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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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गुर्जर जैन कवियों की हिन्दी
साहित्य को देन.
( जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
गुजरात विश्वविद्यालय की पी-एच. डी. उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबंध
डा. हरिप्रसाद गजानन शुक्ल "हरीश"
एम. ए. पी. एच. डी. प्राध्यापक तथा अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग पाटण आर्ट्स एण्ड साइस कॉलिज, पाटण
(उत्तरी गुजरात)
ज वाह र पुस्त का ल य, मथु रा.
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महाभारते
[ ऐपीकपर्व
प्रकाशक : कुञ्जबिहारी पंचौरी एम. कॉम जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा ।
कापीराइट लेखक
मकर संक्राति १९७६
मूल्ये ३०.००
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प्राक्कथन
__ अन्य अहिन्दी भाषी प्रदेशों की तरह गुजरात में भी आज से शतियों पूर्व हिन्दी के व्यवहत होने के साहित्यक एवं ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। अपनी व्यापकता, प्रगतिशीलता एवं लोकप्रियता के कारण ही हिन्दी समस्त देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती आ रही है । गूर्जर-जैन कवियों ने भी हिन्दी की इस व्यापक शक्ति को पहचान कर उसके प्रति अपना परम्परागत मोह दिखाया है। इन कवियों की हिन्दी में विनिर्मित साहित्य-सम्पदा सदियों से अज्ञात या उपेक्षित रही है । इस साहित्य सम्पदा का उद्घाटन, परीक्षण एवं साहित्योचित मूल्यांकन करने का यह मेरा विनम्र प्रयास है।
प्रवन्ध को इस रूप में प्रस्तुत करने में मुझे जिनसे सतत प्रेरणा सर्वाधिक मार्गदर्शन तथा स्नेह प्राप्त हुआ है उन अपने गुरुदेव डॉ० अम्बाशंकर जी नागर को मैं सर्वाधिक ऋणी हूं। उनकी सहानुभूति के अभाव में इस प्रवन्ध का इस रूप में पूरा होना कदाचित् संभव न होता । मैं उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं। इसके अतिरिक्त भावों को औपचारिक रूप देना संभव भी तो नहीं ।
डॉ. नागरजी के अतिरिक्त मुझे अनेक संस्थाओं से सहायता प्राप्त हुई है। विशेषकर अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, राजस्थान शोध संस्थान, जोधपुर, साहित्य शोध विभाग ( महावीर भवन ), जयपुर, श्री आचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर, साहित्य संस्थान, विद्यापीठ, उदयपुर, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, गुजरात विद्या सभा, अहमदावाद, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, हेमचन्द्राचार्य ज्ञान भण्डार, पाटण, हेमचन्द्राचार्य पुस्तकायल, पाटण, श्री फतेसिंहराव सार्वजनिक पुस्तकालय, पाटण, जैन मण्डल पुस्ताकालय, पाठण, पाटण आस-साइन्स कॉलिज पुस्तकालय आदि संस्थाओं के हस्तलिखित एवं प्रकाशित पुस्तकों से मैंने लाभ उठाया है। इन विविध संग्रहों के अधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं का मैं कृतज्ञ हूं। उन्होंने अत्यन्त सौजन्यपूर्वक प्रतियों को देखने तथा उनका उपयोग करने की सुविधा मुझे प्रदान की है।
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महाभारते
[ऐपीकपर्व
आयोगमा
इन स्थानों के अतिरिक्त मुझे सवं श्री अगरनन
नाम कासलीवाल, पं० चैनमुग दासजी, डॉ० सरनामसिंह गर्मा "arr", Ti० नागीनान सांडेसरा, श्री दनमुगमाई मालयणिया, पंडितपर श्री मुगालालमी, पंगलाम, डॉ० रामेश्वरलाल खण्डेलवार, डॉ. रणधीर उपाध्याय, श्री
के दी kc श्रीराम नागर, डॉ० कृष्णचन्द्र श्रोत्रीय, श्री नारायणगित भाटी, मुनि श्री पुजिपी. श्री भानुविजयजी, श्री कांतिनागरजी आदि विद्वानी में भी मार्गदर्शन प्राप्त पो का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एतदर्थ में उक्त मनी से प्रति हार्दिक सताना प्राट करता हूँ। माथ ही उन सनी मात-अनात विद्वानों तथा विनाकों पे पनि सामान व्यक्त करता हूं, जिनकी गोध तथा समीक्षा गतियों में में प्रत्यक्ष या पगार में उपकृत हुआ हूँ।
अन्त में यह कहना चाहूंगा कि विषय गहन है, मेरे मापन मीगित । गुरु कवियों एवं कृतियों के परिचय बनायान मिल गये, कुछ के लिए गहरे पटना पड़ा। जो तथ्य उपलब्ध हुए, उनके आधार पर साधन और ममय की मर्यादा में रहते हुए मैंने विपय का यथाशक्ति प्रामाणिक प्रतिपादन किया है। फिर नी पूर्णता का दावा नहीं है। अपनी शक्ति की सीमानों को जानता है। अनः मन्नत प्रबन्ध में अपना एवं त्रुटियां भी रह सकती हैं, पर विद्वदवर्ग मदेव गुणग्राही ही होता है। मकर संक्राति १९७६
हरीश गजानन मुक्त हिन्दी-विभाग पाटण आर्ट्स एण्ड साइन्स कॉलिज
पाटण ( उ० गु०)
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१७वीं और १८वीं शती के जैन-गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
प्रकरणानुक्रमणिका
भूमिका खण्ड १ विषय-प्रवेश प्रकरण : १ : आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश तथा पृष्ठभूमि ।
परिचय खण्ड २ प्रकरण : २ : १७वीं शती के जैन गूर्जर कवि और उनकी कृतियों का
परिचय ।
___ आलोचना खण्ड ३ प्रकरण : ४ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में वस्तु-पक्ष । प्रकरण : ५ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में कला-पक्ष । प्रकरण : ६ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त विविध काव्य-रूप । प्रकरण : ७ : आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार ।
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महाभारते
[ऐपीकपर्व
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परिचय खण्ड २
प्रकरण : २ १७वीं शती के जैन गूर्जर कवि और उनकी कृतियों का परियच ७५–१२७
नयनसुन्दर, शुभचन्द्र, भट्टारक, ब्रह्मजयसागर, रत्नकीर्ति भट्टारक, सुमति सागर, चन्द्रकीति, विनयसमुद्र, आनन्दवर्धनसूरि, मालदेव, ब्रह्मरायमल, कनकसोम, कुशललाभ, साघुकीर्ति, सुमतिकीर्ति, वीरचन्द्र, जयवन्तसूरि, भट्टारक, सकलभूषण, उदराज, कल्याणसागरसूरि, अभयचन्द्र, समयसुन्दर, कल्याणदेव, कुमुदचन्द्र, जिनराजसूरि, वादिचन्द, भट्टारक महीचन्द्र संयमसागर, ब्रह्मअजित, ब्रह्मगणेश, महानन्दगणि, मेघराज; लालविजय, दयाशील, हीरानन्द (हीरो संघवी), दयासागर, हेमविजय, लालचन्द, भद्रसेन, गुणसागरसूरि, श्रीसार, वालचन्द्र, ज्ञानानन्द, हंसराज, ऋषभदास, कनककीर्ति ।
प्रकरण : ३ १८वीं शती के जैन गूर्जर कवि और उनकी कृतियों का परिचय १२६-१६८
आनन्दघन, यशोविजयजी, ज्ञानविमलसूरि, धर्मवर्द्धन, आनन्दवर्द्धन, केशरकुशल, हेमसागर, वृद्धिविजयजी, जिनहर्ष देवविजय, भट्टारक शुभचन्द-२, देवेन्द्रकीर्तिशिष्य, लक्ष्मीवल्लभ, श्री न्यायसागरजी, अभयकुशल, मानमुनि, केशवदास, विनयविजय, श्रीमद्देवचन्द्र, उदयरत्न, सौभाग्यविजयजी, अपमसागर, विनयचन्द्र, हंसरत्न, भट्टारक रत्नचन्द्र-२, विद्यासागर, खेमचन्द्र, लावण्यविजयगणि, जिनउदय सूरि, किशनदास, हेमकवि, कुशल, कनककुशल भट्टारक, कुंवरकुशल, गुणविलास, निहालचन्द।।
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आलोचना खण्ड ३
प्रकरण : ४ आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में वस्तु-पक्ष
१६६-२५२ भाव-पक्ष: भक्ति-पक्ष : भक्ति का सामान्य स्वरूप व उसके तत्व
१६३ जैन धर्म साधना में भक्ति का स्वरूप
१६५ जैन-गूर्जर हिन्दी कवियों की कविता में भक्ति-निरूपण १९८ विचार-पक्ष
