस्याऽर्थाय, 'नइच्छेयणगं' नखच्छेदनकम् नखकर्तनसाधनम्, 'जाइत्ता' याचिवा 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य-अन्यस्मै, 'अणुप्पएई' अनुप्रददाति 'अणुप्पयंतं वा साइज्जई' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते इति, स प्रायश्चित्तभागिति पूर्ववत् ॥ सू० ३० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा एगस्स अट्ठाए कण्णसोहणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुप्पयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३१॥
छाया-यो भिक्षुरात्मन एकस्यार्थाय कर्णशोधनकं याचित्वा अन्योऽन्यस्याऽनुप्रददाति, अनुप्रददतं वा स्वदते ॥ सू० ३१ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः । 'अप्पणो एगस्स अट्टाए' आत्मनः स्वस्य केवलमर्थाय-प्रयोजनसिद्धये । 'कण्णसोहणगं जाइत्ता' कर्णशोधनक याचित्वा समानीय तत् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य-परस्परम् 'अणुप्पएइ' अनुप्रददाति, 'अणुप्पयंत वा साइज्जइ' अनुप्रददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाक् इति पूर्ववत् ॥ सू० ३१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं सूई जाइत्ता वत्थं सीविस्सामित्ति पायं सिबइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२॥
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१६
निशीथसूत्रे
छाया -- यो भिक्षुः प्रातिहारिकीं सूचीं याचित्वा वस्त्रं सीविष्यामि इति पात्रं सीव्यति सीव्यन्तं वा स्वदते ॥ ३२ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकीम्, 'सूई' सूची कार्ये कृत्वा पुनः परावर्तयिष्यामीति कथयित्वा नयति - तादृशसूचीग्रहणं प्रातिहारिकसूचीग्रहणम् । तादृशीं सूचीं ' जाइत्ता' याचित्वा 'वत्थं सीविस्सामित्ति' वस्त्रं सीविष्यामीति अनया नीयमानया सुच्याऽहं वस्त्रस्य संधानं करिष्यामीति कथयित्वा आनीतया तया 'पायं सिव्बइ' पात्रं सौव्यति, यदि कथिताद्वस्तुनोऽन्यद्वस्तु सीव्यति, 'सिव्वंतं वा साइज्जइ' सीव्यन्तं वा संदधन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स भाषासमित्या स्खलितः प्रायश्चित्तभागिति ॥ सू० ३२ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पाडिहारियं पिप्पलगं जाइत्ता वत्थं छिंदिस्सामि त्ति पायं छिंदइ, छिंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३३ ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पिप्पलकं याचित्वा वस्त्रं छेत्स्यामीति पात्रं छिनत्ति छिन्दन्तं वा स्वदते || सू० ३३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमण: 'पाडिहारियं' प्रातिहा - रिकं - कार्यानन्तरं परावर्त्तनीयम् 'पिप्पलगं' पिप्पलकम् - लोहमयशस्त्रविशेषं कर्त्तरिकादिकं ' जाइत्ता' 'याचित्वा 'वत्थं छिंदिस्सा मि' वस्त्रं छेत्स्यामि इति कृत्वा, 'पायं छिंदइ' पात्रं छिनत्ति, छेदयति वा, 'छिंदतं वा साइज्जइ' छिन्दन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते इति पूर्ववत् ॥ सू० ३३ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू पाडिहारियं नहच्छेयणगं जाइत्ता नहं छिंदिस्सामिति सल्लुद्धरणं करेइ, करेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४ ॥
छाया - यो भिक्षुः प्रातिहारिकं नखच्छेदनकं याचित्वा' नखं छेत्स्यामि इति शल्योद्धरणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सु० ३४ ॥
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकं पुनः परावर्त्तयिष्यामीति कथयित्वा 'नहच्छेयणगं' नखच्छेदनकं नखकर्त्तनसाधनम् | ' जाइत्ता' याचित्वा 'नहं छिंदिस्यामिति' नखं छेत्स्यामि इति कृत्वा आनीतवान् । किन्तु तेन 'सल्लु - द्धरणं करे' शल्योद्धरणं करोति, कारयति ' करें वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते - अनुमोदते इति पूर्ववत्प्रायश्चित्तभाक् सः ॥ सू० ३४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पाडिहारियं कण्णसोहणगं जाइत्ता कण्णमलं णीहरिस्सामिति दंतमलं वा नखमलं वा णीहरेइ णीहरंतं वा साइज्जइ ॥सू०३५॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १ सू० ३६-४० अविधिसूचीप्रत्यर्पण-पात्रपरिघट्टनादिनिषेधः १७
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं कर्णशोधनकं याचित्वा, कर्णमलं निहरिष्यामीति दन्तमलं वा नखमलं वा निर्हरति, निर्हरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकम् 'कण्णसोहणगं' कर्णशोधनकम् 'जाइत्ता' याचित्वा 'कण्णमलं णीहरिस्सामित्ति' कर्णमलं निर्हरिष्यामीति कथयित्वाऽऽनीतेन तेन दन्तमलं वा स्वेच्छया नखमलं वा 'णीहरेई' निर्ह रति, निहारयति, ‘णीहरंतं वा साइज्जइ' निर्हरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवतीति ॥ सू० ३५ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-सीविस्सं वत्थमेएणं, वत्थं पायं च सिव्वइ ।
सिविस्सामि च पायं वा, वत्थगं खलु सिवइ ॥ गिही सयं वा दणं, सुणित्ता विमणो हवे ।
खिसणं वा परस्सग्गे, कुज्जा अणायरं तहा ॥ छाया-सीविष्यामि वस्त्रमेतेन वस्त्रं पात्रं च सीव्यति ।
सिविष्यामि च पात्रं वा वस्त्रकं खलु सीव्यति । गृही स्वयं वा दृष्ट्वा श्रुत्वा विमना भवेत् ।
निन्दनं वा परस्याने कुर्यादनादरं तथा ॥ अवचूरिः–'सीविस्सं' इत्यादि । अहं भवत्प्रदत्तेन-एतेन सूच्यादिना वस्त्रं सीविष्यामि, इत्युक्त्वाऽऽनीतेन साधनेन सूचीसाधनेन वस्त्रं ततोऽन्यत् पात्रं च सीव्यति । एवमेव-पात्रं वा सीविष्यामीति कथयित्वाऽऽनीतेन तेन खल वस्त्रकं सीव्यति । गृही एवं सूचीद्वारा पात्रादिकं सीव्यन्तमेनं साधु कदाचित्स्वयं दृष्ट्वा परमुखाद्वा श्रुत्वा 'विमणो' विमनाः मनोवकृतिमान् भवेत् वा-अथवा परस्य-साधोर्गृहस्थस्य वा अग्रे-समक्षं तस्य साधोनिन्दनं तथा-अनादरं यदि कुर्यात् तदा मृषाभाषणेन द्वितीयमहाव्रतस्य भङ्गकरणात् संयमात्परिभ्रष्टः सन् शासनलघुतां कारयेत्साधुः, अतः साधुभिरेवं न कर्त्तव्यम् ।। सू० ३५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अविहीए सूई पञ्चप्पिणइ पच्चप्पिणंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३६॥
छाया-यो भिक्षुरविधिना सूची प्रत्यर्पयति, प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥
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निशीथसूत्रे चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'सूई' सूचीम् 'अविहीए पच्चप्पिणइ' अविधिना-विधिमतिक्रम्य प्रत्यर्पयति दायकं प्रति ददाति 'पच्चप्पिणतं वा साइज्जई' प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । अविधिना ददाति, ददतं वा प्रत्यनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ ३६ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अविहिणा देमाणो य, दायगं पडि जो मुणी ।
धम्मस्स लहुया होज्जा, होज्जा जीवविराहणा ॥ छाया-अविधिना ददानश्च-दायकं प्रति यो मुनिः ।
धर्मस्य लघुता भवेत् भवेज्जीवविराथना ॥ अवचूरिः-'अविहिणा' इत्यादि । यो मुनिः सूच्यादिना स्वकार्य कृत्वा, तां सूची प्रत्यर्पयितुं दायकं-दातारं प्रति गत्वा-'नीयतामियं सूची' इत्युक्त्वा- अविधिना जानुदेशादूर्ध्वस्थितादेव स्वहस्तात्-ददत्-प्रत्यर्पयन् सन् वसतिं प्रतिनिवर्तते । तत्रैवं करणे धर्मस्य लघुता भवति, तथा-वायुकायादिजीवानां विराधना च भवति । एषोऽविधिः । अयं भावः-शोभनोऽयं विधिः यथा स्वप्रयोजनार्थमेव याचेत, यद्वस्त्रादिकं संदधीत तदर्थमेव याचेत, यस्य साधोः कार्य तन्नाम्नैव याचेत, आत्मनोऽर्थाय-परस्यार्थाय तदुभयाय वा याचेत, यथाक कामस्तथैव यत्नो विधेय इति परमार्थः । विनीतः सन् पुरो भूमौ संस्थाप्य तमेवं वदेत्-भ्रातः ! 'तवेयंसूचि रिति ॥ सू० ३६ ॥
एवमेव--'पिप्पलगं' पिप्पलक०, ३७, 'नहच्छेयणगं'-नखच्छेदनकं० ३८ । कण्णसोहणगं कर्णशोधनकं० ३९। एषु त्रिष्वपि सूत्रेषु पूर्वोक्त एव विधिरविधिश्च ज्ञातव्यः ॥ सू० ३७-३९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणा करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४०॥
_छाया-यो भिक्षुः अलाबूपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा, अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा परिघट्टयति वा संस्थापयति वा यमयति वा अलमात्मनः करणतया सूक्ष्ममपि नो कल्पते जानानः स्मरन् अन्याऽन्यस्य वितरति वितरन्तं वा स्वदते ॥सू०४०॥
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यूणिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४१-४३ दण्डकादिपरिघट्टन-पात्रसन्धाननिषेधः १९
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'लाउपायं वा' अलाबूपात्रं वा-तूंबीपात्रं वा, 'दारुपायं वा दारुपात्रं वा, तत्र-दारु-काष्ठं तत्संबन्धि पात्रं वा, 'मट्टियापायं वा' मृत्तिकापात्रं वा, एतानि त्रीणि अलाबूप्रभृतिपात्राणि 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यतीर्थिकेन वा, 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा 'परिघटावेइ वा' परिघट्टयति-निर्मापयति वा 'संठवेइ' संस्थापयति वा -पात्रमुखादीनां निर्माणं कारयति 'जमावेइ वा' यमयति वा-संयमयति वा पात्रैकदेशोच्चनीचप्रदेशं समीकारयति । अलं-पर्याप्तम् 'अप्पणो करणयाए' आत्मना करणतया स्वयं कर्तुं न शक्यते । 'मुहुममवि' सूक्ष्ममल्पमपिः 'नो कप्पइ' नो कल्पते । एवं स्वशक्ति. 'जाणमाणे' जानानः 'सरमाणे' स्वसामय स्मरन् सन् वा 'अण्णमण्णस्स' अन्यान्यस्मै अन्यस्मै अन्यस्मै इत्यर्थः, तत्र-अन्यतीथिंकाय गृहस्थाय वा 'वियरइ' वितरति समीकरणाद्यर्थाय पुनरग्रहणाय वा ददाति । 'वियरंतं वा साइज्जई' वितरन्तं ददतमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते इति । यदि कश्चित् श्रमणः तुम्बादिपात्रं स्फुटितं गृहस्थादिद्वारा संधापयति नवीनं वा निर्मापयति किंचिदपि विषमं समौकारयति सूक्ष्ममपि कार्य करोति-कारयति-कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति । एतेषां करणेऽन्यद्वारा संपादने वा दाने वा षड्विधजोवनिकायानामुपमर्दसंभवेन साधुभिस्तत्याज्यम् ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम्--जे मिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ संठवेइ जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१ ॥
छाया-यो भिक्षुः दण्डकं वा यष्टिकां वा अवलेहनिकां वा-वेणुसूचिकां वा अन्य-यूथिकेन वा गृहस्थेन वा परिघट्टयति संस्थापयति यमयति वा अलमात्मनः करणतया सूक्ष्ममपि नो कल्पते जानानः स्मरन् अन्याऽन्यस्मै वितरति वितरन्तं वा स्वदते । सू० ४१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः श्रमणः ‘दंडयं वा' दण्डकं वा, तत्र-दण्डो गमनसहायको लोकप्रसिद्धः, 'लटियं वा यष्टिकां वा, तत्र-यष्टिर्वशादिनिर्मितो लघुदण्डविशेषः, तां वा । 'अवलेहणियं वा' अवलेहनिकां वा वर्षासमये चरणसंलग्नकर्दमप्रोञ्छनशलाकाविशेषः । 'वेणुसूइयं वा' घेणुसूचिकां वा, तत्र-वेणुवंशस्तन्मयौं सूची वंशशलाकामित्यर्थः । एतत्पूर्वोक्तं 'सर्व वस्तु 'अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा' अन्ययूथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन वा गृहस्थेन वा "परिघट्टावेई' परिघट्टयति परिघट्टनं निर्मापणम् ततश्चाऽन्यद्वारा दण्डादि निर्मापयतीत्यर्थः । 'संठवेइ'
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२०
मिशिथस्त्रे संस्थापयति, तत्र-संस्थापन-दण्डस्य मुखादीनां संपादनम् 'जमावेइ वा' यमयति वा संयमयति दण्डादिकं समीकारयति । 'अलमप्पणो करणयाए' मलमात्मनः करणतया पर्याप्तमात्मना स्वयं करणायालम् न स्वस्य कत्तुं सामर्थ्यमित्यर्थः । 'सुहुममवि नो कप्पई' सूक्ष्म-स्वल्पमप्यात्मनः कार्यमन्यद्वारा कारयितुं न कथमपि कल्पते । 'जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरई' स्वात्मानं जानानः स्मरन् वा स्वसामर्थ्य अन्याऽन्यस्य अन्यस्मै अन्यस्मै इत्यर्थः वितरति-ददाति । 'वियरंतं वा साइज्जइ' वितरन्तं वा-ददतं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते दण्डादीनां घर्षण-संस्थापनसंयमनादिकं कत्तुं परतीथिकेभ्यो ददाति ददतं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति । केवलं बाल-ग्लान-रोगि-वृद्धानां संचलनार्थ यष्टयादिर्गृहीतो भवति न तु सशक्तानां सर्वसाधूनामिति विवेकः ॥ सू० ४१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायस्स एगं तुडियं तुडेइ तुडतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४२॥
छाया-यो भिक्षुः पात्रस्यैकं त्रुटितं स्थगयति-स्थायन्त वा स्वदते ।।सू०४२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पायस्स' पात्रस्यतुम्बीपात्रस्य, दारुपात्रस्य, मृत्तिकापात्रस्य वा। 'एगं तुडियं' एकं त्रुटितम् थिग्गलं छिद्रमित्यर्थः उपलक्षणात् अखण्डपात्रस्योपरि शोभायथं पात्रस्य शोभा वर्द्धतामिति बुद्धया पात्रस्योपरि दीयमानं चिह्नविशेषम् । 'तुडेइ' स्थगयति आवृणुते त्रुटितं संयोजयतीत्यर्थः । 'तुडतं वा साइजइ' स्थगयन्तं वा स्वदते । यश्च भिक्षुस्तुम्बिकादित्रिविधपात्रेषु छिद्रमेकं निरुणद्धि, यद्वा-पात्रस्योपरि शोभातिशयसंपादनार्थ यत्र तत्र वा स्वस्तिकादिकं निर्माति-निर्मापयति वा, निर्मापयन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४२ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू पायस्स परं तिण्हं तुडियाणं तुडेइ तुडंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४३॥
___ छाया-यो भिक्षुः पात्रस्य परं त्रयाणां त्रुटितानां स्थगयति स्थगयन्तं वा स्वदते ॥ सू०४३॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पायस्स' पात्रस्य तुम्बिकादेः । 'परं तिण्हं तुडियाणं' परं त्रयाणां त्रुटितानाम् त्रिथिग्गलात् परं चतुर्थादिकम् 'तुडेई' स्थगयतिआवृतं करोति-कारयति वा 'तुडतं वा साइज्जइ' –स्थगयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, त्रिथिग्गला
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४४-४७ पात्रस्याविधिसंधानातिरेकबन्धननिषेधः २१ दधिकं संयोजयति स प्रायश्चित्ती भवति । यः साधुस्तुम्बिकादिपात्रेषु--एक-द्विकं वा कदाचित्त्रिकं थिग्गलं योजयितुं प्राप्ताधिकारः स यदि चतुर्थादिकं थिग्गलं स्वस्वजातीयं खण्डं योजयति करोति, कारयति, कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते तदा प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४३ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- उड्डे तुडियतिया य, जोजेज्ज पायगं जई ।
आणाणवत्था मिच्छत्त, पावेई य विराहणं ।। छाया-उर्ध्व त्रुटितत्रिकाच्च, योजयेत्पात्रकं यतिः ।
आशानवस्थामिथ्यात्वं प्राप्नोति च विराधनम् ॥ अवचूरिः-'उड्ढं तुडिय' इत्यादि । यो यतिः श्रमणः स्फुटितपात्रादिकस्य थिग्गलत्रयात् उर्ध्वमधिकं थिग्गलेन पात्रकं तुम्न्यादिपात्रं योजयेत्, चतुर्थादिकं थिग्गलं पात्रे स्थगति--करोति, स श्रमणः आज्ञाभङ्गदोषम्-अनवस्थादोषम् -मिथ्यात्वदोषम्--विराधनं च प्राप्नोति, अतः स्फुटितस्य पात्रादिकस्य थिग्गलत्रयादधिकं न योजयेत् , इति ॥ सू० ४३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं अविहीए तुडइ तुरंतं वा साइज्जइ॥ सू०४४॥ छाया-यो भिक्षुः पात्रमविधिना स्थगति स्थगयन्तं वा स्वदते ॥ सू०४४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाय' पात्रम् 'अविहीर' अविधिना विध्यतिक्रमेण, 'तुडई' स्थगयति -युनक्ति 'तुडतं वा साइज्जई' स्थगयन्तं वा स्वदते, युनक्ति-योजयति--मनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागिति ॥ सू० ४४ ॥
मूत्रम्-जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधतं वा साइज्जइ। सू०४५॥ . छाया-यो भिक्षुः पात्रमविधिना बध्नाति-वध्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४५॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः 'पायं पात्रं तुम्बिकादिकम् • 'अविहीए' अविधिना विध्यतिक्रमेण 'बंधई' बन्नाति अविधिना बन्धनं करोति कारयति । 'बंधतं वा साइज्जइ' बघ्नन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति । त्रिप्रकारके sलाबूपात्रादौ द्विप्रकारको बंधो भवति । तत्रैकोऽविधिबन्धो द्वितीयो विधिबन्धः । तत्राऽविधिबंधोऽयम्-"तत्र स्वस्तिकबन्धो द्विप्रकारको भवति व्यतिकलितः । इतरौ वा व्यतिकलितो समच
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निशीथसूत्रे
उरणौ च कोणे ॥१॥X मलिकलित एकल किया था, एकोऽयम् । अथातोऽम्
प्रतीतस्तेनबन्धः, स चाऽयम्।
एते सर्वेऽप्यविधिबन्धाः । विधिबन्धस्तु मुद्रिकासंस्थित ५
नौबन्धसंस्थितश्च ६ । एतेषु बन्धेषु-अविधिमध्यादेकतरेणापि बन्धेन त्रयाणां पात्राणां मध्यात् एकमपि पात्रं बन्धयेत् स आज्ञाभङ्गादिकं दोषं प्राप्नोतीति ।। सू० ४५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः पात्रमेकेन बंधेन बध्नाति बध्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४६ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः, 'पार्य पात्रं तुम्बिकादिपात्रम् 'एगेण बंधेण बंधइ' एकेन बन्धेन बध्नाति । सामान्यतस्तावत्कथितम् यत् "अवन्धनं पात्रं तुम्बिकादिकं ग्रहीतव्यम्" पात्रस्यैकबन्धनमपि कुर्वतस्त एवाज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति कथयितुमिदं सूत्रं प्रवृत्तम् । तच्चैवं प्रतिपादयति यत् कश्चिदेकबन्धनं पात्रे करोति स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति, तथा 'बंधतं वा साइज्जई' बध्नन्तं वा एकेन बन्धेन पात्रादिकं बध्नन्तं स्वदतेऽनुमोदते यः सोऽपि प्रायश्चित्तभाग्भवतीति ॥ सू० ४६ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पायमेगेण बंधेण, बंधेज्जा भिक्खुओ जइ ।
विहिणाऽविहिणा वा से, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया--पात्रमेकेन बंधेन, बध्नोयाद्भिक्षुको यदि ।
विधिनाऽविधिना वा स आशाभङ्गादि प्राप्नोति ।। अचूरिः-- 'पायमेगेण' इत्यादि । यः कश्चित् श्रमणः एकेन एकावृतेन बन्धेन विधिना मुद्रिकासंस्थानेन नौबन्धनसंस्थानेन वा, अविधिना स्वस्तिकादिबंधनेन वा, पात्रमलाबूप्रभृतिकं बन्धयेत् पात्रस्य बन्धनं कुर्यात् यदि, एवं कुर्वाणः स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति तस्माद्विधिना वा अविधिना वा पात्रस्यैकावृतेन बन्धनेन बन्धनं न कुर्यादिति ॥ सू० ४६ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥ छाया--यो भिक्षुः पात्रं परं त्रयाणां बंधानां बध्नाति बध्नन्त वा स्वदते । सू० ४७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खु यो भिक्षुर्निर्ग्रन्थः 'पाय' पात्रं तुम्बिकाप्रभृतिकम् । 'परं तिण्हं बंधाणं बंधई' परं त्रयाणां बन्धानां बध्नाति त्रिरावृतबन्धनात्परं चतु
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४८
पात्रस्यातिरेकबन्धनकालमर्यादा २३ दिबन्धेन बध्नाति-बन्धनं करोति कारयति 'बंधतं वा साइज्जई' बध्नन्तं-बन्धनं कुर्वाणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ।। सू० ४७ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-बंधत्तिगाइरित्तेण, पायं बंधइ जो जई ।
विहिणाऽविहिणा वावि, से पावइ य दूसणं ॥ छाया-बन्धधिकातिरिक्तेन, पात्रं बध्नाति यो यतिः ।
विधिनाऽविधिना वाऽपि, स प्राप्नोति च दूषणम् ॥ अवचूरिः-'बंधत्तिगा' इत्यादि । यः कैवल्यप्रापकज्ञानदर्शनचारित्रार्थं यतमानो यतिः बन्धत्रयातिरिक्तेन बन्धनत्रयादधिकेन चतुर्थबन्धनादिना पात्रमलाबूप्रभृतिकम् विधिना मुद्रिकादिसंस्थानेन, अविधिना स्वस्तिकादिसंस्थानेन बन्धनेन बध्नाति बन्धनं करोति कारयति, स दूषणमाज्ञाभङ्गादिदोषजातं प्राप्नोति तस्मात् कथमपि विधिनाऽविधिना वा चतुर्थेन बन्धनेन यतिः पात्रस्य बन्धन न कुर्यादिति ॥ सू० ४७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवड्डाओ मासाओ परेण धरइ धरतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४८ ॥
छाया-यो भिक्षुरतिरेकबन्धनं पात्र द्वयर्धात् मासात्परं धरति, धरन्तं वा स्वदते ॥ सू०४८॥
चूणी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘अइरेगबंधणं पायं' अतिरेक त्रिबन्धनादधिकं बन्धनम् , तेन बद्धं पात्रम् 'दिवड्ढाओ मासाओ' द्वयर्धात् मासात् एकं मासं परिपूर्ण द्वितीयमासस्या? भागः पंचदशदिनानि, तस्मात् द्वयर्धमासात् 'परेण' परेण परतः यदि द्वयर्धमासादधिककालपर्यन्तं 'घरेइ' धरति धारयति । 'धरंतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति ॥ सू० ४८॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अवलक्खणबंधणओ, होइ पमाओ असंजमो तत्तो ।
. तेण य आणाभंगो, पडई तत्तो य संसारे ॥ छाया- अपलक्षणबन्धनतो भवति प्रमावः असंयमस्तस्मात् ।
तेन च आशाभङ्गः, पतति तस्माच्च संसारे ॥
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निशीथसूत्रे अवचूरिः-'अवलक्खण.' इत्यादि । अपलक्षणं यद्वन्धनं तस्मात् प्रमादो भवति, तस्मात् प्रमादात् असंयमः, तेन च असंयमेन आज्ञाभङ्गः जिनाज्ञाविराधना, तस्माच्च बाज्ञाभङ्गात् साधुः संसारे पतति तस्य पुनः पुनः संसारपातो भवति । तस्मादविधिबन्धनस्य सार्धमासात्परतो धर्ता-धारयिता, धारयतोऽनुमोदयिता च प्रायश्चित्तभाग् भवतीति विमर्शः ॥ सू० ४८ ॥
एकबन्धनबद्धपात्रधारणे भिक्षुः कं के दोषं प्राप्नोतीत्याह भाष्यकारःभाष्यम्-आणाभंगाइयं दोसं, मिच्छत्तं च विराहणं ।
... पावइ जम्हा य तम्हा, भिक्खू णेव धरेज्ज तं ॥ छाया-आक्षाभङ्गादिकं दोषं, मिथ्यात्वं च विराधनम् ।।
प्राप्नोति यस्माच्च तस्माद् , भिक्षुनैव धरेत् तम् ॥ अवचरि:-'आणाभंगाइयं' इत्यादि । यस्मात्कारणात् एक-द्विक-त्रिकातिरेकबन्धनविशिष्टपात्रं धारयतस्तीर्थकाराणामाज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति, तथा अनवस्था, एकेन यदि धारितं तदाऽन्योऽपि तद्धारयिष्यति, तदन्योऽपि धारयिष्यति, एवं तदन्योऽपि, इत्थं क्रमेणाऽनवस्थादोषः समापतति । तेन मिथ्यात्वमपि प्राप्नोति, तीर्थकराणामाज्ञाभङ्गे मिथ्यात्वप्राप्तेः । तथा विरा. धनम् आत्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति । तस्मात्कारणात् साधुरेकबन्धनाविधिबन्धनातिरेकबन्धनविशिष्टं पात्रं न धारयेदिति सिद्धान्तः ॥ सू० ४८ ॥
अथ भाष्यकारोऽलक्षणपात्राणि प्रदर्शयति-'हुंडं' इत्यादि । भाष्यम्-हुंडं १ सबलं २ वायाइदं ३ दुपुर्य ४ च खीलसंठाणं ५ ।
पउमुप्पलं ६ च सवण्णं ७ अलक्खणं दड्ढ ८ दुचणं ९॥ छाया हुंडं १ शबलं २ वाताविद्धं ३ दुष्पुतं ४ च कीलसंस्थानम् ५।
पद्मोत्पलं ६ च सवर्ण ७, अलक्षणं दग्ध ८ दुर्वर्णम् ९ ।
अवचूरिः-'हुंडं' यत् पात्रं समचतुरस्रं न भवति तत् हुण्डम् अलक्षणम् १, शबलं तत् यस्य कृष्णादिरूपाणि, विचित्ररूपोपपन्नम् इत्यर्थः २ वाताविद्धं नाम-वातेन आविद्ध क्षिप्तम् उपचारात् स्फुटितमित्यर्थः ३, दुष्पुतं नाम-दुष्टाधोभागं यत् स्थापितमूर्ध्वमेव तिष्ठतिचालितं सत् पुनः प्रत्यावर्त्तते तत् तादृशं दुष्पुतम् ४ इति । कीलसंस्थानम्-यत् स्थापयत् सन्न तिष्ठति तत्कीलसंस्थानम् ५, पमोत्पलम्-यस्य पात्रस्याऽधोनाभिः पद्माकृतिः, उत्पलाकृतिः नोलामा वा तत्पमोत्पलम् ६, सवर्णम् कण्टकादिक्षतक्षतं यत्पात्रं तत् ७, तथा-दग्धम् - अग्निना प्रज्वलितम् ८, दुवर्णम्- पञ्चवर्णोपेतमनिष्टवणे वा ९ । अथवा-प्रवालाङ्कुरसदृशं
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वर्णिभाष्यावचूरिः उ० १ सू० ४९-५०
वस्त्रसन्धानप्रकरणम् २५
सुवर्णम् अन्य दुर्वर्णम्-अनिष्टमित्यर्थः । एतल्लक्षणयुक्तं पात्रमलक्षणं कथ्यते इति । तत्र कस्मिन् अलक्षणे सति तद्धारयितुः किमाकारको दोष आपद्येत ? तत्रोच्यते - हुंडनामकेऽलक्षणे चारित्रभेदः १, शबलनाम के लक्षणे चित्तविभ्रमः २ वाताविद्धनामकेऽलक्षणे साधोरुन्मादो भवति ३, दुष्पुत - कीलसंस्थाननामकेऽलक्षणके गणे― चारित्रे च स्थानं न लभते ४/५ | पद्मोत्पलनामकालक्षणे - अकुशलं शरीरपीडा भवति ६, सवर्णापलक्षणे उपकरणस्य ज्ञान - दर्शन - चारित्रस्य च विराधना भवति ७, दग्धे अन्तर्बहिर्वा मरणं भवति ८ । दुर्वर्णनामकाऽलक्षणविशिष्टपात्रधारणे ज्ञानस्यागमो न भवति ९, तस्मात् - अलक्षणयुक्तं पात्रं न धारयेत् । कीदृशं पात्रं केन वा क्रमेण कियन्तं वा कालं मार्गयितव्यम् ! तत्रोच्यते-प्रथमं तावत् चतुरो मासान् पर्यन्तं यथाकृतं नाम पात्रं केवलकाष्टनिर्मितं पूर्वकृतमुखं वाऽलाबूपात्रं मार्गयितव्यं किन्तु न परिकमितमिति । यदि चतुर्मासं यावदन्वेषणे कृतेऽपि तादृशं यथाकृतं पात्रं न लब्धं भवति, तदा - तदनन्तरं मासद्वयं यावत् अल्पपरिकर्मितमेव पात्रं मार्गयितव्यम् । यद्येतावता कालेनाऽपि तादृशमल्पपरिकर्मितं पात्रं लब्धं न भवेत्, तदा-द्वयर्धमासं यावत् बहुपरिकर्मितमपि पात्रं मार्गयेत् यस्मात् - तदनन्तरं वर्षाकालः प्राप्तो भवति, वर्षाकाले च परिकर्म न भवति । यदि यादृशमागमे कथितं सलक्षणं पात्रम् तादृशं पात्रं न लभेत, तदा तावद् यदेव प्राप्तं तदेव पात्रमनुकर्षयितव्यमिति संक्षेपः ॥ सू०४८॥
"
इतः पूर्वसूत्रेषु - एक-द्विकादिथिग्गलं बन्धनं वा दर्शितम्, अधुना - प्रकृतसूत्रे वस्त्रे थिग्गल योजनाप्रकारमाह - 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् — जे भिक्खू वत्थस्स एवं पडियाणियं देइ, देयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४९ ॥
छाया - यो भिक्षुर्वस्त्रस्य एकं प्रत्यनीकं ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ४९ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य, तत्र -- वासयति-आच्छादयति रक्षति शीतोष्णादिभ्यः शरीरमिति वस्त्रम् - प्रावरणक-चोलपट्टादिकम्, तस्य वस्त्रस्य ' एगं पडियाणियं' एकं प्रत्यनीकम् अन्यजातीयवस्त्र संभवं थिग्गलकम् कारणं विना तज्जातीयमेकं थिग्गलम् - अन्यजातीयवस्त्रस्य वा थिग्गलं ददाति दापयति 'देयतं वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते, स आज्ञाभङ्गादिकमात्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति, अतः प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४९॥
"
संप्रति सूत्रप्रतिपादितं वस्त्रं कतिप्रकारकं भवतीति जिज्ञासायामाह भाष्यकार : - 'वत्थं
पंचवि' इत्यादि ।
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निशीयसूत्रे
भाष्यम्-वत्थं पंचविहं वुत्तं, जंगमाइपभेयर्ग । जहासत्थं च तन्भेओ, णायव्यो हियबुद्धिहि । छाया-वस्त्रं पञ्चविधमुक्तं जंगमादिप्रमेदकम् । यथाशास्त्रं च तद्भेदो ज्ञातव्यो हितबुद्धिभिः ॥ अवचूरिः--वस्त्रं पञ्चविधं पञ्चप्रकारकं भवति, जंगमादिभेदात् , पंच प्रकाराः वस्त्रस्य भवन्तिजंगिए,भंगिए, साणए, पत्तिए, तिरीडपट्टए" जगमम् १, भङ्गिकम् २ शाणकम् ३ पत्रकम् ४ तिरोडपट्टकम् ५, तत्र-जङ्गमम्-अजमेषलोमनिर्मितं कम्बलादि, उपलक्षणात्कार्पासिकम् १, भङ्गिकम्अतसीनिर्मितं कृमिजं वा २, शाणकम्-शणसूत्रमयम् ३, पत्रकम्-तालपत्रनिर्मितम् ४, तिरीडपट्टकम्-तिरोडवृक्षत्वग्भिनिर्मितम् ५। एतेषु पञ्चविधेषु वस्त्रेषु-उत्सर्गमार्गेण वस्त्रद्वयं कल्पते, ऊर्णामयं, कासिकं च, तत्र एकमूर्णामयं, प्रावरणद्वयं कार्पासिकं च । अपवादमार्गेण द्विविधवस्त्रयोरलाभेऽन्यदपि वस्त्रं कल्पते । इत्थं सुबुद्धिभिर्यथाशास्त्रं भेदो ज्ञातव्यः ॥ सु० ४९॥
अथापवादमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं पडियाणियं देइ देयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५०॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं प्रयाणां प्रत्यनीकं ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू०५०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्यस्स' वस्त्रस्य प्रावरणचोलपट्टकादिरूपस्य 'परं तिण्हं' परं त्रयाणाम्, त्रयाणां थिग्गलानां परतश्चतुर्थादिकम् , प्रत्यनीकं अन्यजातीयवस्त्रथिग्गलम् , 'देइ' ददाति दापयति, 'देयंत वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदतेस प्रायश्चित्तभार भवतीति । सू० ५०॥
अत्राह भाष्यकार:– 'कारणे' इत्यादि । भाष्यम् - कारणे थिग्गलं सत्ये, तियमेयमुदाहियं । तओ य परतो देइ, आणाभंगाइया मया ॥ छाया-कारणे थिग्गलं शास्त्रे त्रयमेतदुदाहृतम् । ततश्च परतो ददाति आशाभंगादिका मताः ॥
अवचूरिः-कारणे-कारणविशेषे सति, यावत्-एक-द्विकं त्रयं वा थिग्गलं घस्त्रोपरि देयम् , एतत् शास्त्रे एवोदाहृतम्-कथितम् । कारणे सति यावत् थिग्गलत्रयं तावदेयम् , ततश्च परतो ददतः ततः परं त्रिथिग्गलात्परं चतुर्थादि थिग्गलं वस्त्रोपरि ददतः श्रमणस्य- आज्ञाभगादिका दोषा मता भवेयुरित्यर्थः ।। सू० ५०॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १ सू० ५१-५६
वस्त्रस्य सीवनफलिकाप्रन्धन प्रकरणम् २७
अथास्य प्रकृतसूत्रस्य पञ्चाशता सूत्रेण सह कः संबन्धः ? इति चेत् अत्रोच्यते - पूर्वपूर्वतरसूत्रेषु थिग्गलसंयोजनं कथितम् । तत् थिग्गलं सीवनमन्तरेण न संभवति इति थिग्गलसीवनं स्मार यति, तत्सीवनं केन विधिना भवतीति सीवनविधिप्रदर्शनार्थमेतत्सूत्रमाह - 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ । ५१ ।
छाया - यो भिक्षुरविधिना वस्त्रं सीव्यति सीव्यन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५१ ॥ ।
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'अविडीए' अविधिना विधिमुल्लङ्घ्य, 'वत्थंसिव्वइ' वस्त्रं प्रावरणचोलपट्टादिकं सोर्व्यात सीवनं करोति, कारयति 'सिन्बंतं वा साइज्जइ' सीव्यन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । अयं भावः - यथा गृहस्थः शोभार्थं वस्त्रादौ जालिकां करोति तथा यदि : साधुः कुर्यात् यद्वा कुर्वन्तमनुमोदयेत् तदा तादृशवस्त्रस्य प्रतिलेखनादिकं कर्त्तुं न शक्ष्यति, अतोऽविधिपूर्वकं तत् सीवनम् - इति, तथाकरणे कर्त्तुः कार - यितुः कुर्वन्तमनुमोदयितुर्भवत्येव प्रायश्चित्तम् ।
अयं भावः - सीवनं पञ्चप्रकारकम् - गग्गरक सीवनम् १ दण्डिसीवनम् २ जालिकासीवनम् ३ एकसरासीवनम् ४ दुष्कीलकसीवनम् च ५ भवति । तत्र - गग्गरसीवनं दण्डिसीवनं च यथा गृहस्थानां 'कुर्ता- कोट, कोत्थल - कोथला - कोथली' इत्यादिभाषाप्रसिद्धानां सीवनम् १ -- २, नालिकासीवनं प्रसिद्धं वस्त्रेषु जालिकादिकरणेन विच्छित्तिसम्पादनम् ३ । एकसरासीवनं लोकप्रसिद्धं 'कसीदा' 'भरत' इत्यादिनाम्ना ४ | दुष्कीलकसीवनं यथा तथा सीव्यते, यथा-उभयतो वस्त्रस्य कीलकमिव डोकं भवति ५ । एतत्सर्वं सीवनमविधिरूपम्, यत एतेषु प्रत्युपेक्षणादिकं सम्यक् न संभवति अतो नैतत्कर्तव्यम् । विधिसीवनं मोसूत्रिकाकारसीवनं स्वसमयप्रसिद्धमिति दिकू ॥ सू० ५० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू वत्थस्स एवं फलियं गंठियं करेड करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५२ ॥
छाया - यो भिक्षुर्वस्त्रस्यैकां फलिकां ग्रथितां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५२||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्यस्स' वस्त्रस्य, 'एगं फलियं गंटियं करेइ' एकां फलिकां - वस्त्रान्तस्थिततन्तुजालरूपां प्रथितां करोति वस्त्रान्तस्थिततन्तुजालं फलिकारूपेण प्रथ्नातीत्यर्थः, 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागू भवति । शेषं प्राग्वत् ॥ सू० ५२ ॥
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२६
निशीथसत्रे सूत्रम्--जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फलियगंठियाणं करेइ करत वा साइज्जइ ॥ सू० ५३ ॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं त्रयाणां फलिकाप्रन्थिकानां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य-प्रावरणवस्त्रादेः, 'परं तिण्हं' परं त्रयाणाम् 'फलियगंठियाणं' फलिकाग्रन्थिकानां 'करेइ' करोति स्वयं संपादयति, कारयति 'करेंतं वा साइज्जई कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति प्राग्वत् । अतः फलिकात्रयादधिकं फलिकाग्रन्थनं न विधेयम् ॥ सू० ५३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स एगं विफलियं गंठियं देइ देयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५४ ॥
छाया यो भिक्षुः वस्त्रस्यैकां विफलिकां ग्रन्थिकां ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू०५४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य 'एगं विफलियं गंठियं' एकां विफलिकाम्-फलिकारहिता ग्रन्थिकां 'देइ' ददाति-वस्त्रान्तभागेन सह प्रन्थिका युनक्ति दापयति, योजयति अन्यद्वारा, 'देयंतं वा साइज्जई' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादयो दोषा भवन्तीति सुगमम् ॥ सू० ५४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं विफलियगंठियाणं देइ देयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५५॥
__छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रस्य परं त्रयाणां विफलिक प्रन्थिकानां ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ५५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थस्स' वस्त्रस्य 'परं तिण्हं' परं त्रयाणाम्-त्रयाणां परमधिकम् 'विफालियगंठियाणं देइ' विफलिकग्रन्थिकानां ददाति दापयति, 'देयंतं वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गदोषात्प्रायश्चित्तभागिति सरलोऽर्थः ॥ सू० ५५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठतं वा साइज्जइ ॥५६॥ छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रमविधिना प्रध्नाति प्रथ्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'वत्थं' वस्र-चोलपट्टादिकम् 'अविहीए' अविधिना-विधिमुल्लङ्ध्य 'गंठइ' अध्नाति अविधिपूर्वकं प्रन्थि ददाति-दापयति,
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१ सू० ५७-६०
वस्त्रगृहधूमपूतिकर्मप्रकरणम् २९ 'गंठतं वा साइज्जइ' प्रथ्नन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषात्प्राग्वत् प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ५६॥ सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएणं गंठेइ गठेतं वा साइज्जइ ॥ ५७ ॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रमतज्जातेन प्रश्नाति प्रथ्नन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'वत्थं' वस्त्रं चोलपट्टादिकम्, स्फाटितं संघातुम् 'अतज्जाएणं' मतज्जातेन, जातिमतिक्रम्य यद् भवति तद् अतज्जातम् अन्यजातीयम् तेन विभिन्नजातिकेन दवरकेण 'गंठेइ' अध्नाति-सीवनादिकं करोति, कारयति 'गंठेतं वा साइज्जई' प्रथ्नन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभागिति पूर्ववत् ॥ सू० ५७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवड्डाओ मासाओ धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८॥
छाया-यो भिक्षुः अतिरेकगृहीतं वस्त्रं परं पर्धात् मासात् धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अइरेगगहियं वयं' अतिरेकगृहीतं वस्त्रम् श्रमणानां यादृशी वस्त्रग्रहणव्यवस्था, यादृयी वा संख्या, ततोऽधिकवस्त्रस्य कोऽपि ग्रहणं करोति । प्रमाणव्यवस्थातोऽधिकं यद् गृहीतं वस्त्रं तत् यदि 'परं दिवड्डाओ मासाओ घरेइ' परमधिकं द्वयर्धमासात्-अर्धाधिकैकमासात् , साधैंकमासात् परमधिकं कालमपि धरति, स्वसमीपे स्थापयति 'धरेतं वा साइज्जइ' परन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषधारी प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ५८॥
अत्राह भाष्यकारः- 'अवलक्खणाई०' इत्यादि । भाष्यम्-अवलक्खणाइजुत्त-दुग-तिग-अइरेग-गंठियं वत्थं, ।
धरइ य दिवड्ढमासा, अहियं जो दोसभाई सो॥ छाया-अपलक्षणादियुक्तं-द्विक-त्रिकाऽतिरेकप्रथितं वस्त्रम् ।
धरति च व्यर्धमासाद् अधिकं स दोषभागी सः ॥ अवचूरिः–यो भिक्षुः अपलक्षणादियुक्तम्-त्रिकोणाधलक्षणयुक्तम् । आदिशब्दात्तथाविधान्यापलक्षणयुक्तं वा यथा एकग्रन्थियुक्तं, प्रन्थिद्वययुक्तं, प्रन्थित्रययुक्तं तदधिकान्थियुक्तं वा, यत्समा
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३०
निशिथसूत्रे नाऽसमानजातीयकं चोलपट्टादिकं वस्त्रं सार्धमासादधिकं साधैकमासादधिककालपर्यन्तं धरतिधारयति, यद्वा-धरन्तमनुमोदते स श्रमणः तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवतीति । तथाअनवस्थादोषम्-आत्मसंयमविराधनादोषं च प्राप्नोति, अतः सलक्षणादिवस्त्रस्य मार्गणं कर्त्तव्यम् ।
तत्राऽपलक्षणोपधेर्धारणे-यस्मात्- ज्ञानदर्शनचारित्राणां विनाशो भवति, तस्मात्-अलक्षणयुतं वस्त्रं न धारयितव्यम् , किन्तु-सविधिवस्त्रस्य मार्गणा कर्तव्या । तत्र यथाकृतवस्त्रग्रहणे मासचतुष्टयं यावत्-अन्वेषणं कर्त्तव्यम् १, अन्यपरिकर्मितग्रहणे मासद्वयं यावत् मार्गणं कर्त्तव्यम्-२, ततः परं सार्धमासपर्यन्तं सपरिकर्मितं वस्त्रं मार्गयेत् ३, एवंप्रकारेण कृतेऽपि मार्गणे सलक्षणादिकमन्यदोषरहितं वस्त्रं यदि न मिलेत् , तदा तावत्पर्यन्तं मार्गणं कर्त्तव्यम् यावत्पर्यन्तमन्यत्सलक्षणं सर्वदोषरांहतं वस्त्रं न मिलेत् ॥ सू० ५८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गिहधूमं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिसाडावेइ परिसाडावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९ ॥ - छाया-यो भिक्षुः गृहधूमं अन्ययूथिकेन वा, गृहस्थेन वा परिशाटयति परि, शाटयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९॥ - चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'गिडधूम' गृहधूमम् गृहं वसतिर्यत्र साधवस्तिष्ठन्ति, तस्मिन् गृहे वसतौ धूमं रोगाद्युपशामकगुग्गुलादिज्वालनाज्जायमानम् 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन वा परतीथिकेन वा, 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा-येन केनचित् वा परिसाडावेई' परिशाटयति-गृहादिकं पिधाय तदन्तधूमं निरुध्य प्रसारयति, सर्वतो विस्तारयति 'परिसाडावेत वा साइज्जई' परिशाटयन्तं-इतस्ततो धूपयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्राग्वत् प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ५९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पूइकम्मं मुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ, तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ मू० ६०॥
॥ णिसीहज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो ॥१॥ छाया-यो भिक्षुः पूतिकर्म भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदते, तं सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ।।सू० ६० ॥
॥ निशीथाध्ययने प्रथम उद्देशः समाप्तः ॥१॥
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चर्णिभाष्यावरिः उ०१ सू०६०
पूर्तिकर्मभाष्यम्-उद्देशसमाप्तिश्च १ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पूइकम्मं मुंबई' पूतिकर्म भुङ्क्ते, तत्र-विवर्ण विनष्टं कुथितमन्नजातं पूतिकं कथ्यते, स्वसमये पुनर्विशुद्धमप्याहारादिकमाघाकर्मिकादिकणमात्रेण मिश्रितं तत्पूतिकमिति कथ्यते, एतादृशमाहारं भुङ्क्ते 'भुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जन्तं पूतिकाद्याहारस्योपभोगं कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते । 'तं सेवमाणे आवज्जई' तत्-हस्तकर्माद्यारभ्य पूतिकर्भान्तमविधिमार्ग सेवमान आपद्यते-प्राप्नोति 'मासियं परिहारद्वाणं अणुग्याइयं' मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् । अनुद्घातिकं मासिकं प्रायश्चित्तं भवतीति सर्वत्र विज्ञेयम् ॥ सू० ६०॥
हस्तकर्मादारभ्य पूतिकर्मान्ताऽविधिमार्गस्य परिसेवनं कुर्वतः श्रमणादेः प्रायश्चित्तम् , तत्र किमिदं पूतिकर्म ? कतिविधं च ? तत्राह भाष्यकारः—'पूइकम्म' इत्यादि । भाष्यम्-पूइकम्मं दुहा वुत्तं, दव्वे भावे य धीमया ।
दव्वे सुन्दरदिर्सेतो, भावे सुहुमं च बायरं ॥ छाया-पूतिकर्म द्विधा प्रोक्तं द्रव्ये भावे च धीमता ।
द्रव्ये सुन्दरदृष्टान्तो भावे सूक्ष्मं च बादरम् ॥ अवचूरिः-तत्र-'पूति' इति कुथितमिति कथ्यते, कर्म-इत्याधाकर्मिकमिति । तच्चाऽऽधाकर्मिक-साध्वर्थ षट्कायोपमर्दनपूर्वकं निर्मितमाहारादिकम् । आधाकर्मिकस्य निषिद्धत्वात् यद्यपि शुद्ध आहारः तत्राऽऽधाकर्मादिदोषयुक्ताहारस्य सिक्यमपि-कणमपि यदि मिलति तदाऽसौ पूतिकर्माहार इत्युच्यते, तदाहारकरणे प्रायश्चित्तम् । तद् द्विप्रकारकं भवति, तदेव दर्शयति भाष्यकार:-'पूइकम्म' इयादिना ।
विदितशास्त्रहृदयैः पूर्वाचार्यैः पूतिकर्म द्विधा-द्विप्रकारकं कथितम् , तद्यथा-द्रव्ये भावे च, तत्र द्रव्ये सुन्दरदृष्टान्तो निदर्शनम् । तथाहि
अस्ति कश्चिद्गाथापतिः, तेन गृहकार्यकरणाय सुन्दरो नामकः सेवकः स्वगृहे स्थापितः । एकदा कदाचित्काचित् पुण्यतिथिः प्राप्ता । तदवसरे गाथापतिना प्राङ्गणोपलेपनाय सुन्दरः सेवको नियोजितः । स च सुन्दरो गोमयमानीतवान् परन्तु गोमयेन साकं पुरीषमपि-आनीय प्राङ्गणस्योपलेपनादिकं कृतवान् । यदा तु गाथापतिः समागतः तदा दुरभिगन्धयुक्तद्रव्येण लिप्त प्राङ्गणमिति मत्वा भृत्यं भर्त्सितवान् । तथा च-यथा दृष्टान्तेऽपवित्रदुर्गन्धिमनुष्यपुरीषेण संसृष्टं गोमयमपि दुर्गन्धकारणम् । एवमेव-दार्टान्तिकेऽशुद्धाहारसंसृष्टः शुद्धाहारोऽपि दोषाय एवेति ।
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निशीथसूत्रे भावपूतिकं च द्विप्रकारकं भवति सूक्ष्म-बादरं च । तत्र-इन्धनं दारुकम् , तस्य धूमःइन्धनधूमः, स चाऽऽधाकर्मिके भोजने रध्यमाने लोकानां प्राणप्रदेशं स्पृशति तेन छिवका जायते, ततः सर्व प्रतिकं भवति । गन्धपुद्गलैर्वा छिक्का भवति ततः सर्व प्रतिकं भवति । अथवाधूमगन्धवर्जितैः सूक्ष्मावयवैश्छिक्का, ततः सर्व पूतिकं भवतीत्येतत् सूक्ष्मं पूतिकम् । ___बादरं त्रिप्रकारं भवति आहारे, उपधौ, शय्यायां च । तत्राहारपूतिकं चतुर्विधम् अशनादिभेदात् । आधाकर्मिकाद्याहारकणेनापि संसृष्टमाहारजातमाहारपतिकम् १। उपधिप्तिकं द्विप्रकारकम्-वस्त्रे पात्रे च । तत्र-वस्त्रं जांगिकादिपश्चप्रकारकभेदात् पञ्चविधम् । पात्रम्-अलाबूदारु- मृत्तिकाभेदात् त्रिविधं ग्राह्यम् । धातुनिर्मितं सम्प्रतिकालप्रसिद्धं सेलोलाइटादिनिर्मितं सर्वमग्राह्यम् । ततश्च पात्रपूतिकमपि त्रिविधम् । तत्र वस्त्रे-आधाकर्मकृतेन सूत्रेण सीव्यति, थिग्गलं वा ददाति । पात्रेऽपि-आधाकर्मकृतेन सूत्रेण सीव्यति-संयोजयति थिग्गलं वा ददाति । वसतिपूतिकम्-शुद्धवसतौ आधाकर्मिकवंशकाष्ठप्रस्तरादिसंमेलनम् । यथा-वसतिनिर्माणे षट् काष्ठादीनि प्राशुकानि सप्तमं किमपि वास्तुद्रव्यं चाऽऽधाकर्मिकं संयोजितं भवेत्तद् वसतिपूतिकं कथ्यते । विशेषतो यथाशास्त्रं ज्ञातव्यम् ॥ सू० ६०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थिनिर्मापक-वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥१॥
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॥ द्वितीयोरेशकः ॥ कथितः प्रथमोद्देशकः, इदानीमवसरप्राप्तो द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते, अस्य प्रथमोद्देशकेन सह कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकार:भाष्य-पढमे गुरुमासं च, पायच्छित्तं पकित्तियं ।
बीए उ लहुमासं च, पायच्छित्तं कहिस्सए ॥ छाया- गुरुमासिकं च प्रथमे, प्रायश्चित्तं प्रकीर्तितम् ।
- द्वितीये तु लघुमासं च प्रायश्चित्तं कथयिष्यते ॥
अवचूरिः--'पढमे' इत्यादि । तत्र प्रथमे-प्रथमोद्देशके हस्तकर्माधारभ्य पूतिकर्माहारपर्यन्तेषु दोषेषु 'गुरुमास' गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं कथितम् । द्वितीये-द्वितीयोदेशके तु 'लहुमासं' लघुमासिकं प्रायश्चित्तं कथयिष्यते । यद्वा-गुरु- इति पदं सापेक्षम् वच्च-लघुकमपेक्षतेऽतोऽत्रोद्देशके लघुप्रायश्चित्तं कथयिष्यते । अयमेव संबंधः पूर्वापरोदेशकीयसूत्राणाम् । अथवा-प्रथमोद्देशकचरमसूत्रस्थभाष्ये उपकरणपूतिकं कथितम् , इह च द्वितीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे तदेवोपकरणं किम् ? इति कथयिष्यते, अयमेव संबन्धः पूर्वापरसूत्रयोः । अथवा-प्रथमोद्देशकस्यादिसूत्रे हस्तकर्मादिव्यवहारो निषिद्धः, अत्रापि दारुदण्डक--पादपोंछनकरणं हस्तव्यवहार एवेति तन्निषेधः कथयिष्यते, अयमेव संबंधः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति । अनेन संबन्धेनायातस्य द्वितीयोदेशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते- 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं करेइ करें वा साइजइ १
छाया-यो भिक्षुदंडकं पादपोंछनकं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित्-निवभिक्षणशीलो भिक्षुः, अष्टविधकर्मणां क्षपणाय सर्वदा यतनावान् वा भिक्षुः 'दारुदंडयं पायपुंछणयं करेइ' दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनकं करोति, तत्र दारु-काष्ठम् , तन्मयो दंडो यस्य तदारुदण्डकमू-तादृशं काष्ठदण्डमात्रयुक्त निषद्याभिधवस्त्रवर्जितम् , एवंभूतं पादप्रोञ्छनकम् , अत्र ‘पादप्रोञ्छन'-शब्देन रजोहरणं गृह्यते, एवंरूपं निषद्यावस्त्रविवर्जितं रजोहरणं करोति कारयति 'करेंतं वा साइज्जई कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुमोदते तस्य मासलघुकं प्रायश्चित्तं भवति, अतो रजोहरणदण्डं वस्त्रविवर्जितं स्वयं न कुर्यान्न वा कारयेत् तथा-कुर्वन्तमन्यं वा नाऽनुमोदेत, इति ।। सू० १ ॥ भाष्यम्-दुविहं रयहरणं, उणियं च तहेयरं ।
उस्सग्गे पढ़मं गेझं, अपवाए य अण्णयं ॥
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निशीथस्त्रे
छाया--द्विविधं रजोहरण, औणिकं च तथेतरत् ।
उत्सर्गे प्रथमं प्राचं, अपवादे च अन्यत् ॥ अवचूरिः-'दुविहं' इत्यादि। रजोहरणं द्विविधम्-और्णिकं तथा इतरत्-तद्भिन्नं च । तत्रोत्सर्गमार्गे भौणिक ग्रहीतव्यम् । अपवादे-ऊर्णामयस्याऽलाभे तु-अन्यत् भाषिकादिकमपि रजोहरणं ग्रहीतव्यम् । रजोहरणं पञ्चविधं भवति–जाजमिकं १, भाङ्गिकं २, शाणकं ३, पोतकं ४, तिरीटपरकम् ५ । तत्र जाङ्गमिकं-जङ्गमप्राणिकेशविनिर्मितं, यथा भौणिकम् मौष्ट्रिकमित्यादि १ । भाङ्गिक 'पाट' इति लोकप्रसिद्धं यस्य तन्तुभिः कोत्थलकं निर्मीयते तन्निमितम् २ । शाणकं शणसूत्रनिर्मितम् ३ । पोतकम्-पोतो वस्त्रं, तन्निर्मितं कार्याससूत्रनिर्मितमित्यर्थः ४, तिरीटपट्टकम्-तिरीट इति वृक्षविशेषः, तस्य त्वचाविनिर्मिततन्तुसम्पादितम् ५ । पुनरपि रजोहरणं त्रिविधम्-औत्सर्गिकम् १, आपवादिकम् २, तदुभयात्मकम् ३ । तत्र औत्सर्गिकं सर्वात्मना और्णिकम् , आपवादिकम्-भाङ्गिकादिकं चतुर्भेदकम् । तदुभयात्मकम्--ऊर्णादिमिश्रितम् । एषां मध्यात्पूर्वपूर्वाभावे परात्परं रजोहरणं ग्राह्यम् । प्रतिमाधारी श्रावकस्तु निषधा--रजोहरणोपरिवेष्टनको वस्त्रविशेषः, तद्रहितदण्डिकायुक्त रजोहरणं धारयति । साधुसाध्वीनां तु निषद्यारहितदण्डिकायुक्तं रजोहरणं कथमपि न कल्पते इति ।
. तत्र--रजोहरणप्रमाणमाह-रजोहरणफलिकाया हस्तिनः पदन्यासस्य यावत् प्रमाणं भवेत् तावत्प्रमाणकं रजोहरणं कर्त्तव्यम् । दण्डिकाप्रमाणमाह--गमनसमये सुखपूर्वकं यया प्रमार्जयितुं शक्यते तादृशप्रमाणा लम्बायमाना रजोहरणदण्डिका ग्राह्या । लघुदण्डिकया सम्यक् प्रमार्जनं न संभवति अत एव रजोहरणे लघुदण्डिका न धार्या । तथा--रजोहरणं परित्यज्य युगकाष्ठप्रमाणभूमितो दूरं न गन्तव्यम् । अप्रमार्जितभूमौ गमने चासमाधिस्थानदोषो भवतीति दशाश्रुतस्कन्धे भगवता प्रतिपादितमिति ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं गेण्हइ गेण्हतं वा साइज्जइ २ छाया-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं गृहाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'दारुदंडयं पायपुंछणं' दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनम् निषद्यापरिवेष्टनरहितदारुदण्डयुक्तं रजोहरणम् 'गेण्हइ' स्वयं गृहाति 'गेहंतं वा साइज्जई' गृह्णन्तं वा स्वदते, गृह्णाति ग्राहयति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवतीति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ।३।
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चणिभाष्यावरिः उ० २ सू० ४-८
दारुदण्डकपादप्रोज्छनप्रकरणम् ३५
छाया-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥ चूर्णी- 'धरेइ' धरति धारणं करोति धरन्तं वाऽनुमोदते। अन्यत्सुगमम् ।। सू० ३ ॥ सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ४ छाया-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं वितति वितरन्तं वा स्वदते ॥ सू०४ ।। चूर्णी-'वियरइ' वितरति तत्र-वितरणं अन्यस्मै दानम् । अन्यत्सुगमम् ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभाएइ परिभाएंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परिभाजयति परिभाजयन्तं वा स्वदते ॥५॥
चूर्णी-यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं 'परिभाएई' परिभाजयति-स्वार्थे णिच् विभजति, विभजनं-विभागकरणम् 'परिभाएंतं वा' परिभाजयन्तं वा विभजन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभुंजइ परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुरुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परिभुङ्क्ते परिभुञ्जन्तं वा स्वदते ॥६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुर्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् 'परिंभुजई' परिभुङ्क्ते, तत्र-परिभोगः परिभुञ्जनम् तादृशरजोहरणेन प्रमार्जनादिकार्यसंपादनम् । तथा-'परिभुजतं वा साइज्जइ' परिभुञ्जन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परं दिवड्डाआ मासाओ धरेइधरतं वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
छाया-यो भिक्षुरुदण्डकं पादप्रोञ्छनं परं द्वयर्घात् मासात् धरति धरन्तं था स्वदते ॥ सू०७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'दारुदंडयं' दारुदण्डकम् 'पाय पुंछणं' पादप्रो छनम्-वस्त्रवेष्टनरहितदारुदण्डयुक्तरजोहरणम् कदाचित्-वस्त्राऽभावात् आगाढभयात्, अग्निदाहात्, राजप्रद्वेषाद् , अशिवादिकारणात् , तादृशोन्मादादिदोषग्रस्तशिष्योपसर्गाद्वा, इत्यादिकारणवशाद् यदि धारयेत् तदापि तत् सार्द्धमासपर्यन्तं धारयेत् । ततः परं दिव
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निशोथ
ओ मांसाओ' द्वयर्धान्मासात् परमधिकं यदि धारणं करोति घरन्तं वा स्वदते स प्रायः विर्सभाम् भवति । उत्सर्गतो व्याघातितं रजोहरणं यः सार्द्धमासादधिककालपर्यन्तं धारयति, यथा-परन्तमनुमोदते स आज्ञामजदोष-मनवस्थादोष मिथ्यात्वदोषमात्मविराधनं संयमविराधनं च प्राप्नोति ॥ सू०७॥
सूत्रम्-जे मिक्खू दारुदंडयं पायपुछणं विसुयावेइ विसुयावेतं व साइज्जह ।। सू०८॥
छाया-यो भिक्षुरुदण्डकं पादप्रोञ्छनं विशुष्कयति विशुष्कयन्तं वा स्वदते ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः दारुदंडयं पायपुंछणं दारुदंडकं निषधारहितं पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम् 'विसुयावेइ' विशुष्कयति आतपे ददाति 'विसुयावेत वा साइज्जइ' विशुष्कयन्तं वा स्वदते-आतपे ददतं वाऽनुमोदते, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।८।
सूत्रम्-जे भिक्खू अचित्तपइट्ठियं गंधं जिग्घइ जिग्छतं वा साइ ज्जह ॥ सू०९॥
छाया यो भिक्षुरचित्तप्रतिष्ठितं गंधं जिघ्रति जिवन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'अचित्तपइडियं' अचितप्रतिष्ठितम् , अचित्ते वस्तुनि चन्दनकाष्ठादौ यत्र तत्र वा प्रतिष्ठितं विद्यमानम् 'गंध' गन्धम् मुर्गन्धम् 'जिग्यइ' जिप्रति, गन्धो द्विविधः-संबद्धः असंबद्धो वा, संबद्धो गन्धः सः यो नासिकासंबन्धन आघ्रायते, असंबद्धो गन्धः स यो दूरतः समीपतो वा वायुद्वारा समागत आप्रायते, 'अथवा संबद्धो गन्धः स यश्चन्दनकाष्ठादौ स्थितः, असंबद्धः सः यः गन्धद्रव्यात्पृथक्कृतश्चन्दनादीनां तैलरूपो निर्यास(अतर)रूपो वा, तं द्विविधमपि गन्धं रागेण द्वेषेण वा जिघ्रति, जिग्यत पी. साइज' जिज्रन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ९ ॥ भाष्यम्-अचित्ते दध्वजाए जं, गंधजायं पवत्सए ।
अग्घाणं दुविहं तस्स, संबद्धं च तहेयरं ॥ दुविहंपि गंधजायं, जिग्घई रागओ जई।
भाणाभंगाइ पावेइ, मिच्छत्तं पडिवज्जइ ।। छाया-अचित्ते द्रव्यजाते यत्, गन्धजातं प्रवर्तते ।
आघ्राणं द्विविधं तस्य, संबद्धं च तथेतरत् । द्विविधमपि गन्धजातं, जिघ्रति रागतो यतिः। आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते ।
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चूाणमार
धूणिमाच्यावचूरिः उ० २ सू० ९-१० गन्धाघ्राणपदमार्गादिनिरूपणम् ३७
अवचूरिः-'अचित्ते' इत्यादि । अचित्ते द्रव्यजाते शुष्कचन्दनकाष्ठादौ यत्र तत्र वाsन्यत्र गन्धजातं यत्किञ्चित्प्रकारकं सुगन्धजातं प्रवर्तते, तस्य गन्धजातस्याऽऽघ्राणं द्विविधम्-द्विप्रकारकं भवति-संबद्धम् , तथा तदितरत् तद्भिन्नम् असम्बद्धम् ।
अयं भावः-अचित्ते द्रव्ये यो गन्धस्तिष्ठति सोऽचित्तद्रव्यप्रतिष्ठितो गंधो यथा शुष्कचन्दनकाष्ठादौ, अन्यत्र वा तेलादो वर्तमानः, तस्य गन्धस्याऽऽघ्राणं द्विप्रकारकम् यथा-नासाग्रसंबद्धस्य नासाग्राऽसंबद्धस्य च, अथवा चन्दनकाष्ठादिस्थितस्य, ततः पृथक्कृतस्य तैलनिर्यासादिरूपस्य वा आघ्राणम् । तद् यथा-कश्चिन्नासापुटसलग्नं कृत्वा जिघ्रति, कश्चिन्नासातो दूरेऽवस्थित वायुद्वारा समागतं वा, अथवा संबद्धं चन्दनकाष्ठादिस्थितम् , असंबद्धं तत्पृथकृतं तैलनियासादिरूपं वा यो यतिः-मुनिः जिघ्रति तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथाहि-तीर्थक राज्ञां समुल्लङ्घयति, मिथ्यात्वं च प्राप्नोति तत्र संयमात्मविराधनासद्भावात् । तत्र संयमविराधनाइत्थम्-नासिकानिःसृतसुगन्धनिःश्वासेन वायुकायगतजीवानां विराधनं भवति । आत्मविराधनं यथा-तस्मिन् गन्धे यदि विषं भवेत् , तदा तदाघ्राणे आत्मविराधनमपि संभवति । यथा-सुगन्धितद्रव्यलोलुपाः समागताः सर्पादयो दंशनं कुर्युः । सचित्तप्रतिष्ठितगन्धाऽऽघ्राणं तु प्रथमोदेशे एकादशे सूत्रे निषिद्धमेव, इति । सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पदमग्गं वा संकमंवा आलंबणं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुः पदमार्ग वा संक्रमं वा मालम्बनं वा स्वयमेव करोति कुर्वन्तं षा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पदमग्गं वा' पदमार्गपदमार्गः-पादस्थापनार्थ मृत्तिकादि प्रक्षिप्य गमनागमनाथ मार्गः क्रियते तम् , स सोपाममिति कथ्यते । पदमार्गादित्रयाणामपि पदानां विस्तरतोऽर्थ करिष्यति भाष्यकारः । 'संकमं वा' संक्रमं बा, संक्रमः कर्दमाधुल्लङ्घनार्थ काष्ठेष्टिकादिस्थापनरूपस्तम् । 'आलंबणं वा' मालम्बनं वा, आल. म्बनम्-यदालम्ब्य कर्दमग दिकमुल्लङ्घयते तत् मुञ्जशणादिनिर्मितरज्जुरूपं, तत् 'सयमेव करेइ' स्वयमेव करोति । अन्यतीकिगृहस्थैः कारितपदमार्गादीनां निषेधः प्रथमोदेशे गतः, अतोऽत्र 'स्वयमेव' इति प्रोक्तम् , एवमग्रेऽपि बोध्यम् । करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा मवन्ति ॥ सू० १० ॥ माष्यम् -- पदमग्गो संकमो य, आलंबण तहेव य ।
तिविहपि करे भिक्खू, आणामंगाइ पावई ॥
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निशिथसूत्रे
पदमग्गो हि सोवाणं, तं दुहा परिकित्तियं ।
तज्जायं च अतज्जाय, संबद्धं च तहेयरं ॥ छाया-पदमार्गः संक्रमश्च, आलम्बनं तथैव च ।
त्रिविधमपि कुर्याद भिक्षः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ।। पदमार्गो हि सोपानं तद् द्विधा परिकीर्तितम् ।
तज्जातं च मतज्जातं संबद्धं च तथेतरत॥ अवचूरिः- यो भिक्षुः पदमार्ग संक्रमम् मालम्बनं चेति त्रिविधमपि कुर्यात् स आज्ञाभङ्गानवस्थादिदोषान् प्राप्नोति ॥१॥ 'पदमग्गो' इत्यादि । 'पदमग्गो' पदमार्गः-पदानां मार्गः पदमार्गः पदस्थापनमार्गः सोपानम्-यद्वारा जलार्द्रमार्गमुल्लङ्घयावतीर्यते प्रत्यवतीयते च स सोपान-मित्युच्यते, तद् द्विप्रकारकं परिकोतितं-कथितम् , तत्र तज्जातं प्रथमम् , अतज्जातं द्वितीयम् । तत्र-तज्जातं सोपानम् पृथिवीमेव खनित्वा संपादितम् । अतजातमिष्टकाप्रस्तरादिभिः संपादितम् । पुनरपि तद् द्विप्रकारकम् संबद्धमसंबद्धं च । वसतिसंबद्धं प्रथमम् , द्वितीयमसंबद्धं वसत्याः । तत्पुनः सोपानं विषमे कर्दमे वा उदके वा हरितादितृणप्रायेषु स्थानेषु वा क्रियते इति । संक्रम्यते येन स संक्रमः काष्ठेष्टकादिसंपादितसोपानविशेषः । अयं च संकमो विषमकर्दमादिषु संपादितो भवति । आलम्बनं च-विषमकर्दमाधुल्लछनार्थमेव दवरिकादि क्रियते । एतेषु पदमार्गादिषु मध्याद् यद्येकमपि पदमार्गादिकं भिक्षुः स्वयं करोति परद्वारा वा कारयति, कुर्वन्तं-कारयन्तं वाऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति ।
तत्र सोपाने स्वयमन्यो वा यदि कोदालादिना पृथिवीं खनति तदा षड्जीवनिकायानां विराधना भवति । यदि पृथिवी कदाचिदचित्तापि भवति तथापि तस्याः खनने कृते वनस्पतिकायानां तदाश्रयस्थितत्रसकायानां वा विराधनं भवत्येव, हस्तौ पादौ वा लूषितौ भवेताम् , तेन संयमात्मविराधना भवति । संक्रमे-काष्ठेष्टकादिछिद्रान्तरे प्रविष्टः सर्पादिम्रियते । आलम्बने दवरिकालम्बनेन मार्गोल्लङ्घने पतनादिना भूमिगतजीवविराधना भवति, देहपीडा वा भवति तेन संयमात्मविराधनासंभवः । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात् पदमार्गादिकं भिक्षुर्न स्वयं कुर्यात् न वा परद्वारा कारयेत् , कुर्वन्तं कारयन्तं वा नाऽनुमोदेत इति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दगवीणियं सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुरुदकवीणिकां स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘दगवीणिय' उदकवीणिकां जलप्रणाली वसतितो जलनिःसारणार्थम् 'सयमेव करेइ' स्वयमेव करोति-संपादयति ।
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पूर्णिभाष्याषचूरिः उ० २ सू० ११-१८ उदकवीणिका-शिक्यकादिप्रकरणम् ३९ 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते कायेन-वाचा-मनसा वा प्रशंसति, स आज्ञाभङ्गादिकान दोषान प्राप्नोति । विस्तारः प्रथमोद्देशे ॥ सू० ११॥
सूत्रम्---जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कगणंतगंवा सयमेव करेइ करें। वा साइज्जइ ।। सू० १२॥
___ छाया-यो भिक्षुः शिफ्यकं वा शिक्यकान्तकं वा स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूणी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सिक्कगं वा' शिक्य वा आहारपात्रादिस्थापनार्थ वियति कीलकादौ यदवलम्ब्यते तत् शिक्यकं प्रोच्यते 'छींका' इति लोकप्रसिद्धम् । 'सिक्कगणंतगं वा' शिक्यकाच्छादनक-शिक्यकपिधानकमित्यर्थः । 'सयमेव करेइ' स्वयमेव करोति, मुञ्जकादिमयं शिक्यकं संपादयति, 'करेंत वा साइज्जई' कुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषानाप्नोति ।। सू० १२ ॥
अत्राह भाष्यकार:-'सिक्कगं' इत्यादि । भाष्यम्-सिक्कगं दुविहं वुत्तं, तस-थावर-देहजं ।
अंडजाइतसाज्जायं, थावरे मुंजगाइंग ॥ छाया-शिक्यक द्विविधम् उक्तं, प्रसस्थावरदेहजम् ।
___ अण्डजादित्रसाज्जातं स्थावरे मुञ्जकादिकम् ॥
अवचूरिः--शिक्यकं द्विविध-द्विप्रकारकं प्रोक्तं कथितम् त्रसस्थावरदेहजम् त्रसदेहाज्जायमानम् , तथा स्थावरजीवस्य देहाज्जायमानम् । प्रथमभेदमाह-तत्राऽण्डजादित्रसाज्जातम् , अर्थात्-अण्डजदेहाज्जातम् , तत्र-अण्डजा हंसादयस्तेषां लोमभ्यो जायमानम् , एवमुष्ट्रदेहात् , तथा-कीटदेहात्-'कीटज-रेशम' इतिलोकप्रसिद्धात् जायमानम् एतत्सर्व सजीवदेहविनिर्मितं शिक्यकं भवति । इति प्रथमो भेदः ।
अथ द्वितीयभेदमाह - स्थावरदेहजं तु-कार्पासजनितम् , शणजनितम् , नारिकेलजनितम्, मुखजनितम् , दर्भजनितम् , वेत्रजनितम् , वेणुजनितं च । ततश्च त्रसस्थावरजीवदेहनिष्पन्नस्य शिक्यकस्य निर्माणेऽवश्यं जीवविराधना स्यात् अतो भिक्षुणा स्वयं शिक्यकं न निर्मातव्यम् , न वा-निर्मातुरनुमोदनं कर्त्तव्यम् । निर्माणेऽनुमोदने वा जीवविराधनासंभवेन संयमव्याघातात् ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सात्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलिं सयमेव करेकरेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
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Yo
लिपिक छाया--यो भिक्षुः सौत्रिकं पा रज्जकं वा चिलमिलि स्वयमेव करोति कुतं वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा सौत्रिकी कार्पाससूत्रोर्णासूत्रसम्पादितां वा, रज्जुकां वा कार्यासादिसूत्रनिर्मितदवरिकासंपादितजालिकासम्पन्नां वा चिलिमिली आच्छादनपटरूपां स्वयं करोति अन्यद्वारा वा कारयति कुर्वन्तं वाऽन्यं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सूईए उत्तरकरणं सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षुः सूच्या उत्तरकरण स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू०१४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सईए' सूच्याः उत्तरकरणं, तत् पञ्चविधं भवति, तथाहि-छिद्रवर्धनम् १, श्लक्षणकरणम् २, तीक्ष्णकरणम् ३, लोहकारशालायां गत्वा तापनम् ४, ऋजुकरणं ५ चेति । एतत् पञ्चविधमप्युत्तरकरणं सूच्याः स्वयं साधुः साध्वी वा करोति कुर्वन्तं वाऽन्यं श्रमणमनुमोदते स दोषभाग् भवतीति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-एवं पिप्पलगस्स उत्तरकरणम् ॥ मू०१५॥णहच्छेयणगस्स उत्तरकरणम् ॥ सू० १६ ॥ कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणम् ॥ सू०१७॥
छाया-एवं पिप्पलकस्योत्तरकरणम् ॥ सू० १५ ॥ नखच्छेदनकस्योत्तरकरणम् ॥सू० १६॥ कर्णशोधनकस्योचरकरणम् ॥ सू० १७॥
चूर्णी-चिलिमिलिकामारभ्य कर्णशोधनकार्यन्तं पञ्चसूत्री प्रथमोदेशे कथिता अत्र पुनः सैव कथ्यते, तत्र को हेतुरिति चेत् अत्रोच्यते-तत्राऽन्यतीर्थिकद्वारा गृहस्थद्वारा वा करणं कारणं कुर्वतोऽ. नुमोदनं च निषिद्धम् , अत्र तु-स्वयं करणं कुर्वतोऽनुमोदनं च निषिध्यते । एतावान् भेदोऽतो न पुनरुक्तिः व्याख्या सुगमा ॥ सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सगं फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ १८॥ छाया-यो भिक्षुः लघुस्वकं परुषं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू०१८ ॥
चूी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'लहुस्सगं फरसं' लघुस्वक परुषम् ईषदपि कठोरं वचनम् 'बयई' वदति 'वयंत वा साइजई' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदने स स्नेहवर्जितकठोरवचनवक्ता प्रायश्चित्तभाग भाषासमिति विराधयति ॥ सू० १८ ॥ भाष्यम्-फरुसं चउहा णेयं, दवे खेत्ते य कालगे।
भावे जहक्कम वोच्छं, जहासत्यं वियारियं ॥ छाया--परुषं चतुर्धा शेयं, द्रव्वे क्षेत्रे च कालके ॥
भावे यथाक्रमं वक्ष्ये, यथाशास्त्र विचारितम् ॥
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पर्णिमाम्बावचूरिः उ०२ सू० १८-१९
परुषवाद-मृषावादनिषेधः ५५ अवचूरिः----'फरुसं' इत्यादि । फरुषं कर्कशं वचनं चतुर्विधम् चतुष्प्रकारकं ज्ञेयं भवतीति ज्ञातव्यम् । द्रव्ये-द्रव्यक्पिये, क्षेत्रे-क्षेत्रविषये च, तथा-काले-कालविषये, तथा-भावेभावविषये, परुषवचनस्यैतेषु विषयेषु चातुर्विध्यं यथाशास्त्रम्-शास्त्रप्रकारमनतिक्रम्य विचारितं तीर्थकरगमरैः कथितं तद् यथाक्रमं वक्ष्ये कथयिष्यामि, इति ॥ सू० १८ ॥
पुनर्भाष्यकारः पूर्वोक्तपरुषस्य द्रव्यादिभेदान् विशदयति--'दव्वे' इत्यादि । भाष्यम्-दम्वे वत्वम्मि पत्तम्मि, खेते संथारयाइसु ।
काले तीएऽणागए य, भावे कोहाइ संमयं॥ छाया--द्रव्ये वस्त्रे पात्रे क्षेत्रे संस्तारकादिषु ।
कालेऽतीतेऽनागते च भावे क्रोधादि संमतम् ।। अवचूरि-द्रव्ये-द्रव्यविषये-वस्त्रपात्रादिषु, यद्वा जीवादिषु द्रव्येषु परुषवचनं भवति । तद्यथा-वस्त्र-पात्र-सूच्यादिषु-मात्मन एतान्-अपश्यन् एवं भणति ममैव विद्यते-इति कृत्वा ईर्ष्याभावेन वदति-'ममासने को निद्रा लभते ?' पुनश्च ईर्ष्याभावेन 'मम वस्त्रादि तेन हृतम्' इत्येवं द्रव्यतो लघुस्वकं परुषं भाषते १।
क्षेत्रे संस्तारकादिषु, क्षेत्रतः परुषमेवं भवति यथा-कश्चित्साधुः स्वकीयस्य संस्तारशय्यावसतिषु पुरुषान्तरमुपविष्टं दृष्ट्वा वदति- को मम संस्तारादिषु स्थितः स्वकीयं जानानः । अथवास्वकीयासने उपविष्टं कमपि साधुं दृष्ट्वा वदति-कथं मम संस्तारके स्थितोऽसीति २।
काले यथा-कमपि साधु बहिर्गन्तुमनसमुत्तिष्ठन्तं ब्रवीति-नेदानी गमनस्य कालो विद्यते केन मूर्खेण कथितं यत्-इदानी गमनकालः | यद्वा-गमनकाले उपस्थिते दुर्बोधा एते साधवः इदानीमपि विलम्बन्ते इति । यद्वा-यस्य स्वाध्यायादेर्यः कालस्तस्मिन् कश्चित् स्वाध्यायादिकं कर्तुं व्यवसितः, तं प्रति वदति-नेदानी कालो विद्यते स्वाध्यायस्य, तत्र यदि कश्चित्किञ्चिदुत्तरं ददाति तदा भोः अभिमानिन् ! कि निरर्थकं वदसि !, इति परुषं ब्रते । अथवा-आचार्येण पूर्वमादिष्टे औषधानयने अन्यस्तत्र गन्तुकामं साधुं पृच्छति-यत् त्वं गच्छसि मौषधमानेतुम् ?, स पृष्टः साधुः परुषाक्षरं ब्रूते-नेदानीमौषधानयनकालो विद्यते धैर्य धारय, कथमेवं त्वरां कुरुषे ।। यद्वा-कश्चित्साधुर्वस्त्रपात्रादिकमानेतुं गुरुणाऽऽज्ञप्तः तेनाऽऽनीतं वस्त्रपात्रादिकम् , तद्दृष्ट्वा-ईर्ष्यालुरन्यो वदति- केनैतदानीतम् ! स वदति-मयाऽऽनीतम् । तत् श्रुत्वा-ईर्ष्यालुनाऽनादरं कुर्वतोक्तम्भोः किमर्थं त्वमानेष्यसि, नायं कालो वस्त्राधानयनस्य स्वं तु काष्ठपाषाणवज्जडो लब्धिरहितश्च । एवं प्रकारेण कालविषये परुषं वदति-इति ३ ।
भावे, परुषं क्रोधादिकम् , यतः क्रोधलोभादिमन्तरेण द्रव्यादिष्वपि परुषं न संभवति, क्रोधादिमूलकतयैव सर्वत्र परुषवचनस्य संभवः ।
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४२
निशीथयो
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अत्र शिष्यः प्राह-यधेवं तदा भावपरुषमेव वक्तव्यम् द्रव्यादिषु परुषत्वं कथं कथ्यते ! आचार्यः प्राह--द्रव्यादिषु-उपचारकरणमात्रम् यतस्ते क्रोधादयो द्रव्यादिसमुत्थिता एव भवन्ति, तथा च क्रोधादौ भावे मुख्यं परुषत्वम् , क्रोधादिकारणे तु द्रव्यादौ-उपचारात् परुषत्वं भवति । यः साधुरेतेषामन्यतमं परुषमीषदपि बदति, स आज्ञाभङ्गानवस्थात्मसंयमविराधनं प्राप्नोति, तथा-मिथ्यात्वं च समापधते अतः साधुभिरेतादृशं परुषवचनं न वक्तव्यम् ।। सू०१८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सगं मुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥ सू०१९॥ छाया--यो भिक्षुलघुस्वकं मृषा घदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९ ।।
चूणी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सगं लघुस्वकं स्तोकमल्पमपि, 'मुसं' मृषाऽसत्यवचनम् 'वयइ' वदति-अल्पमप्पसत्यभाषणं करोतीत्यर्थः. 'वयंत वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चितभाग भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिदोषा भवन्ति ॥ सू० १९ ॥
अत्राह भाष्यकारः-'दन्वे' इत्यादि। भाष्यम्-दव्वे खेत्ते तहा काले, भावे य त्ति चउन्विहा ।
जहासत्थं मुसाभासा, तीए भेया जहक्कम ॥ छाया-द्रव्ये क्षेत्र तथा काले भावे चेति चतुर्विधा।
यथाशास्त्रं मृषाभाषा तस्या मेदा यथाक्रमम् ॥ अवचूरिः-मृषाभाषा असत्यभाषणं, यथाशास्त्रं शास्त्रोक्तप्रकारेण चतुर्विधा चतुष्प्रकारा भवतीति ज्ञेया । तथा-तस्या मृषाभाषाया भेदा यथाक्रमं आनुपूर्व्या क्रमेणेत्यर्थः, ज्ञातव्या इति । तत्र द्रव्ये-वस्त्रपात्रादिषु, क्षेत्रे-संस्तारकवसतिप्रभृतिषु, काले-अतीतेऽनागते वर्तमाने च भाषादिषु । तत्र-द्रव्ये यथा-वस्त्रे पात्रं सहसा वदेत् , पुनरेवं वदेत्-नेदं तव किन्तु ममेदं वस्त्रं पात्रं वेति द्रव्यभूतोऽनुपयुक्त एव वदेत् ।
अथवा-वस्त्रं पात्रं वा परेण समुत्पादितम् परन्तु--अनानीतमपि पृष्टः सन् एतत्सर्व वस्त्रपात्रादिकं मयाऽऽनीतम् , एवं क्रमेण द्रव्ये मृषा वदति । एवं क्षेत्रे यथा--रजन्यां तमसावृतायां संमूढः परस्य संस्तारकादिकं ममेदमिति ज्ञात्वा, त्वमितो निःसरेति मृषा वदति । यद्वा-मासकल्पप्रायोग्य वा वर्षावासप्रायोग्य वा वसत्यादिकं ऋतुकालप्रायोग्यं वाऽन्येनोत्पादितं मयोत्पादितमित्येवं वदति, एषा क्षेत्रविषये मृषाभाषा । काले--मृषावादो यथा-एकः कश्चित् श्रद्धाशील एकैन साधुना उपशामितः, तदनु--अन्येन साधुना पृष्टः-केन श्रमणेनायं श्रावक उपशामितः ! तदा कथयति परः साधुः-अन्यदा कदाचिद् विहरता सता मयैष श्राद्ध उपशामितः । एवं भावेऽपि-कषायवशेन वदतीति ज्ञातव्यमिति । एतेषां द्रव्यक्षेत्रादिभेदभिन्नानां मध्यात्-अन्यतममपि मृषावादं वदति तस्य भिक्षुकस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्तीति ॥ सू० १९॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू० २० -२२ अदत्तादान हस्तादिप्रक्षालन-चर्मधारणनिषेधः ४३
सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सगं अदत्तमादियइ आदियंतं वा साइ ज्जइ ॥ सू० २०॥
छाया-यो भिक्षुर्लघुस्वकमदत्तमाददाति आददतं वा स्वदते ॥ सू० २०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सगं' लघुस्वकम् स्वल्पमपि, अदत्तं तत्स्वामिनाऽप्रदीयमानम् 'आदियई' आददाति-गृह्णाति, 'आदियंतं वा' आददतं वा स्वदते- स्तोकमपि--अदत्तादानं कुर्वन्तं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० २० ॥ भाष्यम्-दव्वे खेत्ते तहा काले, भावे चेयं चउन्विहं ।
एएसि च जहासत्थं, णाणत्तं अवगम्मइ ॥ छाया-वे क्षेत्रे तथा काले भावे चैतच्चतुविधम् ।
पतेषां च यथाशास्त्रं नानात्वमवगम्यते ॥ अवचूरी-'दव्ये' इत्यादि । अदत्तम् अदत्तादानं चतुर्विधम्-द्रव्यक्षेत्रकालभावैः चतुष्प्र. कारकं भवति । तत्र द्रव्ये-वस्त्रपात्रादौ, क्षेत्रे -वसत्यादौ, काले–अतीतादौ, भावे-भावविषयेरागादौ । एतेषां द्रव्यादिविषयकादत्तादानानां नानात्वम्-अवान्तरभेदो यथाशास्त्रं शास्त्रोक्तप्रकारेणाऽवगम्यते-बुध्यते ॥ सू० २० ॥ - सूत्रम्-जे भिक्खू लहुस्सएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा नहाणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवतं वा साइज्जइ ॥ सू०२१॥ .. छाया-यो भिक्षुर्लघुस्वकेन शोतोदकविकटेन वा-उण्णोदकविकटेन वा हस्तौ वा पादौ वा कर्णौ वा अक्षिणी वा दन्तान् वा नखान् वा मुखं वा, उच्छोलेद्वा प्रधावेद्वा उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू० २१ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लहुस्सएण' लघुस्वकेन–स्वल्पेन बिन्दुमात्रेणाऽपि 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा, अत्र विकटशब्दोऽचित्तबोधकः, व्यपगतजीवेन जलेनेत्यर्थः, तण्डुलधावनाधचित्तजलेनेति यावत् । 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा अचित्तेनोष्णजलेनेत्यर्थः । तथा चोपर्युक्तजलेन भिक्षुः 'हत्थाणि वा' हस्तौ वा 'पायाणि वा' पादौ वा 'कण्णाणि वा' कर्णौ वा 'अच्छीणि वा' अक्षिणी वानेत्रे वा 'दंताणि वा' दन्तान् वा 'नहाणि वा' नखान् वा 'मुहं वा' मुखं वा 'उच्छोलेज्ज
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निशीथसूत्रे
हस्तपादाद्यवयवानामेकवारं प्रक्षालन जलेन कुर्यादित्यर्थः ।
वा' उच्छोलेत् - प्रक्षालयेत्,
'पधोवेज्ज वा' प्रधावेद्वा - वारंवारं हरतादीनां प्रक्षालनं कुर्यादित्यर्थः
'उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइज्जइ' उछोलन्तं वा प्रधावन्तं वा प्रक्षालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति ॥ सू० २१ ॥
भाष्यम् - उच्छोलणं च दुबिह, देसओ सव्वओ तहा । जहासत्थं च णायव्वा, तस्स भेया जहक्कसं
छाया - उच्छोलनं च द्विविधं देशतः सर्वतस्तथा । यथाशास्त्रं च ज्ञातव्यास्तस्य मेदा यथाक्रमम् ॥
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अवचूरि :- -'उच्छोलणं' इत्यादि । उच्छोलनम् - प्रक्षालनम्, तद् द्विविधं द्विप्रकारकं भवति । तद्यथा-देशतो- देशविषयकम् । तथा - सर्वतः - सर्वविषयकम् । तस्य देशादिप्रक्षालनस्य भेदप्रभेदाः यथाशास्त्रं - सर्वज्ञ प्रतिपादितशास्त्रात्, यथाक्रमं क्रमेण ज्ञातव्याः । तथाहि - प्रथमतः 'उच्छोलनं' प्रक्षालनं द्विविधम्-देशतः सर्वतश्च । तत्र - पुनर्देशविषयकं द्विविधम्- आचीर्णमनाचीर्ण च । तत्र ज्ञातजिनागमश्रमणैराचर्यते यत् तत् आचीर्णम् । एतद्विपरीतमनाचीर्णम् । पुनश्चाऽऽचीर्णं देशप्रक्षालनं कारणाद्भवति निष्कारणाद्वा । यत्पुनः कारणे सति भवति तत्पुनर्द्विविधम्, यथा-अशनादिना लेपकद्रव्येण हस्तमात्रं लिप्तम्, तत्प्रक्षालने यदि मणिबन्धतः प्रक्षालयति । एतत्सकारणकं देशप्रक्षालनम् । यदि वा - यावन्मात्रं शरीरावयवरूपं हस्तपादादिकमशुचिद्रव्येण लिप्तं भवति तावन्मात्रमेव प्रक्षालयति । एतदपि सकारणकं देशप्रक्षालनम् । निष्कारणं तु - एतश्पिरीतम्, यथा- अशुचिद्रव्येण चरणमात्रं लिप्तम् किन्तु - प्रक्षालनं तु संपूर्णस्य शरीरस्य करोति । तत्राऽधिकदेशस्य प्रक्षालनमकारणमेव । प्रक्षालयितव्यदेशादधिकदेशप्रक्षालनस्य निष्प्रयोजनत्वादेतद् अनाचीर्णमिति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू कसिणाणि चम्माई धरेइ घरेंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुः कृत्स्नानि चर्माणि धरति घरन्तं वा स्वदते ।। सू० २२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'कसिणाणि' कृत्स्नानि संपूर्णानि अखण्डानीत्यर्थः 'चम्माई' चर्माणि मृगादीनाम् 'घरेइ' धरति - पार्श्वे स्थापयति, उपयोगे आनयति वा, 'घरेंतं वा साइज्जइ' घरन्तं - पार्श्वे स्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागभवति ॥ सू० २२ ॥
भाष्यम् - कसिणं चउहा वुत्तं, सथलाइपभेयओ । चव्विस्स चम्मस्स, धारणं नेव कप्पर ॥
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चूर्णिभाष्यावेचूरिः उ० २ सू० २३
कृत्स्नवस्त्रधारणनिषेधः ४५
छाया--कृत्स्नं चतुर्धा प्रोक्तं, सकलादिप्रमेदतः ।
चतुर्षिधस्य चर्मणो धारणं नैव कल्पते ॥ अवचूरिः- 'कसिण' इत्यादि । कृत्स्नं चतुर्धा-चतुष्प्रकारकं प्रोक्तं भवति सकलादिप्रभेदतः, तद्यथा -सकलकृत्स्नम्-१, प्रमाणकृत्स्नम् २, वर्णकृत्स्नम् ३, बन्धनकृत्स्नं ४ च । एतत् चतुर्विधं कृत्स्नं भवति । एतच्चतुर्विधस्य-चतुष्प्रकारकस्याऽपि कृत्स्नस्य चर्मणो धारणं भिक्षणां न कल्पते ॥ सू० २२॥ भाष्यम् -- एगपुड सयलकसिणं १, पमाणकसिणं २ च होइ दुपुडाई ।
कोसग-खल्लग-वगुरी-खवुसा-जंघ-दजंघा य ॥ किसणाइपंचवण्णगयम्मेणं निम्मियं च वण्णकसिणं ३।
बंधणकसिणं जमिहा, बंधणतिगओ परं चउत्थाई ४ ॥ छाया-एकपुटं सकलं कृत्स्नं, प्रमाणकृत्स्नं च भवति द्विपुटादिकं ।
कोशक-खल्लक-वागुरी-खपुसा-जा-ऽर्द्धजजा च ॥ कृष्णादिपञ्चवर्णकचर्मणा निर्मितं च वर्णकृत्स्नम् ।
बन्धनकृ'स्नं यदिह बन्धनत्रिकतः परं चतुर्थादि ॥ अवचूरिः-'एगपुड' इत्यादि । तत्रैकपुटम्-एकतलमखण्डितं सकलकृत्स्नं भवति १॥ द्विपुटादिकं-द्वयादितलादिकम् यत्रोपानहादौ तत्प्रमाणकृत्स्नं भवति । अस्यैव प्रमाणकृत्स्नस्य मेदानाह-तद्यथा-कोशक-खल्लक-वागुरी-खपुसा जवाऽर्द्धजङ्घाप्रभृतिका लोके व्यवहियमाणा भेदाः, तत्र-कोशकं-चर्ममयं (कोथलो-थैली) इतिप्रसिद्धम् , यस्मिन् प्रवेशित
चरणाङ्गुलिनखो मार्गे संचलतो न भज्यते-न भिद्यते तत् , सा च चर्ममयी कुत्थलिका १। खल्लकम् - अत्र पुनर्ती भेदो-अर्द्धखल्लक, सर्वखल्लकं च। तत्र-तलप्रतिबद्धं यावखल्लकैरनुस्यूतं यत्रोपानहि साऽर्द्धखल्लकोपानत् , या च-समस्तमेव चरणमाच्छादयति सा सर्वखल्लकोपानत् २ । या च पुनरङ्गुली छादयित्वा चरणावुपरि छादयेत् सा वागुरी वागुरा वा ३। खपुसा सा या जानु पिदधाति-छादयति ४। या जचापर्यन्तमाच्छादयति सा जवा समस्तजङ्केति यावत् ५। जवाया अर्द्धभागमेव याऽऽच्छायेत्साऽर्द्धजङ्घोपानत् ६ । इति प्रमाणकृत्स्नमिति द्वितीयो भेदः २। ॥१॥
सम्प्रति भाष्यगततृतीयभेदमाह-'किसणाई' इत्या दि, यत् पुनश्चर्म वर्णेन कृष्णादिना शोभा पुष्णाति तत् वर्णकृत्स्नम् , तच्च वर्णकृत्स्नं चर्म कृष्णादिवर्णेन पञ्चविधं भवति, वर्णस्य पञ्चविध. स्वात् ३। बन्धत्रयात्परं चतुर्थादिबन्धनयुक्तं यत् तद् बन्धनकृत्स्नं भवतीति चतुथों भेदः ४। इत्थं सकलचर्मनिर्मितोपकरणानामुपानहादीनां च धारणं साधूनां न कल्पते इति दिग्दर्शनम् ।। सू० २२ ॥
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विशेषत उपानद्धारणे दोषान् दर्शयति- 'गव्बो' इत्यादि ।
भाष्यम् – गव्वो निम्मद्दवया, निप्येक्खो य णिद्दय - निरंतरया । भूयाणं उवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छद्दोसा ॥
निशोधसूत्रे
छाया - गव निर्मार्दवता निरपेक्षो निर्दय-निरन्तरता । भूतानामुपघातः कृत्स्ने चर्मणि षड् दोषाः ॥
अवचूरि : -- गर्वः - उपानहा संनद्धचरणः पुरुषोऽश्वादावारूढः पादचारिणं पुरुषमिवानुपानहमनादृत्य स्वस्मिन् गर्व धारयति - यदहमेतेभ्यो गरीयान् उपानद्भयां चलामि, एते रङ्का उपानद्विहीनाः, इत्थमुपानद्धीनं पुरुषं विलोक्य सर्वदैव गर्वयुक्तो भवति १ । निर्मार्दवता - उपानद्रहतचरणाभ्यां संचलन् चरणस्य मृदुत्वेन न तथा जीवोपघाताय भवति यथा उपानद्भयां संनद्धचरणा मार्दवराहित्येन कठिना अधिकभाराक्रान्ता जीवोपघाताय भवन्ति । एतावता गर्यो निर्मार्दत्वं च व्याख्यातम् २ |
निरपेक्ष इति यस्य चरणे - उपानहौ न स्तः स मार्ग विलोक्य व्रजति, अन्यथा चलने मम चरणे कण्टकादिवेधः स्यात्, इति कण्टकवेधभयात् सोपयोग चलति, चलन् जीवोपरि उपयोगं ददत् जीवस रक्षति । यदा तूपानद्भ्यामाच्छादितचरणो व्रजति तदा निरपेक्षतया चलन् निरपायत्वादात्मनः कण्टकादिकमुपेक्षमाणो जीवेष्वप्युपेक्षां करोति ३ |
'निद्दयनिरंतरया' इत्येकपदत्वात् 'ता' इत्यस्य द्वयोरपि सम्बन्धः तेन निर्दय इति निर्दयता । भादौ यदाऽऽत्मनो मनसि निर्दयत्वं कृतं भवति तदा चरणयोरुपानहौ घरति एवंप्रकारेण स्वभावतो दयालुरपि पुरुषः कठोरो भवति, इति दयापरस्यापि तस्य निर्दयता समागच्छति, इत्थं निर्दयत्वं भवति ।
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निरन्तरता - उपानत्संनद्धपादेन षड्जीवनिकायानां विनाशस्याऽवश्यम्भावात् निरन्तरता पापबन्धस्य नैरन्तर्यात्, इति । शुद्धेन चरणेन यदा भूमौ चलति तदा भूतानां विराधनं न भवति । उपानद्वेष्टितचरणतलगतो जीवः कदापि न जीवति कठिनत्वात्, अतिभारत्यात्, अवकाशाऽभावाच्चेति ५ । भूतोपघातश्चेति-स्वभावतो दुर्बलदेहानां कोमलाऽवयवानां भूमौ चलतां लघुजीवानां सोपानत्कचरणैरुपघातो भवत्येव इति षष्ठो भूतोपघातदोषोऽप्यवश्यम्भावी ६ । यत इमे दोषा उपानद्धारणे ततो भिक्षुभिरुपानद्धारणं नैव कर्त्तव्यमिति विवेकः ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू कसिणाणि वत्थाई धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ छाया -यो भिक्षुः कृत्स्नानि वस्त्राणि धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३ ।। घूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'कसिणाणि वत्थाई' कृत्स्नानि बाण, तत्र - प्रमाणादधिकानि बस्नाणि कृत्स्नवस्त्राणि 'घरेई' धरति कृत्स्नवस्त्राणामुपभोगं
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चूर्णिभाष्यावरित उ० २ ० २४
भभिन्नवस्त्रधारणनिषेधः ४७ करोतीत्यर्थः। 'धरेत वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः प्रमाणातिरिक्तवत्राणां धारणं करोति, कारयति, कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० २३ ॥ भाष्यम् कसिणं दच खेत्ते य, काले भावे चउन्विहं ।
दुविहं दव्वकसिणं, सयलं च पमाणगं ॥ छाया-कृत्स्नं द्रव्ये क्षेत्रे च काले भावे चतुर्विधम् ।
द्विविधं द्रव्यकृत्स्नं सकलं व प्रमाणकम् ॥ अवचूरिः-'कसिणं' इत्यादि। प्रकृतसूत्रघटककृत्स्नं चतुर्विधम् चतुष्प्रकारकं भवति । प्रथमं द्रव्ये-दव्यकृत्स्नम् १, द्वितीय क्षेत्रे-क्षेत्रकृत्स्नम् २, तृतीयं काले-कालकृत्स्नम् ३, तथा चतुथे भावे-भावकृत्स्नम् ४। तत्र चतुष्प्रकारककृत्स्नेषु मध्ये द्रव्यकृत्स्नं द्विविधम् द्विप्रकारकं भवतिसकलकृत्स्नम् , प्रमाणकृत्स्नं च । तत्र-सकलकृत्स्नं नाम यद्वस्त्रं धनं-तन्तुभिर्यनिष्ठं चिक्कणम्अतिकोमलम् , तथा-अखण्डितं पूर्व तन्मध्यान्न केनापि गृहीतं परिपूर्णमित्यर्थः, एतादृशं सदशिक 'थान-ताका' इत्यादिरूपेणाऽखण्डं यद्वस्त्रं तत्सकलकृत्स्नमिति कथ्यते । एतच्च सर्वोत्कृष्टत्वान्न ग्राह्यम् । एतादृशानि सकलकृत्स्नानि वस्त्राणि गृहस्थेभ्यः खण्डयित्वाऽऽनीतानि जघन्यमध्यमो. स्कृष्टरूपाणि मुखवस्त्रिकाचोलपट्टकप्रावरणादीनि साधुना न धारणीयानीति भावः । अथ प्रमाणकृत्स्नमाह-यद्वस्त्रम्-आयामतो द्विसप्ततिहस्तमितं, विस्तारतश्चतुर्विशत्यङ्गुलकहस्तप्रमाणकम् , निम्रन्थीनां षण्णवतिहस्तप्रमाणम् प्रमाणकृत्स्नमिति कथ्यते, तन्न धारणीयं न च प्राथमिति ॥ सू० २३ ॥
सम्प्रति-क्षेत्रकृत्स्नं प्रदर्शयति- 'जं वत्थं' इत्यादि । भाष्यम्-जं वत्यं जत्य देसे उ, दुल्लहं बहुमोल्लग ।
___कसिणं खेत्तजुत्तं तं, जहन्नुक्कोसमझिमं ॥ छाया-यस्त्र यत्र देशे तु, दुर्लभं बहुमूल्यकम् ।
कृत्स्नं क्षेत्रयुक्तं तद् जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ॥ अवचरिः-यद् वस्त्रं कार्पासादिकं यत्र-यस्मिन् देशे मगधादौ दुर्लभं प्रात्ययोग्यं महर्षितं च, तद्वस्त्रं तेन क्षेत्रेण--देशादिना युक्तं क्षेत्रकृत्स्नमिति कथ्यते । यथा-हस्तकत्तितकार्पासिकसूत्रनिर्मितं वस्त्रं संप्रति 'खद्दर' इति लोकप्रसिद्धम्-उत्तरविहारदेशेऽतिसुलभम् अल्पमूल्यसायं च, तदेव वस्त्रं गुर्जरद्रविडादौ देशे दुर्लभं भवति तत्क्षेत्रकृत्स्नमिति कथ्यते । तदपि बहुमूल्यं सत्न कल्पते । तदपि क्षेत्रकृत्स्नं वस्त्रं त्रिप्रकारकम् जघन्य-मध्यमो-कृष्टभेदात् , इति । एवं यद्वस्त्रे यस्मिन् काले महर्षितं दुर्लभं च तद्वत्रं तस्मिन् काले कालकृत्स्नं भवति । एतदपि जघन्यादिभेदात् त्रिविधं बहुमूल्यं न कल्पते इति विवेकः ॥ सू० २३ ॥
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सम्प्रति भावकृत्स्नं दर्शयति- 'दुनि' इत्यादि । 'माण्यम्-दुविहं भावकसिणं, मणमुल्लपमेयो ।
वण्णओ पंचहा बुत्वं, मोल्लो तिविहं मयं ॥ छाया-द्विविधं भावकत्स्नं वर्णमूल्यप्रभेदतः ।
वर्णतः पञ्चविधं प्रोक्तं मूल्यतस्त्रिविधं मतम् ॥ अवचूरिः-भावकृत्स्नं द्विविधं-द्विप्रकारकं भवति, वर्ण-मूल्य-भेदात् । वर्णकृत्स्नम् , मूल्यकृत्स्नं च, तत्र-वर्णकृत्स्नं पञ्चविधम् पञ्चप्रकारकं भवति , वर्णानां पञ्चप्रकारकत्वात् । मूल्यकृत्स्नं तु त्रिप्रकारकं भवति जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादिति ॥ सू० २३ ॥
तत्र वर्णत इदम् - भाष्यम्-पंचण्डमवि वष्णाणं, वण्णड्ढण्णयरेण जं ।
कसिणं वग्णजुत्तं तं, जहन्नुक्कोसमझिमं ॥ छाया-पञ्चानामपि वर्णानां वर्णाढयमन्यतमेन यत् ।
कृत्स्नं वर्णयुक्तं तत् जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ॥ अवचूरि:-'पंचण्हमवि'-इत्यादि । पञ्चानां-पञ्चप्रकाराणां कृष्ण-नील-रक्त-पीतशुक्लभेदभिन्नवर्णानां मध्यात् येन केनचित्कृष्णादिना वर्णेन-आढयमतिशयेन युक्तम् यथा-कृष्णंपुंस्कोकिलतुल्यम् , नीलं-शुकपक्षसन्निभम् , रक्तम्-इन्द्रगोपकीटसन्निभम , पीत-तापितस्वर्णसदृशं, शुक्लं-शशशशाङ्कतुषारसन्निभम् । तदेवं विविधवर्णयुक्तं वर्णकृत्स्नमिति कथ्यते । तदपि वर्णकृत्स्नं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिप्रकारकम् । तस्मात्-कृष्ण-नील-रक-पीत वस्त्रं कदापि न ग्राह्यम् , शुक्लं तु ग्राह्यं, तदपि शास्त्रदर्शितमेव साधारणं शुक्लं ग्राह्यम् , तदपि बहुमूल्यं न ग्राह्यम्-इति ।। सू० २३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अभिण्णाई वत्थाई धरेइ धेरैतं वा साइज्जइ।२४॥ छाया-यो भिक्षुरभिन्नानि वस्त्राणि धरति परन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अभिण्णाई वत्थाई अभिग्नानि-अखण्डितानि वस्त्राणि 'धरेइ' धरति-परिदधाति पार्वे स्थापयति वा, अन्यं धारयति, 'धरतं वा साइज्जई' धरन्त-धारयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाक् । अभिन्नवस्त्रं नाम-विक्रयणस्थाने पूर्व न खण्डितं भवेत् 'ताका' इति भाषाप्रसिद्धम् , तत् साधुभिर्न धार्यम् किन्तु 'ताका' इति भाषाप्रसिद्धाद् यद् खण्डीकृतं वस्त्रं भवेत् तद् दातुः प्राप्य तस्यापभोगः करणीय इति सूत्राशयः ॥ सू० २४ ॥
ग्राह्यम्
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चूर्णि भाग्यावचूरिः उ० २ सू० २५-२६
पात्रदण्डकादीनां परिघट्टनादिनिषेधः ४९
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- अभिनवाचार को दोषस्तग्राह भाष्यकारः -- ' अभिण्ण०' इत्यादि ।
भाष्यम् - अभिण्यवत्यजुरास्स, भवे चोरभयाइयं । पडिलेहणबाधा, संजमत विराहणं ॥
छाया----अभिन्नवस्त्रयुक्तस्य भवेोरभयादिकम् । प्रतिलेखनाचादि संयमात्मविराधनम् ||
अवचूरि :- अभिन्नवस्त्रयुक्तस्य साधोः चौरभयम्, चौरो हि-अभिन्नवस्त्रं दृष्ट्वा तल्लो - भात् - चोरयितुमागच्छेत्, मारयेदपि कदाचित्साधु मित्यात्म विराधनासंभवः । तथा तादृशविपुलवस्त्रस्य सम्यक् प्रतिलेखनमपि न संभवतीति तदकरणजनितोऽपि दोषः । प्रतिलेखनाद्यकरणे संयमविराधनं स्यात्, अतः साधुभिरभिन्नवस्त्रं न धारणीयम् ॥ सू० २४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा सयमे परिघट्टेइ वा संवेइ वा जमावेइ वा परिघट्टेतं वा संठवेंत वा जमावे वा साइज्जइ ॥ सू० २५ ॥
छाया - यो भिक्षुः अलाबूपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा स्वयमेव परिषदति वा संस्थापयति वा 'जमावेइ' इति यमयति वा परिघट्टयन्तं वा संस्थापयन्तं वा यमयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५ ॥
चूर्णिः - 'जे भिक्खू' द्रत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'लाउपायं वा' अलाबूपात्र वा 'तुम्बा' इति लोकप्रसिद्धम् 'दारुपायं वा' काष्ठपात्रं वा, 'महियापायं वा' मृत्तिकापात्रं वा 'सयमेव परिघट्टेइ' स्वयमेव परिघट्टयति-निर्माति । 'संठवे वा' संस्थापयतितत्र - संस्थानमवयव विशेषः मुखादिकं पात्रस्य करोतीत्यर्थः ' जमावे वा' यमयति - विषमं समं करोति, तथाच - पात्राणां विषमभागं समीकरोतीत्यर्थः । तथा - 'परिघट्टे वा' परिघ - ट्टयन्तं वा - निर्माणं कुर्वतं वा 'संठवेंतं वा' संस्थापयन्तं वा, 'जमावेंतं वा' यमयन्तं वा, विशेषतो विषमभागस्य समतां कुर्वन्तं वा 'साइज्मइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
तत्र — पूर्वघट्टितादिपात्राणां ग्रहणं कल्पते, तत्र--त्रिविधमपि पात्रं बहुकर्मिताऽल्पक - र्मिताऽपरिकर्मितभेदात् त्रिप्रकारकं भवतीति प्रकृतसूत्रविषये प्रथमोदेशके-- एव व्याख्यानं कृतं तत एव द्रष्टव्यम् । विशेषस्तु केवलमेतावानेव यत् प्रथमोदेशके परकृतं निषिद्धम्, अत्र तु स्वयंकरणस्य निषेध इति ॥ सू० २५ ॥
७
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मिडीयो सूत्रम्-जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा सयमेव परिघट्टेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघटेत वा संठवेतं वा जमातं वा साइज्जइ ॥ सू० २६ ॥
छाया-यो भिक्षः दण्डकं वा यष्टिकां वा अवलेहनिकां वा घेणुसूचिको घा, स्व. यमेव परिघट्टयति वा संस्थापयति वा यमयति वा, परिघट्टयन्तं वा संस्थापयन्त वा यमयन्तं वा स्वदते ॥सू० २६ ।।
चूर्णिः-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'दंख्यं वा' दंडकं वा दण्डः-रजोहरणसम्बन्धी तम् 'लट्ठियं वा' यष्टिकां वा-लघुदण्डं 'अवलेहणिय वा' अवलेहनिकां वा-कर्दमावगुण्ठितचरणे तदपनयनाय शलाकाविशेषस्ताम् , 'वेणुसइयं वा वेणुसूचिकां वावेणुवंशस्तन्मयी सूची ताम् , 'सयमेव परिघट्टेई' स्वयमेव परिघट्टयति, परिघट्टनं निर्माणम् तथाचदण्डादीनां निर्माण करोतीत्यर्थः । 'संठवेइ वा संस्थापयति दण्डादिकस्य हस्तिमुखसिंहमुखादीनां निर्माणं करोति । 'जमावेइ वा' यमयति वक्रदण्डादीन् ऋजून् करोति । 'परिघटेतं वा' परिघट्टयन्तं-निर्माणं कुर्वन्तम् , 'संठतें वा' संस्थापयन्तम् , 'जमावे वा' यमयन्तं वक्र ऋजुं कुर्वन्तम् 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० २६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मिजकगवेषितं प्रतिग्रह धरति धरन्त वा स्वदते ॥ सू० २७ ॥
चूर्णिः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘णियगगवेसियं निजकगवेषितम् , निजकः स्वजनः सांसारिको मातृ-पितृ--बन्धुबान्धवादिः तेनाऽन्विष्यानीतम् 'पडिगई' प्रतिग्रहं -पात्रम् 'धरेइ' धरति पार्श्वे स्थापयति गृह्णाति । 'धरतं वा साइज्जइ' धरन्तं पार्थे स्थापयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चितभाग्भवति ॥ सू० २७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥ सू० २८॥
छाया यो भिक्षुः परगवेषितं प्रतिग्रह धरति, धरन्तं पा स्वदते ॥ सू० २८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम्'परगवेसियं' परगवेषितम् , तत्र-परोऽन्यः स्वजनातिरिकः सामान्यगृहस्थः विसंभोगी संयतो वा, तेन गवेषितमन्वि यानीतम् ॥ सू० २८ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० २७-३१ निजकादिगवेषितपात्रधारणनिषेधः ५५
सूत्रम्-जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ।। छाया यो भिक्षुर्वरगवेषितं प्रतिग्रहं धरति घरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २९॥ ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे विभखू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम्-'वरगवेसियं' वरगवेषितम् । तत्र-वरो नाम ग्राम प्रधानः पुरुषस्तेन गवेषितमन्विष्यानौतम् ॥ सू० २९॥
संप्रति वरशब्दार्थमाह भाष्यकार:-- 'जो जत्थ' इत्यादि । भाष्यम् -जो जत्य माणणिज्जो य, गामाइम्मि महत्तरो ।
पामाणिो पहाणो सो, वरो तत्थ पउज्जइ ॥ छाया-यो यत्र माननीय प्रामादौ महत्तरः ।
प्रामाणिकः प्रधानः स वरस्तत्र प्रयुज्यते ।। अवचूरिः-यः पुरुषो यत्र ग्रामादौ नगरादौ लोकैर्नागरिकैः संमानितो नागरादिषु मुख्यः प्रामाणिकः प्रधानश्च, तत्र वरशब्दः प्रयुज्यते । तेनानीतं पात्रादिकं गृहृतो ग्राहयतः गृह्णन्तमनुमोदमानस्याऽऽधाकर्मिकादिमिथ्यात्वाऽऽत्मविराधनसंयमविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० २९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ छाया--यो भिक्षुर्बलगवेषितं प्रतिग्रहं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम्'बलगवेसियं' बलगवेषितम् । बलाता-शरीरजनपदादिबलविशिष्टेन पुरुषेण गवेषितमन्धिध्यानीतम् ॥ सू० ३०॥ भाष्यम्-जस्सोवरि पहू जो उ, बलड्ढो वा भवे अवि ।
बलवंतो सो विन्नेओ, घरसामी जहा मओ ॥ छाया-यस्योपरि प्रभुर्यस्तु वलाढयो वा भवेदपि ।
बलवान् स विज्ञेयो गृहस्वामी यथा मतः ॥ अवचूरि:-'जस्सोवरि' इत्यादि । यः पुरुषो यस्योपरि प्रभुत्वं-स्वकीयं प्रभाव करोति, तथा बलाढ्यः बलेन-शरीरादिबलेन समृद्धो भवेत् स बलवान् विज्ञेयः । तत्र दृष्टान्तं दर्शयति–'घरसामी' इत्यादि । यथा-येन प्रकारेण गृहस्वामी स्वकीयपरिवारोपरि प्रभुत्वं कुर्वन् परीवारे बलवान् भवति, यथा वा-शरीरबलेनोर्जितः सिंहो वनपशुं प्रति बलं दर्शयन् बलवान् कथ्यते, यथा वा कश्चिद्विद्वान् सामान्यजनं प्रति स्वविद्याबलं दर्शयन् प्रभुर्बलवान् इति कथ्यते । ____ यद्वा-कश्चिदप्रभुरपि-अबलोऽपि बलवान् भवति-यथा गृहस्वामी, न तादृशः प्रभुः किन्तु स्वपरिवारे बलवानिति कथ्यते, एतादृशवलवता पुरुषेणाऽन्विष्यानीतं पात्रं यो भिक्षुर्धरति, धरन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्तीति ॥सू. ३०॥
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५२
निशीचसूत्र
सूत्रम् - जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥
छाया - यो भिक्षुर्लवगवैषितं प्रतिग्रहं धरति घरन्त वा स्वदते ॥ सु० ३१ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू, इत्यादि । 'जे भिक्खू, यो भिक्षुरित्यादि पूर्ववत् । नवरम् - 'लवगवेसियं, लवगवेषितम् तत्र - वो नाम - यो दानफलं दर्शयित्वा वस्त्रपात्रादिकमुत्पादयति, तादृशः पुरुषो लव इति कथितो भवति, तेनान्विष्यानीतम् । यो हि भिक्षुर्वस्त्रपात्रादिस्वामिनं वस्त्रपात्रादिदानस्य फलं श्रावयित्वा तस्माद्वत्रपात्रादिकमादते दापयति चान्यस्मै । तथा-यथकव्यापारेणाऽऽददानमन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागिति भावः ॥ सू० ३१ ॥
भाष्यम् - दाणफलं तु दंसीय, आदेइ दावए खलु । वत्थपायाइंगं नूणं, तारिसो लव बुच्चइ ॥
छाया - दानफलं तु दर्शयित्वा आदते दापयेत्खलु । वस्त्रपात्रादिकं नूनं तादृशो लब उच्यते ।।
अवचूरि : - - ' दाणफलं' इत्यादि । यो भिक्षुः दानस्य फलं दर्शयित्वा वस्त्रपात्रादिकमादत्ते - आनयति लोकेभ्यः, दापयति चाऽन्यस्मै स लव उच्यते - कथ्यते । तत्र दानं द्विविधम्लौकिकं लोकोत्तरं च । लोकमुद्दिश्य यद्दीयते तल्लौकिकम् । कर्मनिर्जरार्थं दातव्यमितिबुद्धया पात्राय महाव्रतधारिणे यद्दानं तल्लोकोत्तरम् ॥ सू० ३१ ॥
सूत्रम् - - जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुनैत्यिक- अग्रविण्डे भुङ्क्ते मुजम्स वा स्वदते ॥ सू० ३२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं' नैत्यिक नियतं वा, तत्र नैत्यिकं प्रतिदिनम्, नियतं नियतकालप्रतिबद्धं यथा कस्मिंश्चिद् गृहे कचित् दिनद्वयमन्तरा - कृत्य दिनत्रयादिकं वा व्यवधानीकृत्य नियमतो गमनं नियतशब्दार्थः । 'अग्गपिंड' अप्रपिण्डम् अग्रः प्रधानः पिण्डः– अग्रपिण्डस्तम्, अथवा भोजनात्पूर्वं यो निष्कास्यते सः तम् अग्रपिण्डम् । यदा तदा साधुभ्योऽन्नपानवितरणकाले अग्रपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ३२ ॥
भाष्यम् - निमंतणं उत्पीलणं, परिमाणं सभावियं ।
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आइल्ला तिष्णि नो कप्पे, कप्पेज्जा व वउत्थगं ॥
छाया --- मिमन्त्रणमुप्पीलणं परिमाणं स्वाभाविकम् । भाद्यास्त्रयो न कल्पन्ते कल्पते च चतुर्थकम् ॥
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इम्भिाल्याषचूरिः उ० २ सू० ३२-३६ नैत्यिकापिण्डाद्युपभोगनिषेधः १३
अवरि:--'निमंतणं' इत्यादि निमंतणं' निमन्त्रणम्-मामन्त्रणम्, भोजनादिग्रहणार्थमभ्यर्थनमित्यर्थः १। 'उप्पीलणं देशी शब्दः तदर्थस्तु-उपहासः २। परिमाण भोजनस्येयत्ता ३। स्वाभाविकं स्वतः सिद्धम् , यथा-गृहस्थस्य दानम् ४। अत्राऽऽद्यास्त्रयो न कल्पन्ते, चतुर्थोऽपि नैत्यिकाग्रपिण्डदोषरहितः स्वाभाविकपक्षः साधूनां कल्पते ।
अयं भावः-निमन्त्रणोप्पीलणपरिमाणानामेतत्स्वरूपम् ; तथाहि-कश्चित् श्रद्धालुः श्रावकः श्रमणसमीपमागत्य निवेदयति-भगवन् ! ममोपरि क्रियतामनुग्रहः, मद्गृहे समागत्व भक्तपानादिकं गृह्यताम् । इति प्रथमो भेदः (निमन्त्रणम्) १।
'उप्पीलणं' यथा-श्रमणो वदति-भो श्रावक ! तवोपरि करोम्यनुग्रहम् किन्तु-कथय यत् किं दास्यसि ?। श्रावको वदति-यद्भवतामभीष्टम् , येन वस्तुना भवतः प्रयोजनं तदास्यामि । तदनन्तरं साधुरुपहासमिव कुर्वन् वदति-भोः श्रावक ! अत्र प्रतिश्रुत्य गृहं नेष्यसि तत्र गतः सन् यदि नो दास्यसि तदा किम् ? एवं प्रकारेण-उप्पीलणमु हासंपकरोति । इति द्वितीयो भेदः २।
अथ परिमाणस्वरूपमाह-अवश्यमेव दास्यामि नाऽत्र सन्देहः । एवं कथिते गृहस्थे साधुः परिमाण वदति-भोः श्रावक ! कियत्परिमाणं दास्यसि ? कियत्कालपर्यन्तं दास्यसि ? किं दास्यसि ?, यदि स्वल्पं दास्यसि अदत्तवत् स्यात् । ततो दाता वदति-यावता भक्तेन-पानेन वा भक्तः प्रयोजनम् , यावन्तं वा कालं भवतः प्रयोजनं तावन्तं कालं भवते परिपूर्णमोदनादिकं दास्यामि , किं बहुना - यद्वस्तु भवते रोचते, याक्परिमाणं वा रोचते, याक्कालं वा तावत्कालपर्यन्तमपरिहीनमपरिश्रान्तोऽहं दास्यामि । इति तृतीयो भेदः ३। अत्र-निमन्त्रणोप्पीलणपरिमामेषु प्रायश्चित्तं भवति । स्वाभाविकं यद् भक्तपानादिकमात्मार्थ गृहस्थेन निष्पादितं नैत्यिकानपिण्डदोषवर्जितं च तदेव साधुभिाह्यम् नत्वन्यत् । इति चतुर्थो भेदः ।।
अत्राह कश्चित्-चतुष्प्रकारकेऽपि अग्रपिण्डे न किमपि दोषं पश्यामि ? आचार्यः प्राह-यत्स्वात्मार्थ स्वभावत एव निष्पादितं तत्-नितिकम् अनिमन्त्रितमनुप्पीलणमपरिमाणमपि यदि निमन्त्रणादिभिक्षाकणेनाऽपि स्पृष्टं तत्साधूनां न कल्पते । एतत् त्रयातिरिक्तं स्वाभाविकमपि भक्तपानादिक यदि नियताप्रपिण्डदोषवर्जितं भवेत् तत् साधूनां कल्पते इति ।
स्वात्मार्थ निष्यादितेऽपि नियताअपिण्डदोषनिमन्त्रणादिदोषदूषिते इमे दोषा भवन्तिआत्मार्थ निष्यन्नेऽपि-उद्गमादिदोषा भवन्ति, साधुनिमित्तमयं पिण्डो नियमितः, इत्यवश्यं दातव्यम् , इति कृत्वा कुण्डादिषु स्थापयति तस्मात्-निमन्त्रणादिपिण्डो वर्जनीयः ॥ सू० ३२॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं पिंड भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥३३॥ छाया-यो भिक्षु३त्यिकं पिण्डं भुङ्क्ते भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ३३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितिय' नैत्यिकं 'पिंडं' पिण्डं अहरहरेकस्मादेव गृहादानीतम् ‘भुंजइ' भुङ्क्ते, भोजयति ‘भुजंतं वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ३३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं अवड्ढभागं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४ ॥
छाया-यो भिक्षु३त्यिकमपार्द्धभाग भुङ्क्ते-भुजन्तं पा स्वदते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं नैत्यिकम् 'अवडूढभार्ग' अपार्द्धभागं-भक्तस्याभागमपि अर्थात् पात्रे स्थाल्यादौ स्थापितभोजनस्यार्धभागस्त्रि भागश्चतुर्थभागो वा यो दानार्थ निष्कासितः यस्मिन् गृह्यमाणेऽन्यस्यान्तरायसंभवात् , एवंविधभोजनापार्द्धभागम् 'झुंजई' भुङ्क्ते, भोजयति 'भुंजतं वा साइज्जइ' अपार्द्रभागं भुनानं स्वदतेऽनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।। सू० ३४ ॥
मूत्रम्-जे भिक्खू णितियं भागं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥३५॥ छाया-यो मिक्षु त्यिक भागं भुङ्क्ते भुजानं पा स्वदते ॥ स्० ३५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘णितियं भागं' नैत्यिकं भागं यत्र प्रतिदिनं यो भागो दानार्थ निष्कास्यते तं भागं 'भुजई' भुङ्क्ते 'भुजतं वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ३५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं ऊणडूढभागं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षु३त्यिकमूनार्द्धभागं भुङ्क्ते भुञ्जान वा स्वदते ॥ सू० ३६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः "णितियं नैत्यिकम् , 'ऊणइढभागं' ऊना:भागं-त्रिभागादितोऽप्यर्द्धभाग ऊनार्द्धभागस्तम् 'भुंजइ' स्वयं भुङ्क्ते । मुंजतं वा साइज्जइ' भुञ्जानं वा स्वदते । यः साधुः पुण्यार्थरक्षितभोजनमध्यात् कमपि भागं भुङ्क्ते, भोजयति, तथा-भुञ्जानमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ३६॥ भाष्यम्-पिंडो भत्तट्ठगो णेओ, तयद्धं च अवड्ढगो ।
भागो तिभागो तस्सद्धं, ऊणइढो सो वियाहिओ ॥ पिंडे णिइए अवड्ढे, भागे ऊणढगे तहा । एस एव गमो ओ, सन्वया सत्यसंमओ ॥
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पणिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ३७-३८
नैत्यिकवास-पुरस्पञ्चासंस्तवनिषेधः ५५
छाया-पिण्डो भक्तार्थको ज्ञेय-स्तदर्ध वाऽपार्धकः ।
भागस्त्रिभागस्तस्या ऊनार्धः स न्याख्यातः ॥ पिण्डे नैत्यिकेऽपार्धे भागे ऊनाईके तथा ।
एष एव गमो सेयः सर्वदा शास्त्रसंमतः ॥ अवचूरिः – 'पिंडो भत्तद्वगो'-इत्यादि । पिण्डः-पिण्डशब्दोऽत्र भक्तार्थकः भक्तार्थवाचको ज्ञेयः, ततः पिण्ड इति भक्तमित्यर्थः, तस्य यदद्धं सोऽपार्द्धभागः प्रोच्यते, भागः त्रिभागः, तथा तस्यापि यद् अद्वै स ऊनार्द्धः ऊनार्द्धभागः ।
ततो नैत्यिके पिण्डे, तथा सूत्रघटकेऽपार्धे तथा भागे, तथा ऊनार्धके सर्वत्र एष एव गमोऽग्राह्यरूपः तीर्थकरगणधरैः सर्वदा-सर्वकालं व्याख्यातः कथितः, अत एव स शास्त्रसम्मतो ज्ञेयः । तत्र-गमस्वरूपमेव दर्शयति-'पिंडे' इत्यादि । सूत्रघटकपिण्डपदं भक्तार्थकं भवति, पिण्डो भक्तार्थ इति पर्यायः । यथा चतुस्त्रिंशत्सूत्रघटकं 'अवइद' इति पदं पिण्डार्धबोधकम् , पिण्डस्याभाग इत्यर्थः । भागपदम्-पञ्चत्रिंशत्सूत्रघटकपिण्डस्य त्रिभागबोधकम् । तथा पत्रिंशत्सूत्रघटकम् "ऊणइहभाग'-पदं त्रिभागस्याप्यूनाऽर्धभागबोधकं ज्ञातव्यम्, एतत्सर्व दानाद्यर्थ निष्कासितविषयकं बोध्यम् , तद्ग्रहणे साधुर्दोषभाग भवति ॥ सू० ३६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णितियं वासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३७। छाया-यो भिक्षु३त्यिकं वासं वसति वसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६॥
चूणीं- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णितियं वासं' नैत्यिकं वासं वर्षाकालवर्जिते ऋतुबद्धकालातिरिक्तकालेऽप्यकारणमेकस्मिन् स्थाने नित्यवासम् 'वसई' वसतिवासं करोति कारयति 'वसंतं वा साइज्जई' वसन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स हि
शीतकालाद्वर्षकालात , परतः कारणेऽसति ।
प्रायश्चित्ती वसन्नित्यं, वसतो वाऽनुमोदनात् ॥१॥ इति ॥ सू०३७॥ सूत्रम्-जे भिक्खू पुरेसंथवं पच्छासंथवं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ।
छाया—यो भिक्षुः पुरःसंस्तवं पश्चात्संस्तवं वा करोति-कुर्वन्तं वा स्वदते ॥३८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिभुः 'पुरेसंथव' पुरःसंस्तवम् वस्त्रपात्रादिदातुर्दानात्पूर्व-पूर्वकालमेव संस्तवम् प्रशंसनम्-परिचयं वा 'संस्तवः स्यात्परिचयः' इति वचनात् , 'पच्छासंयवं' पश्चात्संस्तवम् , वस्त्रपात्रादिदानानन्तरकाले संस्तवं प्रशंसनम्परिचयं वा 'करेई' करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते-अनुभोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
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निशीथसूत्र अवचूरिः-यद्वा सूत्रे-'समाणे' इति वृद्धवासवासी-वृद्धस्वग्लानस्वादिकारणवशात् स्थिरवासं स्थितः, तथा--इतर:--'वसमाणे नवकल्पविहारी । तत्राऽष्ट कल्पाः ऋतुबद्धकालसंबद्धाः, नवमः कल्यो वर्षाकालः, तत्र विहारी नवकल्पविहारी ।
गमनं द्विविध-द्विप्रकारकमुक्तं- कथितम्-एकं निष्कारणम् १, अपरं-सकारणम् २ । कारणविशेषमाश्रित्य जायमानं सकारणम् , कारणमन्तरेण जायमानं निष्कारणम् । तत्र सकारणं गमनं यथाआचार्यप्रभृतीनां वैयावृत्त्यनिमित्तं भिक्षानिमित्तं वा गमनम् । एवं-निष्कारणमेव प्रामानुग्रामं गमनम्, अकाले वा भिक्षार्थ गमनम् । तत्र इमे वक्ष्यमाणाः भूयांसो दोषा भवन्ति, तथाहि-कदाचिन्मार्गोऽशोभनो भवेत् , भिक्षा वसतिरपि न सुलभा भवति, स्वपक्षपरपक्षेभ्योऽपमानं भवति, भिक्षार्थ निषिद्धगृहे गच्छतः शास्त्रस्य-जिनप्रवचनस्य निन्दा भवति, पृथिवीकायिकादीनां जीवानां विराधना भवति। एवं निष्कारणं गच्छता षड्जीवनिकायानां विराधना क्रियते-इति संयमविराधना भवति । कण्टयादिद्वारा पादे क्षतिर्भवतीत्यात्मविराधनाऽपि । सागारिकभयात् प्रमादेन वा परिश्रान्त उपधीनां प्रतिलेखनं न करोति, उपधीनां हरणं वा भवति । एवं भिक्षाकालातिक्रमणे ग्रामं प्राप्तस्तत्राऽनेषणीयमप्याहारं प्रहिष्यति । हिंस्रजन्तुना खादितः आत्मविराधनं प्राप्स्यति । एवं-समयातिक्रमे भिक्षार्थ गच्छतः पश्चात्कर्मदोषा अपि भवेयुः । इत्येते अकारणगमने दोषा आपद्यन्ते इति । सकारणं गमनं द्विविधम्-निर्व्याघाते व्याघाते च गमनम् । तत्र-निर्व्याघातगमनम्-ऋतुबद्धकरुपे बर्षाकल्पे वा समाप्ते क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनम् । तत्र द्वयोः कालयोर्मध्ये एकतरस्मिन्नपि काले मासकल्पप्रायोग्यानि क्षेत्राणि यो लक्ष्यति स प्रायश्चित्तभाक् । सम्प्रति व्याघातेन मासकल्पप्रायोग्यं क्षेत्रान्तरं संक्रामति, तत्र-व्याघातकारणमाह-अशिवादिगृहीतं क्षेत्रम् , तत्र स्वाध्यायादिकं सम्यक् न भवति, उपधिर्वा तत्र न प्राप्यते, आचार्यादिप्रायोग्यं वा नास्ति । एतादृशे कारणे व्याघातगमनं भवति । कारणविशेषमाश्रित्यैकस्मात् क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरं गच्छतो दोषो न भवति यस्मात् स तीर्थकराज्ञां नातिक्रामतीति । अत्र सकारणानामधिकारः । निष्कारणं गच्छतां तु दोषो भवत्येव । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विहारं कुर्वतां संस्तव-इत्थं भवति ॥ सू० ३९॥
पुनराह भाष्यकारः --- भाष्यम्- कुलसंथवो य तेसिं, गिहत्थधम्मे तहेव सामण्णे ।
पुण एक्केको दुविहो, पुव्वं पच्छा य णायव्वो ॥ छाया–कुलसंस्तवश्च तेषां गृहस्थधर्मे तथैव श्रामण्ये ।
पुनरेकैको द्विविधः पूर्व पश्चाच्च ज्ञातव्यः ॥ अवचूरिः-'कुलसंथवो' इत्यादि । तेषाम् पूर्वोक्तप्रकारेण विहारं कुर्वतां भिक्षणां संस्तवः द्विविधो-द्विप्रकारको भवति । तत्र-संस्तवो नाम परिचयः, स च द्विधा भवति-गृहि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४० अन्यतीथिकादिसहभिक्षार्थगमननिषेधः ५९ धर्मे-गृहस्थे १, श्रामण्ये-साधुपर्याये च २। स च गृहिधर्मे स्थितस्य परिचयो द्विधा द्विप्रकारकःपूर्वसंस्तवः १, पश्चात्संस्तवः २ । तत्र-पूर्वसंस्तुताः परिचिताः-पितृ-मातृ-प्रभृतयः, पश्चात्संस्तुताः परिचिताः श्वशुर-श्वश्रूप्रमृतयः ।।
एवं श्रामण्ये स्थितस्य परिचयः पूर्वसंस्तुतः पश्चात्संस्तुतः । अथ साधूनां पूर्व विहारसमये ये परिचितास्ते पूर्वसंस्तुताः। ये वर्तमानविहारकाले संस्तुतास्ते पश्चात्संस्तुताः । एतेषां पूर्वसंस्तुत-पश्चात्संस्तुतानां श्रावकादीनां गृहे यः साधुः प्राप्तभिक्षाकाले प्रविशति, अथवा व्यतिक्रान्तभिक्षाकाले प्रविशति तस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिदोषाः सम्भवन्ति, तथा संयमविराधना आत्मविराधना च भवति । तत्र संयमविराधना चेत्थम्-अकाले भिक्षार्थ परिभ्रमन्तं-गेहाद्गेहान्तरं गच्छन्तं साधुं दृष्ट्वा पूर्वसंस्तुताः पश्चात्संस्तुता वा श्रावकादयः उद्गमादिदोषयुक्तमाहारं निष्पादयिष्यन्ति, अतोऽकाले भिक्षार्थ तत्र साधुभिर्न गन्तव्यम् इति । अनाभोगादिकारणवशात्तु अकालेऽपि श्रावककुले प्रवेशो न निषिद्धः । यद्वा ग्लानाद्यर्थमकालेपि प्रविशेत् । यद्वाआकस्मिके विषूचिकादिरोगे समुपस्थिते पूर्वसंस्तुतादिकुलं प्रविशति । यद्वा यस्मिन् काले राज्ञा गमनं निवारितं 'कफ्य' इति प्रसिद्धम् , तत्समये यदि चलिष्यति तदा द्रक्ष्यति राजपुरुषः, इतिकृत्वाऽकालेऽपि चलति यदि तदा तादृशो दोषो न भवति श्रमणानाम् । अका. रणे पूर्वसंस्तुतादिगृहं वेलातिक्रमेण यदिं गच्छति तदा सूत्रप्रतिपादितं प्रायश्चित्तं भवत्येवेति भावः ॥ सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमइ वा अणुप्पविसइ वा, णिक्खमंतं वा अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ॥ सू०४०॥
छाया-यो भिक्षुः अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पारिहारिको बा अपारिहारिकेण सार्धम् गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया निष्कामति वा-अनुप्रविशति वा निष्क्रामन्तं वा-अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४०॥
___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययुथिकेनाऽन्यतीर्थिकेन, 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा 'पारिहारिओ वा' पारिहारिको वा-मूलो. त्तरगुणधारी परिहारतपोवाहको वा भिक्षुः 'अपारिहारिएण' अपारिहारिकेण-अपारिहारिको मूलोत्तरगुणदोषयुक्तः पार्श्वस्थादिस्तेन 'सद्धिं' सार्धम्-युगपदेकत्रेत्यर्थः 'गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम् , गाथा-गृहं तस्य पतिः गाथापतिः गृहस्थः, तस्य कुलं प्रति 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया भिक्षाग्रहणबुद्धया 'णिक्खमई' निष्क्रामति-भिक्षां नीत्वा गृहस्थगृहात् निर्ग
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निशीथसूत्रे च्छति 'अणुप्पविसइ वा' अनुप्रविशति-भिक्षार्थ गृहस्थगृहे प्रवेशं करोति । 'णिक्खमंत वा' निष्क्रामन्तं बहिरायान्तम्, 'अणुप्पविसंत वा' अनुप्रविशन्तम् , 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४० ॥
अत्राह भाष्यकारः - भाष्यम्-नो कप्पए य भिक्खुस्स, अण्णुत्थिय-गिहत्थिहिं ।
तहेव पारिहारिस्स, तविपक्खेण केणवि ॥ सद्धिं णिक्खमिउं णिच्चं, पविसित्तुं तहेव य ।
णिक्खमणं पवेसं चे, जो करे दोसवं भवे ॥ छाया-नो कल्पते च भिक्षोः, अन्ययूथिकगृहस्थैः ।
तथैव पारिहारिणः, तद्विपक्षेण केनापि ॥ सार्द्ध निष्क्रमितुं नित्यं, प्रवेष्टुं तथैव च ।
निष्क्रमणं प्रवेशं चेद् यः कुर्याद् दोषवान् भवेत् ।। अवचूरिः-'नो कप्पए' इत्यादि । भिक्षोः श्रमणस्यान्यतीर्थिकैः गृहस्थैर्वा, तथा पारिहारिकस्य मूलोत्तरगुणयुक्तस्य तद्विपक्षेण अपारिहारिकेण मूलोत्तरगुणदोषवता पार्श्वस्थादिना सार्थ गृहिगृहे भिक्षार्थ निष्क्रमितुं प्रवेष्टुं वा न कल्पते नैव कथमपि युज्यते । एतैः सह निष्क्रमण प्रवेशनं च कुर्वतः साघोः पारिहारिकस्य चाधाकर्मिकादिदोषाः समापद्यन्ते । यः कोऽपि भिक्षुः पारिहारिकश्च यदि एतैः सह निष्क्रमणं प्रवेशं च कुर्यात् तदा स आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवति । सूत्रे 'गाहावइकुलं' इति पदं, तस्याऽयमर्थः-गाथा-गृहं तस्य पतिः-स्वामी, दारापत्यादिसमुदादायविशिष्टो गृहस्थः, तेषां कुलं-समूहः ।
तत्र-'पिंडवायपडियाए' इत्यस्य व्याख्या-पिण्डोऽशनादिकम् , तस्य गृहिणा दीयमानाss. हारस्य पातः ससत्कारं साधवे समर्पणम् , तस्य प्रतिज्ञया मध्यस्थभावेन ग्रहणबुद्धया । तथा 'अणुप्पविसई' तस्याऽयमर्थः-अनु--पश्चात् चरकादिषु भिक्षामादाय गतेषु । अथवा-भोजनकालतः पश्चात् भोजनकालसमाप्त्यनन्तरम् , एवमनुशब्दः पश्चायोगे प्रसिद्धः, भिक्षुः पारिहारिकश्च प्रविशतीत्यर्थः । गृहि-परतीथिकाऽपरिहारिकाऽन्यतमेन सह प्रविशतः श्रमणस्य पारिहारिकस्य च-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनाऽऽत्मविराधनादिका दोषा भवन्ति ।
तथा-परिव्राजकादिभिः सह भिक्षार्थ गमने प्रवचनस्य निन्दा भवति । लोको वदतिपरिव्राजकादिप्रसादाल्लभ्यते भिक्षादिकम् , स्वयं न लभ्यते असारवचनप्रवृत्तत्वात् । अथवालोको वदेद्-अलब्धिमन्त एते जैनभिक्षुकाः परभवेऽदत्तदानाः आत्मानं न जानन्ति, अत एभिः सह परिभ्रमन्ति तस्मात् कारणाद एभिः सह न गन्तव्यम् ॥ सू० ४०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४१ अन्यतीर्थिक दिसहविचारभूम्यादिगमननिषेधः ६१
सूत्रम् — जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धि बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा णिक्खमइ वा पविसइवा, णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१ ॥
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छाया - यो भिक्षुः अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पारिहारिको वा अपारिहारिकेण सार्द्ध बहिर्विचारभूमिं वा विहारभूमिं वा निष्क्रामति वा प्रविशति बा, निष्कामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ।। सू० ४९ ॥
1
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अण्णउत्थि एण वा' अन्ययूथिकेन वा परतीर्थिकेन 'गारत्थिएण वा' गृहस्थेन वा, तथा पारिहारिको वा अपारिहारिकेण मूलोत्तरगुणदोषवता पार्श्वस्थादिना 'सद्धि' सार्धम् एकत्र मिलित्वा 'बहिया' बहि: - 'वियार - भूमिं वा' विचारभूमिं वा तत्र - विचारः मूत्रपुरीषादिसमुत्सर्गः, तदर्थं योग्या या भूमि: सा विचारभूमिः, तां विचारभूमिम्, 'विहारभूमिं वा' विहारभूमिम्, स्वाध्यायभूमिः विहार भूमिः, तां विहारभूमिम् 'णिक्खमइ वा' निष्क्रामति 'पविसइ वा' प्रविशति विचाराद्यर्थं गच्छति वा । 'णिक्खमंतं वा' निष्क्रामन्तं वा 'पविसंतं वा' प्रविशन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग्भवति ॥ सू० ४१॥
अत्राह भाष्यकारः ---
भाष्यम् - भिक्खुस्स नेव कप्पे, गंतुमण्णुत्थियाइहिं । : सर्द्धि चारितपालस्स, वियारहं कयाइवि ॥
1
छाया - भिक्षोर्नैव कल्पते गन्तुमन्ययूथिकादिभिः । सार्द्धं चारित्रपालस्य विचारार्थ कदाचिदपि ॥
अवचूरि : - ' भिक्खुस्स' इत्यादि । यो हि भिक्षुः चारित्रपालकः चारित्रस्य पालने सदा यतनावान् भवति तस्य भिक्षोः विचारार्थं मूत्र - पुरीषायुत्सर्जनाय संज्ञाभूमिम् उपलक्षणाद् विहारभूमिं वा गन्तुम् - अन्ययूथिकादिभिः सह अर्थात् अन्ययूथिकैः परतीर्थिकैः शाक्यभिक्षुक - चरकपरिव्राजकैः सह आदिपदात् - गृहस्थैः, पारिहारिकस्य च अपरिहारिकैः सह गन्तुं न कल्पते । एतेषु गृहस्थपरतीर्थिकाऽपरिहारिकादिषु मध्यादेकतरेणाऽपि सह विचाराद्यर्थं चकारात् -विहाराद्यर्थ वा यो भिक्षुः पारिहारिको वा गच्छति तस्याऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्व संयमात्मविराधनादोषा भवन्ति । विचारभूभ्यां पुरुषाद्यागमने संलोकदोषः शङ्का च लोकानां भवेत् । मप्रवर्त्तने मूत्रपुरीषादिनिरोधाद् रोगादिसंभवः । उक्तं च केनचित्क विना राजसमीपे -
त्रयः शल्याः महाराज !, अस्मिन् देहे प्रतिष्ठिताः ।
वायुमूत्रपुरीषाणां प्राप्तं वेगं न धारयेत् ॥ १॥
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निशोथसूत्र वायोः-अघोवातस्य पुरीषस्य च वेगधारणे मस्तकादिरोगोत्पत्तिः । मूत्रवेगधारणे नेत्रहानिः, अतो नैतेषां प्राप्तं वेगं धारयेत् । स्थानमार्गादिपरिचयाभावरूपे सति कारणे पुनर्गच्छेदपि गृहस्थादिभिः सह विचाराद्यर्थम् || सू० ४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ अपारिहारिएण सद्धिं गामानुगामं दूइज्जइ दूइज्जंतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पारिहारिकोऽपारिहारिकेण सार्द्ध प्रामानुग्रामं द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'अण्णउत्थिएण वा अन्ययूथिकेन 'गारथिएण वा' गृहस्थेन तथा 'पारिहारिओ वा' पारिहारिको वा 'अपारिहारिएण' अपारिहारिकेण 'सद्धि' सार्द्धम् ‘गामाणुगाम' प्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरम् 'दूइज्जइ' द्रवति-गच्छति विहारं करोतीत्यर्थः । 'दूइज्जत वा साइज्जइ' द्रवन्तं-गच्छन्तं स्वदतेऽनुमोदते । स्वयमन्यतीर्थिकादिभिर्मामाद्नामान्तरं गच्छन् गच्छन्तमनुमोदमानश्च प्रायश्चित्तभागभवति ॥ सू० ४२॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-गामाणुगामं भिक्खुस्स, गमणं नेव कप्पइ ।
___ अणुत्थियाइलोगेहि, सद्धिं तस्स कयाइवि ॥ छाया-ग्रामानुग्रामं भिक्षोः गमनं नैव कल्पते ।
___ अन्ययूधिकादिलोकैः सार्द्ध तस्य कदाचिदपि ॥
अवचूरिः-'गामाणुगाम'-इत्यादि । भिक्षोः पारिहारिकस्य च चारित्रपालकस्य अन्ययूथिकादिलौकैः, आदिशब्देन गृहस्थैः अपारिहारिकैश्च सार्द्ध प्रामानुग्राम-एकस्माद् प्रामाद ग्रामान्तरं गमनं तस्य कदाचिदपि नैव कल्पते । एषु-अन्यतमेन येन केनाऽपि सह ग्रामानुग्राम विहरतः साधोराज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादिदोषा भवन्ति । तत्र-परतोर्थिकादिभिः सह गमने तीर्थकराणामाज्ञा भप्रा भवति, तीर्थकरैस्तैः सह गमनस्य निषिद्धत्वात् । अनवस्था च भवति-एकस्तथा कुर्यात् तदा तं दृष्ट्वाऽन्योऽपि कुर्यात् , एवमन्योऽपीति-एवमनवस्था । तथा-तादृशैः सह गमनं कुर्वन्तं साधुं दृष्ट्वा द्रष्टुमनसि अश्रद्धा भवेत् , यद् इमे जैनभिक्षवोऽपि शिथिलाचाराः सन्तीति । तद्वा श्रवणादिना मिथ्यात्वमपि समुत्पद्येत । तथा-तैः सह यत्र तत्र वा आधाकर्मिकाद्याहारं भुञ्जन् संयमं विराधयेत् । तथा-चौरोऽयमिति कृत्वा ताडनभेदनादिसंभवाद्--आत्मविराधनमपि संभवेदिति ॥ सू ० ४२॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४३-४४ दुरभिकषायभक्तपानपरिष्ठापननिषेधः ६३
सूत्रम्-जे भिक्खू अन्नयरं भोयणजायं पडिग्गाहित्ता सुभि भुंजइ दुभि परिहवेइ, परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू० ४३ ॥
छाया-यो भिक्षुः अन्यतरत् भोजनजातं प्रतिगृह्य सुरभि भुङ्क्ते दुरभि परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अन्नयरं भोयणजायं अन्यतरद् भोजनजातम्-अनेकप्रकारकं खादिमस्वादिमादिभेदभिन्नं विविधं भोजनजातं भक्तादिकम् 'पडिम्गाहित्ता' प्रतिगृह्य, यदि श्रावकादिगृहादनेकप्रकारकं सुस्वादु दुःस्वादु वा भोजनादिकमानीय तन्मध्यात् 'मुभि मुंबई' सुरभि मनोज्ञं विशिष्टवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्तं भोजनं भुङ्क्ते । दुभि परिहवेइ' दुरभि-दुरभिगधन्युक्तं दुर्वर्ण-प्रशस्तवर्णरहितं दूरसं-प्रशस्तरसवर्जितं दुःस्पर्श-प्रशस्तस्पर्शहीनं भोज्यं परिष्ठापयति-गादिषु प्रक्षिपति, 'परिहवेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः श्रावकगृहादानीताहारमध्यात् सुस्वादूद्धृत्य भुङ्क्ते, दुःस्वादु परित्यजति, एवं कुर्वन्तमनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४३ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-वण्ण-गंध-रसेहिं जं, फासेहिं भोयणं जुधे ।
मुभि तं चेव जाणिज्जा, इयरं इयरं हवे ॥ छाया-वर्ण-गन्ध-रसैर्यत्-स्प®भोजनं युतम् ।
___ सुरभि तदेव जानीयात् इतरदितरद् भवेत् ॥
अवचूरिः--'वण्ण-गंध' इत्यादि । यद्भोजनं भोक्तुं योग्यमोदनादिकम् , विलक्षणवर्णेन-श्वेतादिना, विलक्षणेन गन्धेन-सौरभ्यादिना भोजनोपयुक्तेन, मनोज्ञेन-रसेन मधुरादिना, मनोज्ञस्पर्शेन-कोमलादिस्पर्शयुक्तेन, एभिर्वर्णादिभिर्युक्तं यद् भोजनं तदेव सुरभि विजानीयात् । एतादृशं भोजनं सूत्रघटकसुरभिव्यपदेशं लभते इत्यर्थः 'इयरं इयरं हवे' इतरदितरद्भवेत् , यद्भोजनमितरत्-पूर्वोक्तविलक्षणवर्णादिना नोपेतं तद् भोजनमिरतरत् , दुरभि-दुर्वर्णगन्धादियुक्तमिति ज्ञेयम् । अथवा-रसोपेतमपि भोजनं दुरभिगन्धयुक्तं न प्रशस्तम् , तथा-अरसालं-शुष्क भोजनं सुरभिगन्धयुक्तं सुरभि भवतीति । अत्र-सुरभि-दुरभि, एतदुभयप्रकारकमपि भोजनमेकतः प्रत्येक वा गृहीत्वा सुरभिभोजनं भुङ्क्ते, दुरभि च परिष्ठापयति, तस्यैवं कुर्वतो यतेः प्रायश्चित्तं भवति । तथा-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वात्मसंयमविराधनाः, यस्मादेते दोषा भवन्ति, तस्माद् दुरभिभोज्यस्य वस्तुनः पूर्व भोजनं कर्त्तव्यम् , तदनन्तरं सुरभिभोजनं कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ४३ ॥
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निशोथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू अन्नयरं पाणगजायं पडिग्गाहित्ता पुष्पगं-पुप्फगं आवियइ कसायं-कसायं परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू० ४४ ॥
छाया–यो भिक्षुः अन्यतरत् पानकजातं प्रतिगृह्य पुष्पकं पुष्पकं आपिबति, कषायं कषाय : परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४४ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अन्नयरं' अन्यतरत् अन्यतरपदग्रहणात्-अनेकप्रकारकम् , मधुररसयुक्तं कषायरसयुक्तं च, खण्ड-गुड-शर्करा-दाडिमी- मृद्वीकाऽऽमलक-हरीतकी-चिञ्चादिरसरूपं द्वयमपि 'पाणगजायं' पानकजातं, जातशब्दग्रहणात् प्रासुकं 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य-विधिपूर्वकं गृहीत्वा 'पुप्फगं-पुप्फगं आवियइ' पुष्पकं पुष्पकमापिबति, तत्र-पुष्पकं- शुभवर्ण-गन्ध -रसस्प : प्रधानम् अच्छं मनोज्ञमित्यर्थः । एतादृशमुत्तमोत्तम पानकजातमापिबति, तथा-'सायं-कसायं' कषायं कषायं कलुषितं शुभवर्ण-गन्ध-रस स्पर्शः प्रतिलोमं-कलुषितमप्रधानं वा पानकजातम् 'परिद्ववेई' परिष्ठापयति-भूमौ निक्षिपति ।
उक्तञ्च पुष्पककषायविषयेयच्च गन्धरसोपेत-मच्छं तत् पुष्पकं भवेत् ।
दुर्गन्धमरसं यच्च, कषायं कलुषं च तत् ॥१॥ इति ।
अनेकप्रकारकानीतपानकमध्यात् यत्समीचीनं तत्पिबति, यच्चाऽसमीचीनं तनिक्षिपति । 'परिहवेत वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ।
साधुलक्षणमेतत् तथाहि
मा भूयासमहं साधुः, प्रायश्चित्ती कदाचन । मन्यते सोऽसमीचीनं, भुक्त्वा भुङ्क्ते तथेतरत् ॥१॥ अत्र भाष्यकारोऽप्याहभाष्यम् - वण्ण-गंध-रसोवेयं, दव्वं तं पुप्फनामगं ।
दुन्भिगंधाइसंजुत्तं, कसायं तं हवे पुणो ॥ कसायं पुव्वमापेज्ज, पुप्फगं तयणंतरं ।।
एसा सत्यविही वुत्ता, अणंतवरनाणिहिं ॥ छाया-वर्ण-गंध-रसोपेतं द्रव्यं तत्पुष्पनामकम् ।
दुरभिगन्धादिसंयुक्तं कषायं तद् भवेत्पुनः ॥ कषायं पूर्वमापेयं पुष्पकं तदनन्तरम् । पष शास्त्रविधिः प्रोक्तः अनन्तवरशानिभिः॥
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चूर्णिभाग्यावचूरिः उ० २ सू०४५ सांभोगिकपृष्छां विनाऽधिकाहारपरिष्ठापननिषेधः ६५
अवरिः - 'वण्णगंध' इत्यादि । यत्पानकनातं वस्तु, वर्ण-गन्ध-रसोपेतं-सुवर्णेन सुगन्धेन सुरसेन मधुरादिना युक्तं भवेत् तद्-द्रव्यं पुष्पसंज्ञकं भवति । तथा-यपानकजातं दुर्गन्धादि. विशिष्टं दुर्वर्णेन कुत्सितगन्धेन कुरसेन कठोरस्पर्शेन युक्तं सत् कषाय-कलुषितं भवेत् । तत्र कषायं पानकजातं पूर्वमापेयं, तदनन्तरं पुष्पकं पिबेत् , एष शास्त्रविधिः अनन्तवरज्ञानिभिस्तीर्थकरैरुक्तः, अतः पुष्पकं कषाय चैतद्वयमप्यानीय यत्पुष्पकं तत् पीत्वा यत्कषायं तस्य परिष्ठापनं न कुर्यात् , किन्तु प्रथमं पुष्पकं पीत्वा पश्चात् कषायं पिबेत् । उक्तञ्च -
शास्त्रकर्तुश्च मर्यादा, कषायं प्रथमं पिबेत् ।
आशाभङ्गादिकान् दोषान् पश्यन् पश्चात्तु पुष्पकम् ॥१॥ अन्यथा प्रायश्चित्तभाग् भवेत् ॥ सू० ४४ ॥
सूत्रम्---जे भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिग्गाहेत्ता बहुपरियावन्नं सिया अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया संता परिवसति ते अणापुच्छिय अणिमंतिय परिट्ठवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥
__छाया–यो भिक्षुर्मनोझं भोजनजातं प्रतिगृह्य बहुपर्यापन्नं स्यात् अदूरे तत्र सार्मिकाः सांभोगिकाः समनोज्ञा अपरिहार्याः सन्तः परिवसन्ति तान् अनापृच्छय अनिमन्त्र्य परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४५॥ ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मणुण्णं भोयणजायं' मनोज्ञं भोजनजातम्-शुभ-वर्ण-गंध-रस-स्पर्श समन्वितमुत्तमभोजनजातम् अनेकप्रकारकमाहारादिकम् 'पडिम्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य-आनीय भुक्ते । तच्च यदि 'परियावन्न सिया' पर्यापन्नं स्यात्-प्रयोजनतोऽधिकं भवेत् 'अदूरे तत्थ साहम्मिया' अदूरे तत्र-न दूरमदूरम्-आसन्नम् क्रोशद्वयान्तरावधौ ग्रामादौ साधर्मिकाः-समानधर्माचरणशीलाः साधवः 'संभोइया' सांभोगिकाः, यैः सहकमण्डल्यामाहारादिकं कर्तुं कल्पते तथाविधाः साधवः 'समणुन्ना' समनोज्ञाः उद्यतविहारिणः, एतादृशाः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टाः सन्तोऽपि सातिचारत्वेनाऽदेयाहारा भवेयुस्तत्राह-'अपरिहारिया' अपरिहार्याः, निरतिचारचारित्रत्वेनापरित्याज्याः, निरतिचारा इत्यर्थः । एतादृशाः साधवो यथासन्ने 'संता' सन्तः विद्यमानाः 'परिवसंति' क्रोशद्वयपरिमिते ग्रामादौ तिष्ठन्ति तदा 'ते अणापुच्छिय' तान्-अनापृच्छयाऽपृष्ट्वा 'अणिमंतिय' अनिमन्त्र्य, तेषां निमन्त्रणमकृत्वा, 'मत्सविधे-एतावदधिकं जातं, तस्य यदि भवतां प्रयोजनं भवेत्-तदा-गृहन्तु भवन्तः' एवंप्रकारेण तेषामामन्त्रणमकृत्वा अपृष्ट्वेत्यर्थः यदि 'परिहवेति' परिष्ठापयन्ति, यद्वा 'परिहवतं साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ।। सू० ४५ ॥
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निशीथस्ये
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अत्राह भाप्यकार:भाष्यम्-जावइयं उवजुत्तं, गिण्हेज्जा तावमेत्तमसणाइ ।
साहुस्स अहियगहणे, दोसा लोमाइणो होति ॥ छाया-यावत्कमुपयुक्तं गृह्णीयात् तावन्मात्रमशनादि ।
साधोरधिकग्रहणे दोषा लोभादयो भवन्ति ॥ अवचूरिः-'जावइयं उवजुत्तं' इत्यादि । साधूनां यावन्मात्रमुपयुक्तमाहारादिकं स्यात् तावन्मात्रमाहारं गृह्णीयात्-श्रावकगृहादानयेत् न तु ततोऽधिकग्रहणं कुर्यात् , प्रमाणादधिकाहारग्रहणे साधोः पुनर्लोभादयो दोषा भवन्ति । तथाहि-प्रमाणतो यावदेवोपयुक्तं तावन्मात्रमेवाहारादिकं गृह्णीयात् । अधिकग्रहणे लोभदोषः । तथा-तस्य परिष्ठापने परिष्ठापनादोषः । आज्ञाभङ्गादिकाश्चाऽपि दोषाः, तत्र-एकेन्द्रियादीनां विराधनात् । अधिकभोजनकरणे विषूचिकादयो रोगाः इत्यात्मविराधनम् , यस्मादेते दोषाः तस्मात् कारणात् प्रमाणादधिकमाहारादिकं न ग्रहीतव्यम् । मत्र शिष्यः प्राह-हे गुरो ! यदि प्रमाणयुक्तमेवाहारादिकं प्रहिष्यति तदा-अधिकं न भवति, अथ-यदि अधिकम् तदा प्रमाणतो ग्रहणमिति वाक्यं निरर्थकम् , एवं परस्परविरोधे सूत्रं निरर्थकमेव भवति ? आचार्यः प्राह-सूत्रं सार्थकमेव न निरर्थकम् । तथाहि-यत्र प्रामे नगरे वा बहूनि श्रावककुलानि-अतिभावयुक्तानि सन्ति, तत्र भिक्षार्थ गतस्य साधोमनोज्ञमितिकृत्वा तैर्मावतोऽधिकं पात्रे निपातितं भवेत् . तच्च साधुरानीतवान् , एवमधिकं भवेदिति । तत्र यदधिकं तद् यदि कोशद्वयदूरे सांभोगिकसाधूनां निवासो भवेत् तदा तेषामावश्यकतायां तत्र गत्वा दद्यात् । तत्र प्रच्छनेऽयं क्रमः-यदि कृतेऽपि भोजनेऽधिकमवशिष्ट आहारो भवेत् तदा-प्रथमतः स्वग्रामे स्वकीये उपाश्रये च ये सांभोगिका भवेयुस्ते पूर्व प्रष्टव्याः । यदि ते न स्वीकुर्युः तदा स्वग्रामेऽन्योपाश्रये ये भवेयुस्ते सांभोगिकाः प्रष्टव्याः, यदि स्वीकुर्युस्तदा तेभ्यो देयम् । अथ यदि ते न स्वीकुर्युस्तदा स्वक्षेत्रेऽन्यग्रामे प्रष्टव्याः, ते यदि स्वीकुर्युस्तदा सम्यक् । नो चेत् , तदा स्वक्षेत्राद्वहिरन्यनामे किन्तु क्रोशद्वयाभ्यन्तरे यदि सांभोगिका भवेयुस्ते प्रष्ठव्याः, एवं क्रमशः साधवः प्रष्टव्याः एवमनापृच्छयैव यद्यधिकमाहारं साधुः परिष्ठापयेत्तदा-आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवतीति ।।सू० ४५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियं पिंडं गिण्हइ, गिण्हतं वा साइज्जइ ।। छाया-यो भिक्षुः सागारिकं पिण्डं गृह्णाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४६ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियं पिंडं' सागारिकं पिण्डं, तत्र-सागारिकः-उपाश्रयाधिपतिः साधोः स्थानदाता शय्यातरो गृहस्थः, तस्य
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ४६-४८ सागारिकपिण्डग्रहणोपभोगाशातत्कुलप्रवेशनि० ६७ पिण्डं भक्तादिकम् 'गिण्हइ' गृह्णाति-स्वीकरोति 'गिण्हत वा' गृह्णन्तं वा-स्वीकुर्वन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ४६ ॥
संप्रति सागारिकस्य षड् द्वाराणि प्राहभाष्यम्--सागारियस्स दाराणि, अणेगाणि हवं ति खु ।
ताई सव्वाई जाणंतु, जहासत्थं वियक्खणा ॥ छाया-सागारिकस्य द्वाराणि अनेकानि भवन्ति खलु ।
तानि सर्वाणि जानन्तु यथाशास्त्र विच क्षणाः ॥ अवचूरिः--'सागारियस्त' इत्यादि । सागारिकस्य-शय्यातरस्य द्वाराणि अनेकानिअनेकप्रकारकाणि भवन्ति, तानि सर्वाणि यथाशास्त्रं-शास्त्रप्रतिपादितप्रकारेण विचक्षणाः-बुद्धिमन्तो जानन्तु । सागारिकस्य सप्त द्वाराणि भवन्ति, अत्र तत्संग्राहक गाथाद्वयम् , तथाहि
"सागरिक इति को वा १, कदा शय्यातरो भवेत् २। कतिविधश्च तत्पिण्डः ३, अशय्यातरकः कदा ४ ॥१॥ त्याज्योऽसौ कस्य विज्ञेयो ५, दोषाः पिण्डग्रहे च के ६॥
अनेकेषु च तेषु स्यादेकः सागारिकः पुनः ७ ॥२॥” इति तथा च तदर्थः-कः पुनः सागारिकः शय्यातरो भवतीति प्रथमद्वारम् १, कदा स शय्यातरो भवतीति द्वितीयद्वारम् २, कतिप्रकारकः शय्यातरपिण्डः इति तृतीयाद्वारम् ३, अशय्यातरः स कदा भवतीति चतुर्थद्वारम् ४, स च कस्य त्याज्यो भवति, इति पञ्चमं द्वारम् ५, दोषाः पिण्डग्रहे च के, इति षष्ठं द्वारम् ६, अनेकेषु द्विवादिषु सागारिकेषु वा एको ग्रहीतव्यः, इति सप्तमं द्वारम् ७ । 'सागारिक इति को वा' इति प्रथमं द्वारमाह-तत्र-अगारेण गृहेण यत् सहितं तत्सागारं, तत्संयोगात् सागारिक इति, अस्य पन नामानि एकार्थकानि नानाव्यञ्जनानि सन्ति, तथाहि-सागारिकः १, शय्यातरः २, शयदाता ३, शय्याधरः ४, शय्याकरः ५, इति । तत्र सागारिकशब्दस्यार्थः पूर्वमुक्त एव १, साघवे शय्यादानेन भवं तरतीति शय्यातरः २, शय्यादाता-साधवे शय्यादानात् ३, शय्याधरः-साधवे शय्यादानेन धरति आत्मानं दुर्गतेरुद्धरतीति ४, शय्याकरः-यस्मात् शय्यां करोति तस्मात् शय्याकरः ५, इति । 'सागारिक इति को वा' इति प्रथमं द्वारम् १। 'कदा शय्यातरो भवेत्' इति द्वितीयं द्वारमाह-यस्मिन् काले वसतो वस्तुं यत्सकाशाद् आज्ञा गृह्यते स तस्मात्कालादेव शय्यातरो भवेदिति द्वितीयं द्वारम् २ । 'कतिविधश्च तत्पिण्डः' इति तृतीयं द्वारमाह-शय्यातरपिण्डो द्विविधो भवति आहारः-उपधिश्च । चतुर्विधो वा भवति,
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मिशीथसूत्रे अशन-पान-खाद्य-स्वाध-भेदात् । षइविधो वा भवति-अशनादयश्चत्वारः द्वौ उपधिविषयकोऔधिकोपधिः औपग्रहिकोपधिश्चेति तृतीयं द्वारम् ३ । 'अशय्यातरकः कदा' इति चतुर्थ द्वारमाहयदा-वसतिं परित्यज्य गृहस्वामिन आज्ञा परावर्त्य स्थानान्तरं करोति तदा-सोऽशय्यातरो भवतिइति चतुर्थं द्वारम् ४ । 'त्याज्योऽसौ कस्य विज्ञेयः' इति पञ्चमं द्वारमाह-साधुगुणवर्जितानां लिङ्गमात्रधारिणां यः शय्यातरो भवेत् , ते तस्य शय्यातरस्य पिण्डं गृह्णीयात् न वा गृह्णीयात् तथापि स शय्यातरः साधूनां त्याज्य एव भवतीति पञ्चमं द्वारम् ५ । 'दोषाः पिण्डग्रहे च के तस्य सागारिकस्य पिण्डग्रहणे के दोषा इति षष्ठं द्वारमाह-शय्यातरपिण्डस्तीर्थकरैः ऋषभादिभिः प्रतिषिद्धः तस्मात्-शय्यातरपिण्डो न ग्रहीतव्यः, इति षष्ठं द्वारम् ६ । 'अनेकेषु च०' इत्यादि, अनेकस्वामिकेषु वसत्यादिषु “एकस्यैवाज्ञा ग्रहीतल्या" इति सप्तमं द्वारम् ७। शय्यातरस्य सविस्तरवर्णनं दशवैकालिकसूत्रस्य मत्कृतायामाचारमणिमञ्जुषाव्याख्यायां विलोकनीयम् ॥ सू० ४६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ।सू०४७) छाया-यो भिक्षुः सागारिकपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४७॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियपिंडं' सागारिकपिण्डं शय्यातरस्य भक्तपानादिकम् 'मुंजइ' भुङ्क्ते-शय्यातरपिण्डस्योपभोगं करोतीत्यर्थः । भुजतं वा साइज्जइ' भुञ्जन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ४७।।
सूत्रम्--जे भिक्खू सागारियकुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुवामेव पिण्डवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥सू० ४८॥
छाया-यो भिक्षुः सागारिककुलमक्षात्वा-अपृष्ट्वा-अगवेषयित्वा पूर्वमेव पिण्डपातप्रतिक्षयाऽनुप्रविशति-अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियकुलं' सागारिककुलं-शय्यातरगृहम् , 'अजाणिय' अज्ञात्वा-किमिदं श्रावकस्य गृहम्-अन्यस्य वेति निश्चयमकृत्वा 'अपुच्छिय' अपृष्ट्वा-अमुकशय्यातरगृहं क्व वर्तते, इति समीपवर्तिश्रमणादिभ्यः पृच्छामकृत्वा 'अगवेसिय' भगवेषयित्वा-शय्यासरः कस्मिन् स्थाने वसति-इति गवेषणामकृत्वा । तत्र-- पूर्वदृष्टे पृच्छा, अपूर्वदृष्टे गवेषणा, इति पृच्छा-गवेषणयोर्भेदः । 'पुव्वामेव' पूर्वमेव-शय्यातरगृहादिगवेषणाकरणतः-प्रागेव 'पिंडवायपडियाए' पिंडपातप्रतिज्ञया, तत्र-पिण्डोऽशनादिकम् गृहिणा दीयमानस्याहारस्य पात्रे पातः प्रक्षेपो ग्रहणं, तस्य प्रतिज्ञया पिण्डग्रहणबुद्धयेत्यर्थः, 'अणुप्प
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०२ सू०४९ सागारिकनिश्रयाऽवभाष्य भिक्षायाचननिषेधः ६९ विसई' अनुप्रविशति शय्यातरमज्ञात्वा भिक्षार्थं निर्णयात्पूर्वमेव शय्यातरकुलं प्रविशति, 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
न दोषभागी प्रभवामि तस्माज्ज्ञात्वा च पृष्ट्वाऽथ गवेषयित्वा ।
ततो विशेत् श्रावकगेहमध्यं, मर्यादितः शास्त्रविलोकनेन॥१॥ इति ।। सू० ४१॥ सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४९॥
छाया-यो भिक्षुः सागारिकनिश्रया-अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिम वा-अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ४९॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियणीसाए' सागारिकनिश्रया, सागारिकः-श्रावकः, तस्य निश्रा-परिचयरूपा, तया 'अहममुकस्य वसतौ स्थितोऽस्मि' इति परिचयरूपया, अथवा स्वजनस्य कस्यचिद् गृहे शय्यातरं स्थितं दृष्ट्वा-'अयं मे भिक्षां दापयिष्यति' तदाश्रयेण 'असणं वा पाणं वाखइमं वा साइमं वा' अशनं पानं खाचं स्वाद्यम्-अशनादिचतुर्विधाहारं 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्यावभाष्य विशिष्टवचनरचनापूर्वकम् उच्चैःस्वरेण वदित्वा-वदित्वा 'जायइ' याचते याचनां करोति-कारयति । 'जायंतं वा साइज्जई' एवं प्रकारेण याचमानमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ।। सू० ४९॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सयणो सावगस्सायं, तत्थ दट्टण सावर्ग।
दावेज्जा एस मे भिक्खं,-तिकटु सोऽवभासइ । छाया-स्वजनः श्रावकस्यायं तत्र दृष्ट्वा तु श्रावकम् ।
दापयेदेष मे भिक्षा-मितिकृत्वाऽवभाषते ॥ अवचूरि:-'सयणो'- इत्यादि । श्रावकस्य प्रतिष्ठितोदारचित्तस्य यः स्वजनः आत्मीयो जनः स यत्र प्राङ्गणादौ तिष्ठति, तत्र प्राङ्गणे श्रावकं शय्यातरश्रावकं दृष्ट्वा एष मह्यमस्मात्परिजनसकाशाद् भिक्षां दापयेत् , इतिकृत्वा तन्निश्रयोच्चैःस्वरेण तमेव सागारिकभवभाषते १, तव स्वजनोऽयमतस्त्वं दापय एतस्मादशनादिकम् २, यद्वा-सागारिकस्य-पूर्वपश्चास्संस्तुतस्य निश्रायां भाषते-यद्स्यैव गौरवेणायं मे भिक्षां दास्यतीति तं वाऽवभाषते ३, मम चारित्राचारसंपन्नस्य प्रभावेण वा दापय ४ । एभिश्चतुभिरपि प्रकारैयों भिक्षुरशनादिकमवभाष्य
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निशीथसूत्रे
याचते, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथा - पूर्वपश्चात्संस्तुते उद्गमैंषणादिदोषा भवन्ति, एवमुद्गमादिदोषाः श्रावकेऽपि भवन्ति । तथा पूर्वपश्चात्संस्तुतेऽपि एते दोषाः- ये श्रावकस्य पूर्वपश्चात्संस्तुतास्ते परगृहेषु - अवभाषमाणा एवं कुर्युः:- एष नित्यमस्माकमेव गृहे तिष्ठतीति कृत्वा, उद्गमादिदोषदुष्टमप्यशनादिकं करिष्यन्ति परुषादिकं च वदेयुः । यस्मादिमे दोषा भवन्ति तस्मात्सागारिकनिश्रया पूर्वपश्चात्संस्तुतस्य सागारिकस्य निश्रया वा श्रावक कुलेऽवभाण्याऽवभाष्याशनादीनां याचना न कर्त्तव्या । सागारिक स्याहारादिग्रहणं प्रागेव निषिद्धं पुनरत्र सागारिकनिश्राघटकस्य सागारिक शब्दस्य कोऽर्थः ? इत्यत आह-अत्र सागारिकशब्देन सामान्यो गृहस्थो बोध्यः || सू० ४९ ॥
सूत्रम् —— जे भिक्खू उउबद्धियं सेज्जासंथारगं परं पज्जोवसणाओ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५० ॥
छाया - यो भिक्षुः ऋतुबद्धकं शय्यासंस्तारकं परं पर्युषणातः अतिक्रामयति अतिकामयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५० ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उउबद्धियं सेज्जासंथारगं' ऋतुबद्धकम् - ऋतुबद्धकालसम्बन्धि शय्यासंस्तारकम् पीठफलकतृणादिकं, शय्या च संस्तारकश्च, अनयोः समाहारे शय्यासंस्तारकम् तत्र शय्या शरीरप्रमाणा, संस्तारकः सार्द्धहस्तद्वयप्रमाणः । ऋतुबद्धे - मार्गशीर्षाद्याषाढपर्यन्ताष्टमासात्मके शेषकाले गृहीतं शय्यासंस्तारकम् शेषकाले समानीतं शय्यासंस्तारकं 'परं पज्जोवसणाओ' पर्युषणातः परं संवत्सरीदिनतः परम् 'उवाइणावे ' अतिक्रामयति उल्लङ्घयति यस्माद् गृहोतं तस्मै य: समर्पणकालस्तमुल्लङ्घयति, ऋतुबद्धकालगृहीतशय्यासंस्तारकं गृहस्थाय न समर्थ पर्युषणानन्तरं तस्योपभोगं करोतीत्यर्थः, अतिकामयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । संवत्सरीदिनतः प्रागेव तद् भोक्तव्यम्, संवत्सरीदिने तत् तत्स्वामिने समर्पणीयमेवेति भावः । यदि तस्योषभोगकारणं स्यात् तदा तदुपभोगाय तत्स्वामिन आज्ञा पुनर्ग्रहीतव्येति विवेकः ॥ सू०५० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथारयं परं दसरायकप्पाओ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ || सू० ५१ ॥
छाया - यो भिक्षुः वर्षावासिकं शय्यासंस्तारकं परं दशरात्रकल्पात् अतिक्रामयति अतिक्रामयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५१ ॥
चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः वासावासियं' वर्षावासिकं वर्षाकाले उपभोगार्थमानीतम् तत् - 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकम् वर्षाकाले व्यतीतेऽपि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ५०-५३ शय्यासंस्तारकस्य प्रत्यर्पणसंरक्षणादिविधिः ७१ बर्षादिकारणगौरवात् पञ्चदशरात्रपर्यन्तं व्यवहर्तुमुपभोक्तुं शक्नोति कथञ्चित्, किन्तु - ' परं दसरायकपाओ' परमधिकं दशरात्रकल्पात् यदि - 'उवाइणावेइ' अतिक्रामयति-उल्लङ्घयति 'उवाइणावेंतं वा साइज्जइ' अतिक्रामयन्तं वा यो यदा स्वदतेऽनुमोदते स तदा प्रायश्चित्तभाग् भवति । शय्या संस्तारकं द्विविधं भवति - परिशाटि अपरशाटि च । तत्र - कुशतृणादिनिर्मितस्य यस्योपभोगकाले कश्चिदंशः परिशटति - नश्यति तत् परिशाटि, यस्य च वंशकाष्ठादिनिर्मितस्योपभोगकाले किञ्चिन्मात्रोऽप्यंशो न परिशटति - न नश्यति तदपरिशाटि - इति बोध्यम् । परिशाटि च साधूनां नो कल्पते यतस्तद्ग्रहणे अनेके जीववधादयो दोषाः, तेन च संयमात्मविराधना भवति । परिशटितपीठफलकादिषु शुषिरस्थितजीवानां विराधना भवति, शटितं तत् त्रुट्यति तदा आत्मविराधनाऽपि भवति । तथा--आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्व संयमात्मविराधनं च भवति । तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गस्तैर्निषिद्धत्वात्, अनवस्था च-अन्यान्यकरणसंभवात्, लोके - मिध्यात्वमपि जायते जीवविराधकवस्तूपभोगात् । संयमविराधनमित्यम्-- शुषिरादिषु कुन्धुकादिसुक्ष्मजीवाः संमूच्छिता भवन्ति । तत्र परिशाटिशय्या संस्तारकमास्तीर्य स्वपतः कुन्थुकादिजीवा विराधिता भवेयुरिति संयमविराधनम् । तथा--अन्येऽपि बहवो जीवाः पिपीलिकादयः वर्षायां शुषिरे संमूच्छिता भवन्ति इत्येवमपि संयमविराधनम् । आत्मविराधनं चेत्थम् - वर्षायां तत्र शयने कृते शुषिरे स्थितः सर्पादिर्दशति - इत्यात्मविराधनम्, तत्र शुषिर सद्भावात् पनक: ( लीलनफूलन) अपि संमूर्च्छितो भवति । एते प्राणविघातकादयो दोषाः । तथा तद्गन्धादुपधौ यूकादिजीवा भवन्ति । इत्यादयो दोषाः परिशा टिशय्या संस्तारकग्रहणे भवन्ति ।
यस्मादेते दोषाः तस्मात् - - कारणात् वर्षाकाले परिशाटि शय्या संस्तारकं ग्रहीतव्यम् । तदपि विधिपूर्वकं ग्रहणं कर्त्तव्यम् । यदा खलु पीठफलकादिकं लभ्यते-- तदैवं वक्तव्यम् -- भोः श्रावक ! अस्य शय्यासंस्तारकस्योपभोगानन्तरं पुनरर्पयिष्यामेि प्रातिहारिकं च ग्रहिष्यामि नियमतोऽमुकेन कालेनाऽर्पयिष्यामि । यद्येवं श्रावकः स्वीकरोति तदा ग्रहीतव्यम् । अथ यदि कदाचिदेवं न स्वीकरोति श्रात्रकः तदाऽन्यदेव संसारकादिकं मार्गयितव्यम् । यदि गृहीतं च शय्यासंस्तारकादिकं नेतु न शक्यते तदा-- छन् प्रदेशे स्थापयितव्यम् येन वर्षाजलेन प्लावितं न भवेत् । एवं दाता ( श्रावकः ) प्रष्टव्यः मदीये कार्ये समाप्ते शय्यासंस्तारकं मया कस्मे - अर्पणीयम् ३ श्रावको वदति मह्यमेव दात्रेऽर्पणीयम् । तदा पुनः साधुर्वदति-- यदि त्वं कदाचिद् दृष्टो न भवेः तदा कस्मै अर्पणीयम् ? श्रावको वदति - अत्रैव गृहे भवद्भिरानेतव्यम् ।
तदा वक्तव्यं साधुना--कस्मिन् स्थाने स्थापयिष्यामि ! अथ स वदेत्--अत्रैव गृहे प्रच्छन्नप्रदेशे स्थापयितव्यम् । अथवा एवं वदेत् यस्मात् - स्थानाद गृहीतं तत्रैव स्थापनीयम् । एवंप्रकारेण गृहीतशय्यासंस्तारकादिविषये भणितव्यम् ॥ सू० ५१ ॥
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७२
निशीथसूत्रे
सूत्रम् -- जे भिक्खू उउवद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारगं उब्वरिसिज्जमाणं पेहाए न ओसारेइ न ओसारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५२ ॥
छाया -यो भिक्षु ऋतुबद्धकं वा वर्षावासिकं वा शय्यासंस्तारकं उद्वर्ण्यमाणं प्रेक्ष्य माऽपसारयति, नाऽपसारयन्तं वा स्वदते ॥ सु० ५२ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उउबद्धियं वा' ऋतुबद्धकं वामार्गशीर्षाद्याषाढपर्यन्ताष्टमासात्मके काले स्वेनात्मना परेण वा गृहीतम् । 'वासावासियं वा' वर्षावासिकं वा चातुर्मास सम्बन्धिकम्, उपभोगाय वर्षाकाले समानीय स्ववसतौ स्थापितम् । 'सेज्जासथारगं' शय्यासंस्तारकं पीठफलकतृणादिकमनावृतस्थाने प्रसारितं 'उव्वरिसिज्जमाणं' उद्व
माणं वृष्टया क्लिद्यमानं जलेन आदभवन्तमित्यर्थः 'पेहाए' प्रेक्ष्य - दृष्ट्वा 'न ओसारई' नापसारयति - न दूरीकरोति, अनावृतप्रदेशादावृतप्रदेशे न करोति, न कारयति 'न ओसारेंतं वा साइज्जइ' नाऽपसारयन्तं - नोऽन्तः कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ॥ ५२ ॥
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् - वासाजण सितं, सेज्जासंथारगं च पीढाइ । नो ओसारइ जो उ, पावइ सो आणभंगाइ ॥
छाया - वर्षाजलेन सिक्तं शय्यासंस्तारकं च पीठादि । नो अपसारयति यस्तु प्राप्नोति स आशाभङ्गादि ॥
अवचूरि : – 'वासाज लेणं' - इत्यादि । यो भिक्षुः ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा अना - वृतस्थाने प्रसारितं यत् - शय्यासंस्तारकं पीठादि-पीठफलकतृणादिकं तद्यदि वृष्टिजलेन सिक्तं सिच्यमानं वा भवेत् तत् नाऽपसारयति नो दूरीकरोति वर्षाप्रदेशात् वर्षारहितप्रदेशे - वसतेरन्तर्भागे न करोति यः स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥ सू० ५२ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं णी णातं वा साइज्जइ ॥ सू० ५३ ॥
छाया
यो भिक्षुः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं द्विवारमपि - अननुज्ञाय्य बहिः निर्णयति निर्णयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकम् श्रावकगृहात्तस्य गृहपतेराज्ञया समानीय वसतौ स्थापितं - पुनः प्रतिज्ञातसमये प्रत्यर्पणीयम्
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पूर्णिमाथापचूरिः उ०२ सू०५४ ५७ शय्यासंस्तारकस्यानाशाबहिर्नयनाविधिप्रत्यर्पणनि०४ 'सज्जासंधारगं' शय्यासंस्तारकम् यद्यन्यस्थाने नयनप्रयोजनं भवेत्तदा 'दोच्चंषि वित्तीयवारमपि 'अणणुण्णवेत्ता' अननुज्ञाप्य, स्वामिन आज्ञां विना यदि 'वाहिणीई बहिः उपश्रयावहिरन्यस्थाने निर्णयति, अयं भावः-अशय्यातरस्य-शय्यातरस्य वा शय्यासंस्तारकं पूर्ण मासकल्पे पुनर्द्वितीयवारं स्वामिनमननुज्ञाप्य वसतेर्बहिरुपाश्रयान्तरं नयति चेत् , तथा-'णीणेतवा' साइ. ज्जई' निर्णयन्तं यः स्वदतेऽनुमोदते, तस्य प्रायश्चित्तमिति ॥ सू० ५३ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-भिक्खू जं बाहिरं णेइ, अणणुण्णाय संयरं ।
आणाभंगाइया दोसा, हवंति तस्स निच्छियं ॥ छाया- भिक्षुर्यद बहिर्नयति अननुज्ञाप्प संस्तरम् ।।
आशामादिका दोषा भवन्ति तस्य निश्चितम् ॥ अवचूरि:-'भिक्खू अं' इत्यादि । यो भिक्षुर्यत् संस्तरं-संस्तारकं पीठफलकादिकं एतादृशं यत्-अमनुज्ञाप्य तत्स्वामिनो द्वितीयवारमाज्ञामगृहीत्वा शय्यासंस्तारकं वसतेबहिरन्यस्थले नयति, तस्य भिक्षुकस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा निश्चितं भवन्ति, अत्र न कोऽपि संशय . इति ॥ सू० ५३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंग दोच्चंपि अणगुण्णवेत्ता बाहिं जीणेइ णीणेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५४ ॥ ... छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं द्वितीयमपि अननुशाप्य बहिनिर्णयति निर्णयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५४ ॥
. चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम् -गृहस्थसंबंधि 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकम् , यद्वसतौ वर्तमानं यदा तदा तत्स्वामिना गृहादागत्योपभुज्यमानम् ऋतुबद्धकाले वर्षाकाले वा कञ्चित्कालमुपभोगाय याचित. वान् तदि-उपाश्रयान्तरं प्रस्थातुकामः पुनर्दितीयवारमपि शय्यासंस्तारकस्वामिनमनिवेद्य 'बाहि णीणेई' बहिर्द्वितीयां वसतिं नयति । इत्थमेव-‘णीणेतं वा साइज्जइ' निर्णयन्तमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । पूर्वसूत्रे- श्रावकगृहादानीतवस्तुन आज्ञां विना बहिनेयने दोषः कथितः, अस्मिन् सूत्रे तु-वसतिस्थितश्रावकसंबन्धिवस्तुनः आज्ञां विना बहिर्नयमे दोषः कथित इत्यनयोर्भेदः ॥ सू० ५४ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अपणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेइ । णीणेतं वा साइज्जइ ॥५५॥
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निशीथ
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक-सागारिकसत्कं वा शच्यासंस्तारकं द्वितीयमपि अननुज्ञाप्य बहिः निर्णयति निर्णयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं' प्रातिहारिक उपभोगानन्तरं प्रत्यर्पणयोग्यम् 'सागारियसंतियं वा' सागारिकसत्कं-सागारिकसम्बन्धिकं वा 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं-पीठफलकादिकं अपरिशाटिलक्षणं (५१ सू० द्र०) पीठफलकतृणादिकम् 'दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता' द्वितीयमपि वारमननुज्ञाप्य । प्रथमवारं तु मासकल्पशेषकालेऽनुज्ञापितम् , इदानी पुनर्बहिनिर्णयनेऽनुज्ञाप्यम् , किन्तु-एकदैवाऽनुज्ञाप्यानीतं शय्यासं. स्तारकं पुनर्द्वितीयोपाश्रये नयनसमयेऽननुज्ञाप्य नयति । तथा 'णीणेतं बा साइज्जई' अननुज्ञाप्यैव बहिणिर्णयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
चतुष्पञ्चाशत्सूत्रे सागारिकाधीनवस्तुनो नयने दोषः कथितः । अत्र तु-पुनः प्रातिहारिकवस्तुनयने दोष इत्यनयोर्भेदः । मन्दमतीनां सुखबोधाय पुनः कथनम् ।। सू० ५५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आदाए अपडिहट्ट संपव्वयइ संपव्वयंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५६ ॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक शय्यासंस्तारकम्-आदाय अप्रतिहत्य संप्रब्रजति संप्रव्रजन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘पाडिहारियं सेज्जासंथारयं' प्रातिहारिकम्-प्रत्यर्पणयोग्यम् । अयं भावः-यद् मासकल्पादिकरणार्थ सागारिककुलादानीतं शय्यासंस्तारकम् , तत्-मासकल्पे परिपूर्णे सति यस्माद् गृहीतं पुनस्तस्मै प्रत्यर्पणीयम, एतादृशशय्यासंस्तारकस्य धारणं भवति तत्प्रातिहाय्ये शय्यासंस्तारकं कथ्यते, एतादृशं शय्यासंस्तारकं पीठफलकादिकं श्रावकसकाशात् 'आयाए' आदाय-गृहीत्वा-अनुज्ञापूर्वकं प्रतिगृह्ये. त्यर्थः 'अपडिहटुं' अप्रतिहृत्य अनर्पयित्वा, पूणे मासकल्पे पुनरर्पणमकृत्वैव यदि-'संपन्ययइ' संप्रव्रजति-विहारं करोति । तथा 'संपव्वयंत वा साइज्जइ' संप्रव्रजन्तमन्यं 'वा' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविगरण कटु अणप्पिणित्ता संपन्वयइ संपव्वयंतं वा साइज्जइ ।। मू० ५७||
छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकमादायाऽविकरणं कृत्वा अन पयित्वा संप्रव्रजति संप्रव्रजन्तं पा स्वदते ॥ सू० ५७ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः सागारियसंतियं' सागारिकसत्कं-गृहस्थसम्बन्धिकम् ‘सेज्जासंथारयं' शय्यासंस्तारकम् 'आयाए' आदाय तदुपभोगं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २ सू० ५४-६० प्रणष्टशय्याद्यगेवषणोपध्यप्रतिलेखननिषेधः ७५ कृत्वा विहारकाले 'अविगरणं कटु अणप्पिणित्ता' अविकरणं कृत्वा-अनर्पयित्वा, विकरणम् अन्यथा करणं, न तथा-अविकरणं-यथागृहीतं तथाकरणमित्यर्थः, तत् कृत्वा श्रावकात् पीठफलकतृणादिकं यथागृहीतं तथाकृत्वा-तथासंपादनपूर्वकम् , अनर्पयित्वा-अदत्त्वा मत्कुणादिजीवसहितमेव पीठफलकादिकं तृणादिसंस्तारकं च दत्त्वेति भावः 'संपन्बयइ' संप्रव्रजति-विहारं करोति, तथा 'संपव्ययंतं' संप्रव्रजन्तमन्यम् 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५७ ॥
मूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं विप्पणटुं न गवेसइ न गवसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं विप्रणष्टं न गवेषयति न गवेषयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५८ ॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं-प्रत्यर्पणाहम् 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम् सागारिकसम्बन्धिकं सांप्रतं श्रमणाधीनम् 'सेज्जासंथारगं' शय्यासंस्तारकं-पीठफलकादिकं रक्ष्यमाणमपि 'विप्पणी' विप्रणष्टम्-चौरादिनाऽपहृतम् तद्यदि 'ण गवेसई' न गवेषयति, इतस्ततोऽन्यान्यं न पृच्छति तद्रूपां गवेषणां न करोतीत्यर्थः, तथा 'न गवसंतं साइज्जई' न गवेषयन्तमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥ सू० ५८ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इत्तरियपि उवहिं ण पडिलेहइ ण पडिलेहंत वा साइज्जइ ॥ सू० ५९॥
___ छाया यो भिक्षुः इत्वरिकमपि उपधिं न प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इत्तरियपि उवहि' इत्वरिक स्वल्पमप्युपधि वस्त्रपात्रादिकम् , स त्रिधा-जघन्य-मध्यमो-स्कृष्टभेदात् । तत्र-जघन्यो मुखवत्रिका वस्त्रखण्डं वा, मध्यमः-प्रावरणचोलपट्टकादिरूपः, उत्कृष्टः-सर्व वस्त्रपात्रादिकम् , तस्मिन् स्वल्पमपि मुखवस्त्रिकारूपमपि 'न पडिलेहइ' न प्रतिलेखयति तस्य प्रतिलेखनां न करोति उभयकालं सर्वभाण्डोपकरणादीनाम् , तेन प्रमादी भवति । प्रमादप्रभावात् संयमक्रियां विस्मरति । एकस्यां संयमक्रियायां विस्मृतायामन्यापि स्वाध्यायादिक्रिया विस्मृता भवति, ततश्चारित्रभ्रंशः, चारित्रभ्रंशात्-चातुर्गतिकसंसारभ्रमणमनन्तजन्ममरणप्राप्तिः, तस्मादुभयकालं सर्वभाण्डोपकरणानां प्रतिलेखना कर्त्तव्या। ‘ण पडिलेहंतं वा साइज्जई' न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ।। सू० ५९॥
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निशीय
सूत्रे-इत्वरग्रहणेन सर्वोपकरणग्रहण कृतम् , अतः प्रथमत उपकरणं निरूपणीयम् , अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-उवगरणं दुविहं, ओहियं च तहेयरं ।
एक्केक्कं तिविहं णेयं, जहन्नुक्किट्ठमज्झिमं ॥ छाया-उपकरणं द्विविध,-मौधिकं च तथेतरत् ।
पकैकं त्रिविधं शेयं, जघन्योत्कृष्टमध्यमम् ।। अवचूरि:--'उवगरणं' इत्यादि । उपकरणं-वस्त्रपात्रादिकं द्विविध-द्विप्रकारकमुक्तम्एकमौषिकं-सर्वसामान्यम् , वस्त्रपात्रादिसामान्यम् । तथा - इतरत् औपग्रहिकम् , प्रातिहारिकपीठफलकादिकम् । तद्-एकैकमपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधम् । तत्र-जघन्य-मुखवत्रिका, वस्त्रखण्डं वा, मध्यम-"चद्दर" चोलपट्टकादिकम् , उत्कृष्टं वनपात्रादिकं सर्वम् ॥ सू० ५९।।। सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ।६०/
॥णिसीहज्झयणे बीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ ० ६० ॥
॥ इति निशीथाध्ययने द्वितीय उदेशः समाप्तः ॥२॥ चूर्णी-तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् उद्देशकप्रारंभे-'दारुदंडयं पायपुंछणं करेइ' इत्यादिप्रथमसूत्रादारभ्य, उद्देशकान्ते–'इतरियपि उबहिं ण पडिलेहइ' इति सूत्रपर्यन्तमेकोनषष्टिसूत्राणि सन्ति, तत्र-यानि यानि प्रायश्चित्तस्थानानि कथितानि तन्मध्यादन्यतममपि-अपराधस्थानं सेवमानः प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः 'आवज्जई' आपद्यते-प्राप्नोति । किमितिजिज्ञासायामाह-'मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं' मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिक प्रायश्चित्तम् लघुकमित्यर्थः ॥ सू० ६०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥२॥
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॥ तृतीयोद्देशकः॥ अथ तृतीयोदेशकप्रथमसूत्रस्य द्वितीयोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः संबंधः ? इति चेदत्राह भाष्यकार:-'उवहि' इत्यादि । भाष्यम्-उवहिपडिलेहो य, पुव्वुत्तो तयणंतरं ।
___ आहारं पडिगिण्हिज्जा, संबंधोऽत्थ वियाहिओ ॥१॥ छाया--उपधिप्रतिलेखश्च पूर्वोक्तस्तदनन्तरम् ।।
आहारं प्रतिगृह्णीयात्, सम्बन्धोऽत्र व्याख्यातः ॥१॥ अवचूरिः- 'उवहीपडिलेहो य' उपधिप्रतिलेखश्च, उपधिप्रतिलेखः उपधेः-प्रतिलेखना 'पुव्वुत्तो' पूर्वोक्तः पूर्वमुक्तः कथितः, तदन्तरम् उपधिं प्रतिलिख्य उपधेः वस्त्रादेः आहारप्रसङ्गात्पात्रस्य च प्रतिलेखनां कृत्वा आहारं प्रतिगृह्णीयात् , इति अस्मिन् तृतीयोदेशे आहारग्रहणविधिः प्रदर्श्यते, एष एवात्र तृतीयोदेशस्य द्वितीयोदेशान्तिमसूत्रेण सह सम्बन्धो व्याख्यातः कथितः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य तृतीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् , तत्र प्रथमं पुरुषमधिकृत्यएकवचनसूत्रमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
- सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियं वा गारत्थिय वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं बा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥सू०१॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा-आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकं वा-गार्हस्थिकं बा अशनं वा पानं या खाद्यं वा स्वाद्य वा भवभाष्याऽवभाष्य याचते, याबमानं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसुवा' आगन्त्रागारेषु वा, तत्र-आगन्तार:-पथिकाः तेषां विश्रामकरणाय कृत आगारो गृहम् 'धर्मशाला' इति लोके प्रसिद्धम् , तत्र गत्वा, अर्थात्-यत्र स्थानविशेषे निर्मिते गृहे आगन्तुकाः सार्थवाहादयो गमनागमनसमये समागत्य विश्रामार्थ निवसन्ति तादृशगृहविशेषे स्थितश्रावकाणां पुरतोऽशनादिकं याचतेइत्यग्रिमेण संबन्धः । 'आरामागारेसु वा' मारामागारेषु, तत्र-"आरामः स्यादुपवनं कृत्रिमं वनमेव यत्" इत्यमरः, तस्मिन्नारामे-उपवने -आगारो गृहम् कञ्चित्कालं मनोविनोदनाय क्रीडार्थ वस्तुम् निर्मीयते, तेषु वा 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा-गाथाः-गृहाः, तेषां पतयस्तेषां कुलेषु । 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा, तत्र-गृहिपर्याय परित्यज्य प्रवग्यापर्याये ये स्थितास्तापसा
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७८
निशीथस्त्रे
स्तेषामावसथाः, तेषु तापसनिवासस्थानेषु वा 'अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अन्ययूथिकं वा गार्हस्थिकं व गृहस्थं, 'असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विषाहारम् 'ओभासिय ओभासिय जायई' अवभाष्याऽवभाष्य याचते, अर्थात् पूर्वोक्तधर्मशालाप्रभृतिषु स्थितमन्ययूथिकं गृहस्थं वा अवभाष्योच्चैःस्वरेण संबोध्य, यथा-"भो भोः ! त्वं मह्यमशनादिकं देहि" इति क्रमेणाऽशनपानादिकं याचते । एकवचनात्मकमिदं सूत्रम्। 'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० १॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् आगंतागाराइसु, ओभासिय जायए य जो समणो ।
आणाभंगाईए, दोसे पावेइ सो नियमा ॥ छाया -आगन्त्रागारादिषु अवभाष्य याचते च यः श्रमणः ।
__ आशाभङ्गादिकांश्च दोषान् प्राप्नोति स नियमात् ॥ अवचूरिः --'आगंतागाराइसु' इत्यादि । यः श्रमणः या श्रमणी वा आगन्त्रागारादिषु, आदिपदात्-उपवनस्थितगृहेषु गाथापतिकुलेषु वा स्थितान् शाक्यभिक्षुकादीन्-अन्यदर्शनाऽनुयायिनः, श्रावकान् वा अवभाष्य तारस्वरेण "भिक्षां ददत" इति कथयित्वा, अशनं-पान-खाद्य-स्वाचं वा याचते स आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गाऽनवस्थामिथ्यात्वात्मविराधन-संयमविराधनलक्षणान् दोषान् प्राप्नोति ।
तत्राज्ञाभङ्ग इत्थम्-नहि-एतादृश्याज्ञा तीर्थकरस्य विद्यते यदेतादृशस्थानेषु गत्वाऽनाथवत् श्रमणैर्याचितव्यमिति, ततस्तीर्थकराज्ञाप्रातिकूल्ये न याचनाकरणे भवत्येव तीर्थकराज्ञाभङ्गः । तथा यधेकः श्रमण एवं करिष्यति, तदा तदृष्ट्वाऽन्योऽपि तथा करिष्यते-इति स्पष्टैवाऽनवस्था । तथा-धर्मशालादो भिक्षाया अलाभेऽपमाने च सति साधोर्जिनवचसि-अनास्था संपद्येत तेन मिध्यावसंभवः । एवमेव जैनभिक्षव इतस्ततो भ्रमन्ति-इति लोके जिनशासनस्याऽवहेलना भवेत्। तथातीर्थकराज्ञाभङ्गेनैव संयमविराधनम् । तथा-कदाचित्-द्वेषयुक्तो दाता विषमिश्रितां भिक्षां दद्यात् इति तादृशभिक्षाप्राप्त्या विविधरोगोत्पादनद्वारा मरणमपि संभवेदित्यात्मविराधनम् ।। सू० १॥
अथ पुरुषमेवाधिकृत्य बहुवचनसूत्रमाह--
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा, अण्णउत्थियाओ वा गारस्थियाओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥ सू०२॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०३ सू०१-५ आगन्त्रागारादिषुगत्वाऽवभाष्यावभाष्ययाचननि० ७९
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा, अन्ययूथिकान् वा गार्हस्थिकान् वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाद्य वा, अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'आगंतागारेसु वा आगन्त्रागारेषु धर्मशालादिषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा 'गहावइकुलेसु वा गाथापतिकुलेषु वा 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा, एतेषु पूर्वप्रदर्शितप्रकारेषु स्थानेषु ये स्थितास्तान् 'अण्णउत्थियाओ वा' अन्ययूथिकास्तीर्थान्तरीयाः तापस-शाक्यभिक्षुकादयस्तान् वा 'गारत्थियाओ वा' गार्हस्थिका गृहस्थाः श्रावकास्तान् वा 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुविर्धाऽऽहारम् 'ओभासिय-ओभासिय जायई' अवभाष्याऽवभाष्य याचते, महता दीर्घस्वरेण याचनां करोति । आगन्त्रागारादिषु स्थितान् तीर्थान्तरीयान् श्रावकान् वा-उच्चैःस्वरेण संबोध्य तेभ्योऽशनादिकं याचते इत्यर्थः । 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । पत्र सूत्रे प्रथमसूत्रवद्भाष्यं ज्ञातव्यम् । एकत्र-प्रथम सूत्रे दायकपदे एकवचनम् , अपरत्र-द्वितीयसूत्रे बहुवचनमित्यनयोर्भेदः ॥ सू० २ ।।
पूर्व पुरुषमधिकृत्य एकत्वबहुत्वेन सूत्रद्वयमुक्तम् , साम्प्रतं स्त्रीमधिकृत्य-एकवचन-बहुवचनाभ्यां सूत्रद्वयमाह___ सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसुवा, अण्णउत्थिणि वा गारस्थिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ।। सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्या' वसथेषु वा अन्ययूथिकी वा गार्हस्थिकी वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खु' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु ‘आरामागारेसु वा' आरामागारेपु वा 'गाहावइछुलेस वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परियावस हेसु वा' पर्यावसथेषु वा 'अण्णउत्थिणि वा' अन्ययूथिकी-अन्यतीर्थिकस्त्रीं 'गारस्थिणि वा' गार्ह स्थिकी गृहस्थस्त्री वा 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधाऽहारम् , एतदशनादिकमागन्त्रागारादिस्थितानाम् अन्ययूथिकादिस्त्रीणां सकाशादित्यर्थः । यदि-'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य-"साधुरहं मह्यमशनादिकं भवत्या देयम्" इत्येवं.
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८०
मिशायरी प्रकारेण तारस्वरेण कथयित्वा कथावस्या 'जायई' याचते 'जायंतं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । इदं सूत्रं स्त्रीजातीयविषयकमेकवचनपरक प्रायश्चित्तपरकं च ।। सू. ३ ॥
अथ बहुवचनपरकं स्त्रीसूत्रमाह
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावदकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीओ वा गारस्थिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-आभासिय जायइ, जायंत वा साइज्जइ ॥ सू०४॥
__ छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकोर्षा गार्हस्थिकीर्वा, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा अवभाष्य-अवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू०४॥
चूर्णी-व्याख्यानं पूर्ववत् । इदं स्त्रीसूत्रं बहुवचनपरकमित्येव भेदः ॥सू० ॥ অমাছ মাক্কাঃभाष्यम् - पढमे जो गमो वुत्तो, सो चेव य बितीयगे।
सइएवि चउत्थेवि, भेओ एगबहुत्तगो ॥ छाया-प्रथमे यो गमः प्रोक्तः स एव च द्वितीयके ।
तृतीयेऽपि चतुर्थेऽपि भेद एकबहुत्वकः ॥ अवचूरिः-'पढमें'- इत्यादि । प्रथमे-तृतीयोदेशकस्य प्रथमसूत्रे यो गमः-प्रकारः प्रायश्चित्तादीनामाज्ञाभङ्गादिदोषाणां कथितः स एव गमो द्वितीयके, तृतीयोदेशकस्य द्वितीये पुरुषबहुत्वसूत्रेऽपि ज्ञातव्यः । एवमेव तृतीयेऽपि तृतीयोदेशकस्य तृतीये स्त्रीसूत्रेऽपि स एव गम एकवचनात्मको ज्ञातव्यः । तथा-चमुर्थेऽपि तृतीयोदेशकस्य चमुर्थे सूत्रे स्त्रीबहुत्वविषयको गमो ज्ञातव्यः, केवलं. भेदो नानात्वं एकत्ववहुत्वयोः । अर्थात् प्रथमं द्वितीयं च सूत्रं पुरुषमाश्रित्यैकवचनबहुवचनविषयकम् , तृतीयं चतुर्थ च सूत्रं स्त्रियमाश्रित्य एकवचनबहुवचनविषयक ज्ञातव्यम् ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसुवा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु का अण्णउत्थियं वा, गारथियं वा, कोउहलपडियाए पडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा आभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ।। सू० ५॥
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चूर्णिभाष्याषचूरिः उ०३ सू० ६-७ प्रत्यागतान्यथिकादिकमवभाज्ययाचननिषेधः ८१
छाया--यो भिक्षुः आगन्नामारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकं वा गार्ह स्थिकं वा, कौतूहलप्रतिशया प्रत्यागतं सन्तं अशनं वा पानं वा खाद्यवा स्वाधवा मवभाष्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥सू०५॥
चूर्णी- 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा 'आरामागारेसुवा' मारामागारेषु वा 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा 'अण्णउत्थियं वा' अन्ययूथिकं-दर्शनाऽन्तरीयं यं कमप्येकम् , 'गारस्थिय वा' गार्हस्थिकं गृहस्थं वा 'कोउहलपडियाए पडियागय समाणं' कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतं सन्तम् कौतूहलं क्रीडादिकं-धर्मपृच्छा वा, तत्कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतमागतं सन्तं तिष्ठन्तम् 'अण्णउत्थियं अन्ययूथिकम् 'गारत्थियं वा गार्हस्थिकं वा उपेत्य, तत्सकाशात्-‘असणं वा' अशनं बा, 'पाणं वा' पानं वा खाइमं वा' खाद्यं वा, 'साइमं बा' स्वाचं वा यदि-'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य उच्चैरुच्चार्य्य तिष्ठन्तमागन्तुकं परतीर्थिकं श्रावकं वा-'भो भोः मह्यं साधवेऽन्नपानादिकं देहि' इत्थम् 'जायइ' याचते, 'जायंत वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-आगंतुगाइगेहेसु, कोउगहुँ उवद्वियं ।
ओभासिय जायमाणो, समणो, दोसभा हवे ॥ छाया-आगन्तुकादिगेहेषु कौतुकार्थमुपस्थितम् ।
अवभाष्य याचमानः श्रमणो दोषभाग् भवेत् ॥ अवचूरि:-'आगंतुगाइ.' इत्यादि। यो भिक्षुः आगन्तुकादिगेहेषु-आरामागारेषु वा गाथापतिगेहेषु वा कौतुकाथै साधोरागमनात् पूर्वमागत्य समुपस्थितं वर्तमानं परतीर्थिकं गृहस्थं वा एकमपि आभाष्योच्चस्वरेण शब्दं कृत्वा-अशन-पान-खाद्य-स्वाचादिकं याचते स श्रमणः दोषभाग भवेत् । कथमेते परतीथिकाः गृहस्था वा समागत्य स्थिता भवन्ति ? इति चेत् शृणु-केचित्--यथाभावेन, केचन कौतुकेन, केचन साधूनां दर्शनार्थम् , केचन-स्वकीयसंशयनिराकरणार्थम् , केचन-श्रावकधर्म श्रमणधर्म वा श्रोतुम्-आगच्छन्ति । एषु समुपस्थितेषु-एकतमादपिअवभाध्याऽशनादिकं याचते तस्यैते भद्रप्रान्तदोषा भवन्ति । तत्र भद्रदोषः-स्वस्य भद्रत्वेन उद्गमादिदोषदुष्टाहारग्रहणरूपः । प्रान्तदोषः अदत्तादानविषयकलोकगऱ्यारूप इति । तत्र यदि अवभाष्य कृतेपि याचने न लभ्यते तदा साधोरपमानं भवति । कथयन्ति लोकाःक्षुद्राः साधवो न लभन्ते । अदत्ते दातुरपमानं कृपणोऽयमिति ॥सू० ५ ॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतांगारेसु वा आरामागारेसु वा गहावइकुलेसु वा परियावस हेसु वा कोहलप डियाएपडियागया समाणा अण्णउत्थिया वा गारत्थिया वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा ओभासिय- ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया - यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतान् सतः - अन्ययूथिकान वा गार्हस्थिकान्, वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा, अवमाच्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ६ ॥
,
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगैतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा - धर्मशालासु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापति - कुलेषु वा 'परियावस वा' पर्यावसथेषु वा 'कोहलपडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया 'पडियागया समाणा' प्रत्यागतान् सतः - - स्थितान् आगन्तुकादिगृहेषु केचन - स्वभावतः केचन-दर्शनार्थम्, केचन कौतुकेन, केचन - धर्मश्रवणार्थम् केचन संशयनिराकरणार्थं समागतास्तान् । कांस्तान् ? तत्राह - 'अण्णउत्थिया' इत्यादि । 'अण्णउत्थिया' अन्ययूथिकान्- तीर्थान्तरीयान् वा तथा 'गारत्थिया वा' गार्हस्थिकान्- गृहस्थान् 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधाहारम्, 'ओभासिय - ओभासिय जायर' अवभाष्याऽवभाष्य उच्चैरुच्चार्य याचनां करोति, तथा–'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । पूर्वसूत्रे पुरुषमधिकृत्यैकवचनप्रयोगः, अत्र बहुवचनस्य प्रयोग इत्यनयोर्भेदः ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलडियाए पडियागयं समाणं अण्णउत्थिणि वा गारत्थिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासि - ओभासिय जाय जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७ ॥
छाया -यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा भारामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु बा पर्यावसथेषु वा कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतां सतीं अन्ययूथिकीं वा गार्हस्थिक वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा अवभाष्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारे वा' आगन्त्रागारेषु वा 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा 'परिया
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ २०८-५ निषेधानन्तरं पुनरनुवर्त्य याचन निषेधः ८३. वसहेसु वा पर्यावसथेषु वा परिमाबकावसथेषु 'कोऊहलडियाए पडियागयं समाणं' कौतूहलप्रतिज्ञया प्रत्यागतां सतीम्-कौतुकार्थ दर्शनार्थ संशयादिच्छेदनार्थं धर्मश्रवणार्थ वा समागताम् 'अण्णउस्थिणि वा गारस्थिणि वा अन्यपूथिकी गृहस्थिनी वा 'असणं चा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा'अशनादिचतुर्विधाहारम् 'योभासिय-ओभासिय' अवभाण्याऽवभाष्य उच्चैः सम्बोधनं कृत्वा 'जायइ' याचते 'जातं वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥ सू० ७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलपडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिणीओ वा गारथिणीओ वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ।। सू०८॥
छाया-यो भिक्षुः आगम्यागारेपु या आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा कौतूहलप्रतिक्षया प्रत्यागताः सतीः अन्ययूथिकीर्वा गार्हस्थिकीर्वा अशनं या पान वा खाद्य वा खाद्य वा अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमान वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु 'आरामागारेसु वा' मारामागारेषु 'गाहावइकुछेसु वा' गाथापतिकुलेषु 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु-परिव्राजकाक्सथेषु कोहलपडियाएं कौतूहलप्रतिज्ञया 'पडियागया समाणा' प्रत्यागताः सतीः 'अन्नउत्थिणीयो वा अन्ययूथिकीर्वा गारस्थिणीओ वा' गार्ह स्थिकीर्वा असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा खायं वा 'साइमं वा स्वायं वा, 'ओभासिय-ओभासिय' अवभाष्यावभाष्य उच्चस्वरैः उद्घोष्य परतोर्थिक नियो गृहस्थस्त्रियो वा 'जायई' याचते 'जायंत वा साइज्जई' याचमान वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू०८॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्--पुरिसाणं गमो धुलो, पंचमे छट्ठगे जहा ।
सचमट्टममुखस, इत्थोणेगपुहुत्तओ ॥ छाया-पुरुषाणां गमः प्रोक पञ्चमे षष्ठके यथा ।
सप्तमाष्टमसूत्रयोः ब्रीणामेकपृथक्त्पतः॥ अवचूरिः - 'पुरिसाई' इत्यादि । यथा येन प्रकारेण पञ्चमे षष्ठे वा सूत्रे पुरुषाणामागन्तुकादीनां धर्मशालादो स्थिवानामन्ययूषिकानां गृहस्थानां वा एकस्य बहूनां वा समी
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८४
निशीथसूत्रे
dsaभाष्य याचना करणे यो गमः प्रकारः प्रोक्तः स एव गमः सप्तमेऽष्टमे च सूत्रेऽन्ययूथिकादिस्त्रीणां एकत्वपृथक्त्वत इत्येकवचन - बहुवचनत एकस्याः स्त्रियाः, बह्वीनां स्त्रीणां वा पुरतोऽवभाष्य याचना - करणे स एव प्रकारो ज्ञातव्यः । पंचमं षष्ठं च सूत्रं पुंविषयकम् सप्तममष्टमं तु स्त्रीविषयकम् । एतावानेव भेदः । तत्रापि यथा पञ्चमसूत्रमेकपुरुषविषयकम्, यथा वा - षष्ठसूत्रं बहुपुरुषविषयकम् तथैव-सप्तमसूत्रमेकस्त्रीविषयकम्, अष्टमसूत्रं त्वनेकस्त्रीविषयकम् । अन्यत्सर्वं समानम् ॥ सू० ८॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुले वा परियावस वा अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहट्ट दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय - अणुवत्तिय परिवेदिय परिवेदिय - परिजविय - परिजविय ओभासिय - ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू ९ ॥
छाया -यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकेन वा गार्हस्थिकेन वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य अभितम् (पुर आनीतम्) आहृत्य दीयमानं प्रतिषेभ्य, तमेवाऽनुवर्त्यनुवर्त्य परिवेष्टe परिवेष्टय परिजल्प्य परिजल्प्य, अवभाष्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते |९|
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु 'गाहाबइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु 'परियावद्देसु वा' पर्यावसथेषु वा परिव्राजकावसथेषु 'अण्णउत्थि एण वा अन्ययूथिकेन वा - परतीर्थिकेन 'गारस्थिपण वा' गार्हस्थिकेन वा, अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा 'अभिहर्ड' अभिहृतम् साध्वर्थं संमुखमानीतं, तत् ' आहदड' आहृत्य - गृहीत्वा 'दिज्जमाणं' दीयमानमशनादिकम् 'पडिसेहेत्ता' प्रतिषिध्य, पूर्वमभिमुखीभूय ददतं निषिध्य - प्रहणार्थ निषेधं कृत्वा पुनः - तमेव 'अणुवत्तिय - अणुवत्तिय' तमेव दातारमनुवर्त्यनुवर्त्य पञ्च- सप्त-पदगमनानन्तरमनुवर्त्तनं कृत्वा पृष्ठतो गत्वा 'परिवेदिय - परिवेढिय' परिवेष्टय - परिवेष्टय पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो वा स्थित्वा । 'परिजत्रिय - परिजविय' परिजल्प्य परिजल्प्य ' त्वया मदर्थमिदमशनादिकमानीतम् परिश्रमस्तव निरर्थको मा भवतु तवाऽशनादिकं ग्रहिष्यामी' - येवंप्रकारेणोक्त्वा 'ओभासिय- ओभासिय' अवभाष्याऽवभाष्य 'जायइ' याचते, 'जायंतं वा साइज्जइ' याचमानं वा एवंविधमन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवतीति ॥ सू० ९ ॥
भाष्यम् - आह दिज्जमाणं जं, पडिसेहिय पुम्बओं । पच्छा तं अणुवद्दित्ता, जायए दोसमावहे ||
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धूर्णिभाष्यांवचूरिः उ० ३ सू० १०-१३ निषेधानन्तरं पुनर्याचनगृहप्रवेशनिषेधः ८५ छाया-आहृत्य दीयमानं यत्, प्रतिषिध्य पूर्वतः ।
पश्चात्तमनुवर्त्य, याचते दोषमावहेत् ॥ अवचूरिः-'आहटु' इत्यादि । 'आइटु' आहृत्य संमुखमानीय 'दिज्जमाणं' दीयमानमशनादिकं यत् 'पुवओ' पूर्वतः पूर्व प्रतिषिध्य ग्रहणार्थ तस्य निषेधं कृत्वा पश्चात् दातरि प्रस्थिते सति तमेव अनुवयं पञ्चसप्तपदानि अनुगमनं कृत्वा पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो वा स्थित्वा परिजल्प्य 'त्वया यन्मदर्थमानीतमशनादिकं ततस्तव प्रयासो विफलो माभूदिति ग्रहीष्यामि त्वत्तोऽशनादिक'-मिति अवभाष्य पुनरशनादिकं यो भिक्षुर्याचते स दोषमावहेत् दोषमाज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नुयादिति ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ'कुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्ण उत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय, परिवेढिय-परिवढिय, परिजविय-परिज. विय, आभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु या पर्यावसथेषु वा अन्ययूथिकैर्वा गाईस्थिकैर्वा, अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा, अभिहतमाहृत्य दीयमानं प्रतिषेध्य तमेवाऽनुवाऽनुवर्त्य परिवेष्टय परिवेष्टय प्रजल्प्यप्रजल्प्य, अवभाष्याऽवभाष्य याचते, याचमानं वा स्वदते ॥सू० १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू आगंतागारेमु वा' इत्यादि सर्व पूर्ववदेव, विशेष एतावानेव-यत् पूर्व पुरुषविषयकं तृतीयैकवचनमाश्रित्य सूत्रं प्रोक्तम्, अत्र तु तृतीयाबहुवचनमाश्रित्य सूत्रं प्रवर्तते इति ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ'कुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीए वा गारथिणीए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहहु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय-अणुवत्तिय स्विढिय-परिवढिय, परिजविय-परिजविय ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥ ___छाया-यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु बा पर्यावसथेषु बा, अन्ययूथिक्या वा गाईस्थिक्या वा अशनं वा पानं वा खाचं वा स्वार्थ
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निशीथस वा, अभिहतमाहत्य दीयमानं प्रतिषेध्य तामेव अनुवाऽनुवर्त्य परिवेष्टय-परिवेष्टयप्रजल्प्य प्रजल्प्य अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ११॥ . चूर्णी-नवमं दशमं च सूत्रं याच्यमानपुरुषविषयकमेकत्व-पृथक्त्वेन व्याख्यातम् , संप्रतिएकादशसूत्रं याच्यमानस्त्रीविषयकं व्याख्यातुमाह-'जे भिक्खु' इत्यादि स्पष्टम् ॥ सू० ११ ॥
___एकादशं सूत्रमेकां स्त्रीमाश्रित्य याचनाविषयकं व्याख्याय तदनु-अनेकस्त्रीविषयकं द्वादशं सूत्रमाह - 'जे भिक्खू' इत्यादि।
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीहिं वा गारत्थिणाहिं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ताताओअणुवत्तिय-अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवढिय परिजविय-परिजविय ओभासिय-आसासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥ सू० १२ ॥
___ छाया - यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा मारामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु षा पावसथेषु वा अन्ययूथिकीभिर्वा गार्हस्थिकीभिर्वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाध वा अभिहतमाहृत्य दीयमान प्रतिषेध्य ता एवाऽनुवाऽनुवर्त्य परिवेष्टय-परिवे. य, परिजल्प्य परिजल्प्य अवभाष्याऽवभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूणी-'जे भिक्खू' इत्यादि । याच्यमानाऽनेकस्त्रीविषयकं सूत्रम्-'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, इत्यादि स्पष्टम् । एतच्च सूत्रं याच्यमानाऽनेकस्त्रीविषयकमित्येतावता-एकादशसूत्रादेकस्त्रीविषयकाद्भिद्यते ॥ सू० १२ ॥ . - सूत्रम्-जे भिक्खू माहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविठे पडियाइक्खिए समाणे दोच्चंपि तमेव कुलं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ।।
छाया-यो भिक्षुः गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिक्षया प्रविष्टः प्रत्याख्यातः सन् द्वितीयमपि (वारं) तमेव कुलं अनुप्रविशति अनुप्रविशन्त वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम् गृहिणां गृहम् 'पिंडवायपडियाए' पिंडपातप्रतिज्ञया अशन-पानादिग्रहणेच्छया 'पबिट्टे' प्रविष्टः-कोऽपि साधुः केषाञ्चित्-श्रावकादीनां गृहे भिक्षां ग्रहीतुं गतः परन्तु 'पडियाइक्खिए समाणे' प्रत्याख्यातः-निषिद्धः सन्-साधुभिक्षार्थ गृहस्थगृहे प्रविशति किन्तु गृहस्वामी निषेपति "नाऽत्रागन्तव्यम्" इत्थं प्रतिषेधितोऽपि सन् साधुः 'दोच्चंपि तमेव कुलं अणुप्पविसई' द्वितीयमपि वारं-गृहस्वामिन आज्ञामन्तरेणाऽनुप्रविशति, तद्गृहे पुनः प्रवेश करोति । तथा 'वषविसंत का साइजाइ' अनुप्रविशन्त्रं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥१३॥
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पूर्षिभाज्यावचूरिः उ० ३ सू०१४-१५ संखडितचतुर्थादिगृहान्तरतश्च भिक्षाग्रहणानि० ८० भाष्यम्-गाहावइकुलं भिक्खू , पश्चक्खाओ गओ जह।
पुणो पवेसमेत्तेणं, आणाभंगाइयं भजे ॥ छाया-गाथापतिकलं भिक्षुः प्रत्याख्यातो गतो यदि ।
पुनः प्रवेशमात्रेण-आशाभङ्गादिकं भजेत् ॥ अवचूरिः-'गाहावइकुलं' इत्यादि । कश्चिद्भिक्षुः भिक्षाप्राप्त्यर्थ गृहपतिकुलं गतः, तत्र प्रविशन्नेव गृहपतिना प्रत्याख्यातः "नास्ति मद्गृहे भिक्षावकाशः। एवंप्रकारेण निराकृतो. ऽपि यदि पुनर्गृहपतेराज्ञां विना तस्मिन् गृहे प्रविशति । ततः प्रवेशमात्रेणाज्ञाभङ्गादिकं दोष भजते तस्मात्तत्कुलं न प्रविशेदननुज्ञात इति ।। सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १४॥
छाया-यो भिक्षुः संखडिप्रलोकनया अशनं वा पानं वा स्वाचं वा स्वाधवा प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'संखडिपलोयणाए' संखडिप्रलोकनया, संखडीति देशी शब्दः तदर्थस्तु यत्र स्थानेऽनेकजनानां भोजनं निष्पावते, तादृशस्थानं संखडी । यत्राऽनेकपृथिव्यादिषड्जीवनिकायजीवानां प्राणाः खण्डिताः बिराषिता भवन्ति सा संखडीति व्युत्पत्तेः-"जिमनवार" इति भाषायाम् तत्र-संखडीस्थले गत्वा-'असणं का' अशनं वा, पाणं वा' पानं वा, 'खाइमं वा' खाद्यं वा, 'साइमं वा' स्वाद्य वा, 'पडिग्गाहेइ प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० १४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठे समाणे परं तिघरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१५॥
- छाया-यो भिक्षुः गाथापतिकुल पिंडपातप्रतिक्षया अनुप्रविष्टः सन् परं त्रिगृहान्तरात् अशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाद्य वा अभिहृतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘गाहावइकुल' गाथापतिकुलम् 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया तत्र-पिण्डोऽशनादिकं, तस्य गृहिणा दीयमानाहारस्य पाने
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Ce
निशीथस्ने पातः प्रक्षेपः, तस्य प्रतिज्ञया मध्यस्थभावेन तद्ग्रहणबुद्धया भिक्षाग्रहणार्थमित्यर्थः 'अणुप्पविढे समाणे' अनुप्रविष्टः सन् भिक्षाग्रहणाय गाथापतिगृहं गतः सन् 'परं तिघरंतराओ' परमधिकं त्रिगृहान्तरात् , तत्र-त्रयाणां गृहाणां समाहारस्त्रिगृहम् त्रिगृहमेवाऽन्तरं व्यवधानमिति त्रिगृ. हान्तरम् गृहत्रयात्परत इत्यर्थः, प्रथमगृहादरभ्य तृतीयगृहान्तराल एव, न तु-चतुर्थादिगृहे भिक्षानियमः । ततः परं यदि चतुर्थादिगृहात् 'असणं वा' अशनम् 'पाणं वा' पानम् 'खाइमं वा' खाद्यम् 'साइमं वा' स्वाद्यम् 'अभिहडं' अभिहतम्-आभिमुख्येनाहृतम् आनीतम् , तत् 'आइटु दिज्जमाणं' आहृत्य गृहीत्वा दीयमानमशनादिकं चतुर्विध पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति । 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । सू० १५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६॥ ... छाया-यो भिक्षुः मात्मनः पादौ मार्जयेद्वा प्रमार्जयेar आमार्जयन्तं व प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ।। सू० १६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः पादौस्वचरणो 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद्वा-मलनिवारणार्थ शोभादिसंपादनार्थ वा येन केनाऽपि द्रव्येण सकृत्प्रमार्जनं कुर्यात् 'षमज्जेज वा' प्रमार्जयेद्वा पुनः पुनः प्रमार्जनं कुर्यात् । तथा'आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा' आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १६ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पमज्जणं च दुविहं, आइण्णाइषभेयओ ।
अणाइण्णं सेवमाणे, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-प्रमार्जनं च द्विविध-माचीर्णादिप्रमेवतः ।
अनावीणं सेवमान आशामकादिकं प्राप्नोति ॥ · अवचूरिः-'पमज्जणं'-इत्यादि । सूत्रे-चरणप्रमार्जने साधूनां दोषमुक्तवान् , तत्रप्रमार्जनं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति आचीर्णादिप्रभेदतः-आचीर्णाऽनाचीर्णभेदात् । तत्रसाधुभिराचर्यमाणं चरणप्रमार्जनम्-आचीर्णप्रमार्जनम् , एतद्विपरीतमनाचीण भवति । तत्राऽऽचीर्ण प्रमार्जनमनेकप्रकारकं भवति तद्यथा-संसक्तो चरणौ प्रमार्जयितव्यौ, मार्गे वा चलतः साधोर्यदि धूल्यादिभिश्चरणौ धूसरितौ भवेतां तदा प्रमार्जनीयौ । अस्थण्डिलात् स्थण्डिले गच्छतः पङ्किलभूमौ वा गच्छतो यदि पङ्केन चरणौ लिसौ तदा प्रमार्जनीयौ ।
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चूर्णि भाग्यावचूरिः उ०३ सू० १६ - १९ स्वपादयोः संवाहन - प्रक्षणो-ल्लोलनादिनिषेधः ८९ भिक्षाकरणेन प्रतिनिवृत्तः, यद्वा-संज्ञाभूमित आगतः, विहारभूमित आगतः, स्वाध्यायं कृत्वा समागतः, यद्वा- ग्रामान्तराद गणकार्यं कृत्वा प्रत्यागतः ।
I
एतेषु कार्येषु साधुचरणौ प्रमार्जयति । एतत् प्रमार्जनमाचीर्णम्, एतद्विपरीतमनाचीर्ण प्रमार्जनमिति कथ्यते । तत्राऽनाचीर्ण चरण प्रमार्जनं कुर्वन् श्रमणः आज्ञाभङ्गादीन् दोषान् लभते । तत्र संयमविराधनेत्थम् - रजोहरणेन येन केनचिदन्येनापि साधनेन चरणप्रमार्जने वायवः संघट्टिता भवन्तीति वायुकायिकजीवानां विराधनं भवति ।
तथा - अन्येऽपि वायुकायिकेषु समुड्डीयमाना मशकादयो जीवा बादराथ पतङ्गादयः संघनेन विराधिता भवेयुः, बकुशदोषः, ब्रह्मचर्या गुप्तिश्च यस्मात् पादप्रमार्जने संयमविघातः अनेकविधप्राणानां विराधनात् तस्मात्कारणात् साधुभिरनाचीर्णं चरणप्रमार्जनं न कथमपि
कर्त्तव्यम् ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवार्हेत वा पलिमद्दतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७ ॥
छाया - यो भिक्षुः आत्मनः पादौ संवाहयेद्वा परिमदयेद्वा संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ -: - चरणा 'संवाहेज्ज वा' संवाहयेत् - एकवारं चरणौ संवाहयेत - निष्पीडयेत् 'पगचंपी' ति भाषाप्रसिद्धं कारयेत् 'पलिमद्देज्ज वा' परिमर्दयेद्वा वारं वारं चरणयोः संवानं कारयेत् | 'संवा वा पळिमदेतं वा' संवाहयन्तं परिमर्दयन्तं वा तत्र संवाहनं चरणादिनिष्पीडनम्, तत् संवाहनं चतुर्विधम्- अस्थिसुखकरम् १, मांससुखकरम् २, रोमसुखकरम् ३, त्वक्सुखकरम् ४ । एवं संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वाऽन्यं 'साइज्जइ' स्वदते - यः श्रमणः स्वयं चरणयोः संवाहनं परिमर्दनं वा कारयति कारयन्तं वा श्रमणान्तरं अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तथा-आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्व संयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् लभते तस्माच्चरणयोः संवाहनं - परिमर्दनं वा न स्वयं कारयेत् न वा कारयन्तमन्यं श्रमणमनुमोदयेत् ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा बसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्र्खेतं वा मिलितं वा साइज्जइ ॥ सू० १८ ॥
१२
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निशीथस्त्रे छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा बसया था ब्रक्षयेद्वा-अभ्यञ्जयेद्वा प्रक्षयन्तं वा अभ्यब्जयन्तं पा स्वदते ॥ सू० १८ ॥
पूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मन:स्वस्य चरणो, 'तेल्लेण वा तैलेन-तिलतैलेन सर्पपादितैलेन वा, 'घएण वा' घृतेन-गोमहिम्यादीनाम् 'गवणीपण वा' नवनीतेन 'मक्खन' इति प्रसिद्धेन, 'वसाए वा' वसया 'चर्ची'-ति लोकप्रसिद्धया, चिक्कणपदार्थविशेषेणेत्यर्थः, पूर्वोक्तवस्तुविशेषैः स्वकीयौ चरणौ 'मक्खेज्ज वा' प्रक्षयेत्-एकवारं मर्दयेत् 'मिलिगेज्ज वा' अभ्यञ्जयेद्वा-पुनः पुनः स्तोकं-स्मोकं तैलादिना मर्दषेत् । तथा-'मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जई' म्रक्षयन्तं वा अभ्यञ्जयन्तं वा स्वदते । थी हि भिक्षुः स्वकीयचरणौ-एकवारमनेकवारं वा तैलादिनाऽभ्यञ्जयति, यश्च तमनुमोदते सोऽसौ प्रायश्चित्तभाग् भवति, भवन्ति च तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषाः । तस्मात्कारणाद् भिक्षुणा कदापि तैलादिनाऽभ्यञ्जनं न कर्त्तव्यम् , न च कुर्वतो वाऽनुमोदनं करणीयमिति ॥ सू० १८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लालेज्ज वा उवटेज वा, उल्लोलंतं वा उव्वीतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥ - छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ लोधेण वा कल्केन वा चूर्णन पा वर्णेन पा पाचूर्णेन वा उल्लोलयद्वा उद्वर्तयेद्वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू०१९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ-चरणौ, 'लोरेण वा लोण-लोध्रद्रव्येण 'कक्केण वा' कल्केनाऽनेकद्रव्यमिश्रितद्रव्यविशेषेण वा, 'चुण्णेण वा' चूर्णेन–पिष्टसुगन्धिद्रव्यविशेषेण 'वण्णेण वा' वर्णेनाऽबीरादिद्रव्यविशेषेण, 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन-सुरभिगन्धद्रव्यविशेषेण 'उल्लोलेज वा' उल्लोलयेद्वा-एकवारं मर्दयेत् 'उबटेज वा' उद्वर्तयेद्वा -अनेकवारं मर्दयेत् 'उल्लोलंतं वा उव्वटुंतं वा साइजइ' उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १९ ।। - सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥ सू० २०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०३सू०२०-२१ स्वपादयोरचित्तशीतोष्णजलेनोच्छोलनादिफूत्कारादिनि र
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ शीतोदकविकटेश वा उष्णोदकविकटेन का उच्छोलयेडा प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्त वा स्वदते ॥सू० २०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' आत्मनः पादौ 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा, तत्र शीतं च तदुदकं शीतोदकं तच्च विकठम्अचित्तं तण्डुलधावनादिजलं, तेन ‘उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकावकटेन वा-उष्णं तदुदकम् , कथंभूतम् !-विकटम् , तेन-अचित्तोष्णोदकेन 'उच्छो छेज्ज वा' उच्छोलयेत्-एकबारं प्रशासन 'पधोएज्ज वा' प्रधावयेत्-वारं वारं प्रक्षालयेत् । तथा 'उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्माई उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुरात्मनश्चरणौ शीतजलेनोष्णजलेन वाएकवारमनेकवारं वा प्रक्षालयति तं योऽनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभाग भवति, तस्यामाभकादयो दोषा भवन्ति ।। सू० २० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणा पाए फुमेज्जा वा रएज्ज वा, फुगतं का रएंतं वा साइज्जइ ॥सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः पादौ फूत्कारयेद्वा-रज्जयेद्वा, फूत्कारयन्नं वा मा. यन्तं वा स्वदते ॥सू०२२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः पादौ पूर्व मलतकादिना लिप्त्वा पश्चात्तदाताशोषणार्थ फू-करोतीति फूकरणविषकं रञ्जनविषयकं चेदं सूत्रम्, ततो यो भिक्षुः 'अप्पणो पाए' भात्मनः पादौ-चरणौ 'फुमेज्ज बा' देशी शब्दोऽयम् , मुखादिवायुमा फूत्कुति 'रएज्ज वा' रञ्जयेद्वा अलक्ककादिरञ्जनद्रव्येण रुञ्जयेत् । तथा-'फुमंतं वा एतं वा साइजा' फूत्कारयुक्तौ अलक्तकादिरागरञ्जितौ च कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायविचभागी भवति ॥ सू० २१ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-संबाहणाइ कुव्वंतो, समणो जिणसासणे ।
__ आणाभंगाइदोसे य, पावेई नेत्थ संसओ ॥ छाया-संबाहनादि कुर्वाणः श्रमणो जिनशासमे ।
आहाभङ्गादिदोषांश्च प्राप्नोति नाऽत्र संशयः ॥ अवचूरिः- 'संवाहणाइ'- इत्यादि । तत्र-संवाहनं चरणमर्दनं सप्तदशसूत्रकथितम् १, तैलगदिनाऽऽत्मनश्चरणमर्दनादिकमष्टादशसूत्रकथितम् २, लोध्रादिनोल्लोलनोद्वर्त्तनमेकोनविंशतिसूत्रकथितम् ३, शीतोदकविकटादिना चरणप्रक्षालनं विंशतिसूत्रकथितद् १, तथा- मुखादिवायुना चरणयो
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निशीथसूत्रे
फूत्करणमलक्तकादिरसेन लेपनं चैकविंशतिसूत्रकथितम् ५ । एतत् पञ्चसूत्रोक्तं पञ्चप्रायश्चित्तस्थानमासेवमानः, तथा - एतान् पञ्च दोषान् सेवमानोऽनुमोदमानश्च भिक्षुराज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुवन् प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० २१ ॥
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एवमित ऊर्ध्वं षट् सूत्राणि एकगमानि सन्ति । विशेष एतावानेव - यत् पूर्वं पादौ आश्रित्य षट् सूत्राणि कथितानि, अत्र तु कायमाश्रित्य षट् सूत्राणि व्याख्येयानि तानि चेमानि — 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणो कार्य आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२ ॥ जे भिक्खू अप्पणा कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमद्देतं पा साइज्जइ । सु०२३॥ जे भिक्खू अप्पणी कायं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा बसाए वा मक्खेज्ज बा भिलिंगेज्ज वा मक्र्खेतं वा भिलिंगेत साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥ जे भिक्खू अप्पणा कार्यं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उव्वद्वैत वा साइ ज्जइ ॥ सू०२५॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइज्जइ ||सू० २६ ॥ जे भिक्खू अप्पणी कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुर्मेतं वा रतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७॥
छाया -यो भिक्षुः आत्मनः कार्य आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥०२२|| यो भिक्षुः आत्मनः कार्य संवाहयेद्वा परिमर्दयेद्वा संवादयन्तं वा परिमर्दन्तं वा स्वदते ॥ सू०२३|| यो भिक्षुः आत्मनः कार्य तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन
वया वा प्रक्षयेद् वा अभ्यञ्जयेद् वा प्रक्षयन्तं वा अभ्यञ्जयन्तं वा स्वदते || सू०२४ || यो भिक्षुः आत्मनः कार्य लोध्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा वर्णेन वा पद्मचूर्णेन वा उल्लोलयेद् वा उद्वर्त्तयेद्वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्त्तयन्तं वा स्वदते || सू० २५|| यो भिक्षुः आत्मनः कार्य शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेद्वा प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते || सु०२६|| यो भिक्षुः आत्मनः कार्य फूत्कुर्याद्वा रज्जयेद्वा फूत्कुर्वन्त पां रज्जयन्तं वा स्वदते ॥०२७||
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०३ सू०२२,३३ कायस्य कायगतवणस्य चाऽऽमर्जनादिनिषेधः ९३
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। एषां द्वाविंशतितमसूत्रादारभ्य सप्तविंशतितमसूत्रपर्यन्तानां कायसम्बन्धिनां षण्णां सूत्राणां व्याख्या पादसंबन्धिसूत्रषट्कवदेव कर्त्तव्या ॥ सू० २२-२७॥
___ एवमेवात्राऽप्यो अष्टाविंशतितमसूत्रादारभ्य त्रयस्त्रिंशत्तमसूत्रपर्यन्तानि षट् सूत्राणि एकगमानि सन्ति, विशेष एतावानेव-यत् पूर्व पादौ कायं चाश्रित्य प्रत्येकं षट् सूत्राणि कथितानि, अत्र तु कायगतव्रणमाश्रित्य तत्सदृशाण्येव षट् सूत्राणि व्याख्येयानि, तानि चेमानि-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं संवाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा, संवाहतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं तेल्लेण वा घरण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्वंतं वा भिलिंगेतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्णण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वटेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उन्वटेंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा, एतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८-३३॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये व्रणंआमर्जयेद्वा, प्रमार्जयेद्वा आमार्ज़यन्तं वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये व्रणं संवाहयेद् वा परिमर्दयेद्वा संवाहयन्तं षा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये-वणं, तैलेन वा, घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा म्रक्षयेद्वा, अभ्यजयेद्वा, म्रक्षयन्तं पा अभ्यजयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये घणं लोभ्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा वर्णेन वा पद्मचूर्णेन वा उल्लोलयेद्वा उद्वर्तयेद्वा उल्लोलयन्तं पा उद्वार्तयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः काये वणं शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा, उच्छोलयेद्वा, प्रधावयेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते ॥ यो भिक्षुः आत्मनः का ये व्रणं फूत्कारयेद्वा रञ्जयेद्वा, फूत्कुर्वन्तं वा रजयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २८-३३॥
चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । एवम्-अष्टाविंशतितमसूत्रादारभ्य (२८-२९-३०-३१३२-३३) त्रयस्त्रिंशत्तमसूत्रपर्यन्तं प्रत्येकैकस्य सूत्रस्य व्याख्या क्रमशः षोडशपादसूत्रादारभ्य (१६-१७-१८-१९-२०-२१) एकविंशतितमसूत्रपर्यन्तवदेव कर्त्तव्या ॥ सू० २८-३३॥
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अत्राह आम्यकारः -
भाष्यम्-वर्ण च दुबिहं जेज्जं, साभावियमथेयरं । साभावियं देहजायं, सत्थाइजमथेयरं ॥
छाया - प्रणं व द्विविधं ज्ञेयं स्वाभाविकमथेतरत् । स्वाभाविकं जातं शस्त्रादिजमथेतरत् ॥
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निशीथसूत्रे
अवचूरिः - 'वणं च' इत्यादि । शरीरसंबन्धि बणं द्विविधं - द्विप्रकारकं भवति । तत्रैकं स्वाभाविक - बालकारणरहितं सत्-जायमानम् । अथेतरत् इतोऽन्यत् द्वितीयम् इति ज्ञेयम् । तत्रस्वावाविकं देहस्थितदोषतो जायमानम् आन्तरिकदोषमूलकमित्यर्थः, कुष्ठ - (कोढ) - दद्रु - (दाद) पामा - ( खुजली ) - इति लोकप्रसिद्धं गण्डमालादिकं च । अथेतरत् - इतो द्वितीयं शस्त्रादिजातमा - गन्तुकम् यादिपदात्-खड्ग- कण्डक - स्थाणु-प्रभृतिवस्तुजातसंबाधाजनितानां संग्रहः । एतेषां वणाभां मध्यादन्यतममपि वर्ण एकवारमनेकवारं वाऽऽमार्जनादिकं करोति स प्रायश्चित्तभागू भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । अत्र गुरोरुपदेशो यथा
"न रोदनं हन्त ! पितर्न मातरालप्य ताडयः शिरसः प्रदेशः । बसन्नचितेन तदीयतीव्र संवेदनायाः सहनं क्रियेत" ॥१॥ प्रसन्नमनसा रोगसंजाततीव्रसंवेदनायाः सहनमेव कार्यम्, न तु हा पितः ! हा मातः ! इति मुहुर्मुहुरालम्य रोदनं कार्यम्, न वा शिरसो मस्तकस्य प्रदेशो भागस्ताडनीयः । जिनकल्पिकपर कमिदं सूत्रम्, स्थविरकम्पिकस्य तु कारणवशात् वणस्य आमार्जनप्रमार्जनादिकं निरवद्यतया कर्त्तुं कल्पते ॥ सू० २८-३३ ॥
सूत्रम्---जे भिक्खू अप्पणी कायंसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेण तिक्खेण सत्थजाएण आच्छिदज्ज वा विच्छिदेज्ज वा, आच्छिदंतं वा विच्छिदंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
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छाया- यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्शो वा भगदुरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आछिन्याहा विच्छिन्द्याद्वा आच्छिन्दन्तं वा विच्छि दन्तं वा स्वते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' आत्मनः काये - स्वशरीरे 'गंडं वा' गण्डं वा तत्र गण्डो नाम य उच्चप्रदेशात् नीचप्रदेशं गच्छति स ऋणः गण्डमाला - कण्ठमालेति लोकप्रसिद्धः, तम्, तथा-- पिलकं वा पादवणम्, 'अरइयं का' परतिकां वा यस्या वेदनया मनसि भरविरुत्पद्यते, शरीर रक्तविकारेण जायमानलघुत्रण पुल
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चूर्णिमा व्यावचूरिः उ० ३ सू० ३४-३५ कायगतगण्डादीनां छेदनपूयादिनिस्सारणनि० ९५ रूपाम्, यस्याः स्वर्जने तत्समये सुखमिव जायते पश्चात् दुःखाधिक्यम् 'फुनसी' - तिं लोकप्रसिद्धम्, 'असियं वा' अर्शो वा गुदागतो रोगः 'बवासीर ' इति लोकप्रसिद्धस्तम्, 'भगंदलं वा' भगन्दरं वा भगन्दरो गुह्यस्थानगतरोग विशेषो लोकप्रसिद्धस्तम् । एतान् व्रणविशेषान् 'अन्नवरेण तिक्खेण सत्थजाएण' अन्यतरेण येन केनाऽपि तीक्ष्णेन निशितेन - शत्रजातेन क्षुरादिना 'आच्छिदेज्ज वा' आच्छिन्द्यात् न्यूनमेकवारं वा छेदनं कुर्यात् 'विच्छिदेज्ज बा' विच्छि न्यात् अधिकमनेकवारं वा छेदनं कुर्यात् । तथा - 'आच्छिदंत वा विच्छिदतं वा साइज्जर' मच्छिन्दन्तं वा विच्छिन्दन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादिदीवा भवन्ति ॥ सू० ३४ ॥
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् - सरीरत्थं च गंडाइ, छिंदतो पावर जई । आणाभंगाइए दोसे, दुविहं च विराहणं ॥
छाया - शरीरस्थं च गण्डादि छिन्दन् प्राप्नोति यतिः । आशाभङ्गादिकान् दोषान् द्विविधं च विराधनम् ॥
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अवचूरि : - 'सरीरत्थं' इत्यादि । यः खलु यतिः सम्वग् यतनावान् श्रमणः - श्रमणी वा शरीरस्थं - स्वकीयशरीरे वर्त्तमानं गण्डादिवणं तीक्ष्णेन क्षुरकादिशत्रेण स्वयमेव छिन्दन् छेदयन् वा परेण आज्ञाभङ्गानवस्थामिध्यात्वलक्षणान् दोषान् प्राप्नोति । तथा द्विविधं द्विप्र कारकं विराधनम् संयम विराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोति । त्रणच्छेदनकरणे सूक्ष्मबादरायनेकप्रकारकजीवानां विराधनं सम्भवति । तथा-8 - क्षुरकादिशस्त्रेण वणादिच्छेदने आत्मवधस्याऽपि संभ
वेनात्मविराधना चेति ॥ सू० ३४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खु अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता - विच्छिदित्ता, पूयं वा सोणियं वा, णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, पीहेरेंतं वा विसोहतं वा साइज्जइ || सू० ३५॥
छाया --- यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्ड वा पिलकं वा अरतिकां वा भगन्दरं बा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य विच्छिद्य पूयं वा शोणिते वा निईरेद्वा विशोधयेद्वा, निरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' आत्मनः काये स्थितम् 'गंडं वा' गण्डामिघत्रणम्, 'पिगं वा' पिलकं वा 'अरइयं वा' भरतिकां 'भमंदलं ना'
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८
निशीथस्त्रे भगन्दरं-लिङ्गगुदयोर्मध्ये नाडीस्थं व्रणम् , यदि 'अन्नयरेण' अन्यतरेण-येन केनाऽपि 'तिक्खेणं' तीक्ष्णेन, 'सत्यजाएणं' शस्त्रजातेन 'आच्छिदित्ता' आच्छिद्य-ईषदेकवारं वा छेदनं कृत्वा 'विछिदित्ता' विच्छिद्य-अधिकमनेकवारं वा छेदनं कृत्वा ततो व्रणप्रदेशात् 'पूयं वा सोणियं वा' पूर्व वा शोणितं वा-पक्वरुधिरं पूयः, अपक्वं रुधिरं शोणितम् 'णीहरेज वा' निहरेत्निष्कासयेत् 'विसो हेज्ज वा' विशोधयेत्-व्रणगतप्यादिकस्य शोधनं कुर्यात् । तथा 'णीहरतं वा' निर्हरन्तं व्रणप्रदेशात् पूयादिकं निष्कासयन्तम्, 'विसोहेंतं वा' विशोधयन्तं प्यशोणितादेः शुद्धिं कुर्वन्तम् 'साइज्जई' स्वदते, यो भिक्षुः स्वशरीरस्थितव्रणादिविशेष छित्त्वा ततो गलन्तं पूयशोणितादिकं निष्कासयति विशोधयति वा, योऽनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभाग् भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादोषाः, तस्मात् कारणात् शरीरस्थमपि व्रणविशेषं छित्वा छेदयित्वा वा ततो निर्गलन्तं प्यशोणितादिकं न निर्हरेत् , न वा विशोधयेत् , किन्तु ततो जायमानां वेदनां साम्यभावेन सहेतेति ।। सू० ३५॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम् - जम्मतरोवज्जियमत्यु दुखं, मुहं समागच्छउ वा जहिच्छं ।
. इत्थं समाहित्थमणो मुणंतो, जो सम्मभावेण सहे स साहू ॥ छाया-जन्मान्तरोपार्जितमस्तु दुःखं सुखं समागच्छतु वा यथेच्छम् ।
इत्थं समाधिस्थमना जानन् यः साम्यभावेन सहेत स साधुः॥ अवचूरिः- 'जम्मंतरोवज्जिय' इत्यादि । जन्मान्तरे परभवे यद् उपार्जितं दुःखमस्तु सुखं वा यथेच्छं समागच्छतु नात्र मम काऽपि चिन्ता, इस्थम् अनेन प्रकारेण समाधिस्थमनाः स्वकृतकर्मफलं जानन् सन् यो मुनिः दुःखं सुखं वा साम्यभावेन सहेत स साधुः कथ्यते ॥
अयं भावः-समाधौ वर्तमानो भिक्षुः स्वात्मानं भूषयन्तं छेदयन्तं वा न जानीते तत्र तस्य किं महत्त्वम् , यत् सुखं दुःखं वा सहते है। इत्थमोषधिप्रयोगेण भिषम्भिरचैतन्यावस्थामानीतस्तावत्सुखं दुःखं वा न जानाति तत्रापि तस्य सुखदुःखसहने न महत्त्वम् । महत्त्वं तु-यश्चैतन्यदशायां स्थितो न समाधौ-न वा मूर्छितावस्थायां तत्र प्रतिक्षणं स्वशरीरे व्रणादिजनितमसह्यमपि दुःखं जन्मान्तरकर्मोपार्जितमिति मत्वा समभावेन सहते तस्य तदेव महत्त्वम् , उक्तं च
विषगणपरिवेगाद्वा समाधेः प्रयोगाद, यदि सहनसमर्थः स्वाङ्गदुःखस्य भोगे । नहि भवति स सोडा नास्य तत्तन्महत्त्वं,परिभजति समस्थस्तन्महत्त्वं महत्त्वम् ॥१॥
सुखं तु सोऽपि जनः सानन्दो भूत्वा हसन् सहते किन्तु-धीरस्तत्रानन्दमजानानस्तीथंकरोकभावनां भावयन् दिवसं वा रात्रिं वा व्यतिक्रामतीति ॥ ३५ ॥
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पूर्णिमाम्यावरिः उ० ३ सू० ३६-३९ ___ कायगतगण्डादीनामुच्छोलनादिनिषेधः ५
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडे वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरित्ता विसोहित्ता सीओदगविय. डेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलें वा पधोवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३६ ॥ . छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा अशों की भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आच्छिद्य विच्छिद्य पूर्व वा शोणितं का निहत्य विशोध्य, शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा, उच्छोलेद्वा प्रधावेद्वा, उच्छो. लन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ खू० ३६ ।!।
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यो भिक्षुः 'अप्पणो कार्यसि' आत्मनः काये 'गंडं वा' गण्डं-कण्ठमाला वा, 'पिलगं वा'-पादत्रणं वा 'अरइयं वा' अरतिको वा-लघुवणजालरूपाम् 'असियं वा' अर्शो वा 'भगंदलं वा' भगन्दरं वा 'अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्यजाएणं' अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन 'आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता' आच्छिद्य विच्छिद्य, ततो निर्गलन्तं पयं वा 'सोणियं वा शोणितं वा 'नीहरिता' निर्हत्य-निष्कास्य 'विसोहित्ता' विशोध्य, तदनन्तरम् 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा- अचित्तशीतोदकेन- तण्डुलादिधावनजलेन वा, 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकठेन-अचित्तोष्णोदकेन, 'उच्छोलेज्ज वा' उच्छोलेत्-एकवारमल्पं वा प्रक्षालयेत् , 'पधोवेज्ज वा प्रधावयेत्-अनेकवारमधिकं वा प्रक्षा. लयेत् । तथा-उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ' उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनाल्मविराधनादोषाः, तस्मात्तथा न कर्त्तव्यं भिक्षुणा ।। सू० ३६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ताविच्छिदित्ता णीहरेत्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोवित्ता अन्नयरेणं आले. वणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा, आलिंपेतं वा विलितं वा साइ ज्जइ ॥ सू० ३७॥ . छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये-गण्डं वा पिलकं वा अरतिको वा अशी वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन, आच्छिद्य विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्य
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૨.
निशीथसूत्रे
प्रधाव्य अन्यतरेण आलेपनजातेन आलिम्पेद्वा विलिम्पेद्वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः इत्यादि स्पष्टम् । नवरम्उच्छोलनप्रधावनानन्तरम् 'अन्नयरेण आलेवणजाएणं' अन्यतमेनाऽऽलेपनजातेन - औषधिविशेषेण 'मलहम' इति लोकप्रसिद्धेन, 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् ईषदेकवारं वा आलेपनं कुर्यात्, 'विलिपेज्ज वा 'विलिम्पेत् - अधिकमनेकवारं वा द्रव्यलेपनं व्रणोपरि कुर्यात् । 'आलिपेतं वा विलिं पेतं वा साइज्जर' आलिम्पन्तं वा विकिम्पन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, भवन्ति च तस्याज्ञाभङ्ग। दिदोषाः । सू० ३७ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणा कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता णीहरिता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता विलिंपित्ता तेल्लेण वा घरण वा बसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभगतं वा मक्तं वा साइज्जइ ॥ सू० ३८ ॥
छाया - यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्डं वा पिलकं वा अरतिकां वा भशों वा भगन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्य प्रधाव्य विलिप्य तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यङ्गयेवा ब्रक्षयेवा अभ्यङ्गयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुरित्यादि स्पष्टम् । पूर्वोक्तं संर्वकृत्वा तदनन्तरं ' तेल्लेण वा' तैलेन सार्षपादिना 'घरण' घृतेन 'वसाए वा' वसया 'णवणीपण वा' नवनीतेन म्रक्षणेन 'अभंगेज्ज वा' अभ्यङ्गयेत् - अल्पमेकवारं वाऽभ्यङ्गनं कुर्यात्, 'मक्खेज्ज वा' प्रक्षयेद्वा - अत्यधिकमनेकवारं वा तैलादिना मर्दनं कुर्यात् । 'अभंगेत वा मक्खतं वा साइज्जइ' अभ्यङ्गयन्तं वा म्रक्षयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागु भवति, तस्याज्ञा भङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ३८ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरिता विसोहित्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता विलिंपित्ता
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ४०-४९ पायुकृमिकादिनिस्सारणनखशिखादिकर्त्तननि० ९५ मंखेत्ता, अण्णयरेणं धूवजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूवेतं वा पधूवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३९॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनः काये गण्ड वा पिलकं वा अरतिकां वा अर्थो वा भन्दरं वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य-विच्छिद्य निहत्य विशोध्य उच्छोल्यप्रधाव्य विलिप्य म्रक्षयित्वा अन्यतरेण धूपजातेन धूपयेद्वा प्रधूपयेद्वा धूपयन्तं वा प्रधू. पयन्तं वा स्वदते ।। सू० ३९॥
__चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो कायंसि' आत्मनः काये, गण्डादिकं स्पष्टम् । पूर्वोक्तं सर्व प्रक्षणादिपर्यन्तं कृत्वा तदनन्तरं 'अन्नयरेणं धूवजाएणं' अन्यतरेण धूपजातेन यं कमपि धूपं वह्नौ प्रक्षिय्य-तज्जातधूमेन 'धूवेज्ज वा' धूपयेत्-धूमेनैकवारं धूपयेत् 'पधूवेज्ज वा' प्रधूपयेत्तादृशधुमेन वारं वारम् 'धूवेंतं वा पधूवेतं वा साइज्जई' धूपयन्तं वा, प्रधूपयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाश्च भवन्ति ॥ सू० ३९ ॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-कार्यसि अप्पणो भिक्खू , गंडाई जइ छिंदए ।
छिदित्ता य विच्छिदित्ता, नीहरे पूयसोणियं ॥ णीहरेत्ता विसोहेत्ता, सीओसिणवियडेण वा । उच्छोलेज्जा पधोवेज्जा, विलिंपेज्जाहवा जइ ॥ मंखेत्ता धूवजाएणं, धूवेज्जा अणुमोयए ।
आणाभंगाइदोसाई, पावई नत्थि संसओ ॥ छाया-काये-आत्मनो भिक्षु-र्गण्डादिं यदि छिनत्ति ।
छित्वा च विच्छिद्य निर्हरेत् पूयशोणितम् ॥ नित्य विशोध्य शीतोष्णविकटेन वा । उच्छोले प्रधावेत् विलिंपेदथवा यदि ॥ प्रक्षयित्वा धूपजातेन धूपयेवनुमोदयेत् ।
माशाभकादिदोषान् प्राप्नोति नास्ति संशयः॥ अवचूरि:-'कार्यसि अप्पणो' इत्यादि । यो भिक्षुर्गण्डादिमात्मनः काये स्थितं यदि छिनत्ति । अथाऽनन्तरम्-छित्त्वा, विच्छिद्य, एकवारमनेकवारं वा । ततः-पूयं वा शोणितं वा निह रेत , निहत्य-विशोध्य वा शीतोदकविकृतेन अचित्तशीतजलेन तण्डुलघावनादिना, अचित्तेष्णोदकेन वा उच्छोलेद्वा प्रधावेद्वा । अथवा विलिप्य म्रक्षयित्वा हस्तलाघवेन मर्दनं कृत्वा, ततो धूपजातेन केनापि धूपेन धूपयेत् । तथाभूतमन्यं वाऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति मत्र संशयो नाऽस्तीति ।। सू० ३९॥
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१००.
निशीथसूत्रे
सूत्रम् - - जे भिक्खू अप्पणो पाउकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय णीहरइ, णीहरंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४० ॥
छाया -यो भिक्षुः आत्मनः पायुकृमिकं वा कुक्षिकृमिकं वाऽङ्गुल्यां निवेश्य - निवेश्य निर्द्वति, निर्हरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४० ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो पाउकिमियं वा ' आत्मनः पायुकृमिकं वा स्वगुदास्थितक्षुद्रजीवान् - 'कुच्छिकिमियं वा' कुक्षिकृमिकम्, तत्रकुक्षावुदरे भवान् -लघुजीवान् ‘अंगुलीए निवेसिय निवेसिय' अङ्गुल्यां निवेश्य निवेश्य – स्वाङ्गुलीमन्तः पायौ - कुक्षौ वा प्रवेश्य प्रवेश्य 'णीहरइ' निर्हरति- निष्कासयति 'णीहरंतं वा साइज्जइ' निर्हरतं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्व संयमात्मविराधनादोषा भवन्ति । तत्र विधिनाऽविधिना निष्कासने जीवानां विराधनसंभवेन संयमविराधनम् । तथा - कदाचित् देहक्षतौ स्वात्मविराधनम् । तस्मात्कारणात् संयमार्थिना कदाचिदपि कृमीणां निर्हरणं न कर्त्तव्यम्, किन्तु समभावेन कृमिबाधाजनितं दुःखं सर्वदाऽदीनभावेनाऽधिसोढव्यम्, इति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ महसीहाओ कप्पेज्ज वा संवेज्ज वा कप्पं वा संठवतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१॥
छाया -यो भिक्षुः आत्मनो दीर्घाः नखशिखाः कल्पेत वा संस्थापयेद्वा कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४१ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दीहाओ' आत्मनो दीर्घा अतिवर्द्धमानाः 'नहसिहाओ' नखशिखाः - नखाग्रभागान् ' कप्पेज्ज वा' कल्पेतकर्त्तयेत्, ‘संठवेज्ज वा' संस्थापयेत् - संस्कुर्यात् रागादिना, कप्पेतं वा संठतं वा साइज्जइ' कल्पमानं–कर्त्तयन्तं संस्थापयन्तं संस्कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रयश्चित्तभाग् भवति । तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । इत आरम्यैकोनपञ्चाशत्सूत्रं यावत् - जिनकल्पिकमधिकृत्य ज्ञातव्यम् || सू० ४१ ॥
मूलम् — एवं - दीहाई बस्थिरोमाई ० || ४२ || दीहाई चक्खुरोमाई • ४३ दीहाई जंघरोमाई ० ||४४ || दी हाई कक्खरामाई || ४५ ॥ दी हाई मंसुरोमाई ० ॥ ४६ ॥ दीहाई के साईं ० || ४७|| दीहाई कण्णरामाई ० ॥ ४८ ॥ एवं नासारोमाई० || सू० ४९ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ५०-५८ दन्तघर्षणाद्यौष्ठाऽऽमर्जनादिनिषेधः १०१
' छाया - पवम्-दीर्घाणि बस्तिरोमाणि० ॥४२॥ दीर्घाणि चक्षुरोमाणि० ॥४३॥ दीर्घाणि जङ्घारोमाणि० ॥४४॥ दीर्घाणि कक्षारोमाणि० ॥४५॥ दीर्घाणि श्मश्रुरोमाणि ॥४६॥ दीर्घान् केशान्० ॥४७॥ दोर्घाणि कर्णरोमाणि ॥४८॥ एवं नासारोमाणि ॥४९॥
चूर्णी-एतानि द्विचत्वारिशत्सूत्रादारभ्य एकोनपञ्चाशत्सूत्रपर्यन्तानि सूत्राणि पूर्ववद् व्याख्येयानि ॥ सू० ४२-४९॥
सुन्नम्-जे भिक्खु अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा पधंसेज्ज वा आघंसंतं वा पघंसतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५०॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दन्तान् आघर्षद्वा प्रघर्षद्वा आघर्षन्तं वा प्रघर्षन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दंते' आत्मनः स्वस्य दन्तान् 'आघंसेज्ज वा' आघर्षत् मृत्तिकया क्षारपुटादिना वा सकृत् घर्षेत्, 'पघंसेज्ज वा' प्रघत्-अनेकवारं वा घर्षेत् । तथा-'आघंसं वा पघंसंतं वा साइज्जई' माघर्षन्तं वा प्रघषन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः स्वकीयदन्तान् मृत्तिकादिनैकवारमनेकवारं वा घर्षति घर्षन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ५०॥
सूत्रम्-जेभिक्खू अप्पणो दंते सीओदगवियडेण उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५१॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दन्तान् शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा. उच्छोलेडा प्रधावेद्वा उच्छोलन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते । सू० ५१॥
चूर्णीः-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दंते' आत्मनः स्वस्य दन्तान् 'सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन-तण्डुलधावनादि. जलेन अचित्तेन, उष्णोदकविकटेन-अचित्तोष्णोदकेन 'उच्छोलेज्ज वा' उच्छोलेत् एकवारं वा 'पधोवेज्ज वा' प्रघावेद् वारं वारम् । तथा-'उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ' उच्छोलन्तं वाप्रधावन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः स्वकीयदन्तानेकवारमनेकवारं वा प्रक्षालयेत् अथवा-प्रक्षालयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्ताभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । यस्माददन्तधावनेएते दोषा मतो भिक्षुभिर्दन्ता न प्रक्षालयितव्याः ॥ सू० ५१॥
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निशीथसूत्र सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं रएंतं वा खाइज्जइ ॥सू० ५२॥
छाया-यो भिक्षुरात्मनो दन्तान् फूत्कुर्याद्वा रज्जयेद्वा फूत्कुर्वन्तं वा रज्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू०५२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दंते' आत्मनो दन्तान् 'फुमेज्ज वा' फूत्कुर्यात् मुखवायुना 'रएज्ज वा' रञ्जयेद्वा-रागादिद्रव्येण स्वदन्तान् रागयुक्तान् कुर्यात् । तथा 'फुतं वा एतं वा साइग्जइ' फूत्कुर्वन्तं वा रञ्जयन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभागू भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । दन्तानां फूत्कारे वायुकायविराधना भवति रञ्जनेऽनेके दोषा उक्ता अतस्तान्न फूकुर्यात् न वा रञ्जयेत् ॥ सू० ५२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो ओठे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥सू० ५३॥
सूत्रम्-एवं ओठे पायगमओ भाणियन्वो जाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएतं साइज्जइ ॥ सू० ५४-५८||
छाया-यो भिक्षुः आत्मन ओष्ठौ-आमार्जयेद्वा प्रमार्ज़येद्वा मामार्जयन्त वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥सू० ५३॥ ___एवम्-ओष्ठे पादगमको भणितव्यो यावत्फूत्कुर्याद्वारजयेद्वा, फूत्फुर्वन्तं वा रञ्ज. यन्त वा स्वदते ॥ सू० ५४-५८।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो ओढे' आत्मनःभौष्ठी, 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत्-एकवारं वस्त्रादिना ओष्ठयोः प्रमार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा-अनेकवारं प्रमार्जनं कुर्यात् । 'आमज्जतं वा पमज्जंतं वा साइज्जई' आमजयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५३॥ एवं ओढे' इत्यादि । 'एवं ओढे' एवम्- अनेन प्रकारेणोष्ठे-ओष्ठविषयेऽपि 'पायगमओ' पादसूत्रोक्तो गमकः प्रकारः 'भाणियन्वो' भणितव्यः 'जाव फुमेज्ज वा-रएज्ज वा' यावत्-फूत्कुर्याद्वारञ्जयेद्वार, 'फुमेंतं वा रएतं वा साइज्जइ' फूत्कुर्वन्तं वा रञ्जयन्तं वा स्वदते ॥सू० ५४-५८॥ ___ तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो ओढे संवाहेज्ज वा पलिमहेज्ज वा संवाहतं वा पलिमदेत वा साइज्जइ ॥म० ५४॥ जे भिक्खू अप्पणो ओढे तेल्लेण वा घरण वा वसाए पाणवणीएण वा, मंखेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मखंत वा भिलिंगेतं वा साइज्जइ ॥सू०५५॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ३ सू० ५९.६८ उत्तरौष्ठादिरोमकर्त्तनाक्ष्यामर्जनादिनिषेधः १०३ जे भिक्खू अप्पणो ओढे लोरेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा पउमचुण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा उध्वटेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा उव्वटेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०५६॥जे भिक्खू अप्पणो ओढे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा बधोवेंन्तं वा साइज्जइ ॥सू०५७॥ जे भिक्खू अप्पण्णो ओढे फुमेज्ज बा रएज्ज बा फुतं वा रएतं वा साइजइ ॥सू० ५८॥" व्याख्या पूर्व पादसूत्रे गता ॥ सू०५४-५८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं उत्तरोठरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९॥ एवं दीहाई अच्छिपत्ताई। सू०६०॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दीर्धाणि-उत्तरोष्ठरोमाणि कल्पयेद्वा संस्थापयेद्वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥ एवम्-दीर्धाणि-अशिपत्राणि ।। सू० ६०॥ . चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यो भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः 'दीहाई दीर्घाणि-प्रवृद्धानि 'उत्तरोहरोमाई' उत्तरोष्ठरोमाणि 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेत्-शोभार्थं छिन्द्यात्, संठवेज वा संस्थापयेत् , शोभावृद्धयर्थमशोमानिवारणार्थमूर्ध्वमधः कुर्यात् । तथा 'कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ' कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥सू० ५९॥ ‘एवं दीहाइं अच्छिपत्ताई' एवम्-पूर्वोक्तोत्तरोष्ठसूत्रवदेवअक्षिपत्रसूत्रमपि ज्ञेयम् । अक्षिपत्राणीति–अक्षिपक्ष्माणीत्यर्थः, एवं पूर्वसूत्रवत्-अक्षिपत्रस्त्रं ज्ञेयम् । तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा साइज्जइ" व्याख्या पूर्वोक्तोत्तरोष्ठरोमकर्तनसूत्रस्येव बोध्या ॥ सू० ६०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ।। सू०६१॥ एवमच्छिसु पायगमओ भाणियव्वो, जाव फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुतं वा एतं वा साइज्जइ ॥६६॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनोऽक्षिणी आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा, आमार्जयन्तं वा, प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६१ ॥ एवमक्षिषु पादगमको भणितव्यः यावत् फूत्कुर्याद्वा रज्जयेद्वा फूत्कुर्वन्तं पा रञ्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६२-६६ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो अच्छीणि' आत्मनोऽक्षिणी-नेत्रे, “आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत्-तयोरेकवारं मार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा, अनेकवारं प्रमार्जनं कुर्यात् । तथा 'आमज्जंतं वा पमज्जतं वा 'साइज्जइ' आमार्जयन्तं वा-प्रमार्जयन्तं वा-स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ६१॥ 'एवमच्छिमु'
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निशी इत्यादि । 'एवमच्छिसु' एवम्- अनेनप्रकारेणाऽक्ष्णोः विषये पादसूत्रवद्गमकः प्रकारो भणितव्यः, यावत्-'फूमेज्ज वा-रएउजवा, फूमंत वा-रएत वा खाइज्जई' ॥
तथाहि-"जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि संबाहेज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंत वा पलिमतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६२॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज घा भिलिंगेज्ज वा, मखंतं वा भिलिंगेत का साइज्जइ ॥ सू०६३॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा, उल्लोलेज्ज वा उन्वटेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उव्वटेतं वा साइज्जई ॥ सू० ६४॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज्ज़ वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा-पधोवते वा साइजइ ।। सू० ६५॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि फुमेज्ज वा-रएज्ज वा, फुतं वा एतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६६॥" एषां व्याख्या पादसूत्रवत् कर्त्तव्या ॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई भमुहरामाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ॥ सू० ६७ ॥
छाया-यो भिक्षुः आत्मनो दीर्घाणि भूरोमाणि कल्पयेद् वा-संस्थापयेद्वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सु. ६७॥ ___ चू:-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः 'दीहाई दीर्वाणि-लम्बमानानि 'भमुहरोमाई' भूरोमाणि-भुवो रोमाणि केशान् , 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेद् वा-शोभार्थ कर्त्तयेत् , 'संठवेज्ज वा' संस्थापयेद्वा, तत्र संस्थापन कतरिकादिवत्-तीक्ष्णीकरणं, शुकतुण्डवद्वाऽऽकुश्चितं कुर्यात् । तथा-'कप्त वा संठवेंतं वा साइज्जई' कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ६७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो दीहाई पासरामाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६८॥
छाया-यो मिक्षुः आत्मनो दीर्घाणि पार्श्वरोमाणि कल्पयेवा संस्थापयेद्वा कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६८॥
चूर्णी-"जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो दीहाइं पासरोमाई आत्मनो दीर्घाणि पार्श्वरोमाणि 'कप्पेज्ज वा' कल्पयेत् कर्तीप्रभृतिना 'संठवेज्ज वा' संस्थापयेद्वा-शुकतुण्डादिवत् कुर्यात् । “कप्तं वा--संठवेंतं वा साइज्जइ' कल्पयन्तं संस्थापरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० ६८॥
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चूर्णिमा यावचूरिः उ०३०६९-७१ अक्ष्यादिमल निष्कासनकायगतस्वेदादिनिर्हरणनि० १०५
सूत्रम् - जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा हमलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा विसोर्हेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६९॥
छाया -यो भिक्षुः आत्मनोऽक्षिमलं वा कर्णमलं वा दन्तमलं वा नखमलं वा निर्हरेद्वा विशोधयेद्वा, निर्हरतं वा विशोधयन्तं वा स्वदते || सू० ६९ ||
चर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अप्पणो' आत्मनः अच्छि - मलं वा' - अक्षिमलं नेत्रमलम्, तथा - 'कण्णमलं वा' कर्णमलं वा, 'दंतमलं वा' दन्तमलदन्तपङ्क्ति संलग्नम् | ' हमलं वा' नखमलं वा नखानां करचरणगतानां मध्ये विद्यमानं मम् तत्स्थानात् 'णीहरेज्ज वा' निर्हरेत् निष्कासयेत्, तथा--' बिसोहेज्ज वा' विशोधयेत् -मलमपनीय शोभां संपादयेत् । 'णीहरेंतं वा विसोर्हेतं वा साइज्जइ' निर्हरन्तं वाविशोधयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ६९॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वाणीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नी हरेंतं वा विसोर्हेतं वा साइज्जइ ॥ ७० ॥
१४
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छाया - यो भिक्षुरात्मनः कायात् स्वेदं वा जल्लं वा पङ्क वा मलं वा निर्हरेद्वाविशोधयेद्वा, निरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७० ।।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू, यो भिक्षुः, 'अप्पणो कायाओ' आत्मनः कायात् - स्वशरीरात् 'सेयं वा' स्वेदं वा धर्माऽतिशयेन शरीराद्विनिर्गतं जलम्, 'जल्लं वा' जल्लं शरीरमलम् 'पंकं वा' तत्र - पङ्कः - शरीरसंलग्न प्रस्वेदमिश्रित धूलिरूपस्तम् ' ' मलं वा' मलं - शोणितादिरूपम् 'नीहरेज्ज वा' निर्हरेत् - निष्कासयेत् 'विसोहेज्ज वा' विशोधयेत, तथा - ' - 'नीहरेंतं वा - विसोर्हेतं वा साइज' निर्हरन्तं वा विशोधयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ७० ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम्) भाष्यम् - दिद्धं मलं सयमहेत्थ पडेज्ज चित्तं, तप्पाडणे जइ एज्ज मुमुक्खलोगो । सिंगारकागजसुय साहुलोगे, ओ कि अहह संसइयं च चेओ || सेयाइयं देहमलं, नीहरेज्जा सदेहओ । आणाभंगाइए दोसे, पावेज्जा नेत्थ संसओ ||
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विधीयसूत्र छाया-दिग्धं मलं स्वयमथाऽत्र पतेत् चित्रं-,
तत्पातने यदि यतेत मुमुक्षुलोकः । शृङ्गारकामुकजनेषु च साधुलोके, भेदः कियानहह ! संशयितं च चेतः ॥ स्वेदादिकं देहमलं निहरेत् स्वदेहतः ।
आशाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ . अवचूरिः-'दिद्धं मलं' इत्यादि । अथ-अत्र देहे दिग्धं-लिप्तं-शरीरसंग्नं मलं वृद्धिंगतं 'सत्' स्वयमेब पतेत्-शरीरात् पृथग् भवेत् तस्य-स्वयं पततो मलस्य पातने-निष्कासने, शृङ्गारिकजनो व्यव. स्यति तथैव क्षुद्रकर्मणि मलनिष्कासने यदि मुमुक्षुलोकः साधुवर्गों यतेत, अत्र चित्रं मन्ये । यः साधुर्मोक्षं यत्नतः साधयति, स यदि यत्नमास्थाय शरीरशोभामेव वर्द्धयेत्, शरीरशोभामेव साधयेत्-तदा शृङ्गारकामुकेषु जनेषु च पुनः साधुलोके कियान् भेदः ! को भेदः ! अहह (1) मदीयं चेतः संशयितम् , यथा न संभावयामि यत् शरीरशोभासंलानो मुनिोक्षं साधयिष्यतीति । • इत्थंमुहुर्मुहुः शास्त्रतत्त्वविद्भिर्बोध्यमानोऽपि यदि भिक्षुः स्वेदेहत स्वदादिकं देहमलम् उपलक्ष णाकर्ण-नेत्रादिमलं निर्हरेत् , तदा-आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात् , अत्र सन्देहो न मन्तव्यः ॥सू०७०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवा. रियं करेइ करतें वा साइज्जइ । सू० ७१॥
छाया-यो भिक्षु मानुग्राम द्रवन्-आत्मनः शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७॥
चूर्णी—'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘गामाणुगामं दूहज्जमाणे' प्रामानुग्रामं द्रवन्-एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरं गज्छन् , शिशिरऋतौ-ग्रीष्मऋतौ च शीत-धर्मवारणार्थ 'अप्पणो' आत्मनः, 'सीसवारिय' शीर्षद्वारिकां -शीर्षस्य मस्तकस्य द्वारिका आवरकां, शीर्षाऽऽवरणमिति यावत् । साध्वी तु मस्तक 'चूंघट' इति लोकप्रसिद्धेनाऽवगुण्ठयितुं शक्नोतीत्यपवादः । 'करेइ' करोति, आतपः शीतं वा मा बाधतामिति बुद्धया येन केनापि साधनेन मस्तकमाछादयति । 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्मासकल्पं परिसमाप्य ग्रामाद्ग्रामान्तरं गच्छन् स्वात्मनः शिरसि वस्त्रादिना छत्रवत् प्रावरण-मवगुण्ठनं करोति तथा कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७१।।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- मत्थे पावरणं अंसे, करेमाणेऽवरोवणं ।
गिहिस्स लिंगमन्नस्स, करंतो दोसभा हवे ॥
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बूर्णि० उ०३ सू० ७२-७५ वशीकरणसूत्रस्यास्थानेषूच्चारादिपरिष्ठापनस्य च नि० १०७ छाया-मस्तके प्रावरणमंसे कुर्वाणोऽवरोपणम् ।।
गृहिणो लिङ्गमन्यस्य कुर्वन् दोषभाग् भवेत् ॥ अवचूरिः-'मत्थे' इत्यादि । ग्रामाद्नामान्तरं गच्छन् संयतः मस्तके स्वशिरोदेशे प्रावरणम् आच्छादनम्, असे-स्कन्धस्यैकदेशे शोभार्थम् अवरोपणं-स्थापनं वा कुर्वन्, मस्तके स्कन्धदेशे वा चोलपट्टादिकं बध्नन् , यद्वा-गृहिणो लिङ्गम्-गृहस्थवेषं, यद्वा -गृहस्थवत् वनाच्छादनं करोति, अन्यस्य वा लिङ्गम् अन्ययूथिकवत् वस्त्रस्य परिधानादि कुर्वन् तिष्ठति स दोषभाग भवेत् , आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् लभेत ॥सू० ७१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा बोंडकप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा वसीकरणसुत्ताई करेइ करें। वा साइज्जइ ॥ सू०७२॥ छाया-यो भिक्षुः शणकार्पासाद्वा ऊर्णाकार्पासाद्वा बोंडकार्पासाद्वा अमिलकाः
सावा वशीकरणसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ७२।। चूर्णो–'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, 'सणकप्पासाओ वा' शणकार्पासाद्वा--शणसूत्रात् 'उण्णकप्पासाओ वा' ऊर्गाकार्पासाद्वा-ऊर्णासम्पादितसूत्राद्वा 'बोडकप्पासामो वा' बोंडकार्पासात् तत्र ‘बोर्ड' इति देशी शब्दः कर्पासवाची तेन बोडसूत्रादिति कार्पाससूत्राद्वा 'अमिलं' इति देशी शब्दः ऊर्णाविशेषवाची तेन अमिलं- ऊर्णाविशेषः, तन्निर्मितसूत्राद्धा एतैः शणकार्पासादिभिः सूत्रैः 'वसीकरणमुत्ताई करेइ' वशीकरणसूत्राणि करोति, अयं भावःयो भिक्षुर्वशीकरणार्थ पतिपुत्रादि वशीकर्तुं शणकार्पासादिना सूत्राणि करोति-निर्माति । 'करें। वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० ७२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिहंसि वा गिहमुहंसि वा गिहदुवारंसि वा गिहपडिदुवारंसि वा गिहेलूयंसि वा गिहंगणंसि वा गिहवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ परिहवेत वा साइज्जइ ॥सू०७३॥ - छाया-यो भिक्षुः गृहे वा गृहमुखे वा गृहद्वारे पा गृहप्रतिद्वारे वा गृहैलुके वा गृहाङ्गणे वा गृहवर्चसि वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वरते ॥सू० ७३॥ __चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'गिर्हसि वा' गृहे वा 'गिहमुहंसि वा' गृहमुखे वा 'गिहदुवारंसि वा' गृहद्वारे वा यदाश्रित्य गेहे प्रविशति--तस्मिन् स्थाने वा, 'गिहपडिवारंसि वा' गृहप्रतिद्वारे वा--गृहस्याऽवान्तरद्वारे इत्यर्थः 'गिहेलुयंसि वा'
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१०८
निशीथसत्र गृहैलुके वा--गृहस्य--एलुकेऽप्रभागे 'गिहंगणंसि वा' गृहाङ्गणे वा-गृहमध्ये निरावृतस्थानविशेषे 'गिहवच्चंसि वा' गृहवर्चसि वा--गृहस्थवोंगृहे, गृहस्थस्योच्चारनिवारणस्थाने, “उच्चारं वा' उच्चारं--पुरीपोत्सर्ग वा 'पासवणं वा' प्रस्रवणम्--मूत्रं वा 'परिद्ववेई' परिष्ठापयति-व्युत्सृजति गृहस्थस्यैतेषु प्रदेशेषु यदि भिक्षुर्मूत्रपुरीषादिकं करोतीत्यर्थः । 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७३॥
सूत्रम्--जे भिक्खू मडगगिहंसि वा मडगछारियंसि वा मडगथूमियंसि वा मडगआसयंसि वा मडगलेणंसि वा मडगथंडिलंसि वा मडगवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ।। सू०७४ ॥
छाया--यो भिक्षुः मृतकगृहे वा मृतकक्षारे वा मृतकस्तूपे वा मृतकाश्रये वा मृतकलयने वा- मृतकस्थण्डिले वा मृतकवर्चसि वा, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा, परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू०७४।। .. चूणीं-'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मडगगिहंसि वा' मृतकगृहेयत्रं मृतकं स्थापयित्वा तदुपरि मृत्तिकादिना चयनं क्रियते किन्तु न दहति तत् मृतकगृहं कथ्यते, तस्मिन् 'मडगछारियसि वा' मृतकक्षारे वा-दग्धमृतकस्य पुजीकृतभस्मस्थाने 'मडगथूभियंसि वा' मृतकस्तूपे मृतकोपरिकृतशिखररूपे स्थाने वा 'मडगआसयंसि वा मृतकाश्रयेश्मशावासम्मप्रदेशे यत्रानीय मृतकं स्थाप्पते तस्मिन् 'मडगलेणंसि वा' मृतकलयने मृतकदाहस्थाने कृतं देवकुलादिकं स्थानम् , तस्मिन् , 'मडगथंडिलंसि वा' मृतकस्थण्डिले वा मृतकभस्मचितावर्जिते मृतकदहनस्थाने मडगवच्चसि वा' मृनकवर्चसि शटितमृतकस्थाने, यत्र-श्वादयो मृतकस्याअप्रत्यङ्गाखानीय पातयन्ति, तत्स्थाने 'उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ' उच्चारं-पुरीषं प्रस्रवणंमनं परिष्ठापयति, तथा परिहवेतंवा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इंगालदाहंसि वा खारदाहंसि वा गायदाहंसि वा तुसदाहंसि वा भुसदाहंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ, परिठ-तं वा साइज्जइ ॥ मू० ७५॥
छाया-यो भिक्षुः अङ्गारदाहे वा क्षारदाहे वा गात्रदाहे वा तुषदाहे वा भुसदाहे वा उच्चारं वा प्रनवणं वा परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७५।। . चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इंगालदाहंसि वा' अङ्गारदाहे घा; यत्र-संदिराधङ्गारा (कोलसा) इति लोकप्रसिद्धाः क्रियन्ते तत्स्थाने 'खारदाईसिका' क्षार
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पूर्णिभाष्यावो उ० ३ सू०७६-७९ अस्थानेषु-उच्चारादिपरिष्ठापननिषेधः १०९ दाहे वा-क्षारकरणस्थाने, यत्र स्थानविशेषे क्षारद्रव्य (साजी खार-आदि) करणार्थ क्षारनातीयकाष्ठं दह्यते तादृशस्थानं क्षारदाह इति कथ्यते, तत्र, 'गायदाहंसि वा' गात्रदाहे वा ज्वरादिरोगाक्रान्तानां पालितपशूनां गवादीनां तत्तदङ्गावयवस्तप्तलोहशलाकया दंदह्यते तस्मिन् गात्रदाहस्थाने 'तुसदाहंसि वा' तुषदाहे वा-यत्र स्थले कुम्भकारादयः नूतनघटादीनां पाकक्रियायां तुषादिकं दहन्ति तस्मिन् तुषदाहस्थाने 'भुसदाहंसि वा बुसदाहे वा ' कडङ्गरो बुसं क्लीबे, घान्यत्वचि पुमांस्तुषः" इत्यमरः "भुसा" इति लोकप्रसिद्धस्य दाहस्थाने । एतादृशदाहस्थाने यदि 'उच्चारपासवणं परिद्ववेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, तथा-'परिठवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सेयाययणंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६॥
छाया-यो भिक्षुः स्वेदायतने वा, पके वा पनके वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७६॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सेयाययणंसि वा, स्वेदायतने वा-सचित्तजलमिश्रितकर्दमबहुलस्थाने 'पंकसि वा' पङ्के वा सामान्यपङ्के 'पणगंसि वा' पनके वा-जलप्रपातजनितशेवाल ('नीलन-फुलन') इति लोकप्रसिद्धस्थाने वा 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, 'परिद्ववेतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ७६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अहिणवियासु गोलेहणियासु वा अहिणवियासु मट्टियाखाणीसु वा परिभुजमाणियासु वा अपरिभुजमाणियासु वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिठ्ठवतं व साइज्जइ ॥ मू० ७७||
छाया--यो भिक्षुः अभिनविकासु गोलेहनिकासु वा अभिनविकासु मृत्तिकाखानिषु वा परिभुज्यमानासु वा अपरिभुज्यमानासु वा उच्चारप्रेनवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७७॥ . चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'अहिणवियासु' अभिनविकासु-नव निर्मितासु 'गोलेहणियासु' गोलेहनिकासु-यत्र गवामवलेहनाथै लवणादिक्षारद्रव्यं स्थाप्यते यदवलिह्य गावो रुचिपूर्वकं पानीयं पिबन्ति तृणादिकं वा खादन्ति तादृशानि स्थान:नि गोलेहनिकाः कथ्यन्ते, तासु गोनिमित्तं नवनिर्मितासु गोलेहनिकासु 'अहिणवियासु वा मट्टियाखाणीमु' नवीनासु वा मृत्तिकाखानिषु यस्मात्-मृत्तिका निष्कास्यते तादृशस्थानेषु 'परिसुजमाणियासु वा अपरिभुज
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निशीथसूत्रे
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माणियासु वा' परिभुज्यमानासु-व्यवह्रियमाणासु अपरिभुज्यमानासु-अव्यवह्रियमाणासु वा भूमिषु 'उच्चारपासवर्ण परिवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति, संयमात्मविराधनालोकनिन्दादिदोषसद्भावात् ॥ सू०७७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उंबरवच्चंसि वा नग्गोहवच्चंसि वा आसत्थवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७८||
छाया-यो भिक्षुः उदुम्बरवर्वसि वा न्यग्रोधवर्चसि वा अश्वत्थवर्चसि वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । सू० ७८ ।
चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उंबरवच्चंसि वा' उदुम्बरवर्चसि वा, उदुम्बरो वृक्षविशेषः 'उमर' इति 'गुलर' इति वा लोके प्रसिद्धस्तस्य वर्चसि प्रत्यासन्नप्रदेशे यत्र गिरितटे फलानि पतन्ति पात्यन्ते पुञ्जीक्रियन्ते वा, तस्मिन् प्रदेशे, 'नग्गोहवच्चंसि वा' न्यग्रोधवर्चसि वा, न्यग्रोधो वटवृक्षस्तस्यासन्नप्रदेशे यत्र फलानि पतन्ति पात्यन्ते वा तत्र, 'आसत्थवच्चंसि वा' अश्वत्थवर्चसि वा तत्राऽश्वत्थः पिप्पलवृक्षस्तत्फलपतन-पातनप्रदेशे, 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणं 'परिट्ठवेई' परिष्ठापयति 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ७८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इक्खुवर्णसि वा सालिवणंसि वा कुसुंभवणंसि का कप्पासवर्णसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७९॥
___ छाया-यो भिक्षुः इझुपने वा शालिवने वा कुसुम्भवने वा कार्पासवने वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७९॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'इक्खुवणंसि वा' इक्षुवने वा, इक्षुः-'सेलडी'-तिभाषाप्रसिद्धः, तस्य वनं-क्षेत्रं, तत्र । यथा-वने वृक्षा निविडा: सघनाः सद्वरक्षेत्रे-इथूणां सघनत्वात् क्षेत्रे वनत्वस्योपचारः, तथा च एतादृशेक्षुवने वा 'सालिवणंसि वा' शालिवने वा, शालि:-व्रीहिस्तस्य वनं तत्र 'कुसुंभवणंसि वा' कुसुम्भवने वा तत्र-कुसुम्भः-रक्तरङ्गसमुत्पादकपुष्पविशेषः 'कुसुंबा' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य वनं क्षेत्रं तत्र 'कप्पासवणंसि वा' कार्पासवने वा कार्पासक्षेत्रे 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, 'परिढतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चितभाग् भवति ॥ सू० ७९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू डागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा कोत्थुभखिच्चंसि वा खारखच्चंसि वा जीरयवच्चंसि वा दमणय
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चूर्णि० उ० ३ सू० ८०-८३ उच्चारादीनामस्थाऽनुगतसूर्यकाले च परिष्ठापननि० १११ वच्चंसि वा मरुयवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिठवेत वा साइज्जइ ॥ सू०८०॥
छाया-यो भिक्षुः डागवर्चसि वा शाकवर्चसि वा मूलकवर्चसि वा कोत्थुम्भरिवर्चसि वा क्षारवर्चसि वा जीरकवर्चसि वा दमनकवर्चसि वा मरुकवचंसि वा. उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं पा स्वदते ॥ सू० ८०॥
चूणीं-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'डागवच्चंसि वा' डागवर्चसि वा-डागः पत्रशकिस्तस्य वर्चसि तदासन्नस्थाने यत्र पत्रशा कः पुञ्जीक्रियते तत्स्थाने 'सागवच्चंसि वा' शाकवर्चसि वा-शाको वृन्ताकादिस्तस्य स्थाने 'मूलगवच्चंसि वा' मूलकवर्चसि वा मूलक 'मूली'-तिलोकप्रसिद्धं, तस्य क्षेत्रे 'कोत्धुंभरिवच्चंसि वा' कोत्थुम्भरिवर्चसि वा-कोत्थुम्भरिर्धान्याकम् 'धाना' 'कोथमी' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य पुजे 'जीरयवचंसि वा' जीरकवर्चसि यत्र जीरकमुत्पद्यते संस्थाप्यते वा तादृशस्थाने 'दमणयवच्चंसि वा' दमनकवर्चसि वा दमनकोनाम-वनस्पतिविशेषस्तस्य वर्चसि स्थाने 'मरुयंवच्चंसि वा' मरुकवर्चसि वा, मरुकोऽपि वनस्पतिविशेषस्तस्य पुञ्जस्थाने 'उच्चारपासवर्ण परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, 'परिहवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ८०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असोगवणंसि वा सत्तवण्णवणंसि वा चंपयसि वा चूयवर्णसि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु पत्तोवेएसु पुष्फोवेएसु फलोवेएसु छाओवेएसु उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुः अशोकवने वा सप्तपर्णवने वा चम्पकवने वा चूतवने वा अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु पत्रोपेतेषु पुष्पोपेतेषु फलोपेतेषु छायोपेतेषु उच्चारपत्र वणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८१॥
चूर्णी-"जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘असोगवणंसि वा' अशोकवने वा-लोकप्रसिद्धोऽशोकवृक्षस्तस्य वनं, तत्र 'सत्तवण्णवणंसि वा' सप्तपर्णवने वा तत्र-सप्तपर्णी नाम-वृक्षविशेषस्तस्य वन, तत्र, 'चंपगवणंसि वा' चम्पकवने, 'चूयवर्णसि वा' आम्रवने वा 'अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु' अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु अशोकादिवृक्षभिन्नाऽशोकादिसमानेषु वृक्षसमुदायेषु । कथम्भूतेषु तेषु ? तत्राह-'पत्तोवेएसु' इत्यादि । 'पत्तोवेएसु' पत्रोपेतेषु-पत्रयुक्तेषु वृक्षेषु 'पुष्फोवेएमु' पुष्पोपेतेषु पुष्पसहितेषु 'फलोवेएसु' फलोपेतेषु 'छाओवेएसु' छायोपेतेषु पत्र-पुष्प-फल-च्छाया-समन्वितवृक्षसमूहेषु इत्यर्थः उच्चारपासवणं 'परिद्ववेई' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति, तथा-'परिहवेंतं वा साइज़्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ।। सू० ८१॥
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११२
निशीथसूत्रे
सूत्रम् -- जे भिक्खू सपायंसि वा परपायंसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उब्वाहिज्जमाणे सपायं गहाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता अणुग्गए सूरिए एडइ एडतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८२ ॥
छाया - यो भिक्षुः स्वपात्रे वा परपात्रे वा दिवा वा रात्रौ वा विकाले वा उद्वाध्यमानः स्वपात्रं गृहीत्वा परपात्रं वा याचित्वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य अनुद्गते सूर्ये एडति पडतं वा स्वदते || सु० ८२||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'सपायंसि वा स्वपात्रे वा स्वनिश्रितोदके व पात्रे इत्यर्थः 'परपायंसि वा' परपात्रे वा - परकीयोन्दके वा 'दिया वा' दिवा वा - दिवसे इत्यर्थः, 'राओ वा' रात्रौ वा 'वियाले वा' विकाले वा, विकाले -संन्ध्यासमये वा 'उब्वादिज्जमाणे' उद्घाध्यमानः उच्चारप्रस्रवणवेगेन बाध्यमानः उच्चारप्रस्रवणबाधामनुभवन् 'सपायं गहाय' स्वपात्रं गृहीत्वा स्वकीयं पात्र गृहीत्वा 'परपायं वा जाइता' परपात्र वा याचित्वा तस्मिन् 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम्, 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य कृत्वेत्यर्थः 'अणुभ्यर सूरिए' अनुगते सूर्ये सूर्योदयात्प्रागेव 'एडइ' एडति - परिष्ठापयति अप्रतिलिखितभूमौ व्युत्सृजति, 'एडवं वा साइज्जइ' एडन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ८२॥ सूत्रम् - तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ ८३ ॥
तइओ उद्देसो समत्तो ॥३॥
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छाया - तत्सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् || सू० ८३॥ ॥ इति तृतीयोद्देशः समाप्तः ॥
चूर्णी - 'तं सेवमाणे' इत्यादि । तं सेवमाणे, तत्सेवमानः, तृतीयोदेशके आदित आरभ्य समाप्तिपर्यंतं यद्यत् प्रायश्चित्तकारणं वर्णितं तदेकमपि यत्किञ्चित्सेवमानः श्रमणः श्रमणी वा ' उग्घाइयं' उद्घातिकम्, 'मासियं परिहारठ्ठाणं' मासिकं परिहारस्थानम्, लघुमासिकं प्रायश्चित्तम् 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति ॥ सू० ८३ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां "निशीथसूत्रस्य " चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां तृतीय उद्देशकः समाप्तः ||३||
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॥ चतुर्थोदशकः ॥
व्याख्यातस्तृतीयोदेशकः, तदनु- अवसरसङ्गत्या चतुर्थोदेशकः प्रारभ्यते - अथाऽस्य चतुर्थोद्देशकीयादिसूत्रस्य तृतीयोदेशकीयान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति जिज्ञासायामाह भाष्यकारः -- भाष्यम् - परिद्वावे उच्चारं, बसहीओ बहिं गयं । गिण्डिज्जा जइ में राया, एवं तं ण वसं नए ||
छाया - परिष्ठापयितुमुच्चारं, बसतितो बहिर्गतम् । गृहीयाद्यदि मां राजा, पवं तं न वशं नयेत् ।
अवचूरिः – 'परिद्वावेउ० ' इत्यादि । तृतीयोदेशकान्तिमसूत्रे - उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापनं कथितम् । तत्र-रात्रौ उच्चारम् - उपलक्षणात् प्रस्रवणादिकं परिष्ठापयितुं यद्युपाश्रयाद् बहिर्गतं मां 'चौरोऽयं विचरती 'ति शङ्कया गृह्णीयात् गृहीतोऽदण्डचोऽपि तत आत्मानं मोचयितुं नृपाश्रयःराज्ञा सह परिचय आवश्यकः, एवम् इति मत्वा तं राजानं न वशं नयेत् राजानं वशीकत्तु न यतेतेति भावः । य एवं कुर्यात् स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यस्मिन्नुदेश के प्रतिपादयिष्यते । अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरोदेशकस्त्रयोः । तदनेनसम्बन्धेनायातस्याऽस्योदेशकस्य प्रथमं सूत्रमाह
सूत्रम् — जे भिक्खू रायं अत्तीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १ ॥
छाया - यो भिक्षुः राजानमात्मीकरोति आत्मीकुर्वन्त वा स्वदते ॥ सू० १ || चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'रायं अतीक रेइ' राजानं तत्रत्यमण्डलाधिपतिमात्मीकरोति स्वाधीनं नयति, 'अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ' आत्मीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति । तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । तत्र - राज्ञ आत्मीकरणं द्विप्रकारकम् – प्रत्यक्षं, परोक्षं च । तत्र - तत् प्रत्यक्षं यत्स्वयमेव करोति १, परोक्षं तु पुनरन्येन अमात्यादिना कारयति । यत्र स्वकीयप्रयत्नेन स्वयमेव गत्वा राज्ञा सह परिचय करणं तत् प्रत्यक्षम् । परोक्षमन्यद्वारा राज्ञा सह सम्बन्धसंपादनमिति । सू० १ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू रायं अच्चीकरेइ अच्चीकरें तं वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया - यो भिक्षुः राजानमर्चीकरोति अर्चीकुर्वन्त वा स्वदते || सू० २ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'राय' राजानम् 'अच्चीकरेइ' अर्चीकरोति - शौर्यादिगुणवर्णनेन प्रशंसति, तद् अर्चीकरणं द्विविधम् - सदसद्गुणवर्णनभेदात् । पुनरपि एकैकं द्विविधम् -- प्रत्यक्षम् १ परोक्षं च २ । तत्र - प्रत्यक्षं स्वयमेवात्मना गुणवर्णनम् १, परोंक्षं तु परद्वारा गुणवर्णनम् २ । तथा- 'अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ' अर्चीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । राजगुणवर्णनेनाऽनुकूलाः प्रतिकूला वा
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११४
निशीथसूत्रे
परिषहा भवन्ति । राज्ञा सहातिपरिचय करणेऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसंभवेन संयमात्मविराधनादिप्रसङ्गोऽपि, तस्माद्राज्ञोऽतिप्रशंसनं न कर्त्तव्यमिति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू रायं अच्छी करेइ अच्छी करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया - यो भिक्षुः राजानमच्छीकरोति, अच्छीकुर्वन्त वा स्वदते ॥सू० ३॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'राय' राजानम् 'अच्छी करेइ' अच्छी करोति,अच्छो निर्मलस्तं करोति अच्छीकरोति, औषधयन्त्रमन्त्रादिदानेन रुग्णं नीरोगं करोति । 'अच्छी करें वा साइज्जइ' अच्छीकुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० ३॥
सूत्रम् — जे भिक्खू रायं अत्थीकरेइ अत्थी करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया - यो भिक्षुः राजानमर्थीकरोति अर्थीकुर्वन्त वा स्वदते ॥सू० ४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'रायं' राजानम् अत्थीकरे ' अर्थीकरोति यावता व्यापारेण राजा श्रमणेऽर्थी प्रयोजनवान् भवेत् तथा करोतीत्यर्थीकरोति । व्यतीताऽनागतवस्तुनो ज्ञाताऽयं श्रमणो मय्यनुकूलो मां मन्त्रादि दास्यतीत्याशावन्तं राजानं स्वसमीपे समागमनाय प्रयोजनवन्तं करोत्यर्थीकरोतेरर्थः । ' अत्थी करें तं वा साइज्जर' अर्थीकुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ४ ||
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एवं - 'रायारक्खयं' राजारक्षकं राज्ञ आत्मरक्षकम् - 'अत्तीकरेइ ५, अच्चीकरेइ ६, अच्छीeis ७, अत्थीकरेइ ८ इति चत्वारि सूत्राणि ॥सू० ८ || एवमेव 'नगरारक्खयं' नगरारक्षकं नगरपालकं राजपुरुषम्, अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ॥ सू० १२ ॥ एवमेव 'णिगमारक्खयं' निगमारक्षकं, तत्र निगमः - व्यापारप्रधानस्थानं, तस्याधिष्ठातारम् । अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ॥ सू० १६ ॥ एवं 'सन्चारक्खयं' सर्वारक्षकम् सर्वान् राजारक्षकादारभ्य निगमारक्षकपर्यन्तान् सर्वान्, आ पामराः प्रजा वा आ-समन्ताद् रक्षति यः स सर्वारक्षकः प्रधानोऽधिकारी तम् । अत्रापि चत्वारि सूत्राणि ||२०|| 'अत्तीकरेइ १, अच्चीकरेइ २, अच्छीकरेs ३. अत्थीकरेइ ४' इत्येतद्विषयाणि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि सूत्राणि राजारक्षकादारभ्य सर्वारक्षकपर्यन्तानां विषये व्याख्येयानि राजसूत्रादारभ्य सर्वारक्षकसूत्रपर्यन्तानि पञ्चापि सूत्राणि आत्मीकरणादिकमधिकृत्यै कगमानि सन्तीति ॥ सू० ५-२० ॥
भाष्यम् – अत्ती करेइ य णिवार कयाइ अच्ची, अच्छीकरेड़ जइ वाse करेज्ज अत्थी सन्वत्थ एत्थ दुहओ उवसग्गदोसा, तम्हा जई नहि करेज्ज वयंति सुत्ते ॥
छाया - आत्मीकरोति च नृपादि कदाचिदर्ची अच्छीकरोति यदिवाऽथ कुर्यादर्थी । सर्वत्राऽत्र द्विघात उपसर्गदोषाः तस्माद्यतिनंहि कुर्याद्वदन्ति सूत्रे ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०.४ सू०२१-२३ कृत्स्नौषधेराचार्याद्यदत्तस्य चाहारस्य निषेधः ११५
अवचूरिः-'अत्तीकरेइ' इत्यादि । यो हि भिक्षुः-'निवाई' नृपादि अर्थात्-राजानम् , राजारक्षकम् , नगरारक्षकम् , निगमारक्षकम् , सर्वारक्षकं वा, यं कमप्येकमात्मीकरोति, च पुनःअर्चीकरोति, यदि वा-अच्छीकरोति, अथ कदाचित् अर्थीकरोति । अत्राऽऽमीयकरणादौ सर्वत्रापि द्विधात उभयथापि- अनुकूल-प्रतिकूलादिनोपसर्गदोषाः संभवेयुः, यथाऽङ्गारः शीतो वा उष्णो वा(ठण्डा-कोलसा) (जलता-कोलसा) करस्पृष्टः सन् शीतोष्णाभ्यां गुणदोषाभ्यामुपसर्गकर एव भवति, यदा शीतस्तदा करं कृष्णायते यदोष्णो जाज्वल्यमानस्तदा करं दहति । एवमेव--राजा दयोऽपि कुर्युः, तस्मात् -यतिमध्यस्थभावे वर्तमानो नैतेषामुपकारमपकारं वा कुर्यात् । इति सूत्रे--विंशतिसूत्रसमुदाये गणधरादयो वदन्ति । सू० २०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारेत वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया-यो भिक्षुः कृत्स्ना ओषधीराहरति-आहरन्त वा स्वदते ॥सू० ॥२१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘कसिणाओ ओसहीओ' कृत्स्राः सम्पूर्णा अखण्डिताः द्रव्यतो भावतश्च ओषधयः शालिगोधूमादयः, तत्र--द्रव्यतोऽखण्डिताः स्वरूपेणाऽवस्थिताः, भावतः सचित्ताः, ताः 'आहारेइ' आहरति, 'आहारेंतं वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । अत्र कृत्स्नौषधीनां द्रव्यभावभेदेन चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तथाहि-द्रव्यतोऽखण्डिताः भावतः खण्डिताः इति प्रथमो भङ्गः १, द्रव्यतः खण्डिता भावतोऽखण्डिताः, इति द्वितीयो भङ्गः २, द्रव्यतोऽखण्डिता भावतोऽखण्डिताः, इति तृतीयो भङ्गः ३, द्रव्यतः खण्डिताः, भावतश्च खण्डिताः, इति चतुर्थो भङ्गः ४ । तत्र--प्रथमचतुर्थो भङ्गौ शुद्धौ । सू०२१।।
सूत्रम्-जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अदत्तं आहारेइ आहारें साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुराचार्योपाध्यायैरदत्तमाहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२।।
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आयरियउवज्झाएहि' आचायोपाध्यायैः--उपलक्षणाद्रत्नाधिकैर्वा 'अदा' अनवतीर्णमशनादिकम् 'आहारेइ' आहरति, 'आहारेत वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥२२॥ भाष्यम्-आयरियाइअदिण्णं, असणाइ चउन्विहं ।
वत्थ कंबल--पत्ताई, कयावि नेव गेहए ।
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११६
निशीथसूत्रे . छाया-आचार्याद्यदत्तमशनादि चतुर्विधम् ।
वस्त्र-कम्बल-पात्रादि कदापि नैव गृलोयात् ॥ अवचूरिः--'आयरियाई' इत्यादि । अशनादिकं चतुर्विधमाहारम् , तथा-वस्त्रकम्बलपात्रादि, आदिशब्दादोषध-भैषज्यादिकं च सर्ववस्तुजातम् , भाचार्योपाध्यायादिनाऽदत्तं मुनिः कदापि काले नैव गृह्णीयात् । यदि गृह्णीयात्तदा प्रायश्चित्तभाग् भवेत् ।। सू० २२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिण्णं विगई आहारेइ आहारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३॥
छाया-यो भिक्षुः आचार्योपाध्यायैः अविदत्तां विकृतिम् आहरति अहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'आयरियउवज्झाएहि' आचायोपाध्यायैः उपलक्षणाद्रत्नाधिकैर्वा, 'अविदिणं' अविदत्तामननुज्ञाताम् 'विगई' विकृति-दधिदुग्धादिरूपाम् ‘आहारेइ' आहरति-भुङ्क्ते 'आहारतं वा साइज्जई' भाहरन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । सू० २३ ।।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् - विगई य घयं, तेल्लं, दहिदुद्धगुडाइयं ।
___ मुंजेइ अविदिणं जो, पायच्छित्तं स पावई ॥ छाया-विकृतिश्च घृतं तैलं, दधि-दुग्ध-गुडादिकम् । ... भुङ्क्तेऽविदत्ते यः प्रायश्चित्तं स प्राप्नोति ॥
अवचूरिः-'विगई' इत्यादि । सूत्रे विकृतिश्च घृतं, तैलं, दधिदुग्धगुडादिकं प्रोच्यते । आदिपदान्मधुरादि, तद्विकृतिपदानीतं सर्वमपि-आचार्योपाध्यायरत्नाधिकाचैरविदत्तं सत् यो यति ङ्क्ते स प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० २३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू ठवणकुलाइं अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय पुवामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४॥
___ छाया-- यो भिक्षुः स्थापनाकुलानि अज्ञात्वा, अपृष्ट्वा, अगवेषयित्वा पूर्वमेव पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुपविशति, अनुपविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'ठवणकुलाई' स्थापनाकुलानि, तत्र स्थापनाकुलम् यत्र साध्वादिनिमित्तमन्नपानादिकं स्थाप्यते तत् स्थापनाकुलम् 'अजाणिय'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ.४ सू०२४.२६ स्थापनाकुलाहार-निर्ग्रन्थ्युपाश्रयाऽविधिगमनादिनि० ११७ अज्ञात्वा 'अपुच्छिय' अपृष्ट्वा, तत्र-पृच्छा तु नाम्ना गोत्रेण च । 'अगवेसिय' अगवेषयित्वा--अन्वेषणमकृत्वा, तत्र गवेषण- वृक्षरतूपादिचिह्नः परिज्ञानम् 'पुब्बामेव' पूर्वमेव गवेषणकरणादितः प्रागेव, 'पिंडवायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया-आहारग्रहणेच्छया 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति स्थापनाकुलेषु प्रविशति । 'अणुप्पविसंत वा साइज्जई' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभार भवतीति ॥ सू० २४॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-लोगुत्तरं लोगिगं च, दुविहं कुलमुच्चइ ।
लोगिगं दुविहं तत्थ, साहारणं दुगुंछियं ॥१॥ तत्थ लोगुत्तरं गच्छे, गच्छे य अदुगुंछियं ।
तत्थावि ठवणादोसं, मुणी जाणिय नो वए ॥२॥ छाया-लोकोत्तर लौकिकं च-द्विविधं कुलमुच्यते।
लौकिकं द्विविधं तत्र-साधारण जुगुप्सितम् ॥१॥ तत्र लोकोत्तरं गच्छेद् गच्छेच्चाऽजुगुप्सितम् ।
तत्रापि स्थापनादोष मुनिर्धात्वा नो व्रजेत् ॥२॥ अवचूरिः-'लोगुत्तरं' इत्यादि । यत् खल सूत्रे कुलं कथितं तत्कुलं द्विविधं द्विकारकमुच्यते-लौकिकं लोकोत्तर च, तत्र लौकिकं द्विविधं साधारणं जुगुप्सितं च । तत्र-साधारणं ब्राह्मणादिकुलम् , जुगुप्सितं चाण्डालादिकुलम् लोकनिन्दितं च । लोकोत्तरं श्रावक-सम्यष्टष्टिकुलम् , तत्र मुनिर्गच्छेत् भिक्षालामाय । तथा-लोकिकमप्यजुगुप्सितं कुलं गच्छेत् । भिक्षार्थ यद्यत्कुल प्रशस्तं तत्रापि यत्कुल स्थापनादोषदुष्टं भवति, तज्ज्ञात्वा तत्र नो व्रजेत् ॥२४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू णिग्गंथीणं उवस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ।। सू० २५॥
छाया-यो भिक्षुर्निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये अविधिनाऽनुपविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः ‘णिग्गंथीणं' निर्ग्रन्थीनां-साध्वीनाम् 'उवस्सयंसि' उपाश्रये-वसतौ तदावासस्थाने 'अविहीए' अविधिना-मर्यादामतिक्रम्य 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति-सहसा याति, अनुप्रतिशन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ।। सू० २५॥
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निशीथसूत्र
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम-अकारणे जो विहिणा, कारणेऽविहिणा विसे ।
अकारणे अविहिणा, कारणे विहिणा जई ॥ एत्य भंगतिगे दोसो, एसो सत्यविणिच्छओ ।
कारणे विहिणा एयं, चउत्थं भंगमायरे ॥ छाया--अकारणे यो विधिना कारणेऽविधिना विशेत् ।
अकारणेऽविधिना कारणे विधिना यतिः ॥ अत्र भंगत्रिके दोष एष शास्त्रविनिश्चयः ।
कारणे विधिनैतं चतुर्थ भङ्गमाचरेत् ॥ अवचूरिः- 'अकारणे' इत्यादि । सूत्रेऽविधिना श्रमण्या उपाश्रये प्रवेशो वारितः । तत्र प्रवेशे चत्वारो भङ्गा भवन्ति तथाहि-अकारणे-विधिना, इति प्रथमः १, कारणे-ऽविधिना, इति द्वितीयः २, अकारणे-ऽविधिना, इति तृतीयः ३, कारणे-विधिना, इति चतुर्थः ४ । अत्र यदि भङ्गत्रयमाश्रित्य प्रतिशेत् तदा दोषः प्रायश्चित्तमिति शास्त्रविनिश्चयः शास्त्रनिर्णयः, तस्मात्कारणात् , 'कारणे विधिना' एतं चतुर्थ भङ्गमाचरेद्भिक्षुः । उपाश्रये स्थानत्रयं भवति, तच्चेत्थम्-अग्रभागद्वारमेकम् १, उपाश्रयमध्यं द्वितीयम् २, श्रमण्या आसन्नस्थानं तृतीयम् ३ । एतेषु त्रिष्वषि स्थानेषु नैषेधिकीं 'निसीहि-निसीहि' इत्युच्चारणं विना श्रमण्या उपाश्रये प्रविशतः श्रमणस्य प्रायश्चित्तम् ।
अथ यदि-श्रमणोवसतेर्मूलद्वारसमीपे बहिस्तिष्ठेत् तदापि प्रायश्चित्तम् , यद्यन्तमध्यं वा प्रविशति तदापि प्रायश्चित्तमापद्यते, इति श्रुत्वा शिष्यः पृच्छति
हे गुरो ! यदि श्रमणः श्रमण्या उपाश्रयं गच्छति तदा तु तत्र न भवति किञ्चित्प्राणातिपातादिकम् , तथाप्यधुना केन कारणेन प्रायश्चित्तं कध्यते ? कस्मात् कारणात् मूलद्वारस्य बहिभर्भागेऽपि तिष्ठतः प्रायश्चित्तम् ? केन वा कारणेन द्वारस्य मध्यं गच्छतोऽन्तर्गच्छतश्च प्रायश्चित्तम् ! इति प्रश्नः । आचार्य उत्तरं प्राह-तत्र विह्वलादयो बहवो दोषाः, तथाहि-'सुखासीना कदाकिस्यात् -प्रावृताऽवृत्ता यदि वा, नैषेधिकी विना यान्तं दृष्ट्वा सा विह्वला भवेत् । एवमन्येऽपि दोषा भवेयुरिति ॥ सू० २५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णिग्गंथीणां आगमणपहंसि दंडगे वी लयिं वा स्यहरणं वा मुहपत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥ ।
छाया-यो भिक्षुः निर्ग्रन्थीनामागमनपथे दण्डकं वा यष्टिकां वा रजोहरणं वा मुखवस्त्रिको वा अन्यतरद् वा' उपकरणजातं स्थापयति स्थापयन्तं वा स्वदते ॥सू० २६॥
चूर्णी -'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'णिग्गंधीणं' निम्रन्थीनाम्साध्वीनाम् 'आगमणपहंसि' आगमनपथे, येन पथा श्रमण्यः साधोरुपाश्रयं पाक्षिकक्षमापमा
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पूर्णिभाष्यावरिः उ. ४ सू०-२७ अनुत्पन्नाधिकरणोत्पादननिषेधः ११९ रोगादिकारणेष्वागच्छन्ति तस्मिन् मार्गे साध्वीनां गमनागमनमार्गे 'दंडगं वा' दण्डकं वा, तत्र दण्डो नाम-य हस्ते निधाय वृद्धत्व-रोगादिकारणे साधुर्गच्छति स तम् 'लट्ठियं वा' यष्टिकां वा, यष्टिका लघुर्यः प्रतलो दण्डश्चलनसहायभूतः, साऽपि कारणवशादेव गृह्यते, तां वा 'रयहरणं चा' रजोहरणम् 'मुहपत्तियं वा' सदोरकमुखवस्त्रिकाम् , प्रक्षालिता या शुष्ककरणार्थ स्थाप्यते 'अण्णयरं वा उवगरणजायं'अन्यतरद् वा उपकरणजातम् प्रमाजिकादि, अन्यतरपदग्रहणात्-औधिकमौपग्रहिकं चेति द्विविधमप्युपकरणजातं गृह्यते । तत्र-औषिकं सामान्यं वस्त्रपात्रादिकम् , औपग्रहिकं-रोगादिकारणेऽल्पकालार्थं यद् गृह्यमाणं शय्यासंस्तारकपीठफलकादिकमुपकरणजातं, तत् 'ठवेइ' स्थापयति, 'ठवेंतं वा साइज्जई' स्थापयन्तं वा स्वदते। यो भिक्षुः पाक्षिकक्षमापनारोगादिकारणेन साधूनामुपाश्रये समागच्छन्तीनां साध्वीनां मार्गे पूर्वोक्तोपकरणादिकं स्थापयति स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० २६॥
___ ननु साधोः रजोहरणादिकं सर्वदैव साधं ग्राह्यत्वेन सूत्रे कथितं ततश्च तस्य मार्गे स्थापनसंभावना कुतः, यस्य सम्भावनैव नास्ति तस्य निषेधः सुतरां निरर्थकः ? इत्याशङ्कयाह
भाष्यकार:
भाष्यम्-चिटुंतो पडिलेहंतो, कुणंतो वावि लुचणं ।
मिसेणं वाऽह वत्थूणं, णिक्खेवस्स हि संभवो ॥ छाया-तिष्ठन् प्रतिलिखन् कुर्वन् वाऽपि लुञ्चनम् ।
मिषेण वाऽथ वस्तूनां निक्षेपस्य हि सम्भवः ॥ अवचूरिः-'चिठंतो' इत्यादि । मार्गे तिष्ठन् वा साधुः कदाचित् रजोहरणं निक्षिपेत् , भक्तपानादिकं प्रतिलिखन् वा, अथवा-लुञ्चनमप्यात्मनः शिरसः कुर्वन् मार्गे रजोहरणादिकं निक्षिपेत् । अथवा-मिषेण-केनचिद् व्याजेन उपहासाद्यर्थ वा वस्तूनां रजोहरणाद्युपकरणानां निक्षेपस्य सम्भवः । सम्भाव्यते-एभिः कारणैर्मार्गे रजोहरणार्दीनां निक्षेपः । इत्थं मार्गे निक्षिपतः साधोः, रजोहरणादिकं निक्षिपन्तं वा अनुमोदमानस्य साधोः प्रायश्चित्तमाज्ञाभङ्गादया दोषाश्च भवन्ति ॥ सू०२६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइज्जइ ।। सू० २७॥ छाया-यो भिक्षुः नवानि-अनुत्पन्नानि अधिकरणानि-उत्पादयति, उत्पादयन्त
वा स्वदते ॥ सू० २७॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः, ‘णवाई' नबानि-नवीनानि-अपूर्वाणि 'अणुप्पण्णाई' अनुत्पन्नानि-तत्कालेऽविद्यमानानि 'अहिगरणाई' अधिकरणानि-कलहान् ,
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AAM
निशीथसूत्रे तत्राऽधिकरणं नाम-अधिक्रियतेऽधोगतौ पात्यते आत्माऽनेनेत्यधिकरणं कलहः, तथाभूतानि-अधिकरणानि 'उप्पाएइ' उत्पादयति- नवीनक्लेशानुत्पादयति 'उप्पाएन्तं वा साइज्जइ' उत्पादयन्तं वा नवीनमधिकरणम् , स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभाग भवति तस्याज्ञाभङ्गादयोऽपि दोषा भवन्ति ॥ सू० २७॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-दुहाहिगरणं वुत्तं, दव-भावप्पभयो ।
दव्वे चउव्विहं णेज्जं, भावे सत्थाणुसारओ॥ छाया-द्विधाऽधिकरणं प्रोक्तं द्रव्य-भाव-प्रमेदतः ।
द्रव्ये चतुर्विधं ज्ञेयं भावे शास्त्रानुसारतः॥ अवचूरिः-'दुहाहिगरण' इत्यादि । यदिदमधिकरणं कथितं तद् द्रव्य-भावप्रभेदतो द्विधा द्विप्रकारकं प्रोक्तम् । तत्र द्रव्यतोऽधिकरणं चतुर्विधम् , तद्यथा-निर्वर्तनाधिकरणम् १, निक्षेपाधिकरणम् २, संयोजनाधिकरणम् ३, निसर्जनाधिकरणम् ४ चेति । तत्र-निर्वर्तनाऽधिकरण' द्विविधम्-मूलोत्तरभेदात् । तत्र-मूलनिवर्तनाऽधिकरणं पञ्चविधम् , तानि-औदारिकादिशरीरपञ्चकस्य निर्वतनरूपाणि पञ्च, तान्यपि एकै संघातकरणशाटकरणतदुभयकरणभेदात् त्रिविधम् । तत्र-संघातकरणं-पुद्गलानां पिण्डीकरणम् । शाटकरणं पुद्गलानां परिशाटनम् । उभयकरणम्-संघात-परिशाटोभयकरणम् । एतद्विषयेऽधिकरणम् । तत्र-तैजसकार्मणरूपे शरीरद्वये सर्वसंघातकरणं न भवति, अनादित्वात् , शेषेषु त्रिषु शरीरेषु-औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकरूपेषु संघातपरिशाट-तदुभयरूपं त्रयमपि निवर्तनाधिकरणं भवति, तत्र स्थितिः संघात-परिशाटयोः प्रत्येकमेकसामयिकी, तदुभयस्यानियता स्थितिः, यथा-संघात आदौ, परिशाटोऽन्ते भवति । अत्राप्पदृष्टान्तःयथा-अपूपः, स च घृते प्रक्षिप्तः प्रथमसमये एकान्तेन घृतग्रहणं करोति, द्वितीयादिसमयेषु घृतं गृह्णाति मुञ्चति च, एवं यथा लोहकारस्तप्तमायसं जले प्रक्षिपति तदा तत् प्रथमसमये एकान्तेन जलादानं करोति, द्वितीयादिसमयेषु गृह्णाति मुञ्चति च । एवं त्रिषु औदारिकादिशरीरेषु प्रथमसमये ग्रहणं, द्वितीयादिसमयेषु संघात--परिशाटो द्वावपि भवतः । तैजसकार्मणयोः सार्वकालिकः संघातः परिशाटश्च, तयोरनादित्वात् । पञ्चानामपि सर्वशाटोऽन्ते भवति । इदं मूलनिवर्तनाधिकरणम् । अथवा-औदारिक-वैक्रियाऽऽहारकेति त्रयाणां शरीराणां मूलकारणानि अष्टौ-शिरः १, उरः, २, उदरं ३, पृष्ठिः ४, बाहुद्वयम् ५, ६, उरुद्वयं ७-८ चेति । शेषमुत्तरकरणम् । अथवा
आयेषु औदारिकवैक्रियाहारकरूपेषु-त्रिषु शरीरेषु कर्णवेधकरणं, कर्णच्छेदकरणं त्रिफलादिघतादिना वर्णकरणं चेत्युत्तरकरणम् । अथवा त्रिषु आयेषु शरीरेषु निर्वर्तनाधिकरणं भवति । तत्रऔदारिकम्-एकेन्द्रिय-द्विन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-भेदात्पञ्चविधम् । तत्तच्छरीरनिर्वर्तन
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ४ ० २७-२८
व्यपशमिताधिकरणस्य पुनरुदीरणनिषेधः १२२
रूपं निर्वर्त्तनाधिकरणम् । उक्तञ्च भगवती सूत्रे षोडशशतकस्य प्रथमोद्देशे – “जीवे णं भंते ! ओरालि यसरीरं निव्वतेमाणे अहिगरणी अहिगरणं ? गोयमा ! अहिगरणीवि अहिगरणंपि” । जीवः खल्लु भदन्त ! औदारिकं शरीरं निर्वर्त्तयन् अधिकरणी अधिकरणम् ? गौतम ! अधिकरण अपि अधिकरणमपि । इति च्छाया । ततः जीवोऽधिकरणी, शरीरमधिकरणम् । गतं निर्वर्त्तनाधिकरण प्रथमम् । द्वितीयं- निक्षेपाधिकरणम्, तत्र निक्षेपो नाम पात्रादीनामधः स्थापनम्, तद्विषये यदधिकरणं, तच्चतुर्विधम्, तत्र - प्रमार्जनायाः प्रतिलेखनायाश्चाऽकरणे द्वौ २, तथैवतयोरेव प्रतिलेखन - प्रमार्जनयोरविधिकरणे द्वौ २, एवं निक्षेपणाधिकरणस्य चत्वारो भेदाः ।
तृतीयं - संयोजनाधिकरणम् - संयोजना - संमेलनम्, तद्विषयेऽधिकरणम्, तद् द्विविधम्-भक्तसंयोजनाधिकरणम् १, उपधिसंयोजनाधिकरणं च २ । तत्र भक्तसंयोजनाधिकरणम्- सरसभोजनेऽरसभोजनस्य, अरसे सरसस्येत्यादिरूपेण संयोजनम् तत्र कलहोऽधिकरणम् ।
चतुर्थ - निसर्जनाधिकरणम्- निसर्जनं निष्कासनं प्रदानम् तद्विषयकमधिकरणम् । तत् त्रिप्रकारकम्, तद्यथा-सहसानिसर्जनम् १, प्रमादनिसर्जनम् २, अनाभोगनिसर्जनम् ३, क्रमेण त्रयो भेदाः । तत्र-सहसानिसर्जनमाकस्मिकम् । प्रमादनिसर्जनम् - कर्त्तव्या कर्त्तव्याऽनवधारणे निःसारणम् । अनाभोगनिसर्जनम् अज्ञानवशात् निस्सारणम् ।
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पूर्ववर्णितेषु मध्ये निर्वर्त्तनाऽधिकरणं विशेषतः पूर्वं निरूपितम् । अथ निक्षेपाधिकरणं विविच्यते - निक्षेपाधिकरणं द्विविधम्--लौकिकं लोकोत्तरिकंच । तत्र लौकिकमनेकप्रकारकं - हल - मुसल - मृगबन्धन्यादीनां स्थापनम्, लोकोत्तरिकं वस्त्रपात्रादीनां स्थापनम् तच्च सप्तविधम्, तद्यथा - 'न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति १, न प्रत्युपेक्षते - प्रमार्जयति २, प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति ३, दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्जयति ४, दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति ५, सुप्रत्युपेक्षते - दुष्प्रमार्जयति ६, यस्तु-सप्तमो भङ्गःसुप्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति ७, एष नाधिकरणम्, तस्य शुद्धत्वात् । यद्वा-अशनादीनामपावृतत्वेन स्थापनं तदपि निक्षेपाधिकरणम् । इति निक्षेपाधिकरणम् ॥
अथ संयोजनाधिकरणं प्रारभ्यते--संयोजनाधिकरणं द्विविधम्--लौकिकं १, लोकोत्तरिकं च २ । तत्र--लौकिकं तद् यद् रोगादिकारणे नानाविधौषधीनां सम्मेलनम्, विषगरादीनां निष्पत्तिनिमित्तकं सम्मेलनम् । लोकोत्तरिकं संयोजनाधिकरणं द्विविधम्- - आहारे - उपकरणे च २ । तत्राहारेऽपि द्विविधम्--अन्त-र्बहिश्च २ । तत्रान्तर्वसतौ यत् संयोजना धिकरणं तत्-त्रिविधम्--भाजने १, हस्ते २, मुखे च ३ । तत्र भाजने क्षीरखण्डादीनां सम्मेलनम्, हस्ते - गुडादिकस्य । मुखे प्रथमं डादिकं प्रक्षिप्प पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपेत् ।
बहिस्तत्-यद्भिक्षामटन् यद्येन सह संयुज्यते तत्तेन सह संयोजयेत् । यत्सामान्यं दुग्धं, घनीभूता दुग्धविकृतिश्च (मावा) इति लोके प्रसिद्धा, यदि लभ्यते तत्र विचारणा जायेत -
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निशीथस्ने "माचार्यों दुग्धमेव मह्यं दास्यति, न दुग्धविकृतिम्" इति हेतोस्तावुभावपि पदार्थी सम्मेलयतीत्यादि । उपाधी--अकारणेऽविधिना वस्त्रादिकं सीव्यते १, अकारणे विधिना सौम्यते २, कारणेऽविधिना सीव्यते ३, एते त्रयोऽपि भङ्गा अधिकरणम् । 'कारणे विधिना सीव्यते' इति चतुर्थी भङ्गस्तु शुद्धः, अनधिकरणत्वात् । तदेतत्संयोजनाधिकरणम् ।।
. अथ निसर्जनाधिकरणं प्रदर्श्यते--तद्-द्विविधम्-लौकिकं लोकोत्तरिकं च २, तत्र-लौकिक यथाकृतं निसृजति, यथा कस्मैचिद्वस्त्रभूषणादीनां क्रोधादिवशात्प्रदानम् , इत्यादिकम् । लोकोत्तरिकं निसर्जनं.त्रिविधम्-सहसा १, प्रमादेन २, अनाभोगेन च ३ ।
तत्र-पूर्वादिष्टेन योगेन किञ्चित्सहसा निसृजेत् । पञ्चविधप्रमादाऽन्यतरेण प्रमत्तो निसृजेत् । एकतो विस्मृत्याऽनाभोगेन निसृजेत् , तदेतन्निसर्जनाऽधिकरणम् । इति द्रव्याधिकरणम् ।
इदानीं-भावाधिकरणं प्रदर्शयामि-तद्यथा-संरम्भे १, समारम्भे २, आरम्भ च ३ । उक्तञ्च - संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो ।
आरंभो उद्दवओ, सव्वनयाणं विसुद्धाणं ॥ प्राणातिपातादेः सङ्कल्पः-संरम्भः१, परितापकरणं-समारम्भः २, उपद्रवणं-हननम्-आरम्भः ३ विशुद्धानां सर्वनयानां मतमेतत् । एतेषामधो मनोवचनदेहाः स्थापनीयाः, तदधः करण-कारणाऽनु. मोदनानि, एतानि त्रीणि स्थापयितव्यानि । एतेषामप्यधः क्रोधमानमायालोभाः, एते चत्वारः स्थापयितव्याः । तत्राऽऽलापप्रकार इत्थम्-क्रोधसम्प्रयुक्तो मनसा संरंभं करोति १, मानसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति २, मायासम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति ३, लोभसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं करोति ४, एते चत्वार आलापकाः करणे ।
एवमन्यद्वारा कार्यमाणेऽपि चत्वार आलापकाः । तथा-क्रोधसम्प्रयुक्तो मनसा संरंभ कारयति १, मानसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भं कारयति २, मायासम्प्रयुक्तो मनमा संरम्भ कारयति ३, लोमसंप्रयुक्तो मनसा संरम्भं कारयति ४ ।
एवं क्रोवसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते १, मानसंप्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते २, मायासम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुभोदते ३, लोभसम्प्रयुक्तो मनसा संरम्भमनुमोदते ४,
___ एवं द्वादश वियरुपा मनसा लब्धाः । एवमेव-द्वादश वचनेन । तथैव द्वादश कायेन । तदेवं संरम्भस्य षट्त्रिंशद्भङ्गाः । एवं-समारम्भस्याऽपि षट्त्रिंशद्भङ्गाः । एवमारम्भस्याऽपि षट्त्रिंशद्भङ्गाः । सर्वसङ्कलनयाऽष्टोत्तरशतं भङ्गानां भवति ।
एतेषां द्रव्य--भावाधिकरणानामन्यतरेणाऽपि--अधिकरणं यो भिक्षुरुत्पादयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ४ सू० २९-३० हसनपार्श्वस्थादिसंघाटकादानप्रदाननिषेधः १२३ ___अत्र सूत्रे-भावाधिकरणेन प्रथमभङ्गेनाऽधिकारः, तत्र चैते दोषाः-तापो भवति-अहं तेनाऽतीव तम्ये, एवं भवति तापः साधिकरणस्य । एवं-भेदः-अयशो भवति साधिकरणस्य । तथा-ज्ञानदर्शन-चारित्र-तपसां हासो भवति । तथा-साधिकरणस्य पुरुषस्य संसारोऽपि वर्द्धते, इत्यादयोऽनेके दोषा भवन्ति । तस्मात् कारणात् श्रमणैः श्रमणीभिर्वाऽधिकरणं नोत्पादनीयम् , किन्तु-समभावमास्थाय चारित्राराधनं कर्त्तव्यमिति तीर्थकराणामाज्ञा शास्त्राणां मर्यादा चेति ।। सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विओसमियाई पुणो उदीरेइ उदी रेत वा साइज्जइ ॥ सू० २८
छाया-यो भिक्षुः पौराणानि अधिकरणानि क्षामितव्युपशमितानि पुनः उदीरयति उदीरयन्त वा स्वदते ॥सू० २८॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पोराणाई' पौराणानि पूर्वकालिकानि-पूर्वकालभवानि व्यतीतानीत्यर्थः 'अहिगरणाई' अधिकरणानि-कलहान् । 'खामियविमओसमियाई क्षामितव्युपशमितानि, क्षामितानि वन्दनादिना, अतो व्युपशमितानि शान्तीकृतानि तानि यदि 'पुणो उदीरेइ' पुनरुदीरयति उत्पादयति, तथा 'उदीरंतं वा साइज्जई' उदीरयन्तं समुत्पादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥सू०२८॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-अहिंगरणं पुठवर्ग, उप्पाएइ जई जइ ।
आणाभंगाइए दोसे, पायच्छित्तं च पावइ ॥ छाया-अधिकरणं पूर्वगमुत्पादयति यतिर्यदि ।
आशाभङ्गादिकान् दोषान् प्रायश्चित्तं च प्राप्नोति ॥ अवचरिः—'अहिगरणं' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः पूर्वगं--पूर्व गतं क्षान्त-विशोधितम् . मिथ्यादुष्कृतादिनोपशमितमधिकरणं क्लेशरूपं पुनरुत्पादयति । यत्र यदा कदाचित् द्वयोः श्रमणयोः कलहो जातस्ततस्तं मिथ्यादुष्कृतदानादिना शान्तीभूतमपि पुनरेकः कथयति-"त्वं पूर्व ममापमानं कृतवानसि" एवंप्रकारेण परस्परं वार्तालापप्रवाहे पूर्वजातमपि विस्मृतं नवीनं करोति स आज्ञाभङ्गादीन् दोषान् प्रायश्चित्तं च प्राप्नोति । एवं कलहकरणेन मनसि तापो भवति लोकेऽयशो भवति । एवं--ज्ञान--दर्शन--चारित्र-तपसां परिहानिर्भवति, स्वाध्यायादिकालस्य कलहेनैव परिसमाप्तेः । तथा साधुभिः सह प्रद्वेषोऽपि जायते । एवं-कलहकरणात् संसारोऽपि, परिवर्द्धते, कलहेऽवश्यं कषायोदयात् , कषायाणां च संसारकारणत्वात् ।
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૨૪
निशीथसूत्रे
यस्मादेते दोषाः कलहकारिणां भवन्ति तस्मात् कारणात् व्यपशमितं पुरातनं कलहं नोत्पादयेत् । कदाचित् उत्पन्नमपि मिथ्यादुष्कृतिदानादिना प्रशमयेत्, संयमाराधने कालं नयेत् ॥सू०२८ ॥ सूत्रम् -- जे भिक्खू मुहं विष्फालिय विष्फालिय हसइ हसंत वा साइज्जइ ॥ सू० २९ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मुखं विस्फार्य्य विस्फार्थ्य हसति इसन्तं वा स्वदते ॥ सू०२९ ॥
चूण - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मुहं' मुखम् 'विष्फालियविफालिय' विस्फार्य - विस्फार्य 'हसइ' हसति, हास्यं च नोमोहनीय कर्मोदयाद्भवति । तच्चतुर्विधम्- नग्नादिकं दृष्ट्वा हसति १, अथवा - विकृतं वाक्यं समुच्चार्य २, काक - सरटादीनामाख्यानकं श्रुत्वा ३, मोहजनकं वाऽन्यस्य हासोत्पादकं सविकारं वाक्यं श्रावं श्रावं महता - उत्कलिकाशब्देन कहकहं हसति ४ । 'हतं वा साइज्जइ' हसन्तं वाऽन्यं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्ती भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।
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एवं - यो यति सति तस्य पूर्वकाले यः शूलादिको रोगोऽभूत् स इदानीं च शान्तः, परन्तु - अतिहसनेन पुनरपि स रोगः प्रादुर्भवति । एवं नवीनोऽपि शूलादिरोगोऽतिहास्येन समुत्पद्यते । एवं कर्णरोगोऽपि भवति, मुखमपि विकृतं विष्फारितं वा भवति । एवं कदाचित् एकत्राऽनेके तापसा आसन्, तत्रैकेन तापसेनाऽदेशकाले केशादीनां मुण्डनं कृतम्, तद् दृष्ट्वा सर्वेऽप्यन्ये हसितुमारेभिरे, न विरामं नीतवन्तः, तेन च तेषां रोगोदयान्मरणं सञ्जातमिति श्रूयते । एवं यं हसति तस्य मनसि शोको भवति 'अहमुपहसितः' ततश्च तेषु शत्रुभावो वर्द्धते, शरीरे हानिग्लोनिश्च भवति । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् मुखं व्यादाय नोपहासः करणीयः किन्तु - शमभावेन संयमा राधनं कर्त्तव्यमिति ॥ सू० २९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं देइ देतं वा साइज्ज | सू० ३०॥
छाया - यो भिक्षुः पार्श्वस्थाय संघाटकं ददाति ददतं वा स्वदते || सू० ३०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थाय, तत्रयो ज्ञान - दर्शन - चारित्र- तपसां पार्श्वे - समीपे तिष्ठति न तु तेषामाराघको भवति स पार्श्वस्थः, तस्मै ‘संघाडयं' संघाटकं–स्वपरशिष्यरूप साहाय्यम् ' देइ' ददाति, तथा 'देतं वा साइ-ज्जइ' पार्श्वस्थाय संघाटकं ददतमन्यं मश्रमणं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० ३०||
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०४ सू०३१-६० उदकादिसंसृष्टहस्तादिनाऽशनादिग्रहण नि० १२५
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३१॥
छाया-योभिक्षुः पाश्वस्थस्य संघाटकं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥सू०३१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'पासत्थस्स' पार्श्वस्थस्य 'संघाडयं' संघाटक-शिष्यसाहाय्यम् 'पडिच्छई' प्रतीच्छति--स्वीकरोति-.गृह्णातीत्यर्थः, 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा स्वदते । यः पार्श्वस्थस्य शिष्यादिपरिवार स्वसाहाय्यतया वाञ्छति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति, अतः पार्श्वस्थसंघाटकस्य साहाय्यं न गृह्णीयात् ॥ सू० ३१॥ एवम् - 'ओसन्नस्स संघाडयं देइ पडिच्छइ' ॥३२॥३३॥ एवं 'कुसीलस्स' इति सूत्रद्वयम् ॥३४॥३५॥ 'णितियस्स' इति सूत्रद्वयम् ॥३६॥३७॥ 'संसत्तस्स' इति सूत्रद्वयम् ॥३८-३९॥ चेति सूत्राष्टकं पार्श्वस्थसूत्रद्वयवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ३८-३९।। ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-पासत्थाईण संघाडं, देइ तेसि पडिच्छइ ।
आणाभंगाइए दोसे, पावई सो जई सया । छाया-पार्घस्थादिभ्यः संघाडं, ददाति तेषां प्रतीच्छति ।
__ आक्षाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति स यतिः सदा ॥
अवचूरिः-'पासत्थाईण' इत्यादि । यदि भिक्षुः पार्श्वस्थादिभ्यः संघाटं ददाति तदाऽऽज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनायो दोषा भवन्ति । तत्र संयमात्मविराधना यथापार्श्वस्थादिभ्यः प्रदत्तः संघाटको यदि प्रतिलेखन-प्रमार्जनादिकां साधुकियां सम्यक्तया करोति तदा स्वापमानं विज्ञायेत प्रतिषेधिष्यति च । ततस्तद्वचनं स यदि स्वीकरोति, तदाऽऽचारे शैथिल्यं प्रतिपद्यते तेन संयमविराधना जायते ।
यदि न करोति तदा-कलहो युद्धं वा संभवति, तेनाऽऽत्मविराधना समापयेत । एव. मशनादिग्रहणेऽग्रहणे च पूर्वोक्ता दोषाः समापोरन् , अतः पार्श्वस्थादिभ्यः संघाटको न दातव्यः ।
एवं-यदि पार्श्वस्थादीनां संधाट प्रतीच्छति तदाऽपि पूर्वोक्ता एव दोषा भवन्ति ।
तथाहि-यदि श्रमणः पार्श्वस्थादिसंघाटकं स्वीकृत्य तेन सह विहरति तदा विहारसमये स उद्गमादिदोषदूषितं भक्तपानादिकं गृह्णाति । तस्य चोपभोगः श्रमणस्यापि अवश्यमेव भवेत् संघाटाऽऽनीतत्वात् ।
अथ यदि कुत्रचित् साधुना प्रतिषिद्धे पार्श्वस्थादिसंघाटकेन गृहीते सदोषान्नपानादिके साधुमौनमालम्बते तदाऽऽज्ञाभङ्गदोषः स्यात् । तथा- दातॄणां गृहिणामविश्वासोऽपि स्यात् । तथा "
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निशीथसत्रे
१२६
ते श्रावका एवं वदेयुः - " किं तीर्थकरेण द्विप्रकारको धर्मः साधूनां कृते कथितः यदत्र सदोषमपि एके गृह्णन्ति न पुनरेके” एवं गृहस्थैः कथितेऽपि यदि साधुः पार्श्वस्थादिसंघाटकस्याऽनुरोधान्मौनमालम्बते - अनुमति वा ददाति तदा धर्मे महान् अविश्वासो भवेत् । तथा--दी - दीर्घसंसारकान्ताराSarfतर्भवेत् । अथ यदि साधुर्वदति - "न द्विविधो धर्मस्तोर्थकरेण कथितः" तदा पार्श्व स्थादेर्वचनं प्रतिहतं भवति ततश्च स एव कलहो द्वयोर्भविष्यति तेनाऽऽत्म विराधनायाः सम्भवः । तदानीताSशनादिस्वीकारे षोडश उद्गमादिदोषाः, उत्पादनादोषाश्चापि षोडश, दश-- एषणादोषाः, एवं द्विचत्वारिंशदाहारदोषा भविष्यन्तीति पार्श्वस्थादिभिः सह संघाटकस्यादानं प्रदानं वा न कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ३९॥
सूत्रम् — जे भिक्खू उदउल्लेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणवा, असणं वा ४ डिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू०४०॥ 11 छाया - यो भिक्षुः उदकार्द्रेण हस्तेन वा मात्रेण वा दर्या वा भाजनेन वा अशनं वा ४ प्रतिगृह्णाति प्रतिगृद्धन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४०||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'उदउल्लेण' उदकाद्वैण सचित्तजलाण 'हत्थेण' हस्तेन उदकलेपाद यावद् आईः करस्तावद् तादृशेनैव करेण 'मत्तेण वा' मात्रेणमृत्तिकादि निर्मित लघुपात्रेण वा 'दव्वीए वा' दव्य - 'कडछो' इति भाषाप्रसिद्धया वा 'भायणेण वा' भाजनेन - कांस्यादिपात्रेण वा । हस्तवत् - अमत्र - दव - भाजनेषु विशेष्येषु सचित्तोदकाईपदं प्रत्येकमभिसंबद्ध्यते । तादृशेभ्यो हस्तादिभ्य 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारम् 'पडिग्गा हे' प्रतिगृह्णाति आदत्ते, 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तस्थाज्ञाभङ्गादयो दोषाश्च भवन्ति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम् -- एवं ससणि० २ | | ०४१ || ससरक्खेण ०३ ||सू०४२ ॥ ||मट्टियासंसट्ठेण०४ ||सू०४३ || ओसा० ५ || सू० ४४ ॥ लोण० ६ || सू०४५ || हरियाल० ७ || सू०४६|| मणोसिला० ८ ॥ सू०४७॥ वण्णिय० ९ ॥ सू०४८॥ गेरुय० १० || सू०४९ ॥ सेठिय० ११ ॥ सु०५० ॥ हिंगुलुय० १२ || सू०५१ || अंजण० १३ || सू०५२ || लोद्ध० १४ ॥ सू ५३ ॥ कुक्कुस ० १५ || सू०५४ || पिठ्ठ० १६ || सू० ५५ || कंद ० १७ ॥ सू०५६॥ मूल० १८ || सू०५७|| सिंगबेर० १९ ||सू० ५८॥ पुफग० २० || सू०५९॥ कुट्ठगसंसदट्ठेण वा २१, एगवीसभेएण हत्थेण वा मत्तेण वा दवीए वा भायणेपण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ||सू०६०।।
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धूर्णिमा ध्यावचूरिः उ०४०६१-१३३ ग्रामारक्षकाद्यात्मीकरणाद्यन्योम्मपादामार्जनादिनि० १२७
छाया - एवम् सस्निग्धेन० २ ॥ सू० ४१ ॥ सरजस्केण० ३ ॥ सू० ४२|| मृत्तिका०४ || सू०४३ अवश्याय० ५ || सू०४४ || लवण० ६ || सू० ४५॥ हरिताल ७ || सू०४६ ॥ मनःसिला०८ ||४|| वर्णिक० ९ ||०४८ || गैरिक० १० सू०४९ || सेटिका० ११ || सू०५० ॥ हिंगुलुक० १२ || सू०५१ ॥ अञ्जन० १३ । सू०५२ || लोध्र० १४ || सू०५३|| कुक्कुस०१५ ||०५४ || पिष्टक० १६ ||०५५ ॥ कंद० १७ | | ०५६|| मूल० १८ | सु०५७॥ शृङ्गबेर० १९ ॥ ०५८ || पुष्पक० २० सू० ५९ ॥ कोष्ठक संसृष्टेन २१, एकविंशतिमेदेन हस्तेन वा मात्रेणवा १ दof वा ३ भाजनेन वा ४ अशनं घा ४ प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ||सू० ६०||
चूर्णी - एवम् - यदि कोऽपि भिक्षुः सस्निग्धेन - सचित्तजलाऽल्पार्द्रता संश्लिष्टेनाऽपि "हस्तेन मात्रेण-दर्व्या-भाजनेन वा” इति सर्वत्र संयोज्यम् ||सु०४१ ॥ सरजस्केण - सचित्तरजोयुक्तेन ॥४२॥ मृत्तिकासंसृष्टेन - सचित्तमृत्तिकासंयुक्तेन ॥ सू०४३ ॥ अवश्याय ( तुषार) संसृष्टेन - सचित्ततुषारयुक्तेन || सू० ४४ ॥ लवणसंसृष्टेन सचित्तलवणयुक्तेन ॥ सू० ४५ ॥ हरितालसंसृष्टेन - लोकप्रसिद्ध सचित्त हरिताल नाम केपीतखनिजद्रव्ययुक्तेन ||सू० ४६ ॥ मनःशिलासंसृष्टेन - सचितमन:· शिलाभिधौखनिजद्रव्यसंश्लिष्टेन ॥ सृ० ४७॥ वर्णिक संसृष्टेन - सचित्तपीतमृत्तिकासंश्लिष्टेन || सू० ४८ ॥ गैरिकसं सृष्टेन - सचित्तगैरिकधातुलिप्तेन ॥सू० ४९ ॥ सेटिका संसृष्टेन - संचित श्वेतमृत्तिकासंलग्न | सू० ५०॥ हिंगुलुक संसृष्टेन - सचित्त हिंगुलेतिप्रसिद्ध रक्तद्रव्यसंलग्नेन ॥ स्० ५१॥ अञ्जनसंसृष्टेन – सचित्तसौवीराद्यञ्जनयुक्तेन ॥ सू०५२॥ लोधसंसृष्टेन - लीघ्रद्रव्यसंश्लिष्टेन ॥ स्०५३ ॥ कुक्कुससंसृष्टेन तत्कालसंमर्दित सचित्ततुषसंलग्नेन ॥सू० ५४ ॥ पिष्टक संसृष्टेन - सचित्तगोधूमादिचूर्णयुक्तेन || सू० ५५ || कन्दसंसृष्टेन - सचित्तकन्दसंश्लिष्टेन ||सू० ५६ ॥ मूलसंसृष्टेन - सचित्तमूललेपयुक्तेन ॥स्० ५७॥ शृङ्गबेरसंसृष्टेन - सचित्तार्द्रक संसृष्टेन || सू०५८ || पुष्पकसंसृष्टेन - सचितपुष्पयुक्तेन ॥सू० ५९ । कोष्ठक संसृष्टेन - सचित्तसुगन्धितद्रव्य समुदाय संमिश्रणरूप कोष्ठपुटाभिघद्रव्यविशेषसंश्लिष्टेन २१, पूर्वोक्तैकविंशतिभेदयुक्तेन हस्तेन वा मात्रेन वा दर्ष्या वा भाजनेन वा अशनं वा ४ प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति || सू०६० ॥
सूत्रम् - - जे भिक्खू गामारक्खयं अतीकरेइ अत्तीकरेंतें वा साइज्जइ ६ एवं सो चेव रायगमओ भाणियव्वो । सू० ६१-६४ ॥
छाया -यो भिक्षुमारक्षकमात्मीकरोति आत्मीकुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सु०६१ ॥ पवं स एव राजगमको भणितव्यः ॥सू० ६१-६४॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः 'मामारक्खयं' प्रामारक्षकम् ग्रामपालकम् 'अत्तीकरेइ' आत्मीकरोति- मन्त्रादिना स्वाधीनं करोति । तथा 'अतीकरेंतं वा साहउज' आत्मीकुर्वन्तं वाऽन्यं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्था मिध्या
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१२८
निशीथरचे त्वसंयमविराधनाऽऽमविराधनादोषा भवन्ति ॥सु० ६१॥ एवं सो चेव रायगमओ भाणियव्वी' एवम् अनेनैव रीत्या स एव योऽस्यैवोद्देशकस्य द्वितीयादिसूत्रगतो राजगमक:-'अच्चीकरेइ' ।मु०६२॥ अच्छीकरेइ ॥सू० ६३॥ अत्यीकरेइ ।।सू० ६४॥ इत्येवंरूपः, सोऽपि सूत्रत्रयात्मकोऽत्रापि भणितव्यः ॥ सू० ६४ ॥
सूत्रम्-एवं देसरक्खयं ४ (६८) एवं सीमारक्खयं४ (७२) एवं रन्नारक्खयं४ (७६) एवं सव्वारक्खयं४॥ सू० ८०॥
छाया-एवं देशरक्षकम्४ (६८) एवं सीमारक्षकम् (७२) एवमरण्यारक्षकम् (७६) एवं सर्वारक्षकम् ४ ॥सू०८०॥
चूर्णी-एषां व्याख्या च पूर्ववद् बोध्या ।।सू० ५-८०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ।। सू० ८१॥
छाया- यो भिक्षुरन्योन्यस्य पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमाजयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८१॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः अन्योन्यस्य परस्परं साधुः साध्व्याः, साध्वी साधोर्वा, इत्येवं परस्परं पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद् वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८१॥
सूत्रम्-एवं तइयउद्देसगमो भाणियब्बो (सू० ८२ से सू० १३३ जाव
छाया--एवं तृतीयोद्देशगमो भणितव्यः (सू० ८२ से सू० १३३) यावत् ॥
चूर्णी--एवं' इत्यादि । एवम्- अनेनैवालापकप्रकारेण तृतीयोदेशगमः-तृतीयोद्देशे यो गभस्त्रिपञ्चाशत्सूत्रात्मकः प्रोक्तः सोऽत्राऽपि ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तम् ! इत्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाब' यावत् शीर्षकद्वारिकासूत्रपर्यन्तम् । एकाशीतितमादामार्जनसूत्रादारभ्य त्रयस्त्रिंशदधिकशततम शीर्षद्वारिकासूत्रपर्यन्तं त्रिपञ्चाशत्सूत्रसमुदायोऽत्र वाच्यः । विशेषस्त्वयम्-तत्र तृतीयोदेशे 'अपप्णो पाए' इत्यादि पठितम् , अत्र तु-'अन्नमन्नस्स पाए' इत्यादि पठितव्यम् । तथाहि तदन्तिमसूत्रम्
जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥ सू० १३३॥
छाया--यो भिक्षु मानुगाम द्रवन् अन्योन्यस्य शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं या बदते ॥सू० १३३॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ४ सू० १३४-१३५ उच्चारप्रस्रवणभूमेः प्रतिलेखनाधिकारः १२९
चूर्णी--'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'गामाणुगामदुइज्जमाणे' प्रामानुग्रामं द्रवन् एकस्मात् ग्रामाद् प्रामान्तरं द्वितीय प्रामं प्रति गच्छन् मार्गे गमनसमये आतपादिभ्यो रक्षणबुद्धया 'अण्णमण्णस्स सीसवारियं करेइ' अन्योन्यस्य परस्परस्य साधुसाध्वीति परस्परं शीर्षद्वारिकाम् मस्तकोपरिवस्त्राच्छादनलक्षणां करोति संपादयति तथा 'करें वा साइज्जइ' अन्योन्यस्य शीषद्वारिकां कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । एतेषां सर्वेषां पादप्रमार्जन-कायव्रणगण्ड-केश-रोम मल-जल्लादिसूत्राणां चूर्णीभाष्याऽवच्यस्तत्तत्सूत्रव्याख्याऽवसरे तृतीयोदेशके एव द्रष्टव्याः ॥ सू० १३३ ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् – पमज्जणाइसुत्ताणं, तइए जो गमो मओ ।
साहूणीण य साहूणं, अन्नोन्नमेत्थ आहिओ ॥ छाया-प्रमार्जनादिसूत्राणां तृतीये यो गमो मतः।
साध्वीनां च साधूना-मन्योन्यमत्राख्यातः ॥ अवचूरिः- 'पमज्जणाई' इत्यादि । प्रमार्जनादिसूत्राणां पादप्रमार्जनादारभ्य शौर्षद्वारिकापर्यन्तं त्रिपञ्चाशत्सूत्राणां यो गमो यादृशस्तृतीये उद्देशके अरख्यातः स एव गमः प्रकारः अत्र चतुर्थे चतुर्थोद्देशके साध्वीनां साधूनां च अन्योन्य शोषद्वारिकाकरणे ज्ञातव्य इति सर्वमत्र तृतीयोद्देशकवदेव व्याख्यातव्यमिति ।।सू० १३३॥
___ यावत् शब्देन गृहीतानि सूत्राणि व्याख्यातानि सम्प्रति क्रमप्राप्तं सूत्रमाह-'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्--जेक्खू साणुपाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १३४॥
छाया–यो भिक्षुः सानुपादे उच्चारप्रस्रवणसूमि न प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तवा स्वदते ॥सू० १३४॥
___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'साणुपाए' सानुपादे, पादः चतुर्थभागरूपः, तम् अनु-अधिकृत्य यद् भवति तद् अनुपादं, तेन सहितं सानुपादम्-दिवसस्य चतुर्थभागावशेष, तस्मिन् सानुपादे चतुर्थभागावशेषायां चरमायां पौरुष्यामित्यर्थः, यो भिक्षुः 'उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेई' उच्चारप्रस्रवणभूमि न प्रतिलेखयति, अयं भावः-रात्रौ यत्र उच्चारप्रस्रवणं व्युत्स्रक्ष्यते तादृशभूम्या यदि दिवसावसाने चरमपोरुष्यामेव प्रतिलेखनं न करोति तथा 'ण पडिलेहेंतं वा साइज्जई' न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३॥
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निधीथमचे
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-साणुप्पाए काले, पडिलेहं नो करिज्ज जो मिक्खू ।
उच्चारपासवणस्स, भूमीए पावए मिच्छं ॥ छाया-सानुपादे काले प्रतिलेखं नो कुर्याद् यो भिक्षुः ।
उच्चारप्रस्रवणस्य, भूम्याः प्राप्नुयात् मिथ्यात्वम् ॥ अवचूरिः-'साणुप्पाए' इत्यादि । सानुपादे काले दिवसस्य चतुर्थ भागावशेषे काले उच्चारप्रस्रवणस्य भूम्याः प्रतिलेखनं यो भिक्षुर्न कुर्यात् स मिथ्यात्वम् आज्ञाभङ्गादिदोषाँश्च प्राप्नोतीति । रात्रौ यत्रोच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापनीयं भवेत् तादृशं भूमिभागं दिवसस्य चरमभागे एवावश्यं प्रतिलेखयेदिति, तस्यः यः प्रतिलेखनं न करोति तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिकान् दोषान् प्राप्नोति । तत्राऽप्रतिलेखितायां भूमौ उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापने इमे दोषाः, तथाहि-अप्रतिलेखितायां भूमौ परिष्ठापयति उच्चारप्रस्रवणं तदा द्रव्यतः षट्कायानामुपमर्दनसंभवेन संयमविराधनम् , तथा तत्र बिलादिकसंभवेऽप्रतिलेखिते प्रतिष्ठापने सर्पवृश्चिकादिजन्तुसंभवे तेनोपघातसंभवेनात्मविराधनम् , तथा अन्धकारे गमने उच्चारपत्रवणादिना चरणौ उपलिप्तौ भवेतामिति उपकरणादिविनाशः, साधोविपरिणामो वा भवेत् , यस्मात् अप्रतिलेखितायां भूमौ मूत्रपुरीषपरिष्ठापने इमे दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् दिवसस्य चरमपौरुष्यामेव प्रयत्नपूर्वकम् उच्चारप्रस्रवणभूमिमवश्यमेव प्रतिलेखयेत् ।।१३४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू तओ उज्वारपासवणभूमीओ ण पडिलेहेइ ण पडिलेहतं वा साइज्जइ । सू० १३५॥
छाया-यो भिक्षुः तिस्रः उच्चारप्रस्रवणभूमी प्रतिलेखयति न प्रतिलेखयन्तं वा स्वदते. ॥सू० १३५॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'तओ उच्चारपासवणभूमीओ' तिस्रः-त्रिसंख्यका उच्चारप्रस्रवणभूमीः त्रीणि मंडलानीति यावत् ‘ण पडिले हेइ' न प्रतिलेखयति, 'ण पडिलेहेंते' न प्रतिलेखयन्तं प्रतिलेखनं न कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते ।
एकस्या भूम्या एव प्रतिलेखनकरणेन तत्र उच्चारमनवणपरितिष्ठापसंभवेऽपि भूमित्रयस्य प्रतिलेखनं किमर्थमिति चेत् आह-यदि कदाचित् रात्रौ एकस्यां भूमौ परिष्ठापने कश्चित् व्याधातो भवेत् तदा द्वितीयतृतीयप्रतिलेखितभूमौ प्रस्रवणादीनां परिष्ठापनं कतव्यम् , अतोभूमित्रयस्य प्रतिलेखनं सूत्रे प्रदर्शितम् ।
.. यो हि भिक्षुः भूमित्रयं न प्रतिलेखयति किन्तु अप्रतिलिखितायामेव भूमौ उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति, तथा अप्रतिलेखितभूमौ व्युत्सर्जने व्यतः षड्जीवनिकायविराधने संयमविराधनम् , बिलादिसंभवे सर्पादीनां
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ४ सू० १३६ -१३९ उच्चारप्रसवणपरिष्ठापनाधिकारः १३१ दंशने चात्मविराधनं च । यस्मादेते दोषास्तस्मात् कारणात् दिवसस्य चरमपौरुष्यामेव भूमित्रयस्यावश्यमेव प्रतिलेखनं कर्तव्यम् । तिम्रो भूमय आसन्न--मध्य--दूररूपाः, तत्र-आसन्नभूमिसतिसमीपस्था, मध्यभूमिर्लोकानां गमनागमनमार्गरूपा, दूरभूमिः-सा द्विशतहस्तप्रमाणात्परं या भूमिः सा इति ॥ सू० १३५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिठवेइ, परिट्ठवेतं वा साइज्जइ १३६॥
छाया-यो भिक्षुः क्षुल्लके स्थण्डिले उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥सू० १३६॥ .