सामाजिक यथार्थाकन, तयुगीन सामाजिक समस्याएं और कवियों द्वारा प्रस्तुत निदान धार्मिक विचार दार्शनिक विचार
नैतिक विचार प्रकृति-निरूपण : प्राकृति का आलंवनगत प्रयोग,
२४८ प्रकृति का उद्दीपन चित्रण,
૨૪૬ प्रकृति का अलंकारगत प्रयोग,
૨૪ उपदेश आदि देने के लिए प्रकृति का काव्यात्मक प्रयोग,
ર૪હ प्रकृति के माम्यम से ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा ।
२५० निष्कर्ष
२५१
२३०
२३६
२४०
२४७
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प्रकरण : ५ आलोच्य युग के जैन गुर्जर कवियों की कविता में कला-पक्ष २५३-२८६ भाषा
२५५ छन्द और संगीत विधान
२६७ अलंकार - विधान
२७५ प्रतीक - विधान
ર૭e प्रकरण - निष्कर्ष
२८५
(२)
(
(३)
प्रकरण : ६ आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त विविध काव्यरूप
२८७-३१६ (१) (विषय तथा छन्द की दृष्टि से ) रास, चौपाई अथवा चतुष्पदी, बेलि,
चौढालिया, गजल, छन्द, नीसाणी, कुण्डलियां, छप्पय, दोहा, सवैया, पिंगल आदि ।
२७६ ( राग और नृत्य की दृष्टि से ) विवाहलो, मंगल, प्रमाती, रागमाला, बथावा, गहूली आदि ।
२६८ (धर्म-उपदेश आदि की दृष्टि से ) पूजा, सलोक, कलश, वंदना, स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, गीत, सज्झाय, विनती, पद आदि ।
२६६ ( संख्या की दृष्टि से ) अष्टक, बीसी, चौवीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, वावनी, वहोत्तरी, गतक आदि ।
३०१ (५) (पर्व, ऋतु, मास आदि की दृष्टि से ) फाग, धमाल, होरी, बारहमासा, चौमासा आदि ।
३०४ ( कथा-प्रवन्ध की दृष्टि से ) प्रबन्ध, चरित्र, संवाद, आख्यान, कथा, वार्ता आदि ।
३०८ (विविध विषयों की दृष्टि से ) प्रवहण-वाहण, दीपिका, चन्द्राउला, चूनड़ी, सूखड़ी, आंतरा, दुवावत, नाममाला, दोधक, जकड़ी, हियाली. ध्रुपद, कुलक आदि ।
३१२
(७)
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mr
m
u
प्रकरण : ७ आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार
३१७-३३२ मूल्यांकन :
हिन्दी भक्ति साहित्य की परम्परा के परिवेश में मूल्य एवं महत्व संत कवि और जैन कवि
३२१ रहस्यवादी वारा
३२४ संत और जैन कवियों की गुरु सम्बन्धी मान्यताओं का विश्लेण । ३२८ सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व एवं मूल्यांकन
३२६ उपसंहार :
- ३३२
परिशिष्ट परिशिष्ट : १ : आलोच्य युग के जैन गूर्जर हिन्दी कवियों की नामावली
परिशिष्ट : २ : आलोच्य युग के जैन गूर्जर हिन्दी कवियों की कृतियों की नामावली
३३७-३४२ परिशिष्ट : ३ : संदर्भ ग्रंथ सूची
३४३-३४७ (१) हिन्दी ग्रंथ । (२) गुजराती ग्रंथ ।
(३) अंग्रेजी ग्रंथ तथा संस्कृत-प्राकृत. ग्रंथ । परिगिट : ४ : पत्र-पत्रिकाएं ।
३४८
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समपित
परमपिता परमात्मा
त्रिमूर्तिशिव
जिसने इस पुरुषोत्तम संगम युग पर ब्रह्मातन में दिव्य अवतरण कर अपने दिव्य ज्ञान और योग का अभय दान दिया तथा सच्चे ब्राह्मणत्व को झकझोर कर पूर्ण पवित्रता और अतीन्द्रिय सुख से आपूर्ण दिव्य जीवन का अनुमव कराया ।
हरीश
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गई दोनता सब ही हमारी, प्रभु ! तुज समकित - दान में । प्रभु-गुन- अनुभव रस के आगे, आवत नांहि कोउ मान में || जिनहि पाया तिनही छिपाया, न कहे कोउ के कान में । ताली लागी जब अनुभव की, तब जाने कोउ साँन में | प्रभु गुन अनुभव चन्द्रहास ज्यौं, सो तो न रहे म्यान में । वाचक जश कहे मोह महा अरि, जीत लीयो हे मेदान में ||
- यशोविजय
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प्रस्तावना डॉ० शुक्ल का प्रस्तुत शोध-प्रवन्ध गुजरात के जैन भक्त कवियों, संतों के कृतित्व तथा व्यक्तित्व बोध को उद्घाटित करता है । लेखक ने सर्वधर्म समभाव की भावना से अपने चित्त को रंजित कर पूरे तटस्थ भाव से नवीन एवं खोज पूर्ण मूल्याँकन प्रस्तुत किया है, ऐसा मेरा स्पष्ट अभिप्राय है ।
अभी मेरा मन एक गहरे ईश्वरी वज्राघात से विशेष क्षुब्ध परिस्थिति का भोग बन रहा है फिर भी संत कवि और उनकी भक्तिमयी शांति दायिनी वाणी की एक लक्ष्यता तथापि विविधता सांसारिक वज्राघातों एवं क्षुब्धताओं से पार ले जाने की एक बलवती शक्ति का परिचय अवश्य कराती है । प्रस्तुत प्रबन्ध पाठकों एवं विचारकों के चित्त में भी पवित्र सहिष्णुता का भाव अवश्य ही उदित करेगा तथा परस्पर सर्वधर्म समभाव की भावना फैलाने में बड़ा सहायक होगा । उस दृष्टि से डॉ० शुक्ल के इस प्रबन्ध का बड़ा भारी मूल्य है ।
एक अंधकारमय साम्प्रदायिक जमाना ऐसा भी था 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेद जैन मन्दिरम्' पर अब पूज्य अवतारी पुरुष महात्मा गांधीजी की पवित्रतम वाणी से वह अन्धकार विलीन सा हो गया है और परस्पर समभाव का उदीयमान हो रहा है। इससे भारत की समस्त प्रजा इस दृष्टि से एक सूत्र में अनुस्यूत होने लगी है और यही एक सूत्रता हमारे देश का जीवन है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध इसी एक सूत्रता का वड़ा समर्थक एवं पोपक है। पूर्वोक्त अन्धकार युग में भी महर्षि संत भक्त कवि श्री आनन्दघन जी मुनि ने गाया है
"राम कहो रहमान कहो कोऊ कान्ह कहो महादेव री। पारस नाथ कहो कोऊ ब्रह्मा सकल ब्रह्य स्वयमेव री॥ भाजन भेद कहावत नाना एक मृत्तिका रूपरी । तैसे खंड कल्पना रोपित आप अखंड सरूपरी ॥
___ आश्रम भजनावली, पृ० १२५ प्रस्तुत प्रबन्ध इस अखंडता का जरूर प्रचारक बनेगा और भारत के समग्र धर्मावलंबी परस्पर भातृ-भाव का अनुभव करेंगे। इसी में हमारा कल्याण है, श्रेय है
और शिव है । इमी अखंडता एक सूत्रता की विचारधारा के प्रखर समर्थक डॉ. हरीश शुक्ल विशेष अभिनन्दन के पात्र है तथा उनके इस ग्रंथ का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। 'सवको सन्मति दे भगवान्" ।
-~-पंडित वेचरदास दोशी अहमदावाद
१२-व, भारती निवास सोसायटी २५-१२-७५
अहमदावाद-६
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पुरोवाक
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वातंत्र्योत्तर-शोघ में क्षेत्रीय एवं तुलनात्मक शोध को विशेष प्रोत्साहन मिला है। हिन्दी को संविधान-द्वारा मान्यता प्राप्त हो जाने के पश्चात् उसका पठन-पाठन एवं अध्ययन-अनुशीलन देश भरके विश्वविद्यालयों में होने लगा। हिन्दीतर प्रदेश के अनुसंघित्सुओं ने जब शोध के क्षेत्र में पदार्पण किय तो स्वभावतः उनका ध्यान सबसे पहले अपने अपने क्षेत्रों की सहित्यसंपदा की ओर ही गया । इस क्षेत्रीय शोध के फलस्वरूप वगाल, पंजाब; महाराष्ट्र एवं गुजरात के आंचल से हिन्दी का प्राचीन साहित्य विपुल मात्रा में प्रकाश में आया । कहने की आवश्यकता नहीं कि यह साहित्य भापा एवं साहित्यिक गुणपत्रा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ ।
जहाँ तक गुजरात का प्रश्न है, एक तो हिन्दी भापी प्रदेश का निकटवर्ती प्रदेश होने के कारण, दूसरे वल्लभ संप्रदाय, स्वामीनारायण संप्रदाय, संतमत, सूफी संप्रदाय और जैनधर्म के प्रभाव के कारण, और तीसरे गुजरात के मुसलिम शासकों तथा राजपूत राजाकों के हिन्दी प्रेम के कारण, इस प्रदेश के अंचल में हिन्दी को फूलने-फलने का पर्याप्त अवसर मिला। इसीलिए हिन्दी मापा एवं साहित्य को हिन्दीतर मापा-मापी प्रदेशों का जो प्रदान है, उसमें गुजरात का प्रदान सर्वोपरि है । इस प्रदेश में १५वीं शती से आज तक सैकड़ों कवियों ने डिंगल, ब्रज एवं खड़ीवोली में उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया है । इस साहित्य के प्रकाश में आने से एक ओर जहाँ भारत के पश्चिमांचल में मध्यकाल में हिन्दी की व्याप्ति के साक्ष्य समुपलव्ध हुए है । वहाँ दूसरी ओर उससे भारत की सांस्कृतिक एकता एवं भारतीय साहित्य की एकान्विति की भी संपुष्टि हुई।