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् मिक्षुः 'खुड्डागंसि थंडिलंसि' क्षुल्लकेऽतिसंकुचिते स्थण्डिले स्थाने, तत्र हस्तप्रमाणतो यत् न्यूनं स्थानं तत् क्षुल्लकं स्थानं, तस्मिन् क्षुल्लकस्थाने 'उच्चारपासवणं परिहवेइ' उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति । 'परिहवेतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥१३६॥
क्षुल्लकस्य किं प्रमाणम् ! अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-विक्खंभायामेहि, रयणीमेत्तं हवेज्ज थंडिल्लं ।
चउरंगुलमोगाढं, जहण्णवित्थिण्णमच्चित्तं ॥ एत्तो हीणतरं जं, खुड्डागं थंडिलं मुणेयव्वं ।
एत्थ य परिहवेंतो, आणाभंगाइ पावे ॥ छाया-विष्कम्भायामाभ्यां रत्निमात्रं भवेत् स्थण्डिलम् ।
चतुरङ्गुलावगाद, जघन्यविस्तीर्णमचित्तम् ॥ अस्मात् हीनतरं यत् क्षुल्लकं स्थण्डिलं ज्ञातव्यम् ।
अत्र च परिष्ठापयन् , आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-'विक्खंभायामेहिं' इत्यादि । विष्कम्भायामाभ्यां रनिमात्रं बद्धमुष्टिकहस्तप्रमाणं यद् भवेत् , तथा यच्च चतुरङ्गुलावगाई भूमेरधश्चतुरङ्गुलं यावद् अचित्तं भवेत् तत् स्थण्डिलं जघन्यविस्तीर्ण जघन्यतो विस्तीर्ण कथ्यते । 'एत्तो' इत्यादि, अस्मात् जघन्यविस्तीर्णात् यत् हीनतरं भवेत् तत् क्षुल्लक स्थण्डिलं ज्ञातव्यम् , अत्र-अस्मिन् एतत्परिमिते स्थण्डिले उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयन् साधुः आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ।। सू० १३६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं अविहीए परिट्ठवेइ, परिठवैतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३७॥
. छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणम् अविधिना परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वंदतें।सू०१३७॥
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१३२
निशीथसत्रे
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'अविहीर' अविधिना शास्त्रप्रदर्शित विधिव्यतिक्रमेण 'परिट्ठवेई' परिष्ठापयति व्युत्सजति 'परिहवत वा अविधिना उच्चारप्रस्रवणादिकं परिष्ठापयन्तं व्युत्सृजन्तं स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र विधिमाह-यत्र परिष्ठापयितुमिच्छति तत्र स्थानस्य दिशायाश्च दृष्टया प्रतिलेखनं करणीयम् , तथा तादृशस्थाने त्रसस्थावरादिजीवो भवेत् तदा तादृशस्थानस्य प्रमार्जनं कर्तव्यम् , प्रमार्जनं कृत्वा भूमेरुपरि चतुरङ्गुलोच्छ्रितहस्तेन परिष्ठापयेत् , इति विधिर्ज्ञातव्यः । एतादृशविधिव्यतिरेकेण य उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा अनुमोदते तस्य पूर्वोक्ता दोषा भवन्तीति ॥१३७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता नपुंछइ, न पुंछंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३८॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य न प्रोञ्छति, न प्रोज्छन्तं वा स्वदते ॥ __चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिठाप्य व्युत्सृज्य 'न पुंछई' न प्रोञ्छति तयोर्लेप नापनयति, तथा 'न पुंछतं वा साइज्जइ' न प्रोञ्छन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता कटेण वा किलिं चेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा पुंछइ पुंछंतं वा साइज्जइ ॥१३९॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य काष्ठेन वा किलिंचेन वा अङ्गल्या वा शलाकया वा प्रोञ्छति प्रोज्छन्तं वा स्वदते ॥सू० १३९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रस्रवणं 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य 'कहेण वा' काष्ठेन वा 'किलिंचेण वा किलिंचेन वा तत्र किलिंचो वंशचीरिका, वेणुना निर्मितः क्षुरिकासदृशो वस्तुविशेषस्तेन वा 'अंगुलियाए वा' अङ्गल्या वा 'सलागाए वा' शलाकया वा लोहादिनिर्मितशलाकया 'पुंछइ' प्रोञ्छति-स्वच्छं करोति 'पुछतं वा साइज्जइ' प्रोञ्छत वा स्वदते । जीर्णवस्त्रस्याङ्गुलत्रयदीर्घायामपरिमितेन खण्डवस्त्रेण क्रमशः प्रथममुच्चारस्थानं प्रोञ्छनीयम् , तदनु च नावापूरत्रयपरिमिताचित्तजलेन तत् स्थानं प्रक्षालनीयं, तत्त एकनावापूरपरिमितेनाचित्त जलेन हस्तौ प्रक्षालनीयौ, इति । सू० १३९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवेत्ता णायमइ, णायमंतं वा साइज्जइ ॥१४०॥
छाया--यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य नाचमति नाचमन्तं वा स्वदते ।१४०। चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ४ सू० १४०-१४५ उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनाधिकारः १३३ उच्चारप्रस्रवणं 'परिहवेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य ‘णायमई' नाचमति आचमनं न करोति-शौचं न करोतीत्यर्थः 'णायमंतं वा साइज्जई' नाचमन्तं वा स्वदते मुत्रपुरीषोत्सर्जनानन्तरमचित्तजलेन प्रक्षालनं न करोति न कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिवेत्ता तत्थेव आयमइ, आयमंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
छाया- यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाप्य तत्रैवाचमति आचमन्तं वा स्वदते ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खु यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य 'तत्थेव आयमई' यत्रैव स्थण्डिलादौ परिष्ठापयति तत्रैव स्थंडिलादौ-आचमति शौचं करोति, तत्रैवाचमने उच्चारादिना हस्तस्य लेपसंभवात् । तथा तत्रैव 'आयमंतं वा साइज्जइ' आचमन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिठवेत्ता अझ्दूरे आयमइ भायमंतं वा साइज्जइ ॥१४२॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रस्रवणं परिष्ठाण्यातिदूरे आचमति भाचमन्त घा स्वदते ॥१४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेत्ता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य 'अइदरे आयमई' अतिदूरे आचमति यत्र स्थण्डिलादौ परिष्ठापनं कृतं तस्मात् स्थण्डिलादतिदूरे हस्तशतप्रमाणे स्थाने गत्वा आचमति शौचं करोति तथा 'आयमंतं वा साइज्जई' पुरीषपरिष्ठापनस्थानादतिदूरं गत्वा आचमन्तं शौचादिकं कुर्वन्तं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० १४२॥ - सूत्रम्-जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिठ्ठवेत्ता परं तिण्हं नावाराणं आयमइ आयमंतं वा साइज्जइ ॥१४३॥
छाया-यो भिक्षुरुच्चारप्रसवणं परिष्ठाप्य परं त्रयाणां नावापूराणामाचमति भाचमन्तं वा स्वदते ॥ सू १४३॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेता' परिष्ठाप्य व्युत्सृज्य 'परंतिण्हं' परमधिकं त्रयाणाम् 'नावापूराणं
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१३४
निशीथसूत्र नावापूराणां नावाकारतानामे कहस्ततलानां 'पसलो' इति प्रसिद्धानां 'आयमइ' आचमति शौचै करोतीत्यर्थः, प्रथमं तु यदि एकेनैव नावारेण निर्लेप्तुं शक्यते तदा एकेनैव नावापूरेण निलेपयेत् न तु तदधिकेन, किन्तु कारणवशात्तदधिकेन द्वितीयेन तृतीयेन वा नावापुरेणापि निर्ले. पयेत् । ततोऽधिकेन चतुर्थपञ्चमादिना नावारेणे यद्याचमति । 'आयमंतं वा साइज्जई' नावापरत्रयान् अधिकेन नावापूरेण आचमन्तं शौच कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अपारिहारिए णं पारिहारियं वएज्जा-एहि अज्जो ! तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता, तओं पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामी वा, जो तं एवं वयइ, वयंत वा साइज्जइ ॥सू० १४४॥
छाया - यो भिक्षुः अपारिहारिकः खलु पारिहारिकं वदेत् “पहि आर्य ! त्वं च अहं च ऐकतोऽशनं वा पान वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य ततः पश्चात् प्रत्येक प्रत्येक भोक्ष्यावो पास्यावा वा" यस्तमेवं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४४।। - चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अपारिहारिए ण' अपारिहारिकः खलु, तत्र पारिहारिकः परिहारनामकप्रायश्चित्तरहितो विशुद्धः शुद्धाचारो वा साधुरित्यर्थः, 'पारिहारिय' पारिहारिक-प्राप्तपरिहारनामकप्रायश्चित्तं मासिकादियावत्पाण्मासिकान्तं परिहारनामकप्रायश्चित्ततपो वेहमानं पारिहारिकम् 'वएज्जा' वदेत्-कथयेत्, किं वदेत् ! स्याह-एहि अज्जो' ! इत्यादि । 'एहि अज्जो' एहि आर्य ! हे आर्य एहि अत्रागच्छ 'तुमं चं भई चे' त्वं चाहं च 'एगी' एकतः-एकत्र मिलित्वा 'असणं वा' अशनम् वा 'पाणं वा पानं वा 'खाइम' खार्य वा 'साइमं वा' स्वाद्य वा 'पडिग्गाहेत्ता' परिगृह्य एतेषामशनादीनां मिलित्वैव ग्रहणं कृत्वा 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् ग्रहणादनन्तरम् 'पत्तेयं पत्तेय' प्रत्येक प्रत्येकं-भिन्नमिन्नस्थाने उपविश्य 'भोक्खामो वा पाहामो वा' भोक्यावः आहारं करिष्यावः, पास्यावः-जलादिपानं करिष्यावः, 'जो तं एवं वयह' यो भिक्षुरेवंप्रकारेण तं पारिहारिकं प्रति वदति-कथयति 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। स्०१४४॥
संप्रति उद्देशकोपसंहारमाह-'तं सेवमाणे' इन्यादि । सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ।१४५/
॥ निसीहे चत्यो उद्देसो समत्तो ॥४॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ५ सू० १
सचित्तवृक्षमूले स्थानादिकरणनिषेधः १३५
छाया - तं सेवमान आपद्यते मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥सू० १४५ ॥ || निशीथाध्ययनस्य चतुर्थो देशकः समाप्तः ॥ ४॥
चूर्णी - 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः चतुर्थोदेशकस्य 'रायं अत्ती करे ' इतिप्रथमसूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू अपारिहारि णं' एतत्सूत्रपर्यन्तं यत् यत् प्रायश्चितस्थानं प्रदर्शितम् तेषु एकं किमपि अपराधपदं सेवमानः एकस्यापि स्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'मासिय' मासिकम् 'परिहाराणं उग्घाइयं' परिहारस्थानमुद्घा - तिकम् - लघुमासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ १४५ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्ध वाचक - पञ्चदशभाषाक लितललितकला पालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक श्री शाहू छत्रपति.कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य " - पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु -- बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां चतुर्थोदेशकः समाप्तः ॥ ४॥
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॥पञ्चमोद्देशकः॥ चतुर्थोदेशकं व्याख्याय सम्प्रति पञ्चमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र चतुर्थोद्देशकीयान्तिमन्त्रेण सह पञ्चमोद्देश कादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-परिहारतवढिओ उ, काउस्सग्गं करेज्ज कहिं नो वा।
चोत्थरस पंचमस्स य, संबंधो एस अक्खाओ ॥१॥ छाया-परिहारतपस्थितस्तु, कायोत्सर्ग कुर्यात् कुत्र नो वा ।
चतुर्थस्य पञ्चमस्य च, सम्बन्ध एष आख्यातः ॥१॥ अवचरिः-'परिहारतवद्रिओउ' इत्यादि । परिहारतपःस्थितः पूर्व चतुथों देशकस्यान्तिमसूत्रे यत् परिहारतपः प्रोक्तं तद् वहमानः साधुः कायोत्सर्ग तथा शय्यानिषद्यादिकं वा करोति, तं कायोत्सर्गादिकं साधुः कुत्र स्थित्वा कुर्यात् ! कुत्र वा नो कुर्यात् ? इति तदत्र पञ्चमोदेशके प्रदर्शयिष्यते. इति चतुर्थस्य पञ्चमस्य च उद्देशकस्य एष सम्बन्ध आख्यातः ॥१॥ तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमोदेशकस्येदं प्रथमं सूत्रं प्रस्तूयते- 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा तुयट्टणं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ।।सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्थान वा शय्यां वा नैषेधिकों वा स्वरवर्तनं वा चेतयति चेतयन्तं वा स्वदते ॥सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'सचित्तरुक्खमूलंसि' सचित्तवृक्षमुलेसचित्तवृक्षस्याधः 'ठिच्चा' स्थित्वा-सचित्तवृक्षस्य यदि हस्तिपदप्रमाणः स्कन्धः स्यात् तादृशस्य वृक्षस्य सर्वतः समन्तात् रत्निप्रमाणं यावद् भूमिः सचित्ता भवति, एतदनुसारेण यस्य वृक्षस्य यावपरिमितः स्कन्धः स्यात् तत्तत्प्रमाणेन तदप्रेतना भूमिः सचित्ता भवतीति स्वयमूहनीयम् । अतो वृक्षस्य हस्ति सुण्डामात्रे दूरे एव स्थातव्यमिति नियमानादरणेन तत्रोपविश्य 'ठाणं वा' स्थानं वा तत्र स्थानं नाम कायोत्सर्गः, स्थीयते स्थिरीभूयते यत्र तत् स्थानं कायोत्सर्गः तत् ‘सेज वा' शय्यां वा शरीरप्रमाणां करोति तथा 'निसीहियं वा' नैषेधिकी वा-पापक्रियानिषेधकत्वात् नैषेधिकी स्वाध्यायभूमिः स्वाध्यायस्थानं, तां वा 'चेएई' चेतयति करोति, तथा यदि कोपि साधुः स्वयं सचित्तवृक्षमूले कायोत्सर्ग करोति शय्यां वा करोति नैषेधिकी स्वाध्यायभूमि निर्धारयतीत्यर्थः । तथा 'चेएतं वा साइज्जइ' चेतयन्तं कुर्वन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले कायोत्सर्गादिकं करोति तमनुमोदते वा यः साधुः स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका अपि दोषा भवन्ति तस्मात्तथा न कर्तव्यमिति ॥ सू०१॥
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पूर्णिमाथाषचूरिः उ० ५ सू० २-६ सचित्तवृक्षमूलेस्थित्वाऽऽलोकनादिसर्वनिषेधः ११०
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलो. एज्ज वा आलोएंतं वा पलोएत वा साइज्जइ ॥ सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा आलोकयेद्वा प्रलोकयेडा आलोकयन्तं वा प्रलोकयन्तं वा स्वदते ॥९० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचित्तरुक्खमूलंसि' सचित्तवृक्षमूले, प्रकृतसूत्रं सचित्तवृक्षमूलगतसचित्तभूमिपरकम् , तत्र स्थित्वा यो भिक्षुः 'आलोएज्ज वा' आलोकयेत्-ऊर्वाधस्तियक्षु दिक्षु विदिक्षु काञ्चिदेकां दिशमाश्रित्य पश्येत् एफवारं वा पश्येत् 'पलोएज्ज वा' प्रलोकयेत्-सर्वासु दिक्षु विदिक्षु ऊर्ध्वमधो वारं वारं वा पश्येत् तथा 'आलोएतं वा पलोएतं वा साइज्जई' आलोकयन्तं वा प्रलोकयन्तं का स्वदते । यो हि साधुः सचित्तवृक्षम्ले स्थित्वा एकवारमनेकवारं वा आलोकयति तस्यानुमोदनां वा करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति । वृक्षमूलं द्विविधं सपरिग्रहं वा अपरिग्रहं वा, सपरिग्रहं तु चतुर्विधम्दिव्यमनुजतियमिश्रपरिगृहीतभेदात् । तत्र दिव्यपरिगृहीतं देवाधिष्ठितम् १, एवं मनुष्यपरिगृहीतं मनुष्याधिष्ठितम् २, तिर्यपरिगृहीतं तियंगधिष्ठितं यत्र गोमहिष्यादयो बद्धा भवेयुस्तल् ३, मिश्रपरिगृहीतं त्रिभिरप्यधिष्ठितम् ४, तत्र देवपरिगृहीतवृक्षमूले स्थित्वा पश्यति तदा साधोः क्षिप्तचित्तयक्षाविष्टोन्मादप्राप्तत्वादयो दोषाः संभवेयुः १, मनुष्यपरिगृहीतवृक्षाधः स्थित्वाऽबलोकने तदधिष्ठातुः शङ्का स्यात्-"किमर्थमयमेवं पश्यति ! किं वृक्षस्य छेदादिकं करिष्यति !" इत्यादि २, तिर्यकपरिगृहीते तेषामाहारादावन्तरायः स्यात्, साधुदर्शनात् पशवः उद्विग्ना भूत्वा बन्धनं त्रोटयित्वा नश्यन्तीत्यादि ३, मिश्रपरिगृहीते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि दोषाः समापतेयुः ४ । एतद्वचतिरिक्तमपरिगृहीतम्, तत्राऽपि अनेके दोषा भवन्तीति स्वयमूहनीयम् । अतः साधुर्वृक्षमूले स्थित्वा आलोकनप्रलोकनादिकं न कुर्यात् ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् - सचित्तरुक्खमूलंसि, ठिच्चा ठाणाइयं करे।
पावइ भिक्खुओ सज्जो, आगामंगाइयं तया ॥ छाया-सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्थानादिकं कुर्यात् ।
प्राप्नोति भिक्षुकः सद्य आशाभङ्गादिकं तदा ।। अवचूरिः- 'सचित्तरुक्खमूलंसि' इत्यादि । सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा यो भिक्षुः स्थानादिकं कायोत्सर्गशय्यादिकम् कुर्यात् , यदि सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा यः कायोत्सर्गादिकं करोति
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निशीथस्चे स भिक्षुराज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति । तथा सचित्तवृक्षमूले स्थितस्य भिक्षोर्हस्तपादादिना वृक्षस्य संघट्टनं भवेत् तदा तस्य सस्थावरजीवादिविराधनं भवति तेन संयमविराधना, तथा छाया तत्पत्रादिभक्षणार्थ शरीरसंघर्षणार्थ वा समागततिर्यगादिभ्य उपघातोपि भवति तेनात्मविराधना भवति तस्मात् सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा साधुना कायोत्सर्गादिकं न कर्तव्यमिति ।।सू०२॥
सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥ सू०३॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । एवं सचित्तवृक्षमूले स्थित्वाऽशनादेराहारोऽपि न कर्त्तव्य इति ॥सू०३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा उच्चारपासवणं परिहुवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठा. पयन्तं वा स्वदते ॥सू० ४॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू, इत्यादि । एवं सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा उच्चारप्रस्रवणादिपरिष्ठापनमपि न कर्त्तव्यम् ।सू०४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं करेइ करें वा साइज्जइ ॥ सू ५ ॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं करोति कुर्वन्त वा स्वदते। चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । अस्मिन् सूत्रे स्वाध्यायनिषेधः प्रतिपादितः ॥सू०५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं उदिसइ उद्दिसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायमुद्दिशति उद्दिशन्तं वा स्वदते ॥ सू ॥ __चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । अस्मिन् सूत्रे सचित्तवृक्षमूले सूत्रार्थतदुभयरूपस्वाध्यायस्य पाठनं निषिद्धम् ॥सू० ६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं समुदिसइ समुदिसंत वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०५ सू०७-१३ अन्यतीथिकादिभ्यः संघाटिकासीवनादिनिषेधः १३९
छाया यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं समुद्दिशति समुद्दिशन्तं वा स्वदते ॥सू० ७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । अत्र पूर्वोक्तस्वाध्यायस्य वारं वारं पाठनं, परेभ्यः समुपदेशश्चेति द्वयमपि निषिद्धम् ॥सू० ७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं अणुजाणइ अनुजाणंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८॥
___ छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायमनुजानाति अनुजानन्तं था स्वदते ॥ २० ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । स्वाध्यायादिकरणार्थमाज्ञाप्रदानमनुज्ञानम् , अन्यत् सर्व पूर्ववदेवेति ॥सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं वाचयति पाचयन्तं पा स्वदते ॥सू. ९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । तत्र वाचयति वाचनां ददाति तथा वाचनां ददत स्वदतेऽनुमोदते, अन्यत्सर्वं पूर्ववदेव ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० १० ॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमुले स्थित्वा स्वाध्याय प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू.१०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्याय प्रतीच्छति आचार्येभ्यः प्रदत्ता वाचनां गृह्णाति, तथा वाचनां गृहन्तं स्वदतेऽनुमोदते ॥सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं परियट्टइ परियदृतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥ ____ छाया-यो भिक्षुः सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्यायं परिवर्तयति परिवर्तयन्त वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा स्वाध्याय परिवर्तयति पूर्वाधीतस्याऽऽवर्तनं करोति, तथा परिवर्तयन्तं वा स्वदत्तेऽनुमोदते ॥ सू० ११॥
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૪૦
निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खु अप्पणो संघाडियं अण्णउत्थिएण वा गारस्थि
एण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ वा सिव्वावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
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छाया - यो भिक्षुरात्मनः संघाटिकाम् अन्ययूथिकेन वा गार्हस्थिकेन वा सागारिकेण वा सीवर्यात सीवयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अप्पणो संघाडियं आत्मनः स्वस्य संघाटिकां प्रावरणवस्त्रं 'चादर' 'पछेवडी' इति भाषाप्रसिद्धाम् 'अण्णउत्थि एण वा' अन्ययुथिकेन वा परतीर्थिकेन 'गारत्थिएण वा' गार्हस्थिकेन वा येन केनचित् पूर्वसंस्तुतादिना तदन्येन वा गृहस्थेन 'सागारिएण वा' सागारिकेण वा तत्र सागारिकः श्रावक इत्यर्थः तेन 'सिव्वावेइ' सीवयति - परद्वारा स्वकीयप्रावरणवस्त्रस्य संधानं कारयतीत्यर्थः तथा 'सिच्वावेंतं वा साइज्जइ' सीवयन्तं वा स्वदते ।
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् -- परतित्थि गिहत्थे हिं संघाडीए य सीवणं ।
कारे समणो जो उ, आणाभंगाइ पावइ ||
छाया - परतीर्थिगृहस्थैः, संघाटयाश्च सीवनम् । कारयति श्रमणो यस्तु, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरि : -- 'परतित्थि० ' इत्यादि । यस्तु श्रमणः साधुः परतीर्थिकगृहस्थैः, उपलक्षणात् श्रमणीभिर्वा संघाटचा : - 'चादर' 'पछेवडी' इति भाषाप्रसिद्धायाः सीवनम्, उपलक्षणत्वात् आहाराद्यानयनवैयावृत्यादिकं वा क्वापि कस्मिन्नपि काले कारणेऽकारणे वा कारयेत् तदा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति । यस्मिन् संप्रदाये गच्छे वा संयतीभिः उपर्युक्तं कार्यं कारयति स गच्छ लोकानां पुरतो नपुंसक इव शास्त्रविदां परिषदि सर्वथैव अनादृतो भवतीति भावः || सू०१२ ॥ सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पणा संघाडीए दीहसुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ || सू० १३ ||
छाया - यो भिक्षुरात्मनः संघाटया दीर्घसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०१३ || चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अपणो' आत्मनः स्वस्य ‘संघाडीए' संघाट्याः प्रावरणवस्त्रस्य 'चादर' 'पछेवडी' इति लोकप्रसिद्धायाः 'दीहसुत्ताई करे ' दीर्घसूत्राणि प्रावरणवस्त्रान्तभागस्थितानि दशिकारूपाणि लघुसूत्राणि तानि दीर्घसूत्राणि कार्पासिकसूत्रेषु ऊर्णासूत्राणां ऊर्णासूत्रेषु क्षौभिकादिसूत्राणां बन्धनं दत्त्वा दीर्घाणि चतुरङ्गुलादधिकामि विस्तृतानि सूत्राणि शोभा करोति - संपादयति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्वित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ॥सू० १३ ॥
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पूणिभाष्यावरिः उ०५ सू०१४-१६ प्रातिहारिकपादप्रोञ्छनस्योक्तकाले प्रत्यर्पणनि० १४१
सूत्रम्-जे भिक्खू पिउमंदपलासयं वा पडोलपलासयं वा बिल्लपलासयं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा संफाणिय संफाणिय आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
छाया-यो भिक्षुः पिचुमन्दपलासकं वा पटोलपलासकं वा बिल्वपलासकं वा शीतोदकविकटेम वा उष्णोदकविकटेन वा संफाणिय संफाणिय आहरति आहरन्त वा स्वदते ।। खू० १४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पिउमंदपलासयं वा' पिचुमन्दपलाशकं वा, तत्र पिचुमन्दः निम्बवृक्षः, तस्य पलाशकं पत्रं वा 'पडोलपलासथं वा' पटोलपलाशकं वा, तत्र पटोलो लताविशेषः 'परवल' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य पलाशकं पत्रम् , तदा बिल्लपलासयं वा' बिल्वपलाशकं वा, तत्र बिल्वो बिल्ववृक्ष 'बिल्ली' 'बेल' इति प्रसिद्धः, तस्य पलाशकं पत्रम् । एतेषां पत्राणां भक्षणस्य दर्शनान्तरीयसाधौ प्रसिद्धत्वेनात्र तस्य प्रतिषेधो वर्णितः, कित्वत्र पत्रमात्राणां सर्वेषां पत्राणां प्रहणं बोध्यम् , तेषां सजीवत्वेन जीवविराधनात् , तादृशानि सचित्तानि पत्राणि 'सीओदगवियडेण' शीतोदकविकटेन बा, तत्र विकटेन व्यपगतजीवेन अचित्तशीतजलेन तण्डुलधावनादिज नेत्यर्थः, अथवा 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा व्यपगतजीवेनोष्णोदकेन अचित्तोष्णोदकेनेत्यर्थः, 'संफाणिय संफाणिय' तत्र 'संफाणिय' इति देशी शब्दस्तेन 'संफाणिय' इति फेनयुक्तानि कृत्वा कृत्वा, तथा च अचित्ताभ्यां शीतोष्णजलाभ्यां सम्यक् तादृशपत्राणि संमई संमद्येत्यर्थः 'आहारेइ' आहरति तेषां भक्षणं करोति, तथा 'आहारतं वा साइज्जइ' आहरन्तं वा स्वदते । निम्बादिवृक्षपत्राणामचित्तजलेन प्रक्षालने कृत्वा आहारं कुर्वन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० १४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति सुए पञ्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥सू० १५॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पादपोंछनकं याचित्वा 'तस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयिध्यामी'-ति श्वः प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते । सू० १५।।
चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘पाडिहारियं पायपुंछणं' प्रातिहारिकं पादप्रोछनकम् , तत्र श्रावकादिभ्य आनीतं प्रत्यर्पणयोग्य वस्तु प्रातिहारिकमिति कथ्यते, तथा पादपोछनकं रजोहरणम् 'जाइत्ता' याचित्वा 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति वस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयिष्यामीति, सूत्रे 'तमेव रयणि' इत्यत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया प्रांकृतत्वात् ,
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निशीथसूत्रे श्रावकादिभ्यो गत्वा कथितम्- मह्य रजोहरणं देहि अहं पुनः कार्य संपाद्य तस्यामेव रजन्यां रात्रौ प्रत्यर्पयिष्यामि रात्रेः प्रागेवेत्यर्थः, रात्रौ आदानप्रदानस्य निषिद्धत्वात् रजनीतिपदं दिवसावसानबोधकम् , इत्येवं प्रकारेण याचनां कृत्वा रजोहरणमानीतवान् किन्तु 'मुए पच्चप्पिणई' श्वः प्रत्यर्पयति श्वः परदिने प्रातःकाले रात्रिव्यपगमानन्तरं प्रत्यर्पयति रजोहरणम्, तथा 'पच्चप्पिणंतं वा साइज्जई' प्रत्यपेयन्तं वा स्वदते । यो हि रजोहरणादिकं तदिवसमात्रस्य कृते याचित्वा आनीतवान् । यद्यपि प्रातिहारिक रजोहरणमाहारवस्त्रपात्रादि कम्बलं च न कल्पते साधूनामिति रजोहरणस्य प्रातिहारिकत्वेन याचनं न संगच्छते तथापि अकस्मात् चौरादिना अपहृतम् , अग्निना दग्धं, कुत्रापि विस्मृतं चेद् रजोहरणं भवेत् तदा तात्कालिककार्यकरणाय तद्याचनस्य संभवः किन्तु प्रत्यर्पयति द्वितीयदिने प्रातःकाले । एतादृशं श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति मृषावादादिदोषसंभवात् , तथा एतादृशस्याज्ञाभङ्गादयोऽपि दोषा भवन्तीति ॥सू० १५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पञ्चप्पिणतं वा साइज्जइ । सू०१६।
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं पादपोंछनकं यायित्वा 'श्वः प्रत्यर्पयिष्यामी'-ति तस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥सू०१६।।।
चूर्णी-'जे भिक्खू पाडिहारियं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पाडिहारियं' प्रातिहारिकं पुनः प्रत्यर्पणयोग्यम् 'पायपुंछणं' पादपोंछनकं 'जाइत्ता' याचित्वा श्रावकेभ्यो पादपोंछनस्य याचनां कृत्वाऽऽनीतं 'मुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति श्वः प्रातःकाले प्रत्यर्पयिष्यामि, अर्थात् कश्चित् साधुः श्रावकगृहं गत्वा कथयति-भोः! मह्यमेकं पादपोंछनक देहि कार्य कृत्वा प्रातः पुनः प्रत्यर्पयिष्यामि' इति कथयित्वा श्रावकेभ्यो पादपोछनकं गृहाति किन्तु 'तमेव रयणि पच्चप्पिणइ' तस्यामेव रजन्यां-रजनीमुखे दिवसावसाने प्रत्यर्पयति, यदिवसे एव याचनां कृत्वा द्वितीयदिवसे दातुं कथयित्वा आनीतवान् तत् तस्यामेव रात्रौ रात्रेः पूर्वमेव पुनः प्रत्यर्पयति, तथा 'पञ्चप्पिणतं वा साइज्जइ' प्रत्यर्पयन्तं वा वा स्वदते, प्रातःकाले प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा प्रातिहारिक रजोहरणं याचित्वा आनीतवान् परन्तु तदात्रेः प्रागेव प्रत्यर्पणं करोति, तादृशं श्रमणं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, एवं करणे साधोर्वचने मृषावाददोषापत्तिः स्यात् ।
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ । सू० १७॥
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चूर्णिभाज्यावद्रि उ.५५.१७-२३ प्रातिहारिकसागारिकसत्कदण्डादेरुक्तकाले प्रत्यर्पणनि० १४३
छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं पादोंछनकं याचित्वा 'तस्यामेव रजन्यां प्रत्यपैयिष्यामी-'ति श्वः प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं पा स्वदते ॥सू०१७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सागारिय०' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षु. श्रमण श्रमणी वा 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम्-सागारिको गृहस्थः तत्सत्कं तत्सम्बन्धि 'पायपुंछणं जाइत्ता' पादपोंछनकं याचित्वा । शेषं पञ्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥सू० १७॥
सूत्रम्-जे: भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥
____ छाया-यो भिक्षुः सागारिकसत्कं पादनोंछननं याचित्वा श्वः प्रत्यर्पयिष्यामी-ति' सस्यामेव रजन्यां प्रत्यर्पयति प्रत्यर्पयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सागारिय' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सागारियसंतियं' सागारिकसत्कम् गृहस्थस्वामिकं यद् उपाश्रये स्थितं तत् 'पायपुंछणं जाइत्ता' पादप्रोछनकं याचित्वा, शेषं षोडशसूत्रवद् व्याख्येयम् ।।सू० १८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूई वा जाइत्ता एवं एएहिं दोहिं वि चेव पाडिहारिय-सागारियगमएहिं दो दो आलावगा णेयव्वा ॥ सू० १९ ॥२०॥२१॥२२॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिक दण्डक वा यष्टिकांचा अवलेहनिकां वा वेणुसूची वा याचित्वा, एवम् एताभ्यां द्वाभ्यामप्येव प्रातिहारिक-सागरिकगमकाभ्यां द्वौं द्वौ आलापकौ ज्ञातव्यौ । सू० १९ ।२०।२१।२२ ॥
चू-'जे भिक्खू पाडिहारिय०' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पाडिहारिय' प्रातिहारिकम् पुनः प्रत्यर्पणयोग्यम् ‘दंडयं वा' दण्डकं वा, तत्र दण्डः पूर्वोक्तस्वरूपस्तम् 'लट्ठियं वा' यष्टिकां लघुदण्डरूपां वा रुग्णाद्यवस्थायां ग्रहणयोग्याम् 'अवलेहणियं वा' अवलेहनिकां वा, तत्र चरणादिसंलग्नकर्दमादिकं यया अपनीयते सा वेत्रप्रभृतिनिर्मिता क्षुरिकादिसदृशवस्तुविशेषरूपा, ताम् अवलेहनिकाम्, तथा 'वेणुवईवा' वेणुसूची वा वंशनिर्मिता सूचीम् ‘जाइत्ता' याचित्वा श्रावकात् तद्याचनां कृत्वा 'एवं एएहि' इत्यादि-एवम् अनेनैवाऽऽलापकप्रकारेण एताभ्यां पूर्वप्रदर्शिताभ्यामपि द्वाभ्यामेव, कीदृशाभ्यामित्याह-'पडिहारिय०' इत्यादि-"प्रातिहारिक-सागारिकसत्करूपाभ्यां गमकाभ्यां प्रत्येकस्य द्वौ द्वौ आलापको कर्त्तव्यौ, तथाहि-प्रातिहारिकस्य दण्डकादिकस्य तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयिष्यामोति कथयित्वा श्वः प्रातःकाले प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम्
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निशीष ॥१९॥ ततः प्रातिहारिकस्य दण्डकादिकस्य प्रातःकाले प्रत्यर्पणार्थ कथयित्वा दिवसावसाने एव प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम् ॥२०॥ एवम्-सागारिकसत्कस्य दण्डकादिकस्य तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा प्रातः प्रत्यर्पयतीति तद्विषयं सूत्रम् ॥२१॥ एवं सागारिकसत्कस्य दण्डकादेः प्रातः प्रत्यर्पयिष्यामीति कथयित्वा तस्मिन्नेव दिवसावसाने प्रत्यर्पयतीति तद्विषयकं सूत्रम् ॥२२॥ एतत्सूत्रचतुष्टयमपि साधोर्वचने मृषावाददोषवत्वेन निषेधविषयकमस्ति । शेषं पञ्चदशसूत्रवद् व्याख्येयम् ।।सू०२२॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पाडिहारिवसागारि,-संतिए जे गमा भवे ।
पायपुंछणगे दंडाइए चेत्थ तहेच य ॥ छाया-प्रातिहारिकसागारि,-सरके ये गमा भवेयुः ।
पादप्रोञ्छनके दण्डादिके चात्र तथैव च ॥ अवचूरिः-'पाडिहारिय' इत्यादि । प्रातिहारिके प्रातिहारिकपादप्रोञ्छनकविषयकपञ्चदशषोडशसूत्रयोयों गमद्वयप्रकारः कथितः स एव हि गमद्वयप्रकारः सागारिकपादप्रोञ्छनविषयकसप्तदशाष्टादशसूत्रयोरपि ज्ञातव्यः । तथा पादपोंछनकविषयके पञ्चदशादिसूत्रचतुष्टये यद्वत् येन प्रकारेण रजोहरणस्य प्रतिपादितो द्वितीयोदेशेकप्रकारेण स एव प्रकारः प्रातिहारिकसागारिकसत्कदण्डादिष्वपि सूत्रचतुष्टयी प्रयोकव्या । एतत्सर्व द्वितीयोद्देशके प्रथमसूत्रादारभ्याष्टमसूत्रपर्यन्तं यथा वर्णितम् तथैवात्रापि पञ्चमोदेशके वर्णयितव्यम् । श्रावकात् याचित्वा आनीतस्य पादप्रोञ्छनकस्य दण्डादेर्वा यथासमयमप्रदाने प्रायश्चित्तं भवति, तथा आज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ।सू०२२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पाडिहारियं वा सेज्जासंथारंगं पच्चप्पिणित्ता दोच्चंपि अणणुनविय अहिट्ठेइ अहिटूटेतं वा साइज्जइ ॥सू० २३॥
छाया-यो भिक्षुः प्रातिहारिकं वा शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयित्वा द्वितीयमपि अननुज्ञाप्याधितिष्ठति अधितिष्ठतं वा स्वदते ॥सू० २३।
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पाडिहारियं वा' प्रातिहारिकं वा 'सेज्जासंथारग' शय्यासंस्तारकं श्रावकादानीतं श्रवकाय 'पञ्चप्पिमित्ता' प्रत्यर्पयित्वा प्रत्यर्पणार्थं तु गतवान् किन्तु तत्स्वामिनोऽमुपस्थित्यादिकारणवशात् अनर्प यित्वा तदादायैव समागतः, तत् शय्यासंस्तारकं तत्रैव तिष्ठति, तादृशं शय्यासंस्तारकं पुनः 'दोच्चं पि अणणुन्नविय' द्वितीयं-द्वितीयमपि वारम् अननुज्ञाप्य तस्याज्ञामगृहीत्वैव यदि कारणवशात् 'अहिढेइ' अधितिष्ठति तदुपरि समुपविशति तस्याननुज्ञापितस्य शय्यासंस्तारकस्योपभोगं
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गणमान्याषचूरिः उ. ५ सू० २४-२५
दीर्घसूत्रकरणनिषेधः 0 करोति, तथा 'अहितं यो साइजइ अधितिष्ठन्त वा त्वदते । यो हि आनीतं शय्यासस्तारक श्रावकायार्पयित्वा पुनरपि आज्ञामन्तरेणे तस्योपोगं करोति उपभोक्तारमनुमोदते च स प्रायश्चित्तः भागी भवति । प्रातिहारिकाऽप्रातिहारिकशय्यासंस्तारकमयितुं गतः किन्तु कारणवशाद न समपितवान् तच्च शय्यासंस्तारक तथैवावतिष्ठते तादृशं शय्यासंस्तारकं द्वितीयवारमननुज्ञाप्यं तदाज्ञामनवाप्य तस्योपभोगं करोति स प्रायश्चितभागी भवती, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । मन: नुज्ञातस्य शय्यादेरन जोप्य पुनरुपभोगे मायित्वं मृषावदित्वं च स्यात् , तथा अदत्तादानम् अप्रत्ययः कलहः उपालम्भश्च स्यात् , यस्मादेते दोषास्तस्मात् , कारणात् समर्पितं शय्यासस्तारक द्वितीयकारमनं ज्ञाप्य न भोक्तव्यमिति सू० २३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंग पच्चप्पिणित्ती दोच्चंपि अणंणुन्नविय अहिठेइ अहिद्वैत वा साइज्जइ ॥ सू० २४॥
छाया--यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयित्वा द्वितीयमध्यननुशा प्याधितिष्ठति कधितिष्ठंन्तं षा स्वदते ।। सू० २४॥
चूर्णी-जे भिक्खू सागारिय' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमण: श्रंमणी वा 'सागारियसंतियं सेज्जासंथारगं' सागारिकसत्कं श्रावेकसम्बन्धि यदुपाश्रयस्थितं तत् पुनः शय्यासंस्तारकं पीठफलंकादिकं 'पच्चंप्पिणित्ता' प्रत्यये तदुपभोगाज्ञां समय तत् पुनः 'दोच्चंपि अणणुन्नषिय' द्वितीयमपि वारम् अननुज्ञाप्य श्रावकस्याज्ञामनादाय 'अहिंठेइ' अधितिष्ठति तादृशशय्यासंस्तारकस्योपभोगं करोति, तथा 'अहिठेतं वा साइज्जई' अधितिष्ठन्तमुपभोगं कुर्वन्तं वा श्रपणं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात् कारणात् तस्य तादृशस्य सागारिकसत्कशय्यासंस्तारकस्य द्वितीयवारम् अननुज्ञाप्य नोपभोगः करणीयः, न वा तदुपभोक्तुरनुमोदन करणीयमिति । सू० २४॥
सूत्रम्-जे मिक्खू सणकप्पासाओवां उण्णकंप्पासाओ वा पोंडकप्पासाओ वा अमिलकप्पासाऔं वा दीहसुत्ताई करेइ करेंत वा साईज्जई। - - छाया-यो मिशणकपिसितो था ऊर्णाकासितो वा बौण्डकासितो वा अमिलकार्यासतो वा दीर्घसूत्राणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २५॥
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१५६
निशीमस चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सणकप्पासाओ वा' शणकार्पासात् शणसूत्रात् 'शगं' लोकप्रसिद्धम् 'उण्णकप्पासामो वा' ऊर्णाकार्पासादा- अजोष्ट्रादीनाम्-ऊर्णासूत्रेणेत्यर्थः, पोडकप्पासाओ वा' पोंडूकार्पासास-बनजातकापासेनेत्यर्थः, 'अमिलकप्पासाओ वा' अमिलकार्पासाद्वा कार्यासविशेषात् , कर्तितशणादिसूत्रेणेत्यर्थः दीड. मुत्ताई करेइ' दीर्घसूत्राणि करोति शणादिसूत्रेण दीर्घसूत्राणि वस्त्रान्तभागस्थितसूत्राणि दीर्घाणि संपादयतीत्यर्थः तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । एवं शणादिना सूत्राणि संपादयतः श्रमणस्य सूत्रार्थयोर्हानिभवति । यस्मात् दीर्घसूत्रनिर्माणे एव समयस्य व्यतीयमानत्वात् स्वाध्यायार्थ समय एव न मिलति, इत्येवं क्रमेण सूत्रार्थयोविस्मरणं जायते । एवं यदि कश्चित् श्रावकादि दीर्घसूत्रं कुर्वतं साधु पश्यति तदा 'दीर्घसूत्रनिर्माण गृहिणां कर्म' इति कृत्वा तस्य श्रमणस्य शासनस्य च लघुता भवति । एवं तेषु दीर्घस्त्रेषु शुषिरभागे मशकादिजीवानां विनाशोपि जायते इति संयमविराधनमपि भवति । यस्मात् कारणात् दीर्घसूत्रनिर्माणे एते उपर्युक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः स्वयं दीर्घसूत्रनिर्माण न कुर्यात् न वा दीर्घसूत्राणि कुर्वन्तमनुमोदयेदिति । दीर्घसूत्रार्थ यन्त्रादिचालनमावश्यक ततश्च यन्त्रचालनेन वायुकायिका जीवा विनश्यन्ति ततश्च संयमविराधनम् , संयतास्तु वायुविराधनापेक्षया स्वात्मविराधनमेव वरमिति मन्यन्ते, वायुकायिकविराधने षटकायानामपि विराधनं संभवति तेन संयमविनाशः, संयमविनाशे च सर्वेषां महाव्रतानां विराधनमप्यापधेत, उक्तं च आचारागसूत्रेप्रथमाध्ययने सप्तमोदेशके प्रथमसूत्रे-'इह संतिगया दविया णावखंति जीविउं' इति । इह शान्तिगताः शान्तिमग्नाः द्रविकाः द्रवः-संयमस्तद्वन्तः कर्मनिवारणशीलाः संयमिनः जीवितुम् व्यजनादिना वायुकायिकस्य विराधनेनप्राणान् धारयितुं नावकाङ्क्षन्ति नेच्छन्ति-इत्यर्थः । यस्तु एकजीवविराधनं करोति स षण्णामपि विराधनं करोति । उक्तं चाचारागसूत्रे द्वितीयाध्ययने षष्ठोदेशके द्वितीयसूत्रे-'सिया तत्थ एगयरे विपरामुसइ छेसु अन्नयरंमि कप्पई' स्यात्तत्रैकतरं विपरामशति षट्स अन्यतरस्मिन् कल्पते, इति छाया । अयं भावः-एककायविराधनायां सत्यां षट्काय विराधना भवति, विस्तरतस्तु तत्रैव विलोकनीयम् । एवं ध्वनिवर्धकयंत्रे (लाउडस्पीकर) इति संप्रतिकालप्रसिद्ध व्याख्यानादिकरणे षट्कायविरा धनं भवतीति, तत्र वायुकायविराधनात् । एवं दीर्घसूत्रनिर्माण वायुकायिकविराधनासंभवात् सूत्रे दीर्घसूत्रकरणस्य निषेधः कृत इति, तस्मात् वायुकायरक्षणार्थ यतना कर्तव्या, अकरणे प्रायश्चित्तप्रसंगात् ॥ सू० २५ ॥
. सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २६॥
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चूर्णि० उ०५ सू०२८-३५ सचित्तादिदारुदण्डकादेर्नवनिवेशितमामादौभिक्षायाश्चनि० १४७.
छाया-'यो भिक्षुः सचित्तान् दारुदंडान् वा वेणुदंडान् वा वेत्रदंडान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू सचित्ताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचिताई सचित्तान्-सजीवान् 'दारुदंडाणि वा' दारुदण्डान् वा शिंशपादिवृक्षसंपादितदण्डान् इत्यर्थः 'वेणदंडाणि वा' वेणुदण्डान् वा, तत्र वेणुवंशस्तत्सम्बन्धिनो दण्डान् ‘वेत्तदंडाणि वा' वेत्रदण्डान् वा. तत्र वेत्रम् लताविशेषलक्षणं 'वेत' 'नेतर' इति लोकप्रसिद्धम् , तस्य वेत्रस्य सचित्तदण्डान् वेत्यर्थः 'करेइ' करोति सचित्तदारुदण्डादीन् स्वसंपादयतीत्यर्थः तथा 'करतं वा साइज्जई' सचित्तदारुदण्डान् कुर्वन्तं संपादयन्तमन्यमनुमोदते । यो हि भिक्षुः श्रमणः सचित्तदारुवंशादिदण्डं स्वयं करोति कुर्वन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थादयो दोषा भवन्तीति ॥ सू० २६॥ एवं 'धरेई' धरति-हस्ते धारयति ।।सू० २७॥ 'परिभुजई' परिभुः अन्यस्मिन् कार्ये परिभोगं करोति, शेषं पूर्ववत् ॥२० २८॥
मुत्रम्-जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९ ॥
. छाया-यो भिक्ष: चित्रान् दारुदण्डान् वा घेणुदण्डान् वा वेत्रदण्डान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू चिताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'चिचाई' चित्रान् वर्णयुक्तान् 'दारुदंडाणि वा' दारुदण्डान् , तत्र चित्रः एकवर्णेन नोलपीतादिना वा एकेन वर्णेन अतिशयेनोज्ज्वलः, तथा च एकवर्णेन येन केनापि अतिशयेन दारुदण्डान् उज्ज्वलान् 'करोति' इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, तथा 'वेणुदंडाणि वा' वेणुदण्डान् वा तत्र वेणुवंशः, तस्य दण्डान् , तान् वर्णेनोउज्वलान् करोति, तथा 'वेत्तदण्डाणि वा' बेत्रदण्डान् वा एकवर्णेनातिशयेनोज्ज्वलान् 'करेई'. करोति स्वयं संपादयति, तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा संपादयन्तमन्यं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुचित्रं दारुदण्डं वेणुदण्डं वेत्रदण्डं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्छितभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।मु०२९॥ एवं 'घरेइ' सू० ३०॥ 'परिभंजई' सू०३१॥ व्याख्यानं पूर्ववत् ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्त. दंडाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३२ ॥
छाया-यो भिक्षुः विचित्रान् दारुदण्डान् वा वेणुदण्डान् वा वेत्रदण्डान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ३२॥
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भद्र
निशीथसूत्रे
1
चूर्णी - 'जे भिक्खू विचित्ताई' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः विचित्ताई विचित्रान् नानावर्णोपेतान् 'दारुदंडाणि' दारुदण्डान् 'वेणुदंडाणि वा' वंशदण्डान् 'वेचदं-.. डापि का' वेत्रदण्डान् वा 'करेड़' करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यः श्रमणः नानावर्णोपेतान् दारुदण्डादिकान् स्वयं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।। सू० ३२ ॥ एवं 'धरेइ' ||सू० ३३| 'परि-'झुंज' व्याख्यानं पूर्ववत् ॥सू० ३४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू नवणिवेसंसि गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाई पडि. ग्गा साइज्जइ ॥ सू० ३५ ॥
छाया -यो भिक्षुर्नव निवेशे ग्रामे वा यावत् संनिवेशे वा अनुप्रविश्याशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृद्धतं वा स्वते | सु० ३५॥
'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'नवणिवेसंसि वा' नवनिवेशे वा नवतया निवेशः स्थापनं यस्य से नवनिवेश: - तस्मिन् प्रथमतया निवासिते, ब्राहशे 'सामंसि वा' ग्रामे वा 'जाव संनिवेति वा' यावत् संनिवेशे वा अत्रयावत्-पदेन नगरखेटकर्बटादीनां संग्रहो भवति, एतेषु नवनिवेशितेषु प्रामादिषु 'अनुष्पविसित्ता' अनुप्रविश्य प्रवेशं कृत्वा, यो हि भिक्षुर्नवनिर्मितग्रामादिषु मध्ये प्रवेशं कृत्वेत्यर्थः 'असणं वा ' अनमाहारादिजातं वा 'पाणं वा पानं तण्डुलधावनादिकमचित्तजलम् : 'खाइमं वा' खायं - द्राक्षाखण्डादिकभू 'साइमं बा' स्वाद्यं लवङ्गादिकम् 'पडिग्गा हेइ' प्रतिगृह्णाति - ग्रहणं करोति 'पडि - ग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणो नवनिर्मितग्रामादावनुप्रविश्याहा - देर्ग्रहणां करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणो नवनिर्मितप्रामादिषु प्रविश्य न चतुर्विधाहारादिकं गृह्णीयात् न बा. गृह्णन्तमनु मोदयेदिति ।
अर्थं भावः - नवनिर्मितप्रामादौ प्रविशन्तं श्रमणं दृष्ट्वा भद्रका अनिवस्तिकामा अपि एवं विचारयन्ति - अहो भाग्यवशात् साधुः समागतो महन्मङ्गलं जातम्, स्थिरीभूतं च । एवं जानन्ति कृष्ठिं च- अहो साधुदर्शनं धन्यम्, साधुमात्र प्रथममेव मिक्षाग्रहणं कृतम्, तेन कारणेन ग्रामोपि स्थिरो भविष्यति, वयमपि चात्र सुस्थिराः सन्तो वसिष्यामः इति कृत्वा ते तत्रागत्य निवसन्ति तेनारम्भप्रवृत्तिः । ततस्ते भद्रकाः तेषां साधूनामन्येषां वा निमित्तमुद्रमादिदोषदुष्टमाहारादिकं कुर्युः । यश्च अभद्रकः स पुनर्नवनिर्मितग्रामादौ आवासं कर्तुकामेोपि प्रथमतः साधुं दृष्ट्वा
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विभाध्यायचूरिः उ०५ सू०३६-६० नवलोहादिखन्यामिक्षायाः मुखवीणिकादेश्च निषेधः १४९ अमङ्गलमिति कृत्वा न वासं करोति ततो निवर्तते । अस्थिरे च ग्रामे जाते लोका वदन्ति-कुतोस्माकं सुखम् यस्मात् प्रथममेव तु मुण्डशिरसो दृष्टाः भिक्षया लम्भिताश्च, इति तस्यान्येषां च श्रमणानां भक्कादीन् निवारयिष्यन्ति, एवं चान्तरायदोषो भवति । एवं च नवनिर्मितग्रामादौ प्रवेशे दोषा भवन्ति । एवं नवनिर्मितग्रामादौ प्रवेशे कृते सचित्तपृथिव्यादिसंघटनादोषः, अप्कायहरितकायादिसंघट्टनदोषोपि भवेत् तस्मात् कारणात् नवनिर्मितग्रामादौ प्रवेशो न कर्तव्यो न वा प्रविशन्तमनुमोदयेदिति ॥सू० ३५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नवणिवेसंसि अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउ. आगरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुवण्णागरंसि वा रयणा. गरंसि वा वइरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३६॥
छाया-यो भिक्षुर्नवनिवेशे वा अय आकरे वा ताम्राकरे वा अप्वाकरे वा सीसा. करे वा हिरण्याकरे वा सुवर्णाकरे वा रत्नाकरे वा वज्राकरे वा अनुप्रविश्याशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥ __चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा इत्यदिना यथा नवनिवेशिते ग्रामादौ प्रविश्य भिक्षाग्रहणनिषेधः कृतस्तथैव नवनिवेशिते लोहखन्यादावपि भिक्षाग्रहणनिषेधो ज्ञातव्यः। तथाहि-नवनिवेशिते अयआकरे-लोहखन्यां, एवं ताम्राकरे-ताम्रखन्यां, त्रप्वाकरे त्रपुः-जसदा' इति प्रसिद्धो धातुविशेषः, तस्य खन्यां, सीसाकरे-सीसकनामधातुविशेषखन्यां, हिरण्याकरे-रजतखन्यां; सुवर्णाकरे, रत्नाकरे-रत्नखन्यां, वज्राकरे-वजरत्नखन्यां वाऽनुप्रविश्य श्रमणः श्रमणी वाऽशनादिकं गृह्णाति ग्रहन्तं वा स्वदते स दोषभागू भवति । तत्र गमने संयमात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनी, एषां सचित्तत्वासंयमविराधना । पतनादिसंभवेनाऽऽत्मविराधना च भवति । तथा तत्र स्थितानां चौरादिशङ्कासंभवोऽपि स्यात् ।।सू० ३६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू०३७ छाया-यो भिक्षुर्मुखीणिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ३७।
चूर्णी—'जे भिक्खू मुहवीणिय' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मुहबोणियं करेइ' मुखवीणिकां करोति, तत्र वीणा वाद्यविशेषलक्षणा, तथा च वीणावत् मुखं करोति, वीणया हि मधुरशब्दोऽभिव्यज्यते ततो मुखस्य तथा चेष्ट्रां करोति यथा मुखं वीणा
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निशीथसूत्र वद् भवति, तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः स्वकीयं मुखं कुचेष्टया वीणावत् करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिकाः दोषा भवन्ति ॥सू० ३७॥ एवं मुखवीणिकाकरणसूत्रवदेवान्यान्यपि दन्तवीणिकाकरणसूत्रत आरभ्य हरितवीणिकाकरणसूत्रपर्यन्तानि एकादश सूत्राणि व्याख्येयानि । तथाहि-'जे भिक्खू दंतवीणियं करेई' यो भिक्षुर्दन्तवीणिकां करोति ॥३८॥ एवम् 'उढवीणियं ॥३९॥ 'नासावीणियं ॥४०॥ 'कक्खवीणियं ॥४१॥ 'हत्थवीणिय' ॥४२॥ 'नहवीणियं ॥४३॥ 'पत्तवीणियं ॥४४॥ 'पुष्फवी. णियं ॥४५॥ 'फलवीणियं' ॥४६॥ 'बीयवीणियं' ॥४७॥ हरियवीणियं' ॥४८॥ छाया-यो भिक्षुर्दन्तवीणिकां करोति ॥३८॥ एवम्-ओष्ठवीणिकाम् ॥३९।। नासावीणिकाम् ॥४०॥ कक्षावीणिकाम् ॥४१॥ हस्तवीणिकाम् ॥४२॥ नखवीणिकाम् ॥४३॥ पत्रवीणिकाम् ॥४४॥ पुष्पवीणिकाम् ॥४५॥ फलवोणिकाम् ॥४६॥ बीजवीणिकाम् ॥४७॥ हरितवीणिकाम् ॥४८॥ एतानि सूत्राणि मुखवीणिकाकरणसूत्रवद् व्याख्येयानि ॥सू० ४८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मुहवीणियं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ॥ सू० ४९॥ छाया-यो भिक्षुर्मुखवीणिकां वादयति पादयन्तं वा स्वदते ॥सू० ५९॥..
चूर्णी- 'जे भिक्खू मुहवीणियं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मुहवीणियं वाएइ' मुखवीणिकां वादयति मुखं वीणावत् वादयति मुखेन वीणावत् शब्दं करोति, मोहं विलक्षणं मधुरशब्दकरणेन जनयति, तथोपशान्तमपि मोहमुदीरयति । तथा 'वाएंतं वा साइज्जइ' वादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि साधुः मुखं वीणावद् वादयति वादयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।।सू०४९।। एवं मुखवीणिकावादनसूत्रवदेवाऽन्यान्यपि दन्तवीणिकावादनसूत्रत आरभ्य हरितवीणिकावादनसूत्रपर्यन्तानि एकादश सूत्राणि व्याख्येयानि । तथाहि-'जे भिक्खूदंतवीणियं वाएइ' सु० ५०॥ 'ओढवीणियं वाएइ' ॥५१॥ 'नासावोणियं वाएई' ॥५२॥ 'कक्खवीणियं' वाएइ ॥५३॥ 'हत्थवीणियं वाएई' ॥५४॥ 'नहवीणियं वाएई' ॥५५॥ 'पत्तवीणियं वाएइ॥५६॥ 'पुप्फवीणियं पाएइ' ॥५७|| ‘फलवीणियं वाएइ' ॥५८॥ 'बीयवीणियं वाएइ ॥५९॥ 'इरियवीणियं वाएड' ॥६०॥ छाया-यो भिक्षुर्दन्तवीणिकां वादयति ॥सू०५०॥ ओष्ठवीणिकां वादयति ॥५१॥ नासावीणिकां वादयति ॥५२॥ कक्षावीणिकां वादयति ॥५३॥ दस्तवीणिकां वादयति ॥५४॥ नववीणिकां वादयति ॥५५॥ पत्रवीणिकां वादयति ॥५६॥ पुष्पवीणिकां वादयति ॥१७॥ फलवीणिकां वादयति ॥५८॥ बीजवोणिकां वादयति ॥५९॥ हरितवीणिकां वादयति ॥६॥ एतानि सूत्राणि मुखवीणिकावादनसूत्रवद् व्याख्येयानि ॥९० ६०॥
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पूर्तिभाष्यावचूरिः उ० ५ ० ६१-६४
औहे शिवयादिवस तिवासनिषेधः १५१
सूत्रम् — एवं अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा अणुदिन्नाई सद्दाई उदीरेs उदीतें वा साइज्जइ ॥ सू० ६१ ॥
छाया - पवमन्यतरान् वा तथाप्रकारान् वा अनुदीर्णान् शब्दान् उदीरयति उदीरयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६१ ॥
,
चूर्णी - 'एवं अण्णयराणि' इत्यादि । संप्रति प्रकृतप्रकरणमुपसंहरन्नाह - 'एव'मित्यादि । 'एवं' एवं यथोक्तप्रकारेण 'अण्णयराणि वा अन्यतरान् वा वीणावादनप्रकारेण अन्यानपि शब्दान् पशुपक्षिसर्पादीनां शब्दान् 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान् वा तं प्रकारमापन्ना इति तथाप्रकाराः तान् शब्दान् वादित्रशब्द समानानन्यानपि 'अणुदिन्नाई' अनुदीर्णान् 'सदाई' शब्दान् 'उदीरेइ' उदीरयति उच्चारयति, अर्थात् यत् मोहनीयं कर्म उपशान्तं तत् पुनरनेकप्रकारकशब्दोच्चारणेन उदीरयति, तथा 'उदीरेंतं वा साइज ' उदीरयन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणोऽनेकप्रकारकान् शब्दानुदीरयति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० ६१ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणुप्पविसह अणुप्पविसंत वा साइज्जइ || सू० ६२ ॥
छाया - यो भिक्षुरौद्देशिकीं शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदृते ॥ सू० ६२।
चूर्णी - 'जे भिक्खू उद्देसियं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उद्देसियं सेज्जं' मौदेशिक शय्याम् एकं श्रमणं श्रमण वा उद्दिश्य कृता इति औशिकी, सा चासौ शय्या वसतिः स्थानकमित्यर्थः तामौदेशिकीं शय्याम् ' अणुष्पविसइ' अनुप्रविशति साधुमुद्दिश्य कृतोपाश्रये उपागच्छति उपाश्रये निवासकरणार्थे यः श्रमणः प्रवेशं करोति, तथा 'अणुवितं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यः श्रमण औदेशिक स्थाके उपागच्छति तं योऽन्यः श्रमणोऽनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ६२ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुष्पक्सिंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६३ ॥
छाया -यो भिक्षुः सप्राभृतिकां शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ६३
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१५३
निशीयसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'संवाहुडिय सेज्जं सप्राभृतिकां शय्याम्, प्राभृतम् - उपहारः यत्र कर्म प्राभृतं भवति कर्मण आगमनं भवति तेन सहिता या सा प्राकृतिका, यस्यां वसतौ छादनलेपनभूमिकर्मादिकं क्रियते तादृशीं शय्यां वसतिम्
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प्राचूर्णकानां निवासाय कियत्कालार्थ दत्ता साऽपि वसतिरुपचारात् सप्राभृतिका प्रोच्यते, तादृशीं शय्यां वसतिं स्थानकमित्यर्थः 'अणुष्पविसइ' अनुप्रविशति एतादृशोपाश्रये निवासार्थमागच्छति 'अणुपवितं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः सप्राभृतकं स्थानकं निवासार्थमागच्छति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । यस्मात् कारणात् सम्राभृतिकावसतौ निवासकरणे एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः सप्राभृतकस्थानके निवासं न कुर्यात्, न वा सप्राभृतकस्थानके निवसन्तं श्रमणमनुमोदयेदिति ॥ सू० ६३ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं अणुष्पविसइ अणुष्पविसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ६४ ॥
छाया -- यो भिक्षुः सपरिकर्मा सय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू०६४॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सपरिकम्मं सेज्जं 'अणुष्पविसइ' सपरिकर्मा शय्याम् अनुप्रविशति, तत्र सपरिकर्मा - परिकर्मसहिता लिप्सा घृष्टा मृष्टा धवलिता भवेत्, यत्र निवासकरणेन मूलगुणोत्तरगुणानां विघातों जायते, अथवा यस्यां वसतौ साधुमुद्दिश्यानुद्दिश्य वा कश्चित् घावनघर्षणलेपनादिकं चित्रकर्मादिकं वा संपादितं भवेत् तादृशी वसंतिः सपरिकर्मा शय्या कथ्यते । तामनुप्रविशति तत्र निवासं करोति, तथा 'अणुष्पविसंत वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः सपरिकर्मवसतौ निवासं करोति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।। सू० ६४ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू 'णत्थि संभोगवत्तिया किरिय' -त्ति वयइ वयंतं वा सॉइज्जइ ॥ सू० ६५ ॥
छाया - यो भिक्षुः 'नास्ति संभोगप्रत्यया क्रिया' इति वदति वदन्तं वा स्वदते ॥६५॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः णत्थि संभोगवत्तिया किरिय'- त्ति वयइ' नास्ति संभोगप्रत्यया क्रियेति वदति । तत्र मास्यर्य प्रतिषेधः, 'समोग' इत्यत्र संशब्दः एकीभावे भुजधातुः पालनाभ्यवहरणार्थकः, ततश्च एकत्र भोजनमित्यर्थः, एकमण्डल्या
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चूर्णिमाल्यावः उ०५ सू०६६-६८ बसपात्रादीनां छेदनादि कृत्वा परिष्ठापननिषेधः ११३
मुपविश्याहारादिकरणम् , ततः असमानसामाचारीकैरपि सहाहारादिकरणे संभोगप्रत्ययकारणिका क्रिया कर्मबन्धो न भवति, इत्येवंप्रकारेण यो वदति । अत्र 'संभोग'--शब्देन द्वादशप्रकारकसंभोगो ज्ञातव्यः, येन साधुना सह एकत्र भोजनादिव्यवहारो न भवेत्तेन, अथवा यः विरुद्धसामाचारोकस्तेन सह भोजनादिक्रियां करोतु न तत्र कोऽपि कर्मबन्धः, इत्येवं यो वदति, तथा 'वसंतं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुः 'संभोगकारणकः कर्मबन्धो न भवति'. एवं वदति, तमनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञा भङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिका दोषा भवन्ति तस्मात् संभोगप्रत्यया क्रिया न भवतीत्येवं न वदेत् ।।सू०६५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्ज पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिहवेइ परिहवेत वा साइज्जइ॥ सू० ६६॥
छाया-यो भिक्षुर्वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनकं वा अलं स्थिर ध्रुवं धारणीयं प्रतिच्छिद्य प्रतिच्छिद्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६६॥
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः निरवद्यभिक्षणशील: श्रमणः श्रमणी वा 'वत्थं वा वस्त्रं वा-क्षौमिकं कामिकं वा 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रहं वा-पात्रं वा 'कंबलं वा' कम्बलं वा-ऊर्णादिनिष्पन्नं 'पायपुंछणं वा' पादपोंछनकं वा-रजोहरणमित्यर्थः, 'अलं थिरं धुवं तत्र अलं कार्यकरणे पर्याप्तं समर्थमपि, स्थिरम् यथावस्थितं, ध्रुवं चिरकालपर्यन्तवर्तनयोग्यं 'धारणिज्ज' धारणीय-धारणयोग्यं कार्यकरणयोग्यमपि वस्त्रादिकम् 'पलिच्छिदिय:। पलिच्छिदिय' प्रतिच्छिद्य प्रतिच्छिद्य हस्तेन छुरिकादिना वा खण्डं खण्डं कृत्वा 'परिहवेई' परिष्ठापयति-कार्यक्षममपि वस्त्रादिकं हस्तेन शस्त्रादिना वा छित्त्वा भूमौ परिष्ठापयति निक्षिपति तथा 'परिट्ठवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते, तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा कार्यकरणक्षमं वस्त्रादिकं छित्वा न परिष्ठापयेत् , न वा परिष्ठापयन्तमनुमोदयेदिति ॥सू०६६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू लाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्ज पलिभिदिय पलिभिदिय परिद्ववेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ सू० ६७॥
छाया-यो भिक्षुरलावुकपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा अलं, स्थिरं धवं धारणीय परिभिद्य परिभिद्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६७ ॥
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निशीयसी चूर्णी-'जे भिक्खू ' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'लाउयपायं वा' अलाबुकपात्रं 'अलाबु' इति तुम्बिकेति लोकप्रसिद्धं, तस्य पात्रम् 'दारुपायं वा' दारुषानं वा-काष्ठपात्रमित्यर्थः 'मट्टियापायं वा मृत्तिकापात्रं वा मृण्मयं भाजनमित्यर्थः 'अलं' मालम्-अखण्डम् 'थिरं' स्थिरं दृढ़ 'धुवं' ध्रुवं बहुकालपर्यन्तपरिभोगयोग्यं धारणिज्ज' धारणीयं धारयितुं योग्यं न तु त्यागयोग्यम् , एतावता पात्राणां परिष्ठापनाभावे कारणं प्रदर्शितम् , एतादृशं कार्यक्षममपि भलाबुपात्रादिकम् ‘पलिभिदिय पलिभिदिय' परिभिध परिभिद्य प्रस्फोट्य प्रस्फोटयेत्यर्थः 'परिवेई परिष्ठापयति पात्राणि चूर्णीकृत्य भूमौ निक्षिपतीव्यर्थः, तथा 'परिहवेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यः श्रमणः कार्यक्षममपि अलाबुपात्रादिकं खण्डीकृत्य परिष्ठापयति, तमनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादिका दोषाश्चापि भवन्ति, यस्मात्कारणात् कार्यक्षमानामपि पात्राणां खण्डीकृत्य परिष्ठापने परिष्ठापयितुरनुमोदने च पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति, तस्मात् कारणात् श्रमणः अलाबुपात्रादिकं कार्यक्षमं चूर्णीकृत्य न परिष्ठापयेत् , न वा परिष्ठापयन्तमनुमोदयेदिति ।।सू०६७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दंडगं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणसइयं वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिट्ठवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६८॥
छाया-यो भिक्षुः दण्डकं वा यष्टिकां वा अवलेहनिकां वा वेणुसूचिकां वा परिमम्ज्य परिभज्य परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६८॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दंडगं वा' दंडकं-दारुवेणुप्रभृतिदण्डं वा 'लट्ठिय वा' यष्टिकां वा 'अवलेहणियं वा' भव.
हनिकां वा तत्र अवलेहनिका चरणलग्नकर्दमनिःसारणाय वंशादिनिर्मित्तक्षुरिकादिरूपा, ताम् 'वेणुन इयं वा' वेणुसूचिकां वा 'पलिभंजिय पलिभंजिय' परिभञ्ज्य परिभञ्ज्य त्रोटयित्वा त्रोटयित्वेत्यर्थः 'परिट्रवेइ' परिष्ठापयति, तथा 'परिवेंतं वा साइज्जई' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्दण्डादिकं बोटयित्वा परिष्ठापयति, तं वा योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति स्था तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाः भवन्ति ॥सू० ६८।। ।
सूत्रम्--जे भिक्खू अइरेगपमाणं रयहरणं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥सू० ६९॥
छाया-यो भिक्षुरतिरेकप्रेमाणं रजीहरणं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६९ ॥
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चूर्णिमाम्यावचूरिः उ० ५ सू० ६९-७४ रजोहरणस्यानुचितबन्धनिषेधः १५५
चूर्णीः- 'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अइरेगपमाणं' अतिरेकप्रमाणम् 'रयहरणं' रजोहरणम् ; रजोहरणस्य मानमित्थम्तथाहि-गमनसमये अधोमुखतामन्तरेणैव सुखतो भूमेः प्रमार्जनं कर्तुं शक्नोति तावत्प्रमाणको दण्डः, तद्घटितरजोहरणं हस्तिपदप्रमाणकं शास्त्रसंमतम् , एतस्मादधिकमल्पं वा प्रमाणम् रजोहरणस्यातिरेकप्रमाणम् । अथवा द्वात्रिंशदङ्गुलप्रमाणो दण्डः, भष्टाङ्गुलप्रमाणाफली, ताश्च जघन्यतः सार्द्धशतसंख्यकाः, मध्यमत ऊनशतद्वयसंख्यकाः, उत्कृष्टतः शतद्वयसंस्वका फलिकाः, एतादृशं भूमिकर्मकरणसमर्थम् भवभ्रमणकारणस्य कमरजसो हरणे समर्थ रजोहरणं धर्तव्यम् , इतोषिकप्रमाणकं न्यूनप्रमाणकं वा रजोहरणमतिरेकप्रमाणरजोहरणमिति कथ्यते । द्रव्यभावभेदेन द्विप्रकारकरजसो हरण करोतीति रजोहरणमिति व्युत्पत्तेः । तत् 'धरेइ' एतादृशप्रमाणतोऽतिरेकप्रमाणं रजोहरण घरति, तथा 'धरेतं वा साइज्जइ' धरन्स वा स्वदते । यो हि भिक्षुरतिरेकप्रमाणकं रजोहरणं धरति धरन्तं वा योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति तस्मात् कारणादतिरेकप्रमाणक रजोहरणं न धरेत् न वा धरन्तं श्रमण कथं कथमपि अनुमोदयेदिति ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सुहुमाई स्यहरणसीसाई करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७०॥
छाया - यो भिक्षुः सूक्ष्माणि रजोहरणशीर्षाणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते |
चूर्णो—'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मुहुमाई' सूक्ष्माणि श्लक्ष्णानि शोभार्थम् ‘रयहरणसीसाइ' रजोहरणशीर्षाणि-रजोहरणस्य शीर्षाणि फलिकास्तदप्रभागान् 'करेइ' करोति संपादयति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणस्स एकं बंधं देइ देंतं वा साइज्जइ ७१। छाया-यो भिक्षुः रजोहरणस्यैक बन्धं ददाति ददतं वा स्वदते ।। सू० ७९ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रयहरणस्स एक्कं बंध देह' रजोहरणस्यक बन्धनं ददाति रजोहरणस्योपरि निशीथिकासूत्रस्य एकमेव बन्धनं ददाति, अयं भावः-रजोहरणदशानां मध्ये प्रथममेकं बन्धनं दातव्यं, तदनन्तरं द्वितीयं बन्धनं फलिकामध्ये दातव्यम् , तदनन्तरम् तृतीयं बन्धनं रजोइरणस्य दण्डोपरिभागे अङ्गुलत्रयं परित्यज्य देयम् , एतादृशस्थिती एकमेव बन्धनं ददाति, समनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७१ ॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू स्यहरणस्य परं तिण्हं बंधाणं देइ देतं वा साइ
ज्जइ ॥ सू० ७२ ॥
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छाया -यो भिक्षुः रजोहरणस्य परं त्रयाणां बन्धानां ददाति ददतं वा स्वदते ॥७२॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'रयहरणस्स' रजोहरणस्य 'परं तिहूं बंधाणं' परं त्रयाणां बन्धानाम् बन्धनत्रयादधिकं बन्धनम् 'देव' ददाति बन्धनचतुषकादिना बध्नातीत्यर्थः, 'देतं वा साइज' ददतं वा स्वदते । यो हि रजोहरणे
घनत्रयादधिकानि चतुः पश्च वा बन्धनानि ददाति तं योऽनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञा भङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीव्यतो रजाहरणे बन्धनत्रयादधिकं बन्धनं न दद्यात् तथा ददतं मानुमोदयेत् ।। सू० ७२ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू स्यहरणं अविहीए बंधइ बंधंतं वा साइज्जइ । ७३ ।
छाया - यो भिक्षुः रजोहरणमविधिना वध्नाति बध्नन्तं वा स्वदते ।। सू० ७३ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'रयहरणं' रजोहरणम् afatty बंध' प्रविधिना शास्त्रोक्तविध्यतिक्रमेण बध्नाति बन्धनं ददाति तथा 'बंधतं वा साइज्जइ' बनन्तं वा स्वदते, अविधिना यो रजोहरणे बन्धनं ददाति तमनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागी भवति । यस्मात् अविधिबन्धने पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः कथमपि रजोह - रणे अविधिबन्धनं न दधात्, न वा अविधिना बन्धनं ददतमन्यमनुमोदयेदिति ॥ सू० ७३ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रयहरणं कंडुसगबंधेणं बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ।
P
छाया - यो भिक्षुः रजोहरणं कन्दुकबन्धेन बध्नाति बध्नन्तं वा स्वदते ॥ सू०७४। चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'स्यहरणं' रजोहरणम् ''कंस' कन्दुकबन्धनेन, कन्दुकमिति बालानां खेलनोपकरण विशेषः 'दडा' 'बोलं' इति प्रसिद्धं, तद्बन्धनसद्दशबन्धनेन ‘बंध' बध्नाति, तथा 'बंधतं वा साइज्जइ' बध्नन्तं बन्धनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यः श्रमणः कन्दुकबन्धनसदृशबन्धनेन रजोहरणं बध्नाति तस्य कठिनबन्धनकरणे पुनर्मोचने बिलम्बो भवति तेन सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति तस्मात् रजोहरणे तादृशं बन्धनं न दातव्यं, न वा ददतं कमप्यनुमोदयेदिति ॥ सू० ७४॥
सूत्रम् - जे. भिक्खू स्यहरणं वोसट्टं घरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥ ७५ ॥
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धूर्णिभाष्यावरिः उ.५ सू. ७५-८० रजोहरणस्यानुचितोपभोगनिषेधः १५७
छाया-यो भिक्षुः रजोहरणं व्युत्सृष्टं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥२० ७५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रयहरणं' रजोहरणम् 'वोसटुं' व्युःसृष्टं स्वस्माद् अतिदूरं-सार्द्धहस्तत्रयात् दूरम् , एतावद्दूरे अवस्थितं रजोहरणम् 'धरेइ' धरति-स्थापयति तथा 'धरेंतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुरतिदूरे रजोहरणं धरति स्थापयति, अथवा रजोहरणमन्तरेणैव गमनागमनं करोति तदा शरीरोपरि उपकरणोपरि वा पिपीलिकादि आगच्छेत् तत् हस्तादिना निवारणेन पिपीलिकादीनां विराधनं भवति, तथा हस्तेन शरीरकण्डूयने वा जीवविराधनासंभवः, तेन संयमविराधना भवति, तथा कदाचिदकस्माद् कोऽपि विषकीटः शरीरोपरि समापतति तदा रजोहरणाभावे आत्मविराधनाया अपि संभवः । यत इमे दोषा भवन्ति तस्मात् रजोहरणस्य दूरे स्थापनं न कुर्यात् , न वा तथाकर्तुरनुमोदनमपि कुर्यादिति ।। सू० ७५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं अणिसिटूठं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षुः रजोहरणमनिसृष्टं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू०.७६ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रयहरणं' रजोहरणम् 'अणिसिर्ट' अनिसृष्टम् यदनेकस्वामिक वस्तु तदेकेन दीयमानम् अनिसृष्टमिति कथ्यते, एतादृशं रजोहरणम् 'धरेइ' धरति तादृशरजोहरणस्य धारणं करोति तथा 'धरतं वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमण अनेकस्वामिकमेकेन दीयमानं रजोहरणं धरति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषा भवन्ति । तथा सर्वस्वामिनाऽप्रदत्तस्य ग्रहणे इतरस्वामिना कलहादिरपि भवेत् तस्मात्तादृशं रजोहरण न धारयेत् , न वा धारयन्तमनुमोदयेदिति सर्वस्वामिदत्तं रजोहरणं ग्राह्यामति भावः ।। सू० ७६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रयहरणं अहिठेइ अहिटतं वा साइज्जइ ॥७७॥ छाया-यो भिक्षुः रजाहरणं अधितिष्ठति अधितिष्ठन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू रयहरणं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्यहरणं' रजोहरणम् 'अहिटेई' अधितिष्ठति रजोहरणोपरि उपविशति 'अहिलुतं वा साइज्जइ' अधितिष्ठन्तं वा स्वदते । यो हि रजोहरणोपरि उपविशति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी मवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति तस्मात् रजोहरणोपरि उपवेशन न कर्त्तव्यम् , न वा उपविशन्तं श्रमणमनुमोदयेदिति ॥ सू० ७७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं उस्सीसमूले ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ७८/ छाया-यो भिक्षुः रजोहरणम् उच्छीर्षमूले स्थापयति स्थापयन्तं वा स्वदते ॥७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू रयहरणं' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'स्यहरणं' रजोहरणम् 'उस्सीसमूले ठवेइ' उच्छीर्षमूले स्थापयति शयनसमये मस्तकाधोभागे निदध्यात
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१५८
निशीथर रजोहरणीपरि मस्तकं दत्वा शयनं करोतीत्यर्थः, 'ठवेतं या साइज्मइ' स्थापयन्तं वा स्वदते यो हि श्रमणः रजोहरणोपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं करोति तं श्रमणं यो भिक्षुरनुमोदते स प्रायशि तभागी भवति तस्मात् रजोहरणोपरि मस्तकं दत्त्वा शयनं न कुर्यात् , म वा तदुपरि मस्ता दत्त्वा शयनं कुर्वतोऽनुमोदनमेव कुर्यादिति ॥ सू० ७८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू स्यहरणं तुयट्टेइ तुयटेंतं वा साइज्जइ ७ छाया -योो भिक्षुः रजोहरणं त्वगवर्तयति त्वग्वर्तयन्त वा स्वदते ॥ सु० ७९
चूर्णी-'जे भिक्खू रयहरणं' इत्यादि। 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रयहरण रजोहरणम् 'तुपट्टेइ' त्वग्वर्तयत्ति रजोहरणोपरि शयानस्तत्रैव त्वग्वर्तनं पार्श्वपरावर्तन करो इतस्ततः त्वचः परावर्तन कसेतीत्यर्थः 'तुयटेतं वा साइज्जइ' त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते अनुमोदते यो हि श्रमणः रजोहरणोपरि शयनं कृत्वा तदुपरि पार्श्वपरिवर्तनं करोति तं श्रमणं यः श्रमण भनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्मात् कारणात् रजोहरणोपरि स्थगवर्सनै न कुर्वात् , : वा त्वग्वर्त यन्तमनुमोदयेदिति ॥ सू० ७९ ॥ सूत्रम्-तं सेवमाणे आवजइ मासियं परिहारठाणं उग्घाइयं ।८०
॥निसीहझयणे पञ्चमो उदेसो समत्तो॥ छाया-तत्सेवमानः आपसे मासिक परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ सू० ८०॥
निशीथाध्ययने पञ्चम उद्देशकः समाप्तः ॥५॥ चूर्णी-'त सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः सचित्तवृक्षमूलावस्थानादा रेभ्य रजोहरणोपरि त्वगवर्तमपर्यन्तकथितप्रायश्चित्तस्थामेषु मध्ये येत् किमध्येकं प्रायश्चित्तस्था प्रतिसेवमानः 'आवज्जई' आपद्यते प्राप्नोति मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइये मासिक परिहार स्थानमुद्घातिकम् लघुमासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः । अयं भावः-पञ्चमोदेशक यावन्ति प्रार चित्तस्थानानि प्रोक्तानि तेषु एकममेकं वा प्रायश्चित्तस्थानं वो भिक्षुः सेवते स लघुचातुर्मासि प्रायश्चिस लभते ॥सू० ८०॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिपिक-वादिमानमर्दक - श्रीशाइछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैमाचार्य-जैनधर्म दिवाकर- पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "मिशीवसूत्रस्य" - चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां न्यारवायां पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥५॥
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॥ षष्टोदेशकः ॥ )
(मातृग्राम प्रकरणम्
पञ्चमोद्देशकं व्याख्याय साम्प्रतमवसरप्राप्तं षष्ठोद्देशं व्याख्यातुमाह -तत्र पञ्चमोद्देशकेन
सह षष्ठोदेशकस्य कः सम्बन्धः ? इत्यत्राह भाष्यकार : - 'उस्सीसं' इत्यादि ।
भाष्यम् – उस्सीसं पुण्वकहियं, तेणं रतिं च सुव्बाई साहू | रत्तीए मोहुदओ होइ जया तस्स पच्छित्तं ॥ १ ॥
छाया - उच्छीर्ष पूर्व कथितं तेन रात्रौ च स्वपिति साधुः । रात्रौ मोहोदयो भवति यदा तस्य प्रायश्वितम् ॥ १॥
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अवचूरिः - पञ्चमोदेशकस्यान्तिमसूत्रे रजोहरणेन उच्छीर्षकरणस्य निषिद्धत्वेन प्रतिपादितम् एतावता रात्रौ शयनं कथितं दिवसे तु साधोः शयनं न कल्पते । उच्छीर्षेण शयने रात्रौ साधोर्यदा मोहोदयो भवेत् तेन स मैथुनप्रतिज्ञया मातृग्रामं स्त्रियं विज्ञपयेत् तस्यात्र षष्ठोदेशके प्रायश्चित्तं निरुपयिष्यते, अयमेव पञ्चमोद्देशकेन सह पष्ठोदेशकस्य सम्बन्धोऽस्ति ॥ १ ॥
अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठोदेशकस्येहमादिसूत्रम् -'जे भिक्खू माउम्गामं' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए विष्णवे विणवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामं मैथुन प्रतिज्ञया विज्ञपयति विज्ञपयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खु' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः - श्रमण श्रमणोः वा 'माउग्गामं' मातृग्रामं - मातुः समानः ग्रामः इन्द्रियसमुदाय इति मातृग्राम इति षष्ठीतत्पुरुषस्तम् । देशविशेषभाषया 'मातृग्राम' शब्देन स्त्री गृह्यते तेन 'स्त्रियम्' इत्यर्थो बोध्यः सर्वाः स्त्रियो भिक्षुणा मातृवदद्रष्टव्या अतोऽत्र मातृग्रामशब्देन निर्देशः कृत इति भावः । 'मेहुणवडियाए ' मैथुनप्रतिज्ञयामैथुनवाञ्छया मिथुनस्य स्त्रीपुरुषस्य कर्म मैथुनम् अब्रह्मचर्यमित्यर्थः, तस्य वाञ्छया स्त्रियम् 'विष्णवे ' विज्ञपयति-मैथुनार्थे स्त्रियं प्रार्थयतीत्यर्थः 'विष्णवेंतं वा साइज' विज्ञपयन्तं मैथुनार्थं स्त्रियं प्रार्थयन्तं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा प्रार्थयितुः प्रार्थयितारमनुमोदयितुधाज्ञा भङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए हत्थकम्मं करेह करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मादप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया दस्तकर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥२॥
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१६०
निशीथस्ये चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनवाञ्छ्या 'हत्थकम्म' हस्तकर्महस्तेन संपाद्यमानं कर्म क्रिया व्यापारः, तत् करोति स्वयम् तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदते । यो हि मैथुनेच्छया हस्तकर्म करोति तमनुमोदयति स प्रायश्चित्तमाप्नोति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति । यस्मात् हस्तकर्मकरणेऽनुमोदने चैते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् स्वयं श्रमणो हस्तकर्म न कुर्यात् न वा हस्तकर्म कारयेत् कुर्वन्तमनुमोदयेत् , चतुर्थमहाव्रतविराधनाया अवश्यम्भावादिति ॥सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा संचालेइ संचालेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया- यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं काष्ठेन वा किलिञ्चेन वा शलाकया वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य-स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् , तत्राङ्गं शरीरं तस्य आदानं प्रसूतिरित्यर्थः, अङ्गादानम्-अङ्गस्योत्पत्तिभवति यस्मात् तत् अङ्गादानम् , यद्यपि दाधातुर्दानार्थ कस्तथापि धातोरनेकार्थत्वादुपसर्गवत्त्वात् आर्षप्रकरणबलाच्चात्रोत्पत्तिरों भवतीति । अङ्गादानं मेद्रं स्त्रीपुरुषयोश्चिह्नविशेषमित्यर्थः, एतादृशं स्त्रीणां स्वस्य वा अङ्गादानम् मोहनीयकमोंदयात् 'कठेण वा' काष्ठेन शिंशपादिदारुदण्डेन वा 'किलिंचेण' वा किलिञ्चेन वा तत्र किलिञ्चो वंशकर्परी, तादृशेन किलिञ्चेन वा 'अंगुलियाए वा' अंगुल्या वा 'सलागाए वा' शलाकया वा लौहादिशलाकया वेत्रशलाकया वा 'संचालेइ वा' संचालयति 'संचालत वा साइज्जइ' संचालयन्तं वा स्वदते । यो हि अङ्गादानम् काष्ठादिना संचालयति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं संवाहेन्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहेंतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥सू० ४॥ ____ छाया -यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं संवाहयेद्वा. परिमर्दयेदा संवादयन्तं वा परिमर्वयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४॥
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पूर्णिमायावचूरिः उ०६ सू०४-८
मातग्रामप्रकरणम् १३५ चूी'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्मामस्स' मातृप्रामस्य-यस्याः कस्याश्चित् स्त्रियाः ‘मेहुणवडियार' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुमेच्छयेत्यर्थः अंगादाणं' अङ्गादानं 'संवाहेज्ज वा' संबाहयेद्वा 'पलिमदेज्ज वा परिमर्दयेद् का 'संवाहेत या' संबाहयन्तं वा एकवारं मर्दयन्तम् 'पलिमहेंतं वा' परिमर्दयन्तं वा अनेकवारं परिमर्दनं कुर्वन्तं वा 'साइन्जाई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा नवणीएण वा अन्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अन्मगेंतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं तैलेन वा घृतेन वा वसा वा नवनीतेन वा अभ्यञ्जयेद्वा म्रक्षयेद्वा अभ्धजयन्तं वा प्रक्षयन्तै वा स्वदते ॥सूपा
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य-स्त्रियाः 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'अंगादाणं' भङ्गादानम् 'तेल्लेण वा' तैलेन वा तिलसर्पपादिजातेन 'घएण चा' घृतेन वा 'वसाए वा' बल्या वाचर्चाति-लोकप्रसिद्धया 'णवणीएण वा' नवनीतेन वा 'मक्खन' इति लोकप्रसिद्धेन 'अभंगेज वा' अभ्यञ्जयेद्वा एकवारं तैलादिना मर्दयेत् 'मक्खेज वा' म्रक्षयेद्वा अनेकवारं विशेषतो वा मर्दयेत् 'अभंगतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ' अभ्यञ्जयन्तं वा म्रक्षयन्तं वा स्वदले स प्रावश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कक्केण वा लाद्धेण वा पउमचुण्णेण वा सिणाणेण वा पहाणेण वा चुण्णेहिं वा वण्णेहि वा उव्वटेइ वा पखिटूटेइ वा उब्बडेतं वा पखिटेंते वा साइज्जइ ।
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं कल्केन वा लोध्रण वा पानचूर्णेन वा स्नपनेन वा स्नानेन वा चूर्णैर्वा वर्णैर्वा उद्धर्तयति वा परिवर्तयति वा उद्वर्तयन्तं वा परिवर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू०६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउन्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'अंगादाणं' अङ्गादानं 'कोण वा' कल्केन वा- अनेकद्रव्यसंयोगेन क्रियमाणो वस्तुविशेषः, तेन 'लोद्रेण वा' लोभ्रेण वा 'पउमचुण्णेण वा' पद्मचूर्णेन वा 'हाणेणवा' सपनेम वा, तत्र स्नपनं धिष्टादिनिर्मितोद्वर्त्तनद्रव्यमिश्रितजलेन सिाबनं,
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निशीथसूत्र तेन, 'सिणाणेण बा' स्नानेन वा, तत्र स्नान-सुगन्धद्रव्यसमुद्रायनिर्मितवस्तुविशेषमिश्रितजलेन 'साबू' इति लोकप्रसिद्धवस्तुमिश्रितजलेन वा धावनम् , 'चुण्णेहिं वा' चूर्णैर्वा चन्दन चूर्णादिभिः 'वण्णेहिं वा' वर्णकैर्वा सुगन्धाचूर्णरित्यर्थः, एतेषु अन्यतरेण द्रव्येण 'उव्वटेइ' उद्वर्तयति एकवारमुद्वर्तनं करोति 'परिवटेइ वा' परिवर्तयति अनेकवारमुद्वर्तनं करोति, तथा 'उव्वटेंतं वा' उद्वर्तयन्तं वा एकवारमुद्वर्तनं कुर्वन्तं वा 'परिवठेतं वा' परिवर्तयन्तम् अनेकवारमुद्रतनं कुर्वन्तं वा 'साइजइ' स्वदतेऽनुमोदनं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति । यथा खड्गादिशस्त्रस्य मर्दनेन हस्तस्य छेदो भवति तथैवाङ्गादानस्योद्वर्तनादिकरणेन संयमस्य च्छेदो भवतीति ॥ सू० ६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणडियाए अंगादाणं सीओ. दगवियडेण वा उसिणादगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छो लेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
छाया-यो भिक्षावृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अनादानं शीतोदकविकटेन वा उष्णो. दकविकटेन वा उच्छोलयेद्वा प्रधावेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू०७॥ . चणी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः, 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा, तत्र विकटेन व्यपगतजीवेन अचित्तशीतजलेनेत्यर्थः, 'उसिणोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकठेन वा अचित्तेन उष्णजलेनेत्यर्थः 'उच्छोलेज्ज वा' उच्छोलयेद्वा एकवारम् ‘पधोवेज्ज वा' प्रघावेद्वा अनेकवारम् ‘उच्छोलेंतं वा' उच्छोलयन्तं एकवारम् 'पधोएंतं वा' प्रधावन्तं वा अनेकवारं 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । अत्र दृष्टान्तो यथा-कस्यचित् पुरुषस्य नेत्ररोगो जातस्ततः स नेत्रं घष्ट्वा धृष्ट्वा जलेन वारं वारं प्रक्षालयति तेन तस्य नेत्रं प्रणष्टम् , एवमेवाङ्गादानस्योच्छो. लन प्रधावनेन संयमः प्रणश्यतीति ॥ सू० ७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण वडियाए अंगादाणं णिच्छल्लेइ णिच्छल्लेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं निश्छल्लयति निश्छल्लयन्तं वा स्वदते ॥ २० ८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृनामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् ‘णिच्छल्लेइ' निश्छल्लयति छल्लीरहितं करोति, तत्र निश्छल्लनभङ्गादानस्य छल्ल्याः-स्त्वचोऽपनयनं ततश्चाङ्गादानस्य
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. ६ सू० ९-१३।
मातृग्रामप्रकरणम् १६३ त्वचोऽपनयनं करोति-अङ्गादानस्य त्वम् अपनीय मणि निष्कासयतीत्यर्थः 'पिच्छल्लेत वा साइज्जइ' निश्छल्लयन्तं वा त्वगपनयनं कुर्वन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अत्र दृष्टान्तो यथा-कश्चित् पुरुषः सुखसुप्तस्याऽजगरस्य मुखं स्फाटयति स क्रुद्धेन तेन निर्गलितो म्रियते, एवमङ्गादानस्य त्वगपनयनं कुर्वतः साधोश्चारित्रं विनश्यतीति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं जिग्घइ जिग्यंत वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अङ्गादानं जिप्रति जिवन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् 'जिग्घई' जिघ्रति-नासिकया आघ्रातीत्यर्थः 'जिग्येत वा साइज्जइ' जिघन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसेत्ता सुकपोग्गले निग्याएइ निग्याएतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥ ___छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अङ्गादानमन्यतरस्मिन् अचित्ते स्रोतसि अनुप्रवेश्य शुक्रपुद्रलान् निर्घातयति निर्घातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू माउम्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउगामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अंगादाणं' अङ्गादानम् स्वमेदम् 'अन्नयरंसि' अन्यतरस्मिन् स्रोतस्सु बहुषु मध्ये यस्मिन् कस्मिंश्चिदपि 'अचित्तंसि सोयंसि' अचित्ते निर्जावे स्रोतसि छिद्रे 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य तत्र प्रविष्टं कृत्वा 'मुक्कपोग्गले शुक्रपुद्गलान् वीर्यपुद्गलान् 'निग्याएई' निर्घातयति-पातयति 'णिग्याएंतं वा साइम्जई' निर्घातयन्तं वा स्वदते अनुमोदते ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अवाउर्डि सयं कुज्जा सयं बूया करते वा बूएतं वा साइज्जइ । सू० ११ ॥
छाया- यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अप्रावृति स्वयं कुर्यात् स्वयं ब्रूयात् कुर्वन्तं वा त्रुवन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
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AAN
निशीथरचे पूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अवाउढि सयं कुज्जा' अप्रावृति वनाहरण नग्नकरणबुद्ध्या, स्वयं स्वयमेव कुर्यात् यः श्रमणः सुप्तां स्त्रियं वनरहितां कुर्यादिति भावः, 'सयं ब्रूया' स्वयं ब्रूयात् नमार्थ स्त्रियं कथयेत् मैथुनार्थ प्रार्थनां वा कुर्यात् , तथा 'सयं करेंतं समयं एतं वा साइज्जई' स्वयं स्वयमेव त्रिया वस्त्रापहरणं कुर्वन्तं तथा प्रार्थनावचनं ब्रुवन्तं वा श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कलहं कुज्जा कलहं बया कलहवडियाए बूया कलहवडियाए गच्छइ बूएतं वा गच्छंत वा साइज्जइ ।। सू० १२॥
' छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया कलहं कुर्यात् कलहं घूयात् कलाप्रतिज्ञया व्यात् कलहप्रतिक्षया गच्छति ध्रुवन्तं वा गच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउमापस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैंथुनप्रतिज्ञया 'कला कुज्जा' कलहं कुर्यात् मैथुनासीबारे कलह काफ्कलह वा कुर्यात् 'कलई वा ब्या' कलहं वा ब्रूयात् 'यदि त्वं मया सह मैथुनं न सेविष्यसि सदा तव दुःखमुत्पादयिष्यामि' इत्येवंप्रकारकं ल्केशकारि वचनं वदेत् 'कलहवडियाए ब्रया' कलहप्रतिज्ञया ब्रूयात्-क्रोधावेशेन वदेत् 'कलहवडियाए गच्छई' कलहप्रतिजयी कामकलेहेच्छया स्त्रीसमीप गच्छति, तथा 'बृएं तं वा गच्छेतं वा साइज्जई' ब्रवन्तं वा गच्छन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १२ ॥ . सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए लेहं लिहइ लेहं लिहावेइ लेहवडियाए वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३॥
छाया-यो, भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया लेख लिखति लेखयति लेखप्रतिक्षया वा गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडिपाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'लेहं लिहइ' लेखे-प्रेमपत्ररूपं लिखति 'लेहं लिहावेई' लेखं लेखयति अन्यद्वारा वा लेख लेखयति 'छेहवडियाए वा गच्छई' लेखप्रतिज्ञया लेखनार्थाय वा बहिर्गच्छति यत्र स्थितेन लेखो निर्विघ्नं लिख्यते एतादृशं स्थानं गच्छति, 'गच्छेत वा साइज्जई' गच्छन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । .
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भूमिभाग्यावचूरिः उ. ६ सू. १४-१७
मातृग्राम प्रकरणम् १६५
अत्र शिष्यः पृच्छति - हे गुरो ! भगवता मैथुनसेवनेच्छया साधूनां पत्रलेखनं निषिद्धं तेना - कार्यार्थे पत्रलेखनं साधूनां कल्पते इति सिद्धम् । आचार्यः प्राह - हे शिष्य ! साधूनां कुत्रापि पन्नादिलेखनं न कल्पते शास्त्रे तस्य निषेधात् । पुनः शिष्यः पृच्छति - हे गुरो ! शास्त्रे तु मैथुनार्थमेव लेखनं प्रतिषिद्धं दृश्यते तदा कथमेवं भवान् कुत्रापि पत्रलेखनं निषेधयति ? | आचार्य प्राहशिष्य ! शास्त्रे मैथुनार्थ यो निषेधः कृतः तस्योपलक्षणत्वात् सामान्यस्यापि निषेधः सूचितः, साधूनां नवकोटेः प्रत्याख्यानात् पत्रादिलिखने नवकोटिविराधनस्यावश्यम्भावात् ॥सू० १३ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठंवा सोयंतं वा भल्लायएण उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा भल्लातकेन उत्पादयति उत्पादयन्तं वा स्वदते ॥सू० १४ ||
1
चूर्णी - 'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउरगामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'पोसतं वा' पोषान्तं वा सेवनाद यः पुष्यते पुष्टो भवति स पोषः, पोषयति मैथुनार्थिनं यः स पोषः मृगीपदं योनिरित्यर्थः, तस्य अन्तम् प्रान्तभागम् 'पिट्ठतं वा' पृष्ठान्तं वा पृष्ठस्य अपानद्वारस्य गुदाया इत्यर्थः अन्तम् भागं 'सोयंतं वा ' खोतोऽन्तं वा तत्र स्रोतः - छिद्र विशेषः स्त्रिया नाभिकर्णादिकं मैथुनेच्छया 'भल्लायएण' भल्लातकेनभल्लातकेति औषधिविशेषः तेन औषधिविशेषेण - औषधिविशेषलेपेन सौन्दर्य सौगन्ध्यादिकं 'उप्पाए' उत्पादयति - करोति ' उपाएंतं वा साइज्जइ' उत्पादयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० १४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गा मस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिटतं वा सोयंतं वा भल्लायरण उप्पाएता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवि. बडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा साइ ज्जइ ॥ सू० १५ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं at भक्लातकेन उत्पाद शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेद्वा प्रधा वेद्वा उच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू माउग्गमस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनबाछया 'पोसंतं वा' पोषान्तं वा 'पिहृतं वा' पृष्ठान्तं वा 'सोयंत बा' स्रोतोऽन्तं वा पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपम् 'भल्लायरण उप्पाए वा '
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१६६
निशीथसूत्रे
भल्लातकेन पोषकौषधिविशेषेण सौन्दर्यादिकमुत्पाद्य पुनस्तदपनयनार्थम् 'सीओदगविय'डेण वा' शीतोदकविकटेन वा, तत्र विकटेन व्यपगतजीवेना चित्तेनेत्यर्थः तथा च अचित्तशीतजलेन तथा 'उसिणोदगवियडेण वा उष्णोदकविकटेन वा अचित्तोष्णन लेनेत्यर्थः, 'उच्छोलेन्ज वा ' उच्छोलयेद्वा एकवारम् ‘पधोएज्ज वा' प्रधावेद्वा अनेकवारम् 'उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा साइज्जइ' उच्छोलयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १५ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मे हणवडियाए पोसंतं वा पितं वा सोयंत वा उच्छोलेत्ता पधोवेत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिं पेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६ ॥
छाया - यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं वा उच्छोल्य प्रधाव्य अन्यतरेण आलेपनजातेन आलेपयेद् वा विलेपयेद् वा आलेपयन्तं वा विलेपयन्तं वा स्वदते || सू० १६ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य, 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनेच्छया 'पोसंतं वा पितं वा सोयतं वा' पोषान्तं पृष्ठान्तं स्रोतोऽन्तं वा पूर्वोक्तस्वरूपं 'उच्छोलेत्ता' उच्छोल्य 'पधोवेत्ता' प्रधाव्य प्रक्षाल्य तदनन्तरं 'अन्नयरेणं आवणजाएणं' अन्यतरेण केनाप्येकेन आलेपनजातेन आलेपनविशेषेण 'आलिपेज वा ' आलेपयेत् एकवारम्, 'विलिपेज्ज वा' विलेपयेद् वा वारं वारम् । एवं 'आलिंपतं वा विलिपंत वा' आलेपयन्तं 'वा' विलेपयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति सू० १६॥
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठतं वा सोयंतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिपेत्ता विलिंपेत्ता तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगत वामक्र्खेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्त्रोतोऽन्तं वा उच्छोल्य प्रधाव्य आलिप्य विलिप्य तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्जयेत् वा प्रक्षयेत् वा अभ्यञ्जयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १७॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू माउम्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'पोसंतं वा' पोषान्तं वा 'पितं वा' पृष्ठान्तं वा 'सोयंत वा' स्रोतोऽन्तं वा 'उच्छोलेत्ता - पधोएत्ता उच्छोल्य प्रधान्य शीतोष्ण
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ०६सू०१८-२३
मातृप्रामप्रकरणम् १६७ जलेन एकवारमनेकवारं वा प्रक्षालनं कृत्वा तदनन्तरम् 'अलिंपेत्ता विलिपेत्ता' आलिप्य विलिप्य पूर्वोक्तोषधिरूपेण लेपनद्रव्येणैकवारमनेकवारं वा लेपयित्वा तदनन्तरं 'तेल्लेण वा' तैलेन वा 'घएण वा' घृतेन वा 'वसाए वा' वसया वा च/तिलोकप्रसिद्धया 'णवणीएण वा' नवनीतेन वा म्रक्षणेन 'मक्खन' इति प्रसिद्धेन 'अभंगेज्ज वा' अभ्यञ्जयेद्वा एकवारं वा अभ्यञ्जनं कुर्यात् 'मक्खेज्ज वा' म्रक्षयेद्वा प्रतिदिनमनेकबारं वा तैलादिना अभ्यङ्गं वा कुर्यात् 'अभंगेंतं वा मक्खंत वा साइज्जई' अभ्यञ्जयन्तं वा म्रक्षयन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणः स्त्रियाः योन्यादिक तैलादिना अभ्यञ्जयति मैथुनेच्छया तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभगानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादिदोषाश्चापि भवन्ति, यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् स्त्रीणामङ्गं श्रमणस्तैलादिना नाभ्यञ्जयेत् न वा तैलादिना अभ्यङ्ग कुर्वतः कथमपि अनुमोदनं कुर्यादिति ।।सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिटेतं वा सोयतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपेत्ता विलिंपेत्ता अभंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा धूतं वा पधूवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया पोषान्तं वा पृष्ठान्तं वा स्रोतोऽन्तं पा उच्छोल्य प्रधाव्य आलेप्य विलेप्य अभ्यज्य प्रायित्वा अन्यतरेण धूपनजातेन धूपयेद्वा प्रधूपयेहा धूपयन्तं पा प्रधूपयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'पोसतं वा' पोषान्तं वा 'पिटुतं वा' पृष्ठान्तं वा 'सोयतं वा' स्रोतोऽन्तं वा 'उच्छोलेत्ता पधोएचा' उच्छोल्य प्रधान्य एकवारमनेकवारं वा शीतोष्णजलेन प्रक्षालनं कृत्वा 'आलिपेत्ता विलिपेत्ता' आलेय विलेप्यएकवारमनेकवारं वा लेपनद्रव्येण विलेपनं कृत्वा तदनन्तरम् 'अन्भंगेत्ता मक्खेत्ता' अभ्यञ्ज्य प्रक्षयित्वा एकवारमनेकवारं वा तैलघृतवसानवनीतान्यतमेनाऽभ्यञ्जनं कृत्वा 'अन्नयरेण धूपणजाएणं' अन्यतरेण धूपनजातेन केनाप्येकेन सुगन्धिद्रव्यधूपेन 'धूवेज्ज वा' धूपयेद्वा एकवारं धूपितं कुर्यात् 'पधूवेज्ज वा' प्रधूपयेद्वा अनेकवारं धूपद्रव्यजातेन धूपयेत् , तथा 'धृतं वा पर्वत वा साइज्जइ'धूपयन्तं वा प्रधूपयन्तं वा स्वदते । यो हि मिक्षुः मैथुनसेवनेच्छया स्त्रिया अङ्गादिकं प्रक्षालनलेपनाभ्यञ्जनानन्तरं धूपनद्रव्येण एकवारमनेकवारं वा धूपयति सः, तं यो भिक्षुरनुमोदते सोऽपि च प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञामङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । यस्मादेते
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निशीथसून दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः स्त्रीणामङ्गादिकं न धूपयेत् न वा धूपयन्तमन्यं कथमप्थमुमोदयेत् किन्तु शास्त्रमर्यादामाश्रित्यैव सर्वदा तेन संयमाराधनाय प्रयत्नो विधेय इति ॥सू० १८॥ . सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कसिणाई वत्थाई घरेइ धरतं वा साइज्जइ॥ सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया कृत्स्नानि वस्त्राणि धरति-धरन्तं वा स्वदते ॥सू० १९॥
चूर्णी--'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'कसिणाई वत्थाई' कृत्स्नानि संपूर्णानि अखण्डितानि 'थान' 'ताका' इति प्रसिद्धानि वस्त्राणि 'धरेइ' धरति-अनागतकाले परिभोगार्थ 'कस्याश्चित् स्त्रिया दास्यामि' इति बुद्धया 'वा' पार्श्वे स्थापयति 'धरेंतं वा साइज्जइ' परन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १९।।
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अहयाई वत्थाई धरेइधरेतं वा साइज्जइ ॥सू०२०॥जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए धोवाई वत्थाइं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥सू०२१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए चित्ताई वत्थाई घरेइ धरतं वा साइज्जइ खू०२२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए विचित्ताई वत्थाई धरेइधरेतं वा साइज्जइ ॥सू० २३॥
छाया -- यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अहतानि वस्त्राणि धरति परम्तं पा स्वदते ॥सू० २०।। यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया धौतानि वस्त्राणि धरति घरन्तं वा स्वदते ॥सू० २१॥ यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया चित्राणि वस्त्राणि धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू० २२॥ यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया विचित्राणि वस्त्राणि धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू० २३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादीनि-अहतवस्त्रसूत्रादारभ्य विचित्रवस्त्रसूत्रपर्यन्तानि चत्वारि सूत्राणि सुगमानि । नवरम् अहतानि-तन्तूद्गतानि तन्तुवायादानीतानि ॥ सू०२०॥ धौतानि-रजकादिना उज्ज्वलीकृतानि ॥सू०२१॥ चित्राणि-एकतररङ्गरञ्जितानि ॥ सू०२२॥ विचित्राणिनानारङ्गरञ्जितानि ॥ सू०२३॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ६ सू० २४-२७
मातृप्रामप्रकरणम् १६९ सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्ज ॥सू० २४॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया आत्मनः पादौ आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रेमार्जयन्तं वा स्वदते ॥सू० २४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू माउग्गामस्स' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ चरणौ 'आमजेज्ज वा' आमार्जयेद्वा एकवारं वस्त्रादिना 'पमजेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा अनेकवारम् 'आमज्जंतं वां पमज्जंतं वा साइज्जइ' आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २४ ॥
सूत्रम्- एवं तइयउद्देसे जो गमो सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयन्वो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्जभाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू०२५॥
छाया-एवं तृतीयोद्देशके यो गमः स एव इहापि मैथुनप्रतिज्ञायां ज्ञातव्यः यावत् यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ग्रामानुप्रामं द्रवन् आत्मनः शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५॥
__ चूर्णी--'एवं तइयउद्देसए' इत्यादि । 'एवं तइयउद्देसए' एवं तृतीयोद्देशके 'जो गमो' यो गमः सूत्रप्रकारः 'सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयव्यो' स एव गमः इहापि षष्ठोद्देशके मैथुनप्रतिज्ञायामपि ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तम् ! इत्याह-'जाव' इत्यादि, इतः पादसंबाहनसूत्रादारभ्य शीर्षद्वारिकासूत्रपर्यन्तानि सूत्राणि तृतीयोदेशकोक्तसूत्रवद् अत्रापि मैथुनप्रतिज्ञया व्याख्येयानि । अत्राह भाष्यकारः
"पायप्पमज्जणाई, सीसदुवारांत जो गमो तइए ।
मेहुणवडियाए पुण, छठुइसंमि सो चेव ।। छाया-पादत्रमार्जनादि, शोर्षद्वारिकान्तं यो गमस्तृतीयोद्देशके ।
__ मैथनप्रतिज्ञया पुनः षष्ठोद्देशके स एव ॥ अवचूरिः-- 'पायप्पमज्जणाई' इत्यादि सुगमम् ॥ सू० २५ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पिं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा अन्नयरं वा पणीयं आहारं आहारेइ आहरंतं वा साइज्जइ ॥सू० २६॥
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१७०
विशीष
छाया - यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सपिं गुडं वा खण्डं वा शर्करां वा मत्स्यण्डिकां वा अन्यतरं प्रणीतमाहारमाहरति आदरतं वा स्वदते ॥सू० २६ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू माउग्गामस्ल' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य ‘मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'खीरं वा' क्षीरं वा दुग्धम् गवादीनां दुग्धम् 'दहिं वा' दधि वा 'णवणीयं वा' नवनीतं वा 'मक्खन ' इति लोकप्रसिद्धम् 'विवा' सर्पितं वा 'गुलं वा' गुडं वा 'खंड वा' खण्डं वा 'खांड' 'चीनी' इति लोकप्रसिद्धम् 'क्रं वा' शर्करां वा 'बूरा' इति प्रसिद्धाम् ' मच्छंडियं वा' मत्स्यण्डिकां वा मिसरीति लोकप्रसिद्धाम् ' अन्मयरं वा पणीयं' अन्यतरं वा प्रणीतम् सरसम् ' आहारं ' आहारम् 'आहरेइ' आहरति दुग्धादिविकृतीनां भोजनं करोति । अयं भावः - विवर्णः शरीरदुर्बलः श्रमणः दुग्धादीनां भोजनादुपचितशरीरः सुकुमारशरीरः कामिनीनां कमनीयः स्यामिति बुद्धया दुग्धाद्यन्यतमं विकृतीनां भोजनं करोति सः, तथा 'आहरेंतं वा साइज्जइ' आहरन्तं वा स्वदते अनुमोदते यः सोऽपि प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० २६ ||
सूत्रम् - तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ति ॥ सू० २७॥
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छाया- -
तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्वातिकमिति ॥२७॥ चूर्णी - 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः षष्ठोदेशकस्य 'जे भिक्खू माउमामा मेहुणवडियाए विष्णवेइ विष्णवेतं वा साइज्जइ' इति प्रथमसूत्रादारम्य 'जे भिक्खू मागास मेहुणवडियाए खीरं वा एतत्सूत्रपर्यन्तं कथितं प्रायश्चित्तस्थानं सर्व, तथा अन्यतममपि प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासि परिहारहाणं अणुस्वाइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तमापद्यते इति भावः । सू० २७॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ- प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित ललित कलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म - दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां “निशीथसूत्रस्य " चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां षष्ठोदेशकः समाप्तः ॥ ६॥
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॥ सप्तमोद्देशकः॥
(मातग्रामप्रकरणम् ) व्याख्यातः षष्ठोदेशकः, सांप्रतमवसरप्राप्तः सप्तमोद्देशको व्याख्यायते, अस्य सप्तमोदेशकीत्यादिसूत्रस्य षष्ठोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेद् अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-अंतो भूसणमाहारो, बाहिं भूसा उ मालिया ।
इणमो चेव संबंधो, छठेण सत्तमस्स उ ॥ छाया-अन्तर्भूषणमाहारो बाह्यभूषा तु मालिका ।
___अयमेव हि सम्बन्धः षष्ठेन सप्तमस्य तु ॥
अवचूरिः-'अंतो भूसणमाहारो' इत्यादि । 'आहारः' दुग्धदध्यादिविकृतिपदार्थानामाहारो अन्तर्भूषणम् । मालिका-पुष्पमालादिकं तु बाह्यभूषणं साधूनां प्रतिषिद्धम् , अयमेव सम्बन्धः षष्ठेन-षष्ठान्तिमसूत्रेण सह सप्तमोदेशकादिसूत्रस्य भवतीति । अयं भावः-षष्ठोदेशकस्योपान्त्य सूत्रे 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खोरं वा' इत्यादिविकृत्याहारस्य प्रतिषेधः कृतः, अत्र तु सप्तमोदेशकादिसूत्रे मालिकानां प्रतिषेधः क्रियते यतो मा भवतु साधोर्बाह्यभूषणम् इति बाह्याभ्यन्तरभूषणप्रतिषेधस्य समानत्वात् षष्ठोद्देशकानन्तरं सप्तमोद्देशकस्य निरूपणं क्रियते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति । तदनेन सम्बन्धेनायातस्य सप्तमोदेशकस्य प्रथमं सूत्रं प्रस्तूयते'जे भिक्खू' इत्यादि।
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पुष्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करेंतं का साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया तृणमाणिकां वा मुञ्जमालिकां वा वेत्रमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिका वा शङ्खमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा बीजमालिकां वा हरितमालिकां वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुर्निरवधभिक्षणशीलः श्रमणः 'माऊग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनवाञ्छया 'तणमालियं वा' तृणमालिकां वा वीरणादितृणजनित
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निशीथसूत्रे
१७२
मालां करोति, यथा मथुरायां करोति, करोतीत्यग्रिमेण क्रियापदेन सम्बन्धः, तथा 'मुंजमालियं वा' मुञ्जमालिकां मुंजस्य तन्नामक तृण विशेषस्य मालां करोति यथा द्विजानां व्रतबन्धने क्रियते, तथा 'वेत्तमालियं वा' वेत्रमालिकां वा वेत्रं लताविशेषः 'वेत्र' 'नेत्र' इति लोकप्रसिद्धम्, तस्य वेत्रस्य मालां कटककेयूरादिरूपां करोति तथा 'मयणमालियं वा' मदनमालिकां वा, तत्र मदनं पुष्पविशेषः, तस्य मालां करोति तथा ‘पिंछमालियं वा' पिच्छमालिकां वा व्रणादिपीडा निवारणार्थं मयूरादिपिच्छैर्मालां करोति 'दंतमालियं वा' दन्दमालिकां वा - बालस्य दृष्टिदोषनिवारणार्थं हस्त्यादिदन्तानां मालां करोति तथा 'सिंगमालियं वा' शृङ्गमालिकां वा - महिण्यादिशृङ्गेण मालां करोति यथा पारसीयजातिविशेषे 'संखमालियं वा शङ्खमालिकां वा - बालस्य गले धारणार्थे शङ्खस्य मालां करोति 'हडमालियं वा' अस्थिमालिकां वा गजादिजीवानाम् 'जरख' इति प्रसिद्ध चतुष्पदपशुविशेषस्य वा अस्नां मालां करोति 'कट्टमालियं वा' काष्ठमालिकां वा, तत्र काष्ठस्य तुलस्यादिकाष्ठस्य मालां करोति 'पत्तमालियं वा' पत्रमालिकां वा पत्राणां तगरादि सुगन्धितपत्राणां मालां करोति 'पुप्फमालियं वा' पुष्पमालिकां वा, तत्र पुष्पाणां चंपकादिवृक्षसमुद्भूतानां मालां करोति, 'फलमालियं वा' फलमालिकां तत्र फलानां गुञ्जादिफलानां मालां करोति 'बीयमालियं वा ' बीज मालिकां वा, तत्र बीजानां रुद्राक्षादीनां मालां संपादयति 'हरियमालियं वा' हरितमालिकां वा, तत्र - हरितकायानां पाण्डुप्रभृतिरोगशमनाय ' दूर्वा पुनर्नवादीनां माला 'करेइ' करोति स्वयं करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते तृणमालिकादिकं यः स्वयं करोति परद्वारा वा कारयति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति, यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणो मातृग्रामस्य मैथुन सेवनेच्छया स्वपरशरीरशोभार्थं दृष्टिदोषरोगादिनिवारणार्थं वाऽन्यार्थे तृणादिमालां न स्वयं कुर्यात् न परद्वारा कारयेत् न वा कुर्वन्तमन्यमनुमोदयेदिति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा धरे इ धरें वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्थ मैथुनप्रतिज्ञया तृणमालिकां वा मुन्जमालिकां वा वेत्रमालिकां वा मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिकां वा शङ्ख
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० ७ सू० २-५
मातृग्राम प्रकरणम् १७३
मालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकों वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा बीजमालिकां वा हरितमालिकां वा धरति धरन्तं वा स्वदते || २ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । पूर्वोक्ता माला ः 'धरेई' धरति - पार्श्वे स्थापयति, घरन्तं वा स्वदते इति । शेषं पूर्ववत् ॥ सू० २||
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सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुष्पमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा पिणs पिणर्द्धतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया तृणमालिकां वा मुञ्जमालिकां वा वेत्र मालिकां वा मदनमालिकों वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिक वा शङ्खमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा बीजमालिकां वा हरितमालिकां वा पिनह्यति पिनान्तं वा स्वदते || ३ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुः तृणादीनां मालां पूर्वोक्तवस्तुजातनिर्मितां मालां 'पिणद्धेइ' पिनह्यति - कण्ठे धारयति पिनह्यन्तं वा स्वदते अनुमोदते । आभिर्मालाभिर्मदीयं शरीरमलंकृतं सुन्दरं भवतु, अलंकृतेन सुन्दरेण शरीरेणाहं कामिनीनां प्रियो भविष्यामि तेन सा मम मैथुनेच्छां पूरयिष्यतीति बुद्धया तृणादिमालाः यः कश्चिद्विक्षुः स्वयं कण्ठे घारयति धारयन्तं चान्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, आज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्राप्नोतीति ॥ सू० ३ ॥
भाष्यम् —-तणमाइमालियाणं करणं धरणं च मे हुणिच्छाए । कुज्जा अप्पपरट्ठा, आणाभंगाइ पावे ||
छाया -तृणादिमालिकानां करणं धरणं च मैथुनेच्छया । कुर्यात् आत्मपरार्थ, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः – 'तणमाइ ' इत्यादि । यो भिक्षुः 'मेहुणवडियाए' 'मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनेच्छया तृणादिमालिकानां करणं संपादनं धरणं स्वशरीरे धारणं च कुर्यात् स आज्ञा भङ्गादिदोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति । अयं भावः1 :- तृणादिमालाकरणे धारणे माझ्या शरीरविभूषा करणे च स्वस्य परस्य मोहोदयो जायते, तथा तृणादिमालाकरणे तद्धारणकरणे च सूत्रार्थपठनपाठनसमयस्य व्यर्थनिर्गमनेन सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति, तीर्थकरैर नाज्ञप्तं
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१७४
निशीथ
च । द्रव्यलोलुपैश्चारैः कदाचिद् गृहीतो भवति, मालादि दृष्ट्वा असाधुस्यमिति कृत्वा कोट्टपालादिभिः गृहीतो राजदण्डभाग्भवति कस्मैचिद वितरणे कस्मैचिद् अदाने च कदाचित् अधिकरणमपि स्यात्, तथा लोके निन्दापि स्यात्, लोका एवं वदिष्यन्ति यत् अहो आश्चर्यमेतत् यत् जैनसाधवो निवृत्तभावसम्पन्ना अपि मालां कुर्वन्ति धारयन्ति च । केचन एवं बदिष्यन्ति यत् - एते आत्मानं निवृत्तरागद्वेषं मन्यमाना अपि मालां कुर्वन्ति धारयन्ति चेत्यादिरूपेण क्रमपरम्परया शासनस्य लोकेऽवहेलना स्यात् अतस्तृणमालादीनां करणं धारणं तदनुमोदनं च न कर्तव्यमिति भावः | ३ ||
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्टमालियं वा पत्तमालिय वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा परिभुंजइ परिभुजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया तृणमालिकां वा मुञ्जमालिकां वा areroni at मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिकां वा शङ्खमालिकां वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमालिकां वा बीमालिकां हरितमालिकां वा परिभुके परिभुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ४ || चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । तृणादिमालिकानां परिभोगं करोति - नानाप्रकारेण तासां स्वकार्यनिमित्तं परिभोगं करोतीति भावः ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउलोहाणि वा सीसगलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ || सू० ५ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अयोलोहान् वा ताम्रलोहान् वा पुलोद्दान् वा सीसकलोहान् वा रूप्यलोहान् वा सुवर्णलोहान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ ०५ ॥
चूर्णी – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउम्गामस्स' मातृग्रामस्य ‘मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अयलोहाणि वा' अयोलोहान् वा 'लोहाणी' - यत्र लोहशब्दो देशीयः, तदर्थस्तु आकारविशेषस्तान् तथा च अयसो लोहस्य आकारविशेषान् वा तथा 'तंबलोहाणि वा' ताम्रलोहान् वा ताम्रस्य धातुविशेषस्य आकारविशेषान् 'तउयलोहाणि वा '
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चूर्णिधान्यावचूरिः उ०७ सु०६-११
मातृग्रामप्रकरणम् १७५
त्रपुलोहान् वा त्रपु 'जसद' इति लोकप्रसिद्धम् तस्याकारविशेषान् 'सीसगलोहाणि वा' सीसकलोहान् वा, तत्र सीसकं धातुविशेषः 'सीसा' इति प्रसिद्धः तस्य आकारविशेषान् 'रुप्प - लोहाणि वा' रूप्यलोहान वा, तत्र रूप्यं रजतं, तस्य आकारविशेषान् 'सुवण्णलोहाणि वा सुवर्णलोहान् वा सुवर्णस्य आकारविशेषान् वा 'करेइ' करोति मातृग्रामस्य मैथुनसेक्मेच्छया लौहादिधातूनामाकारविशेषान् करोति तथा ' करेंतं वा साइज्जइ' लौहादीनामाकारविशेषान् कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, लोहादिधातुभिराकारविशेषकरणे अग्न्यारम्भोऽनिवार्यो भवति, तथा तत्र धमनं फूत्करणमप्यावश्यकं तेन षट्कायोपमर्दनं भवति, ततः संयमविराधना, वनशरीरादिदहने आत्मविराधना चावश्यम्भाविनी ततो भिक्षुर्लोहादिधातूनामाकारविशेषं न स्वयं कुर्यात् नापि कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत इति भावः ||सू० ५ || एवं 'घरेइ' 'परिभुंजइ' इति सूत्रद्वयमपि व्याख्येयम् ॥ सू० ६-७।।
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा गावलीं वा मुक्तावलीं वा कणगावलीं वा स्यणावलीं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ||सू०८||
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया हारान् वा अर्द्धहारान् वा बकावली घा मुक्तावलीं वा कनकावलीं वा रत्नावली वा कटकान् वा त्रुटिकानि वा केयूराणि वा कुंडलानि वा पट्टानि वा मुकुटानि वा प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णसूत्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ||८||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य ‘मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया 'हाराणि वा' हारान् वा तत्र हारा भ्रष्टादशसरिकाः, तान् 'अद्धहाराणि वा' अर्द्धहारान् वा, तत्रार्द्धहाराः नवसरिकाः, तान् 'एमावलीं ar' एकावली वा एकसरिका माला मित्यर्थः ' कणगावली वा' कनकावलीं वा कनकस्य सुवर्णस्यावली माला इति ताम् 'मुत्ताबलीं वा' मुक्तावलीं वा, तत्र मुक्ता गजादिमुक्ताः, तासाम् आवलीमाला ताम् 'रयणावळी बा' रत्नावलीं वा, तत्र रत्नानां कर्केतनादीनामावली माला ताम् 'कडगाणि वा' कटकान् वा, तत्र कटकाः 'कडा' इतिलोकप्रसिद्धाः, तान् कटकान् 'तुडियाणि वा त्रुटिकानि वा - हस्ताभरणविशेषान् वा 'केऊराणि वा' केयूराणि वा 'भुजबंध' इतिलोकप्रसिद्धानि 'कुडलाणि वा' कुण्डलानि वा, तत्र कुण्डलानि कर्णाभरणानि तानि 'पट्टाणिवा' पट्टानि वा, तत्र पट्टानि चतुरङ्गुलसुवर्णपट्टानि तानि ‘मउडाणि वा' मुकुटानि वा शिरोभूषणानि 'पलंवसुत्ताणि वा'
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निशीथसूत्रे
प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णनिर्मितानि लम्बायमानानि सूत्राणि तानि 'सुवण्णसुत्ताणि वा' सुवर्णसूत्राणि वा-सुवर्णस्य सूत्रविशेषलक्षणानि 'करेई' करोति, एतानि हारादिकानि मातृप्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया स्वयं संपादयति परद्वारा कारयति वा तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते ॥ सू० ८॥
एवं पूर्वोक्तवस्तुविषये ‘धरेह' 'परिजइ' इति सूत्रद्वयमपि पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥सू०९-१०॥
मूलम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा आईणपाउराणि वा कंवलाणि वा कंबलपाउराणि वा कोयराणि वा कोयरपाउराणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा णील-मियाणि वा सामाणिवा महासामाणि वा उट्टाणि वा उट्टलेस्साणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा पलवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पडलाणि वा चीणाणि वा अंसुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगचित्ताणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणाणि वा आभरणचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिशया आजिनानि वा आजिनप्रावरणानि वा कंबलान् वा कम्बलप्रावरणानि वा कोयराणिवा कोयरप्रावरणानि गौरमृगाणि वा कालमृगाणि वा नीलमृगाणि वा श्यामानि वा महाश्यामानि वा उष्ट्राणि वा उष्ट्रलेश्यानि वा व्याघ्राणि वा विव्याघ्राणि वा प्लवङ्गानि वा श्लक्ष्णानि वा श्लक्ष्णकल्यानि वा क्षौमाणि वा दुक्लानि वा तिरीटपट्टानि वा प्रतुलानि वा पटलानि वा चीनानि वा अंशुकानि वा कनककान्तानि वा कनकखचितानि वा कनकचित्राणि वा कनकविचित्राणि वा आभरणानि बा आभरणचित्राणि वा आभरणविचित्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छ्या 'आईणाणि वा' आजिनानि वा-मृगचर्मवस्त्राणि 'आईणपाउराणि वा' आजिनप्रावरणाणि वा, तत्राजिनं मृगचर्म तस्य प्रावरणाणिआच्छादनानि यः करोतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'कंबलाणि वा' कम्बलान् , तत्र कम्बला ऊर्णादिनिर्मितास्तान् 'कंबलपाउराणि वा' कम्बलप्रावरणानि वा, तत्र कम्बलस्य प्रावरणानि आच्छादनानि तानि यः करोति तथा 'कोयराणि वा' कोयराणि वा, तत्र कोयराणि कोयरदेशनिष्पन्ना वनविशेषाः
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धूर्णिमायावचूरिः उ०७ सू० ११-६७
मातृप्राप्रकरणम् १७७
तानि यः करोति 'कोयरपाउराणि वा' कोयरप्रावरणानि वा कोयरस्य वस्त्रविशेषस्य यानि प्रावरणानि आच्छादनानि करोति 'गोरमियाणि वा' गौरमृगाणि वा श्वतमृगचर्माणि तच्चर्म - निर्मितवस्त्राणीत्यर्थः 'कालमियाणि वा' कालमृगाणि वा कालमृगचर्माणि तत्र कालमृगः - कृष्ण - मृगः तस्य यानि चर्माणि तेषां वस्त्राणि यः करोति 'णीलमियाणि वा' नीलमृगाणि वा-नीलमृगचर्माणि 'सामाणि वा' श्यामानि वा - श्याममृगचर्माणि 'महासामाणि वा' महाश्यामानि वाअतिशयितश्याममृगचर्माणि 'उद्याणि वा' उष्ट्राणि वा उष्ट्रस्य यानि चर्माणि तानि वस्त्ररूपाणि यः करोति 'उट्टलेस्साणि वा' उष्ट्रलेश्यानि वा उष्ट्रचर्मणः प्रावरणानि, 'वाग्घाणि वा ' व्याघ्राणि वा व्याघ्रसम्बन्धिचर्मवस्त्राणीत्यर्थः, 'विवग्घाणि वा' किव्याघ्राणि वा विव्याघ्रः 'चित्ता' इति प्रसिद्धः, तत्सम्बन्धिचर्माणि चर्मवस्त्राणि 'पलवंगाणि वा' प्लवङ्गानि वा तत्र प्लवङ्ग :- वानरः तस्य चर्माणि 'सहिणाणि वा' सहिनानि वा श्लक्ष्णानि तत्र सहिनानि श्लक्ष्णानि श्लक्ष्णवस्त्राणि यः करोति 'सणिकल्लाणि वा' सहिनकल्यानि तत्र सहिनानि श्लक्ष्णानि कल्लानि स्निग्धानि कोमलानि कोमलत्वलक्षणयुक्तानि वा वस्त्राणि करोति 'दुगुल्लाणि वा' दुकूलानि वा, तत्र दुकूलानि कार्पासिकानि वस्त्राणि 'पडलाणि वा' पटलानि वा 'चीणाणि वा' चीनानि वा चीन देशोद्भवानि वस्त्राणि 'अंसुयाणि वा' अंशुकानि वा कीटजवस्त्राणि 'रेशम' इति प्रसिद्धवस्तुवस्त्राणि वा 'कणगकताणि वा' कनककान्तानि वा, तत्र कनकं सुवर्णं तत्सदृशकान्तियुक्तानि वस्त्राणि 'कणगखचियाणि वा' कनकस्वचितानि वा - कनकजटितानि वस्त्राणि 'कणगचित्ताणि वा' कनकचित्राणि वा कनकेन सुवर्णेन चित्रितानि वस्त्राणि 'कणगविचित्ताणि वा' कनकविचित्राणि कनकेन विचित्रप्रकारकाणि वस्त्राणि 'आभरणाणि वा' - आभरणानि अलंकारयुक्त वस्त्राणि 'आभरणचित्ताणिवा' आभरणैरलंकारैश्चित्रितानि 'आभरणविचित्ताणि वा' आभरणविचित्राणि वा विचित्रप्रकारकाभरणैर्मेण्डिताति वस्त्राणि, एतादृशानि उपर्युक्तानि चर्मादीनां वस्त्राणि यो भिक्षुमैथुनसेवनेच्छया 'करेइ' करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
एवम् पूर्वसूत्रोक्तवस्त्रविषये 'धरेइ' 'परिभुंजइ' इति सूत्रद्वयमपि बोध्यम् ||१२|| सू० १३ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए इत्थि अक्खसि वा उरंसि वा उयंरंसि वा थणंसि वा गहाय संचालेइ संचालेंतं वा साइज्जइ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्त्रियम् अक्षे वा उरसि वा उदरे वा स्तने वा गृहीत्वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउरगामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथनप्रतिज्ञया - मैथुनबाञ्छया 'इत्थि' स्त्रियम् 'अक्खसि वा' अक्षे
२३
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१७८
निशीथसूत्रे
कस्मिंश्चिदिन्द्रियप्रदेशे वा 'उरसि वा' उरसि वा हृदयप्रदेशे 'उयरंसि वा' - उदरे वा कुक्षिप्रदेशे 'थणंसि' वा' स्तने वा उपलक्षणात् हस्तादिके वा 'गहाय' गृहीत्वा - स्त्रियोऽक्षादिकं गृहीत्वेत्यर्थः 'संचालेइ' संचालयति इतस्ततः चालयति 'संचालेंत वा साइज्जइ' संचालयन्तं वा स्वदते । यो हि भिक्षुमैथुनसेवनेच्छया स्त्रीणामक्षादिकं गृहीत्वा चालयति चालयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १४ ॥
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-
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ।
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य पादौ आमार्जयेद्वा प्रमाजयेद्वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ।। सू० १५ ।।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परम् स्त्री साघोः, साधुश्च स्त्रियाः 'पाए' पादौ चरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेत् वा एकवारम् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा अनेकवारम् 'आमज्जतं वा' आमार्जयन्तं वा 'पमज्जंतं वा' प्रमार्जयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुर्मैथुन सेवनेच्छया परस्परं चरणौ प्रमार्जयेत् प्रमार्जयन्तं वा वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १५ ॥
सूत्रम् - - एवं तइयउदेसे जो गमो सो णेयव्वो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६-६७ ॥
छाया - एवं तृतीयोदेशके यो गमः स ज्ञातव्यो यावत् यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ग्रामानुग्रामं द्रवन् अन्योन्यस्य शीर्षद्वारिकां करोति कुवन्तं वा स्वद इत्यादि ॥ सू० १६-६७ ॥
चूर्णी - ' एवं तइय' इत्यादि । एवं तइयउद्दे से गमो' एवं तृतीयोदेशके यो गमः आापकः सः अत्रापि मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया परस्परं पादयोरामर्जनादिसूत्रेषु 'णेयब्वो' ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जान' इत्यादि । 'जाव' यावत् यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया 'अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा' इत्यादि सूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्माणो अण्णमण्णस्स सोस दुबारियं करेइ' एतत्सूत्रपर्यन्तं स गमो ज्ञातव्य इति भावः । सू० १६ - ६७॥
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पूर्णिमा यावद्रिः उ.७ सू. ६८-७६
मातृप्रामप्रकरणम् १७९ सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अणंतरहियाए पुढवीए णिसीयावेज्ज वा तुयद्यावेज्ज वा णिसीयाबेंतं वा तुयट्टावेतं वा साइज्जइ ॥सू० ६८॥
छाया-यो भिक्षुर्मातग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अनन्तरहितायां पृथियां निषीदयेत् वा त्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्थदते ॥सू०६८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया 'अणंतरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् तत्र अनन्तरहितायां शीतवातादिशस्त्रैरनुपहतायां सचित्तायाम् , पृथिव्याम् तथा चैतादृशसचित्तभूमौ यो भिक्षुभैथुनसेवनेच्छया अत्र 'स्त्रियं' इति गम्यते ततः स्त्रियमित्यर्थः 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेद्वा उपवेशयेत् 'तुयद्यावेज्ज वा' त्वरवर्तयेद्वा-पार्श्वपरिवर्तनं कारयेत् स्वापयेद् वा इत्यर्थः तथा 'णिसीयावेतं वा' निषीदयन्तं वा उपवेशनं कारयन्तम् 'तुयटावेत वा' त्वग्वर्तयन्तं वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयन्तम् 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू०६८॥
एवं पूर्वोक्तसूत्रक्रमेण यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनेच्छया स्त्रियं 'ससणिद्धाए पुढवीए' सस्निग्धायां-सचित्तजलेन ईषदार्द्रायां पृथिव्याम् ॥सू० ६९॥ 'ससरक्खाए पुढवीए' सरजस्कायां सचित्तरजोऽवगुण्ठितायां पृथिव्याम् ॥सू० ७०॥ 'मट्टियाकडाए पुढवीए' मृत्तिकाकृतायां सचित्त मृत्तिकानिर्मितायां पृथिव्याम् ॥सू० ७१॥ 'चित्तमंतार पुढवीए' चित्तवत्यां स्वभावतः-सचित्तायां खनिरूपायां पृथिव्याम् ॥सू० ७२॥ 'चित्तमंताए सिलाए' चित्तवत्यां सचित्तायां खनितः सद्यो निष्कासितायां शिलायाम् ॥सू० ७३॥ 'चित्तमंताए लेलुए' चित्तवति सचित्ते लेलुके-लोष्टरूपे पृथिवीखण्डे, एतेषु पूर्वप्रदर्शितेषु स्थानेषु स्त्रियम्, 'निसीयावेज्ज वा निषीदयेत् वा उपवेशयेत् 'तयट्टावेज्ज वा' त्वम्वर्तयेत् वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयेत् शाययेत् वा तत्र शयनं कारयेद्वा, एवं कारयन्तमन्य वाऽनुमोदयेत् स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कोलावासंसि वा दारुए वा जावपइट्ठिए, संअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्काडासंताणगंसि णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेतं वा तुयट्टा वा साइज्जइ ॥ सू०७५ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्थ मैथुनप्रतिज्ञा कोलावासे वा दारुके वा जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणे सबीजे सहरिते सावश्याये सोदके सोत्तिङ्गपनकद कमृत्तिकामर्कटसन्तानके निषीदयेत् वा त्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा त्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते ।सू० ७५।।
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१८०
निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउरगास्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनवाञ्छया 'कोलावासंसि वा' कोलावासे वा, तत्र कोला:घुणाः काष्ठगताः काष्ठक्षतिकारका जीवविशेषाः 'घुण' इति लोकप्रसिद्धाः तेषां कोलानां य आवासः • स्थानं तत्र वा 'दारुए वा जीवपइट्ठिए' दारुके वा जीवप्रतिष्ठिते यस्मिन् काष्ठे जीवा विद्यमाना भवेयुः तादृशमत्कुणादि जीव विशिष्टपीठफलकादिके 'सअंडे' साण्डे पिपोलकाचण्डसहिते स्थाने काष्ठे वा 'सपाणे' सप्राणे क्षुद्रट्टीन्द्रियादिप्राणियुक्तस्थाने 'सबीए' सबीजे शाल्यादिसचित्तबीजयुक्तस्थाने 'सहरिए' सहरि हरितकायसहितस्थाने 'सओ से' सावश्याये. सूक्ष्महिमकणसहितस्थाने 'सउलिंग' सउत्तिङ्गे, उत्तिङ्गकाः - भूमौ वर्तुलविवरकारिणो गर्दभमुखाकृतयः कीटविशेषाः, यद्वा कीटिकानगरादयः, तैः सहिते स्थाने 'पणग' पनकः - अङ्करितो अनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकाय विशेषः 'फुलण' इति भाषाप्रसिद्धः 'दगमट्टिय' उदकमृत्तिका सजलपृथिवीकायः 'मक्कडासंताणगंसि' मर्कटसन्तानकः ऌताजालम्, तस्मिन्, एतेषु प्र्वोक्तघुणादियुक्तस्थानेषु यः श्रमणः स्त्रियं 'णिसीया वेज्ज वा' निषीदयेत् - उपवेशनं कारयेत्, 'तुयट्टा वेज्ज वा' त्वध्वर्तयेद्वा पार्श्वपरिवर्तनं कारयेसू तथा 'निसीयावेंतं वा' निषीदयन्तम् उपवेशयन्तं वा 'तुयट्टावेंतं वा' त्वग्वर्तयन्तं वा शाययन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुमातृग्रामस्य मैथुनेच्छया सूत्रोक्तस्थानेषु स्त्रियमुपवेशयति शाययति 1 'वा, उपवेशयन्तं शाययन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ||सू०७५ ||
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सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मे हुणवडियाए आगंतागा रेसु वा आरामागारे वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा णिसीयावेज्ज वा तुयट्टा वेज्ज वा णिसीयावेतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा परिवाजकावसथेषु वा निषीदयेद्वा स्वग्वर्तयेद्वा निषीदयन्तं वा स्वग्वर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७६ ॥
I
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा आगन्तॄणाम् आगन्तुकानां गमनागमनसमये विश्रामार्थकारितेषु गृहेषु धर्मशालेतिप्रसिद्धेषु वा 'आरामागारे वा' आरामागारेषु वा क्रीडाकरणाय उपवनगृहेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापति कुलेषु वा - गृहस्थगृहेषु 'परियावसहेषु वा' परित्राजकावसथेषु वा तापसनिवासस्थानेषु 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेत् वा उववेशयेत् 'तुयद्वावेज्ज वा' त्वग्वर्तयेद्वा शाययेत् 'पिसी यात्रेते वा निषीदयन्तं वा 'तुयट्टावेंतं वा' त्वग्वर्तयन्तं वा शयनं कारयन्तम् 'साइज्जइ'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०७७-७९
मातृप्रामप्रकरणम् १८१ स्वदते । यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया आगन्त्रागारादिषु स्वयमुपविशति स्त्रियं वा उपवेशयति तथा स्वयं शेते स्त्रियं वा शाययति च तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥ सू० ७६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा निसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं अणुग्घासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासंतं वा अणुपाएंतं वा साइज्जइ॥ सू० ७७ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा परिव्राजकावसथेषु वा निषध वा त्वग्वर्तयित्वा पा अशनं वा पानं वा खाधं वा स्वाय वा अनुग्रासयेत् वा अनुपाययेत् वा अनुग्रासयन्त वा अनुपाययन्तं वा स्वदते ॥ सू०७७॥
चूर्थी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवटियाए' मैंथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु वा यत्रागन्तुका गमनागमनसमये विश्राम्यति तादृशं गृहमागन्तुकागारः धर्मशालेतिलोकप्रविद्धः, तेषु 'आरामागारेसु वा' आरामागारेषु वा क्रीडामागतपुरुषविश्रामार्थोपवनस्थितगृहेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु वा गृहस्थगृहेषु परियावसहेसु वा' परिव्राजकावसथेषु वा तापसानामाश्रमेषु, भिक्षुरेतादृशस्थानेषु स्त्रियम् 'णिसीयावेत्ता' निषद्य-उपवेश्य 'तुयट्टावेत्ता वा' त्वग्वर्तयित्वा वा 'असणं वा' अशनं वा ‘पानं वा' पानं वा 'खाइमं वा' स्वाद्य वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'अणुग्घासेज्ज वा' अनुग्रासयेद्वा-अनु-पश्चात् स्वग्रासग्रहणानन्तरं स्त्रियं प्रासयेत् तन्मुखे प्रासं दद्यात् 'अणुपाएज्ज वा' अनुपाययेद्वा स्वयं जलादिकं पीत्वा तदन्तरं स्त्रियं पाययेत् 'अणुग्यासंतं वा' अनुप्रासयन्तं वा स्वग्रासानन्तरं ग्रासं ददतं वा 'अणुपाएतं वा' अनुपाययन्तं वा स्वपानानन्तरं पाययन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यो भिक्षुरागन्त्रादिगृहेषु मैथुननेच्छया स्त्रियमुपवेद्य शाययित्वा वा स्वयमशनादिकं भुक्त्वा पानीयं वा पीत्वा भोजयन्तं वा पाययन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥सू० ७७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंकसि वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा निसीयावेतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७८॥
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१८५
निशीयसूत्रे छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्थ मैथुन प्रतिक्षया अङ्के वा पर्यक्रे षा निषीदयेत् वा सम्पर्तपेत् वा निषोदयन्तं वा त्ववर्तयन्तं वा स्वदते ॥ सू.७८॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख्' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः ‘माउग्गामस्स' मातृनामस्य 'मेहुणपडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अंकंसि वा' अङ्के वा-स्वकीयोत्सने 'पलियकसि वा' पर्यके वा, तत्र पर्यङ्कः 'मंच' 'पलंग' इति भाषाप्रसिद्धः, तदुपरि 'णिसीयावेज्ज वा' निषीदयेत् वा उपवेशयेत् 'तुयट्टावेज्ज वा' त्वग्वर्तयेत् वा-शयनं कारयेत् 'गिसीयावेत बा' निषीदयन्तं वा उपवेशयन्तं वा 'तुयट्टावेंतं वा त्वग्वर्तयन्तं वा शाययन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदले अनुमोदते । यो भिक्ष मथुनसेवनेच्छया स्त्रियं स्वाङ्के पर्यङ्के वा उपवेशयति वा शाययति वा तथा स्वाके उपवेशयन्तं वा शाययन्तं वा श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।।सू० ७९ ॥
मूत्रम्--जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्घासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासंतं वा अणुपाएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७१ ॥
छाया-यो मिक्षुर्मानुग्रामस्य मैथुनपतित्रया अङ्क वा पर्यके वा निपट वग्य तयित्वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाय वा अनुप्रासयेदा अनुपाययेद्वा अनुग्रासयन्तं वा अनुपाययन्तं वा स्वदते ॥सू० ७९॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अंकसि वा' अक्के वा 'पलियंकसि पा' पर्यके वा 'णिसीयावेत्ता वा' निषध 'तुयट्ठावेत्ता वा' त्वावर्तयित्वा का अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं का 'अणुग्घासेज्ज वा' अनुप्रासयेद्वा 'अणुपाएज्ज वा' अनुपाययेद् वा 'अणुग्यासंत ग' अनुग्रासयन्तं वा 'अणुपाएंतं वा' अनुपाययन्तं वा अन्यम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषा भवन्ति ।। सू० ७९ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णतरं तेइच्छं आउट्टइ आउटॅतं वा साइज्जइ ॥ सू०८०॥
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निमाचावरिः उ०७ सू ८०-८४ रजोहरणस्यानुचितबन्धनिषेधः १८५
छाया-यो भिक्षुर्मात्प्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अन्यतमां चिकित्सा मावर्तयति आवत्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ८०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाच्या 'अण्णतरं तेइछ अन्यसमा चिकित्सां, तत्रान्यतमा नाम-चतुर्विधासु चिकित्सासु एकां काञ्चित् चिकित्साम् , ताश्चतस्रो यथावातिकी १, पैत्तिकी २, श्लैष्मिको ३, सांनिपतिकी ४, तासु एकां काञ्चित् चिकित्सां रोगोपचाररूपाम् ‘आउटइ' आवर्त्तयति कारयति 'आउटुंतं वा साइज्जई' आवर्तयन्तं कारयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुन्नाइं पोग्गलाई नीहरेइ नीहरेतं वा साइज्जइ ॥ सू०८१॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अमनोशान् पुद्गलान् निर्हरति निरन्तं वा स्वदते ॥सू० ८१॥ __ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया -मैथुनवाञ्छया 'अमणुन्नाई पोम्गलाई' अमनोज्ञान् पुद्गलान् शरीरस्थान् अशुचिदुर्गन्धिपुद्गलान् ‘नीहरेइ' निर्हरति-निष्कासयति 'नीहरतं वा साइज्जइ' निर्हरन्तं वा शरीरादिभ्योऽमनोज्ञपुद्गलान् निष्कासयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८१ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणुन्नाई पोग्गलाई उवकिरइ उवकिरंतं वा साइज्जइ ।। सू० ८२ ॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया मनोमान पुनलान् उपकिरति उपकिरन्तं वा स्वदते ॥सू० ८२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'माउम्गामस्स' मातृग्रामस्य 'बेहुलवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'मणुन्नाई पोग्गलाई मनोज्ञान पुद्गलान् मनस आल्हादजनकान् शरीरोपचयकारकान् वा पुद्गलान् शरीरे 'उवकिरई' उपकिरति प्रक्षिपति, अयं भावः-स्वशरीरे श्रीशरीरे वा स्वकीयवस्त्रे स्त्रीवस्त्रे वा स्ववसतौ श्रीवसतौं वा मनोहराणि चन्दनादिसुगन्धिद्रव्याणि प्रक्षिपति येन शरीरादिकं सुगन्धियुक्तं भवति, तथा 'उवकिरंतं वा' उपकिरन्तमन्यं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८२ ।।
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नशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा पायंसि वा पक्वंसि वा पुच्छंसि वा सीसंसि वा गहाय संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ ।। सू०८३॥
छाया- यो भिक्षुर्मातनामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्यतरं पशुजातं वा पक्षिजातं वा पादे वा पक्षे वा पुच्छे वा शीर्षे वा गृहीत्वा संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृप्रामस्य 'मेहणवडियाए' मैथनप्रतिज्ञया-मैथनवाञ्छया 'अन्नयरं' अन्यतरं अनेकेषु मध्यात् यं कमप्येकम् ‘पसुजायं वा' पशुजात्तं वा गोमहिषादिकम् 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा मयूरादिकम् 'पायंसि वा' पादे वा-पशुपक्ष्यादीनां चरणे वा 'पक्खंसि वा' पक्षे वा-'पुच्छंसि वा' पुच्छे वा 'सीसंसि वा' शिरसि वा 'गहाय' गृहीत्वा 'संचालेइ' संचालयति परिभ्रामयति 'संचालतं वा साइज्जई' संचालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । स्त्रिया मनोविनोदार्थमेवं करोतीति तात्पर्यम् । स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा सोयंसि कळं वा किलिंचं वा अंगुलियं वा सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८४॥
छाया-यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया पशुजातं वा पक्षिजातं वा स्रोतसिकाष्ठं वा किलिंचं वा अङ्गुलिका वा शलाकां वा अनुप्रवेश्य संचालयति संचालयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८॥
__ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथनप्रतिज्ञया-मैथनवाञ्छ्या 'अन्नयरं पमुजायं वा' अन्यतरं पशुजातं वा 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा मयूरहंसादिकम् 'सोयंसि' स्रोतसि छिद्रे गुप्ताङ्गे 'कर्ट वा' काष्ठं वा-काष्ठखण्डम् 'किलिंचं वा' किलिंचं वा, तत्र किलिंचो वंशकर्परी तम् अंगुलियं वा' अङ्गुलिकां वा 'सलागं वा' शलाकां वा-लौहादिशलाकाम् 'अणुप्पवेसित्ता' अनुप्रवेश्य 'संचा. लेई' संचालयति 'संचालत वा साइज्जई' संचालयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८४ ॥
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भूमिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०८५-९०
मातृग्रामप्रकरणम् २८५
सूत्रम् — जे भिक्खू माङम्मामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा 'अयमित्थि-चि कट्टु आलिंगेज्ज वा परिस्सएज्ज का परिचुंबेज्ज वा आलिंगंत वा परिस्स्वंतं वा परिचुंवंतं वा साइज्जइ ८५
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्यतरं पशुजातं वा पक्षिजातं वा इयं स्त्री - ति कृत्वा आलिङ्गयेद्वा परिष्वजेत् वा परिचुम्बेत् वा आलिङ्गन्तं वा परिष्वजमानं परिचुम्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०८५ ॥
चूर्णो - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया 'अन्नयरं पसुजायं वा' अन्यतरं पशुजातं वा 'पक्खिजायं वा' पक्षिजातं वा 'अयमित्थि' - चि कट्टु अयम् पशु पक्षी वा 'बी इति' स्त्रीबुद्धि तेषु कृत्वा 'आलिंगेज्ज़ वा' आलिङ्गयेद्वा-आलिङ्गनं कुर्यात् 'परिस्सएज्ज वा' परिषतजेत वा परिष्वजनं विशेषतः आलिङ्गनम् 'परिचुंबेज्ज वा' परिचुम्बेत् वा मुखेन चुम्बनं कुर्यात् 'आलिंगंतं वा' आलिङ्गन्तं वा 'परिस्यंतं वा' परिष्वजमानं वा 'परिचुंबतं वा' परिचुम्बन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८५ ॥
सूत्रम् - - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देह देतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८६ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अशनं वा पानं वा खाद्य वा खाद्य वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥सू० ८६ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउरगामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडिया' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वायं वा चतुर्विधमहारजातं स्त्रियै 'इ' ददाति 'देतं वा' ददतं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते । यः कश्चित् श्रमणो मातृग्रामस्य मैथुनसेवनेच्छया स्त्रिये अशनादिकं ददाति दापयति ददतं वा अनुमोदयति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८६ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पड़िच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८७ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अशनं वा पानं वा स्वाद्य वा स्वाद्य वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८७॥
चूर्णी: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यो भिक्षुर्मैथुनसेवनेच्छया चतुर्विधमाहारजातं प्रतीच्छति गृह्णाति प्रतीच्छन्तं वा गृहन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८७ ॥
२४
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૧૮૬
निशीथसूत्रे
सूत्रम् -- जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८८ ॥
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छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रछनकं वा ददाति ददतं वा स्वदते ||सू० ८८||
चूर्णी : - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउम्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया 'वत्थं वा' वस्त्रं वा 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रहं वा पात्रादिकं वा 'कंबलं वा' कम्बलं वा 'पायपुंछणं वा' पादप्रोञ्छनकं वा रजोहरणम् ' देइ' ददाति 'देतं वा' ददतं वा 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८८ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८९ ॥
छाया -यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पाद प्रोच्छनकं वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू०८९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः मैथुनवाञ्छया स्त्रीभ्यः वस्त्रादिकम् 'पडिच्छ' प्रतीच्छति गृह्णाति 'पडिच्छंतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छंतं वा गृहन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९० ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्वाध्यायं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥० ९० ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः 'माउम्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया - मैथुनवाञ्छया 'सज्झायं वाएइ' स्वाध्यायं वाचयति, तत्र स्वाध्यायं सूत्रमर्थं तदुभयं वाऽध्यापयति तथा 'वाएंतं वा साइज्जइ' स्वाध्यायं वाचयन्तं वा . स्वदतेऽनुमोद के स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९९ ॥
छाया - यो भिक्षुर्मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ९९ ॥
चूर्णो – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया मैथनवाञ्छया 'सज्झायं पडिच्छइ' स्वाध्यायं सूत्रार्थंरूपं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०७ सू०९१-९३
मातृप्रामप्रकरणम् १८७ प्रतीच्छति स्त्रीभ्यः गृह्णीयात् 'पडिच्छंत वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं गृहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ९१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं आकारं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९२॥ वा स्वदते ॥सू० ९२
छाया-यो भिक्षुर्मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिक्षया अन्यतरेण इन्द्रियेणाकारं करोति कुर्वन्तं
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'माउग्गामस्स' मातृग्रामस्य 'मेहुणवडियाए' मैथुनप्रतिज्ञया-मैथुनवाञ्छया 'अण्णयरेणं इंदिएणं' अन्यतरेण केनापि इन्द्रियेण पुरुषस्य स्त्रियो वा इन्द्रियाकारेण स्तनमुखाद्यङ्गोपाङ्गरूपं किश्चिदपि इन्द्रियमाश्रित्येत्यर्थः, स्तनमुखादीनामिति भावः 'आकारं करेई' आकारं करोति, स्त्रियोऽग्रे हस्तादिना चित्रकर्मणा वा एता दृशमाकारं रचयति चित्रयति वा येन स्त्रियो मनसि रागः समुत्पद्येत, शरीरं रोमाञ्चितं कम्पायमानं च भवेत् , 'मुखाद्याकारावलोकनेन द्रवीभूता सती स्त्री माममिलषिष्यति' इति बुद्ध्या स्त्रियोडो आकारं कुर्यात् चित्रयेद्वा उपलक्षणात हस्तनेत्रभ्रप्रभृतिभिर्विकारजनका चेष्टां वा कुर्यात् 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तमन्यं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥९२ ॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं ॥ सू० ९३॥
॥ सत्तमो उसो समत्ते ॥ ७ ॥ - छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥१३॥
॥सामोरेशकः समाप्तः ॥७॥ चूर्णी-तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः तत् उद्देशकस्यादौ तृणमालिकादिकरणादारभ्य उद्देशकान्ते आकारपर्यन्तं यानि प्रायश्चित्तस्थानानि प्रोक्तानि तन्मध्यात् यत् किमप्येक प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः प्रतिसेवनं कुर्वाणः 'आवज्जई आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् ‘परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्धाइयं' अनुद्घातिकं गुरुकम् । अयंभावः-यः कोऽपि भिक्षुः एतेषु सप्तमो देशकोक्तप्रायश्चित्तस्थानेषु मध्यात् यत् किमपि एकम्-अनेक सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवते स गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति भावः ॥९३।। इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायां सप्तमोदेशकः समाप्तः ॥७॥
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|| अष्टमोदेशकः ॥
गतः सप्तमो देशकः, अथाष्ठमः प्रारम्यते, सप्तमोदेशकस्यान्तिमसूत्रेण सहास्याष्टमोदेशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः ? इति सम्बन्धप्रतिपादनायाह भाष्यकारः - 'पुलं खलु' इत्यादि ।
भाष्यम् – पुच्वं खलु आगारा, कहिया ते कहिँ कइंविहा होति । आगंतागाराइसु, विहार-सज्झाय-पभिईओ ॥१॥
छाया - पूर्व खलु माकाराः कथितास्ते कुत्रे कतिविधा भवन्ति । भगन्त्रागारादिषु विहार स्वाध्याय-प्रभृतयः ॥२॥
अवचूरिः --- पूर्व सप्तमो देशकस्यान्तिमसूत्रे आकाराः कथिताः, ते च केषु केषु स्थानेषु भवन्तीति प्रश्ने कथयति - ते आकारा आगन्त्रागारादिषु भवन्ति ते कतिविधाः । इति प्रश्ने कथयति विहार-स्वाध्याय-प्रभृतयो भवन्ति । सप्तमोद्देशकस्यान्ते आकाराः कथितास्तेषां स्थानानि तत्प्रकाराणि चास्मिन् अष्टमोदेशके प्रदर्शयिष्यन्ते एष एव सम्बन्धः सप्तमाष्टमोदेशकगतपूर्वापरसूत्रयोरिति, अनेन सम्बन्धेना यातस्यास्याष्टमोदेशकस्येदमादिसूत्रम् 'जे मिक्खू आगंतागारे वा' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे भिक्खू आगंतागारेसु वा अरिमागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा एगो एगित्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झाय वा करेs असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा आहा रेड, उच्चारं वा पासवर्ण वा परिठ्ठवेइ, अण्णय रं वा अणारियं मिइदुरं मेहुणं अस्समणपाओग्गं कह कह कहते वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
छाया -- यो भिक्षुरागन्त्रागारेषु वा आरमिांगारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा परिवाज कावसथेषु वा एकः पकया स्त्रिया सार्द्धं विहारं वा करोति, स्वाध्यायं वा करोति, अशने वी पाने वा खाद्य वा स्वाद्यं वा आहरति, उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति, अन्यन्त वा अनार्य निष्ठुरां मैथुनीम श्रमणप्रयोग्यां कथां कथयति कययन्तं वा स्वदते ॥ सु० १ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिव भिक्षुः 'आगंतागारेसु वा आरामागारेषु वा 'गाहाइकुलेसु वा परियावसहेसु वा' एषामर्थः सप्तमोदेशके गतः । एषु स्थानेषु ' एगो एगिFrre सद्धि' एकः स्वयमेकाकी सन् एकया स्त्रिया सार्द्धम् 'विहारं वा करेइ' विहारं वा करोति एकः साधुरेकाकिन्या स्त्रिया श्राविकया श्रमण्या वा सार्द्धम् विहारं गमनागमनं ग्रामाद् ग्रामान्तरगमनं वा करोति 'सज्झायं वा करेइ' स्वाध्यायं वा करोति, तत्र स्वाध्यायः सूत्रार्थयोरध्ययनं
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अनिमायावचूरिः उ०८ सू०१-३ साधोरेकाकिन्या स्त्रिया सह विहारादिनिषेधः १८९ करोति 'असणं का पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'आहारेइ' आहरति करोति'उच्चारं वा पासवर्ण वा परिहवेइ' उच्चारं वा प्रस्रवणं वा परिष्ठापयति 'अण्णयरं वा अणारियं निठुरं' भन्यतरां वा काञ्चित् अनार्याम् आर्येण सत्पुरुषेणाचरितुमयोग्याम् निन्दितामित्यर्थः निष्ठुराम् अश्लीलाम् 'मेहुणं' मैथुनी मैथुनसम्बन्धिनीम् 'अस्समणपाओग्गं' अश्रमणप्रायोग्याम् अश्रमणानामसाधुपुरुषाणामुचितां न तु श्रमणानाम् , तादृशी 'कह' कथां वाक्यप्रबन्धरूपां कामादिविकारोत्पादिकां कथा-राजकथा-देशकथा-भक्तकथा-स्त्रीकथारूपां चतुर्विधामपि विकथां वा 'कहेई' कथयति 'कहेंतं वा साइज्जई' कथयन्तं वा तादृशी कथां कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि श्रमणः एकाकी आगन्त्रागाराद्यन्यतमस्थाने एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्धम् विहारं स्वाध्यायमाहारं वा करोति कारयति कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति, तस्मात् कारणात् एकाकी श्रमणः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्धम् विहारादिकं न कुर्यात् न कारयेत् न वा कुर्वन्तमनुमोदयेदिति भावः ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम--माया भगिणी दुहिया, सद्धि एयाहि नो वसे भिक्ख ।
एगंते जइ एवं, किं पुण अन्नाए इत्यीए ॥१॥ सामन्नेण निसिद्धो, थीहिं सद्धिं मुणिस्स संबासो । किं पुण विहारमाइसु, करेज जं ताहि सह वास ॥२॥ थीमुं कहा पडिसिद्धा कावि य जा धम्मिया पसत्या वा। किं पुण अणारिया सा, कहिज्जए यीण मज्झम्मि ॥३॥ जो एवं आथरइ, पावइ सो आणभंगमणवत्थं ।
मिच्छत्त बिराहणं च, तम्हा एए विवज्जेज्जा ॥४॥ साया माता भगिनी दुहिता, सार्द्धम् एताभिनों वसेद भिक्षुः ।
एकान्ते यद्येवं किं पुनरन्यया स्त्रिया ॥१॥ सामाम्गेन निषिद्धः स्त्रीभिः सार्द्ध मुनेः संघासः । किं पुनविहारादिषु कुर्याद् यत् ताभिः सह वासम् ॥२॥ स्त्रीषु कथा प्रतिषिद्धा काऽऽपि च या धार्मिकी प्रशस्ता वा । कि पुनरनार्या सा कथ्यते स्त्रीणां मध्ये ॥३॥ य एवमाचरति, प्रामोति स आशाभकामनवस्थाम् ।
मिथ्यात्वं विराधनां च तस्माद् एतान् विवर्जयेतू ॥४॥ अवचूरिः—'माया मागिणी' इत्यादि । माता जन्मदात्री, भगिनी-सहोदरा दुहिता पुत्री एताभिरपि साई भिक्षुः श्रमणः एकान्ते नो वसेत् एतामिरपि सह एकान्तवास न कुर्यात् , यद्येवं बर्हि
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१९०
निशीथसूत्रे
"
अन्यया कयाचित् सम्बन्धवर्जितया परिचितया अपरिचितया वा सह कथं वसेत् वासं कुर्यात् न कदाचिदपि वसेदिति भावः । गृहिणामप्येष निषिद्धः उक्तञ्चान्यत्रापि
,
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-
" मात्रा स्ववा दुहित्रा वा न विविकासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ॥ १॥ भा० गा० १ ॥
'सामने ' इत्यादि । 'मुणिस्स' मुनेः सामन्येनापि स्त्रीभिः सार्द्धं संवासो भगवता निषिद्धस्तर्हि किं पुनः 'विहार माइसु' विहारादिषु - मादिपदेन स्वाध्याये आहारे उच्चारादिपरिष्ठापने विशेषतोऽनार्यनिष्ठुर मैथुनाश्रमण प्रायोग्यकथासु यत् ताभिः सह वासं कुर्यात्, भिक्षूणां कुत्रापि पुरुषसाक्षिणमन्तरेण स्त्रीभिः सह सामान्यवार्त्तापि न कल्पते इति भावः ॥ भा० गा० २ ॥
'थी कहा' इत्यादि । 'थीसु' स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये काऽपि या धार्मिकी प्रशस्ता वा कथा भवेत् सापि भगवता प्रतिषिद्धा तहिं किं पुनर्या अनार्या अप्रशस्ता कथा भवेत् सा स्त्रीणां मध्ये कथ्यते, न काचिदपि कथ्यते इति भावः ॥ भा० गा० ३ ||
अथैतद्विषये प्रायश्चितं प्रदर्श्यते - 'जो एवं ' इत्यादि ।
यः कोऽपि श्रमणः एवमाचरति स्त्री सहवासकथाकथनादिकं करोति स ' आणाभंग' आज्ञाभङ्गं तीर्थकराज्ञाभङ्गदोषम्, अनवस्थादोषं, मिथ्यात्वं, विराधनां, - संयमात्मविराधनां प्राप्नोति । तत्र संयमविराधना स्पष्टैव । स्त्रिया सह संवासं विहारादिकं वा कुर्वन्तमब्रह्मसेवनशङ्कया साधुं मारयेत् राजपुरुषादिना ग्राहयेद् वा, तेनात्मविराधनाऽवश्यम्भाविनी 'तुम्हा' तस्मात् कारणात् एतान् विहारादिकान् खिया सह 'विवज्जेज्जा' विवर्जयेत्, भिक्षुर्न कुर्यादिति भावः ॥ भा०गा० ४ ॥
1
एवं प्रथमसूत्रोक्तक्रमेणैव इतोऽग्रे द्वितीयसूत्रादारम्य नवमसूत्रपर्यन्तमष्टावपि सूत्राणि व्याख्येयानि । तेषु विशेषपदानि व्याख्यायन्ते, तथाहि 'जे भिक्खू उज्जाणंसि वा' इत्यादि । 'उज्जाणंसि वा' उद्याने वा, तत्रोद्यानमुपवनं यत्र लोकाः क्रीडार्थ गच्छन्ति 'उज्जाणगिहंसि वा' उद्यानगृहे वा उद्यानस्थितं क्रीडाकरणाय समागतानां पुरुषाणां निवासस्थानम् 'उज्जाण सालंसि वा' उद्यानशालायां वा उपवनस्थितशालायां 'धर्मशाला' इति लोकप्रसिद्धलक्षणायाम् 'निज्जाणंसि वा निर्याणे वा, निर्याणं राज्ञां निर्गमनमार्गः येन मार्गेण राजा निर्गतो भवति, येन राजा गच्छति आगच्छति च तादृशस्थानं, तस्मिन् निर्याणे वा 'निज्जाणगिहंसि वा' निर्याणगृहे वा राजमार्गस्थितगृहे 'निज्जाणसालंसि वा' निर्याणशालायां वा राजमार्गस्थितशालायां विहारदिकं करोति ॥ सू० २ ॥
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'जे भिक्खू असि वा' इत्यादि । 'अहंसि वा' अट्टे वा ग्रामादिप्राकारस्याधोभागे 'अट्टालयंसि वा' अट्टालिकायाम् नगरस्य यः प्राकारः तस्यैकदेशे या अट्टारिका तस्यां वा 'चरियंसि वा '
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०८ ० ४-१०
साधोः स्त्रीमध्ये कथाकथननिषेधः १९१
रिकायां वा प्राकारस्यावोऽष्टहस्तपरिमितो मार्ग : चरिका तस्यां वा 'पागारंसि वा' प्राकारे वा प्रकारोपरि विद्यमाने गृहे वा 'दारंसि वा' द्वारे वा नगरद्वारे 'गोपुरंसि वा' गोपुरे वा, गोपुरं नगरद्धारस्य अग्रद्वारम् तस्मिन् वा ॥ सू० ३ ॥
9
'जे भिक्खू दगंसि वा' इत्यादि । 'दगंसि वा' उदके वा जलमध्ये 'दगमम्ांसि वा' उदकमार्गे वा येन पथा जलस्य प्रवाहो वहति तस्मिन् उदकमार्गे 'दगपहंसि वा' उदकपथे वा येन पथा जलमानेतुं गच्छत्यागच्छति च जनः स उदकपथः, तस्मिन् उदकपथे वा 'दगमलंसि वा ' उदकमले वा कर्दमसहितमार्गे 'दगतीरंसि वा' उदकतीरे वा उदकस्य समीपदेशे 'दगट्ठाणंसि वा' उदकस्थाने वा यत्र जलं तिष्ठति तत्र तडागादिषु ॥ सू० ४ ॥
'जे भिक्खू सुण्णगिहंसि वा' इत्यादि । 'सुण्णगिर्हसि वा' शून्यगृहे वा मनुष्यादिवासरहिते गृहे 'सुण्णसालंसिवा' शून्यशालायां मनुष्यादिरहितायां शालायाम् 'भिन्नगिहंसि वा ' भिन्नगृहे वा त्रुटितस्फुटितगृहे 'भिन्नसालंसि वा' भिन्नशालायां वा त्रुटितस्फुटितशालायां वा 'कूडागारंसि बा' कूटागारे वा, तत्र कूटः पर्वतशिखरं तत्सदृशगृहे अधोविशालम् उपर्युपरि संकुचितं कूटागारं तस्मिन् 'कोठागारंसि वा' कोष्ठागारे शालिगोधूमयवाधन्नागारे || सू०५ ॥
'जे भिक्खू तहिंसि वा' इत्यादि । 'तणगिहंसि वा' तृणगृहे वा दर्भादितृणसंपादितगृहे कुटीरे 'झोपडी' इति लोकप्रसिद्धे 'तणसालंसि वा' तृणशालायां वा दर्भादितृणसंपादितशालायाम् 'तुसगिहंसि वा' तुषगृहे वा शाल्यादि तुषस्थापनगृहे 'तुससालंसि वा' तुषशालायां वा तुषस्थापनाय निर्मितायां शालायाम् 'भुसगिहंसि वा' भुसगृहे वा गोधूमयवादीनां मर्दनेन जायमानो 'भूसा' इति लोकप्रसिद्धो वस्तुविशेषः, तादृशे भूसास्थापनाय निर्मिते गृहविशेषे 'भुसालसि वा' भुसशालायां वा तादृशशालायाम् || सू० ६ ॥
'जे भिक्खू जाणसालंसि वा' इत्यादि । 'जाणसालंसि वा' यानशालायां वा यानमवादिकं तस्य शाला इति यानशाला विशालगृहं शालेत्युच्यते तस्यां यानशालायाम् ' जाणगिरंसि वा' यानगृहे वा अश्वादिगृहे वा 'जुग्गशालंसि वा' युग्यशालायां वा, तत्र युग्यं शकटरथादिकं यत्र स्थाप्यते तादृशशालायाम् 'जुग्गगिहंसि वा' युग्यगृहे वा ॥ सू० ७ ॥
'जे भिक्खू पणियसालंसि वा' इत्यादि । 'पणियसालंसि वा' पण्यशालायां यत्र विक्रेय्यं भाण्डादिकं विक्रयार्थं स्थापितं भवेत् तादृशगृहं पण्यशालोध्यते तत्र 'पणियगिहंसि वा पण्यगृहे वा 'कुवियसालंसिवा' कुप्यशालायां वा यत्र लौहादिकं वस्तु स्थापितं भवेत् तादृशं गृहं कुप्यशाला, तत्र 'कुवियगिहंसि वा' कुप्यगृहे वा लौहादिस्थापनगृहे ॥ सू० ८ ॥
'जे भिक्खू गोणसालंसि वा' इत्यादि । 'गोणसालंसि वा' गोवृषभशालायां वा 'गोणगिहंसि वा ' गवां गृहे वा 'महाकुलंसि वा' महाकुले वा तत्र महतां कुलम् महाकुलम् तस्मिन्
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मिशीयसको 'महागिहंसि वा' महागृहे वा, एतेषु अष्टसूत्रकथितेषु स्थानेषु यः कश्चिद् भिक्षुबिहार-स्वाध्यायाऽऽहारो-चारादिपरिष्ठापताऽनार्यादिकथाकथनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तमामी भवसि ॥९॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-उज्जाणाओ समारम्भ, गोणसालंतसंठिओ ।
विहाराई करे भिक्खू , आणाभंगाइ पावई ॥ छाया- उद्यानतः समारभ्य गोशालान्तसंस्थितः ।
विहारादि कुर्याद् भिक्षुः आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-'उज्जाणाओ' इत्यादि । उद्यानतः समारभ्य उद्यानमादौ कृत्वा गोशालापर्यन्तस्थानेषु संस्थितः भिक्षुः श्रमणः एकया स्त्रिया सार्द्ध विहारादिकं विहारमाहारमुच्चारादिपरिष्ठापनमनार्यादिकथाकथनं च कुर्यात् कुर्वन्तमनुमोदयेत् वा स आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति तस्मात्कारणात् श्रमणः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया साई विहारादिकं न कुर्यात् ।। सू० ९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू राओ वा वियाले वा इत्थीमज्झगए इत्थीसंसत्ते इत्थीपरिघुडे अपरिमाणयाए कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया यो भिक्षुः रात्रौ वा विकाले वा स्त्रीमध्यगतः स्त्रीसंसक्तः स्त्रीपरिवृ. तोऽपरिमाणतया कथां कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १० ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः 'राओ वा' रात्रौ वा 'वियाले वा विकाले वा, तत्र विकालः दिवसावसाने रात्रिप्रागभावे, रात्र्यवसाने दिवसप्रागभाषे वर्तते, तथा च-रात्रिदिवसयोरन्तरालकालो विकालः, तस्मिन् विकाले वा 'इस्थिमज्झगए' स्त्रीमध्यगतः स्त्रीणां मध्ये स्थितः स्त्रीसमुदाये स्थितः 'इस्थिसंसत्ते' स्त्रीसंसक्तः-स्त्रिया संघट्टितः स्त्रिया ऊर्वादिना संस्ष्टष्टः तत्स्पर्शयुक्तः 'इविपरितुडे' स्त्रीपरिवृतः परि सर्वतः समन्तात् स्त्रीभिः परिवृतः यस्य चतुर्दिक्षु स्त्रिय उपविष्टा भवेयुः स स्त्रीपरिवृत इति कथ्यते, इत्थंभूतः साधुः 'अपरिमाणयाएं' अपरिमाणतया परिमाध्यमतितम्य, परिमाण च एकद्वित्रिचतुःपञ्चप्रश्नोत्तररूपं भवति तदतिकम्य षष्ठं प्रश्नोसमपरिमाणं भवति, एतादृश्या अपरिमाणतया 'कह' कथां-धर्मकथाम्-प्रश्नोत्तररूपां वा कसं 'कहेह' कश्चयति 'कहेतं का साइज्जह' कथयन्तं का स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चिातभामी भवति ।
अवाह भाष्यकारःभाग्यम्-सत्रो य बियाले वा, इत्थीमन्मगओ मुणी ।
पमाणमइरेगेण, कहाशो दोसमावहे ॥१॥
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चुणिभाष्यावचूरिः उ०८ सू० ११
साधोनिप्रन्ध्या सार्द्ध विहरादिनिषेधः १११
छाया रात्री च पिकाले वा स्त्रीमध्यगतो मुनिः ।
प्रमाणातिरेकेण, कथातो दोषमावहेत् ॥१॥ अवचूरिः-'राओ य' इत्यादि । 'राओ य' रात्रौ च विकाले वा पूर्वप्रदर्शितरूपे दिवसा. वसाने रावसाने वा स्त्रीमध्यगतः स्त्रीसमुदायस्य मध्ये स्थितः एवं स्त्रीसंसक्तः स्त्रीपरिवृतो मुनिः स्त्रीभ्यः पुरुषसाक्षिणमन्तरेण केवलं स्त्रीभ्यः 'पमाणमइरेगेण' प्रमाणातिरेकेण स्त्रीणां धर्मविषयकविवादशङ्कादिप्रसंगे सति प्रमाण-एकद्वित्रिचतुःपञ्चप्रश्नोत्तररूपमतिक्रम्य षष्ठादिप्रश्नोत्तररूपां कथां कथयति, 'कहाओ' कथातः एतादृशकथाकरणतः दोषम्-आज्ञाभङ्गादिरूपं दूषणं आवहेत् प्राप्नुयात् । अत्र कश्चित् शङ्कां करोति-साधूनां मध्ये एकाकिसाधुसमीपे स्त्रीभिर्न गन्तव्यमिति दोषश्रवणात् , स्त्रीमध्ये कथाकरणस्य शास्त्रे निषेधात् स्त्रियो दिवसेऽपि न गच्छन्ति तर्हि रात्रौ विकाले वा तासां गमनं कथं संभवति कथमत्रास्य सूत्रस्यावसरः ? तत्र कथ्यते-यदि स्त्रीणां परस्परं धर्मविषये काचित् शङ्का कश्चिद् विवादो वा समुत्तिष्ठेत् तादृशप्रसङ्गे स्त्रीणां रात्रादावपि साधुसमीपे गमनसंभवः । एतादृशप्रसंगे तत्र कञ्चित् पुरुषं साक्षिणं कृत्वा दूरत एव एक-द्वित्रि-चतुः-पञ्च-समाधानैस्तासां शङ्कां विवादं च निराक कल्पते, तदधिकं तु नैव कल्पते, अत एव सूत्रे 'अपरिमाणयाए' इत्युक्तम् , अनेन एकद्वयादिपरिमाणतः कथने न कश्चिदोष इति व्यज्यते, किन्तु स्त्रीमध्यगतादिविशेषणविशिष्टो भूत्वा तु किं दिवा किं रात्रौ किं विकाले वा कि प्रमाणतः किमप्रमाणतो वा कथञ्चिदपि कथां कर्तुं साधो व कल्पते इति सूत्रनिष्कर्षः । एवं करणे स्त्रीणां पितृभ्रातृपुत्रादिस्वजनानां मनसि शङ्का समुत्पद्यते यत् निर्लज्जो लम्पटोऽसौ साधुर्दश्यते यः स्त्रीणां मध्ये स्थित्वा रात्रौ विकाले चापि अविचार्यैव चिरकालं कथां कथयति, इति कृत्वा ते कुप्येरन ततः साधु ताडयेत् राजपुरुषैहियेद्वा तेन संयमविराधना आत्मविराधना धर्मस्यावहेलना च भवितुमर्हति । इत्यादिबहुदोषप्रसङ्गात् साधुः स्त्रीमध्यगतो रात्रौ विकाले वा प्रमाणमतिक्रम्य कथां न कुर्यात् न कारयेत् कुर्वन्तमन्यं वा नानुमोदयेदिति भाष्यगाथार्थः ॥
सूत्रम्---जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परगणिच्चियाए वा णिग्गंथीए सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्ठओ रीयमाणे
ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए विहार वा करेइ सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरंवा अणारियं निठुरं मेहुणं असमणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥सू०११॥
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निशोथसूत्रे
छाया-यो भिक्षुः स्वगीयया परगणीयया निर्ग्रन्थ्या साद्धं प्रामानुग्राम द्रवन् पुरतो गच्छन् पृष्ठतः रीयमाणः (गच्छन्) अपहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः करतलप्रन्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतो विहारं वा करोति, स्वाध्यायं वा करोति, अशनं वा पान वा खाद्य वा स्वाध वा आहरति, उच्चारं वा श्रवणं वा परिष्ठापयति, अन्यतरां वा अनार्या निष्ठुरां मैथुनीमश्रमणप्रायोग्यां कथां कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥११॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सगणिच्चाए वा' स्वगणीयया-स्वगणसम्बन्धिन्या 'परगणिच्चियाए वा' परगणीयया-परगच्छसम्बन्धिन्या वा 'णिग्गथीए सद्धि' निम्रन्थ्या श्रमण्या सार्द्धम् 'गामाणुगाम दुइज्जमाणे' प्रामानुग्रामं द्रवन् एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरं प्रति गच्छन् 'पुरओ गच्छमाणे' पुरतो गच्छन्- पुरतो श्रमण्या अग्रे गच्छन् 'पिट्ठओ रीयमाणे' पृष्ठतो रीयमाणः-पृष्ठतश्चलन् तद्वियोगात् 'ओहयमणसंकप्पे अपहतमनःसंकल्पः, तत्रापहतो विनष्टो मनसः संकल्पो विचारो यस्य स तथा उद्भ्रान्तमना इत्यर्थः, 'चिंतासोयसागरसंपविटे' चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः चिन्तासमुद्रे शोकसमुद्रे च प्रविष्टः 'करयलपल्हत्थमुहे' करतलप्रन्यस्तमुखः साध्वीवियोगतः स्वहस्ततले स्थापितमुख इत्यर्थः, 'अज्झाणोवगए' आर्तध्यानोपगतः-आर्तध्यानं संप्राप्त इत्यर्थः, एतादृशः सन् 'विहारं वा करेइ' विहारं वा करोति अयं भावः-स्वगणसम्बन्धिन्या परगणसम्बन्धिन्या वा श्रमण्या सह मार्गे गच्छन् श्रमणः यदि कदाचित् अग्रे गच्छति दूरं पश्चाद् वा श्रमणो भवति, कदाचित् श्रमणः पुरतो भवति साध्वी पश्चात् भवति, कदाचित् श्रमणः पश्चाद् भवति श्रमणी अग्रे भवति तदा श्रमणीवियोगात् श्रमणोऽपहतमनःसंकल्पो भूत्वा शोकसागरे पतित इवार्तध्यानोपगतः सन् विहारं करोति, अन्यसर्व पूर्ववद् व्याख्येयम् ॥सू०११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राइं संवसावेइ संवसावेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुआतकं वा अज्ञातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अन्तरुपा श्रयस्यार्द्धा वा रात्रिं कृत्स्ना वा रात्रि संवासयति संवासयन्तं वा स्वदते ॥सू०१२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'णायगं वा' ज्ञातकं वा स्वजनं स्वपरिचितं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकम्-स्वजनातिरिक्तमपरिचितं वा 'उवासयं वा उपासकम्-जिनधर्मोपासकं श्रावकं वा 'अणुवासयं वा' अनुपासकं वा-अन्यमतावलम्बिनं वा 'अन्तो उवस्सयस्स' अन्तर्मध्ये उपाश्रयस्य वसतेमध्ये इत्यर्थः 'अद वा राई अर्धी वा रात्रिम्
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चूर्णिभाष्यावद्रिः उ०८ सू० १२-१४ रात्रौ शातकादीनां स्वोपाश्रये संवासननिषेधः १९५ रात्र्य यावत् 'कसिणं वा राई' कृत्स्ना संपूर्णाम् यामचतुष्टयरूपां सम्पूर्णा वा रात्रि यावत् 'संवसावेई' संवासयति उपाश्रये वासं स्थिति कारयति, 'अत्र वसती संवासं कुरु हे आर्य ! इत्येवं वदति 'संवसावेतं वा साइज्जई' संवासयन्तं वा स्वदते, यः खलु स्वजनमस्वजनं वा श्रावकम. श्रावकं वा स्वेन सार्द्ध वसतिमध्ये अर्धी वा रात्रिं सम्पूर्णा वा रात्रि यावत् संवासयति तथा संबासयन्तमन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, उपाश्रये संवसन् स रात्रिभोजनं करोति, सचित्तजलं वा पिबति, अन्यं वा आरम्भसमारम्भं करोति, तस्मात्कारणात् ज्ञातकादिकमुपाश्रये न संवा. सयेत् तस्य संवासने साधोराज्ञाभङ्गादिकाश्चापि दोषाः समापतन्ति ॥ सू० १२॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम् –णायगमणायगं वा, सावगं वा तहेयरं ।
वसहीए वासए राओ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-शातकमज्ञातकं वा श्रावकं वा तथेतरम् ।
वसतौ वासयेद् रात्री, आशाभङ्गादि प्राप्नुयात् ॥ अवचूरिः- यो भिक्षुः अर्द्धरात्रि वा संपूर्णरात्रि वा वसतौ उपाश्रयस्य मध्ये ज्ञातकं स्वकी यज्ञातिजनं परिचितं वा अज्ञातकं -ज्ञातिभिन्नमपरिचितं वा, तथा श्रावक-जिनधर्मोपासकं गृहस्थं वा अनुपासकम् अन्यतैर्थिकं वा स्वोपाश्रये यत्र स्वयं तिष्ठति तत्र वासति । यदि कश्चित् श्रमणस्य स्वजनोऽस्वजनः परिचितोऽपरिचितः श्रावकोऽश्रावको वा रात्रौ वस्तुं समुपस्थितो भवेत् तं श्रमणो रात्रौ तत्र वासयेत् वासयन्तं वाऽनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात् ।।
अथ कारणेऽपवादमाह भाष्यकारःभाष्यम् - दिक्ख? वा दयटुं वा पोसह समागयं ।
____कासेइ रयणि तस्स, न दोसो किं तु संवरो ॥१॥ छाया -दीक्षार्थ वा दयार्थ वा पौषधार्थ वा समागतम् ।
वासयति रजनी तस्य न दोषः किन्तु संवरः ॥१॥ अवचूरिः- यः कश्चित् श्रमणः दीक्षार्थ पौषधाथै पौषधत्रताचरणार्थ उपलक्षणात् ग्लानादिनिमित्तं समागतं वचं श्रावकं वा यदि रात्रौ स्ववसतौ वासयति तदा तस्य रात्री वसतिवासदानेऽपि न कश्चिदोषः प्रत्युत संवर एव भवति, यतः स संवासः सकलसावद्यकर्मपरित्यागगर्भितो भवति तादृशवासस्य संवरसंपादकत्वात् , तस्मात् तादृशस्य वसतिवासो दातव्य एवेति भावः । तमपि स्वसमीपात् षड़हस्तं दूरे संवासयेत् येन गृहस्थस्य शरीरवस्त्रादिना स्वस्य शरीरवत्रादेः संधट्टनं न स्यात् । यदि षहस्ताभ्यन्तरे तं संवासयति तदा स साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ तं पडुच्च निक्खमइ वा पविसइ वा निक्खमंत वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥सू०१३॥
छाया-यो भिक्षुतिकं वा अक्षातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अंतरूपाश्रयस्य अर्धी रात्रि वा कृत्स्नां रात्रि वा संवासयति तं प्रतीत्य निष्कामति वा प्रविशति वा निष्कामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू०१३।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ज्ञातकमज्ञातकमुपासकमनुपासकं वा 'अंतो उवस्सयस्स' अन्तरुपाश्रयस्य उपाश्रयमध्ये 'अद्धं वा राई' अर्धी वा रात्रिम् 'कसिणे वा राई' कृत्स्ना सम्पूर्णा वा रात्रिम् 'संवसावेई' संवासयति तदनन्तरं 'तं पडुच्चनिक्खमइ वा पविसइ वा' तं प्रतीत्य तं ज्ञातकादिकमाश्रित्य 'अयमत्र स्थितोऽस्ति' इति कृत्वा उच्चारप्रसवणार्थम् निष्क्रामति निर्गच्छति ततः परावृत्य प्रविशति वा तथा 'निक्खमंत वा पविसतं वा साइज्जइ' निष्क्रामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१३॥
सूत्रम्-जे भिक्खु तं न पडियाइक्खेइ न पडियाइक्वेतं वा साइज्जइ ।। सू० १४॥
छाया-यो भिक्षुः तं न प्रत्याचक्षोत न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते ।सू० १४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'तं न पडियाइक्खेइ' तं न प्रत्याचक्षोत तं ज्ञातकमज्ञातकमुपासकमनुपासकं वा वसतिमध्ये वसन्तं न प्रत्याचक्षीत न निषेधं कुर्यात् 'भो आर्य ! अत्र मा वस' इत्यादि न कथयेत् तथा 'न पडियाइक्खेत वा साइज्जई' न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूतमहेसु वा जक्खमहेसु वा णागमहेसु वा थूभमहेसु वा
चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तडागमहेसु वा दहमहेसु वा णईमहेसु वा सरमहेसु वा सागरम हेसु वा
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पूर्णिमा० उ०८ सू०१५ समवायपिण्डनिकरेन्द्रमहादिषु राजादीनां भिक्षाग्रहणनिषेधः १९७ आगरमहेसु वा अण्मयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जइ॥१५॥
___ छाया-यो भिक्षुः राक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां समवायेषु वा पिण्डनिकरेषु वा इन्द्रमहेषु वा स्कन्दमहेषु वा रुद्रमहेषु वा मुकुन्दमहेषु वा भूतमहेषु वा यक्षमहेषु वा नागमहेषु वा स्तूपमहेषु वा चैत्यमहेषु वा वृक्षमहेषु वा गिरिमहेषु वा दरो. महेषु वा अगडमहेषु वा तडागमहेषु वा इदमहेषु वा नदीमहेषु वा सरोमहेषु वा सागर महेषु वा आकरमहेषु वा अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु विरूपरूपेषु महामहेषु अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाद्य प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते । सू० १५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः राजसिंहासने स्थितस्य 'खत्तियागं' क्षत्रियाणां क्षत्रियत्वजातिविशिष्टानां ग्रामपतीनाम् 'मुदियाणं मुदितानां तत्र मुदिता जात्या शुद्धाः मातापित्रादिना शुद्धवंशीया इत्यर्थः, तेषाम् 'मुद्धाभिसिताणं' मूर्धाभिषिक्तानाम् , तत्र पितृपितामहादिक्रमेण राज्येऽभिषिक्ता मूर्धाभिषिक्ताः युवराजपदेऽभिषिक्ता बा, तेषां मूर्धाभिषिक्तानाम् , अत्रोपलक्षणात-अमात्य-पुरोहिते-श्वर-तलवर-माडम्बिककौटुम्बिके-भ्य-श्रेष्ठि-सेनापत्या-दीनामपि ग्रहणं कर्त्तव्यम् । राजाद्यतिरिक्तानाममात्यादीनामपि वक्ष्यमाणेषु समवायादिषु इन्द्रमहादिषु च साधुरशनादिकं न गृह्णीयादिति सम्बन्धः । तदेव दर्शयति-'समवाएसु वा' इत्यादि । 'समवाएमु वा' समवायेषु वा समानवयस्यसमुदायेषु, यत्र समवयस्का मिलित्वा गोष्ठोभक्तं कुर्वन्ति तादृशेषु सरवायेषु 'पिंडनियरेसु वा पिण्डनिकरेषु वा, यत्र सपिण्डाः (एकमूलषुरुषाः) कुटुम्बिनो मिलित्वा पितृपिण्डदानं कुर्वन्ति तत्र, अथवा-पिण्डो नाम दायभक्तं यत्र दायादा मिलित्वा भुञ्जते तस्य निकरषु दायभक्तसमूहेषु वा, 'इंदमहेसु वा इन्द्रमहेषु वा, तत्र इन्द्रो देवराजस्तस्य मह उत्सवः, तथा चेन्द्रं देवराजमुद्दिश्य क्रियमाणेपूरसवेषु कार्तिकशुल्कप्रतिपदि देवराजोदेशेन महानुत्सवो भवतीति लोकाचारः, तादृशोत्सवेषु वा 'खंदमहेसु वा' स्कन्दमहेषु वा-स्कन्दः कार्तिकेयो महादेवपुत्रो देवविशेषः तदुद्देशेन क्रियमाणेषत्सवेषु वा 'रुद्दमहेसु वा' रुद्रमहेषु वा-रुद्रमहोत्सवेषु वा, तत्र रुद्रः शिवस्तमुद्दिश्य क्रियमाणेपूत्सवेषु 'मुगुंदमहेसु वा' मुकुन्दमहेषु वा, तत्र मुकुन्दः कृष्णः तस्योत्सवा मुकुन्दमहाः कृष्णजन्माष्टभ्या. द्युत्सवाः, तादृशमहोत्सवेषु 'भूतमहेसु वा' भूतमहेषु वा, तत्र भूतानां व्यन्तरदेवविशेषाणां महा उत्सवा भूतमहाः, यादृशोत्सवेषु भूताः पूज्यन्ते तादृशमहोत्सवेषु 'जक्खमहेषु वा' यक्षमहेषु का, तत्र यक्षो व्यन्तरदेवविशेष एव, तस्य महा उत्सवविशेषाः, यत्र महोत्सवे यक्षाः पूज्यन्ते तादृशमहोत्सवेषु 'णागमहेसु वा' नागमहेषु वा, तत्र नागाः सर्पाः, येषु महोत्सवेषु नागाः पूज्यन्ते नागपंचमीतिलोकप्रसिद्धादिमहोत्सवेषु 'थूभमहेसु वा' स्तूपमहेषु वा-स्तूपानां महोत्सवाः, स्तूपः-स्मृतिस्तम्भः,
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निशीथसूत्रे कुत्रचित् स्तुपमुद्दिस्यापि लोका उत्सवं कुर्वन्ति तादृशस्तूपमहोत्सवेषु वा 'चेइयमहेसु वा' चैत्यमहोत्सवेषु वा चैत्यानि नाम मृतकदाहस्थाने क्रियमाणाश्चिह्नविशेषाः श्मशानादिषु निर्मिता भवन्ति, तेषां महोरसवेषु 'रुक्खमहेसु वा' वृक्षमहेषु वा कुत्रचित् वृक्षविशेष वटपिप्पलादिकमुद्दिश्य उत्सवाः क्रियन्ते तेषु 'गिरिमहेस वा' गिरिमहेषु वा, तत्र गिरयः पर्वताः, तानुद्दिश्य क्रियमाणा महोत्सवाः पर्वतादिकमुद्दिश्यापि यत्र महोत्सवाः क्रियन्ते तत्र दरिमहेसु वा' दरीमहेषु वा, तत्र दरी-गिरिकन्दरा, तदुद्देशेन क्रियमाणा महोत्सवा दरीमहाः तेषु वा 'अगडमहेसु वा' अगडमहेषु वा, यत्र कूपसमीपे पशूनां जल पानार्थ गर्तादिकं करोति तादृशगर्तविशेषा अगडाः, तेषां महोत्सवेषु 'तडागमहेषु वा' तडागमहेषु वा, तत्र तडागः सामान्यजलाशयः, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवाः तडागमहाः, तेषु वा 'दहमहेसु वा' हृदमहे सु वा, तत्र हृदो नाम अगाधजलाशयः, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवा हृदमहाः, तेषु वा, 'णईमहेसु वा' नदीमहेषु वा-नदीविशेषमुद्दिश्य क्रियमाणेषु महोत्सवेध 'सरमहेस वा' सरोमहेषु वा, तत्र सरः तडागविशेषः तदुद्देशेन क्रियमाणा महोत्सवाः सरोमहाः, ते. वा 'सागरमहेसु वा' सागरमहेषु वा-समुद्रमुद्दिश्यक्रियमाणमहोत्सवेषु वा 'आगरमहेसु वा' आकरमहेषु वा, तत्राकरः सुवर्णादीनामुद्गमस्थानं, तदुद्देशेन क्रियमाणा उत्सवा आकरमहाः, तेषु आकरमहेषु वा 'अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विख्वरूवेसु महामहेसु' अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु पूर्वोक्तमहोत्सवसदृशेषु विरूपरूपेषु नानाप्रकारकेषु महामहेषु अन्यजातीयकेष्वपि जन्मपरिणयनादिमहामहोत्सवेषु जायमानेषु तत्र 'असणं वा ४' अशनादिकं चतुर्विधमाहारम् उपलक्षणात् वस्त्रपात्रादिकं वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुरुपयुक्तेषु महोत्सवेषु गत्वा राज्ञो मूभिषिक्कादीनां वा अशनादिकं स्वयं गृह्णाति अन्यद्वारा ग्राहयति वा गृह्णन्तं वा अनुमोदते । एतानि महारम्भस्थानानि, अत्र षट्कायोपमर्दनं भवति, एषु स्थानेषु राजादीनां भिक्षाग्रहणे साधोः रसलोलुपता सिध्यति, षट्कायोपमदेनजन्या दोषा अपि समापधेरन् , तस्मात् कारणादत्रतो यदि यः साधुरशनादिकं गृह्णाति सोऽवश्यं प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थादिका दोषा अपि समापद्यन्ते इति भावः ॥१५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उत्तरसालंसिवा उत्तरगिहंसि वारीयमाणाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १६॥
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिकानां उत्तरशालायां वा उत्तरगृहेषु वा रीयमाणानाम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ।।सू०१६॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०८ सू०१६-१९ हयादिशालागतराजादीनां भिक्षाहप्रणनिषेधः १९९
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः 'खत्तियाणं' इत्यादि, क्षत्रियादीनाम् पूर्वसूत्रप्रदर्शितस्वरूधाणां 'उत्तरसालंसि वा' उत्तरशालायां वा भ्रमणार्थ निर्मापिता या निजशालातोऽन्या शाला, तस्यां 'उत्तरगिहंसि वा' उत्तरगृहे वा तादृशे गृहे वा 'रीयमाणाणं' रीयमाणानाम् तत्र चंक्रमतां भ्रमणं कुर्वताम् 'असणं वा' इत्यादि, अशनादिकं चतुर्विधधमाहारं 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १६॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं हयसालागयाण वा गयसालागयाण वा मंतसालागयाण वा गुज्झसालागयाण वा रहस्ससालागयाण वा मेहुणसालागयाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।।सू० १७||
छाया-यो भिक्षुः रामः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां हयशालागतानां वा गजशालागतानां वा मंत्रशालागतानां वा गुह्यशालागतानां वा रहस्यशालागतानां वा मैथुनशालागतानां वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं था स्वदते ॥सु० १७॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' इत्यादि, राज्ञः क्षत्रियाणाम् मुर्दाभिषिक्तानाम् पूर्वनिर्दिष्टस्वरूपाणाम् 'हयसालागयाण वा' हयशालागतानाम् वा अश्वशालास्थितानाम् ‘गयसालागयाण वा' गजशालागतानां वा हस्तिशालास्थितानाम् 'मंतसालागयाण वा' मन्त्रशालागतानां वा, यत्र राजादयः स्वपुरुषैः सह मन्त्रणां करोति तादृशशालास्थितानामित्यर्थः: 'गुज्झसालागयाण वा' गुह्यशालागतानां गुप्तकार्य यत्र शालायां करोति तादृशशालायां स्थितानाम् 'रहस्ससालागयाण वा' रहस्यशालागतानां वा रहस्यं दण्डविधानादिकार्य तस्य शालायां स्थितानाम् 'मेहुणसालागयाण वा' मैथुनशालागतानां वा मैथुनसेवनशालास्थितानाम्, हयादिशालास्थितानां राजादीनां पार्वात् 'असणं वा ४' इत्यादि, अशनादिचतुविधमाहारजातं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सण्णिहिसण्णिचयाओ खीरं वादर्हि वा णवणीयं वा सप्पि वा तेल्लं वा
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२००
निशीथसूत्र गुलं वा खंड वा सक्करं वा मच्छंडियं वा भोयणजायं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ ॥सू० १८॥
___ छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां सन्निधिस निचयात् क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सर्पिर्वा तैलं वा गुडं वा लंडं वा शर्करां वा मत्स्यंडिकं वा अन्यतरद् वा भोजनजातं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रण्णो' इत्यादि-राजादीनां 'सण्णिहिसण्णिचयाओ' सन्निधिसंनिचयात् , तत्र सन्निधिर्नाम दधिदुग्धगुडखंडादिद्रव्यम् तद द्धिविधं-विनाशि अवनाशि च, तत्र विनाशिद्रम्-दधिदुग्धनवनीतप्रभृति अल्पकालेन विकृतिसंभवात्, अविनाशिदव्यम् घृततैलगुडखण्डशर्करामत्स्यण्डिकप्रमृति बहुकालस्थायित्वात् उक्तञ्च
मोदणगोरसमादी, विणासिदव्वा उ सण्णिही होति, सक्कुलितेल्लघयगुला, अविणासी संचश्यदव्वा ॥१॥ छाया-ओदनगोरसादीनि विनाशिद्रव्याणि तु संनिधयो भवन्ति । शष्कुलितैलघृतगुडानि, अविनाशीनि संचितद्रव्याणि ॥१॥ इति । तस्य-द्विविधस्यापि संनिचय एकत्रीकृतसंचयः, तस्मात् संचितात् संचितद्रव्यमध्यात् यत् किमप्येकमनेकंवा वा 'खीरं वा' क्षीरं वा दुग्धं वा 'दहि वा' दधि वा ‘णवणीयं वा' नवनीतं वा म्रक्षणं 'सपि वा सर्पिर्वा घृतम् 'तेल्लं वा' तैलं वा 'गुलं वा'गुडं वा 'खंडं वा' खण्डं वा 'बुरा' इति लोकप्रसिद्धम् 'सक्करं वा' शर्करां वा-खण्ङजातिविशेष 'मच्छंडियं वा' मत्स्यण्डिकं वा मीसरीतिलोकप्रसिद्धम् 'अण्णयरं वा भोयणजायं' अन्यतरद् वा भोजनजातम् , एतदतिरिक्तं वा भोजनजातम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० १८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उस्सहपिंडं वा संसट्ठपिंडं वा अणाहपिंडं वा किविणपिंडं वा वणीमगपिंडं वा पठिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ |सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानाम् उत्सृष्टपिण्डं वा संसृष्टपिण्डं वा अनाथपिण्डं वा कृपणपिण्डं वा वनीपकपिण्डं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥सू० १९॥
___ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणों' इत्यादिराजादीनां 'उस्सपिंडे वा' उत्सृष्टपिण्डं वो काकादिभ्यः प्रक्षेपणाय स्थापितं पिण्डमोदनादिकम्
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ८ सू. १९-२० राजादीनामुत्सृष्टपिण्डादिग्रहणनिषेधः २०१ उत्सृष्टपिण्डमिति कथ्यते तम् 'संसपिंडं वा' संसृष्टपिण्डं वा, तत्र भुक्तावशेषमन्नमकिश्चनेभ्यो दातुं स्थापित संसृष्टान्नम् संसृष्टपिण्डमिति, तम् 'अणाहपिंडं वा' अनाथपिण्डं वा अनाथेभ्यो दातुं स्थापितं पिण्डम् 'किविणपिंडं वा' कृपणपिण्डं वा दीनजनार्थस्थापितमोदनादिकम् 'वणीमगपिंडं वा' वनीपकपिण्डं वा याचकाथं स्थापितमोदनादिकं वनीपकपिण्डमिति कथ्यते, यद्वा वनीपकः सिद्धान्नमात्रोपजीवी, यद्वा वनी-स्वकीयदुरवस्थाप्रदर्शनपूर्वकप्रियालापादिना लभ्यद्रव्यम् , तां वनी प्राप्नोतीति वनीपकस्तदर्थ स्थापितं पिण्डम्, एतादृशमोदनादिकं यो भिक्षुः 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते । यो हि भिक्षुः राजसम्बन्धि उत्सृष्टमोदनादिकं स्वयं गृह्णाति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमण उत्सृष्टपिण्डादिकं राजादीनां न गृह्णीयात् न ग्राहयेत् न वा गृह्णन्तमनुमोदयेदिति ॥सू० १९॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ॥ सू० २०॥
॥णिसीहज्झयणे अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥८॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानं अनुद्घातिकम् ॥१०२०॥
॥ निशीथाध्ययनेऽष्टमोद्देशकः समाप्तः ॥८॥ चूर्णी-- 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् अष्टमोद्देशकोक्तमेकमनेकं वा प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः तत्प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्घाइयं' अनुद्घातिकम् न विद्यते उद्घातो लघुलक्षणो यस्य तपोविशेषस्य तत् अनुद्घातं, तत् यस्य विद्यते तत् तथाभूतं गुरुमासिकमित्यर्थः । यो भिक्षुः आगन्त्रागारादिषु एकाकिन्या स्त्रिया सार्द्ध विहारादित आरभ्य वनीपकपिण्डग्रहणपर्यन्तप्रोक्तप्रायश्चित्तस्थानमध्यात् यत् किमप्येकमनेकं वा अष्टमोद्देशोक्तं सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं सेवते स सूत्रोक्तं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । सू० २०॥ इति श्री-विश्वविख्यात–जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन
धर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" ... चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् अष्टमोदेशकः समाप्तः ॥८॥
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॥ नवमो देशकः ॥
व्याख्यातोऽष्टमोदेशकः, सम्प्रति नवमः प्रारभ्यते, तत्रास्य नवमोद्देशकस्याष्टमोद्देशकान्तिम
सूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेदत्राह भाष्यकारः
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भाष्यम् - पिंडहिगारो राया, इयाण वृत्तो य अट्ठमुद्दे से । रायाइणो य के ते, पिंडो वा कइबिहोऽत्थ नवमम्मि ||
छाया-पिण्डाधिकारो राजादिकानां प्रोतश्चाष्टमोद्देशे । राजादयश्व के ते, पिण्डो वा कतिविधोऽत्र नवमे ॥
अवचूरि : - 'पिंड हिगारो' इत्यादि । पूर्वमष्टमोदेशकस्यान्तिमसूत्रे राजादीनां पिण्डग्रहणस्याधिकारः प्रोक्तः । ते च राजादयः के ? पिण्डो वा कतिविधो भवति ?, एषोऽधिकारः अत्र नमो देशके निरूपयिष्यते, इत्येष सम्बन्धोऽष्टम नवमोद्देशकयोरिति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य नवमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् — 'जे भिक्खू रायपिंडं' इत्यादि ।
सूत्रम् -- जे भिक्खू रायपिंडं गिव्हs गिण्हंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया - यो भिक्षुः राजपिण्डं गृह्णाति गृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ||
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चूर्णी :- 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रायपिंडं गिoes' राजपिण्डं गृह्णाति, अत्रा - मात्यादीनां पिण्डोऽपि राजपिण्डः प्रोच्यते । तन्नामानि अष्टमोदेशके प्रदर्शितानि । पिण्डशब्देनत्र चतुर्विधमशनादिकं वस्त्रपात्रादिकं च गृह्यते, तं गृह्णाति स्वीकरोति तथा 'गिव्हतं वा साइज्म' गृहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, यत उपर्युक्तवस्तुप्राप्यथै राजादीनां स्तुत्यादिकं कर्तव्यं भवेत्, तथा राजप्रभृतीनां महार्घवस्तुप्राप्तौ मोहोदयोपि अधिकाधिक एव भवति, बहुमूल्य वस्तुग्रहणे परिग्रहदोषो भवति, तथा तादशवस्तुनः स्वसमीपे स्थापने साधुमर्यादाऽपि स्खण्डिता स्यात् तेन मर्यादाभङ्गोऽत्रावश्यम्भावी, साघोरसमाधिरपि स्यात्, तथाऽधिकमूल्यकवस्त्रपात्रादिकं स्वसमीपे स्थापयतः चौरादिभयमपि स्यात्, तथा वस्त्रपात्रादीनामधिकाधिकस्य लामे लोभवृद्धिरपि भवेत् तेन एषणासमितेरपि विनाशः स्यात् एवं तादृशवस्तूनां रक्षणादिकरणे एव समयस्य व्ययात् सूत्रार्थयोरपि हानिः स्यात्, संयमविराधनमात्मविराधनं च स्यात् यस्मात् राजपिण्डग्रहणे पूर्वोक्ता एते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् भिक्षुः कथमपि राजपिण्डं स्वयं न गृहीयात् न वा परं ग्राहयेत् न वा गृह्णन्तमनुमोदयेदिति ॥ सू० १ ॥
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1
सूत्रम् - जे भिक्खु रायपिंडे भुजइ भुजंत वा साज्जइ ॥ सू० २॥
छाया -यो भिक्षुः राजपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ||०२||
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घर्मिमाप्यावरिः उ०९ सू० १-५ राजपिण्डाऽन्तपुरप्रवेशतदक्षिकानीताहारनिषेधः २०३
चूर्णीः-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रायपिंडं भुंनइ' राजपिण्डं, तत्र राज्ञामुपलक्षणादमात्यादीनां च पिण्डम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं, तथा वनपाचदिकमष्टप्रकारकं पिण्डम् भुङक्ते राजादिपिण्डानामष्टप्रकारकाणामुपभोगं करोति कारयति वा तथा 'भुंजतं वा साइज्जइ' भुञानं वा स्वदते । यो हि राजादीनामष्टप्रकारकाशनादिपिण्डमध्यात् यत् किमप्यन्यतरं पिण्डमुपभुङ्क्ते तस्यानुमोदनं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ॥सू० २॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंतं वा साइज्जइ ॥सू०३॥ छाया-यो भिक्षुः राजान्तःपुरं प्रविशति प्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू० ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रायंतेपुरं पविसई' राजान्तःपुरं प्रविशति, तत्र राज्ञोऽन्तःपुरं राजान्तःपुरम् , तत् त्रिप्रकारकम् -प्राचीनान्तःपुरम्, नवान्तःपुरम्, कन्यान्तःपुरं च, तदन्तःपुरं पुनः क्षेत्रत एकैकं द्विप्रकारकं भवति-स्वस्थाने परस्थाने च, तत्र स्वस्थानं राजगृहं (राजभवन), परस्थानं वसन्तादिसमये उद्यानादिगतम् , तादृशं राजान्तःपुरमशनादिलोभेन यः येन केनापि कारणेन वा प्रविशति, तथा 'पविसंतं वा साइज्जई' प्रविशन्तं राजान्तःपुरे प्रवेशं कुर्वन्तं श्रमण स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति । एवं राजद्वारस्थितदण्डधरादिपुरुषकृता अवहेलनाशङ्कादयो दोषाश्च भवन्तीत्यतः कथमपि राजान्तःपुरेषु प्रवेश न कर्यात् , न वा अन्यान् श्रमणान् प्रवेशं कारयेत् , न वा अन्य प्रवेशं कुर्वन्तमनुमोदेत १० ३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रायंतेपुरियं वएज्जा “आउसो रायतेपुरिए णो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरे णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा इमं तुम पडिग्गहं गहाय रायंतेपुराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अमिहडं आह१ दलयाहि" जो तं एवं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥सू०४॥
छाया-यो भिक्षुः राजान्तःपुरिकां वदेत् 'आयुष्मति ! राजान्तःपुरिके ! नो खलु मम कल्पते राजान्तःपुरे निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा इमं त्वं प्रतिग्रहं गृहीत्वा राजान्तःपुरात् अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा अभिहतमाहृत्य देहि' यः तामेव घदति वदन्तं पा स्वदते ॥सू० ४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'रायंतेपुरियं वएज्जा' राजान्तःपुरिकां राजान्तःपुररक्षिकां प्रति एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदेत्-कथयेत् । किं वदेत् !