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गुजरात प्रांतीय हिन्दी-साहित्य के सम्बन्ध में अब तक जो शोध-प्रवन्ध प्रस्तुत किये गए हैं उनमें डॉ० हरीश शुक्ल का प्रस्तुत शोध-प्रवन्ध अनेक दृष्टियों से विशेष महत्व रखता है । डॉ० शुक्ल ने पाटण तथा अन्य गुजरात एवं राजस्थान के हस्तलिखित ज्ञान मंडारों में सुरक्षित पांडुलिपियों के आधार पर एक नितांत मौलिक एवं अछूते विपय का उद्घाटन किया है । उन्होंने गुजरात के अचल में आवृत्त मध्यकालीन जैन कवियों के हिन्दी कृतित्वका, एक सुनिश्चित समय-मर्यादा निर्धारित करके, अनुसंधान, अध्ययन एवं विवेचन प्रस्तुत किया है । मेरी दृष्टि में उनका यह कार्य उस गोतेखोर के जैसा है जो अगाध सागर में डुबकी लगाकर अनमोल मोती बटोरता है । मुझे विश्वास है, अगाध जैन महार्णव से बटोरे गए ये काव्य-मौक्तिक निश्चय ही सरस्वती के कंठामरण की गोमा में अभिवृद्धि करेंगे।
___ डॉ. हरीश शुक्ला ने यह कार्य यद्यपि विशुद्ध ज्ञानर्जन की भूमिका पर किया है तथापि इससे प्रसंगत देशभर की सांस्कृतिक एकान्विति एवं राष्ट्रमापा की व्यापक परम्परा का भी अभिज्ञान होगा । आशा है शोध गुणों से अलंकृत यह शोधकार्य-समस्त विद्वज्जनों एव साहित्य-प्रेमियों द्वारा समाहत होगा।
भापा साहित्य भवन गुजरात युनिवर्सिटी अहमदावाद-६ २५-१२-७५
--डां० अम्बाशंकर नागर अध्यक्ष, हिन्दी विभाग गुजरात युनिवर्सिटी
अहमदाबाद
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: लेखक का निवेदन : कवीर, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास आदि सन्तों ने जिस प्रकार समग्र देश में भक्ति एवं अध्यात्म की भावधारा प्रवाहित कर दी थी उसी प्रकार जैन सन्तों ने भी अपने प्रवचनों एवं साहित्य सम्पदा द्वारा भक्ति तथा ज्ञान समन्वित नैतिक एवं आध्यात्मिक जागरण का शंखनाद फूका था । किन्तु ऐसे सन्तों के बारे में एक ही स्थान पर उपलब्ध सामग्री का अभी तक अभाव ही रहा है। इसी कमी को पूरा करने के लिए गुजरात एवं राजस्थान के अंचल से प्राप्त जैन संतों का ऐतिहासिक एवं साहित्यक परिचय देते हुए उनकी उपलब्धियों का विविध दृष्टियों से मूल्यांकन प्रस्तुत करने का प्रयास यहाँ किया गया है। विश्वास है यह प्रयास हिन्दी साहित्य के इतिहास को पुन: देखने समझने के लिए एक नया गवाक्ष उद्घाटित करेगा।
साथ ही अन्य अहिन्दी भापी प्रदेशों की तरह गुजरात में भी आज से शतियों पूर्व हिन्दी के व्यवहृत होने के साहित्यिक एवं ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं । अपनी व्यापकता, प्रगतिशीलता एवं लोकप्रियता के कारण ही हिन्दी समस्त देश को एक सूत्र में अनुस्यूत करने का कार्य करती आ रही है। गुजरात के जैन सन्तों ने भी हिन्दी की इस व्यापक शक्ति को पहचान कर उसके प्रति अपना परम्परागत स्नेह दिखाया है । इन जैन सन्त कवियों का हिन्दी में विनिर्मित साहित्य-सम्पदा सदियों से अज्ञात एवं उपेक्षित रही है। इस साहित्य सम्पदा का उद्घाटन परीक्षण एवं साहित्योचित मूल्यांकन करने का भी यह मेरा विनम्र प्रयास है। आशा है, इस ओर जिज्ञासु साहित्य मर्मज्ञों की दृष्टि जायगी।
विषय गहन है मेरे साधन सीमित । अत: जो तथ्य उपलब्ध हुए उनके आधार पर साधन और समय की मर्यादा में रहते हुए मैंने विषय का यथाशक्ति प्रामाणिक प्रतिपादन किया है । फिर भी पूर्णता का दावा नहीं है । इस दिशा में यह प्रयास 'आरम्भ मात्र' ही माना जाना चाहिए । वास्तव में पाँच वर्ष के निरन्तर श्रम के पश्चात् मेरा यह प्रबन्ध काफी पूर्व ही गुजरात युनिवर्सिटी द्वारा स्वीकृत हो चुका था, पर प्रकाशन की समुचित व्यवस्था न होने के कारण पांच वर्ष तक वैसा ही पड़ा रहा । महावीर की पचीस सौंवीं निर्वाण तिथि महोत्सव के इस वर्ष में सुधा पाठकों के हाथों में इस प्रवन्ध को संशोधत रूप में प्रस्तुत करता हुआ प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं।
प्रस्तुत शोध-प्रवन्ध का प्रणयन गुजरात युनिवर्सिटी के हिन्दी-विभागाध्यक्ष श्रद्धेय डॉ० अम्बाशंकर नागरजी के विद्वत्तापूर्ण निर्देशन में सम्पन्न हुआ है जिनसे
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सतत प्रेरणा सर्वाधिक मार्गदर्शन तथा स्नेह प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे मिला है । उनकी स्नेह एवं सहानुभूति से परिपूरित आत्मीयता ने मेरे इस दुर्गम पथ को सुगम वनाया है । 'पुरोवाक' लिखकर आपने इस प्रबन्ध के गौरव को विशेष वढ़ा दिया है । मैं उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । इसके अतिरिक्त भावों को औपचारिक रूप देना संभव भी तो नहीं ।
इसे मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूँ कि जैन साहित्य मर्मज्ञ, प्रकाण्ड-पंडित, दार्शनिक एवं प्रखर चितक वयोवृद्ध पंडित वेचरदास जी ने अधिकारिक प्रस्तावना लिखकर इस शोध प्रबंध को विशेष गरिमा प्रदान की है । प्रस्तावना के ये शब्द ऐसे समय लिखे है जव आपका अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एकलौता युवा पुत्र आपकी जीवन नैया को डगमगाती छोड़ इस संसार से विदा ले गया हो— निश्चय ही यह उनकी दार्शनिक प्रतिभा, साक्षीत्व एवं व्यक्तित्व की महानता है । आपकी इस महती कृपा के लिए मैं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।
पूजनीय डॉ० सरनाम सिंह गर्माजी के सत्परामर्गो से भी मैं विशेष लाभांवित हुआ हूँ | उनके सुझावों के फलस्वरूप ही में अपना शोध-प्रबन्ध आज इस रूप में प्रस्तुत कर सका हूँ | मैं आपका जितना आभार मानू उतना ही कम है ।
गुजरात के जैन संतों का अध्ययन करते समय जैन दर्शन एवं साहित्य के मर्मज्ञा श्री दलसुखभाई मालवणीयाजी, पंडितवर सुखलालजी, मुनि श्रीपुण्य-विजयजी, श्रीअगरचन्द नाहटाजी, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवालजी, पं चैनसुखदासजी, डॉ० भोगीलाल सांडेमराजी, श्री के० का० शास्त्रीजी, श्री मानुविजयजी, श्री कांति सागरजी आदि ने अपने अमूल्य सुझाव देकर मेरा कार्य सरल एवं सफल बनाया है, इन विद्वानों को मैं हार्दिक नमन करता हूँ ।
श्रद्धय डॉ० रामेश्वरलाल खण्डेलवालजी तथा डॉ० श्रीराम नागरजी की मुझ पर निरन्तर कृपा दृष्टि रही है । उनका आत्मीय प्रोत्साहन तथा कृपा के फलस्वरूप ही मैं शोधकार्य यथा समय पूर्णकर आज यहाँ तक पहुँच सका हूँ । इसके लिए आभार भी क्या ज्ञापित करू ? इन विद्वानों के अतिरिक्त डॉ० रणधीर भाई उपाध्याय, डॉ० सुरेशभाई त्रिवेदी, डॉ० डी० एस० शुक्ल, डॉ० कृष्णचन्द्र श्रोत्रीय, श्रीनारायण सिंह भाटी, डॉ० श्री सेवन्तीलाल शाह, आचार्य एच०सी० त्रिवेदी, आचार्य वी० एस० वणीकर, आचार्य वावुभाई पटेल, प्रो० कानजी भाई पटेल आदि ने भी सहृदयता पूर्वक प्रोत्साहन देकर मुझे विशेष लाभान्वित किया है । अतः इन विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त करना अपना धर्म समझता हूँ । इस प्रसंग पर मै अपनी मातृसंस्था एवं संस्था के प्रमुख सेठ श्री तुलसीदास भाई, मंत्री श्री जीवणभाई तथा भाई चन्द भाई वकील के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने प्रेरणा व प्रोत्साहन ही नहीं अन्य विशेष सुविधाएँ भी प्रदान कर मुझे लाभान्वित किया है ।
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इस मंगल अवसर पर पूज्य माता-पिता एवं भाई-मानी की मसीम-गृपा का स्मरण भी आवश्यक है, जिनकी वजह से आज मैं इस योग्य बन सका है। सदैव उनक आर्शीवाद प्राप्त होते रहें, यही अभीप्सा है।
मित्रों एवं विद्यार्थियों के अपार स्नेह को नी कैसे भूला जा सकता है, जिनके विना यह कार्य पूर्ण होना असंभव ही था। मेरे प्रिय मित्र डा० अरविन्द जोगी, डॉ० रामकुमार गुप्त तथा प्रो० अखिलेदाशाह के महयोग के लिए क्या कहूं? वे तो मेरे अपने ही हैं । इनके प्रति आभार प्रदर्शन भी क्या कर ? गोध-प्रबंध का यह प्रकाशित रूप उन्हीं के प्रयत्नों का फल है। तदुपरांत प्रो० नवनीत माई, प्रो० बाल कृष्ण उपाध्याय, डॉ० रमेशभाई शाह, डॉ. मधुमाई, आचार्या अरविन्दा बहन, डॉ० तारा बहन आदि से भी समय समय पर प्रेरणा-प्रोत्साहन पाता रहा है, अतः सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। मेरे प्रिय विद्यार्थियों में श्री पूनमचन्द स्वामी, श्री चीमनसिंह राठौर, श्री रामखत्री एवं प्रिय विद्यार्थिनी श्रीमती कुमुदमाह, श्रीमती कल्पना पटेल, कु. कल्पना रामी तथा कुछ प्रमोदा सालवी ने मुझे जो सहायता दी है इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
इस पावन अवसर पर अपनी जीवन संगिनी, सत् धर्म पर सदैव स्थिर रहने वाली धर्म पत्नी श्रीमती सुशीला को कैसे भूला जा सकता हैं ? पर उसके प्रति धन्यवाद प्रगट करना धृष्टता ही होगी। चि० भावना, विनय, नेहा यशेष तथा अनुज प्रो० नरेन्द्र व डॉ० प्रमाकर का स्मरण भी आवश्यक है, क्योंकि वे मेरे शोध कार्य की शीघ्र समाप्ति एवं यशस्वी सफलता के लिए ललायित थे।
साथ ही उन सभी ज्ञात-अज्ञात विद्वानों, विचारकों तथा साहित्यकारों के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं जिनके ग्रन्यों के विना यह शोध कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता था। गुजरात एवं राजस्थान की शोध संस्थाओं एवं उनके संचालको का भी मैं आभारी हैं, जिन्होंने मुझे विशेष अध्ययन की सुविधा तथा पुस्तकों एवं हस्तप्रतों की प्राप्ति में सहायता दी है ।
अन्त में 'जवाहर पुस्तकालय' मथुरा के संचालक एवं प्रकाशक भाई श्री कुज विहारी पचौरी जी का भी मैं विशेष आभारी हूं, जिन्होंने इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन
की सम्पूर्ण जवाबदारी वहन कर इसे इस रूप में प्रस्तुत कर हार्दिक सौजन्य दिखाया है । अस्तु ! ॐ शांति !!
मकर संक्राति, १९७६
हिन्दी विभाग पाटण आर्ट स एण्ड सायंस कॉलेज
पाटण (उत्तर गुजरात)
-हरीश शुक्ल
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विस्तृत रूपरेखा .. भूमिका खण्ड १
विषय प्रवेश
१. प्रस्तुत विषय के चयन की प्रेरणा, नामकरण एवं महत्त्व । २. विषय से सम्बद्ध प्राप्त सामग्री का विहंगावलोकन एवं सामग्री प्राप्ति
के स्रोत । ३. प्रस्तुत विषय में निहित शोध-संभावनाएँ । ४. प्रस्तुत अध्ययन की मार्यादाएँ। - ५. प्रस्तावित योगदान। . ६. प्रकरण-विभाजन और प्रकरण-संक्षिप्ति ।
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भूमिका खण्ड
विषय प्रवेश १. प्रस्तुत विषय के चयन की प्रेरणा, नामकरण और महत्त्व
प्रेरणा :
जैनों के तीर्थधाम और साहित्य केन्द्र पाटण को आजीविका हेतु अपना कार्य क्षेत्र बनाने पर यहाँ के जैन भण्डारों और उसमें संगृहीत अनेक ग्रन्थ-रत्नों को देखने का सुयोग प्राप्त हुआ। जिज्ञासा बढ़ी, अध्ययन में प्रवृत्त होने पर पता चला कि गुजरात के अनेक जैन कवियों ने हिन्दी में रचनाएँ की हैं जो प्रायः अभी तक उपेक्षित एवं अनात हैं। गुजराती कृतियों पर तो गुजरात के विद्वानों ने गवेषणात्मक कार्य किया पर हिन्दी कृतियाँ अछूती ही रहीं। इधर डा० अम्बाशंकर नागर अपने अधिनिबंध- "गुजरात की हिन्दी सेवा" द्वारा क्षेत्रीय अनुसंधान की एक नई दिशा तो सूचित कर ही चुके थे। इस प्रकार प्रस्तुत शोध-कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा बलवती होती गई। -
___ तदनन्तर इस प्रदेश मे प्राप्त हिन्दी में रचित जैन-साहित्य व तत्सम्बन्धी समीक्षा को देखने से यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भाषा और भावधारा की दृष्टि से इस साहित्य का अभी तक वैज्ञानिक स्तर पर साहित्योचित मूल्यांकन नहीं हो सका है। गुजरात में मूल्यांकन का जो प्रयास किया भी गया है, उसमें विपुल समृद्ध जैन साहित्य की अनेकानेक अमूल्य हिन्दी कृतियां, विद्वानों की उपेक्षा के कारण, अभी तक अस्पृष्य रही हैं। शोधपरक साहित्योचित मूल्यांकन का अभाव तथा यह अस्पृष्टता भी मेरे शोधप्रबंध की प्रेरणा की मूल रही हैं। नामकरण :
प्रस्तुत प्रबन्ध का नामकरण करते समय कुछ और भी विकल्प समक्ष थे, यथा- "गुजरात के जैन कवियों की हिन्दी साहित्य को देन", "गुजरात के जैन कवियों की हिन्दी सेवा", "जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता" आदि । “जन गुजराती कवियों" की जगह श्री मो० ८० देसाई द्वारा प्रयुक्त "जैन गुर्जर कवि" प्रयोग मुझे अधिक पसन्द आया क्योंकि गुजरात का नामकरण मूल गुर्जर जाति के आधार पर ही हुआ है तथा यहाँ “गुर्जर" शब्द स्थान वाचक ( गुजरात प्रांत ) अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है अर्थात् ऐसा कवि जो जैन हो और गुजरात प्रदेश से भी संपति हो।
"जैन गुर्जर कवियों की' हिन्दी सेवा" अथवा "हिन्दी साहित्य को देन" जैसे
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जैन कवियों को हिन्दी कविता
विषयों में स्वभावतः ही साहित्य की दोनों विधाओं-गद्य और पद्य का समावेश हो जाता है | अतः विषय की व्यापकता और अपने समय व सामर्थ्य की सीमालों को देखकर केवल "पद्य" पर काम करना मुझे अधिक समीचीन लगा । इनकी " गद्य रचनाएँ" एक पृथक् प्रवन्ध की संभावनाओं से गर्भित है ।
समय की सुनिश्चित अवधि में विषय का इतना विस्तार किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं हो सकता था। गुजरात में जैन कवियों की हिन्दी पद्यात्मक रचनाएँ भी १५वीं शती से प्राप्त होने लगती हैं । १५वीं शती से आज तक की इस विपुल साहित्य-सम्पदा का अध्ययन भी समय व लेखक की साधन-शक्ति की सीमाओं के कारण, असम्भव था । अतः १४वीं और १६वीं शती ( विक्रम की ) - केवल दो सौ वर्षो की समय-मर्यादा निश्चित करनी पड़ी। उक्त शतियों को कविता को ही लेने का एक विशेष हेतु यह भी था कि इन दो शतियों में संख्या और स्तर — दोनों ही दृष्टियों से अधिक उच्च स्तर के कवि और कृतियाँ समुपलब्ध होती हैं । परिणामतः जो नामकरण उचित हो सकता है वह है- "१७वीं और १८वीं शती के जैन- गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता " |
महत्त्व :
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प्रस्तुत विषय के महत्त्व को निम्नलिखित दृष्टियों से समझा जा सकता है
(क) प्रस्तुत विषय पर शोध का अभाव ।
( ख ) साहित्य की विपुलता एवं उच्चस्तरीय गरिमा 1
(ग) सम्प्रदायगत साहित्य में साहित्यिकता ।
(घ) हिन्दी के राष्ट्रीय स्वरूप का विकास ।