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२०४
निशीथसूत्रे
तत्राह-'आउसो' इत्यादि । 'आउसो रायतेपुरिए' हे आयुष्मति ! राजान्तःपुरिके ! अन्तःपुररक्षिके ! 'णो खल्लु अम्हं कप्पई' नो खलु मम कल्पते 'रायतेपुरे' राजान्तःपुरे 'णिक्खमित्तए वा' निष्क्रमितुं वा, तत्र निष्क्रमणं गमनम्, राज्ञामन्तःपुरे गमनमस्माकं न कल्पते 'पविसित्तए वा' प्रवेष्टुं वा प्रवेशं कर्तुं नो अस्माकं कल्पते तस्मात्कारणात् ‘इमं तुमं पडिग्गई गहाय' इमं त्वं प्रतिग्रहं पात्रं गृहीत्वा पात्रं त्वमेव गृहीत्वा मम तत्र गच्छ, गत्वा च 'रायंतेपुराओ' राजान्तःपुरात् राज्ञोऽन्तःपुरात् 'असणं वा०' अशनादिचतुर्विधमाहारम् 'अभिहडं आइटु' अभिहृतमाहृत्य अभिमुखमानी य अन्तःपुरात् इहैव मत्समीपमानीय 'दलयाहि देहि यस्मात् राजान्त:पुरे अस्माकं गमनं न कल्पते तस्मात्कारणात् त्वं मम पात्रं गृहीत्वा तत्र गत्वा अशनादिकं गृहीत्वा इहैव स्थिताय मह्यं समर्पयेति । 'जो तं एवं वयइ' यः खलु श्रमणः एवमुक्तेन प्रकारेण तां राजान्तःपुररक्षिकां स्त्रियं राजान्तःपुररक्षकपुरुषं द्वारपालादिकं वा प्रति ब्रूते सः, तथा 'वयंतं वा साइज्जई' एव मुपयुक्तप्रकारेण अन्तःपुरिकां प्रति वदन्तमन्यं वा श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अन्तः-पुरिकासमानीताहारादिग्रहणे बहवो दोषा भवन्ति, तथाहि-गच्छन्ती समागच्छन्ती वा ईर्यासमितिमजानन्ती मार्गे षट्कायविराधनां कुर्यात् , अप्रतिलेखितायां भूमौ पात्रं स्थापयेत्, अप्रतिलेखितपात्राद् गृह्णीयात् , एषणादोषानभिज्ञा साऽनेषणीयमपि गृह्णीयात्, संघट्टदोषानभिज्ञा सचित्तसंघट्टितमपि गृह्णीयात् , स्खलिता वा भाजनं भिन्द्यात् , साधुरूपमुग्धा आहारे वशीकरणादिचूर्णमपि प्रक्षिपेत् , दध्यादिषु विरोधिद्रव्यं धृतदुग्धादिकमेकत्र गृह्णीयात् , पात्रबन्धं वा शाकादिना स्वरण्टितं कुर्यात्, इत्याधनेके दोषाः समापधेरन्, तस्मात्कारणात् साधुरन्तःपुरिकया समानीतमाहारं नो गृह्णीयात् , नान्यं प्राहयेत् , गृह्णन्तं वाऽन्यं नानुमोदयेदिति भावः ॥सू० ४।।
सूत्रम्-जे भिक्खू नो वएज्जा रायंतेपुरिया वएज्जा “आउसंतो समणा ! णो खलु तुझं कप्पइ रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा आहरेयं पडिग्गहं अतो अहं रायंतेपुराओ असणं वा पाणं वा खाइभं वा साइमं वा अभिहडं आहहु दलयामि” जो तं एवं वयंतिं पडिसुणेइ पडिसुणेतं वा साइज्जइ ॥सू० ५॥
___छाया यो भिक्षुनों वदेत् राजान्तःपुरिका वदेतू-"आयुष्मन् ! श्रमण ! नो खलु तव कल्पते राजान्तपुरे निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा आहरेमं प्रतिग्रहं अतोऽहं राजान्तः पुरात् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा अभिहतमाहृत्य ददामि" यस्तामेवं वदन्ती प्रतिशृणोति प्रतिशृण्वन्तं वा स्वदते ॥सू०५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'नो वएज्जा' नो वदेत् राज्ञोऽन्तःपुरद्वारमुपस्थितो भिक्षुरन्तःपुररक्षिकां प्रति स्वयं नो वदेत्-राजान्तःपुरात् अशना
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पूर्णिभाष्यावरिउ० ९ सू० ६ राजादीनां दौवारिकभक्तादिभक्तनिषेधः २०५ दिकमानीय मह्य त्वं देहीत्येवं न वदेत् किन्तु साधूनामाचारगोचरं जानन्ती सा 'रायंतेपुरिया वएज्जा' राजान्तःपुरिका एव वदेत-कथयेत्-अशनादिकाहारजातग्रहणाय समुपस्थितोऽयं श्रमणः, अस्यान्तःपुरगमनं न कल्पते इत्यालक्ष्यान्तःपुरिका स्वयं श्रमणमेवं कथयेत्-'आउसंतो समणा' हे आयुष्मन् ! श्रमण ! यत् 'णो खलु तुझं कप्पई' नो खलु तव कल्पते 'रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा' राजान्तःपुरे प्रतिनिष्क्रामितुं निस्सर्तुम् प्रवेष्टुं वा प्रवेशं. कर्तुं वा 'आहारेयं पडिग्गई' आहर देहि इमं प्रतिग्रहं भवदीयं पात्रं मह्यं समर्पय, 'अतो अम्हं रायंतेपुराओ' अतोऽहं राजान्तःपुरात् 'असणं वा' इत्यादि अशनादिचतुर्विधमाहारं 'अभिइडं आइटु' अभिहृतमाहृत्य भवतां समीपमानीय भवते 'दलयामि' ददामि 'जो तं एवं वयंति पडिसुणेई' यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा तामन्तःपुरिका एवं पूर्वोक्तप्रकारेण वदन्ती कथयन्ती प्रतिशृणोति तस्या वचनमङ्गीकरोति तथा 'पडिसुणेतं वा साइज्जई' प्रतिशृण्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ५।।
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुवारियभत्तं वा पसुभत्तं वा भयगमत्तं वा बलिभत्तं वा कयगभत्तं वा हयभत्तं वा गयभत्तं वा कंतारभत्तं वा दुभिक्खभत्तं वा दुक्कालभत्तं वा दमगभत्तं वा गिलाणभत्तं वा बदलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ६॥
छाया-यो भिक्षुःराक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां दौवारिकभक्तं वा पशुभक्तं वा भूतकमकं वा बलिभक्तं वा क्रयकभकं धा हयभकं वा गजभक्तं वा कान्तारभक्तं वा दुर्भिक्षभक्तं वा दुष्कालभक्तं वा द्रमकभक्तं वा ग्लानभक्तं वा बदलिकाभक्तं वा प्राबूर्णभक्तं वा प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० ६॥ ____ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि राजादीनां 'दुवारियभत्तं वा १' द्वौवारिकभक्तं वा राज्ञा द्वारपालादिकार्थ सम्पादितं यद् भक्तमोदनादिकं तत् प्रतिगृह्णातीत्यप्रिमेण सम्बन्धः 'पसुभत्तं वा २' पशुभक्तं वा राज्ञां पशूनां गवादीनां कृते सम्पादितं यत् भक्तं तत् २, 'भयगमत्तं वा ३' भृतकभक्तं वा-राजादिगृहे कर्मचारिनिमित्तं संपादितं भक्तं वा ३, 'बलिभत्तं वा ४' बलिभक्तं वावायसादिनिमित्तं निष्पादितं भक्तं वा ४, 'कयगमत्तं वा ५' क्रयकभक्तं वा-क्रीत्वा समानीतदासदास्यर्थ सम्पादितं भक्तं वा ५, 'हयभत्तं वा ६, हयभक्तं वा अश्वादिकृते सम्पादितं भक्तं वा 'गयभत्तं वा' गजभक्तं वा गजाधथ संपादितं भक्तं वा ७ 'कतारभत्तं वा ' कान्तारभक्तं वा' अटवीमुल्लभ्य समागतानामर्थाय अटवीं गमनार्थाय वा यदोदनादिकं
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२०६
निशीथसूत्र
सम्पादितं तादृशमोदनादिकं कान्तारभक्तम् ८, 'दुभिक्खमतं वा ९' दुर्भिक्षभक्तं वा दुर्भिक्षसमये ये अन्नादिकं न प्राप्नुवन्ति तदर्थं सम्पादितं भक्तं वा दुर्मिक्षभक्तम् ९, दुकालभत्तं वा दुष्कालभक्तं वा दुष्कालपीडितेभ्यः संपादितं भक्तम् । तत्र एकवार्षिकान्नावनुत्पत्तिरूपः समयो दुर्भिक्षम्, अनेकवार्षिकान्नाद्यनुत्पत्तिरूपः समयो दुष्कालशब्देन कथ्यते इत्येवमनयोर्भेदः १०, 'दमगभत्तं वा ११' दमकभक्तं वा, तत्र द्रमको दरिद्रो भिक्षुकः, तदर्थं सम्पादितं भक्तं वा ११, 'गिलाणमत्तं वा १२' ग्लानभक्तं वा तत्र ग्लानो ज्वरादिदीर्घरोगपीडितः, तदर्थे सम्पादितं भक्तं ग्लानभक्तम् १२, 'बद्दलियाभत्तं वा १३' बलिकाभक्तं वा, अतिवृष्टिपीडितजनार्थं सम्पादितमोदनादिकं बईलिकाभक्तम् १३, 'पाहुणभत्तं वा १४ ' प्राचूर्णकभक्तं वा प्राघूर्णकार्थं सम्पादितं प्राघूर्णकभक्तम् १४, एतादृशचतुर्दशप्रकारकं राजभवने सम्पादितं भक्तं 'पडिग्गाहे ' प्रतिगृह्णाति स्वयं स्वीकरोति, अन्यं श्रमणं स्वीकारयति वा, तथा 'पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ६ ||
सूत्रम् - जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाईं छदोसपयाईं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय परं चउरायपंचरायाओ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमइ वा पविसइ वा निक्खमंतं वा पवितं वा साइज्जइ तंजा - कोट्टागारसालाणि वा भंडागारसालाणि वा पाणसालाणि वा खीरसालाणि वा गंजसालाणि वा महाणससालाणि वा ॥० ॥
छाया - यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिक्तानामिमानि पड़ दोषपदानि अज्ञात्वा अपृष्ट्वा अगवेषयित्वा परं चतूरात्रपञ्चरात्रात् गाथापतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया निष्क्रामति वा प्रविशति वा निक्रामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते, तद्यथाकोष्ठागारशालानि वा भण्डागारशालानि वा पानशालानि वा क्षीरशालानि वा गञ्जशालाभि वा महानसशालानि वा ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कचिद् भिक्षुः 'रष्णो' इत्यादि राजाatri 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणानि 'छद्दोसपयाई' षड् दोषपदानि दोषस्थानानि यत्र निष्क्रमणेन प्रवेशेन च श्रमणः प्रायश्चित्तभाग् भवति, तानि दोषपदानि तदयमाणानि कोष्ठागारादीनि 'अजाणिय' अज्ञात्वा, तत्र लानि वर्त्तन्ते, इति स्वबुद्धया सम्यग् ज्ञानमन्तरेणेत्यर्थः अपुच्छिय' अपृष्ट्वा पूर्वदृष्टेषु परेभ्यः पृच्छादिकमकृत्वा 'अगवेसिय' अगवेषयित्वा अदृष्टेषु गवेषणं यथा - कानि वाऽऽयतनानि ?, कुतोमुखानि वा ? कस्मिन् वा स्थाने तानि किंचिह्नानि वा वानि ? इत्यादिरूपं गवेषणमकृत्वा
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चूर्विभाध्यावचूरिः उ० ९ सू० ७-८ राजादोनांदोषपदस्थानप्रवेश- तद्दर्शनार्थगमननि० २०७
'परं चउराय पंचरायाओ' परं चतूरात्रपञ्चरात्रादनन्तरम् तदधिकं वारं वारमित्यर्थः ' गाहावइकुलं' गाथापतिकुलम्, तत्र गाथा - गृहं तस्याधिपतिः स्वामी तत्तत्स्थानाधिपतिः, तस्य कुलं गृहं तत् 'पिंड वायपडियाए' पिण्डपातप्रतिज्ञया पिण्डस्याशनादिचतुविधाहारस्य वस्त्रपात्रकम्बलरजोहरणादीनां वा पातः प्राप्तिः तस्य प्रतिज्ञया प्राप्तिवाञ्छया 'निक्खमइ वा' निष्क्रामति वा निस्सरति तथा 'पविस वा' प्रविशति वा गाथापतिकुले प्रवेशं करोति वा, तथा 'निक्खमंत वा' निष्कामन्तं वा निस्सरन्तमन्यं भ्रमणं वा 'पविसंत वा' प्रविशन्तं वा अन्यम् 'साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अथ येषां दोषपदानाम् अज्ञानात् प्रायश्चित्तं भवति तानि कानि तत्राह - 'तंजहा' इत्यादि, 'तंजहा' तथथा - ' - 'कोट्टागारसा लाणि वा' कोष्ठागारशालानि वा, तत्र कोष्ठागारं तण्डुलगोधूमचणकत्रीहियवादीनां धान्यानां स्थापनाय निर्मितं 'कोठार' इति भाषाप्रसिद्ध कोष्ठागारशालमिति नाम्ना कथ्यते 'शालानि' इति शालशब्दो नपुंसकलिङ्गेऽपि वर्त्तते तथा 'भंडागारसा लाणि वा' भाण्डागारशालानि वा, तत्र भाण्डागारशालानि यत्रा ङ्करत्नस्फटिक - रत्नादिषोडशविधरत्नानां हिरण्यसुवर्णादिभाजनानां वा स्थापनं करोति तानि तथा 'पाणसा लाणिवा' पानशालानि वा, यत्र मादिरा - सीधु - खण्डमृद्वीकादीनां पानकद्रव्याणि स्थाप्यन्ते तानि तथा ' खीरसालाणि वा' क्षीरशालानि वा, दुग्धदध्यादिद्रव्यस्थापनशालानि 'गंजसालाणि वा ' गञ्जशालानि वा, तत्र गञ्जम्—अनेकोपस्करणसमूहः, तत् स्थापितं भवति यत्र तत् गञ्जशालामिति कथ्यते, बहुत्वविवक्षायां तानि 'महाणससाळाणि वा' महानसशालानि वा, यत्र राज्ञामनेकविधाशनादि पाध्यते तानि महानसशालानि वा, एतानि षड् दोषपदानि तानि अज्ञात्वा अपृष्ट्रा अगवेषयित्वा यदि साधुः निष्क्रामति वा प्रविशति वा तदा प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति । सूत्रे ' चतूरात्र पञ्चरात्रात्परं ' इत्युक्तं तस्यायं भावः - चतुःपञ्चरात्रपर्यन्तमपरिचितत्वेन साधुप्रवेशः क्षन्तव्यो भवितुमर्हति तदनन्तरगमने तत्तत्स्थानाधिपतयः कुपिता भवन्ति यदयं साधुर्वारं वारं षट्सप्तादिरात्रमपि निष्क्रामसि प्रविशति चेति चौर्यलोलुपतादिविषये तेषां मनसि शङ्का समुत्पद्यते अतः -' : - 'बतूरात्रपञ्चरात्रात्परं' इत्युक्तम् ||सू० ७॥
सूत्रम् - जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं आगच्छमाणाण वा णिग्गच्छमाणाण वा पयमवि चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८॥
छाया - यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिकानामागच्छतां वा निर्गच्छतां वा पदमपि चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया अभिसंधारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ||५||
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२०८
निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि राजादीनां 'आगच्छमाणाण वा' आगच्छतां पदातिसैन्यबलैः सह नगरे प्रवेशं कुर्वताम् 'णिग्गच्छमाणाण वा' निर्गच्छतां वा नगरान्निर्गत्य कौमुदीक्रीडाद्यर्थमुपवनादौ गमनं कुर्वतां परसैन्यमर्दनाय वा गच्छतां 'पयमवि' पदमपि एकपदन्यासमपि 'चक्खूदंसणपडियाएं चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया चक्षुषा दर्शनवाञ्छया नगरे आगमनसमये नगरात् गमनसमये राजानं द्रष्टुं चक्षुर्दर्शन विषय तां कर्तुं पदमपि एकचरणन्यासमपि 'अभिसंधारे ' अभिसन्धारयति गन्तुं मनसि विचारं करोति दर्शनस्य तु का कथा विचारमात्रमपि यदि करोति, अथवा दर्शनार्थमेकपदन्यासमपि गन्तुं विचारयति, तथा 'अभिसंधारेतं वा साइज्जइ' अभिसन्धारयन्तं वा विचारं कुर्वन्तमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् – गमनागमणे रण्णो, दंसणमहं पपि धारेइ । जो भिक्खू सो पाव, आणाभंगाइए दोसे ॥१॥
छाया - गमनागमने राशः, दर्शनार्थ पदमपि धारयति ।
यो भिक्षुः स प्राप्नोति, आशाभङ्गादिकान् दोषान् ॥ अवचूरि - 'गमणागमणे' इत्यादि । 'रण्णो' राज्ञः सूत्रोक्तप्रसंगात् क्षत्रियाणां मुदितानां राज्याभिषिक्तानां च गमने उपवन सेवनादिनिमित्तं नगराद्बहिर्निस्सरणसमये, आगमने उद्यानादितो नगरप्रवेशसमये दर्शनार्थं तदवलोकनार्थं गन्तुं यः कश्चिद् भिक्षुः पदमपि - एकपदन्यासमपि 'धारे ' धारयति करोति, किंबहुना अभिसंधारयति मनसि विचारमपि करोति स आज्ञा भङ्गादिकान दोषान् 'पावेइ' प्राप्नोतीति भाष्यगाथार्थः । एवमाज्ञाभङ्गादितोऽतिरिक्ता अपि आत्मविराधनभद्राभद्रकदोषाश्चापि भवन्ति । तथाहि - यदि राजा भद्रको भवेत् तदा यात्रासमये साधुं दृष्ट्वा एवं विचारयति-यत् यात्रासमये दृष्टः साधुरवश्यं मे कल्याणं भविष्यति जयो वा, यदि युद्धादौ विजयी भवति तदा आगत्य साधु सम्मानयतीति सम्मानादिकरणेन साधोर्गर्वो भवति यत् मां राजाऽपि सम्मानयतीति, तथा तुष्टो राजा वस्त्रादिना यदि सत्कारयति तदा स सत्कृतश्च साधुः परिग्रही भवति, ततः साधुक्रियायां प्रमादं कुर्वन् संयमं विनाशयेत् । अथ यदि राजा चाभद्रस्तदा यात्रा समये साधुं दृष्ट्वा मनसि विचारयति - यात्रासमये दृष्टोऽयं लुञ्चितकेशोऽतोऽवश्यमेव विघ्नो भवि यतीति गन्तुकामोऽपि निवर्तते, अथ कथमपि गतस्तदा यदि भाग्यवशात् तस्य कोऽपि विघ्नो जातः, अथवा युद्धे तस्य पराजयो वा जातस्तदा प्रत्यागतः श्रमणेन सह द्वेषं कुर्यात्, प्रद्विष्टश्च राजा भक्तपानौषधभैषज्यादीनां दाननिषेधं नगरे कुर्यात्, उपकरणादिकं वा अपहरेत्, हृत्वा चापमानपूर्वकं निर्वासयेदपि, तदनन्तरं श्रमणान्तरस्यापि भक्तपा नादिव्यवच्छेदं कुर्यात् तस्मात् राज्ञो दर्शनार्थे विचार
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निभायावरिः उ०९ सू०९-१० राजादिस्त्रोविलोकन-मांसादिखादकाहार-निषेधः २०१ मपि न कुर्यात् । अथवा यदि स साधुर्गमनागमनसमये राजानं द्रष्टुं यास्यति तदा सबैकत्रितजनसमूहे काञ्चिद् विभूषिताङ्गी वनितां दृष्ट्वा मोहवशो भविष्यति, प्रतिनिवृत्तो मनसा नि ध्यान तामलभमानश्च अन्यामेव काचित् बनितां स्वतीपरतीर्थसम्बन्धिी कामयेत् , संयत्तीक्षेत्र का काञ्चित् कामयेत् , तदभाने हस्तकर्मादिकमेव कुर्यात् , एवं रोत्याऽन्ततः सर्वथा स संचमान् परिभ्रष्टो भविष्यति । अथवा स यदि राजपुत्रः सन् प्रबजितोऽस्ति तदा व यदि तादर्श समद्विसम्पन्नं राजानं दृष्ट्वा स चिन्तयति-या एतादृशराजलक्ष्म्या उपभोगः कर्तव्य इति विचार्य कदाचित् संयम परित्यज्य स्वकुलं प्रतिगच्छेत् । यस्मात् राजादीवां दर्शन् एते सर्वोच्चा दोका भवन्ति तस्मात्कारणात् संयतः संक्सी वा राजादीनां गमनागमनसमवे तद्दर्शनस्य विचार करमपि न कुर्यात् , न वा विचारं कारयेत् , नवा सादृशं विचारं कुर्वन्तं कमपि धमणान्तरमसुमोचयेत्, किन्तु मिवृत्तदर्शनकुतूहको वश्वाशास्त्रं यथातीर्थकरादिष्ठं धर्मध्यानं कुर्वन् संयमाराधनसंकानवित्त एवं लिष्ठेत् इति भावः ॥ सू० ८६
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इत्थीओ सव्वालंकारविभूसियाओ पयमवि चक्खुदंसवणडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः रामः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां स्त्रियः सर्वालंकारविभूषिताः पदमषि चक्षुदर्शनप्रतिक्षवा अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः ‘रणो' इत्यादि राला दीनां 'इत्थीओ' स्त्रियः 'सन्दालंकारविभूसियाओ' सर्वालङ्कारविभूषिताः अनेकप्रकारकराजकुलोचितवस्त्रभूषणादिभिः सुसज्जिताः स्त्रियः 'चक्खदंसबवडियाए' चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया-चक्षुषा दर्शनवाञ्छया द्रक्ष्यामि राजवनितामितीच्छया 'पवमवि पदमषि एकपदन्यासमपि कर्नु अमिसंपारे। अभिसन्धारयति मनसा चिन्तयति तथा 'अभिसंधारेतं वा साइज्जइ' अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा बस्याज्ञाभङ्गादिक्का दोषा भवन्तीति । अत्राह माग्यकारःभाष्यम्---इस्थि पासति जे रणो, सध्यासकारभूसियं ।
लभंते नेमदोसे ते, समणा मेस्थ संसओ ॥ छाया-स्त्रियं पश्यन्ति ये राक्षः सर्वालङ्कारभूषिताम् ।
लभन्तेऽनेकदोषान् त श्रमणा मात्र संशयः ॥
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निशोथस्त्रे .... अवचूरिः-'इर्थि' इत्यादि । ये केचित् श्रमणाः भिक्षुकाः राज्ञः प्रसंगात् क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानाम् सम्बन्धिनी स्त्रियं राजवल्लभां, कीदृशीम् ? सर्वालङ्कारविभूषितां स्वच्छसुन्दरकमनीयवस्त्राभूषणसज्जितां पश्यन्ति चक्षुर्जनितज्ञानविषयतां कुर्वन्ति ते श्रमणाः अनेकदोषान् विविधदोषान् आज्ञाभङ्गादिकान् लभन्ते प्राप्नुवन्ति अत्रैतद्विषये न कोऽपि संशयः, अपि तु तेषां दोषा भवन्त्येवेति, तथाहि-यस्तु भुक्तभोगी पश्चात् श्रमणः संजातः स तादृशी स्त्रियं दृष्ट्वा विचिन्तयतिममापि एतादृशी वल्लभा आसीत् , एवं विचारयतस्तस्य कालक्रमेण तत्समये वा उदीरितकामव्यथया जजरितशरीरः संयमात् परिभ्रष्टो भवति । यस्तु अभुक्तभोगी स चिन्तयति-एतादृक्स्सीसेवने कीदृश आनन्दानुभवो जायेत ? इत्यादिविचारेण विह्वलीभूतः स तादृशी स्त्रियं दृष्ट्वा संयमात् पतितो भवति, कामविह्वलशरीरो भवन् शासनस्य निन्दको वा भवेत्-किमनेन साध्वाचारेण ! गार्हस्थमेव श्रेयस्करमित्यादि वदेत् , तदप्राप्तौ कदाचित् आत्मघातमपि करोति, तेन शासनस्य लघुता भवति । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः राजादीनामुपलक्षणात्साधारणजनानामपि स्त्रियं द्रष्टुं विचारमपि न कुर्यात्, न वाऽन्यान् श्रमणान् स्त्रीदर्शनविषयकविचारमपि कारयेत् , न वा विचारं कुर्वन्तमन्यमनुमोदयेदिति ॥सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंसखायाणं वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया णिग्गयाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गहेंतं वा साइ ज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धामिषिक्तानां मांसवादकानां वा मत्स्यखादकानां वा छविखादकानां वा पहिनिर्गतानाम् अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० १०॥ - चूर्णी-"जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादिराजादीनां 'मंसखायाणं वा' मांसखादकानां वा-मांसभक्षकाणां मांसभक्षणनिमित्तं मृगयां कत्तुं बहिनिर्गतानामिति सर्वत्र सम्बन्धः कार्यः, तेन मांसार्थ वने मृगयाकरणाय ग्रामाद् बहिर्निर्गतानां मांसखादनार्थमित्यर्थो बोध्यः, एवं 'मच्छखायाणं वा' मत्स्यखादकानां वा-मत्स्यभक्षकाणां वा-मत्स्यप्रहणनिमित्तं नदीहदसमुद्रादौ गमनाथ बहिर्निर्गतानां वा 'छविखायगाणं वा' छविखादकानां वा, छविः चपलमुद्गादिफलिस्तासाम्-चपलमुद्गादिफलिभक्षणार्थ क्षेत्रे गमनार्थ वा 'बहिया णिग्गयाणं वा' तत्तद्वस्तुभक्षणार्थ बहिनिर्गतानां वा तत्सम्बन्धि 'असणं वा' इत्यादि अशनादिचतुर्विधमाहार 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति, अयं भावः-राजादयो मांसादिभक्षणेच्छया वनादिप्रदेशेषु समागताः
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ०९ सू.११-१२ राजादिसभासमये तत्रत्याहारग्रहणनिधः २११ भवन्ति तत्र स्थितास्ते अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं पाचयन्ति तादृशाऽशनादि तेभ्यो यो भिक्षुर्गृह्णाति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उववूहणियं समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुठियाए अभिण्णाए अवाच्छिण्णाए जा तं असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पग्गिाहें वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया-यो भिक्षुः राक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामन्यतरद् उपहणीयं समीहितं प्रेक्ष्य तस्यां परिषदि अनुत्थितायां अभिन्नायां अव्यवच्छिन्नायां यः तद्सनं वा ४ प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० ११॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' इत्यादि राजादीनां 'अण्णयरं' यत् अन्यतरत् अशनादिषु मध्ये यत् किमप्येकमशनादिकम् 'उववृहणियं' उपवृंहणीयम् शरीरपुष्टिकारकम् मेधेन्द्रियायुष्यादिबलबर्द्धकं च, एवादृशे सति पुनः 'समीहियं' समीहितम् मनोऽभिलषितम् 'पेहाए' प्रेक्ष्य दृष्ट्वा 'तीसे परिसाए' तस्यां यस्यां परिषदि सर्वक्षत्रियादिकाः संस्थिता तस्यां च परिषदि 'अणुट्टियाए' अनुत्थितायां यावत्पर्यन्तं सभा नोस्थिता तस्यां 'अभिण्णाए' अभिन्नायां यावत्पर्यन्तम् एकोऽपि जनस्ततो निर्गतो न भवति सा अभिन्ना तस्यां 'अव्वोच्छिण्णाए' अव्यवच्छिन्नायां यदा सर्वे विनिर्गता भवन्ति तदा सा व्यवच्छिन्ना, न व्यष्छिन्ना अव्यवच्छिन्ना तस्यां 'जो तं असणं वा ४ पडिग्गाहेइ' यः तद् उपवृहणीयादिगुणयुक्तमशनपानखाद्यस्वाद्यं प्रतिगृह्णाति स्वोकरोति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते तादृशमशनादिक यो गृहाति गृहन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-मेहाइंदिय आऊआईणं जं विवहगं होई ।
उववृहणीयमसणं, रायसहाओ य नो गिण्हे ॥ छाया--मेधेन्द्रियायुरादीनां यत् विवर्धकं भवति ।
उपबृंहणीयमशनं रामसभातश्च नो गृहीयात् ।। अवचूरिः- 'मेहा' इत्यादि । तत्र मेधा धारणावती बुद्धिः, कालान्तरे अविस्मरण धारणा तस्याः, इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि, तेषाम्, आयुश्च जीवनस्थितिरूपं तस्य, उपलक्षणाद् देहस्य च विबर्द्धकं भवति तत् उपबृहणीयमशनं चतुर्विध भक्तादिकम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं साधुः राजसभातः,
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निधीयसूत्रे तस्थामनुस्थितायां तत्सकाशात् 'मो गिडे' नो नैव गृहीयात्, स्वीकुर्यात् , न वा स्वीकुर्वन्तमन्यमदुमोदवेत्, तद्ग्रहणे आज्ञाभङ्गादि-राजपिण्डहणजन्याधनेकदोषसंभवादिति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-अह पुण एवं जाणेज्जा-'इहज्ज रायखत्तिए पखुिसिए' में भिक्खू ताए गिहाए ताए पएसाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ सज्झाय वा करेइ असणं वा पार्ण वा, खाइमं या साइमं या आहारेइ, उधारं वा पासवणं वा परिहबेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं अस्समणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।।सू०१२॥
__छाया-अथ पुनरेव जानीयात "इहाऽध राजक्षत्रियः पर्यपितः" यो मिक्षः तस्मिन् गृह तस्मिन् प्रदेशे तस्मिन् अवकाशान्तरे विहारं वा करोति स्वाध्यायं वा करोति अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वायं वा थाहरति, उध्धार या प्रत्रवर्ण वा परिठापयति, अन्यतरां वा बनायाम् मिष्ठुराम् अश्रमणप्रायोग्यां कथां कथयति कथयन्तं या स्वदते ॥सू० १२॥
चूः–'अह पुण' इत्यादि । 'अह' अथ अथेत्ययं निपातः आनन्तर्वार्थकः, उक्को हि राबपिण्डः, अथ तदनन्तरम् राजपिण्डकथनानन्तरम् 'पुण' पुनः ‘एवं जाणेज्जा' एव जानीयात् एवं यथावस्यमाणं जानीयात्, किं जानीयात् ! सत्राह-रहे'-त्यादि, 'इहज्ज रायखत्तिए परिसिए' इहाय रामक्षत्रियः-क्षत्रियवंशीयो सजा पर्युषितः, तत्र इहास्मिन् भूमिप्रदेशे अध वर्तमालदिवसे राजा कुलपरम्परया प्राप्तराज्यश्रीकः क्षत्रियः उपलक्षणात्-मुदितः मूभिषिक्तो वा पर्युषिको निक्सन् अस्तीति, अथैवं शात्वाऽपि 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'ताए गिहाए' तस्मिन् गृहे यत्र राजा निवासं करोति तदासन्नगृहस्थगृहे 'काए परसाए' तस्मिन् प्रदेशे राजादिनिवासासन्मग्रदेशे यत्र खड्गादिशस्त्राणि स्थापितानि भवेयुस्तत्र 'ताए उवासंतराए' तस्मिन् अवकाशान्तरे तत्पार्थस्थशुद्धभूमौ च विसरं का करे' विहारं-बिहरणं वा करोति 'सम्झायंषा करेइ' स्वाध्यायं वा करोति 'असणं वा' अशनं वा इत्यादि, अशनादिचतुर्विषमाहारं 'आहारेहे' आहरति-आहारं करोति 'उच्चारं षा पासवणं वा परिहवेई' उच्चारं वा प्रत्रवणं वा परिष्ठापयति 'अण्णयरं वा' अन्यतरां वा 'अणारियं' अनार्याम् सत्पुरुषानाचरणीयाम् 'णिडुरं' निष्ठुराम्-अश्लीला 'अस्समणपाओग्गं' अश्रमणप्रायोग्याम् असाधुपुरुषयोग्यां 'कह' कथाम् 'कहेई' कथयति 'कहेंतं वा साइज्जई' कथयन्तं वा स्वदते अनुमोदते ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-राया य जत्थ चिट्ठइ, तत्थत्येसुं गिहाइठाणेमु ।
भिक्खू दोसे पायद, रिझरभाइस्स करणाओ ॥
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पूर्षिमाध्यावरिः उ०९ सू० १३-१९ यात्रासंप्रस्थितनिवृत्तराजादोनामाहारग्रहणनि० २१३ अया-राजा व यत्र तिष्ठति, वत्रस्थेषु गृहादिस्थानेषु ।
भिक्षुदोषान् प्राप्नोति, विहारादेः करणात् ॥ अवधूरिः- 'राया य जत्थ चिढई' या प्रदेशविशेषे राजक्षत्रियः क्षत्रियवंशीयो राजा तिष्ठति 'तत्वत्येमुं' तत्रस्थेषु तदासन्नस्थितेषु गृहादिस्थानेषु 'विहारमाइस्स करणाओ' विहारादेः, विहारस्य आदिशब्दात् स्वाध्यायस्य माहारस्य उच्चारादिपरिष्ठापनस्य अन्यतरदनार्यनिष्ठुसश्रमणप्रायोग्यकथायाश्च करणात् 'भिक्खू भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोसे' दोषान् भाशामझानवस्थादिकान् 'पावई' प्राप्नोति । यः कोऽपि साधुः राजादिनिवासासन्नगृहादिप्रदेशे बिचरेत् स्वाध्याय कुर्यात् हारं कुर्यात् उच्चारप्रसवणं परिष्ठापयेत् शिष्टविगर्हितां काञ्चित् कषां वा कुर्यात् , एवं कारयेत् वा, तथा कुर्वन्तमनुमोदयेत् वा स आज्ञाभङ्गमनबस्था मिथ्यात्वं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नुयात् , एवं भद्रकाभद्रककृता अनेके दोषा अपि भवेयुरिति । यस्माद एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा राजादिनिवासासन्न स्थितगृहादौ तत्समीपे वा विहारमारम्य शिष्टजनानाचरणीयकथापर्यन्तं स्वयं न कुर्यात् न या कारयेत् म बा कुर्वन्तं कमपि अनुमोदयेदिति ॥सु० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू०१३॥
छाया--यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां बहिर्यात्रासंस्थितानाम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिरक्षाति प्रति गृहन्तं पा स्वदते ॥सू० १३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रणो' राज्ञः 'खत्तियाणं' क्षत्रियाणाम् 'मुदियाणं' मुदितानाम् 'मुदाभिसित्ताणं' मूर्दाभिषिक्तानाम् पूर्वोक्तस्वरूपाणां 'बहिया जत्तासंपटियाणं' बहिर्यात्रासंस्थितानां परराजविजयार्थ प्रस्थितानाम् , यदा राजा परराजविजयाथं गच्छति तदा मङ्गलार्थ भोजनं कृत्वा गच्छति तादृशभोजनादित्यर्थः 'असणं वा' अशनं या पाणं पा' पानं वा 'खाइम पा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वार्थ वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिम्गात वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा स्वदते । यो हि विजयार्थ प्रस्थितस्य राजादेमार्गे माल्यार्थ निर्मितभोजनादिसामग्रीतोऽशनादिकं स्वीकरोति स्वीकारयति वा, तथा तादृशमशनादिकं स्वीकुर्वन्तमनुमोदयति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२०१३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १४॥
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निशीथसूत्रे
छाया-यो भिक्षुः रामः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां बहिर्यात्राप्रतिनिवृत्तानामशनं वा पानं वा साधं वा स्वाद्य वा प्रतिगृहाति प्रतिवन्तं वा स्वदते ॥सू०१४
चूर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'यथा पूर्वसूत्रे यात्रार्थ प्रस्थितानां राजादीनामशनादिग्रहणस्य निषेधः कृतस्तथैवात्र यात्रातः प्रतिनिवृत्तानां राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधो वक्तव्यः । सूत्रस्याक्षरगमनिका सुगमा ॥ सू० १४॥ एवम् 'नईजत्तासंपटियाणं' नदीनां यात्रार्थ संप्रस्थितानां राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधसूत्रम् ॥ सू० १५॥ तथा एवमेव 'नईजत्तापडिनियत्ताणं' नदीयात्रातः प्रत्यागतानां राजादीनामशनादिग्रहणनिषेधसूत्रम् ॥ सू० १६।। एवमेव 'गिरिजत्तासंपटियाणं' गिरियात्रार्थ संप्रस्थितानाम्, इति सूत्रम् ॥ सू०१७॥ तथा 'गिरिजत्तापडिनियताणं' गिरियात्रातः प्रतिनिवृत्तानाम्, इति सूत्रम् । एषा सूत्रचतुष्टयी त्रयोदशसूत्रयात्राप्रस्थितसूत्रवदेव व्याख्येया ॥ सू० १८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्राभिसित्ताणं महाभिसेयंसि वट्टमाणंसि णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥सू० १९॥
छाया-यो भिक्षुः राशः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानां महाभिषेके वर्त माने निष्कामति वा प्रविशति वा निष्कामन्तं वा प्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू १९॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि राजादीनां 'महाभिसेयंसि' महाभिषेके तत्राभिषेकानां मध्ये महान् अभिषेको महाभिषेकः, तस्मिन् महाभिषेके 'वट्टमाणसि' वर्तमाने प्रवर्त्तमाने महाभिषेकस्य समये तत्र 'णिक्खमइ वा' निष्क्रामति तत्र गन्तुमुपाश्रयात् निर्गच्छति वा 'पविसइ वा' प्रविशति वा तत्र महाभिषेकस्थाने प्रवेशं कुरुते वा 'णिक्खमंतं वा' निष्कामन्तं वा 'पविसंतं वा साइज्जई' प्रविशन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाओ दस अभिसेयाओ रायहाणीओ उद्दिवाओगणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तोवा तिक्खुत्तो वा णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ । तंजहा-चंपा १, महुरा २, वाणारसी ३, सावत्थी ४, साएयं ५, कंपिल्लं ६, कोसंबी ७, मिहिला ८, हथिणापुरं ९, रायगिहं वा १० ॥ सू० २०॥
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चूर्णिभाष्यावधिः उ०९ सू० २० चम्पादिदशाऽभिषेक्यराजधानीषुद्वित्रिवारगमननि० २१५
छाया-यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामिमा दश आभि. क्याः राजधान्य उद्दिष्टाः गणिताः व्यञ्जिता अन्तर्मासस्य द्विःकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा निष्कामति वा प्रविशति वा निष्कामन्तं वा प्रेविशन्तं वा स्वदते । तद्यथा-चम्पा १, मथुरा २, वाराणसी ३, श्रावस्ती ४, साकेतम् ५, कांपिल्यम् ६, कौशाम्बी ७, मिथिला ८, हस्तिनापुरं ९, राजगृहं वा १० ॥ सू० २०॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' राज्ञः 'खत्तियाणं' क्षयित्राणाम् 'मुदियाणं' मुदितानाम् ‘मुद्धाभिसित्ताणं' मूर्दाभिषिक्तानाम् 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणाः 'दस अभिसेयाओ' दश-दशसंख्यकाः आभिषेक्याः अभिषेकयोग्याः अभिषे. कार्थमुपयुज्यमानाः 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'उहिट्ठाओ उद्दिष्टाः कथिताः 'गणियाओ' गणिताः यासां महाभिषेके गणनाऽस्ति, 'बंजियाओ' व्यञ्जिताः नाम्ना प्रसिद्धाः, तत्र 'अंतोमासस्स' अन्तर्मध्ये मासस्य मासाभ्यन्तरे इत्यर्थः, 'दुक्खुत्तो' द्विःकृत्वो द्विवारम् 'तिक्खुत्तो' त्रिःकृत्वः त्रिवारम् ‘णिक्खमइ वा' निष्क्रामति वा उपाश्रयात् 'पविसइ वा' प्रविशति वा उत्सवारम्भे प्रवर्तमाने वा महोत्सवे अन्यस्थानादागत्य तत्र प्रविशतीत्यर्थः तथा 'णिक्खमंतं वा' निष्क्रामन्तं वा 'पविसंतं वा' प्रविशन्तं वा 'साइज्जई' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अभिषेकयोग्यराजधान्यामुत्सवारम्भ मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा निष्क्रमणं प्रवेशश्च निवारितः, तत्रायं भावः-यत्र उत्सवारम्भो जायते तत्र राजादयस्तत्प्रक्रियासंयोजनार्थ प्रथमं गत्वा निवसन्ति, उत्सवे प्रतिनिवृत्ते च तत्रतः प्रतिनिवर्तन्ते अतः एकवारं निष्क्रमणस्य प्रवेशस्य च निषेधो न कृतः, किन्तु द्वित्रिवारस्य निषेधः कृतः वारं वारं गमने तेषां द्वेषोत्पत्तिसंभवादिति । कास्तादृश्यो राजधान्यो यत्राऽभिषेकः क्रियते ? इति जिज्ञासायामाह-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'चंपा' चम्पानाम्नी राजधानी प्रथमा या वासुपूज्यस्य जन्मभूमिः १, 'महुरा' मथुरानाम्नी राजधानी द्वितीया यत्र हि कृष्णवासुदेवस्य जन्माऽभूत २, वाराणसी' वाराणसी तृतीया या पार्श्वनाथतीर्थकरस्य जन्मभूमिः ३ 'सावत्थी' श्रावस्तीनाम्नी राजधानी चतुर्थी या संभवतीर्थङ्करस्य जन्मममिः ४, 'साएयं' साकेतमयोध्या पञ्चमी या ऋषभदेवस्य अनन्तनाथस्य रामचन्द्रस्य च जन्मभूमिः ५, 'कंपिल्लं' काम्पिल्यं षष्ठी राजधानी या विमलनाथतीर्थङ्करस्य जन्मभूमिः ६, 'कोसंबी' कौशाम्बीनाम्नी सप्तमी राजधानी पद्मप्रभोर्जन्मभूमिः ७, 'मिहिला' मिथिला अष्टमी राजधानी या मल्लिनाथस्य जन्मभूमिः ८, 'हत्थिणापुरै' हस्तिनापुरं नवमी राजधानी या शान्तिनाथस्य कुन्थुनाथस्य च जन्मभूमिः ९, 'रायगिहं वा' राजगृहं दशमी राजधानी या मुनिसुव्रतस्वामिनो जन्मभूमिः १०, ता एता दश राजधान्यो नामनिर्देशेन गणिताः कथिताः, एतदतिरिका अपि वासुदेव-बलदेव-चक्रवादीनां राजधान्यो बहुजनसमाकीर्णा ग्रहीतव्याः, तास्वपि उत्सवप्रसंगे मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा गमनागमनं
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२१६
विशोधणे
न कर्तव्यम् । एतासु दशसु राजधानीषु तादृशीष्वन्यासु वा मासाभ्यन्तरे यो भिक्षुद्विवारं त्रिवारं वा गमनागमनं करोति कारयति वा तथा गमनागमनं कुर्वन्तं वाऽन्यमनुमोदते स प्रायश्वितभागौ भवति ।
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् - चंपाइयं च एयं पुव्युत्तं रायहाणिदसगं जं । रज्जाभिसेगलमए, दुतियवारं न गच्छेत्थ ||१||
छाया -- चम्पादिकं चैतत् पूर्वोक्तं राजधानीदशकं यत् राज्याभिषेकसमये, द्वित्रिवारं न मच्छेदत्र || २ ||
अवचूरि : - 'चंपाइयं' इत्यादि । एतत् चम्पादिकं राजधानीदशकं दश राजधाम्य इत्यर्थः यत् पूर्वोक्तम्, अत्र दशसु राजधानीषु राज्याभिषेकसमये राज्याभिषेक महोत्सबकाले भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा न गच्छेत् । उत्सवसमये एतासु राजधानीषु एकवारादधिकं द्विवारं त्रिवारं ज भिक्षार्थमन्यकार्यार्थं वा गमने साधोर्बहवो दोषा भवन्ति, तथाहि - उत्सवसमये तत्र हयानां गजानां रथानां जनानां च परस्परं संघट्टनरूपः संमर्दो भवति तेन तत्रत्यो मार्गोऽवरुद्धः स्यात् ततस्तत्र गमने आत्मविराधनासंभवः, तथा तत्र भिक्षायां बहुकालक्षेपो जायते, तेन स्वाध्यायध्यानादिषु व्याघातो भवति, तत्र भिक्षार्थ भ्रमणे लोकापवादोऽप्यवश्यम्भावी - यदयं साधुराहारलोलुपः स्याद्विदर्शनस्पर्शनलोलुपश्च दृश्यते, इत्यादि । यस्मादेते दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रममस्तत्र निष्कमणं वा प्रवेश वा न कुर्यात् न कारयेत् कुर्वन्तं वा नानुमोदयेत् । यथेवं कुर्याचदा साम श्चित्तभागी भवति, आज्ञाभङ्गादिदोषांश्चापि प्राप्नोतीति भाव्यमावाभावार्थः ॥॥२०॥
सूत्रम् - जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गा वा साइज्जइ । तंजहा - खत्तियाण वा रायाण वा कुरायाण वा रायपेसियाण वा रायवंसियाण व-ति ॥ सू० २१||
छाया -यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिकानामशनं वा पानं atra ar are वा परस्मै निहतं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृवन्तं वा स्वदते तद्यथा-त्रियेभ्यः या राजभ्यो वा कुराजेभ्यो वा राजश्रेष्येभ्यो वा राजबंश्येभ्यो वा इति सू० २२॥ चूर्णो – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्बो' राज्ञः 'स्वचियाणं' क्षत्रियाणाम् 'मुदियाणं' मुदितानाम् 'सुद्धाभिसित्तार्थ' मूर्द्धाभिषिकानाम् 'असणं पाखामं वा साइमं बा' अशनं पानं खायं स्वायं वा यत् 'रस्स बीहड' अत्र 'पर'
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०९ सू० २१-२७ राजादीनां क्षत्रियादिपरार्थनिस्सारिताशनादेनि० २१७
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इति चतुर्थ्या रूपम् 'चतुर्थ्याः षष्ठी' इति प्राकृतसूत्रपाठात् , प्राकृते चतुर्थीस्थाने षष्ठ्येव विभक्तिः प्रयुज्यते ततः 'परस्स' 'परस्मै' इतिच्छाया भवति, एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । ततः परस्मै जातावेकवचनं ततः परेभ्य इत्यर्थः, परनिमित्तं 'नीहडं' निर्हतम्-अन्येषां वक्ष्यमाणानां कृते बहिः निस्सारित तत् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते. ऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । केभ्यः परेभ्य इति तानेव दर्शयति-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'खत्तियाण वा' क्षत्रियेभ्यो वा 'रायाण वा' राजभ्यो वा 'कुरायाण वा' कुराजेभ्यः-कुत्सिताः राजान कुराजाः, तेभ्यः प्रत्यन्तदेशाधिपत्वात् 'रायपेसियाण वा' राजप्रेष्येभ्यो वा, एतेषामेव क्षत्रियादीनां ये प्रेष्या भृत्यास्तेभ्यः 'रायसियाण वा' राजवंश्येभ्यो वा एतेषामेव वंशे समुत्पन्नाः पुत्रमातृभ्रातृप्रभृतयः, तेषां कृते निस्सारितं चाशनादिकं गृह्णतः श्रमणस्य प्रायश्चित्तं भवति, परजन्यप्रद्वेषान्तरायादो एतादृशान्नस्यापि राजपिण्डत्वादेव । तथा-परजन्यप्रद्वेषान्तरायादिभ्योऽन्येऽपि बहवो दोषाः संभवन्तीति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहाँ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। तंजहा-णडाण वा पट्टगाण वा कच्छुयाण वा जल्लाण वा मल्लाण वा मुट्ठियाण वा वेलंबगाण वा कहगाण वा पवगाण वा लासगाण वा खेलयाण वा छत्ताणुयाण वा ॥ सू० २२॥
छाया- यो भिक्षुः राक्षः क्षत्रियागां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधवा परस्मै निहत प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते । तद्यथा नटेभ्यो वा नर्तकेभ्यो वा कच्छुकेभ्यो वा जल्लेभ्यो वा मल्लेभ्यो वा मौष्टिकेभ्यो वा बेलम्बकेभ्यो वा कथकेभ्यो वा प्लवकेभ्यो वा लासकेभ्यो वा खेलकेभ्यो वा छत्रानुगेभ्यो वा ॥२२॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'रण्णो' इत्यादि व्याख्या पूर्वसूत्रवत् कर्त्तव्या । अनागतपदानि व्याख्यायन्ते-'णडाण वा' नटेभ्यः नाटकादिकर्तृभ्योवा 'णगाण वा' नर्तकेभ्यो वा नृत्यकर्तृभ्यः, तत्र नर्तका नृत्यकर्तारः, अथवा अन्यान् ये नर्तयन्ति तेऽपि नर्तकाः तेभ्यः कच्छ्याण वा' कच्छुकानां वा, तत्र कच्छुः रज्जुस्तदुपरि नृत्यकारकाः कन्छुकाः, तेभ्यो वा 'जल्लाण वा' जल्लेभ्यो वा तत्र जल्लाः राजस्तुतिपाठकाः, अथवा वंशोपरिनर्तकाः, तेभ्यः 'मल्लाण वा' मल्लेभ्यो वा, तत्र मल्ला-मल्लयुद्धकारकाः प्रसिद्धाः, तेभ्यः 'मुट्ठियाण वा' मौष्टिकेभ्यो वा मुष्टिप्रहारकाः-मुष्टियुद्धकारकाः, तेभ्यः 'बेलबगाण वा' वेलम्बकेभ्यो वा, तत्र
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निशीथसूत्रे
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लम्बका भण्डवत् कुचेष्टाकारकाः, तेभ्यः 'कहगाण वा' कथकेभ्यो वा कथकाः राजसभायां कथाकारकास्तेभ्यः 'पत्रगाण वा', प्लवकेभ्यो वा प्लवकाः - मर्कटादिवत् कूर्दकास्तेभ्यः 'लासगाण वा' लासकेभ्यो वा लासकाः गाथागायकाः राजयशोगायकास्तेभ्यः 'खेलयाण वा ' खेलकेभ्यो वा लीलाकारकेभ्यः 'छत्ताणुयाण वा' छत्रानुगेभ्यो वा राजादीनां छत्रं गृहीत्वाऽनुगच्छन्ति तेभ्यः छत्रधारकेभ्य इत्यर्थः एतेषां नटादीनामुद्देशेन राजभवने संपादितमाहारजातं यो गृह्णाति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २२||
सूत्रम् — जे भिक्खू रण्णा खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा खाइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाes पडिग्गतं वा साइज्जइ । तं जहा - आसपोसयाण वा हत्थिपोसयाण वा महिसपोसयाण वा वसहपोसयाण वा सीहपोसयाण वा वग्घपोसयाण वा अयपोसयाण वा मिगपोसयाण वा सुणगपोसयाण वा सूयरपोसयाण वा टपोसयाण वा कुक्कुडपोसयाण वा मक्कडपोसयाण वा तित्तिरपोसयाण वा वयपोसयाणवा लावयपोसयाण वा चीरल्लपोसयाण वा हंसपोसयाण वा मयूरपोसथाण वा सुयपोसयाण वा || सू० २३ ||
छाया - यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्द्धाभिषिक्तानामशनं वा पानं वा नाथ व स्वाद्यं व परस्मै निहतं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तद्यथाअभ्यपोषकेभ्यो वा हस्तिपोषकेभ्यो वा महिषपोषकेभ्यो वा वृषभपोषकेभ्यो वा सिंहपोषकेभ्यो वा व्याघ्रपोषकेभ्यो वा अजपोषकेभ्यो वा मृगपोषकेभ्यो वा श्वपोषकेभ्यो वा शूकरपोषकेभ्यो वा मेषपोषकेभ्यो कुक्कुटपोषकेभ्यो वा मर्कटपोषकेभ्यो वा तित्तिरपोष केम्यो वा वर्त्तकपोषकेभ्यो वा लावकपोषकेभ्यो वा चिल्हपोषकेभ्यो वा ईसपोषकेभ्यो वा मयूरपोषकेभ्यो वा शुकपोषकेभ्यो वा ॥ सु० २३||
चूर्णी - इदमपि सूत्रं पूर्ववदेव व्याख्येयम् । अत्र अश्वादिशब्दाः सर्वे प्रसिद्धा एव ते लोकतो ज्ञातव्याः ॥सू०२३॥ एवमनेनैव क्रमेणाग्रेतनानि चत्वारि सूत्राण्यपि व्याख्येयामि, तथाहि - 'आसदमाण वा हत्थिदमगाण वा' अश्वदमकेभ्यः अश्वदमनकारकेभ्यः, हस्तिदमकेभ्यः हस्तिद मनका - रकेभ्यः ० सूत्रम् २४ || 'आसमद्दगाणं वा इत्थिमद्दगाणं वा' अश्वमर्दकेभ्यः अश्वानां हस्तादिना मर्दनकारकेभ्यः, हस्तिमर्दकेभ्यः हस्तिनां हस्तादिना मर्दनकारकेभ्यः ० इति सूत्रम् २५ ॥ 'आसमट्ठाण वा हस्थिमाण वा' अश्वमार्जकेभ्यो वा हस्तिमार्जकेभ्यो वा । अश्वानां हस्तिनां च रजोऽवगुण्ठितशरीरस्य मार्जनकारकेभ्यः रजोनिवारकेभ्यः ० इति सूत्रम् २६ ॥ ' आस
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पूर्णिभाष्यावचूार, उ०९ सू० २८-२९ सचिवसन्देशकादिपरार्थनिस्सारिताशनादेनि० २१९ रोहाण वा हत्थिरोहाण बा' अश्वारोहकेभ्यो वा-अश्वानामारोहणकारकेभ्यः, हत्यारोहकेभ्यो वा हस्तिनामारोहणकारकेभ्यः० इति । एतेषां पूर्वोक्तानामश्वदमकादीनां निमित्तं बहिनिस्सारितं संपादितं वा अशनादि साधुर्न गृह्णीयात् , न ग्राहयेत् , गृह्णन्तं वा नानुमोदयेत् । एवं करणे साधुः प्रायश्चितभागी भवति, आज्ञाभङ्गानवस्थादिदोषांश्च प्राप्नोतीति ॥सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्तणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-सत्थाहावाण वा संवाहावयाण वा अन्भगावयाण वा उव्वद्यावयाण पा मज्जावयाण वा भंडावयाण छत्तग्गहाण वा चामरग्गहाण वा हडप्पग्गहाण वा परियदृग्गहाण वा दीवियग्गहाण वा असिग्गहाण वा धणुग्गहाण वा सत्तिग्गहाण वा कोतग्गहाण वा हत्थिपत्तग्गहाण वा ।।सू० २८॥
छाया-यो भिक्षु राक्षः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा परस्मै निहतं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तद्यथासाहिकेभ्यो वा संवाहकेभ्यो वा अभ्यञ्जकेभ्यो वा उद्धर्तकेभ्यो वा मज्जकेभ्यो वा मंडकेभ्यो वा छत्रग्रहेभ्यो वा चामरग्रहेभ्यो वा हडप्पग्रहेभ्यो वा परिवर्तग्रहेभ्यो वा दीपिकाग्रहेभ्यो वा असिग्रहेभ्यो वा धनुर्घहेभ्यो वा शक्तिग्रहेभ्यो वा कुन्तग्रहेभ्यो वा हस्तिपत्रग्रहेभ्यो वा ॥ सू० २८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् , केभ्यः परेभ्यः ! तान् प्रदर्शयति-तं जहा' इत्यादि । 'तंजहा' तपथा-'सत्थाहावाण वा' सार्थाहकेभ्यो वा राज्ञां सार्थानि सचिवादिरूपाणि आयन्ति आमन्त्रयन्ति राजसंदेशं वा कथयन्ति ये ते तथा, तानुद्दिश्य सम्पादितं स्थापितम् तथा 'संवाहावयाण वा' संवाहकेभ्यो वा, तत्र शयनकाले राजादीनां संवाहनं शरीरादेर्वा संवाहनं 'पगचंपी' इति प्रसिद्धं कुर्वन्ति ये ते, तेभ्यः 'अभंगावयाण वा' अभ्यञ्जकेभ्यो वा शतपाकसहस्रपाकादितैलेन राजादीनामभ्यञ्जनं 'मालिश' इति प्रसिद्धं कुर्वन्ति ये ते अभ्यञ्जकाः तैलाभ्यङ्गकारकाः, तेभ्यः 'उन्बट्ठावयाण वा' उद्धर्तकेभ्यो वा, तत्र राजादीनां शरीरे सुगन्धिद्रव्यमिश्रितपिष्टचूर्णादिना उद्वर्तयन्ति 'उवटना' इति प्रसिद्धं कुर्वन्ति ये ते उर्तकाः, तेभ्यः 'मज्जावयाण वा' मज्जकेभ्यो वा, तत्र ये राजादीनां स्नानं कारयन्ति ते मज्जकाः तेभ्यः, 'मंडावयाण वा' मंडकेभ्यो, वा तत्र मुकुटादिना राजादीन् मण्डयन्ति-मण्डितं कुर्वन्ति अलङ्कुर्वन्ति ये ते मण्डकाः, तेभ्यः 'छत्तगहाण वा' छत्रग्रहेभ्यो वा, तत्र ये राजादीनां छत्रं गृहन्ति धारयन्ति ये ते छत्रप्रहाः, तेभ्यः 'चामरम्माण
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२२०
निशीथसूत्रे
वा' चामरग्रहेभ्यो वा, तत्र ये चामरं गृह्णन्ति धारयन्ति ते चामरग्रहाः, तेभ्यः 'हडप्पग्गहाण वा' हडप्पग्रहेभ्यो वा, तत्र आभरणस्थापनाय यद् भाण्डं तत् हडप्पं कथ्यते तं गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते हडप्पाहाः, तेभ्यः 'परियदृग्गहाण वा' परिवर्तनहेभ्यो-परिवर्तः परिवर्तितवस्त्रादिस्थापनपात्रं मञ्जूपादिरूपः, तं गृह्णन्ति धारयन्तेि ये ते परिवर्तग्रहाः, तेभ्यः 'दीवियग्गहाण वा' दीपिकाग्रहेभ्यो वा, तत्र राजादीनामग्रे गृहे वा दीपिका 'दीवड' इति प्रसिद्ध, गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते दीपिकाग्रहाः, तेभ्यः 'असिग्गहाण वा' असिग्रहेभ्यो वा, तत्रासिः खङ्गः, तं राजादिखङ्गं गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते असिग्रहाः, तेभ्यः 'धणुग्गहाण वा' धनुर्घहेभ्यो वा, तत्र धनुश्चापः, तद् गृह्णन्ति ये ते धनुर्ग्रहाः, तेभ्यः 'सत्तिग्गहाण वा शक्तिग्रहेभ्यो वा, तत्र शक्तिः शस्त्रविशेषः, तं गृह्णन्ति ये ते शक्तिग्रहाः तेभ्यः 'कोतग्गहाण वा' कुन्तः भल्लः 'भाला' इति लोकप्रसिद्धः, तं गृह्णन्ति धारयन्ति ये ते कुन्तग्रहाः, तेभ्यः 'हत्थिपत्तग्गहाण वा' हस्तिपत्रग्रहेभ्यो वा अङ्कुशधारिभ्यः, इत्यादिकार्यकारिणां प्रयोजनाय बहिनिस्सारितं पाचितं स्थापितं वाऽशनादिकं यः स्वीकरोति स्वीकारयति वा स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ । तंजहा-वरिसधराण वा कंचुइज्जाण वा दोवारियाण वा दंडारक्खयाण वा ॥ सू० २९॥ . छाया--यो भिक्षुः राशः क्षत्रियाणां मुदितानां मूर्धाभिषिक्तानामशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा परस्मै निहतं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तद्यथा-वर्षधरेभ्योग्विा कञ्चुकिभ्यो वा दौवारिकेभ्यो वा दण्डारक्षकेभ्यो वा ॥ सू० २९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि। स्पष्टम् । नवरम्-तत्र के ते परे तत्राह-'तंजहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'वरिसधराण वा' वर्षधरेभ्यो वा-वर्षधराः वर्द्वितकीकरणेन नपुंसकीकृता अन्तःपुररक्षकाः, तेभ्यः 'कंचुइज्जाण वा' कंचुकिभ्यो वा, तत्र कंचुकिनो राज्ञामन्तःपुरे निवसन्तो नपुंसका एव, तेभ्यः वर्षधरकञ्चुकिनोरयं भेदः यत् वर्षधरः कृत्रिमनपुंसकः, कंचुकी तु जन्मजातो नपुंसक इति । 'दोवारियाण वा' दौवारिकेभ्यो वा द्वारपालेभ्यः 'दंडारक्खयाण वा' दण्डारक्षकेभ्यो वा, दण्डेन आरक्षन्तीति दण्डारक्षकाः, तेभ्यः दण्डेन रक्षाकर्तृभ्यः । द्वारपालस्तु केवलं द्वारमेव रक्षति, दण्डारक्षकस्तु यत्र तत्र राज्ञोऽभिमतं कार्य रक्षतीत्यनयोरिपालदण्डारक्षकयोर्विशेषः, ततश्च राज्ञां गृहे वर्षधरादीनामुद्देशेन बहिनिस्सारितं पाचितं तदर्थ स्थापितं वाऽशनादिकं यो भिक्षः लोभात् मोहात् स्वादवशाद् वा गृह्णाति गृह्णन्तं वाऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू०२९॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ. ९. ३०-३१ राजादीनां कुब्जादिदासीनिमित्त निस्सारिताशनादेनिं० २२१
सूत्रम् — जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहे परिग्गा वा साइज्जइ । तंजहा - खुज्जाणं जाव पारसीणं ॥ सू० ३० ॥
छाया - यो भिक्षुः राज्ञः क्षत्रियाणां मुदितानां मुर्द्धाभिषिक्तानामशनं वा पान वा वाद्यं वा स्वाद्यं वा परस्मै निर्हृतं प्रतिगृद्धाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तद्यथा - कुब्जाभ्यो यावत् पारसीभ्यः ॥३०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । स्पष्टम्, नवरम् - अथ दासीनां निमित्तं निर्हृतमशनादिनिषेधे ताः दास्यः प्रदर्श्यन्ते - 'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा 'खुज्जाणं वा' कुब्जाभ्यो वा, तत्र कुब्जा शरीरतो वा दास्यः, तासां कृते स्थापितमशनादिकमित्यन्वयः 'जाव' यावतयावत्पदेन - 'चिलाइयाणं वा वडभीणं वा बब्बरीणं वा बउसीणं वा जोणियाणं वा पल्हबियाणं वा ईसीणियाणं वा धोरुगिणीणं वा लासियाणं वा लकुसियाणं वा दमिलीणं वा सहलीणं वा आरबीणं वा पुलिंदीणं वा पकणीणं वा बहलीणं वा मुरंडीणं वा सबरीणं वा' आसां दासीर्ना ग्रहणं भवति, तत्र चिलाइयाणं वा' किरातिकाभ्यो वा किरातदेशोत्पन्नाभ्यः 'वामणीणं वा' वामनाभ्यो वा ह्रस्वशरीराभ्यः 'बडभीणं वा' वडभीभ्यो वा वकार्धकायकाभ्यो वा 'बब्बरीणं वा' बर्बरीभ्यो वा बर्बर देशोत्पन्नाभ्यः 'बउसियाणं वा' बकुशिकाभ्यो बकुशदेशोत्पन्नान्यः 'जोणियाणं वा' यावनिकाभ्यो वा - यवन देशोत्पन्नाभ्यः 'पल्हबियाणं वा ' पल्हविकाभ्यो वा—पल्हवदेशोत्पन्नाभ्यः 'ईसीणियाणं वा' ईसीनिकाभ्यो वा - ईसीनिकादेशोत्पनाभ्यो वा 'घोरुगिणीणं वा' धोरुकिनीभ्यो वा घोरुकदेशोत्पन्नाभ्यः 'लासियाणं वा' लासिकाभ्यो वा लासदेशोत्पन्नाभ्यः 'लउसियाणं वा' लकुशिकाभ्यः लकुशदेशोत्पन्नाभ्यः 'दमिलियाणं वा' द्राविडिकाभ्यो वा द्रविडदेशोत्पन्नाभ्यः 'सीहलीणं वा' सिंहलीभ्यो वा सिंहलदेशोत्पन्नाभ्यः ‘आरबीणं वा' आरबीभ्यो वा अरब देशोत्पन्नान्यः 'पुलिंदीणं वा' पुलिन्दीभ्यो वा पुलिन्ददेशोत्पन्नाभ्यः भिल्लजातीयाभ्यो वा 'पक्कणीणं वा' पक्कणीभ्यो वा पक्कणदेशोत्पन्नाभ्यः 'बहलीणं वा' बहुलीभ्यो वा बहलदेशोत्पन्नान्यः 'मुरंडीणं वा' मुरण्डीभ्यो वा मुरण्डदेशोत्पन्नाभ्यः 'सबरीणं वा' शबरीभ्यो वा शबर देशोत्पन्नाभ्यः, अथवा शबर: भिल्लविशेषः, तज्जातीयाभ्यः, 'पारसीणं वा' पारसीभ्यो वा पारसदेशोत्पन्नाभ्यः सर्वा अपि एता दास्य एव ज्ञातव्याः । तथा च राजादीनां भवने दासीभ्यः पाचितं स्थापितं च अशनादिकं यो गृह्णाति स्वयं परान् वा ग्राहयति गृहन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ सू० ३०||
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ર૩
नशीथसूत्रे
सूत्रम् - तं सेवमाणे आवज्जइ च । उम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धा
इयं ॥ सू० ३१||
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|| निसीहज्झयणे नवमो उद्देसो समत्तो ॥ ९ ॥
छाया - तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकम् ॥ सू० ३१॥ || निशीथाध्ययने नवम उद्देशः समाप्तः ||९||
चूर्णी- 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत्सेवमानः तत् नवमोद्देश कोक्तं राजपिण्डादारभ्य दासीनिमित्त निर्हताशनादिग्रहणपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः तादृशस्थानानां मध्ये यस्य कस्याप्येकस्य अनेकस्य सर्वस्य वा प्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुस्वाइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति ॥ ३१ ॥
इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित ललित कलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनैकप्रन्धनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त" जैवशास्त्राचार्य " - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलालवति - विरचितायां “निशीथवत्रस्य" भाष्यरूपायां व्याख्यायाम् नवमोद्देशकः समाप्तः ॥ ९ ॥
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॥ दशमोदेशकः ॥ व्याख्यातो नवमोद्देशकः, अथ दशमोद्देशकः प्रारभ्यते, अस्य दशमोदेशकस्य नवमोद्देशकेन सह कः सम्बन्ध इति चेदत्राह भाष्यकार:--'रायपिंड' इत्यादि । भाष्यम्-रायपिडं च मा मुंजे, तहा दासीनिमित्तगं ।
गिद्धो बयइ आगाढं, दसमे तन्निसेहणं ॥१॥ छाया-राजपिण्डं च मा भुक्ष तथा दासीनिमित्त ।
गृद्धो वदति आगाई, दशमे तन्निषेधनम् ॥१॥ अवचूरिः-पूर्व नवमोदेशकान्तिमसूत्रे राजपिण्डं दासीनिमित्तकं पिण्डं च न भुञ्जीत इति भगवता निषिद्धं तत आचार्यः शिष्यं कथयति-हे आर्य ! 'रायपिंडं' राजपिण्डं तथा दासीनिमित्तकं पिण्डं मा भुव, एवमुक्तः शिष्यः 'गिद्धो' गृद्धः राजपिण्डे दासीनां रूपे च मूर्छितः सन् तन्निवारणे कृते आचार्यम् आगाद-परुषं वदतीति दशमेऽस्मिन् उद्देशके तन्निषेधनं तस्य तादृशस्यागाढवचनस्य निषेधनं निवारणं कृतम् । यस्मात् राजादौनामशनादिकं विशिष्ट भवति तत्र, तथा राजादीनां दास्यः प्रायः सौन्दर्यशालिन्यो भवन्ति आहारप्रसङ्गाहासीभिः सह परिचयसंभवात्तद्रूपे च मूर्च्छितो मोहोदयात्संयमाद् भ्रष्टो भवितुमर्हति तस्मात्कारणाद् राजपिण्डादेनिषेधे शिष्यः परुषं वदेदिति तन्निषेधनमत्र प्रतिपादयिष्यते । एष एव नवमोदेशकेन सह दशमौशकस्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य :दशमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्- 'जे भिक्खू भदंत' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू भदंतं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ |सू०१॥
छाया-यो भिक्षुर्भदन्तमागाढं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥२०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंत' भदन्तं 'भदि कल्याणे सुखे च' इति धातोः रूपम् । तेन भदन्तं कल्याणकारकम् आचार्यमुपाध्यायं पर्यायज्येष्ठं च प्रति 'आगाद' आगाढम्, तत्र गाद कठोरम् अत्यर्थ गाढमागाढं सरोषवचनम् 'वयई' वदति कथयति। यो भिक्षुः राजपिण्डादिषु गृद्धः आचार्यादिना निवारित आचार्यादिकं अतिशयाधिक कठोरवचनं वदति तथा 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुराचार्येण राजपिण्डादिषु निवारित माचार्यादिकं आशातनारूपं कठोरवचनं वदति तादृशं श्रमणान्तरं यो अनुमोदते च स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-आगाई दुविहं बुत्तं, सूयया य अश्यया ।
तेसिं दोण्हं सख्वं च, णेयं सत्यानुसारओ।
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२२४
निशीथसूत्रे
छाया- आगाढं द्विविधं प्रोक्तं सूचया व असूचया ।
तयोद्धयोः स्वरूपं च ज्ञेयं शास्त्रानुसारतः ॥ अवचूरिः-अत्र तु सूचयति परस्य दोषान् कथयतीति सूचा परदोषाविष्करणम्, असूचान सूचा परदोषाविष्करणरूपेति-असूचा । यत्र परस्य दोषाः सूच्यन्ते नात्मन-इति सूचा । यत्र परस्य दोषा न सूच्यन्ते स्वात्मनः सूच्यन्ते सा-असूचेति भावः, अत्रेदं प्रथममागाढसूत्रम् १, द्वितीयं परुषसूत्रम् २, तृतीयमागाढपरुषमुभयरूपम् ३, तत्र येनोक्तेन स्वपरशरीरे ऊष्मा समुत्पद्यते तदागाढम् १, यत् स्नेहरहितमुपेक्षावचनं तत् परुषम् २, यत्र द्वयोरागाढपरुषयोः संयोगो भवेत्तद् आगाढपरुषं कथ्यते ३, । एतत् त्रिविधमपि वचनमेकैकं सूचाऽसूचाभ्यां द्विविधं भवति । तत्र प्रथममागाढवचनं वित्रियते-'आगाढं दुविहं' इत्यादि । तत् आगाढम्-आगाढवचनं द्विविधं प्रोक्तम्-सूचया असूचया चेति । एषा सूचा असूचा च सप्तदशप्रकारके वस्तुनि भवति-जातौ १, कुले २, रूपे ३, भाषायाम् ४, धने ५, बले ६, पर्याये ७, यशसि ८, तपसि ९, लाभे १०, सत्त्वे ११, वयसि १२, बुद्धौ १३, धारणायां १४, उपग्रहे १५, शीले १६, सामाचार्या च १७। तत्र जातो सूचा परस्य स्फुटमेव दोषं भाषते नात्मनो दोषं वदति यथा जातिविशिष्टेऽपि न त्वं जातिविशिष्टोऽसि अहं पुनर्जातिमान् , इत्यादिकथनरूपा जातिविषया सूचा १, असूचा तु यथा भोः ! अहं जातिहीनोऽस्मि भवान् जातिमान् तथा च जातिमता सह जातिहीनस्य मे को विरोधः ? एषा जातिविषया असूचा, अहं भोः ! कुलवान् भवान् कुलहोन इति कुलविषया सूचा । एवम् अहं भोः ! कुलहीनः, कुलपुत्रैः सह को विरोधोऽस्माकमिति कुलविषया असूचा २, तथा अहं भोः ! रूपवान् भवान् रूपहीनः कुरूपोऽस्तीति रूपविषया सूचा । एवम् अहं भोः ! रूपहीनः सुरूपदेहवता सह को विरोधः ? ३। एवं प्रकारेण भाषादिषु सर्वेपु स्थानेष्वपि सूचा असूचा च भणितव्या, तत्र सूचा परगता, असूचा आत्मगता भवति । तत्र भाषा-वाणी ४, धनम्-हिरण्यसुवर्णरजतादिकम् ५, बलम् औरसः पराक्रमः ६, पर्यायः प्रव्रज्याकालः ७, यशः लोकख्यातिः ८, तपः संयमश्चतुर्थभक्तादिर्बा ९, लाभः-आहारोपकरणादिलब्धिः १०, सत्त्वम्-आत्मबलम् ११, वयःअवस्था १२, बुद्धिः-औत्पत्तिक्यादिः १३, धारणा–दृढस्मृतिः १४, उपग्रहः-बहुबहुविधक्षिप्रा-- निश्रितासंदिग्धध्रुवाणामुपकारकरणम् १५, शीलम्-अक्रोधादिप्रकृतिः १६, सामाचारी-चक्रवालरूपा साधुसामाचारी १७, एतानि सर्वाणि स्थानानि समवलम्ब्य सूचया वाऽथ असूचयाऽऽचार्यादिकं प्रति एकमप्यागाढवचनं न वदेत्, नाप्यन्यं वक्तुं प्रेरयेत् वदन्तं वा नानुमोदयेत् । यः कोऽप्येवं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गाऽनवस्थादयोऽनेके दोषा भवन्तीति ॥सू१०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भदंतं फरसं वयइवयंत वा साइज्जइ ॥सू० २॥ छाया यो भिक्षुर्भदन्तं परुषं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
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चूर्णभाष्यावचूरिः १० सू० १-४
भदन्तं प्रति आगढादिभाषणतदाशातनानिषेधः २२५
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंतं' भदन्तमाचार्यो - 1 पाध्यायादिकं पर्यायज्येष्ठं वा 'फरुष' परुषं कर्कशं कठोरवचनं स्नेहरहित रूक्षमित्यर्थः वाक्यं 'त्वं व्यवहारं न जानासि' इत्यादिकम् 'वयइ' वदति भाषते 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदते । आचार्याय कठोरवचनभाषकं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू भदंतं आगाढं फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥
छाया - यो भिक्षुर्भदन्तं आगाढंपरुषं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंत' भदन्तम् आचार्योपाध्यायपर्यायज्येष्ठादिकं 'भागादं फरुसं' आगादं परुषं सूचाऽसूचादिभेदभिन्नं प्रथमसूत्रवर्णितमागाढं तथा परुषं कर्कशं रूक्षं वचनम् 'वयम्' वदति भाषते 'वयंतं वा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ३॥
सूत्रम् - जे भिक्खू भदंतं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ||सू० ४||
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छाया - यो भिक्षुर्भदन्तमन्यतरया अत्याशातनया अत्याशातयति अत्याशातयन्त घा स्वदते || ४ ||
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भदंतं' भदन्त - माचार्यादिकं पर्यायज्येष्ठं च 'अण्णयरीए' अन्यतरया दशाश्रुतस्कन्धे त्रयस्त्रिंशत्प्रकारा आशा -
२९
कथिताः तासां मध्यात् अन्यतरया यया कयाचिदेकयापि 'अच्चासायणाए' अत्याशातनया तथाऽऽचार्यादिकं प्रति विनयवैयावृत्यादिकरणेन यत् फलं प्राप्यते तत् फलं आशातयति विनाशयतीति आशातना, यद्वा ज्ञानादिगुणा आ-सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वस्यन्ते यया सा तया अन्यतरया आशातनया आचार्यादिकं पर्याय ज्येष्ठं च 'अच्चासारइ' अत्याशातयति तेषामाशातनां करोति 'अच्चासाएंतं वा साइज्जइ' अत्याशातयन्तम् आशातनां कुर्वन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् - आसाणा चउव्विहा, दव्वखेत्ताइभेयभो । एएसिं खलु णाणतं वोच्छं सत्थानुसारओ ॥
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निशीथस्वे
दब्वे भोयणमाइसु, खेरो गमणाइएमु गायव्वं ।
काले विपज्जओ खलु, भावे मिच्छाइया दोसा ॥ छाया-आशातना चतुर्विधा, द्रव्यक्षेत्रादि-मेदतः।
पतासां खलु नानात्वं, वक्ष्ये शास्त्रानुसारतः ।। द्रव्ये भोजनादिषु, क्षेत्रे गमनादिकेषु शातव्यम् ।।
काले विपर्ययः खलु, भावे मिथ्यात्वादिका दोषाः ॥ अवचूरिः-यास्त्रयस्त्रिंशत्प्रकारा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता आशातनास्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् प्रत्येकं चतुर्विधाः चतुष्प्रकाराः सन्ति, एतासां इव्यक्षेत्रादि मेदभिन्नानामाशातनानां नानात्वं भेदोपभेदवर्णनं स्वरूपवर्णनं च शास्त्रानुसारतो यथाशास्त्र यथामति च वक्ष्ये कथयिष्यामि, तत्र द्रव्ये आशातना भोजनादिषु आहारादिषु भवतीति ज्ञायताम्, यथा शैक्षको रात्निकेन सह अशनादिकमाहारजातम् आहरन् तत्र शैक्षकः गुरुणा सह भुञानस्तमनापृच्छयैव भद्रं भद्रं आहरति, तथा शैक्षको रास्निकेन पर्यायाधिकेन वा सह अशनादिकं प्रतिगृह्य तद् रत्नाधिकमनापृच्छचैव यस्मै इच्छति तस्मै ददाति, एवं वस्त्रपात्रादिकेष्वपि विज्ञेयम् १। क्षेत्रे शास्त्रमर्यादामुल्लङध्य विहारे पुरतः पार्श्वतो मार्गतो वा आसन्नतो वा गमनं करोति, एवं स्थित्युपवेशनादिकेष्वपि विज्ञेयम् २। काले विपर्यासो यथा शैक्षको रत्नाधिकस्य रात्रौ विकाले वा आह्वयतो गुरोर्वचनमप्रतिशृण्वन् इव तिष्ठति, नोत्तरं ददाति ३। भावे विपर्यासः--यद् यद् गुरुः साधुसमाचारौं सूत्रार्थतदुभयं वा शिक्षयति तत्तत् न शणोति, अथवा भाण्वन् अपि अश्रुत इव तिष्ठति, अन्यथा वा वदति, अथवा गुरुधर्मकथायां प्रसन्नो न भवति, परुषं वा भाषते इत्यादि ४। तथा द्रव्यत आशातनाकरणे इमे दोषाः, तथाहि-यदि गुरुमनापृच्छय भुङ्क्ते तदा कदाचित् सचित्तं सदोषमपथ्यमपि च भुञ्जीत, अतिप्रमाणं वा भुञ्जीत तदा अजीर्ण स्यात् वमनादिकं वा भवेत् , इत्यादिका अनेके दोषा भवेयुरिति १। क्षेत्रत आशातनायामिमे दोषाः, तथाहि-गुरोः पुरतः पार्श्वतो मार्गतः आसन्नतश्चः गच्छतः शिष्यस्य साधुमर्यादोल्लविता भवेत् , एषा क्षेत्राशातना २। कालत अशातना यथा ग्लानो गुरुर्विकाले रात्रौ वा शिष्यमाह्वयति तदा तत्राप्रतिशृण्वतः शिष्यस्य ग्लानविराधनादिदोषा भवन्ति, उपकरणादिविनाशो वा असं. यमो वा भवेत् , आचार्यः क्रुद्धोपि भवेत् । तथा शृण्वन् अपि अशृण्वन् इव तिष्ठति तदा अन्यः कश्चित् साधुः कथयेत् किं भोः न शणोषि किमकर्णो बधिरो भवान् , तदा तत्रोत्तरप्रत्युत्तरकरणे परस्परं कलहोपि संभवेदिति कालाशातना ३ । एवं यो भावाशातनां गुरोः करोति तदा तस्यान्यः शिष्योऽपमानं करोति, श्रुतालाभश्च भवति एवं तस्य लोकेऽपि पराभवो भवति । इत्यादयो दोषा भवन्तीति |सू० ४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणंतकायसंजुत्त आहारं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥सू० ५॥
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विभाष्यावरिः उ०१० स०५-६
आधाकाहारपरिभोगनिषेधः २९७ छाया-यो भिक्षुरनन्तकायसंयुक्तमाहारम् आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणंतकायसंजुर्त' अनन्तकायसंयुक्तम् , तत्र अनन्तकायः पनकशैवालादिः तेन संयुक्त संमिलितम् 'आहार' आहारम् अशनादिचतुर्विधाहारम् 'आहारेई' आहरति-पनकशैवालादिमिश्रितमाहारमुपभुक्ते 'आहारतं वा साइज्जई' आहरन्तं वा स्वदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा अनन्तकायसंयुक्तमाहारं भुङ्क्ते तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आहाकम्मं भुंजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥ सू०६॥ छाया--यो भिक्षुराधाकर्म भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ६॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः ‘आहाकम्म' आधाकर्म आधानम् आधा चेतसि साधून आधाय मनसि निधाय तन्निमित्तं षड्जीवनिकायोपमर्दनादिना कर्म-भक्तादिपाकक्रिया क्रियते तदयोगाद् भक्काद्यपि आधाकर्म, तादृशमाहारं 'भुजई' भुङ्क्ते माहरति आधाकर्माहारजातस्य भोजनं करोति कारयति वा तथा 'भुंजत वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते । यो हि श्रमण आधाकर्माहारमुपभुङ्क्ते तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम् -संजयं च मणे किच्चा, निप्फाए ओयणाइयं ।
छायजीवमद्देणं, आहाकम्मं मुणेहि तं ॥१॥ तं च गिण्डइ जो भिक्खू , असणाइ चउन्विहं ।
दायारं णियमप्पाणं, दोसजुत्तं करेइ सो ॥२॥ छाया-संयतं च मनसि कृत्वा निष्पादयेत् ओदनादिकम् ।
षट्रकायजीवमन आधाकर्म जानीहि तत् ॥१॥ तच्च गुफाति यो भिक्षुः अशनादि चतुर्विधम् ।
दातारं निजमात्मानं दोषयुक्तं करोति सः ॥२॥ अवचरि:-'संजयं' इत्यादि । 'संजयं' संयतं साधुं च मनसि कृत्वा कमपि साधुमुद्दिश्य यत् ओदनादिकं निष्पादयेत्, तद् ओदनादिकं षट्कायजीवमर्दैन षट्कायजीवविराधनया आषाकर्म जानीहि ॥१॥
तच्च तादृशमशनादि चतुर्विधमाहारं यः कोऽपि भिक्षुर्गृह्णाति स दातारम् आधाकाहारदायक, तथा निजमात्मानं च दोषयुक्तं करोति । तथाहि-कस्यापि श्रावकादेर्गृहे कमपि साधुमुद्दिश्य
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२२५
निशीथसूत्रे
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ओदनाथन्नं षड्जीवनिकायोपमर्दनपूर्वकं निष्पादितम्, दाता च विचिन्तयति - इदमोदनाद्यन्नं कस्मै चित् साधवे देयं तेन दानेन महान् पुण्योदयो भवेत् इति विचिन्त्य तेनाशनादिना साधु निमन्त्रयति, साधुश्व तादृशमोदनाथाहारं गृह्णाति तदा गृहतः साधोराज्ञाभङ्गादिदोषा अतिक्रमादयो दोषाश्च ददतश्च दातुः सदोषाहारदानप्रभवा दोषाश्च समापतन्ति । दातारः श्रावका विविधा भवन्ति नालबद्धकाः, मध्यस्थाः, भद्रकाच, तत्र कोपि भद्रक आधाकर्मकमन्नं सम्पाद्य उपाश्रये समागत्य साधवे कथयति--मद्गृहे आगत्याहारं गृहाण, तद्ग्रहणाय साधुः सज्जीभूतो भवतीति अतिक्रमः, श्रावण सह गच्छतीति व्यतिक्रमः, श्रावकगृहात् पात्रे गृहीत्वा चाहारमानीय मुखे प्रक्षिपति चर्वति इत्यतिचारः, तदनु गलबिलादधोऽवतारयति तदा तस्यानाचारो भवति, एवं दातृविषयेऽपि आधाकर्माहारादिसंपादनेऽतिक्रमः, निमन्त्रणे व्यतिक्रमः, साधोर्गृहानयनेऽतिचारः, दाने चानाचार इति । तत् आधाकर्मकं त्रिप्रकारकं भवति- आहारे उपकरणे वसतौ च, आधाकर्मकाहारश्च चतुर्विधो भवति - अशनपान खाद्यस्वाद्यभेदा त्, उपधिद्विविधः वस्त्रपात्रभेदात्, तत्र वस्त्रे आधाकर्मकं पञ्चप्रकारकं भवति जाङ्गमिकभाङ्गिकादिभेदात्, तत्र जामिकं - जङ्गमप्राणिरोमनिष्पन्नं ऊर्णामयं वस्त्रम् १, भाङ्गिकम् अतस्यादिसूत्रनिष्पादितवस्त्रम् २, शाणकं शणनिष्पादितवस्त्रम् ३, पोतकं - कार्पासिकवस्त्रम् ४, तिरीडपट्टकम् - अर्कतूलादिनिष्पादितवस्त्रम् ५ । तस्मिन् तादृशे पञ्चविधे वत्रे आधाकर्मकम् । पात्रे चाधाकर्मकं त्रिविधम् - अलाबुकदारुकमृतिकापात्रभेदात् । वसत्याधाकर्मकं द्विविधं मूलगुणे आधाकर्म, उत्तरगुणे आधाकर्म च तत्र श्रमणार्थं गृहादिनिर्माणं मूलगुणे आघाकर्म । निर्मितस्यैव गृहादेः छादनोपलेपनादिकमुत्तरगुणे आधाकर्म इति ।
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अत्र - आधा कर्मग्रहणाद् अप्रस्था औद्देशिकादयः सर्वेऽपि उद्गमदोषाः संग्राह्याः, तत्परिभोगे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति । अत्रोदाहरणं यथा
पूर्वस्मिन् काले एकः समन्तभद्राचार्यः शिष्यपरिवारपरिवृतो विहरति स्म । स ग्रामानुग्रामं विहरन् कस्मिंश्चिन्नगरे चातुर्मास्यं कर्तुकामो मार्गस्थिते एकस्मिन् लघुग्रामे गन्तुं प्रस्थितः, तत्रतस्तन्नगरमतिदूरं वत्र्त्तते । तन्नगर श्रावकाः, आचार्योऽत्रागमनार्थं प्रस्थित इति ज्ञात्वा चिन्तयन्ति - यद - आचार्यश्चातुर्मासावधि काले अत्रागन्तुमसमर्थों नात्रागमिष्यातीति कृत्वा ते श्रावका आचार्यागमनात् पूर्वमेव मध्यमार्गस्थिते तस्मिन् लघुग्रामे समागत्य निवासं कृतवन्तः । ग्रामानुप्रामपरिपाट्या विहरन् स आचार्यस्तस्मिन् लघुप्रामे संप्राप्तः । तत्रतो विहर्तु - कामाय तस्मै ते सर्वे निवेदितवन्तः - भो आचार्याः ! यस्मिन्नगरे भवन्ती गन्तुकामास्तन्न गरमतिदूरं वरीवर्त्ति चातुर्मासागमने चाऽल्पीयांस एव दिवसा इति भवद्भिरत्रैव चातुर्मास्यं कर्त्तव्यम् । इति तेषां प्रार्थनां स्वीकृत्याचार्यश् चातुर्मासार्थं तत्रैव स्थितः । पूर्णे चातुर्मासेऽन्यत्र विहृतवान् । ततो जनपदविहारं विहरन् द्वादशवर्षानन्तरं पुनस्तत्रैव लघुग्रामे संप्राप्तः पश्यति तं ग्रामं समृद्धजन र हितं
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १० सू० ७-९
अतोतवर्त्तमानानागतनिमित्तभाषणनिषेधः २२९
पृच्छति च तत्रत्यलोकान् भोः ! समृद्धजनसंकुलोऽयं ग्रामः पूर्वमासीत् सम्प्रति कथमेतादृशः समृद्धजनशून्यो जातः ? लोकाः कथितवन्तः - भो आचार्याः, लघुग्रामेऽत्र भवत्सेवा निमित्तमेवात्रागत्य ते समृद्धजना निर्वासिताः आसन्, भवद्विहारानन्तरं गतवन्तस्ते स्वस्वस्थाने । इति श्रुत्वा-आचार्यश्चिन्तयति- अहो ! अस्माभिरत्राघाकर्मादिदोषदुष्ट आहारा दिरवश्यं परिभुक्तस्ततः प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्ता वयमिति तद्दोषिनिवारणार्थं प्रायश्चित्तं करणीयं स्यादिति शिष्यसहितः स शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं कृतवान् । तस्मात् कारणात् दर्शनार्थमागताना मशनादि साधुभिः कदापि कथमपि न ग्रहीतव्यम्, न वाऽन्यं ग्राहयेत्, गृह्णन्तं वाऽन्यं श्रमणं नानुमोदयेदिति । सू०६ ।।
सूत्रम् — जे भिक्खू तीतं निमित्तं कहे कहतं वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
छाया
1
यो भिक्षुरती निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'तीतं निमित्तं' अतीतम् भूतकालिकम् भूतकाले जातं सुखदुःखलाभालाभ जीवनमरणभेदात् षडूविधं निमित्तम् 'कहेइ' कथयति लोकानां पुरतः प्रकाशयति, अतीतकालिकं ज्योतिःशास्त्रोक्त ग्रहादिजन्यं सामुद्रिक शास्त्रोक्तरेखादिजन्यं च निमित्तं स्वस्य सत्यनिमित्तज्ञातृत्व प्रख्यापनार्थं कथयति-यथा कोऽप्यतीतकाले केनापि स्वस्य शारीरिक-मानसिक सुखदुःखादिविषयो लाभालाभ जीवनमरणादिविषयो वा प्रश्नः कृतोऽभूत् तद्विषये तं वदेत्-मया तुभ्यं यद् यत् कथितं तत्तत्सर्वं सत्यतया त्वयाऽनुभूतम्, इत्यादि - रूपमतीतकालविषयकं निमित्तं प्रकाशयति । तथा 'कहेंतं वा साइज्जइ' कथयन्तं वाऽन्यं श्रमणं स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ||सू० ७||
सूत्रम् -- जे भिक्खू पडुप्पण्णं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रत्युत्पन्नं निमित्तं व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सु०८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः काश्चद् भिक्षुः 'पडुप्पन्नं' प्रत्युत्पन्नम् वर्तमानकालिकम् 'निमित्तं निमित्तं ज्योतिःशास्त्रादिजन्यम् । यथा कोऽपि पृच्छेत्-विदेशस्थितोऽमुको मम स्वजनः संप्रति सुखी दुःखी वाऽस्ति ? लाभवान् अलाभवान् जीवितो मृतो वा ?, तथा अहं संप्रति सुखी दुःखी वाऽस्मि ?, तथा मया अमुकस्य पार्श्व मज्जनः प्रेषितः सोऽमुको जनस्तस्य मिलितो न मिलितों वा ? इत्यादिरूपं निमित्तं 'वागरेइ' व्याकरोति प्रकाशयति कथयतीति यावत् 'वागर्रेतं वा साइज्जइ' व्याकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अणागयं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०९ ॥
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२३०
निशीथसूत्रे
छाया -यो भिक्षुरनागतं निमित्तं व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते ॥ ९ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अणामयं निमित्तं वागरेs' अनागतं निमित्तं व्याकरोति, तत्र अनागतं भविष्यत्कालिकं सुखदुःखलाभालाभ जीवनमरणविषयकं यथा तवैतावत्कालानन्तरं सुखदुःखादिकं भविष्यति, लोके सुभिक्षं दुर्भिक्षं वा भविष्यति राज्यपरिवर्तनं युद्धादिकं वा भविष्यति, इत्यादिरूपं निमित्तं 'वागरेइ' व्याकरोति कथयति 'वागतं वा साइज्जइ' व्याकुर्वन्तं भविष्यत्कालिक लाभालाभादिकं कथयन्तं प्रकाशयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते, स प्रायश्चित्त भागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् - लाभालाभं सुहं दुक्खं, जीवियं मरणं तहा | वागरे गिहिमाईणं, संजमत्तविराहओ ||
छाया - लाभालाभं सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा । व्याकुर्याद् गृह्यादोनां संयमात्मविराधकः ॥
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अवचूरि : – लाभालाभौ सुखदुःखे जीवितं तथा मरणम्, एतत् षड्वस्तुजातम् अतीतानागतवर्तमानकालविषयकम् गृहिणां गृहस्थानां श्रावकाणां तथा आदिशब्दात् अन्यतीर्थिकानां वा व्याकुर्यात् कथयेत् स साधुः संयमात्मविराधको भवति । तत्र संयमविराधना निमित्त भाषणे साधुक्रियाव्यवच्छेदरूपा, आत्मविराधना चाशुभे संपन्ने साधुं ताडयेत्, राजपुरुषादिना साधुं ग्राहयेत्, राजादिना वा निगृहीतो भवेत्, इत्यादिका अनेके दोषाः, शास्त्रनिषिद्धत्वेनाज्ञाभङ्गादिका दोषाश्च भवेयुः तस्मात्कारणात् श्रमणः त्रिकालविषयकं लाभालाभसुखदुःख जीवितमरणादिकं निमित्तं कदाचिदपि न कथयेत् स्वयम्, न वा परद्वारा प्रकाशयेत्, न वा प्रकाशयन्तमनुमोदेत । अत्रैतदुदाहरणम्आसीत् मगधदेशे अश्वकर्णो नाम तलवरः (कोट्टपालः) स कदाचित् युद्धार्थं गतवान्, कदाचित् तस्य गेहे भिक्षार्थ कश्चित् साधुरागतः, तत्पत्न्य पृष्टः - भो साधो ! मम पतिः कदा आगमिष्यति ? साधुना कथितम् श्रवः समागमिष्यति । ततः सा द्वितीय दिवसे कृतशृङ्गारा तदागमनं प्रतीक्षमाणा तिष्ठति तावत् अश्वकर्णः तळवरः समागतः । स कृतशृङ्गारां पत्नीमपृच्छत्कथं त्वं कृतशृङ्गारास्थिता ? तथा कथितम् भवत आगमनसमाचारं ज्ञात्वा तेन कथितम् - कथं ज्ञातं त्वया ? ततस्तया कथितम् - साधुसकाशात् विज्ञाय कृतशृङ्गारा स्थिताऽस्मि । तस्मिन्नेवावसरे स एव साधुः भिक्षार्थं समागतः असौ तलवरस्तत्परीक्षार्थं तं साधुं पृष्टवान् मम वडवाया 'उदरे कीदृशः गर्भो विद्यते ? साधुनिमित्तवशादवोचत् तस्याः गर्भे श्वेततिलको घोटकस्तिष्ठति, इति श्रुत्वा स तलवरस्तत्परिज्ञानार्थं वडवां हतवान्, तादृशमेव गर्म दृष्ट्वा साश्चर्यो जातः । साधुश्व स्वस
ततः
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पूर्णियाच्यावचूरिः उ० १० सू० १० अन्यशैक्षबुद्धिविपरिणमननिषेधः २३१ मक्षं तादृशजीबद्वयवधं दृष्ट्वा आत्मघातं कृतवान् । तलवरपुत्रोऽपि बडबादिवधं दृष्ट्वा तथेवात्मघातं कृतवान् , पुत्रशोकात् तलवरपत्नी अपि मृता, तदनन्तरं कलत्रपुत्रशोकोत् तलवरोऽपि स्वशरीरमत्यजत् । एवं निमित्तकथने महान् अनर्थो जायते, अतः साधुः कदापि निमित्तं न प्रकाशयेदिति भावः ॥सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सेहं विपरिणामेइ सेह विपरिणामेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१०॥ छाया--यो भिक्षुः शैक्षकं विपरिणमयति शैक्षक विपरिणमयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सेहं विप्परिणामेइ' शैक्षं शिष्यं विपरिणमयति अन्यसाधुशिष्यस्य बुद्धिं व्यामोहयति तस्य गुरोनिन्दाकरणेन स्वगुणोत्कीर्तनादिना च कश्चित् शैक्षकं वदेत्- ममाचार्य एव श्रेष्ठो न तु तव, इत्यादि कथयित्वाऽन्यस्य शैक्षक विविधैः प्रकारेस्तस्यात्मानं विपरिणमयति पूर्वगुरुविषये तं विगतपरिणाम करोति, अथवा वस्त्रपात्राहारसूत्रार्थादीनां प्रलोभनं दत्त्वा स्वकीयं शिष्यं कर्तुं तन्मतिं व्यामोहयति तथा 'विपरिणामेंतं वा साइज्जई' विपरिणमयन्तं वा स्वदते अन्यदीयशिष्यस्य बुद्धिव्यामोहं कुर्वन्तं श्रमणं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
भत्राह भाष्यकार:भाष्यम् -- दुविहो विप्परिणामो, पव्वज्जिय अप्पवज्जिए तह य ।
एक्केको पुण दुविहो, परिसित्थीभेयओ होई ॥ छाया-द्विविधो विपरिणामो, प्रबजितेऽप्रश्नजिते तथा च ।
एकैकः पुनद्विविधः, पुरुषस्त्रीमेदतो भवति ॥ अवचूरिः-विपरिणामः द्विविधः द्विप्रकारको भवति, एको विपरिणामः प्रबजिते शैक्षे, तथा च द्वितीयः अप्रवजिते शैक्षे । पुनरपि एकैको विपरिणामः द्विविधः पुरुषस्त्रीभेदतो द्विविधो भवति ज्ञातव्यः । द्विविधे परिणामे प्रथमं प्रव्रजितशिष्यविषयं विपरिणामं दर्शयति-यथा कश्चित् साधुरन्यशिष्यं स्थण्डिलादिभूमिमार्गे मिलितं कथयति-तव गुरुर्न श्रेष्ठः, स्वां समीचीनतया न रक्षितुमर्हति, न पाठयति, न वस्त्रपात्राहारादिना त्वां तोषयति, अतस्त्वं मम समीपे आगच्छ, त्वामहं सम्मक्तया पठनपाठनादिना तोषयिष्यामि, इत्यादि कथनेन तन्मतिं व्यामोह्य स्वशिष्यं करोतीति प्रवजिसशिष्यविषयको विपरिणामः । अप्रव्रजितविषयको विपरिणामश्चेत्थम्-कश्चिदीक्षार्थी अमुकस्थाचार्यस्य समीपे दीक्षा ग्रहीयामीसि संप्रधाय॑ गृहात् प्रस्थितः, मार्गे च कश्चित् वित्तीयः साधु
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निशीथसूत्रे
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मिलितः, स साधुवेषं दृष्ट्वा वन्दनादिकं कृतवान् ततः साधुराह - कुत्र गच्छसि ? स प्राह अमुकस्याचार्यस्य समीपे दीक्षां ग्रहीतुं गच्छामि, इति श्रुत्वा स साधुः तस्य दीक्षार्थिनो मति विपरिणमयति, स्वपक्षे कर्तुं भक्तादिदानधर्मकथादिप्रज्ञापनेन तस्य बुद्धेर्विपरिणामं करोति ।
अथ विपरिणामनप्रकारान् प्रदर्शयति भाष्यकार :
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भाष्यम् – आहिंडइ अणिसं सो, वयं तु हिंडग अहिंडगा वाfa | अहवा एगट्टाणे, ठिओ य सो नो वयं एवं ॥
छाया - आहिंडतेऽनिशं सः वयं तु हिंडका अहिण्डका वापि । अथवा एकस्थाने स्थितश्च स नो वयमेवम् ॥
अवचूरिः--मार्गे मिलितः साधुरन्यशिष्यं विपरिणमयितुं प्रव्रजितं वदति - अहो श्रद्धाशील ! ममाचार्यसमीपमागच्छ, यस्य समीपे त्वं वर्त्तसे स तु अनिशं प्रतिदिनम् आहिण्डते इतस्ततो गमनशीलो विहारं करोति, त्वमपि तेन सहैव गच्छन् सूत्रार्थयोरभ्यासं कदा करिष्यसि गमनागमने एवं समयस्य व्ययात् ? वयं तु हिंडका: मासकल्पविधिना विहरणशीलाः, अथवा अहिण्डकाः धर्मोपकारादिगाढागाढकारणमाश्रित्य चातुर्मासकल्पमाश्रित्य च एकस्थानस्थिता अपि भवामः अतो वयं हिण्डका वा अहिण्डका वास्मः किन्तु नैकान्ततो हिण्डका अहिण्डका वा । चारित्र - मर्यादया व्यवस्थित विहारकारिणो वयं क्रियोद्धारकत्वात्, अतो ममाचार्यसमीपे वसतः तव सूत्रार्थयोरध्ययनं सम्यगुरूपेण भविष्यति, अथवा शिष्याभिप्रायं ज्ञातुं स साधुरेवं वदति - अथवा स तु नियतवासः यस्य समीपे त्वं वर्त्तसे स तु एकग्रामनिवासी कूपमण्डूक इव विद्यते न ग्रामान्तरं नगरं वा पश्यति, वयं पुनरनियतवासाचातुर्मासं वर्जयित्वा त्वमपि अस्माभिः सह विहरन् नानाप्रकारकग्रामनगर संनिवेशराजघानीजनपदादिकं पश्यन् अभिज्ञानकुशलो भवि ध्यसि, एवमस्माभिः सह विहरतस्ते दुग्धादिकं च प्रभूतं मिलिष्यति । एवं ममाचार्याः निरतिचारा पवित्राः सुनामधेयाश्च यस्य समीपे त्वं वर्तसे स तु अविविक्तो मूलगुणस्खलिता सारम्भः सपरिग्रहश्च । न तथा मम पुनराचार्याः, ते तु सर्वगुणसम्पन्ना वर्त्तन्ते । पुनश्च स तु अल्पपरिवारः क्रोधशीलः स्वल्पेप्यपराधे बहुक्रोधं करोति बहुदण्डं च ददाति । तथा ममाचार्या जातिकुलसम्पन्नाः सर्वजनस्य पूजनीया गुणगुरुकाश्च स तु पुनर्जाति कुलहीनः । अपि च मदीयाचार्याः लब्धिसंपन्नास्तत आहारोपकरणवसत्यादिकं सुलभतया प्राप्नुवन्ति, स तु लब्धिरहितः, तस्य शिष्या नित्यमाहारोपकरणाद्यर्थमटन्तः सूत्रार्थहीना अगीतार्थाश्च तत्र दीक्षितस्त्वमपि तादृश एव भविष्यसि । तथा अस्माकमाचार्या बहुश्रुता रात्रिन्दिवं वाचनां ददति, तस्य तु नमस्कार मन्त्रप्रतिक्रमणादिष्वपि सन्देह एव अस्माकं
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ. १० सू.० -११-१२ शैक्षापहरणाचार्यादिदिशविपरिणमननिषेधः २३३ पुनराचार्या अर्थधारिणः शास्त्रार्थ शिष्येभ्यः प्रयच्छन्ति शिष्यपरिवारैर्युक्ताः, स तु पुनरगीतार्थः तस्य समीपे एकाकिना त्वया स्थातव्यं भवेत् शिष्यादिपरिवाररहितत्वात् तस्य । अस्माकं पुनराचार्या राजेश्वर तलवरादिभिर्महाजनैः सर्वदैव सम्मानिता भवन्ति, तं पुनर्न कोऽपि जनो जानाति, न वा सत्करोति मायादियुतो हिण्डमानो लोकैरनादृतश्च । अस्माकमाचार्याः महाजनानां नेतारः, स तु एकाको, नास्ति तस्य कोऽपि जनो यस्य स नेता स्यात् । अस्माकं पुनराचार्या बालवृद्धशैक्षदुर्बलग्लानादीनां संग्रहोपग्रहकुशलाः, स तु पुनर्नकिञ्चिदपि जानाति । error माचार्या धर्मकथां राजादिपर्षदायामपि कथयितुं समर्थाः, स तु पुनर्वा चनाशक्ति विकलः परवादिपरिषदि एकमप्यक्षरमुत्तरं दातुमसमर्थ :- एकमप्यक्षरं ज्ञातुमसमर्थः एवं विविधैः प्रकारैविपरिणमयतीति ।
अथ अप्रव्रजितविषये प्रकारान् प्रदर्शयति अथवा कश्चित् शैक्षः प्रव्रज्याग्रहणार्थममुकम् आचार्य मनसि संप्रधार्य गच्छन् मार्गे कश्चित् साधुमिलितः तं पृच्छति भो आर्य ! ममामुकः आचार्यः कुत्रचित् दृष्टः श्रुतो वा भवता : स साधुर्वदति तावता किं प्रयोजनं ते विद्यते ! शैक्षको वदति प्रत्रजितुकामोऽस्मि तेषां समीपे । तदा स साधुर्दृष्टाचार्योऽपि वदति-न मया स आचार्यो दृष्टः श्रुतोऽपि वदति न मया श्रुतः, अथवा स्वदेशस्थेऽपि आचार्ये वदतिस तु आचार्यो विदेशं गतः । अथवा अग्लानेपि वदति स तु ग्लानः । अथवा वदति -यो हि तस्य समीपे प्रव्रजति स अवश्यमेव ग्लानो भवति, अथवा यः तस्य समीपे प्रव्रजति स नित्यं ग्लानवैयावृत्ये व्यापृतो भवति । अथवा एवं वदति - स तु आचार्यों मन्दधर्मा किं त्वमपि मन्दधर्मा भवितुमिच्छसि ? किं ते मन्दधर्मेण सह संगत्या ! | अथवा एवं वदति-स अल्पश्रुतः स्वं च ग्रहणधारणसमर्थः तस्य समीपे गत्वा किं करिष्यसि ? अथवा एवं वदतिस मनोवाक्कायैर्गों करोति, अथवा ज्ञाने दर्शने चरणे च गह। करोति । एवं विविधैः प्रकारैः प्रवजितुकामं तं विपरिणमयति ।
यो हि भिक्षुरुपर्युक्तप्रकारेण परशैक्षकं विपरिणामयति विपरिणमयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम् — जेभिक्खू सेहं अवहरइ अवहरेंतं वा साइज्जइ || सू०११॥
छाया - यो भिक्षुः शैक्षकमपहरति अपहरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सेह' शैक्षकम्, तत्र सूत्रमथै साधुसमाचारीं वा शिक्षयितुं योग्य: शैक्षकः शिष्यः तं शैक्षकम् 'अवहरइ' अपहरति तस्यापहारं
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२३४ ...
निधीयो करोति, अयं भावः-कोपि साधुः श्रमणान्तरशिष्यस्य वा पात्रादिलोभेन प्रकारान्तरेण वाऽपहारं करोलि कारयति वा तथा 'अवहरेंतं बा साइज्जइ' अपहरन्तं श्रमणान्तरस्य यः शिष्यः तस्यापहारं कुर्वन्तं श्रमणान्तरम् अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । कथं पुनः शैक्षकस्यापहारो भवतीति चेदुच्यते-कश्चित् श्रमणः नवदीक्षितशिष्यं गृहीत्वा प्रस्थितः कुत्रापि प्रामे भिक्षाकाले संप्राप्ते तं शिष्यं वसतौ स्थापयित्वा भिक्षार्थ स्वयं गतवान् तदा तत्रान्यः कोऽपि श्रमणः संज्ञादिभूमि गलस्तं दृष्ट्वा तदपहरणबुद्धया तत्समीपं गच्छति। ततः साधुवेषं तं दृष्ट्वा स शिष्यः तस्य वन्दनं करोति ततः स श्रमणः पृच्छति-कस्त्वम् ! कस्मात्स्थानादागतोऽसि ! कुत्र वा गन्तुमिच्छसि !, एवं साधुना पृष्टो शिष्यो वदति-अमुकेन साधुना प्रव्राजिसोऽस्मि मे गुरुर्मिक्षाथै प्रामे गतः, तेनानस्थातुमाज्ञप्तः स्थितोऽस्मि, तदा स साधुर्वदति-किमर्थमत्र स्थितोऽसि मया सार्द्धमागच्छ अशनवक्षपात्रादिना त्वां तोषयिष्यामि, इत्यादि नाना विधप्रलोभनवाक्यैस्तं प्रत्तार्यापहरति स्वसमीपे नयति । तदा स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिसं विप्परिणामेइ विपरिणामें साइज्जइ सू० छाया-यो भिक्षुः दिशं विपरिणमयति विपरिणमयन्तं पा स्वदते ॥सू० १२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिसं विप्परिणामेइ' दिशम् दिशति उपदिशति धर्ममिति दिशः, स श्रमणानां द्विविधः आचार्य उपाध्यायश्च, श्रमणीनां च स त्रिविधः-आचार्य उपाध्यायः प्रवर्तनीचेति, तं तथाविधं दिशं द्विविधं त्रिविधं वा श्रमणः श्रमणी या 'विप्परिणामेई' विपरिणमयति आचार्यादेबुद्धिव्यामोहं करोति, तथाहि-कश्चित् श्रमणः स्वस्याचार्य कथयति-भो गुरो ! मायं गच्छः समीचीनः यतोऽत्राल्पाः श्रावकाः, तेऽपि दरिद्राः कृपणाश्च, नात्राहारवस्त्रपात्रादिः सुलभः, अमुको गच्छः समीचीनः, यत्र बहवः श्रावकाः, ते पुनर्धनसमृद्धा उदाराश्च तेन तत्राहारवस्त्रापात्रादिः सुलभः, इत्यादि कथयित्वाsऽचार्यस्य तद्गच्छसम्बन्धिपरिणामं शिथिलीकरोतीति । अथवा दिशमाचार्य विपरिणामयतीति तस्मिन् दोषविशेष समारोप्य परावर्तयति आचार्यपरिवर्तनं करोति, पूर्वाचार्य मुक्त्वाऽन्याचार्यपार्थं गच्छति । कथमित्याह- नायं मादृशस्याधीतश्रुतस्यानधीतश्रुतोऽयमार्चादित्वेन योग्यः, अथवाअयमपरिणतवयस्कः, अहं तु परिणतवयस्कः, इत्याचाक्षेपमवलम्ाचायादिकं मुक्वाऽन्यमाचार्यादिकं सेवते । तथा 'दिसं विपरिणामेंतं वा साइज्जइ' दिशं विपरिणमयन्तं परावर्तयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । . अत्राह भाष्यकारः-- . भाष्यम्--अन्नगच्छस्स रागेश, गुरुं विप्परिणामए ।
पुव्वगच्छस्स दोसे जो, कहित्ता दोसवं भवे ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १० सू० १३
आचार्यादिरूपदिशापहरणनिवेधः २१५ छाया-- अन्यगच्छस्य रागेण गुरुविप्परिणमयेत् ।
पूर्वगच्छस्य दोषान् यः कथयित्वा दोषवान् भवेत् ।। अवचूरि-'अन्नगच्छस्स' ' इत्यादि । यः कश्चित् श्रमणः अन्यगच्छस्य गच्छान्तरस्य रागेण तद्रागमावेन पूर्वगच्छस्य दोषान् कथयित्वा गुरुं स्वस्याचार्यादिकं विपरिणमयति-व्यामोहयति आचार्यस्य चित्तविकृति करोति तथाहि-भो गुरो ! नायं गच्छः समीचीनः इत्यादिचूर्णिप्रोक्तप्रकारेण कथयित्वा गुरोस्तद्गच्छसम्बन्धिपरिणामं शिथिलीकरोति स दीषवान् आज्ञाभङ्गादि. दोषभागी भवतीति ।
अथवा विपरिणमयतीति आचार्य परिवर्तयति स्वाचार्ये दोषान् प्रदान्यमाचार्य करोतीत्य र्थविषयेऽप्याह भाष्यकारः-- भाष्यम्--रागेण य दोसेण य, दिसं विप्परिणामए ।
तस्स दोसे भणित्ता जो, आणाभंगाइ पावइ । छाया-रागेण च द्वेषेण च दिश विपरिणमयति ।
तस्य दोषान् भणित्वा यः आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः–यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा रागेण आचार्यान्तरानुरागेण वा द्वेषेण पूर्वा-- चार्यगतद्वेषेण वा तस्य पूर्वाचार्यस्य दोषान् भणित्वा कथयित्वा दिशं स्वाचार्य विपरिणमयति परिवर्तययि परावर्तनं करोति अन्याचार्यपार्श्व, गच्झतीति भावः, परावर्तनं कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिदोषं प्राप्नोति । तत्र विपरिणमनप्रकारस्तु एवम्-कोऽपि शिष्य आचार्यादिवं प्रत्येवं वदति- यस्याचार्यस्य समीपेऽहं प्रबजितः स तु अल्पवयस्कः अहं च वृद्धः, तस्मात् एष आचार्यशिष्यसम्बन्धो न सम्यग् घटते कथमहं पुत्रसमानस्यास्याचार्यस्य शिष्यो भूत्वा तिष्ठामि ?, कथं वा अल्पवयस आचार्यस्य विनयवैयावृत्यादिकं करोमि ! किं वा मम स्वजनादिवर्गों जानाति :, अथवा असौ आचार्यः अपरिपक्वबुद्धिस्तैन सं अकर्तव्यमपि कार्य कदाचित् करिष्यति । एवं सद्भूतमसद्भूतं वा दोष वदेत् । अथाऽयमकुलीनों मदीयो गुरुरहं च कुलीनः, मेघावी चाहं स तु दुर्मेधाः । अहं धनाढ्यः सन् प्रवजितः, स तु अकिंचनो दरिद्रः प्रबजितः, अहं बुद्धिमान् स तु अबुद्धिः, अबुद्धेः कुतो लब्धिरिति नासौ लब्धिमान् , अथवा पूर्वोक्तप्रकारेणैव स्वकीयमाचार्य निन्दति, यस्य पार्थं गन्तुमिच्छति तं च प्रशंसते, यथा-अयं न पूर्वोक्तगुणवान् स तु पूर्वोक्तप्रभूतगुणवान् वर्तते, इत्यादिप्रकारेण यः कश्चित् श्रमणः स्वकीयाचार्यस्य दोषान् सदभूतानसर्भूतान् वा प्रकाशयित्वा अन्यस्याचार्यस्य च गुणान् प्रदर्श्व भूतपूर्वमाचायं त्यक्वाऽन्यमाचार्य परिसेवते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिसं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१३॥
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२६
ANAM
निशीथसूत्र छाया-यो भिक्षुर्दिशमपहरति अपहरन्तं वा स्वदते । सू० १३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिसं' दिशमाचार्यम् 'अवहरइ' अपहरति--पूर्वसूत्रोक्तप्रकारेण नानाविधवाक्यप्रबन्धं कथयित्वाऽन्यगच्छे नयति तथा 'अवहरंतं वा साइज्जइ' अपहरन्तम् अन्यगच्छे नयन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-रागेण दोसेण दिसावहारं, करेइ वा कारइ जो य भिक्खू ।
आणाणवत्थाइ विराहणं च, मिच्छत्तदोसं समुवेइ सोऽत्थ ॥ छाया--रागेण द्वेषेण दिशापहारं करोति वा कारयति यश्च भिक्षुः।
___ आशानवस्थादि विराधनं च मिथ्यात्वदोषं समुपैति सोऽत्र ॥
अवचूरिः—यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा रागेण-अन्यगच्छरागेण द्वेषेण-स्वगच्छे सभुत्पन्नद्वेषेण वा दिशापहार-आचार्यादेरपहारम्-अन्यगच्छे नयनरूपं करोति, अथवा अन्यद्वारा कारयति तदा सोऽत्र विषये आज्ञाभङ्गानवस्थादिदोषान् संयमात्मविराधनां मिथ्यात्वदोषं च समुपैति प्राप्नोति । शिष्य आचार्य नानाविधवाक्यैः प्रतार्यान्यगच्छे नयति तदा भूतपूर्वगच्छ आचार्यरहितो भवति तेन तद्गच्छे धर्मोपदेशकाभावात् धर्मे लोकानां ग्लानि निश्च भवति, गच्छस्य निराधारकरणे तीर्थकराज्ञाभङ्गो भवेत् , तं दृष्ट्वाऽन्योऽप्येवं करोति, तं दृष्ट्वा चान्यः, एवमनवस्थादोषः समापद्यते । गच्छविराधना च भवति धर्महान्या संयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी, आचार्यापहारे कारणभूतं शिष्यं विज्ञाय गच्छवासिनो लोकास्तं ताडयेयुरपीत्यात्मविराधनासंभवः, गच्छनिन्दायां मिथ्यावदोषमपि स भजते, इत्याद्यनेके दोषा संभवन्ति ततो दिशापहारं न कुर्यात् नापि कारयेत् कुर्वन्तं वा नानुमोदयेदिति भावः ॥१३॥
मुत्रमजे भिक्खू बहियावासियं आएसं परं तिरायाओ अविफालेत्ता संवसावेइ संवसावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
छाया-यो भिक्षुर्बहिर्वासिकमादेशं परं त्रिरात्रात् अविस्फाल्य संवासयति संवासयन्तं वा स्वदते ॥सू०१४॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बहियावासियं' बहिर्वासिकं बहिः स्वगच्छाद् बहिर्वस्तुं शीलं यस्य स बहिर्वासी स एव बहिर्वासि कस्तम् अन्यगच्छवासिनं 'आएसं' आदेशम् आगतः सन् आदेशमाज्ञां करोति स आदेशः प्राघू. र्णकः साधुस्तमादेशं 'अविफालेत्ता' अविस्फाल्य अप्रकट्य तदागमनकारणमपृष्ट्वेत्यर्थः यथा हे भदन्त ! त्वं किंनिमित्तमत्रागतोऽसि ?, त्वमस्माकमज्ञातोऽसि !, कोदग्गच्छवासी त्वम् कुत आगतः?