इस दिशा में अब तक जो गवेषणा हुई वह विशेषतः राजस्थान और गुजरात के विद्वानों के कुछ शोध परक ग्रन्थों तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित फुटकर निवन्धों तक ही सीमित है । स्वतंत्र रूप से गुजरात के जैन कवियों की हिन्दी कविता की गवेषणा इन अध्येताओं में से किसी का मूल प्रतिपाद्य नहीं था। डॉ० अम्वाशंकर नागर को छोड़कर शेप अध्येता जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता के प्रति प्रायः उदासीन हो रहे हैं । अतः इस बात की बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती रही कि जैनगुर्जर कवियों की हिन्दी रचनाओं की समीचीन गवेषणा एवं उनकी साहित्यिक गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाय ।
भारतीय साहित्य परम्परा के निर्माण में जैन कवियों का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । संस्कृत भाषा से प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देश्य भाषाओं तक इनकी सृजन-सलिला प्रवहमान रही है । यही कारण है कि जैन साहित्य हिन्दी में भी प्रचुर है, उतना ही विविध शैली सम्पन्न भी है ।
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भूमिका खण्ड :
सम्प्रदायगत साहित्य सदैव उपेक्षणीय अथवा तिरस्करणीय नहीं होता, अनेक कृतियाँ. तो शुद्ध साहित्यिक मानदण्डों पर भी खरी उतरती हैं । अतः सम्प्रदायगत साहित्य का मूल्यांकन भी साहित्यिक समृद्धि के लिए अनिवार्य माना जायगा।
इस प्रकार के क्षेत्रीय शोधों से हिन्दी के राष्ट्रीय स्वल्प का विकास स्वतः होता चलेगा और यह एक प्रकार से व प्रकारान्तर से हिन्दी भाषा व साहित्य की. एक अतिरिक्त किन्तु महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी।
___ उक्त दृष्टियों से विचार करने पर विपय का महत्व स्वयंमेव प्रतिपादित हो। जाता है। -
२. विषय से सम्बद्ध प्राप्त सामग्री का विहंगावलोकन -
" . एवं सामग्री प्राप्ति के स्रोत - सामग्री-विहंगावलोकन : . जैन-गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता पर शोधकार्य करने के लिए मुझे जो । आधारभूत सामग्री प्राप्त हुई है, वह इस प्रकार है(१) शोध प्रवन्ध : (क) गुजरात की हिन्दी सेवा ( १६५७, राजस्थान युनिवर्सिटी )
डॉ. अम्बाशंकर नागर - (ख) गुजरात के कवियों की हिन्दी-काव्य-साहित्य को देन ( १६६२, आगरा युनिवर्सिटी)
डॉ० नटवरलाल व्यास (ग) सतरमां शतकना पूर्वार्ध ना जैन-गुजराती कविओ ('१६६३, गुजरात युनिवर्सिटी)
डॉ० वि० जे०. चोक्सी (२) हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास तथा अन्य ग्रन्थ :
(क) हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास : पं० नाथूराम प्रेमी (ख) हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास : कामताप्रसाद जैन (ग) जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास : मो० द० देसाई (घ) हिन्दी जैन साहित्य परिशीलग भाग १, २, नेमिचन्द्र शास्त्री (च) जैन गुर्जर कविओ भाग १, २, ३ : मो० ८० देसाई (छ) गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ : डॉ० अम्बाशंकर नागर
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता (ज) गुजरातीओ ए हिन्दी साहित्यमा आपेलो फालो :
बाह्याभाई पी० देरासरी (स) भुज ( कच्छ ) की ब्रजभाषा पाठशाला : कुवर चन्द्रप्रकाश सिंह (e) राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व :
डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल (३) संग्रह-संकलन ग्रन्थ :
समय सुन्दर कृत कुसुमांजलि, जिनहर्प ग्रन्यावलि, जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, धर्मवर्द्धन ग्रन्थावलि, विनयचन्द्र कृत कुसुमांजलि, ऐतिहासिक जन-काव्य संग्रह, जैन गुर्जर काव्य संग्रह, आनन्दधन पद रत्नावली, आनन्दधन पद संग्रह, गन संग्रह धर्मामृत, आनन्द काव्य महोदधि आदि हिन्दी तथा गुजराती विद्वानों द्वारा सम्पादित संकलन ग्रन्य। (४) पत्र-पत्रिकाओं में फुटकर निवन्ध :
___ शिक्षण और साहित्य, अनेकांत, जिनवाणी, परम्परा, राजस्थानी, हिन्दी अनुशीलन, वीरवाणी, सम्मेलन पत्रिका, साहित्य सन्देश, ज्ञानोदय, नागरी प्रचारणी पत्रिका, मरुवाणी, राजस्थान भारती, जैन सिद्धांत भास्कर आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न विद्वानों के फुटकर निवन्ध तथा प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, श्री राजेन्द्रसूरि स्मारक नन्थ, मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रन्थ आदि में प्रकाशित कुछ निबंध । . उपर्युक्त सामग्री में केवल तीन शोध प्रबंध ही ऐसे है, जिनमें कुछ गुर्जर कवियों तथा उनकी कृतियों का परिचय उपलब्ध होता है। डॉ० नागर के , अधिनिबंध-"गुजरात की हिन्दी सेवा" का प्रतिपाद्य गुजरात के अंचल में आती समस्त हिन्दी साहित्य सम्पदा की गवेपणा था । अतः उन्होंने वैष्णव, स्वामीनारायण 'संत, राज्याश्रित, सूफी तथा आधुनिक कवियों का परिचय प्रस्तुत करते हुए गुजरात
के आनन्दघन, यशोविजय, विनय विजय, ज्ञानानन्द, किसनदास आदि कुछ प्रमुख ___ कवियों का परिचय देने तक ही अपने को सीमित रखा है। डॉ० व्यास का कार्य
प्रारम्भिक गवेषणा का ही है। इनका प्रवन्ध यद्यपि डॉक्टर नागर के कार्य के पश्चात् प्रस्तुत किया गया था तथापि ये डॉ० नागर से विशेष जैन कवियों को प्रकाश में नहीं ला सके हैं। डॉ० चोक्सी के प्रवन्ध का मुख्य प्रतिपाद्य गुजरात और गुजरात भापा के कवियों को प्रकाश में लाने का रहा है अतः गुजरात के हिन्दी-सेवी जैन फवियों पर उनकी विशेष दृष्टि नहीं रही है।
. हिन्दी-जन साहित्य के इतिहास में भी जैन-गुर्जरं कवियों का न्यूनाधिक
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भूमिका खण्ड
उल्लेख ही हुआ है । अन्य हिन्दी एवं गुजराती के सामान्य ग्रन्थों में अपने-अपने प्रदेश विशेष के कवियों और उनके कृतित्व का परिचय मिल जाता है । इनमें कुछ कवि ऐसे अवश्य निकल आये हैं जिनका सम्बन्ध विशेषतः गुजरात और राजस्थान दोनों प्रांतों से रहा है । डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के ग्रन्थ "राजस्थान के जैन सन्त" में कुछ जैन सन्त मूलतः गुजरात के ही रहे हैं। डॉ० कस्तूरचन्दजी भी इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के परिचय से आगे नहीं बढ़े हैं । हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन में जैन कवियों के मूल्यांकन का स्वर थोड़ा ऊँचा अवश्य रहा है, पर यह मूल्यांकन समस्त हिन्दी जैन साहित्य को लेकर हुआ है । जिसमें आनन्दघन और यशोविजयजी जैसे अत्यल्प जैन- गुर्जर कवियों को स्थान मिला है, शेष अनेक महत्वपूर्ण कवि रह गये हैं ।
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सम्पादित अथवा संकलन ग्रन्थों में विशेषतः विभिन्न कवियों की फुटकर रचनाओं को ही संगृहीत व सम्पादित किया गया है । एतत्सम्वन्धी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी लेखों में गुजरात के जैन साहित्य और कवियों से सम्बन्धित विषय अत्यल्प ही रहा है ।
सामग्री प्राप्ति के स्रोत :
गुर्जर जैन कवियों की हिन्दी कविता के अध्ययन के लिए प्राप्त सामग्री को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा
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(क) संकलित सामग्री ( प्रकाशित एवं अप्रकाशित ) । - ( ख ) परिचयात्मक सामग्री ( प्रकाशित एवं अप्रकाशित ) (ग) अलोचनात्मक सामग्री ( प्रकाशित एवं अप्रकाशित ) (क) संकलित सामग्री :
अवश्य बनी हुई है। स्वतन्त्र रूपेण संग्रह