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ०१० सू०१४-१५ बहिर्वासि - साधिकरणयोः रात्रिवासदाननिषेधः २३७ कुत्रगमनकामोऽसि ? इत्येवमपृष्ट्वा 'परं तिरायाओ' परं त्रिरात्रात् रात्रित्रयादनन्तरम् रात्रित्रयात् परतश्चतुर्थादिदिने ‘संवसावेइ' संवासयति स्ववसतौ वासयति निवासं ददाति तथा 'संवसावेंतं बा साइज्जई' संवासयन्तं वा स्वदते विस्फालनामकृत्वा रात्रित्रयात् परतश्चतुर्थादि दिनेऽपि वासं वासयन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अज्ञातकुलशीलं वसतिवासं ददाति तदा कदाचित् स चौरो मुनिवेषधारी भवेत्, लम्पटो लुण्टको वा भवेत्, चौर्यं कृत्वा राजपुरुषादिभयात् स्वात्मरक्षार्थं साधुवसतौ समागतो वा भवेत्, इत्यादि संभवादेकरात्रमपि न संवासयेत । त्रिरात्रात् परमिति यत् कथितं तत्रैवं ज्ञातव्यम् - कोऽपि साधुः मार्गविस्मृत्या स्वसाघर्मिसंघात् पृथग्भूतो भवेत्, ग्लानादिवैयावृत्यार्थं गुरुणा प्रेषित एकाकी तत्र गन्तुकामो भवेत्, इत्यादिकारणवशात् समागतो भवेत् तदा तं दिवसत्रयं यावत् वासं दद्यात् । एतादृशमपि त्रिरात्रात्परं न संवासयेत् । चतुर्थादिदिने वासदानात् बहुदोषसंभवः शिष्यापहरणादिकलङ्कश्चापि समापतेतेति ।
अत्राह भाष्यकारः
भाष्यम् - पाहूणगं ससमीवे, आगयं जो न पुच्छ । तिरायाओ परं वासे, आणाभंगाइ पावइ ||
छाया - प्राघूर्णकं स्वसमीपे, आगतं जो न पृच्छति । त्रिरात्रात् परत: वासयेत् आश्वाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
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अवचूरिः: - यः कोऽपि साधुः अन्यगच्छात् स्वसमीपे समागतं प्राचूर्णकं अन्यगच्छवासिनं साधुं यो न पृच्छति यः साधुस्तस्य परिचयादिकं न पृच्छति किन्तु अद्वैव त्रिरात्रात् परतः रात्रित्रयादनन्तरं स्ववसतौ वासयेत् तदा स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवतीत्यर्थः । अपृष्ट्वा यदि वासयति तदा इमे दोषा भवन्ति तथाहि - कदाचित् स तेन साधुवेषेण उपद्रवकारकः कश्चित् समागतो भवेत्, वस्त्रादिलोभात् कश्चित् लुण्टको वंचको वा समागतो भवेत्, स्वपक्षपरपक्षाद् वा चौर्य कर्तु चौरो वा समागतो भवेत्, मैथुनसेवनार्थं कश्चित् मैथुनार्थी वा समागतो भवेत् राज्ञां वा अपकारं कृत्वा समागतो भवेत्, आचार्यस्य मारणाय केनचित् प्रेषितो घातको वा भवेत्, अतः सर्वं सम्यक् पृष्ट्वा यदि योग्योऽयमिति जानीयात् तदा बासो देयो नो चेत् वासो न देय इति । अपृष्टः पृष्टो वा यदि एवं वदति तदा तस्य रात्रित्रयं यावत् वासो देयः, तथाहि - भवन्तमेवोपसंपत्तुं समागतोऽस्मि, अपराधस्यालोचनां गृहीतुं समागतोऽस्मि, कुलगणसंघकार्येण वा समागतोऽस्मि, व्यशिवादिकारणैर्वा समागतोऽस्मि, सूत्रार्थजातनिमित्तेन वा समागतोऽस्मि, एवमादिकथने वासयेत् । सकारणागमनेऽपि तद्गुरोराज्ञां विना रात्रित्रयात् परतो न संवासयेदिति भावः । सू१४ ॥
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निशोथसूत्र सूत्रम्-जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुडं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विष्फालिय अविष्फालिय संभुंजइ सं जंतं वा सा इज्जइ ॥सू० १५॥
छाया-यो भिक्षुः साधिकरणमव्युपशामितप्राभृतमकृतप्रायश्चितं परं त्रिरात्रात् विस्फास्य अविस्फाल्य संभुङ्क्ते संभुजानं वा स्वदते ॥सू. १५ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'साहिगरणं' अधिकरणेन-कषायभावेन सहितो युक्तः साधिकरणः, तम् साधिकरणम् 'अविओसमियपाहुडं' अव्युपशामितप्राभृतम् वि-विविधैर्मनोवाक्कायैः करणकारणानुमोदनैश्च त्रिविधमधिकरणं त्रिविधत्रिविधैः उपशामितः स्वापराधस्वीकारपूर्वकं क्षामितः प्राभृतः कलहो येम स व्युपशामितप्राभृतः, न तथेति अव्युपशामितप्राभृतः कलहव्युपशामनारहित इत्यर्थस्तम्-'अकडपायच्छित्तं' अकृतप्राश्चित्तम् अकृतं कृते च कलहे यत् प्रायश्चित्तमापद्यते तत् न कृतं न गृहीतं येन स अकृतप्रायश्चित्तस्तम् 'विष्फालिय' विस्फाल्य-पृष्ट्वा कलहकरणविषये तद्वयुपशामनायाः करणाकरणे, तत्प्रायश्चित्तस्य ग्रहणाग्रहणे च आपृच्छ्य ‘अविप्फालिय' अविस्फाल्य पूर्वोक्तविषयमनापृच्छ्य वा पृच्छामन्तरेणेत्यर्थः 'परं तिरायाओ' परं त्रिरात्रात् रात्रित्र्यात् परतः 'संभुंजई' तेन सह एकस्मिन् मण्डले संभुङ्क्ते चतुर्विधाहारजातस्योपभोगं करोति कारयति वा तथा 'संभुंजतं वा साइज्जई' संभुञ्जानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति ।
अत्राह भाष्यकार:-- भाष्यम्-साहिगरणो य दुविहो, सपक्ख-परपक्ख-भेयओ होइ ।
___इक्विको पुण दुविहो गच्छगओ गच्छनिग्गओ वावि ।। छाया-साधिकरणो द्विविधः, स्वपक्ष-परपक्ष-भेदतो भवति ।
एकैकः पुनद्विविधः गच्छगतो गच्छनिर्गतो वापि ॥ अवचूरिः-साधिकरणः अधि-अधिकं साधुमर्यादातिरिक्तं करणम् अधिकरणं कलहकरणमित्यर्थः, तेन अधिकरणेन कलहेन सह वर्त्तते यः सः साधिकरणः कलहविशिष्टः साधुः स स्वपक्षपरपक्षमेदतो द्विविधो भवति-स्वपक्षगतः साधिकरणः, परपक्षगतः साधिकरणश्चेति । तत्र स्वपक्षगत इति स्वगन्छसाधुः परपक्षगत इति परगच्छसाधुः । अथवा स्वपक्षे साधिकरणः साधुना सह कलहकरणशीलः, परपक्षे साधिकरणः गृहस्थेन सह कलहकरणशील इति । अयमेकैको द्विविधः गच्छगतः, अथवा गच्छनिर्गतश्च । तथाहि-तदिदमधिकरणम् सचित्ताचित्तमिश्रवस्तु प्रतीत्य जायते, तथाहि-कस्यचित् कोऽपि शिष्योः जातः, तं दृष्ट्वा अन्यः स्वगन्छवासी साधुर्वदनि-अयं मम शिष्य
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लिमायावः उ०१० सू०१६-१९ उद्घातानुद्घातयोविपर्यासवादतत्कथननि० २३९ तया पूर्व प्रतिपन्नः कथं भवान् एनं शिष्यमकरोत् यदा मालवे विहरन्नासीत्तदा मया एषः प्रतिबोधितः तस्मात ममायं भावी शिष्य इति । एवं क्रमेणोभयोः कलहो जायते अयं स्वपक्षे साधिकरणः । एवंप्रकारेणाचित्ते वस्त्रपात्रकम्बलाद्युपकरणविषयेऽपि अधिकरणं समुत्पद्यते । एवं सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्रसहितशिष्यादौ कलहो जायते । एवं कोऽपि ! स्वगच्छगतः साधुः स्वाध्यायं करोति तदा अपर आगत्य कथयति-कथ त्वं न्यूनमधिकं वा स्वाध्यायं करोषि उत्सूत्रं वा प्ररूपयसि ? इत्यादिक्रमेणाधिकरणं समुत्पद्यते, अयमपि स्वपक्षगतः साधिकरण इति । एवं परगच्छगतसाधिकरणविषयेऽपि शिष्यविषये वस्त्रपात्रादिविषये स्वाध्यायादिविषये च ज्ञातव्यम् । अयमेकैको गच्छगतो गच्छनिर्गतो वा साधिकरणो द्विविधो भवति तद्विषयेऽप्यधिकरणत्वं स्वयमूहनीयम् । एवं कोऽपि साधुरधिकरणमुत्पादितवान् पुनश्च तदधिकरणं न व्यवशामितं न क्षामितं किन्तु अनुपशाम्य स यधागच्छेत्तं तत्रत्यः साधुर्यदि अव्युपशामितकलहम् अकृतप्रायश्चित्तं च स्वसमीपे स्थापयति तथा तेन सह आहारं करोति कारयति कुर्वन्तं वां अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयं अणुग्घाइयं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥ छाया - यो भिक्षुरुद्घातिकमनुद्घातिकं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० १६॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयं' उद्घातिकं- लघुप्रायश्चित्तम् 'अणुग्घाइयं अनुद्घातिकं गुरुप्रायश्चित्तम् 'बयइ' वदतिप्ररूपयति, यस्य कस्यचित् श्रमणस्य लघुप्रायश्चित्तमायाति तस्मै गुरुकं प्रायश्चित्तं वदति प्ररूपयति, एवं लघुक प्रायश्चित्तवन्तं गुरुक प्रायश्चित्तं वदति प्ररूपयति, तथा 'वयं वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ सू० १६॥ एवम् 'अणुग्घाइयं उग्याइयं वयई' इति सूत्रम् | गुरुपायश्चित्तयोग्याय श्रमणाय लघुकं प्रायश्चित्तं प्ररूपयतीति ॥सू० १७॥ अनेनैव प्रकारेण 'उग्याइयं अणुग्याइयं देइ' लघुप्रायश्चित्तयोग्याय श्रमणाय गुरुप्रायश्चित्तं ददाति-- आरोपयतीति ॥सू० १८॥ तथा 'अणुग्याइयं उग्याइयं देई' गुरुप्रायश्चित्तयोग्याय लघुप्रायश्चित्तं ददाति-भारोपयतीति । एवं सप्तदशसूत्रात् एकोनवितिसूत्रपर्यन्तानि त्रीणि सूत्राणि षोडशसूत्रवद् व्याख्येयानीति ॥ सू० १९॥
अवाह भाष्यकारः-- भाष्यम् - उग्यायमणुग्घायं, चाणुग्यायं पुणो य उग्घायं ।
एवं जो विपरीयं, वए दए पावए दोसे । छाया-उद्यातमनुद्घातं चातुधातं पुनश्च उद्घातम् ।
एवं यो विप पदेवीतं दद्यात् प्राप्नुयात् दोषान् ।
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२४०
निशीथसूत्रे अवचूरिः-यः कश्चित् भिक्षुः उद्घातं लघुमासिकं प्रायश्चित्तसेविनम् अनुद्घातं गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं वदेत् प्ररूपयेत् तथा दद्यात् आरोपयेत् । एवमनुद्घातं गुरुमासिकप्रायश्चित्त सेविनम् उद्घातं लघुमासिकं वदेत् प्ररूपयेत् तथा दद्यात् आरोपयेत् । यो हि श्रमण एवं विपरीतं लघुमासिकप्रायश्चित्तस्याधिकारी तं गुरुमासिकं प्रायश्चित्तं वदेत् प्ररूपयेत् दद्यात् आरोपयेच्च, तथा यो गुरुमासिकप्रायश्चित्तस्य अधिकारी तं लघुमासिकं प्रायश्चित्तं प्ररूपयेद् आरोपयेद्वा स श्रमणः दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपान् प्राप्नुयात् । तथाहि एवं वैपरीत्येन प्ररूपणे च स तीर्थकराणामाज्ञाभङ्गं करोति, तथा अन्यथाप्ररूपणायामारोपणायां च कृतायामनवस्थापि स्यात् , तथा विपरीतप्ररूपणायां कृतायां मिथ्यात्वमपि स्यात् यथा एतत् , तथा अन्यदपि सर्वमसत्यमिति । एवमल्पप्रायश्चित्तस्य कथने दाने च चारित्रस्य शुद्धिर्न स्यात् , अधिके च प्रायश्चित्ते दत्ते साधोः पीडा स्यात् एवं द्विविधा विराधनाऽपि स्यात् । यस्मात् एते दोषास्तस्मात् कारणात् अविपरीतमेव वदेत् दद्यादपि, न तु विपरीतं प्रायश्चितं वदेत् दद्याद्वा । एवं योऽप्रायश्चित्ते प्रायश्चित्तं ददाति, तथा अल्पाऽपराधेऽधिकं प्रायश्चित्तं ददाति, अधिकापराधे चाल्पं प्रायः श्चित्तं ददाति स श्रुतचारित्रधर्मस्याशातनां करोति, तथा सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोलक्षणमोक्षमार्गस्य विराधनां करोति । तत्र धर्मो द्विप्रकारकः श्रुतलक्षणः चारित्रलक्षणश्च, तत्र अधिक प्रायश्चित्तं प्ररूपयन् ददन् श्रुतधर्म विराधयति, न्यूनं प्रायश्चित्तं च वदन् आरोपयंश्च चारित्रलक्षणं धर्म विराधयति । ज्ञानदर्शनचारित्रतपोलक्षणः चतुःष्प्रकारको मोक्षमार्गः विपरीतरूपेण प्रायश्चित्तं ददता आरोपयता विराधितः कृतो भवेत् । अत्राय विवेकः-आचार्यों यदि स्वपरंपरोपदेशेन लघुकं गुरुकं, गुरुकं वा लघुकं प्रायश्चित्तं वदति ददाति वा तदा स शुद्धः, अन्यथा तु अशुद्धः सन् प्रायश्चिभागी भवति । अथवा-आचार्यों बहुश्रुतत्वेन तत्पार्श्वे यः कश्चित् शिष्य चतुर्थादितपश्चरणेऽपि धृतिसंहननबलिको भवेत् स लघुप्रायश्चित्तदाने वदेत्–'कि ममैतेनाऽल्पेन प्रायश्चित्तेन ?' तदाऽन्यदपि उद्घातिकेऽनुद्घातिकमपि दधात् , न तत्र दोषः । यदि प्रायश्चित्ताधिकारी शिष्य उभयतः घृत्या संहनेन च दुर्बलो भवेत् तं तादृशं धृतिसंहननदुर्बलं ज्ञात्वा गुरुप्रायश्चितेऽपि लघुप्रायश्चित्तं दद्यात् येन स वोढुं शक्नोति तादृशं लघुप्रायश्चित्तमपि दद्यात् । तथा धृतिसंहननयोमध्ये एकतरेण बलिको भवेत् तदा तस्मै तदनुरूपं प्रायश्चित्तं दद्यात् । तथा य आचार्यादिग्लानादिवैयावृत्त्यकरणे अभ्युद्यतो भवेत् तस्मै सानुग्रहं प्रायश्चित्तं दद्यात् , उक्कञ्च-'वेयावच्चकराणं होइ अणुग्याएवि उग्घाय' वैयावृत्यकरेभ्यो भवति अनुदातेऽपि उद्घातम् , इति वचनात् । यस्मात् प्रायश्चित्तस्य विपर्ययकरणे पूर्वोक्ता एते दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः लघुप्रायश्चित्तस्थाने गुरुकं प्रायश्चित्तं तथा गुरुप्रायश्चित्तस्थाने च लघुकं प्रायश्चित्तं न वदैत् न दद्यात् , न वा वदन्तं ददतं वा अनुमोदयेत् ॥सू० १९॥
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घूणभाष्यावद्भिः उ० १० सू० २०-३१ उद्घातिकानुद्घातिकसहसंभोगनिषेधः २४१
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २०॥
छाया-'यो भिक्षुरुद्घातिकं श्रुत्वा ज्ञात्वा च संभुङ्क्ते संभुजानं वा स्वदते ॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्घाइयं उद्घातिकं लघुप्रायश्चित्तधारिणम् , तत्र उद्घातिकं नाम यत् सान्तरं वहति, अयं साधुलघुमासिकं प्रायश्चित्तं वहति इति ‘सोच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् 'णच्चा' ज्ञात्वा स्वयमेव सद्यो ज्ञात्वा कारणोपपत्तितो वा ज्ञात्वा--'संभुंजइ' संभुङ्क्ते 'अयं लघुकं प्रायश्चित्तं वहति' इति श्रुत्वा ज्ञात्वाऽपि तेन श्रमणेन सह एकत्र मण्डल्या माहारमाहरति तथा 'संभुंजतं वा साइज्जई' संभुञानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥२० २०॥ ।
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइय हे सोच्चा णच्चा संभुंजइ सं जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया-- यो भिक्षुरुद्धातिकहेतुं श्रुत्वा शास्वा संभुङ्क्ते संभुञ्जानं वा स्वदते ॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयहे' उद्घातिकहेतु-उद्घातिकं नाम यत् प्रायश्चित्तं सान्तरमुह्यते लघुप्रायश्चित्तमित्यर्थः, तस्य हेतुं कारणम् , अस्य साधोलघुप्रायश्चित्तसेवनस्य कारणं वर्त्तते, इत्येवं कारणम्, अथवा प्रायश्चित्तापन्नस्य यावत्प्रायश्चित्तमनासेवितं भवेत्तावत् हेतुरुच्यते, स द्विधा उह्यते शुद्धितपसा परिहारतपसा वा, तं तादृशं हेतुम् 'सोच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् तथा 'णच्चा' ज्ञात्वा स्वयमेव तत्कारणं विज्ञाय अयं लघुमासिकप्रायश्चित्तहेतुमानिति अन्यसाधुसकाशात् श्रुत्वा स्वयमेव वा बुद्धिद्वारा विज्ञायापि तेन सह एकत्रमण्डल्याम् 'संभुजई' संभुङ्क्ते 'संभुजतं वा साइज्जइ' संभुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्धाइयसंकप्पं सोच्चा णच्चा संभंजइ संभुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया–यो भिक्षुरुद्घातिकसंकल्पं श्रुत्वा ज्ञात्वा संभुङ्क्ते संभुञ्जानं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्याइयसंकप्पं उद्घातिकसंकल्पम्-उद्घातिकप्रायश्चिसंकल्पवन्तं यथा--'अहमुद्घातिकप्रायश्चित्तं ग्रहीष्यामी'-ति स्वविषयकं संकल्पम्, अथवा गुरुणा कथितो भवेत् यत् तवैतत् प्रायश्चित्तं दास्यामी'-ति गुरुविषयकंसंकल्पम् , अयमपि द्विधा उह्यते शुद्धतपसा परिहारतपसा
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निशीथरी
बी, ते सादृशं संकल्पं 'सोच्चा नच्चा' श्रुत्वा ज्ञात्वा वा पूर्ववत् पुनरपि-'संभुंजइ' संभुङ्क्ते तेन सह एकमण्डल्यामाहारादिकं करोति 'सं जंतं वा साइज्जई' संभुञ्जानं वा स्वदतेऽनुमोदते, यो हि लघुमासिकप्रायश्चित्तसेवी प्रायश्चित्तं कृत्वा शुद्धो न जातः तन्मध्ये एव तेन सह भोजनादिकं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥ सू० २२॥ .. सूत्रम्-जे भिक्खू उग्घाइयं उग्घाइयहउँ वा उग्घाइयसंकल्पं वा सोच्या गच्चा संभुंजइ संभुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३॥
छाया--यो भिक्षुरुद्घातिकमुद्घातिकहेतुं वा उद्घातिकसकरूपं वा श्रुत्या ज्ञात्वा समुफ्ते सभुञ्जानं वा स्वदते ।। सू० २३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । एतत्सूत्रम् उद्घातिको-घातिकहेतू-द्घातिकसंकल्पेति विविषयमिश्रं वर्तते । व्याख्या पूर्ववत् कर्तव्येति ॥सू० २३॥
एवम्-'जे भिक्खू' अणुग्घाइयं सोच्चा' ॥ सू० २४॥ 'अणुग्घाइयहेउं सोच्चा' ॥ मू०२५॥ 'अणुग्याइयसंकप्पं सोच्चा' ॥सू० २६॥ 'अणुग्याइयं-अणुग्याइयडेउ' अणुग्याइयसंकप्पं सोच्चा' इति त्रिविषयमिश्रं चेति चत्वारि सूत्राणि पूर्ववदेव व्याख्येयानीति ॥सू० २७॥ अनेनैव प्रकारेण-'जे भिक्खू उग्धाइयं वा अणुग्घाइयं वा सोच्चा' ॥सू० २८॥ 'उग्घाइयहे वा अणुग्घाइयउँ वा सोच्चा'० ॥सू० २९॥ 'उग्याइयसंकप्पं वा अणुग्याग्याइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥सू० ३०॥ 'उग्याइयं वा अणुग्याइयं वा, उग्धाइयहेउं वा अणुग्याइयहेउं वा, उग्याइयसंकप्पं वा अणुग्धाइयसंकप्पं वा सोच्चा' एतानि चत्वारि सूत्राणि पूर्ववदेव व्याख्येयानि ॥सू० ३१॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- उग्याइयऽणुग्याइयपयदुगं जो मुणी य अहिकिच्चा ।
तचिसयं हेउं तह, संकप्पं इय दुगं च सव्वेयं ॥१॥ सोच्चा णच्चा भुंजइ, तेणं सह एगमंडलीमज्झे ।
सो पावइ मिच्छत्तं, आणाभंगाइदोसे य ॥२॥ छाया--उद्घातिकानुद्घातिकपद्विकं यो मुनिश्र अधिकृत्य ।
तद्विषयं हेतुं तथा संकल्पमिति द्विकं च सर्वमेतत् ॥१॥ श्रुत्वा ज्ञात्वा भुङ्क्ते, तेन सह एकमण्डलीमध्ये ।
स प्राप्नोति मिथ्यात्वम् आशाभङ्गादिदोषांश्च ॥२॥ अवचूरिः–'उग्धाइय'० इत्यादि । यो मुनिः उद्घातिकमनुद्धातिकं चेति पदद्वयमधिकृत्य तदधिकारमाश्रित्य तद्विषयं हेतुम् उद्घातिकहेतुमनुद्घातिकहेतुं च, तथा तद्विषयं
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पूर्णिभाष्यावरिः उ०१० स०३२-३३ उद्गतवृत्तिकादेः सूर्यानुद्गमनादिनिश्चये भोजननि० २४३ संकल्पम्-उद्घातिकसंकल्पमनुद्घातिकसंकल्पं चेति द्विकं च, एवं द्वादशसूत्रीकथितं सर्वमेतत् श्रुत्वाऽन्यसकाशात् , स्वयं वा ज्ञात्वाऽपि तेन तादृशेन मुनिना सह मण्डलीमध्ये एकस्यां मण्डल्यां स्थित्वा भुङ्क्ते अशनादिचतुविधाहारं करोति, उपलक्षणात् वस्त्रपात्रादीनामादान: प्रदानं वा करोति स मिथ्यात्वमाज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्राप्नोतीति भाष्यगाथाद्वयार्थः ॥१॥२॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे संथडिए णिब्वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ संभुंजंतं वा साइज्जइ, अह पुण एवं जाणेज्जा अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहंसि या जं च पाणिसि वा जं च पडिग्गहंसि वा तं च विगिंचिय विसाहिय तं परिट्ठावेमाणे णाइकमइ, जो तं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३२॥
छाया यो भिक्षुरुद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः संस्तृतो निर्विचिकिसालमापन्नेमात्मना अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्य भुङ्क्ते संभुः जानं धा स्वदते, अथ पुनरेवं जानीयात्-अनुद्गतः सूर्य: अस्तमितो था अथ यच्च मुझे वा यच्च पाणी वा यच्च प्रतिग्रहे वा तं च विबिच्य विशोध्य तं परिष्ठापयन् नातिकामति, यस्तं भुक्ते भुज्जानं वा स्वदते ॥सू० ३२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उग्गयवित्तिए' उद्गतवृत्तिकः उद्गते सूर्ये वृत्तिवर्तनं शरीरयात्रार्थ संयमयात्रार्थ च व्यवहारो यस्य स उद्गतवृत्तिकः उद्गते एव सूर्ये आहारविहारादिसकलसाधुक्रियाकारकः 'अणत्यमियमणसंकप्पे' अनस्तमितमनःसंकल्पः-अनस्तमिते अस्तं न गते सूर्ये एव मनःसकल्पः आहारविहारादिविषयको मनोविचारो यस्य स अनस्तमितमनःसंकल्पः सूर्यास्तात्पूर्वमेव सकलसाधुक्रियाकरणशीलमनोविचारवान् ‘संथडिए' संस्तृतः धृतिबलसंहनादिना समर्थः अध्वप्रतिपन्नः क्षपकः लानो वा न भवेदिति भावः, एतादृशो भिक्षुः 'णिन्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' निर्विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना, विचिकित्सा-संदेहः, न विचिकित्सा निर्विचिकित्सा-सूर्योदिता-स्तमनविषयकसन्देहराहित्यं, तां समापन्नेन प्राप्तेन सूर्यस्य अनुद्गतत्वास्तमितत्वसन्देहराहित्येन मात्मना उद्गते सूर्ये अनस्तमिते वा सूर्ये यदि 'असणवा ४ ।' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य यदा 'संझुंजइ' संभुङ्क्ते 'संधुंजवं वा साइज्जइ' संभुञ्जानं वा स्वदते अनुमोदते तदा स भिक्षुः 'अहपुण' अथ पुनः अथ शब्दो विषयान्तरसूचकस्तेन आहारं कर्तुं प्रारब्धस्तत्समये पुनः ‘एवं जाणेज्जा' एवं जानीयात्
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निशीथसूत्र
अन्यकथनेन स्वबुद्धया वा निश्चिनुयात् , किं जानीयादित्याह-'अणुगए सूरिए' अनुद्गतः सूर्यः सांप्रतं सूर्यो नोदितः 'अत्यमिए वा' अस्तमितः अस्तंगतो वा सूर्यः इति, 'से' अथ तदनन्तरं 'जं च मुहंसि वा' यच्चाशनादि मुखे क्षिप्तं वर्तते 'जं च पाणिसि वा' यच्चाशनादि पाणौ हस्ते वर्तते भोक्तुं हस्ते गृहीतं भवेत् , 'जं च पडिग्गहंसि वा' यच्चाशनादि प्रतिग्रहे पात्रे वर्तते 'तं' तत् सकलमशनादिकं 'विगिचिय' विविच्य तत्रैव विमुच्य 'विसोहिय' विशोध्य मुखं हस्तं पात्रं च निरवयवं लेपरहितं कृत्वा 'तं' तत् यत्पात्रे स्थितं तद् अशनादिकं 'परिद्ववेमाणे' परिष्ठापयन् भिक्षुः 'नाइककमई' नातिकामति तीर्थकराज्ञा नोल्लङ्घयति, आज्ञाया आराधक एव स न तु विराधक इति भावः 'जो तं मुंजइभुजतं वा साइज्जइ' यः कोपि साधुर्यदि अन्यकथनेन स्वबुद्धया वा सूर्यस्यानुद्गमनाऽस्तमने निश्चिते सत्यपि अशनादिचतुर्विधमाहारं भुङ्क्ते भोजयति भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति । सू० ३२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३३॥
छाया-यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकोऽनस्तमितमनःसंकल्पो संस्तृतो विचिकित्सासमापन्नेनात्मना अशन वा ४ यावत् यस्तं भुङ्क्ते भुआनं वा स्वदते ।। सू० ३३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः पूर्वव्याख्यातस्वरूपः सः 'संथडिए' संस्तृतः धृतिबलसंहननसंपन्नः 'वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' विचिकित्सा सूर्यस्योद्गमनविषयकः सूर्यो नास्तंगतः इत्येवंविषयकः सदेहः अभ्रछन्नादिवशात् तां विचि केत्सां समापन्नेनात्मना 'उद्गतः सर्यः, नास्तं गतो वा सूर्यः, इत्येवं दातृकथनेन 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारं प्रतिगृह्य भुक्ते भुञ्जानं वा स्वदते तदा अथ पुनः आहारारम्भसमये एवं जानीयात्--निश्चिनुयात-'नोदितः सूर्यः अस्तमितो वा सूर्यः' इति अन्यजनकथनेन स्वबुद्ध्या वा निश्चिते सत्यपि योऽशनादिकं भुङ्क्ते भोजयति हस्तपात्रमुखगतमशनादि विविच्य विशोध्य न परिष्ठापयति तदा सोऽवश्यं प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः । अक्षरगमनिका स्पष्टेति ॥सू० ३३॥
___ पूर्वसूत्रद्वयं-'संथडिए, निव्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' तथा -'संथडिए वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' इति पदद्वयमाश्रित्य प्रोक्तम् । साम्प्रतम् 'असंथडिए' इति पदेन सह 'निन्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' इति, तथा 'वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं इति च पदद्वयं संयोज्य सूत्रद्वयं प्रोच्यते-'जे भिक्खू' उग्गयवित्तिए' इत्यादि ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिःउ. १० सू० ३५ उद्गतवृत्तिकादेःसूर्यानुद्गमनादिनिश्चयेभोजननिषेधः २४५
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणस्थमियमणसंकप्पे असंथडिए निव्वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
छाया--यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः असंस्तुतः निर्विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना असणं वा ४ यावत् यस्तं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ३४॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा उद्गतवृत्तिकादिवशेिषणविशिष्टः सः 'असंथडिए' असंस्तृतः अध्वप्रतिपन्नतपोग्लानत्वादिकारणात् धृतिबलादिरहितः 'निवितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं' निर्विचिकित्सा सूर्यस्योद्गमनानस्तमनशङ्काराहित्य, तां समापन्नेन आत्मना सन्देहरहितेनात्मना अशनादिकं गृहीत्वा भुङ्क्ते किन्तु भोक्तुं प्रवृत्ते सति यदि जानीयात् 'सूर्यो नोदितः, अस्तं वा गतः' इत्येवं निश्चये सत्यपि यो मुङ्क्ते न तदशनादिकं परिष्ठापयति स प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ।। सू० ३४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं मुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३५॥
छाया--यो भिक्षुः उद्गतवृत्तिकः अनस्तमितमनःसंकल्पः असंस्तृतः विचिकित्सासमापन्नेन आत्मना अशनं वा ४ यावत् यस्तं भुक्ते भुञ्जानं वा स्वदते सू० ३५।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववदेव, नवरम् -'असंथडिए' असंस्तृतः असमर्थः यः कोऽपि मुनिर्दूरक्षेत्राद् विद्वत्यागमनेन श्रान्तः, मासक्षपणस्य पारणकदिवसत्वेन ग्लानत्वमापन्नः, रोगादिना ग्लानत्वमापन्नो वा भवेत्, इत्यादिकारणैधै तिबलवर्जितः 'वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणणं' विचिकित्सा-सूर्यस्योदयसंभवः संप्रति अभ्रच्छन्नादिकमाश्रित्यैवं दृश्यते, अथवा-अस्तं न गत इति संभवः, इत्येवंरूपा, तां समापन्नेण आत्मना 'उदितः सूर्यो नास्तं गतो वा सूर्यः' इति दातृवचनेन अशनादिकं गृहीत्वा भुङ्क्ते भोक्तुं प्रारभते अथ तत्समये सूर्य त्यानुद्गमनास्तमनयोनिश्चये सति यो भुङ्क्त न परिष्ठापयति तदा स प्रायश्चित्तभागी भवतीति भावः ॥सू० ३५॥
अत्र भाष्यकारो गाथात्रयमाहभाष्यम्-उग्गय वित्ती भिक्खू , होइ य जो अणत्थमियसंकप्पो ।
संथडिओ सो दुविहो, णिबितिगिच्छो य वितिगिच्छी ॥१॥
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निशीथसूत्रे एमेवाऽसंथडिओ, सो विय दुविहो भवेज्ज पुव्वंव । सो गेण्डिय असणाई, तं परिभोत्तुं समारद्धो ॥२॥ जाणिय अनुग्गमं तह, अस्थमणं चेव जइ य सूरस्स ।
भुंजइ जइ असणाई, पावेइ य आणभंगाई ॥३॥ छाया-उद्गतवृत्तिभिक्षुर्भवति च यः अनस्तमितसंकल्पः ।
संस्तृतः स द्विविधो निर्विचिकित्सश्च विचिकित्सः ॥१॥ पवमेवाऽसंस्तृतः सोऽपि च द्विविधी भवेत् पूर्ववत् । स गृहीत्वाऽशनादि तत् परिभोक्तुं समारब्धः ॥२॥ ज्ञात्वाऽनुद्गमं तथा अस्तमनं चैव यदि च सूर्यस्य ।
भुङ्क्ते यदि अशनादि, प्राप्नोति च आक्षाभङ्गादि ॥३॥ अवघूरिः–'उग्गयवित्ती' इत्यादि । उद्गता वृत्तिः उगने एव सूर्ये वृत्तिः वर्त्तनं प्रतिलेखनाहारविहारादीनां यस्य स तथा, एतादृशः, तथा पुनः अनस्तमितसंकल्पः सूर्यास्तापूर्वमेव साधुक्रियाकरणे एव संकल्पः मनोभावो यस्य स तथा, एतादृशो भिक्षुः, स संस्तृतासंस्तृत. भेदेन द्विविधो भवति, तत्र संस्तृतः धृतिबलादिसंपन्नः, असंस्तृतः-धृतिबलादिरहितः । स एकैको द्विविधः-निर्विचिकित्सविचिकित्सभेदात् , तत्र निर्विचिकित्सः-सूर्यस्योद्गमे अनस्तमने च शङ्कावर्जितः, विचिकित्सः उद्गमनाऽनस्तमनविषये शङ्काशीलः, एते चत्वारोऽपि अशनादि चतुर्विधाहार गृहीत्वा तत् परिभोक्तुं समारभन्ते तत्समये 'नोदितः सूर्यः अस्तमितो वा सूर्यः' इति निश्चये तन्न भुजानाः सन्तः आज्ञा तार्थकराज्ञा नातिकाम्यन्ति, एते भुजानास्तीर्थकराज्ञाया विराधका एवं नत्वाराधका इत्यर्थः, 'सूर्य उदितः, नास्तमितो वा' इत्थादिरूपदात्रादिवचनप्रामाण्यमाश्रित्य गृहीतमशनादि भुजानानां दोषं प्रतिपादयति-'जाणिय' इत्यादि, यदि सूर्यस्यानुद्गमनमस्तमनं च ज्ञात्वा अन्यसकाशात् स्वबुद्धया वा परिज्ञाय सूर्यो नोगितः अस्तमितो वा इति निश्चयेन ज्ञाते सति यदि गृहीतमशनादि भुञ्जते किन्तु यदि यत् मुखे हस्ते पात्रे वा तिष्ठति तत् त्यक्त्वा मुखहस्तपात्रादिकै निरवयवं कृत्वा न परिष्ठापयन्ति तदा ते माज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नुवन्ति, इति भाष्यगाथात्रयार्थः ॥१-२-३॥ सू० ३५||
सूत्रम्--जे भिक्खू राओ वा वियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं आगच्छेज्जा तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा गाइक्कमइ तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते, जो तं पच्चोगिलइ पच्चागिलंतं वा साइज्जइ ॥सू० ३६॥
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चूर्णिमाप्यायचूरिः उ० १० सू० ३६-३८ मुखागतोगारपुनर्मिलन-ग्लानागवेषणादिनि० २४७
छाया- यो भिक्षुः रात्रौ वा विकाले वा सपानः लभोजन उद्गार आगच्छेत् तं विषिचन् वा पिशोधयन् वा मातिकामति, तम् उद्गीर्य प्रत्यवगिलन् रात्रिभोजनप्रतिसेवनाप्राप्तः यस्तं प्रत्ववगिलति प्रत्यवगिलन्तं वा स्वदते ॥ सू०३६ ॥
चर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'राओ वा' रात्रौ वा 'वियाले वा विकाले वा संध्यासमये सूर्योदयात्प्राग वा तस्य श्रमणस्य 'सपाणे' सपान:-पानं जलं तेन सहितः सपानः 'सभोयणे वा' सभोजनो वा यद् भोजनं भुक्तमोदनादिकं तेन सहितः सभोजनः, उपलक्षणाद् उभयप्रकारो वा 'उग्गाले' उद्गारः 'डकार' इति लोकप्रसिद्धः स आगच्छेत् मुस्त्रमध्ये आगच्छेत् 'तं विगिंचमाणे' तं सजलं सभोजनमुद्गारम् विविचन् परित्यजन् मुखाद्-बहिनिष्कासयन् 'विसोहेमाणे विशोधयन् मुखस्य स्वच्छता वस्त्रादिना संपादयन् श्रमणः श्रमणी वा 'नाइक्कामइ' नातिकामति नोल्लंधयति तीर्थंकरस्याज्ञाम् 'रात्रौ न भोक्तव्यमित्याकारकं यदस्ति तस्यातिक्रमणं न करोति सपानसभोजनोद्गारस्य मुखात् निष्काशनात् मुखस्य विशुद्धिकरणाच्चेत्यर्थः 'तं' तम् अथ यदि स श्रमणो रात्री विकाले वा समागतं सपानं सभोजनमुद्गारम् ‘उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे' उद्गीर्य्य प्रत्यवगिलन् यदि तं सपानं सभोजनमुद्गारं मुखादहिन निःसारयति किन्तु पुनः तदुद्गारस्थं जलं भोजनं च गलादधः कुर्वन् स 'राइभोयणपडिसेवणपत्चे' रात्रिभोजनप्रतिसेवनाप्राप्तः रात्रिभोजनजनितदोषयुक्तो भवति अतो यदि 'जो तं पञ्चोगिलइ पच्चोगिलंतं वा साइज्जइ' यः कोऽपि श्रमणः श्रमणी वा तदुद्गारस्थं जलं भोजनं प्रत्यवगिलति गलादधः करोति तथा प्रत्यवगिलन्तं वा स्वदते अमुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति । स्. ३६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा ण गवेसइ ण गवेसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३७॥
छाया-यो भिक्षुः ग्लानं श्रुत्वा शात्वा न गवेषयति न गवेषयन्त वा स्वदते ॥सू.३७॥
चूर्णी-'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य, कश्चिद् मिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणं ग्लानम् तत्र यस्य रोगेण आसङ्केन वा शरीरं क्षीणं भवति शरीरस्य क्षयो बा भवति स ग्लामः, तादृशं ग्लानं सरोगातङ्कम् समानसामाचारीकं स्वगच्छीय वा श्रमणं 'सोच्चा' श्रुत्वा अन्यमुखात् 'णरचा' ज्ञात्वा स्वयमेव वा ज्ञानविषयोकृत्य 'ण गवेसई' न गवेषयति नान्वेष. यति तथा 'ण गवसंत वा साइज्जई' न गवेषयन्तं वा स्ववते अनुमोदते । यो भिक्षुः स्वग्रामे खोपाश्रये परग्राम परोपाश्रये वा स्वगच्छीयः परगच्छीयो वा समानसामाचारीकः ममुकः श्रमणो ग्लानो जात इति परेभ्यः श्रुत्वा स्वयमेव वा ज्ञात्वा तस्य गवेषणं तत्स्थितेर्जिज्ञासारूपं तद्वैयाव
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२४८
निशीथस्त्र
त्यरूपं वा न करोति, तथा गवेषणमकुर्वन्तं वा श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति अतो ग्लानं श्रमणमवश्यमेव गवेषयेत् न तस्योपेक्षा कर्तव्येति भावः ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सगामे परगामे वा, सोच्चा जाणिय संठियं ।
गिलाणं नो गवेसेइ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-स्वग्रामे परनामे वा, श्रुत्वा ज्ञात्वा संस्थितम् ।
ग्लानं नो गवेषयति, आशाभकादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-यः श्रमणः स्वग्रामे- स्ववसतौ अन्यवसतौ वा परमामे- यत्र स्वयं स्थितस्ततोऽन्यग्रामे वा संस्थितं ग्लानम् समानसामाचारीकं साधुं श्रुत्वा-अमुकत्र साधुः रोगातङ्केन दुःखी जात इति लोकेभ्यः श्रुत्वा स्वयमेव ज्ञात्वा वा तं यदि श्रमणः श्रमणी वा नो गवेषयति तस्य रोगातङ्कादिस्थितेर्जिज्ञासां शुश्रूषां च न करोति स श्रमण आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति । यो हि श्रमणः स्वग्रामे स्ववसतो परवसतौ वा परग्रामे वा ग्लानं श्रमणं न गवेषयति न गवेषयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चिभागी भवति । यतो हि रोगातकादिना दुःखितो ग्लान आसन्नस्थेन साधुना अगवेषितो मनसि परितापं प्राप्नोति तज्जन्यप्रायश्चित्तस्य स भागी भवतीति भावः ।। सू० ३७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३०॥
छाया यो भिक्षुग्लानं श्रुत्वा ज्ञात्वा उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते वा ॥सू० ३८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणं' ग्लानं रोगातङ्काक्रान्तं 'सोच्चा णच्चा' श्रुत्वा अन्यसकाशात् ज्ञात्वा स्वयमेव वा यदि 'उम्मग्गं वा' उन्मार्ग वा-ालानस्थानमार्गादन्यं मार्ग 'पडिपहं वा' प्रतिपथं वा गच्छति यत्र मार्गे ग्लानः स्थितस्ततो विपरीतं पन्थानं यथा स यदि पूर्वदिशायां स्थितो भवेत्तदा स्वयं पश्चिमदिशायां गच्छति रोगातङ्कादिना ग्लायमानो यत्र वर्तते तत्र यदि गमिष्यामि तदा तस्य सेवादिकमवश्यकर्तव्यतया समापतेदितिबुद्धया यत्र स विद्यते तस्मिन् मार्गे न गच्छति किन्तु तत्प्रतिकूलमार्गेण गमनं करोति येन ग्लानस्य वैयावृत्त्यं न कर्तव्यं स्यात् , तथा 'गच्छंतं वा साइज्जइ' उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी
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पूर्णिभाष्यावद्रिः उ.१० २.०-३८-३९
ग्लानवैयावृत्याकरणनिषेधः २९ भवति । यतो रोगावस्थायामुपसर्गावस्थायां चक्षुरादीन्द्रियविकलतावस्थायां ग्लानस्य साधोविनयवैयावृत्त्यादिना संरक्षणकरणमावश्यकम् , अन्यथा रुग्णः साधुर्मनसि दुःखितः सन् संयमात् परिभ्रष्टो भवेत् , तथा असंरक्षितावस्थायां तं दृष्ट्वा लोकाः शासनस्य निन्दा करिष्यन्ति तेन प्रवचनस्य लघुता स्यात् , तथा अन्यवैराग्यवतां गृहस्थानां तस्य ग्लानस्य तादृशी दुरवस्थां दृष्ट्वा मनसि वैराग्यमपि हीयेत, ते विचारयिष्यन्ति यत् किमनया प्रव्रज्यया यत्तत्रैतादृशं दुःखं भवति, न कोऽपि वैयावृत्त्यं करोतीति विनयमार्गोऽपि लुप्येत तस्मात् कारणात् श्रमणः प्लानं साधु श्रुत्वा ज्ञात्वा कथमपि नोन्मार्ग न वा प्रतिपथं गच्छेत् , न वा.प्रतिपथं गच्छन्तमनुमोदयेत् किन्तु ग्लानस्य वैयावृत्त्यमवश्यमेव कर्तव्यमिति । अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सोच्चा गिलाणं उम्मग्गं, गच्छे पडिपहं जइ ।
__जो समणो पावई सो, आणाभंगाइयं तया ॥ छाया-श्रुत्वा ग्लानमुन्मार्ग गच्छेत् प्रतिपथं यदि ।
___ यः श्रमणः प्रामोति स आहाभङ्गादिकं तदा ॥
अवचरिः-यस्तु श्रमणो भिक्षुः ग्लानं रोगातङ्केन प्रक्षीयमाणदेहम् श्रमणं श्रुत्वा उन्मार्ग प्रतिपथं वा गच्छेत् , यत्र ग्लानः साधुर्विद्यते तत्र न गच्छति किन्तु उन्मार्गेण विपरीतमार्गेण याति, तत्राटव्यादिमार्गेण गमनम् उन्मार्गगमनम् , विपरीतमार्गेण गमनं प्रतिपथगमनम् , एवं गमनं करोति, यथा येन पथा आगतः तेनैव पथा प्रतिनिवर्तते तस्माद्वा मार्गात् मार्गान्तरेण संक्रामति, एवं कुर्वन् श्रमणः प्रायश्चित्तभागी भवतीति । कथं पुनरेवं स उन्मार्गादिना गच्छति ग्लानसमीपं नाग
छति ? तत्रोच्यते-लानं साधु श्रुत्वा स मनसि एवं विचारयति-यद्यहं ग्लानेन दृष्टः तदा यदि ग्लानस्य वैयावृत्यं न करिष्यामि तदा अधार्मिकोऽयमिति लोको मां गणयिष्यति, अथवा यदि तस्य ग्लानस्य वैयावृत्यं करिष्यामि तदा तत्रैव व्यापृतस्य मे सर्व स्वकीयं कार्य विनष्टं भविष्यतीत्यादि कारणवशात्स तत्र न गच्छतीति । तथा ग्लानो यत् दुःखं प्राप्नोति तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं तस्य भवति । तस्मात् श्रुत्वा ग्लानं मार्गे वा गच्छता ग्रामं वा प्रविशता भिक्षार्थं वा अटता साधुना तरक्षणादेव त्वरितं ग्लानसमीपे गन्तव्यमिति । यथा भ्रमरः कुसुमिताम्रवणं दृष्ट्वा वनान्तरं विहाय तं प्रति शीघ्र गच्छति, एवं साधुना धर्मवृक्षाश्रयणार्थ वैयावृत्यकरणाय तत्रावश्यं गन्तव्यमेव, एवं करणेन साधर्मिकवात्सल्यं कृतं भवेत् , तथा स्वस्य कर्मनिर्जरा च संपद्येत तस्मात् यो ग्लानसमीपे तदुपचारार्थ गच्छति स शुद्धः, यस्तु न गच्छति तस्य प्रायश्चित्तं भवति । तत्रायं पृच्छाक्रमः, तथाहि -यत्र ग्रामे उपाश्रये वा ग्लानस्तिष्ठति तत्र गत्वा प्रष्टव्यम्-कोऽत्र ग्लानमुपचरति, अथवा अस्य किमुपचरितमिति प्रष्टव्यम् । साधूनामियं मर्यादा यत् ग्लानस्यानुवर्तनं कर्तव्यमिति,
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निशीथसूत्रे एवं सत्र ग्लानसमोसं गत्वा तत्रत्यो य आचार्यस्तं प्रति वदेत्-हे भदन्त ! आज्ञापय किमहं करोमि वैयावृत्ये स्वात्मानं नियोजयामि महमनेनैवाभिप्रायेण्यागतोऽस्मि यद् ग्लानं परिचरिष्यामि, ग्लानस्य वैयावृत्ये ये संलग्नाः साधवस्तान् भक्तपानादिभियावृत्यं करिष्यामीति । एवं कुर्वतः श्रमणस्य तीर्थकराज्ञाया आराधना कृता भवति । एवं कथिते यदि आचार्यः कथयति-यत् अमुकं कार्स कुरु, तदा तत्रत्यं सर्व कार्यमाचार्याज्ञया कर्तव्यम् । औषधभक्तपानादिना वैयावृत्त्यं कर्तव्यं यावत् स साधुन रुजो भवेत् । तस्मात् साधुना अवश्यमेव ग्लानस्य समीपे गन्तव्यम् । यस्तु श्रमणो ग्लानं श्रुत्वा तत्र झटिति न गच्छति उन्मार्गेण प्रतिपथेन वा गच्छति स तीर्थकरस्याज्ञाया विराधको भवन् प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए अलभमाणे जो तं ण पडियाइक्खइ ण पडियाइक्वंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३९॥
छाया—यो भिक्षुग्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थितो ग्लानप्रायोग्यं द्रव्यजातमलभानो यस्तं न प्रत्याचक्षते न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते ॥सू० ३९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणवेयावच्चे' प्लानवैयावृत्ये, तत्र रोगातङ्कादिना ग्लानस्य साधोः वैयावृत्यं औषधभैषज्यानपानादिना सेवाकरणे 'अब्भुट्टिए' अभ्युत्थितः समुद्यतः सेवाकरणार्थ कृतप्रयत्नो जातो यदि 'गिलाणपाउग्गे ग्लानप्रायोग्यम् ग्लानस्य प्रायोग्यमनुकूलं प्रासुकमाहारमौषधादिकं वा 'दध्वजाए' द्रव्यजातम्-तदनुकूलवस्तुविशेषम् 'अलभमाणे' अलभमानः-अप्राप्नुवन् 'जो तं म पडियाइक्खई' यो ग्लानसेवाकारकः साधुः ग्लानसाध्वर्थमौषधमशनादिकं च आनेतुं कृतप्रयत्नोऽपि तादृशद्र व्यजातम् अन्तरायबलादलभमानो यदि श्रमणान्तरं प्रति आचार्य प्रति वा रोगिणं प्रति वा न प्रत्या चक्षते न कथयति तथा 'ण पडियाइक्खंत वा साइज्जई न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि भिक्षुर्लानस्य श्रमणस्य वैयावृत्त्ये नियुक्तो ग्लानस्य प्रायोग्य औषधभैषज्यान्नपानादिकमानेतुं प्रयत्नं करोति तत्र यदि तादृशं प्रासुकमौषधादिकं तेन म लब्धम् तदा आगत्याचार्य प्रति अन्यस्मै साधवे वा ग्ल'नाय वा कथयितव्यं यत् औषधादिकं लाभान्तरायकर्मणा मया न लब्धमिति । एवं न कथयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्तीति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-वेयावच्चे गिलाणस्स, वावडो समणो जइ ।
दबजायं अलभंतो, गुरुणो तं निवेयए ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० सू०४० ग्लानोचितवस्त्वलामेपश्चात्तापाऽकरणनिषेधः २५९
छाया- वैयावृत्ये ग्लानस्य व्यापृतः श्रमणो यदि ।
- द्रव्यजातमलभमानो गुरवे तं निवेदयेत् ॥
अवचूरिः- श्रमणो भिक्षुः ग्लानस्य रोगातङ्कादिना पीड्यमानदेहस्य वैयावृत्त्ये सेवाकमणि नियुक्तः ग्लानार्थ द्रव्यादिजातम् प्रासुकमौषधं भक्तं पानं वा अन्वेषयन् तं यदि न लभते तदा प्रत्यागत्य 'ग्लानार्थ प्रासुकमौषधादिकं नाहं लब्धवा'-नित्येवंप्रकारेण गुरवे आचार्याय गच्छनायकाय ग्लानाय अन्यस्मै साधवे वा अवश्यमेव कथयेत् । यदि कदाचित् स पुनरागतो न कथयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्याज्ञा भङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति । तत्र द्रव्यजातपदेन प्रासुकं भक्तपानादिकम् , तथा रोगिणे यादृशमुपयुक्तमौषधादिकं भवति तादृशमौषधादिकम् , पथ्यं भोजनम् , संस्तारकवस्त्रादिकं च गृह्यते । यदि प्रत्यागतः साधुन कथयति तत्रेमे दोषा भवन्ति तद्यथा-अमुकेन औषधेन तस्य ग्लानस्य रोगनिवृत्तिर्भविष्यति परन्तु तेन नानीतं न वा कथितम् , यदि कथितं भवेत् तदा अन्यः कोऽपि श्रमणः तदर्थ प्रयत्नं कुर्यात् । तदकरणात् ग्लानस्यागाढपरितापो भवेत् , महददुःखं जायेत, ग्लानस्य मूर्खापि भवेत् , एवं कदाचित् प्राणवियोगोऽपि संभवेत् , यस्मादेते दोषाः संभवन्ति तस्मात् कारणात् ग्लानस्य वैयावृत्त्ये नियुक्तो भिक्षुर्यदि ग्लानार्थमौषधादिकं न प्राप्नोति तदा अवश्यमेवागत्य गुरवे श्रमणान्तराय वा निवेदनीय, नतु तत्रालस्यं कर्तव्यमिति ॥सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुट्ठिए सएण लामेण असंथरमाणे जो तस्स न पडितप्पइन पडितप्पंतं वा साइज्जइ ॥ सू०४०॥
छाया-यो भिक्षुग्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थितः स्वकेन लामेनासंस्तरन् यः तस्य न परितप्यते न परितप्यमानं वा स्वदते ॥सू० ४०॥
चूर्णी'जे मिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिलाणवेयावच्चे' ग्लानवैयावृत्ये, तत्र ग्लानस्य रोगातङ्कादिना पीडितस्य श्रमणस्य वैयावृत्ये सेवाकर्मणि 'अब्भुट्टिए' अभ्युत्थितः समुद्यतः, तेन वन्दनादिकार्यवशाद् बेलातिक्रमेऽल्पं लब्ध भवेत् , तादृशेन 'सएण लामेण' स्वकेन स्वकृतोधमजनितेन लाभेन 'असंथरमाणे' असंस्तरन् पर्याप्ततामलभमानः एतावताऽस्पेन वस्तुजातेन प्राप्तेन ग्लानस्य कि भविष्यतीत्येवं पर्याप्तमप्राप्नुवन् 'जो तस्स न पडितप्पइ' यस्तस्य तद्विषयस्य ग्लानविषयस्य वा न परितप्यते उपसर्गबलादत्र पश्चात्तापार्थो गृह्यते, पश्चात्तापं न करोति 'ण पडितप्पंतं वा साइज्जई' न परितप्यमानं वा पश्चात्तापमकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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निशीथसूत्रे ग्लानस्य वैयावृत्त्यकरणे कीदृशः साधुनियोक्तव्यः ? एवंविधे प्रश्ने भाष्यकारः प्राहभाष्यम् -खंतिखमो महविओ, असढोऽचवलो य लदिसंपण्णो ।
दक्खो अनिद्द सुभरो, हिययग्गाही अपरितंतो ॥१॥ मुत्तत्थअपडिबद्धो, निज्जरपेही जिइंदिओ दंतो। कोऊहलविप्पमुक्को, अणाणुकारी सउच्छाहो ॥२॥ उस्सग्गववायविऊ, सहगो एरिसो य जो होइ ।।
आउरवेयावच्चे, निउंजए तं च आयरिओ ॥३॥ छाया-- क्षान्तिक्षमः मार्दविकः अशठः अचपलश्च लब्धिसंपन्नः ।
दक्षः अनिद्रः सुभरः हृदयग्राही च भपरितान्तः॥१॥ सूत्रार्थाप्रतिबद्धः निर्जराप्रेक्षी जितेन्द्रियः दान्तः । कौतूहलविप्रमुक्तः अननुकारी सोत्साहः। उत्सर्गापवादवित् श्रद्धकः ईदशश्च यो भवति ।
आतुरवैयावृत्ये नियोजयेत् तं च आचार्यः ॥३॥ अवचरिः -- 'खंतिखमो' क्षान्तिक्षमः क्षान्त्या क्षमया क्षमते सहते न तु असमर्थतया यः सः क्षान्तिक्षमः, एतादृशं क्षान्तिक्षमं श्रमणं ग्लानस्य वैयावृत्ये नियोजयेत् इत्यग्रेणसम्बन्धः, तथा मार्दविकः, तत्र माननिग्रहकारी मार्दविकः मृदुतागुणसम्पन्नः, तथा अशठः, तत्र मायाशीलः शठः न शठोऽशठः मायानिग्रहकारी सरलचित्त इत्यर्थः, अचपल:-चाञ्चल्यरहितः, तथा लब्धिसम्पन्न:-आहारादिगवेषणे विलक्षणशक्तिसंपन्नः, लन्धिः-लभ्यवस्तुनः परिश्रममन्तरेण लाभः, तादृशशक्तिसम्पन्न इत्यर्थः, तथा दक्षः-लानस्य कार्यकरणे चतुरः, तथा अनिद्रः-आलस्यरहितः, सुभरः-सु-सुष्टुतया भरति पोषयति अल्पेन बहुकेन वा समयोचितेन आहारादिना ग्लानस्य पोषणं करोति यः स तथा, अथवा आत्मना अन्यद्वारा वा ग्लानस्य कार्यसाधकः, तथा हृदयग्राही-तत्र यः ग्लानस्य चित्तरञ्जकः, तेन सह हृदयंगमवा"नुमोदनपूर्वकमपथ्यनिवारको यः स हृदयग्राही, अपरितान्तः- सुचिरकालमपि ग्लानस्य वैयावृत्त्यं कुर्वन् उद्विग्नो न भवति यः स तथा ॥१॥ तथा सूत्रार्थाऽमतिबद्धः-सूत्रार्थे प्रतिबन्धरहितः सम्यक्सूत्रार्थज्ञाता गृहीतसूत्रार्थ इत्यर्थः, तथा निर्जराप्रेक्षी-कर्मनिर्जरार्थी निर्जरार्थमेव वैयावृत्त्यकारी, जितेन्द्रियःयो हि इष्टानिष्टविषये रागद्वेषं न प्राप्नोति स जितेन्द्रियः, दान्तः-इच्छाया मनसश्च दमनकर्ता, कौतूहलविममुक्तः- यस्मिन् कस्मिन् विषये कौतुकवर्जितः, अननुकारी-अनु- पश्चात् न कारयतीति अननुकारी 'अहमस्य वैयावृत्त्यं करोमि अतोऽयमपि अनु-पश्चात् मम वैयावृत्त्यं करिष्यती'-ति अनुकरणवर्जितः कृतप्रतिकृतिवाञ्छारहित इत्यर्थः, तथा सोत्साहः-वैयावृत्ये उत्साहशीलः,
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चूणभाष्यावद्भिः उ० १० सू०४१-४२ प्रथमप्राट्कालवर्षाकालविहारनिषेधः २५३ न कदापि मनोमालिन्यं करोति यः सः ॥२॥ तथा-उत्सर्गापवादवित्-यथासमयमुत्सर्गमार्गस्यापवादमार्गस्य च सम्यग् ज्ञाता, ग्लानकायें कदा कस्मिन् विषये उत्सर्गमार्गः, कदा कस्मिन् विषये चापवादमार्गः स्वीकरणीयः, इत्यस्य सम्यक्तया ज्ञानवान् , श्रद्धकः-ग्लाने श्रद्धाशीलः, एतादृशः पूर्वोक्तगुणविशिष्टो यो भवति तम् आचार्यः आतुरवैयावृत्त्ये ग्लानसेवायां नियोजयेत् स्थापयेत् ॥३।। इति भाष्यगाथात्रयार्थः ॥ सू० ४०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दुइज्जंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१॥ __छाया-- यो भिक्षुः प्रथमावृषि प्रामानुग्राम द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥सू० १४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पढमपाउसंसि' प्रथमप्रावृषि, तत्र प्रावृट्शब्देन आषाढ-श्रावणमासौ गृह्येते, तत्र तयोसियोर्द्वयोर्मध्ये प्रथमः प्रावृट्काल आषाढमासः, तस्मिन् प्रथमे प्रावृट्काले आषाढमासे अयवा षण्णामपि ऋतूनां मध्ये प्रथमः प्रावृटकालो भवति तेन कारणेन प्रथमः प्रावृट्काल: कथ्यते, तत्र प्रथमप्रावृट्काले यः श्रमणः 'गामाणुगाम दुइज्जई' प्रामानुग्रामं द्रवति एकस्मात् ग्रामात् प्रामान्तरं प्रति गच्छति तथा 'दइज्जत वा साइज्जइ' प्रामानुग्राम द्रवन्तं गच्छन्तं यथा शिशिरहेमन्तादिमध्ये प्रामानुग्राम प्रति द्रवति तथा प्रथमप्रावृट्काले यः द्रवति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४२॥
छाया-यो भिक्षुर्वर्षावास पर्युषिते ग्रामानुग्रामं द्रवति द्रवन्तं वा स्वदते ॥सू०४२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वासावासं पज्जोसवियंसि' वर्षावासं पर्युषिते सति वर्षावासनिवासकरणानन्तरं आषाढशुल्कपौर्णमास्याः प्रतिक्रमणे कृते सतीत्यर्थः ‘गामाणुगामं दूइज्जइ' ग्रामानुग्रामम् एकस्मात् ग्रामात् प्रामान्तरं प्रति द्रवति गच्छति विहारं करोतीत्यर्थः तथा 'दइज्जतं वा साइज्जई' द्रवन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति संयमात्मविराधनासद्भावात् । विशेषजिज्ञासुजनार्थ भाष्यकारोऽतिदेशमाह --- भाष्यम्-आयारस्स य बीए, सुयखंधे तस्स तइय अझयणे ।
तस्सवि पढमुद्दे से, तत्थ वि पुण आदिमुत्ते य ॥१॥ इरियाए जं भणियं, दसमुद्देसंमि तं निरवसेसं । वासावासविहारे, एत्थ निसीहे मुणेयव्वं ॥२॥
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२५४
छाया
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- आचारस्य च द्वितीये श्रुतस्कन्धे तस्य तृतीयेऽध्ययने । तस्यापि प्रथमोद्देशे, तत्रापि पुनरादिसूत्रे च ॥१॥
(ईर्याध्ययने) यद् भणितं दशमोद्देशे तत् निरवशेषम् । वर्षावासविहारे, अत्र निशीथे ज्ञातव्यम् ||२||
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निशीथसूत्रे
अवचूरि : --- आचाराङ्गसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे तदधिकृत्य तृतीयाध्ययने आदितो द्वादशाध्ययने तत्रापि प्रथमोदेशके तत्रापि आदिसूत्रे ईर्यायामिति ईर्याध्ययने यत्कथितं तन्निरवशेषं वर्षावासविषये अत्र निशीथसूत्रे दशमोद्देशे ज्ञातव्यम् । तत्राचाराङ्गसूत्रप्रकरणं यथा"अorary खलु वासावा से अभिप्प बहवे पाणा अभिसंभूया बहवे बीया अणुभिण्णा, अंतरा से मग्गा बहुप्पाणा बहुबीया जाव संताणगा अण्णोककंता पंथा, नो विन्नाया मग्गा सेवं पच्चा णो गामाशुगामं दूइज्जेज्जा तओ संजयामेव वासावासं उबल्लिएज्जा" | अभ्युपगते खलु वर्षावासे अभिप्रवृष्टे बहवः प्राणाः अभिसंभूताः, बहूनि बीजानि अधुनोद्भिन्नानि, अन्तरा तस्य मार्गा बहुप्राणा बहुबीजा यावत् संतानकाः अनुक्रान्ताः पन्थानः नो विज्ञाता मार्गाः, तदेवं ज्ञात्वा नो ग्रामानुप्रामं द्रवेत् । ततः संयत एव वर्षावासं उपयेत, इति च्छाया । वर्षाकाले ग्रामानुग्रामविहारे संयमात्मविराधना दर्श्यते वर्षाकाले समायाते बहवो वनस्पतिकायाः प्रादुर्भवन्ति, मार्गाश्च पिच्छलाः सकर्दमा भवन्ति, तथा मार्गोपरि वनस्पतीनामुत्पादात्तत्र मार्गा अपि सम्यग् न ज्ञायन्ते अतो वर्षाकाले साधुर्न विहारं कुर्यात्, न वा कुर्वन्तमनुमोदयेत् किन्तु एकस्मिन् ग्रामे चातुर्मास्यं निवस्य श्रुतचारित्रलक्षणं धर्म समाराधयेदिति भावः । (आचाराङ्ग ० श्रुत० २ ईर्याख्यमध्ययनम् ३ सूत्रम् १) संयमविराधनमात्मविराधनं च तत्र संयमविराधनमित्थम् - अक्षुण्णा अमर्दिता जलप्रवहणेन पृथिवी स्खण्डिता भवति ततश्च पृथिवी सचित्ता भवति तत्र विहारं कुर्वतो वनस्पतिकायिकानां पृथिवीकायिकानां च विराधना भवति, एवं जलं द्विविधं वर्षोदकम् भूभ्युदकं च, तत्र चलन् अप्कायिकजीवानामपि विराधनं भवति । तथा वर्षाकाले कुन्धुप्रभृतिका अनेके त्रसा जीवाः प्रादुर्भवन्ति इति वर्षाकाले विहारे कृते सति सूक्ष्मत्वाददृश्यमाना एते कुन्थुप्रभृतिका जीवा विराधिता भवन्ति इत्थं तद्विराधनेन संयमोपघातो भवतीति संयमविराधनम् । आत्मविराघनं चेत्थम् - वर्षाकाले यदि विहारं करोति तदा वृष्ट्या शरीरं प्लावितं स्यात्, एवं वर्षणात् मार्गः पिच्छलो भवति तत्र चलनेन कदाचित् पतनमपि संभवेदिति ततोऽपि आत्मविराधनं भवति, तस्मात् कारणात् चातुर्मासे श्रमणो प्रामानुग्रामं न विहरेत् न वा विहरन्तमनुमोदयेत् ॥सू० ४२॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अपज्जासवणाए पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४३॥
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चणिभाष्याषचूरिःउ.१० सू०४३-४५
पर्युषणाव्यतिक्रमनिषेधः २५५ छाया--- यो भिक्षुरपर्युषणायां पर्युषति पयुषन्तं वा स्वदते । सू० ४३॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अपज्जोसवणाए' अपर्युषणायाम् अपर्युषणाकाले, अत्र 'ऊष' उघ' इति धातुद्वयम् , तेन 'पपणा' 'पर्युषणा' इति द्वयमपि रूपं सिद्धयातीति पर्युषणस्य सांवत्सरिकस्य यः कालः प्रतिनियतः चातु
सीप्रतिक्रमणानन्तरं पञ्चाशत्तमे दिवसे संवत्सरीप्रतिक्रमणं कर्त्तव्यम् , इत्येवंरूपः कालः, तस्य कालस्याप्राप्तावेव तदतिक्रमणे वा 'पज्जोसवेइ' पर्युषति-पर्युषणां करोति कारयति वा सांवत्सरिकम् प्रतिक्रमणं चतुर्थभक्तक्षमापनादिकं च करोति, तथा 'पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ' पयुपन्तं वा अप्राप्तेऽतिक्रान्ते :वा पर्युषणाकाले सावत्सरिकप्रतिक्रमणं पर्युषणामूलकतपःप्रभृतिकं वा कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ।।१०४३।।
सूत्रम्-जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४४॥
छाया-यो भिक्षुः पर्युषणायां न पर्युषति, न पर्युषन्तं वा स्वदते । सू० ४४।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पज्जोसवणाए' पर्युषणायां पर्युषणकाले चातुर्मासिकप्रतिक्रमणानन्तरं पश्चाशत्तमदिवसरूपे प्राप्तेऽपि 'ण पज्जोसवेई' न पर्युषति शास्त्रोक्तप्रकारेण पर्युषणां न करोति, न वा कारयति तथा 'ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जई' न पर्युषन्तं वा स्वदते सांवत्सरिककाले प्राप्तेऽपि सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं यो न करोति न कारयति वा तमनुमोदते यः स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति तस्मात् पर्युषणकाले पर्युषणकृत्यं न परित्यजेत् ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पत्ते पज्जोसणाकाले, जो न पज्जोसवे मणी ।
___ अपत्ते वा अईए वा, कुणइ दोसभा भवे ॥ छाया--प्राप्ते पर्युषणाकाले, यो न पर्युषेद् मुनिः ।
अप्राप्ते वा अतीते वा, कुरुते दोषभाग भवेत् ॥ अवचूरिः-यः श्रमणः श्रमणी वा पर्युषणाकाले प्राप्ते समुपस्थित्ते संवत्सरीकाले पर्युषणां सावत्सरिककृत्य क्षमापनादिकं न कुरुते सांवत्सरीसमये तन्निमित्तकधर्मध्यानादिकं न करोति तथा पर्युषणाकाले अप्राप्ते अनागते अतीते व्यतीते वा चातुर्मासिकप्रतिक्रमणानन्तरं पञ्चाशत्तमदिवसरूपे समये यः सांवत्सरिकप्रयुक्तधर्मध्यानादिकं कुरुते स दोषभाग् भवेत् , तस्य गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्म
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निशीथसूत्र विराधनादयो दोषा भवन्ति तस्मात् श्रमणः श्रमणी वा पर्युषणाकाले पर्युषणं कुर्यात् , तथा अप्राप्ते काले अतिक्रान्ते वा पर्युषणाकाले पर्युषणं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तं कमप्य नुमोदयेत् । उक्तं च समवायाङ्गसूत्रस्य तृतीयसमवाये-"समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइमासे वइक्कते सत्तरिएहिं राईदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ" श्रमणो भगवान् महावीरो वर्षाणां सविंशतिरात्रिमासे व्यतिक्रान्ते सप्तत्यां रात्रिंदिवेषु शेषेषु वर्षावासं पर्युषति । वर्षाकालस्य विंशतिरात्रिन्दिवोत्तरे मासात्मककाले व्यतिक्रान्ते सति, तथा सप्ततिरात्रिन्दिवेषु शेषेषु पर्युषणां पर्युपास्ते सांवत्सरिक प्रतिक्रमणं करोति कृतवानिति प्रकरणार्थः, एतावता ज्ञायते यत् उपर्युक्तसमये सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं कर्तव्यं न पूर्व न वा पश्चात् करणीयः, तथाकरणे सूत्रोक्तप्रायश्चित्तप्रसंगात् , इति ॥ सू० ४४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पज्जासवणाए गालोमाइंपि बालाई उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साज्जइ ॥सू० ४५॥
छाया-यो भिक्षुः पर्युषणायां गोलोमानपि बालान उपाददाति उपाददतं वा स्वदते ॥सू० ४५॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पज्जोसवणाए' पर्युषणायां पर्युषणादिवसे 'गोलोमाइंपि बालाई गोलोमानपि गोलोमप्रमितानपि बालान् यावत्प्रमाणकाणि गवां रोमाणि केशाः भवन्ति तावत्प्रमाणकान् अपि केशान् मस्तके 'उवाइणावेई' उपाददाति स्वीकरोति धारयतीत्यर्थः तथा 'उवाइणावेतं वा साइज्जई' उपाददतं धारयन्तं वा स्वदते अनुमोदते सांवत्सरिकप्रतिक्रमणसमये स्वशिरसि गोकेशप्रमाणानपि केशान् न धारयेत् किमुत ततो दीर्घान् केशान् किन्तु तत्समये केशलुञ्चनं कृत्वैव तत्समये प्रतिक्रमणं कर्तव्यम् , अत्र यो व्यतिक्रमं करोति केशलुञ्चनमकृत्वा सांवत्सरिकप्रति. क्रमणं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि जायन्ते इति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम् -- पज्जोसवणाकाले, गोलोमप्पमाणमेत्तकेसेवि ।
जे भिक्खू जइ ठावइ, आणाभंगाइ पावेइ ॥ छाया–पर्युषणाकाले गोलोमप्रमाणमात्रकेशानपि ।
यो भिक्षुर्यदि स्थापयति माशाभादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पर्युषणाकाले सांवत्सरिकप्रतिक्रमणसमये मस्तकादिगतान केशान् गोलोमप्रमाणमात्रानपि गवां केशप्रमाणकानपि अपि-शब्दात् किमुत
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चूर्णिभाच्याषचूरिः उ० १० सू०४६-४७
पर्युषणाकृत्यनिरूपणम् २५७ ततो दीर्घान् गोलोमप्रमाणमात्रादधिकान् स्थापयति मस्तकोपरि धारयति केशलुञ्चनं न करोति स भिक्षुः आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादोषान् प्राप्नोति, तथा सकेशमस्तकोपरि कदाचित् जलादिपतने अप्कायिकजीवानां विराधनेन संयमविनाशः, तथा प्रवृद्धकेशेषु यूकालिक्षादयोऽपि संमूर्छिताः सन्तो विराधिता भवेयुः इति शिरसः खर्जन यूकालिक्षादीनां विनाशेन संयमविनाशः, तथा अतिशयेन कण्ड्यने कदाचिदात्मविराधनमपि संभवेत् तस्मात् कारणात् साधुः वर्षाकाले पर्युषणायामवश्यमेव केशान् लुञ्चयेत् , पर्युषणां नैवातिक्रामेत् । यदि तरुणो बलवान् भवेत् तदा उत्कर्षतश्चतुर्मासानन्तरमवश्यमेव केशलुञ्चनं कुर्यात् , स्थविरस्याप्येवमेव उत्कर्षतः षण्मासानन्तरमिति ॥सू० ४५॥ ।
सूत्रम्--जे भिक्खू पज्जासवणाए इत्तरियंपि आहारमाहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४६॥
छाया-यो भिक्षुः पर्युषणायामित्वरिकमपि आहारमाहरति आहरन्त वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'पज्जोसवणाए' पर्युषणायां सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे भाद्रपदशुक्लपञ्चम्याम् 'इत्तरियंपि' इत्वरिकमपि अल्पमपि 'आहार' आहारम् अशनपानखादिमस्वादिमरूपं चतुर्विधाहारमध्यात् यत् किमप्येकमल्पप्रमाणकमपि आहारजातम् सिक्थमात्रमपि, जलस्य बिन्दुमात्रमषि 'आहारेई' आहरति-आहारस्योपभोगं करोति कारयति वा तथा 'आहारतं वा साइज्जई' आहरन्तं-पर्युष. णादिवसे अल्पप्रमाणमपि अशनादिकमुपभुजानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-इत्तरियपि य असणं, पज्जोसवणाए आहरे जो उ।
सो पानइ पच्छित्तं, आणाभंगाइदोसे य ॥ छाया-इत्वरिकमप्यशनं पर्युषणायां आहरेद् यस्तु ।
स प्राप्नोति प्रायश्चित्तमाशाभङ्गादिदोषाँच्श्र ।। अवचूरिः--यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पर्युषणायां सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे इत्वरिकमपि, तत्र इत्वरं-स्तोकमल्पमपि अशनं चतुर्विधमाहारं आहरति स भिक्षुः प्रायश्चित्तं प्राप्नोति, तथा आज्ञाभङ्गादिदोषांश्च प्राप्नोति लभते चातुर्मासिकं गुरुप्रायश्चित्तमपि तस्य भवतीति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा सांवत्सरिकप्रतिक्रमणदिवसे स्तोकमप्याहारं न स्वयमाहरेत् न वा परानाहारयेत् न वा आहरन्तमनुमोदयेत् किन्तु या सामाचारी साधूनां ताम् अवलम्ब्यैव धर्मध्यानादिकं कुर्यादिति ॥सू० ४६॥
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२५८
निशीथसूत्र सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ४७॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा पर्युषयति पर्युषयन्तं वा स्वदते ।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन-परतीर्थिकेन 'गारथिएण वा' गृहस्थेन वा सह स्थित्वा 'पज्जोसवेई' पर्युषयति सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं करोति कारयति 'पज्जोसवेंतं वा साइज्जई' पर्युषयन्तं वा स्वदते अन्यतीर्थिकैर्गृहस्थैश्च सह पर्युषणाप्रतिक्रमणं कुर्वन्तं कारयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ४७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्देसे पत्ताई वा चीवराई वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४८||
छाया-यो भिक्षुः प्रथमसमवसरणोद्देशे पात्राणि वा चीवराणि वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० ४८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख्' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पढमसमोसरणुद्देसे' प्रथमसमवमरणो देशे प्राथमिकसमवसरणमध्ये इत्यर्थः, तत्र समवसरणं त्रिविधं वर्षाकालिकं हेमन्तकालिकं ग्रीष्मकालिकं च, तत्र वर्षाकालिकसमवसरणे चातुर्मास्ये 'पत्ताई' पात्राणि 'चीवराई' चीवराणि वस्त्राणि 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वर्षाकालिकप्रतिक्रमणानन्तरं यो भिक्षः गृहस्थेभ्यो वस्त्रपात्रादिकं स्वीकरोति तथा स्वीकुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, परन्तु वस्त्रपात्रसहितशिष्यग्रहणं तु कल्पते एवेति स्त्रार्थः ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-आइंमि समोसरणे, वत्थं पायं च जो पडिग्गाहे ।
सो पावेज्जा णिययं, आणा-अणवत्थ-मिच्छत्तं ॥ छाया--. आद्ये समवसरणे वस्त्रं पात्रं च यः प्रतिगृह्णीयात् ।।
स प्राप्नुयान्नियतं आज्ञानवस्थामिथ्यात्वम् ॥ अवचूरिः- यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा आये प्रथभे समवसरणे वर्षाकालिकप्रतिक्रमणानन्तरं चातुर्मासे प्रारब्धे सति तथा चतुर्माससमाप्तेः पूर्व वस्त्रं पात्रं साधूनां योग्यम् प्रतिगृह्णीयात् स्वीकुर्यात् तथा स्वीकुर्वन्तमनुमोदते स नियतं निश्चितं आज्ञाभङ्गदोषं प्राप्नुयात् तीर्थकरस्याज्ञामतिक्रामतीत्यर्थः तथा अनवस्थादोषं मिथ्यात्वं च प्राप्नुयात् लोके मिथ्यात्वं जनयति यथा वदति तथा न करोति इति साधुत्वविराधनं संयमात्मविराधनं च प्राप्नुयात् ॥१० ४८॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१० सू०४९
उद्देशकसमाप्तिः २५९ सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ४९॥
॥णिसीहज्झयणे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१०॥ छाया -- तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ।।सू०४९॥
॥ इति निशीथाध्ययने दशमोदेशकः समाप्तः ॥१०॥ चूर्णी- 'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'त' तत् उद्देशकस्यादितः आचार्यस्याऽऽगाढवचनादारभ्य दशमोद्देशकस्य चरमभागे 'पढमसमोसरणोदेसे' इति सूत्रपर्यन्तं कथितम् वर्षाकालस्य प्रतिक्रमणानन्तरं वस्त्रपात्रादिग्रहणान्तं प्रायश्चित्तस्थानं 'सेवमाणे' सेवमानः तन्मध्याद् एकस्य सर्वस्य वा प्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणो वा 'आवज्जइ' आषयते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुघाइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकं गुरुकं गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं लभते इति । अयं भावः दशमोद्देशकोक्तप्रायश्चित्तस्थानेषु मध्यात् यत् किमप्येकं सर्व वा दोषस्थानमासेवमानस्य गुरुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं भवतोति ॥९० ४९॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री--घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् दशमोदेशकः समाप्तः ॥१०॥
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॥ एकादश देशकः ॥
व्याख्यातो दशमोद्देशकः, अथैकादशो व्याख्यायते, तत्र - दशमोदेशकान्तिमसूत्रस्य एकादशोदेशकस्यादिसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेदाह भाष्यकारः-
भाष्यम् - दसमांतिमसुते य, निसिद्धो चीवरग्गहो । गारसा सुत्ते उ, पायग्गाहो पञ्च ॥१॥
छाया - दशमान्तिमसूत्रे च निषिद्ध श्रीवरग्रहः । एकादशादिसूत्रे तु पात्र ग्रहः प्रोच्यते ॥ १ ।
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अवचूरि : - दशमान्तिमसूत्रे तु दशमोदेशकस्यान्तिमे चरमे सूत्रे चीवरयाचनं चीवरस्य वस्त्रस्य याचनं ग्रहणं च निषिद्धम्, अत्र तु एकादशोदेशकस्यादिसूत्रे प्रथमसूत्रे पात्रस्य लोहादि - पात्रस्य निषेधः प्रोच्यते - अयमेव सम्बन्धः दशमैकादशोद्देशकसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य एकादशोद्देशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते - 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम् - जे भिक्खु अयपायाणि वा तंबपायाणि वा तउयपायाणि वा सीसगपायाणि वा कंसपायाणि वा रुपपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा जायख्वपायाणि वा मणिपायाणि वा कणगपायाणि वा दंतपायाणि वासिंगपायाणि वा चम्मपायाणि वा चेलपायाणि वा अंकपायाणि वा संखपायाणि वा वइरपायाणि वा करेइ करेतं वा साइज्जइ || सू० १||
छाया - यो भिक्षुरयः पात्राणि वा ताम्रपात्राणि वा पुकपात्राणि वा शीशकपात्राणि वा कांस्यपात्राणि वा रूत्यपात्राणि वा सुवर्णपात्राणि वा जातरूपपात्राणि वा मणिपात्राणि वा कनकपात्राणि वा दन्तपात्राणि वा शृङ्गपात्राणि वा चर्मपात्राणि वा कोलपात्राणि वा अंकपात्राणि वा शङ्खपात्राणि वा वजपात्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । सू० १
चूर्णी - 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अयपायाणि वा' अय:पात्राणि, तत्र अयो - लोहः तस्य पात्राणि जलानयनाय भिक्षानयनाय वा एतादृशानि अयःपात्राणि करोति इत्यग्रिमेण क्रियापदेनान्वयः 'तंबपायाणि वा' ताम्रपात्राणि वा तत्र ताम्रं प्रसिद्धं तस्य पात्राणि वा 'तउपायात्राणि वा' त्रपुकपात्राणि वा तत्र त्रपुः 'रांगा कलैः' इति लोकप्रसिद्धः तस्य पात्राणि वा 'सीसगपायाणि वा शीशकपात्राणि वा शीशकं 'सीसा' इति प्रसिद्धं तस्य पात्राणि 'कंसपायाणि वा' कांस्यपात्राणि वा तत्र कांस्यं 'कांशा' इति लोकप्रसिद्धं तस्य पात्राणि
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ११ सू० १-७ आयसादिपाणां करण धरण- परिभोगादिनि० २६१
वा 'रूप्पपायाणि वा' रूप्यपात्राणि वा तत्र रूप्यं रजतं तस्य पात्राणि वा 'सुवण्णपायाणि वा' सुवर्णपात्राणि वा 'जायरूवपायाणि वा' जातरूपपात्राणि वा, तत्र जातरूपं सुवर्णविशेषः, तस्य पात्राणि वा, 'मणिपायाणि वा' मणिपात्राणि वा तत्र मणिः कर्केतनादिः, तस्य पात्राणि वा 'कणग पायाणि वा' कनकपात्राणि वा सुवर्णविशेषस्यपात्राणि वा 'दंतपायाणि वा' दन्तपात्राणि हस्तिदन्तादिकस्य पात्राणि वा 'सिंगपायाणि वा' शृङ्गपात्राणि वा, तत्र शृङ्गं खड्गिमृगमहिषादीनां तस्य पात्राणि वा 'चम्मपायाणि वा' चर्मपात्राणि वा, तत्र चर्म मृगादीनां, तस्य पात्राणि वा 'चेलपायाणि वा' चैलपात्राणि वा तत्र चल कार्पासिकं घनीभूतवस्त्रं यस्मिन् जलादिवस्तु स्थापयितुं शक्यते, तस्य पात्राणि वा 'अंकपायाणि वा' अङ्कपात्राणि वा स्फटिकपात्राणि वा 'संखपायाणि बा' शङ्खपात्राणि वा तत्र शङ्खो लोकप्रसिद्धः तस्य पात्राणि वा 'वहरपायाणि वा' वज्रपात्राणि वा, तत्र वज्र - हीरकं तस्य पात्राणि उपलक्षणात् साम्प्रतकालीनप्लाष्टिकादिपात्राणि, एतेषु लोहादिषु मध्यात् अन्यतमस्यापि पात्राणि यः 'करेइ' करोति स्वयमेव निर्माति संपादयति 'करेंतं वा साइज्जइ' एतादृशपात्राणि कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा लौहादीनां पात्राणि स्वयमेव करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १ ॥
सूत्रम् — एवं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २ ||
-
छाया - एवं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥सू० २ ||
चूर्णी - एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अय: प्रभूतिक पात्राणि यो 'धरेइ' धरति - अन्यकृतानि पार्श्वे स्थापयति 'धतं वा साइज्जइ' धरन्तं वा पार्श्वे स्थापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम् — एवं परिभुंजइ परिभ्रंजंतं वा साइज्जइ ||सू० ३||
छाया -- एवं परिभुङ्क्ते परिभुञ्जानं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी – एवं पूर्वोक्तलोहादिपात्राणि परिभुङ्क्ते लोहादिपात्राणामुपभोगं करोति परिभुजानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अयबंधाणि वा जाव वइरखंधाणि वा करेइ करेंतें वा साइज्जइ ॥ सू० ४॥
छाया - यो भिक्षुरयोबन्धानि वा यावत् वजबन्धानि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । अयोबन्धनादारभ्य यावत् वज्रबन्धनानि दवरकरूपाणि करोति कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते उपलक्षणात साम्प्रतकालीन प्लाष्टिकादि बन्धननिषेधोऽपि विज्ञेयः || सू० ४ ||
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सूत्रम् - एवं - धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ || सू० ५ ||
छाया - एवं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५||
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चूर्णी -- चौहबन्धनयुक्तपात्राणि वा यावत् अन्येन कृतानि लोहादिबन्धनानि वज्रबन्धनानि वज्रवन्धनयुक्त पात्राणि वा पार्श्वे धरति स्थापयति घरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम् — एवं परिभुजइ परिभुजतं वा साइज्जइ ॥सू० ६ ॥
छाया - एवं परिभुक्ते परिभुञ्जानं वा स्वदते ॥सू०६||
निशोथसूत्रे
चूर्णी -- लोहादिबन्धनानां लोहादिबन्धनयुक्तपात्राणां वा उपभोगं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते तभागी भवति ॥ सू० ६ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ पायवडियाए गच्छइ गच्छतं वा साइज्जइ || सू० ७ ॥
छाया - यो भिक्षुः परमर्द्धयोजनमर्यादातः पात्रप्रतिज्ञया गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥ चूर्णी -- ' जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परमधिकम् 'अद्धजोयण मेराओ' अयोजनमर्यादातः, तत्र क्रोशचतुयस्य योजनं भवति तदर्द्ध कोशद्वयं तस्य मर्यादा अवधिः, तथा च क्रोशद्वयप्रमाणादधिकं 'पायवडियाए' पात्रप्रति - ज्ञया-पात्रग्रहणवाञ्छ्या उपलक्षणात् वस्त्रपीठफलकोपध्यादीनां ग्रहणवाञ्छया 'गच्छइ' गच्छति 'गच्छंतं वा साइज्जइ' गच्छन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः
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भाष्यम् - परमद्धजोयणाओ, वसमाणो चेत्र नवसु खेशेसु । पायं जो य गवेसेइ, आणाभंगाइ पावे ||
छाया - परमर्द्धयोजनतो वसन् एव नवसु क्षेत्रेषु ।
पात्रं यश्च गवेषयति, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरि:रे:- यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा नवसु क्षेत्रेषु ऋतुबद्धकाले अष्टसु क्षेत्रेषु तथा वर्षावासे एकस्मिन् क्षेत्रे मिलित्वा नवसु क्षेत्रेषु वसन् अर्द्धयोजनात् परंपरतः अर्द्ध योजनादग्रे यदि पात्रादिकं गवेषयति अन्वेषयति पात्रादीनां याचनार्थं गच्छति स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति, तस्य मर्यादाभङ्गकर्तुः श्रमणस्य श्रमण्याश्च आज्ञाभङ्गादिदोषा भवन्ति, यस्मात्
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ. ११ स.०-८-११ धर्माधर्मयोरवर्णवर्णवादनिषेधः २६३ कारणादेते दोषाः तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा अर्द्धयोजनात् परतो गत्वा पात्रादीनां याचनं न कुर्यात् न वा याचनं कारयेत् न वा याचमानं श्रमणमनुमोदेत ॥सू० ७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपायपहंसि पायं अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥
छाया-- यो भिक्षुः परमर्द्धयोजनमर्यादातः सापायपथि पात्रमभिहृतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ॥सू० ८॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परमद्धजोयणमेराओं' परमईयोजनमर्यादातः 'सपायपहंसि' सापायपथि सविघ्ने मार्गे सति सापाये मार्गे विद्यमाने सति इत्यर्थः तत्रापायो विघ्नः तेन सहितो मार्गः चौरश्वापदसजलमहानदी वनस्पतिरूपोऽपायस्तेन सहितः तस्मिन् तादृशे मार्गे सति कश्चित् श्रावकः 'पायं' पात्रं यत् 'अभिहडं आहटु दिज्जमाणं' अभिहृतमाहृत्य साधुवसतो आनीय दीयमानं तत् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति, यदि मार्गः सापायो भवेत् तत्र गत्वा साधुः पात्रादिकमानेतुं न शक्नोति तदवस्थायां यदि कोऽपि श्रावकः प्रामान्तरात् अर्द्धयोजनादधिकक्षेत्रत आनीय साधोरभिमुखं कश्चित् पात्रादिकं साधवे ददाति तं तादृशं पात्रादिकं साधुः प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति इति । अत्र संयमात्मविराधनाऽवश्यम्भा. विनी, यथा-साध्वर्थं संमुखमानीय पात्रादिग्रहणेऽप्कायहरितकायादिसंमर्दजन्या संयमविराधना, सापायमार्गेणागच्छन् दाता श्वापदादिना घातितो मारितो वा भवेत् तेन तस्य स्वजनादिः साधु ताडयेदित्यादिनाऽऽत्मविराधना भवेदतो नैतादृशं पात्रादिकं साधुर्गृहीयादिति भावः ॥सू० ८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू धम्मस्स अवन्नं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ छाया--यो भिक्षुधर्मस्यावर्णं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥सू० ९॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'धम्मस्स' धर्मस्य वतचारित्रलक्षणस्य 'अवणं अवर्णम् अवर्णवादम् , तत्र वर्णः प्रशंसनं स्तुतिरित्यर्थः न वर्णोऽवर्णः निन्दनं तम् 'वयइ' वदति प्रकाशयति लोकानां पुरतः धर्मस्य निन्दा करोति तथा 'वदंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते, यो हि श्रमणः श्रमणी वा श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्यावणेवादं वदति वदन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाग्यम् --धम्मो य दुविहो वुत्तो, सुयचारित्तलक्खणो ।
तस्सावण्णो दुहा होइ, तं वए दोसभा भवे ॥१॥
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छाया - धर्मश्व द्विविध उक्तः, श्रुतचारित्रलक्षणः ।
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तस्याsar द्विधा भवति, तं वदेत् दोषभाग् भवेत् ॥१॥
निशीथसुत्रे
,
अवचूरिः --- धर्मः नरकपातादिदुर्गतिसकाशात् धारकः, स द्विविधो द्विप्रकारको भवति श्रुत्रचारित्रभेदात्, तत्र एकः श्रुतधर्मः अपरः खलु चारित्रधर्मश्च, तत्र श्रुतधर्मः आगमलक्षणः, A पुनर्द्विविधः सूत्रे अर्थे च । चारित्रधर्मस्तु श्रमणधर्मः अयं च चारित्रधर्मोऽपि द्विविधो भवति, अगारधर्मः देशतश्चारित्रभावात्, अनगारधर्मश्च, पुनश्चायं प्रत्येकं द्विविधः - मूलगुणलक्षणः उत्तरगुणलक्षणश्च तस्यैवंप्रकारस्य धर्मस्यावर्णवादी द्विधा द्विप्रकारको भवति देशतोऽवर्णवादः सर्वतोऽवर्णवादश्च । तं तादृशमवर्णवादं यदि श्रमणः श्रमणी वा वदेत् वदन्तं वा स्वदते स दोषभाग् भवेत्, दोषाश्चआज्ञा भङ्गानवस्थामिथ्यात्वादिकास्तेषां स भाजनं भवतीति भावः । यस्मात् कारणात् श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्यावर्णवाद करणे पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा धर्मस्या वर्ण न स्वयं वदेत् न वा वादयेत् न वा धर्मस्यावर्णं वदन्तं श्रमणान्तरं कथमप्यनुमोयेत् ॥ ९ ॥
――――
-जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ १०॥ -- यो भिक्षुरधर्मस्य वर्ण वदति ददन्तं वा स्वदते ॥सू० १०॥
सूत्रम्
छाया
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अस्स' अधर्मस्य हिंसादिलक्षणस्य 'वण्णं' वर्ण- प्रशंसनं यशः कीर्ति वा 'वयइ' वदतिकथयति लोकानां पुरतो हिंसादिलक्षणधर्मस्य प्रशंसां करोति तथा 'वर्यंत बा साइज्जइ' वदन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, अधर्मस्य प्रशंसने तदनुमोदनजन्यक्रियादोषसद्भावात् ॥ सू० १०॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जेतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ || सू० ११॥
छाया -यो भिक्षुरन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा पादौ आमार्जयेत् वा प्रमार्जयेत् वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११||
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स' अन्ययूथिकस्य अन्यतीर्थिकस्य तापसादे : 'गारत्थियस्स वा' गृहस्थस्य श्रावकादेर्वा 'पाए' पादौ चरणौ ' आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद् वा एकवारं रजोहरणेन वस्त्रेण वा प्रमार्जनं कुर्यात् 'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेत् अनेकवारम् ' आमज्जेत वा पमज्जंतं वा
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पूर्णिभाष्यावधिः उ० ११ सू० १२-६५ अन्यप्तीथिकादिपादामार्ननादिस्वपरभापननि० २६५ साइज्जइ' आमार्जयन्तमेकवारमेकदिनं वा प्रमार्जयन्तमनेकवारं प्रतिदिनं वा प्रमाजनं कुर्वन्त श्रमणं स्वदते अनुमोदते । यो हि श्रमणः श्रमणी वा अन्ययूथिकस्य श्रावकादेर्वा चरणयोरेकबारमनेकवारं वा रजोहरणादिना प्रमार्जनं करोति तथा प्रमार्जयन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ११ ॥
सूत्रम-एवं तइयउद्देसगमा णेयव्वो णवरं अण्णअस्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अभिलावो जाव जे भिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा सीसदुवास्यिं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १२-६३॥
छाया-एवं हनीयोद्देशकगमो हातव्यः नघरम् अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा अभिलापो यावत् यो भिक्षुः प्रामानुप्रामं द्रवन् अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा शीर्षद्वारिकां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू. १२-६३॥
चूर्णी-एवमुपर्युक्तप्रकारेण तृतीयोद्देशकस्य गमः प्रकारः स अत्रापि एकादशोदेशकेऽपि ज्ञातव्यः, नवरम्-विशेषोऽयं यदत्र 'अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा' इत्येवं प्रकारकः अभिलापः सूत्रोच्चारणप्रकारो वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तं तृतीयोदेशकगमो ज्ञातव्यः ! अत्राह'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत्पर्यन्तं शीर्षद्वारिकासूत्रम् पादामर्जनसूत्रादारभ्य त्रिषष्टितमशीर्षदुवारिकासूत्रपर्यन्तसूत्राणि अत्रापि एकादशोदेशके वक्तव्यानीति भावः ॥१२-६३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पाणं बीहावेइ बीहावेतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुरात्मानं भापयति भापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ६४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पाणं' स्वकमेव 'बीहावेई' भापयति भयात्तै करोति 'वीहावेंतं वा साइज्जई' भापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदवते ॥१० ६४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू परं बीहावेइ बीहावेतं वा साइज्जइ ॥सू० ६५॥
छाया-यो भिक्षुः परं भापयति भापयन्तं वा स्वदते ॥सू. ६५॥ चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा
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निशीथसूत्रे
'परं परं स्वस्मादन्यम् 'बीहावेइ' भापयति परस्मै भयं समुत्पादयति तथा 'बीहारेंतं वा साइज' भापयन्तं भयं समुत्पादयन्तमन्यं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
-
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अत्राह भाष्यकार:
भाष्यम् - भयं चउव्विहं बुतं दिव्यमाणुसतेरियं । आकहियं च एक्केक्कं संतासंतं पुणो दुहा ॥१॥
छाया---भयं चतुर्विध प्रोक्तं दिव्यमानुषतेरश्चम् । आकस्मिकं च पकैकं सदसत् पुनर्द्विधा ॥१॥
-
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अवचूरिः - भयं चतुर्विधं चतुःप्रकारकं भवति तथाहि - दिव्यं - देवसम्बन्ति, मानुषं मनुष्यसम्बन्धि, तैरश्चं- तिर्यक्सम्बन्धि, तत्र पिशाचादिव्यन्तरजनितं भयं दिव्यम्, स्तेनादिभिजयमानं भयं मानुषं, तथा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसिंहादिभ्यो जायमानं भयं तैर - श्वम्, तथा चतुर्थं भयमाकस्मिकं निर्हेतुकम् । एकैकं भयं पुनरपि द्विप्रकारकं भवति सत्विद्यमानम्, असत् - अविद्यमानं, भयं द्विविधं सद्रूपेण असद्रूपेण च तत्र पिशाचस्तेनजला दिसिंहादिकेषु समुपस्थितेषु दृष्टेषु च यद् भयं समुत्पद्यते तत्सद्रूपं भयम्, यद् एतेषु अदृष्टेष्वपि भयं जायते तत् अद्रूपं भयम् । आकस्मिकम् - अकस्माद् भयम् आत्मसमुत्थं मोहनीयभयप्रकृत्युदयात् यद् अविधमानं सत् समुत्पयते तदाकस्मिकं भयम् इदं भयकारणसंकल्पिताभिप्रायोत्पन्नं भवतीति । अत्र शिष्यः प्राह - भो गुरो ! शास्त्रे तु इहलोकादिकं सप्तविधं भयं कथितं, तद्यचा - इहलोकभयम् १ परलोकभयम् २, आदानभयम् ३, आजीविकाभयम् ४, अकस्माद्भयम् ५, मरणभयम् ६, अश्लोकभयं चेति । तत्कथमत्र चतुर्विधमेव भयं प्रतिपाद्यते ? इति । एवं शिष्येण पृष्ट आचार्यः प्राह - भोः शिष्य ! यद्यपि सप्तप्रकारकं भयं तथापि सप्तानामपि चतुर्व्वेवान्तर्भाव संभवादत्र चतुर्विधं प्रोक्तम्, तथाहि - इहलोकभयं मनुष्यभये समाविष्टं भवति १, परलोकभयं देवभये तिर्यग्भये च समाविशति २, आदानभयमाजीविकाभयं मरणभयम् अश्लोकभयं चेति भयचतुष्टयमपि दिव्यमानुषतैरश्चरूपे भयत्रये यथायथं समाविष्टं भवति ६, यतः आदानेन हस्तस्थितेन वस्तुना भयं 'हस्तगतं मे वस्तु देवमनुजतिर्यश्वो मा ह्रियेरन्' इत्येवं रूपं भयमादानभयम्, तथा आजीविका नाम वृत्तिः, सा च वृत्तिर्देवमनुजतिर्यगधीना, तथा मरणं प्राणपरित्यागः, सदपि दिव्यमनुजतिर्यग्भवावस्थितस्यैव भवति, अकस्मात्कारणात् दिव्यादिभ्यस्त्रिभ्य एव मरणभयं भवति ६, अश्लोकभयमपि दिव्यमनुजतिर्यक्ष्वेव संभवति ७, तस्मात्कारणात् भयचतुष्टये सप्तानामपि भयानां समावेशो भवति । तथा च राक्षसपिशाचादिजन्यं भयं दिव्यभयम् १ स्तेनादि - कभयं मनुजभयम् २- उदकादिसिंहादिभयं तिर्यग्भयम् २, मोहनीयप्रकृत्युदयजन्यमात्मसमुत्थमाकस्मिक भयम् ४, अस्माच्चतुर्विधभयमध्यादन्यतमभयेन स्वात्मानं परं वा तदुभयं च भापयति
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भावावचूरिः. ११ सू० ६६-६९
स्वपर विस्मापन विपर्यासननिषेधः २६७
प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्रात्मानं परं च भापयन् स्वात्मानं परं च नापेक्षते विभ्यन् स्वयं परो वा क्षिप्तचित्तो भवेत् ग्लानत्वं च भवेत् भीतो वा भूतेन गृहीत इव भवेत् ग्रहगृहीतो वाऽन्यं भापयति । एवं संयमविराधनं कदाचिदात्मविराधनं चापि प्राप्नुयात् तस्मात्कारणात् न स्वात्मानं तथा परं च भापयेदिति ॥ स्० ६५||
सूत्रम् — जे भिक्खू अप्पाणं विग्हावेइ विम्हावेंतं वा साइज्जइ ॥ ६६॥ छाया- - यो भिक्षुरात्मानं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६६ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पा' आत्मानं - स्वात्मानम् 'विम्हावे' विस्मापयति, तत्र विस्मयोत्पादनं विस्मापनम् आश्चर्यसमुत्पादनमित्यर्थः, 'विम्हावेंतं वा साइज्जइ' विस्मापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते । यो हि स्वात्मानं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा अन्यमनुमोदते स प्रायश्चित्तंभागी भवति ||सू० ६६ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पर विम्हावेइ विम्हावेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ६७॥
छाया - यो भिक्षुः परं विस्मापयति विस्मापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६७ ॥
चूर्णो – 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परं - स्वस्मादन्यम् जनम् ' विम्हावे' विस्मापयति तत्र विस्मापनमाश्चर्यं जनयति 'विम्हावेंतं वा साइज्जई' विस्मापयन्तं वा स्वदते, यो हि अन्यजनस्य आश्चर्यकारिवाक्यादिना आश्चर्यमुत्पादयति तं यो अनुमोदने स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् - विम्हावणं उदुविहं, अभूयपुच्वं च भूयपुत्रं च । तव - इंदजाल - विज्जा - निमित्त वयणाइहिं चेव ||
छाया
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- विस्मापनं तु द्विविधम् अभूतपूर्वं च भूतपूर्वं च । तप - इन्द्रजाल-विद्या-निमित्त-वचनादिभिश्चैव ॥
अवचूरिः - षट्षष्ठीसूत्रे सप्तषष्ठीसूत्रे च यत् विस्मापनं कथितम् तत् द्विविधं द्विप्रकारकं भवति एकमभूतपूर्वं, द्वितीयं भूतपूर्वं तत्र यादृशमाश्वर्यं पूर्वं कदाचिदपि नाभूत् तद् अभूतपूर्वम्, यत्पूर्व कदाचिद् अभूत् तादृशं भूतपूर्वम्, एतत् द्विप्रकारकमपि विस्मापनम् तप आदिना तपसा तपोलब्ध्या भवति, इन्द्रजालेन विस्मयकारिप्रयोगप्रतिपादकशास्त्रेण, विद्यया दृष्टिबन्धादिरूपया मंत्रादिविशेषेण वा विस्मापनं भवति, तथा निमित्तवचनेनापि अतीतानागतवर्तमान सम्बन्धिनिमित्तवचनेन, आदिशब्दात् अन्तर्द्धानादिना पादलेपनादिप्रयोगेण वा, एभिः कारणैः विस्मापनं भवति,
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निशीथसूत्र तत् अभूतपूर्व भूतपूर्व च विस्मापनं भवति । तत्र यद् विस्मापनं विद्यामन्त्रेन्द्रजालिकादिप्रयोगरूपम् आत्मना अकृतपूर्वम् , अन्येन वा क्रियमाणं न दृष्टं न श्रुतं वा तद् अभूतपूर्व विस्मापनं कथ्यते । एतद्विपरीतं यत् स्वयं कृतं परेण वा क्रियमाणं दृष्टं श्रुतं वा तादृशं विस्मापने भूतपूर्व कथ्यते । एतादृशं विस्मापनं स्वस्य परस्य वा यो भिक्षुः करोति कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा एतादृशविस्मापनेन हर्षातिरेकात् आश्चर्यातिरेकाद्वा कदाचित स्वयमेव विक्षिप्तचिचो भवेत् ततः स विक्षिप्तचित्तेन चान्यैः सहाधिकरणं करोति, अधिकरणे च जाते सूत्रार्थयोनिः संयमात्मविराधना च स्यात्, तथा परो वा कदाचित् तादृशमाश्चर्यादिकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च विक्षिप्तचित्तो भवेत् तत्रापि एते दोषा भवेयुः । असद्भुते च विस्मापने मायाकरणं मृषावादोऽपि भवेत् । यस्मादेते दोषा विस्मापने भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा कदाचिदपि स्वात्मानं वा परं वा न विस्मापयेदिति भावः ॥सू० ६७॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणं विप्पारियासेइ विपरियासंतं वा साइज्जइ ॥सू०६८॥
छाया-यो भिक्षुरात्मानं विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा स्वदते ॥सू०६॥
ची-जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पाणं' आत्मानं स्वात्मानम् 'विप्परियासेइ' विपर्यासयति, तत्र विपर्यासो विपर्ययकरणं, यो द्रव्यादिभावो येन प्रकारेण स्थितः तं भावम् अन्यथा प्रकारान्तरेण मनसा भणति क्रियायां वा परिणमयति, यथा जीवमजीवं प्ररूपयति, अजीवं जोवं प्ररूपयति धर्ममधर्म प्ररूपयति, अधर्म धर्ममित्यादि । अन्यस्य वा पुरतः प्ररूपयति, तथा 'विपरियासंतं वा साइज्जइ' विपर्यासयन्तं वा स्वदते, यो हि अन्यथा स्थितस्य भावस्य प्रकारान्तरेण प्रज्ञापनादिकं करोति तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ६८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू परं विपरियासेइ विपरियासंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६९॥
छाया-यो भिक्षुः परं विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा स्वदते ।सू० ६९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं' परं-स्वस्मादन्यं श्रमणं श्रावकं वा 'विपरियासेइ' विपर्यासयति अन्यथास्थितस्य द्रव्यादिभावस्य प्रकारान्तरेण प्ररूपणां करोति तथा 'विपरियासंतं वा साइज्जई' विपर्यासयन्तं वा स्वदते । स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
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चूर्णिभाष्यावरिः उ. ११ सू.०-७०-७१ जिनोक्ताऽन्यप्रशंसनवैराज्यविरुद्धराज्यगमनादिनि २६९
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-जरूवो जो भावो, भवेज्ज णियो य अण्णहा सो उ ।
___ भण्णइ किज्जइ लोए, विप्परियासो इमो होइ ॥१॥ छाया-यद्रूपो यो भावो भवेत् नियतश्च अन्यथा स तु ।
___ भण्यते क्रियते लोके, विपर्यासः अयं भवति ॥१॥
अवचूरिः-लोके यद्रूपो यादृशो भावो नियतः निश्चितो भवति स तु अन्यथा भण्यते, एतावदेव न किन्तु क्रियतेऽपि च अयं विपर्यासो भवतीति विपर्यासलक्षणम् ॥१॥
अथ विपर्यासस्य भेदान् उदाहरणांश्चः दर्शयति भाष्यकार:भाष्यम्-दव्ये खेत्ते काले, भावे य चउन्विहो विवज्जासो ।
कमसो वोच्छं तेसिं, नाणचं सत्यभासाए ॥१॥ दव्वे असोोगमाई, खेत्ते णगराइयं मुणेयव्वं ।
काले ओगाढ़ाई, भावे पुण निव्वुयाई य ॥२॥ छाया-द्रव्ये क्षेत्रे काले, भावे च चतुर्विधो विपर्यासः ।
क्रमशो वक्ष्ये सेषां, नानात्वं शास्त्रभाषया ॥२॥ द्रव्ये अशोकादि, क्षेत्रे नगरादिकं ज्ञातव्यम् ।
काले आगाढादि, भावे पुननिर्वृतादि च ॥३॥ अवचूरिः-योऽयं सूत्रद्वये विपर्यासः कथितः स द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन- चतुर्विधः चतुःप्रकारको भवति । एषां द्रव्यक्षेत्रादिभेदभिन्नानां विपर्यासानां नानात्वं क्रमशः आनुपा शास्त्रभाषया शास्त्रोक्तभाषाविधिना वक्ष्ये कथयिष्यामि । तत्र द्रव्ये विपर्यासो यथा-अजानता पृच्छकेन पृष्टे किमपि अशोकादिकं वृक्षं प्रति निम्बादिकथनम् , निम्बादिकं प्रति अशोकादिकथनम् । क्षेत्रे विपर्यासः-हस्तिशीर्षनगरस्य हस्तिनागपुरत्वेन कथनम् , अथवा तद्विपरीतकथनम् २, काले विपर्यासः-आगाढं-प्राप्तं पौरुष्यादिकालं प्रति अनागाढमप्राप्तं कालं कथयति, तद्विपरीतं वा कथयति ३, भावे विपर्यासः-स्वकमनिर्वृतं निर्वृतत्वेन दर्शयति, परं निर्वृतमपि अनिवृतं प्रकाशयति । एवं तपस्विनमतपस्विनम् , अतपस्विनं तपस्विनं कथयतीत्यादि । एवमादिशब्दात् क्षमादिविषयेऽपि भावा ज्ञातव्याः ४, एवं यः कश्चिद् भिक्षुश्चतुर्विधेन विपर्यासेन एतादृशेन अन्येन वा केनापि विपर्यासेन आत्मानं परं वा विपर्यासयति विपर्यासयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सु. ६९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मुहवणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७०॥ छाया-यो भिक्षुर्मुखवणं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७० ॥
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२७०
निशीथसंत्र चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मुहवण्णं' मुखवर्णम्-मुखमिति प्रवेशः आदरणम् जिनप्रणीतादन्यवस्तुनः स्वीकरणमित्यर्थः तस्य वर्ण वर्णनं प्रशंसनं 'करेइ' करोति, कारयति 'करेंतं' कुर्वन्तं जिनोक्तविपरीतवस्तुनः प्रशंसा कुर्वन्तमन्यं 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७०॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम् --मुहवणं तं चउहा, दव्वे खेत्ते य काल भावे य ।
तेसिं चउण्ह वोच्छं, नाणत्तं आणुपुब्वीए ॥१॥ दव्वे कुसत्थमाई, खेत्ते गंगाइ काल उवरागो ।
भावे कुधम्ममाई, तेसिं वणं न कायव्वं ॥२॥ छाया-मुखवणं तच्चतुर्धा द्रव्ये क्षेत्रे च काले भावे च ।
तेषां चतुर्णा वक्ष्ये नानात्वमानुपूर्त्या ।।१।। द्रव्ये कुशास्त्रादि, क्षेत्रे गङ्गादि काले उपरागः ।
भावे कुधर्मादि तेषां वर्ण न कर्त्तव्यम् ॥२॥ अवचूरिः-मुखवणे-जिनप्रणीतान्यस्वीकारप्रशंसनं द्रव्यक्षेत्रकालभावमेदात् चतुर्धा-चतुविधं भवति, तेषां चतुर्णामपि नानात्वं भेदान् आनुपा-अनुक्रमेण वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥१॥ तथाहिद्रव्ये द्रव्यतः कुशास्त्रादि, शाक्य-कपिले-श्वरवादिप्रभृतीनां शास्त्रं, मन्दिरनिर्माणजिनप्रतिमातत्प्रतिष्ठापनादि वा उपलक्षणात् कुमार्गस्य ग्रहणं भवति, स च त्रिशतत्रिषष्टिपाषण्डिनां शास्त्रं वा ?, क्षेत्रे क्षेत्रतः गङ्गादि-गङ्गाप्रयागप्रभासादितीर्थक्षेत्रम् । अथवा-शत्रुञ्जय-गिरनारादितीर्थक्षेत्रम् २, काले-कालतः उपरागादि, तत्र-उपरागश्चन्द्रसूर्यग्रहणं तद्विषयकः समयः ३, भावे-भावतः कुधर्मादि-चान्द्रायणादिकुव्रतगोभूमिसुवर्णदानादिकुदानप्रभृतिः ४ । एतेषां पूर्वोक्तानां प्रशंसनं न कर्तव्यम् । यः कोऽपि भिक्षुरेषां प्रशंसनं करोति कारयति कुर्वन्तं वा परमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्य आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वादयोऽनेके दोषा भवन्तीति सप्ततितमसूत्रस्य भाष्यगाथाद्वयार्थः ॥सू०७०॥
सूत्रम् --जे भिक्खू वेरज्जविरूद्धरजंसि सज्जो गमणं सज्जो आगमणं सज्जे गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७१॥
छाया-यो भिक्षुः वैराज्यविरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ७१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वेरज्जविरुद्धरज्जसि' वैराज्यविरुद्धराज्ये यत्र द्वयोः राज्ञोः परस्परं वैरभावः समुत्पन्नः, तथा द्वयोः राज्ञोः परस्परं गमनागमनं निषिद्धं तत् वैराज्यविरुद्धराज्यमिति कथ्यते । अथवा यत्र राज्ये पूर्वपुरुष
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पूर्णिभाष्यावरिः उ० ११ सू० ७२-७७ दिवाभोजनावर्णवादादिनिषेधः २७१ परम्परागतं वैरं भवति तत् वैराज्यम्, अथवा यस्य राज्ञो राज्ये कोट्टपालादयो विरज्यन्ति विरोधं कुर्वन्ति तत् वैराज्यम्, अथवा विगतो राजा मृतः प्रवासितो वा तद् वैराज्यमिति कथ्यते, विरुद्धस्य राज्ञो राज्यं विरुद्धराज्यम् एतादृशं यत्र भवति तद् वैराज्यविरुद्धराज्यं कथ्यते, तस्मिन् वैराज्यविरुद्धराज्ये 'सज्जो गमणं' सद्यो गमनम्, वर्तमानकाले यत्र नगरे द्वयोः राज्ञोः विरोधो जायते युद्धादिप्रवर्तनशङ्का वा प्रवर्त्तते, तत्र गमनं करोति, यत्र वा युद्धं भविष्यति अभूत् वा तत्रापि यो गमनं करोति 'सज्जो आगमणं' सघ आगमनम् 'सज्जो गमणागमणं करेइ' सद्यः गमनागमनं करोति, तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते, यो हि भिक्षुकिंगतराजनि विरुद्धराज्ये वा गमनं करोति आगमनं वा गमनागमनं वा करोति कुर्वन्तमन्यं श्रमणं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दियाभोयणस्स अवण्णं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥ सू०७२॥
छाया-यो भिक्षुर्दिवाभोजनस्य अवर्ण वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७२॥
चूर्णी-- 'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दियाभोयणस्स' दिवाभोजनस्य-दिवसे भोजनकरणस्य 'अवणं' अवर्ण निन्दाम् 'वयइ' वदति कथयति लोकेभ्यः प्ररूपयति कथाप्रसंगे लोकानां पुरतः दिवसभोजनस्य निन्दां करोति तथा 'वयंतं वा साइज्जइ' दिवाभोजनस्यावण वदन्तं वा भाषमाणं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० ७२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू राइभोयणस्स वण्णं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥७३॥ छाया-यो भिक्षुः रात्रिभोजनस्य वर्ण वदति पदन्तं वा स्वदते ॥सू० ७३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'राइभोयणस्स' रात्रिभोजनस्य 'वण्णं' वर्ण प्रशंसाम् 'वयइ' वदति कथयति रात्रिभोजने नास्ति कोऽपि दोषः प्रत्युत गुणो भवतीत्येवंप्रकारेण लोकानां पुरतो यो रात्रिभोजनस्य प्रशंसां करोति तथा 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तं लोकानां पुरतो रात्रिभोजनस्य प्रशंसां कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया मुंजइ दिया भुजंतं वा साइज्जइ॥ सू०७४॥ :
छाया-यो भिक्षुदिवा अशनं वा पानं वा खाध वा स्वाधं वा प्रतिगृह्य विमाभुक्ते दिवा भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० १४॥
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२७२
निशीथसूत्रे
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा-दिवसे 'असणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा' अशनादितुर्विधाहारम् 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य 'दिया मुंजइ दिवा भुङ्क्ते-दिवसे गृहीत्वा दिवसे एव कालातिक्रमेण रात्रौ संस्थाप्य द्वितीयदिवसे वा भुङ्क्ते तथा 'दिया मुंजतं वा साइज्जई' एवं प्रकारेण दिवा भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिवा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइर्म वा पडिग्गाहेत्ता रतिं भुजइ रतिं भुजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ७५॥
छाया-यो भिक्षुर्दिवा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्य रात्री भुइ.क्ते रात्रौ भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू. ७५॥
__ चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा-दिवसे 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधाहारम् पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य 'रति भुजई' रात्रौ सूर्येऽस्तंगते भुङ्क्ते रतिं मुंजतं वा साइज्जइ' रात्रौ भुञ्जानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रत्तिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजइ दिया भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७६॥
__छाया-यो भिक्षुः रात्रौ अशनं वा पानं वा वाघ वा स्वाध वा प्रतिगृह्य दिवाभुङ्क्ते दिवा भुजानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी ॥ सू० ७६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा रत्ति' रात्रौ सूर्योदयापूर्व 'असणं वा ४' अशनं वा-अशनादि चतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहित्ता' प्रतिगृह्य रात्रौ सूर्योदयात्पूर्वम् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातमानीय 'दिया मुंजइ' दिवा भुङ्क्ते 'दिया मुंजतं वा साइज्जइ' दिवा भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रति असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता रत्ति भुंजइ रत्ति भुजंत वा साइज्जइ ॥सू० ७७॥
छाया-यो भिक्षुः रात्रौ अशनं या पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्य रात्रौ भुक्ते रात्रौ भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ७७॥
- चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'रति' रात्री उदयास्तात्पूर्वपश्चात् "असणं वा ४' अशनं वा ४ 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य 'रत्तिं मुंजइ' रात्रौ उदयास्तात्पूर्वपश्चादेव भुङ्क्ते 'रचि भुंजतं वा साइज्जइ' रात्रौ भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७७॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० ११ सू० ७८-८० पर्युषिताशनाधाहारनिषेधः २७३
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवासेइ परिखासेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७८॥
__छाया-यो भिक्षुः अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाध वा परिवासयति परिवासयन्तं वा स्वदते ॥सू० ७८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा४' अशनं वा ४ अशनादिचतुविधाहारम् 'परिवासेइ' परिवासयति संस्थापयति सुन्दरमिदमशनादि आगामिदिने भोक्ष्यामीति रात्रौ स्थापयित्वा पर्युषितं करोति 'परिवासेंतं वा साइज्जइ' परिवासयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू परिवासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहार आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥ सू०७९॥
छाया-यो भिक्षुः परिवासितस्य अशनस्य वा पानस्य वा खाद्यस्य वा स्वायस्य वा त्वचाप्रमाणं वा भूतिप्रमाणं वा बिन्दुप्रमाणं वा आहारमाहरति हरन्तं वा स्वदते। सू० ७९॥
__ चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परिवासियस्स' परिवासितस्य पर्युषितस्य दिवसे भुक्तावशेषस्य रात्रौ स्थापितस्य 'असणस्स वा' अशनस्य वा 'पाणस्स वा' पानस्य वा 'खाइमस्स वा' खाद्यस्य वा 'साइमस्स वा' स्वाद्यस्य वा 'तयप्पमाणं वा' त्वचाप्रमाणं वा-त्वचा तनुतरा भवतीति त्वचाप्रमाणं अल्पप्रमाणमित्यर्थः 'भूइप्पमाणं वा' भूतिप्रमाण वा भूतिः-रक्षा-भस्म तत्प्रमाणं भस्मरजःकणप्रमाणं स्वल्पमात्र मपीत्यर्थः 'बिदुप्पमाणं वा' बिन्दुप्रमाणं वा जलादेविन्दुप्रमाणं वा 'आहारं आहारेइ' आहारसाहरति रात्रौ स्थापिताशनादेः स्वल्पमपि भागमाहरति भुङ्क्ते तथा 'आहारेतं वा साइज्ज' आहरन्तम्-अल्पमात्रस्याप्यशनादेर्भागस्योपभोगं कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्नयरंवा तहप्पगारं विरूवरुवं वा हीरमाणं पेहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं स्यणि अण्णत्थ उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८०॥
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निशीथसूत्र छाया-यो भिक्षुर्मासादिकं वा मत्स्यादिकं वा मांसखलं वा मत्स्यस्खलं वा माहेण वा प्रहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्यतरद् वा तथाप्रकारं विरूपरूपं हियमाणं प्रेक्ष्य तया आशया तया पिपासया तां रजनीमन्यत्र उपातिकामति उपातिक्रामन्तं वा स्वदते ॥ सू० ८०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मसाइयं वा' मांसादिकं वा यस्मिन् भोजने आदौ मांसं ददाति पश्चात् ओदनादिकं ददाति तत् मांसादिकं कथ्यते 'मच्छाइयं वा' मत्स्यादिकं वा यस्मिन् भोजने आदो मत्स्यं ददाति अन्ते ओदनादिकं तत् मत्स्यादिकं भोजनम् 'मंसखलं वा' मांसखलं वा यत्र स्थाने मांसः शोभ्यते तत् मांसखलम् 'मच्छखलं वा' मत्स्यखलं वा यत्र स्थाने मत्स्या शोष्यन्ते तत् मत्स्यखलं वा 'आहेणं वा पडेणं वा' आहेणं वा प्रहेणं वा भोजनगृहात् यद् आनीयते तत् आहेणम् , भोजनगृहात् यद् अन्यत्र नीयते तत् प्रहेणम् , यद्वा वधूगृहात् वरगृहे यत् नीयते तत् भाहेणं, यत् वरगृहात् वधूगृहे नीयते तत् प्रहेणम् 'संमेलं वा' विवाहादौ यत् भक्कादिकं निर्मीयते तत् संमेलम् 'हिंगोलं वा' यत् मृतभक्तं तत् हिंगोलम् 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' मन्यतरद् वा तथाप्रकारम् , तत्रान्यतरत् कथितातिरिक्त तथाप्रकारं कथितसदृशम् 'विरूवरूवं' विरूपरूपमनेकप्रकारकम् 'हीरमाणं' ह्रियमाणम् गृहात् उद्यानादिषु भोजनार्थम् नीयमानम् , अथवा एकस्माद् प्रामाद् प्रामान्तरं प्रति नीयमानं मांसादियुक्तभोजनम् 'पेहाए' प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा 'ताए आसाए' तन्मांसादिकं लप्स्ये इति तल्लामेच्छया 'ताए पिवासाएं तया पिपासया तस्य मांसादियुक्ताहारस्य पिपासया तृष्णया अभिलाषयेत्यर्थः ओदनादीनामशितुमिच्छा आशा, द्राक्षापानकादीनां पातुमिच्छा पिपासा, तया आशया पिपासया वा 'तं यणि अण्णत्य उवाइणावेई' तां रजनीम् अन्यत्र तद्ग्रहणेच्छाया शय्यातर वसतितोऽन्यवसतो गत्वा रात्रिम् उपातिक्रामति उल्लङ्घयति 'उवाइजातं वा साइज्जइ' उपातिक्रामन्तं वा उल्लङ्घयन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
ननु एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेयरित्ताए कम्पं परेंति णेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता णेरइएसु उवजंति, 'तं जहा'-महारंभयाए महापरिग्गहाए पंचिंदियवहेणं कुणिमाहारेण" इत्यादिना यद्यपि मांसभक्षणं मद्यपानं च सूत्रेषु सर्वथैव निषिद्धं तत् कथमत्रैव प्रतिपाद्यते ? इति चेदाह-कश्चित् मांसभक्षककुलोत्पन्नो दीक्षितो जात इति तस्य कदाचिदेवंप्रकारिकाऽभिलाषा जातिस्वभावात् संभवेत् इति संभाव्य तस्य शास्त्रे निषेधः कृतः ॥ सू० ८०।।
सूत्रम्-जे भिक्खू निवेयणपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥८१॥ छाया-यो भिक्षुर्निवेदनपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥स. ८५॥
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बुणिभाष्यावरिः उ०११ सू० ८१-८६ यथाछन्दप्रशंसाद्यनलप्रवाजनादिनिषेधः २७५
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णिवेयणपिंड निवेदनपिण्डम् देवयक्षव्यन्तरनिवेदनाय प्रस्तुतंभक्तादिकं तत् निवेदनपिण्डम् 'भुंजई' भुङ्क्ते देवताधर्थ यत् पिण्डं स्थापितं तादृशं निवेदनपिण्डं यो भिक्षुरुपभुङ्क्ते तथा 'भुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ स्० ८१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८२॥ छाया—यो भिक्षुर्यथाछन्दं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥सू० ८२॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अहाछंद' यथाछन्दं, तत्र छन्दोऽभिप्रायः, तेन यथा येन प्रकारेण स्वस्याभिप्रायस्तदनुसारेण प्ररूपयति करोति स यथाछन्दः प्रोच्यते, तं 'पसंसई' प्रशंसते तस्य प्रशंसां करोति कारयति 'पसंसंतं वा' प्रशंसन्तमन्यं वा 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-जहछंदत्तं दुविहं, परुवणे तह भवेज्ज चरणे य ।
पडिलेहाइसु पढम, बीयं पुण साहुकिरियाम् ॥१॥ छाया-यथाछन्दत्वं द्विविधं प्ररूपणे तथा भवेत् चरणे च ।
प्रतिलेखाविषु प्रथम, द्वितीयं पुनः साधुक्रियासु ॥१॥ अवचूरिः-साधोर्यथाछन्दत्वं द्विविधं भवति, तत्र एकं प्ररूपणे प्ररूपणाविषये, द्वितीयं चरणे चारित्रविषये च । तत्र प्ररूपणे यथाछन्दत्वं यथा-वस्त्रपात्रादीनां नित्यं प्रतिलेखना न कर्त्तव्या किं तत्र निरन्तरं जीवाः परिवसन्ति येन नित्यमेव प्रतिलेखना क्रियते, द्वित्रादिदिवसव्यवधानेन करणे न कोऽपि दोषः । रजोहरणदशिकाः (रजोहरणफलिकाः) ऊर्णादिकर्कशस्पर्शसूत्रः किमर्थ क्रियन्ते, क्षौमिकादिमृदुस्पर्शसूत्रैः किं न क्रियन्ते ? कोऽत्र दोषः :, इत्यादि प्ररूपणम् १॥ चरणे यथाछन्दस्वं यथा-अस्मदापथ सम्पादितमशनादि ग्रहीतव्यं येन यथारुचि भोजनं लभ्यते तेन संयमाराधनं सुकरं भवति, केऽत्राधाकर्मादिदोषाः समापतन्ति, एवं साधुनिमित्तसंपादिताऽशनादिग्रहणरूपं यथाछन्दत्वम् , यथा- शय्यातरपिण्डादानम् , गृहिपात्रग्रहणं, निम्रन्थ्या सह वसनम् , इत्यादिसाधुक्रियासु चरणविषयकं यथाछन्दत्वं भवति । इत्याधाचरणवन्तं यथाछन्दं साधुं न प्रशंसेत् , न वा प्रशंसां कुर्वन्तमन्यमनुमोदेत । यस्तस्य प्रशंसां करोति तथा प्रशंसन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८२।।
सूत्रम्-जे भिक्खू आहछंदं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८३॥ छाया-यो भिक्षुर्यथाछन्दं वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥सू० ८३॥
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निशीथसूत्र चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा "अहाछंद' यथाछन्दम् पूर्वोक्तप्रकारकं 'वंदइ' वन्दते नमस्कारादिकं करोति कारयति वा 'वंदंतं का साइज्जई' यथाछन्दं वन्दमानं नमस्कारादिकं तथा तदीयगुणोत्कीर्तनादिकं च कुर्वाणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं पवावेइ पवावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८४॥ - छाया- यो भिक्षुतिकं वा अज्ञातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अनलं प्रवाजयति प्रवाजयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णायगं वा' ज्ञातकं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकं वा, तत्र ज्ञातकः स्वजनः पितृपुत्रपौत्रदौहित्रभ्रातृप्रभृतिः, अज्ञातकः अस्वजनः स्वजनभिन्नः, अथवा ज्ञातकः प्रज्ञायमानः परिचितः संसारावस्थायाः प्रव्रज्यावस्थाया वा, अज्ञातकोऽज्ञायमानः अपरिचितः, एतादृशम् तथा 'उवासगं वा' उपासकं श्रावकं वा 'अणुवासगं वा' अनुपासकं वा श्रावकभिन्नमन्यतीर्थिकं वा 'अणलं' अनलं तत्रालं पर्याप्तः न अलमिति अनलम् अपर्याप्तम्-प्रव्रज्यायोग्यगुणरहितम् अयोग्यमित्यर्थः यः प्रवाजनस्य योग्यो न भवति तादृशम् ‘पन्चावेइ' प्रव्राजयति दीक्षयति तथा 'पव्वातं वा साइज्जइ' प्रवाजयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवट्ठावेइ उवट्ठावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८५॥ . छाया-यो भिक्षुआतकं वा अज्ञातकं वा उपासकं वा अनुपासकं वा अनलमुपस्थापयति उपस्थापयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८५॥ .. चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गायगं वा' ज्ञातकं परिचितं स्वजनं पुत्रभ्रातृप्रभृतिकम् 'अणायगं वा' अज्ञातकमपरिचितं स्वजनभिन्नं वा तथा 'उवासगं वा' उपासकं वा श्रावकं साध्वाराधकं 'अणुवासगं वा' अनुपासकं श्रावकभिन्नमन्यतीर्थिकं वा 'अणलं' अनलमपर्याप्तमयोग्यमित्यर्थः ‘उवट्ठावेई' उपस्थापयति-त्यक्तमहाव्रतं पुनर्महाव्रते आरोपयति छेदोपस्थापनीयचारित्रं ददाति 'उचढावेतं वा साइजई' उपस्थापयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू०८५||
सूत्रम्--जे भिक्खू णायगेण वा अणायगेण उवासएण वा अणुवासएण वा अणलेण वेयावच्चं कारावेइ कारावेतं वा साइज्जइ ।। सू०८६॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० ११ सू० ८७-९१ सचेलाचेलपरस्परसहवासनिषेधः २७७
छाया--यो भिक्षतिकेन वा अज्ञातकेन वा उपासकेन वा अनुपासकेन वा अनलेन वैयावृत्यं कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥सू० ८६।।
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णायगेण वा' ज्ञातकेन वा-स्वजनेन वा 'अणायगेण वा' अज्ञातकेन अस्वजनेनाऽपरिचितेन वा तथा 'उवासगेण वा' उपासकेन श्रावकेण आराधितश्रुतचारित्रलक्षणधर्मेण इत्यर्थः 'अणवासगेण वा' अनुपासकेन श्रावकभिन्नेन परतीर्थिकेनेत्यर्थः 'अणलेण' अनलेन अयोग्येन उपलक्षणाद् योग्येनापि केनचिदपि गृहस्थेन स्वकीयम् 'वेयावच्चं' वैयावृत्त्यं सेवाशुश्रषादिलक्षणम् कारावेह' कारयति 'कारावेतं वा साइज्जई' कारयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०८६।।
सूत्रम्-जे भिक्खू सचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८७॥
छाया--यो भिक्षुः सचेलः सचेलिकानां मध्ये संवसति संवमन्तं वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'सचेले' सचैलः, तत्र चेलं वस्त्रं तद्वान् सचेलः स्थविरकल्पोत्यर्थः ‘सचेलगाणं' सचेलकानां स्थविरकल्पिकानां भिन्नसामाचारीकाणाम् 'मज्झे' मध्ये 'संवसई' संवसति निवासं करोति 'संवसंत वा साइज्जई' संवसन्तं वा स्वदते, यो हि सचेलः स्थविरकल्पी श्रमणः सचेलकानां भिन्नसामाचारीक स्थविरकल्पिसंयतानां मध्ये निवासं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । भिन्नसामाचारीकसंयतैः सह वासं कुर्वतोऽनेकप्रकारकदोषसंभवात् , अतो न तैः। सह कदाचिदपि संवासो विधेय इति ।। सू० ८७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥सू० ८८||
छाया-यो भिक्षुः सचेलोऽचेलकानां मध्ये संवसति संवसन्तं वा स्वदते ॥८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचेले' सचेल:- स्थविरकल्पिक इत्यर्थः 'अचेलगाणं' अचेलकानां जिनकल्पिकानाम् 'मझे मध्ये 'संवसई' संवसति निवास करोति 'संवसंत वा साइज्जई' संवसन्तं अचेलकानां मध्ये निवासं कुर्वन्तं सचेलं स्वदते अनुमोदते, यो हि स्थविरकल्पी जिनकल्पिकानां मध्ये निवासं करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८८।।
सूत्रम्--जे भिक्खू अचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइज्जइ ॥ सू०८९॥
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M
૨૭૮
निशीथस्त्रे छाया -- यो भिक्षुरचेलः सचेलकानां मध्ये संवसति संवसन्तं पा स्वदते ॥८९॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अचेले' अचेलो जिनकल्पी. 'सचेलगाणं मज्झे' सचेलकानां स्थविरकल्गिकानां मध्ये समुदाये 'संवसइ' संवसति निवासं करोति 'संवसंतं व, साइज्जइ' संवसन्तं वा सचेलकानां समुदाये निवासं कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०८९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ।।सू० ९०॥
छाया--यो भिक्षुरचेलोऽचेलकानां मध्ये संवसति संवसन्तं वा स्वदते ॥सू० ९०॥
चूर्णी:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः 'अचेले' अचेलः-जिनकल्पिकः 'अचेलगाणं' अचेलकानां जिनकल्पिकानाम् ‘मज्झे' मध्ये 'संवसई' संवसति-निवास करोति 'संवसंत वा साइज्जई' संवसन्तं निवासं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति जिनकल्पिकस्य एकाकिविहारविधानात् । यतो जिनकल्पिकाः परस्य सहायतां नेच्छति-एकान्तवासस्यैव तेषां शास्त्रसिद्धत्वात् . एतादृशस्थितौ यदि जिनकल्पिको जिनकल्पिकानां मध्ये निवसति तदा तीर्थकृतामाज्ञा विराधिता भवति, अतो जिनकल्पिकः साधुः जिनकल्पिकानां मध्ये न वसेत् न वा वसंतमनुमोदेत शास्त्रमर्यादाभङ्गप्रसङ्गात् ॥ सू०९०॥ ।
सूत्रम्--जे भिक्खू पखिसियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा सिंगवेरं वा सिंगवेरचुण्णं वा विलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं आहारेइ आहारेतं वा साइज्जइ ॥सू० ९१॥
छायायो भिक्षुः पर्युषितां पिप्पलिं पा पिप्पलिचूर्ण वा शृङ्गवेर वा शृङ्गवेरचूर्ण वा विलं वा लवगम् उद्भिदं वा लवणम् आहरति आहरन्तं वा स्वदते ॥ सू. ९१॥ ___चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परिवसियं' पर्युषितम् , तत्र 'परिवसियं' नाम रात्रौ स्थापितं यत् तत् तादृशीम् 'पिप्पलिं वा' पिप्पलिं वा अचित्तपाचितपिप्पलीम् 'पिप्पलिचुण्णं वा' लघुपिप्पलीचूर्ण वा 'सिगंबेरं वा' शृङ्गबेरं वा शुष्कमादकं सुंठीति लोकप्रसिद्धम् 'सिंगबेरचण्णं वा' शृङ्गवेरचूर्ण वा सुंठीचूर्ण वा 'विलं वा लोणं' विलं वा लवणम् यत्र देशे लवणो न प्रादुर्भवति तत्रोषरमृत्तिकां पाचयित्वा लवणः संपाधते तादृशं लवणं विउलवणमिति कथ्यते 'उभियं वा लोणं' उद्भिदं वा लवणम् , तत्र उद्भिदलवणः स्वयं जायमानो यथा सैन्धवः, यः स्वस्वभावत एव संजातस्तम् । एवमादिकं पर्युषितं
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० ११ सू० ९२ गिरिपतनादिविंशतिविधमरणप्रशंसानि० २७९ पिप्पल्यादिकं यः श्रमणः श्रमणौ वा 'आहारेई' आहरति पर्युषितपिपल्यादीनाम् उपभोगं करोति तथा 'आहारेतं वा साइज्जइ' आहरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू९१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि वा तरुपडणाणि वा गिरिपक्वंदणाणि वा मरुपक्खंदणाणि भिगुपक्खंणाणि वा तरुपक्खंदणाणि वा जलप्पवेसाणि वा जलणपवेसाणि वा जलपक्खंदणाणि वा जलणपखंदणाणि वा विसमक्खणाणि वा सत्थोपा. डणाणि वा वलयमरणाणि वा वसट्टाणि वा तब्भवमरणाणि वा अंतोसल्लमरणाणि वा वेहायसाणि वा गिद्धपट्ठाणि वा जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा बालमरणाणि पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९२॥
छाया--यो भिक्षुः गिरिपतनानि वा १, मरूपतनानि वा २, भृगुपतनानि वा ३, तरुपतनानि वा ४, गिरिप्रस्कन्दनानि वा ५, मरुप्रस्कन्दनानि वा ६, भूगुप्रस्कन्दनानि ७, तरुप्रस्कन्दनानि वा ८, जलप्रवेशनानि वा ९, ज्वलनप्रवेशनानि पा १०, जलप्रस्कन्दनानि वा 11, ज्वलनप्रस्कन्दनानि वा १२, विषभक्षणानि वा १३, शस्त्रोत्पातनानि वा १४, घलयमरणानि वा १५ वशार्तमरणानि वा १६, तद्भवमरणानि वा १७, अन्तःशल्यमर णानि वा १८, वैहायसानि वा १, गृद्धस्पृष्टानि वा २० यावद् अन्यतराणि घा तथा प्रकाराणि वा बालमरणानि प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥सू० ९२॥
चूर्णी:-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिरिपडणाणि वा' गिरिपतनानि वा-पर्वताग्रात् पतनानि, मरणप्रसङ्गात् गिरिपतनमरणानी त्यर्थः, एवमग्रेऽपि, 'मरुपडणाणि वा' मरुपतनानि वा मरो ऊपरभूमो धूलीपुजे वा पतनम् मरुपतनम् , मरौ ऊपरभूमौ श्रीरपातनं, यद्वा यत्रतः पतनं दृश्यते तद् गिरिपतनम् , अदृश्यमानं पतनं मरुपतनम् , तानि, 'भिगुपडणाणि वा' भृगुपतनानि वा-नदीतटादितः गर्रादितो वा पतनं भृगुपतनं, तानि, 'तरुपडणाणि वा' तरुपतनानि वा-तरशाखामवलम्ब्य पतनं तरुपतनम् तानि, 'गिरिपक्खंदणाणि वा गिरिप्रस्कन्दनानि वा-प्रस्कन्दनं-गिरित उल्लुप्त्य पतनं, तान, पतनप्रस्कन्दनयोरयं भेदः-पतनं सामान्यतो लुठनम् , प्रस्कन्दनमुत्लुपुत्य-कूर्दयित्वा पतनमिति । 'मरुपक्खंदणाणि वा' मरुप्रस्कन्दनानि वा-ऊपरभूमौ धूलिपुजे वा उत्प्क्रुत्य पतनानि 'भिगुपक्खंदणाणि वा' भृगुप्रस्कन्दनानि वा-नदीतटादिषु गादिषु अदृश्यमानस्थाने वा उत्प्लुत्य पतनानि, 'तरुपक्खंदणाणि वा' तरुप्रस्कन्दनानि वा वृक्षत उत्प्लुत्य पतनानि, 'जलप्पवेसणाणि वा' जलप्रवेशनानि वा नदीकूपतडागादिषु प्रवेशनानि 'जलणप्पवेसणाणि वा' ज्वलनप्रवेशनानि वा
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२८० wwwwwwwww
निशीथमचे ज्वलने-अग्नौ प्रवेशनानि 'जलपखंदणाणि वा' जलप्रस्कन्दनानि वा जले उत्प्लुत्य पतनानि वा 'जलणपक्खंदणाणि वा' ज्वलने वन्ही उत्प्लुत्य पतनानि 'विसभक्खणाणि वा' विषभक्षणानि वा 'सत्योपाडणाणि वा' शस्त्रोत्पातनानि वा उच्चस्थानात् शरीरे शस्त्रस्य खङ्गादेः पातनानि 'वलयमरणाणि वा' वलयमरणानि वा, तत्र संयमयोगेषु हीनसत्त्वतया वलनं वलयः संयमान्निव
र्तन, तेन कारणेन अकामतया मरणानि, यद्वा वलयः वस्त्ररज्वादिपाशेन गलस्य वेष्टनं, तेन मरणं, तानि गले रज्वादिकं बद्ध्वा मरणानि वलयमरणानि, 'वसट्टमरणाणि वा' वशार्त्तमरणानि वा इन्द्रियविषयेषु रूपरसादिषु वशवर्तितया आर्त्तस्य दुःखितस्य मरणानि, 'तब्भवमरणाणि वा' तद्भवमरणानि वा, तद्भवमरणं नाम यस्मिन् मनुष्यादिभवे वर्तते तस्यैव भवस्य हेतुषु वर्तमानः आयुः कर्म बद्ध्वा पुनः तत्रैव भवे उत्पत्तुकामस्य यन्मरणं तत् तद्भवमरणमिति कथ्यते तानिनिदानपूर्वकं मरणानोत्यर्थः 'अंतोसल्लमरणाणि वा' अन्तःशल्यमरणानि वा, शल्यं द्विविधं द्रव्यशल्यं भावशल्यं च, तत्र द्रव्यशल्यं बाणाप्रभागादिरूपम् , तस्य नेहाधिकारः, भावशल्यं मूलोत्तरगुणसंलानदोषानालोचने पश्चात्तापरूपम् , अस्यात्राधिकारः, मायानिदानादिशल्यं वा, तद् अन्तः-अन्तःकरणे भवेत् तद् अन्तःशल्यं, तेन मरणानि, 'वेहायसाणि वा' वैहायसानि वा विहायसि आकाशे भवं वैहायसं वृक्षशाखादिषु आत्मन उद्बन्धनं, तानि मरणानि, 'गिद्धपद्वाणि वा गृद्धस्पृष्ठानि वा-गृधेराममांसभक्षकैः पक्षिविशेषः, अथवा गृद्धैः मांसलुब्धकैः शृगालादिभिः स्पृष्टस्य विदारितस्य, अथवा करिकरभरासमादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तानि गृध्रस्पृष्टानि गृद्धपृष्ठानि वा मरणानि, अथवा गृधैभक्षितपृष्ठस्य यन्मरणं तद् गृध्रपृष्ठमरणमिति तानि, एतानि विंशतिसंख्यकानि, तथा 'जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा बालमरणाणि' यावत् अन्यतराणि वा तथाप्रकाराणि वा बालमरणानि 'पसंसइ' प्रशंसति तेषां प्रशंसां करोति तथा 'पसंसंतं वा साइज्जइ' प्रशंसन्तं प्रशंसां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-बालमरणाणि वीसइ, अन्नाणि य तारिसाणि मरणाणि ।
जो य पसंसइ पावइ, मिच्छायेज्जाइबहुदोसे ॥ छाया-बालमरणानि विंशति, अन्यानि च तादृशानि मरणानि
___ यश्च प्रशंसति प्रामोति, मिथ्यास्थैर्यादिबहुदोषान् ।
अवचूरिः-यः कश्चित् श्रमणो भिक्षुकः श्रमणी वा यथा तथा येन केनचित् प्रकारेण लोभात् मोहात प्रकारान्तरेण वा बालमरणानि गिरिपतनादिकादारभ्य गृध्रपृष्ठमरणपर्यन्तानि विंशतिप्रकारकाणि अन्यानि वा तादृशानि मरणानि बालमरणानि तन्मध्यात् यत् किमप्येकं
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पूर्णिभाष्यावद्भिः उ.११ सू.०-९३
उद्देशकसमाप्तिः २८१ मरणं प्रशंसति तेषां प्रशंसां करोति कुर्वन्तं वा अनुमोदते स परस्मिन् आत्मनि वा मिथ्यात्वस्थिरीकरणादिबहुदोषान् प्राप्नोति, यथा लोका एवं विचारयन्ति यत् इमे साधवः सर्वथा सुस्थिता. त्मनः ते ईमे गिरिपतनादिकं मरणं प्रशंसन्ति अतो निश्चितमेतत् गिरिपतनादिकं मरणं श्रेयस्करमतोऽवश्यमेव करणीयम् नास्ति एतादृशमरणकरणे कोपि दोषः, एवं प्रकारेण मिथ्यात्वमेव स्थिरीकृतं भवति । तथा एवं कुर्वन्तो आज्ञाभङ्गादिकाननेकान् दोषानपि लभेरन् । एवम् बालमरणस्य प्रशंसाकरणे शैक्षकः परिषहपराभूतः विंशतिमरणानां मध्यादेकतरमपि मरणं प्रतिपद्येत तदा निर्दयता समापद्यते, तेन तद्विराधनाजन्यं प्रायश्चित्तं प्राप्नुयात् तस्मात् बालमरणानि न प्रशसेत् । एषु विंशतिविधेषु मरणेषु वैहायसं गृध्रपृष्ठं चेति मरणद्वयमागमज्ञा--जीवदयाचारित्रपतनादिकारणे समुत्पन्ने प्रशंसन्ति, तथाहि-यथा केनापि हिंसकपुरुषेण गृहीतो भवेत् स यदि तं जीवहिंसायांप्रे रयति, अथवा मैथुनार्थिन्या कामिन्या गृहीतो भवेत् सा यदि तं मैथुनसेवनार्थ प्रेरयति एतादृश्यां स्थितौ अगतिकगतिकः सन् वैहायस मरणं समाद्रियते तदा तत्तस्य मरणं प्रशंसनीय भवेत् । तथा धृतिबलसंपन्नो मुनि ध्रपृष्ठमरणं करोतीति साधोराचरणीयत्वेन गृध्रपृष्ठमरणमपि प्रशंसनीयमेव भवति तेनैतद्वयमपि मरणं कारणे प्रशंसायोग्यं भवति । सूत्रे यो निषेधःस दुःखाभिभूतमरणविषयको विज्ञेय इति विवेकः ।। सू० ९२॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ॥ सू० ९३॥
॥निसीहज्झयणे एगारसोद्देसी समत्तो ॥११॥ छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ।।सू० ९३॥
॥ इति निशीथाध्ययने एकादशोदेशकः समाप्तः ॥११॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः 'अयपायाणि वा' इत्यारभ्य 'बालमरणाणि पसंसई' इति पर्यन्तप्रायश्चित्तस्थानानां मध्यादेकस्यापि कस्यचित्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा आवज्जई आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं चातुर्मासिकम् 'परिहारट्ठाणं' परिहारस्थानं प्रायश्चित्तम् 'अणुग्धाइयं' अनुद्घातिकम् गुरुकम् प्रायश्चित्तं लभते इति ॥ सू० ९३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-- पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन
धर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" ____ चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् एकादशोदेशकः समाप्तः ॥११॥
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॥ द्वादशोद्देशकः॥ ब्याख्यात एकादशोद्देशकः, साम्प्रतमवसरप्राप्तो द्वादशोदेशकः व्याख्यायते, तत्र-एकादशोदेशकस्यान्तिम सूत्रेण सह द्वादशोदेशकस्यादिसूत्रस्य कः सम्बन्ध इति चेदत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-मरणपसंसा नो चे, कप्पइ भिक्खुस्स तं कहं काउं ।
बद्धस्स होज्ज मरणं, कत्थइ तस्स य निसेहोऽत्थ ॥१॥ छाया-मरणप्रझंसी नो चेत् कल्पते भिक्षोः तत् कथं कर्तुम् ।
बद्धस्य भवेन्मरणं, कथ्यते तस्य च निषेधोऽत्र ॥१॥ अवचूरिः- गिरिपतनादिकं बालमरणं प्राणातिपात इति कृत्वा यदि तस्य प्रशंसनं न कल्पते तदा तत् मरणं कत्तुं कथं कल्पते ! तत्तु सुत्तरां नैव कल्पते, तच्च मरणं बद्धस्य भवेत् इत्यतोऽत्र द्वादशोद्देशके तस्य बन्धस्य निषेधः कथ्यते, एष एव एकादशोदेशकेन सहास्य द्वादशोदेशकस्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वादशोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्- 'जे भिक्खू कोलुणवडियाए' इत्यादि।
सूत्रम्-जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासरण वा मुंजपासएण वा कट्ठपासएण वा चम्मपासरण वा वेत्तपासएण वा सुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बंधइबंधतं वा साइज्जइ । मू०१॥
छाया—यो भिक्षुः कारुण्यप्रतिक्षया अन्यतरां त्रसप्राणजाति तृणपाशकेन वा मुजपाशकेन वा काष्ठपाशकेन वा चर्मपाशकेन वा वेत्रपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा रज्जुपाशकेन वा बध्नाति बघ्नन्तं वा स्वदते ॥सू० १॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोलुणवडियाए' कारुण्यप्रतिज्ञया-करुणाबुद्धया, तत्र करुणाया भावः कारुण्यं तस्य प्रतिज्ञेति वाञ्छा कारुण्यप्रतिज्ञा, तया शय्यातरकरुणाबुद्धया यदि बुभुक्षितो वत्सः स्वेच्छया दुग्धं पास्यति तदा दोहनसमये गृहस्थस्याल्पं दुग्धं मिलिष्यति ततो गृहस्थत्त्याधिकं दुग्धं भवतु इति गृहस्थस्य प्रसन्नतार्थ, तथा यदि गृहस्थः प्रसन्नो भविष्यति तदा मह्यं अन्यस्मै वा साधवे प्रभूतमशनादि वसत्यादिकं च दास्यतीति गृहस्थानुग्रहार्थ 'अण्णयरं तसपाणजाई अन्यतरां सप्राणजाति गोमहिष्यजाप्रमृतिरूपां 'तणपासएण' तृणपाशकेन वा, तत्र तृणो दर्भादिः तस्य पाशको बन्धनम् , तेन तृणबन्धनेन बध्नातीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'मुंजपासरण वा' सुजपाशकेन वा, तत्र मुञ्जो नाम तृणविशेषः तस्य पाशकेन बन्धनेनेत्यर्थः, 'कट्टपासरण वा' काष्ठपाशकेन वा काष्ठबन्धनेनेत्यर्थः 'चम्मपासरण वा' चर्मपाशकेन वा मृगादिचर्मबन्धनेन 'वेत्तपासएण वा क्षेत्रपाशकेन वा, तत्र वेत्रो
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पूर्णिमाम्यावचूरिः उ० १२ सू० १-२ सप्राणजातिबन्धनमोचननिषेधः २८३ नाम लताविशेषः 'नेतर' 'बेंत' इति लोकप्रसिद्धः, तस्य बन्धनेन 'मुत्तपासएण वा' सूत्रपाशकेन वा कार्पासादिकसूत्रबन्धनेनेत्यर्थः, 'रज्जुपासरण वा' रज्जुपाशकेन वा, तत्र रज्जुः शणादिनिर्मिता तद्वन्धनेनेत्यर्थः 'बंधई' बध्नाति यः खल श्रमणः श्रमणी वा शय्यातरप्रसन्नताबुद्धया तृणाधन्यतमबन्धनेन प्रसप्राणिजातं बध्नाति बन्धने क्षिपति तथा 'बंधतं वा साइज्जा' बध्नन्तं वा स्वदते, अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, बन्धनकरणे प्राणातिपातस्य संभवात् अतो भिक्षुः कस्यापि प्राणिजातस्य शय्यातरप्रसन्नताबुद्ध्या तृणाद्यन्यतमबन्धनेन न बन्धनं कुर्यात् न वा बन्धनं कारयेत् न वा बध्नन्तमनुमोदेत ॥ सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासरण वा मुंजपासएण वा कट्टपासएण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा सुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बद्धेल्लगं मुंचइ मुंचंतं वा साइज्जइ॥
छाया-यो भिक्षुः कारुण्यप्रतिश्या अन्यतरां त्रसप्राणजाति तृणपाशकेन वा मुब्जपाशकेन वा काष्ठपाशकेन वा चर्मपाशकेन वा वेत्रपासकेन वा सूत्रपाशकेन वा रज्जुपाशकेन वा बद्धं मुञ्चति मुञ्चन्तं वा स्वदते ॥ सू० २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी या 'कोलुणवडियाए' कारुण्यप्रतिज्ञया गृहस्थानुकंपयेत्यादि सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम् , नवरम् ‘बद्धल्लग' बद्धं सन्तं गोमहिष्यजादिकं शय्यातरानुपस्थितौ वनगमनवेलायां तत्प्रसन्नार्थम् 'मुंचई' मुश्चति बन्धनमुक्तं करोति 'मुंचत वा साइज्जई' मुश्चन्तं वा स्वदते भनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-सिज्जायरपसन्नटुं, बंधए मुंचए पम् ।
दोसभाई भवे भिक्खू, न दोसो अणुकंपणे ॥ छाया-शच्यातरप्रसन्ना बध्नाति मुम्बति पशून् ।
दोषभागी भवेद् भिक्षुः, न दोषोऽनुकम्पने ॥ अवचूरिः- यः साधुः शय्यातरप्रसन्नार्थ शय्यातरस्य प्रसन्नतानिमित्तं 'पर' पशून् गोवत्सादीन् 'बंधए' बध्नाति तथा 'मुंचए' मुञ्चति स भिक्षुः 'दोसभाई' दोषभागी आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् 'भवे' भवेत् , किन्तु 'अणुकंपणे' अनुकम्पने अनुकम्पायां 'दोसो न' दोषो न भवति, पशोरनुकम्पया अग्न्यायुपद्रवे तस्य बंधने मोचने वा साधुर्दोषभाग् न भवतीत्यर्थः । अत्रायं विवेकः-गृहस्थप्रसन्नार्थ बध्नाति मुञ्चति यथा-गोमहिष्यादिवनात् घासं चरित्वा समा
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૩૮૪
निशीथसूत्रे
गतो भवेत् तदा साधुर्गृहस्थस्य प्रसन्नतानिमित्तं तद्वशीकरणार्थं च तं स्वाभिमुखीकरणार्थं बध्नाति, एवं प्रातर्वनगमनवेलायां मुञ्चति च स चैवं विचारयति यदत्र गृहस्थोऽनुपस्थितः पशुश्च नादागतः एनं यदि न बध्नामि तदाऽयमन्यत्र गमिष्यति चोरो हरिष्यति तदा गृहस्थस्य महती हा निर्भविष्यतीत्यादि, तथा यदि वाटके गौर्महिषी वा निर्बन्धना स्थास्यति तदा वत्सो दुग्धं पास्यति तेन गृहस्थस्य दुग्धमल्पं भविष्यति तेन तस्य दुग्धहानिर्भविष्यति तेन कुपितो गृहस्थो मह्यमनादि न दास्यति वसतितो वा निष्कासयिष्यतीति बध्नाति, एवं प्रातर्वनगमनसमये गृहस्थानुपस्थितौ मुञ्चति च एवं तत्करुणया तद्भयेन वा गोमहिष्यादिकं बध्नाति मुञ्चति च तदा स प्रायश्वितभागी भवति, एतद् गृहस्थकार्यमिति संयमात्मविराधनावश्यम्भाविनी यथा - एवं करणे साधोर्गृहस्थानुचरता तत्किंकरता च भवति, तेन संयमे महान् दोष आपद्येतेति संयमविराधना स्पष्टा । तथा पशोर्बन्धने यदि पशवः स्वचरणादिना साधुं हन्ति तेन पीडितो भवेत् म्रियेत वेति आत्मविराधनाऽवश्यम्भावि नीति संयमात्मविराधना स्पष्टा । तथा भाष्ये यत् कथितम् -'न दोसो अणुकंपणे' इति, अस्यायं विवेकः - पशुबन्धनस्थाने यदि सर्पादयो घातकप्राणिनः संचरन्ति तदा तद्देशनादिसंभवः, कूपे गर्तादौ वा पशुः पतेत् गृहस्थश्चानुपस्थितो वर्त्तते इति तद्रक्षाबुद्धया परिस्थित्यनुसारेण पशोर्बन्धनं मोचनं चावश्यकं भवेत्, अथवा पशुगृहं वहूनिना प्रज्वलितं प्रज्वलनशङ्का वा तत्र भवेत् तदा गृहस्थानुप्रस्थितौ तद्रक्षणार्थं पशोर्बन्धनं मोचनं चावश्यकमिति तत्र पशोर्बन्धने मोचने च साधोर्न कोऽपि दोषः, एवमकरणे प्राणिवधजन्यपापभागी भवति " अहिंसा परमो धर्मः" इति जैनसिद्धन्तोऽपि बिलीनो भवेत् मत एतादृशावस्थायां साधुः पशोर्बन्धनं मोचनं च करोति तदा न कोऽपि दोष इति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पच्चक्खाणं भंजइ भंजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
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छाया - यो भिक्षुरभीक्ष्णमभीक्ष्णं प्रत्याख्यानं भनक्ति भञ्जन्तं वा स्वदते । सू० ३॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणाः श्रमणी वा 'अभिक्खणं अभिक्खणं' अभीक्ष्णमभीक्ष्णं वारंवारम् 'पचक्खाणं' प्रत्यारव्यानं नमोक्कारपौरुध्यादिप्रत्याख्यानम् 'भंजइ' भनक्ति त्रोटयति 'भजतं वा साइज्जइ' भञ्जन्तं त्रोटयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति, अन्योऽपि दोषो भवति - यथाऽयं नमस्कारादिप्रत्याख्यानं भनक्ति तथा मूलगुणप्रत्याख्यानस्यापि भङ्गकरिष्यति एवम् अगीतार्थानां गृहस्थानां च अविश्वासं जनयति तथा प्रत्याख्यानभञ्जने लोकः साधूनामवर्णवादं करिष्यति, एवं प्रत्याख्यानभङ्गकरणे प्रत्याख्यानधर्मे श्रमणधर्मे वा
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भाग्यावचूरिः उ० १२ सु० ३-८
प्रत्याख्यानभङ्गादिनिषेधः २८५
अदृढत्वं जायेत, तथा अन्यं परित्यक्ष्यति करिष्यति चान्यमिति माया स्यात्, अन्यं भाषते अन्यं करोतीति मृषावादोऽपि भवेत्, एवं करणे सूत्रार्थपौरुषीणां विनाशोऽपि भवेत्, इत्यादयो बहवो दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् प्रत्याख्यानस्य भङ्गं न कुर्यात् न वा प्रत्याख्यानभङ्गं कुर्वन्तमनुमोदेत ॥ सू० ३ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारं आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया - यो भिक्षुः परीतकायसंयुक्तमाहारमाइरति आहरन्तं वा स्वदते ॥४॥ चूर्णी 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् निर भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परित्तकायसंजुत्तं' परीत्तकायसंयुक्तं, तत्र परीतकाय:- वनस्पतिकायः साधारण प्रत्येकेत - द्विविधो वनस्पतिकायः तेन सचित्तवनस्पतिकायेन संयुक्त संमिलितम् आहारम् - अशनपानस्वाद्यस्वाद्यात्मकचतुर्विधमाहारम् ' आहारेइ' आहरति भुङ्क्ते तथा 'आहारेंतं वा साइज्जइ' आहरन्तम् सचित्तवनस्पतिकायसंयुक्तमशनादिकं भुञ्जानं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम् --जे भिक्खू सलामाईं चम्माई धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुः सलोमानि कर्माणि धर्सत धरन्तं वा स्वदते ॥०५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सलोमाई' सलोमानि-रोमयुक्तानीत्यर्थः 'चम्माई' चर्माणि मृगादीनाम् 'घरेइ' धरति स्वसमीपे उपभोगाय स्थापयति तत्रोपविशति तत्र निषीदति तत्र स्वगवर्तनं च करोति, तथा 'घरें वा साइज्जइ' धरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तेषां दुष्प्रतिलेख्यत्वात् । देशविशेषे हिमबाहुल्यादिकारणवशाच्चर्मधारण मावश्यकं भवेत्ततस्तद्विषयकोऽयं निषेध इति विवेकः ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु तणपीढगं वा पलालपीढगं छगणपीढगं वेत्तपीढगं परवत्थेणोच्छन्नं अहिट्ठेइ अहिद्वैतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया -यो भिक्षुः तृणपीठकं वा पलालपीठकं वा छगण (गोमय) पीठकं वा वेत्रपीठकं वा परवस्त्रेणावच्छन्नमधितिष्ठति अधितिष्ठन्तं वा स्वदते ॥ ६॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तणपीढगं वा तूणपीठकं वा, तत्र तृणो दर्भादिकः, तस्य पाठमित्यर्थः तृणमयमासनमिति यावद
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૨૮૬
निशीथसूत्रे
'पळालपीढगं वा' पलालपीठकं वा पलालमयं पीठकम् 'छगणपीढगं वा' छगणपीठकं गोमयपीठकं वा 'वेत्तपीढगं वा' वेत्रपीठकं वा, तत्र क्षेत्रं नाम लताविशेषः तेन संपादितं फलकादिकं वेत्रपीठकम्, एतादृशं पीठफलकादिम् 'परवत्येणोच्छन्नं' परवस्त्रेणावच्छन्नम्, तत्र परो गृहस्थः / श्रावकोsonant वा तस्य यद् वस्त्रम् तेन आच्छादितं पीठफलकादिकं यो भिक्षुः 'अहि' अधितिष्ठति तदुपर्युपविशति शेते त्वग्वर्तनं वा करोति कारयति वा परम् स तथा 'अहितं वा साइजर' अधितिष्ठन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति गृहस्थवोपभोगदोषप्रसङ्गात् ॥ सू० ६ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू णिग्गंथीणं संघार्डि अण्णउत्थिएण वा गारत्थि - एण वा सिव्वावेइ सिव्वावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७ ॥
छाया - यो भिक्षुर्निर्ब्रन्थीनां संघाटीम् अन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा सीवयति सीवयन्तं वा स्वदते ॥० ७||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः आचार्य उपाध्यायादिको वा 'णिग्गंथीणं' निर्ग्रन्थीनां श्रमणीनाम् 'संघार्डि' संघाटीम् - शाटिकाम् उपलक्षणत्वात् कञ्चुक्यादिकं किमपि उपकरणम् 'अण्णउत्थिरण वा' अन्यमथिकेन वा अन्यतीर्थिकेन साधुना 'गारत्थिरण वा' गृहस्थेन वा - श्रावकादिना 'सिव्वावेइ' सीवयति - संघापयति तथा 'सिव्वातं वा साइजर' सीवयन्तं संधापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति संयमविराधना आत्मविराधना च भवति । यथा -निर्ग्रन्थी कार्यकरणेन सा प्रसन्ना मोहग्रस्ता वा साधु स्त्रीमोहे पातयतीत्यादिकारणात् संयमविराधना | मोहग्रस्ता सा साधोरुपरि वशीकरणचूर्णादिप्रयोगं वा करोति तेन ग्रहगृहीतो वा भवेदित्यात्मविराधना । लोके उड्डाहो वा भवेत् यदयं निर्ग्रन्थीमोह मोहितो वर्त्तते अवश्यमनया सहास्य कोऽपि गोप्यः संबन्धो विद्यते येन निर्ग्रन्ध्या वख सीवनादिकं गृहस्थादिना कारयतीति साधुना निर्मन्थीसंघाटयाः सीवनं न कारयितव्यमिति भावः ॥ सू० ७॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पुढवीकायस्स वा आउकायस्स वा अगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणस्सइकायस्स वा कलमायमवि समारभइ सभारतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८ ॥
छाया -यो भिक्षुः पृथिवीकायस्य वा अकायस्य वा अग्निकायस्य वा वायुकायस्य वा वनस्पतिकायस्य वा कलायमात्रमपि समारभते समारभमाणं वा स्वदते |८||
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१२ सू०९-१३ वृक्षारोहण-गृहिपात्रवस्त्रनिषद्याचिकित्सानि० २८७
ची 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पुढवीकायस्स बा' पृथिवीकायस्य वा पृथिवीकायिकजीवस्येत्यर्थः एवमप्तेजोवायुवनस्पतिकायस्य वा 'कलमायमवि' कलायमात्रमपि, तत्र कलायो वृत्तधान्यविशेषः तावन्मात्रप्रमाणकमपि स्तोकप्रमाणमपि 'समारभई' समारभते पृथिवीकायिकादिजीवस्य अल्पमात्रमपि विराधनां करोति तथा 'समारभंतं वा साइज्जई' समारभमाणं वा पृथिवीकायिकादिजीवानाम् अल्पमात्रमपि विराधनां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तरुक्खं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥९॥ छाया-यो भिक्षुः सचितवृक्षं दूरोहति दूरोहन्तं पा स्वदते ॥सू० ९॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तरुक्खं' सचित्त वृक्षम् 'दुरूहइ' रोहति सचित्तवृक्षोपरि मारोहणं करोति तथा 'दरूइंतं वा साइज्जई' दूरोहन्तं वा स्वदते, यः सचित्तवृक्षोपरि मारोहणं करोति तदुपरि चरणो वा स्थापयति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र :सचित्तवृक्षाः त्रिप्रकारका भवन्ति संख्येयजीववन्तः यथा तालादिवृक्षाः, असंख्येयजीववन्तो यथा आम्रादिवृक्षाः, अनन्तजीववन्तो यथा थोहरादिकाः, एषां मध्ये कस्यापि वृक्षस्योपरि आरोहणं कुर्वतः पादं वा स्थापयत भाज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ॥सू० १०॥ छाया-यो भिक्षुः गृहिमात्रके भुङ्क्ते भुजानं पा स्वदते ॥ सू० १०॥
चर्णी--'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी बा 'गिहिमत्ते' गृहिमात्रके गृहस्थस्य श्रावकादेः मात्रके भाजने स्थाल्यादावित्यर्थः ‘भुजइ' भुङ्क्ते अशनादिकचतुर्विधमाहारजातमुपभुङ्क्ते उपलक्षणाद् जलादि वा स्थापयति, तथा भुजंत वा साइज्जई' अशनादिकचतुर्विधमाहारजातं भुजानं श्रमणं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तत्र गृहस्थमात्रकं द्विविधम् त्रसजीवदेहनिष्पन्नम् स्थावरजीवदेहनिष्पन्नं च, तत्र हस्तिदन्तादिनिर्मितं पात्रं त्रसजीवदेहनिर्मितमिति कथ्यते सुवर्णर जतताम्रकांस्यादिनिर्मितं पात्रं स्थावरजीवदेहनिर्मितं धातुपात्रम् । तथा भोजनस्योपलक्षणत्वात् वस्त्रादिप्रक्षालनार्थमपि गृहस्थस्य पात्रं न ग्रहीतव्यमिति । तत्र यः गृहस्थः स पूर्वमेव श्रमणार्थ पात्रं प्रक्षाल्य स्थापयेत् इति पुराकर्मदोषः, पश्चादपि श्रमणप्रतिनिवृत्तं पात्रं प्रक्षालयतीति पश्चात्कर्मदोषः । एवमादयो बहवो दोषा भवन्ति तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा गृहस्थस्य पात्रे स्थाल्यादौ न कदाचिदपि स्वयं भुञ्जीत न वा परं भोजयेत् भुञ्जन्तं नानुमोदेत ॥सू० १०॥
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२८८
निशीथसूत्रे
सूत्रम् - जे भिक्खू गिहिवत्थं परिहेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११॥
छाया - -यो भिक्षुः गृहिवस्त्रं परिदधाति परिदधन्तं वा स्वदते ॥ ११॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिवित्थं' गृहस्थवस्त्र' गृहस्थेन परिधृतं वस्त्रम् ' परिहेइ' परिदधाति श्रावकादिवत्रस्य परिधानं करोति कारयति वा तथा 'परिहतं वा साइज्जइ' परिदधन्तं वा स्वदते स प्रायश्वित्तभागी भवति । पात्रग्रहणे ये पुरा कर्म पश्चात्कर्मादिदोषाः कथितास्ते दोषा इहापि ज्ञातव्याः || सू० ११॥
सूत्रम् - जे भिक्खू गिहिनिसेज्जं वाइ वाहतं वा साइज्जइ ॥ १२ ॥
छाया-यो भिक्षुर्गृहिनिषद्यां वहति वहन्तं वा स्वदते ॥ सु० १२ ॥
*
चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा गिहिनिसेज्जं' गृहिनिषश्चाम् तत्र गृहिणो गृहस्थस्य निषधा - आसनं पर्यङ्कादि यत्र उपविश्यते ताहशीं निषधाम् 'बाहेइ' वहति - निषीदति गृहस्थस्य निषद्योपरि समुपविशति । 'वाहतं वा साइज ' वहन्तं वा स्वदते, उपविशन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । अयं भावः- भिक्षा1 चर्यादिप्रसंगेन गृहिगृहं गतः श्रमणः गृहस्थस्य पर्यङ्कादौ समुपविश्य वार्तालापं कुर्यात् धर्मकथादिकं वा श्रावयेत् तदा गृहस्थप्रायोग्यासने समुपविष्टस्य ब्रह्मचर्यभङ्गप्रसङ्गः भुक्तभोगानां स्मरण - भवात् । तथा लोकानां साधुब्रह्मचर्यै शङ्कापि प्रादुर्भवेत् कथमयं श्रमणो भूत्वापि गृहस्थासने समुपविष्टः ! एवम् अनेकेषां चित्ते अनेकप्रकारिका शङ्का प्रादुर्भूता स्यात् तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा गृहस्थस्यासने कदापि नोपविशेत् न वा समुपविशन्तमनुमोदेत ।। सू० १२ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू गिहितेइच्छं करेइ करतें वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥ छाया - यो भिक्षुर्गृहिचिकित्सां करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू०१३ ||
चूर्णि: - 'जे भिक्खू' इत्यादि 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिहितेइच्छ' गृहिचिकित्सां, तत्र गृही गृहस्थः, तस्य चिकित्सा रोगप्रतीकारलक्षणा ताम् 'करेड़' करोति, यो भिक्षुर्गृहस्थस्य वमनविरेचनपानादिप्रकारैः रोगस्य ज्वरादेः विषूचिकादेर्वा प्रतीकारमोषधाचुपचारं करोति तथा 'करें वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू० १३॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पुरेकम्मकडेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१२ सू० १४-१५ पुराकर्मिकजलादहस्तादिना भिक्षाग्रहणनिनिषेधः २४९
छाया—यो भिक्षुः पुराकर्मकृतेन हस्तेन वा मात्रकेण वा दा वा भाजनेन पा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० १५॥
चूर्णिः---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणीक 'पुरेकम्मकडेण' पुगकर्मकृतेन 'हत्येण' हस्तेन, हस्तादीनां सचित्तजलादिना दानात्पूर्व प्रक्षालनादिकरणं पुराकर्म तादृशपुराकर्मयुक्तेन हस्तेनेत्यर्थः 'मत्तेण वा' मात्रकेण पुराकर्मकृतपात्रेणेत्यर्थः 'दवीए बा' दा वा पुराकर्मयुक्तया दा 'कडछी' इति भाषाप्रसिद्धया 'भायणेण वा' भाजनेन पुराकर्मयुक्तेन भाजनेन स्थाल्यादि नेत्यर्थः 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वीकुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः भाष्यम् - कह होइ पुरेकम्मं, साहुनिमित्तं च किज्जए पुव्वं ।
दाणाओ पत्तहत्था,-ईणं ज धावणप्पभिई ॥१॥ छाया-कथं भवति पुराकर्म, साधुनिमित्तं च क्रियते पूर्वम् ।
___ दानात् पात्रहस्तादीनां यत् धावनप्रभृति ॥१॥
अवचूरिः-अत्र शिष्यः पृच्छति हे गुरो ! पुराकर्म कथं भवति कीदृशं कथं च पुराकर्म भवतीति । गुरुराह शृणु हे शिष्य ! यत् साधुनिमित्तं साधवे वस्तुदानमाश्रित्य दानात् पूर्व पात्रहस्तादीनां, तत्र पात्रस्य संसृष्टस्य पिष्टादिना खरण्टितस्याशुद्धस्य वा तादृशयोर्हस्तयोर्वा आदिशब्दात् दादीनां धावनप्रभृति धावनादिकं क्रियते तत् पुराकर्म कथ्यते । यथा गृहस्थगृहे भिक्षार्थ साधुरायातः तत्समये पात्रं दातव्यवस्तुनो विरुद्धपदार्थेन खरण्टितमा वा जलेन भवेत् अन्यद्वा पात्रं नोपस्थितं भवेत् तदवस्थायां भिक्षादानात्पूर्वं तत् पात्रं गृहस्थः सचित्तजलेन प्रक्षालयति धूलिवस्त्रादिना वाऽऽदै पात्रं शुष्कं करोति, एवं हस्तविषयेऽपि करोति तदा तत् पुराकर्म भवति, सचित्तजलादिजन्यारम्भदोषसद्भावात् , तादृशेन हस्तादिना दीयमानमशनादि साधुन गृह्णीयात् न वा तादृशमशनादि गृह्णन्तमनुमोदेत, एवं करणे साधुः प्रायश्चित्तभागी भवति भगवदाज्ञाभङ्गादिदोषप्रसङ्गादिति ॥ सू० ४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णतित्थियाण वा सीओ. दगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दबीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू०१५||
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२९०
निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुग्रहस्थानां वा
अन्यतीथिकानां वा शीतोदकपरिभोगेन हस्तेन वा मात्रकेण वा दर्या वा भाजनेन वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्वन्तं वा स्वदते || सू० १५||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गिहत्थाण वा' गृहस्थानां वा तत्र गृहस्थाः श्रोत्रियब्राह्मणादिकाः शुचिवादिनः तेषां गृहस्थानां श्रोत्रिय ब्राह्मणानां तथा 'अण्णतित्थियाण वा' अन्यतीर्थिकानां वा, तत्रान्यतीर्थिकाः परिव्राजकादयः, तेषामन्यतीर्थिकानां परिव्राजकतापसादीनां 'सीओदगपरिमोगेण' शीतोदकपरिभोगेन, शीतोदकस्य परिभोगः नित्यमातारूपो यस्य स शीतोदकपरिभोगः निरन्तरशीतोदकातायुक्त इत्यर्थः तेन हस्तेन 'मत्तेण वा' मात्रकेण वा पात्रविशेषेण 'दब्बीए वा' दर्या, काष्ठमय्या 'चाटु' इति प्रसिद्धया 'भायणेण वा' भाजनेन वा सचित्तशीतोदकप्रक्षालितभाजनेन वा 'असणं वा ४' अशनादिचतुर्विधमाहारं 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गातं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चितभागी भवति । शुचिवादिश्रोत्रिया ब्राह्मणा गृहस्थाः परिव्राजकादयो वा, ते च प्रायः पात्रादि काष्ठमयमेव रक्षन्ति, निरन्तरशीतोदकार्द्रस्य अन्तो जललेपत्वेन तस्यार्द्रता न निर्गच्छति, हस्तावपि ते वारं वारं धावन्ति तत - स्तावपि प्राय आद्रौ एव लभ्येते ततस्तादृशहस्तादिना यदि साघुरशनादि गृह्णाति तदनन्तरं ते शीतजलेन तानि हस्तपात्रादीनि अवश्यमेव प्रक्षालयिष्यन्ति ततस्तद्गतलेपस्य परिहारदुः शक्यत्वेन बहुना सचित्तजलेन वारं वारं प्रक्षालनं करिष्यन्ति तेन साधोः पश्चात्कर्मदोषः समापधेत, तथा पुरा कर्मदोषोऽपि समापथेत यतस्ते भिक्षादानात् पूर्वमपि हस्तादि प्रक्षालयन्ति तस्मात् पश्चात्कर्मपुरा कर्मेति दोषद्रयसंभवात् तादृशगृहस्थादीनां हस्तादिना साधुरशनादि चतुर्विधमाहारं न गृह्णीयात्, गृह्णन्तं चान्यं नानुमोदेति ॥ सू० १५ ||
सूत्रम् — जे भिक्खू कटुकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा लेप्पकम्माणि वा दंतकम्माणि वा मणिकम्माणि वा सेलकम्माणि वा गंथिमाणि वा वेदमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा पत्तच्छेज्जाणि वा विवाणि वा वेहिमाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंघातं वा साइज्जइ || सू० १६ ॥
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छाया -यो भिक्षुः काष्ठकर्माणि वा पुस्तकर्माणि वा चित्रकर्माणि वा लेप्यकर्माणि वा दन्तकर्माणि वा मणिकर्माणि वा शैलकर्माणि वा प्रन्थिमानि वा वेष्टिमाणि वा परिमाणि वा संघातिमानि वा पत्रच्छेद्यानि वा विविधानि वा वेधिमानि वा चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६ ||
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० १६-१८ काष्ठ कर्मादि-वप्रादि-कच्छादिदर्शनेच्छानिषेधः २९१
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कट्ठकम्माणि वा' काष्ठकर्माणि वा काष्ठनिर्मितप्रतिकृतिपुत्तलिकाविशेषलक्षणानि 'चित्तकम्माणि वा' चित्रकर्माणि वा-चित्रलिखितपुत्तलिकारूपाणि 'पोत्थकम्माणि बा' पुस्तकर्माणि वा-पुस्तकरूपाणि वनखण्डनिर्मितपुत्तलिकादिलक्षणानि वा 'लेप्पकम्माणि वा' लेप्यकर्माणि वा लेपनादिना निर्मितपुत्तलिकादिरूपाणि 'दंतकम्माणि वा' दन्तकर्माणि वा हस्तिदन्तादिनिर्मितवस्तूनि 'मणिकम्माणि वा' मणिकर्माणि वा चन्द्रकान्तमण्यादिनिर्मितानि वस्तूनि 'सेलकम्माणि वा' शैलकर्माणि वा प्रस्तरखण्डे चित्रितानि रूपाणि गंथिमाणि वा' प्रन्थिमानि वा ग्रन्थिनिर्मितपुत्तलिकादीनि 'वेढिमाणि वा' वेष्टिमानि वा वस्त्रादिभिर्वेष्टनं कृत्वा निर्मितानि वस्तूनि 'पूरिमाणि वा' पूरिमाणि वा तण्डुलादि प्रयित्वा निर्मितानि स्वस्तिकादीनि 'संघाइमाणि वा' संघातिमानि अनेकवत्रखण्डान् संयोग्य कृतानि 'पत्तच्छेज्जाणि वा' पत्रछेद्यानि वा कदल्यादीनां पत्राणि छित्वा निर्मितानि पुत्तलिकादीनि भ्रमरादिवत् छिद्राणि कृत्वा चित्रितानि 'विविहाणि वा' विविधानि-अनेकप्रकाराणि वा 'वेहिमाणि वा' वैधिकानि वा पत्रकाष्ठादिवेघनेन निर्मितानि 'कोरणी' इति भाषा प्रसिद्धकर्मणा कृतानि, एतानि पूर्वोक्तानि सर्वाणि 'चक्खुदंसणवडियाए' चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया चक्षुषा दर्शनेच्छया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति चक्षुषा द्रष्टुं मनसि धारयति निश्चयं करोती. त्यर्थः 'अभिसंधारतं वा साइज्जई' अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते अनुमोदते, यो हि श्रमणः काष्ठकर्मादीनि द्रष्टुं निश्चयं करोति तथा निश्चयं कुर्वन्तं योऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि वा उप्पलानि वा पल्ललाणि वा उज्झराणि वा निज्झराणि वा वावीणि वा पोक्खरिणी वा दीहियाणि वा गुंजालियाणि वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥सू०१७॥
छाया-यो भिक्षुः वप्रान् वा परिखा वा उत्पलानि वा परवलानि वा उज्झरान् वा निर्झरान् वा वापीर्वा पुष्करिणीर्वा दीर्घिका वा गुंजालिका वा सरांसि वा सरःपंक्तीर्वा सरसरःपंक्तीर्वा चक्षुदर्शनप्रतिवया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते॥
चूर्णी--'जे भिक्खू, इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वप्पाणि वा' वप्रान् क्षेत्राणि वा 'फलिहाणि वा' परिखा वा-खातविशेषान् ‘उप्पलाणि वा' उत्पलानि वा-उत्पलस्थानभूतान् जलाशयविशेषान् 'पल्ललाणिव' पल्वलानि वा, तत्र पल्वलानि क्षुद्र जलाशयाः तानि 'उज्झराणि वा उज्झरान् वा-उपरितः पतज्जलप्रवाहान् वा 'निग्झराणि वा' निझरान् वा
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निशीथसूत्र पर्वतेषु भूमित उद्गच्छज्जलप्रवाहस्थानानि 'वाचीणि ग' वापीर्वा वाप्यः प्रसिद्धास्ताः, 'पोक्खरिणी वा' पुष्करिणीर्वा-कमलोत्पत्तिस्थानजलाशयविशेषान् लघुतडागान् वा दीडियाणि वा' दीर्घिका वा चतुष्कोणा वापीः 'गुंजालिया वा' गुञ्जालिका वा वापीविशेषान् वा, 'सराणि वा' सरांसि वा-तडागाः तानि 'सरपंतियाणि वा' सरःपङ्क्तीर्वा सरांसि तडागास्तेषां पंक्तीर्वा 'सरंसरपंतियाणि वा' सरःसरःपंक्तीर्वा येषु एकस्मात् सरसः अन्यत्सरः प्रति जलं गच्छति ताः सरःसरःपंक्तीः, एतानि जलस्थानानि 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्ववद् विज्ञेया । वप्रादीनां च दर्शने 'सम्यक् सुन्दरं चैत' दिति कथने तदनुमोदनं स्यादित्यनुमौदने तदारम्भजन्यदोषसद्भावात् प्रायश्चित्तभागी भवति । अप्रशंसने लोकानां मनसि खेदो भवति तज्जन्यप्रायश्चित्तमापद्येत संयमात्मविराधनाऽपि भवति अतः पूर्वोक्तवस्तूनि द्रष्टुं न मनसि विचारयेत् , न वा पश्येत् न वा दृष्टिपथं कुर्वन्तमनुमोदेत ॥ सू० १७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कच्छाणि वा गहणाणि वा णूमाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥सू० १८॥ - छाया-यो भिक्षुः कच्छान् वा गहनानि वा नूमानि वा वनानि वा वनविदुर्गाणि वा पर्वतान् वा पर्वतविदुर्गाणि वा चक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥सू० १८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कच्छाणि बा' कच्छान् वा, तत्र कच्छाः जरबहुलप्रदेशाः इक्ष्वादिवाटिका वा तान् 'गहणाणि वा' गहनानि अनेकवृक्षाकुलकाननानि वा 'शमाणि वा' नमानि वा, तत्र 'नमं' इति देशी शब्दः छादनार्थः, तेन नमानि गुप्तगृहवनानि, 'वणाणि वा' वनानि वा एकजातीयवृक्षसमुदायरूपाणि, तानि 'वणविदुग्गाणि का' वनविदुर्गाणि वा, तत्र नानाजातीयवृक्षयुक्तवनसमुदायरूपाणि 'पन्चयाणि वा' पर्वतान् वा 'पन्चयविदुग्गाणि वा' पर्वतविदुर्गाणि वा अनेकपर्वतसमुदायरूपाणि -तानि 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ।। सू० १८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गामाणि वा णगराणि वा निगमाणिवा खेडाणि वा कबडाणि वा मडंबाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा आगराणि वा संबाहाणि वा संनिवेसाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० १९-२३ प्रामादीनां मह-वध पथ-दाह-दर्शनेच्छानिषेधः २९३
छाया- यो भिक्षु मान् वा नगराणि वा निगमान् वा खेटानि वा कर्बटानि वा मडम्बानि वा द्रोणमुखानि वा पत्तनानि वा आकरान् वा संबाहान् वा संनिवेशान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १९॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामाणि वा' प्रामान् वा, तत्र ग्रामाः वृतिवेष्टिताः तान् ‘णगराणि वा' नगराणि वा नगराणि यत्र अष्टादशकरादिकं न गृह्यते तादृशानि स्थानानि, तानि, 'णिगमाणि वा' निगमान् वा, निगमाः प्रभूततरवणिग्जननिवासाः, तान् वा, 'खेडाणि वा' खेटानि वा, तत्र खेटानि नाम धूलिप्राकारवेष्टितानि, तानि 'कबडाणि वा' कबटानि वा, तत्र कटानि कुत्सितानि नगराणि, अल्पजननिवासस्थानानि वा 'मडंबाणि वा' मइंबानि वा' मडम्बानि सार्द्धकोशद्वयाभ्यन्तरे ग्रापान्तररहितानि, तानि, 'दोणमुहाणि वा' द्रोणमुखानि वा-द्रोणमुखानि जलस्थलोपेता जननिवासाः, तानि 'पट्टणाणि वा' पत्तनानि वा, तत्र पत्तनानि समस्तवस्तुप्राप्तिस्थानानि, तानि द्विविधानि जलपत्तनानि स्थलपत्तनानि च, तत्र नौभिर्येषु गम्यते तानि जलपत्तनानि, येषु च शकटादिभिर्गम्यते तानि स्थलपत्तनानि, तानि 'आकराणि वा' आकरान् वा सुवर्णादीनामुत्पत्तिस्थानानि 'संबाहाणि वा' संबाहान् वा, तत्र संबाहा नाम अन्यत्र कृषिबलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मितानि दुर्गमस्थानानि, तान् 'संनिवेसाणि वा' संनिवेशान् वा, तत्र संनिवेशा:--समागतसार्थवाहादिनिवासस्थानानि, तान् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० १९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गाममहाणि वा णगरमहाणि वा णिगममहाणि वा खेडमहाणि वा कब्बडमहाणि वा मडंबमहाणि वा दोणमुहमहाणि वा पट्टणमहाणि वा आगरमहाणि वा संबाहमहाणि वा संनिवेसमहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू०२०॥
छाया यो भिक्षुममहान् वा नगरमहान् वा निगममहान् वा कर्बटमहान् वा मडम्बमहान् वा द्रोणमुखमहान् वा पत्तनमहान् वा आकरमहान् वा संबाहमहान् वा संनिवेशमहान् वा बक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥२०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाममहाणि वा' प्राममहान् वा, तत्र ग्रामस्य महा उत्सवा ग्राममहाः ग्रामोत्सवा इत्यर्थः तान् 'मेला' इति भाषाप्रसिद्धान् एवं नगरादिशब्दानां व्याख्या पूर्वसूत्रतो विज्ञेया, तेषां नगरादीनां पूर्वोक्तानां सर्वेषां महान नगरायुत्सवान् 'चक्खुदंसणवडियाए' चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया इत्यादि न्याख्या पूर्ववत् ॥ सू० २०॥
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२९४
निशीथस्त्रे सूत्रम्--जे भिक्खू गामवहाणि वा णगरवहाणि वा णिगमवहाणि वा खेडवहाणि वा कब्बडवहाणि वा मडंबवहाणि वा दोणमुहवहाणि वा पट्टणवहाणि वा आगखहाणि वा संबाहवहाणि वा संनिवेसवहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधा रेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥
. छाया-यो भिक्षुमवधान् वा नगरवधान् वा निगमवधान् वा खेटवधान् वा कर्बटवधान् वा मडम्बबधान् वा द्रोणमुखवधान् वा पत्तनवधान् वा आकरवधान् वा संबाहवधान् वा संनिवेशवधान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिश्या अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामवहाणि वा' प्रामवधान् वा तत्र प्रामस्य वधा प्रामवधाः देवताराजाघुपद्रवेण प्रामघाताः ग्रामविनाशाः, तान् वधस्य नानाप्रकारकत्वादत्र बहुवचनम् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् , एवं नग रादीनां पूर्वव्याख्यातानां वधान् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत् ॥ सु० २१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू गामपहाणि वा णगरपहाणि वा निगमपहाणि वा खेडपहाणि वा कब्बडपहाणि वा मडंबपहाणि वा दाणमुहपहाणि वा पट्टणपहाणि वा आगरपहाणि वा संबाहपहाणि वा संनिवेसपहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २२॥
छाया-यो भिक्षुामपथान् वा नगरपथान् घा निगमपथान् वा खेटपथान् वा कम्मडपथान वा द्रोणमुखपथान् वा पत्तनपथान् वा आकरपथान् वा संबाहपथान् वा संनिवेशपथान् वा चक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू०२२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामपहाणि वा' प्रामपथान् वा, तत्र ग्रामस्य पन्थानः मार्गाः ग्रामपथाः तान् , यत्र प्रामादौ नुतनमार्गाणां दर्शनीयादिगुणविशिष्टानां निर्माणं कृतं भवेत् तादृशान् मार्गान् , एवं नगरादीनां तादृशान् मार्गान् 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् स्वयं व्याख्येयम् ।। सू० २२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू गामदाहाणि वा णगरदाहाणि वा निगमदा. हाणि वा खेडदाहाणि वा कब्बडदाहाणि वा मडंबदाहाणि वा दोणमुहदाहाणि वा पट्टणदाहाणि वा आगरदाहाणि वा संबाहदाहाणि वा संनिवेसदाहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३॥
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चूर्णिभाष्यावद्भिः उ० १२ सू०२४-२७ अश्वादीनां शिक्षायुद्धादिस्थानदर्शनेच्छानिषेधः २९५
छाया--यो भिक्षुमिदाहान् वा नगरदाहान् वा निगमदाहान् वा खेटदाहान् कर्बटदाहान् वा मडंबदाहान् पा द्रोणमुखदाहान् चा पत्तनदाहान् वा आकरदाहान् वा संबाहदाहान् वा संनिवेशदाहान् वा बक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥स्. २३॥ ___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामदाहाणि बा' ग्रामदाहान् वा, तत्र ग्रामस्य दाहाः बहिना प्रज्वलनानि, तादृशान् प्रामदा. हान्, एवं नगरादीनां दाहान् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् । सू० २३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आसकरणाणि बा हत्थिकरणाणि वा उट्टकर. गाणि वा गोणकरणाणि वा महिसकरणाणि वा सूयरकरणाणि वा चक्खुदसणवडियए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू०२४॥
छाया -यो भिक्षुरश्वकरणानि वा हस्तिकरणानि या उष्ट्रकरणानि वा गोकरणानि वा महिपकरणानि वा शूकरकरणानि वा चक्षुदर्शनप्रतिच्या अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४॥
चूर्णी-- 'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आसकरणाणि वा' अश्वकरणानि-अश्वकरणस्थानानि, यत्राश्वानां करणानि विनयादिशिक्षणानि कीडनानि वा भवन्ति तानि अश्वकरणानि तादृशस्थानानि अश्वशिक्षणक्रीडनस्थानानीत्यर्थः, 'हस्थिकरणाणि वा' हस्तिकरणानि वा-हस्तिशिक्षणक्रीडनस्थानानि, एवम् ‘उट्टकरणाणि वा' उष्ट्रकरणानि वा-उष्ट्राणां शिक्षणक्रीडनस्थानानि, 'गोणकरणाणि वा' गोकरणानि वा-गोत्रीणां गोपुरुषाणां वा शिक्षणक्रीडनस्थानानि, 'महिसकरणाणि वा' महिषकरणानि वा-महिषशिक्षणक्रीडनस्थानानि वा, 'मूयरकरणाणि वा' शूकरकरणानि वा-शूकरशिक्षणक्रीडनस्थानानि वा 'चक्खुदंसणबडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ॥ सू० २४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आसजुद्धाणि वा हत्थिजुद्धाणि उट्टजुद्धाणि वा महिसजुद्धाणि वा सूयरजुद्धाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ । सू० २५॥
छाया-- यो भिक्षुरश्वयुद्धानि हययुद्धानि या उष्ट्रयुद्धानि षा गोयुद्धानि वा महिषयुद्धानि वा शकरयुद्धानि वा चक्षुर्दर्शनप्रतिच्या अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं पा स्वदते ॥सू. २५॥
ची-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आसजुद्धाणि वा' अश्वयुद्धानि वा-अश्वयोरचानां वा विनोदाथ परस्परं युद्ध कार्यते स्वयं
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निशीथसूत्रे कुर्वन्ति वा तानि अश्वयुद्धकरणस्थानानीत्यर्थः, एवम् हस्त्यादीनां युद्धस्थानानि 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ।। सू० २५॥ ।
सूत्रम्-जे भिक्खू गाउजूहियठाणाणि वा हयजूहियठाणाणि वा गय. जूहियठाणाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइ. ज्जइ ॥ सू० २६॥
छाया-यो भिक्षु गोथिकस्थानानि वा हययूयिकस्थानानि वा गजयूथिकस्थानानि वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू. २६॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाउजहियठाणाणि वा' गोयूथिकस्थानानि वा गोयूथानां मोममुदायानां यानि स्थानानि तानि गोयूथिकस्थानानि तानि, अथवा गोमिथुनस्थानानि गोयूथिकस्थानानि, एनमग्रे सर्वत्रापिविज्ञेयम्, 'हयजूहियठाणाणि वा' हययूथिकस्थानानि वा 'गयजूहियठाणाणि वा' गजयूथिकस्थानानि वा 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ॥ सू० २६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अभिसे यठाणाणि वा अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणपमाणठाणाणि वा महयाहयनट्टगीयवाइयतंतातलतालतुडिय. घणमुइंगपडुप्पवाइयरवठाणाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभि. संधारेत वा साइज्जइ । सू० २७॥
छाया-यो भिक्षुरभिषेकस्थानानि वा आख्यापिकास्थानानि वा मानोन्मानप्रमाणस्थानानि वा महदाहतनृत्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवस्थानानि वा चक्षुदर्शनप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ २० २७॥ ___ चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अभिसेयठाणाणि वा' अभिषेकस्थानानि वा, यत्र मूर्धाभिषिक्तराज्ञामभिषेकादि भवति ताहशानि स्थानानि अभिषेकस्थानानि 'अक्खाइयठाणाणि वा' आख्यायिकास्थानानि वा, यत्र भारतरामायणादिकथा क्रियते तादृशस्थानानि 'माणुम्माणपमाणठाणाणि वा' मानोन्मानप्रमाणस्थानानि वा, यत् धान्यादि पल्लादिना मीयते तद् मानम् , यत तुलया उद्धृत्य दीयते तद् उन्मानम्, यत् हस्ताङ्गलादिना प्रमाणितं कृत्वा दीयते तत् प्रमाणम् , यौवं प्रकारेण वस्तूनां क्रयो विक्रयो भवेत् तादृशानि स्थानानि धान्यादिवस्तुक्रयविक्रयस्थानानीत्यर्थः, 'महयाहयनदृगीयवाइय तंतीतलतालतुड़ियपडप्पवाइयरवठाणाणि वा' महदाहतनृत्यगीतवादित्रतंत्रीतलतात्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवस्थानानि वा, यत्र स्थानविशेषे नृत्यगीतादिकं भवति तत्रातिबलेन ताडितानि पटुपुरुषेण
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० २८-३० डिम्बादि-महोत्सवगतस्त्र्यादिर्दशन -रूपासक्तिनि२९७ प्रवादितानि यानि वादित्राणि तंत्रीतल तालत्रुटितघन मृदङ्गरूपाणि, तेषां रवः शब्दो भवति तादृशानि स्थानानि, एतानि उपर्युक्तस्थानानि 'चक्खुदसणवडियाए' इत्यादि सुगमम् ॥ सू० २७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू डिंबाणि वा डमराणि वा खाराणि वा वेराणि वा महाजुद्धाणि वा महासंगामाणि वा कलहाणि वा बोलाणि वा चक्खुदंसण वडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २८ ॥
छाया--यो भिक्षुः डिम्बानि वा डमराणि वा क्षाराणि वा वैराणि चा महायुद्धानि वा महासंग्रामान् वा कलहान् वा बोलान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥सू० २८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'डिवाणि' डिम्बानि-राष्ट्रविप्लरूपाणि तेषां स्थानानि स्थानानीति पदं सर्वत्र योज्यम् । 'डमराणि बा' डमराणि वा, तत्र डमगणि नाम राष्ट्रस्य बाह्याभ्यन्तरजनकृतोपद्रवास्तेषां स्थानानि, 'खाराणि वा' क्षाराणि वा क्षारा नाम परस्परमन्त₹षाः तजनितोपद्रवस्थानानि, 'वेराणि वा' वैराणि वा, वैराणि नाम वंशपरम्पराऽऽगता द्वेषास्तत्समुत्पादितकलहादि स्थानानि, 'महाजुद्धाणि वा' महायुद्धानि वा, तत्र महायुद्धानि नाम अनेकेषां पुरुषाणां जायमानानि कलहादीनि, तेषां स्थानानि शस्त्रादिप्रहारस्थानानि वा 'महासंगामाणि वा' महासंग्रामान् चतुरंगिणीसेनाद्वारा जायमानशस्त्रादिप्रहारस्थानानि 'कलहाणि वा' कलहान् वा कलहस्थानानि 'बोलाणि वा' बोलानि बा, तत्र बोलाः कलकलशब्दाः, तेषां स्थानानि, एतानि पूर्वोक्तानि डिम्बादीनि यः श्रमणः श्रमणी वा चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि सुगमम् ॥ स्० २८॥
सूत्रम्-जे भक्खू विरूवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि वा अणलंकियाणि वा सुअलंकियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नच्चंताणि वा हसंताणि वा मंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं वो पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिभायंताणि वा परिभुजंताणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥
__छाया- यो भिक्षुविरूपरूषेषु महोत्सवेषु स्त्रीर्वा पुरुषान् वा स्थविरान् वा मध्यमाम् वा डहरान् वा अनलङ्कृतान् वा स्वलङ्कृतान् वा गायतो वा
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२९८
निशीथसूत्रे पादयतो बा नृत्यतो वा हसतो वा रममाणान् वा मोहयतो वा पिपुलमशन वा पानं वा खाद्यं बा स्वाद्य वा परिभाजयतो वा परिभुजानान् वा चक्षुर्दर्शनप्रतिक्षया अभिसंधार यति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते । सु० ५९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इस्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विरुवरूवेसु' विरूपरूपेषु अनेकप्रकारेषु विलक्षणेषु वा 'महुस्सवेसु' वा महोत्सवेषु महान्तश्च ते उत्सवाश्चेति महोत्सवाः, तेषु इन्द्रमहोत्सवादिषु, यद्वा यत्रोत्सवे अनेकप्रकारकाः धनिका आढयतमाः अकिंचनाश्चापि संमिलिता भवन्ति, यद्वा-अनेकप्रकारकाः श्रेष्टिनो राजानो राजपुरोहिततलवगदयो मिलिता भवन्ति तादृशा उत्सवा महोत्सवाः, तादृशमहोत्सवेषु 'इत्थीणि वा' स्त्रियो वा पूर्वोक्तमहोत्सवेषु संमिलिताः स्त्रिय इत्यर्थः 'पुरिसाणि वा' पुरुपान् वा साधारणतः पुरुषवर्गानित्यर्थः, 'थेराणि वा' स्थविरान् वा, तत्र स्थविराः परिपकवयसः तान् वा 'मज्झिमाणि वा' मध्यमान् वा वयसो मध्ये स्थितानित्यर्थः, 'डहराणि वा' डहरान् वा, तत्र डहराः-अल्पवयस्काः तान् तादृशमहोत्सवे समुपस्थितान्, कीदृशान् तान् ! तत्राह-'अणलंकियाणि वा' अनलकृतान् वा कटककुण्डलाचलङ्काररहितान् वा 'सुअलंकियाणि वा' स्वलङ्कृतान् वा कटककुण्डलायङ्कारेण सुसज्जितवेषान् वा 'गायंताणि वा' गायतो वा तादृशमहोत्सवे संमिलितपुरुषेषु मध्ये केचन गानं कुर्वन्ति तान् गानं कुर्वतो वेति 'वायंताणि वा' वादयतो वा, तलतालमृदङ्गादि वाद्य वादयतो वा 'गच्चंताणि वा' नृत्यतो वा नृत्यं कुर्वतो वा 'हसंताणि वा' हसतो वा अनेकप्रकारकहासोपहासलास्यादिकं कुर्वतो वा 'रमंताणि वा' रममाणान् वा अनेक प्रकारककोडां कुर्वतो वा 'मोहंताणि वा' मोहयतो वा तादृशीं चेष्टां ये कुर्वन्ति यया परेषां मोह उत्पादितो भवेत् तादृशान् मोहोत्पादकानित्यर्थः । पुनः किं कुर्वतस्तान् ? तत्राह-'विउलं' इत्यादि । 'विउलं' विपुलमत्यधिकम् 'असणं वा' ४ अशनं वा ४ चतुर्विधमाहारजातम् 'परिभायंताणि वा' परिभाजयतो वा अशनादिभोज्यवस्तूनां परस्परं विभागं प्रविभज्य परस्परमादानप्रदानं कुर्वतो वा 'परिभुजंताणि वा परिभुज्जानान् वा अशनाद्याहारजातमेकत्र स्थित्वाऽऽहरतो वा' एतादृशान् पूर्ववर्णितप्रकारकान् स्त्रीपुरुषादीन् 'चक्खुदंसणवडियाए' इत्यादि पूर्ववत् ॥ सू० २९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू इहलोइएसु वा स्वेसु परलोइएसु वा रूवेसु दिठेसु वा रूवेसु अदिठेसु वा रूवेसु सुएसु वा रूवेसु वा असुएसु वा रूवेसु विन्नाएसु वा रूवेसु अविन्नाएसु वा रूवेसु सज्जइ रज्जइ गिज्झइ अझोववज्जइ सज्जंत वा रज्जत वा गिझंतं वा अज्झोवबज्जत वा साइज्जइ ॥ सू० ३०॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १२ सू० ३०-३३ आहारादिमर्यादाऽतिक्रमणनिषेधः २९९
छाया- यो भिक्षुरैहलोकिकेषु वा रूपेषु पारलोकिकेषु वा रूपेषु दृष्टेषु वा रूपेषु अरष्टेषु वा रूपेबु विशातेषु वा रूपेषु अविज्ञातेषु वा रूपेषु स्वजति रज्यति गृध्यति अध्युपपद्यते स्वजन्तं वा रज्यन्तं वा गृध्यन्तं वा अध्युपपद्यमानं वा स्वदते ॥सू०३०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'इहलोइएसु वा रूवेसु' ऐहलोकिकेषु वा रूपेषु, तत्र ऐहलौकिकाः मनुष्यत्र्यादिपदार्थाः तत्सम्बन्धिषु रूपेषु अनुरागकारणभूतपदार्थेषु 'परलोइएसु वा रूवेसु' पारलोकिकेषु वा, तत्र पारलोकिको देवदेव्यादिहस्तितुरगादिर्वा, तत्संबन्धिषु रूपेषु अनुकूलवेदनीयेषु रूपादिषरार्थजातेषु 'दिहेसु वा रूवेसु' दृष्टेषु वा रूपेषु पूर्व प्रत्यक्षतो दृष्टेषु रूपादिषु वस्तुजातेषु ‘अदिढेसु वा रूवेसु' अदृष्टेषु वा रूपेषु, तत्रादृष्टा देवादयः तत्संबन्धिषु रूपादिषु 'सुएसु वा रूवेसु' श्रुतेषु वा रूपेषु श्रवणेन्द्रियेण साक्षात्कृतेषु श्रवणेन्द्रियजन्यज्ञानविषयतावत्सु अनुकूलवेदनीयपदायें जातेषु 'असु. एसु वा रूवेसु' अश्रुतेषु कर्णपथभनागतेषु वा रूपेषु पदार्थजातेषु 'विन्नाएमु वा रुवेसु' विज्ञातेषु वा रूपेषु वर्तमानकालिकानुभवात्मकज्ञानविषयतावत्सु पदार्थजातेषु 'अविन्नाएम वा स्वेसु' अविज्ञातेषु वा रूपादिषु मानसिकानुभवात्मकज्ञानविषयेषु अनुकूलवेदनीयपदार्थजातेषु उपर्युक्तहलोकिकादिपदार्थजातेषु यः श्रमणः श्रमणी वा 'सज्जइ' स्वजति आसक्तिमान् भवति 'रज्जइ' रज्यति तस्मिन् रूपादिषु अनुरागवान् भवति 'गिजाइ' गृद्धयति रूपादिपदार्थषु गृद्धिमान् भवति तेषु गृद्धिभावं प्राप्नोति, तत्र सर्वदा समुपलभ्यमानेष्वपि अभिरमणं गृद्धिः तां प्राप्नोति 'अझोववज्झइ' अध्युपपद्यते अतिशयेनासक्तिमान् भवति तथा 'सज्जंत' स्वजन्तम्-आसक्ति कुर्वन्तम् 'रज्जत' रज्यन्तम् रूपादिश्वनुरागं कुर्वन्तम् 'गिझंतं' गृद्धचन्तं रूपादिषु गृद्धिभावं कुर्वन्तम् 'अज्झोववज्जतं' अध्युपपद्यमानम् अतिशयेनासक्ति कुर्वन्तम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तेषु सङ्गादिकरणेन चारित्रपतनसंभवादिति ॥ सू० ३०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसि उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३१॥
छाया-यो भिक्षुः प्रथमायां पौरुष्यामशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा प्रति. गृह्य पश्चिमां पौरुषीमतिकामति अतिक्रामन्तं वा स्वदते ।। सू० ३॥
चूर्णी-जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पढमाए पोरिसीए' प्रथमायां पौरुष्याम् दिवसस्य प्रथमपौरुष्यामित्यर्थः 'असणं वा ४' अशनं वा १ चतुर्विधाहारजातम् 'पडिग्गाहेत्ता' प्रतिगृह्य-गृहस्थेभ्य आनीय 'पच्छिमं पोरिसि'
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निशीथसूत्रे पश्चिमां पौरुषी दिवसस्य चरमपौरुषीमित्यर्थः, ‘उवाइणावेइ' अतिकामति उल्लयति चरमपौरुषीपर्यन्त स्थापयतीत्यर्थः 'उवाइणावेतं बा साइज्जई' अतिकामन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति पर्युषितदोषसंभवात् ।। सू० ३१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ परेणं असणं वा ४ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ३२॥
छाया--यो भिक्षुः परमर्द्धयोजनमर्यादातः परेण अशनं वा ४ अतिकामयति अतिकामयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'परं अद्धजोयणमेराओ' परेमर्द्धयोजनमर्यादातः-क्रोशद्वयमर्यादातोऽये 'परेणं' परेण अन्येन श्रावकादिना श्रावकादिद्वारा समानीतमित्यर्थः 'असणं वा ४ अशनं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उवाइणावेई' अतिकामयति-अशनादेरुल्लंघनं कारयति अर्थात् अत्र गृहीतमाहारं कोशद्वयादधिकमपि दूरं भोक्तुमन्यद्वारा नयति, अथवा क्रोशद्वयादपि अधिकदूरतोऽशनादिकमाहारजातं परद्वारा आनयति आनयनं कारयति तथा 'उवाइणावेतं वा साइज् नई' अतिक्रामयन्तं वा स्वदते अनुमोदते, क्रोशद्वयादधिकदूरमशनादि परेण यः नयति आनयति वा तं तादृशं श्रमणमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०३२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विॉलपेज्ज वा आलियत वा विालेपंतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुदिवा गोमयं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३३॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा-दिवसे 'गोमयं' गोमयं 'गोबर' इति भाषाप्रसिद्धम् 'पडिग्गाहेत्ता प्रतिगृह्यरात्रौ स्थापयित्वा 'दिया' दिवा-द्वितीयदिवसे 'कासि वर्ण' काये व्रणम् तत्र काये शरीरे जायमान पामादिजन्यं व्रणम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा एकवारम् 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा अनेकवारम् । 'आलिपंतं वा' आलिम्पन्तं वा एकवारं लेपंकुर्वन्तं 'विलितं वा' विलिम्पन्तं वा अनेकवारं लेपं कुर्वन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते अनुमोदते स प्रार्थाश्चत्तभागी भवति ।। सु० ३३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दिया गामयं पडिग्गाहेत्ता रत्ति कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंत वा साइज्जइ ॥ सू०३४॥
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ १२ सू०३४-४२ गोमया-लेपनजातमर्यादातिक्रमो-पधिवाहननि० ३०१
छाया-यो भिक्षुर्दिवा गोमयं प्रतिगृह्य रात्रौ काये व्रणम् आलिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा म्वदते । सू० ३५॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया गोमयं पडिग्गाहेत्ता' दिवा दिवसे गोमयं प्रतिगृह्य 'रत्ति' रात्रौ रजन्यां 'कायंसि' काये शरीरे संजायमानम् 'वर्ण' व्रणं पामादिजन्यम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा एकवारम् 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा अनेकवारं 'आलिंपतं वा' आलिम्पन्तं वा 'विलिपंतं वा' विलिम्पन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । रात्रौ कस्यापि वस्तुनः संग्रहनिषेधात् ॥ सू० ३४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रतिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कायंसि वणं आलिंपेज्ज वा विलेपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
छाया-यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते । सृ. ३५।।
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'रति' रात्रौ रजन्याम् 'गोमयं पडिग्गाहेत्ता' गोमयं प्रतिगृह्य गृहीत्वा 'दिया कायंसि वर्ण' दिवा दिवसे द्वितीयदिवसे काये शरीरे संजायमानं व्रगम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । रात्रौ कस्यापि वस्तुनो ग्रहणनिषेधात् , पर्युषितदोषसंभवाच्च ।। सू० ३५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता रतिं कायंसि वणं अलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिंपंतं वा साइज्जइ ॥