जैन- गुर्जर कवियों की समग्र हिन्दी कविता का व्यवस्थित रूप से अब तक सम्पादन नहीं हो सका है । अधिकांश ऐसी प्राप्त सामग्री गुजराती ग्रन्थों में गुजरात कविता के बीच-बीच ही उपलब्ध होती है । अत: यह आवश्यकता कि गुजरात के अंचल में आवृत्त समग्र हिन्दी जैन साहित्य का एवं सम्पादन किया जाय । इस प्रकार के साहित्य के प्रकाशन में गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी ( अहमदावाद); फा० गु० स० (बम्बई ) म० स० विश्वविद्यालय, बड़ौदा, साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, जयपुर श्री जैन श्वेताम्वर कान्फरन्स आफिस, बम्बई; श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर; श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई; सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्ट्रीट्यूट, बीकानेर, शो० बावचन्द गोपालजी, बम्बई आदि संस्थाओं का विशिष्ट योगदान रहा है । गुजराती के जैन कवियों की अप्रकाशित वाणी प्रायः निम्न स्थानों में उपलब्ध होती है
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
(क) विभिन्न पुस्तकालयों में। (ख) विभिन्न मन्दिरों एवं ज्ञान भण्डारों में । (ग) विभिन्न शोध संस्थानों तथा प्रकाशन संस्थाओं में । (घ) व्यक्ति विशेप के पास तथा निजी भण्डारों में ।
लेखक ने गुजरात के पाटण तथा अहमदावाद और राजस्थान के उदयपुर चित्तौड़, जयपुर, जोधपुर, तथा बीकानेर के विभिन्न ज्ञान भण्डारों, पुस्तकालयों तथा शोध संस्थाओं की प्राप्त सामग्री के अध्ययन का लाभ उठाया है। (ख) परिचयात्मक सामग्री :
जैन-गुर्जर कवियों के सामान्य परिचय सम्बन्धी सामग्री जैन साहित्य के . विभिन्न इतिहासों से तथा विशेषतः श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई के ग्रन्थ जैन । गुर्जर कविओ (तीन भाग) से प्राप्त हुई है। कुछ कवियों के परिचय लेखक ने विभिन्न भण्डारों की अप्रकाशित सामग्री से भी खोजने के प्रयत्न किये हैं। इसके लिए मुनि कांतिसागर जी (उदयपुर) के अप्रकाशित अंशों तथा डॉ० कस्तूरचन्द जी कालीदास जी के नोट से भी पर्याप्त सहायता मिली है।। (ग) आलोचनात्मक सामग्री :
गुजराती तथा जैन साहित्य के विशिष्ट अध्येताबों में डॉ० कन्हैयालाल मुन्शी, आचार्य अनन्तराय रावल, डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, श्री विष्णुप्रसाद त्रिवेदी, आचार्य कुंवर चन्द्रप्रकाशसिंह, डॉ० अम्बाशंकर नागर, श्री के० का शास्त्री, श्री अगरचन्द नाहटा, श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई, प्रो० मंजुलाल मजुमदार, श्री नाथूराम प्रेमी, श्री कामताप्रसाद जैन, श्री नेमिचन्द शास्त्री, डाँ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रो० दलसुखभाई मालवणिया, पं० श्री नेचरदास दोशी, पं० सुखलालजी, मुनि कांतिसागरजी, श्री पुण्यविजयजी, श्री जिनविजयजी आदि का नाम लिया जा सकता है । इन वरेण्य विवेचकों एवं चिंतकों की प्रकाशित एवं अप्रकाशित-दोनों प्रकार की । उपलब्ध सामग्री का अध्ययन लेखक ने किया है। ३. प्रस्तुत विषय में शोध-संभावनाएं
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत प्रवन्ध का विपय मौलिक एवं गवेपणा की सम्भावनाओं से पूर्ण है। ये सम्भावनाएं जहां एक ओर शोधार्थी को नसंख्य कृतियों व कृतिकारों को प्रकाश में लाने की मोर प्रेरित करती प्रतीत होती हैं, वहीं दूसरी और उनके सामूहिक मूल्यांकन का दिशा-निर्देश भी करती हैं।
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भूमिका खण्ड
४. प्रस्तुत अध्ययन की मर्यादाएं
गुजरात के जैन कवियों की हिन्दी कविता का अध्ययन करने के पूर्व निम्नलिखित बातों का स्पष्टीकरण कर लेना अधिक समीचीन होगा(१) कवियों एवं कृतियों से सम्बन्धित उद्धरण सदैव हस्तलिखित अथवा मुद्रित
मूलग्रन्थों से ही लिये गये हैं। गुजराती विद्वानों द्वारा सम्पादित ग्रन्थों से काव्य पंक्तियों और पदों को पाठ की दृष्टि से यथावत् स्वीकार कर लिया गया है। पाठशुद्धि की अनधिकार चेष्टा में उलझना लेखक ने उपयुक्त नहीं समझा। लगभग सभी स्थानों पर दिये गये सन्-संवत् प्रायः विद्वानों के मतानुसारही हैं, इनका निर्णय करना मेरा प्रतिपाद्य नहीं है। काल निर्धारण के
सम्बन्ध में भी यथासम्भव सतर्कता रखी गई है, और . जहाँ कहीं आवश्य• - कता प्रतीत हुई है विद्वानों के मतों को यथावत् कहना ही उचित समझा
गया है । प्रकरण २ और ३ में कवियों के सामने दिये गये सम्वत् अधिकांशतः उनकी उपस्थिति के काल के सूचक हैं । जैन-गुर्जर कवि से मेरा अभिप्राय है-जो जैन धर्मी परिवार में जन्मे हो अथवा जैन धर्म में दीक्षित हुआ हो। जिसका जन्म गुजरात में हुआ हो । जिसने अपनी साधना एवं प्रचार-विहार का क्षेत्र गुजरात चुना हो अथवा जो गुजरात की भूमि से सम्पृक्त न होकर भी गुजराती के साथ
हिन्दी में काव्य रचना करता रहा हो । (४) धर्म और दर्शन मेरा विषय नहीं है । आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसका • अध्ययन या विश्लेषण काव्य तत्त्व की भूमिका के स्वरूप में ही किया
गया है। -(५) भौगोलिक दृष्टि से गुजरात की सीमाएँ इस प्रकार हैं-उत्तर में बनास,
दक्षिण में दमणगंगा, पूर्व में अरावली और सह्याद्रि गिरि मालाएं तथा पश्चिम में कच्छ की खाड़ी और अरवसागर ।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने से गुजरात की राजनीतिक सीमाओं में समय समय पर मारवाड़ का वृहद् अंश ( ११वीं शती) तथा मेवाड़ का कुछ अंश समाविष्ट हुआ दिखाई पड़ता है ।
- गुजरात प्रदेश के आधार पर इस प्रदेश की भापा का नामकरण गुजराती हआ है । भाषा की दृष्टि से इस प्रदेश की सीमाएं अधिक विस्तृत हैं। अतः व्यापक अर्थ में गुजराती भाषा भापी क्षेत्र को भी गुजरात कहा जाता है। भापा की दृष्टि से
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जन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
उत्तर गुजरात की सीमा शिरोही और मारवाड़ तक पहुंचती है। इसमें सिंध का रेगिस्तान तथा कच्छ का रेगिस्तान भी या जाता है । दक्षिण गुजरात की सीमा दमण गंगा और थाणा जिला तक और पूर्वी गुजरात की सीमा घरमपुर से पालनपुर के पूर्व तक मानी जाती है।' इस प्रकार गुजरात का भापाकीय विस्तार अधिक व्यापक है। - (६) प्रस्तुत प्रवन्ध में "हिन्दी" शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया है ।
आचार्य हजारीप्रसाद जी ने भी "हिन्दी" शब्द का प्रयोग एक रूपा भाषा के लिए न बताकर एक भापा परम्परा के लिए बताया है।२ हिन्दी राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, विहार तथा मध्य प्रदेश के विशाल भूभाग की भाषा है। इसकी विभापाओं में राजस्थानी, अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली मुख्य हैं । ये चार भापाए अपने में समृद्ध एवं स्वतः अस्तित्व रखती हुई भी राष्ट्रभाषा के सुदृढ़ सिंहासन की आधार स्तम्भ
बनी हुई हैं।
हिन्दी का विस्तार अत्यधिक व्यापक है-अपभ्रंश, डिंगल, अवहट्ठ मादि भाषाओं का भी हिन्दी में समावेश कर वंगाल के बौद्ध-सिद्धों के पदों, राजस्थान के प्रशस्ति काव्यों और मैथिल-कोकिल विद्यापति के पदों को हमने अपना लिया है इसी प्रकार पंजाव, गुजरात, महाराष्ट्र तथा वंगाल के सन्तों की सधुक्कड़ी वाणी को भी हिन्दी नाम से ही अभिहित किया गया है । उर्दू भी हिन्दी की ही एक विशिष्ट शैली है।
हिन्दी के इस व्यापक अर्थ को दृष्टि समक्ष रखकर ही हिन्दी की विभिन्न भाषाओं में मजित तथा प्रादेशिक प्रभावों से प्रभावित जैन-गुर्जर कवियों के साहित्य के लिए "हिन्दी" शब्द का प्रयोग किया गया है । ५. प्रस्तावित योगदान .