छाया -- यो भिक्षुः रात्रौ गोमयं प्रतिगृह्य रात्रौ काये व्रणमालिम्पेत् वा विलिम्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ।। सू० ३६॥
चूर्णी --'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'रत्ति' रात्रौ रजन्याम् गोमयं पडिग्गाहेत्ता' गोमयं प्रतिगृह्य गृहीत्वा रत्ति' रात्रौ रजन्याम् तस्यामेव रजन्यां द्वितीयर नन्यां वा 'कासि वर्ण' काये शरीरे संजायमानं व्रणम् 'आलिपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा 'आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, रात्रौ ग्रहणस्य संग्रहस्य परिभोगस्य च दोषसद्भावेन निषिद्धत्वात् ॥ सू० ३६॥
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૦૨
निशीथसुत्रे
सूत्रम् - जे भिक्खू दिया आलेवणजायं पडिग्गाहेता दिया कार्यसि वर्ण आलिपेज्ज वा विलेपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिंपतं वा साइ ज्जइ ॥ सू० ३७ ॥
छाया -यो भिक्षुदिवा आलेपनजातं प्रतिगृह्य दिवा काये व्रणमा लिम्पेत् वा विलिस्पेत् वा आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३७॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिया' दिवा - दिवसे 'आलेवणजायं पडिग्गाहेत्ता' आलेपनजातम् विलेपनद्रव्यं प्रतिगृह्य गृहीत्वा रात्रौ स्थापयित्वा 'दिया' दिवा - द्वितीयदिवसे 'कार्यसि वर्णं' काये शरीरे शरीरावयवे वा व्रणं पामाभगन्दरादिकम् 'आलिंपेज्ज वा' आलिम्पेत् वा 'विलिंपेज्ज वा' विलिम्पेत् वा 'आपितं वा विलितं वा साइज्जइ' आलिम्पन्तं वा विलिम्पन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ३७|| एवं पूर्वोक्तसूत्रं संगृह्य चत्वारि सूत्राणि - आलेपनजातविषयाण्यपि गोमयसुत्रवदेव व्याख्येयानि ॥सू० ३८-३९-४०॥
सूत्रम् —— जे भिक्खू अन्नउत्थिएण वा गारस्थिएण वा उवर्हि वहावे वहावेंतं वा साइज्जइ || सू० ४१ ॥
॥
छाया -यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा उपधि वाहयति वाहयन्तं वा स्वदते ॥ ४१ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अन्नउत्थिष्ण वा' अन्ययूथिकेन वा अन्यतीर्थिकेण पुरुषेण स्त्रि यावा 'गारत्थि एण वा' गृहस्थेन वा वकेण तद्भिन्नेन वा येन केनापि श्राविकया तद्भिन्नया वा 'उवहिं वहावेइ' उपधिं स्वकी - यवनपात्रादिकम् वाहयति एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं प्रापयति 'वहावेंतें वा साइजर' वाहयन्तं प्रापयन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, गृहस्थादिना कस्यापि कार्यस्य कारणे साधोरविरतिदोषप्रसङ्गात् ॥ सू० ४१ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू तन्नीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वादे देतं वा साइज्ज || सू० ४२॥
छाया - -यो भिक्षुः तनिश्रयाऽशनं बा पानं बा खाद्यं वा स्वाद्यं वा ददाति ददतं वा स्वदते । सू० ४२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तन्नीसाए' तन्निश्रया - उपधिवहनादिकार्थनिश्रया उपध्यादिवाहकाय 'अयं मे उपधिं वहती'- ति
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पूर्णिमाम्यावरिः उ० १२ सू० ४३-४४ मासिकद्वित्रिधारगङ्गादिमहानधुत्तरणनिषेधः ३०३ कृत्वा, उपलक्षणादन्यस्मै वा कस्मैचिद् गृहस्थाय बालकादिभ्यो वा 'असण वा ४' अशनं वा ४, चतुर्विधमाहारजातम् 'देई' ददाति अन्यस्मादापयति वा 'देतं वा साइज्जई' ददतं वा स्वदते । यो हि अन्ययूथिकादिभ्यः कार्यमुपधिवाहनादिकं कारयित्वा तेभ्यः तन्मूल्यरूपेणानुग्रहेण वा आहारादिकं ददाति दापयति ददतमनुमोदते वा स प्रायश्चित्तभागी भवति, भिक्षिताशनादेरन्यस्मै दाने साधोरनधिकारिस्वात् , भगवतानिषिद्धत्वाच्च ।। सू० ४२॥
सूत्रम्--जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाओ महानईओ उदिवाओ गणियाओ वंजियाआ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ । तं जहा-गंगा, जउणा, सरऊ, एराबई, मही-त्ति । सू० ४३॥
छाया-यो भिक्षुरिमाः पञ्च महार्णवा महानद्य उद्दिष्टा गणिता व्यजिता अन्ताः सस्य द्विकृत्वो वा विकृत्वो वा उत्तरति संतरति उत्तरन्तं वा सन्तरन्तं वा स्वदते तद्यथा-गङ्गा, यमुना, सरयू, ऐरावती, मही, इति ॥ सू० ४३॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'इमाओ' इमा-वक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्च-पञ्चसंख्याविशिघ्राः 'महण्णवाओ' महार्णवाः समुद्रतुल्याः, आसां पञ्चनदीनां महार्णवतुल्यता च बहूदकत्वेन तथा आयामविस्ताराभ्यां वा यथा समुद्रो बहूदको दीर्घा विस्तृतश्च तथैव एता अपि बहूदकाः दीर्घा विस्तृताश्च सन्ति अत एव 'महागईओ' महानद्यः यत एव बहूदकादिविशिष्टा अत एव महानदीपदवाच्याः 'उढिाओ' उद्दिष्टाः कथिताः 'गणियाओ' • गणिताः अन्यनदीषु महत्त्वेन गणनां प्राप्ताः 'वंजियाओ' व्यञ्जिताः प्रकटीकृता शास्त्रे प्रतिपादिता वा, एता महानदीः 'अंतो मासस्स' अन्तर्मासस्य एकस्य मासस्यान्तः-मध्ये 'दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा' द्विःकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा द्विवारं वा त्रिवारं वा 'उत्तरइ वा संतरइ वा' उत्तरति वा संतरति वा, तत्र निरन्तरं तरणम् उत्तरणं चरणाभ्यां पारकरणम् , संतरणं नावादिना पारकरणम् । गाढतरकारणाभावे नदीनामुत्तरणे संतरणे चाप्कायिकस्य विराधने संयमविराधनम् , तथा गर्तादौ चरणपतनात् पारकरणसमये जलपूरागमनाच्च आत्मविराधनम् । अनेन प्रकारेण मासाभ्यन्तरे यः श्रमणः श्रमणी वा द्विवारं वा त्रिवारं वा उत्तरति सन्तरति वा तथा 'उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ' उत्तरन्तं वा सन्तरन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-जइ होज्ज य यलमग्गो, जलेण गच्छेज्ज नेव पारहि ।
नेव दुरोहे णावं, तत्थावायाण संभवओ ॥
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३०४
निशीथसूत्रे छाया- यदि भवेच्च स्थलमार्गः, जलेन गच्छेत् नैव पादाभ्याम् ।
नैव दूरोहेत् नावं, तत्राऽपायानां संभवतः अवचूरिः-यदि ग्लानस्य साधोयावृत्यादिके गाढतरे कारणे समुपस्थिते सति गमनमावश्यकं भवेत् तदा यदि तत्र गमनार्थ स्थलमार्गो दूरतरोऽपि भवेत् तर्हि जलेन नद्यादिजलमार्गेण पादाभ्यां नैव गच्छेत् . नैव च नावं दूशेहेत् नौकोपरि नोपविशेत् , किमर्थमित्याह तत्र णदाभ्यां नौकया वा गमने-अपायानां विघ्नानां बहूनां संभवात् । अपाया द्विविधाः- संयमापायाः आत्मापायाश्च । तत्र नदीजले पादाभ्यां गमने अकायस्य पादप्रहारेण तत्रस्थितत्रसकायानां मण्डूकमत्स्यादीनां च विराधनारूपा अनेके संयमापाया भवन्ति । जले गर्तादौ पादपतनात् तत्समये जलपूरस्यागमनादिना चानेके आत्मापाया अपि भवन्ति, एवं नौकया गम नेऽपि विज्ञेयम् , तथाहि-नौकायाः संचरणेन जलविलोडनं भवति तेनाप्कायस्य तदधोगतानां त्रसाणां मण्डूकमत्स्यलघुजलचरादिजीवानां च विराधना भवति तेन संयमापायसंभवः, तथा नौकाया ब्रुडनभजनादिना-आत्मापायसंभवः, ततः संयमात्मविराधनादोषसद्भावात् दूरतरस्थलमार्गसंभवे साधुर्जलमार्गेण नो गच्छेदिति भावः ॥ सू० ४३॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं ॥ सू०४४॥
॥निसीहज्झयणे बारसमो उद्देसो समत्तो ॥१२॥ छाया-तं सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकम् ॥४॥
॥ निशीथाध्ययने द्वादश उद्देशः समाप्तः ॥१२॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् सेवमानः, तत् उद्देशकादौ कथितत्रसपाणातिबन्धनादारभ्योदेशकान्ते वर्णितनदोसंतरणपर्यन्तमायश्चित्तम्थानमध्यात् एकमनेक सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं 'सेवमाणे' सेवमानः समाचरन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जई' आप द्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मापिकम् 'परिहारट्ठाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तस्थानम् 'अणुग्घाइयं' अनुद्घातिकम् -लघुमासिकमित्यर्थः । सू० ४४|| इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक--पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि--जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य"
चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् द्वादशोद्देशकः समाप्तः ॥१२॥
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॥ त्रयोदशोद्देशकः ॥
गतो द्वादशोद्देशकः, सम्प्रति त्रयोदशोदेशको व्याख्यायते, तत्र द्वादशोदेशकान्तिमसूत्रेण सहास्य त्रयोदशोद्देशकादिसूत्रस्य कः सम्बन्धः - इति चेदाह भाष्यकार - भाष्यम् - नावाइणा उत्तरिय, काउस्सगं करे मुणी । कत्थ कुज्जा न वा कुज्जा, संबंधो ईरिओ इहं ||
छाया -- नावादिना उत्तीर्य कायोत्सर्ग कुर्यात् मुनिः । कुत्र कुर्यात् न वा कुर्यात् सम्बन्ध ईरित इह ॥
अवचूरि : - 'नावाइणा' इत्यादि । द्वादशोदेशकस्यान्तिमसूत्रे गङ्गादिका पञ्च महानद्यो वर्णिताः, ता नदीः कारणवशात् मासाभ्यन्तरे द्विवारं त्रिवारं वा उत्तरति तदा तस्य प्रायश्चित्तं कथितम्, तत्र नावादिना ता महानदीं समुत्तीय पारं गत्वा ऐयपथिकः कायोत्सर्गः अवश्यमेव कर्तव्यः । स च कुत्र स्थाने कर्तव्यः कुत्र न कर्तव्यः : इति विचारणायां सचित्तपृथिव्यां न कर्तव्यः, एतस्य निषेधस्य वर्णनाय त्रयोदशोद्देशकः प्रारभ्यते, अस्मिन् उद्देश के सचित्तपृथिव्यादिषु समुपविश्यैर्यापथिकाद्यावश्यक कार्यकरणे प्रायश्चित्तं कथयिष्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य त्रयोदशोद्देशकस्य प्रथमसूत्रमाह
सूत्रम् -- जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया -यो भिक्षुरनन्तरहितायां पृथिव्यां स्थानं वा शय्यां वा निषद्यां वा नैषेधिक वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते || सु०१ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणं तरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् अनन्तेन जीवेन रहिता किन्तु असंख्येयेन जीवेन युक्तता अनन्तरहिता सचित्तेत्यर्थः यतो हि पृथिवी असंख्यात जीवात्मिका भवति न त्वनन्तजीवात्मा, अतः अनन्तरहितेत्युक्तम्, यद्वा-न अन्तरं व्यवधानम् अनन्तरं जीवन्यवधानरहितं यथा स्यात्तथा हिताः स्थिता अनन्तरहिता व्यवधान रहितजीवयुक्ता सर्वात्मना सचित्तेत्यर्थः । तस्यां सचित्तपृथिव्युपरीत्यर्थः 'ठाणं वा' स्थानं वा, तत्र स्थानं कायोत्सर्गः तत् कायोत्सर्गलक्षणं स्थानम् ऊर्ध्वत्वेनावस्थितिरूपं करोति इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, उपलक्षणत्वात् त्वग्वर्तनादिकमपि करोति 'सेज्जं वा' शय्यां वा तत्र शय्या शरीरप्रमाणा तां, शयनं वा करोति 'णिसेज्जं वा' निषधां वा उपवेशनं वा 'निसीहियं वा' नैषेधिकीं वा प्राणातिपातादिनिषेधपूर्वकं जायमाना किया स्वाध्यायरूपा नैषेधिकी, ताम् 'चेपइ' चेतयते करोति 'चेएतं वा साइज्ज' चेतयमानं वा स्वदते । यो हि श्रमणः
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निशीथस्त्रे अशिवादिकारणविशेषमादाय नावादिना पारं गल्ला चत्र सचित्तपृथिव्यां स्थितः सन् तत्रैव सचित्तभूमौ स्थानादिकं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ॥ सू० १॥
सूत्रम्-एवं जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए०॥सू०२॥जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए० ॥ सू०३॥ जे भिक्खू मट्टियाकडाए पुढवीए०॥ सू०४॥ जे भिक्खू चित्तमंताए पुढवीए० ॥ सू. ५॥ जे भिक्खू चित्तामंताए सिलाए ॥ सू०६॥ जे भिक्खू चित्तमंताए लेलूए ठाणं वा सेज्जं वा मिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७॥
छाया-एवं यो भिक्षुः सस्निग्धायां पृथिव्यामु० ॥ सू०२॥ यो भिक्षुः सरजस्कायां पृथिव्याम् ॥ सू० ३॥ यो भिक्षुः मृत्तिकाकृतायां पृथिव्याम् ॥सू० ४॥ यो भिक्षुः चित्तवत्यां पृथिव्याम् ।। सू०५॥ यो भिक्षुः चित्तवत्यां शिलायाम् ॥ सू०६॥ यो भिक्षुःचित्तवति देलुके स्थाम वा शम्यां वा निषद्यां वा नैषेधिकी वा घेतयते घेतयंमान वा स्वदते ॥ सू० ७॥ __ चूर्णी-'एवं जे भिक्खू' इत्यादि । एवम्-अनेनैव प्रकारेण 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः'ससणिद्धाएशुढ़वीए, सस्निग्धायां सचित्तजलेन ईषझार्दायां पृथिव्याम्० ।। सू० २॥ यो भिक्षुः 'ससरकखाए पुढवीए' सरजस्कायां सचित्तसूक्ष्मरेणुगुण्ठितायां पृथिव्याम् ॥सू० ३॥ यो भिक्षुः 'महियाकुडाए पुढवीए' मृत्तिकाकृतायां-मृत्तिकया कृतायां संपादितायां लिप्तायां वा सचित्तमृत्तिकासंचयेन पुजीभूतायां पृथिव्याम्० ॥ सू० ४ ॥ यो भिक्षुः 'विचमाए पुम्चीए' चित्तक्त्यां वित्त-जीवः तद् विद्यते यस्यां सा चित्तवती सूक्ष्मत्रसजीवयुक्ता तस्यां पृथिव्याम् ॥२० ५॥ मो भिक्षुः 'चित्तमंताए सिलाए' चित्तवत्यां जीक्युक्लायां शिलानां महापाषाणस्खण्डरूपायां, यस्याः सन्धिभागेऽधो वा जीवानां संभवात् तस्यां शिलायाम् ॥सू० ६॥ यो भिक्षुः 'चित्तमंताए लेलुए, चित्तवति लेलुके, लेलुकं नाम मृत्तिकाखण्डं, तस्मिन् 'ठाणं वा' स्थानं कायोत्सर्ग वा उपलक्षगात् त्वग्वर्त्तनादिकमपि, तथा 'सेज्ज वा' शय्यां वा शरीरप्रमाणां शयनं बा, 'निसेज वा निषद्याम् उपवेशनं का 'निसीहियं का' नैधिकी वा स्वाध्यायरूपं क्रियाविशेष वा 'चेएह' चेतयते करोति, 'चेएंतं का साइज्जइ' चेतयमातं कुर्वन्तं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइटिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओस्से सउदए सउत्तिंगपणगदगमट्टिय
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पूर्णिमाम्यावरिः उ० १३ सू० १-८ सस्निग्धादिपृथिव्यादिषु स्थानादिकरणनिषेधः ३०० मक्कडासंताणगंसि ठाणं वा सेज्जं वाणिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ॥
छाया-यो भिक्षुः कोलीवासे वा दाईके जीवप्रतिष्ठिते साण्डे संमाणे सबीजे सेहरिते समोसे सोदके सोत्तिगपनकोदकमृत्तिकामकटसंतानके स्थान वा शम्यां का निषद्यां वा मेषेधिकी वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ।। सू० ८॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कचित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोलावासंसि वा' कोलावासे, तत्र कोलाः घुणा तेषाम् आवासे निवासस्थाने एतादृशे 'दारुए' दारुके काष्ठे यत्र काष्ठविशेबे घुणाः सन्ति तादृशकाष्ठविशेषोपरि आसनादिकं कुरुते इत्यप्रिमेण सम्बन्धः, तथा 'जीवपइट्टिए' जीवप्रतिष्ठिते दारुके काष्ठे-यत्र काष्ठविशेषे द्वीन्द्रियादयो जीवासन्ति तादृशजीवप्रतिष्ठितकाष्ठे 'सअंडे' साण्डे दारुके, तत्र अण्डानि गृहंगोधिकादीनाम् तथा च यत्र काष्ठे गृहगोधिकादीनामण्डानि सन्ति तादृशदारुके तथा 'सपाणे' सप्राणे दारुके, तत्र प्राणा प्राणवान् जीवः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियादिः पीपिलिकादिः तादृशप्राणयुक्ते काष्ठे तादृशप्राणयुक्तपृथिव्याम् वा तथा 'सीए' सबीजे दारुके पृथिव्यां वा, तत्र बीजं शाल्यादीनाम् 'सहरिए' संहरिते-अरितबीजसहित दारुकें पृथिव्यां वां तथा च हरितकायविशिष्टे दारुके पृथिव्या वा 'संओस्से' समोसे 'ओस' इति देशी शब्दों निशाजलवाचकः, तस्मिन्, शीतकाले रात्रौ सक्मः जलबिन्दवी निपतन्ति वृक्षादौ संस्थितमलविन्दूनाम् 'ओस' इति नाम भवति, तथा च ताशऔसविशिष्टे दारुके पृथिव्या बा 'सउँदगे' सौदके दारुके जलसंमिश्रितदारुके दिल्की वा 'सउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कड़ासंताणगंसि' सोत्तिंगपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानके; सत्र उत्तिर्गः-भूमौ वर्तुलविवरकारिणः गर्दभमुखाकृतिकाः कीटविशेषाः, तत्समूहः कीटिकानगररूपः; तस्मिन् तत्संहिते वा स्थाने तथा पनकः पञ्चवर्णः साकुरोऽनङकुरो वा पञ्चवर्णानन्तकामविशेषः, उदकमत्तिका उदकेन सहिता मृत्तिका सकर्दमा सचित्ता मिश्रा का मृत्तिका, यद्वा दक जैल मृत्तिका सचित्तमृत्तिका तत्र, मर्कटसन्तानकं लूनाजालम् , एतेषु वस्तुषु यः श्रमणः प्रमणी वी 'ठाणं वा' स्थानं वा, तत्रा स्थानमूर्ध्वस्थानम् 'सेज्ज वा' शय्यां वा 'णिसेज्ज वा निषधां वा 'णिसीहियं वा' नैपेधिकी वा 'चेएइ' चेतयते करोति तथा 'चेएतं वा साइजइ'
चेतयमानं वा कोलावासादिषु स्थामादिकं कुर्वन्तं श्रमणानन्तरं स्वदते अमुमोदते स प्रायश्चित्तभोगी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-पुढबीमाइठाणं तु, जत्तियमेचमुदाहियं ।
तत्थ ठाणाइयं कुज्जा, आणाभंगाइ पावई ॥
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निशीथसूत्रे
छाया--पृथिव्यादिस्थानं तु यावन्मात्रमुदाहृतम् ।
तत्र स्थानादिकं कुर्यात् आवाभङ्गादि प्रानोति ।। अवचूरिः-प्रथमसूत्रादारभ्याष्टमसूत्रपर्यन्तसूत्रेषु यत् यत् पृथिव्यादिकस्थानमधिकरणत्वेन उदाहृतम् कथितम् सचित्तपृथिवीत आरभ्य मर्कटसन्तानकान्तस्थानं सूत्रे यावन्मात्रं यावत्प्रमाणकं कथितम् तेषु सचित्तपृथिव्यादिस्थानेषु स्थानादिकं स्थानशय्यानिषद्यास्वाध्यायादिकं यः कुर्यात् स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनालक्षणान् दोषान् प्राप्नुयात् लभते ।।
अथ पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां संघट्टनादिकरणे यादृशी वेदना भवति तां वेदनां दृष्टान्तद्वारेण दर्शयति तथाहि-यथा कश्चित् स्वभावतो दुर्वलो जराजीणों रोगेणापि आक्रान्तो भवेत् , स च वृद्धो बलवता तरुणेन त्रिंशद्वर्षायुष्केन युगलपाणिना सर्ववलेनाकान्तो भवेत् तदनन्तरं तस्य वृद्धस्य तरुणेनाक्रान्तस्य यादृशी वेदना भवति पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवानामुपरि स्थानादिकरणेन ततोऽप्यधिकतरा अनन्तगुणा वेदना भवति, परन्तु अव्यक्तत्वात् चर्मचक्षुषा ज्ञातुं न शक्यते, यानि च जीवस्य चिह्नानि तानि पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवेषु न व्यक्तानि यथा गाढनिद्रानिद्रितपुरुषे मूच्छिते वा सुखदुःखचिहानि अव्यक्तानि, एवं पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवेष्वपि चैतन्यं चैतन्यचिह्न चातीवाव्यक्तम् तेनायं जीव इति न सकलसाधारणपुरुषेण ज्ञातं भवति, परं केवलं केवलज्ञानिना एव दृश्यते, तदुपदेशात् श्रद्धालुः परोपि जानाति, अश्रद्धालवो वस्तुतत्त्वं न जानन्ति । तेषामेव ज्ञानाय पृथिव्यायेकेन्द्रियाणामुपयोगसाधकं दृष्टान्तं दर्शयामि, तद्यथा-रूक्षे भोजने अतिशयितः सूक्ष्मः स्नेहगुणो विद्यते यतः तादृशभोजनकरणेनापि शरीरस्योपचयो भवति परन्तु अव्यक्तत्वात् सत्त्वस्नेहगुणो न लक्ष्यते, एवं पृथिव्यामपि विद्यते सूक्ष्मः स्नेहः परन्तु अतिसूक्ष्मत्वात् न दृश्यते यतः पृथिव्यादिषु स तनूस्थितोऽल्पः तेन तेषां प्रबलस्नेहकार्ये हस्तादिशरीराणां चालनादिकं कर्तुमशक्यं भवति । एकेन्द्रियजीवानां क्रोधादिकाः परिणामा अपि भवन्ति साकारोऽनाकारश्चोपयोगः, तथा सातादिका वेदनाः, एते सर्वेऽपि भावाः सूक्ष्मत्वात् अनतिशयस्यानुपलक्षिता भवन्ति यथा संज्ञिनां पर्याप्तानां क्रोधादयः परिणामा भवन्ति, तेन च परिणामेन संज्ञिनो जीवा आक्रोशादिकं कुर्वन्ति त्रिवलीचालनादिकं च कुर्वन्ति परन्तु संज्ञिजीववत् एकेन्द्रियाः प्राबल्येन तादृशकार्यकरणं प्रति समर्था न भवन्ति, एतावानेव भेदः संज्ञिजीवेभ्य एकेन्द्रियजीवानाम्, किन्तु
चेतनायोगात् सर्वमेव भवति पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवानामपि, किं बहुना यथा वयमनुभवं कुर्मः तथैव पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवा अपि कुर्वन्ति तेपि सुखकारणे समुपस्थिते सुखिनो भवन्ति दुःखकारणे. माते दुःखमप्यनुभवन्ति, क्रोधादिकम् आक्रोशादिकमपि कुर्वन्ति, किन्तु यथा उदुम्बरपुष्पमन
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ १३ सू० ९-११ दुर्बद्धादिविशिष्टस्थूणादिषु स्थानादिकरणनि० ३०९ भिव्यक्तं न सर्वेषां दृष्टिपथमाविर्भवति तथैव अनभिव्यक्तत्वात् एकेन्द्रियाणां क्रोधादिकं नाविर्भवति, किन्तु पृथिव्यादिषु वर्तन्ते एवैकेन्द्रियजीवाः, तदुक्तम्
क्रोधादिकपरिणामाः एकेन्द्रियादिजन्तुनाम् । प्राबल्यं तेषु कार्येषु अव्यक्तत्वात् न भवन्ति हि ॥१॥
यस्मात् कारणात् पृथिव्यादिका एकेन्द्रियजीवा अपि एवंविधवेदनादिकमनुभवन्ति तस्मात् कारणात् पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवोपरि कायोत्सर्ग शयनीयमासनं स्वाध्यायादिसंपादनं च कथमपि सर्वविरतः श्रमणः श्रमणी वा स्वयं न कुर्यात् न वा परानपि तदुपरि स्थानादिकं कारयेत् , न पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवानामुपरिस्थानादिवं कुर्वन्तमनुमोदेत किन्तु शास्त्रमर्यादामाश्रित्याचित्तभूम्यादादेव स्थानादिकं कुर्यात् कुर्वन्तमनुमोदेत ॥सू०८।।
सूत्रम्-जे भिक्खू थूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा दुबद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा णिसाहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः स्थूणायां वा गृहेलुके वा उसुकाले (उदूखले) वा कामजले वा (स्नानपीठे वा) दुर्बद्ध दुनिक्षिप्ते अनिष्कंपे चलायले स्थान वा शय्यां वा निषद्यों पा नैवेधिकों वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते । सू० ९॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'थूणसि वा' स्थूणायां वा, तत्र स्थूणा नाम स्तंभः तस्यां स्थूणायां स्तम्भे 'गिहेलुयसि वा' गृहैलके वा देहल्यामित्यर्थः, 'उसुयालंसि वा' उसुकाले वा, तत्र उसुकालो नाम उदूखलम् 'ऊखल' इति लोकप्रसिद्धम् तस्मिन् 'कामजलंसि वा' कामजले वा, तत्र कामजलं नाम स्नानपीठादिकं यस्योपरि उपविश्य स्नानं करोति तादृशं साधनविशेषलक्षणं कामजलमिति तस्मिन् कामजले । कथंभूते स्थूणादौ ! इति स्थूणादिविशेषणान्याह-'दुब्बद्धे' इत्यादि । 'दुब्बद्धे' दुर्वद्धे तत्र बन्धनं द्विविधम्-रज्जुबन्धनं, काष्ठादिषु वेधबन्धनं वा तत् बन्धनं सम्यक् न कृतं तत् दुर्वद्धं शिथिलबन्धनमित्यर्थः तस्मिन् 'दुण्णिक्खित्ते' दुनिक्षिप्ते तत्र दुर्निक्षिप्तं, दुर्-असम्यक् निक्षिप्तं निहितं तत्, न सम्यक् स्थापितमिति दुर्निक्षिप्तम् तस्मिन् दुर्निक्षिप्ते स्थूणादौ 'अणिक्कंपे' अनिष्कंपे, तत्र निष्कम्पः-कम्पनवर्जितः, न निष्कम्पः अनिष्कम्पः, तस्मिन् कम्पनविशिष्टे, यत एवम् अत एव 'चलाचले' चलाचले अस्थिरे इत्यर्थः, एतादृशस्थूणादिषु स्थूणाघषरि यः श्रमणः श्रमणी वा 'ठाणं वा' स्थानं वा 'सेज्जं वा' शय्यां वा 'णिसेज्जं वा' निषद्यां वा 'निसीहियं वा' नैषेधिकीं
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निशीथसूत्रे
वा स्वाध्यायादिकरणम् 'ए' चेतयते 'चेएतं वा साइज्जर' चेतयमानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९॥
सूत्रम् — जे भिक्खू कुलियंसि वा भर्त्तिसि वा सिलसि वा लेलुंसि वा अंत लिक्खजायंसि वा दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ वा चेतं वा साइज्जइ १०
छाया -यो भिक्षुः कुडये वा भित्तौ वा शिलायां वा लेलुके वा अन्तरिक्षजाते वा दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अनिष्कम्पे चलाचले स्थनं वा शय्यां वा निषद्यां वा नैषेधिकों वा चेतयते चेतयमानं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वां 'कुलियंसि वा' कुड्ये वा तृणभित्तिरूपकुड्ये वा 'भित्तिसि वा' भित्तौ वा पाषाणमृत्तिका - निर्मितभित्तौ गिरिनदीतटरूपायां वा 'सिलेसि वा' शिलायां वा धान्यादिपेषण बृहत्पाषाणखण्डे वा 'लेलुंसि वा' लेके वा लोप्टे बृहन्मृत्पिण्डे 'अंत लिक्खजायंसि वा' अन्तरिक्षजाते वा - आकाशभागनिर्मितमञ्चकार्दो वा, कंथम्भूतें कुड्यादिके ? तत्राह - 'दुब्बद्धे' इत्यादि । 'दुब्बद्धे' दुर्बद्धे सम्यग् रूपेण बन्धनरहिते कुडचादौ 'दुष्णक्खिते' दुर्निक्षिप्ते असम्यगुरूपेण स्थापिते 'अणिकर्कपे' अनिष्कंपे- कम्पनादिधर्मविशिष्टे मत एव 'चलाचले' चलाचले अस्थिरे कुंडयादौ यः श्रमणः श्रमणी वा 'ठाणं वा' स्थानं वा 'सेज्जं वा' शय्यां वा 'निसेज्जं वा' विषय वा 'णिसीहिय वा' किया 'चेer' चेलयति 'चेएतं वा साइज्जइ' 'वेतयमानं वा स्वदते स प्रायश्चितभागी भवति ॥ सू०१० ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू खधसि वा फलिहंसि वा मंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मतलंसि वा दुब्बद्धे दुष्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले अणं वा सेज्जं वा णिसेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ चेतं का साइजइ । सू० १९ ॥
छाया - यो भिक्षुः स्कन्धे वा परिघे वा मञ्चे वा मण्डपे वा माले वा प्रासादे वातले वा दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अनिष्कम्पे चलाचले स्थानं वा शय्यां वा निषेध arun at aतयते चेतयमानं वा स्वदते ॥ सु. ११ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'aria वा' स्कन्धे वा तत्र स्कन्धो नाम एकभूमप्रासादविशेषः, अथवा स्कन्धो नाम गृहम्
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मायावधिः उ० १३ सू० १२ अन्यतीथिकादीनां शिल्पादिकलाशिक्षणनिषेधः ।। इष्टिकादारसंघातो वा तस्मिन् ‘फलिहंसि वा' परिधे का, बत्र परिधो नाम अर्गकाकारो छकाष्ठविशेषः, तस्मिन् 'मंचंसि वा' मञ्चे वा काष्ठस्तम्भोपरि निर्मिते खड्वाकारे मच्चे 'मासि वा मण्डपे वा, तत्र मण्डपः-काष्ठनिर्मितं निर्मित्तिकं स्थानं तस्मिन् 'मासंसिया' माळे का, तत्र मालं गृहोपरि द्विभूमिकादि तस्मिन् । 'पासायंसि वा' प्रासादे वा-प्रासादः-जीर्णशमगृहं तस्मिन् 'हम्मतलंसिवा' हर्म्यतळे वा, हयं जीर्णधनिकजननिवासस्थानम्, तस्मिन् , कीडशे ! इत्याह'दुब्बद्धे' दुर्बद्धे शिथिलबन्धनयुक्ते 'दुण्णिविखत्ते' दुनिक्षिप्ते- सम्यगनवस्थापिते 'अणिक्कमें भनिष्कम्पे-कम्पनादिविशिष्टे अत एव चलाचळे अस्थिरे, एताहशस्कन्धादौ यो भिक्षुः ‘ाणं का स्थानं वा कायोत्सर्ग वा 'सेन्जं वा' शय्यां वा शयनीयम् 'णिसेज्जं वा' निषधामास वा 'णिसीहियं वा' नैषेधिकी वा स्वाध्यायादिकरणम् 'चेएई' चेलयते 'चेएतं वा साहल्या चेतयमानं स्कन्धादिषु अस्थिरादिषु स्थानादिकं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं-अः श्रमणः श्रमणी वा स्वदो अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
भत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-थूणा-कुलिय-क्खंधा,-इयं खुजं आहियं च मुत्तेसु ।
तेसुं ठाणाइकरणा, लम्भेज्जा आणभंगाई ॥ छाया ---स्थूणा-कुडय-स्कन्धादिकं खु यत् आफ्यातं च सूत्रेषु ।
तेषु स्थानादिकरणात् लमेतावाभङ्गादिकम् ॥ अवचूरिः-सूत्रेषु-नवमदशमैकादशेषु स्थूणाकुड्यस्कन्धादिकं यत् यावन्मात्रमाख्यातं कथितं तेषु स्थूणादिषु स्थानेषु स्थानादिकरणात् कायोत्सर्ग-शय्या-निषद्यादि-संपादनात् श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनालक्षणान् दोषान् उमेत प्राप्नुयात् ॥ सू. ११॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोग वा अट्ठावयं वा कक्कडगं वा वुग्गहं वा सलाह वा सलाहकहत्थयं वा सिक्खावेइ सिक्खावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुरम्पयूथिकं पा गाईस्थिकं बाशि का लोकं वा अष्टापदं वा कर्कटकं वा युद्रह वा ग्लाघं वा ग्लाघकथास्तवं वा शिक्षपति शिक्षामन्तं का स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा अण्णउत्थियं वा' भन्यवृथिकं का परदर्शनानुयायिनं सापसादिकम् 'यारस्थिय मा गाहस्विक
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३१२
निशीथसूत्रे वा-गृहस्थं श्रावकमश्रावकं वा 'सिप्पं वा' शिल्पं वा-शिल्पकला वस्त्रादिसंपादनकलामित्यर्थः 'सिलोगं वा' श्लोकं वा-संस्कृतप्राकृतपद्यात्मकं वा काव्यनाटकादिकम् 'अट्ठावयं वा' अष्टापदं वा-अष्टापदमिति धूतफलकं पट्टिकारूपम् , यस्योपरि चूतं क्रीडयते, उपचारात्तद्विषयककलां वा, अथवा अष्टापदमिति 'पासा' इति प्रसिद्धम् , तद्विषयां कलाम् , यथा-वयं नो जानीमः, इदं पासकं सुभिक्षदर्भिक्षादिकं कथयतीत्येवंरूपां कलां वा, 'कक्कडगं वा' कर्कटकं वा कर्कटकमिति कचवरं सर्ववस्तुसंमिश्रणं, कर्कटमिव कर्कटकं सर्वभावैक्यं, सर्ववस्तुभावैक्यमित्यर्थः, एवं कथने उभयथाऽपि दोषापत्तिरापतेदिति । अथवा-कर्कटकं निमित्तशास्त्रसामुदिकशास्त्रज्योतिर्विद्यादिसंमिश्रणरूपं वा, 'बुग्गई वा व्युद्ग्रहम्-राजादियुद्धजनितजयपराजयज्ञानरूपां कलाम् 'सलाहं वा' ग्लाघां वा-अन्यगुणवर्णनरूपां काव्यकलां वा, 'सलाहकहत्थयं वा श्लाघकथास्तवं वा-लाघात्मिका कथां स्तवं वा, अथवा अपूर्वाभिनवानेककाव्यवर्णनकलां वा यः श्रमणः श्रमणी वा तापसादिकं श्रावकमश्रावकं वा 'सिक्खावेइ' शिक्षयति-तद्विषयां शिक्षा ददाति तथा-'सिक्खावेंतं वा साइज्जई' शिक्षयन्तं शिल्पकलादीनां शिक्षणं ददतं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
भत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-सिप्पसिलोगाइकलं, सिक्खावइ अन्नउत्थियं गिहिणं ।
सो पावइ पच्छित्त, आणाभंगाइरुवं च ॥ छाया-शिल्पश्लोकादिकलां शिक्षयति अन्यतीर्थिकं गृहिणम् ।
__ स प्राप्नोति प्रायश्चित्तं आशाभङ्गादिरूपं च ॥
अवचूरि:-प्रकृतसूत्रे शिल्पश्लोकादिकलाम् , आदिपदेन शेषाः एतद्भिन्नाः या अन्याः कलाः अष्टापदादिरूपाः, ताः सर्वा अपि सूचिताः भवन्ति, एताः कलाः शिल्पादिकाः कदाचिदपि श्रमणः तापसादिकं गृहस्थादिकं वा न शिक्षयेत् , यस्तु श्रमणः मोहात्कारणान्तराद् वा अन्यतीर्थिकानां तापसादीनां गृहस्थानां श्रावकाणामन्येषां वा पूर्वोक्तकलां शिक्षयति एतत्कलाशिक्षको भवति स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिदोषरूपं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यर्थः ॥ सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगादफरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १५॥
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धूर्णिभाष्यावरिः उ०१३ सू० १३-१६ जन्यतोधिकादीनामागााढाविषचनात्याशातनानि० ३१३ जे भिखू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१६॥
छाया-यो भिक्षुरन्यतीथिकं वा गाईस्थिकं वा आगाढं वदति धदन्तं वा स्वदते ॥सू० १३॥ यो भिक्षुरन्यतीथिकं वा गाईस्थिकं वा परुष वदति घदन्तं वा स्वदते ॥१४॥ यो भिक्षुरन्यतीथिकं वा गार्हस्थिकं वा आगाढपरुष वदति वदन्तं वा स्वदते ।। सू० १५॥ यो भिक्षुरन्यतीथिकं वा गाईस्थिकंवा अन्यतरया अत्याशातनया अत्याशातयति भत्याशातयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६॥
चूर्णी-जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियं वा' अन्ययूथिकं वा तापसादिकं 'गारत्थियं वा' गार्हस्थिकं गृहस्थं वा 'आगाई आगाढम्-आगाढवचनं कोपयुक्तवचनमित्यर्थः 'वयई' वदति-कथयति 'वयंतं वा साइज्जई' बदन्तमागाढवचनमन्यतीथिंक गृहस्थं प्रति वा वदन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषाश्चापि भवन्ति ॥ सू० १३॥ एवं 'फरुसं' परुषं कठोरवचनं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४।। तथा 'आगाढफरुसं' आगाढपरुषंकोपयुक्तकठोरवचनं वदति वदन्तं वा स्वदते सः ॥ सू० १५॥ एवम्- अन्यतीर्थिक गृहस्थं वा 'अण्णयरीए-अच्चासायणाए' भन्यतरया, अन्यतीथिकाशातना-अन्यतीथिकं प्रति 'संसारस्वरूपं ज्ञात्वापि त्वं जिनोक्तं धर्म नाचरसि, सावधक्रियामवलम्बसेऽतस्त्वां धिक्' इत्येवं कथनरूपा । गृहस्थाशातना-गृहस्थं प्रति 'त्वं गृहस्थः सन् द्वादश व्रतानि नाचरसे, रात्रिभोजनसंरम्भसमारम्भादिकार्य कुरुषेऽतस्त्वां धिक्' इत्येवं कथनरूपा, इत्यादिस्वरूपया एकया कयाचिदाशातनयाऽपि 'अच्चासाएई' अत्याशातयति-अन्यतीर्थिकस्य गृहस्थस्य वा आशातनां करोति 'अच्चासाएंत' अत्याशातयन्तं वा आशातनां कुर्वन्तं वा 'साइज्जई' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१६॥
एतदागाढादिकं कस्मिन् विषये किमर्थं वा नो वदेत् ! इत्यत्राह भाष्यकार:-'जाइकुल' इत्यादि। भाष्यम्--जाइ-कुल-रुव-भासा, गण-बल-परियाग-जस-तवो-लाभा ।
सत्त-वय-बुद्धि-धारण,-उग्गह-सीलं-समायारो ॥१॥ एएस विसएसु य, गारत्थिय अनउत्थियं वावि । आगाढं फरुसं नो, वएज्ज आसायए नो वा ॥२॥ एएहिं वयणेहि, साह कुप्पेज किं पुणो अन्नो। एवं मम्मे वयणे, दोसा मरणाइया बहवो ॥३॥
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निशीथसूत्र
छाया-जाति-कुल-रूप-भाषा-धन-बल-पर्याय-यश-स्तपो-लाभाः ।
११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ सत्त्व-चयो-बुद्धि-धारणा-ऽवग्रह-शोलं समाचारः ॥१॥ एतेषु विषयेषु च, गार्हस्थिक अन्यतीर्थिकं वाऽपि । आगाढं परुषं नो वदेत् आशातयेत् नो वा ॥२॥ एतैर्वचनैः साधुः कुप्येत् किं पुनग्न्यः ।। एवं मर्मणि वचने, दोषा मरणादिका बहवः ॥३॥
अवचूरिः--जाति-कुलेति गाथात्रयम् । अत्र जात्यादयः सन्नदश प्रोक्ताः, तेऽर्थतः सुगमाः ॥१॥ द्वितीयगाथामाह-'एएस' इत्यादि, 'एएम' एतेषु पूर्वोक्तेषु जात्यादिषु बिषयेषु गृहस्थमन्यतीर्थिकं वा आगाढं, परुषम्, आगाढपरुषं च नो वदेत्, तथा नो वा गृहत्थमन्यतीर्थिकं वा 'आसायए' आशातयेत्, न तयोः काञ्चिदप्याशातनां कुर्यात् ॥२॥ एवं करणे किं स्यात् ! इत्याह'एएहि' इत्यादि, 'एएहि वयणेहिं' एतैः पूर्वोक्तैरागाढादिरूपैर्वचनैः 'साहू' साधुः क्रोधनिग्रहपरो मुनिरपि 'कुप्पेज्ज' कुप्येत्-कोपाविष्टो भवेत् तहिं 'किं पुणो अन्नो' किं पुनरन्यः नो कुप्येत् ? इति काकुपाठः, एतादृशवचनैः साधोरपि कोपः स्यात् अन्यस्य तु का कथा इति भावः । अत्र के दोषाः इति तान् दर्शयति-एवं' इत्यादि 'एवं' एवम् एतादृशे मर्मणि वचने मर्मवेधके वचने कथिते सति अत्र मरणादिका बहवो दोषा भवन्ति । मर्मोद्घाटनसन्तापतप्ताः केचित् म्रियेरन् , साधुं वा आन्तरलग्नवैरभावेन दोषारोपं कृत्वा राजद्वारे नयेयुः, इत्यादि बहुदोषसंभवात् साधुरागाढादिकं वचनं न वदेत् , नो वा वदन्तं स्वदेत, नो वा अत्याशातनया तान् अस्याशातयेत् परकृतामत्याशातनां नानुमोदयेत् । एवं करणे साधुराज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवतीति ॥३।। जात्यादिषु आगाढा. दिवचनप्रकारः प्रदश्यते
अहं जातिमान् तथा कुलवान् त्वं तु नीचो जारजातो वेत्यादि १-२। अहं रूपवान् वं तु कुरूपः ३। अहं मधुरभाषी त्वं नैतादृशः ४ । अहं धनी सन् दीक्षितः, त्वं तु निर्धनः ५ । महं बलवान् , त्वं निर्बलः ६ । अहं पर्यायज्येष्टोऽस्मि बहु जानामि त्वं नैतादृशः ७। अहं यशस्वी त्वं लोकनिन्धोऽसि ८ । अहं तपस्वी त्वं नैतादृशः, ९। मम बहुलाभो भवति त्वं न किमपि लभसे १० । अहं सत्त्ववान् आन्तरबली त्वं कातरः ११ । अहं वयोवान् त्वमचिरजातो बालः १२। अहं बुद्धिमान् त्वं निद्धिकः १३ । मम धारणाशक्तिस्तीवा वर्तते त्वं तु विस्मरणशीलः १४ । अहमवप्रहे गुर्वादिज्येष्ठाज्ञायां वर्ते, त्वमुद्धतः १५॥ अहं शीलवान् त्वं नैतादशः १६। समाचार इति महं साधुसामाचार्या वर्ते त्वं स्वकीयमर्यादामपि न पालयसि १७ । इत्यादि । सू० १३-१६ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ १३ सू०१७-१३ अन्यस्थानां कौतुकक मैकरणादिनिषेधः ३१५
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा कोउगकम्म करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ सू० १७॥ जे भिक्खु अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा भूइकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २० ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारथियाण वा पसिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥ जे भिक्खू अण्णउत्यियाण का गारत्थियाण वा पसिणापसिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा तीयं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥सू०२३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पड्डप्पण्णं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४ ॥ जे भिखू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा आगमिस्सं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ । सू० २५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण गारत्थियाण वा लक्षणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारथियाण वा वंजणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा सुमिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। सू०२८॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा विज्जं पउंजइ पउंज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा मंतं पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३०॥ जे भिवखू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा जोगं पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ॥ सू०३१॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा कौतुककर्म करोति कुर्वन्तं पा स्वदते ॥ सू० १७॥ यो भिक्षुःअन्ययुथिकानां वा गृहस्थानां वा भूतिकर्म करोति, कुर्वन्तं घा स्वदते ॥सू० १८॥ थो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नं करोति कुर्वन्तं
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३१६
निशीथसूत्रे
बा स्वदते || सू० १९ ॥ यो भिक्षुः अन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नाप्रश्नं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २०॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २१ ॥ यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रश्नाप्रदन . कथयति कथयन्तं वा स्वदते || सू० २२|| यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां घा अतीतं निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते सू० २३ ।। यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा प्रत्युत्पन्नं निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४|| यो भिक्षुरन्ययूथिकानां
गृहस्थानां वा आगमिष्यत् निमित्तं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ।। सू० २५ ॥ यो भिक्षु न्यूथिकानां वा गृहस्थानां वा लक्षणं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥सू० २६ । यो मिक्षुरम्यूथिकानां वा गृहस्थानां वा व्यज्जनं कथयति कथयन्तं वा स्वदते || सु०२७|| यो भिक्षुरन्ययूथिकान वा गृहस्थानां वा स्वप्नं कथयति कथयन्तं वा स्वदते ॥सू० २८|| यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा विद्यां प्रयुक्ते प्रयुञ्जानं वा खदते ॥ सू० २९|| यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा मन्त्रं प्रयुक्ते प्रयुज्जानं वा स्वदते ॥सू० ३०|| यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गृहस्थानां वा योगं प्रयुङ्क्ते प्रयुआनं वा स्वदते || सू० ३१||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानां वा 'गारत्थियाण वा' गृहस्थानां वा 'कोउगकम्मं करेइ ' कौतुककर्म करोति, तत्र कौतुकं - दृष्ट्यादिदोषनिवारणार्थं स्नानादिकमौषधादिकं वा करोति, तथा च यः श्रमणः परतीर्थिकानां कौतुककर्म करोति अर्थात् श्मशानचत्वरादिषु स्नानं कारयति अथवा कोsपि तापसादिकः गृहस्थो वा ज्वरशूलादिरोगेण ग्लानो जातः तस्य ज्वरादि रोगशान्त्यर्थं सचित्तमचित्तं वा औषधादिकमानीय ददाति येन तस्य रोगः सब एब शान्तो भवति स नीरोगतां लभते तदेतत् श्मशानादिस्नानमौषघादिदानं च कौतुककर्म कथ्यते । अथवा कुतुकस्य भावः कौतुकं कुतूहलता गृहस्थादीनां मनोरञ्जनाय क्रियमाणं कर्म कौतुककर्म तथा 'करेंतं वा साइज ' कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० १७॥ एवम् 'भूइकम्मं करेइ' भूतिकर्म - शरीरादिरक्षार्थं भस्म पोट्टलिकाभिमन्त्रणरूपं करोति || सू० १८ || 'पसिणं करे' प्रश्नं करोति - अन्यतीर्थिकादिनिमित्तं दर्पणादौ देवाद्याह्नानं कृस्वा शुभाशुभफलप्रच्छनरूपं करोति ।। सू० १९ ॥ 'पसिणापसिणं करेइ' प्रश्नप्रश्नं करोति -विद्यामन्त्रिताघण्टायाः कर्णमूले वादनेन तत्र देवताऽवतीर्य पृष्टस्य प्रश्नस्य विषये सा पुनरपि प्रश्नं करोति यत्तव पूर्वमेवमासीत् न वा?' इति एकस्मिन् प्रश्ने द्वितीयप्रश्नकरणम् एवं प्रश्ने प्रश्नकरणरूपं प्रश्नप्रश्नमन्यतीर्थिकगृहस्थनिमित्तं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २०|| 'पसिणं कहे ' प्रश्नं कथयति अन्यतीर्थिकगृहस्थेम्यः दर्पणाद्यवतीर्णदेवता कथित शुभाशुभफलरूपमुत्तरं कथयत. ।। सू० २१ । एवम् 'पसिणापसिणं कहेइ' प्रश्न प्रश्नं कथयति प्रश्नों परिप्रश्नस्योत्तरं कथयति ॥२२॥ 'तीयं निमित्तं कहेइ' अतीतं निमित्तं कथयति अन्यतीर्थिक गृहस्थेभ्य: 'तवातीतकाले
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पूर्णिभाष्यावद्भिः उ० १३ सू० १७-३१ अन्यतीर्थिकगृहस्थानां कौतुककर्मादिकरणनि० ३१७ एतादृशं शुभमशुभं वा जातम्, अमुकप्रकारको लाभस्त्वया लब्धः, एतादृशं सुखं दुःखं वा प्राप्तम्', इत्यादिरूपं निमित्तं कथयति ॥ सू० २३॥ एवमेव 'पडप्पन्न निमित्तं' प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालिक निमित्तं कथयति ॥ सू० २४॥ एवं 'आगमिस्सं निमित्तं कहेई' गमिष्यत्कालिकं भविष्यकालिकं यत् 'तवाने एतादृशं शुभमशुभं वा भविष्यती'त्यादिरूपं निमित्तं कथयति ॥ सू. २५॥ एवं 'लक्खणं कहेई' लक्षणं कथयति, तत्र लक्षणं द्विविधम् - बाह्यमाभ्यन्तरं च, तत्र बाह्य-हस्वदीर्घशरीरावयवरेखादिकम्, आभ्यन्तरं-स्वभावसत्वादिकम् । बाह्यलक्षणं-हस्तपादादिशरीरावयवसंभवं द्वात्रिंशत्प्रमाणकं भवति यथा 'अयं द्वात्रिंशल्लक्षणः पुरुषः' इति, एतद्भिन्नान्यान्यपि लक्षणानि भवन्ति, यथा 'बलदेववासुदेवशरीरेऽष्टोत्तरशतम् , चक्रवर्तितीर्थकरशरीरेऽष्टोत्तरं सहनं लक्षणानां भवति तन्मध्यात्तव शरीरे इयन्ति लक्षणानि विषन्तेऽतस्त्वं महापुरुषो भविष्यसी'त्यादि, तथा 'तव शरीरे कानिचिदशुभलक्षणानि सन्तीत्यतोऽग्रे त्वं दुःखी भविष्यसी'त्यादि च लक्षणं कथयति ॥२६॥ एवं 'वजणं कहेई' व्यञ्जनं कथयति, तत्र-व्यञ्जन-मशतिलादिकं कथयति-तद्विषयकं शुभाशुभफलं प्रतिपादयति ॥ सू० २७॥ 'मुमिणं कहेइ' स्वप्नं कथयति-स्वप्नफलं प्रतिपादयति, तत्र स्वप्नो द्विविधः-मनोविषयो ज्ञानविषयश्च, तं स्वप्नं प्रायः सुप्तजागरावस्थः पश्यति, सच स्वप्नो भविष्यकालिकसुखदुःखयोनिमित्तं भवति यथा मनुष्याणां मरणकाले पूर्वमेवारिष्टदर्शनं भवति तच्च सुखदुःखनिमित्तं जायते, तदरिष्टं त्रिविधं कायिकं वाचिकं मानसं च, तत्र कायिक रोगपीडावणाघनेकप्रकारकम् १, वाचिकं सहसावाक्प्रतिबन्धादिकमनेकविधम् २, मानसिकमप्यरिष्टमार्थिककौटुम्बिकमनोमालिन्यादिविविधप्रकारकम् ३। स्वप्नदर्शनं पच्चप्रकारकं भवति याथातथ्य-प्रतत-चिन्ता-विपरीता-व्यक्तमेदात्, तत्र सर्वपापविरताः साधवः संघृताः याथातथ्यस्वप्नदर्शकाः, इतरे गृहस्थादयः पार्श्वस्थादयश्च याथातथ्यं प्रति भजनीयाः, एषां स्वप्नं याथातथ्यं तद्विपरीतं वा भवेत् । यत् स्वप्नदर्शनं यथैव दृष्टं तथैव भवति तत् याथातथ्यं स्वप्नदर्शनम् १, प्रततस्तु स्वप्नसंतानः श्रृंखलावत् २, जागरितावस्थायां यत् चिन्तितं तदेव रात्रौ पश्यति तत् चिंतानामकं स्वप्नदर्शनम्३, विपरीतं विपरोतफलदायकं स्वप्नदर्शनं तु तत् यत् शुचिसुगन्ध्यादिके मेध्ये स्वप्ने दृष्टे फलममेध्यं भवति, अमेध्ये स्वप्ने दृष्टे तत् फलं मेध्यं भवति, यथा दृष्टं तद्विपरीतं फलं यत्र भवति तद् विपरीतं स्वप्नदर्शनं चतुर्थम् ४, स्वप्नदशायां यत् दृष्टं प्रतिबुद्धोऽयं स्फुटरूपेण न संस्मरति, संस्मरन् वा यस्याथै सम्यग् नावगच्छति तदव्यक्तनामकं स्वप्नदर्शनं पञ्चमम् ५। पञ्चप्रकारकोऽपि स्वप्नः पञ्चेन्द्रियविषयो भवति, सर्वेऽपि स्वप्नाः प्रायः इन्द्रियविषये एव भवन्तीति। अयं भावः-दृष्टस्य श्रुतस्य तदतिरिक्तस्य वा वस्तुनो वासनावशात् सुप्तावस्थानं मानसज्ञानं स्वप्नदर्शनम्, तत् त्रिविधं-धातुविकारजनितम् १, वासनाजनितम् २, अदृष्टजनितं ३ च। तत्रादृष्टजनितं स्वप्नदर्शनं सर्वथैव शुभाशुभं फलं ददात्येव, एतदतिरिकं तु फलं ददाति न वा ददातीति ।
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३२०
निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा निहिं पवेएइ पवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४ ॥
छाया - यो भिक्षुरन्ययूथिकानां वा गार्हस्थिकानां वा निधि प्रवेदयति प्रवेदयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियाण वा' अन्ययूथिकानां वा 'गारत्थियाण वा' गार्हस्थिकानां गृहस्थानां वा 'निहि पवेइ' निधिम् प्रवेदयति, तत्र निधानं निधिः निहितं स्थापितं द्रविणजातमित्यर्थः प्रवेदयति, मन्त्रादिना ज्ञात्वा भूमिनिहितं द्रव्यं कथयति प्रकाशयतीति तथा 'पवेतं वा साइज्जइ' प्रवेदयन्तं कथयन्तं श्रमणान्तरं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्तीति ।
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अत्राह भाष्यकार ः—
भाष्यम् -- घाउं सुवण्णजणयं, निहिं वा पवेयए य जे भिक्खू । गिरिणष्ण तित्थियाणं सो पावर आणभंगाई ||
छाया - धातु सुवर्णजनकं निधि वा प्रवेदयेत् यो भिक्षुः ।
गृहिणामन्यतीथिकानां स प्राप्नोति आशाभङ्गादिम् ॥
अवचूरिः - यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा धातुं यस्मिन् धम्यमाने सुवर्णादिकं पतति स धातुविशेषः, तं पूर्वसूत्रोक्तं त्रिविधमपि, तथा निधिं वा, तत्र निधानं निधिः निहितं स्थापितं द्रविणजातं गृहिणां गृहस्थानामन्यतीर्थिकानां तापसादीनां प्रवेदयेत् कथयेत् स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति, तत्र धातुखिप्रकारको भवति पाषाणरसमृत्तिकाभेदात्, तत्र यत्र पाषाणे धम्यमाने सुवर्णादिकं पतति स पाषाणघातुः १, येन धातुजलेनासितं ताम्रादिकं सुवर्णा. दिकं भवति स रसधातुरिति कथ्यते २ या तु मृत्तिका योगयुक्ता ध्मायमाना वा सुवर्णादि भवति स मृत्तिकाधातुः ३ । तं धातुं, तथा निधिः स्थापितद्रव्यजातं स निधिः मनुष्यदेवतैः अधिष्ठितोऽनधिष्ठितो वा भवति, तथा निधिर्जले वा भवति, स्थळे वा भवति, तत्र यो निधिः स्थले भवति स द्विविधः निक्षिप्तो वा अनिक्षिप्तो वा, सर्वोप्ययं निधिः स्वरूपतो द्विप्रकारको भवति कृतरूपोऽकृतरूपश्च । धातुनिधिकथने इमे दोषाः - धातूनामग्निना घमने षड्जीवनिकायविराधना भवति । निधिदर्शने तस्य देवाधिष्ठितत्वेनानेके विघ्नाः समुद्भवन्ति । राज्ञा ज्ञाते राजदण्डमपि प्राप्नुयात् । तत्र चक्रध्वजो राजा दृष्टान्तः
तथाहि - आसीत् मगधदेशे पुष्पपुरनगरे चक्रध्वजो राजा, तेन राज्ञा चक्राङ्किता अनेके दीनारा आनाय्य निधानत्वेन स्थापिताः निधानस्थापनानन्तरं बहुदिनानि व्यतीतानि तदनन्तरं
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १३ सू० ३५-४८ पात्रादिषु मुखदर्शनस्यवमन विरेचनयोश्चनि• ३२१ निधिज्ञः कश्चित् तापसो निधिलक्षणेन ज्ञात्वा खनित्वा निधानं निष्कास्य नीतवान् तेन च व्यवहारं करोति तद् हस्तात् अन्यः तदन्यो व्यवहारं करोति, एवं क्रमपरंपरया राजपुरुषेण दृष्टः । स राजपुरुषः तं राजसमीपं नीतवान् । राज्ञा पृष्टः - कस्मादिमे दीनारास्त्वया लब्धाः, तेन कथितममुकसमीपात् लब्धवानस्मि । एवं परम्परया येन निधानमुत्खातितम् स राज्ञा निगृह्य दण्डितः । इत्येवं निधिदर्शनेऽनेके दोषाः समापद्यन्ते । तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा घातुं निधि वा न स्वयं प्रवेदयेत्, न परद्वारा प्रवेदयेत् न वा प्रवेदयन्तं कमप्यनुमोदयेदिति । सू० ३४ ॥
"
सूत्रम् — जे भिक्खु मत्तए अप्पाणं देहे देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३५ ॥ जे भिक्खू अदाए अप्पाणं देहे देहतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहे देहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३७॥ जे भिक्खू मणिए अप्पाणं देहे देहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३८ ॥ जे भिक्खू कुंडपाणीए अप्पाणं देहे देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३९ ॥ भिक्खु फाणिए अप्पाणं देहे देहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४० ॥ जे भिक्खू तेल्ल अप्पाणं देहइ दतं वा साइज्जइ || सू० ४१ ॥ जे भिक्खू महुए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४२ ॥ जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहे देहं वा साइज्ज || सू० ४३ ॥ जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं दे हेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४४ || जे भिक्खू वसाए अप्पाणं दे हे देहत वा स ( इज्जइ || सू० ४५॥
छाया - यो भिक्षुर्मात्रके आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ||३५|| यो भिक्षुरादर्श आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सू० ३६|| यो भिक्षुरस्यामात्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३७ ॥ यो भिक्षुर्मणौ आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३८ | यो भिक्षुः कुण्डपानीये आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥ सू३९॥ यो भिक्षुः फाणिते (तरलगुडे) आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते । सू ४० || यो भिक्षुस्तैले आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वते ॥ ४१ ॥ यो भिक्षुर्मधुके आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥ सू२॥ यो भिक्षुः सर्पिषि आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते । सू० ४३|| यो भिक्षुर्मद्ये आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥ ४४ ॥ यो भिक्षुर्व सायामात्मानं पश्यति पश्यन्तं वा स्वदते ॥सु० ४५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मत्तए, मात्रके, तत्र मात्रकं नाम येन पात्रेण जलं पिबति तत् तथा च जलपूरितपानपात्रे 'अप्पाणं
४१
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निशयसूत्रे
देहे' आत्मानं मुखादिकं पश्यति प्रेक्षते तथा 'देहेत वा साज्जइ' पश्यन्तं वा जलपरितमात्रके स्वात्मानं पश्यन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥सू० ३५॥ एवम् 'अदाए अप्पाणं देहेइ' आदर्श-दर्पणे आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३६॥ 'असीए अप्पाणं देहेई' असौ खड्गे आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३७॥ 'मणीए अप्पाणं देहेई' मणौ आत्मानं पश्यति ॥ सू० ३८॥ 'कुंडपाणीए अप्पाणं देहेइ' कुण्डपानीये हृदादिजले आत्मानं पश्यति ।। सू० ३९ । 'फाणिए अप्पाणं देहेइ' फाणिते इक्षुविकारभूते तरले गुडे आत्मानं पश्यति ।। सू०४०॥'तेल्ले अप्पाणं देहेइ' तैले आत्मानं पश्यति ॥ सू० ४१॥ 'महुए अप्पाणं देहेइ' मधुके–मधौ ‘सहद' इति प्रसिद्धे द्रवभूते तरले मधौ आत्मानं पश्यति ॥ सू० ४२।। 'सप्पिए अप्पाणं देहेई' सर्पिषि-घृते आत्मानं पश्यति ॥ सू० ४३॥ 'मज्जए अप्पाणं देहेइ' मधके-मद्ये सुरायामात्मानं पश्यति ॥ सू० ४४॥ 'वसाए अप्पाणं देहेइ' वसायां शारीरिकघातुविशेषे 'चर्बी' इति प्रसिद्धायां आत्मानं पश्यति पश्यन्तं वा अनुमोदते स दोषभागी भवति ॥ सू० ४५॥
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-मत्तयाइवसांतेसु, एरिसन्नयरेसु वा ।
____ अप्पाणं देहए भिक्खू, आणाभंगाइ पावई ॥ छाया- मात्रकादिवसांतेषु ईदृशान्यतरेषु वा ।
आत्मानं पश्यति भिक्षुः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-पञ्चत्रिंशत्तमसूत्रादारभ्य पञ्च चत्वारिंशत्तमपर्यन्तसूत्रेषु मात्रकादीनि वस्तूनि कथितानि तेषु सर्वेषु, तथा तादृशेषु अन्येष्वपि वस्तुषु यो भिक्षुरात्मानं शरीरमुखादिकं पश्यति 'जत्तियमेत्ता उ आहिया ठाणा' इति वचनात् यावन्मात्राणि आख्यातानि स्थानानि-मुखादि. दर्शनयोग्यानि वस्तूनि तेषु सर्वेषु य आत्मानं पश्यति स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वमणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४६॥ छाया-यो भिक्षर्वमनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कचित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वमणं करेई' वमनं करोति, तत्र वमनं सुखद्वारा मशिताशनादेहिनिष्कासनमित्यर्थः 'करतं वा साइज्जइ, वमनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४७॥ छाया-यो भिक्षु विरेचनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० ४७॥
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बुर्णिभाष्यावरिः उ० १३ स० ४९-५१ आरोग्यार्थप्रतीकारपार्श्वस्थवन्दनप्रशंसननि० 23
चूर्णो–'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे 'भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रममाः श्रमपी बा 'विरेयणं करेई' विरेचनं करोति, तत्र विरेचनं नाम अधः-स्रावणम्, संगृहीतमलस्य अपानद्वारा बहिनिस्सारणं तादृशं विरेचनं करोति तथा करेंत वा साइज्जई' विरेचनं कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० ४७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४८॥
छाया- यो भिक्षुर्वमनविरेचनं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४८ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वमणविरेयणं करेइ' वमनविरचनं-समकालं वमनं विरेचनं च करोति तथा 'करें वा साइज्जइ' बमनं च विरेचनं च कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ४८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आरोग्गपडिकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू ४९॥
छाया - यो भिक्षरारोग्यप्रतिकर्म करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४९ ॥
चूर्णी -'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आरोग्गपाडकम्म' आरोग्यप्रतिकर्म करोति, तत्रारोग्यं नैरुज्यं तस्मिन् सत्यपि प्रतिकर्म चिकित्सा करोति अनागतरोगस्य प्रतिकर्म करोति अर्थात् यो हि रोगरहितशरीरोपि अनागतकालेऽपि मम शरीर कोपि रोगः शरीरविनाशको मा भूयात्, इति कृत्वा बलादिवृद्ध्यर्थ भाविरोगशमनार्थ वा औषधगदीनां सेवनलक्षणं प्रतिकर्म करोतीति तथा 'करेंतं वा साइज्जई' आरोग्यप्रतिकर्म कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० ४९॥
अवाह भाष्यकार:भाष्यम्-- अरोगत्ते सरीरस्स, बलबुद्दिनिमित्तगं ।
सेवए ओसहं जो उ, आणाभंगाइ पाबइ । छाया- अरोगत्वे शरीरस्य, बलवृद्धिनिमित्तकम् ।
सेवते औषधं यस्तु माझाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा नीरोगशरीरोपि बलादिवृद्धयर्थम् उपलक्षणात् आगामिकाले मम शरीरे रोगो मा भवतु, इति बुद्ध्या च औषधादिकं सेवते,
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३२४
निशीथसूत्रे
औषधादिसेवनं करोति स भिक्षुः श्रमणः शरीरप्रतिकर्म कुर्वाणः पुनराज्ञाभङ्गादिकान् दोषान्
प्राप्नोति ॥ सू० ४९ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू पासत्थं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ || सू० ५०॥
छाया - यो भिक्षुः पार्श्वस्थं वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सु. ५० ॥
चूर्णिः - 'जे भिक्खू' इत्यादि' 'जे भक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं' पार्श्वस्थम्, तत्र पार्श्वे ज्ञानदर्शनचारित्रस्य समीपे तिष्ठति न तत्र उद्यमति यः सः पार्श्वस्थः, अथवा 'पाशस्थः' इतिच्छाया, तत्र पाशो नाम बन्धनम्, तत्कारणमनिरत्यादि किमपि पाशपदेन प्रोच्यते, तादृशे पाशे अविरत्यादिरूपे तिष्ठति यः स पाशस्थः, स द्विविधो द्विप्रकारकः देशतः सर्वतश्च तत्र देशतः पार्श्वस्थः शय्यातरपिण्डभोग्यादिभेदैरनेकविधः । सर्वतस्त्रिविकल्पः ज्ञानदर्शनचारित्रभेदेन तत्र ज्ञानविराधको दर्शन विराधकश्चारित्रविराधकश्चेति, तथाहि - ज्ञानस्य विराधकः पार्श्वस्थः १, दर्शनातिचारे वर्तते २, चारित्रे स्थितो न भवति, अतोऽतिचारजातं परित्यजति स पार्श्वस्थः ३, तादृशं पार्श्वस्थम् 'वंदइ' वन्दते विधिपूर्वकं वन्दननमस्कारादिकं करोति तथा 'वंदेतं वा साइज्जर' वन्दमानं स्वदते पार्श्वस्थस्य वन्दनं कुर्वन्तं श्रमणान्तरमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ५०॥
"
सूत्रम् — जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१५ छाया - यो भिक्षुः पार्श्वस्थं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥ ० ५१ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं' पार्श्वस्थम् 'पसंसद्' प्रशंसति 'एष शुद्धचारित्राराधकः' इत्येवंरूपां प्रशंसां करोति तथा 'पसंसंतं वा साइज्जइ' प्रशंसन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः पार्श्वस्थस्य प्रशंसां करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सू० ५१ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू कुसीलं वंदइ वेदंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५२ ॥ जे भिक्खू कुसीलं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५३ || जे भिक्खू ओसणं वंद वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५४ || जे भिक्खू ओसण्णं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ । सू० ५५॥ जे भिक्खू संसत्तं वंदन वंदतं वा साइज्जइ || सू० ५६ ॥ जे भिक्खु संसत्तं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५७ ॥ जे भिक्खू अहाछंद वंद वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५८ ॥ जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पससंतं वा साइज्जइ || सू० ५९ || जे भिक्खू नितियं
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कुशीलादिनवानां वन्दनप्रशंसननिषेधः ३२५
धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १३ सू० ५२-६९ वंद वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६०|| जे भिक्खु नितियं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सृ० ६१ ॥ जे भिक्खू काहियं वंदन वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू०६२ जे भिक्खु काहि पसंस पसंसंतं वा साइज्जइ || सू० ६३ ॥ जे भिक्खू पासणियं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६४ ॥ जे भिक्खू पासणियं पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ ॥ सू० ६५ || जे भिक्खु मामगं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६६ ॥ जे भिक्खू मामगं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६७॥ जे भिक्खू संपसारियं वंद वंदतं वा साइज्जइ ||सू० ६८ ॥ जे भिक्खू संप सारियं पसंसइ पसंत वा साइज्जइ ॥सू० ६९ ॥
॥
छाया -यो भिक्षुः कुशीलं वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सू० ५२|| यो भिक्षुः कुशीलं प्रशसति प्रशंसन्तं वा स्वदते || सू० ५३|| यो भिक्षुरवसन्न वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सू० ५४ || यो भिक्षुरवसन्नं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥सु० ५५॥ यो भिक्षुः संसक्तं वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सू० ५६|| यो भिक्षुः संसक्तं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५७॥ यो भिक्षुर्यथाछन्द वन्दते वन्दमानं वा स्वते ॥ सू० ५८॥ यो भिक्षुयथाछन्द प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ । यो भिक्षुनैत्यिक' वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥ सू० ६० ॥ यो भिक्षुर्नैत्यिक' प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६१ ।। यो भिक्षुः काfथक वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥सु• ६२॥ यो भिक्षुः काथिकं प्रशंसति प्रशं सन्दते ।। ० ६३ ॥ यो भिक्षुः प्राश्निकं वन्दते वन्दमान वा स्वदते ॥ स० ६४ यो भिक्षुः प्राश्निक प्रशंसति प्रशसन्तं वा स्वदते ॥ सु० ६५ ॥ यो भिक्षुर्मामकं वन्दते वन्दमानं वा स्वदते । सू० ६६ ॥ यो भिक्षुर्मामकं प्रशंसति प्रशंसन्तं वा स्वदते ॥ सु० ६७ ॥ यो भिक्षुः सांसारिक वन्दते वन्दमानं वा स्वदते ॥ सू० ६८॥ यो भिक्षुः सांप्रसारिक प्रशंसति प्रशंसंतं वा स्वदते ॥ सू० ६४ ||
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कुसीलं कुशीलम्, तत्र कुत्सितं शीलं यस्य स कुशीलः तम्, अथवा कुत्सितेषु निन्दितेषु कर्मसु सुशीलं करोतीत्यतः कुशीलः, एवं वन्दनं प्रशसनं चाधिकृत्य कुशीला वसन्न-संसक्त-यथाछन्द - नैत्यिक-काथिकप्राश्निक—मामक-सांप्रसारिक- पर्यन्तं सूत्राणि पार्श्वस्थसूत्रवदेव व्याख्येयानि तत्र कुशीलः कुत्सितं शीलम् आचारो यस्य स कुशीलः, अथवा कुत्सितेषु निन्दितेषु कर्मसु शीलं स्वभावो यस्य स कुशीलः कौतुककर्मत आरभ्य विद्यामन्त्रचूर्ण पर्यन्तकरणकारणादिभिरुपजीवी तं वन्दते० || सू० ५२ ॥ 'पसंसई' प्रशंसति ॥ सू० ५३ || 'ओसन्नं' अवसन्नम्, तत्र अवसन्नः यः सर्वामपि सामार्चारी वितथां करोति सः, तं वन्दते || सू० ५४ || प्रशंसति ||सु० ५५ ॥ 'संसत्तं' संसक्तं तत्र संसक:
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३२६
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निशोथसूत्रे
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चारित्रविराधकदोषेषु संसक्तः आसक्तः चारित्रविराधकदोषयुक्त इत्यर्थः, यथा गंवादिमृतशरीरं कथितं सदनेकप्रकारककृमिजालाकीर्णं भवति तथैव संसक्तोऽप्यनेकदोषाकीर्णो भवति, स बहुरूपिपुरुषवत् अनेकरूपधारी भवति, नटवत् अनेकरूपाणि करोति, वस्त्रवत् यथा हरिद्वारागरक्तं प्रक्षाल्य गेरुकादि - रागरक्तं करोति, एवं संसक्तोऽपि नानाप्रकारको भवति, यथा पार्श्वस्थेषु तिष्ठन् पार्श्वस्थो भवति, कुशीलेषु तिष्ठन् कुशलो भवति, एवमवसन्नादिविषयेऽपि विज्ञेयम् । एवमन्येष्वपि यथाविधेषु तिष्ठन् यथाविध एव जायते । एतादृशं संसक्तं वन्दते ।। सू० ५६ || प्रशंसति । सू० ५७|| 'अहाच्छंद' यथाच्छन्दम्, यथाच्छन्दः यथा यत्प्रकारकः छन्दः अभिप्राय उत्पद्यते तदनुसारं वर्त्तते यः स यथाच्छन्दः यथेच्छ कार्यकारी आगमनिरपेक्षचारीत्यर्थः तं वन्दते ॥ सू० ५८ ॥ प्रशंसति ॥ सू० ५९॥ 'नितियं' नैत्यिकम् नैत्यिक:- नित्यपिण्डभोजी यः प्रतिदिनमेकस्मादेव गृहात् नियमत आहारादिकं गृह्णाति सः तादृशं वन्दते ॥ सू० ६०|| प्रशंसति ॥ सू० ६१ ॥ 'काहिये' काथिकम् काथिकः कथाकारकः, योऽशनाद्यर्थे यशः कीर्तिप्राप्त्यर्थं च धर्मादिकथां कथयति यः सः तं वन्दते ॥ सू० ६२ || प्रशंसति ॥ सू० ६३॥ 'पासणियं' प्राश्निकम्, प्राश्निकः यः सावधप्रश्नं करोति, सावधमपि प्रश्नस्योत्तरं ददाति भूतभविष्यत्कालिकं शुभाशुभं प्रश्नस्योत्तरं ददाति सः तं वन्दते ॥ सू० ६४ || प्रशंसति ॥ सू० ६५ || 'मामगं' मामकम्, मामकः-यः उपधिवस्त्रपात्रवसत्यादौ मम ममेति ममकारकरणात् मामकः प्रोच्यते, एते उपध्यादयो . मम सन्ति न कोऽप्यन्यः एषामुपभोगं करोतु, इत्येवं कथनशीलो मामकः, यथा - मदीयो देशः सुन्दरः, वृक्षवापीस रस्तडागादिशोभितः नैतादृशोऽपरो देशः, सुविहारो मम देशः, यत्र सुलभवअतिकोप करणादयो बहवो गुगाः सन्ति, यत्र शालिगोधूमादीनि अनेकप्रकारकाणि वस्तूनि निष्पद्यन्ते यत्र गोमहिष्यादीनां प्रभूतत्वेन दुग्धदधिनवनीतघृतादीनि प्रचुराणि भवन्ति, यत्र वस्त्रालङ्कारादिभिरुपशोभितः स्त्रीपुरुषादिर्वर्त्तते, तत्र साधुसाध्वीनामुपद्रवकारको जनो न कोऽपि वर्तते, एतादृशो देशो मम, इत्यादिरूपेण सर्वत्र ममकारको मामकः प्रोच्यते तं वन्दते ॥ सू० ६६ ॥ प्रशंसति ॥ सू० ६७|| 'संपसारियं' साम्प्रसारिकम्, साम्प्रसारिक : - गृहस्थानां कार्येषु गुरुलाघवं संप्रसारयितुं विस्तारयितुं विस्तरेण तद्विस्तरेण तद्विषये संमतिं दातुं शीलं यस्य स संप्रसारी, स एव साम्प्रसारिकः गृहस्थानां व्यापारादिषु कौटुम्बिकोचितानुचितकार्येषु मार्गप्रदर्शक, तं यो वन्दते ॥ सु०६८॥ प्रशंसति प्रशंसन्तं वाऽन्यं स्वदते अनुमोदते सः आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति ।
•
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् -- पासत्थं च समारम्भ, संपसारियमंतगं । वंदइ पसंसई चेव, आणाभंगाइ पावई ||
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यूणिमाज्यावरिः उ० १३ सू० ७०-८३ धात्रीदूत्यादिपिण्डपरिभोगनिषेधः ३२७
छाया-पार्श्वस्थं च समारभ्य, सांप्रसारिकान्तम् ।
. वन्दते प्रशंसति चैव, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः - 'जे भिक्खू' इति । यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्य' पार्श्वस्थमारभ्य साम्प्रसारिकान्तं साम्प्रसारिकपर्यन्तं शिथिनाचारं मुनिवेषधरं वन्दते वदनां करोति प्रशंसति प्रशंसां करोति च स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीत्यत तेषां वन्दना प्रशंसां च न कुर्यात् तत्करणात् मित्थ्यात्वादिदोष आपद्येत । सू० ६९॥
सूत्रम्-जे भिक्खूधाईपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७०॥ छाया -यो भिक्षुर्धात्रीपिण्ड भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू०७०॥
चूर्णिः-जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षु 'धाईपिंडं भुंजई' धात्रीपिण्डं भुङ्क्ते, तत्र धात्रीकर्मकरणेन यत् पिण्डादिकं भवति तत् धात्रीपिण्डम् गृहस्थबालकादेः क्रीडनं कारयित्वा ततो गृह्यमाणः पिण्डः स धात्र पिण्डः, तम् धात्रीपिण्डम् तादृशधात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तथा 'मुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते । यो हि भिक्षुर्धात्रीपिण्डस्योपभोगं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।सू० ७०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।।सू० ७॥ जे भिक्खू णिमित्तपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७२|| जे भिक्खू आजीवियपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७३॥ जे भिक्खू वणीमगपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७४॥ जे भिक्खू तिगिच्छपिंडं मुंजइ भुंजतं वा साइ जइ ॥ सू० ७५॥ से भिवखू कोहपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७६|| जे भिक्खू माणपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७७|| जे भिक्खू मायापिण्डं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७८॥जे भिक्खू लोभाडं मुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७९॥ जे भिक्खू विज्जापिंडं मुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।। सू०८० ॥ जे भिक्खू मंतपिंडं भुंजइ भुजंत वा साइज्जइ ॥ सू० ८१॥ जे भिक्खू जोगपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥सू० ८२॥ जे भिक्खू चुण्णपिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥सू० ८३॥
__छाया-यो भिक्षु तीपिण्ड भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू०७१॥ यो भिक्षुनिमितपिण्डं भुङक्ते भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ७२॥ यो भिक्षुः आजीविकापिण्ड भुङ्क्ते भुम्जान
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३२८
निशीथसूत्रे
घा स्वदते || सू०७३|| यो भिक्षुर्वनीपकपिण्डं भुङ्क्ते भुज्ञानं वा स्वदते ॥ सू०७४ || यो भिक्षुः चिकित्सा पिण्डं भुङ्क्ते भुजानं वा स्वदते ।। सू० ७५॥ यो भिक्षुः क्रोधपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ७६ ।। यो मिथुर्मानपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जान वा स्वदते ॥ सू० ७७॥ यो भिक्षुर्मायापिण्डं भुङ्क्ते भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ७८ ॥ यो भिक्षुर्भाण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सु०७९ ॥ | यो भिक्षुर्विद्यापिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते । सू० ८०|| यो भिक्षुर्मन्त्रपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ॥ सू० ८९ ॥ यो भिक्षुर्योगपिण्डं भुङ्क्ते भुजा वा स्वदते ॥सू० ८ २ || यो भिक्षु चूर्णपिण्डं भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते || सू०८३ || चूर्णी - एवम् - दूतीपिण्डादारभ्य चूर्णपिण्डपर्यन्तानि त्रयोदश सूत्राणि व्याख्येयानि, तत्र'दुईपिंड भुंजइ' दूतीपिण्डं भुङ्क्ते, तत्र यो गृहस्थस्य सन्देशं ग्रामाद् प्रमान्तराद्वा ग्रामं ग्रामान्तरम् आनयति नयति स दूतः, एतत्कार्ये स्त्रिया मुख्यत्वमिति दूतीशब्दोऽत्र प्रयुक्तः, तद्योग्यकार्ये कृत्वा आहारादिपिण्डो गृह्यते स दूतीपिण्ड' तं भुङ्क्ते ॥ सू० ७१ || 'निमित्तपिंडे भुंजइ' निमित्त पिण्डः अतीतानागतवर्त्तमानकालिकं शुभाशुभं कथयित्वा पिण्डप्रहणं निनित्तपिण्डस्तं भुङ्क्ते ॥सू० ७२|| 'आजीबिय पिंड भुंजइ' आजीविकापिण्डम्, आजीविकापिण्डः स य आजीविकार्थे जीवननिर्वाहार्थम् 'अहं भोगवंशीयः, उग्रवंशीयः' इति स्वस्य जातिकुलादिकं प्रदर्श्य गृह्यते, तं भुङ्क्त ॥ सू० ७३॥ ' वणीमगपिंडं' वनीपकपिण्डम्, वनीपकपिण्ड स य:- 'अहं साधुरस्मि, यदि भवान् मह्यं भिक्षां न दास्यति तदा को दास्यति ?' इत्येवं दीनशब्दमुच्चार्य पिण्डो गृह्यते तं भुङ्क्ते ॥७४॥ 'तिमिच्छपिंडे' चिकित्सापिण्डम्, चिकित्सापिण्डः स यः गृहस्थानां रोगादौ औषधदानादिरूपां चिकित्सां कृत्वा गृह्यते तं भुङ्क्ते ॥ सू० ५ || 'कोहपिंडं' क्रोधपिण्डम्, क्रोधपिण्डः सः यः क्रोधपूवर्क गृह्यते स तं भुङ्क्ते ।। सू०७६ ॥ ' माणपिंडं' मानपिण्डम, मानपिण्डः सः योऽभिमानपूर्वकं गृह्यते, यथा 'इदमाहारजातं मह्यं देहि नान्यत् ग्रहीष्यामि किमहं साधा - रणोऽस्मि यदेतादृशमाहारजातं गृह्णामि' इत्यादिरूपाभिमानपूर्वकं गृह्यते स तं भुङ्क्ते ॥ सू०७७|| 'मायापिंडं' मायापिण्डम्, मायापिण्डः सः यः मायया कपटेनालीकादिभाषणं कृत्वा गृह्यते तं भुङ्क्ते ॥ सू० ७८|| 'लोभर्पिङ' लोभपिण्डम्, लोभप्रिण्डः सः यः लोभवशात् प्रणीतरसयुक्तो गृह्यते, तं भुङ्क्ते ||सू० ७९|| 'विज्जापिंड' विद्यापिण्डम्, विद्यापिण्डः सः, यो रोहिणीप्रभृतिस्त्रादेवताधिष्ठिता ससाधना वा विद्या, तत्प्रयोगं कृत्वा गृह्यते, तं भुङ्क्ते ॥ सु० ८०|| 'मंतपिंडं' मन्त्रपिण्डम्, मन्त्रपिण्डः सः, यः मन्त्रः पुरुषदेवताधिष्ठितो मारण मोह नवशीकरणोच्चाटनादि रूपः तत्प्रयोगेण गृह्यते, तं भुङ्क्ते ॥ सू० ८ १ || 'जोगपिंडं' योगपिण्डम्, योगपिण्डः सः यः गर्भाधानकरणगर्भस्थिरीकरण-वशीकरणादियोगं कृत्वा गृह्यते तं भुङ्के || ८ २ || 'चुण्णपिंडं' चूर्णपिण्डम् चूर्णपिण्डः चूर्णम् - कुट्टितानेक वस्तु संमिश्रणरूपम्, यत्प्रयोगेण प्रक्षेपणपानादिरूपेण वशीकरणगर्मस्थिरीकरणादिकं जायते तत्प्रयोगकरणपूर्वकं गृह्यते तं भुङ्क्ते, भुञ्जानं वा अनुमोदते स भाज्ञाभङ्गादिदोषभागी भवति ॥ सू० ८३ ॥
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धूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १४ सू० १
अत्राह भाष्यकारः --
भाष्यम् – धाईपिंडं समारब्भ, चुण्णपिंडगमंतगं । भुंजे अह अणुमो य, आणाभंगाइ पावइ || छाया - धात्रीपिण्डं समारभ्य चूर्णपिण्डान्तकम् । भुञ्जीताथानुमोदेत व आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
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अवचूरि :
अथ अनुमोदेत च स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ॥ सू० ८३ ॥
उग्घाइयं ॥ सु० ८४ ॥
प्रतिग्रहस्य क्रयणकापणादिना ग्रहणनिषेधः ३२९
'घाईपिंडं' इत्यादि । धात्रीपिण्डादारभ्य चूर्णपिण्डपर्यन्तं यो भुञ्जीत अहरेत्,
अथोपसंहारमाह- 'तं ठाणं इत्यादि ।
सूत्रम् — तं ठाणं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाण
४२
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॥ निसीहज्झयणे तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १३ ॥
छाया - तत्स्थांनं सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्धातिकम् ॥८४॥ || निशीथाध्ययने त्रयोदशोद्देशकः समाप्तः || १३ ॥
चूर्णी - 'तं ठाणं सेवमाणे' तत्स्थानं पृथिवीकायिकादिषु स्थानकरणादित आरभ्य चूर्ण पिण्डप्रहणपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थानं सेवमानः, तस्य स्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् भिक्षुः एषु स्थानेषु मध्यात् यत् किमप्येकमनेकं सर्वं वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवमानः 'आवज्जई' आप प्राप्नोति 'चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्धातिकं लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० ८४ ॥
इति श्री-विश्वविख्यात -जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित ललित कलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य " -- पद भूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां “निशीथसूत्रस्य” चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् त्रयोदशोद्देशकः समाप्तः ॥ १३ ॥
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॥ चतुर्दशोदेशकः॥ अथ त्रयोदशोदेशकं व्याख्यायावसरप्राप्तं. चतुर्दशोद्देशं. व्याख्यातुमाइ, तत्र त्रयोदशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह चतुर्दशोदेशकादिसूत्रस्य का सम्बन्धः । इत्यत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-पडिसेहो च पुन्वंमि, पिंडाइम्स पदंखियो ।
सो चेव पडिसेहो उ, पत्ताइस्सा कहिज्जन छाया-प्रतिषेधश्च पूर्वस्मिन् पिण्डाले प्रदर्शितः ।
स एव प्रतिषेधस्तु पात्रादेः कन्यते ॥ अवचरिः- त्रयोदशोदेशकस्य अन्तिमे पिण्डादेरविहितधात्र्यादिपिण्डस्य प्रतिषेधः धात्रीपिण्डप्रभृतिपिण्डग्रहणस्य निषेधः प्रदर्शितः कथितः, तादृशपिण्डस्य संयमोपघातकत्वात् , स एव प्रतिषेधोऽत्र चतुर्दशोदेशके पात्राथुपधेः कथ्यते, तत्राविहितपिण्डग्रहणस्य तदुपभोगस्य च निमेषः कृतोऽत्राविहितपात्रस्योपलक्षणादुपधेः निषेधो वर्ण्यते इति उभयत्रापि प्रतिषेध एव, ततश्च यथा अविशुद्धपिण्डग्रहणं न कर्तन्यं तथैव-अविशुद्धपात्रादिकमपि वर्जनीयमेव, तदनेम सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्दशोद्देशकीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते- 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
सूत्रम्-जे भिक्खू पडिग्गहं किणइ किणावेइ कीयमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं क्रीणानि क्रापयति क्रीतमाहत्य दीयमानं प्रतिगृति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० १॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गह' प्रतिग्रहं पत्रं 'किणइ' क्रीणाति, द्रव्यादिकं दत्त्वा स्वयमेव पात्रस्य क्रयणं करोति तथा 'किणावेइ' क्रापयति, परद्वारा द्रव्यादिकं दापयित्वा पात्रं क्रीणाति तथा 'कीयमाहहु दिज्जमाणं पडिग्गाहेई' क्रीतमाहृत्यदीयमानं गृह्णाति, अन्यः कोपि श्रद्धालुर्गृहस्थः मूल्यं दत्त्वा पात्रं क्रीतवान्, क्रीत्वा प्रदीयते तादृशं क्रीतमाहृतमभिमुखमानीय टीयमानं पात्रादिकं प्रतिगृहाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वतते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनादयो दोषा भवन्तीति ।। सू० १॥
अत्राह भाष्यकार: ..... भाष्यम् -- कीयं किणावियं वावि, अणुमोइयमेव वा ।
एक्केक्कं दुविहं वुत्तं, दध्वभावप्पमेयो || छाया-क्रीत क्रापितं वापि, अनुमोदितमेव वा ।
पकैकं द्विविध प्रोक्तं द्रव्यभावग्रमेदतः ॥
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अर्णिभाष्यावरिः उ० १४.२
प्रतिग्रहस्य प्रामित्यादिना ग्रहणनिषेधः
अवचूरिः-यत् क्रीत स्वयमेव मूल्यं समर्प्य यस्य क्रयणं कृतं तत्, यद्वा क्रापितम् अन्य द्वारा क्रयणं कारितम् 'अन्येन क्रीत्वा अभिमुखमानीय समर्पितं तत् तादृशम् अनुमोदितं वा, एतत् त्रिविषमपि पात्रमेकैकं द्विविधं द्विप्रकारकं कथितं द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्यतो गन्धगुटिकाबस्मादिदानेन, भावतः धर्मकथादिकथनेन जातिकुलगणादिदर्शनेन, शिल्पादिशिक्षणेन भवति । तथा पुनरपि क्रीतादिकं द्विविधं भवति आत्मपरभेदात् , तदपि पुनर्द्विविधं द्रव्यभावभेदात् , तत्र यत् परक्रीतं गृहस्थेन स्वयं क्रीतं तत् त्रिविधं भवति सचित्तक्रीतम् , अचित्तक्रीतं, मिश्रक्रीतम् , तत्र सचित्तकोतं-सचित्तेन द्विपदचतुष्पदादिना क्रीणाति, अचित्तक्रीतम्-अचित्तेन हिरण्यादिना क्रीणाति, मिश्रक्रीतं मिश्रितेन वस्त्राभूषणसहितदासोदासादिना क्रीणाति तत् मिश्रक्रीतम् । द्रव्यत आत्मक्रीतं चेत्थम् - यो भिक्षुः पात्रार्थ स्वस्य वस्त्रं दत्त्वा पात्रं गृह्णाति, भावत आत्मक्रीतं धर्मकथादिना यत् गृह्यते । परक्रीतं तु इत्थस्-गृहस्थः स्वयमेव क्रीणाति तत् परक्रीतम् । एतेषां स्वक्रीत-परक्रीत-द्रव्यकीत-भावक्रीताभिमुखानीतपात्रादिकमध्यात् अन्यतरमपि पात्रादि उपभोगाय गृह्णाति तथा गृहीत्वा उपभोगं कुर्वाणं समनुमोदते म प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १॥
सूत्र-जे भिक्खू पडिग्गहं पामिच्चेइ पामिच्यावेइ पामिच्चियमाहटु दिञ्जमाण पडिग्गाहेइ पडिग्याहतं वा साइज्जइ ॥ सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं प्रामित्यति प्रामित्ययति पामित्यम् आहृत्य दीयमान प्रतिगृहालि प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० २॥
चूर्णी-'मे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिमाई' प्रतिग्रह पात्रम् 'पामिच्देई' प्रामित्यति मितिः प्रमाणं, तस्माद् आगतं प्रामित्यम् , प्रमाण कृत्वा प्रति प्रदान प्रक्षिशया यद् ग्रहणं सत् प्रामिव्यम् । तत्करोतोति प्रामित्यति, यथा यस्य बस्तुनः ग्रहणकाले कथयसि 'यदिदाबीमिदं वस्तु त्वं मम देहि कालान्तरे एतस्य मूल्यं तदेव वस्तु वा प्रतिदास्यामि' इति कृत्वा ऋणरूपेणानीयते तत् प्रामित्यम् 'उधार' इति लोकप्रसिद्धम् , तत्करोतीति, ज्या 'पामिच्चाई' प्रामित्ययति , अन्यद्वारा ऋणरूपेण आनाययति 'पामिच्चियमाटु दिज्जमाणं' आमित्यिप्तम्-प्रामित्येन गृहीतम् आहृत्य दीयमानम् उद्धारं कृत्वा पात्रं क्रीतवान् , बादशपात्रमभिमुखमानीय दीयमानम् यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति प्रातिप्रास्यति स्वीकास्यति वा तथा पडिमगाहेंत' वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदले मोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्पामिच्चाइयपायं तु. दुषिहं परिकिट्टियं ।
लोडवरं लोइयं च, तम्महणे दोसभा जई ॥
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निशोथसत्रे
छाया-प्रामित्यादिकपात्रं तु द्विविधं परिकीर्तितम् ।
लोकोत्तरं लौकिकं च तद्ग्रहणे दोषभाग् यतिः ॥ अवचूरिः-प्रामित्त्यादिकपात्रम् उच्छिन्नक्रीतम् कापितमनुमोदितमेतत्सर्व द्विविधं द्विप्रकारक परिकीर्तितं कथितं भवतीत्यर्थः, लौकिकं लोकोत्तरिकं च, तत्र लौकिकं प्रामित्यं गृहत्थेन श्रमणार्थ 'मूल्यं दास्यामी'-तिकृत्वा यत् उद्धाररूपेण क्रीतं, तस्योदाहरणमिदम्
__एको जिनदत्तनामा कौशलपुरवास्तव्यः श्रावको दीक्षितो जातः, स चाचार्यसमीपे वसन् श्रुतमधीतवान् , अधीत्य च गीतार्थो जातः । तदनन्तरं स गुरुं पृष्टवान्-गुरो ! स्वकीयं संसारिबन्धुवर्ग दर्शनं दातुं स्वदेशं गन्तुमिच्छामि । ततो गुरुणा आज्ञप्तस्तं संसारिग्रामं गतवान् यत्र स्वकीया बन्धुबान्धवा आसन् , ततः सः प्रामाद् बहिरेन स्थित्वा तद्ग्रामीणं कमपि पृष्टवान् यत् भोः ! अमुकश्रावको अस्मिन् ग्रामे पूर्वकाले निवसन् आसीत् तस्य परिवारो सम्प्रति कः को विद्यते ! ततो ग्रामीणस्तममुकोयमिति ज्ञात्वा कथयति-भोः ! तव परिवारे केवलं तव भगिनी एव जीवति नान्यः । तदनन्तरं स साधुः स्वभगिन्या गृहं गतवान् , गत्वा च कुशलादिकथनान्तरं साधुरुवाच हे भगिनि ! मदर्थमाहारो न कर्तव्यः त्वया । इति कथितेपि सा उच्छिन्नमाहा. रजातं तन्मूल्यप्रदानप्रतिज्ञया कस्यचित् गृहादानीय दत्तवती । ततः सा यस्य गृहादानीतं यद्वस्तु तस्य मूल्यं तस्मै पुनर्ने दत्तवती दारिद्रयात् , तत् उद्धारद्रव्यमूल्यमदत्तं प्रतिदिन विवृद्धं यस्य प्रत्यर्पणं कत्त सा श्रमणभगिनी समर्था न जाता । तदनन्तरं सा श्रमणभगिनी धनस्वामिनो गृहे दासी संजाता उद्धारद्रव्यमूल्यविमोचनाय, तदनन्तरं विहरन् कदाचित् स साधुः स्वभगिनी मिलितुं तद्गृहं गत्तवान् परन्तु सा न मिलिता तदा साधुना पृष्टं मम भगिनी कुत्र गता न दृश्यते गृहे, तदनन्तरमन्येन कथितं भवद्भगिनी दव्यमूल्यं दातुमसमर्था उद्धारद्रव्यदातुः श्रेष्ठिनो गृहे दासी संजाता, तस्य श्रेष्ठिन आज्ञानुसारेण दासीकर्म कुर्वाणा कालं गमयति । ततो गमनसमये कथंचित् मिलिता भगिनी रोदनं कुर्वाणा साधुं सर्व समाचारं कथितवती। श्रमणश्च सामा चासयन् प्रोवाच-हे भगिनि ! मा रुद अचिरादेव त्वां दुःखान्मोचयिष्यामि । यदाहं तस्य श्रेष्ठिनो गृहे भिक्षार्थमागमिष्यामि तदा गृहपतेस्तस्य श्रेष्ठिनः प्रत्यक्षं यदा सचित्तोदकादिना आरंभ कुर्वाणा त्वं भविष्यसि तदाहं देशकालोचितं सर्वं करिष्यामि । ततः कदाचित् स श्रमणः तस्य श्रेष्ठिनो गृहं भिक्षार्थ गतवान् । तं समागतं दृष्ट्वा तद्भगिनी उदकाधारम्भ संलाना। साधुभिक्षार्थमागतं दृष्ट्वा गृहस्वामिना दास्यै प्रोवाच हे कर्मकरि ! साधवे भिक्षां देहि । श्रमणः तदीय वचनं श्रुत्वा प्रोवाच -नाहं ग्रहिण्यामि भिक्षां दासीहस्तात् । गृहस्वामी प्रोवाच भो-श्रमण ! कथं भिक्षां दासीहस्तात् न गृह्यते ! ततो लब्धावसरः साधुः भिक्षाया विशुद्धप्रसङ्गेन श्रमणधर्म श्रमणस्याचारविचारं सर्व श्रावितवान् । ततः सावधानो गृहस्वामी पुनरपि साधु प्रति प्रोवाच
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चर्णिभाष्यावचूरिः उ० १४ सू०३ प्रतिग्रहस्य परिवर्तनादिना ग्रहणनिषेधः ३३३ हे दयालो ! कुत्र भवान् निवासं करोति ? साधुरुवाच अमुकोपाश्रये सम्प्रति वसामि । ततो द्वितीयद्विवप्ते स गृहस्वामी गृहकार्य सर्व कृत्वा तस्मिन् उपाश्रये साधोर्दर्शनार्थ गतवान् । ततः स गृहस्वामी साधोर्वन्दननमस्कारादिकं विधाय समुपविष्टः, ततः स साधुस्तस्मै धर्मकथां कथितवान्-हे श्रावक ! सर्वो जीवः स्वस्वकर्मपराधीनः सर्वमपि कार्य करोति तत्र दयादिधर्मः सम्यक् पालनीयो येन इहलोके परलोके उभयत्रापि सुखं भवेत् , आरम्भसमारम्भादिकं जीवानां नरकपातायैव केवलं भवति । एवं क्रमेण वृहती धर्मकथां कथितवान् । ततः साधुमुखात् संसारस्य नवरभावं मोक्षस्य च शाश्वतभावं निरतिशय सुखरूपं च ज्ञात्वा संसारात् जातवैराग्योऽभवत् । तदीयस्वजनादयोपि नानाविधमभिग्रहं गृहीतवन्तः । सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः सन् अणुः वतानि गृहीत्वा द्वादशव्रतधारी जातः । ज्ञातदासीवृत्तान्तो दासी मुक्तवान् । लोकोत्तरं प्रामित्यं साधुः साधुतः प्रामित्यं करोति, तत्रापि पुनरदाने परस्परं कलहवैमनस्यादयो बहवो दोषाः समापद्यन्ते, तस्मात् प्रामित्यपात्रादिग्रहणं न कार्यम् । उपलक्षणत्वात् वस्नाहारादिकं किमपि न ग्राह्यम् ॥ सू० २।
सूत्रम्--जे भिक्खू पडिग्गहं परियट्टेइ परियट्टावेइ परियट्टियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ । सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं परिवर्तते परिवर्तयति परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ ० ३॥ ।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडिग्गह' प्रतिग्रह पात्रम् 'परियटेई परिवर्तते स्वयं परिवर्तनं करोति स्वकीयं पात्रम् अन्यस्मै ददाति अन्यस्य च पात्रं स्वयं गृह्णाति तथा 'परियघावेइ' परिवर्तयति अन्यद्वारा पात्रं परिवर्तयति 'परियहियमाहद दिज्जमाणं' परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं परिवर्तितं पात्रं अभिमुखमागत्य ददतम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्-परिवट्टियं च दुविई, लोइय लोगुत्तरं समासेण ।
एक्केक्कंपि य दुविहं, तदब्वे अण्णदव्वे य ॥ छाया--परिवर्तितं च द्विविधं लौकिकं लोकोत्तर समासेन ।
एकैकमपि द्विविध तद्रव्ये अन्यद्रव्ये च ॥ . - अवचूरिः-स्त्रे परिवर्तितपात्रादेहणे तदुपगोगे च निषेधः कथितः, तत् परिवर्तित पात्रादिकं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति–एक लौकिकमपरं लोकोत्तरं च, तत्र लौकिकं गृहस्थानां
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३३४
निशोधन लोकोत्तरं साधूनाम् । पुनरपि एकैकं द्विविधं द्विप्रकारकं भवति तद्रव्ये तथा अन्यद्रव्ये च । तāध्ये परिवर्तनं यथा पात्रं पात्रेण परिवर्तयति । अन्यद्रव्ये परिवर्तनं यथा पात्रं वस्त्रेण परिवर्तयति, बस्त्रं वा पात्रेणान्येम वा येन केनचित् वस्तुना परिवर्त्तयति । तत्र गृहस्थः संयताय दातुकामः पात्रादिकम् अन्यस्मै गृहस्थाय परिवर्तयितुं ददाति एतत् परिवर्तनं लौकिकम् ।
तथाहि - कस्मिंश्चित् ग्रामे द्वौ श्रावको आस्ताम् , तयोरेकैका भगिनी अपि मासीत् , तत्रैकस्य भगिनी अपरेण परिणोता, अपरस्य भगिनी अपरेण परिणीता, परस्परं तयोः भगिनीपतित्वेन सम्बन्धो जातः । ततः कालान्तरे तयोरेकस्यान्यो भ्राता संसारस्यासारतां ज्ञात्वा प्रव्रजितो जातः । स सूत्रं सम्यगवीत्याचार्याज्ञया स्वजनवर्गाय दर्शनं दातुं सांसारिकग्रामे गतवान् परन्तु तस्य भगिनी दरिद्रा भासोल् कोदवाद्यन्नेन जीवनं यापयति परन्तु श्रमणाय भ्रात्रे भिक्षार्थ कोद्रवं नीत्वा भ्रातृगृहात् शाल्यन्नमानीतवती, एवंप्रकारेण साध्वर्थमोदनं परिवर्तितं कृतम्, ततो यदा तया स्वामिने भोजनकाले कोद्रयो दत्तस्तदा पृष्टवात् कस्मात् कोद्रवः समागतः ? किन्तु सा नोक्तवती किमपि । ततः क्रोधात् गृहपतिना गृहात् सा निष्कासिता। तच्छुत्या अन्योपि सद्भगिनी निष्कासितवान् , एवं क्रमेण तयोः परस्परं कलहो जातः । ततः स साधुः तयोः कलहं ज्ञात्वा सम्यक्त्वधर्मोपदेशेन क्रोधफलं श्रावितवान् । ततः साधोरुपशमवचनं श्रुत्वा कलहानिवृत्ता जाताः । यस्मादेते कलहादिदोषाः संभवन्ति तस्मात्कारणात् पात्रपिण्डादीनां परिवर्तन न कर्तव्यम् । एवं साधुर्यत्र परस्परं परिवर्तनं पात्रादीनां करोति तत् लोकोत्तरं परिवर्तनम् , एवं साधुभिरपि परस्परं परिवर्तनं न कर्तव्यम् । सू० ३ ॥
सूत्रम्-से भिक्खू पडिग्गहं अच्छिज्ज अणिसिट्ठ अभिहड माहटुदिज्जमाणं पडिग्गा हेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ मू० ४॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहमाच्छेद्य अनिसृष्टमभिहतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहासि प्रतिबन्तं था स्वदते धासू० ४॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिग्गई' प्रतिग्रहं पात्रम् 'अच्छिज्ज' आच्छेद्यम् अन्यस्वामिकं पात्रं साध्वथै बलात् गृहीत्वा दीयते तत् आच्छेद्यम् , अन्यस्वामिकवस्तु बलात्कारपूर्क गृहीत्वा दीयमान तथा स्वकीयमपि वस्तु दासादिहस्ते स्थितं तद् वस्तु तद्धस्तादाच्छिय साधवे यद् दीयमानं तदपि आच्छेद्यमुच्यते 'अणिसिद्रू' अनिसृष्टम्यद्वस्तु अनेकस्वामिकं तत् सर्वेषामाज्ञां बिना अहणम् अनिसृष्टमित्यर्थः, 'अभिडं आहट दिज्जमाणं' अभिमुखमाहृत्य दीयमानं साध्वर्थमभिमुखमागत्य यत् दीयते तादृशम् पात्रादिकम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतैऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
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निभाण्यावद्भिः उ०१४ २०४-५
आच्छेद्यपात्रग्रहणानाशावितरणनिषेधः ३३५
बबाह भाष्यकार:-- भाष्यम् - अच्छिज्ज तिविहं वुत्तं, पहु सामि य तेणए ।
एहिं छिज्जं च पत्ताइ, साहूणं णेव कप्पइ । छाया- आच्छेद्य त्रिविध प्रोक्त, प्रभु स्वामि च स्तेनकम् ।
पतैश्छेद्य च पात्रादि साधूनां नैव कल्पते ।। अवचूरिः-सूत्रे यत् बलात्कारादिना पात्रादीनामाछेद्यत्वं कथितं तत् आछेद्यं त्रिविधं त्रिप्रकारकं भवति, प्रभवाछेद्य, स्वाम्याछेद्य स्तेनाले य च । तत्र एतैः प्रभुप्रभृतिभिराछेथ बलात्कासदिना गृहीतं पात्रादिकं पिण्डवस्त्रपात्राघुपधिः श्रमणानां श्रमणीनां च नैब कल्पते उपभोगाय तथा च प्रभ्वाच्छेचे उदाहरणम्-- ____ कस्मिंश्चित् प्रामे एको गोप आसीत् , स च पयोविभागेन गाः रक्षति, गवां यत् दुग्ध भवति तत्रकं भागं स्वयं गृह्णाति भागत्रयं च गोस्वामित्वे ददाति । अथवा दिनत्रयं सर्व दुग्धं मोस्वामिने ददाति चतुर्थे दिने यत् यत् दुग्धं तत्सर्वं स्वयं गृह्णाति, एतदेव गोपस्य वेतनम् । एवंप्रकारेण गोपालनं कुर्वन् गाः रक्षति । एकदा कदाचित् गोपालस्य पयोग्रहणदिवसेः कश्चित् श्रमणः समागतः तदा गोस्वामी गवां पयो गृहीत्वा श्रमणाय दत्तवान् , यद्यपि गोपस्येदृशं कार्य नाभिमतं तेन तस्य मनसि अप्रियमभूत् तथापि तूष्णीमेव स्थितः मौनमेवः स्थितः न्यूनभेव दुग्ध पायोभाजने गृहीत्वा स्वगृहं गतवान् । तदनन्तरं तस्पान्या गोपिकया पयोभाजनमभृतं दृष्टम् , तदृष्ट्य सा प्रोवाच गोपं प्रति-कथमधः पयोधाजने न्यूनमेव दुग्धं घिद्यते । गोपोऽवदत् हे गोपिके ! किं कथयामि मम दौर्भाग्यात् तत्रैको दुर्वर्णः श्रमणः स्वमागतः तस्मै मम दुग्धं बलात्, गृहीत्वा गोस्वामिना दत्तं ततो रिक्तं पयोभाजनं विद्यते, तदा सा. गोपं प्रति क्रुद्धा दुर्वायं कथितवती । ततः स साधु मारयितुं समागतः, प्रयत्नेन मोचितः साधुरिति । तस्मादाच्छिच दीयमानमन्चादिकं न ग्राह्यमिति । एवं स्वाम्याच्छेद्यमनेकस्वामिकं वस्तु. एकस्यैवाच्या ग्रहणे स्वामिनां परस्परं कलहादिकं जायते अतस्तदपि त्याज्यम् । एवं स्तेनाच्छेषं चौरेण यच्चौर्यकर्मणाऽऽनीतं तत् भयप्रदर्शन, पूर्वकं तद्धस्तादाच्छिद्य दीयमानं भवति, एतादृशवस्तुग्रहणे तदीयसंतत्यादिना श्रावकल्यः प्राणभयादिसंभावना, ततस्तथा न कार्यम् । सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अतिरेगपडिग्गहं गणि उद्देसिय गणिं समुद्देसिय ते गणिं अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ वियरत वा साइज्जइ ॥ सू० ५॥
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३३६
निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुरतिरेकप्रतिग्रहं गणिमुद्दिश्य गणि समुद्दिश्य तं गणिमनापृse अनामन्त्र्य अन्योन्यस्मै वितरति वितरंतं वा स्वदते ॥ सू० ५ ॥
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चूर्णी 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'अरे गपडिग्ग' अतिरेकप्रतिग्रहम् - प्रमाणादधिकं पात्रं यावत्प्रमाणकं पात्रादिकं श्रमणार्थं शास्त्रे कथितं ततोऽधिकम्, अयं भावः-उत्कृष्टेन एकस्य साधोः कृते पात्रत्रयं चतुर्थमुन्दकं तीर्थकरेणानुज्ञातं, ततोऽधिकं पात्रम् अतिरेकमिति कथ्यते । अथवा - यावत्संख्यक पात्रग्रहणं कथितं तदपेक्षया यदि बहुतरं गृह्णाति ततोऽतिरेकमिति कथ्यते । अथवा अनेन प्रकारेणातिरेको भवेत्- - यथा कोपि साधुः पात्रयाचनार्थं प्रस्थितः तत आचार्यः पृच्छति क गच्छसि तदा स वदति पात्र मानेतुम् पात्रेषु छिद्राणि जातानि । तदा आचार्यः कथयति - सर्वसाध्वर्थ पात्राणि आनयतु । तदा स निर्गतः पात्रमानेतुम् मार्गे गच्छन् संभोगिसाधुना स दृष्टः, संभोगी साधुर्वदति - क गच्छसि ? स प्रोवाच आचार्येण सर्वेषां पात्रग्रहणाय प्रस्थापितोऽस्मि । तदा सांभोगिकः साधुर्वदति - भो श्रमण ! यावन्ति पात्राणि गुरुणा ते ग्रहीतुं संदिष्टानि तावत्सु पात्रेषु गृहीतेषु यदि तदतिरिक्तं पात्रं लब्धं भवेत् तदा ग्रहीतव्यं गृहीत्वा च मह्यं समर्पणीयम्, अहमाचार्य विज्ञापयिष्यामि । ततः पात्रान्वेषकः साधुर्वदति - एवं करिष्यामीति । ततः स गतः पात्र मानेतुम् ततो लब्धं तावत्प्रमाणकं पात्रं यावन्मात्रं गुरुणा संदिष्टं ततोsधिकमपि पात्रं लब्धं गृहीतं च । एवं प्रकारेणातिरेकपरिग्रहो भवति । अथवा यदीदं पात्रं त्रुटितं स्फुटितं स्फटितं वा स्यात् तदा ग्रहीतव्यं भवेत् संप्रति प्रायोग्यं च लभ्यते इति कृत्वा आत्मछन्दसा अनिर्दिष्टान्यपि पात्राणि गृहीतानि इत्यतिरेकपरिग्रहो भवतीति । "गणि उद्देसिय गणि समुद्देसिय" यं गणिमुद्दिश्य यं गणि समुद्दिश्य अतिरेकपात्रं गृहीतम् तत्र विशेषित उद्देशो यथागृहीतमतिरेक पात्रादिकं साधर्मिकाय दास्यामीति तथा विशेषितः समुद्देशः यथा सति साधर्मिके साधर्मिकाय दाम्यानि, अथवा उद्देशः -गणिनो दास्यामि वाचकाय वा दास्यामि, समुद्देशो यथा अमुकगणिने दास्यामि अमुखवाचकाय वा दस्यामीति । तत्र सामान्यतोऽवधारणमुद्देशो विशेषतो निर्धारणं समुद्देश इति निष्कर्षः । "तं गणि अणापुच्छिय अणामंतिय" तं गणिनं यदर्थमतिरेकषात्रस्य ग्रहणं कृतवान् तम् अनापृष्ठ्य पृच्छाम कृत्वैव अनामत्र्य आमंत्रणमकृत्वैव, यमुद्दिश्य अतिरेक पात्रादिकं गृहीतवान् तं दृष्ट्वा गिमन्त्रणं यथा - इदं त्वदीयं पात्रादिकं स्वेच्छया गृहाण, अथ यदर्थमानीतवान् स प्रत्यक्षतो न मिलति तदा अन्यं पृच्छति कुत्र गतवान् स साघुरमुको वाचको गणी वा इति प्रच्छनम्, दृष्टे आमन्त्रणमदृष्टे पृच्छेति विवेकः । " अणमण्णस्स वियरइ" अन्योन्यस्मै वितरति यं समुद्दिश्याऽऽनीतवान् तमनापृच्छय अनामन्त्र्यान्यस्मै खेच्छया वितरति ददाति तथा 'वियरंतं वा साइज्जइ' वितरन्तं ददतं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥ सु० ५ ॥
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चूर्णिभाष्याव बूरिः उ०४१ सु०६-८ अतिरेकप्रतिग्रहस्य समर्थांसमर्थाय दानादाननि० ३३७
सूत्रम् — जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरस्स वा थेरियाए वा अहत्थच्छिन्नस्स अपायछिष्णस्स अनासाछिण्णस्स अकण्णछिष्णस्स अणोट्ठछिण्णस्स सक्क्स्स देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू०६ ॥
छाया - यो भिक्षुरतिरेकप्रतिग्रहं क्षुल्लकाय वा क्षुल्लिकायै वा स्थविराय वा स्थविरायै वा अस्त छिन्नाय अपादछिन्नाय अनासाछिन्नाय अकर्णछिन्नाय अनोष्ठछिन्नाय शक्ताय ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ६ ॥
1
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'अइरेगं पडिग्गहं' अतिरेकं प्रतिग्रहं प्रमाणादधिकं प्रतिग्रहं पात्रं यस्य पात्रस्य यावत् प्रमाणं शास्त्रे कथितं तदपेक्षया अधिकं पात्रमतिरेकमिति कथ्यते तादृशपात्रम् 'खुड्डगस्स' क्षुल्लकायानतिक्रान्तवालवयस्काय बालकायेत्यर्थः, 'खुड्डियाए वा' क्षुल्लिकायै वा बालिकायै 'थेरगस्स वा' स्थविराय - वृद्धाय वा 'थेरियाए वा' स्थविरायै वा वृद्धायै इत्यर्थः, कथंभूतेभ्य-क्षुल्लकादिभ्यः ! तत्राह - 'अहत्थच्छिष्णस्स' अहस्तच्छिन्नाय न हस्तौ छिन्नौ भग्नौ यस्य स अहस्तछिन्नः हस्ताद्य - यवसंपन्नः, तस्मै अहस्तछिन्नाय तथा 'अपायच्छिण्णस्स' अपादछिन्नाय न पादौ चरणौ छिन्नौ विभग्नौ यस्य स अपादछिन्नः पादावयवसम्पन्नः; तस्मै अपादच्छिन्नाय तथा 'अणासाछिण्णस्स' अनासाछिन्नाय न छिन्ने कर्तिते नासिके यस्य स अनासाछिन्नः तस्मै अनासाछिन्नाय नासिकावयवसम्पन्नाय 'अकण्णछिष्णस्स' अकर्णछिन्नाय - अच्छिन्नकर्णाय कर्णसंपन्नायेत्यर्थः 'अणोट्ठछिष्णस्स' अनोष्ठछिन्नाय न छिन्नौ ओष्ठौ पूर्वापरौ यस्य स तथाविधः तस्मै अनोष्ठछिन्नाय ओष्ठावयवसम्पन्नाय, एतावता सर्वावयवसम्पन्नत्वं प्रदर्शितम् अत एव 'सक्कस्म' शक्ताय समर्थाय, तत्र शारीरिक मानसिकादिबलयुक्तः समर्थः तादृशाय शक्तिसम्पन्नाय 'देइ' ददाति सर्वाङ्गोपाङ्गयुक्तबलवीर्यादिसम्पन्नाय यो भिक्षुरतिरेकपात्रं समर्पयति तथा 'देतं वा साइज्जइ' ददतं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् - बालस्स य वुइडस्स य, साहुस्स साहुणिस्स वा । सक्करसाण गछिन्नस्स, देज्ज पत्ताइ दोसभा ||
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छाया - बालाय च वृद्धाय व साधवे साध्ध्यै वा । hrestङ्गछिन्नाय दद्यात् पात्रादि दोषभाक् ॥
अवचूरि:
रे: - बालाय बाल्यावस्था सम्पन्नाय, वृद्धाय स्थविराय वा साघवे तथा एता
st साध्यै वा कीदृशाय ? शक्ताय शक्तिसम्पन्नाय गमनागमनसमर्थाय तथा अनङ्ग छिन्नाय
४३
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निशोथस्ने हस्तपादादिपरिपूर्णाङ्गाय साधये साध्व वा यदि कोपि मुनिः यत् पात्रादि वसपात्राघुपकरणजातं सातिरेक साधुकल्पादधिकं तत् दद्यात् स दोषभाग् भवति-आज्ञामङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति भावः ॥ सू० ६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्गस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा हत्थछिण्णस्स पायच्छिण्णस्स नासाछिण्णस्स कण्णछिण्णस्स ओट्ठछिण्णस्स असकस्स न देइ न देंतं वा साइज्जइ ॥
छाया-यो भिक्षुरतिरेकं प्रतिप्रहं क्षुस्लकाय वा झुस्लिकाय वा स्थविराय पा स्थविरायै वा हस्तछिन्नाय पादछिन्नाय नासाछिन्नाय कर्णछिन्नाय ओष्ठछिन्नाय अशक्ताय न ददाति न ददतं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
चूर्णी--सूत्रोक्तहस्तछिन्नादिविशेषणविशिष्टेभ्यः, साधुसाध्वीभ्यः अतिरेकं पात्रं न ददाति न ददतमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पडिग्गह अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं घरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥सू०८॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहमनलमस्थिरमध्रुवमधारणीयं धरति धरन्तं पा स्वदते ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडिग्गई' प्रतिग्रह पात्रम् 'अणलं' अनलम्-अपर्याप्तम् , तत्र अलं शब्दः पर्याप्त्यर्थकः न अलमनलम् अपर्याप्तम् असंपूर्ण खण्डितावयवमित्यर्थः 'अथिरं' अस्थिरम् अदृढम् 'अधुर्व अध्रुवम् , तत्र ध्रुवं दीर्घकालभावि तथा च दीर्घकालभावि यत् न भवति तत् अध्रुवम् 'अधारणिज्ज' अधारणीयम् न धारयितुं योग्यं यत् तत् अधारणीयम् अलक्षणसम्पन्नमित्यर्थः यादृशं लक्षणं पात्रस्य कथितं तादृशलक्षणविहीनं यत् पात्रं तत् अधारणीयमिति कथ्यते, एतादृशमनलमस्थिरमध्रुवमधारणीयपात्रम् यो भिक्षुः 'धरेइ' धरति, स्वसमीपे स्थापयति तथा 'धरत' वा साइज्जई' धरन्तं वा स्वदते, यो हि अनलादिकपात्रस्य धारणं करोति कारयति तस्यानुमोदनं वा करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्ज न धरेइ न धरेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं न धरति न घरन्त वा स्वदते ।। सू० ९॥
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पूर्णिभाष्यावप्रिः २०१४ सू०९-३१ प्रतिप्रहस्य वर्णादिविपर्ययकरणनिषेधः ३३१
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'पडिग्गई' प्रतिप्रहं पात्रम् 'अलं' मलं पर्याप्तम् 'थिर स्थिरं दृढम् 'धुवं' ध्रुवं चिरकालपर्यन्तमपि स्थायि 'धारणिज्ज' धारणीयं धर्तुं योग्यं पात्रस्य यत् लक्षणं प्रदर्शितम् तादृशलक्षणयुक्तम् 'न घरेई' न धरति यत् पात्रं कार्यकरणसमर्थ दृढं चिरकालस्थायि सर्वलक्षणलक्षितं न धरति न स्वकीय. पार्श्वेऽवस्थापयति तथा 'न धरतं वा साइज्जई' न धरन्तं वा स्वदते, यो हि भिक्षुः सर्वथालक्षणादिसम्पन्नमपि पात्रादिकं न धरति तस्यानुमोदनं करोति स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०९।।
सूत्रम्-जे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवण्णं करेइ करें वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुर्वर्णवन्तं प्रतिग्रहं विवर्ण करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'वण्णमंतं पडिग्गहे' वर्णवन्तं प्रतिमहं शोभायुक्तम् ‘विवणं करेइ' विवर्ण करोति, तत्र कुत्सितो वर्णो नीलादिकः यस्य दर्शनेन मनसि अप्रीतिर्जायते तादृशेन कुत्सितवर्णेन युक्तं करोति 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥सू० ११॥
छाया-यो भिक्षुर्विवर्ण प्रतिग्रहं वर्णवत् करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ स्० ११ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'विवणं पडिग्गह' विवर्ण प्रतिग्रहं पात्रम् विगतवर्ण क्षारत्तिकोष्णजलादिना विगतवर्ण प्रतिग्रहं पात्रादिकं पुनरपि 'वणमंतं करे' वर्णवत् करोति शोभनवर्णयुक्तं करोति 'करेंतं वा साइजई' कुर्वन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू नवए मे पडिग्गहे लढे त्ति हुटु तेल्लेण वा घरण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्तं वा भिलिंगेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुर्नयो मया प्रतिग्रहो लब्ध इति कृत्वा तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया या प्रक्षयेत् वा अभ्यङ्गयेत् वा म्रक्षयन्तं वा अभ्यङ्गयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'नवए मे पडिग्गहे लद्धे' नवो मया प्रतिग्रहो लब्धः प्रतिग्रहः पात्रं लब्धम् 'त्ति कटु' इति कृत्वा लब्धस्य प्रति
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३४०
निशीथसूत्रे
ग्रहस्य सौन्दर्यप्रसाधनाय 'तेल्लेण वा' 'तैलेन वा - अतस्यादितैलेन 'घरण वा' घृतेन वा 'णवणीण वा' नवनीतेन वा 'वसाए वा' वसया वा चर्बीति लोकप्रसिद्धया तत् पात्रम् 'मक्खेज्बा' प्रक्षयेत् वा एकवारं लेपं कुर्यात् 'भिलिंगेज्ज वा' अभ्यन्नयेत् वा अनेकवारं वा म्रक्षणं कुर्यात् कारयेत् वा तथा 'मक्खतं वा' म्रक्षयन्तं वा 'भिलिंगेंत वा' अभ्यङ्गयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १२ ॥
एवम् अनेन नूतनपात्रविषयकतै लाद्यालापकप्रकारेण लोधादिना १३, शीतोदकविकृता दिना १४, एवं बहुदैर्वासकेन तैलादिना १५, लोधादिना १६, शीतोदकविकृतादिना १७. एवं तैलादितः शीतोदकविकृतादिपर्यन्तानि सर्वाणि षट् सूत्राणि, नूतनपात्रविषयाणि १७, तथा सुरभिगन्धपात्रस्य दुरभिगन्धकरणविषयं १८, दुरभिगन्धस्य सुरभिगन्धकरणविषयमिति द्वे सूत्रे १९ । सुरभिगन्धपात्रस्य तैलादिविषयं २० लोधादिविषयं २१, शीतोदकविकृतादिविषयं चेति त्रीणि सूत्राणि २२, एवं सुरभिगन्धपात्रस्य बहुदै वसिक-तैल- लोध - शीतोदकविकृतादिना त्रीणि सूत्राणि, एवं षट् सूत्राणि २५ । अनेनैव प्रकारेण तैलादिना लोधादिना शीतोदकविकृतादिना, एवं बहुदैवसिक-तैल-लोध्र-शीतोदकविकृतादिना दुरभिगन्धविषयाणि षडपि सूत्राणि बोध्यानि ३१ । एतानि द्वादशसूत्रत आरभ्यैकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तानि विंशतिसूत्राणि यथायोगं परिभाव्य व्याख्येयानि सूत्रालापकाश्चेत्थम्—
" जे भिक्खु णवए मे पडिग्गहे लद्धेत्ति कट्टु लोद्धेण वा कक्केण वा चुपशेण वा दण्णेण वा उल्लोलेज्ज वाउ टूटेन वा उल्लोलतं वा उब्बतं वा साइनइ || सू० १३ || जे भिक्खू णवए मेडिग्गहे लद्धे - तिकट्टु सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा० ।। सू० १४ || जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लदे - त्ति कट्टु बहुदेवसि एण तेल्लेण वा ० ॥ सू० १५ ॥ बहुदेवसिएण लोद्रेण वा ० || सू० १६ ॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥ सू०१७ ।। जे भिक्खू सुभिगंधे पडिग्गहे लद्धे-ति कट्टु दुब्भिगंघे करे || १८ || जे भिक्खू दुब्भिगंथे पडिग्गहे द्वे त्ति कट्टु सुन्भिगंधेकरेइ ॥ सू० १९ ॥ जे भिक्खू सुभिगंधे पढिग्गहे लद्वे-त्ति कट्टु तेल्लेण वा० ॥ सू० २० || लोद्वेण बा० ॥ सू० २१ ॥ सीओदगवियडेण वा० ॥ सू० २२ ॥ एवं बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥ सू० २३ ॥ बहुदेसिएण लोद्रेण वा० || सू० २४ ॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० || सू० २५ ।। जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडिग्गहे द्वे - ति कट्टु तेल्लेण वा० ॥ स्० २६ ॥ लोद्वेण वा० ॥ सू०२७ सोभोदगवियडेण वा० || सू० २८ || एवम् - बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० । सू० २९ ।। बहुदेवसिएण लोद्रेण वा० ॥ सू० ३० || बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ॥ सू० ३१ ॥" इत्येवं सूत्रालापका बोध्याः ।
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० १४ सू० ३२-५४ पात्रस्यातां पनतद्गत पृथिवीकायादिनिस्सारणनि• ३४१
अत्राह भाष्यकारः -
भाष्यम् -- घसणे खालणे लेवकरणे पायगस्स हि । पावई बहुणो दोसा, भिक्खु एत्थ न संसओ ||
छाया - घर्षणे क्षालने लेपकरणे पात्रकस्य हि । प्राप्नोति बहून् दोषान् भिक्षुरत्र न संशयः ॥
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अवचूरिः - नवं मया पात्रं लब्धमिति कृत्वा यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा घर्षणमेकवारममेकवारं वा करोति तथा नवीनपात्रस्य नवाकारमेव पात्रं सर्वथा तिष्ठतु इति बुद्धया तैलादिना मर्दनं करोति कारयति वा कुर्वन्तं वा अनुमोदते, तथा क्षालनं पात्रस्य सुगन्धिकरणाय दुरभिगन्धनिवृत्तये, नवस्य नवाकारमेव सर्वथा तिष्ठतु इति बुद्धया अचित्तशीतोष्णजलेन करोति परद्वारा वा कारयति तथा कुर्वन्तमनुमोदते, तथा छेपने नवप्राप्तस्य पात्रस्यः नवत्वदृढतायै सुरभिगन्धपात्रस्य सुरभिगन्धस्थापनाय दुरभिगन्धपात्रस्य दुर्गन्धनिवृत्त्यर्थं लोधादिद्रव्येण लेपनं करोति कारयति तथा कुर्वन्तमनुमोदते । एवं बहुदैव सिकसूत्रेष्वपि तैलघृतनवनीतादिना - सकृत् असकृद्वा मर्दनम्, अचित्तशीतोष्णजलेन प्रक्षालनं करोति कारयति कुर्वन्तमनुमोदते स भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा बहून् आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्था मिथ्यात्वसंयम विराधनात्म विराधना रूपान् दोषान् प्राप्नोति, अत्रैतस्मिन् न कोपि संशयः, एते दोषा भवन्त्येव तेषामिति भावः । इमे चान्येपि दोषा भवन्ति तथा हि-तैलादिना पात्रस्य घर्षणे कृते हस्तायङ्गानामुपघातो भवति, तथा नवनीतादिषु विद्यमानजीवानामप्युपघातो भवति, तथा पात्रस्य दुर्गन्धनिवारणाय आतापस्थाने धूपनादिकरणे सम्पातिकजीवानां विराधनमपि जायते, तथा उत्पीडने च भूमिगता जीवा अपि विराधिता भवन्ति, यस्मात् तैलादिना घर्षणादिकरणे एते पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा अपरिकर्मितं यदृच्छया प्राप्तमेव पात्रादिकं धारयेत्, तथा तादृशस्यैवोपभोगमपि कुर्यात् नतु कदाचिदपि सुगन्धितलब्धपात्रादीनां सुगन्धितां दृढयितुं दुरभिसंप्राप्तपात्रस्थ दुर्गन्धस्यापनयनाय तेलादिना बहुदैवसि कतैलादिना मर्दनले पनशीतोष्णान्यतराचितजलेन प्रक्षालनादिकं स्वयं न कुर्यात् न वा परद्वारा कारयेत् न वा तैलादिना मदनादिकं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदप्यनुमोदयेदिति, किन्तु शास्त्र संमत पद्धतिमाश्रित्यैव संयमाराधनं कर्तव्यं कारयितव्यं कुर्वन्तं वा अनुमोदनीयम् न तु कदाचिदपि स्वमनीषया क्रिमपि तत्र न्यूनाधिकभावः करणीयः, सर्वज्ञभाषितपरमसूक्ष्मविषये स्वमनीषया विचारस्यायोग्यत्वात् ॥ सू० ३१||
सूत्रम् - जे भिक्खू अनंतरहियाए पुढवीए पडिग्गहं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, आयातं वा पयावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२ ॥
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३४२
निशोथसत्रे छाया-यो भिक्षुः अनन्तरहितायां पृथिव्यां प्रतिग्रहं आतापयेद् वा प्रतापयेद् पा, आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३२ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि। 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणंतरहियाए' भनन्तरहितायाम् अनन्तरहिता नाम सचित्ता तस्यां सचित्तायाम् 'पुढवीए' पृथिव्यां पूर्वोक्तरुपायाः पृविव्या उपरीत्यर्थः 'पडिग्गई' प्रतिमहं पात्रम् 'आयावेज्ज वा' आतापयेद् वा एकवारम् 'पयावेज वा' प्रतापयेद् वा अनेकवारम् एवम्, 'आयातं वा' आतापयन्तं वा 'पयावेत वा' प्रतापयन्तं वाऽन्यम् ‘साइज्जइ' स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ ३२ ॥
एवं 'ससणिद्धाए पुढवीए' प्रयस्त्रिंशत्तमसूत्रादारभ्य द्विचत्वारिंशत्तमसूत्रपर्यन्तदशसूत्राणां व्याख्या त्रयोदशोद्देशको तद्वितीयसूत्रादारभ्यैकादशपर्यन्तसूत्रव्याख्यावदवसेया, विशेषस्त्वेतावानेव यत-तत्रा सचितपृथिव्यादौ स्थानशय्यानिषयानैषेधिकीनां प्रतिषेधः कृतः, अत्र तु प्रतिग्रहस्यातापनप्रतापनविषयः प्रतिषेधः प्रोक्त इति ॥ सू० ३३-४२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खु पडिग्गहाआ पुढवीकार्य नीहरेइ नीहरावेइ नीहरियं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥४३॥ एवं आउकायं ॥ सू० ४४॥ तेउकायं ।। सू० ४५॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहात् पृथिवीकार्य निहरति निर्हारयति निहतं आहत्यदीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ।। सू० ४३ ॥ एवं अप्कायम् ॥ सू० ४४॥ तेजस्कायम् ।। सू० ४५ ॥
चूर्णिः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः गृहस्थगृहे पात्रग्रहणसमये यदि 'पडिग्गहाओ' प्रतिप्रहात् पात्रात् 'पुढवीकार्य सचित्तपृथिवीकार्य लवणगैरिकादिकं यदि पतेत् तत् 'नीहरेइ' निर्हरति निष्कासयति स्वयमेव तथा 'नीहरावेई' निर्वारयति अन्येन गृहस्थेन वा 'नीहरियं आइटु दिज्जमाणं' निर्दृतं निष्कासितं सदपि आहत्य अभिमुखमानीय दोयमानं पात्रम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। स० ४३ ॥
'एवं आउकायं तेउकार्य' इति, अनेनैव प्रकारेण अप्कायतेजस्काययोरपि निर्हरणविषयं सूत्रद्वयं व्याख्येयम् । अग्निकायनिर्हरणमेवं भवति पात्रे केनापि कारणेन अकस्माद्वा अग्निकणः पतितो भवेत् तं निष्कास्य ददाति इति ॥ ४४-४५॥
एवमेव कस्द-मूल-पत्र-पुष्प-फल-बीज-हरितविषयकाणि सप्त सूत्राणि ॥ सु० ५२॥ एवम् औषधिबीजविषयकं सूत्रम् , तत्र- औषधिः शाल्याद्यन्नं तस्य बीजानीति कणान् निर्हरति, इत्यादि
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णिभाष्यावचूरिः उ.१४ सू०५५-५७ पात्रस्य कोरण-मार्गसभागतयातकादियाचननि० ३४३ सूत्रम् ॥ सू० ५३ ।। एवं त्रसप्राणजातं कुन्थुपिपीलिकादिकं तदविषयकमपि सूत्रं विज्ञेयं व्याख्येयं च ॥ सू०५४॥
सूत्रम्- भिक्खू पडिग्गहं कोरेइ कोरावेइ कोरियं आहट्टदिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ५५॥
छाया-यो भिक्षुः प्रतिग्रहं कोरयति कोरावयति कोरितमाहत्य दीयमानं प्रतिगृसाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५५ ॥
चूर्णि:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गह' प्रतिग्रहं पात्रम् 'कोरेइ कोरेइ इति देशीशब्दोऽयम तदर्थस्तु सूक्ष्मच्छिनैश्चित्रयति अर्थात् यो भिक्षुः पात्रस्य मुखादिकं विच्छित्य स्वयं सम्पादयति चित्रादिकं च पात्रे स्वयं करोति 'कोरावेई' कोरावयति चित्रयति मन्यद्वारा पात्रस्य मुखादिकं चित्रादिकं च कारयति 'कोरियं आहटुदिज्जमाणं' कोरितमाहृत्य दीयमानं चित्रितं पात्रं परद्वारा सम्मुखमागत्य दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृहन्तं वा स्वदतेऽनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासंगं वा अणुवासगं वा गामंतरंसि वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गहं ओभासिय आभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५६॥
छाया---यो भिक्षुतिकं वा अबातकं वा उपासकं वा अनुपासकं प्रामान्तरे वा प्रामपथान्तरे वा प्रतिग्रहमवभाण्यावभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ५६ ॥
चूर्णि-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'णायगं वा' ज्ञातकं वा स्वजनं वा तत्र स्वजनः पूर्वसंस्तुतः पश्चात्संस्तुतश्च, तत्र पूर्वसंस्तुतः पूर्वपरिचितो मातापितृभ्रातृप्रभृतिकः, पश्चात्संस्तुतः श्वशुरश्वश्रूश्यालकादिः 'अणायगं वा' अज्ञातकम् अस्वजनं स्वजनभिन्नो वा पूर्वपरिचितः ग्रामवासी देशवाशी वा तम् ‘उवासगं वा' उपासकं जिनधर्मानुयायिनं श्रावकं श्राधिका वा 'अणुवासगं वा' अनुपासकं श्रावकभिन्नं यं कमपि वा 'गामंतरंसि वा' प्रामान्तरे वा-द्वयोमियोर्मध्यभागे 'गामपतरंसि बा' प्रामपथान्तरे वा ग्रामस्य मार्गद्वयमध्ये 'ओभासिय ओभासिय' अवभाष्यावभाष्य उच्चैःशब्देन कथयित्वा कथयित्वा 'पडिग्गई' प्रतिप्रहं पात्रादिकम् 'जायइ' याचते पात्रयाचनां करोति 'जायंत वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
अत्राह भाष्यकार:
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निशीथसूत्रे भाष्यम्-अणायगं णायगं का, गामे मग्गेऽहवा जई ।
ओभास्स जायई पत्तं, आणाभंगाइ पावई ॥ छाया-अज्ञातकं हातकं वा प्रामे मार्गेऽथवा यतिः ।
अवभाष्य याचते पात्रमाक्षाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचरिः-- यो यतिः श्रमणः श्रमणी वा ग्राममध्ये ग्राममार्गे ग्राममध्यवर्तिमार्ग वा ग्रामद्वयमध्यवर्तिमार्गमध्ये इत्यर्थः अज्ञातकम् ज्ञातकं श्रावकमश्रावकं वा अवभाष्य उच्चैः स्वरेण कथयित्वा कथयित्वा याचते स यतिः श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमविराधनात्मविराधनादोषान् प्राप्नुयात् तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा ग्रामस्य मार्गमध्ये अन्यत्र वा मार्गमध्ये स्वजनास्वजनादिकं श्रावकमश्रावकं वा अवभाष्य पात्रादिकं न याचेत न वा याचमानं श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदप्यनुमोदयेत् इति ।। सू० ५६॥
. सूत्रम्--जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासंग वा परिसामज्झओ उट्ठवेत्ता पडिग्गहं ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५७॥
छाया-यो भिक्षुआतकं वा अचातकं वा उपास वा अनुपासकं वा परिषन्मध्यात् उत्थाप्य प्रतिग्रहमवभाज्यावभाष्य याचते याचमानं वा स्वदते ॥ सू० ५७ ॥
चूर्णिः-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः ‘णायगं वा' ज्ञातकं वा 'अणायगं वा' अज्ञातकं वा 'उवासर्म वा' उपासकं श्रावकं वा 'अणुवासगं वा' अनुपासकं श्रावकभिन्नं वा यं कमपि व्यक्तिविशेषम् 'परिसामज्झओ उद्ववेत्ता' परिषन्मध्यात् उत्थाप्य, तत्र परिषत् सभा, तन्मध्यात् उत्थाप्य 'पडिग्गहे' प्रतिग्रहं पात्रम् ओभासिय 'ओभासिय' अवक्षाध्याक्भाष्य मिष्टमनोज्ञादिवचनं वा कथयित्वा कथयित्वा 'जायइ' याचते 'जायंत वा साइज्जई' याचमानं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-णायगाई सभामज्झा, उहाविय जई जइ ।
जायई पत्तवत्थाई, आणामं गाइ पावई ॥ छाया--पातकादिकं सभामध्यादुत्थाप्य यतिर्यदि। . याचसे वनपात्रावील आहाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
अवचूरिः--यदि कदाचित् सभा परिषत् तन्मध्यात् उत्थाप्य ज्ञातकादिकं स्वजनमस्वजनं वा श्रवकमश्रावकं वा पात्रवस्त्रादीन् याचते प्रार्थयते तदा आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नुयात् तस्मात् तथा न कुर्यात् , न वा तथाकुर्वन्तमनुमोदयेदिति । सभात उत्थाप्य स्वजनादिना वार्तालापकरणे
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पुर्णिभाष्यावचूरिः उ० १४ सू० ५८- ६० प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुबद्धादिकालनिवासनिषेधः ३४५ Sपि दोषा भवन्ति तथाहि सभामध्ये धर्मकथां श्रोतुमनेके ज्ञातका अज्ञातका वा श्रावका अश्रावका वा समागता भवन्ति तत्र तन्मध्यात् यं कमपि समुव्थाप्य पात्रादियाचनं करोति श्रमणः तदा तस्य तत्र कश्चित् शत्रुरपि धर्मकथां शृण्वन् आसीत्, तच्छत्रोर्भिन्ना अपि आसन्, तद्दिवसे तत्काले वा तच्छत्रोः चतुष्पदमश्वादिकं कोपि चौर्येणाहरत् स्वयं वा विनष्टो जातः, तदीयस्वजनो वा उपद्रावितः केनापि भवेत् तदा शत्रोर्मनसि एवं शङ्का भविष्यति यद् चतुष्यदादिर्मम नष्टस्तद्दिवसे अभुकः श्रावकः सभामध्यादुत्थाय बहिर्गत इति मया दृष्टः प्रायस्तेनैवापहरणं कृतं भवेत्, एवंप्रकारेण श्रावको परि श्रमणोपरि वा शङ्का करिष्यति, अथवा साधुरेवापहरणं कृतवानित्यपि शङ्केत, रुष्टा वा ते संतापनादिकं कुर्युरिति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं श्रमणस्य भवेत् तस्मात्कारणात् श्रमणः सभात स्वजना - दिकमुत्थाप्य पात्रादियाचनां न कुर्यात् न वा कुर्वन्तमनुमोदेतेति ॥ सू० ५७ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए उडुबद्धं वसइ, वसंतं वा
साइज्जइ ॥ ० ५८ ॥
छाया
- यो भिक्षुः प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुबद्धं बसति वसन्तं वा स्वदते || सू० ५८ ॥ चूर्णी - जे 'भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिगहनीसाए' प्रतिग्रहनिश्रया पात्रादिलाभेच्छ्या अन्यं मासकल्पयोग्यं क्षेत्रं परित्यज्य अत्र क्षेत्रे पात्रादिकं लप्स्ये इति लोभेन यः श्रमणः श्रमणी वा ऋतुबद्धे काले मासकल्पस्याप्रायोग्येपि प्रामादौ 'वसई' वसति निवासं करोति 'वसंतं वा साइजर' वसन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू० ५८ ||
सूत्रम् — जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५९ ॥
छाया - यो भिक्षुः प्रतिग्रहनिश्रया वर्षावासं वसति वसन्तं वा स्वदते ॥ सू० ५९ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः 'पडिग्गहनीसाए' प्रति प्रहनिश्रया अर्थात् अमुकक्षेत्रे निवासकरणे प्रचुरं पात्रादिकं मे मिलिष्यतीति विचार्य योग्ये अयोग्ये वा क्षेत्रे 'वासावासं' वर्षावासं वर्षाकालनिवासं चातुर्मास्यमित्यर्थः 'वसई' वसति निवास करोति तथा 'वसंत वा साइज्जइ' वसन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः श्रमणी वा पात्रादिलोभेन वर्षाकालिक निवासाय योग्येऽयोग्ये वा क्षेत्रे वर्षाकालिकनिवासं करोति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।
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निशीथर
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-उडुबद्ध मासं वा, चाउम्मास तहेव य ।
पडिग्गहत्य जे भिक्खू, वसइ दोसभा भवे ॥ छाया-- ऋतुबद्ध मार्स वा चातुर्मासं तथैव च।
प्रतिग्रहार्थ यो भिक्षुर्वसति दोषभाग् भवेत् ॥ अवचूरिः- यो भिक्षुः प्रतिग्रहाशया ऋतुबद्धे काले हेमन्तप्रीष्मादिसमये मासं मासकल्पं वसति निवासं करोति तथैव तेनैव प्रकारेण चतुर्मासं वसति निवासं करोति प्रतिग्रहाशया तदा तादृश निवासं कुर्वन् भिक्षुः दोषभाग् आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवति ।। सू० ५९॥ सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥
॥णिसीहज्मयणे चउपसमो उद्देसो समत्तो ॥१४॥ छाया-तत्सेबमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ।। सू०४९॥
॥ निशीथाध्ययने चतुर्दश उद्देशकः समाप्तः ॥ १४ ॥ चूर्णी-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् 'पडिग्गई किणइ' इत्यारभ्य 'पडिग्गाहनीसाए वासावासं' इति पर्यन्तं स्थानं प्रतिसेवमानः प्रतिसेवनां कुर्वाणः श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् 'उग्धाइयं' उद्घातिकं लघुकम लघुचातुर्मासिकं प्राप्नोति ॥ सू० ६०॥ इति श्री–विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"- पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् चतुर्दशोदेशकः समाप्तः ॥१४॥
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॥ पञ्चदशोद्देशकः ॥
गतश्चतुर्दशोदेशकः सम्प्रति अवसर प्राप्तः पश्चदशोदेशकः प्रारभ्यते । तत्र पूर्वोक्तचतुईशोदेशकेन सहास्य पञ्चदशोद्देशकस्य सम्बन्धः प्रदर्श्यते-चतुर्दशोद्देशकस्यान्तिमसूत्रे प्रोक्तम् साधुःप्रतिग्रहनिश्रया वर्षावासं न वसेत् इति, एवं प्रतिग्रहनिश्रया वसन्तं साधुं यदि कोऽन्यः साधु रेवं करणे प्रतिषेधयेत् तदा तं प्रति स क्रोधावेशेन परुषं वदिष्यतीत्यत्र पञ्चदशोदेशके परुषभापाया निषेधः करिष्यते इति सम्बन्धेनाह भाष्यकार:--' ण मे रिट्ठगो' इत्यादि ।
भाष्यम् - ण मे णिरद्वगो वासो, वल्ली रूढफलाहुणा । एवं वयं समणं, अज्जो ! मेवं वयाहि भो || १ ॥
छाया--न मे निरर्थको वासो वल्ली रूढफलाऽधुना । एवं वदन्तं श्रमणं आर्य ! मैवं वद भोः || १ ||
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अवचूरिः - कश्चित् श्रमणश्चतुर्मासकरणार्थं कुत्रचित् क्षेत्रे वर्षावासनिवासं कृतवान्, तत्र पात्रार्थं वसन् एकां तुम्बिकालतां पश्यन् एवं वदति - अहो अत्र क्षेत्रे मम वासो न निरर्थको जातः, किन्तु सफल एव, यस्मात्कारणात् एषा पुरतो दृश्यमाना तुम्बिकावल्ली समुत्पन्ना न केवलं समुत्पन्नैव किन्तु क्रमशो वृद्धिंगता सती भित्यादौ आश्रये प्रसरति, पत्रादिकमपि अस्यां बल्ल्यां पर्याप्तं जातम्, न केवलं पत्राणामेवाऽऽधिक्यम् किन्तु पुष्पप्राचुर्यमपि जातम्, न केवलं पुष्पाणामेव प्राचुर्यम् अपि तु फलान्यपि अनेकानि जातानि न केवलं फलान्येव संजातानि, किन्तु कतिपयफलानि पकानि संजातानि, अतः परं तुम्बिकायाः फलानि मे पात्राणि भविष्यन्ति यदर्थं ममात्र वासो जातस्तत्कार्य मे विनैव परिश्रमं भविष्यति, अनुकूलं मदीयभाग्यम्, एवंप्रकारेण हर्षातिरेकाद् वदन्तं श्रमणं दृष्ट्वा कोऽपि तत्समीपवर्ती श्रमणः तं श्रमणं प्रति वदति - हे आर्य ! श्रमण ! मैवं त्वं वद, एवं वदतस्ते महान् कर्मबन्धो भविष्यति, ततः स श्रमणः प्रतिषेधेनारुष्टोऽसौ तं प्रति कठोरवचनं वदेत् तादृशकठोरवचनस्य प्रतिषेधाय पश्चदशोदेशकसूत्रमिदमारभ्यते, भयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य पञ्चदशोदेशीयप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते - 'जे भिक्खू' इत्यादि ।
'
सूत्रम् — जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १|| छाया - यो भिक्षुर्भिक्षूणाम् आगाढं वदति वदन्तं वा स्वदते || सु० १ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूणं' भिक्षूणां -प्रेरक'भिक्षूणां 'आगाढं वयइ' आगाढं वदति -तत्र अत्यर्थं गाढम् आगाढम् - उच्चैर्वचनम् उच्चैराक्रोशव
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निशीथसूत्रे चनमित्यर्थः एवंभूतं वचनं भाषते, तथा 'वयंत वा साइज्जइ' बदन्तं वा श्रमणमाक्रोशवचनं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । एतत्सूत्रस्य विशेषतो व्याख्यानमत्रैव दशमोद्देशके द्रष्टव्यम्, एताकान् विशेषः-यत् दशमोद्देशके आचार्य पर्यायज्येष्ठं वा प्रति आक्रोशवचनस्य प्रतिषेधः कृतः, अत्र तु भिक्षुकमात्रं प्रति आक्रोशवचनस्य निषेधः क्रियते ॥ सू० १॥ - सूत्रम्--जे भिक्खू भिक्खूणं फरसं वयइ वयंत वा साइज्जइ॥सू० २॥
छाया--यो भिक्षुभिषणां परुषं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूण' भिक्षुणाम् 'फरुसं क्यइ' परुषं वदति, तत्र परुषं-कठोरं वाक्यं भाषते तथा 'वयंतं वा साइज्जई' वदन्तम् कठोरखाक्यं भाषमाणं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढफरुसं वयइ वयंतं वा साइ. ज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुर्भिक्षणाम् आगाढपरुष वदति पदन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खूणं' भिक्षूणाम् 'आगाढफरुसं वयई' आगाढपरुषं वदति, तत्र आगाढम्-आक्रोशवचनं-मर्मोद्घाटनपूर्वकमुच्चैः सक्रोधं परुषं वाक्यं वदति-आक्षेपं करोति, तथा 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । दशमोद्देशस्यादौ एव अस्य व्याख्यानं कृतं तत एव दष्टव्यमिति ॥ सू० ३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू भिक्खूणं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू०४॥
छाया-यो भिक्षुर्भिक्षूणाम् अन्यतरया अत्याशातनया अधाशातयति अत्याशातयन्तं वा स्वदते ॥ सू०४॥ ___चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'भिक्खू ' भिषणाम् 'अण्णयरीए' अन्यतरया-अनेकप्रकारकाशातनामध्याद् एकया कयाचित् 'अच्चासायणाए' अत्याशातनया 'अच्चासाएई' अत्याशातयति-माज्ञातनां करोति, तथा 'अच्चासाएंतं वा साइज्जई' अत्याशातयन्तम्-आशातनां कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-आगाढं फरुसं वक्कं, दसमे खलु वन्नियः । .
तं वेत्थवि णायन्वं, नवरं भिक्खुयं पइ ॥
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पर्षिभाष्यावहिः उ० १५ सू० १-१२ आगाढादिवचन सचित्ताम्रपरिभोगनिषेधः ३४९ छाया-आगाढं परुषं वाक्यं दशमे खलु वर्णितम् ।
तदेवात्राषि पातव्यं नवरं भिक्षुकं प्रति ॥ अवचूरिः-आगाई परुषं वाक्यम् , आगाढपरुषतदुभयाऽऽशातनादीनां स्वरूपम् यदेव दशमोदेशके वर्णितम् तदेव अत्रापि ज्ञातव्यम् यत् पूर्वमुक्तं तदेव पुनरव प्रदर्शितम् किन्तु 'नवरं' इत्यादि, नवरम् एतावान् मेदः दशमपञ्चदशोदेशकयोर्भवति यत्-दशमोद्देशके आचार्यपर्यायज्येष्ठं प्रति आगाढवचनादेः प्रयोगकरणनिषेधो दर्शितः, अत्र पञ्चदशोदेशके तु भिक्षुक-सामान्यश्रमणं प्रति आगाढादीनां निषेधो दर्शितः, तादृशप्रयोगकरणे च प्रायश्चित्तादिकं कथितमित्ययं भेदः ।। सु. ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खु सचित्तं अंब भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ सू०५॥ छाया-यो भिक्षुः सवित्तम् आनं भुङ्क्ते भुजानं वा स्वदते ॥ सू० ५॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षुः 'सचित्तं अंब' सचित्तमाम्रम् तत्र चित्तं-जीवः तेन जीवेन सह वर्तते इति सचित्तं-सजीवम् साम्रफलम् 'भुंजा' भुङ्क्ते-अभ्यवहरति तथा 'भुंजत वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ५॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं अंबं विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥सू०६॥ छाया-यो भिक्षुः सचित्तमानं विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥सू० ॥
चूर्णी --'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'सचित्रं अंब' सचित्तं सजीवमानम् 'विडंसइ' विदशति-चूषति भक्षयति वा 'विडंसंतं वा साइज्जइ' विदशन्तं वा स्वदते--अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०६॥ ।
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं अंबं वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंवसालगं वा अंबचोयगं वा भुंजइ भुंजत वा साइज्जइ ॥ सू०७॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तमानं वा बाघ्रपेशिकां वा आनमित्तं वा आम्रसालक वा आम्रचोयगं वा भुङ्क्ते भुज्जान वा स्वदते ॥सू.७॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचित्तं अब वा' सचित्तमानं वा सजीवमाम्रफलमित्यर्थः 'अंबपेसियं वा' आम्रपेशिकां वा सचित्तामाम्रपेशीम् , तत्र पेशी दीर्घाकाराम्रफलस्यावयवलक्षणा तादृशीम् आम्रफलपेशोम्, 'अंबभित्तं वा' आम्रभित्तं वा तत्र भित्तम्-खण्डः आम्रफलस्यार्द्धभाग इत्यर्थः तत् 'अंबसालगं का' आम्रसालकं वा, तत्र-बाशा छल्ली सालमिति कथ्यते 'अंबचोयगं वा' आम्रचोयगं वा तत्र-चोयग्रम् - सान्तत्वचा तत् 'भुजई' भुङ्क्ते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७॥
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३५०
निशीथसूत्रे
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८॥
छाया-न्यो भिक्षुः सविसमान वा आम्रपेशिकां वा आनभित्तं वा आनसालक पा आम्रचोयगं वा विदशति विदशन्तं वा स्वदते ॥ सू. ८॥ . चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्विद् भिक्षुः सवित्तं अंबं वा' सचित्तमानं वा 'अंबपेसियं वा' आम्रपेशिकां वा 'अंबभित्तं वा' आम्रभित्तं वा 'अंबसालगं वा' आम्रसालकं वा 'अंबचोयगं वा' आम्रचोयगं वा 'विडंसइ' विदशति-चूषति तथा 'विडंसंतं वा साइज्जइ' विदशन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू . ८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तपइढियं अंबं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ।। सू० ९॥जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंबं विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ।। सू० १०॥ छाया- यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमा भुङ्क्ते भुआन वा स्वदते ॥ सू० ९॥
यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमान विदशति विवशन्तं वा स्वदते ॥ सू०१०॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'सचिसपइडियं' सचित्तप्रतिष्ठितम् सचित्ते-सचित्तजलहरितकायाद्युपरि प्रतिष्ठितं-विधमानम् आनं भुङ्क्ते. विदशति चूषति । शेष सूत्रद्वयगतं सर्वं सुगमम् ॥ सू० ९-१० ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू सचित्तपइडियं अंबं वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगंवा भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ।। सू०११॥
छाया-यो भिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमानं वा आम्रपेशिकां वा आम्रभित्तं वा आघ्रसालकं वा आम्रचोयगं वा भुङ्क्ते भुञ्जानं वा स्वदते ।। सू० ११॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । सचित्तप्रतिष्ठितम् सचित्ते–सचित्तजलायु परि विधमानं तत् सचित्तप्रतिष्ठितम् शेषम् सुगमम् ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा विडंसइ विडंसंतं वा साइज्जइ ॥सू० १२॥
छाया-योभिक्षुः सचित्तप्रतिष्ठितमानं वा आम्रपेशिकां वा आम्रभित्त वा आम्र. सालकं वा आम्रचोयग वा विदति विदशन्तं वा स्वदते सू० १२॥
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चूर्णि भाग्यावचूरिः उ. १५ स् १३-६८ अन्य तीर्थकादितः पादामार्जनादिनिषेधः ३५१
चूर्णी -- 'जे भिक्खु' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तपइद्वियं' सचित्तप्रतिष्ठितम्, इतिविशेषणविशिष्टमा म्रादिकं विदशति - चूषति शेषं सुगमम् ।
अत्राह भाष्यकारः-
सचित्तंवं तहा पेसिं, तं सचित्तपट्ठियं । जो भुंजेज्ज विडंसेज्ज, आणाभंगाइ पाइ ॥ १ ॥ छाया - सविता तथा पेशीं, तत्सचित्तप्रतिष्ठितम् । यो भुङ्क्ते विदशति, आज्ञा भङ्गादि प्राप्नोति ॥ १ ॥
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आम्र
अवचूरिः - यः कश्चिद् भिक्षुः - श्रमणः उपलक्षणात् श्रमणी वा स सचित्ताम्रम् - सचित्ताम्रफलम् तथा पेशीम्-आम्रचीरिकाम् उपलक्षणाद् --आश्रभितं आम्रसालकम् आम्रचोयगं वा, फलस्य कोऽपि प्रकारो भवेत् तं सचित्तं यदि भुङ्क्ते विदशति वा तदा स श्रमणः आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति ॥ सू० १२॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू अण्णउत्थिष्ण वा गारत्थिएण वा अप्पण - पाए आमज्जा वेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जावेंतं वा पमज्जावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३॥
छाया - यो भिक्षुरन्ययूथिकेन वा गाईस्थिकेन वा आत्मनः पादौ आमार्जयेवू वा प्रमार्जयेद् वा आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३ ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः- :- श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थिपण वा' अन्ययूथिकेन - अन्यमतानुयायिना तापसादिनेत्यर्थः ' गारस्थिपण वा' गार्हस्थिकेन गृहस्थेन श्रावकेण तद्भिन्नेन वा 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ - चरणौ 'आमज्जा वेज्ज वा' आमार्जयेद्वा- एकवारं वा मार्जनं कारयेद्वा 'पमज्जावेज वा' प्रमार्जयेद्वा अनेकवारं वा प्रमार्जनं कारयेद्वा, तथा 'आमज्जावेंतं वा' आमार्जयन्तं वा एकवारं चरणमार्जनं कारयन्तं वा 'मज्जावेंतं वा' प्रमार्जयन्तं वा - प्रतिदिनमनेकवारं वा पादयोः प्रमार्जनं कारयन्तं श्रमणान्तरम् 'साइज्जइ' स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू १३ ॥
सूत्रम् — एवं तइयउद्दसगमओ यव्वो जाव गामाणुगामं दृइज्जमाणे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो सीसदुवास्यिं करावे करावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १४-६८ ॥
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निशोथसूत्रे छाया- पवं हतयोदेशगमको नेतव्यः यावत् प्रामानुग्राम द्रयन् अन्यतीर्थिकेन वा गाईस्थिकेन पा मात्मनः शीर्षद्वारिकां कारयति कारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४-१८ ॥
चर्णी-'एवं' इत्यादि । 'एवं तइयउद्देसगमओ णेयव्वो' एवं तृतीयोदेशगमको नेतव्यः, एवम् अनेनैव प्रकारेण तृतीयोदेशगमका-भस्यैव तृतीयोद्देशकगतो गमः सर्वोऽपि नेतव्यःज्ञातव्यः 'जाव' यावत् , अत्र यावत्पदेन 'ने भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा' इत्यादिसप्तदशसूत्रादारभ्य 'जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे०' इत्येकसप्ततितमसूत्रपर्यन्तं पञ्चपश्चाशसंख्यकसूत्राणि तदर्थश्चेति सर्वं तत्रत एव द्रष्टव्यम् । अत्र तु (१४) चतुर्दशसूत्रादारभ्य अष्टषष्टि (६८) तमसूत्रपर्यन्तं तृतीयोदेशगमवद् व्याख्येयम् । केवलं भेद एतावनेव यत्-तत्र ततीयोद्देशके प्रमार्जनादीनां स्वयं करणविषयको निषेधः कृतः, अत्र तु अन्यतीथिकादिभिः प्रमार्जनादीनां कारणाऽनुमोदनविषयको निषेधो वर्तते इति ।।
अत्राह भाष्यकार:
पायप्पमज्जणारम्भ, अंते सीसवारियं । गिहिहिं अन्नतित्थीहि, करावे दोसभा भवे ॥१॥ छाया-पादप्रमार्जमादारभ्य, अन्ते शीर्षदौवारिकाम् ।
गृहिभिः अन्यतीथिभिः कारयेत् दोषभाग् भवेत् ॥१॥ अवचूरिः- यो यतिः पादप्रमार्जनादारभ्य अन्ते शीर्षदौवारिकाम् गृहिभिः-गृहस्थैः, अन्यतीर्थिकैः तापसादिभिः कारयति, तथा कारयन्तं श्रमणान्तरम् अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति, तथा तस्याज्ञाभन्नादिका दोषा अपि भवन्ति गृहस्थादिकृतसेवाशुश्रूषादिकार्यस्य भगवता निषिद्धत्वात् ।
अथ परतीर्थिकादिभिः पादप्रमार्जनादिकं कारयतः को दोषः : इति चेदत्राह-ते अन्य. तीपिका गृहस्था वा यदि प्रमार्जनादिकं करिष्यन्ति तदा ते पादप्रमार्जनादिकरणानन्तरम् पश्चात् हस्तधावनादि कर्म करिष्यन्ति प्रस्वेदमलादिकं साधोः शरीरेऽवस्थितं दृष्ट्वा घावा अशुचय इमे इति कृत्वा भवर्णवादं वदिष्यन्ति, भयतनया वा पादप्रमार्जनादिकं कुर्वन्तः सांपातिकान् जीवान् हन्युः, अथवा बहुमा द्रव्येणायतनया प्रक्षालयन्तः उच्छोलणादोषं कुर्युः, मूमिष्ठान् जीवान् विराधयेयुरिति तस्मात् कारणात् तापसादिभिर्गृहस्थैश्च पादप्रमार्जनादिकं न कारयेदिति ॥ सू० ६८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ ॥ सू०६९॥
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ ११ सू० ६९-७२ आगन्त्रागारादिषु - उच्चारादिपरिष्ठापननि० ३५३
छाया यो भिक्षुः आगन्त्रागारेषु वा आरामागारेषु वा गाथापतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥|| सू० ६९ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रभणी वा 'आगंतागारेसु वा' आगन्त्रागारेषु, यत्र स्थाने आगन्तारो गन्तारश्च विश्रामाय निवसन्ति सः आगन्त्रागारः - धर्मशाळेति लोकप्रसिद्धः तेषु - आगन्तुक निवासस्थानेषु तथा - 'आरामागारेसु वा ' आरामागारेषु, तत्रारामः - उपवनम् तत्र विद्यमानः अगारो गृहं यत्र क्रीडार्थमागताः पुरुषाः विश्रामार्थं निवसन्ति तादृशस्थानेषु 'गाहावइकुलेसु वा' गाथापतिकुलेषु, तत्र गाथापतिर्गृहस्थः, तस्य कुलेषु गृहेषु गृहस्वामिनां ग्रामान्तरगमनेन शून्यप्रायेषु गृहेष्वित्यर्थः 'परियावसहेसु वा' पर्यावसथेषु वा तापसानां निवासस्थानेषु इत्यर्थः, एतेषु स्थानेषु ' उच्चार पासवणं' उच्चारप्रस्रवणं मूत्रपुरीषादिकम् उपलक्षणत्वात् ष्ठीवनादिकमपि गृह्यते 'परिट्ठवेइ' परिष्ठापयति तत्र व्युत्सृजतीत्यर्थः तथा 'परिद्ववेंत वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा मूत्रपुरीषादीनां व्युत्सर्जनं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते
प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका. दोषा अपि भवन्ति, तथा ये एतादृशस्थानेषु उच्चारप्रस्रवणादिकं व्यत्सृजन्ति तेषामपयशो भवति - 'एते साधवः अशुचिसमाचाराः योगाचारबाह्या मलमूत्रपरायणाः दुर्वृत्ता भोगोपभोगस्थानानि अपवित्राणि कुर्वन्तो विहरन्ती, - त्येवमाद्यपयशी भवति, लोकापवादाच्च न कोऽपि दीक्षां ग्रहीष्यतीत्यतः प्रवचनस्य हानिहलना च भवति एवं कोट्टपालादिना निवारिता ग्रामादौ प्रवेशमपि नो लभेरन् ॥ सू० ६९ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाण - सालंसि वा निज्जाणंसि वा निज्जाणगिहंसि वा निज्जाणसालंसि वा उच्चारपासवणं परिgas परिद्ववेंतं वा साइज्जइ || सू० ७० ॥
छाया - यो भिक्षुरुद्याने वा उद्यानगृहे वा उद्यानशालायां वा निर्याणे वा निर्याणगृहे वा निर्याणशालायां वा उच्चारप्रेस्स्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते सू० ७० ॥ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उज्जाणंसि वा' उद्याने वा, तत्रोद्यानं नाम एकजातीयवृक्षाणां समुदायलक्षणम्, तादृशे उद्याने 'उज्जाणगिहंसि वा' उद्यानगृहे वा उद्यानस्थिते गृहे विश्रामस्थाने 'उज्जाणसालसि वा' उद्यानशालायाम् उद्याने स्थिता या शाला तस्याम् 'निज्जाणंसि वा' निर्याणे वा लोकानां गमनागमनमार्गे 'निज्जाण गिर्हसि वा' निर्याणगृहे वा गमनागमनमार्गस्थितगृहे वा 'निज्जाणसालसि वा' निर्याणशालायां वा तादृशेषु स्थानेषु श्रमणः श्रमणी वा 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रत्रवणं 'परिद्ववेइ' परिष्ठापयति मूत्रपुरीषयोर्व्युत्सर्जनं करोति 'परिद्ववेंतं वा 'परिष्ठापयन्तं वा 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७० ||
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iha
निशीथसूत्रे
सूत्रम् — जे भिक्खू अट्ठसि वा अट्टालियंसि वा चरियंसि वा पागांरंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिहवे परिवें वा साइज्जइ ॥ सू० ७९ ॥
छाया - -यो भिक्षुः अड्डे वा अट्टालिकायां वा चरिकायां वा प्राकारे वा द्वारे वा गोपुरे या उच्चारप्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७१ ।।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अहंसि वा' अट्टे वा कोट इति लोकप्रसिद्धे 'अट्टालियंसि वा' अट्टालिकायाम् अट्टोपरिविधमानस्थाने इत्यर्थः 'चरियंसि वा' चरिकायां वा अट्टालिकाया उपरितनं स्थानं चरिका - तादृशस्थानविशेषे इत्यर्थः, 'पागारंसि वा' प्राकारे वा 'दारंसि वा' द्वारे वा गृहस्यद्वारभागे इत्यर्थः, 'गोपुरंसि र्वा' गोपुरे वा - द्वाराद्वारे, एतेषु स्थानेषु 'उच्चार पासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेई' प्रतिष्ठापयति, तथा 'परिहवेंतं वा साइज्जइ परिष्ठापयन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७१ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगट्ठाणंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ परिवेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७२ ॥
छाया - -यो भिक्षुरुदके वा उदकमार्गे वा उदकपथे वा उदकतीरे वा उदकस्थाने घा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।। सू० ७२ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः यः कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा 'दमंसि व'' उदके–जले जलाशये सरितडागादौ जलाशय मर्यादितस्थाने इत्यर्थः 'दगमग्गंसि वा' उदकमार्गे - जल मार्गे येन मार्गेण जलं प्रवहति यद्बोदकमिश्रितमार्गे, 'दगपहंसि वा' उदकपथे वा जळानंयनमार्गे वा 'दगतीरंसि वा' उदकतीरे-जलतटे जलासन्नवत्तिस्थाने इत्यर्थः 'दगडासिव' उदकस्थाने वा यत्र स्थाने उदकं संगृह्य संस्थाप्यते तादृशस्थाने, एतेषु - उपपयुक्त जल स्थानेषु 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिद्ववेइ' परिष्ठापयति व्युत्सृजति तथा 'परिहवेंतं वा साइज्जर' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७२ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू सुन्नगिहंसि वा सुन्नसालंसि वा भिन्नहिंसि वा भिन्नसालंसि वा कूडागारंसि वा काट्ठागारंसि वा उच्चारपासवणं परिवेs परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७३ ॥
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चर्णिभाष्यावधूरिः उ० १५ सू० ७३-७७ शून्यगृहादिषु-उच्चारादिपरिष्ठापननि० ३५५
छाया-यो भिक्षुः शून्यगृहे वा शून्यशालायां वा भिन्नगृहे वा भिन्नशालायां वा कूटागारे वा कोष्ठागारे वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥७३॥
चूर्णिः-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'मुन्नगिहंसि का' शून्यगृहे वा यत्र गृहे न कोऽपि वसति तादृशगृहे 'मुन्नसालंसि वा' शून्यशालायाम् यत्र शालायां न कोऽपि वसति तस्याम् 'भिन्नगिहंसि वा भिन्नगृहे वा-भम्नगृहे इत्यर्थः 'भिन्नसालंसि वा' भिन्नशालायां वा भग्नशालायाम् 'कूडागारंसि वा' कूटागारे वा-कूटाकारगृहे 'कोडागारंसिवा' कोष्ठागारे वा या दशस्थाने धान्यादिकं स्थापयति तस्य कोष्ठागार इति नाम भवति द्रस्मिन् कोष्ठागारगृहे कोष्ठागारशाळायां च 'उच्चारपासवणं परिद्ववेइ' उच्चारप्रनवणं परिष्ठापयति 'परिहवते वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू०७३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि वा तुसगिर्हसि वा तुससालंसि वा भुसमिहंसि वा भुससालंसि वा उच्चारपासवर्ण परिट्ठवेइ परिठवते वा साइज्जइ ॥ सू०७४ ॥
छाया-यो भिक्षुः तृणगृहे वा तृणशालायां वा तुषगृहे वा तुषशालायां का भुसगृहे वाभुसशालायां वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ७
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तणगिहंसि वा' तृणगृहे वा-तृणस्थापनगृहे अथवा तृणनिर्मिते गृहे 'तणसालंसि वा' तृणशालायां वा तृणभृतशालायाम् 'तुसगिर्हसि वा' तुषगृहे 'तुससालंसि वा' तुषशालायां वा 'भुसगिर्हसि वा भुसगृहे वा, तत्र गोधूमादीनां स्तम्बः, तस्य चूर्णाकृतोऽवयवः 'भूपा' इतिलोकप्रसिद्धः तस्य संस्थापनस्थानं भुसगृहमिति तस्मिन् भुसगृहे 'भुससालंसि वा' भुसशालासं वा, एतादशस्थानेषु यो भिक्षुः 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिहवेई' परिष्ठापयति ‘परिद्ववेतं का साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ७४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुम्मगिहंसि वा जुग्गसालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिठवेतं वा साइज्जइ । सू०७५॥
छाया-यो भिक्षुर्यानगृहे वा यानशालायां वा युग्यगृहे वा युग्यशालायां वा उच्चारप्र वर्ण परिष्ठापर्यात परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । सू० ७५ ।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'जाणगिर्हसि वा' यानगृहे-रथादिस्थापनगृहे वा 'जाणसालंसि वा' यानशालायां वा 'जुग्गगिहंसि ' युग्यगृहे वा,
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निशीथसूत्रे
तत्र युग्यं - शिबिकादिकम्, तस्य स्थापनार्थं गृहं तस्मिन्, 'जुग्गसालंसि वा युग्यशालायां वा 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम्, 'परिद्ववेइ' परिष्ठापयति तथा 'परिहवेंतं वा साइज्ज ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७५ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू पणियगिहंसि वा पणियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा कुवियसालंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवे परिवें वा साइज्जइ || सू० ७६ ॥
छाया -यो भिक्षुः पण्यगृहे वा पण्यशालायां वा कुप्यगृहे वा कुप्यशालायां वा उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७६ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पणियगिहंसि वा' पण्यगृहे वा क्रयविक्रयस्थाने धा पणियसालंसि वा' पण्यशालायां वा 'कुत्रियगिहंसि वा' कुप्यगृहे वा, तत्र - कुप्यं सुवर्णरजतभिन्नं कोष्टादिपात्रं तस्य गृहे 'कुवियसा - लंसि वा' कुप्यशालायां वा 'उच्चार पासवणं' उच्चारप्रस्रवणम्, 'परिद्ववेइ' परिष्ठपयति तथा 'परिद्ववेतं वा साइज्जइ परिष्ठापयन्तं - श्रमणान्तरम् स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भबति ॥ सू० ७६ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू गोणगिहंसि वा गोणसालंसि वा महा. कुलंसि वा महागिहंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिद्ववेंत वा साइ ज्जइ ॥ सू० ७७ ॥
छाया -यो भिक्षुगणगृहे वा गोणशालायां वा महाकुले वा महागृहे वा उच्चारप्रवर्ण परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सु०७७ ॥
चूर्णी - जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गोणगि हंसि वा' गोणगृहे वा, तत्र गोणगृहं गवां गृहम् यत्र गावो बध्यन्ते गोशालेति प्रसिद्धम् तस्मिन् 'गोणसालंसि वा' गोशालायां वा 'महाकुलंसि वा' महाकुले वा - इम्र्म्यादिकुले 'महागिहंसि वा ' महागृहे वा बृहत्परिवारयुक्ते बृहदाकारयुक्ते वा गृहे 'उच्चारपासवर्ण' उच्चारप्रवणम् 'परिद्ववे ' परिष्ठापयति 'परिद्ववेंतं वा साइज्जइ' परिष्ठापयन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह भाष्यकारः --
आगंतु गाइठाणेसु, उच्चारं पस्सव तहा । परिgs जो भिक्खु, आणाभंगाइ पावई || छाया - आगन्तुकादिस्थानेषु उच्चारं प्रस्रवं तथा । परिष्ठापयति यो भिक्षुराशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥
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M
पूर्णि० उ०१५ सू० ७८-१०३ . गृहस्थपार्श्वस्थादेरशनादिदानाऽऽदाननि० ३५७
अवचूरिः-आगन्तुकादिस्थानेषु आगन्त्रागारेषु इत्यारभ्य 'महागिहंसि' एतत्सूत्रपर्यन्तकथितस्यानेषु उच्चारप्रस्रवणं यो यतिः परिष्ठपयति परिष्ठापयन्तं वा अनुमोदते स भिक्षः आज्ञाभङ्गादिकं दोषजातं प्राप्नोति, तथा--महदयशोऽपि जायते 'अशुच्याचारा एते साधवो हि शुचीनि भोगोपभोगस्थानानि अशुचीनि कुर्वाणा विहरन्ति, ततश्च लोकापवादेन प्रवचनहानिरपि स्यात् , तस्मात् भागन्तुकागारादिषु उच्चारप्रस्रवणयोः परिष्ठापनं न कुर्यात् न वा कारयेत् न वा कुर्वन्तमनुमोदयेदिति ।। सू० ७७ ।।
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ सू०७८॥
छाया-यो भिक्षुः अन्ययूथिकाय वा गृहस्थाय वा अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाधं वा ददाति वदतं वा स्वदते ॥१०७८॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स' अन्यूथिकाय तापसाय वा गारस्थियस्स वा' गृहस्थाय वा अशनादिकं ददाति ददतं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ॥सू० ७८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ।
या-यो भिक्षुरन्ययूथिकाय वा गाईस्थिकाय वा वनं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥स्. ७९॥
चूर्णी---.'ज भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्सा वा' अन्ययूथिकाय वा तापसपरिव्राजकायेत्यर्थः 'गारत्थियस्स वा' गार्हस्थिकाय गृहस्थाय वा 'वत्थं वा' वस्त्रं वा-चोलपट्टकमुत्तरीयवस्त्रादिकं अन्यदपि वस्त्रजातं वा 'पडिग्गह वा' प्रतिग्रहं पात्रमलाबुकं मृत्तिकापात्रं वा 'कंबलं बा' कम्बलमूर्णावस्त्रादिकं वा 'पायपुछणं वा' पादप्रोञ्छनं रजोहरणं वा 'देई' ददाति देतं वा साइज्जइ' ददतम् वस्त्रपात्रादिकं प्रयच्छन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७९||
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ८०॥
छाया-यो भिक्षुः पावस्थाय अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाध वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० ८०॥
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निशीथसूत्र
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणो वा श्रमणी वा 'पासस्थस्स' पार्श्वस्थाय-पार्श्व संयमस्य समीपे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः न तु संयमस्थः, तस्मै 'असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा' अशनं वा पानं वा वाचं वा स्वायं वा 'देइ' ददाति 'दंतं वा' ददतं वा 'साइज्जई' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० ८ ० ॥ एवमेव पार्श्वस्थाय अशनादिकं 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति तत्पार्थात् गृह्णाति ॥सू० ८१॥ एवं पार्श्वस्थाय 'वत्थं वा' वस्त्रं वा चोलपट्टादिकम् पडिग्गरं वा प्रतिग्रहं वा पात्र वा 'कंबलं वा' कम्बलं वा ऊर्णामयं, 'पायपुछणं वा' पादप्रोञ्छनं वा पादप्रमार्जनवस्त्रखण्डं वा ददाति० ॥सू० ८२॥ एवं प्रतीच्छति गृह्णाति ॥ सू० ८३॥ एवं अशनादेर्दान-ग्रहणरूपं सूत्रद्वयम्, तथा वस्त्रादेर्दानग्रहणरूपं च सूत्रद्ध यमिति सूत्रचतुष्टयम् अवसन्नविषयकम् ॥सू०. ८७॥ कुशीलविषयकम् ॥सू० ९१॥ स्थाच्छन्दविषयकम् ॥सू० ९५॥ संसक्तविषयकम् ।। स० ९९॥ एवं नैत्यिकविषयकमपि सूत्र चतुष्टयम् ।। सू० १०३॥ एतानि चतुर्विंशतिसूत्राणि त्रयोदशोदेशकोक्तसूत्रव्याख्या नवद् व्याख्येयानि, विशेषत्वेताबानेव यत्-तत्र वन्दन-प्रशंसनविषयाणि सूत्राणि सन्ति, अत्र तु अशनादीनां वस्त्रादीनां च दान-प्रहणविषयाणि वाच्यानीति ।। अत्राह भाष्यकार:
पासत्याओ समारम्भ, णितियंतस्स साहुणो । , देतो जो पडिगिण्हंतोऽसणाई दोसभा भवे ॥ अया-पावस्थात् समारभ्य नैत्यिकान्ताय साघवे ।
ददन् यः प्रतिगृह्न अशनादि दोषभागू भवेत् ॥ अवचूरिः-यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा पार्श्वस्थात् समारभ्य नैत्यिकान्ताय साधवे पार्श्वस्थावसन्न-कुशील-यथाछन्द-संसक्त-नैत्यिकेभ्य इत्यर्थः योऽशनादिकम्-अशनपानादिकं ददन् प्रतिगृह्णन् वा, तथा पार्श्वस्थादिभ्योऽशनादिकं ददतः स्वीकुर्वतश्चानुमोदकः स यतिः दोषभार भवेत् ॥ सू० १०३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू जायणावस्थं वा निमंतणावत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिम्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । से य वत्थे चउण्हमण्णयरे सिया तंजहा-णिच्चनिवसणिए १ मज्जणिए२ छणूसबिए ३ रायबुरारिए ४ ॥ सू० १०४ ॥
छाया-यो भिक्षुर्याचनावस वा निमन्त्रणावस्त्र वा अशान्या अपृष्ठवा अगवेपयित्वा प्रतिगृह्याति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते । तच्च वस्त्र चतुर्णामन्यतम स्यात् तद्यथानित्यनिवसनिकम् १ मज्जनिकम् २ क्षणोत्सविकम् ३ राजदौवारिकम् ४ ॥ सू० १०४ ॥
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पणिमायावद्भिः उ०१५सू०१०४-१६१षिभूषाबुद्धया पादप्रमार्जनादिषस्त्रादिधारणनि० ३५२
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'जायणावत्थं वा' याचनावस्त्रं वा यद् याचनेन प्राप्यते तत् तथा 'निमंतणावत्यं वा' निमन्त्रणावस्त्रं वा यत् निमन्त्रणापूर्वकं प्राप्यते तत्, एतद् द्विविधमपि वस्त्रं भिक्षुः 'अजाणिय' अज्ञात्वा कुत्रत आनीतम् , इत्यादि वस्त्रोत्पत्तिकारणम् अज्ञात्वा, तथा-'अपुच्छिय' अपृष्ट्वा- तद्विषये पृच्छामकृत्वा कस्येदम् , कथं वेदं वस्त्रमासीत् , इत्यादिक्रमेण पृच्छामकृत्वा, 'अगवेसिय' अगवेषयित्वा मदर्थमेवेदं वस्त्रमनेनानीतम् अन्याथै वाऽऽनीतम् , कया बुद्धया मह्यं ददातीत्यादिक्रमेण गवेषणामकृत्वैव याचनावस्त्रनिमन्त्रणावस्त्रमिति द्विविधमपि वस्त्रं साधुः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा अज्ञात्वा अपृष्ट्वा अगवेषयित्वा याचनानिमन्त्रणावस्त्रं प्रतिगृहन्तं श्रमणान्तरं स्वदते- अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । 'से य वत्थे' तच्च द्विविधमपि वस्त्रम् 'चउण्डमण्णयरे सिया' चतुर्णामन्यतमं स्यात् वक्ष्यमाणानां चतुर्णा वस्त्राणां मध्ये अन्यतमम् एकं स्यात् , 'तं जहा' तयथा-'णिच्चणिवसणिए १, मज्जपिए २, छणसविए ३, रायदुवारिए ४, तत्र 'णिच्चणिवसणिए' नित्यनिवसनिकम्-यत् नित्यं परिधीयते तत् १, 'मज्जणिए' मज्जनिक-यत् स्नानावसरे परिधीयते तत् २, 'छणसविए' क्षणोत्सविकम्-यत् विवाहायसवे परिधीयते तत् ३, 'रायदुवारिए' राजदौवारिकम्-यत् राजद्वारे सभादौ वा गमनसमये परिधीयते तत् ४, एवं चतुर्विधं वस्त्रं भवति, एम्वन्यतमं याचनावस्त्रं निमन्त्रणावस्त्रं च अज्ञानाऽपृच्छनाऽगवेषणापूर्वकं यो भिक्षुः प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते स आज्ञाभङ्गादिदोषभाग् भवतीति ॥ सू० १०४॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंत या साइज्जइ ।। सू० १०५॥
छाया-यो भिक्षुर्विभूषाप्रत्ययेन आत्मनः पादौ आमार्जयेद्वा, प्रमार्जयेद्वा आमाजयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०५ ॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः 'विभूसावडियाए, विभूषाप्रत्ययेन-विभूषानिमित्तेन सुकुमालतादिसंपादनाबुद्धयेत्यर्थः, 'अप्पणो पाए' आत्मनः स्वस्य पादौ चरणौ 'आमज्जेज्ज वा' आमार्जयेद्वा-तत्रामार्जनं धूल्यादीनाम् पृथक्करणम् , तत् कुर्याद्वा तथा--'पमज्जेज्ज वा' प्रमार्जयेद्वा-प्रतिदिनमनेकवारं चरणयोः प्रमार्जनं कुर्यात् कारयेद्वा । तथा-'आमज्जंतं वा' आमार्जयन्तं वा-एकवारमामार्जनं कुर्वन्तं कारयन्तं वा 'पमज्जतं वा' प्रमार्जयन्तं वा-प्रतिदिनमनेकवारं प्रमार्जनं कुर्वन्तं कारयन्तं वा श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० १०५॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-एवं तइयउद्दे सगमओजा व-जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे विभूसावडियाए अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०६-१६०॥
छाया-एवं तृतीयोदेशगमको यावद् यो भिक्षुः प्रामानुग्राम द्रवन् विभूषाप्रत्यः येन आत्मनः शोर्षदौवारिकं करोति, कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १०६-१६०॥
चूर्णी-एवं तइय उद्देसगमओ' इत्यादि । एवम्-अनेनैव प्रकारेण 'तदयउद्देसगमओ' तृतीयोद्देशगमकः-तृतीयोदेशकगतषट्पञ्चाशत्सूत्रात्मकसन्दर्भकथितानि पादामार्जनसूत्रात् षोडशरूपादारभ्य 'जाव' यावत् 'जे भिक्खू गामाणुगाम' इत्येकसप्ततिसूत्रपर्यन्तसूत्राणि अग्रे संग्राह्याणि, तत्रत्यान्तिमसूत्रमेवं पठनीयम् , तथाहि-जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गामाणुगाम' प्रामानुग्रामम् एकस्माद् प्रामाद् अनुपदं द्वितीयं ग्रामम् 'दइज्जमाणे' द्रवन् विहरन् 'विभूसाबडियार' विभूषाप्रत्ययेन विभूषानिमित्तं शोभाथै तत्संपादनबुद्धचेत्यर्थः 'अप्पणो' आत्मनः स्वस्य उपरि 'सीसवारियं' शीर्षदोवारिका शीर्षावरण छत्राकारेण शीर्षस्थगनम् 'करेइ करेंतं वा साइज्जई' करोति कुर्वन्तं वा स्वदते अनुमोदते स दोषभाग भवतीति । एषां व्याख्याऽपि विभूषाप्रत्ययपदं संयोज्य तत्रैव द्रष्टव्या । विशेषः केवलमयम्-यत् तत्र पादादीनां सामान्यतया प्रमार्जनादिकं कथितम् , अत्र तु विभूषानिमित्तं प्रमार्जनादिकं वक्तव्यम् ।। सू०१०६-१६०।
सूत्रम्-जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धरेइ धरंतं वा साइज्जइ ॥
__छाया-यो भिक्षुः विभूषाप्रत्ययेन वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा अन्यतमं वा उपकरणजातं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६१ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विभूसावडियाए' विभूषाप्रत्ययेन-विभूषानिमित्तेन सौन्दर्यमाश्रित्य शोभार्थमित्यर्थः, 'वत्थं वा वस्त्रं वा 'पडिग्गहं वा' प्रतिग्रह-पात्रं वा 'कंबलं बा' कम्बलमूर्णावस्त्रं वा 'पायपुच्छणं वा' पादप्रोञ्छनं वा-पादरजःशोधकं वस्त्रखण्डं रजोहरण वा 'अण्णयरं वा उवगरणजायं' एतदतिरिक्तं यत्किञ्चिदन्यतममुपकरणजातम् 'घरेइ धरंतं वा साइज्जइ' धरति-गृह्णाति धरन्तं वा स्वदते वनपात्रादिकमिदं सुन्दरमिदमसुन्दरमिति कृत्वा स्वशोभावृद्धिबुद्धया सुन्दरं सुन्दरवस्त्रपात्रादिकं धरति धरन्तं वाऽन्यमुनिमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति ।। सू० १६१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा जाव पायपुंछणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइ धोवंतं वा साइज्जइ ॥सू० १६२ ॥
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णिभाष्यावद्भिः उ० १५ सू० -१६३
उद्देशकपारसमाप्तिः ३६१
छाया- यो भिक्षुर्विभूषाप्रत्ययेन वस्त्रं वा यावत् पादप्रोम्छनकं वा अन्यतमं वा उपकरणजातं धावति धावन्तं वा स्वदते ॥ स० १६२ ॥
चूणी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः-श्रमणः श्रमणी वा वस्त्रादिकमन्यतमं वा उपकरणजातम् 'विभूसावडियाए' विभूषाप्रत्ययेन शोभानिमित्तं धावति-प्रक्षालयति. धावन्तमन्यमुनि वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६२ ॥
किं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्याह-'त सेवमाणे' इत्यादि ।
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥सू० १६३॥
॥णिसीहज्झयणे पणरसमो उद्देसो समत्तो ॥१५॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥सू०१६३॥
॥ निशीथाध्ययने पञ्चदशोद्देशकः समाप्तः॥ १५ ॥ ची-'तं सेवमाणे' इत्यादि । 'त' तत् उद्देशकादित आरभ्य शोभार्थवस्त्रधावनपर्यन्तपापस्थानमध्यात् यत् किमपि एकमनेकं वा पापस्थानम् 'सेबमाणे' सेवमानः-प्रतिसेवनां कुर्वन श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जइ' आपद्यते प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तम् 'उग्धाइयं' उद्घातिकम्-लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं तस्य भवतीति ॥ सू० १६३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् पञ्चदशोदेशकः समाप्तः ॥१५॥
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॥ षोडशोद्देशकः ॥
व्याख्यातः पञ्चदशोदशकः, साम्प्रत्तमवसर प्राप्तः षोडशोदेशको व्याख्यायते, तत्र षोडशोदेशकादिसूत्रस्य पञ्चदशोद्देशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्ध इति चेत् अत्राह भाष्यकारः --
पुव्वंतंमि विभूसाए, पडिसेहो य बन्निओ । चरि दोसभावाओ, एत्थ सेज्जा णिसिन्झइ ||
छाया - पूर्वान्ते विभूषायाः प्रतिषेधश्च वर्णितः । चारित्रे हि दोषभावादत्र शय्या निषिद्धयते ॥
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अवचूरि :- पूर्वान्ते - पूर्वस्य - एतदपेक्षया पूर्वस्य प्राकथितस्य पचदशोदेशकस्यान्ते - चरमसूत्रे विभूषानिमित्तं -शोभार्थ पादादिप्रमार्जनादीनाम् तथा विभूषार्थं च उज्ज्वलोपविधारणस्य प्रतिषेधः वर्णितः कथितः । कथं विभूषादीनां प्रतिषेधः कृतस्तत्राह - 'चरिते' इत्यादि, चारित्रे दोषभावात् - दोषोत्पादकत्वात् उज्ज्वलोपधिधारणं शरीरविभूषादिकं च साक्षात् परम्परया वा चारित्रस्य विराधनकारणं तस्मात् कारणात् तस्य प्रतिषेधः कृतः, तत्सम्बन्धादत्र षोडशो देशकेऽपि सागारिक शय्यायाः सागारिकवसतेः प्रतिषेध एव क्रियते, सागारिकाय्याया अपि संयमविराधकत्वात् इति संयमविराधकत्वस्य उभयत्रापि समानत्वेन अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोः ।
पूर्वस्मिन् उद्देशके लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं कथितम् अत्रापि तदेव कथयिष्यते इति । तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य षोडशोदेशकस्येदमादिसूत्रम् -
सूत्रम् -- जे भिक्खू सागारियसेज्जं अणुष्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १ ॥
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छाया -- यो भिक्षुः सागा रिकशय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू० १ ॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सागारियसेज्जं ' सागारिकशय्याम, तत्र सागारिकः गृहस्थः तस्य शय्या वसतिरिति सागारिकशय्या, शेते यस्यां सा शय्या - वसतिर्निवासस्थानम् यत्रावस्थानेन मैथुनभाव उद्भवति सा सागारिकेत्येषा सामयिकी संज्ञा तेन सागारिकशम्येति दम्पत्योः शयनस्थानमित्यर्थः एतादृशं स्थानं यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणुष्पविसइ' अनुप्रविशति ओदनादिग्रहणार्थं प्रवेश करोति कारयति वा तथा--' अणुष्पविसंत वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा स्त्रीपुरुषयोः शयनस्थाने प्रवेशं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स दोषभागी भवति एतादृशस्थाने शृङ्गारसामग्रीबाहुल्येन मनोविकृतेः संभवादिति ॥ सू० १ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ. १६ सू० १-३ सागारिक-सोदक-साग्निकशय्याप्रवेशनिषेधः ३१
मत्राह भाष्यकारः
सेज्जा दुविहा एत्य य, दन्वे भावे तहा मुयव्वा । जं सहाणं दव्वे विसरिसरू तु भावम्मि ॥ छाया- शय्या द्विविधा अत्र च, द्रव्ये भावे तथा सातव्या ।
यत् स्वस्थान द्रव्ये विसरशरूपं तु भावे ॥ अवरिः-शय्या-सागारिकशय्या दम्पत्योर्निवासरूपा, सा अत्र च द्विविधा-द्विप्रकारिका द्रव्ये तथा भावे द्रव्यभावभेदात् ज्ञातव्या, सागारिकं द्विविधम् , तत्र यत् स्वस्थानं स्वसदृशरूपं तत् द्रव्येद्रव्यतः, यत् विसशरूपं स्वसादृश्यभिन्नं तद् भावे भावतो भवति । तत्र स्वसादृश्ये सागारिके मनोविकारा-संभवाद् द्रव्यत्वम्, विसदृशरूपे सागारिके मनोविकारबाहुल्याद् भावत्वमिति विवेकः । तथाहिद्रव्यभावसागारिकं रूपे माभरणविधौ वस्त्रालङ्कारभोजनगन्धेषु तथा आतोनृत्यनाट्यगीतशायनादिद्रव्येषु च भवति, तत्र रूपं नाम यत् काष्ठचित्रशेप्यकर्मणि पुरुषरूपं कृतं तत्, अथवा जीवरहितं पुरुषशरीरं तत् श्रमणानां कृते पुरुषरूपं स्वस्थानत्वात् द्रव्यसागारिकम् । एतारसमेव पुरुषरूपं विसदृशत्वात् श्रमणीनां भावसागारिकं भवति । एवमेतेष्वेव काष्ठकर्मादिषु यत्र स्त्रीणां शरीरं तत् श्रमणीनां कृते द्रव्यसागारिकं साधूनां कृते तदेव शरीरं भावसागारिकम् । एवमाभरणं पुरुषोपभोग्य तत् पुरुषाणां द्रव्यसागारिकं स्त्रीणां कृते भावसागारिकम्, तथा-स्त्रीणामुपभोग्यं यत् आभरणादिक तस्त्रीणां कृते द्रव्यसागारिकं, पुरुषाणां कृते भावसागारिकम् । एवं वखालंकारादिकं चतुःप्रकारकम् तत्पुरुषयोग्यं पुरुषाणां द्रव्यसागारिकं स्रीणां भावसागारिकम् । यत्पुनवस्त्रालङ्कारादिकं स्त्रोणां योग्यं वत् स्त्रीणां द्रव्यसागारिकं पुरुषाणां कृते तदेव भावसागारिकम् । एवं भोजनम्, अशनपानखाद्यस्वाधभेदेन चतुर्विधम्, तदपि पुरुषोपभोगयोग्यं पुरुषाणां द्रव्यसागारिकं, स्त्रीणां कृते भावसागारिकम्, यत् पुनः स्त्रीणामुपभोगयोग्यम् अशनादिकं तत्स्त्रीणां कृते द्रव्यसागारिकं तदेव पुरुषाणां कृते भावसागारिकम् । एवं गन्धेऽपि, तत्र गन्धः-कोष्ठपुटकादिः, तत्र यो गन्धः पुरुषोपभोगयोग्यः स श्रमणानां द्रव्यसागारिकम्, स एव गन्धः श्रमणीनां भावसागारिकम, यश्च गन्धः स्त्रीणामुपभोगयोग्यः स स्त्रीणां द्रव्यसागारिकं, श्रमणानां स एव भावमागारिकम् । एवमातोये, तत्रातोयं चतुर्विधम्, ततम् १, विततम् २, घनम् ३, शुषिरं च ४, तत्र यत् आतो, पुरुषसाध्यं पुरुषयोग्यं तत् श्रमणानां द्रव्यसागरिकं, श्रमणीनां भावसामारिकम्, यत् पुनरातोयं स्त्रीसाध्य त्रीयोग्यम् तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् । एवं नृत्येऽपि, तत्र नृत्यं चतुर्विधम्-अञ्चितम् १, रिभितम् २, आरभटम् ३, भसोलं च ४, तत्र यत् नृत्यं पुरुषसंपादनीयं सत् श्रमणानां द्रव्यसागारिकं श्रमणीनां भावसागारिकम्, यत् पुनर्नृत्यं स्त्रीभिः सम्पादनीयम् तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् , इति ।
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३६४
निशोथसूत्रे एवं नाटयेऽपि, तत्र नृत्यनाटकयोरय भेदः-यत् गीतरहितं तत् नृत्यं तत्र केवलं गात्रसञ्चालनमेव, नाटकं तु गीतसमन्वितम्, यत्र गौतमपि गायति गात्रसञ्चालनमपि करोति इति, तत्र नाटकेऽपि स्त्रीपुरुषयोविभागेन द्रव्यभावमेदो ज्ञातव्य इति । एवं गीतेऽपि, तत्र गीत-स्वरसाम्येन गानं, तच्चतुर्विधं भवति, तन्त्रीसमम् १, तालसमम् २, प्रहसमम् ३, लयसमं च ४, तत्र यत् गीतं पुरुषैर्गातुं योग्यं तत् श्रमणानां द्रव्यसागारिकं श्रमणीनां तदेव भावसागारिकम्, यत् पुनः स्त्रीभिर्गातुं योग्यं तत् श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां भावसागारिकम् । एवं शयनीयेऽपि, तत्र शयनीयं पयङ्काबनेकप्रकारकम् , तत्र यत् शयनीयं पुरुषेरधिष्ठातुं योग्यं तत् श्रमणानां द्रव्यसागारिकं तदेव शयनीयं श्रमणीनां भावसागाकिरम्, यत्पुनः त्रीभिरधिष्ठातुं योग्यं तत् शयनीय श्रमणीनां द्रव्यसागारिकं श्रमणानां तु भावसागारिकम् । इत्यादिभेदभिन्नां सागारिकशय्यां यः कश्चिद्भिक्षुरनुप्रविशति स दोषभागी भवतीति ॥ सू० १ ॥
मूत्रम्-जे भिक्खू सोदगं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २॥ __छाया--यो भिक्षुः सोदकां शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥ सू०२॥
चूर्णि:-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सोदकं सेज्ज' सोदका शय्याम् सचित्तजलसहिता जलस्थानरूपां सागारिकवसतिं गृहस्थानां जलस्थानं प्रपादिकम् यत्रोदकं विद्यते तादृशस्थानं यस्य वा समीपे उदकं विधते तादृशं स्थानं सोदकशय्येति पदेन कथ्यते इति तादृशी सोदकां वसतिं यः श्रमणः श्रमणी वा 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति तत्र प्रवेशं करोति, कारयति वा 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जई' अनुप्रविशन्तं वा सोदकशय्यायां वासं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सागणियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३॥
छाया-यो भिक्षुः साग्निकां शय्यामनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'जे भक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'सागणियं सेज्ज' साग्निकां शय्याम् , तत्र अग्रिना सहिता-संयुक्ता भग्निसमीपस्था वा शय्या वसतिः-स्थानं सा साग्निकशव्या तां साग्निकशय्यां पाकस्थानं महानसादिकम् , कुम्भकारस्य भाण्ड. पचनस्थानं वा यत्राग्निर्भवेत् तत्र, अथवा अग्निसमीपवर्तिस्थानं वा 'अणुप्पविसई' अनुप्रविशति अग्निशालादिषु प्रवेशं करोति कारयति वा तथा 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जई' अनुप्रविशन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू ४-१३ सचित्तेश्यारण्यगभिक्षावसुराजिकविपर्ययनि० ३६५ अत्राह भाष्यकारः
सोदगागणियं सेज्जं, खणिगं सबकालियं ।
पविसे तत्य जो भिक्खू, आणाभंगाइ पावइ ॥१॥ छाया-सोदकाग्निकां शय्यां, क्षणिकां सर्वकालिकाम् ।
प्रविशेत् तत्र यो भिक्षुः, आहाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥ अवचरिः-'सोदगागणियं' सोदकाग्निकाम्-सोदकां साग्निकां वा उदकसहितामग्निसहितां वा 'सेज्ज' शय्याम् , सा द्विविधा-क्षणिका-अल्पकालभाविनी. सर्वकालिका-सर्वकालभाविनी जलाशयरूपा इष्टिकापाकादिरूपा च, तां द्विविधामपि शय्याम्-वसतिं प्रविशेत् यो भिक्षुः तिष्ठेत् स आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति । सू० ३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू सचित्तं उच्छु भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ सू०४॥ छाया-यो भिक्षुः सचित्तमिर्धा भुक्ते भुलानं वा स्वदते ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'सचित्तं उच्छु' सचित्तमिक्षुम् ‘भुंजई' भुङ्क्ते तथा 'भुजंतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा स्वदते-सचित्तेक्षुदण्डस्योपभोगं कुर्वाणं श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ॥ सू०४॥ ।
सूत्रम्-एवं पण्णरसमे उद्देसे अंबस्स जहा गमो सो चेव इहंपि णेयव्वो ॥ सू० ५-९॥
छाया-पवं पञ्चदशे उद्देशे आप्रस्य यथा गमः स एव इहापिसातव्यः ।।सू०५-२॥
चूर्णी-एवं-अनेनैव प्रकारेण यथा पञ्चदशोदेशके सचित्ताम्रफलभक्षणे गमः कथितः स एव गमो निरवशेषोऽत्रापि ज्ञातव्यः केवलाम्रफलस्थाने सचित्तमिक्षुमितिपदं निवेशनीयमिति । नवरम् 'अंतरुच्छुयं' इति अन्तरिक्षुकम्-इक्षोरन्तर्भागव्यवस्थितमवयवविशेषम् । शेषं सूत्रपञ्चकं पञ्चदशो. देशकगताम्रसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० ५-९॥
सूत्रम्--जे भिक्खू आरण्णगाणं वणवयाणं अडविजत्तासंपट्टियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ ॥ सू०१०॥
छाया--यो भिक्षुरारण्यगानां वनवजानाम् अठवीयात्रासंप्रस्थितानाम् अशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्य वा प्रतिगृहाति, प्रतिग्रान्तं वा स्वदते ॥ सू० १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कम्दि भिक्षुः 'आरणगाणं' आरण्यगाणाम् , अरण्यम्-एकजातीयवृक्षसमूहात्मकं तदेव आरण्यम् तत्र गच्छन्तीति आरण्यगाः, तेषामारण्यगा
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निशीथसूत्रे नाम्-अरपयगामिनाम् वणवयाणं' वनवजानाम्, तत्र वनं प्रति, व्रजन्ति-वने गच्छन्ति ये ते वनव्रजाः, तेषां वनगामिनाम् आजीविकार्थम् अरण्ये वने वा गच्छतामित्यर्थः, 'अडविजत्तासंपटियाण' अटवीयात्रासंप्रस्थितानाम्-क्नयात्रा) निर्मतानाम् , तत्र वनवृक्षाकुलं निर्जनं भयङ्करं वनमटवी कथ्यते, तत्सम्बन्धिनी यात्रा-रामनरूपा तदर्थ संप्रस्थितानां काष्ठादिहरणार्थ निर्गतानां तथा वनोपजीविनां काष्ठहारेकाणां संबन्धि यो भिक्षुः 'असणं वा' अशनं वा-पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाचं वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरम् स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति यतो यो वनं गच्छति स तु परिमितमेवाशनादिकं स्वस्याभोक्तुं गृह्णातिद् यदि साधुम्रहीष्यति तदा स पुरुषः स्वकीयोदरपूरणे कठमनुभविष्यति तस्मादरण्यादौ गच्छतां वनोपजीविना सम्बन्धि यदशनादिकं तत् न गृह्णीयात् न वा ग्राहयेत् न वा गृहन्तमनुमोदयेदिति ।। सू० १० ॥
सूत्रम्--जे भिक्खु वसुराइयं अवसुराइयं वयइ वयंतं वा साइ. ज्जइ ॥ सू० ११॥ छाया-यो भिक्षुर्वसुराजिकमवसुराजिकं वदति वदन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
चर्णी-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वसुराइयं वसुराजिकम्-विशुद्धज्ञानदर्शनचारित्राराधकं दमितेन्द्रियं जैनदीपकस्वरूपम् , तत्र वसूनि रत्नानि पञ्चमहाव्रतरूपाणि ज्ञानदर्शनचारित्रतपांति वा भावरत्नानि तैः राजते-शोभते यः स वसुराजिकः तथा चैतादृशं वसुराजिक मुनि 'यक्मुराइयं' अवसुराजिकम्-ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभावरत्नरहितं- वयई' वदति-कथयति अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्राराधकं मुनिवर्यम् 'नायं वसुराजिकः अपितु धूत्तौ वञ्चको विराधितसयममार्गः' इत्यादिक्रमेण निन्दा करोति, तथा 'वयंत वा साइज्जई' वदन्तं वा तादृशश्रमणान्तरं यः कश्चित् स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भक्तीसि ॥ सू० ११ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अवसुराइयं वसुराइयं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुरवसुराजिक वसुराजिकं वदति बदन्तं पा स्वदते ॥ सू० १२ ॥
चूणों-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे मिक्खू' यः कश्चिब्रिक्षुः श्रमणः श्रमणी बा 'अवसुराइय' अवसुराजिकम् यः खलु ज्ञानदर्शनचारित्राणामनागधकः श्रमणभिन्नः श्रमणसदशश्च केवलं वेषमात्रैण साधुसमानः ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नरहितत्वात्, तमवसुराजिकं पार्श्वस्थादिकम् 'वसुराइयं'
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१६ २०१४-१८ व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानामशनादिदानाऽऽदाननिषेधः ३६७ पसुगजिकम्-शानदर्शनचारित्राणामाराधकं 'वयइ' वदति-कथयति स्नेहात् मोहाद्वा पोर्श्वस्थादिकमसाधुमपि अयं साधुरिति कथयति तथा 'वयंत वा साइज्जइ' वदन्तमन्य वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्य आज्ञाभलादिदोषा अपि भवन्ति ॥ सू० १२ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वसुराइयगणाओ अवसुराइयगणं संकमइ संक मंतं वा साइज्जइ | सू० १३॥
छाया-यो भिक्षुः वसुराणिकगणात् अवसुतजिकमणं संक्रामति संक्रामन्त । स्वदते ॥ सू० १३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' य कश्चिशिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वसुराइयगणाओ' वसुराजिकगणात्-ज्ञानदर्शनचारित्रतपःसमाराधकाः वसुसजिकास्तेषां गणः- समुदायस्तस्मात् तादशसमुदायमध्यात् 'अक्सुराइयगणं संकमई' अवसुराजिकगणं संक्रामति-गच्छतिवसुराजिकानां गणम्-समुदाय परित्यज्य यः क मन्दमाग्यः अषसुराजिकानां गणं प्रति गच्छति तथा 'संकमंतं वा साइज्जा' ज्ञानदर्शनचारित्राराधकानां गणं परित्यग्य ज्ञानाद्यनाराधकपार्श्वस्थादिगणे संक्रामन्त-गच्छन्नं वा श्रमणान्तरं स्वदले अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू०१३
सूत्रम्-जे मिाखू बुग्गहतुक्कंताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ।। सू०१४ ॥
छाया-यो भिक्षुद्दुहव्युत्क्रान्तानामानं या पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥ स्०१४॥ .
__ चूर्णी... 'जे भिवखू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबु कंताणं' मुद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् , तन्न व्युद्ग्रहोऽधिकरणं कलहः, तं कलहंकृत्वा ये व्युत्क्रान्ताःनिष्क्रान्तास्ते व्युग्रहव्युत्क्रान्ताः, तेषां श्रमणानाम् व्युव्हव्युत्क्रान्तेभ्यः श्रमणेभ्यः इत्यर्थः 'असणं वा' अशनं वा पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खार्थ वा 'साइमंचा' स्वायं वा 'देई' ददाति-समर्पयति यो हि श्रमणः श्रमणी वा कलहं कृत्वा स्वममादवक्रान्तस्तस्मै चतुर्विधमाहारजातं समर्पयति तथा 'देंतं वा साइज्जई' ददतं वा कलहकारिणे अशादिकं समर्पयन्तं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खु बुग्गहवुकंताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१५॥
___ छाया- वो भिक्षुर्युग्रहव्युत्क्रान्तानाम् अशर्म वा पान वा खाद्य वा स्वाया प्रतीच्छति प्रसोच्छन्तं वा स्वते ॥१५॥
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३६८
निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू इत्यादि । यः कश्चिद्भिः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां पूर्वोक्तस्वरूपाणां श्रमणानां श्रमणीनां वा संबन्धि तेभ्य इत्यर्थ 'असणं वा पाण वा खाइमं वा साइमं वा' अशनादिकं चतुर्विधम् 'पडिच्छ ' . प्रतीच्छति - स्वीकरोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज' प्रतीच्छन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी ववति ॥ सु० १५ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खु वुग्गहवुक्कंताणं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपोंछणगं वा देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू० १६ ॥
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छाया - यो भिक्षुग्रहव्युत्क्रान्तानां वस्त्र वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोज्छनकं वा ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० १६ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहबुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् - श्रमणानां श्रमणीनां वा 'वर्थ वा' वस्रं वा - चोलपट्टप्रावरणादिकम् 'पडिग्गनं वा' प्रतिग्रहं वा पात्रादिकम् 'कंबलं वा' कम्बलं त्रा - ऊर्णामयम् 'पायपौछणगं वा' पादप्रोञ्छनकं वा रजोहरणम् ' देइ' ददाति - समर्पयति तथा 'देतं वा साइज्जइ' ददतं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १६ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडि च्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ || सू० १७ ॥
छाया -यो भिक्षुग्रहन्युत्क्रान्तानां वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोच्छनकं वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सु. १७ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहवृक्कंताणं' व्युप्रहव्युत्क्रान्तानाम् साधूनाम् सकाशात् 'वत्थं वा' वस्त्रं वा - चोलपट्टादिकम् 'पडिग वा' प्रतिग्रहं वा पात्रादिकम् 'कंबलं वा' कम्बलं वा 'पायपोंछणगं वा' पादप्रोञ्छनकं वा - एतानि वस्त्रादीनि यः 'पडिच्छइ' प्रसीच्छति स्वीकरोति तथा 'पडिच्छतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा- स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १७ ॥ सूत्रम् — जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं वसहि देइ देतं वा साइज्जइ ॥ सू० १८ ॥
छाया -यो भिक्षुर्व्युहन्युत्क्रान्तानां वसतिं ददाति ददतं वा स्वदते ॥ सू० १८ चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी व 'बुग्गहवुक्कंताणं' व्युप्रहन्युत्कान्तानाम् 'वसहिं देइ' वसतिम् - उपाश्रये आश्रयं ददाति तथा देतं वा साइज्ज' ददतं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १८ ॥
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चूर्णि० उ०१६ सू०-१९-२३ व्युद्गहव्युत्क्रान्तानां वसतिस्वाध्यायदानाऽऽदाननि० ३६९
सूत्रम्-जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं वसहिं पडिच्छइ पडिल्छन्तं वा साइज्जइ ॥ सू० १९ ॥
छाया - यो भिक्षुर्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तां वसतिं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बुग्गहवुकंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् सम्बन्धिकां तदाश्रयभूतामित्यर्थः । 'वसहि' वसतिम्स्थानम् 'पडिच्छई' प्रतीच्छति-स्वीकरोति तथा 'पडिच्छंत वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं-स्वीकुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वसहि अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ।। सू० २०॥
छाया-यो भिक्षुर्युद्ग्रहध्युत्क्रान्तानां वसतिमनुप्रविशति अनुप्रविशन्तं पा स्वदते ॥ २० २० ॥ ___चर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'बुग्गहवुकताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां संबन्धिनी 'वसहि' वसतिम्-उपाश्रयम् अणुप्पविसई' अनुप्रविशति तेषामुपाश्रये प्रवेशं करोति । तथा 'अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ' अनुप्रविशन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं देइ देंते वा साइ' ज्जइ ॥ सू० २१॥
छाया यो भिक्षुयुग्रहग्युत्क्रान्तानां स्वाध्यायं ददाति ददतं वा स्वदते ॥२१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणो वा 'बुग्गहवुकंतागं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् 'सज्झायं' स्वाध्यायम्-स्वाध्यायपदवाच्यानां सूत्रा
र्थानां सूत्रार्थविषयकं ज्ञानं सूत्रार्थयोरध्ययनमित्यर्थः 'देइ' ददाति-सूत्रमर्थ तदुभयं वा अध्यापयतीत्यर्थः, तथा-'देतं वा साइज्जइ' ददतं वा श्रमणान्तरं स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥
छाया - यो भिक्षुर्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२ ॥
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निशीथस्त्रे .चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चुम्गहनुक्कंताणं' व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानाम् व्युद्ग्रहव्युत्क्रन्तेभ्य इत्यर्थः सज्झायं' स्वाध्यायम्सूत्रार्थतदुभयरूपम् 'पडिच्छई' प्रतीच्छति 'पडिच्छंतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकारः'बुग्गहवुक्कंताणं, असणा आरब्भ जो य समायं ।
देइ पडिच्छइ भिक्खू, आणाभंगाइ पावेइ ॥ छाया-व्युद्ग्रह व्युत्क्रान्तानां (व्युग्रहव्युत्क्रान्तेभ्यः) अशनादारभ्य यध स्वाध्यायम् ।
ददाति प्रतीच्छति भिक्षुः, आशाभादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः--यश्च भिक्षुः व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तानां अशनादारभ्य स्वाध्यायम्-अशनादिक वस्त्रादिकं वसतिं ददाति प्रतीच्छति तत्र प्रविशति वा, तथा स्वाध्यायं च ददाति, तेषां सकाशात् स्वाध्यायं स्वीकरोति वा स माज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नोतीति ॥ सू० २२ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू विहं अणेगाहगमणिज्जं संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारखडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइ. ज्जइ ।। सू० २३॥
छाया- यो भिक्षुर्वीथिमनेकाहगमनीयां सति लाढे विहाराय संस्त्रियमाणेषु ममपदेषु विहारप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विहं' वीथिम् कथंभूतां वीथिम् ? तत्राह-'अणेगाह' इत्यादि, 'अणेगाहगमणिज्ज' अनेकाहगमनीयाम् अनकैरहोभिः-दिवसः गमनीयाम्-गन्तुयोग्यामटवीरूपां विहारप्रतिज्ञया गन्तुमभिसेधारयति इत्यग्रेण सम्बन्धः । कथमित्याह-'संति लाढे' सति लाढे विद्यमानेऽन्यस्मिन् देशे यत्र 'विहाराए' विहाराय विहारनिमित्तम् तपोनियमसंयमस्वाध्यायाद्यर्थम् 'संथरमाणेसु' संस्त्रियमाणेषु-आहारोपधिवसत्यादिना सुलभेषु निर्वाहयोग्येषु 'जणवएसु' जनपदेषु सत्सु 'विहारवडियाए' विहारप्रतिज्ञयाविचरणभावनया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति-गन्तुं मनसि विचारयति, 'अभिसंधारेत' अनेकदिवसगमनीयामटवीं विहारविचारणां कुर्वन्तम् श्रमणान्तरम् 'साइज्जई' स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति । अयं भावः-कथमने कदिवसगमनीयमार्गे गमननिषेधः कृतस्तत्राहयत्र देशे गम्यमाने संयमात्मविराधनादयोऽनेके दोषाः प्रसज्येयुः, तपोनियमस्वाध्यायाधभावरूपा संयमविराघना, श्वापदादिहिंसकप्राणिभिरात्मविराधना च सम्भवतीत्यतोऽनेकदिवसगमनीयमार्गे गमनाय मुनिः मनस्यपि विचारं न कुर्यादिति ।। सू० २३॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १६ सू० २४-२९ जुगुप्सिकुलाशनादिग्रहणनिषेधः ३७१
सूत्रम्-जे भिक्खू विरूवरूवाई दस्सुयाययणाई अणारियाई मिल. क्खुइं पच्चंतियाई संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहाखडि. याए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ।। सू० २४॥
छाया--यो भिक्षुः विरूपरूपाणि दस्युकायतनानि अनार्याणि म्लेच्छानि प्रात्यन्तिकानि सति लाडे विहाराय संस्त्रियमाणेषु जनपदेषु विहारप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । यः किश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विस्वरूवाई' विरूपरूपाणि शकयवनाद्यन्यान्यवेषभूषादिनाऽनेकप्रकारकाणि 'दस्सुयाययणाइ' दस्युकायतनानि दस्युकाः-चौरास्तेषामायतनानि-स्थानानि कीदृशानीत्याह-'अणारियाई' . अनाणिअनार्यैः-आर्यभिन्नैः परिसेव्यमामानि 'मिलक्खुई' म्लेच्छानि-म्लेच्छैः परिसेव्यमानानि, तत्र म्लेच्छास्ते ये अव्यक्तभाषिणः यदा रुष्टास्तदा दुःखमुत्पादयन्ति धर्मे दुष्प्रबोधाः सर्वादरेण भोजनशीलाः अकालपरिभोगिनो रात्रावेव जागरणशीलाः धर्ममधर्म मन्यमाना इत्थंभूता म्लेच्छास्तेषां स्थानानि, पुनः 'पच्चंतियाई' प्रात्यन्तिकानि प्रत्यन्तानि अनार्याणि तैः सेवितानि 'संति साढे' सति लाढे सत्यन्यस्मिन् देशे 'विहाराए' विहाराय 'संस्थरमाणेसु' संस्त्रियमाणेषु 'जणवएसु' ननपदेषु व्याख्या पूर्ववत् 'विहारवडियाए' विहारप्रतिज्ञया यो भिक्षुर्दस्युकानार्यम्लेच्छदेशेषु गमनाबर विहारभावनया 'अभिसंधारेई' अभिसंधारयति-विचारं करोति कारयति वा तथा 'अभिसंधारेत वा साइज्जई' अभिसंधारयन्तं-तत्र गमनाय विचारं कुर्वन्तं कारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवति ॥ सू० २४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइयं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहँत वा साइज्जइ ॥ सू० २५॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु अशनं घा पानं वा बाधं वा स्वायं वा प्रतिग्रहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥सू० २५ । ।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुसितकुलेषु-निन्दितकुलेषु, तच्च-चर्मकार मद्यविक्रयि-मद्यपायि-भिल्ल-धीवरादिकुलम् , यदा यद् हि यत्र देशे निन्दितत्वेन प्रपिद्धम् तेषु तथाविधेषु कुलेषु असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्य वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति 'पडिग्गाहेतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५॥
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३७२
निशीथस्त्रे सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० २६॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा कम्बलं वा पादप्रोड्छ. नकं वा प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'वत्थं वा' वस्त्रं वा 'पडिग्गहं वा' प्रतिमहं वा पात्रं वा 'कंबलं वा' कम्बलं वा 'पायपुंछणगं वा' पादप्नोञ्छनकं वा रजोहरणमित्यर्थः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तम्-स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वद्गते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति ।। सू० २२ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वसहि पडिग्गाहेइ पडिग्गा. हेत या साइज्जइ ॥ सू० २७॥
छाया--यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु वसति प्रनिहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥२७॥ __ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'वसहि' वसतिम्-निवासस्थानम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति 'पडिग्गा. हेत वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभार भवति ॥ सू० २७।।
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २८ ॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥सू० २८॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुर्गुछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झाय' स्वाध्याय सूत्रार्थयोरध्ययनम् 'करेई' करोति . 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते -अनुमोदते स दोषभाग् भवति ॥ सू० २८॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं उदिसइ उदिसतं वा साइज्जइ ॥ सू० २९॥
छाया--यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायमुदिशति उदिशन्तं वा स्वदते ॥ २९ ॥
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं उद्दिसइ' स्वाध्यायमुदिशति-सूामर्थ तदुभयं वा एकवारमध्यापयति पाठयति तथा 'उदिसंतं वा साइज्जइ' उद्दिशन्तम्-स्वाध्यायमध्यापयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २९॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू० ३०-३६ जुगुप्सितकुलस्वाध्यायाद्यशनादिपरिष्ठापननि० ३७३
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं समुदिसइ समुदिसंत वा साइज्जइ ॥ सू०३०॥
छाया-यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं समुद्दिशति समुद्दिशन्तं वा स्वदते॥ चूर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू यः' कश्चिद भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्यायं समुद्दिसइ' स्वाध्यायं समुद्दिशति-सूत्रमर्थ तदुभयं वा अनेकवारमध्यापयति तथा 'समुदिसंत वा साइज्जई' समुद्दिशन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ३० ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं अणुजाणइ अणुजाणंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३१॥
छाया--यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायमनुजानाति अनुजानन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु समुपविश्य श्रमणं यं कमपि वा 'सज्झायं' स्वाध्यायम्-सूत्रार्थतदुभयात्मकं द्वादशाशीलक्षणम् 'अणुजाणई' अनुजानाति-प्रशंसति तथा 'अणुजाणतं वा साइज्जई' अनुजानन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चिद्धभागी भवति ॥ सू. ३१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३२॥ ___छाया–यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं वाचयति वावयन्तं वा स्वदते ॥३२॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः ब्रमणी वा 'दुगुंछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं वाएई' स्वाध्यायं वाचयति-शास्त्रस्य वाचनां ददाति 'वायतं वा साइज्जइ' वाचयन्तम् वाचनां ददतं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ३२॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ । सू०३३॥
छाया--यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥३॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्झायं' स्वाध्यायं-सूत्रमर्थं च 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-स्वीक
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३७४
निशीथस्त्रे रोति तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जई' प्रतीच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ३३ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं परियट्टेइ परियहतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३४॥
छाया -यो भिक्षुः जुगुप्सितकुलेषु स्वाध्यायं परिवर्तयति परिवर्तयन्तं वा स्वदते ३४
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चि भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दुगुछियकुलेसु' जुगुप्सितकुलेषु 'सज्शाय' स्वाध्यायम्-सूत्रमर्थ वा 'परियट्टई' परिवर्तयति. सूत्रार्थतदुभयस्य पुनरावर्तनं करोति करयति वा तथा 'परियहत वा साइज्जइ' परिवर्तयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति ।। सू० ३४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीए णिक्खिवइ निक्खिवंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
छाया-- यो भिक्षुः अशनं वा पानं वा खाद्य स्वाद्य वा पृथिव्यां निक्षिपति निक्षिपन्तं पा स्वदते ॥ सू० ३५ ॥
___ चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खायं वा 'साइमं वा' स्वार्थ वा 'पुढवीए' पृथिव्याम् 'णिक्खिवई' निक्षिपति-आहारावशिष्टमशनादिकं पृथिव्यां स्थापयतीत्यर्थः, तथा 'णिक्खिवंतं वा साइज्जई' निक्षिपन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति पिपीलिकादिप्राण्युपमर्दनसंभवात् ॥ ३१ ।।
सूत्रम्--जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा संथारए णिक्खिवइ णिक्खिवंत वा साइज्जइ ॥ सू० ३६॥
छाया- यो भिक्षुरशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्य वा संस्तारके निक्षिपति निक्षिपन्त वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'संथारए' संस्तारके-आसने यत्र स्वपिति उपविशति वा तत्रैव आसने तमशनादिचतुर्विधमाहारजातं दर्भादितृणसंस्तारके वस्त्रसंस्तारके काष्ठपट्टकादौ वा 'णिक्खिवइ' निक्षिपति-संस्थापयति तथा 'णिक्खिवंतं वा साइज्जई' निक्षिपन्तं-स्थापयन्तं वा-श्रमणान्तरं स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। स० ३६ ॥
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पूर्णिमा यावद्रिः उ० १६ सू० ३७-३९ अन्यतीथिकादिसहभोजननिवेधः ३७५
सूत्रम्--जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वेहासे णिक्खिवइ णिक्खिवंतं वा साइज्जइ ।। सू०३७॥
छाया-यो भिक्षुरशनं वा पानं वा खाद्य वा स्वायं वा विहायसि निक्षिपति निक्षिपन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३७ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्य वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'वेहासे' विहायसि-आकाशे नागदन्ते सिक्कादौ पृथिव्यसंबद्धप्रदेशादौ 'णिक्खिवइ' निक्षिपति-व्यवस्थापयति नागदन्तादौ आलम्ब्यान्यवेलायां भोजनार्थमाहारजातं व्यवस्थापयतीत्यर्थः, तथा 'णिक्खिवंतं वा साइज्जई' निक्षिपन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादयो दोषा भवन्ति, तत्र संयमविराधनेत्थम्-यदि पृथिव्यादौ साधुरशनादीनि निक्षेप्स्यति तदा तत्र धृतगुडादीनां गन्धमाघ्राय पिपीलिकादिलघुजन्तवः समागमिष्यन्ति, तेषां विराधनारूपा संयमविराधना भवति, तल्लवुजन्तुभक्षणार्थ तत्र गृहगोधिका मूषको वा समागमिष्यति । तद्भक्षणार्थ मार्जारो धाविष्यति, तं धावन्तं दृष्ट्वा कुक्कुरः समागमिष्यति, इत्येवं प्रकारेणापरापरजन्तूनां समागमनात् प्राणातिपातः स्यात्, एवं नागदन्तादौ स्थापने पात्रादिक पृथिव्यां पतिष्यति पतनाच्च भाजनभेदः षट्कायविराधनं च स्यात् , एवं प्रकारेणापि संयमविराधना प्रसज्येत । आत्मविराधनेत्थम् भूम्यादौ निक्षिप्तमशनादिकं गृहगोधिकया सर्पेण वा आघातं भक्षितं वा स्यात् तस्याघ्राणनेनाऽशनादौ तन्मुखलालासंस्पृष्टं विषमपि संचरिष्यति, वृश्चिकादयो वा तत्र पतिष्यन्ति ततश्च तादृशविषसंस्पृष्टाऽशनादिभक्षणे कृते साधूनां मरणमपि स्यात् । यदि कदाचित् तादृशमशनादिकं पृथिव्यां परिष्ठापयिष्यति तदा तत्राहारलीभात् समागतकुक्कुरैः साधुर्दष्टोऽपि भवेत् तेन तत्रापि आत्मविराधना स्यात्, एवंप्रकारेणाऽऽत्मविराधना प्रसज्येत तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा पृथिवीसंस्तारकनागदन्तादौ अशनादिकमाहारजातं
न स्थापयेत् न वा परद्वारा तस्य स्थापनं कारयेत्, न वा पृथिव्यादिस्थाने संस्थापयन्तं श्रमणान्तरमनुमोदयेदिति ॥ स्० ३७ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा सद्धिं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३८॥
छाया--भिक्षुरन्ययूथिकैर्वा गृहस्थैर्वा सार्द्धम् भुङ्क्ते भुजानं वा स्वदते । सू० ३४॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउथिएहि वा' अन्ययूथिकैर्वा, तत्रान्ययूथिका दर्शनान्तरीयाः पार्श्वस्थादयस्तापसादयश्च, तैरन्ययूथिकैः
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निशीथस्ने 'गारस्थिएहि वा सर्द्धि' गृहस्थैर्वा सार्द्धम् एकस्मिन् भाजने एकपङ्क्तौ वा समुपविश्याशनादिचतुर्विधमाहारजातम् 'भुजई' भुङ्क्ते-माहरति आहारयति वा तथा 'भुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा श्रमणान्तरं स्वदते--अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥३८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थिरहिं वा गारथिएहिं वा सद्धिं आवेढिय परिवढिय भुंजई भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३९॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकैर्वा गृहस्थैवा सार्द्धमावेष्टय परिवेष्टय भुङ्क्ते भुजानं घा स्वदते ॥सू० ३९ ॥
चूर्णी-जे भिक्ख' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउथिएहि वा' अन्यतीर्थिकैर्वा तापसादिभिः 'गारथिएहि वा सद्धि' गृहस्थैर्वा सार्द्धम् 'आवेढिय'
आवेष्ट्य तत्र आवेष्टनमेकद्वित्रिदिशासु परतीथिकादिभिरावेष्टितो भूत्वा तथा-'परिवेढिय' परिवेष्टय, तत्र परिवेष्टनं सर्वदिसंबंधि दिशासु विदिसासु वा स्थितैः परतीथिकादिभिः परिवेष्टितो भूत्वा अशनपानादिकम् 'भुंजई' भुङ्क्ते भोजनं करोति कारयति वा तथा 'भुंजतं वा साइज्जई' भुञ्जानं वा मन्यतीथिंकैरावेष्टितः परिवेष्टितो मूत्वा अशनादिकं भुजानं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति अन्यतीथिकादीनां समक्षमाहारकरणस्य निषिद्धत्वात् ।
अत्राह भाष्यकारःभाष्यम्- अण्णतित्थिगिहत्येहि, सद्धि संपरिवेढिओ ।
आहारं मुंजई जो उ, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-अन्यतीर्थिगृहस्थैः, साई परिवेष्टितः ।
__ आहार मुक्त यस्तु, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ अवचूरिः-बो हि श्रमणः श्रमणी वा अन्यतीथिकैः तापसादिभिः गृहस्थैः पूर्वपरिचितैरपरिचितैर्वा, पूर्वसंस्तुतैः पश्चात्संस्तुतैर्वा, तत्र पूर्वसंस्तुता मातापितृभगिनीभ्रात्रादयः, गृहस्थावस्थापरिचिता अन्ये वा, पश्चात्संस्तुताः श्वशुरश्वश्रश्यालकादयः साध्वस्थापरिचिता वा, तैः सार्द्धम् संपरिवेष्टितः आवेष्टितः परिवेष्टितो वा भूत्वा यः कश्चित् श्रमणो मोहादिवशात् अशनादिकं भुङ्क्ते तथा भुजानं श्रणान्तरमनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् प्राप्नोति तस्मात् एभिः सह न भोक्तव्यम्, न वा भुञ्जानमनुमोदयेत् प्रवचनहीलनासंभवादिति ॥ सू० ३९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू आयरिय उवज्झायाणं सेज्जासंथारगं पारणं संघटित्ता हत्थेणं अणणुण्णइत्ता पधारेमाणे गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ॥ सू०४०॥
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सिमायावद्भिः उ०१६ सू० ४०-४५ आचार्याधविनयप्रमाणाधिकोपधिनिषेधः ३७१
छाया-यो भिक्षुराबायर्योपाध्यायानां शय्यासस्तारकं पादेन संघट्य इस्तेत अननुज्ञाप्य प्रधारयन् गच्छति गच्छन्तं वा स्वदते ॥सू०४०॥
चूर्णी जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आयरियउवज्झायाण" आचार्योपाध्यायानाम्, तत्र आचार्यो- गच्छनायकः, उपाध्यायः, सूत्रार्थयोरध्यापकः, तेषामाचार्योपाध्यायानाम् उपलक्षणात् पर्यायज्येष्ठानां च साधूनाम् 'सेज्जासंबरगं' मल्यासंस्कारकम् तत्र शय्या-शरीरप्रमाणा- संस्तारकर-सार्द्धद्वयहस्तप्रमाणकम् उपलक्षणात् आहारोपधिदेहपीठफलकादिकं च पाएणं संघदृत्ता' पादेन-चरणेन संघट्य शय्यासंस्तारकादीन् प्रमादवश्यत् पदेच संस्पृश्य, यदा बमनासमनसमयेऽनाभोगवशात् आचार्योपाध्यायादीनां शय्यासंस्तारकादीनि चरणेन संस्पृष्टानि भवन्ति तदा 'हरक्षेणं अणणुएमइत्ता' हस्तेन अननुज्ञाप्य-हस्तेन तत् स्पृष्ट्वा स्वदोषप्रकटनरूपामाज्ञामगृहीत्वा उपलक्षमात् शय्यासंस्तारकमप्रमार्ण्य वन्दनामकृत्वा मिथ्यादुष्कृतं चादत्वा पधारेमाणे गच्छई' प्रधारक्त प्रस्थानः कुर्वन् गच्छति-चलन्नेव चलति, मयं भाकः-यदि आचार्यादीवासानचादिषुः अनुपयोगात् पदस्पों भवेत्तदा तद् हस्तेन स्पृष्ट्वा मस्तकं स्पृशन् वदेच्चहेगुरो ! मयाऽपराधः कृत इति क्षमस्व, त पुनरेवमनुफ्योगेन चलिण्यामि' इत्यादिरूपेण क्षमायाचनं कर्तव्यमेकेति । तथा-'अच्छंक का साइज्ज आचार्यदीनामासनं चरणेच संस्पृश्य क्षमायाचनमा कृत्वा मिभ्यादुष्कृतमदत्त्वा च गच्छन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति।।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- 'सेज्जासथारदेहाई, संघट्टे गुरुणो पया।
खमावणमकाऊण, गच्छंतो दोसभा भवे ।। छाया- शय्यासंस्तारदेहादि संघदेत गुरोः पदात् ।
क्षमापनमकृत्वा गच्छन् दोषभाग भवेत् ॥ अवचूरिः- गुरोः-आचार्योपाध्ययपर्यायज्जेष्ठरूपस्य शय्यासंस्तारकदेहादि, तत्र शय्या-शरीरप्रमाणा, संस्तारकं सार्द्धद्वयहस्तप्रमाणम्, देहं करचरणादिकम् आदित-आहारोपध्यादीच प्रमादवशेन पदात् यदि संघट्टेत चरणेन स्पृशेत् यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा तदा-गिथ्यादुष्कृतमदत्त्वा क्षमापनमकृत्वैव गच्छेत् तथा एवं गच्छन्तं श्रमणान्तरं योऽनुमोदते स दोषभागू भवेत् प्रायश्चित्तभागी भवेदित्यर्थः । अथ आचार्योपाध्यायादिसम्बन्धिनां शय्यासंस्ता कादीनां कथं संघट्टनं भवति ! तत्रोच्यते-उपाश्रये प्रविशतो निष्क्रामतो मार्गे चलतो वा, उपविशतो गुरोः पादसंबाहनादिकं कुर्वाणस्य का पावन संघट्टन संभवति, एवं शयनसमये पादप्रसारणादिकरणे च संघट्टचस्य संभको भवति तत्र सदि भाचार्योपाध्यायादि सम्बन्धिशमासंस्तारकवहादीवां पादेन शरीरेण च संपन्न
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३७८
निशीथस्त्रे
AM
कदाचित् भ्रमात् प्रमादाद्वा जायेत तदा अवश्यमेव क्षमापनादिकं कुर्यात, अकरणे च साधुः प्रायश्चित्तभाग् भवेदिति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पमाणाइरितं वा गणणाइरित्तं वा उवहिं धरेइ धरंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४१॥
छाया-यो भिक्षुः प्रमाणातिरिक्तं वा गणनातिरिक्तं वा उपधिं धरति धरन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पमाणाइरितं वा' प्रमाणातिरिक्तं वा यस्य यादृशं प्रमाणम् एकद्वयादिस्तत् प्रमाणं यद्भगवताऽऽज्ञप्तं ततोऽतिरिक्तम् , तथा 'गणणाइरितं वा' गणनातिरिक्तं वा गणनया-संख्ययाऽधिकम् । तत्र प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रम्-यस्य वस्त्रस्य यावत्कं प्रमाणं हस्तादिमापनरूपं शास्ने प्रतिपादितं तस्मादधिकं प्रमाणातिरिक्तं वस्त्र कथ्यते तथाहि--"कप्पइ निग्गंयाणं तओ संघाडीओ धरित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निग्गंथीणं चत्तारि संघाडीओ धरित्तए वा परिहरित्तए वा। कप्पइ निग्गंथाणं बावत्तरिहत्थपरिमियं वत्थं धरित्तए वा परिहरित्तए वा । कप्पइ निग्गंथीणं छण्णउइहत्थपरिमियं बत्थं धरित्तए वा परिहरित्तए वा.- कल्पते निम्रन्थानां तिस्रः संघाटीः धर्तुं वा परिहत्ते वा । कल्पते निम्रन्थीनां चतस्रः संघाटीः धर्तुं वा परिहतु वा ! कल्पते निम्रन्थानां द्वासप्ततिहस्तपरिमितं वस्त्रं धतु वा परिहतुं वा । कल्पते निम्रन्थीनां षण्णवतिहस्तपरिमितं वस्त्रं धत्तुं वा परिहर्तुं वा, इति छाया । एवं गणनातिरिक्तम् , गणना वखविषया पात्रविषयेति द्विविधा भवति, तत्र वस्त्रविषया गणना पूर्वमुक्तैव, पात्रविषया गणना प्रोच्यते, सा च गणना एकद्वयादिसंख्या पात्राणामेकद्वयादिरूपेण वा संख्या शास्त्र प्रतिपादिता तदतिरिक्त गणनातिरिक्त कथ्यते, तथाहि-"कप्पइ निग्गंथाणं तिन्नि पायई चउत्थं उंदगं धारित्तए। कप्पइ निग्गंथोणं चत्तारि पायाई पचमं उंदगं धारित्तए ॥” इति शास्त्रोक्तग़णनातोऽधिकम् ‘उवर्हि' उपधिम्-वस्त्रपात्रादिकं यो भिक्षुः 'धरेइ' स्वयं धर्रात परद्वारा वा धारयति तथा- 'धरतं वा साइज्जई' धरन्तं प्रमाणगणनातिरिक्तमुपधि धारयन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चि त्तभागी भवति ।। सू० ४१ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि दुबद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥सू० ४२॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १६ सू० ४२-५३ सचित्तपृथिव्यादिषच्चारादिपरिष्ठापननिषेधः३७९
छाया-यो भिक्षुरनन्तरहितायां पृथिव्या जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणे सबीजे सहरिते सओसे सोदके सोत्तिापनकदकमृत्तिकामर्कटसंतानके दुर्बद्ध दुनिक्षिप्ते अनि कम्पे चलायले उच्चारप्रस्रवणं परिष्ठापयति परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ४२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यः कश्चित् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणंतरहियाए पुढवीए' अनन्तरहितायां पृथिव्याम् , तत्र-अन्तरहिता-अन्तरं-व्यवधानं तेन हिता स्थिता अन्तरहिता-ज्यवधानयुक्ता न अन्तरहिता अनन्तरहिता अचित्तताव्यवधानवर्जिता, चतुरङ्गुलपर्यन्तसचित्ततासम्बन्धयुक्ता सचित्तेत्यर्थः तस्यामनन्तरहितायां सचित्तायां पृथिव्याम् 'जीवपइटिए' इत्यादिविशेषणानि स्थानसामान्यस्य बोध्यानि ततश्च जीवप्रतिष्ठिते-दीन्द्रियादिजीवविशिष्टे-दारुकादौ 'सअंडे' साण्डे, तत्र अण्डेन सहितं साण्डं स्थानं तस्मिन्-अण्डविशिटस्थाने 'सहरिए' सहरिते-हरितविशिष्टे स्थाने 'सओसे' सओसे, तत्र ओस इति निशाजलं तेन सहिते स्थाने 'सउदए' सोदके-सचित्तोदकसहिते स्थाने 'सउत्र्तिगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि' सोत्तिङ्ग-पनक-दकमृतिका-मर्कटसन्तानके, तत्र उत्तिङ्गो जीवविशेषो गर्दभाकृतिभूमौवर्तुलछिद्रकारकः, तद्विशिष्टे भूभागे, पनकः- 'लीलनफुलन-काई' इति लोकप्रसिद्धस्तत्सहिते भागे, दकमृत्तिका-उदकमिश्रितमृत्तिका, तद्विशिष्टे भूभागे-सामृत्तिकायुक्त स्थाने, तथा-मर्कटसन्तानके लूता(मकडी)जालप्रतिष्ठितस्थाने, पुनः कथंभूते 'दुब्बद्धे'दुर्बद्धे-सम्यग्बन्धनरहिते 'दुण्णिक्खित्ते' दुनिक्षिप्ते-असम्यग्रूपेण स्थापिते दारुकादौ 'अनिक्कं' अनिष्कंपे-कम्पनसहिते 'चलाचले' चलाचले–अस्थिरे स्थाने यः श्रमणः श्रमणी वा 'उच्चारपासवणं' उच्चारप्रस्रवणम् 'परिहवेइ' परिष्ठापयति-व्युत्सृजति तथा 'परिहवेतं वा साइउजइ' परिष्ठापयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । ॥ सू०४२ ।। 'जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए' इति सूत्रादारभ्य -'जे भिक्खू खंधसि वा' इति सूत्रपर्यन्तानि दश सूत्राणि, तच्छाया, तव्याख्या तद्भाष्यं चेति सर्व त्रयोदशोदेशके विलोकनीयम् । विशेषस्तु एतावानेव यत्-तत्र 'ठाणं वा संज्जं वा' इत्युक्तम् , अत्र तु 'उच्चारपासवणं परिहवेइ इति वाच्यम् ॥ सू० ४२-१०-५२॥
सूत्रम्--तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ।। सू० ५३॥
॥ निसीहज्झयणे सोलसमो उद्देसो समाप्तः ॥१६॥ छाया-तत्सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥ सू०५३ ॥
॥ निशीथाध्ययने षोडशोद्देशकः समाप्तः॥ १६ ॥
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निशील
चूर्णी-ते सेवाणे' इत्यादि । 'ते सेवमाणे तत्-सांगारिकशय्यात आरभ्य उद्देशकपरिसमाप्तिपर्यन्तं प्रायश्चित्तस्थान सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन्-श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जई' आपद्यते-प्राप्नोति 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् ‘परिहारहाणं' परिहारस्थानम्प्रायश्चित्तम् 'उग्धाइयं' उद्घातिकम्-सागांरिकशय्यादिप्रवेशादारभ्य उद्देशकपरिसमाप्तिगतोच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनसूत्रपर्यन्तं यानि यानि प्रायश्चित्तस्थानानि दर्शितानि तेषु मध्यात् एकमनेक सर्व वा पापस्थानं प्रतिसेवमानस्य लघु चातुर्मासिवे प्रायश्चित्तं भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ५३॥ इति श्री–विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रति-विरचितायों "निसीयसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावरिरूपायां व्याख्यायाम् षोडशोदेशकः समाप्तः ॥१६॥
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॥ सप्तदशोद्देशकः ॥
व्याख्यातः षोडशौदेशकः, सम्प्रति सप्तदशोदेशको व्याख्यायते, तत्रास्य सप्तदशोदेशका. दिसूत्रस्य षोडशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्ध ! इति वेदत्राह माग्यकारः -
उद्देते समक्खायं, संजमत्तबिराहणं । तं चैव सतदसगे, कत्थई य विराहणं ॥
छाया - उद्देशान्ते समायातं, संयमात्मविराधनम् । तदेव सप्तदशके कथ्यते च विराधनम् ॥
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अवचूरि :- उद्देशान्ते षोडशोदेशकस्यान्ते स्कन्धादौ उच्चारप्रस्रवर्ण परिष्ठापनं कुर्वतः स्कन्धादितः पततश्च संयमविराधनमात्मविराधनं च भवति, इति कथितम्, तदेव संयमविराधनमात्मविराधनं च कौतूहलप्रतिज्ञया त्रसप्राणादेर्बन्धनेऽपि भवतीति सप्तदशोदेशक कथ्यते, तदेवमुभयत्रापि विराधनमेव प्रतिपादितं भवतीति अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरसूत्रयोर्भवति, तदनेन संबन्धैन श्रयातस्यास्य सप्तदशोदेशकस्येदं प्रथमं सूत्रम् -
सूत्रम् -- जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तपापाजाय तणपासएण वा मुंजपासएण वा, कट्टपासएण वा, चम्मपासएण बा, वेपासएण वा रज्जुपासएण वा सुत्तपासएण वा बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥
छाया -यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया अन्यतमं सप्राणजातं दणपाशकेन वा मुजपाशकेन था, काष्ठपाशकेन वा, चर्मपाशकेन वा, वैत्रपाशकेन वा, रज्जुपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा बध्नाति बध्नन्तं वा स्वदते । ० १ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोड'इल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया - कौतूहल वृत्तितया था, तत्र कौतूहलं हास्यविनोदादिलक्षणम्, तस्य कौतूहलस्य प्रतिज्ञया अभिलाषया वृत्तितया वा 'अण्णयरं तसपाणजाय' अन्यतमं किश्चिदेकं त्रसप्राणजातम्, तत्र सन्ति एकस्मात्स्थानात् स्थानान्तरं प्रति गच्छन्तीति श्रसाः- गवादयचतुष्पदाः पक्षिणश्च, एतदन्येऽपि स्थलचरखेचरादयो गृहीता भवन्ति, एतेषु अन्यतमं त्र - प्रणजातम् 'तणपासएण वा' तृणपाशकेन वा तत्र तृणो-दर्भादिकस्तस्य पाशकेन दर्भादितृणविनिर्मितदवरिकया पाशशब्दस्य दवरिकायाचकत्वात् 'मुंजया सरण वा' मुखमाशकेन वा तत्र मुञ्जो नाम तृणविशेषः, तन्निर्मितः पाशो दवरिका तेन मुञ्जपाशकेन 'कटुप्रासपण वा' काष्ठपाशकेन वा 'चम्मपासएण वा' चर्मपाशकेन - पश्वादि चर्मनिर्मितेन पाशकेन 'वेतपासण वा' वेत्रपाशकेन
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३८२
निशीथसूत्रे
वा, तत्र वेत्रं नाम लताविशेषः 'वेंत' इति लोकप्रसिद्धः तेन वेत्रेण निर्मितः पाशको दवरिका तेन त्रपाशकेन 'रज्जुपासरण वा रज्जुपाशकेन वा तत्र शणादिना निर्मिता या रज्जुः तस्याः पाशको दवरिका तेन रज्जुपाशकेन 'सुत्तपासएण वा' सूत्रपाशकेन वा तत्र सूत्र - कार्पासिकादिकं तेन निर्मितः पाशको दवरिका तेन सूत्रपाशकेन, एतेषां तृणादिपाशकानामन्यतमेन पाशकेन कौतूहलप्रतिज्ञया अन्यतमं त्रसप्राणजातं यः श्रमणः श्रमणी वा 'बंधइ' बध्नाति त्रसप्राणजातस्य बन्धनं करोति कारयति वा तथा 'बंधंतं वा साइज्जइ' बध्नन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजायं तण - पासएण वा, मुंजपासएण वा, कट्ठपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा, रज्जुपासएण वा सुत्तपासएण वा, बंधेल्लगं मुयइ मुयंतं वा साइज्जइ || सू० २ ॥
छाया -यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया अन्यतमं जसप्राणजातं तृणपाशकेन वा अपकेन वा काष्ठपाशकेन वा धर्मपाशकेन वा वेत्रपाशकेन वा रज्जुपाशकेन वा सूत्रपाशकेन वा बद्ध मुब्वति, मुञ्चन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
अत्राह भाष्यकारः -
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कनिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउ - इल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया - हास्यविनोदार्थाभिलाषेण 'अण्णयरं तसपाणजायं' अन्यतमं त्रसप्राणजातम् तृणादिपाशकेन 'बंधेल्लगं ' बद्धं 'मुंबई' मुञ्चति बन्धनविमुक्तं करोति, तथा 'मुयंतं वा साइज्जइ' मुञ्चन्तं वा स्वदते - बन्धनबद्धं प्राणिजातं बन्धनात् विमोचयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागो भवति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति । अत्र कुतूहलादिना सप्राणिनां बन्धने मोचने च तेषामबोधत्वेन जलाग्निगर्तपातादिना मरणसंभवात्तन्निषेधः कृतः किन्तु अग्निना ज्वलतां जलेन प्लावयमानानां हिंस्रैर्हन्यमानानां सर्पादिभिर्दश्यमानानां तु दयाबुद्ध्या बन्धनं मोचनं च कर्तव्यमेव, न तन्निषेधः । सूत्रे तु कौतूहलप्रतिज्ञया बन्धनविमोचनस्यैव निषेधो न तु दयाबुद्धयेति तत्त्वम् ॥
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तणाइपासजाएणं, तसाणं बंधमोयणं ।
कोहल्लेण नो कुज्जा, दयहं ण णिसिशई ॥
छाया - तृणादिपाशजातेन त्रसाणां बन्धमोचनम् । कौतूहलेन नो कुर्यात्, दयार्थे न निषिध्यते ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ० १७ सू० १-४
तृणादिमालिका करण धरणपरिभोगनिषेधः ३८३
अवचूरि :- तृणादिपाशजातेन - तृणमुञ्जादिना निर्मितेन पाशजातेन केनापि प्रकारेण पाशेन दवरिकया त्रसाणां बन्धमोचनं बन्धनं मोचनं च कौतूहलेन कुतूहलबुद्धया विनोदहास्याद्यर्थ नो कुर्यात्, किन्तु दयार्थं दयानिमित्तं बन्धनं मोचनं च न निषिध्यते जलाग्न्यादितो रक्षणार्थं बन्धनस्य मोचनस्य च निषेधो भगवता न कृतः, अतएव 'कोऊहलवडियाए' इति सूत्रे कथितम् । सू०२ |
सूत्रम् — जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्टमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेs करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ३ ॥
छाया - यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया तृणमालिक वा मुञ्जमालिकां वा भिण्डमाoिni ar मदनमालिकां वा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा गृङ्गमालिकां वा शङ्खमाoिri वा अस्थिमालिकां वा काष्ठमालिकां वा पत्रमालिकां वा पुष्पमालिकां वा फलमाfoni वा बीजमालिकां वा हरितमालिकां वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३ ॥
--
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउइल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया - आत्मनो विनोदाभिप्रायेण 'तणमालियं वा' तृणमालिकां वा, तत्र तृणानां - दर्भादितृणविशेषाणां मालिकां मालां करोति - तृणादिना मालां निर्माति 'मुंजमालियं वा' मुञ्जमालिकां वा- तृण विशेषरूपमुञ्जस्य मालिकां निर्माति 'भिंडमालियं वा' भिण्डमालिकां वा, भिण्ड : - वनस्पतिविशेषः तस्य मालाम् 'मयणमालियं वा' मदनमालिकां वा - मदनस्य 'मोम' इति लोकप्रसिद्धस्य मालाम् 'पिच्छमालियं वा' पिच्छमालिकां वा - मयूरादिपिच्छानां मालाम् 'दंतमालियं वा' दन्तमालिकां वा - गजादिदन्तानां मालाम् 'सिंगमालियं वा' शृङ्गमालिकां वा - हरिणमहिषादिशृङ्गाणां मालाम् 'संखमालियं वा' शङ्खमालिकां वा शङ्खानां मालाम् 'हड्डमालियं वा' अस्थिमालिकां वा महिष्याद्यस्नां मालाम्, 'कट्टमालियं वा' काष्ठमालिकां वा-तुलस्यादिकाष्ठानां मालाम् 'पत्तमालियं वा' पत्रमालिकां वा तुलस्यादिपत्रैर्निर्मितां मालाम् 'पुप्फमालियं वा' पुष्पमालिकां वा - चम्पादिपुष्पाणां मालाम् 'फलमालियं वा' फलमालिकां वा - अनेक प्रकार कफलानां मालाम् 'बीयमालियं वा' बीजमालिकां वा रुद्राक्षादिबीजानां मालाम् ' हरियमालियं वा' हरितमालिकां वा - हरितका यवनस्पतीनां सम्बन्धिनीं मालाम्, 'करेइ' करोति - संपादयति, तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं - तृणादिविविधवस्तूनां मालां कुर्वन्तं संपादयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञाभङ्गरदि का दोषा अपि भवन्ति ॥ सु० ३ ॥
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निशीधसूत्रे सूत्र-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालिय वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्मालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुष्पमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा धरेइ घरेतं स साइज्जइ ॥ १०४॥
छाय-यो भिक्षुः कौतुहलप्रतिक्षया तणमालिकां वा मुखमालिकां वा भिण्डमा लिकां वा मदनमालिकां पा पिच्छमालिकां वा दन्तमालिकां वा शृङ्गमालिका वा शमालिकां वा अस्थिमालिका वा पत्रमालिका वा पुरुपमालिकां वा फलमालिकां वा बीजमालिका वा हरितमालिकां वा धरति धरन्त वा स्वदते ॥२०॥
चूर्षी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउइस्लपडिसए' कौतूहलप्रतिज्ञया वयादिसम्पादितां मालां धरति-हस्तादौ स्थापयति धरन्तं वा स्वादते स वाचतभार भरति ॥ ४ ॥
एवं परिभुजई' इत्यपि सूत्रम्-'परिभुजइ' परिभुङ्क्ते-तृणादिमालायाः सुगन्धस्पर्शादिना उपभोगं करोति कण्ठे धारयति वा । तृणादिमालाविषयककरण-धरण-परिभोगप्रदर्शकानां त्रयाणां सूत्राणां व्याख्या सप्तमोद्देशके द्रष्टव्या । विशेषस्तु एतावानेव यत्तत्र 'मेथुनप्रतिवया' इति पदेन कथितम् , अत्र तु 'कौतुहलप्रतिज्ञया' इति पदेन वाच्यम्, एवमग्रेऽपि ॥
अत्राह भाष्यकार:
कोडहरूलेण अन्नेष्य, केणावि कारमेण जो । तणाइमालियं कुमा, धरेज्जा परिश्रृंजए ॥१॥
आणाभंघाइदोसाई, पावई सो अफेमहा । सम्हा भिक्खू विवज्जेज्जा, मालियाकरणाइयं ॥२॥ अया-कौतूहलेन अन्येन केनापि कारणेनमः ।।
समादिमासिकां कुर्यात् धरेत् परिभुञ्जीत ॥१॥ आहाहादिदोषार, प्राप्नोति सः अनेकधा ।
बस्माद् भिक्षुर्विवर्जयेत् , मालिकाकरणादिकम् ।। २ ।। अवचरिस-यः कोऽपि निर्ग्रन्थः निम्रन्थी वा कुतूहलेन हास्यविनोदादिना तथा अन्येन वा केनाऽपि कारणेन रागद्वेषमोहादिना तृणादिमालिकां कुर्यात् घरेत् परिभुञ्जीत वा स आज्ञाभङ्गादिदोषान् अनेकप्रकारकान् प्राप्नोति तस्मात् कारणात् भिक्षुः मालिकाकरणादिकं, माल
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पूर्णिभाष्यावरिः उ० १७ सू०५-१४ कुतूहलवाञ्छ्याऽयोलोहादिहारादिकरणादिनि० ३८५ कायाः करण धरणं परिभोगं च विवर्जयेत् दूरतः परिवर्जयेत् साध्वाचारविरुद्धत्वेन भगवदननुमतत्वादिति ॥ १-२ ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउयलोहाणि वा सीसलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६॥ एवं धरेइ ।। सू० ७॥ परिभुंजइ ।। सू०८॥
छाया - यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया अयोलोहान् वा त्रपुलोहान् वा सीसकलोहान् वा रूप्यलोहान् वा सुवर्णलोहान् वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू. ६॥ एवं धरति । सू० ७ ॥ परिभुङ्क्ते ॥ सू०८ ॥
चर्णी—'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोउहल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया-आत्मनोविनोदाभिप्रायेण उपलक्षणाद् अन्येनापि केनचित्कारणेन 'अयलोहाणि वा' अयोलोहान् वा, तत्रायसो लोहस्य लोहान् सूत्रशालाकादिरूपेणाऽऽकृतिविशेषान् 'तंबलोहाणि वा' ताबलोहान् वा-ताम्रस्याऽऽकृतिविशेषान् वा 'तउयलोहाणि वा पुलोहान् वा, तत्र त्रपोः-धातुविशेषस्य 'जस्ता' इति लोकप्रसिद्धस्य लोहान्-आकृतिविशेषात् 'सीसलोहाणि वा' सीसकलोहान् वा. तत्र सीसकं सीसा' इति लोकप्रसिद्धम् तस्याऽऽकृतिविशेषान् रुप्पलोहाणि वा रूप्यलोहान् वा, तत्र रूप्यं रजतम् तस्याऽऽकृतिविशेषान् 'सुवण्णोहाणि वा' सुवर्णलोहान् वा सुवर्णस्य कटककुण्डलाद्याकृतिविशेषान् 'करेइ' करोति-अयःप्रभृतीनामाकृतिविशेषान् मनोरञ्जनार्थ यो भिक्षुः स्वयं करोति-सम्पादयति, तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ६ ॥ एवं 'धरेइ परिभुजई इति सूत्रद्वयमपि स्वयमूहनीयम् करण-धरण-परिभोगविषयकसूत्रत्रयस्य विशेषव्याख्या सप्तमोदेशके द्रष्टव्या । सू० ७-८॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए हाराणि वा अद्वहाराणि वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलि वा रयणावलिं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलं. बसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ।। सू० ९ ॥ एवं घरेइ० ॥ सू० १०॥ परिभुजइ ॥ सू० ११ ॥
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३८६
निशीथसूत्रे
छाया - -यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया हाराणि वा अर्द्धहाराणि वा एकावलीं घा मुक्तावलीं वा कनकावलीं वा रत्नावलीं वा कटकानि वा त्रुटितानि वा केयूराणि वा कुण्डलानि वा पट्टानि वा मुकुटानि वा प्रलम्बसूत्राणि वा सुवर्णसूत्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ ० ९ ॥ एवं धरति• ॥ सू० १० ॥ परिभुङ्क्ते ॥ सू० ११ ॥
चर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा मोहनीयकर्मोदयात् 'कोउहल्लवडियाए' कौतूहलप्रतिज्ञया - स्वात्मविनोदेच्छ्या अन्येनापि कारणेन वा 'हाराणि वा हारान् वा अष्टादशसरिकान् 'अद्धहाराणि वा अर्द्धहारान् वा नवसरिकान् अर्द्धहारान् 'एगाबलिं वा' एकावलीं वा- एकसरिकाम् 'मुक्तावलिं वा' मुक्तावलीं वा, तत्र मुक्तानां मौक्तिकानामावली - पंक्तिर्यत्र सा, तां मुक्तावलीम् 'कणगावलिं वा' कनकावलीं वा, तत्र कनकानां सुवर्णमणकानामावली यत्रेति कनकावली ताम्, 'रयणावलिं वा' रत्नावलीं वा, तत्र रत्नानां माणिक्यप्रभृतीनामावली -पंक्तिर्यत्र तां रत्नावलीम्, 'कडगाणि वा कटकानि वा कङ्कणानि - सुवर्णवलयान् वा 'तुडियाणि वा' त्रुटितानि वा बाह्राभरणानि 'केऊराणि वा' केयूराणि वा 'भुजबन्ध' इति प्रसिद्धानि भुजाभरणानि 'कुण्डळाणि वा' कुण्डळानि वा - कर्णाभरणानि 'पट्टाणि वा' पट्टानि वा कटिपट्टानि कटयाभरणानि 'मउडाणि वा' मुटानि वा - शिरोभूषणानि 'पलंबसुत्ताणि वा प्रलम्बसूत्राणि वा कण्ठादौ प्रलम्बमानाभरणानि 'सुवण्णसुत्ताणि वा' सुवर्णसूत्राणि वा कण्ठे धार्यमाणानि सुवर्णसूत्रप्रथितान्याभरणानि, एतानि हारादीनि यः श्रमणः श्रमणी वा स्वात्मविनोदाभिप्रायेण अन्येन वा केनापि कारणेन 'करेई' करोति - स्वयं सम्पादयति तथा 'करेंतं वा साइजइ' कुर्वन्तं वा - संपादयन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९ ॥ एवम् - हारादीनां विषये 'धरेइ परिभुंजइ इति सूत्रद्वयमपि स्वयमूहनीयम्, करण - धरण - परिभोगविषयाणां सूत्राणां व्याख्या सप्तमोदेशके द्रष्टव्या || सू० १०-११ ॥
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सूत्रम् — जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा आई - पाउरणाणि वा कंबलाणि वा कंबलपाउरणाणि वा कोयराणि वा कोयर पाउरणाणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा नीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उद्याणि पा उट्टलेस्साणि वा वग्घाणि वा विवराणि वा पतंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पणलाणि वा आवरंताणि वा चीणाणि वा असुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२ ॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०१७ सू०-१५-२३८ अन्यथिकादिकारितपादामार्जनादिनि० ३८७
छाया-यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिक्षया आजिनानि वा आजिनप्रावराणानि वा कम्बलानि वा कम्बलप्रावरणानि वा कोतराणि वा कोतरप्रावरणानि वा गौरमृगाणि या कृष्णमृगाणि वा नीलमृगाणि वा श्यामानि वा महाश्यामानि वा उष्ट्राणि वा उष्ट्रलेश्यानि वा व्याघ्राणि वा विव्याघ्राणि वा प्लवङ्गानि वा प्रलक्ष्णानि प्रलक्ष्णकल्पानि वा क्षौमाणि वा दुकूलानि वा तिरीटपट्टाणि वा प्रतुलानि वा पणलानि वा अवरत्राणि वा चीनानि वा अंशुकानि वा कनककान्तानि वा कनकचितानि वा कनकचित्राणि बा कनकविचित्राणि वा आभरणविचित्राणि वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १२॥
_ 'चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा' यो भिक्षुः कौतूहलप्रतिज्ञया आजिनानि वा, तत्र अजिनं-मृगचर्म तेन निर्मितानि आग्निानि-मृगचर्मवस्त्राणि । इत्यारभ्य 'आभरणविचित्ताणि वा' आभरणविचित्राणि-आभूषणमण्डितानि वा, इति पर्यन्तानि वस्त्राणि 'करेइ. धरेइ, परिझुंजइ' करोति १२ , धरति १३, परिभुक्ङ्ते १४, इतिसूत्रत्रयं सप्तमोदे शकसूत्रवद् व्याख्येयम् ॥ सू० १२-१३-१४॥
सूत्रम्-जे निग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं वा साइज्जइ॥ सू०१५॥
छाया-यो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थस्य पादौ अन्ययुथिकेन वा गाईस्थिकेन वा आमार्जयेत् वा प्रमार्जयेद् वा आमाजयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५॥
चूर्णी--'जे निग्गंथे' इत्यादि । 'जे निग्गंथे' यः कश्चित् निम्रन्थः श्रमणः निग्गंथस्स' निर्ग्रन्थस्य स्वात्मभिन्नस्य 'पाए' पादौ-चरणौ 'अण्णउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यतीथिकेन वा 'गारथिएण वा' गार्हस्थिकेन गृहस्थेन वा 'आमज्जावेज्ज वा' आमार्जयेद् वा एकवारम् ‘पमज्जावेज्ज वा' प्रमार्जयेद् वा अनेकवारम् 'आमज्जावेतं वा' मामार्जयन्तं वा 'पमज्जावेंते वा' प्रमार्जयन्तं वा श्रमणान्तरं 'साइज्जइ' स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १५ ॥
सूत्रम्-एवं तइयउद्देसगमो भाणियब्वो जाव जे निग्गंथे निग्गंथस्स गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीसदुवारिस्य कारावेइ कारावेतं वा साइज्जइ ॥ (५५) ॥ सू० १६-७०॥
एवं जे निग्गंथे निंग्गंथीए० (५६) ॥ सू० ७१-१२६॥ एवं जा निग्गंथी निग्गंथी निग्गंथस्स० (५६) ॥ सू० १२७-१८२॥ एवं जा निग्गंथी निंग्गंथीए० (५६) ॥ सू० १८३-२३८॥
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૨૮૮
निशीथसूत्रे
छाया - एवम् - तृतीयोद्देशकगमो भणितव्यः यावत् यो निर्ब्रन्यः निर्ग्रन्थस्य ग्रामानुग्रामं द्रवतः अन्ययूथिकेत गार्हस्थिकेन वा शीर्षदौवारिकां कारयति कारयन्तं वा स्वद (५५) ॥ सु० १६ - ७० ॥
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पवम् यो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्ध्याः ० (५६) ॥ सू० ७१-१२६ ॥ पवम् - या निर्ग्रन्थी निर्यन्थस्य॰ (५६) ।। सू० १२७-१८२ ।। एवम् - या निर्व्रन्थो निर्ग्रन्थ्याः ० (५६) ||सू०१८३- २३८ ॥
चूर्णी - ' एवं ' इत्यादि । एवम् अनेन क्रमेण 'तइयउद्देसगमो भाणियध्वो' तृतीयो - देशकगमो भणितव्यः कथयितव्यः कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत्तृतोयोदेशकगत सप्तदशसूत्रादारम्य एकसप्ततितमसूत्रपर्यन्तं पञ्चपञ्चाशत्सूत्र कदम्बकमत्र वाच्यम्, तदन्तिमसूत्रमाह-'जे निग्गंथे' इत्यादि । 'जे निग्गंथे' यः कश्चित् निर्ग्रन्थः 'निम्गंथस्स' निर्ग्रन्थस्य- स्वात्मभिन्नान्यश्रमणस्य 'गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स' प्रमानुप्रामं प्रामाद् ग्रामान्तरं विहरतः 'अन्नउत्थिएण वा' अन्ययूथिकेन अन्यदार्शनिकेन 'गारत्थिपण वा' गार्हस्थिकेन गृहस्थेन वा 'सीसदुवारियं' शीर्षदौवारिकां शिरसि छत्राकाराच्छादनरूपां 'कारावे ' कारयति 'कारावेंतं वा साइज्जइ' कारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति (५५) ॥ सू० १६-७० ।।
एवम्- 'जे निग्गंथेनिगंथीए०' अत्रापि पादामार्जनादारभ्य शीर्षदौवारिकापर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि वाच्यानि ( ५६ ) ॥ सू०७१-१२६ ॥
एवम्- 'जा निग्गंथी निग्गंथस्स ० ' अत्रापि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि वाच्यानि (५६) ॥ सू० १२७–१८२) एवम् 'जा निम्गंथी निग्गंथीए०' अत्रापि षट्पञ्चाशत् सूत्राणि बोध्यानि (५६) ।। सू०१८३ - २३८॥
एतानि सर्वाणि सूत्राणि तृतीयोदेशक सूत्रकदम्बकवद व्याख्येयानि, भेदस्तावदेतावानेव - यत् तत्र पादामार्जनादः स्वयं करणं कथितम् अत्र तु परेण कारणमिति । षट्पञ्चाशत्सूत्राणि यथासूत्राणि पादविषयकाणि ६, एवं षट् कायस्य १२, षड् व्रणस्य १८, षड् गण्डविषयस्य २४, पायुक्काम - दोनत्रशिखात द्वयम् २६, अष्ट रौमविषयाणि ३४, त्रोणि दन्तानाम् ३७, षड् ओष्ठस्य ४३, एकमुत्तरोष्ठस्य ४४, एकगक्षिपत्रविपयकम् ४५, षड् अक्ष्णोः ५१, रोम-पार्श्वरोमविषयकं द्विकम् ५३, अक्ष्यादिमलविषयकमेकम् ५४, कायस्वेदविषयकमेकम् ५५, एकं च शीर्षद्वारिका विषयकम् ५६, इति षट्पञ्चाशत् सूत्राणि ५६ । एवमेतानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि 'जे निम्गंथे निग्गंथीए पाए' इत्यादिनिर्मन्थकारिता नन्थीपाद प्रमार्जनाद्यारम्य शीर्षद्वारिकापर्यन्तानि वाध्यानि ५६ । एवमेत्र 'जा निगथा निग्गंथस्स पाए' इत्यादिनिर्मन्था कारितनिर्ग्रन्थपादप्रमार्जनादीनि शीर्षद्वारिका
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घूर्णभाष्यावचूरिः उ० १७ सू० २३९-२४२
मालावताद्यशनादिनिषेधः ३८९
पर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि पठितव्यानि ५६ । एवमेव 'जा निग्गंथी निम्गंथीए पाए' इत्यादि, निर्ग्रन्थीकारितनिर्ग्रन्थीपादप्रमार्जनादीनि शीर्षद्वारिकापर्यन्तानि षट्पञ्चाशत्सूत्राणि वक्तव्यानि ५६ । एतानि सर्वाणि पञ्चदशसूत्रादारभ्य- अष्टत्रिंशदधिकद्विशत (२३८) सूत्रपर्यन्तानि चतुर्विंशत्यधिकद्विशत(२२४) संख्यकसूत्राणि तृतीयोदशेकगत षोडशसूत्रादारभ्य एकसप्ततितमसूत्रपर्यन्तोक्तगमानधिकृत्य षट्पञ्चाशत्सूत्राणि 'जे निग्गंथे निग्गंथस्स' इत्यादिषु चतुर्ष्वपि प्रत्येकं पठितव्यानि, तदर्थोऽपि तदनुसारेणैव ज्ञातव्यः ।। सू० १५- २३८ ॥
जे णिग्गंथे णिग्गंथस्स सरिसगस्स अंते ओवा से संते ओवासं न दे न देंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २३९ ॥
छाया -- यो गिन्थो निर्ग्रन्थाय सदृशकायाऽन्तरवकाशे सति अवकाशं न ददाति न ददतं वा स्वदते ॥ सू० २३९ ॥
चूर्णी 'जे णिग्गंथे' इत्यादि । 'जे णिग्गंथे' यः कश्चिद् निर्ग्रन्थः श्रमणः 'णिगंथस्स सरिसगस्स' निर्ग्रन्थाय सदृशकाय - यो यस्य समानसामाचारीकः स तस्य सदृशः कथ्यते, एतादृशाय समागताय श्रमणाय 'अंते ओवासे संते' अन्तः - स्ववसतिमध्ये अवकाशे निवासस्थाने सति-विद्यमानेऽपि 'ओवासं' अवकाश - निवासस्थानम् 'न देइ' न ददाति-न समर्पयति तथा 'न देतं वा साइज्जइ' विद्यमानमपि अवकाशं न ददतं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याज्ञा भङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० २३९ ॥
सूत्रम् -- जाणिग्गथी णिग्गंथीए सरिसियाए अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४० ॥
छाया
- या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्ध्यै सदृशकाये अन्तरवकाशे सति अवकाशं न ददाति न ददर्ती वा स्वदते ॥ सू० २४० ॥
चूर्णो- 'जा णिगंथी इत्यादि 'जा णिग्गंथी' या काचित् निर्मन्थी - श्रमणी णिग्गंथीए सरिसियाए' निर्ग्रन्थ्यै- श्रमण्यै सदृशकायै समान कल्पस्थित्यादिमत्यै 'अं ते ओवा से संते' अन्तर्मध्ये सति अवकाशे-निवासस्थाने स्ववसतौ 'ओवासं न देइ' अवकाश - निवासस्थानं न ददाति न प्रयच्छति, काचित् श्रमणी परग्रामादिस्थानान्तरात् समागच्छेत् तस्यै यदि 'इयं श्रमणी मत्समानधर्मिणी' इति ज्ञात्वाऽपि स्ववसतौ निवासं न ददाति तथा 'न देतं वा साइज्जइ' न दद वा तां या स्वदने - अनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागिनी भवति तथा तस्याः आज्ञाभङ्गादिका अपि दोषा भवन्ति ॥
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निशीथसूत्रे
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-निग्गंथो तह निग्गंथी, सस्स सस्स परोप्परं ।
__ संतावासं न जं देई, आणाभंगाइ पावई ॥१॥ छाया निम्रन्थस्तथा निर्ग्रन्थी स्वस्य स्वस्व परस्परम् ।
सन्तमावासं न यत् ददांति, आशाभङ्गादि प्रानोति ॥१॥ अवचूरिः- निर्ग्रन्थः साधुः तथा निम्रन्थी साध्वी स्वस्य स्वस्य परस्परं साधुः समानसामाचारीकाय साववे, साध्वी समानसामाचारीकायै साध्यै सन्तं विद्यमानं स्वस्थितोपाश्रये आवासं सदपि निवासस्थानं यत्- यदि न ददाति तदा सः साधुः साध्वी वा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोतीति || स० २४० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा खाइमं वा दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४१॥
___ छाया - यो भिक्षुर्मालावहृतम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४१ ॥
चूर्णिः- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मालोडर्ड' मालाऽवहृतम्, तत्र मालावहृतम्-मालः स्थानविशेषः तस्माद् अवहृतम्-अपकृष्टं मालावहृतम्-तत् त्रिविधम् -ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्भेदात्, तत्र ऊर्ध्वमालावहृतम्-उच्चप्रदेशात् निश्रेण्यादिनाऽवतारितम् १ अधोमालावहृतम् -भूमिगृहादित आनीतम् २, तियेङ्मालावहृतम् - मञ्चादितोऽवलारितम् ३ । एतादृशम्, 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्य वा 'खाइमं वा' स्वाद्यं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'दिज्जमाणं' दीयमानम्, यो भिक्षुः 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २४१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कोट्ठाउत्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उक्कुज्जिय णिक्कुज्जिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ ॥ सू० २४२ ॥
छाया–यो भिक्षुः कोष्ठायुक्तम् अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा उत्कुज्य निष्कुब्ज्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगृहन्तं पा स्वदते ।। २४२ ॥ .
___ चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कोहाउत्तं' कोष्ठायुक्तम् , तत्र कोष्ठं नाम-मृत्तिकादिनिर्मितपुरुषैकप्रमाणं ततो हीनमधिकं वा 'कोठा' इति लोकप्रसिद्ध तादृशकोष्ठादौ स्थितम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा
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बुर्णिभाष्यावचूरि-उ०१७ सू०२४३-२४८ मृत्तिकालिप्तसचित्तपृथिव्यादिस्थिताशनादिनि० ३९१ 'खाइमं वा' खाधं वा 'साइमं वा' स्वाधं वा चतुर्विधमाहारजातम् 'उकुन्जिय णिक्कुज्जिय' उत्कुब्ज्य निष्कुब्ज्य--उच्चैः कुब्जीभ्य नीचैः कुब्जीभ्य च-कायमुन्नम्य अवनम्य 'दिज्जमाणं' दीयमानं तादृशमाहारजातं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते-अनुमोदते प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू०२४२।
सत्रम्-जे भिक्खू मट्टिओलित्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उभिदिय निभिदिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ ॥ सू० २४३॥
छाया--यो भिक्षुः मृत्तिकोपलिप्रमशन वा पानं वा बाद्य वा स्वाद्य वा निध निभिद्य दीयमानं प्रतिगृति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४३॥
___ चूर्णिः-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मटिओलित' मृत्तिकोपलिप्तम्-मृत्तिकया उपलित-मुदितम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्यं वा 'साइमं वा' स्वायं वा 'उभिदिय निभिदिय' उद्भिय निर्भिध-यद्वस्तु घृतगुडादिकं पात्रविशेष स्थापयित्वा मृत्तिकया लिप्तं तत् उद्भिद्य-उत्कृष्ट बलपूर्वकं भित्त्वा बोटयित्वा निर्भिद्य-नितरां बारं बारं भित्वा 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति 'पडिग्गाहेंतं' तादृशमशनादिकं प्रतिगृह्णन्तं श्रमणान्तरम् ‘साइज्जई' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभाग भवतीति ॥ सू० २४३॥
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीपइट्ठियं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४४॥ एवं आउपइट्ठियं ॥ सू० २४५॥ तेउपइट्ठियं ॥ मू० २४५॥ वणप्फइकायपइट्ठियं ॥ सू० २४७॥
छाया--यो भिक्षुरशनं वा पान वा खाद्यं वा स्वाद्य वा पृथिवोप्रतिष्ठितं प्रति. गृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४४॥ एवम् अप्प्रतिष्ठितम् ॥ सू० २४५ ॥ तेजःप्रतिष्ठितम् ।। सू० २४६ ।। वनस्पतिकायप्रतिष्ठितम् ॥ सू० २४७ ॥
चूर्णिः----'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं' वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाद्य वा 'साइमं वा' स्वार्थ वा 'पुढवीषइहियं' पृथिवीप्रतिष्ठितं, पृथिव्याम्-यत् सचित्तपृथिवीकाये-सचित्तमृत्तिकालवणगैरिकारूपे प्रतिष्ठितम्-अनन्तरपरम्पररूपेण साक्षात् परस्परया वा स्थापितं भवेत् तद् अशनादिकं दीयमानं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृहाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई'
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३९२
निशीथसूत्रे
प्रतिगृहन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २४४ ॥ एवं 'आउपइद्वियं' अप्कायप्रतिष्ठितं-सचित्तमिश्राप्कायोपरिस्थितमशनादिकम् ॥ सू० २४५ ॥ 'तेउपइद्वियं तेजःप्रतिष्ठितं तेजस्कायोपरि स्थितमशनादिकम् ।। सू० २४६ ॥ वणप्फइकायपइट्रियं' वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं हरितकायोपरिस्थितम् उपलक्षणाद् व्रीह्यादिबीजधान्यादिप्रतिष्ठितं वा ऽशनादिकं यो भिक्षुः प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभाग् भवति । अत्र शिष्यः पृच्छति-हे गुरो ! यदि पृथिव्यादिप्रतिष्ठितमशनादिकं गृह्णाति तदा को दोषः, न स्पर्शमात्रेण कस्यापि जीवस्य पीडा संभवति ? इति, आचार्चः प्राह-हे शिष्य ! भवत्येव तज्जीवानां पीडा, यत् श्रमणार्थ श्रावकः पात्रादिकमवतारयति इति भवत्यवतारणादिसमये संघट्टनं, संघट्टनमात्रेणैव ते एकेन्द्रिया महती वेदनामनुभवन्ति, यथा कश्चित् जराजीर्णदेहो वृद्धो बलवता तरुणयमलपाणिना शिरसि ताड्यते तत्र यादी वेदनामनुभवति वृद्धस्ततोऽप्यधिकतरां वेदनां संघटनमात्रेणैव एकेन्द्रियजीवा अनुभवन्ति तस्मात् कारणात् एकेन्द्रियजीवानां संघट्टनं येन भवेत् तथा न कर्तव्यमित्यतः सूत्रे तन्निषेधः कृत इति । एवं यो हि दोषः पृथिव्यादिप्रतिष्ठिताऽशनादिग्रहणे भवति स एव दोषो नियमतः सचित्तपृथिव्यादिप्रतिष्ठितवस्रपात्रादिग्रहणेऽपि ज्ञातव्यः ॥ सू० २४७ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा मुहेण वा सुप्पेण वा विहुणणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा फुमित्ता वीइत्ता आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४८॥
छाया-यो भिक्षुरत्युष्णमशन वा पानं वा खाधं वा स्वाधं वा मुखेन वा सूर्पण वा विधुननेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभङ्गेन वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चैलेन चेलकर्णेन वा हस्तेन वा फूत्कृत्य वीजयित्वा आहृत्य दीयमान प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ स० २४८ ।।
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अच्चुसिणं' अत्युष्णम्-अतिशयोष्णम् 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खायं वा 'साइमं स्वाद्यं वा 'मुहेण वा' मुखेन वा मुखवायुनेत्यर्थः 'मुप्पेण वा' सूर्पण वा सूर्पवायुना इत्यर्थः, 'विहुणणेण वा' विधुननेन वा-व्यजनेन 'पंखा' इति लोकप्रसिद्धेन तदीयवायुनेत्यर्थः 'तालियंटेण वा तालवृन्तेन वा तालव्यजनेन तदीयवायुनेत्यर्थः, 'पत्तेण वा' प ण वा
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पूर्णिभाष्यावधिः उ० १७ सू० २४८-२५१ फूत्कृतसचित्ताशनादिग्रहणनिषेधः ३९३ 'पत्तभंगेण वा' पत्रभङ्गेन वा-पत्रखण्डेन इत्यर्थः 'साहाए वा' शाखया वा-वृक्षावयवरूपया 'साहाभंगेण वा शाखाभङ्गेन-शाखाखण्डेनेत्यर्थः, 'पेहुणेण वा' मयूरपिच्छेन वा 'पेहुणहत्थेण वा मयूरपिच्छपुञ्जेन वा 'चेलेण वा' चेलेन वा-वस्त्रेण वा 'चेलकण्णेण वा चेलकर्णेन वा वस्त्रावयवेन वस्त्रखण्डेनेत्यर्थः, हत्थेण वा' हस्तेण वा-हस्तसञ्चान्तिवायुना 'फुमित्ता' फूत्कृत्य मुखेन फूत्कारं कृत्वा 'वीइत्ता' बीजयित्वा-व्यजनादिना शीतलीकृत्य 'आहटुं' आहृत्य-आनीय हस्ते गृहीत्वेत्यर्थः 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाइंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा-चूल्ह्यादितोऽवतारितमन्युष्णमशनादिकं मुखादिवायुना बीजयित्वा--शीतलीकृत्य दीयमानमशनादिकं गृह्णन्तं श्रमणान्तरं स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० २४८॥ ।
सूत्रम्-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अच्चुसिणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४९॥
छाया --यो भिक्षुरशनं वा, पानं वा, वाद्यं वा स्वायं अत्युष्णं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २४९ ॥
चूर्णी--- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असणं वा' अशनं वा 'पाणं वा' पानं वा 'खाइमं वा' खाचं वा 'साइमं वा' स्वाचं वा 'अच्चुसिणं' अत्युष्णम्-अत्यन्तोष्णं येन हस्तादि दह्यने तादृशमशनादिकं 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहें तं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते य प्रायश्चित्तभागी भवति । यतः- अत्युष्णग्रहणे वायुकायसंपातिमद्वीन्द्रियादीनां हिंसासद्भावात् संयमविराधना, हस्तादिदहनसद्भावादात्मविराधना च भवतीति तादृशाशनादिकं न ग्राह्यम् ।सू० २४॥
सूत्रम्--जे भिक्खू उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा वारोदगं वा तिलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वाअंबकंजियं वा सुद्धवियडं वा अहुणाधोयं अणंबिलं अपरिणयं अवुक्कंतजीवं अविद्धत्थं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० २५० ।।
छाया-यो भिक्षुः उत्सेकिम वा संसेकिम वा तण्डुलोदकं वा वारोदकं वा तिलोदकं वा तुषोदकं वा यवोदकं वा आचामं वा सौवीरं वा आम्रकाजिकं वा शुद्धविकटं वा अधुनाधौतम् मनाम्लम् अपरिणतम् अव्युत्क्रान्तजीवम् अविध्वस्तं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५० ॥
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निशीधसूत्रे चूर्णी -'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उस्सेइमवा' उत्सेकिम वा-वाष्पितगोधूमपिष्टतिलादि येन जलेन सिच्यते-धाव्यते तज्जलम्, अथवा-येन जलेन पिष्टकादिसंश्लिष्टं पात्रम् 'कठौती' तिलोकप्रसिद्धं प्रक्षाल्यते तज्जलं वा 'संसेइमं वा' संसेकिम वा वाष्पितवास्तुकतन्दुलीयकादिपत्रशाकं संसिच्यते तज्जलम् । 'चाउ लोदगंवा तण्डुलोदकं वा तण्डुलधावनजलं येन जलेन तण्डुला धाव्यन्ते पाकात्पूर्व तादृशं जलम् 'बारोदगं वा' वारोदकं वा-वारः घटः येन जलेन गुडादिघटः प्रक्षाल्यते तादृशं जलं वारोदकमिति कथ्यते 'तिलोदगं वा' तिलोदकं वा-तिलधावनजलम् 'तुसोदगं वा' तुषोदकं वा-तुमधावन जलम् ब्रीह्यादिप्रक्षालितजलमित्यर्थः 'जवोदगं वा' यवधावनजलं येन जलेन यवाः प्रक्षाल्यन्ते तादृशं जलमित्यर्थः, 'आयाम वा' आचामं वा अवस्रावणं सिद्धतण्डुलजलम्, अथवा उष्णलौहं यस्मिन् जले शीतलीक्रियते तादृशं जलमाचाममिति कथ्यते 'सोवीरं वा' सौवीर वा काञ्जिकजलमित्यर्थः 'अंबकजियं वा' आम्रकालिकं 'मुद्धवियडं वा' शुद्धविकटं वा शुद्धम् उष्णं जलम्, एतादृशं सर्व पानकजातम् यदि 'अहुणाधोयं' अधुनाधौत-तत्कालधौतम् 'अणंबिलं अनाम्लम् यस्य रसम् आम्लं न जातं भवेत् 'अपरिणयं' अपरिणतम् -शस्त्रापरिहतम् 'अवुकंतजीवं' अत्युत्क्रान्तजीवम्-अव्युत्क्रान्ता अनपगताः जीवा यस्मात् तत् तथा, जीवेनाविप्रमुक्तं सचेतनं मिश्रं वेत्यर्थः अविद्धत्थं' अविध्वस्तम् यत् वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शेन विध्वस्तम्-वर्णादिभ्यो न जलित तत् स्वभावावस्थमित्यर्थः, एतादृशं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं जलं भवेत्तज्जलं यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति-दीयमानं स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५० ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अप्पणो आयरिवत्ताए लक्खणाई वागरेइ वागरेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५१॥
छाया - यो भिक्षुरात्मन आचार्यतायै लक्षणानि व्याकरोति व्याकुर्वन्तं वा स्वदते
चूर्णी- जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पणो आत्मनः स्वस्य लक्खणाई' लक्षणानि-करचरणस्थानि चक्राङ्कुशादीनि, तथा स्वदेहस्य मानोन्मान-प्रमाण-संस्थान संहननादीनि वा 'आयरियत्ताए' आचार्यतायै-स्वस्याचार्यपदप्राप्त्यर्थम् 'वागरेइ' व्याकरोति- अन्यस्मै कथयति, चक्राङ्कशतिलमशादिविषये एवं कथयति-यानि आचार्यस्य लखाणानि भवन्ति तानि मम शरीरेऽपि लभ्यन्ते तेनाहमाचार्यो भविष्यामीति । कथनप्रकारो यथा
"अमुगायरियसरिच्छाई लक्खणाई णं पासह महंपि । एरिसलक्खणजुत्तो, य होइ अचिरेण आयरिओ" ॥१॥
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चूर्णिमायावचूरिः उ०१७ सू० २५२-२५३ गायनादिकरण भेर्यादिशब्दश्रवणेच्छानिषेधः ३९५
छाया - अमुकाचार्यसदृशानि लक्षणानि खलु पश्य ममापि ।
ईदृशलक्षणयुक्तश्च भवति अचिरेण आचार्यः ॥ १ ॥
इत्यादि स्वस्य विषये व्याकरोति तथा 'वागरेंतं वा साइज्जइ व्याकुर्वन्तं वा स्वशरीरस्थं लक्षणानि प्रकाशयन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५९॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू गाएज्ज वा हसेज्ज वा वाएज्ज वा णच्चेज्ज वा अभिणएज्ज वा हयहेसियं, हत्थिगुलगुलाइयं उक्कट्ठसीहनायं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५२ ॥
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छाया - यो भिक्षुः गायेत् वा हसेद्वा वादयेद्वा नृत्येद्वा अभिनयेद्वा हयहेषितं हस्तिगुलगुलायितम् उत्कृष्टसिंहनाद वा करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५२ ।।
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'गाएज्ज वा' गायेद्वा - गानं कुर्यात्, तत्र स्वरकरणं स्वरसञ्चारो वा गानं तत्कुर्यात् 'इसेज्ज वा' हसेद्वा मुखं विस्फाल्य सविकारकह कहकरणरूपं हसनं कुर्यात् 'वाएज्ज वा' वाद येत्-शङ्खवीणामृदङ्गादिकं वादयेत् 'नच्चेज्ज वा' नृत्येद्वा पादजङ्घोरुक ट्युदर बाहङ्गुल्विदं ब नयनभ्रमुखादीनां विकारकरणं गात्र सञ्चालनापरपर्यायं नृत्यं कुर्यात्, 'अभिणएज्ञ्ज वा' अभि नयेद्वा-अभिनय दृश्यश्रव्यादिनाटकाङ्गरूपं कुर्यात् 'हयहेसियं वा' हयहेषितं वा - अश्ववत् देषाशब्दं कुर्यात् 'हत्यिगुलगुलाइयं व' हस्तिगुलगुचायितं वा हस्तिशब्दवत् शब्दं करोति 'उक्किसीहनायं वा' उत्कृष्ट सिंहनादं वा' सिंहो यथा विलक्षण हुङ्कारशब्दं करोति तथैव सिंहशब्दानुकारिशब्दम् 'करेई' करोति स्वयमेव, परद्वारा वा कारयति तथा 'करेंतं वा साइज ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
मंत्राह-भाष्यकारः-
गाएज्ज अहवा णच्चे. हसेज्ज जइ मोहओ । पाव आणाभंगाई, मिच्छत्तं च विराहणं ॥
छाया - गायेद्वा अथवा नृत्येत् इसेद्वा यदि मोहतः । प्राप्नोत्याशाभङ्गादि मिथ्यात्वं च विराधनम् ॥
अवचूरिः -- यदि मोहत : - मोहवशात् कारणादकारणाद्वा श्रमणः श्रमणी वा गायेत् - गानं कुर्यात्, अथवा हसेत्-कह कह - शब्दं कुर्यात् उपलक्षणत्वात् वादयेत् अभिनयेत्-अव गजादिशब्दं वा कुर्यात् तदा स आज्ञाभङ्गादिकं मिध्यात्वं विराधनं च प्राप्नोति ॥ सू० २५२ ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-जे भिक्खू भेरीसदाणि वा पडहसदाणि वा मुरयसदाणि वा मुइंगसहाणि वा नंदिसदाणि वा झल्लरिसदाणि वा वल्लरिसदाणि वा डमरुगसहाणि वा मदलसदाणि वा सदुयसहाणि वा पएससदाणि वा गोलुंकि सहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वितताणि सदाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ । सू० २५३ ॥
छाया-यो भिक्षुः मेरीशब्दान् वा पटाशब्दान् पा मुरजशब्दान् वा मृदङ्गशब्दान् वा नन्दिशब्दान् वा झल्लरीशब्दान् वा वल्लरीशब्दान् वा डमरुकशब्दान् वा मर्दल शब्दान् वा सदुकशब्दान् वा प्रदेशशब्दान् वा गोलुकीशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् विततान् शब्दान् कर्णश्रोतःप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'भेरीसहाणि वा. मेरीशब्दान् वा-दुन्दुभिशब्दान् वा 'पडहसहाणि वा पटहशब्दान् वा 'ढोल' इति लोकप्रसिद्धशब्दान् 'मुरयसहाणि वा मुरजशब्दान् वा-पटहविशेषशब्दान् वा 'मुइंगसदाणि वा मृदङ्गशब्दान् वा 'नंदिसदाणि वा. नन्दिशब्दान वा-यत्र द्वादश वाद्यानि सहैव वाद्यन्ते तादृशो वाद्यविशेषो नन्दि रिति कथ्यते, तत्सम्बन्धिशब्दान् वा 'मल्लरीसहाणि वा' झल्लरीशब्दान् वा, तत्र 'झल्लरी:- 'झालर' इति लोकप्रसिद्धा तस्याः शब्दान् 'वल्लरि सहाणि वा' वल्लरीशब्दान् वा 'डमरुगसहाणि वा. डमरुकशब्दान् वा-'डमरु' इति लोकप्रसिद्धशब्दान् 'मदलसदाणि वा मर्दलशब्दान् वा-मर्दल:-तन्नामको वाधविशेषः, तच्छब्दान् 'सदयसदाणि वा सदुकशब्दान् वा वाद्यविशेषशब्दान् वा 'पएससहाणि वा' प्रदेशशब्दान् वा 'गोलकिसहाणि वा' गोलकीशब्दान् वा-गोलुङ्कीनामको वायविशेषस्तच्छन्दान् वा तथा 'अन्नयराणि वा' अन्यतरान् अन्यान् वा 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान्-पूर्वोक्तप्रदर्शित शब्दसदृशान् अन्यानपि अनेकप्रकारान् ‘वितताणि सदाणि' विततान् शब्दान्-विततजातीयवादिसमुत्थान शब्दान् 'कण्णसोयपडियाए कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया-कर्णेन्द्रियेण श्रवणप्रतिज्ञया - कर्णाभ्यां श्रवणेच्छया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति-श्रोतुं मनसि निश्चिनोति तथा 'अभिसंधारेत वा साइज्जई' अभिसंधारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते सा प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२५३।। .. सूत्रम्--जे भिक्खू तालसदाणि वा, कंसतालसदाणि वा लित्तियसदाणि वा गोहियसदाणि वा मकरियसदाणि वा कच्छभीसदाणि वा महइसदाणि वा सणालियासदाणि वा वलियासदाणि वा अन्नयराणि वा
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चूर्णिभाष्यावद्रिःउ०१७ सू० २५४-२५६ तालादिवीणादिशङ्खादिशब्दश्रवणेच्छानिषेधः ३९७ तहप्पगाराणि घणाणि सहाणि वा कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेड अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५४ ॥
छाया-यो भिक्षुस्तालशब्दान् वा कांस्यतालशब्दान् वा लित्तिकाशब्दान् वा गो. धिकाशब्दान् वा मकरिकाशब्दान् वा कच्छपीशब्दान् वा महतिशम्दान् वा सणालिकाशब्दान् वा पलिकाशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् घनान् शब्दान् वा कर्णश्रोतःप्रतिक्षया अभिसन्धारयति अभिसन्धारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५४ ॥
चूर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तालसदाणि वा' तालशब्दान् वा-संयोगाभिघातजन्यतासम्बन्धेन जायमानान् शब्दान् 'कंसतालसहाणि वा' कांस्यतालशब्दान् वा, तत्र कास्य-धातुविशेषस्तस्य तालो-वादित्रविशेषः तत्संयोगेन जायमानान् शब्दान् कांस्यतालशब्दान् 'लित्तियसहाणि वा' लित्तिकाशब्दान् वा, तत्र लित्तिका वादित्रविशेषः तस्याः शब्दान् ‘गोहियसदाणि वा' गोधिकाशब्दान् वा-गोधिकाऽऽकृतिको वाद्यविशे. षस्तच्छन्दान् 'मकरियसहाणि वा' मकरिकाशब्दान् वा-मकराकृतिको वाद्यविशेषस्तस्य शब्दान् 'कच्छभीसहाणि वा' कच्छपीशब्दान् वा कच्छपाकृतिवापविशेषशब्दान् वा 'महियसपाणि वा' महतिका शब्दान् वा 'सणालियासदाणि वा' सनालिकाशब्दान् वा, अत्र तालादिकं सर्वमपि वाद्यविशेषलक्षणमेव, तेषां विशेषतो नामानि लोकतो देशतश्च ज्ञातव्यानि, अत्र तु सामान्यरूपेणैव अर्थाः प्रतिपादिताः । 'अन्नयराणि वा' अन्यतरान् वा 'तहप्पगाराणि वा' तथाप्रकारान् अन्यानपि तत्सदृशान् 'घणाणि सदोणि' धनान्-जनजातीयवादिनसमुत्थान् शब्दान् 'कण्णसोयपडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया-कर्णाभ्यां श्रोतुमिच्छया 'अभिसंधारेई' अभिसंधारयति मनसा श्रवणार्थ निश्चयं करोति तथा 'अभिसंधारेंतं वा साइज्जई' अभिसंधारयन्तं कर्णसुखावहान् तालादिशब्दान् श्रोतुं मनसा निश्चयं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ स० २५४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वीणासदाणि वा विवंचीसहाणि वा तुण्णसदाणि बव्वीसदाणि वा वीणाइयसदाणि वा तुंबवीणासदाणि वा संकोडयसहाणि वा रुरुयसदाणि वा दंकुणसहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगागणि तताणि सहाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ॥२५५
छाया- यो भिक्षुः वोणाशब्दात् वा विपञ्चीशब्दान् वा तूणशब्दान् वा चव्वीसशब्दान् वा वीणातिकशब्दान् वा तुम्बवीणाशब्दान् वा संकोटकशब्दान् वा रुरुकशब्दान् वा
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३९८
निशीथसूत्रे ढंकुणशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् ततान् शब्दान् कर्णश्रोतःप्रतिक्षया अभिसं. धारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २५५ ।।
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्ख' यः कश्चिद्भिक्षः श्रमणः श्रमणी वा 'वीणासदाणि वा कोणाशब्दान् वा इति वीणादीनां सूत्रोक्तानां शब्दान् , अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् ततजातीयवादित्रसमुत्थान् शब्दान् वा 'कण्णसोयवडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति 'अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ' अभिसंधारयन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २५५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू संखसदाणि वा वंससदाणि वा वेणुसदाणि वा खरमुहासदाणि वा परिलीसदाणि वा चेचासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि झुसिराणि सदाणि कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५६॥
__छाया - यो भिक्षुः शङ्खशब्दान् वा वंशशब्दान् वा वेणुशब्दान् वा खरमुखीशब्दान् वा परिलीशान् वा चेचाशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् शुपिरान् शन्दान् कर्णश्रोतःप्रतिक्षया अभिसंधारयति अभिसंधारयन्तं वा स्वदते । सू० २५६ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि। जेभिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रदणः श्रमणी वा 'संखसहाणि वा' शङ्खशब्दान् वा 'वंससदाणि वा' वंशशब्दान् वा वंशेन जायमानान शब्दान् वा 'वेणुसहाणि वा वेणुशब्दान् वा, तत्र वेणुरिति सशुषिरो वंशस्यैव जातिविशेषः यो मुखादिवायुना परितः शब्द करोति, येन निष्पादितवादित्रम् 'वांसुरी' इति लोकप्रसिद्धं तस्य शब्दान् वा 'खरमुहीसझणि वा' खरमुखीशब्दान् वा, तत्र खरो-गर्दभः तस्य मुखमिव मुखं वस्याः सा स्वरमुखी-बादित्रविशेषः तस्याः शब्दान् 'परिलीसहाणि वा' परिलीशब्दान् वा वाद्यविशेषस्य शब्दान् 'चेचा. सदाणि वा' चेचाशब्दान् वा 'चेचा' इति वाद्यविशेषस्य शब्दान् वा 'अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि' अन्यतरान् वा तथाग्रकारान्-शङ्खवंशवेणुप्रभृतिशब्द सदृशशब्दान् 'झुसिराणि सदाणि' शुषिरान्शुषिरजातीयवादित्रजन्यान् शब्दान् ‘कण्णसोयवडियाए' कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया - कर्णाभ्यां श्रवणेच्छया 'अभिसंधारेइ' अभिसंधारयति-मनसि निश्चयं करोति तथा 'अभिसंधारेतं वा साइज्जई' अभिसंधारयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० २५६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि जवा [व इहलोइएसु वा रूवेसु परलोइएसु वा स्वेसु जाव अज्झोववज्जतं वा साइज्जइ ।। सू२७०
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वृणिभाष्यावद्भिः उ० १७ सू० २७०-२७१ वप्रादीनां प्रशंसानिन्दादिश्रवणेच्छानिषेधः ३९९
छाया-यो भिक्षुः वप्रान् वा परिरवा वा यावत् पेहलोकिकेषु धा स्पेषु पारलोकिकेषु वा रूपेषु यावत् अध्युपपद्यमानं वा स्वदते ॥ सू० २७० ॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वप्पाणि वा' वप्रान् वा 'वा' इति केदारः, दुर्गः, प्राकारः क्षेत्रम्, उन्नतभूभागो बा प्रोच्यते, तान् तादृशान्. वा स्थानविशेषान् , 'फलिहाणि वा' परिखा वा या ग्रामादेः समन्तात् परिवृता गर्तरूपा याः 'खाई' इति प्रसिद्धास्ताः, 'जाव' यावत , यावत्पदेन इत आरभ्य 'इहलोइएसु वा रूवेसु' इति सूत्रपर्यन्तानि द्वादशोदेशकोक्तानि चतुर्दश सूत्राणि संग्राह्याणि, तत्र वप्रादीनां प्रशंसानिन्दात्मकानि वार्तादीनि कर्णश्रोतःप्रतिज्ञया अभिसंधारयति, अभिसंधारयन्तं वा स्वदते,॥ सू०२६९॥ तथा 'इहलो इएसु' ऐहलोकिकेषु ऐहलोकिकशब्देन मनुष्या गृह्यन्ते तेन ऐहलोकिकेषु मनुष्यसम्बन्धिषु 'रूवेसु' रूवेषु तथा 'परलइएमु रूवेसु' अत्र पारलोकिकशब्देन तिर्यञ्चो गृह्यन्ते, तेन पारलोकिकेषु हयगोगजादितिया दृष्टादृष्टादिभेदभिन्मेषु रूपेषु 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'सज्जड रजा मिज्मइ अझोववज्जइ सज्जंतं रज्जतं गिझंत' आसक्किं करोति, रागं करोति, गृद्धिं करोति, अध्युपपत्तिं करोति, तथा-पूर्वोक्तं कुर्वन्तम् तथा 'अज्झोववज्जत' अध्युपपद्यमानम् -अध्युपपत्तिं कुर्वन्तम् श्रमणान्तरम् ‘साइज्जड' स्वदते--अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीत्यन्तिमसूत्रार्थः । अत्र प्रथमयावत्पदेन-'जेभिक्खू क्पाणि वा फलिहाणि वा० १ एवं वणाणि वा गहणाणि वा २, गामाणि वा णगराणि वा० ३, गाममहाणि वा णगरमहाणि वा० ४, गामवहाणि वा णगरवहाणि वा० ५, गामपहाणि वा णगरपहाणि वा ६, आसकरणाणि वा हस्थिकरणाणि वा० ७, आसजुद्राणि वा हत्थिजुद्धाजि वा० ८, इयठाणाणि वा हयजहियठाणाणि वा० ९ अभिसेयठाणाणि वा अक्खाइयठासुणाणि वा १०, कट्टकम्माणि वा चित्तकम्माणि० वा ११, डिंबाणि वा डमराणि वा० १२, विरुवरूवेसु महुस्सवेसु इत्थीणि वा पुरिसाणि वा० १३ इहलोइएसु वा रूवेसु० १४, इति चतुर्दश सूत्राणि द्वादशोदेशकेऽवलोकनीयानि, अर्थोऽपि तत्रैव द्रष्टव्य इति । विशेषस्त्वयम्-यत्तत्र 'चक्खुदसणवडियाए' इत्युक्तम् , अत्र तु 'कण्णसोयवडियाए' इति वाच्यम् । पुनश्च तत्र वप्रादीनां चक्षुषा दर्शनविषयको निषेधः प्रतिपादितः, अत्र तु वप्रादीनां प्रशंसानिन्दात्मकवर्तायाः कर्णाभ्यां श्रवणविष. यको निषेधो ज्ञातव्य इति । तस्मात् कारणात् श्रमणः श्रमणी वा वप्रादीनां प्रशंसानिन्दा मकवार्त्तादिश्रवणेच्छया विचारं न कुर्यात् नापि विचारं तत्कुर्वन्तमनुमोदयेत्, तथा पारलोकिकदृष्टादृष्टज्ञाताज्ञातश्रुताश्रुतरूपरसगन्धस्पर्शेषु कदाचिदपि आसक्तिरागादिकं न कुर्यात् न वा कारयेत् तथा तादृशरूपादिषु आसक्तयादि कुर्वाणं श्रमणान्तरं कथमपि कदाचिदपि नानुमोदयेत् ।।
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४००
निशोथसत्रे
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-'वप्पाइयं तहा ख्वा,-इयं सोयपडिनया ।
अभिसंधारए सज्जे आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-घप्रादिकं तथा रूपादिकम् श्रोत्रप्रतिज्ञया।
अभिसंधारयेत् सज्जेत आहाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ . अवचरिः- यो भिक्षुः वादिकं तथा रूपादिकम् ऐहलोकिकपारलोकिकेति मनुष्यतिर्यक्सम्बन्धिरूपादिकं तद्वार्तादिकं श्रोतःप्रतिज्ञया श्रवणेच्छया मनसि अभिसंधारयेत् , श्रोतुं मनसि निश्चयं कुर्यात् सज्जेत वा तत्र आसक्तो वा बवेत् तदा स भिक्षुः आज्ञाभङ्गादिकं प्राप्नोति ॥२७० ॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ सू० २७१॥
॥ निसीहायणे सत्तरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १७॥ छाया-तत् सेपमान मापयते चातुर्मासिकं परिहारस्थानम् उद्घातिकम् ॥ सू० २७१॥
॥ निशीथाध्ययने सप्तदशोदेशकः समाप्तः ॥१७॥ चूर्णी-'त' तत् उद्देशकादित आरभ्यादशकान्त पर्यन्तकथितप्रायश्चित्तस्थानानि 'सेवमाणे सेवभानः-प्रतिसेवनां कुर्वन् 'आवजई' आफ्यते-प्राप्नोति 'चाउम्मासिय' चातुर्मासिकम् 'परिहारठाणं' परिहारस्थानम् अर्थात् प्रायश्चित्तं कीदृशम् ! 'उग्धाइयं उद्घातिकम् लघुकमिति ॥३३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालबति-विरचितायां "निशीथसत्रस्य" चूर्णिभाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् सप्तदशोदेशकः समाप्तः ॥१७॥
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॥ अष्टादशोदेशकः ॥ सप्तदशोदेशकं व्याख्याय तदनु अवसरप्राप्तोऽष्टादशोदेशकः प्रारभ्यते, अथास्याष्टादशोदेशकादिसूत्रस्य सप्तदशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ? इति चेदत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-- सहस्स सवणहाए, गमणं दुहिं भवे ।
जलेण थलमग्गेण जलेणेत्थ निसिज्झइ ॥ छाया- शब्दस्य श्रवणाय गमनं द्विविधं भवेत् ।
जलेन स्थलमार्गेण जलेनात्र निषिध्यते ॥ अवचूरिः- सप्तदशोद्देशके शब्दस्य श्रवणार्थाय ततविततशुषिरादिवादित्राणां तथा अनेकेषां विविधशब्दानां श्रवणार्थाय, तत्र स्थलविशेषे 'ततविततशुषिरादिवादित्राणां मनोहरशब्दोऽवश्यमेव श्रोतव्यः' इत्येवं प्रकारेण मनसा निश्चयं करोति, तच्छवणं च शब्दस्थानमगत्वा असंभवि इति मत्वा अवश्यमेव गमनं करिष्यति, तद् गमनं द्विविधं-द्विपकारकं भवेत् एकं गमनं जलेन-जलमार्गेण द्वितीयं च गमनं स्थलमार्गेण । तत्र पूर्व शब्दश्रवणार्थ स्थलमार्गस्य निषेधः कृतः। जलमार्गेण गमनं तु नावमाश्रित्य भवतीति नौकाविषयको निषेधोऽत्रास्मिन् उद्देशके करिष्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वापरोदेशकसूत्रयोर्भवतीति, तदनेन संबन्धेन आयातस्यास्याष्टादशोदेशकस्येदं प्रथमं सूत्रम्
सूत्रम्-जे भिक्खू अणट्ठाए णावं दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥ छाया-यो भिक्षुः अनर्थाय नावं दुरोहति दूरोहन्तं वा स्वदते ॥ सू. १॥
चूर्णी --'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अणहाए' अनर्थाय तत्र न अर्थाय इति अनर्थाय अत्रार्थशब्दः प्रयोजनार्थद्योतकस्तथा च प्रयोजन मन्तरेणैव इत्यर्थः । अथवा-अनर्थाय-स्वेष्टसिद्धेविघातकाय साधूनामिष्टं मोक्षप्राप्तये संयमाराधनम्, नहि संयमाराधनमकृत्वा कोऽपि मोक्षभागी संभवति 'ज्ञानदर्शनचाग्त्रितपांसि मोक्षमार्गः' इति नियमात् नावादिना जलसंतरणेऽवश्यं षट्कायजीवानामतिपातो भवेत् ततश्च संयमो विशधितो भवति ततः 'अणद्वाए' अनर्थाय येन संयमविराधना संपवते सोऽनर्थस्तस्मै, अथवा नज - शब्दोऽत्र अल्पार्थकरतेन अनर्थाय अल्पप्रयोजनाय संयमसम्बन्धिगाढाऽऽगाढकारणमन्तरेण साधो वारोहणं शास्त्रे निषिद्धम्, ततो यो गाढागाढकारणमन्तरेण 'णावं' नावं नौका नद्यादिजलाशयस्य पारगमनाय 'दुरूहइ' दृरोहति नौकायामधिरोहणं करोति तथा 'दुरूहतं वा
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૦૨
निशीथसूत्रे साइज्जइ' दूरोहन्तं वा स्वदते, यो हि श्रमणः जलाशयपारगमनाय नौकामधिरोहति तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥
अत्राह भाष्यकारः-- भाष्यम्--'णावारोहण साहुस्स अणटाए असेयसे ।
कोउहल्लेण नारोहे, नन्नत्यागाढकारणा ॥१॥ छाया-नौकाधिरोहणं साधोरनर्थाय अश्रेयसे ।
कौतूहलेन नारोहेत्, अन्यत्रागाढकारणात् ॥१॥ अवचूरिः-'साहुस्स' साधोः नावारोहण मनाय-अश्रेयसे अकल्याणाय च भवति तत्र षट्कायविराधनाया अवश्यम्मावात् , अथवा अनर्थाय-अप्रयोजनाय प्रयोजनं विना साधो
वारोहणम् अश्रेयसे-अमोक्षाय संसाराय भवत्येव अतः कौतूहलेन शब्दश्रवणादिकुतूहलमाश्रित्य साधुः कदापि नावं नारोहेत्, कदेव्याह-आगाहकारणादन्यत्र-गाढागाढकरणं विना नारोहेत् । तत्र गाढागाढकारणं च गुरुसेवाग्लानवैयावृत्यादिकम् ॥ सू० १ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावं किणइ किणावेइ कीयं आहदु दिज्जमाणं दुरूहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २ ॥
छाया-यो भिक्षुः नौकां क्रीणाति-क्रापयति क्रोतमाहत्य दीयमानं दूरोहति दूरोहन्तं था स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावंकिणइ' नौकां क्रीणाति-मूल्यं दत्वा स्वीकरोति 'किणावेई' कापयति - मूल्यं दत्वा अन्यद्वारा नौकायाः क्रयणं कारयति, तथा 'कीयं आहटु दिज्जमाणं' क्रीतमादृत्य दीयमानम् अन्यः कोऽपि मूल्यं दत्वा नौकां क्रीणाति, स च क्रीत्वा अभिमुखम् आहृत्य श्रमणाय ददाति तत् क्रीतमाहृत्य दीयमानमिति कथ्यते, क्रयक्रीतामभिमुमानीय दीयमानां नौकां श्रमणः श्रमणी वा 'दख्हइ' दूरोहति-तदधिरोहणं करोति, तथा 'दुरूहंतं वा साइज्जइ' दूरोहन्तं वा-नौकाया अपरि अधिरोहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० २॥
सूत्रम्-एवं जा चउद्दसमे उद्देसे पडिग्गहगमो सो णेयव्वो जाव अच्छेज्जं अणिसिढे अभिहडमाहटु दिज्जमाणं दूरुहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३-५॥
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चूर्णिभाष्यावरिः उ०१८ सू०-१.९ नौकाया आरोहणक्रयणादिनिषेधः ४०३
छाया-एवं यः चतुर्दशे उद्देशे प्रतिग्रहगमः सातव्यः यावद् आछेद्यम् अनिसृष्टम् अभिहतम् माहृत्य दीयमानं द्रोहति दोहन्तं वा स्वदते ॥सू० ३॥
चूर्णी-'एवं' इत्यादि । 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण नौक्रीणनरीत्या 'जो चउद्दसमे उद्देसे पडिगहगमों' यश्चतुर्दशे उद्देशे प्रतिप्रहगमः पात्रग्रहणगमकः प्रोक्तः 'से णेयन्नो' सोऽत्र नौकाविषये ज्ञातव्यः-वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' यावत् 'अच्छेञ्ज' मान्छेषां कस्यापि हस्तादाच्छिय स्थापितां 'अणिसिटू' भनिसृष्टां नौकां स्वामिनाऽदत्तां तत्स्वामिन अज्ञामन्तरेण गृहीताम् 'अभिहडं' अभिहतां-स्थानान्तरात् मानीताम् 'आटु दिज्जमाणं' हत्य-संमुखमानीय दीयमानां नावम् 'दुरूहइ' दूरोहति-आरोहति 'दुरुहंत वा साइज्जई' दूरोहन्तं-नावमधिरोहन्तं श्रमणान्तरं स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । मत्र सूत्रे 'जाव' इति यावत्पदेन “जे भिक्खू' नावं पामिच्चेइ नावं परियटेई' इति सूत्रद्वयं संग्राह्यम् अर्थस्तत्रैव चतुर्दशोदेके द्रष्टव्य इति । विशेषस्तावदेतावानेव यत्-चतुर्दशोदेशके प्रतिग्रहशब्दः प्रोक्तः, अत्र तु 'नौ' शब्दं प्रयोज्य आलापका विधातव्या इति ॥
भत्राह भाष्यकार:भाष्यम्- 'जो कीणइ सयं णावं, पामिच्चाइयमारुहे ।
आणाभंगाइ पावेइ, मिच्छत्तं च विराहणं ॥ छाया--यः क्रोणाति स्वयं नौकां प्रामित्यादिकामारोहेत् ।
आशाभङ्गादि प्राप्नोति मिथ्यात्वं च विराधनम् ।। अवचूरिः--यो भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा स्वयमेव नौकां क्रीणाति-मूल्यसमर्पणेन स्वात्माधीनां करोति अन्यद्वारा वा नौकायाः क्रयणं कारयति तथा प्रामित्यादिदोषदुष्टां नावमारोहेत पूर्वोक्तप्रकारां नौकामधिरोहति, मारोहन्तं नौकायामधिरोहणं कुर्वन्तं श्रनणान्तरमनुमोदते, स आज्ञाभङ्गमनवस्था मिथ्यात्वं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोतीति भाभ्यार्थः ॥ सू० ३-५ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू थलाओ नावं जले ओक्कसावेइ ओक्कसावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ६ ॥
छाया-यो भिक्षुः स्थलात् नावं जले अवकर्षयति अवकर्षयन्तं वा स्वदते ॥२०६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'यलाओ' स्थलात्जलपार्श्वस्थभूमिभागात् तटादित्यर्थः ‘णावं' नावम्-नौकाम् ‘जले ओक्कसावेई' जले-नद्यादिजलप्रवाहे अवकर्षयति-अवतारयति स्थले विद्यमानां नौकां जले करोति-कारयति वा तथा
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निशीथस्त्रे 'ओक्कसावेतं वा साइज्जइ' अवकर्षयन्तं स्थलात् जले नौकामवतारयन्तं श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ६ ॥
. सूत्रम्-जे भिक्खू जलाओ नावं थले उक्कसावेइ उक्कसावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ७॥
छाया-यो भिक्षुः जलात् नावं स्थले उत्कर्षयति उत्कर्षयत वा स्वदते॥सू० ७॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'जलाओ नावं थले उक्कसावेई' जलात्- नद्यादिजलमध्यात् नौकां स्थले उत्कर्षयति-जलस्थां स्थले करोति परद्वारा वा कारयति जले संतरन्ती नौकां जलात् निष्कास्य भूमिभागे स्थापयतीत्यर्थः, तथा-'उक्कसावेतं वा साइज्जइ' उत्कर्षयन्तं-जलात् नौकां स्थले कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पुण्णं णावं उस्सिचइ उम्सिचंतं वा साइज्जइ ॥ छाया--यो भिक्षुः पूणी नावमुत्सिञ्चति उत्सिञ्चन्तं वा स्वदते ॥सू० ८॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः 'पुण्णं नावं' पूणां जलपूर्णा नौकाम् सच्छिद्रत्वाज्जलेन परिपूर्णा नावं यः श्रमणः श्रमणी का 'उस्सिंचइ' उसिञ्चति नौकायां स्थितं जलम् अञ्जल्यादिना अन्येन केनापि साधनेन बहिनिष्कासयति तथा 'उस्सिंचंतं वा साइज्जइ' उत्सिञ्चन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू विखुण्णं णावं उप्पिलावेइ उप्पिलावेंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥
छाया-यो भिक्षुर्विक्षुण्णां नावम् उत्प्लावयति उत्प्लावयन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७ ।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'विखुण्णं' विक्षुण्णाम्-जले पके वा मग्नाम् नौकाम् 'उप्पिलावेइ' उत्प्लावयति नौकां जलात् पङ्काद्वा उपरि उत्थापयति स्वयं परद्वारा वा तथा-'उप्पिलावेंतं वा साइज्जइ' उत्प्लावयन्तं वा स्वदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पडिणावियं कटु णावाए दूरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १० ॥
छाया -यो भिक्षुः प्रतिनाविकं कृत्वा नौकायां दूरोहति दूरोहन्तं स्वदते ॥ २०१० ॥
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पूर्णि० उ० १८ सू०१०-१४ ऊर्ध्वगामिन्यादिनौकाया आरोहणाऽऽकर्षणादिनिषेधः ४०५
चूर्णी--'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिणावियं' प्रतिनाविकम् एकं नाविकं प्रति अन्यो नाविकः प्रतिनाविकस्तम् । अयं भावः-अस्मिन् तटे स्थितः सन् साधुः कश्चिन्नाविकं वदति यत् नद्यादेरर्धभागेऽन्यो नाविक आगत्य मां नेण्यति मतो नद्यादेरर्घभागपर्यन्तं मां त्वं नय, इत्युक्त्वा नाविको निर्णीयते स प्रतिनाविकः कथ्यते, एतादृशं प्रतिनाविकम् 'कटु' कृत्वा 'नावाए' नावि-नौकायाम 'दरूहई' दूरोहति-अधिरोहति, अन्य वा दूरोहयति तथा 'दुरूहत दूरोहन्तम्-अधिरोहन्तं श्रमणान्तरं 'साइज्जइ' स्वदते-अनुमोदते स पायश्चित्तभागो भवति ॥ सू० १० ॥
सूत्रम्-भिक्खू उड्डगामिणिं वा णावं अहोगामिणिं वा णावं दूरुहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ११ ॥
छाया---यो भिक्षुरूर्ध्वगामिनी वा नावमधोगामिनी वा नावं दूरोहति दूरो. हन्तं वा स्वदते ॥ सू० ११ ॥
चर्णी- 'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'उड्ढगामिणि वा नावं' ऊर्ध्वगामिनी वा नावम् स्रोतसः संमुखं गच्छती नौका या खलु नद्यादौ वर्तमाना नौका प्रतिस्रोतः स्रोतोऽभिमुखं प्रयाति यस्मात् प्रदेशात् नदी आगच्छति तमेव प्रदेशं प्रति या गच्छति सा ऊर्ध्वगामिनी नौका कथ्यते, तांतादृशी नौकाम् तथा 'अहोगामिणि वा णावं दरूहा, अधोगामिनी वा नावं दूरोहति, या जलप्रवाहेण सह जलप्रवाहानुसारेण गच्छति साऽधोगामिनी नौका कथ्यते, तामधोगामिनी जलस्रोतोऽनुगामिन्नी नौकां दूरोहति; तादृश्या नौकाया उपरि अधिरोहणं करोति कारयति वा तथा 'दुरूहतं वा साइज्जइ' दूरोहन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्--जे भिक्खू जोयणवेलागामिणि वा अद्धजोयणवेलागामिणि वा णावं दूरूहइ दुरुहंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १२ ॥
छाया--यो भिक्षुः योजनवेलागामिनी वा अर्द्धयोजमवेलागामिनी वा नावं दूरो। हति, दृरोहन्तं वा स्वदते । सू० १२ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'जोयणवेलागामिणि वा णावं' योजनवेलागामिनी वा नावम् योजनप्रमाणां वेलां तटं गन्तुं शीलं यस्याः सा योजनवेलागामिनी योजनपरिमित जलमर्यादोल्लचिनीत्यर्थः. तां योजनवेलागामिनी नौकाम् 'अद्धयोजणवेलागामिण वा णा' अर्द्ध योजनवेलागामिनी वा नौकाम्- अर्द्धयोजनपरिमित
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४०६
निशीथसत्रे जलमर्यादायां गमनशीलाम् नावम् नौकाम् 'दुरूहई' दूरोहति तादृशनौकायामधिरोहणं करोति कारयति वा तथा 'दुरूहंतं वा साइज्जई' दूरोहन्तं वा नौकामधिरोहन्तम् अधिरोहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावं आकसावेइ खेवावेइ रज्जुणा कटेणं वा कड्ढावेइ आकसावंतं वा खेवावंतं वा कड्डावंतं वा साइज्जइ ।। सू०१३ ॥
छाया-यो भिक्षुः नावमाकर्षयति क्षेपयति रज्ज्वा काष्ठेन वा कर्षयति, आकर्षयन्तं वा क्षेपयन्तं वा कर्षयन्तं वा स्वदते ॥ सू• १३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावं' नावं नौकां जले संतरन्ती जले निमजन्ती वा 'आकसावेई' आकर्षयति-समीपे आनयितुं प्रेरयति 'खेवावेइ क्षेपयति चालनकाष्ठेन अन्यद्वारा चाल यति, तथा 'रज्जुणा' रज्ज्वा 'कडेण वा' काष्ठन वा यष्टयादिना 'कहढावेई' कषयति-जलाद्वहिनिष्कासयति, एवम् आकप्रयन्त क्षेपयन्तं रज्ज्वा काष्ठेन वा नावं कर्षयन्तं श्रमणान्तरम् 'साइज्जइ' स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १३ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खु णावं अलित्तएण वा दंडेण वा पफिडिएण वा वंसेण वा वलेण वा वाहेइ वाहेंतं वा साइज्जइ ॥सू० १४॥
छाया---यो भिक्षुः अरित्रकेण वा दण्डेन वा पप्फिडिपण वा वंशेन वा वलेन था वाहयति वाहयन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावं' नावम्-नौकाम् 'अलित्तएण वा' अरित्रकेण वा-नौचालकदण्डविशेषेण 'दंडेण वा' दण्डेन वा सामान्यदण्डविशेषेण 'पप्फिडिएण वा' 'पम्फिडिय' इति नौचालकोपकरणवाचको देशी शब्दः तेन वा 'बसेण वा' वंशेन वा-वंशयष्ट्या वा 'वलेन वा' वला इति प्रसिद्धन पृथुलकाष्ठेन वा, एतैरुपयुक्तनौकाचालकसाधनैः यः श्रमणः श्रमणी वा नौकाम् 'वाहेइ' वाह. यति- चालयति स्वयं परद्वारा वा चालयति तथा 'वाहेंतं वा साइज्जई' वाहयन्तं वा नौकां चालयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स 'प्रायश्चितभागी' भवतीति ।। सू० १४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू णावाउदगभायणेण वा पडिग्गहेण वा मत्तएण वा णावाउसिंचणेण वा णावं उस्सिंचइ उस्सिचंतं वा साइज्जइ ।
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १८ सू० १५- ३२ नौछिद्रपिधान - तद्गतदातुरशनादिप्रहणनि० ४०७
छाया - यो भिक्षुः नादकभाजनेन वा प्रतिग्रहेण वा मात्रकेण वा नावुत्सिञ्चनकेन वा नावम् उत्सियति उत्सिम्बन्तं वा स्वदते ॥ सू० १५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिदभिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णावाउदगभायणेण वा' नावुदकभाजनेन - नौकोदकभाजनेन, नौकासंबन्धिनोदक पात्रेण जलनिःसारकपात्रेण 'पडिग्गहेण वा' प्रतिग्रहेण स्वकीयाहारपात्रेण वा 'मत्तएण वा' मात्रकेन - स्वकीय लघुपात्रेण वा 'णावाउस्सिंचणेण वा' नावुत्सिश्चनकेन वा नौकोत्सिञ्चनकेन वा येन पात्रेण नौकास्थितं जलं बहिर्निष्कास्यते तादृशपात्रेण 'णावं' नाव नाकाम् 'उस्सिचर उत्सिञ्चति - नौकास्थं जलं नौकातो बहिर्निष्कासयति तथा 'उस्सितं वा उत्सिञ्चन्तं वा श्रमणान्तरम् 'साइजर' स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागौ भवति ।। सू० १५ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खू नावंउत्तिगेण उदगं आसवमाणं उवरुवरिं च कज्जलावेमाणं पेहाए हत्थेण वा पाएण वा आसत्थपत्तेण वा कुसपत्तेण वा मट्टियाए वा वेलेण वा चेलकण्णेण वा पडिपिss परिपितं वा साइज्जइ || सू० १६ ॥
छाया -यो भिक्षुर्नातिक्रेन उदकमास्त्रवन्तम् उपर्युपरि च कज्जलावमानां प्रेक्ष्य हस्तेन वा पादेन वा अश्वत्थपत्रेण वा मृतिकया वा चेलेन वा बेलकर्णेण वा परिपिदधाति प्रतिपिदधन्तं वा स्वदते ॥ सू० १६ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः-:- श्रमणः श्रमणी वा 'णावं उत्र्त्तिगेण' नावुत्तिङ्गेन नौबिलेन नौछिद्रेणेत्यर्थः 'उदगं आसत्रमाणं' उदकम् आस्रवन्तम् छिद्रेण नौकायां जलं प्रविशन्तं 'उवरुवरिं च कज्जलावेमाणं' उपर्युपरीति बेगपूर्वकं कज्जलावमानां ब्रुङन्तीं प्लाव्यमानामित्यर्थः ‘ब्रुडः कज्जलाव' इति वचनात् 'पेहाए' प्रेक्ष्य - दृष्ट्वा तन्निरोधार्थम् 'हत्थे वा' हस्तेन वा 'पाएण वा' पादेन वा 'आसत्थपत्तेण वा' अश्वत्थपत्रेण वा पिप्पलपत्रेण वा 'कुसपत्तेण वा' कुशपत्रेण वा दर्भसमूहेन वा 'मट्टियाए वा' मृत्तिकया वा 'चेलेण वा' चेलेन वस्त्रेण वा 'चेलकण्णेण वा' चेलकर्णेन वा वनखण्डेन वस्त्रान्ति मभागेन वा 'पडिपिts' प्रतिपिदधाति - छिद्रस्य मुखं निरुणद्धि अन्येन वा छिदनिरोधं कारयति 'पडिपिडेंतं वा साइज्जह' परिपिदधतं वा छिद्रेण नौकायां प्रविशतो जलस्य हस्तादिना निरोधं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १६ ॥
सूत्रम् -- जे भिक्खु णावागओ णावागयस्स असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडग्गा पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० १७ ॥
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४०८
निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षु गतो नौगतस्याशतं वा पानं वा खाद्य वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते ।। सू० १७ ॥
चूर्णी -- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णाबागओ' स्वयं नौकास्थितः सन् 'णाबागयस्स नौगतस्य नौकायामेव स्थितस्य दातुः 'असणं वा अशनं वा 'पाणं वा पानं वा 'खाइमं वा खाद्यं वा 'साइमं वा स्वाद्यं वा' चतुर्विधमाहारजातम् 'पडिग्गाइ प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति, अयं भाव-ने - नौकायामेव साधुर्भवेत् तथा नौकायामेवोपविष्टः श्रावकोऽपि भवेत् तत्र नौकास्थितः श्रमणः श्रमणी वा नौकामध्यस्थितदातुः संबन्धि अशनादिकं स्वीकरोतीति, तथा 'पडिग्गाहतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं श्रमणान्तरं वा स्वद अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १७ ॥
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सूत्रम् — एवं एएणं गमेणं णावागओ जलगयस्स० || सू० १८॥ पावागओ पंकगयस्स०॥ सू० १९ ॥ णावागओ थलगयस्स० ॥ सू० २० ॥ एवं जलगएणवि चत्तारि ॥ सू० २४|| पंकगएणवि चत्तारि ॥ सू० २८ ॥ थलगएणवि चत्तारि ॥ सू० ३२ ॥
छाया - पवम् अनेन गमेन नौगतो जलगतस्य० ॥ सू० १८ || नौगतः पङ्कगतस्य ॥ सू० १९ ॥ नौगतः स्थलगतस्य ॥ सू० २० ॥ एवं जलगतेनापि चत्वारि० ॥ सू० २४ || पङ्कगतेनापि चत्वारिo || सू० २८ ॥ स्थलगतेनापि चत्वारि० ।। सू० ३२ ॥
चूर्णि - ' एवं एएणं गमेणं' एवम् अनेनैव प्रकारेण - अनयैव रीत्या एतेन गमेन अनेनैव आलापकप्रकारेण 'णावागओ जलगयस्स ० || सू० १॥ णावागयो पंकगयत्स || सू० २ || णावागओ थलगयस्स० || सू० ३|| इत्यादीनि त्रीणि सूत्राणि, एकं च पूर्वोक्तम् 'णावागओ णावागयस्स' इत्यधिकम् - एवं चत्वारि सूत्राणि नौकागतसम्बन्धीनि वाच्यानि । ० २० । एवम् अनेनैव प्रकारेण 'जलगएणवि चत्तारि' जलगतेनापि चत्वारि, चत्वारि सूत्राणि तथाहि - 'जलगओ नावागयस्स' || सू० १ || 'जलगओ जलगयस्स०||०२|| 'जलगओ पंकगयस्स' || सू० ३ || 'जलगओ थलगयस्स०' ॥ सू० ४ ॥ इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि ४ पंकगएण वि चत्तारि' पङ्कगतेनापि चत्वारि सूत्राणि तथाहि - 'पंकगओ 'नावागयस्स ० ' ॥ सू० १॥ पंकगओ जलगयस्स० ' ॥ सू० २|| 'पंकगओ पंकगयस्स० ' ॥ सू० ३ || 'पंकगओ थलगयस्स० ' ॥ सू० ४ ॥ इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि ४ । 'थलगएण वि चचारि स्थलगतेनापि चत्वारि सूत्राणि, तथाहि - 'थलगओ नावागयस्स ० ' ॥ सू० १ || 'थलगओ जलगयस्स० ' ॥ सू० २|| 'थलगओ पंकगयस्स ० ' ॥ ० ३ || 'थलगओ थलगयस्स ० ' इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि
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पूर्णिमायावणिः उ० १८ सू० ३३-९० वस्त्रस्य क्रयणकापणादिनिवेधः ४०९ है, एवम् 'गावगओ जलगयस्स इत्यारभ्य 'थलगओ थलगयस्स इति पर्यन्तानि पञ्चदशसूत्राणि 'णावागओ णावागयस्स इनिसूत्रवद् व्याख्येयानि भेदस्तावदेतावानेव, यत् स्वस्वस्थानविपर्ययो यथायोगं कर्त्तव्य इति ॥३२॥
॥ नौका-जल-पङ्क-स्थलेति चतुर आश्रित्यात्र
षोडश भङ्गा भवन्ति, तत्प्रदर्शककोष्ठकमिदम् ॥ भङ्गाः श्रमणः
दाता श्रावकादिः १-नौकास्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः २-नौकास्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ३-नौकास्थितः साधुः पङ्के स्थितस्य दातुः ४-नौकास्थितः साधुः
स्थळे स्थितस्य दातुः ५-जले स्थितः साधुः नौकास्यितस्य दातुः ६-जले स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ७-जले स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः ८-जले स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः ९-पके स्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः १०-पङ्के स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः ११-पङ्के स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः १२-पङ्के स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः १३-स्थले स्थितः साधुः
नौकास्थितस्य दातुः १४-स्थले स्थितः साधुः
जले स्थितस्य दातुः १५-स्थले स्थितः साधुः
पङ्के स्थितस्य दातुः १६-स्थले स्थितः साधुः
स्थले स्थितस्य दातुः अत्राह भाष्यकारःसोळसाणं च भंगाणं, जम्हा कम्हा य गिण्हए।
असणाई व जो भिक्खू, आणाभंगाइ पावइ ॥ छाया-षोडशानां च भनानां यस्मात् कस्माच्च गृहीयात् ।
अशनादि च यो भिक्षुः, आशाभङ्गादि प्राप्नोति ।।
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निशीथस्से .. अवचूरिः- यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा षोडशानां च भङ्गानां मध्ये 'ने भिक्खू गावागओ गावागयस्स असणं ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्ज इत्यारभ्य 'जे भिक्खू थलग थलगयस्स असणं ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज एतत्पर्यन्तषोडशसूत्रप्रतिपादितषोडशमङ्गमध्यात् यस्मात् कस्माच्चिदपि भङ्गात् यस्मात्कस्माच्च कारणात् अशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं गृह्णाति गृह्णन्तं वा अनुमोदते स माज्ञाभङ्गादिकान् दोषान् आज्ञाभङ्गानवस्थामिथ्यात्वसंयमात्मविराधनादिदोषान् प्राप्नोति, तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्तीत्यर्थः ।। सू० ३२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कत्थं किणइ किणावेइ कीयमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०३३॥
- छाया-यो भिक्षुर्वस्वं क्रीणाति कापयति क्रीतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृह्यन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३३ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वत्थं' वस्त्रम् चोलपट्टकादिकं च किणई' क्रीणाति-मूल्यं दत्त्वा दापयित्वा वा स्वबुद्ध्या विविच्याऽऽपणादितः क्रयणं करोति 'किणावेइ' क्रापयति स्वयमेव मूल्यं दत्वा परेण वा मूल्यं दापयित्वा परद्वारा वस्त्रस्य क्रयण कारयति, तथा, 'कीयमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ' क्रीतमाहत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, कोऽपि दाता वस्त्रं क्रीत्वा अभिमुखमागत्य श्रमणाय श्रमण्यै वा तादृशवस्त्रं ददाति, तच्च वस्त्रं साधुः स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेत वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा क्रयणं कुर्वन्तं क्रापयन्तं क्रीतमभिमुखमागत्य दीयथानं स्वीकुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ॥ सू० ३३ ॥
सूत्रम्-एवं चउद्दसमे उद्देसए पडिग्गहे जो गमो भणिओ सो चेव इहंपि वत्थेण णेयब्बो जाव जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं वसइ वसंत वा साइज्जइ, णवरं कोरणं णत्थि॥ सू० ३४-९०॥
छाया एवं चतुर्दशे उद्देशके प्रतिग्रहे यो गमो भणितः स एव इहापि वस्त्रेण सातव्यः । यावद् यो भिक्षुः वस्त्रनिश्रया वर्षावासं वसति वसन्तं वा स्वदते, नवरं कोरणं नास्ति । सू० ३४-९० ॥ __चूर्णी-'एवं' इत्यादि । ‘एवं' एवम्- अनेन प्रकारेण यथा-'चउद्दसमे उदेसए 'चतुर्दशे उद्देशके 'जो गमो भणिओ' यो गमः-प्रतिग्रहविषयको एकोनषष्टि(५९)संख्यकसूत्रात्मको भणितः-कथितः 'सो चेव' स एव-तादृश एव गमः 'इहंपि' इहापि 'वत्येण' वस्त्रेण सह
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चूर्णिमाध्यावरिः उ० १८ सू० ३४-९१
उद्देशकपरिसमाप्तिः.४१ 'णेयव्यो' ज्ञातव्यः-वस्त्रविषयको गमः सर्वोऽपि प्रतिग्रहगमवदेवात्र वक्तव्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत् 'जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं बसई' यो भिक्षुः वस्त्रनिश्रया वर्षावासं वसति, 'वसंतं वा साइज्जइ' वसन्तं वा स्वदते–अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवतीति । प्रतिग्रहगमापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह-णिवरं इत्यादि । 'गवरं' नवरें केवलं विशेष एतावानेव यत् प्रतिग्रहगमे पात्रस्य कोरणं तीक्ष्णलोहादिशलाकया आकृतिविशेषविलिखन तिद्वषयकमेकं पञ्चपञ्चाशत्तम सूत्रं प्रोक्तम् , वस्त्रगमे 'कोरणं नस्थि' कोरणं नास्ति एक पञ्चपञ्चाशत्तमं कोरणसूत्रं न वक्तव्यमिति भावः वस्त्रे कोरणासंभवादिति । अत्र चतुर्दशोदेशकप्रथमसूत्रादारभ्य एकोनषष्टिसूत्रपर्यन्तानि कोरणसूत्रमन्तरेण अष्टपञ्चाशसंख्यकानि सूत्राणि अत्राष्टादशोद्देशके पठितव्यानीति भावः ॥ सू० ३४-९०
अत्राह भाष्यकार:--
जो उ चउद्दसोदेसे, गमो वुत्तो पडिग्गहे । कोरणेण विणा सव्वो, वत्थेऽद्वारसमे मओ ॥ छाया-यस्तु चतुर्दशोद्देशे गमः प्रोक्तः प्रतिग्रहे ।
कोरणेन विना सर्वो वस्त्रेऽष्टादशके मतः ॥ अवचूरिः- एतस्यैव निशीथसूत्रस्य चतुर्दशोद्देशके प्रतिग्रहे पात्रं दारुपात्रमधिकृत्य यो गमः कृतः स एव सर्वः संपूर्णोऽपि कोरणसूत्रं परित्यज्य अष्टपञ्चाशत्सूत्रात्मकोऽत्र अष्टादशोद्देशके वस्त्रे वस्त्रमधिकृत्य मतो ज्ञातव्यः । अयं भावः-'जे भिक्खू वत्थं किणइ किणावेइ कीयं आहहु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' इत्यारभ्य 'जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ' इतिपर्यन्तानि अष्टादशोदेशकसूत्राणि चतुर्दशोदेशके यथा व्याख्यातानि ते व प्रकारेण अत्रापि तेषां सूत्राणां व्याख्यानं कर्त्तव्यम् , उभयत्रतावानेव भेदो यत् चतुर्दशोदेशके पात्रं दारुकाघधिकृत्य सूत्रप्रणयनं तद्वयाख्यानं च कृतम् , अत्र अष्टादशोदेशके तु पात्रस्थाने वस्त्रं निवेशयित्वा सूत्राणां प्रणयनं तथा तद्वयानं च कर्त्तव्यम् , विशेषजिवृक्षुभिश्चतुर्दशोद्देशकस्यैव अवलोकनं कर्त्तव्यमिति ॥ सू० ३४-९०॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ सू० ९१॥
॥ निसीहज्झयणे अट्ठारसमो उद्देसो समत्तो ॥ १८ ॥ छाया--तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥१८॥
॥ निशीथाध्ययने अष्टादशोद्देशकः समाप्तः ॥१८॥
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४१२
निशोथसत्रे चूर्णी-'त सेवमाणे" इत्यादि । 'तं सेवमाणे' तत् अष्टादशोदेशकोक्तं प्रायश्चित्तस्थानम् 'सेवमाणे' सेवमानः-तादृशप्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् श्रमणः श्रमणी वा 'आवज्जइ आपद्यते-प्राप्नोति-'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं-प्रायश्चितम् 'उग्धाइयं' उद्घातिकं लघुकम्, नौकारोहणत आरभ्य वस्त्रनिश्रया वर्षावासनिवासपर्यन्तोकेषु अकृत्यस्थानेषु मध्यात् एकं द्विकम् अनेकं सर्व वा पापस्थानं सेवमानः श्रमणः श्रमणी वा मधुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति ॥ सू० ९१ ॥ इति श्री विश्वविख्यात–जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालव्रति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाण्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् अष्टादशोदेशकः समाप्तः ॥१८॥
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॥ एकोनविंशतितमोदेशकः ॥ अष्टादशोदेशकं व्याख्याय अवसरप्राप्त एकोनविंशतितमोदेशको व्याख्यायते । तत्र एकोनविशतितमोदेशकादिसूत्रस्य अष्टादशोदेशकान्तिमसूत्रेण सह कः सम्बन्धः ! इत्यत्राह भाष्यकारःभाष्यम् ---अट्ठारसे निसिद्धं जं, तं चेवेत्थ निसिज्मइ ।
पुचपच्छिमसुत्ताणं, संबंधो इणमो इहं ॥१॥ छाया- अष्टादशे निषिद्धं यत् तदेवात्र निषिध्यते ।
पूर्वपश्चिमसूत्रयोः सम्बन्धोऽयमिह ॥१॥ अवचूरिः-अष्टादशे उद्देशके यद् वस्तु निषिद्धं यस्य वस्तुनो निषेधः कृतः तदेव वस्तु अत्र एकोनविंशतितमे उद्देशके निषिध्यते, अयं भावः-यः श्रमणः श्रमणी वा ऋतुबद्धे वर्षावासे वा काले वस्त्रादिलाभभावनया निवास करोति स श्रमणः श्रमणी वा यतनायुक्तोऽपि प्रमादं लभते, एवं प्रकारेण अष्टादशोद्देशकस्यान्तिमभागे प्रमाद एव प्रदर्शितः, अत्रापि एकोनविंशतितमोदेशकस्यादिसूत्रे प्रमाद एव प्रदर्श्यते, अयमेव-एककार्यकारित्वरूप एव सम्बन्धः पूर्वपश्चिमसूत्रयोः अष्टादशोदेशकान्तिमसूत्रकोनविंशतितमो देशकादिसूत्रयोः सम्बन्धो भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्य प्रकृतो देशकप्रथमसूत्रस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते । तत्र यद्यपि क्रयक्रीतादिवस्तुनो निराकरणं पूर्व कृतमेव तथापि बहुमूल्यवस्तु साधोरकल्पनीयं भवतीति तद्ग्रहणे महान् दोष आषधते इति ज्ञापनाय पुनरप्याह
सूत्रम्-जे भिक्खू वियर्ड किणइ किणावेइ कीयं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। सू० १॥
छाया-यो भिक्षुर्बिकृतं क्रीणाति कापयति क्रीतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृहाति प्रतिगान्तं वा स्वदते ॥ सू०१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियई किणइ' विकृतं क्रीणाति, तत्र विकृतं विकृत्या संपाद्यमानं व्यपगतजीवमचित्तं प्रपाणकादिकं वस्तु यत् साधूनां साध्वीनां वा ग्रहीतुं कल्पते तादृशमचित्तमपि प्रपाणकादि वस्तु बहुमूल्यं क्रीणातिमूल्यं दत्वा स्वयमेव कयणं करोति मूल्यं दत्वा स्वीकरोतीत्यर्थः 'किणावेइ' क्रापयति, अचित्तबहुमूल्यप्रपाणकादि वस्तुनः परद्वारा मूल्यं दापयित्वा क्रयणं कारयति तथा 'कीयमाइटु दिज्जमाणं' क्रीतमाहृत्य दीयमानम् अन्यः कोऽपि श्रमणार्थ मूल्यं दत्वा प्रपाणकादि क्रीणाति तद्वस्तु अभिमुख
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निशोथसूत्रे मागत्य श्रमणाय समर्पयति तादृशं दीयमानं वस्तु यः श्रमणः श्रमणी वा 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णातिस्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० १॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडं पामिच्चेइ पामिच्चावेइ पामिच्चं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा ॥ सू० २॥
छाया- यो भिक्षुः विकृतं प्रामित्यति प्रामित्ययति प्रामित्यमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० २ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियर्ड' विकृतं-बहुमूल्यमचित्तं श्रमणानां श्रमणीनां वा कल्पनीयं प्रपाणकादिकं 'पामिच्चेइ' :प्रामित्यति प्रतिप्रदानप्रतिज्ञया ग्रहणं करोति उद्धाररूपेण गृह्णातीत्यर्थः 'पामिच्चावेई' प्रामित्ययति-उद्धाररूपेण परद्वारा ग्रहणं कारयति तथा 'पामिच्चं आइटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेड' प्रामित्यमात्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वियर्ड परियट्टेइ परियट्टावेइ परियट्टियं आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ स० ३॥
छाया यो भिक्षुः विकृतं परिवर्त्तते परिवर्तयति परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगुहाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३॥ ___चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियड' विकृतमचित्तं व्यपगतजीवम् द्राक्षासवादिप्रपाणकं बहुमूल्यम् 'परियट्टेइ' परिवर्तते, सत्र परिवर्तनं परावर्तनम् स्वकीयाशनवस्त्रादेरन्यस्मै समर्पणम् अन्यस्य प्रपाणकादिकस्य स्वयं प्रहणम्, स्वकीयमशनवस्त्रादिकमन्यस्मै ददाति अन्यस्य प्रपाणकादि द्रवद्रव्यं स्वयं गृह्णाति एवं परिवर्तन करोति 'परियडावेई' परिवर्तयति परद्वारा परावर्तनं कारयति तथा परियट्टियं आहट्टदिज्जमाणं पडिग्गाहेइ' परिवर्तितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, अन्यः कोऽपि समीचीनाशनक्वादीमां परावर्तनं कृत्वा तादृशं प्रपाणकादिवस्तुजातं गृहीत्वा श्रमणाय ददाति तादृशं दीयमानं तत् प्रपाणकादिकं यः श्रमणः श्रमणी वा प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति स्वीकारयति वा तथा 'पडिग्गाहें वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा परावर्तिताचित्तबहुमूल्यद्रवपदार्थस्य ग्रहणं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तमागो भवति ।। सू० ३ ॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१९ सू० १-५
विकृतस्य क्रयणकापणादिनिषेधः ४१५
सूत्रम् -- जे भिक्खु अच्छेज्जं अणिसिद्धं अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४ ॥
छाया -यो भिक्षुराच्छद्यमनिसृष्टमभिहृतमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृतं वा स्वदते ॥ ४ ॥
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चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अच्छेज्जं' आच्छेद्यं बलात्कारपूर्वकं गृहीतम् १, 'अणिसिद्धं' अनिसृष्टम् वस्तुस्वामिन मननुज्ञाप्य गृहीतं यत् तत् अनिसृष्टम् २, 'अभिहर्ड आह' अभिहृतम् - अन्यप्रदेशादानीतं संमुखमागत्य 'दिज्जमाणं' दीयमानम् 'पडिग्गा हेइ' प्रतिगृह्णाति परेण वा प्रतिग्राहयति 'पडिग्गा वा साइज्जइ' प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते - अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥
अत्राह भाष्यकारः -
विडं बहुमुल्लं जं, कीयाइ भेयगं जई ।
गिors मोहओ जो उ, आणाभंगार पावई ॥१॥
छाया - विकृतं बहुमूल्यं यत् क्रीतादिभेदकं यतिः । गृह्णाति मोहतो यस्तु आशाभङ्गादि प्राप्नोति ॥ १ ॥
अवचूरि : - यः कश्चित् यतिः श्रमणः श्रमणी वा मोहतो - मोहनीय कर्मोदयात् विकृतं बहुमूल्यं क्रीतादिभेदभिन्नम् आदिशब्देन प्रामित्यमाच्छेषमनिसृष्टमभिहृतमित्येवं मेदयुक्तं गृह्णाति, तादृशस्य ग्रहणं स्वयं कुर्यात् कारयेद्वा तत् क्रीतादिकमभिमुखमानीय दीयमानं स्वीकुर्यात् स्वीकुर्वन्तमनुमोदते तथा अशनवस्त्रादिना परिवर्तनं करोति कास्यति वा तथा परेण दीयमानं परिवर्तितद्रव्यग्रहणं कुर्वाणं श्रमणान्तरं स्वदते - अनुमोदते स आज्ञाभङ्गादिकं मिथ्यात्वं संयमविराधनमात्मविराधनं च प्राप्नोति तस्मात् क्रीतादिभेदयुक्तस्य द्रव्यस्य ग्रहणं स्वयं कुर्यात् कारयेत् वा कुर्वन्तं श्रमणान्तरं कमपि अनुमोदयेदिति ॥ सू० U
सूत्रम् — जे भिक्खू गिलाणस्स अट्ठाए परं तिन्हं वियडदत्तीणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५ ॥
छाया - -यो भिक्षुग्लनस्यार्थाय परं तिसृणां विकृतदत्तीनां प्रतिगृहाति प्रतिगृहतं वा स्वदते ॥ सू० ५ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मिलाणस्स अट्टाए' ग्लानस्यार्थाय तत्र ग्लानः- सद्योघातिकुक्षिशूलादिरोगातङ्कः परिपीडितः,
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निशीथसूत्रे तस्य तादृशस्य ग्लानस्य अर्थाय प्रयोजनाय गाढागाढकारणमाश्रित्येत्यर्थः यदि विकृतदत्ते हणावश्यकता लक्ष्येत तदा एकद्वित्रिदत्तीग्रहीतुं कल्पते नाधिकमित्याह-'परं तिण्इं परं तिसृणाम् 'वियडदत्तीणं' विकृतदत्तीनाम् तत्र विकृतं-द्राक्षादिविकृत्या संपाद्यमानं विकृतिकारकत्वाद विकृतं तस्य विकृतस्य तिसृभ्यो दत्तिभ्योऽधिकम् , तत्र दत्तिरिति अविच्छिन्नं पतन्ती द्रवद्रव्यधारा गृह्यते, तथा च विकृतानामचित्तबहुमूल्यप्रपाणकद्राक्षासवकुमार्यासवादीनाम् अन्येषां वा तथाविध. द्रवपदार्थानां दत्तित्रयादधिकम् 'पडिग्गाहेइ' प्रतिगृह्णाति ग्लानप्रयोजनमासाद्य दत्तित्रयादधिक विकृतं स्वीकरोति. तथा-'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृहन्तं वा ग्लानप्रयोजनेनापि दत्तित्रयादधिकं गृह्णन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
नात्र विकृतशब्दस्य मद्याद्यर्थः किन्तु विकृतस्य मद्यायों निशीथचूण्या लभ्यते, तद्ग्रहणविधिश्च, तथाहि-तत्र भाष्ये यदुक्तम्-"वितियपदं गेलण्णे, विज्जुवएसे तहेव सिक्खाए । एतेहि कारणेहि, जयणाए कप्पती घेत्तुं ॥६०३ ४। (पृ० २२० सन्मतिज्ञानपीठ आगरामुदित)
तच्चूर्णियथाः–'वेज्जोवए सेणगिलाणहा घेप्पेज कस्सति कोति वाही तेणेव उपसमति त्ति ण दोसो। गिलाणट्टा वा वेज्जो आणितो तस्सट्टा वा धिप्पेज्जा। पकप्पं वा सिक्खंतो गहणं करेज्जा ॥६०३४॥
छाया-द्वितीयपदम्-ग्लाने वैद्योपदेशे तथैव शिक्षायाम् । एतैः कारणैः वतनया कल्पते प्रहीतुम् ॥६०३४॥
वैद्योपदेशेन ग्लानाथ गृह्णीयात् कस्यापि कोऽपि व्याधिस्तेनैव उपशाम्पति इति न दोषः । ग्लानार्थ वा वैध आनीतः तस्यार्थ वा गृह्णीयात् , प्रकल्पं वा शिक्षन् ग्रहणं कुर्यात् ॥६०३४।। इति तन्मोहविजृम्भितम् । साधूनां तस्य सर्वथा निषिद्धत्वात् ।
अत्राह भाष्यकार:भाष्यम्-जो य भिक्खू गिलाणहा, तिहं दत्तीण जं परं ।
गिण्हेज्जा गाहएज्जा वा, आणाभंगाइ पावइ ॥१॥ छाया-यश्च भिक्षुग्लानार्थ तिसृणां दत्तीनां यत् परम् ।
गृहीयाद् प्राहयेद वा आक्षाभङ्गादि प्राप्नोति ।। अवचूरिः-- यश्च कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा ग्लानार्थ कुक्षिशूलादिरोगवतः श्रमणस्य प्रयोजनाय यदि ग्रहणीयमापयेत तदा विसृणां विकृतदत्तीनाम् अचित्तद्रवसम्बन्धिनीनां परं त्रयादधिकं गृह्णीयात्-स्वीकुर्यात् ग्राहयेद् वाऽन्यद्वारा स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिकं मिथ्यात्वं संयमविराधनामात्मविराधनां च प्राप्नोति, तथा दत्तित्रयादधिकग्रहणे लोकानां तदुपरि अविश्वासः
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चूर्णिभाष्यावचूरिःउ• १९ सू० ५-८ विकृतग्रहणगालन-चतुःसन्ध्यास्वाध्यायनिषेधः ४१७ स्यात् यथाऽयं प्रव्रजितो भूत्वाऽपि शास्त्राज्ञारहितदत्तित्रयादधिकं स्वीकरोतीति, तथा साधोलोभदशाऽपि प्रकटा भवति, तथा-ग्लानस्यातिमात्राग्रहणेनाऽसह्यतया शरीरऽन्यो रोगः समुत्पद्यते तेनाऽऽत्मविराधना, शरीरे विषयविकारोऽपि समुत्पद्यते तेन संयमविराधनाऽवश्यम्भाविनी, लोके च तद्विषये शङ्का जायते यदयमेतादृशवस्तुजातमधिकं विना कारणं शरीरपुष्टयर्थ भुङ्क्ते तेन ज्ञायतेऽयं कामी कामविषयमपि सेवते इति प्रतिभाति, तथाऽयं दरिद्रकुलोत्पन्नोऽस्ति येनाऽयं पूर्व स्वगृहे नैतादृशं वस्तु दृष्टवान् अतोऽधिकाहारलोलुपोऽस्तीत्येवं लोके निन्दा प्रवचनहोलना चापि भवति, इत्यादिकारणात् ग्लानार्थमपि दत्तित्रयादधिकं किमपि एतादृशद्रववस्तु न स्वयं गृह्णीयात् , वा परान् ग्राहयेत् न, वा गृह्णन्तं श्रमणान्तरमनुमोदयेदिति ॥ सू० ५ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडं गहाय गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ॥ सू०६॥
छाया-यो भिक्षुर्विकृतं गृहीत्वा प्रामानुग्रामं द्रवति द्रधन्तं वा स्वदते ॥ सू० ६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वियर्ड गहाय' विकृतम्-अचित्तमपि प्रपाणकादिकम् एकस्मिन् ग्रामे गृहीत्वा अग्रे पानार्थ 'गामाणुगामं दइज्जई' ग्रामानुग्रामं द्रवति-एकस्माद्ग्रामात् क्रोशद्वयादूर्व प्रामान्तरं गच्छति तथा 'दइज्ज माणं वा साइज्जई' द्रवन्तं-गच्छन्तं वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
अत्राह-भाष्यकार:भाष्यम्-कारणाकारणेहिं जो, गहाय वियर्ड जइ ।
गामाणुगामं दूइज्जा, आणाभंगाइ पावइ ॥१॥ छाया-कारणाकारणाभ्यां यः गृहीत्वा विकृतं यतिः ।
प्रामानुग्रामं द्रवेत् आज्ञाभङ्गादि प्राप्नोति ॥१॥ अवचूरिः-कारणाकारणाभ्यां-कारणतोऽकारणतो वा यो यतिः-साधुः अचित्तं विकृतं दवजातं प्रपाणकादिकं गृहीत्वा यत्र ऋतुबद्धं वसति वर्षावासं वा वसति तस्मिन् ग्रामे एवमसति लाभे अचित्तं प्रपाणकादिकं गृहीत्वा यदि यः श्रमणः श्रमणी वा प्रामानुग्रामं द्रवेत्-क्रोशद्वयादूर्ध्व गच्छेत्-स श्रमणः श्रमणी वा आज्ञाभङ्गादिदोषान् प्राप्नोति ।। सू० ६ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू वियडंगालेइ गालावेइ गालियं आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ सु०७॥ ____ छाया-यो भिक्षुर्विकृतं गलति गालयति गालितमाहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति प्रतिगृहन्तं वा स्वदते ॥ सू० ७ ॥
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४१८
निशीथस्त्रे
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणौ वा 'विथर्ड' विकृतम् अचित्तं गुडशर्करादिजलम् 'गाई' स्वयं गलति-वस्त्रेण निस्तारयति, वस्त्रपूतं करोतीत्यर्थः । यद्वा-विकृतम् अचित्तं गुडशर्करादिकं गलति-जले निक्षिप्य द्रवीकरोति गुडादिकं जलमिश्रितं करोतीत्यर्थः 'गालावेई' गालयति परद्वारा तथाभूतं कारयति तथा- 'गालियं. आहटु दिज्जमाणं' गालितमाहृत्य गलितं सत् संमुखमागत्य दीयमानम् 'पडिग्गाहेई' प्रतिगृह्णाति स्वीकरोति तथा 'पडिग्गाहेंतं वा साइज्जई' प्रतिगृह्णन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति ।। सू० ७ ।।
सूत्रम्-जे भिक्खू चाहिं संझाहिं सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ। तं जहा-पुव्वाए संझाए, पच्छिमाए संझाए, अवरण्हे, अद्धरत्ते ॥ सू० ८॥
छाया-यो भिक्षुश्चतसृषु संध्यासु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं धा स्वदते । तद्यथापूर्वस्यां सन्ध्यायां, पश्चिमायाम् सन्ध्यायाम, अपराण्हे, अर्द्धरात्रे ॥ सू० ८ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खूयः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउहि संझाहि' चतसृषु संध्यासु 'सज्झाय' स्वाध्यायं सूत्रार्थतदुभयानां पठनं, पठितानां च परिवर्तनम् 'करेइ' करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जई' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते । अथ कास्ता चतस्रः सन्ध्याः ! इत्याह-'तंजहा' इत्यादि । 'तंजहा' तद्यथा-'पुन्चाए संशाए' पूर्वस्यां सन्ध्यायाम्-पूर्वकालिकसंध्यायां सूर्योदयसमये-सूर्योदयात्पूर्व मुहर्तादिारभ्य सूर्योदयानन्तरं मुहूर्ताद्धे यावत् अस्वाध्यायकालः तस्मिन् अस्वाध्यायकाले, तथा 'पच्छिमाए संझाए' पश्चिमायां संध्यायां सूर्यास्तकाले एवं सूर्यास्तात्पूर्व मुइ‘िदारभ्य सूर्यास्तानन्तरं मुहर्तार्द्ध यावत् पश्चिमसन्ध्या, स च कालः अस्वाध्यायकालः तस्मिन् मुहूर्तेककाले 'अवरण्हे' अपराण्हेमध्याह्नस्यार्धा मुहूर्तपूर्वापरकाले इत्यर्थः 'अद्धरत्ते' अर्द्धरात्रे निशीथे तत्राऽपि-अर्धा मुहूर्तपूर्वापरकाले, एताश्चत्स्रः सन्ध्याः अस्वाध्यायकालः, एतासु अस्वाध्यायकालरूपासु चसृषु सन्ध्यासु यः श्रमणः श्रमणी वा सूत्रार्थतदुभयानां परिवर्तनलक्षणं स्वाध्यायं करोति तथा कुर्वन्तं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० ८ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू कालियसुयस्स परं तिण्हं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ९॥ ___ छाया-यो भिक्षुः कालिकश्रुतस्य परं तिसृणां पृच्छानां पृच्छति पृच्छन्तं पा स्वदते ॥ सू० ९॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ०१९ सू० ९-१२ कालिकश्रुताद्यतिपृच्छा महामहादिस्वाध्यायनि० ४१९
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'कालियनुयस्स' कालिकश्रुतस्य, यत् श्रुतं काले नियतकाले एवाधीयते तत् कालिकश्रुतम्, यस्य श्रुतस्याध्ययनम् दिवसस्य रात्रेर्वा प्रत्येकं प्रथमान्तिमप्रहरे अस्वाध्यायकालं वर्जयित्वाऽध्यययनं क्रियते तत्कालिकश्रुतम् आचाराङ्गादिकम् तस्य, कालिकश्रुतस्य 'परं तिहं पुच्छाणं' परं तिसृणां पृच्छानाम् पृच्छात्रयादधिकम्, तत्र एकस्यां पृच्छायां सूत्रत्रयं भवति ततः पृच्छात्रये नव सूत्राणि भवन्ति ततश्च कालिकश्रुतस्य अकाले यत्र काले सूत्रं नाधीयते सोऽकालः, तस्मिन् नवसूत्रादधिकम् 'पुच्छइ' पृच्छति-पृच्छां करोति 'पुच्छत वा साईज्जइ' पृच्छन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते- अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ९ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू दिहिवायस्स परं सत्तण्हं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १०॥
छाया-यो भिक्षुदृष्टिवादस्य परं सप्तानां पृच्छानां पृच्छति पृच्छन्तं वा स्वदते ॥ स. १०॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दिहिवायस्स' दृष्टिवादस्य द्वादशमङ्गं दृष्टिवादस्तस्य 'परं सत्तण्हं पुच्छाणं पुच्छई' परम्अधिकं सप्तानां पृच्छानाम्-सप्तपृच्छातोऽधिकम् तत्र-कालिकश्रुते एकस्यां पृच्छायां सूत्रत्रयं भवति, पृच्छात्रये च नव सूत्राणि भवन्ति, दृष्टिवादेऽपि एकस्यां पृच्छायाम् सूत्रत्रयं भवति सप्तपृच्छायां तु एकविंशतिः सूत्राणि भवन्ति ततश्च यथोक्तपृच्छातोऽधिकं यः श्रमणः श्रमणी वा आचार्यम् 'पुच्छइ' पृच्छति तथा 'पुच्छंतं वा साइज्जइ' पृच्छन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १०॥
सूत्रम्--जे भिक्खू चउसु महामहेसु सज्झायं करेइ करतं वा साइज्जइ।तं जहा-इंदमहे, खंदमहे, जक्खमहे, भूयमहे || सू०११॥
छाया-यो भिक्षुश्चतुषु महामहेषु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । तद्यथाइन्द्रमहे, स्कन्दमहे, यक्षमहे, भूतमहे । सू० ११॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउसु. महामहेसु' चतुषु-चतुःसंख्यकेषु वक्ष्यमाणेषु महामहेषु-महामहोत्सवेषु, तत्र रन्धन-पचन-पाचनखादन-पान-नृत्य-गीत-प्रमोदादिरूपेषु ये महता समारोहेण महोत्सवाः ते महामहाः, तेषु महोत्सवेषु तादृशमहोत्सवसमये तत्स्थाने यः श्रमणः श्रमणी वा 'सज्झायं' स्वाध्याय सूत्रार्थतदुमयपठनरूपम् 'करेइ' करोति तथा 'करेंतं वा 'साइज्जइ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते
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निशीथसत्रे
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स प्रायश्चित्तभागी भवति । तानेव महामहान् प्रदर्शयति-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा'दमहे' इन्द्रनामकदेवस्य महोत्सवे चैत्रीपूर्णिमायां जायमाने 'खंदमहे' स्कन्दमहे स्कन्दः कार्तिकेयः, तस्य महोत्सवे आषाढ़ी पूर्णिमायां जायमाने 'जक्खमहे' यक्षमहे-यक्षमहोत्सवे-आश्विनीपूर्णिमायां जायमाने 'भूयमहे' भूतमहे-व्यन्तरदेवमधिकृत्य जायमाने महोत्सवे-कार्तिकीपूर्णिमायां जायमाने, उपर्युक्तमहोत्सवचतुष्टयसमये यावत् महोत्सवस्यान्तिमः समयो भवति तावदित्यर्थः तत्स्थाने च यः श्रमणः श्रमणी वा स्वाध्यायं समाचरति तथा समाचरन्तमनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० ११॥
सूत्रम्-जे भिक्खू चउसु महापडिवएसु सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ। तं जहा-सुगिम्हियपाडिवए, आसाढीपाडिवए, आसोईपाडिवए, कत्तियपाडिवए ॥ सू० १२॥
छाया-यो भिक्षुश्चतसृषु महामतिपत्सु स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते तद्यथा-सुग्रीस्मिकप्रतिपदि, आषाढीप्रतिपदि, आश्विनीप्रतिपदि, कार्तिकीप्रतिपदि सू० १२
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जेभिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउसु महापडिवएम, चतसृषु महाप्रतिपत्सु पूर्वीकचतुर्महोत्वानामनन्तरं जायमानासु बहुलप्रतिपत्सु 'सज्झायं करेइ' स्वाध्याय-सूत्रार्थतदुभयस्य अध्ययनं करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तत्र काः ताः महाप्रतिपदः यासु स्वाध्यायस्य प्रतिषेधः क्रियते ? तत्राह-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा-'मुगिम्हियपाडिवए' सुग्रीष्मिकप्रतिपदि चैत्रशुक्लपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां वैशाखकृष्णप्रतिपदि, 'आसाढीपाडिवए'आषाढीप्रतिपदि आषाढसम्बन्धिप्रतिपदि आषाढशुक्लपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां श्रावणकृष्णप्रतिपदि, एवम् 'आसोईपाडिवए' आश्विनीप्रतिपदि-आश्विनपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां कार्तिक कृष्णप्रतिपदि कत्तियपाडिवए' कात्तिकोप्रतिपदि कार्त्तिकपूर्णिमाया अनन्तरं जायमानायां मार्गशीर्षकृष्णप्रतिपदि । एतासु पूर्वोक्तासु चतसृषु प्रतिपत्सु देवा गमनागमनं कुर्वन्ति शास्त्र. स्य देवानां च भाषा एकैवेति यदि एतासु तिथिषु अध्ययनं करिष्यन्ति तदा यदि तत्राशुद्धमुच्चारणं स्यात् तदा रुष्टास्ते देवा विघ्नं करिष्यन्तीति कृत्वा एत्तासु तिथिषु स्वाध्यायस्य निषेधः कृतो भवति ॥सू० १२॥
सूत्रम्--जे भिक्खु पोरिसिं सज्झायं उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ ॥ सू० १३ ॥
छाया-यो भिक्षुः पौरुषी स्वाध्यायीमतिकामति अतिक्रामन्तं वा स्वदते ॥ सू० १३॥
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० १९ सू० १३-१६ कालानपेक्षस्वाध्यायकरणाकरणनिषेधः ४२१
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पोरिसिं' पौरुषीम् अहोरात्रयोः प्रथमचरमकालभावित्वेन चनुर्विधां पौरुषीम्, कथम्भूताम् ! 'सज्झायं' स्वाध्यायी-स्वाध्याययोग्यां, यतः कालिकश्रुतस्य अहोरात्राभ्यन्तरे चतुःपौरुषीरूपाश्चत्वारः स्वाध्यायकाला भवन्ति तादृशीः स्वाध्याययोग्याश्चतस्रः पौरुषीः चतुःसंख्यकाः पौरुषोरित्यर्थः, 'उवाइणावेई' अतिक्रामति पौरुषीकाले स्वाध्यायं न करोति. तथा 'उवाइणावेतं वा साइज्जइ' पौरुषीकालिकस्वाध्यायमतिक्रामन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तदेव विशपते-दिवसस्य प्रथमचरमकालभाविन्यौद्ध पौरुष्यो, एवं रात्रेः प्रथमचरमकालभाविन्यौ द्वे पौरुष्यो, एवमहोरात्रमध्ये चतस्रः पौरुष्यो भवन्ति, एतासु चतसृष्वेव पौरुषीषु कालिकश्रुतस्य स्वाध्यायो गुणनं वा भवितुमर्हति, अन्यासु अहोरात्रसम्बधिद्वितीयतृतीयरूपासु चतसृषु पौरुषीषु एवं क्रमः-दिवसस्य द्वितीयपौरुष्यामुत्कालिकथुतस्य ग्रहणं ध्यानं वा कुर्यात्, अर्थ वा शृणुयात् । तृतीयपौरुध्यां भिक्षार्थहिण्डनं, तदभावे उत्कालिकश्रुतस्य पठनं पूर्वगृहीतस्य गुणनं तदर्थश्रवण वा कुर्यात् । एवं रात्रेदितीयपोरुभ्यामुत्कालिकश्रतस्य ग्रहणं ध्यानमर्थश्रवणं वा कुर्यात्, तृतीयपौरुष्यां निदां तन्मोक्षं च कुर्यात् , अथवोत्कालिकस्य ग्रहणं गुणनं वा कुर्यात् ।
उक्तंच शास्त्रे-“पढमे पोरिसी समायं, बीए झाणं प्रियायइ ।
तइयाए भिक्खायरियं, चउत्थीए पुणोवि सज्झायं ॥१॥ पढमे पोरिसी समाय बीए झाणं झियायइ ।
तइयाए निद्दमोक्खं च, चउत्थीए पुणोवि सज्झायं ॥२॥” इति । छाया-प्रथमायां औरुष्यां स्वाध्याय, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायति ।
तृतीयायां भिक्षाचर्या, चतुथ्यों पुनरपि स्वाध्यायम् ॥१॥ दिवसे । प्रथमायां पौरुष्या स्वाध्याय, द्वितीयायां ध्यान ध्यायति ।
तृतीयायां निद्रां तन्मोक्षं च (कुर्यात्) चतुथ्यों पुनरपि स्वाध्यायम् ॥रात्रौ॥ सूत्रम्-जे भिक्खू चउक्कालं सज्झायं न करेइ न करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१४॥
छाया-यो भिक्षुश्चातुष्काल स्वाध्यायं न करोति न कुर्वन्तं वा स्वदते ॥ सू० १४॥
चूर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चउकालं' चातुष्कालम्-कालचतुष्टयसंबन्धिनं स्वाध्याय दिवसस्य प्रथमप्रहरे चरमप्रहरे च तथा राोः प्रथमप्रहरे चरमप्रहरे चेति अहोरात्रस्य कालचतुष्टये इत्यर्थः 'समायं न करेइ' स्वाध्यायं म करोति तथा ' न करेंतं वा साइज्जई' न कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥१४॥
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४२२
निशीथसूत्रे
सूत्रम्--जे भिखू असल्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ छाया --यो भिक्षुरस्वाध्यायिक स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते । सू० १५॥
चूर्णी- -'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'असज्झाइए' अस्वाध्यायिके काळे-सूर्योदयाद नन्तरमर्द्धमुहूर्तसमये सूर्यास्तसमयात्पूर्व अर्द्धमुहूर्तसमये तथा रात्रावपि सूर्यास्तसमयादनन्तरमर्द्धमुहूर्तसमये, निशावसानेऽपि सूर्योदयात्पूर्वममुहूर्तसमये, एवं दिवा रात्रौ च चतुर्यु अस्वाध्यायकालेषु 'सज्झायं' स्वाध्यायं सूत्रार्थयोर्वाचनालक्षणम् 'करेइ' करोति तथा 'करेंत' वा साइज्जइ' कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा भवन्ति ॥सू० १५॥
सूत्रम्--जे भिक्खू अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ सू०१६॥ __ छाया-यो भिक्षुरात्मनोऽस्वाध्यायिक स्वाध्यायं करोति कुर्वन्तं वा स्वदते ॥
चूर्णी-- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अप्पणो असज्झाइए' आत्मनः स्वकीयशरीरसंबन्धिनि अस्वाध्यायिके काले, तत्र स श्रमणस्यै कविधः-त्रणाशों. भगन्दरा देरूपः, श्रमण्या द्विविधः व्रणादिसमुत्थः १ ऋतुसमुत्थश्च २, तस्मिन् एतादृशे आत्मनः स्वशरीरस्य सम्बन्धिनि अस्वाध्यायिके काले 'सज्झायं' स्वाध्यायं करोति तथा 'करेंतं वा साइज्जइ' आत्मनोऽस्वाध्यायिके काले स्वाध्यायं कुर्वन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू० १६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू हेठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिल्लाई समोसरणाई वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ मू० १७॥
___ छाया--यो भिक्षुरधस्तनानि समवसरणानि अवाचयित्वा उपरितनानि समवसर णानि वानति वाचयन्तं वा स्वदते ॥९० १७॥
___ चूर्णी -'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'हेठिल्लाइं समोसरणाई' अधस्तनानि आधानि समवसरणानि, तत्र समवसरणमिति मेलनं संमिश्रणं वा, अत्र समवसरणं सूत्रार्थयोः जीवाजीवादिनवपदार्थानां वा संमेलनम् , ततः समवसरणानि संमिलितसूत्रार्थरूपाणि 'अवाएत्ता' अवाचयित्वा पूर्वसूत्रविषयिणी वाचनामदत्वा पूर्वसूत्रमनधीत्येत्यर्थः 'उवरिल्लाई समोसरणाई उपरितनानि-उत्तरकालिकानि समवसरणानि सूत्रार्थ रूपाणि 'वाएई' वाचयति-परेभ्यो वाचनां ददाति एवं 'वाएंत वा साइज्जई' वाचयन्तमन्यं वा श्रमणान्तरं स्वदते. अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, तत्र यत् यस्यादिमं सूत्रम् तत् तस्याधस्तनमिति कथ्यते,
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चूर्णिमायावचूरिः उ०१९ सू०१७- २० सूत्रवाचनोत्क्रमापात्र पात्र वाचनाऽवाचननि० ४२३
तथा यत् सूत्रं यस्य सूत्रस्याग्रेतनं तत् तस्य उपरितनं सूत्रं कथ्यते, यथा दशवैकालिकसूत्रस्यावश्यकसूत्रम् अघस्तनमिति भवति, एवमुत्तराध्ययनसूत्रस्य दशवैका लिकसूत्रमधस्तनं भवति, अथवा - द्रव्यक्षेत्र कालभावाः एते सर्वे यत्र समवगाढाः भवन्तीत्युच्यते तत् समवसरणम् । तत् समवसरणं, पुनः किंस्वरूपकम् ? तत्रोच्यते-अङ्गम्, श्रुतस्कन्धः, अध्ययनम्, उद्देशकश्च, तत्राङ्गं यथा-आचाराङ्गादिकम् तथा च सूत्रकृताङ्गादाचाराङ्गमधस्तनमिति, आवाराङ्गसुत्रमवाचयित्वा यदि सूत्रकृताङ्गसूत्रं वाचयति तदा सुत्रोक्तो दोषो भवति । श्रुतस्कन्धो यथा आवश्यकसूत्रम् तथावश्यकसूत्रमवाचयित्वा दशवै - कालिकसूत्रं वाचयति तदा श्रुतस्कन्धोक्तो दोषो भवति । अध्ययनं यथा- सामायिकमवाचयित्वा चतुर्विंशतिस्तवं वाचयति तदा अध्ययनोक्तो दोषः, अथवा शस्त्र परिज्ञाध्ययनमवाचयित्वा लोकविजयनामकमध्ययनं वाचयति तस्य तदा अध्ययनोक्तो दोषो भवति । उद्देशकेषु यथा - शस्त्रपरिज्ञाध्ययने प्रथमं श्रामण्यो देशकमवाचयित्वा द्वितीयं पृथिवीकायिकोद्देशकं वाचयति । एवमाचाराङ्गादिसुत्रेष्वपि पूर्वापरातिक्रमणे दोषो ज्ञातव्यः । एवं व्युत्क्रमेण सूत्रार्थवाचना न कर्त्तव्येति ॥ सू० १७ ॥
सूत्रम् - - जे भिक्खू णवबंभचेराई अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वातं वा साइज्जइ ॥ सू० १८ ॥
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छाया -यो भिक्षुर्नवब्रह्मचर्याणि अवाचयित्वा उपरिमसूत्रं वाचयति वाचयन्त वा स्वदते ॥ सू० १८ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'णवबंभचेराई' नवब्रह्मचर्याणि-आचाराङ्गसूत्रस्य प्रथमश्रुतस्कन्धगतानि शस्त्रपरिज्ञार्दीनि महापरिज्ञापर्यन्तानि नवाध्ययनानि, अत्र नवब्रह्मचर्यग्रहणेन सर्वोऽपि आचारो गृहीतो भवति, स्मथवा सर्वोऽपि चरणानुयोगो गृहीतो भवति एतादृशानि नवत्रह्मचर्याणि 'अवाएत्ता' अवाचयित्वा 'उवरिमसुर्य' उपरिमश्रुतम् छेदसूत्रम् 'वाइ' वाचयति - अध्यापयति- अधीते वा ब्रह्मचर्याद्याचाराङ्ग प्रथमतोवाचयित्वा यः श्रमणः श्रमणी वा धर्मानुयोगम् समुत्थानसूत्रादि वा वाचयति यद्वा सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकं गणितानुयोगं वाचयति, अथवा दृष्टिवाद द्रव्यानुयोगं वाचयति, अथवा यदा चरणानुयोगो वाचितो भवेतदा धर्मानुयोगमवाचयित्वा गणितानुयोगं वाचयति । एवम् 'वाएंतं वा साइज्जइ' वाचयन्तं वा श्रमणान्तरं यः स्वदते अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० १८ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० १९ ॥ छाया - यो भिक्षुः अपात्र घाययति वाचयन्तं वा स्वदते ॥१९॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्विक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अपत्त' अपात्रम् - अनधिकारिणम्, यो हि शास्त्रवाचनाग्रहणस्य नाधिकारी तादृशमपात्रम् श्रमणं तद्भिन्नं का
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ર૪
निशीथसत्रे 'वाइए' वाचयति-वाचनां ददाति, तत्र कोयमपात्रको यस्मै वाचनां न दद्यात् ? तत्रोच्यते-अपात्रको नाम क्रमानधीतश्रुतकः यथाक्रमं श्रुतं यो नाधीतवान् सोऽपात्रकः अयोग्य इति, तस्मै-ताहशाय अपात्राय वाचनां ददाति, तथा 'वाएतं वा साइज्जइ' वाचयन्तं वा श्रमणान्तरं स्वदतेअनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति, यतो हि अपात्राय वाचनादाने स तद्दत्तां वाचनां वैपरीत्येन परिणमयति तदा तद्वाचनादाता तद्दोषभाग भवति, उक्तं चात्र
"आमे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासेड । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥" इति । छाया-आमे (अपक्वे) घटे निहितं यथा जलं घटं विनाशयति ।
इति सिद्धान्तरहस्यं अल्पाधारं विनाशर्यात ॥१९॥ इति सू० १९ जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वाएतं वा साइज्जइ ॥सू० २०॥ छाया–यो भिक्षुः पात्र न वाचयति न वाचयन्तं वा स्वदते । सू० २०॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पत्तं ण वाएइ' पात्रं न वाचयति. तत्र-अपात्रप्रतिपक्षभूतं पात्रं वाचनाग्रहणयोग्यम् भवस्थाविनयादिभियोग्यं क्रमाधीतश्रुतं वा श्रमणं वाचनां न ददाति तथा 'ण वाएंतं वा साइज्जई' न वाचयन्तं वा, न वाचयन्तमिति-अवाचयन्त-पात्राय वाचनामददतं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।
अथ कोदशोऽपात्रको यस्मै वाचना न देया, तथा कोदशश्च पात्रको यस्मै वाचनाऽदाने दोषस्तत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए य दुब्बलचरित्ते ।
आयरियप्पडिभासी, वामावडे य पिसुणे य ॥१॥ एयं जो वाएई, विवरीयं नो य वायए जो उ ।
आणाभंगप्पभिई दोसे पावेइ सो नियमा ॥२॥ छाया- तितिणिकश्वलचित्तः गाणंगणिकश्च दुर्बलचरित्रः ।
आचार्यप्रतीभाषी वामावत्तप्रचपिशुनश्च ।।१॥ पतं यो वाचयति, बिपरीतं नो च वाचयेद् यस्तु ।
आज्ञाभङ्गप्रभृतीन, दोषान् प्रामोति स नियमात् ॥२॥ अवचूरिः-तत्र तितिणिकः बडबडेति भाषकः रूक्षस्वभावकः १, चलचित्तः-अस्थिरचित्तः २, गाणंगणिकः स यः खलु कारणं विनैव एकस्मात् गणात् गणान्तरे गच्छति ३, दुर्बलचरित्रः स यः खलु मूलगुणोत्तरगुणविराधनायाः प्रतिसेवनां करोति तथा धृतिबलपरिहीनः ४, आचार्यप्रतिभाषी सः
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पूर्णिभाष्यावधूरिः उ० १९ सू० २१-२३ अव्यक्तव्यक्तादीनां वाचनादानाऽदाननिषेधः ४२५ यः खलु आचार्य प्रति असंबद्धप्रलापी, वामावर्तस्तु स यः खलु आचार्यस्य प्रति कूलं कार्य करोति, पिशुनः स यः परोक्षनिन्दकः (चुगलखोर) इति भाषाप्रसिद्धः, एत्ते अपात्राः प्रवचनवाचनानधिकारिणः, एतेभ्यो यः प्रवचनस्य वाचनां ददाति स प्रायश्चित्तभागी भवति ।
यः खलु आचार्यः श्रमणः श्रमणी वा विपरीतम्-एतद्भिन्न पात्रं वाचनाधिकारिणं न वाचयति स आज्ञाभङ्गादिदोषान् मिथ्यात्वं च प्राप्नोति, तस्येमे दोषा भवन्ति, तथाहि-यदि पात्रमपि न वाचयति तदा लोके महती अपकीतिर्भवति यदयं योग्यमपि न वाचयति, एवं प्रवचनस्य हानिरपि भवति. एवं पात्रं यदि न वाचयति तदा क्रमशः सूत्रार्थयोरुच्छेदोऽपि स्यात्, तस्मात् पात्रं तु अवश्यमेव वाचयेत्. ततश्च यः श्रमणः श्रमणी वा अपात्रं वाचयति तथा पात्रं न वाचयति स प्रायश्चित्तभागी भवति, तथा तस्याज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति तस्मादपात्रं न वावयेत् , पात्रं तु देशकालादिकमाश्रित्य अवश्यमेव वाचयेदिति ॥ सू० २०॥
सूत्रम्-जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २१॥ छाया--यो भिक्षुरव्यक्तं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥२१॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अव्वतं वाएइ'अव्यक्त वाचति, तत्र अव्यक्तः यावत्पर्यन्तं कक्षादिषु रोमाणि न भवन्ति तावत् सोऽव्यक्तः, अथवा यावत्पर्यन्तं षोडशवर्षपरिमितो न भवति तावदव्यक्तः, एतादृशमव्यक्तं यः श्रमणः श्रमणी वा वाचयति दृष्टिवादादिशास्त्रवाचनां दादाति. तथा 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥ सू० २१॥
सूत्रम्--जे भिक्खू वत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २२॥ छाया--यो भिक्षुव्यक्तं न वाचयति न वाचयन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२॥
चूणी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'वत्तं ण वाएइ' व्यक्तं न वाचयति, तत्र कक्षादिषु जातोमा व्यक्तः, अथवा परिसमाप्तषोडशवर्षों व्यक्तः, एतादृशं व्यक्तं यः श्रमणो वाचनां न ददाति तथा 'ण वाएंतं वा साइज्जइ' न वाचयन्तंव्यक्ताय वाचनामददतं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।। सू० २२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दोण्हं मरिसगाणं एक सिक्खावेइ एकं न सिक्खावेइ, एकं वाएइ एक्कं न वाएइ, एक्कं सिक्खावेंतं एक्कं न सिक्खावेत वा, एक्कं वाएंतं एक्कं ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥सू० २३॥
छाया- यो भिक्षुः द्वयोः सदृशयोरेकं शिक्षति एकं न शिक्षयति एकं वाचर्यात एकं न वाचति, पकं शिक्षयन्तं पकं न शिक्षयन्तं वा, एकं वाचयन्तं पत्रं न वाचयन्तं वा स्वदते ।। सू० २३॥
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४२६
निशीथसूत्रे चर्णी-जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोण्हं सरिसगाणं' द्वयोः सदृशयोः विनयबुद्धिम्यां तुल्ययोः द्वयोः, सादृश्यं च संविग्नत्वेन समनुज्ञातत्वेन परिणामकत्वेन च, तथा च द्वयोः संविग्नयोर्मध्यात् 'एक्कं सिक्खावेई' एक संविग्न शिक्षयति-सम्यग् चरणादिसम्बन्धिनी शिक्षां ददाति 'एक्कं न सिक्खावेई' एकं संविग्नं न शिक्षयति-चरणादिसंबन्धिनी शिक्षा सम्यक् न ददाति 'एक्कं वाएई' एकं वाचयति-शास्त्रवाचनां ददाति 'एक न वाएई' एकं संविग्नं न वाचयति-वाचनां न ददाति तथा 'एक्कं सिक्खावेंतं' एकं शिक्षयन्तं 'एक्कं न सिक्खातं वा' द्वयोः सदृशयोः संविग्नयोर्मध्यादेकं संविग्नं न संशिक्षयन्तं श्रमणान्तरम् तथा- 'एक्कं वाएंत' एकं वाचयन्तं 'एक्कं न वाएंत' एकं द्वयोः सदृशयोः संविग्नयोर्मध्यादेकं संविग्नं न वाचयन्तं श्रमणान्तरं यः स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । तथा तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति । अथ यदि द्वयोः सदृशयोमध्यादेकं शिक्षयति वाचयति च, एकं न शिक्षयति तथैकं न वाचयति तदा को दोषः । इति चेत् अत्राह-तुल्ययोर्द्वयोर्मध्यात् यदि एकं शिक्षयेत् एकं वाचयेत् तदा तदुपरि रागः प्रकटितः स्यात् , अथ यं नाध्यापयिष्यति तदुपरि द्वेषः प्रख्यापितो भवेत् , तेन स बहिर्भावं गच्छेत् , तत्प्रत्ययां कर्मनिर्जरां न प्राप्नोति अन्यं प्रति स प्रद्वेषं च गच्छेत् , प्रद्विष्टश्च यत् करिष्यति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं प्रसज्येत । एभिः कारणैः सदृशद्वयोर्मध्यात् एकं शिक्षयेत् अपरं न शिक्षयेत् , एकं वाचयेत् अपरं न बाचयेत् , इत्येवं न कुर्यात् न वा एवं कुर्वन्तमनुमोदयेत् इति, किन्तु यदि शिक्षयेत्तदा द्वावपि शिक्षयेत् यदि न शिक्षयेत् तदा द्वावपि न शिक्षयेत् भेदबुद्धिं न कुर्यादिति भावः ।। सू० २३॥
सूत्रम्--जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिण्णं गिरं आइयइ आइयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २४॥ ____ छाया-यो भिक्षुगवार्योपाध्यायैरविदत्तां गिरमाददाति आददतं वा स्वदते ॥२४॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'आयरियउवज्झाएहि' आचार्योपाध्यायैः आचार्येन उपाध्ययेन उपलक्षणात् रत्नाधिकः 'अविदिण्णं गिरं' अविदत्तां गिरम् शास्त्रवाणीम् अविदत्ताम्-अनध्यापितां गिरं-सूत्रार्थरूपाम् 'आइयई' आददाति-स्वीकरोति अधीते इत्यर्थः, यं सूत्रमथं वा आचार्य उपाध्यायो वा नाध्यापयति तमपि स्वयमेवाधीते-तदध्ययनं करोति 'अहं बहुश्रुतः सर्वरत्निकः' इति कृत्वा गर्वेण आचार्यादिकमनादृत्य स्वयमेव तदध्ययनं करोति तथा 'आइयंत वा साइज्जई' आददतं वा-आचार्याधनध्यापितं स्वयमेवाधीयानं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति । मा चार्यादिभिरदत्ताम्-अनध्यापितां शास्त्रवाचनां यः स्वयं वाचयति तदा तस्य अपूर्णज्ञानत्वेन तदुक्तमर्थादिकं भ्रमबुद्धया वैपरीत्येन परिणमते, तेन स जिनवचनाशातनां मिथ्यात्वं च प्राप्नोति ॥ सू० २४॥
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पूर्णि० उ० १९ सू० २५-३७ अन्यतीथिकादिपार्श्वस्थादीनां वाचनादानाऽऽदाननि० ४२७
सूत्रम्-जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ सू० २५ ॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकं वा गृहस्थं वा वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ।।
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियं वा' अन्ययुथिकं - अन्यतीर्थिकं तापसपरिव्राजकादिकम् 'गारस्थियं, गृहस्थं वा 'वाएई' वाचयति-सूत्रवाचनां ददाति सूत्रमध्यापयति तथा 'वाएंतं वा साइज्जई' वाचयन्तम्एवं वाचनां ददतं श्रमणान्तरं यः श्रमणः श्रमणी वा स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२५॥
सूत्रम्--जे भिक्खु अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० २६॥
छाया-यो भिक्षुरन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य वा प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ २० २६॥
चूर्णी-'जे भिक्खू इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'अण्णउत्थियस्स वा' अन्ययूथिकस्य वा तापसपरिव्राजकादिकस्य 'गारस्थियस्स वा गृहस्थस्य वा सकाशात् 'पडिच्छई' प्रतीच्छति-वाचनां स्वीकरोति, तापसादितो गृहस्थाद् वा सूत्रमर्थ बा अधीते तथा 'पडिच्छंतं वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा तापसादितः सूत्रमर्थ वा अधीयानं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ॥२६॥ .
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्यं वाएइ वाएंतं वा सइज्जइ ॥ सू० २७॥ छाया-यो भिक्षुः पार्श्वस्थं वाचयति वाचयन्तं वा स्वदते ॥२७॥
चर्णी---'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिवखू' यः कश्चिद् भिक्षु श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्थं' पार्श्वस्थम्-ज्ञानदर्शनचारित्रस्य पार्श्व-समीपे तिष्ठति यः स पार्श्वस्थः ज्ञानादिसमीपे स्थितः किन्तु न तदाराधकः, स द्रव्येण श्रमणः न तु भावेन, तादृशं पार्श्वस्थं यः श्रमणः श्रमणी वा 'वाएइ' वाचयति- सूत्रार्थयोर्वाचनां ददाति तथा 'वाएतं वा साइज्जई' वाचयन्तं-पार्श्वस्थं सूत्रार्थयोः वाचनां ददतं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति ।।सू०२७॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पासत्थस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ॥ छाया-यो भिक्षुः पार्थस्थस्य प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० २२॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद् भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'पासत्यस्स' पार्श्वस्थस्य-यथोक्तलक्षणस्य सकाशात् 'पडिच्छइ' प्रतीच्छति-पार्वस्थात् सूत्रार्थयोरध्ययन
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निशीथसूत्र करोति तथा 'पडिच्छंत वा साइज्जइ' प्रतीच्छन्तं वा-सूत्रार्थयोरध्ययनं कुर्वन्तं श्रमणान्तरं स्वदते-अनुमोदते स प्रायश्चित्तभागी भवति तस्याऽऽज्ञाभङ्गादिका दोषा अपि भवन्ति तस्मात्कारणात् श्रमणः श्रमणी वा पार्श्वस्थ सकाशात् अध्ययनं न कुर्यात् न कुर्वन्तमनुमोदयेदिति ॥सू० २८॥
एवमवसन्नादीनाम् अष्टौ सूत्राणि वाच्यानि तथाहि
सूत्रम्--जे भिक्खू ओसन्नं वाएइ० ॥ सू० २९॥ ओसन्नस्स पडिच्छइ ॥ सू०३०॥ कुसीलं वाएइ०॥ सू० ३१॥ कुसीलस्स पडिच्छइ० ॥ सू० ३२॥ णितियं वाएइ० ॥ सू० ३३ ॥ णितियस्स पडिच्छइ० ॥ सू०३४॥ संसत्तं वाएइ० ॥ सू० ३५॥ जे भिक्खू संसत्तस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ।। सू० २९-३६॥
छाया-यो भिक्षुरवसन्नं वाचयति ॥ सू०२९॥ अवसन्नस्य प्रतीच्छति० ॥स्०३०॥ कुशोलं वाचयति ॥ ० ३१ ॥ कुशीलस्य प्रतीच्छतिः ।सू ३२ ॥ नैत्यिकं वाच. यति ।। सू०३३।। नैत्यिकस्य प्रतीच्छति ॥सू. ३४|| संसक्तं वाचयति० ॥ सू० ३५॥ यो भिक्षुः संसक्तस्य प्रतीच्छति प्रतीच्छन्तं वा स्वदते ॥ सू० ३६ ॥ ___ चूर्णी-एषां व्याख्या पार्श्वस्थसूत्रस्येव कर्तव्येति ।। सू० २९-३६ ॥
सूत्रम्-तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ सू० ३७॥
॥ निसीहज्झयणे एगृणवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥१९॥ - छाया-तत् सेवमान आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्घातिकम् ॥सू०३७॥
॥ निशीथाध्ययने एकोनविंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥१९॥ चूर्णी-'ते' इत्यादि । 'तं' तत्-विकृतं-क्रीणातीत्यारभ्य संसक्तस्य प्रतीच्छतीति पर्यन्तम् एकोनविंशत्युदेशकोक्तं प्रायश्चित्तस्थानम् 'सेवमाणे' सेवमानः तस्य प्रतिसेवनां कुर्वन् एकं द्विकमनेकं सर्व वा प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेवमानः 'आवज्जइ' आपद्यते-प्राप्नोति 'चाउम्मासियं चातुर्मासिकम् 'परिहारद्वाण परिहारस्थानं प्रायश्चित्तम् उग्घाइयं उद्घातिर्फ लघुकमित्यर्थः लघुचातुर्मासिकं प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ सू० ३७॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालवति-विरचितायां "निशीथसूत्रस्य" चूर्णिभाष्यावरिरूपायां व्याख्यायाम् एकोनविंशतितमोदेशकः समाप्तः॥१९॥
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॥ विंशतितमोद्देशकः व्याख्यात एकोनविंशतितमोदेशकः साम्प्रतमवसरप्राप्तो विंशतितमोदेशको व्याख्यायते, अथात्र विंशतितमोदेशकस्य पूर्वोक्तोदेशकैः सह कः संबन्धः ? इति चेदत्राह भाष्यकारःभाष्यम्-हत्थकम्मं समारम्भ, वायणंतमुदाहियं ।
एत्थ तस्स विसुद्धट्टा, पायच्छित्तं निगज्जइ ॥१॥ छाया-हस्तकर्म समारभ्य, वाचनान्तमुदाहृतम् ।
अत्र तस्य विशुद्धयर्य प्रायश्चित्तं निगधते ॥१॥ अवचूरिः- हस्तकर्म समारभ्य पार्श्वस्थादीनां वाचनादान-ग्रहणपर्यन्तं कुत्सितकर्मप्रकरणं प्रथमोद्देशकादारभ्य एकोनविंशतितमोद्देशकपर्यन्तोदेशकेषु बृहत्कल्पादौ च उदाहृतं कथितम् , तादृशप्रायश्चित्तस्थानानां विशुद्धये विशेषतो न किमपि प्रायश्चित्तं प्रतिपादितमित्त्यत्र विंशतितमे उद्देशके तेषां हस्तकर्मादिवाचनादानग्रहणपर्यन्तचरणविराधकप्रायश्चित्तस्थानानां विशुद्धयंथ प्रायश्चितं तथा प्रायश्चित्तप्रकारश्च निगद्यत्ते-प्रतिपाद्यते, अयमेव सम्बन्धः पूर्वोदेशकैः सह अस्योदेशकस्य भवति, तदनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्य विंशतितमोदेशकस्य प्रथमं सूत्रं व्याख्यायते
सूत्रम्--जे भिक्खू मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं ॥ सू०१॥
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अप्रतिकुच्याऽऽ. लोचयतो मासिकं प्रतिकुच्याऽऽलोचयतो द्वैमासिकम् ।।सू० १॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मासियं' मासिकम्, तत्र मासेन निर्वृत्तं मासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् , तत्र परिहारः- वर्जनम् यद्वा परिहारो वहनं, प्रायश्चित्तस्य, यद्वा परिहियते-परित्यज्यते यो गुरुसान्निध्यात् स परिहारः पापम् , तथा तिष्ठन्ति प्राणिनः कर्मकलुषिता अस्मिन् इति स्थानम्, परिहारश्च स्थानं चेति परिहारस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रकर्षेण तत्सेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् गुरुसमीपे स्वकृतं पापस्थानं प्रकाशयेत् 'जह बालो जंपंतो' इत्यादिरूपेण आलोचयेत् यथा स्वभावतो विशुद्धो बालकः स्वचरितमकपटभावेन पित्रोः पुरतः प्रकाशयति तथैव गुरुसमीपे सर्व प्रकाशयेदित्यर्थः, तत्र मालोचना नाम यथा आत्मना जानाति तथैव गुरोः समीपे प्रकाशनम्. तत्र अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं' अपरिकुच्य आलोचयतो मासिकम् , तत्र परिकुश्चनम्-माया कपटम् , न परिकुच्य इति अपरिकुच्य मायामकृत्वेत्यर्थः, तथा च मायामकृत्वा आलोचयत आलोचना
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निशीथसूत्रे
१२४
स्वपापप्रकाशनरूपां-कुर्वतः श्रमणस्य श्रमण्या वा मासिकं गुरुकं लघुकं वा प्रतिसेवनाsनुसारि प्रायश्चित्तं भवति, पापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा कपटरहितभावेन उपागताय शिष्याय प्रतिसेवनानुसारि लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं गुरुर्दधात् इत्यर्थः । 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं' परिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकम् परिकुच्य द्वैमासकपटम् आलोचयत आलोचनां कुर्वतः शिष्यस्य सिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यादिति । यदत्र मासिकं प्रायश्चित्तं कथितं तत्र मासः पञ्चप्रकारको भवति तद्यथा-नक्षत्रमासश्चन्द्रमास ऋतुमास आदित्यमासोऽभिवद्धि तमासश्च, तत्र नक्षत्रमासः सप्तविंशत्यहोरात्रप्रमाणः तथा एकस्याहोरात्रस्य च एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाश्च (२७३९ एष लक्षणतः परिमाणतश्च नक्षत्रमासः । चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः तथा एकस्याहोरात्र दिनस्य च द्वात्रिंशद् द्वाष. ष्टिभागाश्च (२९-३०)। ऋतुमासः त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (३०)। आदित्यमासः सार्द्धत्रिंशदिनप्रमाणः (३०)। अभिवर्द्धितमासस्तु एकत्रिंशदिनानि, एकस्य च दिनस्य चतुर्विशत्यधिकशतस्खण्डितस्य एकविंशत्यधिक भागशतम् (३१२२१) । उक्तञ्च
एक्कत्तीसं च दिणा, दिणभागसयं तहेक्कवीसं च ।
अभिवढिओ उ मासो, चउवीससरण छेदेण ॥ छाया-एकत्रिंशच्च दिनानि दिनभागशतं तथैकविंशतिश्च ।।
अभिवद्धितस्तु मासः, चतुर्वि शशतेन छेदेन ॥ इति। अत्र तेषां पञ्चानामपि नासानां मध्ये कर्ममासेनाऽधिकारः, तत्र क्रममासः ऋतुमासः त्रिशदिनात्मकः, तपश्चर्यादिकं प्रायश्चित्तं च ऋतुमासेनैव भवति । प्रायश्चित्तदाने ऋतुमासस्यैवाधिकारादिति । अथ यदत्र सूत्रे प्रतिसेवनमशुभकर्मणां कथितं तत् प्रतिसेवनं द्विविधं मूलगुणप्रतिसेवनमुत्तरगुणप्रतिसेवनं च, तत्र पुनर्मूलगुणप्रतिसेवनं पञ्चविधं पञ्चमहावतात्मकम् , उत्तरगुणप्रतिसेवन दशविधम् आलोचनार्ह १-अतिक्रमणार्ह २-तदुभयाई ३-विवेकाह ४-व्युत्साह ५-तपोऽहं ६-छेदाई ७ - मूला ८-नवस्थाप्याई ९-पाराञ्चिक १०-भेदात् । पुनरपि एकैकं द्विविधं द्रव्येण कल्पेन च, इदं प्रति सेवनं कर्मोदयेन भवति, कर्म च प्रतिसेवनया भवति बीजाङ्कुरवत् अनयोः परस्परापेक्षत्वम्, एतादृशप्रतिसेवनस्याऽऽलोचनं द्विप्रकारेण भवति शुद्ध भावेन कपटभावेच, तत्र शुद्धभावेन मालोचयतः शुद्धिर्भवति, कपटभावेन आलोचयतस्तु शुद्धिर्न भवति । तत्र दृष्टान्तो यथा-आसीत् कश्चित् नर्मदातटे निवसन् बुभुक्षया खिन्नः तापसः फलमूलादिकमानेतुं वनं गतवान्, तत्र इस्तत परिभ्रमन् नर्मदातटे कुत्रचित् मृतमत्स्यकलेवरं प्राप्तवान्, प्राप्य तमेवानीय भक्षयित्वा बुभुक्षामपनीतवान् परन्तु मत्स्य
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पूर्णिमाष्यावधिः उ०२० सू०१-३ मासिकादिपापस्थानप्रतिसेविनां प्रायश्चित्तप्रकारः ४३१ भक्षणेन तस्योदरे विकृति ता अजीर्णरोगश्च प्रादुरभूत् , ततः स तापसस्तं रोगमपाक कमपि वैद्य पृष्टवान्-हे वैद्य ! मदुदरे रोगो जातः, वैद्यः प्राह त्वया किं भक्षितम् ? तापसेन कथितम् -फलादिभक्षणं कृतम्, ततो वैद्यः तदनुकूलमौषधं दत्तवान् परन्तु तादृशौषधेन तस्य रोगो न शान्तः । पुनरपि तापसो वैद्यान्तिकं गत्वा प्रोवाच-मदुदराद् रोगो न गतः, ततो वैधः प्राह-भो तापस ! सत्यं वद किं त्वया भक्षितम् , ततः स तापसः कपटरहितः सन् सत्यमेव कथितवान् यन्मया मत्स्यभक्षणं कृतमिति, ततो वैद्यो वमनविरेचनतः रोगस्य निवारणं कृतवान्, तापसः स्वस्थः सबल चापि अभूत् । एवमेव पापस्थानं प्रतिसेव्य यः श्रमणः श्रमणी वा सकपटमालोचयति तस्य शुद्धिर्न भवति क्रयासिद्धिरपि न भवति । अथ यदि मायारहितः आलोचयति तदा स शुध्यति; यथा वैद्यस्त तापसं शुद्धं कृतवान् तथैव वैद्यरूप आचार्यः तापसतुल्यं श्रमणं श्रमणी वा प्रायश्चित्तलक्षणवमनविरेचनादिना शोधयति । अथ च शुद्धः श्रमणः श्रमणी वा जन्मजरामरणरोगरहितोऽनन्तसुखभागी भवतीति ॥१॥
सूत्रम्-जे भिक्खू दामासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोए माणस्स तेमासियं ॥ सू० २॥
छाया-यो भिक्षुः द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकं. परिकुच्य आलोचयतस्त्रैमासिकम् ॥ सू. २॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'दोमासिय' द्वैमासिकम् द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्नं मासद्वयेन निर्वर्तनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापं पापजनकसावधकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य- कुत्सितकर्मणः प्रतिसेवनां कृत्वेत्यर्थः 'आलोएज्जा' आलोचयेत् - आलोचनां कुर्यात् तत्र 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य आलोचयतः, तत्रापरिकुच्य-मायामन्तरेणैव शुद्धान्तःकरणेन आलोचयत आलोचनां कुर्वतः गुरुसमीपे प्रायश्चित्तस्थानं प्रकाशयतः श्रमणादेः 'दोमासियं द्वैमासिकं-लघुकं गुरुक वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दद्यात् , 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स' परिकुच्य आलोचयतः, तत्र परिकुष्य सकपटमालोचयतः आलोचनां प्रायश्चित्तं कुर्वतः श्रमणादेः 'तेमासियं' त्रैमासिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् गुरुः, प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्याधिकस्य प्रक्षेपात् । अयं भावः-यदि कोऽपि श्रमणः श्रमणी वा द्वैमासिकं प्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्य शुद्धभावेन गुरुसमीपे प्रायश्चित्तमभिलषति तदा गुरुः तादृशशिष्याय द्वैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् , अथ यदि सकपटमालोचयति तदा त्रमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात्-मायाप्रयुक्तमासाधिकस्याऽऽवश्यकत्वात् । उदाहरणादिकं पूर्वसूत्रवदेव बोद्धव्यमिति ॥ सू० २ ॥
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४३२
निशीथसूत्रे सूत्रम्--जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलो. एज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिचिय, आलो एमाणस्स चाउम्मासियं ॥ सू० ३ ॥ ___छाया- यो भिक्षुः त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः त्रैमासिकम् परिकुच्य आलोचयतश्चातुर्मासिकम् ॥ सू० ३ ॥
चूर्णी- 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'तेमासिय' त्रैमासिकम्-मासत्रयेण निर्वर्तनयोग्यम् मासत्रयसंपाद्यमित्यर्थः 'परिहारहाणं परिहारस्थानम्-पापं पापजनकं वा सावद्यकर्मानुष्ठानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रकर्षेण सेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-स्वकृतसावद्यकर्मणो गुरुसमीपे आलोचनां दद्यात् , तत्र च 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य-आलोचयतः- मायामकृत्वा शुद्धभावेन गुरुसमीपे स्वकीयं पापं निवेदयित्वा पापस्थानमालोचयतः 'तेमासियं' त्रैमासिकं प्रायश्चित्तं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दधादिति । 'पलिउंचिय' परिकुच्य-मायापूर्वकम् 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः श्रमणादेः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम्-मासचतुष्टयेन निवर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यात् , इति । अयं भावः-मासिकपापस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा यदि कश्चित् श्रमणः श्रमणी वा स्वकीयपापनिवारणाय गुरुसमीपे शुद्ध मनोभाबेन प्रायश्चित्तमिच्छेत् तदा गुरुस्तादृशशिष्याय त्रैमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि दद्यात् । अथ यदि कदाचित् मायापूर्वकमालोचयितुमिच्छेत्तदा गुरुः प्रतिसेवनानुसारि चातुर्भासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात्-मायादण्डरूपेण मासाधिक्यं वदेत् । अत्रायं दृष्टान्तः-अस्तिकस्यचिद्राज्ञोऽतीव वल्लभः एकः सेनापतिः, स च सङ्ग्रामे विविधशस्त्रेणाहतः तच्छरीरे अनेकानि शल्यानि प्रविष्टानि तेन दुर्बलः स वैद्यमाहूतवान् , आहूय च स्वस्यास्वास्थ्यकारणं प्रोवाच, ततो वैद्यो निर्दिष्ट स्थानात् शल्योद्धरणं कृतवान् परन्तु स स्वस्थो नाभूत् प्रतिदिनं दुर्बल एव भवति, शल्यनिष्कासनसमये शल्यपीडया पीडितः एक शल्यस्थानं न दर्शितवान् तेन स्वस्थो नाभूत् शल्यस्य शरीरे विद्यमानत्वात् , तष्ठल्यं शरीरान्तर्विद्यमानं तस्य स्वस्थतायां प्रतिबन्धकम् अत एव स दुर्बल एव भवति, पुनरपि वैद्यमाहूतवान् , आहूय च अवशिष्टशल्यस्थानं दर्शितवान, ततो वैद्यः शल्यं निष्कासितवान् तेन योधः स्वस्थो जातः । एवं वैद्यस्थानीय आचार्यः योधस्थानीयश्रमणादेः पापरूपं शल्यं प्रायश्चित्तद्वारा निष्कास्य ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणं बलं संपादयति तस्मात् शुद्धभावेनाऽऽलोचनां कुर्यात् न तु कपटपूर्वकमालोचयेत् , यदि कपटभावेनालोचयेत् तदा कपटापराधनिमित्तक मासाधिक्यं प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यादिति ॥ सू० ३ ॥
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पूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० सू०४-६ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४३३
सूत्रम्-जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥ सू० ४ ॥
छाया-यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्-अपरिकुच्यालोचयतः चातुर्मासिक परिकुच्य आलोचयतः पाञ्चमासिकम् ॥ सू० ४ ॥
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'चाउम्मासियं चातुर्मासिकम्-चातुर्मासेन चतुर्भिः मासैः निर्वर्तनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-आलोचनांकर्तुमभिलपेत् 'अपलिउंचिय' अपरिकुच्य-मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः-- आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'चाउम्मासियं' चातुर्मासिकम् चतुर्भिर्मासैः संपादनयोग्यम् लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारेण दद्यात् 'पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं' परिकुच्याकोचयतः पाञ्चमासिकम्, तत्र परिकुच्य मायापूर्वकमालोचनां कुर्वतः पाञ्चमासिकम्-मासपञ्चकेन निर्वर्तनयोग्यं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं गुरुर्दद्यादिति । अयं भावः-यत्रैवापराधे मायारहितस्य शिष्यस्य श्रमणस्यान्यस्य वा चातुर्मासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं भवति तत्रैवापराधे मायासहितस्य पाञ्चमासिकं लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारि प्रायश्चित्तं दद्यात्, मासाधिक्यस्य मायाप्रयोज्यत्वात् । अत्र मालाकारयोदृष्टान्तः- एकस्मिन्नगरे द्वौ मालाकारौ निवसतः । तत्रैकेन वसन्तसमये बहूनि पुष्पाणि आनीय विधिना स्थापितानि, तानि दृष्ट्वा क्रयका उपतिष्ठन्ति । उपस्थितेषु तेषु क्रयकेषु माला निर्मिता । तैत्विा मालाक्रेतृभिः तस्मै बहु मूल्यं दत्तं पुष्कलो लाभो जातः । अपरेण न पुष्पाणि आनीतानि, नैव च माला निर्मिता अतस्तत्समीपे न कोऽपि क्रेता आगतः, न तेन कोऽपि लाभो लब्धः । एवं यो मूलगुणोत्तरगुणापराधान् न प्रकटयति स शुद्धिं निर्वाणलाभं च न लभते इति ॥ सू० ४ ॥
सूत्रम्-जे भिक्खू पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥ सू० ५॥
छाया-यो भिक्षुः पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्यालोचयतः पाञ्चमासिकं परिकुच्य आलोचयतः पाण्मासिकम् ।। सू० ५ ॥
५५
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४३४
निशीथसूत्रे
चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः निरवद्यभिक्षणशीलः अष्टविधकर्मक्षपको वा 'पंचमासियं पाञ्चमासिकम् - पञ्चभिर्मासैर्निवर्त्तन योग्यम् ' परिहारद्वाणं' परिहारस्थानम्–पापस्थानम् ‘पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य तत्प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' मालोचयेत् आलोचनां कुर्यात् तत्र 'अपलिउंचिय' अपरिकुध्य- मायामकृत्वा 'आलोएमाणस्स' आलोचयतः 'पंचमासिय' पाञ्चमासिकं - लघुकं गुरुकं वा प्रायश्चित्तं प्रतिसेवनानुसारि गुरुर्दधात् । 'पलिउंचि आलोएमाणस्स' परिकुच्य - मायां कृत्वा आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'छम्मासिय' षाण्मासिकम् - लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनाऽनुसारि प्रायश्चित्तं गुरुभिर्दातव्यमिति । षाण्मासिकप्रायश्चित्तविषये परिकुञ्चके मेघदृष्टान्तः यथा शरत्कालिको मेघो गर्जनं कृत्वा नो वर्षति, एवं हे शिष्य ! स्वमपि आलोचयामीत्येवं प्रकारेण प्रतिज्ञां कृत्वा आलोचयितुं नारब्धवानसि तत्र यदि मायां करिष्यसि तदा प्रतिज्ञाभ्रष्टो भविष्यसि अतः सम्यगालोचय इति । तत्र द्वैमासिकादि - परिहारस्थानेषु मायापूर्वकालोचके यथाक्रममिमे दृष्टान्ताः संभवन्ति तद्यथा - द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य प्रतिकुश्चकस्य दृष्टान्तः तापसः १, त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य योधो दृष्टान्तः २, चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मालाकारो दृष्टान्तः ४, पाश्चभासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य मेो दृष्टान्तः ५ । तत्र प्रतिकुश्ञ्चनायां कृतायाम् 'सम्यगालोचय मा प्रतिकुश्चनां कुरु' एवमुपलब्धो यदि वदेत् भगवन् ! नो कुप्यतु सम्यगालोचयामि । ततः स श्रुतव्यवहारी गुरु: वारत्रयमालोचनां शृणुयात् । तत्र त्रिभिर्वारैर्यदि सदृशमालोचयति तदा ज्ञातव्यं यदयं सम्यकू प्रतिक्रान्त इति तदनन्तरं यद्देयं प्रायश्चित्तं तद्दातव्यमिति । अथ यदि विसदृशमालोचयति तदा यथायोग्यमधिकाधिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् यावत् षाण्मासिकमिति ॥ सू० ५ ॥
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सूत्रम् — तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चैव छम्मासा || सू० ६ ॥
छाया- - ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते पत्र षण्मासाः ॥ सू० ६ ॥
चूर्णी - पाश्चमासिकपरिहारस्थानसूत्राणि कथयित्वा षाण्मासिकपरिहारस्थानविषये प्राह'तेण परं' इत्यादि । 'तेण परं' ततः परम् ततोऽनन्तरम् पाश्चमासिकात् परिहारस्थानात् परम्-आलोचनाकाले 'पलिउंचिए वा' परिकुञ्चिते वा - मायासहिते वा 'अपिलउंचिए वा ' अपरिकुञ्चिते वा मायारहिते वा मायापूर्वकममायापूर्वकं वा आलोचिते इत्यर्थः 'ते चेव छम्मासा' ते एव - षण्मासाः त एव प्रतिसेवनानिष्पन्ना एव षण्मासाः षडेव मासा नाधिकं प्रतिकुश्चनानिमित्तमारोपणं वर्त्तते तदधिकप्रायश्चित्तस्य अभावादिति ॥ सू० ६ ॥
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पूर्णिभाध्यावरिः उ० २०२०७-१४ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः४३५
सूत्रम्--जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं पलिउंचिंय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥ सू०७॥
__ छाया-यो भिक्षुः बहुशोऽपि मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतो मासिकं परिकुच्य आलोचयतो द्वैमासिकम् ।। सू०७ ॥
चूर्णी-'जे भिक्खू' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'बहुसोवि' बहुशोऽपि, अत्र बहुत्वं त्रिभृतिकं विज्ञेयम् । ततः त्रिप्रभृति वारत्रयमपि मासिकं परिहारस्थानं सेवित्वा ऋजुभावेन मालोचयतो मासिकमेव, कपटभावेन आलोचयतस्तु द्वैमासिकमिति ।। सू० ७॥
___ एवमग्रे 'बहुसोविदोमासियं' ॥ सू०८ ॥ 'बहुसोवि तेमासियं०' ॥ सू०९ ॥ 'बहुसोबि चाउम्मासियं० ॥सू० १०॥ 'बहुसोवि पंचमासियं ॥ स०११॥ इति चत्वारि सूत्राणि वाच्यानि । एषां चतुर्णामपि सूत्राणामनयैव रीत्या यथायोगं व्याख्याऽपि कर्तव्या ॥ सू०८-११॥
सूत्रम्-तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ छाया-ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते पव षण्मासाः ॥ सू० १२॥ चूर्णी-- 'तेण परं' इत्यादि । 'तेण परं' ततोऽनन्तरं पाण्मासिके परिहारस्थाने प्रतिसेविते आलोचनाकाले 'पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा परिकुञ्चनया वा अपरिकुञ्चनया वा आलोचिते इत्यर्थः 'ते चेब' ते एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः 'छम्मासा' षण्मासाः नाधिकमप्रतिकुञ्चनाप्रतिकुञ्चनानिमित्तमारोपणमिति ॥ सू० १२॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा एएसि परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिचिए वा ते चेव छम्मासा
___ छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतम परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः मासिकं वा द्वैमासिक वा त्रैमासिक वा चातुर्मासिकंवा पाञ्चमासिक घा परिकुच्य आलोचयतः द्वैमासिक वा त्रैमासिक वा चातुर्मासिक वा पाञ्चमासिक वा पाण्मासिक वा ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ॥ स० १३ ॥
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४३६
निशीथसुत्रे
'चूर्णी - 'जे भिक्खू' इत्यादि । स्पष्टं पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् ॥ सू० १३ ॥ सूत्रम् — जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि तेमासि वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा एएस परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा || सू० १४ ॥
छाया - यो भिक्षुः बहुशोऽपि मासिक वा बहुशोऽपि द्वैमासिक वा बहुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुशोsपि चातुर्मासिक वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिक वा पतेषां परिहारस्थानानां अन्यतरत् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अप्रतिकुच्य आलोचयतः मासिक' वा द्वैमासिक वा त्रैमासिक वा चातुर्मासिक वा पाञ्चमासिक वा प्रतिकुन्य आलो. यतः द्वैमासिक वा त्रैमासिक वा चातुमासिक वा पाञ्चमासिक वा षाण्मासिकं वा ततः पर परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ॥ सू० १४ ॥
चू--' जे भिक्खू' इत्यादि । अस्याप्यर्थः पूर्ववदेव व्याख्येयः ॥ सू० १४ ॥
सूत्रम् - जे भिक्खु मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासिय वा साइरेगचाउम्मा सियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा एएसि परिहारट्ठाणाणं अण्णय रं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासिय वा साइरेगदोमासि वा तेमासियं वा साइरेगते मासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमसियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमा सियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलि उंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० १५॥
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चूर्णिभाष्यावरिःउ० २० सू०१५-१६ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४३७
छाया-यो भिक्षुर्मासिक वा सातिरेकमासिक वा द्वैमासिक वा सातिरेकदै मासिक वा त्रैमासिक वा सातिरेकत्रैमासिक वा चातुर्मासिक वा सातिरेकचातुमासिक वा पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत्-अपरिकुष्य मालोचयतः मासिकं वा सातिरेकमासिकं वा द्वैमासिकं वा सातिरेकद्वैमासिक वा त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकं वा चातुमासिक वा सातिरेकचातुमासिक या पाश्चमासिक वा सातिरेकपाञ्चमासिक वा परिकुच्य आलोचयतः द्वैमासिकं वा सातिरेकद्वैमासिक वा चातुर्मासिक वा सातिरेकचातुर्मासिकंवा पाञ्चमोसिक वा सातिरेकपाञ्चमासिक वा पाण्मासिक वा ततः पर परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ॥ सू०१५॥
चूर्णी-जे भिक्खू इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा, नवरम् ‘सातिरेक' मिति पूर्वोक्तादधिक व्याख्येयम् । सू० १५ ॥
सूत्रम्--जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसा वि साइरेगमसियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुतोवि साइरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहार ट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स बहुसोवि मासिय वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा पलिउंचिय
आलोएमाणस्स बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपमासियं वा बहुसोवि छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलि उचिए वा ते चेव छम्मासा ॥ सू० १६॥
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निशीथसूत्रे
छाया - यो भिक्षुर्बहुशोऽपि मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं वा बहुशोsपि द्वैमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिकं वा बहुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेक त्रैमासिक वा बहुशोऽपि चातुर्मासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुमासिक वा बहुशोsपि पाञ्चमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिक वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः बहुशोपि मासिकं वा बहुशोपि सातिरेकमासिक वा बहुशोऽपि द्वैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिकं या बहुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिकं वा बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पाञ्च मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिक वा परिकुच्य आलोचयतः बहुशोऽपि द्वैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिक वा बहुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिक वा बहुशोवि चातुर्मासिक वा बहुशोपि सातिरेकचातुर्मासिक वा बहुशोऽपि पाञ्च मासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा बहुशोऽपि षाण्मासिक वा ततः परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते एव षण्मासाः ॥ सू०१६ |
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चूर्णी 'जे भिक्खू' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा, नवरम् - बहुश इति त्र्यादिप्रभृत्यनेकवारमिति वाच्यम् । अत्र शिष्यः प्रश्नयति-सूत्रे यदुक्तम् - षाण्मासिकप्रायश्चित्तादुपरि '.... ते चैव छम्मासा' ते एव षण्मासाः नाधिकमिति, तत् कुतो नाषिकं प्रायश्चित्तं वर्त्तते यथा मासिक परिहारस्थानप्रतिसेवनानिमित्तकप्रायश्चित्तावसरे सकपटस्य द्वैमासिकप्रायश्चित्तविधानं कृतम् तथा षण्मासप्रायश्चित्तावसरे सकपटस्य सप्तमासादिकं वक्तव्यम् किन्तु तथा न कृत्वा षण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तं प्रतिकुञ्चनाया अवतिकुञ्चनायाश्च विहितम् । एवमेव ' बहुसोवि मासि' इत्यादिसूत्रेष्वपि षण्मासावधिकमेव प्रायश्चित्तदानं विहितं तदत्र किं कारणम् इति चेत् अत्रोच्यतेसत्यम्, षण्मासादधिकं प्रायश्वित्तं प्रतिकुञ्चिताय वक्तव्यम् किन्तु इह जीतकल्पोऽयम् । अयं भावः यस्य तीर्थकरस्य ऋषभादेः यावत्प्रमाणकम् उत्कृष्टं तपःकरणम्, तस्य तीर्थकरस्य शासनेऽन्यसाधूनामुत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं तावत्प्रमाणकमेव न ततोऽधिकं कदाचिदपि दातव्यं भवेत्, ततोऽन्तिमतीर्थकरस्य भगवतो महावीरस्वामिन उत्कृष्टं तपः षाण्मासिकम्, ततो महावीरस्वामिनः शासने सर्वोत्कृष्टं प्रायश्चित्तदानं षाण्मासिकमेवेति बोध्यम् ।
तीर्थकर ऋषभदेलस्वामिनः शासने द्वादशमासिकं प्रायश्चित्तमासीत् भगवता आदिनाथेन द्वादशमासिकतपसः समाचरितत्वात् । मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकराणां शासने तु अष्टमासिकमेव प्रायश्चितम् तत्र तपःकरणस्य तथाप्रमाणत्वात् इति । अत्र महावीरशासने तु षाण्मासिकपरिहारस्थान प्रतिसेवनयाऽपि आलोचनां कुर्वतो नाधिकमारोपणम्, अतस्तदेव - षाण्मासिकमेव प्रायश्चित्तं नाधिकमिति, अत्राह भाष्यकार:--
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पूर्णिमा यावचूरिः उ० २० सू०१७ मासिकादिपरिहारस्थानतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४३९ भाष्यम्- एसा रीई आरिय,-गणहरमाइहिं भासिया मुत्ते ।
पंच गमा णायब्वा, बहुसोवि य सेवणाविसए ॥ छाया--एषा रीतिः आर्यगणधरादिभिर्भाषिता सूत्रे ।
पञ्च गमा ज्ञातव्याः, बहुशोऽपि च सेवनाविषये ॥ अवचूरिः -- 'एसा' एषा-पूर्वोक्तसूत्रप्रोक्ता 'रीई रीतिः प्रकारः 'आरियगणहरमाइहिं' आर्यगणधरादिभिः तीर्थकरगणधरादिभिः 'मुत्ते' सूत्रे-आगमे 'भासिया' भाषिताप्ररूपिता, कुत्र विषये ? इत्याह–'बहुसोवि य सेवणाविसए' बहुशोऽपि-बहुवारानपि सेवनाविषयेसेव्यमानपापस्थानविषये 'पंच गमा' पञ्च गमाः-सूत्रप्रकाराः 'णायव्वा' ज्ञातव्या इति । अयं भाव:प्रायश्चित्तदानं च द्रव्यक्षेत्रकालभावाद्याश्रित्य सेवितुः परिणामविशेषं च विचिन्त्यैव भवति, यथाअनेन द्रव्यक्षेत्रादिविषये कीदृशं कारणविशेषमाश्रित्य पापस्थानं सेवितमित्यादि, तथा-पापस्थानसेवनसमयेऽस्य कीदृश आत्मपरिणाम आसीदित्यादि, तथा प्रतिसेवकस्य-ऋजुजड-वक्रजडादित्वमपि विचारणीयं भवेत् , गीतार्थागीतार्थत्वादिकम् आभोगानाभोगादिकं च भावनीयं भवेत् , इत्याधनेककारणानि विभाव्यैव तीर्थकरगणधरादिभिरेषा रीतिः प्ररूपितेति नात्र किमपि शङ्कास्थानं तेषामनन्तज्ञानित्वादिति ॥ सू०१६॥
सूत्रम्-जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा एएसि परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं गविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुन्विं पडिसेवियं पुब्बिं आलोइयं १ पुब्विं पडिसेवियं पच्छा आलो इयं २ पच्छापडिसेवियं पुब्बिं आलोइयं ३ पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, अपलिउचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जं एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवेइ से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१७॥
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४४०....
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निशीथसत्रे
छाया-यो भिक्षुर्मासिकं वा सातिरेकमासिकं वा द्वैमासिकं वा सातिरेकद्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिक वा पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अपरिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्त्यं स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोपयितव्यं स्यात् , पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४, अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् १, अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् २, परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् ३, परिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् ४; भपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितमालोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य यत् एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः सन् प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोपयितव्यं स्थात् ॥ सू० १७ ॥
चूर्णी-यः खलु प्रायश्चित्तकरणसमये पुनरपि पापस्थानं प्रतिसेवते तमधिकृत्य सूत्रमिदं प्रवर्तते-'जे भिक्ख' इत्यादि । 'जे भिक्खू' यः कश्चिद्भिक्षुः श्रमणः श्रमणी वा 'मासियं वा मासिकं धा 'साइरेगमासियं वा' सातिरेकमासिकं वा किञ्चिदधिकैकमासेन संपादितम् , एवं द्वैमासिकं वा सातिरेकद्वैमासिकं वा, त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकं वा, चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा अतिरेकेणाऽधिकेन पञ्चदिनाद्यधिकेन सहितं चातुर्मासिमिति सातिरेकचातुर्मासिकम् , एवम् 'पंचमासियं वा' पाञ्चमासिकं वा 'साइरेगपंचमासियं वा' सातिरेकपाञ्चमासिकं वा मासपञ्चकात् किञ्चिदधिकं परिहारस्थानम् ‘एएसि' एतेषां पूर्वोक्तानाम् 'परिहारद्वाणाणं' परिहारस्थानानां मध्यात् 'अन्नयरं' अन्यतमं यत् किमपि अन्यतममेकं 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम् प्रायश्चित्तस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य उपर्युक्तपापस्थानमध्यात् यस्य कस्याप्येकस्य परिहारस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत् तादृशपापस्थानं प्रकटीकुर्यात् , तत्र 'अपलिउंचिय आलोएमाणस्स' अपरिकुच्य मायामकृत्वाssलोचयतः आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः । इदं खल्लु सूत्रं परिहारनामकप्रायश्चित्ततपसः प्रतिपादकम् अतस्तस्य परिहारनामकतपसो विधिमाह-'ठवणिज्ज' इत्यादि, 'ठवणिज्ज ठावइत्ता' स्थापनीयं स्थापयित्वा, तत्र अपरिकुच्यालोचयतः परिहारतपसो दानसमये आचार्यः तस्मै तादृशं विधिमुपदर्शयति-यः खलु प्रतिसेवकः परिहारतपसः प्रायश्चित्तस्थानं प्राप्तवान् स परि. हारनामकतया ग्रहणाय सर्वेषां श्रमणश्रमणोजनानां परिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गनिमित्तकं कायोत्सर्ग पूर्व करोति तस्य प्रतिसेवकस्य कायोत्सर्गकरणानन्तरम् आचार्यः प्रतिसेवकं प्रति कथयति त्वं परिहारी, अहं कल्पस्थितोऽतो यावत्तव तपः पूर्ण भविष्यति तावदहं वाचनादिरूपं साहाय्यं करिष्यामीति, अन्यो वाऽनुपारिहारिकस्तव वाचनादिसाहाय्यं करिष्यति, अन्यो वाऽनुपारिहारिकस्तव वैयावृत्यं करिष्यति, इत्येवंरूपेण 'ठवणिज्ज' स्थापनीयम्-साहाय्याद्यर्थस्थाप
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चूर्णिभाष्यावचूरिः उ० २० सू०१७ मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः ४४१ नयोग्यम् - अनुपारिहारिकं पारिहारिकानुकूलवत्तिनं कञ्चित्साधुम् 'ठवइत्ता' स्थापयित्वा - नियतं "कृत्वा अनुपारिहारिकेण वैयावृत्यकारेण च 'कर णिज्जं वेयावडियं' करणीयं वैयावृत्त्यम्, अस्य परिहारतपसि वर्तमानस्य यथायोग्यमनुशिष्टयुपालम्भोपग्रहलक्षणं वैयावृत्यं करणीयम् | 'ठाविएवि पडिसेवित्ता' स्थापितेऽपि-अनुशिष्ट्युपालम्भादिभिः क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये प्रतिसेविता कदाचित् किमपि अपराधस्थानं प्रतिसेवको भवेत् पापस्थानं सेवेत कथयेच्च हे भगवन्! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततस्तस्य 'सेवि' तदपि तत्संबन्ध्यपि प्रायश्चित्तम् 'कसिणे' कृत्स्नम् सबै पूर्वसेवितं सम्प्रति सेवितं चेति द्वयमपि 'तत्येव' तत्रैव परिहारतपस्येव 'आरुहियव्वे सिया' आरोपयितव्यं स्यात् सर्वं संमेलनीयमित्यर्थः, अत्र पापस्थानस्य पूर्वपश्चात्सेवनाविषयां चतुभङ्गीं दर्शयितुमाह- 'पुव्वि' इत्यादि, 'पुव्वि पडिसेवियं पुवि आलोइयं' पूर्व प्रतिसेवितं - पूर्वमालोचितम् १, अत्र पूर्वमित्यत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पूर्वानुपूर्व्या इति ज्ञातव्यम्, ततश्चायमर्थः-- गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वानुपूर्व्या लघुपश्चकादिक्रमेण यत् प्रतिसेवितम् तत् पूर्वं पूर्वानुपूर्व्या प्रतिसेवनानुक्रमेण आलोचितमिति प्रथमो भङ्गः १ । द्वितीयभङ्गमाह - 'पुव्वि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पूर्वं प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् - पूर्वं गुरुलघुपर्यालोचनया पूर्वानुपूर्व्या मासलघुकादि प्रतिसेवितम् तदनन्तरं च तथाविधाल्पप्रयोजनोत्पत्तौ प्रमादादिना गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपचकादि प्रतिसेवितम् आलोचनासमये च पश्चात् - पश्चानुपूर्व्या आलोचितम् - यथापूर्व लघुपञ्चकायालोचितम् पश्चात् लघुमासिकादिकमालोचितमिति द्वितीयो भङ्गः २ । अथ तृतीयभङ्गं दर्शयितुमाह- 'पच्छा पडिसेवियं' इत्यादि 'पच्छा पडिसेवियं पुवि आलोइयं' पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम्, तत्र पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्व गुरुमासादिकं प्रतिसेवितम् पश्चात् लघुपञ्चकादीति आलोचनासमये आनुपूर्व्या नालोचितम् पूर्व लघुपञ्चकाद्यालोचितम् पश्चात् तदनन्तरं गुरुमासादिकमालोचितमिति तृतीयो भङ्गः ३ । अथ चतुर्थभङ्गमाह - 'पच्छा पडिसेवियं' इत्यादि । 'पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं' पश्चात्प्रतिसे वितं पश्चादालोचितम्, तत्र पश्चानुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनादिविरहितं यथाकथंचन प्रतिसेवितमिति पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितं प्रतिसेवनानुक्रमेणैव आलोचितम्, अथबा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथंचनापि आलोचितमिति चतुर्थो भङ्गः ४ । अत्र प्रथमचतुर्थभङ्गौ अप्रति कुञ्चनायाम्, द्वितीयतृतीयभङ्गौ तु प्रतिकुश्ञ्चनायामिति अप्रतिकुश्चित - प्रतिकुञ्चिताभ्यामियं चतुर्भङ्गीकृतेति । तामेव अप्रतिकुचि अप्रतिकुञ्चितम् इत्येतद्विषयां चतुर्भङ्गीं दर्शयितुमाह- 'अपलिउंचिए अपउिंचियं' इत्यादि, 'अपलिउंचिए अपलिउंचियं' अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम, यदा स्खलु अतिचारान् प्राप्तवान् आलोचनाकाले मालोचनाभिमुखो भवेत्तदा स एवं संकल्पयति यथा ये केचन मयि अतिचाराः जातास्ते सर्वेऽपि अतिचारा मया आलोचनीयाः न कोऽपि गोप
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निशीथसू
नीयः एवं पूर्वसंकल्पकाले अप्रतिकुचिले आलोचना समये अप्रतिकुंचितमेव आलोचयतीति प्रथमो
१ अथ द्वितीयभङ्गमाह--अप लिउत्रिए पलिउंचियं' इति, 'अपलिउंचिए पलिउंचिय' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुचितम् यथा- पूर्व संकल्पकाले आलोचनाविचारकाले अप्रतिकुञ्चितम् - निष्कपभावेन समुपस्थितः आलोचनासमये तु प्रतिकुञ्चितं कपटभावेन आलोचयतीति द्वितीयो भङ्गः २, अथ तृतीयभङ्गमाह 'पलिउंचिए अपलिउंचिथं' प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् पूर्वसंकल्पकाले प्रतिकुञ्चितम् यथा मया न सर्वे अतिचारा आलोचनीयाः एवंप्रकारेण वूर्वसंकल्पकाळे प्रतिकुञ्जिते आलोचनासमये अन्तःकरणस्य परावर्तनात् अप्रतिकुञ्चितम् - कपटरहितं यथा स्यात् तथा आलोचयतीति तृतीयो भङ्गः ३ । अथ चतुर्थभङ्गमाह - 'पलिउंचिए पलिउंचियं' प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् पूर्वसंकल्पकाले पापस्थान्प्रतिसेवकेन प्रतिकुञ्चितं यथा मया न सर्वे अपराधा आलोचनीयाः, तत एवंप्रकारेण संकल्पकाले प्रतिकुंचिते ततः आलोचनाकरणसमयेऽपि प्रतिकुचितं कपटमेव आलोचयतीत्येष चतुर्थो भङ्गः ४ । एषु चतुर्षु भङ्गेषु मध्ये यत् 'अपळिउंचिए अपलिउचियं अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुचितम् पूर्व संकल्पकाले निष्कपटेन संकल्पितम् आलोचना ग्रहणकालेऽपि निष्कपटपूर्वकम् 'आलो एमापस्स' आलोचयतः, ततश्चायमर्थः - यावन्तोऽतिचाराः प्रतिसेविताः तान् सर्वानेव निरवशेषमालोचयतः श्रमणादे: 'सव्वमेयं' सर्वमेतत् यत् यदा यत्तदपराजातम्, यदि वा कथमपि प्रतिकुञ्चता कृता स्यात् ततः प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नं यच्च गुरुणा सहालोचनाकाले उच्चासन तुल्यासनोपवेशनादिजनितं तथा याच आलोचनासमये असमा चारी सेविता तन्निष्पन्नं च सकलमेतत् अपराधकारिणा प्रायश्चित्त प्रतिसेवकेन श्रमणादिना 'सक्रयं' स्वकुलम् - स्वयमेव आत्मना प्रतिसेवितम् आत्मनैव कृतम् 'साहणिय' संहृत्य - एकत्र मील मिल्ला, तथा पुनश्च 'जं एयाए' यत् एवया अनन्तरपूर्वकथितया षाण्मासिक्या एकमासिकादिक्रया वा 'पट्टवणार' प्रस्थापनया पूर्वकाले कृतस्यातिचारस्य विषये या प्रस्थापना प्रायचित्तदानरूपा तथा प्रस्थापनमा 'पट्टविए' प्रस्थापितः - प्रायश्चित्त करणे नियोजितः 'निव्विसमाणे' निर्विशमान: तपसो निस्सरन् प्रायश्चित्तस्य चरमं तपः सेवमानः तपः समाप्य ततो निवर्त्तयनित्यर्थः यत् पुनः प्रमादतो विषयकषायादिभिर्वा 'पडि सेवई' प्रतिसेवते - पापस्थानस्य प्रतिसे वनां करोति तस्यां प्रतिसेवनायां यत् प्रायश्चित्तं प्राप्यते 'सेवि कसिणे' तदपि कृत्स्नम् - तदपि सबै प्राश्चित्तम् 'तत्येव' तत्रैव पूर्व प्रस्थापिते एव प्रायश्चित्ते 'आरुहियन्त्रे सिया' आरोपयितव्यं स्यात् सर्वमेकत्र संमेलनीयमित्यर्थः ।। सू० १७ ॥
सूत्रम् — जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा, बहुसोवि साइरेगमान्सियं वा बहुसोवि दोमासि वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा
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पणिभाष्यावचूरिःउ० २८ सू०१८-२० मासिकादिपरिहारस्थानप्रतिसेवनप्रायश्चित्तविधिः शर बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासिय वा बहुसोवि चाउम्मासिय वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पर्चमासिय वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारठाणाणं अण्णायर परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलि उंचिय आलोएमाणस्स ठाण ज्ज अवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं अविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुष्वं आलोइयं १, पुव्वं पतिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलि अचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलि उंचियं ४। अपलिउंचिए अपलिंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेय सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए निविसमाणे पडिसेवा सेविकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया॥ सू० १८॥
जे भिक्खु मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासिय वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासिय वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलि. उंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वैयविडियं ठोविएँ विपडिसेवित्ता सेविकसिणे तस्थेव आरहियव्वे सिया, पुचि पडिसेचियं पुचि आलोइयं १, पुब्बि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छापडिसेंक्यिं पुचि आलोइयं ३, पच्छापडिसेवियं पच्छाआलोइयं४, अपलिउंचिए अपलिचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिंचिए अपलिचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४, पलिउंचिए पलिउँचिये आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए णिव्विसमाणे पडिसेवइ से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥ सू० १९॥
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निशीथसत्रे जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसावि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासिय वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलाएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता कर्रागज्जं वेयावडियं ठाविएवि पडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुचि पडिसेवियं पुब्बि आलोइयं १, पुब्बि पडिसेवियं पच्छा आलाइयं २, पच्छा पटिसेवियं पुचि आलाइयं ३, पच्छापडिसेवियं पच्छा आलाइयं ४ । अपलिउंञ्चिए अपलिउंचियं १, अपलिंचिए पलिउंचियं २, पलिउचिए अपलिउंचिंय ३, पलिउच्चिए पलिउचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सबमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टबिए निविसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वेसिया॥ सू० २०॥
छाया -यो भिक्षुर्बहुशोऽपि मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं वा, बहुशोऽपि वैमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिकं वा, बदुशोऽपि त्रैमासिक वा बहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिकं वा बहुशोऽपि चातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुमासिकं वा बहुशोऽपि पाश्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाश्चमासिकं वा, पतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अप्रतिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यम्, स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात् प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचि. तम् ४। अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् १, अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् २. परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् ३, परिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् । अपरिकुञ्चिते, अपरिकुञ्चितम् आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० १८ ॥ । यो भिक्षुर्मासिक वा सातिरेकमासिकं वा द्वैमासिकं वा सातिरेक द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा सातिरेकत्रैमासिकंवा चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा पाज्यमासिकं वासतिरे
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चूर्णि भाष्यावचूरिः उ० २० सू०२१
परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४४५
कपाञ्च मासिकं वा पतेषां परिहारस्थानानाम् अन्यतमं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् परिकुच्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करणीयं वैयावृत्यं, स्थापितेऽपि प्रति सेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्थात्, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम्), पूर्व प्रतिसेतितं पश्चादालोचितम् २, पश्चात्प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् ३ पश्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुञ्चितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् २, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ३, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४ । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुचितमालोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य पतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० १९ ॥
यो भिक्षुर्वशोऽपि मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकमासिकं वा बहुशोऽपि द्वैमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकद्वैमासिकं वा बहुशाऽपि त्रैमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकत्रैमासिकं वा बहुशोsपि चातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बहुशोऽपि पाञ्चमासिकं वा बहुशोऽपि सातिरेकपाञ्वमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमम् परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् प्रतिकुव्य आलोचयतः स्थापनीयं स्थापfear करणीयं वैयावृत्यं स्थापितेऽपि प्रतिसेव्य तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् पूर्वं प्रतिसेवितं पूर्वमालोचितम् १, पूर्व प्रतिसेवितं पञ्चादालोचितम् २, पञ्चात्प्रति सेवितं पूर्वमालोचितम् ३, पञ्चात्प्रतिसेवितं पश्चादालोचितम् ४ । अप्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुचितम् १, अप्रतिकुञ्चिते प्रतिकुबितम् २, प्रतिकुञ्चिते अप्रतिकुचितम् 3, प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितम् ४ । प्रतिकुञ्चिते प्रतिकुञ्चितमालोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहृत्य य एतया प्रस्थापनया प्रस्थापितो निर्विशमानः प्रतिसेवते तदपि कृत्स्नं तत्रैव आरोहयितव्यं स्यात् ॥ सू० २०॥
चूर्णी - इदं सूत्रत्रयं (१८ - १९-२० ) बहुशः सातिरेकेति संयोगरूपं प्रायश्चित्तारोपणाविषयकं बहुशः सातिरेकेति संयोगमधिकृत्य पूर्ववदेव व्याख्येयम् ।
पूर्वोक्तानां सर्वेषा परिहारस्थान सेवनविषयकप्रायश्चित्तसूत्राणामुपसंहारं वक्तुकामों भाष्यकारः पूर्वसूत्रातिदेशेन प्राह
सुत्तविभासा जा उ हिट्ठिमसुते सोलसेसु य । सा चेव इहं णेया, ठवणा - परिहार णाणतं १ ॥ छाया -- सूत्रविभाषा या तु अधस्तनसूत्रेषु षोडशसु च । सैव इह ज्ञातव्या स्थापना - परिहार- नानात्वम् ||१|| अवचूरि : - या तु सूत्रविभाषा 'जे भिक्खू' इत्यादि सूत्रावयवव्याख्या एकद्विकत्रिकादिसंयोग प्रदर्शनस्वरूपा अधस्तनसूत्रेषु - आधसूत्रेषु षोडशसंख्यकेषु वर्णिता सा एव विभाषा इह उपरितनेषु सप्तदशादारभ्य ' बहुसोवि साइरेग' इति संयोगसूत्रपर्यन्तेष्वपि सूत्रेषु ज्ञातव्या वक्तव्येत्यर्थः । अथ यदि सैव वक्तव्यता इहापि तदा पूर्वसूत्रेभ्य एतेषां सूत्राणां को विशेषस्तत्राह -
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निशीथसत्र
'ठवणा' इत्यादि, स्थापनापरिहारनानावं-स्थापनापरिहारविषये भेदो ज्ञातव्यः, अयं भाव:अधस्तनपूर्वसूत्रेषु आदितः षोडशस्त्रपर्यन्तसूत्रेषु परिहारतपो न कथितम् , इह तु सप्तदशसूत्रादनन्तरसूत्रेषु परिहारतपसः प्रतिपादनं कृतम् , इत्येतावानेव विशेष इति ॥ सू. १८-२०॥
इदानी मासादौ प्रस्थापिते अन्तरा यदन्यदिनमासादिपापस्थानं प्रतिसेवते तत्र यस्मिन् पापस्थाने दिक्सग्रहणप्रमामं प्रस्थापितं स्थापनावपं भव्यते तदेव दर्शयति-'छम्मासियं इत्यादि ।
सूत्रम्-छम्मासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे संअटुं सहेउं सकारणं अहींणमइरितं तेण परं सकीं. सइराइया दो मासा ॥ सू० २१॥
छाया पाण्मासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य मालोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी मारोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनातिरिक्तं तेन परं सविंशतिरात्रौ द्वौ मासौ ॥ सू० २१ ।।
चूर्णी- 'छम्मासियं' इत्यादि । 'छम्मासियं' पाण्मासिकम् तत्र घडिति संख्याविशेषलक्षणं मासिकम्, तत्र मानानि समयावलिकादीनि मसतीति मासः, मासी मासान्तकः कालः परिमाणमस्येति मासिकम्, षभिर्मासै निष्पन्नं यत् तत् पाण्मासिकम् 'परिहारदाणं' परिहारस्थानम्-परिहारस्य स्थानं परिहारस्थानम्-सावधकर्मणामनुष्ठानलक्षणम् तत्प्रति 'पट्टविए' प्रस्थापितः मशुभकर्मणां क्षयार्थ स्थापितः प्रायश्चित्तं वहमान इत्यर्थः 'अणगारे' अनगार:-श्रमणः श्रमणी वा 'अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता' अन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य तत्र अन्तरा मध्ये समारब्धप्रायश्चित्तस्य मध्ये इत्यर्थः द्वैमासिकम्-मासद्वयेन संपादनयोग्यं परिहारस्थानं पापस्थानम् 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-प्रायश्चित्तकरणसमयेऽपि द्वैमासिकप्रायश्चित्तस्थानस्य प्रतिसेवनं कृत्वा 'पालोएज्जा' आलोचयेत् कृतपापकर्मण आलोचना गुरवे दर्शयेत् । तत्र मायारहितभावेन बालोचनां कुर्वतः 'अहावरा वीसहराइया' आरोवणो' अथापर विशतिरात्रिकी आरोपणा, तत्रं अथेत्ययमानन्तर्यार्थको निपातः, अपरा-मासद्वयादन्या, यदि अयं पाण्मासिकं तपो वहन् मध्ये द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवते प्रतिसेव्य मायारहितमालोचयेत् तदा गुरुः तस्मै प्रतिसेवितमासद्वयोपरिविंशतिरात्रिकी. आरोपणा कर्तव्या विंशतिरात्रिसम्पादनीयप्रायश्चित्तं वर्धयेदिति भावः । षण्णां मासानां त्रिभागं कृत्वा तत्र भागद्वयं परित्यजेत् , एक भागं मासद्वयप्रमाणं प्रायश्चित्तं पुनरपरं दद्यात् तदेवं मासद्वयसम्पाद्यं प्रायश्चित्तं समीलयित्वा विंशतिरात्रिकं प्रायश्चित्तं दद्यात् ।
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मायावद्भिः उ० २० सू० २२-२६ परिहारस्थानप्रस्थापितस्यारोपणाविधिः 89 सत्र रानिमहममहोसत्रस्योपलक्षपाम् सत्रावेव अहोरात्रस्न परिसमाप्तेः तदनं निष्कर्षः ब्राजा. लितषाण्मासिकप्रायश्चित्ते एव पुनरपि द्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवकाय विंशत्यहोरात्रप्रमाण पुनरपि प्रायश्चित्त दद्यात्-षण्मासस्य द्वौ द्वौ भागौ परित्याज्यो एकैको भागो ग्रहीतव्यः, तावता मासययुक्तविंशत्यहोराकामामकमेच प्रायश्चित्तमापन्नं भवन्ति । मासभागत्रयं विशदयतिमण्मासस्य द्विद्विभागरूपेषु त्रिषु भागेषु 'चाइमझावसाने' आदिमध्यावसामे प्रामासस्य आदौ सध्ये अवघाने च द्विभागरूले 'सअटुं' सार्थम्-तत्र अर्थः प्रयोजनम् येन प्रयोजनेन प्रयुक्तः सन् तदाचरितम् तेन प्रयोजनेन सहितम् 'सहेउ' सहेतुम् , तत्र हेतुः सामान्यकारणम् , येन हेतुना प्रयुक्तः सन् तदाचरितं तत्सहितम् 'सकारणं' सकारणम्, विशेषार्थहेतुकारणः प्रयुक्तः सन् लदाचरितं भासद्यात्मकं फरिहारस्थानम् अपात्र संपूर्ण पाण्मासिकसम्बन्धितिमासम् विस्यहोरात्राणां विकारकरणात् , लञ्च 'अहोणमहरित' महीनमतिरिक्तम् न हीनं न्यूनं नातिरिकं नाधिकम् एकद्विदिनादिनापि न न्यून नाप्यधिक संपूर्णमेव । अयं भावः-यदि प्रचलितामासिकप्रायश्चित्त. करणावसरे केनापि कारणादिना पुनरपि मासद्वयात्मकपरिहारस्थानस्य प्रतिसेवनं करोति कृत्वा चाकपटमालोचयेत् तदा विंशत्यहोरात्रंद्विमासादपरम् प्रायश्चित्तं दधात् विंशत्यहोराजाधिक संपूर्णमासद्वयं प्रायश्चित्तं द्रयादिति, अतएव 'तेण परं सवीसइराइया दो मासा' तेन परं तस्मा. पामासादुपरीत्यर्थः सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ प्रायश्चित्तत्वेन भवतः तत्र न किञ्चिदपि हातव्यमिति भावः ॥ सू० २१ ॥
सूत्रम्-पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमामासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलीएज्जा अहावरा वीसइराझ्या आरोवणा आइमझावसाणे सअठं सहेउं सकारणं अहीणमतिरिस तेण परं सवीसराइया दा मासा ॥ सू० २२॥ ___ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमझावसाणे सअष्टुं सहेउं सकारंणं अहीणमइरिसं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥ सू० २३ ॥
लेमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेबित्ता आलोएज्जा अहावरा पीसइराइया आरो
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निशीथसूत्रे वणा आइमज्झावसाणे सअट्ठ सहेडं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दा मासा ॥ सू०२४ ॥
दोमासियं परिहारट्ठाण पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥ सू०२५॥
मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दोमासा ॥ सू० २६ ॥
छाया-- पाञ्चमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचययेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्याव साने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनतिरिक्तं तेन पर सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ ॥ सू० २२॥
चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहोनमतिरिक्तं तेन परं सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ ॥ सू० २३॥
त्रैमासिक परिहारस्थान प्रस्थपितोऽनगारः अंतरा द्वैमासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तम् तेन परं सविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ ॥ सू० २४॥
द्वैमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं सर्विशतिरात्रिको द्वौ मासौ॥सू० २५ ।।
मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विशतिरात्रिकी आरोषणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तम् तेन परं मविंशतिरात्रिको द्वौ मासौ २६ ।। सू० २२-२६॥
चूर्णी-एतानि पाञ्चमासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवनसूत्रादारभ्य चातुर्मासिक त्रैमासिक द्वैमासिक मासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवनसूत्रपर्यन्तानि पञ्च सूत्राणि पाण्मासिकसूत्रवदेव पाश्चमासिकादियथा
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चूणिभाष्यावरिः उ० २० सू० २७-२९ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ॥3 योगं व्यत्ययेन व्याख्येयानि । विशेषस्त्वयम्-यत् आदिमध्यावसाने पश्चादिमासानां यथायोगं त्रयो भागाः करणीया इति ॥ सू० २२-२६ ॥
पूर्व पाण्मासिकादिमासिकपर्यन्तपरिहारस्थानप्रस्थापिताऽनगारस्य द्वैमासिकपरिहारस्थानसेवने सविंशतिरात्रिकद्विमासप्रायश्चित्तदानस्वरूपं प्रदर्शितम्, अथ सविंशतिरात्रिकद्विमासप्रायश्चित्तसेवनासमये तत्रापि यः कश्चित् साधुः पुनरपि द्वैमासिकपरिहारस्थान सेवते तस्य प्रायश्चित्त विधिं दर्शयति- 'सबीसइराइयं' इत्यादि ।
सूत्रम्--सवीसइराइयं दामासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअठं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सदसराया तिण्णि मासा ॥ सू० २७॥
छाया-सविंशतिरोत्रिकं द्वैमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरामा. सिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं सदशरात्रास्त्रयो मासाः॥सू०२७॥
चूर्णी-'सवीसइराइयं' इत्यादि । 'सवीसइराइयं दोमासियं' सविंशतिरात्रिकं द्वैमा. सिकम् , तत्र विंशतिरात्रिभिः सहितमिति सविंशतिरात्रिकम्-विंशतिरात्र्यधिकं द्वैमासिकं मासद्वयसंपादनयोग्यम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानम्-सावधकर्भानुष्ठानम् , एतादृशकर्मणां निराकरणाय तदनुकूलपरिहारतपसि 'पदविए' प्रस्थापित आरोपितः 'अणगारे' अनगार-भिक्षुकः-श्रमणः श्रमणी वा 'अंतरा' अन्तरा-तन्मध्येऽपि 'दोमासियं परिहारट्ठाण पडिसेवित्ता' द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य द्वैमासिकपापस्थानप्रतिसेवनं कृत्वा 'आलोएज्जा' आलोचयेत्-स्वकृतकर्मणः प्रकाशनं कुर्यात् तदा 'अहावरा वीसइराइया आरोवणा' अथापरा-ततोऽन्या पूर्वे सेव्यमानद्विमासादन्या विंशतिरात्रिकी आरोपणा, तत्र तादृशमपरं द्वैमासिकं परिहारस्थानमासेव्य यदि अकपटमालोचयति तदा विंशत्यहोरात्रस्य प्रायश्चित्तं भवति । तच्च 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने विंशतिदिवसात्मके प्रतिभागे 'सअट्ट सहेउं सकारणं अहीणमइरितं' सार्थ सहेतुकं सकारण-महीनमतिरिक्तम् अन्यूनानधिकम् यत् यत् प्रतिसेवितं तत्सर्वमेव दातव्यं प्रायश्चित्तरूपेण । तेण परं' तेन ततः परं प्रस्थापितद्वैमासिकप्रायश्चित्तस्य विंशतिरात्रिकारोपणासहितसविंशतिरात्रिकं सर्वसंकलितं प्रायश्चित्तम् 'सदसराया तिण्णि मासा' सदशरात्रास्त्रयो मासाःदशाहोरात्रसहितास्त्रयो मासाः प्रायश्चित्तस्य भवन्तीति ॥ सू० २७ ॥
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निशीथसूत्रे
सूत्रम्--सदसराइयं तेमासियं परिहारट्ठाण पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठ सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं चत्तारि मासा ॥ सू० २८॥
_छाया सदशरात्रिकं त्रैमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा द्वैमासिकम् परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं चत्वारो मासाः ॥ सू० २८ ॥ - चूर्णी-'सदसराइयं' इत्यादि । 'सदसराइयं तेमासियं' सदशरात्रिकं त्रैमासिकम्दशाहोरात्रसहितं त्रैमासिकं पूर्वसूत्रोक्तम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं सावद्यकर्मणामनुष्ठानलक्षणम् , तस्मिन् सदशरात्रिकत्रैमासिकपापनाशनाय परिहारतपसि 'पद्वविए अणगारे' प्रस्थापितोऽनगारः प्रायश्चित्तकरणाय नियुक्तो भिक्षुकः यदि 'अंतरा' अन्तरा-मध्ये 'दोमासियं परि
सारठाणं' द्वैमासिकम् मासद्वयसंपादनीयं परिहारस्थानम् 'पडि सेवित्ता आलोएज्जा' प्रति'सेव्य प्रतिसेवनां कृत्वा आलोचयेत्-गुरुसमीधे आलोचना कुर्यात् तदा 'अहावरा वीसइराइया आरोवणा' अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा कर्त्तव्या प्रकृतप्रायश्चित्तादतिरिक्ता विंशतिरात्रिप्रमाणा दातव्या । कथमित्याह-'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने प्रत्येकभागे 'सअटुं सहे सकारणं अहीणमइरित्तं' सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं सर्व संपूर्ण प्रायश्चित्तं दातव्यम् 'तैण परं चत्तारि मासा' तेन परम्-ततः-पूर्वसूत्रोक्तात्परं सदशरात्रिकमासद्वयविंशतिरात्रिकारोपणसंमेलनात्परं चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्ति ॥ सू० २८ ॥ - सूत्रम्-चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया चत्तारि मासा ॥ सू० २९॥ - छाया--"चातुर्मासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं सविंशतिरात्रिकाश्चत्वारो मासाः ॥ सू० २९ ॥ - चूर्णी-'चाउम्मासियं' इत्यादि । 'चाउम्मासियं परिहारहाणं' चातुर्मासिकं परिहारस्थानम्-मासचतुष्टयेन संपादनीयं पूर्वसूत्रोक्तं परिहारस्थानं प्रति 'पद्वविए' प्रस्थापितः तस्मिन् चातुर्मासिकपरिहारस्थाने समुपस्थापितः 'अणगारे' अनगारः, शेषं सर्व पूर्वसूत्रवदेव व्याख्येयम् ,
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चूर्णि भाग्यावचूरिः उ० २०३०-३३
परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ६५१
विशेषस्त्वयम् - अत्र सूत्रे सर्व प्रायश्चित्तमारोपणासहितम् 'सवीसइराइया चत्तारि मासा' सविंशति-रत्रिका विंशत्यहोरात्रसहिताश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति शेषं पूर्ववदिति ॥ सू०२९
सूत्रम् - सवीसइराइयं चाउम्मा सियं परिहारद्वाणं पविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेउ सकारण अहीणमहरित तेण परं सदसराइया पंच मासा || सु० ३०||
छाथ - सर्विशतिरात्रिकं चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदि - मध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणम हीनमतिरिक्तं तेन परं सदशरात्रिकाः पञ्च मासाः ॥ ३० ॥ चूर्णी - 'सवी सइराइयं' इत्यादि । सवीसइराइयं चाउम्मासिय' सविंशतिरात्रिकं चातुर्मासिकम् विंशतिरात्रिसहित मास चतुष्टय संपादनयोग्यम् ' परिहारद्वाणं' परिहारस्थानम्, अत्र विंशत्यहोरात्रसहितेषु चतुर्षु मासेषु विंशत्यहोरात्रिकारोपणासंमेलने सर्वे 'सदसराइया पंच मासा' इति दशाहोरात्रसहिताः पञ्च मासाः प्रायश्चितत्वेन भवन्ति, शेषं सर्व पूर्ववदेव व्याख्येयमिति ॥ सू०३०||
सूत्रम् - सदसराइयं पंचमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेउं सकारण अहीणमाहरितं तेण परं छम्मासा ॥ सू० ३१॥
छाया - सदशरात्रिक्रं पाञ्च मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा विंशतिरात्रिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं षण्मासाः ॥३१ ॥
चूर्णी - 'सदसराइयं' इत्यादि । 'सदसरा इयं पंचमासिक' सदशरात्रिकं पाञ्चमासिकम्, पूर्वसूत्रसंप्राप्तं दशाहोरात्रसहितं पाञ्चमासिकम, शेर्षं सर्वं पूर्ववद् व्याख्येयम्, विशेषस्त्वयम् अत्र दशाहोरात्रिक पाञ्च मासिकप्रायश्चित्ते विंशतिरात्रिकी आरोपणा भवति 'तेण परं छम्मासा' ततः सर्वसंकलिताः ाः षड् पासा भवन्ति, न षण्मासादधिकं प्रायश्चित्तं भवतीति ॥ सू० ३१ ॥ अथ षाण्मासिकादिपरिहारस्थानप्रस्थापनायां मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेक्नायां पाक्षिकारोपणाविषयं प्रायश्चित्तविधि प्रदर्शयति- 'छम्मा सियं' इत्यादि ।
सूत्रम् - छम्मासयं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासिय परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा
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જર
निशीथसू आइमज्झावसाणे असटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्डो मासो ॥ सू० ३२॥
छाया-पाण्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं द्वयं? मासः ॥सू० ३॥
चूर्णी-'छम्मासियं' - इत्यादि । 'छम्मासियं परिहारट्ठाणं' पाण्मासिकं परिहारस्थानम्-मासषट्केन संपादनयोग्यं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य तत् पापनिराकरणाय पाण्मासिकपरिहारतपसि 'पट्टविए अणगारे' प्रस्थापितोऽनगारः तादृशप्रायश्चित्तकरणाय तत्र नियोजितो भिक्षुः यदि 'अंतरा' अन्तरा-तन्मध्ये तादृशप्रायश्चित्तकरणावसरे प्रमादतो मोहनीयकर्मों. दयाद्वा 'मासियं परिहारट्ठाणं' मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेवते 'पडिसेवित्ता' प्रतिसेव्यमासिकपरिहारस्थानस्य प्रतिसेवनां कृत्वा तादृशकर्मणां विनाशाय 'आलोएज्जा' आलोचयेत्स्वकृतपापस्य गुरुसमीपे प्रकाशनं कुर्यात् । तत्राकपटभावेन आलोचनां कुर्वतः श्रमणादेः 'अहावरा पक्खिया आरोवणा' अथापरा पाक्षिकी आरोपणा, अर्थात्-प्रायश्चित्तमध्ये पुनः प्रतिसेवितपरिहारस्थानत्यापनोदनाय मासमध्ये पञ्चदशदिवसस्यैव प्रायश्चित्तं दातव्यम् , कथमित्याह'आइमज्याक्साणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमहरित' आदिमध्यावसाने सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्तम्-न न्यूनं नाधिकं परिपूर्ण प्रायश्चित्तं दातव्यम् न किञ्चिदपि परित्यक्तव्यम् । 'तेण परं दिवड्ढो मासो' तेन परं य? मासः पञ्चदशदिवसाधिक एको मासः प्रायश्चित्तरूपेण भवति, अत्र पाक्षिकारोपणायाः सद्भावादिइति ॥ सू० ३२॥
सूत्रम्-पंचमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्डो मासो ।सू० ३३॥
छाया--पाञ्चमासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेत सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परं द्वयों मासः ।।सू० ३३॥ - सूत्रम्--चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्डो मासो ॥ सू० ३४॥
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चूर्णिभाप्यावणिः उ० २० सू० ३४ ३९ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५३
छाया-चातुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेण परं द्वयों मासः ।। सू० ३४॥
सूत्रम्-तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतग मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठं सहेडं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥ सू० ३५॥
छाया--त्रैमासिक परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन पर द्वयों मासः ॥ सू० ३५॥
सूत्रम्-दोमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं पारहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥ सू० ३६॥ .. छाया-द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने साथै सहेतु सका. रणम् अहीनमतिरिक्त तेन परं द्वषों मासः ॥ १०३६।।
सूत्रम्-मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ट सहे सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्डो मासो॥ मू० ३७॥
___ छाया-मासिकं परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं द्वयों मासः॥ सू० ३७॥
चू!-- पूर्व पाण्मासिकपरिहारस्थाने प्रस्थापितस्य तन्मध्ये मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी मारोपणा तेन द्वयों मासः प्रायश्चित्तत्वेन भवतीत्युक्तं तथैव पाञ्चमासिकचातुर्मासिक-त्रैमासिक-द्वैमासिक-मासिक-परिहारस्थानप्रस्थापितानगारस्यापि तन्मध्ये मासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी आरोपणा भवति तेन परं द्वयों मासः प्रायश्चित्तस्य भवतीति
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निशोथसत्र पाञ्चमासिकादित आरभ्य मासिकपर्यम्तामि पञ्चापि सूत्राणि व्याख्येयानीति विरम्यते ।। सू० ३७॥
तदेवं पूर्वोक्तेषु पाण्मासिकादिषु षट्सु सूत्रेषु द्वयों मासः प्रायश्चित्तत्वेन प्रतिपादितः । अथ यो द्वयर्धमासिकपरिहारस्थानप्रस्थापितः सन् तन्मध्ये यदि मासिकपरिहारस्थानं प्रतिसेवते तद्विषयकं प्रायश्चित्तविधिमाह--'दिवड्ढमासिय' इत्यादि।
सूत्रम्-दिवड्ढमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं दो मासा ॥ सू०३८॥
छाया-द्वयर्धमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन पर छौ मासौ ॥ सू० ३८ ।
___ चूर्णी- 'दिवड्मासियं' इत्यादि । 'दिवड्ड्मासियं' द्वयर्धमासिकम् द्वितीयोऽधों यत्र स द्वचः स मासो यत्र तद् द्वयर्थमासिकम् 'परिहारहाणं' परिहारस्थानं पापप्रयोजक कर्मानुष्ठानं तत्प्रति 'पद्धविए, प्रस्थापितः तादृशकर्मविनाशाय तादृशप्रायश्चित्तकरणाय नियोजितः 'अणगारे' अनगारो-भिक्षुकः 'अंतरा' अन्तरा-मध्ये 'मासियं परिहारहाण' मासिकं परिहारस्थानम् पिडिसेवित्ता' प्रतिसेव्य-परिहारस्थानप्रतिसेवनां कृत्वा 'आलोएग्जा' आलोचयेत् तस्य 'अहावरा पक्खिया आरोषणा' अथापरा पाक्षिकी पञ्चदशदिवसप्रमाणात्मिका आरोपणा प्रायश्चित्तदानरूपा प्रस्तुततपःस्थापितप्रायश्चित्तादधिकं पाक्षिकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् । तच्च 'आइमज्झावसाणे' आदिमध्यावसाने 'समई सहेउं सकारणं अहीणमहरितं' सार्थ सहेतुकं सकारणमहीनमतिरिक्तम् प्रतिसेवितानुसारं सर्व प्रायश्चित्तरूपेण दातव्यं न किमपि त्यक्तव्यम् 'तेण परं दो मासा' तेन परं द्वौ मासौ ततः परं सर्व द्वौ मासौ प्रायश्चित्तरूपेण भवतः । द्वयर्धमासिकप्रायश्चित्ते आरोपणायाः पक्षः संमेल्यते तदा परिपूर्णों द्वौ मासौ जायेते इति भावः ॥
सूत्रम्-दोमासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं अड्डा इज्जा मासा ॥ सू० ३९॥
छाया- द्वैमासिकं परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणम् अहीनतिरिक्त तेन परम् साधतृतीयौ मासौ ॥ सु. ३९॥
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चूर्णिमाम्यावचूरिः उ० २. सू. ४०-४३ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५५
चूर्णी-'दोमासियं' इत्यादि । 'दौमासिय परिहारहाणं' द्वैमासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्त परिहारस्थानम् 'पट्टविए अमगारे' प्रस्थापितोऽनगार; इत्यादि व्याख्या स्पष्टा । अत्र विशेषस्वयम् - यदा द्वैमासिकपरिहारस्थानसेबनायां पाक्षिको आरोपणा संमेल्यते तदा 'अड्डाइज्जा दोमासा' अर्घतृतीयौ द्वौ मासौ प्रायश्चित्तरूपेण भवतः इति ॥ सू० ३९ ॥ . सूत्रम्-अड्डाइज्जमासियं परिहारट्ठाणं पविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोबणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं तिण्णि मासा ॥ सू०४०॥
___ छाया-सार्धद्वैमासिक' परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिको आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं त्रयो मासा ॥सू. ४०॥ ।
. चूर्णी- 'अट्ठाइज्जमासियं' इत्यादि । 'अड्ढाइज्जमासिय' अर्धतृतीयमासिकम् सार्धमासद्वयं पूर्वसूत्रसंप्राप्तम् 'परिहारट्ठाणं' परिहारस्थानं प्रति 'पट्टविए' प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि व्याख्या प्राग्वत्, अत्र सार्धद्वैमासिकपरिहारस्थानप्रतिसेवनायां पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा 'तिण्णि मासा' त्रयो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति ॥ सू० ४० ॥
सूत्रम्-तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं अछुट्टा मासा ।। सू० ४१॥
छाया -- त्रैमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिको आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परम् अर्धचतुर्था मासाः ॥ सु. ४१॥
चूर्णी-'तेमासियं' इत्यादि । 'तेमासियं परिहारहाणं पट्टविए' त्रैमासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्त परिहारस्थानं . प्रस्थापितोऽनगारः, शेषं पूर्ववत्, मत्र सर्व प्रायश्चित्तम् 'अधुवामासा' इति अर्धचतुर्थाः, चतुर्थः म| यन्त्र ते अर्धचतुर्थाः-सार्धास्त्रयो मासा भवन्ति, यदा त्रिषु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा सार्धात्रयो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू०४१ ॥
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निशीथसूत्रे सूत्रम्-अटुट्ठमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावर। पक्खिया आरो, वणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं, चत्तारि मासा ॥ सू० ४२॥
छाया-अर्धचतुर्थमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी अरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतुं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं चत्वारो मासाः ॥ सू० ४२।
चूर्णी--अस्याप्यर्थः पूर्वसूत्रवदेव ज्ञातव्यः, विशेषस्त्वयम्-'अछुट्टमासियं' अर्धचतुर्थमासिकम्-सार्धत्रैमासिकं-यत् पूर्वसूत्रे संप्राप्तं तत् प्रति तत्र प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि पूर्ववद् व्याख्येयम्, 'तेण परं' तदनन्तरं सर्व प्रायश्चित्तं 'चत्तारि मासा' चत्वारो मासा भवन्ति । यदा सार्धेषु त्रिषु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४२ ॥
सूत्रम्-चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं अड्डपंचमा मासा ॥ सू०४३॥
छाया-चातुर्मासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थानम् प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्तं तेन परम् अर्द्ध पञ्चमा मासाः ॥२० ४३॥
चूर्णी-'चाउम्मासियं' इत्यादि । 'चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे चातुर्मासिकं पूर्वसूत्रसंप्राप्तं परिहारस्थानम् 'पदविए' प्रस्थापितः-तादृशप्रायश्चित्ते नियोजितः 'अणगारे' अनगारो भिक्षुकः, शेषं पूर्ववद् व्याख्येयम् , अत्र सर्व प्रायश्चित्तम्- चतुर्षु मासेषु पाक्षिकी आरोपणायाः संमेलनेन 'अड्ढपंचमा मासा' इति अर्द्धः पञ्चमो यत्र ते अर्द्धपञ्चमाः, एतादृशा मासाः सार्धाश्चत्वारो मासा भवन्तीति भावः ॥ सू० ४३॥
सूत्रम्--अड्डपंचममासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेबित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरावणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेणपरं पंच मासा ॥ सू०४४॥
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विभावचरिः उ०६० सू०४४-४६ परिहारस्थानप्रस्थापितस्याऽऽरोपणाविधिः ४५७
छाया-गपञ्चममासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनमारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान अतिसेव्य आलोचयेत् भथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ पोखं सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं पञ्च मासाः ॥ सू० ४४॥
चूर्णी--'अड्ढपंचममासियं' इत्यादि । 'अड्ढपंचममासिय' अर्द्धपश्चममासिकम् चत्वारो मासाः संपर्णाः पश्चममासस्याझै भाग इति अपञ्चममासिकं यत् पूर्वसूत्रे संप्राप्तं तत् इत्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् कर्तव्यम्, केवलं तेन परम्-ततः पश्चात्-अत्रापि अर्धपञ्चममासेषु इति सार्धेषु चतुर्यु मासेषु यदि पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाः पञ्च मासा प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४४॥
सूत्रम्-पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं अड्डछट्ठा मासा ॥ सू० ४५॥
छाया-पाश्चमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारः अन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परमर्द्धषष्ठा मासाः ॥सू० ४५॥
चूर्णी--पंचमासिय' इत्यादि । 'पंचमासिय परिहारहाणं' पाञ्चमासिकं यत्पूर्वसूत्रसंप्राप्तं तत् परिहारस्थानं प्रस्थापितोऽनगारः, इत्यादि सर्व पूर्ववदेव व्याख्येयम् । अत्र पञ्चसु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा 'अड्ढछट्ठा मासा' इति अर्द्धषष्ठा मासाः-सार्धाः पञ्चमासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्तीति भावः ॥ सू० ४५ ॥
सूत्रम्-अद्धछट्ठमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारण अहीणमइरितं तेण परं छम्मासा ।। सू०४६॥
॥ निशीहन्झयणे वीसइमो उद्देसो समत्तो ॥२०॥ छाया-अर्द्ध षष्ठमासिक परिहारस्थान प्रस्थापितोऽनगारोऽन्तरा मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् अथापरा पाक्षिकी आरोपणा आदिमध्यावसाने सार्थ सहेतु सकारणमहीनमतिरिक्त तेन परं षण्मासाः ॥सू० ४६॥
॥ निशीथाध्ययने विंशतितमोद्देशकः समाप्तः ॥२०॥
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निशीथसूत्रे
चूर्णी -- ' अद्धछट्टमासियं' इत्यादि । 'अद्धछट्टमासि' अर्धषष्ठमासिकम्, पञ्च मासाः संपूर्णाः षष्ठमासस्य अर्को भागः इत्येवमर्द्धाधिकं पाञ्चमासिकं परिहारस्थानमित्येवं क्रमेण प्रकृतसूत्रस्य व्याख्यानं कर्तव्यं केवलं ततः परमिति ततः पञ्चात् अर्द्धषष्ठमासेषु - सार्धेषु पञ्चसु मासेषु पाक्षिकी आरोपणा संमेल्यते तदा परिपूर्णाः षड् मासाः प्रायश्चित्तरूपेण भवन्ति, नास्ति षण्मासा नन्तरं प्रायञ्चित्तमिति भावः ॥ सू० ४६ ॥
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इति श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलितललित कलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त“जैनशास्त्राचार्य”- पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालवति - विरचितायां “निशीथसूत्रस्य” चूर्णि भाष्यावचूरिरूपायां व्याख्यायाम् विंशतितमोदेशकः समाप्तः ॥ २० ॥
॥ समाप्तं निशीथाध्ययनम् ॥ ¿Z»MEZ+M&E+MW
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निशीथसूत्रस्य किञ्चित् शुद्धिपत्रम् पृष्ट पंक्ति उ.१ अशुद्धिः
शुदिः २ ८ ....प्रतिपादिकानि
प्रतिपादकानि ९ १५-१६ सुत्तरज्जुवक्केहिं च, दंडकडगेहिं तहा, सुत्तरज्जुवकलेहि, दंडकडगेहिं तहा,
चिलिमिली खुपचहा, भिक्खुहिं चिलिमिली पंचहा खु कायधाकरणिज्जा नो॥
भिक्खुहिं न सा॥ ९१७-१८ सूत्ररज्जुवल्कलैश, दण्ड- सूत्ररज्जुवल्कलैः, दण्डकटकैस्तथा ।
कटकाभ्यां तथा । चिलिमिली खलु पंचदा, भिक्षुभिः क्रिय चिलिमिली पञ्चधा खल कर्त्तव्याभिक्षमाणा नो॥
भिने सा ॥ बंशो दंडादिः, कटकमयी जवनिका, वंशो दण्डादिः, कटक वंशवक, ताभ्यां वंशकटकादिभ्यां ताभ्यां वंशकटकाभ्यां उ.४....१३३
....१३६ गमस्त्रिपश्चाशत्सूत्रात्मकः
गमः षट्पश्चाशत्सूत्रात्मकः । त्रयविंशदधिकशततमं
त्रिंशदधिकशततमं त्रिपश्चाशत्सूत्रसमुदायोऽत्र
षट्पञ्चाशत्सूत्रसमुदायोऽत्र ॥ सू. १३३॥
॥ सू० १३६॥ ॥सू. १३३॥
॥ सू. १३६॥ २१५ ८ १२-६३
१२-६६ पादामार्जनसूत्रादारभ्य पादामार्जनषोडशतमसूत्रादारम्य एकसप्ततित्रिषष्टितमशीर्षदौवारिकासूत्रपर्यन्त- तमशीर्षदौवारिकासूत्रपर्यन्तषट्पञ्चाशत् सूत्राणि
सूत्राणि २६५ १६ १२-६३
१२-६६ । आगे उदेशसमाप्तिसक
तीन तीन संख्या बढ़ाते नामो। २६५ १६ ॥सू० ५-९॥
॥सू० ५-११॥ २६५ २. सूत्रपञ्चक
सूत्रसप्तकं
१२८ १७
२७
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। श्रीवीतरागाय नमः। ॥ निशीथसूत्रस्य मूलपाठः॥
॥ प्रथमोद्देशकः॥ जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू अंगादाणं कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा संवाहतं वा पलिमदंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खु अंदादाणं तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगेंतं वा मक्खेत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अंगादाणं कक्केण वा लोरेण वा पउमचुण्णेण वा हाणेण वा सिणाणेण वा चुण्णेहिं वा उच्चट्टेई परिवठूइ उव्वदृतं वा परिवर्दृतं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छलेइ णिच्छलंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू अंगादाणं जिग्यइ जिग्धंत वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसित्ता मुक्कपोग्गले णिग्याएइ णिग्यायंतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू सचित्तं गं, जिग्घइ, जिग्धंतं वा साइज्जइ ॥१०॥ जे भिक्खू सचित्तपइट्टियं गं, जिग्घइ जिग्यंत वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू पदमग्गं वा संकम वा अवलंबणं वा अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा कारेइ कारंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू दगवीणियं वा अण्णउथिएहि वा गारथिएहिं वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कगणंतगं वा अण्णउत्थिरण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
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२
जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलिं वा अण्णउत्थिष्ण वा गारत्थिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥
जे भिक्खू सूचीए उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥
जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिष्ण वा गारस्थिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ ॥ १७ ॥
जे भिक्खू नइच्छेयणगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारस्थिरण वा कारेह का वा साइज ॥ १८ ॥
जे भिक्खू कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वा गारत्थिषण वा कारेइ, कारेंतं वा साइज्जइ ॥ १९ ॥
जे भिक्खू अणट्टयाए सूई जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ||२०||
जे भिक्खू अणट्टयाए पिप्पलगं जायर, जायंतं वा साइज्जइ ॥ २१ ॥
जे भिक्खू अण्डयाए कण्णसोहणगं जायर, जायंतं वा साइज्जइ ॥ २२ ॥ जे भिक्खू अणट्टयाए णहच्छेयणगं जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ||२३|| जे भिक्खू अविहीए सूई जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ||२४||
जे भिक्खू अaिnte पिप्पलगं जायर, जायंतं वा साइज्जइ ||२५|| जे भिक्खु अविहीर नहच्छेयणगं जाय, जायंत वा साइज्जइ ||२६|| जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणगं जायह, जायंतं वा साइज्जइ ॥२७॥
जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए सई जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ, अणुपर्यंत वा साइज्जइ ॥ २८ ॥
जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए पिप्पलगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पes अणुपतं वा साइज्जइ ॥ २९ ॥
जे भिक्खू एस्स अट्ठा नहच्छेयणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पएइ अणुष्पयं वा साइज्जइ ॥ ३०॥
जे भिक्खू अपणो एगस्स अट्ठाए कण्णसोहणगं जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुष्पएइ अणुप्पयतं वा साइज्जइ ||३१||
जे भिक्खू पाडिहारियं मूई जाइत्ता वत्थं सीविस्सामि-त्ति पायं सिव्वइ सिन्वंतं वा साइज्जइ ||३२|
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जे भिक्खू पाडिहारियं पिप्पलग जाइत्ता वत्थं छिदिस्सामि-त्ति पायं छिदइ, छिदंतं वा साइज्जइ ॥३३॥
जे भिक्खू पाडिहारियं नहच्छेयणगं जाइत्ता नई छिदिस्सामि-त्ति सल्लुद्धरणं करेइ, करेंतं वा साइज्जई ॥३४॥
जे भिक्खू पाडिहारियं कण्णसोहणगं जाइत्ता कण्णमलं णीहरिस्सामि-त्ति दंतमलं वा नहमलं वा गीहरेइ गीहरंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू अविहीए सई पच्चप्पिणई पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥३६॥
जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियंवा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए मुहुम मवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ पियरंतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू पायस्स एगं तुडियं तुडेइ तुडंत वा साइज्जइ ॥४२॥ जे भिक्खू पायस्स परं तिण्डं तुडियाणं तुडेइ तुडंत वा साइज्जइ ॥४३॥ जे भिक्खू पायं अविहीए तुडेइ तुडतं वा साइज्जइ ॥४४॥ जे भिक्खू पायं अविहीए बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥४५॥ जे भिक्खू पायं एगेण बंधेण बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥४६॥ जे भिक्खू पायं परं तिण्डं बंधाणं बंधइ, बंधतं वा साइज्जइ ॥४७॥ जे भिक्खू अइरेगबंधणं पायं दिवइढाओ मासाओ परेण धरह धरंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडियाणियं देइ, देयंतं वा साइज्जइ ॥ सू० ४९ ॥ जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्इं पडियाणियाणं देइ देयंतं वा साइज्जइ ॥५०॥ जे भिक्खू अविहीए वत्थं सिव्वइ सिव्वंतं वा साइज्जइ ॥५१॥ जे भिक्खू वत्थस्स एग फलियं गंठियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५२॥
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जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्डं फलियगंठियाणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५३॥ जे भिक्खू वत्थस्स एगं विफलियगंठियं देइ देयंतं वा साइज्जइ ॥५४॥ जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं विफलियगंठियाणं देइ देयंत वा साइज्जइ ५५॥ जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठतं वा साइज्जइ ॥५६॥ जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएणं गंठेइ गंठे वा साइज्जइ ॥५७॥ जे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवढाओ मासाओ धरेइ धरेतं वा साइज्जइ।
जे भिक्खू गिहधूमं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिसाडावेइ परिसाडावेतं वा साइज्जइ ॥५९॥
जे भिक्खू पूइकम्मं मुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥६०॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥६॥
॥ निसीहज्झयणे पढमो उद्दे सो समत्तो ॥१॥
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॥ द्वितीयोदेशकः॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं, करेइ करेंतं वा साइज्जई ॥१॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं गेण्हइ गेण्हतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं वियरइ वियरंतं वा साइज्जई ॥४॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभाएइ परिभाएंतं वा साइज्जइ ॥५॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परिभुंजइ परिझुंजतं वा साइज्जइ ॥६॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परं दिवढाओ मासाओ धरेइ धरतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुछणं विसुयावेइ विसुयावेतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू अचित्तपइट्ठियं गंध जिग्घइ जिग्छतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू पदमग्गं वा संकर्म वा आलंबणं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू दगवीणियं सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कगणंतगं वा सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलमिलि सयमेव करेइ करेंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू सईए उत्तरकरणं सयमेव करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१४॥ एवं पिप्पलगस्स उत्तरकरणम् ॥१५॥ णहच्छेयणगस्स उत्तरकरणम् ॥१६॥ कण्णसोहणगस्स उत्तरकरणम् ॥१७॥ जे भिक्खू लहुस्सगं फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू लहुस्सगं मुसं वयइ वयंतं चा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू लहुस्सगं अदत्तमादियइ आदियंत वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू लहुस्सएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा नहाणि वा मुहं वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा साइज्जइ ॥२१॥
जे भिक्खू कसिणाणि चम्माई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२२॥ जे भिक्खू कसिणागि वत्थाई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खू अभिण्णाइं वत्थाई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू लाउपायं वा दारुपायं वा मटियापायं वा सयमेव परिघटेइ वा संठवेइ बा जमावेइ वा परिघटेंतं वा संठवेंतं वा जमातं वा साइज्जइ ॥२५॥
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जे भिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा सयमेव परिघटेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघटेंतं वा संठवतं वा जमातं वा साइज्जइ ॥२६।।
जे भिक्खू णियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं घरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहँ धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥२९॥ जे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खु णितियं अग्गपिंडं मुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥३२॥ जे भिक्खू णितियं पिंडं भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥३३॥ जे भिक्खू णितिय अवडूढभागं भुंजइ मुंजंतं वा साइज्जइ ॥३४॥ जे भिक्खू णितियं भागं झुंजइ भुतं वा साइज्जइ ॥३५॥ जे भिक्खू णितियं ऊणड्ढभागं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥३६॥ जे भिक्खू णितियं वासं वसइ वसंतं वा साइज्जइ ॥३७॥ जे भिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥३८॥
जे भिक्खू समाणे वा वसमाणे या गामाणुगामं दुइज्जमाणे वा पुरेसंथुयाणि वा पज्छासंथुयाणि वा कुलाई पुव्वामेव अणुप्पविसित्ता पच्छा भिक्खायरियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥३९॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमइ वा अणुप्पविसई वा, णिक्खमंतं वा अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खमइ वा पविसइ वा, णिक्खमंतं वा पविसंत वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पारिहारिओ वा अपारिहारिएण सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जंतं वा साइज्जइ ॥४२॥
जे भिक्खू अन्नयरं भोयणजायं पडिग्गाहित्ता सुभिर भुंजइ दुभिर परिहवेइ, परिहवें तं वा साइज्जइ ॥४३॥
जे भिक्खू अन्नयरं पाणगजायं पडिग्गाहित्ता पुप्फगं-पुप्फगं आवियइ कसायंकसायं परिहवेइ परिहवें तं वा साइज्जइ ॥४४॥
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जं भिक्खू मणुण्णं भोयणजायं पडिग्गाहेत्ता बहुपरियावन्नं सिया अरे तत्य साहम्मिया संभोइया समणुन्ना अपारिहारिया संता परिवसति ते अणापुच्छिय अणिमंतिय परिहवेइ परिहवें तं वा साइज्जइ ॥४५॥
जे भिक्खू सागारियपिंडं गिण्इ, गिण्हतं वा साइज्जइ ॥४६॥ जे भिक्खू सागारियपिंडं भुजइ मुंजतं वा साइज्जइ ॥४७॥
जे भिक्खू सागारियकुलं अजाणिय अपुच्छ्यि अगवेसिय पुत्वामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥४८॥
जे भिक्खू सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा ओभासिय ओभासिय जायइ जायतं वा साइज्जइ ॥४९॥
जे णिक्खू उउबद्धियं सेज्जासंथारगं परं पज्जोवसणाओ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥५०॥
जे भिक्खू वासावासियं सेज्जासंथारयं परं दसरायकप्पाओ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू उउबद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारंग उव्वरिसिज्जमाणं पेडाए न ओसारेइ न ओसारेंतं वा साइज्जइ ॥५२॥
. जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं जीणेइ णीणेतं वा साइज्जइ ॥५३॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंग दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं जीणेइ णीणेतं वा साइज्जइ ॥ सू० ५४ ॥
जे भिक्खू पाडिहारियं सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चंपि अणणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेइ गीणेतं वा साइज्जइ ॥५५॥
जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आदाए अपडिहटु संपव्ययइ संपव्ययंत वा साइज्जइ ॥५६॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं आयाए अविगरणं कटु अणप्पिणित्ता संपन्वयइ संपव्वयंत वा साइज्जइ ॥५७॥
जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं विप्पणहूँ न गवेसइ न गवसंतं वा साइज्जइ ॥५८॥
जे भिक्खू इत्तरियपि उवहिं ण पडिलेहइ ण पडिलेहंतं वा साइज्जइ ॥१९॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥६॥
। निसीपज्यणे बीओ उद्देसो समतो ॥२॥
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॥ तृतीयोदेशकः॥ जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वाओभासियओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा अण्णउत्थियाओ वा गारत्थियाओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओमासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणि वा गारस्थिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासियओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीओ वा गारत्थिणीओ वा असणं वा पाणवा खाइम वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥४॥ .
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसुवा अण्णउत्थियं वा, गारत्थियं बा, कोउहलवडियाए पडियागयं समाणं असणवा पाणं वा, खाइम वा साइम वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलवडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिया वा गारस्थिया वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलवडियाए पडियागयं समाणं अण्णउत्थिणि वा गारत्थिणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोऊहलवडियाए पडियागया समाणा अण्णउत्थिणीओ वा गारथिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा ओभासिय-ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ ॥ सू०८॥
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जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिण वा गारस्थिएण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहट्टु दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय - अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवेढिय परिजविय - परिजविय ओभासिय - ओभासिय जाय, जायंतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू आगंतागारे वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउस्थिरहिं वा गारत्थि एहिं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा rass or दिनमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय - अणुवत्तिय, परिवेढियपरिवेढिय, परिजविय - परिजविय; ओभासिय- ओभासिय जायइ जायंत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू आगंतागारे वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थिणीए वा गारत्थिणीए वा असणं वा पाण वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहट्टु दिज्नमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय - अणुवत्तिय परिवेढिय-परिवेदिय परिजविय - परिजविय अभासिय - ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ ११॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियासहेसु वा अण्णउत्थिणीहि वा गारत्थिणीहिं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहदु दिज्जमाणं षडिसेहेत्ता ताओ अणुवत्तिय - अणुवत्तिय परिवेढिय - परिवेढिय परिजविय - परिजविय अभासिय- आसासिय जायइ जायंनं वा साइज्जइ ॥ १२ ॥
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्ठे पडियाइक्खिए समाणे दोच्चपि तमेव कुलं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ || १३||
जे भिक्खू संखडिपलोयणार असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १४ ॥
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठे समाणे परं तिघरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहरं आहददु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गा वा साइज्जइ ॥ १५ ॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जेत वा साइज्जइ ||१६||
जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवार्हेतं वा पमितं वा साइज्जइ ॥१७॥ २
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जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घरण वा णवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेत वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण बा उल्लोलेज्ज वा उन्वटेज वा, उल्लोलंतं वा उव्वतं वा साइज्जइ ॥१९॥
जे भिक्खु अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू अप्पणो पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा साइज्जइ ॥२१॥
जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥२२॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहेंतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ ॥२३॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य तेल्लेण वा घएण वा गवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खंत बा भिलिंगेंतं साइज्जइ ॥२४॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं लोद्रेण वा कक्केण बा चुण्णेण वा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदे॒ज्ज वा उल्लोलेंतं वा उन्वटेंतं वा साइज्जइ ॥२५॥ जे भिक्खु अप्पणो कायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज वा उच्छोलेंतं बा पधोतं वा साइज्जइ ॥२६॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुत वा रएतं वा साइज्जइ ॥२७॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं संवाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा, संवाहेत वा पलिमदतं वा साइज्जइ ॥२९।। जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण बा वण्णेण वा पउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदे॒ज्ज वा उल्लोलेंतं वा उन्वटेतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्न वा उच्छोलेंत वा पधोवेंतं वा साइज्जइ ॥३२॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमतं वा, रएतं वा साइज्जइ ॥३३॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा, अन्नयरेण तिक्खेण सत्थजाएण आच्छिदेज्ज ग विच्छिदेज्ज वा, आच्छिदंतं वा विच्छिदंत वा साइज्जइ ॥३४॥
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जे भिक्खु अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता-विच्छिदित्ता, पूर्व वा सोणियं वा, णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू अपणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेण तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणिय वा नीहरित्ता विसोहित्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्न वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥३६॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगदलं वा अन्नयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विञ्छिदित्ता णीहरेत्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोवित्ता अन्नयरेणं आटेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलितं वा विलितं वा साइज्जइ ॥३७॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता णीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता आलिंपित्ता विलिंपित्ता तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा गवणीपण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ ॥३८॥
जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगदलं वा, अन्नयरेणं तिक्खेण सस्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहिता उच्छोलित्ता पधोइत्ता आलिंपित्ता विलिंपित्ता अभंगेत्ता मंखेत्ता, अण्णयरेणं धूवजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूवेतं वा पधूत वा साइज्जइ ॥३९॥
जे भिक्खु अप्पणो पाउकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय णीहरइ, णीहरंत वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसीहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पत वा संठवंतं वा साइज्जइ ॥४१॥
एवं-दीहाई बत्थिरोमाइं० ॥४२॥ दोहाई चक्खुरोमाइं० ॥४३॥ दीहाई जंघरोमाई० ॥४४॥ दीहाइं कक्खरोमाई ॥४५॥ दीहाई मंसुरोमाइं० ॥४६॥ दोहाई केसाई० ॥४७॥ दीहाई कण्णरोमाई० ॥४८॥ एवं दीहाई नासारोमाई० ॥४९॥
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जे भिक्खू अपणो देते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा आघंसंत वा पसंतं वा साइज्जइ ॥५०॥
जे भिक्खु अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवेत वा साइज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू अप्पणो दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमेत रएतं वा साइज्जइ ॥५२॥
जे भिक्खू अप्पणो ओढे आमज्जेज्न वा पमज्जेज वा आमजतं वा पमज्जंत वा साइज्जइ ॥५३॥
एवं ओढे पायगमओ भाणियब्वो जाव फुमेज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंत वा साइज्जइ ॥५४-५८॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई उत्तरोढरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्त वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥५९॥ एवं दीहाई अच्छिपत्ताई० ॥६०॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जत वा पमज्जतं वा साइज्जइ ।।६१॥ एबमच्छिम् पायगमो भाणियबो, जाव फुमेज वा रएज्ज वा फुतं वा रएतं वा साइज्जइ ॥६६॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाई भमुहरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पेतं वा संठवेतं वा साइज्जह ॥६७॥
जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं पासरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, गोहरेंतं वा विसोत वा साइज्जइ ॥६९।।
जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा णीहरेज वा विसोहेज्ज वा नीहरतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू गामाणुगामं दुइज्जमाणे अप्पणो सीसदुचारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥७१॥
जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा बोडकप्पासाओ वा अमिल. कप्पासाओ वा वसीकरणमुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥७२॥
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१३
जे भिक्खू गिर्हसि वा हिमुहंसि वा गिहदुवारंसि वा गिहपडिदुवारंसि वा गिलयंसि वा हिंगणंसि वा गिहवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिवे परितं वा साइज्जइ ॥७३॥
जे भिक्खू मडगगिर्हसि वा मडगछारियंसि वा मडगधूभियंसि वा मडगआससिवा मडगife वा मडगथंडिलंसि वा मडगवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववे परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७४॥
जे भिक्खू इंगालदाहंसि वा खारदाहंसि वा गायदाहंसि वा तुसदाहंसि वा भुसदाहंसि वा उच्चारपासवर्ण परिद्ववेइ परिद्ववेंतं वा साइज्जइ ॥ ७५ ॥
जे भिक्खू सेयाययणंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववे परिवेतं वा साइज्जइ ॥ ७६ ॥
जे भिक्खू अहिणवियासु गोलेहणियासु वा अहिणविया मट्टियाखाणी वा परिभुंजमाणियासु वा अपरिभुंजमाणियासु वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिट्ठवॅतं वा साइज्जइ ॥७७॥
जे भिक्खू उंबरवच्चंसि वा नग्गोहवच्चंसि वा आसत्थवच्चंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ परितं वा साइज्जइ ॥ ७८ ॥
जे भिक्खू इक्खुवणंसि वा सालिवणंसि वा कुसुंभवणंसि वा कप्पासवणंसि वा उच्चारपासवणं परिदठवें परिवेतं वा साइज्जइ ॥ ७९ ॥
जे भिक्खू डागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वा कोल्थु भरिवच्चसि वा खारवच्चसि वा जीरयवच्चसि वा दमणयबच्चंसि वा मरुयवच्चंसि वा उच्चारपासवर्ण परिवेs परिट्ठतं वा साइज्जइ ॥ ८० ॥
जे भिक्खू असोगवणंसि वा सत्तवण्णवणंसि वा चंपगवणंसि वा च्यवर्णसि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारे पत्तोवेएस पुप्फोवेएस फलोवेएस छाओवेएस उच्चारपासवणं परिवे परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥ ८१ ॥
जे भिक्खू सपायंसि वा परपासि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उच्चाहिज्जमाणे सपायं गाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता अणुम्गए सूरए एड एडतं वा साइज्जइ ॥ ८२ ॥
तं सेवमाणे आवज्जर मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ ८३ ॥ | ॥ निसीहज्झयणे तहओ उसोसमतो ॥३॥
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15555
॥चतुर्थीदेशकः॥ जे भिक्खू रायं अत्तीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू रायं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू रायं अच्छीकरेइ अच्छीकरेंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू रायं अत्थीकरेइ अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ ॥४॥ जे भिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहि अदत्तं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ । २२॥
जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अविदिणं विगई आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू ठवणकुलाई अजाणिय, अपुच्छिय, अगवेसिय पुवामेव पिंडवायपडियाए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू णिग्गंथीणं उवस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू णिग्गंथीणं आगमणपहंसि दंडगं वा लट्ठियं वा रयहरणं वा मुहपत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ॥२६॥
जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ उप्याएंतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विओसमियाई पुणो उदीरेइ उदीरेतं वा साइज्जइ ॥२८॥
जे भिक्ख मुहं विष्फालिय विप्फालिय हसइ हसंतं वा साइज्जइ ॥२९॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं देइ देंतं वा साइज्जइ ॥३०॥
जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं पडिच्छइ पडिच्छतं वा साइज्जइ ॥३१॥ एवं-'ओसत्तस्स संघाडयं देइ० पडिच्छइ० ॥३२-३३॥
कुसीलस्स संघाडयं देइ० पडिच्छइ० ॥३४-३५।। णितियस्स संघाडयं देइ० पडिच्छइ० ॥३६-३७॥ संसत्तस्स संघाडयं देइ० पडिच्छइ० ॥३८-३९॥
जे भिक्खू उदउल्लेण हत्थेण वा मत्तेण वा दब्बीए वा भायणेण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
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एवं ससणिदेण० २ ॥४१॥ ससरक्खेण ३ ॥४२॥ मट्टियासंसटेण० ४ ॥४३॥ ओसा० ५ ॥४४॥ लोण० ६ ॥४५॥ हरियाल०७ ॥४६॥ मणोसिला० ८॥४७॥ वणिय० ९ ॥४८॥ गेरुय० १० ॥४९॥ सेढिय० ११ ॥५०॥ हिंगुलुय० १२ ॥५१॥ अंजण. १३ ॥५२॥ लोद्ध० १४ ॥५३॥ कुक्कुस० १५ ॥५४॥ पिठ• १६ ॥५५।। कंद० १७ ॥५६॥ मूल० १८ ॥५७।। सिंगबेर० १९ ॥५८॥ पुप्फग० २० ॥५९॥ कुट्ठगसंसठेण वा २१, एगवीसभेएण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥६०॥
जे भिक्खू गामारक्खयं अत्तीकरेइ अत्तीकरेंतं वा साइज्जइ ॥६१॥ एवं सो चेव रायगमओ भाणियन्बो ॥६२-६४॥
एवं देसरक्खयं० ४ ॥६८॥ एवं सीमारक्खयं०४ ॥७२॥ एवं रन्नारक्खयं०४ ॥७६॥ एवं सव्वारक्खयं० ४ ॥८॥
जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥८१॥
एवं तइयउद्देसगमो भाणियव्वो (८२ से १३५ जाव--
जे भिक्खू गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसवारियं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१३६॥
जे भिक्खू साणुपाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहेत वा साइज्जइ ॥१३७॥
जे भिक्खू तो उच्चारपासवणभूमीओ ण पडिलेहेइ ण पडिलेहेंतं वा साइ. ज्जइ ॥१३८॥
जे भिक्खू खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिहवेइ, परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥१३९॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं अविहीए परिहवेइ, परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥१४०॥ जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता न पुंछइ, न पुंछंत वा साइज्जइ ॥१४१॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा पुछइ पुछतं वा साइज्जइ ॥१४२॥
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिहवेत्ता णायमइ, णायमंतं वा साइज्जइ ॥१४३॥
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१६
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता तत्थेव आयमइ, आयमंतं वा साइज्जइ || जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता अइदूरे आयमा आयमंतं वा साइज्जइ || जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिद्ववेत्ता परं तिहूं नावापूराणं आयम आयमतं वा साइज || १४६ ॥
→KAY'S
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जे भिक्खू अपारिहारिए णं पारिहारियं वएज्जा - एहि अज्जो ! तुमं च अहं च ओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता, तओ पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो वा, जो तं एवं वयह, वयंत वा साइज्जइ ॥ १४७॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ १४५ ॥ ॥ निसीहणे चउत्थो उद्देस समतो || ४ ||
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॥ पञ्चमोदेशकः॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा ठाणं वा सेज्ज वा निसीहियं वा तुयदृणं वा चेएइ चेएंतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलोएज्ज वा आलोएतं वा पलोएतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलंसि ठिच्चा सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खमूलसि ठिच्चा सज्झायं उद्दिसइ उदिसतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं समुदिसइ समुद्दिसंतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू सनित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं अणुजाणइ अनुजाणंतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं पडिच्छइ पिडच्छंत वा साइज्जइ । जे भिक्खू सचित्तरुक्खम्लंसि ठिच्चा सज्झायं परियदृइ परियदृत वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू अप्पणो संघाडियं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ वा सिवावेतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू अप्पणो संघाडीए दीहसुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू पिउमंदपलासयं वा पडोलपलासयं वा बिल्लपलासयं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा संफाणिय-सफाणिय आहारेइ आहारेंतं वा साइ. ज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'त्ति सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणंत वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-त्ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥१६॥
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जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'तमेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि'त्ति सुए पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता 'सुए पच्चप्पिणिस्सामि'-ति तमेव रयणि पच्चप्पिणइ पच्चप्पिणतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लद्रियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूई वा जाइत्ता एवं एएहिं दोहिं वि चेव पाडिहारिय-सागारियगमएहिं दो दो आलावगा णेयव्वा ॥१९॥ ॥२०॥२१॥२२॥
जे भिक्खू पाडिहारियं वा सेज्जासंथारंग पच्चप्पिणित्ता दोच्चंपि अणणुनविय अहिलैइ अहिठेत वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जासंथारंग पच्चप्पिणित्ता दोच्चंपि अणणुन्नविय अहिलेइ अहिडेतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा उण्णकप्पासाओ वा पोड-कप्पासाओ वा अमिलकप्पासाओ वा दीहसत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि बा वेत्तदंडाणि वा करेइ करेंतं बा साइज्जइ ॥२६॥ एवं-धरेइ ॥२७॥ परिभुजइ ॥२८॥
जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ करें। वा साइज्जइ ॥२९॥ एवं घरेइ ॥३०॥ परिभुजइ ॥३१॥
जे भिक्खू विचित्ताणि दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तंदडाणि वा करेइ करें। वा साइज्जइ ॥३२॥ एवं धरेइ ॥३३॥ परिभुंजइ ॥३४॥
जे भिक्खू नवणिवेसंसि गामंसि वा जाव संनिवेसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू नवणिवेसंसि अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउआगरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुवण्णागरंसि वा रयणागरंसि वा वइरागरंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेत वा साइज्जई॥
जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करते वा साइज्जइ ॥३७॥ जे भिक्खू दंतवीणियं करेइ०॥३८॥ एवम् उट्ठविणियं०॥३९॥ नासावीणियं० ॥४०॥ कक्खवीणियं ॥४१॥ हत्थवीणिय० ॥४२॥ नहवीणियं० ॥४३॥ पत्त वाणियं० ॥४४॥ पुष्फत्रीणिय० ॥४५॥ फलवीणियं० ॥४६॥ बीयबीणियं० ॥४७॥ हरियवीणियं० ॥४८॥
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जे भिक्खू मुहवीणियं वाएइ वाएतं वा साइज्जइ ॥४९॥ जे भिक्खू दंतवीणियं वाएइ ॥५०॥ औवीणियं वाएइ ॥५१॥ नासावीणियं वाएइ ॥५२॥ कक्खवीणियं वाएइ ॥५३॥ हत्थवीणियं वाएइ ५४॥ नहवीणियं वाएइ ॥५५॥ पत्तवीणियं वाएइ ॥५६॥ पुप्फवीणियं वाइए ॥५७॥ फलवीणियंवाइए ॥५८॥ बीयवीणियं वाएइ ॥५९॥ हरियवीणिय वाएइ ॥६॥
जे भिक्खू एवं अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा अणुदिन्नाइ सहाई उदीरेइ उदीरेंतं वा साइज्जइ ॥६१॥
जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥६२॥ जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंत वा साइज्जइ ॥६३॥ जे भिक्खू सपरिकम्म सेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥६४॥ जे भिक्खू ‘णत्थि संभोगवत्तिया किरिय'-त्ति वयइ वयं वा साइज्जइ ॥६५॥
जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गई वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धार णिज्ज पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥६६॥
जे भिक्खू लाउयपाय वा दारुपायं वा मटियापायं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्ज पलिभिदिय पलिभिदिय परिटवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥६७॥
जे भिक्खु दंडगं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणसू इयं वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिद्ववेइ परिट्ठतं वा साइज्जई ॥६॥
जे भिक्खू अइरेगपमाणं रयहरणं धरेइ धरेनं वा साइज्जइ ॥६९।। जे भिक्खू सुहुमाई रयहरणसीसाइं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू रयहरणस्स एकं बंध देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू रयहरणस्य परं तिण्हं बंधाणं देइ देंतं वा साइज्जइ ॥७२॥ जे भिक्खू रयहरण अविहीए बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥७३॥ जे भिक्खू रयहरणं कंडुसगबंधेणं बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ।।७४। जे भिक्खू रयहरणं वोसर्ट घरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥७५॥ जे भिक्खू रयहरणं अणिसिढे धरेइ धरतें वा साइज्जइ ॥७६।। जे भिक्खू रयहरणं अहिटेइ अहिटुंतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू रयहरणं उस्सीसमूले ठवेइ ठवेंतं वा साइज्जइ ।।७८॥ जे भिक्खू रयहरणं तुय?इ तुयते॒तं वा साइज्जइ ॥७९॥ तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ।।८०॥
॥ निसीहझयणे पंचमो उद्देसो समत्तो ॥
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॥ षष्ठोद्देशकः ॥ जे भिक्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए विण्णवेइ विणवेतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हत्थकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कटेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा संचालेइ संचालत वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पलिमहत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा नवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगतं वा मक्खेतं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कक्केण वा लाद्धेण वा पउमचुण्णेण वा सिणाणेण वा ण्हाणेण वा चुण्णेहि वा वण्णेहि वा उब्वट्टेइ वा परिवटेइ वा उव्वटेंतं वा परिवटेंतं बा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणादगवियडेण वा उच्छोलेज्जवा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं णिच्छल्लेइ णिच्छल्लेतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं जिग्घइ जिग्यतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवे सेत्ता सुक्कपोग्गले निग्याएइ निग्याएंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अवाउडि सयं कुज्जा संयं बूया करेंतं वा एतं वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कलहं कुज्जा कलई बूया कळहवडियाए बूया कलहवडियाए गच्छइ बूएंतं वा गच्छत वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए लेहं लिहइ लेहं लिहावेइ लेहवडियाए वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसतं वा पिटुंतवा सोयंतं वा भल्लायएण उप्पाएइ उप्पाएंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
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जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसतं वा पिट्ठतं वा सोयंत वा भल्लायएण उप्पाएत्ता सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंत वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिलुतं वा सोयं वा उच्छोलेत्ता पधोवेत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसतं वा पिटतं वा सोयंत वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपेत्ता विलिंपेत्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज वा अभंगेंतं वा मक्खेत वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसतं वा पिट्ठतं वा सोयंतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपेत्ता विलिंपेत्ता अब्भंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा धूतं वा पधूवेंतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कसिणाई वत्थाई धरेइ धरतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अहयाई वत्थाई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए धोवाइ वत्थाई धरेइ धरेतं वा साइ. ज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए चित्ताई वत्थाई धरेइ धरेंत वा साइज्जइ ॥२२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए विचित्ताई वत्थाई घरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू माउग्गामम्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥२४॥
एवं तइयउद्देसे जो गमो सो चेव इहंपि मेहुणवडियाए णेयव्वो जाव जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करें। वा साइजइ ॥२५॥
जे भिक्खू माउन्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पि वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा अन्नयरं वा पणीयं आहारं आहा रेइ आहरंतं वा साइज्जइ ॥२६॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयंति ॥२७॥
॥ निसीहज्झयणे छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥
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॥ सप्तमोद्देशकः॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालिय वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा बेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिछमालियं वा दंतमालिय वा सिंगमालिय संखमालियं वा हड्डमालिय वा कट्ठमालियं वा पत्तमालिय वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा धरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं बा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हइडमालिय वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीय. मालियं वा हरियमालियं वा पिणःइ पिणदेंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा वेत्तमालियं वा मयणमालियं वा पिंछमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा परिभुजई परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउलोहाणि वा सीसगलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥५॥ एवं 'धरेई' 'परिभुंजइ ॥६ ७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥८॥ एवं 'धरेई' 'परिभुजई' ॥९-१०॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा आईणपाउराणि वा कंबलाणि वा कंबलपाउराणि वा कोयराणि वा कोयरपाउराणि वा गोरमियाणि वा काल. मियाणि वा णीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उट्टाणि वाउट लेस्साणि वा वग्वाणि वा विवग्यागि वा पलवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि वा पडलाणि वा चीणाणि
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वा असुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगचित्ताणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरणाणि वा आभरणचित्ताणि वा आभरणविचित्ताणि वा करेइ वा करें वा साइज ||११|| 'घरे' 'परिभुंज' ॥१२- १३॥
जे भिक्खु माग्गामस्स मेहुणवडियाए इत्थि अक्खसि वा उरंसि वा उयरंसि वासि वा गहाय संचालेइ संचालेंत वा साइज्जइ ||१४||
जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जेत वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ||१५||
एवं तयउदे से जो गमो सो णेयव्वो जाव जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणबडियाए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारिय करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१६-६७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अनंतरहियाए पुढवीए णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंत तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥ ६८ ॥
'सणिद्धा पुढवीए ॥ ६९ ।। ' ससरक्खाए पुठवीए ॥ ७० ॥ 'महियाकडाए पुठवीए' ॥ ७१ ॥ 'चित्तमंताए पुठवीए' ॥ ७२ ॥ ' चितमंता सिलाए' ॥ ७३ ॥ 'चित्तताए लेलुए' 'निसीयावेज्ज' वा 'तुयद्वावेज्जा वा' ॥ ७४ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कोलावासंसि वा दारु वा जावपरट्ठिए, सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंग - पणग-दगमट्टिय-मक्काडासंताणगंसि णिसीया वेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ॥७५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारे वा गाहाइकुलेसु वा परियावसहेसु वा णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा णिसीयावेंतं वा तुट्टा वा साइज्जइ ॥ ७६ ॥
जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारे वा आरामागारे वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा निसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं खाइमं वा साइमं अणुग्यासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्धासंत वा अणुपाएंत वा साइज्जइ ॥७७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंसि वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा निसीयावेंत वा तुयट्टावेंतं वा साइज्जइ ||७८ ||
जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अंकंसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेता वा यट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्धासेज्ज वा
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अणुपाएज्ज वा अणुग्यासंतं वा अणुपाएंतं वा साइज्जइ ॥७९॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णतरं तेइच्छं आउदटइ आउटुंतं वा साइज्जइ ॥८०॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुन्नाई पोग्गलाई नीहरेइ नीहरेतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडि याए मणुन्नाई पोग्गलाई उवकिरइ उवकिरंतं वा साइज्जइ ॥८२॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा पायंसि वा पक्खंसि वा पुच्छंसि वा सीसंसि वा गहाय संचालेइ संचालतं वा साइ. ज्जइ ॥८३॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा सोयंसि कर्ट वा किलिंचं वा अंगुलियं वा सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ संचालेंतं वा साइज्जइ ॥८४॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा पक्खिजायं वा 'अयमित्थि'-त्ति कटु आलिंगेज्ज वा परिस्सएज्ज वा परिचुंबेज्ज वा आलिंगतं वा परिस्सयंत वा परिचुंबतं वा साइज्जइ ॥८५॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देते वा साइज्जइ ॥८६॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छतं वा साइज्जइ ॥८७॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं चा पायपुंछणं वा वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥८८॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥८९॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं आकारं करेइ करें। वा साइज्जइ ॥९२।। तं सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥९३॥
॥ निसी हज्झयणे सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥७॥
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॥ अष्टमोद्देशकः ॥
जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावससु वा एगो एत्थिीए सद्धिं विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवर्णं वा परिद्ववेद, अण्णयरं वा अणारियं निरं मेहुण अस्समणपाओगे कहं कहे कहतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू उज्जाणंसि वा० ॥ २ ॥ जे भिक्खू असिवा || ३ || जे भिक्खू दगंसि वा० ॥ ४ ॥ जे भिक्खू सुष्ण गिर्हसि वा० ॥ ५ ॥ जे भिक्खू तणगिहंसि वा० ॥ ६ ॥ जे भिक्खु जाणसालंसि वा० || ७ || जे भिक्खू पणियसालंसि बा० ॥ ८ ॥ जे भिक्खू गोणसालंसि वा० ॥ ९ ॥
जे भिक्खू राओ वा वियाले वा इत्थीमज्झगए इत्थमंसते इत्थीपरिवुडे अपरिमाणयाए कहं कहे कहेंतं वा साइज्जइ ॥ १०॥
जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परगणिच्चियाए वा णिगंथीए सद्धिं गामाणुगामं दृइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्ठओ रीयमाणे ओहयमण संकप्पे चिंतासोयसागरसंप कर पल्हत्थमुहे अज्झाणो गए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करे, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं मेहुणं असमणपाओग्गं कहं कहेइ कहतं वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खु णाय वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस अर्द्ध वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ संवसावेंतं वा साइज्जइ ॥ १२॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवासावेइ तं पहुच्च निक्खमइ वा पविसर वा निक्खमंतं वा पत्रिसंतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥
जे भिक्खू तं न पडियाइक्खेइ न पडियाइक्खतं वा साइज्जइ ॥ १४॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं समवासु वा पिंडनियरेसु वा इंदम वा खंदमहेसु वा रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जक्खमहेसु वा णागमहेसु वा धूममहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडम वा तडागमहेसु वा दहमहेसु वा णईमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा डिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ||१५||
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जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उत्तरसालंसि वा उत्तरगिहंसि वा रीयमाणाणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहत वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं हयसालागयाण वा गयसालागयाण वा मंतसालागयाण वा गुज्झसालागयाण वा रहस्ससालागयाण वा मेहुणसाला. गयाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सण्णि हिसण्णिचयाओ खीरं वा दहि वा णवणीयं वा सपि वा तेलं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा भोयणजायं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाण मुद्धाभिसित्ताणं उस्सपिंड वा संसट्टपिंडं वा अणाहपिंडं वा किविणपिडं वा वणीमगपिंडं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं ॥२०॥
॥ णिसीहज्झयणे अहमो उद्देसो समत्तो ॥८॥
॥नवमो देशकः ॥ जे भिक्खू रायपिंड गिण्हइ गिण्हतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू रायपिंडं मुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंत वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू रायंतेपुरियं वएज्जा “आउसो रायंतेपुरिए णो ! खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरे णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा इमं तुमं पडिग्गहं गहाय रायतेपुराओ असणं वा पाण वा खाइम वा साइम वा अभिहडं आहटु दलयाहि" जो तं एवं वयइ वयंतं वा साइज्जइ॥४॥
जे भिक्खू नो वएज्जा रायंतेपुरिया वएज्जा “आउसंतो समणा ! णो खलु तुझं कप्पइ रायंतेपुरे निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा आहरेयं पडिग्गहं अतो अम्हं रायंतेपुराओ असण वा पाणवा खाइमं वा साइम वा अभिहडं आहटु दलयामि" जो तं एवं वयंतिं पडिमुणेइ पडिसुणेतं वा साइज्जइ ।।५।।
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुवारियभत्तं वा पमुभत्तं वा भयगभत्तं वा बलिभत्तं वा कयगमत्तं वा हयभत्तं वा गयभत्तं वा कतारमत्तं वा दुब्भि
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क्खभत्तं वा दुक्कालभत्तं वा दमगमत्तं वा गिलाणभत्तं वा बद्दलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहें वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाई छद्दोसपयाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय परं चउरायपंचरायाओ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमइ बा पविसइ वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ तंजहा-कोट्ठागारसालाणि वा भंडागारसालाणि वा पाणसालाणि वा खीरसालाणि वा गंजसालाणि वा महाणससालाणि वा॥७॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियायं मुद्धाभिसित्ताणं आगच्छमाणाण वा णिग्गच्छमाणाण वा पयमवि चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इत्थीओ सव्वालंकारविभूसियाओ पयमवि चरखुदंसणपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंसखायाणं वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया णिग्गयाणं असणं वा पाणवा खाइम वा साइम वा पडिग्गाहेइ पडिग्गहेंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उबवूहणिज्ज समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुटियाए अभिण्णाए अवोच्छिण्णाए जोतं असणं वा ४ पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥११॥ _अह पुण एवं जाणेज्जा-'इहज्ज रायखत्तिए परिवुसिए' जे भिक्खू ताए गिहाए ताए पएसाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा पाणवा खाइम वा साइम वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिढवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं अस्समणपाओग्गं कहं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाण मुदियाण मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंपहियाणं असणवा पाण वा खाइम वा साइम वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणवा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंत वा साइज्जइ॥
एवं-'नईजत्तासंपटियाणं' ॥१५॥ 'नई जत्तापडि नियत्ताणं' ॥१६॥ 'गिरिजत्तासंपट्ठियाणं' ॥१७॥ गिरिजत्तापडिनियत्ताणं' ॥१८॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाण मुद्धाभिसित्ताण महाभिसेयंसि वट्टमाणंसि णिक्खमइ वा पविसइ वा णिकावमत वा पविसंतं वा साइज्जइ ॥१९॥
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૨૮
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाओ दस अभिसेयाओ राहाणीओ उद्दिट्ठाओ गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो बा णिक्खमइ वा पविस वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइज्जइ । तंजहा - चंपा १, महुरा २, २, वाणासी ३, सावत्थी ४, सायं ५, कंपिल्लं ६, कोसंबी ७, मिहिला ८, हरिणापुरं ९, यहिं वा १० ||२०||
जे भिक्खू रण्णो खत्तियागं मुदियागं मुद्धाभिसित्ताणं असण ं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्म नीहडं पडिग्गाहे पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा - खत्तियाण वारायाण वा कुरायाण वा रायपेसियाण वा रायवंसियाण व-त्ति ॥२१॥
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B.
जे भिक्खू रणखत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा परस्स नीहड़ पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । तंजहा - णडाण वा गाण बा कच्छ्रयाण वा जल्लाण वा मल्लाण वा मुट्ठियाण वा वेलंबगाण वा कहगाण वा पत्रगाण वा लासगाण वा खेलयाण वा छत्ताणुयाण वा ॥ २२॥
जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ । तंजहा - आसपोसयाण वा इत्थपोसया वा महिसपोसयाण वा वसहपोसयाण वा सीहपोसयाण वा वग्घपोसयाण वा अपोसयाण वा मिगपोसयाण वा सुणगपोसयाण वा सूयरपोसयाण वा मेंढपोसयाण वा कुक्कुडपोसयाण वा मक्कडपोसयाण वा तित्तिरपोसयाण वा वट्टयपोसयाण वा लावयपोसयाण वा चीरल्लपोसयाण वा हंसपोसयाण वा मयूरपोसयाण वा सुयपोसयाण वा ॥
एवं - ' आसदमगाण वा इत्थिदमगाण वा १०॥२४॥ - आसमद्दगाण वा हत्थिमद्दगाण वा० ||२५|| 'आसमट्ठाण वा हस्थिमट्ठाण वा' ० ||२६|| 'आसरोहाण वा हत्थिरोहाण वा० ॥२७॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिम्गार्हतं वा साइज्जइ । तं जहा - सत्थाहावाण वा संवाहावयाण वा अभंगावयाण वा उव्वद्वावयाणपा मज्जावयाण वा मंडावयाण वा छत्तग्गहाण वा चामरग्गहाण वा हडप्परगहाण वा परियट्टग्गहाणं वा दीवियग्गहाण वा असिग्गहाण वा धणुग्गहाण वा सत्तिग्गहाण वा कतग्गहाण वा हत्थिपत्तग्गहाण वा ॥ २८ ॥
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खामं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । तंजहा - वरिसघराण वा कंचुइज्जाण वा दोवारियाण वा दंडारक्खयाण वा ॥२९॥
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जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तंजहा-खुज्जाणं जाव पारसीणं ॥३०॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥३१॥
॥निसीहज्मयणे नवमो उद्देसो समत्तो ॥९॥
॥ दशमोदेशकः ॥ जे भिक्खू भदंतं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू भदंतं फरुसं वय वयंतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू भदंतं आगाढफरुसं क्या वयंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू भदंतं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंत वा साइज्जइ ॥४॥
जे भिक्खू अणंतकायसंजुतं आहारं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ ॥ ५॥ जे भिक्खू आहाकम्मं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ ६॥ जे भिक्खू तीतं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ जे भिक्खू पडप्पण्णं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥ जे भिक्खू अणागयं निमित्तं वागरेइ वागरेंतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू सेहं विपरिणामेइ सेहं विपरिणामेंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे भिक्खू सेहं अवहरइ अवहरेंतं वा साइज्जइ ॥ ११॥ जे भिक्खू दिसं विपरिणामेइ विपरिणामेंतं साइज्जई ॥ १२ ॥ जे भिक्खू दिसं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥
जे भिक्खू बहियावासियं आएसं परं तिरायाओ अविफालेत्ता संवसावेइ संवसावेतं वा साइज्जइ ॥ १४ ॥
जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुडं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विष्फालिय अविष्फालिय संभुजइ संभुंजतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥
जे भिक्खू उग्याइयं अणुग्याइयं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥१६॥ एवं- 'अणुग्घाइयं उग्घाइयं वयइ' ॥१७॥ 'उग्घाइयं अणुग्धाइयं देइ' ॥१८॥ 'अणुग्धाइयं उग्याइयं देइ ॥१९॥
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जे भिक्खू उग्घाइयं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजतं वा साइज्जइ ॥ २० ॥ जे भिक्खू उग्घाइयहेउं सोच्चा गच्चा संभुजइ सं तं वा साइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू उग्याइसंकप्पं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजत वा साइज्जइ ॥२२।।
जे भिक्खू उग्घाइयं उग्धाइयहेउं वा उग्याइयसंकल्पं वा सोच्चा णच्चा संभुजइ संभुजेत वा साइज्जइ ॥२३॥
'अणुग्याइयं सोच्चा' ० ॥२४॥ 'अणुग्घाइयहेउं सोच्चा' ० ॥२५॥ 'अणुग्घाइयसंकप्पं सोच्चा'० ॥२६॥ 'अणुग्धाइयं-अणुग्याइयहेउं अणुग्याइसंकप्पं सोचा'० ॥२७।। 'जे भिक्खू उग्धाइयं वा अणुग्धाइयं वा सोच्चा० ॥२८॥ 'उग्याइयहउँ वा अणुग्धाइयर्ड वा सोच्चा० ॥२९॥ उग्घाइयसंकप्पं वा अणुग्याइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥३१॥ 'उग्याहयं वा अणुग्घाइयं वा उग्घाइयहेउं वा अणुग्याइयहेउं वा उग्घाइयसंकप्पं वा अणुग्याइयसंकप्पं वा सोच्चा० ॥३१॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणत्यमियमणसंकप्पे संथडिए णिव्वितिगिच्छासमावण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता संभुंजइ संभुंजतं वा साइज्जइ, अह पुण एवं जाणेज्जा अणुग्गए सरिए अत्थमिए वा से जं च मुहंसि वा जं च पाणिसि वा जं च पडिग्गहंसि वा तं विगिंचिय विसोहिय तं परिहावेमाणे णाइक्कमइ, जो तं भुजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावणेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुंजइ भुंजतं वा साईज्जई ॥ ३३ ॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणत्यमियमणसंकप्पे असंथडिए निवितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं जइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ ३४॥
जे भिक्खू उग्गयवित्तिए अणथमियमणसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमा. वण्णेणं अप्पाणेणं असणं वा ४ जाव जो तं भुजइ भुजंतं वा साईज्जइ ॥ ३५ ॥
जे भिक्खू राओ वा बियाले वा सपाणं सभोयणं उग्गालं आगच्छेज्जा तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ तं उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते, जो तं पच्चोगिलइ पच्चोगिलंत वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥
जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा ण गवेसइ ण गवसंतं वा साइज्जइ ॥३७॥
जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥३८॥
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जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अब्भुटिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए अलभमाणे जो तं ण पडियाइक्खइ ण पडियाइक्खंतं वा साइज्जइ ॥ ३९ ॥
__जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे अभुटिए सएण लाभेण असंथरमाणे जो तस्स न पडितप्पई न पडितप्पंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥
जे भिक्खू पढमपाउससि गामाणुगाम दुइज्जइ दुइज्जतं वा साइज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगाम दुइज्जइ दुइज्जतं वा साइउजइ ॥४२॥
जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥४४॥
जे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाइंपि बालाई उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥४५॥
जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरियपि आहारमाहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ॥४६॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पज्जोसवेइ पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ॥ ४७ ॥
जे भिक्खू पढमसमोसरणुहेसे पत्ताई वा चीवराई वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहें वा साइज्जइ ॥ ४८॥ तं सेवमाणे आवज्जई चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥ ४९ ॥
॥ निसीहायणे दसमो उद्देसो समत्तो ॥१०॥
॥ एकादशोदेशकः ॥ जे भिक्खू अयपायाणि वा तंबपायाणि वा तउपायाणि वा सीसगपायाणि वा कंसपायाणि वा रुप्पायाणि वा सुवण्णपायाणि वा जायख्वपायाणि वा मणिपायाणि वा कणगपायाणि वा दंतपायाणि वा सिंगपायाणि वा चम्मपायाणि वा चेलपायाणि वा अंकपायाणि वा संखपायाणि वा वइरपायाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १ ॥
एवं धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ २॥ एवं परिभुजइ परिभुजंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू अयबंधाणि वा जाव वइरबंधाणि वा करेइ करेंतं वा साइइज्जइ ॥ ४॥ एवं-धरेइ धरतं वा साइज्जइ ॥ ५॥ एवं परिभुजइ परिभुंजतं वा साइज्जइ ॥ ६॥ जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ पायवड़ियाए गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जह ।।
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जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपायपहंसि पायं अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥ ८॥
जे भिक्खू धम्मस्स अवन्नं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥ १० ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जत वा साइज्जइ ॥ ११॥
एवं तइयउद्देसगमो णेयव्वो णवरं अण्णअत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा अभिलावो भाव जे भिवखू गामाणुगाम दुइज्जमाणे अण्णउस्थियरस वा गारपियरस वा सीसदुवास्यिं करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥१२-६३॥
जे भिक्खू अप्पाणं बीहावेइ बीहावेतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू परं बीहावेइ बीहार्वेतं वा साइज्जइ ॥६५॥ जे भिक्खू अप्पाणं विम्हावेई विम्हावेत वा साइज्जइ ॥६६॥ जे भिक्ख परं विम्हावेइ विम्हावेंतं वा साइज्जई ॥६७॥ जे भिक्खू अप्पाणं विपरियासेइ विपरियासतं वा साइज्जइ ॥६८॥ जे भिक्खू परं विपरियासेइ विपरियासंतं वा साइज्जइ ॥६९॥ जे भिक्खु मुहवण्णं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू वेरज्जविरूद्धरज्जंसि सज्जो गमणं सज्जो आगमणं सज्जो गमणागमणं करेइ करेंतं वा साइज्जई ॥७१॥
जे भिक्खू दियाभोयणस्स अवणं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥७२॥ जे भिक्खू राइभोयणस्स वणं वयइ वयंत वा साइज्जइ ॥७३॥
जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजइ दिया मुंजतं वा साइज्जइ ॥७४॥
जे भिक्खू दिवा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता रत्ति भुजइ रति मुंजतं वा साइज्जइ ।।७५॥
जे भिक्खू रत्तिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता दिया भुंजइ दिया मुंजत वा साइज्जइ ॥७६॥
जे भिक्खू रत्तिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता रत्ति मुंजइ रति मुंजतं वा साइज्जइ ॥७७॥
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जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिवासेइ परिवासें वा साइज्जइ ॥७८॥
जे भिक्खू परिवासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाईमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ आहारेंतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं वा हीरमाणं पेहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं रयणि अण्णत्थ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ १८०
जे भिक्खू निवेयणपिंडं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥८२॥ जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥८३॥
जे भिक्खु णायगं वा अणायगं वा उवासंग वा अणुवासगं वा अणलं पन्वावेइ पवावेतं वा साइज्जइ ॥८४॥
जे भिक्ख णायगं वा अणायग वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवहावेइ उवद्यावेतं वा साइज्जइ ॥८५॥
जे भिक्खु णायगेण वा अणायगेण उवासएण वा अणुवासरण वा अणलेण वेयावच्च कारावेइ कारावेतं वा साइज्जइ ॥८६॥
जे भिक्खू सचेले सचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंत वा साइजइ ॥८॥ जे भिक्खू अचेले सचलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥८९॥ जे भिक्खू अचेले अचेलगाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू परिवसियं पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा विलं वा लोणं उब्भियं वा लोण आहारेइ आहारेत वा साइज्जइ ॥९१॥
जे भिक्खू गिरिपडणाणि वा मरुपडणाणि वा भिगुपडणाणि वा तरुपडणाणि वा गिरिपक्खंदणाणि वा मरुपक्खंदणाणि भिगुपक्खंदणाणि वा तरुपक्खंदणाणि वा जलपवेसाणि वा जलणपवेसाणि वा जलपक्खंदणाणि वा जलणपक्खंदणाणि वा विसभक्खणाणि वा सत्थोपाडणाणि वा वलयमरणाणि चा वसहाणि वा तब्भवमरणाणि वा अंतोसल्लमरणाणि वा वेहायसाणि वा गिद्धपट्टाणि वा जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ ॥९२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं ॥९३॥
॥निसीहज्झयणे एगारसमो उद्देसो समत्तो॥११॥
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॥ द्वादशोदेशकः ॥ जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासरण वा मुंजपासएण वा कट्टपासएण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासएण वा मुत्तपासएण वा रज्जुपासरण वा बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू कोलुणवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासरण वा मुंजपासएण वा कट्टपासरण वा चम्मपासएण वा वेत्तपासरण वा सुत्तपासएण वा रज्जुपासएण वा बद्धे लगं मुंचइ मुंचतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू अभिक्खणं अभिक्खणं पञ्चक्खाणं भजइ भजंतं वा साइजइ ॥३॥ जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारं आहारेइ आहारेतं वा साइज्जह ॥४॥ जे भिक्खू सलोमाई चम्माई धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ॥५॥
जे भिक्खू तणपीढग वा पलालपीढगं छगणपीढगं वेत्तपीढग वा परवत्थेणोच्छन्नं अहिटेइ अहिटेत वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू णिग्गंथीण संघार्डि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सिव्वावेह सिवावते वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू पुढवीकायस्स वा आउकायस्स वा अगणिकायस्स वा वाउकायस्स वा वणस्सइकायस्स वा कलमायमवि समारभइ समारभंतं वा साइज्जइ ॥८॥
जे भिक्खू सचित्तरुक्खं दूरूहइ दूरूहंतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥१०॥ जे भिक्खू गिहिवत्थं परिहेइ परिहतं वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू गिहिनिसेज्ज वाहेइ वाहेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू गिहितेइच्छं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू पुरेकम्मकडेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असण वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
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जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णतित्थियाण वा सीओदगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीए बा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू कटकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा लेप्पकम्माणि वा दंतकम्माणि वा मणिकम्माणि वा सेलकम्माणि वा गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा पत्तच्छेज्जाणि वा विविहाणि वा वेहिमाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिंसधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि वा उप्पलानि वा पल्ललाणि वा उज्झराणि वा निज्झराणि वा वावीणि वा पोक्खरिणी वा दीहियाणि वा गुंजालियाणि वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा चक्द सणवडियाए अभिंसधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जह ॥१७॥
जे भिक्खू कच्छाणि वा गहणाणि वा शूमाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥१८॥
जे भिक्खू गामाणि वा णगराणि वा निगमाणि वा खेडाणि वा कब्बडाणि वा मडंबाणि वा दोणमुहाणि वा पट्टणाणि वा आगराणि चा संबाहाणि वा संनिवे. साणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधार वा साइज्जइ ॥१९॥
जे भिक्खू गाममहाणि वा णगरमहाणि वा णिगममहाणि वा खेडमहाणि वा कब्बडमहाणि वा मडंबमहाणि वा दोणमुहमहाणि वा पट्टणमहाणि वा आगरमहाणि वा संबाहमहाणि वा संनिवेसमहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२०॥
जे भिक्खू गामवहाणि वा णगरवहाणि वा णिगमवहाणि वा खेडवहाणि वा कब्बडवहाणि वा मडंबवहाणि वा दोणमुहवहाणि वा पट्टणवहाणि वा आगरवहाणि वा संबाहवहाणि वा संनिवेसवहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२२॥
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जे भिक्खू गामपहाणि वा णगरपहाणि वा निगमपहाणि वा खेडपहाणि वा कब्बडपहाणि वा मडंबपहाणि वा दोणमुहपहाणि वा पट्टणपहाणि वा आगरपहाणि वा संबाहपहाणि वा संनिवेसपहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारें वा साइजइ ॥२२॥ ___ जे भिक्खू गामदाहाणि वा णगरदाहाणि वा निगमदाहाणि वा खेडदाहाणि वा कब्बडदाहाणि वा मडंबदाहाणि वा दोणमुहदाहाणि वा पट्टणदाहाणि वा आगरदाहाणि वा संबाहदाहाणि वा संनिवेसदाहाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू आसकरणाणि वा हत्यिकरणाणि वा उट्टकरणाणि वा गोणकरणाणि पा महिसकरणाणि वा सूयरकरणाणि वा चक्खुदंसणवडियए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२४॥
जे भिक्खू आसजुद्धाणि वा हथिजुद्धाणि उट्टजुद्धाणि वा महिसजुद्धाणि वा सयरजुद्धाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू गाउजूहियठाणाणि वा हयजूडियठाणाणि वा गयजूहियठाणाणि वा चक्खुदसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ ॥२६॥
जे भिक्खू अभिसेयठाणाणि वा अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणपमाणठाणाणि वा महयाहयनदृगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवठाणाणि वा धक्खुदंस. णवडियाए अभिसंधारेइ अभिंसधारेंतं वा साइज्जइ ॥२७॥
जे भिक्खू डिंबाणि वा डमराणि वा खाराणि वा वेराणि वा महाजुद्धाणि वा महासंगामाणि वा कलहाणि वा बोलाणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥ २८ ॥
जे भिक्खू विरूवरूवेसु महुस्सवेस इत्थीणि वा थेराणि वा मज्झिमाणि वा डहराणि वा अणलंकियाणि वा मुअलंकियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नच्चताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परिभायंताणि वा परिझुंजंताणि वा चक्खुदंसणवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥ २९ ॥
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३७
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परलोइएस वा रूस दिसु वा स्वे
जे भिक्खू इहलोइएस वा रूवे अदि वा रूवे सुसु वा रूवेसु वा असुरसु वा रूवेसु विन्नाएसु वा रूवेसु अविन्नासु वा रूवे सज्जइ रज्जइ गिझर अज्झोववज्जइ सञ्जतं वा रज्जतं वा गिज्झतं वा अज्झोववज्र्ज्जत वा साइज्जइ ॥ ३० ॥
जे भिक्खू पढमाए पोरिसीए असणं वा पाणं खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ ३१ ॥
जे भिक्खु परं अद्धजोयणमेराओ परेण असणं वा ४ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
जे भिक्खू दिया गोमयं परिगात्ता दिया कार्यसि वर्ण आलिपेज्ज वा विलिंपेज वा आलिंपतं वा विलिपतं साइज्जर | ३३ ॥
जे भिक्खु दिया गामयं पडिग्गाहेता रत्ति कार्यसि वणं आलिपेज्ज वा विलिंपेज वा आलिपतं वा विपितं वा साइज्जइ ॥ ३४ ॥
जे भिक्खू रर्त्ति गोमयं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज वा आळिपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥
जे भिक्खू रतिं गोमयं पडिग्गाहेत्ता रत्ति कार्यंसि वणं अलिपेज्ज वा विलिंपेज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥
जे भिक्खू दिया आलेवणजायं पडिग्गाहेत्ता दिया कार्यंसि वर्ण आळिपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आलिपतं वा विलितं वा साइज्जइ ॥ ३७ ॥
जे भिक्खू अन्नउत्थिरण वा गारस्थिरण वा उबहिं वहावेइ कहावेंतं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥
जे भिक्खू तन्नीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देतं वा साइजइ ॥ ४२ ॥
जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाओ महानईओ उद्दिद्वाओ गणियाओ जियाओ तो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरइ वा संतरइ वा उत्तरं वा संतरंत वा साइज्जइ । तं जहा-गंगा, जउणा, सरऊ, एराबई, मही - ति ॥ ४३ ॥
तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्धायं ॥ ४४ ॥
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॥ निसीहझयणे बारसमो उद्देसो समत्तो ॥ १२ ॥
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॥ त्रयोदशो देशकः॥ जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्ज वा णिसेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ चेएंतं वा साइजइ ॥ १॥
एवं जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए० ॥ २ ॥ जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए. ॥३॥ जे भिक्खू मटियाकडाए पुढवीए० ॥ ४ ॥ जे भिक्खू वित्तमंताए पुढवीए. ॥ ५ ॥ जे भिक्खू चित्तमंताए सिलाए ॥ ६॥ जे भिक्खू चित्तमंताए लेलए ठाणं वा सेज्ज वा निसेज वा निसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिय सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओस्से सउदए सउत्र्तिगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणगंसि ठाणं वा सेज्ज वा णिसेज्ज वा णिसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥
जे भिक्खू थूणसि वा गिहेलुयंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा दुब्बद्ध दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेज्ज वा णिसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥९॥
जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुसि वा अंतलिक्खजायंसि वा दुब्बद्धे दुणिक्खित्ते अणिकपे चलाचले ठाणं वा सेज वा निसेज्जं वा णिसीहियं वा चेएइ चेएंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥
जे भिक्खू खंसि वा फलिहंसि वा मंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा पासायसि वा हम्मतलंसि वा दुबद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिक्कंपे चलाचले ठाणं वा सेज वा निसेज्ज वा निसीहियं वा चेएइ चेएतं वा साइज्जइ ॥ ११ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोगं वा अट्ठावयं वा कक्कडगं वा वुग्गहं वा सलाह वा सलाहकहत्थयं वा सिक्खावेइ सिक्खावेंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१३॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
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जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढफरुसं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चा साएइ अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा कोउगकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा भूइकम्म करेइ करेंनं वा साइज्जइ ॥ १८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं करेइ करते वा साइज्जइ ॥ १९ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणापसिणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पसिणं कहेइ कहेंतं साइज्जइ ॥ २१ ॥ जेभिक्खू अण्णउत्यियाण वा गारत्थियाण वा पसिणा-पसिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २२ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा तीयं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २३ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा पडुप्पण्ण निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ।। २४ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा आगमिस्सं निमित्तं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २५ ॥ जे भिक्खू अण्णउस्थियाण गारत्थियाण वा लक्खणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा वंजणं कहेइ कहते वा साइज्जइ ॥ २७ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा सुमिणं कहेइ कहेंतं वा साइज्जइ ॥ २८ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा विज्ज पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ॥ २९ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा मंतं पउंजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ॥ ३० । जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारस्थियाण वा जोगं पउजइ पउंजंतं वा साइज्जइ ॥ ३१ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा नट्ठाणं मूढाणं विप्परियासियाणं मग वा पवेएइ संधि वा पवेएइ मग्गओ वा संधि पवेएइ, संधिओ वा मग्गं पवेएइ पवेएतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा धाउं पवेएइ पवेएतं वा साइज्जइ ॥३३॥
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जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा निहिं पवेएइ पवेएंत वा साइज्जइ ॥ ३४॥
जे भिक्खू मत्तए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥ जे भिक्ख अदाए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू असीए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ।। ३७ ॥ जे भिक्खू मणिए अप्पाणं देहेइ देहंत वा साइज्छइ ॥३८॥ जे भिक्खू कुंडपाणीए अपाणं देहेइ देतं वा साइज्जइ ॥ ३९ ॥ जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ जे भिक्खू तेल्ले अप्पाणं देहेइ देतं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥ जे भक्खू महुए अप्पाणं देहेइ देहंतं साइज्जइ ॥ ४२ ॥ जे भिक्खू सप्पिए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू मज्जए अप्पाणं देहेइ देहंतं वा साइज्जइ ॥ ४४ ॥ जे मिक्खू वसाए अप्पाणं देहेइ देहतं वा साइज्जइ ॥४५॥
जे भिक्खू वमणं करेइ करेंतं साइज्जइ ॥ ४६॥ जे भिक्खू विरेयणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४७ ॥ जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करेंतं वा साइजइ ॥४८॥ जे भिक्खू आरोग्गपडिकम्मं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ४९ ।। जे भिक्खू पासत्यं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥ ५० ॥ जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ पसंसंतं वा साइजज्जइ ॥५१॥
जे भिक्खू कुसीलं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥५२॥ जे भिक्खू कुसीलं पसंसह पसंसतं वा साइज्जइ ॥५३॥ जे भिक्खू ओसणं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥५४॥ जे भिक्खू ओसणं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥५५॥ जे भिक्खू संसत्तं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥५६॥ जे भिक्खू संसत्तं पसंसह पसंसंत वा साइज्जइ ॥५७॥ जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥५८|| जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसंतं वा साइज्जइ ॥५९॥ जे भिक्खू नितियं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ ॥६०॥ जे भिक्ख नितियं पसंसइ पसंसंतं वा साइजह ॥६१॥ जे भिक्खू काहियं वंदइ वंदतं वा साइज्जह ॥६२॥ जे भिक्खू काहियं पसंसई पसंसंतं वा साइज्जइ ॥६३॥ जे भिक्खू पासणियं वंदइ वंदतं वा साइज्जइ ॥६४॥ जे भिक्खू पासणियं पसंसइ पसंसतं ग साइज्जइ ॥६५॥ जे भिक्खू मामगं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ॥६६॥ जे भिक्खू मामगं पसंसइ पस्संसंतं
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वा साइज्जइ ||६७ || जे भिक्खू संपसारियं वंद वंदन वा साइज्जइ ||६८ || जे भिक्खू संपसारियं पसंसइ पसंसंत वा साइज्जइ ॥ ६९ ॥
जे भिक्खू धाईपिंड भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥७०॥
जे भिक्खू दुईपिंडे भुंजइ भुजतं वा साइनइ ॥ ७१ ॥ जे भिक्खू निमित्तपिंड भुंज भुतं वा साइज्जइ ||७२ || जे भिक्खू आजीवियपिंडे भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ||७३ || जे भिक्खू वणीमगपिंड भुजइ भुजं वा साइज्जइ ॥ ७४ ॥ जे भिक्खू तिगिच्छपिंड भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ ॥ ७५ ॥ जे भिक्खू कोहपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ॥ ७६ ॥ जे भिक्खू माण पिंड भुंजइ भुंजतं वा साइज्जइ || ७७|| जे भिक्खू मायापिंड मुंज झुंजतं वा साइज्जइ ||७८ || जे भिक्खू लोभपिंडं भुजइ भुंजतं वा साइज्जइ ॥ ७९ ॥ जे भिक्खू विज्जापिडं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ||८०|| जे भिक्खू मंतपिंड भुंजइ भुंजंत वा साइज्जइ ॥ ८१ ॥ जे भिक्खू जोगपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइज्जइ || ८२|| जे भिक्खू चुण्णपिंडं भुंजइ भुंजत वा साइज्जइ ॥ ८३ ॥
तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहाद्वाणं उग्घाइयं ॥ ८४॥ | ॥ निसीहज्झयणे तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥ १३ ॥ ॥ चतुर्दशो देशकः ॥
जे भिक्खू पडिग किणइ किणावेइ की माहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहे पडिग्गा वा साइज्जइ ॥ १ ॥
जे भिक्खू पग्गिदं पामिच्चेइ पामिच्चावेइ पामिच्चियमाहटु दिज्जमाणं पडि - गाहे पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ||२||
जे भिक्खू पडिग्गहं परियट्टेइ परियट्टा वेइ परियट्टियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गा पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ||३||
जे भिक्खू पडिग्गहं अच्छिज्जं अणिसिहं अभिहडमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिम्गातं वा साइज्जइ ||४||
जे भिक्खू अतिरेगपडिग्गहं गणि उद्देसिय गणि समुद्देसिय त अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ ||५||
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४२
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जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरस्स वा थेरियाए वा अहत्थच्छिन्नस्स अपाय छिण्णस्स अनासाछिण्णस्स अकण्णछिष्णस्स अणोट्ट छिण्णस्स सक्कस देइ देतं वा साइज्जइ ॥६॥
जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा इत्थछिष्णस्स पायच्छिष्णरस नासाछिष्णस्स कष्णछिष्णस्स ओट्ठछिष्णस्स असक्रस न देइ न देता साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू पडिग अणलं ' अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेइ धरेंतं वा साइज्जइ ॥ जे भिक्खू पडिग्गहं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं न धरेइ न धरेंतं वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू वण्णमंत पडिग्गहं विवरणं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे भिक्खू विवण्णं पग्गिदं वण्णमंतं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥ ११ ॥
जे भिक्खू 'नव मे पडिग्गहे लद्धे' ति कट्टु तेल्लेण वा घरण वा णवणीपण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्र्खेत वा भिलिंगतं वा साइज्जइ ॥ १२॥
66
जे भिक्खू वर मे पडिग्गहे लद्धेत्ति कटु लोद्रेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वणेण वा उल्लोलेज्ज वा उधव्त्रट्टेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वहृतं वा साइज्जइ ॥ १३ ॥ जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्वे-त्ति कट्टु सीओदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलेंतं वा० ||१४|| जे भिखू णवए मे पडिम्गहे लदे कि बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० || १५ || वहुदेवसिएण लोद्रेण वा० ॥ १६ ॥ बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० ||१७|| जे भिक्खू सुब्भिगंधे पडिग्गहे लदे -त्ति कट्टु दुभिगंधे करे || १८ || जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडिम्गहे लद्धे त्ति कटु सुन्भिगंधे करे ||१९|| जे भिक्खू सुभिगंधे पडिग्गहे लदे - ति कट्टु तेल्लेण वा० ||२०|| लोद्वेण बा० ||२१|| सीओदगवियडेण वा ० ||२२|| एवं बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ॥२३॥ बहुदेसिएण लोडेग वा० ||२४|| बहुदेवसिएण सीओदगवियडेण वा० || २५ || जे भिक्खू दुभिगंधे पडिग्गहे लद्धे-त्ति कट्टु तेल्लेण वा० ||२६|| लोद्रेण वा० ||२७|| सीओदागवियडेण वा० ||२८|| एवम् बहुदेवसिएण तेल्लेण वा० ||२९|| बहु देवसिएण लोण वा० ॥ ३० ॥ बहुदेव सिएण सीओदगवियडेण वा० ॥ ३१॥
जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए पडिग्गहं आयावेज्ज वा पया वेज्ज वा, आयातं वा पयावेत व साइज्जइ ||३२||
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४३
एवं ससणिद्धार पुढवीए० ॥३३ - ४२ ॥
०
जे भिक्खू पडिग्गहाओ पुढवीकार्य नोहरेइ नीहरावेइ नोहरियं आहद्दु दिज्ज माणं डिग्गा डिग्गा वा साइज्जइ ||४३|| एवं आउकार्यं • || ४४ || तेउकायं ० ॥ ४५ ॥ एवं कंद-मूल-पत्त - पुष्फ - फल - बीय हरियकायं ० ||४६ - ५२ || ओसहिबीयं ॥ ५३ ॥ तस पाणजायं ॥ ५४ ॥
जे भिक्खू पडिग्गहं कोरेइ कोरावेइ कोरियं आहदटु दिज्जमाणं पडिग्गाहे पडिग्गातं वा साइज्जइ ॥ ५५ ॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा गामंतरंसि वा वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गह ओभासिय ओभासिय जायइ जायंतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥ जे भिक्खू णाय वा अणायर्ग वा उवास वा अणुवासगं वा परिसामज्झओ उता डिग्ग ओभासिय अभासिय जाया जायंत वा साइज्जइ ||५७||
जे भिक्खू पडिग्गनीसाए उडुबद्ध वसई, वसंतं वा साइज्जइ ॥५८॥ जे भिक्खू पडिग्गहनीसाए वासावासं वसई वसंत वा साइज्जइ ॥ ५९ ॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उघाई ||६० || ॥ णिसीहज्झयणे चउदसमो उद्देसो समत्तो ॥ १४ ॥ || पञ्चदशोदेशकः ॥
जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं वयइ वयंतं वा साइज्जइ ॥ | १ || जे भिक्खू भिक्खूणं फरुसं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढफरुसं वयई वयंतं वा साइज्जई ||३||
जे भिक्खू भिक्खूणं अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ, अच्चासाएं तं वा साइज्जइ ||४||
जे भिक्खू सचित्तं अवं भुंज भुजतं वा साइज्जइ ||५|| जे भिक्खू सचित्तं अं विडंसद विडंसंत वा साइज्जइ ||६|| जे भिक्खू सचित्तं अं
वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंवसालगं वा अंबचोयगं
या भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥७॥
जे भिक्खू सचित्त अवं वा अंबपेसियं वा अबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोaj वा विडंसइ विडंसं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥
जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अवं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ ||९|| जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंब विडंसह विडंसंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ ॥
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जे भिक्खू सचित्तइपट्ठियं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वा भुंजइ मुंजत वा साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू सचित्तपइडियं अंब वा अंबपेसियं वा अंबभित्तं वा अंबसालगं वा अंबचोयग वा विहंसइ विडंसंत वा साइज्जइ ॥१२।।।
जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पाए आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जातं वा पमज्जातं साइज्जइ ॥१३॥
एवं तइयउद्देसगमओ णेयव्यो जाव गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थिरण वा गारथिएण वा अप्पणो सीसदुवारियं करावेइ करावेत वा साइज्जइ ॥१४-६८॥
।उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनप्रकरणम् ।। जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेमु वा परियावसहेसु वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिवेत वा साइज्जइ ॥६९॥
जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा निज्जाणंसि वा निज्जाणगिहंसि वा निज्जाणसालंसि वा उच्चारपासवर्ण परिहवेइ परिहवेतं वा साहज्जइ ॥७०॥
जे भिक्खू अट्टसि वा अट्टालियंसि वा चरियसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिढवेइ परिहवेंतं वा साइज्जई ॥७१॥
जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगडाणंसि वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७२॥
जे भिक्खू सुन्नगिहंसि वा सुन्नसालंसि वा भिन्नगिहंसि वा भिन्नसालंसि वा कूडागारंसि वा कोहागारंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ॥७३॥
जे भिक्खू तणगिर्हसि वा तणसालंसि वा तुसगिर्हसि वा तुससालंसि वा भुसगिहंसि वा भुससालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिडवेतं वा साइज्जइ ॥७४॥
जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुम्गसालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेतं वा साइज्जइ ॥७५॥
जे भिक्खू पणियगिहंसि वा पणियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा कुवियसालंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ ।।७६॥
जे भिक्खू गोणगिहंसि वा गोणसालंसि वा महाकुलंसि वा महागिहंसि वा उच्चारपासवणं परिहवेइ परिद्ववेतं वा साइज्जइ ॥७७॥
। इति-उच्चारप्रस्रवण-परिष्ठापनप्रकरणम् ।
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जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ।।७८॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देइ देंतं वा साईज्जइ ॥७९॥
जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ देंत वा साइज्जइ ॥८०-१०३॥
जे भिक्खू जायणावत्थं वा निमंतणावत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । से य वत्थे चउण्डमण्णयरे सिया तं जहा-णिच्च निवसणिए १ मज्जणिए २ छणसविए ३ रायदुवारिए ४ ॥१०॥
जे भिक्खु विभूसावडियाए अप्पणो पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ ॥१०५॥
एवं तइयउद्देसगमओ जाव-जे भिक्खू गामाणुगाम दुइज्जमाणे विभूसावडियाए अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ ॥१०६-१६०॥
जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धरेइ धरंतं वा साइज्जइ ॥१६१॥
जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा जाव पायपुंछणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइ धोवंतं वा साइज्जइ ।।१६२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्याइयं ॥१६३॥ ॥ णिसीहज्झयणे पणरसमो उद्देसो समत्तो ॥१५॥
॥ षोडशोद्देशकः ॥ जे भिक्खू सागारियसेज्ज अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥१॥ जे भिक्खू सोदगं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२॥ जे भिक्खू सागणियं सेज्जं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥३॥ जे भिक्खू सचित्तं उच्छं मुंजइ मुंजतं वा साइज्जइ ॥४॥ एवं पण्णरसमे उद्देसे अंबस्स जहा गमो सो चेत्र इहपि णेयव्वो ॥५-९॥
जे भिक्खू आरण्णगाणं वणवयाणं अडविजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१०॥
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जे भिक्खू वसुराइयं अवसुराइयं वयह वयंत वा साइज्जइ ॥११॥ जे भिक्खू अवमुराइयं वसुराइयं वयइ वयं वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू वसुराइयगणाओ अवमुराइयगणं संकमइ संकमंतं वा साइज्जई ॥१३॥
।व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तप्रकरणम् । जे भिक्खू वुग्गहवुकताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देह देंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू बुग्गहवुकंताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू वुग्गहवुकताणं वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा देइ देंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू बुग्गहवुकंताणं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वसहि देइ देंतं वा साइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं वसहि पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू बुग्गहवुकंताणं वसहि अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू वुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं देइ देंतं वा सइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू बुग्गहवुक्कंताणं सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥२२॥
इति व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्तप्रकरणम् । जे भिक्खू विहं अणेगाहगमणिज्जं संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइजह ॥२३॥
जे भिक्खू विरूवरूवाई दस्सुयाययणाई अणारियाई मिलक्खुइं पच्चंतियाई संति लाढे विहाराए संथरमाणेसु जणवएसु विहारवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा सााइज्जइ ॥२४॥
। जुगुप्सितकुलपकरणम् । जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वत्थं वा पडिगगह वा कंबलं वा पायपुंछणगं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२६॥
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जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वसहि पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२८॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं उदिसइ उदिसंतं वा साइइज्जइ ॥२९॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं समुदिसइ समुद्दिसंतं वा साइज्जइ ॥३०॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं अणुजाणइ अणुजाणतं वा साइज्जइ ॥३१॥ जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सज्झायं वाएइ वायतं वा साइज्जइ ॥३२॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥३३॥ जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं परियटेइ परियटेतं वा साइज्जइ ॥३४॥
। इति जुगुप्सित-कुलपकरणम् । जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीए णिक्खिवइ निक्खिवंतं वा साइज्जइ ॥३५॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा संथारए णिक्खिवइ णिक्खिवंतं वा साइज्जइ ॥३६॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वेहासे णिक्खिवइ णिक्खिवंतं वा साइज्जइ ॥३७॥ ____ जे भिक्खू अण्ण उत्थिएहि वा गारथिएहि वा सद्धिं भुंजइ भुजतं वा साइज्जइ ॥३८॥
जे भिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा सद्धिं आवेढिय परिवेढिय मुंबई मुंजतं वा साइज्जइ ॥३९॥
जे भिक्खू आयरियउवज्झायाणं सेज्जासंथारगं पारणं संघटित्ता हत्येणं अणणुण्णइत्ता पधारेमाणे गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ ॥४०॥
जे भिक्खू पमाणाइरित्तं वा गणणाइरित्तं वा उवहिं धरेइ धरतं वा साज्जइ ॥४१॥
जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए जीवपइटिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सओसे सउदए सउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कड़ासंताणगंसि दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिटवेतं वा साइज्जइ ॥४२॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घाइयं ॥४३॥
॥ निसीहज्झयणे सोलसमो उद्देसो समत्तो ॥१६॥
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॥ सप्तदशोदशकः ॥
।कौतूहलपतिज्ञाप्रकरणम् । जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासरण वा मुंजपासएण वा, कट्टपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा रज्जुपासरण वा सुत्तपासरण वा बंधइ बंधतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अण्णयरं तसपाणजाई तणपासएण वा, मुंजपासएण वा, कट्टपासएण वा, चम्मपासएण वा, वेत्तपासएण वा, रज्जुपासरण वा, सुत्तपासएण वा, बंधेल्लगं मुयइ मुयंतं वा साइज्जइ ॥२॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालियं वा सिंगमालियं वा संखमालियं वा हइडमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥३॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए तणमालियं वा मुंजमालियं वा भिंडमालियं वा मयणमालियं वा पिच्छमालियं वा दंतमालिय वा सिंगमालिय वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा कट्ठमालियं वा पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालियं वा बीयमालियं वा हरियमालियं वा धरेइ धरेत वा साइज्जइ ॥४॥ एवम्-परिझुंजइ० ॥५॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए अयलोहाणि वा तंबलोहाणि वा तउयलोहाणि वा सीसलोहाणि वा रुप्पलोहाणि वा सुवण्णलोहाणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥६॥ एवं घरे • ॥७॥ परिभुजइ० ॥८॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केउराणि वा कुंडलाणि वा पाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा करेइ करेंत वा साइज्जइ ॥९॥ एवं धरेइ० ॥१०॥ परिभुजइ० ॥११॥
जे भिक्खू कोउहल्लवडियाए आईणाणि वा आईणपाउरणाणि वा कंबलाणि वा कंबलपाउरणाणि वा कोयराणि वा कोयरपाउरणाणि वा गोरमियाणि वा कालमियाणि वा नीलमियाणि वा सामाणि वा महासामाणि वा उट्टाणि वा उट्टलेस्साणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा पवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा तिरीडपट्टाणि वा पतुलाणि बा पणलाणि वा आवरंताणि वा चीणाणि वा
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असुयाणि वा कणगकंताणि वा कणगखचियाणि वा कणगविचित्ताणि वा आभरण विचित्ताणि वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ||१२|| एवम् - धरेइ० ||१३|| परिभुंजइ ॥ १४ ॥ । इति कौतूहलप्रतिज्ञाकरणम् ।
जे निग्थे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा आमज्जावेज वा पमज्जावेज्ज वा आमज्जावेंत वा पमज्जावेंत वा साइज्जइ ||१५||
एवं तयउद्देसगमो भाणियव्वो जाव जे निग्गंथे निग्गंथस्स गामाणुगामं दुइज्जमाणस्स अण्णउत्थिषण वा गारस्थिपण वा सीसदुवारियं कारावेइ कारावेंतं वा साइज्जइ ॥ १६-७० ॥
एवं जे निग्ये निग्गंथीए० ॥७१ - १२६ ॥ एवं जा निग्गंथी निम्गंथस्स० ।।१२७ - १८२ ॥ एवं जा निग्गंथी निम्गंधीए० ॥ १८३-२३८ ॥
जे णिग्गंथे णिग्गंथस्स सरिसगस्स अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देतं बा साइज्जइ || २३९॥
जाणिग्गंथी णिग्गंथीए सरिसियाए अंते ओवासे संते ओवासं न देइ न देतं वा साइज्जइ ॥ २४० ॥
जे भिक्खू मालोहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जमाणं पडिग्गाts पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४९ ॥
जे भिक्खू कोद्वाउत्तं असणं वा पाणं वा खाड़मं वा साइमं वा उक्कुज्जिय णिक्कुज्जिय दिनमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ॥ २४२ ॥
'जे भिक्खू मट्टिओलित्तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उभिदिय निब्भिदिय दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४३॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढवीपइद्वियं पडिग्गाहे पडिग्गा वा साइज्जइ || २४४ || एवं आउपइद्वियं ० || २४५|| ते उपइडियं० ॥ २४६ ॥
कापट्टियं ० ॥२४७॥
जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा मुहेण वा सुष्पेन वा विणणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा वेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा फुमिता वीइता आहट्ट दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ २४८॥
ง
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जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अच्चुसिणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥२४९॥
जे भिक्खू उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा चारोदगं वा तिलोदगं वा तसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोचीरं वा अंबकंजियं वा सुद्धवियर्ड वा अहणाधोयं अणंबिलं अपरिणयं अवुक्कंतजीवं अविद्धत्थं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।।
जे भिक्खू अप्पणो आयरियत्ताए लक्खणाई वागरेइ वागरत वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू गाएज्ज वा हसेज्ज वा वाएज्ज वा णच्चेज्ज वा अभिणएज्ज वा हयहेसियं, हथिगुलगुलाइयं, उक्कट्ठसीहनाय वा करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥२५२॥ - जे भिक्खू भेरीसदाणि वा पडहसदाणि वा मुरयसदाणि वा मुइंगसहाणि वा नंदिसहाणि वा झल्लरिसदाणि वा वल्लरिसदाणि वा डमरुगसदाणि वा मद्दलसदाणि वा सदुयसदाणि वा पएससहाणि वा गोलंकिसदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वितताणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२५३॥
जे भिक्खू तालसदाणि वा, कसतालसहाणि वा लित्तियसहाणि वा गोहियसदाणि वा मकरियसहाणि वा कच्छभीसहाणि वा महइसहाणि वा सणालियासदाणि वा वलियासहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि घणाणि सहाणि वा कण्णसोयपडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२५४॥
जे भिक्खू वीणासदाणि वा विवंचीसदाणि वा तुण्णसहाणि बव्वीसदाणि वा वीणाइयसदाणि वा तुंबवीणासहाणि वा संकोडयसदाणि वा रुरुयसहाणि वा ढंकुणसहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराराणि तताणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेत वा साइज्जइ ॥२५५॥
जे भिक्खू संखसदाणि वा वंससद्राणि वा वेणुसहाणि वा खरमुहीसहाणि वा परिलीसवाणि वा चेचासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि झुसिराणि सदाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेतं वा साइज्जइ ॥२५६॥
जे भिक्खू वप्पाणि वा फलिहाणि जाव वा इहलोइएसु वा रूवेस परकोइएस वा रूवेसु जाव अज्झोववज्जतं वा साइज्जइ ।।२५७-२७०॥ तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्याइयं ॥२७॥
॥ निसीहज्मयणे सत्तरसमो उद्देसो समत्तो ॥१७॥
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॥ अष्टादशोदेशकः॥ जे भिक्खू अणहाए णावं दुरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥१॥
जे भिक्खू णावं किणइ किणावेइ कीयं आहटु दिज्जमाणं दुरूहइ दुरूहंत वा साइज्जइ ॥२॥
एवं जो चउद्दसमे उद्देसे पडिग्गहगमो सो णेयव्वो जाव अच्छेज्ज अणिसिहं अभिइडमाहटु दिज्जमाणं दुरूहइ दूरुहंतं वा साइज्जइ ॥३-५॥
जे भिक्ख थलाओ नावं जले ओक्कसावेइ ओक्कसावेत वा साइज्जइ ॥६॥ जे भिक्खू जलाओ नावं थले उकसावेइ उकसावेतं वा साइज्जइ ॥७॥ जे भिक्खू पुणं णावं उस्सिंचइ उस्सिंचंतं वा साइज्जइ ॥८॥ जे भिक्खू विखुण्णं णावं उप्पिलावेइ उप्पिलावेंतं वा साइज्छइ ॥९॥ जे भिक्खू पडिणावियं कटु णावाए दुरूहइ दुरूहतं वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू उड्ढगामिणि वा णावं अहोगामिणिं वा णावं दूरूहइ दुरूहतं या साइज्जइ ॥११॥
जे भिक्खू जोयणवेलागामिणिं वा अद्धजोयणवेलागामिणि वा णावं दूरूहा दूरूहंतं वा साइज्जइ ॥१२॥
जे भिक्खू णावं आकसावेइ खेवावेइ रज्जुणा कटेणं वा कहढावेइ आक्सावंत षा खेवावंतं वा कइढावंतं वा साइज्जइ ॥१३॥
जे भिक्खू णावं अलित्तएण वा दंडेण वा पप्फिडिएण वा सेण वा वलेण को बाहेइ वाहेंतं वा साइज्जइ ॥१४॥
जे भिक्खू णावाउदगमायणेण वा पडिग्गहेण वा मत्तएण वा णावाउस्सिंचणेण वा गावं उस्सिचइ उस्सिचंतं वा साइज्जइ ॥१५॥
जे भिक्खू नावं उत्तिगेण उदगं आसवमाणं उवरुवरि च कज्जलावेमाणं पेहाए हत्येण वा पारण वा आसत्थपत्तेण ग कुसपत्तेण वा मट्टियाए वा चेलेण वा चेलकगणेण वा पडिपिहेइ पडिपिहेंतं वा साइज्जइ । १६॥
जे भिक्खू णावागओ णावागयस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं पा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ॥१७॥
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एव एणं गमेण णावागओ जलगयस्स ० ||१८|| णावागओ पंकगयस्स० ॥ १९॥ taraओ थलग स० ||२०|| एवं जलगएणवि चत्तारि ||२४|| पंकगएणवि चत्तारि ||२८|| थलगएणवि चत्तारि ॥३२॥
जे भिक्खू वत्थं किrs किणावेइ कीयमाइस्टु दिज्जमाणं पडिग्गाहे पडिग्गातं वा साइज्जइ ॥ ३३॥
एवं उसमे उद्देसए पडिग्गहे जो गमो भणिओ सो चेव इहंपि वत्थेण णेयचो जाव जे भिक्खू वत्थनीसाए वासावासं वसइ बसंतं वा साइज्जइ, णवरं कोरणं णत्थि । ३४-९० तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ ९१ ॥
॥ निसीहज्झयणे अट्ठारसमो उद्देसो समत्तो ॥ १८ ॥
॥ एकोनविंशतितमोद्देशकः ॥
जे भिक्खू विडं किrt किणावेs की आहटु दिज्जमाणं परिग्गाह पडगावा साइज ॥१॥
जे भिक्खू विडं पामिच्चेह पामिच्चावेइ पामिच्चं आहटु दिज्जमाणं पडिगाहे पढिग्गा वा साइज्जइ ||२||
जे भिक्खू वियडं परियह परियट्टावेइ परियट्टियं आहटु दिज्जमाणं परिग्गाts डिग्गा वा साइज्जइ ||३||
जे भिक्खू अच्छेज्जं अणिसिंह अभिहर्ड आहदटु दिज्ञमाणं पडिग्गाहे पडिग्गा वा साइज्जर ||४||
जे भिक्खू गिलाणस्स अट्ठा परं तिन्हं वियडदत्तीणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहतं वा साइज्जइ ||५||
जे भिक्खू वियडं गहाय गामाणुगाणं दुइज्जइ दुइज्जतं वा साइज्जइ ||६|| जे भिक्खू वियर्ड गालेइ गालावेइ गालियं आहह्दु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ पडिवा साइज ॥ ७॥
जे भिक्खू चउर्हि संज्ञाहिं सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ । तं जहा - पुब्वाए संझाए, पच्छिमार संझाए, अवरण्डे, अद्धरते ॥८॥
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जे भिक्खू कालियसुयस्स परं तिण्डं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंत वा साइज्जइ ॥९॥ जे भिक्खू दिठिवायस्स परं सत्तण्डं पुच्छाणं पुच्छइ पुच्छंत वा साइज्जइ ॥१०॥
जे भिक्खू चउसु महामहेस सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ । तं जहा-इंदमहे, खंदमहे, जक्खमहे, भूयमहे ॥११॥
जे भिक्खू चउसु महापडिवएस सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ । तं जहामुगिम्हियपाडिवए, आसाढीपाडिवए, आसोईपाडिवए, कत्तियपाडिवए ॥१२॥
जे भिक्खू पोरिसिं सज्झायं उवाइणावेइ उवाइणावेतं वा साइज्जइ ॥१३॥ जे भिक्खू चउक्कालं सज्झायं न करेइ न करेंत वा साइज्जइ ॥१४॥ जे भिक्खू असज्झाइए सज्झायं करेइ करेंने वा साइज्जइ ॥१५॥ जे भिक्खू अप्पणो असज्झाइए सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ ॥१६॥
जे भिक्खू हेठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिल्लाई समोसरणाई वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥१७॥
जे भिक्खू णववंभचेराई अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वाएंतं वा सइज्जइ ॥१८॥ जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥१९॥ जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥२१॥ जे भिक्खू वत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२२॥
जे भिक्खू दोण्हं सरिसगाणं एक्कं सिक्खावेइ एक्कं न सिक्खावेइ, एक्कं वाएइ एक्कं न वाएइ, एक्कं सिक्खातं एक्कं न सिक्खावेंत वा, एक्कं वाएंतं एक्कं ण वाएंतं वा साइज्जइ ॥२३॥
जे भिक्खू आयरियउवज्झाएहि अविदिणं गिरं आइयइ आइयंतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वाएंत वा साइज्जइ ॥२५॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियरस वा पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ॥२६॥
जे भिक्खू पासत्यं वाएई बाएंतं वा साइज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू पासत्थस्स पडिच्छइ पडिच्छंत वा साइज्जइ ॥२८॥
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जे भिक्खू ओसन्नं वाएइ० ॥२९॥ ओसन्नस्स पडिच्छई ॥३०॥ कुसील वाएइ० ॥३१॥ कुसीलस्स पडिच्छइ० ॥३२॥ णितियं वाएइ० ॥३३॥ णितियस्स पडिच्छइ० ॥३४॥ संसत्तं वाएइ० ॥३५॥ जे भिवखू संसत्तस्स पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥२९-३६॥ - तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥३७॥
॥निसीहज्झयणे एगूणवीसइमो उद्देसो समत्तो ।।
॥ विंशतितमो देशकः ॥ जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं ॥१॥
जे भिक्खू दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं ॥२॥
जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय, आलोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥३॥
जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारहाणं पडिसे वित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं ॥४॥
जे भिक्खू पंचमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलो एमाणस्स पंचमासियं पलिउंचिय आलोएमाणस्स छम्मासियं ॥५॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासिय पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं ॥७॥
बहुसोवि दोमासिय० ॥८॥ बहुसोवि तेमासियं० ॥९॥ बहुसोवि चाउम्मासियं० ॥१०॥ बहुसोवि पंचमासियं० ॥११॥
तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१२॥
जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासिय वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१३॥
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जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोडमाणस्स मासिंयं वा दोमा. सियं वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासिय वा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१४॥
जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाण अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगतेमासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासिय वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा छम्मासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१५॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहसोवि चाउम्मासियंःवा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स बहुसोवि मासियं वा बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, पलिउंचिय
आलोएमाणस्स बहुसोवि दोमासियं वा बहुसोबि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहुसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासिय वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा बहुसोवि सम्मासियं वा तेण परं पलिइंचिए बा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा ॥१६॥
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जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमा सियं वा साइरेगतेमा सियं वा चाउम्मा सियं वा साइरेगचाउम्मासि वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारद्वाणाणं अन्नयरं परिहार - द्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठावहत्ता करणिज्जं वेयावडिय ठाविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे, सिया पुत्रि पडिसेविय पुव्वि आलोइयं १, पुवि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छापडिसेवियं पुचि आलोइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४, अपलिउंचिए अपलिउंचिय १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलि - उंचिए पलिउंचियं ४ | अपलिउचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहयि जं एयाए पवणाए पट्ठविए निव्विसमाणे पडि सेवे से विकसिणे तत्थेव आरुfood सिया ||१७|
जे भिक्खू बहुसोत्रि मासियंवा, बहुसोवि साइरेगमासियं वा बहुसोवि दोमा - सिय वा बहुसोवि साइरेगदोमासियं वा बहुसोवि तेमासिय वा बहुसोवि साइरेगतेमा - सियं वा बहुसोबि चाउम्मा सियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारहाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए वि पडिसेवित्ता से विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वं पडिसेवियं पुव्वं आलोइयं १, पुव्वं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुव्वं आलाइयं ३, पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिअचिए पलिउंचियं २, पलिउंचियं अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ | अपलिउंचिए अपलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे या पवणाए पविए निब्बिसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ||१८||
जे भिक्खू मासियं वा साइरेगमासियं वा दोमासियं वा साइरेगदोमासियं वा तेमासियं वा साइरेगते मासियं वा चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासिय वा साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारद्वाणाणं अण्णयरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठावइत्ता करणिज्जं वेयावडियं ठाविए विपडिसेवित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया, पुव्वि पडिसेवियं पुव्वि आलोइयं १, पुव्वि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं २, पच्छाप डिसेवियं पुबि आलोइयं ३,
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पच्छापडिसेविय पच्छाआलोयं ४। अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंचियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेय सकय साहणिय जे एयाए पढवणाए पढविए णिव्विसमाणे पडि सेवइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥१९॥
जे भिक्खू बहुसोवि मासिय वा बहुसोवि साइरेगमासिय वा बहुसोवि दोमासिय वा बहुसोवि साइरेगदोमासिय वा बहुसोवि तेमासियं वा बहुसोवि साइरेगतेमासियं वा बहसोवि चाउम्मासियं वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासिय वा बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि साइरेगपंचमासियं वा, एएसि परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडि सेवित्ता आलोएज्जा पलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्ज ठावइत्ता करणिज्ज वेयावडियं ठाविएवि पडि से वित्ता सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया पुचि पडिसेवियं पुचि आलोइयं १, पुब्धि पडि सेवियं पच्छा आलाइयं २, पच्छा पडिसेवियं पुटिव आलोइयं ३, पच्छापडिसेवियं पच्छा आलोइयं ४ । अपलिउंचिए अपलिउंचियं १, अपलिउंचिए पलिउंचियं २, पलिउंचिए अपलिउंनियं ३, पलिउंचिए पलिउंचियं ४ । पलिउंचिए पलिउंचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्टवणाए पट्टबिए निविसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया ॥२०॥
छम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सका. रणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥२१॥
पंचमासियं परिहारद्वाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमामासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअठं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसराइया दो मासा ॥२२॥
चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्ज्ञावसाणे सअटुं सहेउं सकारंणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥२३॥
तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥२४॥
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दोमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सका. रणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया दो मांसा ॥२५॥ ____ मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउ सकारणं अहीणमइरितं तेण परं सवीसइराइया दो मासा ॥२६॥ ___सवीसइराइय दोमासिय परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडि से वित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सदसराइया तिणि मासा ॥२७॥
सदसराइयं तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा बीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं चत्तारि मासा ॥२८॥
चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया चत्तारि मासा ॥२९॥
सवीसइराइयं चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अगणारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सदसराइया पंच मासा ॥३०॥
सदसराइयं पंचमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं छम्मासा ॥३१॥
छम्मासिय परिहारहाणं पटविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे असहें सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवइढो मासो ॥३२॥
पंचमासिंय परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोपज्जा अहावरा पविखया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवड्ढो मासो ॥३३॥
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चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ट सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवइढो मासो ॥३४॥
तेमासियं परिहारहाण पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहें सहेउं सकारण अहीणमइरित्तं तेण परं दिवढो मासो ॥३५॥
दोमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्त तेण परं दिवइढो मासो ॥३६॥
मासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पविखया आरोवणा आइमज्जावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दिवइढो मासो ॥३७॥
दिवइढमासियं परिहारहाणं पठ्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं दो मासा ॥३८॥
दोमासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं अड्ढाइज्जा मासा ॥३९॥ ____ अड्ढाइज्जमासियं परिहारट्टाणं पविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पविखया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहे सकारणं अहोणमइरित्तं तेण परं तिणि मासा ॥४॥
तेमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया अरोवणा आइमज्झावसाणे सअर्ट सहे सकारणं अहीणमइरित्तं तेण पर अटुटा मासा ॥४१॥
अद्भुट्ठमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहँ सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं, चत्तारि मासा ॥४२॥
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चाउम्मासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडि. सेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पविखया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअहें सहेउं सकारण अहीणमइरित्तं तेण परं अड्ढपंचमा मासा ।।४३॥
अड्ढपंचममासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया ओरावणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरितं तेण परं पंच मासा ॥४४॥
पंचमासियं परिहारहाणं पट्टविए अणगारे तरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्त तेण परं अड्ढछट्ठा मासा ॥४५॥ ____ अद्धछट्ठमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं छम्मासा ॥४६॥
॥ निसीहज्झयणे वीसइमो उद्देसो समत्तो ॥२०॥
॥इति निशीथसूत्रस्य मूलपाठः समाप्तः ॥ அருருருருருருருகாற்றை மாற்ற வருமா
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