प्रस्तुत प्रबन्ध की मौलिकता, उपलब्धि तथा उसके महत्त्व के सम्बन्ध में एक-दो शब्द कह देना अप्रासंगिक न होगा
विषय से सम्बन्धित समस्त प्राप्त सामग्री का विधिवत् अध्ययन कर उसे वैज्ञानिक पद्धति से वर्गीकृत करके उसकी समाचोलना करने का यह मेरा अपना एवं मौलिक प्रयास है।
१. गुजरात मने एनु साहित्य, श्री कर मा० मुन्शी, पृ० १, २ २. हिन्दी साहित्य; आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ०२
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भूमिका खण्ड
२७ ।
__ प्रस्तुत प्रवन्ध में १७वीं एवं १८वीं शती के ८१ जन-गुर्जर कवियों तथा उनकी लगभग २७४ हिन्दी कृतियों का सामान्य परिचय देते हुए उनका समग्र रूप से विश्लेषण किया गया है। इन कवियों तथा कृतियों के साहित्योचित मूल्यांकन का भी यह मेरा सर्वप्रथम एवं मौलिक प्रयास है।
प्रस्तुत प्रवन्ध में मैंने न केवल अनेक कवियों तथा उनकी कई कृतियों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया है अपितु ज्ञात तथ्यों का पुनरीक्षण व पुनराख्यान करने तथा साहित्य की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने का भी भरसक प्रयत्न किया है । . यों भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लेने पर, विभिन्न प्रदेशों में उसके विखरे सूत्रों को संकलित करके हिन्दी भाषा-साहित्य की समग्रता का बोध कराने वाले ये क्षेत्रीय अनुसंघानात्मक प्रयास, सम्प्रति विघटनकारी प्रवृत्तियों के बीच, भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता को बनाये रखने वाली शक्तियों के संकल्प को न केवल दृढ़ करेगे बल्कि अपना भावात्मक योगदान, भी करेगे।
६. प्रकरण विभाजन और प्रकरण-संक्षिप्ति । . पूरा प्रवन्ध तीन खण्डों और सात प्रकरणों में विभाजित है । तीन खण्ड हैं
भूमिका खण्ड; परिचय खण्ड और आलोचना खण्ड । प्रथम भूमिका खण्ड के "प्रवेश" शीर्षक के अन्तर्गत विषय चयन, उसकी प्रेरणा, नामकरण, महत्व, मर्यादा तथा विषय
का स्पष्टीकरण अन्यान्य दृष्टियों से किया गया है । अन्त में प्राप्त मामग्री तथा इस 'प्रवन्ध द्वारा मौलिक योगदान का निर्देश भी कर दिया गया है ।
. प्रथम प्रकरण में आलोच्य-युगीन कविता का सामूहिक परिवेश और पृष्ठभूमि पर एक विहंगम दृष्टि से विचार प्रस्तुत है। ..
परिचय खण्ड के प्रकरण २ और ३ में १७वीं एवं १८वीं शती के जैन-गुर्जर कवियों और उनकी कृतियों का परिचय दिया गया है। इनमें से अधिकांश कवियों -का सम्बन्ध गुजरात और राजस्थान दोनों ही प्रांतों से रहा है।
आलोचना खण्ड के प्रकरण ४, ५, ६ और ७ में समग्रदृष्टि से जैन-गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता का विस्तार से परीक्षण समाविष्ट है । प्रथम इनके भावपक्ष का फिर इनके कलापक्ष में भापा तथा विविध काव्यरूपों की विस्तृत आलोचना है। हिन्दी को अपनी वाणी का माध्यम बनाकर इन जैन-गुर्जर सन्त कवियों ने भक्ति, वैराग्य एवं ज्ञान का उपदेश देकर काव्य, इतिहास और धर्म-साधना की जो त्रिवेणी वहाई है-उसमें आज भी हम उनकी शतशत भावोमियों का स्पंदन अनुभव कर सकते है। इनकी भापा सरल एवं प्रवाहपूर्ण थी। इन्होने कई छन्द विविध राग गिरानियों में प्रयुक्त किये थे। ये अलंकारों में मर्यादाशील बने रहे । अलंकारों के
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प्रकरण १ आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश तथा पृष्ठभूमि
१. जैन धर्म साधना, जैन धर्म की प्राचीनता, भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का .
स्थान, जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत, सम्प्रदायभेद और उसके कारण, जैनधर्म की दार्शनिक आध्यात्मिक चेतना पर दृष्टिपात ।
.
२. जैन साहित्य का स्वरूप, महत्त्व तथा उसकी प्रमुख प्रवृत्तियां, गूर्जर जैन
साहित्यकार और उनके हिन्दी में रचना करने के कारण। ..
३. पृष्ठभूमि ( १७वीं तथा १८वीं शती)
(क) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (ख) राजनीतिक पृष्ठभूमि (ग) धार्मिक पृष्ठभूमि
(घ) सामाजिक पृष्ठभूमि _ (च) साहित्यिक पृष्ठभूमि
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश प्रवेश : .
प्राचीन भारतीय संस्कृति अपने विविध रंगों में रंगी हुई है, उसमें अनेक धर्म-परम्पराओं के रंग मिश्रित हैं । भारतीय संस्कृति में प्रधानतः दो परम्पराएब्राह्मण और श्रमण-विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। ब्राह्मण या वैदिक में परम्परा के बीच मौलिक अन्तर है । ब्राह्मण-परम्परा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है जबकि श्रमण परम्परा साम्य और समता पर आधारित है । ब्राह्मण परम्परा ने स्तुति, प्रार्थना तथा यज्ञादि क्रियाओं पर अधिक बल दिया, जवकि श्रमण परम्परा ने श्रम पर ।।
प्राकृत शब्द "समण" के तीन संस्कृत रूप होते हैं-श्रमण, समन और शमन ।' श्रमण संस्कृति का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है । श्रमण शब्द "श्रम" धातु से बना है, जिसका अर्थ मुक्ति के लिए परिश्रम करना है । यह शब्द इस बात का प्रतीक है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही श्रम द्वारा कर सकता है । समन का अर्थ है समता भाव अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना । सभी के प्रति समभाव रखना । रागद्वेपादि से परे रहकर शन और मिन के प्रति समभाव रखना तथा जातिपांति के भेदों को न मानना आदि । शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना । यही श्रमण-संस्कृति की धुरी "ब्रह्म" है, जिसके लिए यज्ञ पूजा, स्तुति आदि आवश्यक हैं।
जैन धर्म इसी श्रमण संस्कृति का एक भाग है । आज जिसे जैन धर्म कहा जाता है वह भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के समय में निम्रन्थ नाम से पहचाना जाता था । यह श्रमण धर्म भी कहलाता है । अन्तर इतना ही है कि एक मात्र निग्रंथ ही श्रमण धर्म नहीं है । श्रमण धर्म की अनेक शाखा प्रशाखाए थीं, जिसमें कोई वाह्य तप पर, कोई ध्यान पर, तो कोई मात्र चित्तशुद्धि पर अधिक जोर देती थी, किन्तु साम्य या समता सवका समान ध्येय था । श्रमण परम्परा की जिस शाखा ने संसार त्याग और अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया और अहिंसा पर सूक्ष्स दृष्टि से विचार किया वह शाखा निग्रंथ नाम से प्रसिद्ध हुई जो वाद में जैन धर्म भी कहलाने लगी। जैन धर्म साधना :
जैन-धर्म-साधना में धर्म स्वयं श्रेष्ठ मंगल रूप है। अहिंसा, सयम और तप ही धर्म है । ऐसे धर्म में जिनका मन रमता है, उनको देवता भी नमन करते है। दशवकालिक सूत्र में कहा गया है१. भारतीय संस्कृति फी दो धाराए--डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, पृ० ४ ।
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
धम्मो मंगलकुविकटं, अहिंसा संजमो तवो। . .
देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सपामणो' जैन धर्म सभी प्राणियों के सुख पूर्वक जीने के अधिकार को स्वीकार करता है । सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है, सुख अच्छा लगता है, दुःख प्रतिकूल है । इस वात को आचारांग सूत्र में इस प्रकार कहा गया है-- सच्चे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला ।'
(अ० १, उद्देश्य २, गा० ३) अहिंसा जैन धर्म का प्राण है । यद्यपि सभी धार्मिक परम्पराओं में अहिंसा तत्त्व को न्यूनाधिक रूप में स्वीकार किया है, पर जैन धर्म ने इस तत्त्व पर जितना वल दिया है और उसे जितना व्यापक बनाया है, अन्य परम्पराओं में न तो इतना बल ही दिया गया है और न उसे इतने व्यापक रूप से स्वीकार ही किया है । जो लोग आत्मसुख के लिए किसी भी जीव की हत्या करते हैं या उसे कष्ट पहुंचाते हैं, वे सभी अज्ञान और मोह में फंसे हैं। उन्हें अपने किये का फल भोगना पड़ता है। परमेश्वर या अन्य कोई व्यक्ति अपने किये कर्मों के परिणाम से मुक्ति नहीं दिला • सकता।
जैन धर्म ने स्वावलंबन पर जोर दिया है । कोई भी जीव स्वयं उकान्ति कर सकता है। कोई स्थान किसी जाति या व्यक्ति विशेष के लिए निश्चित और अन्य के लिए वजित नहीं है।
जैन दर्शन में दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है। भात्मा कर्म के आवरण से आवेष्टित हो जाती है अतः मानव सच्चे सुख का रास्ता भूल जाता है और शरीर के प्रति उसका महत्त्व बढ़ जाता है । वह शारीरिक सुखों को ही महत्त्व देता हुआ भ्रम में फंसा रहता है। अपने सुख के लिए दूसरों को कण्ट देने लगता है। दूसरों को दुःख देने से कोई सुखी नहीं बनता । जैन दर्शन के अनुसार दूसरों को दुःखी बना कर सुख प्राप्ति का प्रयत्न अज्ञान मूलक एवं अनौचित्यपूर्ण है । इस अज्ञान के कारण मानव के दुःखों में तो वृद्धि होती ही है, जन्म-मरण की अवधि भी बढ़ जाती है । अतः आत्मा को कर्म के बन्धन से मुक्त करना आवश्यक है । कर्म-आवरण से अलिप्त आत्मा में प्रसुप्त शक्तियां जाग्रत हो उठती हैं, तभी मनुष्य सच्चे सुख का स्वरूप पहचान कर शारीरिक सुख-दुःखों में विवेक करना सीखता है । अज्ञान, तृष्णा तथा कपायों द्वारा निर्मित दुःख से मुक्त हो अन्यों द्वारा दिये हुए दुःखों को धैर्यपूर्वक सहन करने की शक्ति पा लेता है । वह दुःखों से विह्वल या क्षुब्ध नहीं बनता। १. दशवकालिक सून-अध्याय १, गा० १ - २. आचारांग सूत्र-मध्याय १, उद्देश्य २, गा०३ .
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कर्म वन्धन से मुक्त मानव को शेप आयु तो भोगनी पड़ती है, वह नाम से भी पुकारा जाता है और जब तक शरीर है तब तक वेदना सहनी पड़ती है। किन्तु जब आयु, नाम, गोत्न तथा वेदनीय कर्मों का आवरण हट जाता है तब साधक को सिद्धिलाभ होता है, वह सच्चा आत्म-स्वरूप पहचान लेता है और सब प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । जैनों की दृष्टि से यही मानवता का पूर्ण विकास है, यही मानव-जीवन की अन्तिम सिद्धि और सार्थकता है।
जैन मान्यतानुसार सिद्ध और तीर्थकर इस मानवता के प्रस्थापक और उसके विकास-चक को गति देने वाले हैं । स्वयं की मानवता का विकास करते हुए सिद्धिलाभ करने वाले सिद्ध हैं और अपनी मानवता के साथ साथ दूसरों में मानवता जगा कर उनका सच्चा मार्ग दर्शन करने वाले तीर्थकर हैं। तीर्थकर तीर्थों " की प्रस्थापना कर प्राणिमान के प्रति अपने सद्भाव तथा. सहानुभूतिमय प्रेम की वर्षा करते हए मानवता के सार्वत्रिक विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
"जन" शब्द का अर्थ है - "जिन" के अनुयायी और "जिन" शब्द का अर्थ है-जिसने राग-द्वीप को जीत लिया है । जैन धर्म में ऐसे, महात्माओं को तीर्थंकर कहा है । उन्हें अर्हत अथवा पूज्य भी कहा जाता है । जैन धर्मानुसार २४ तीर्थंकर
जैन धर्म की प्राचीनता :
आज अन्यान्य विद्वानों द्वारा जैन धर्म को एक स्वतन्त्र अस्तित्व में जीवित, चिरकाल से पुष्ट और आदर्श धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया गया है । एक भ्रान्त धारणा यह भी प्रचलित थी कि जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर थे-अर्थात जैन धर्म केवल २५०० वर्षों से ही अस्तित्व प्राप्त है। अब यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है। जैन धर्म आदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित धर्म है। आज इस मत का समर्थन अनेक रूपों में हो रहा है। .
वैदिक धर्म के कुछ प्राचीन ग्रन्थों से भी सिद्ध होता है कि उस समय जैन धर्म अस्तित्व में था। रामायण और महाभारत में भी जैन धर्म का उल्लेख हुआ है। जैन धर्मानुसार वीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुनत स्वामी के समय में रामचन्द्रजी का होना सिद्ध है । ' महाभारत के आदि पर्व के तृतीय अध्याय में २३ वें और २६ वें श्लोक में एक जैन मुनि का उल्लेख हुआ है। इसी तरह शान्ति पर्व में (मोक्ष धर्म अध्याय२३६ श्लोक -६) जैनों के 'सप्तभगी नय' का वर्णन है।
इस महाकाव्य के भीष्म पर्व के ६ वें अध्याय के श्लोक ५-६ में संजय की भारत स्तुति में अपभ का उल्लेख हुआ है । इससे यह ज्ञात होता है कि प्रथम जैन
१. महावीर जयन्ती स्मारिका, राजस्थान जैन सभा, जयपुर, डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन का लेख, पृ० १३
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिण
तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रसिद्धि भारतवर्ष के एक आय क्षत्रिय महापुरुष के रूप में भारत युद्ध के समय तक हुई थी । यही कारण है कि जिन-जिन लोगों ने इस महावन्य के निर्माण तथा संवर्द्धन में योग दिया वे ऋषभ के नामोल्लेख के बोचित्य की उपेक्षा नहीं कर सके ।
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कुछ इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है, जो जैनों को स्वीकृत नहीं, कि महाभारत ईसा से तीन हजार वर्ष पहले तैयार हुआ था और रामचन्द्रजी महाभारत से एक हजार वर्ष पूर्व विद्यमान थे ।
"ब्रह्ममून" में "नैकस्मिन्नसंभवात् " कहकर वेद व्यास ने जैनों के स्यादवाद पर आक्षेप किया है । "ब्रह्माण्डपुराण" और " स्कन्द पुराण" - में भी इक्ष्वांकु वंश में उत्पन्न नाभि राजा और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ का उल्लेख व नमन किया गया है ।" ऋग्वेद में भी वृषभनाथ सम्राट को अखण्ड पृथ्वी मण्डल का सार रूप पृथ्वीतल का भूषण, दिव्य-ज्ञान द्वारा आकाश को नापने वाला कहकर उनसे जगरक्षक व्रतों के प्रचार की प्रार्थना की गई ।
जैन धर्म की प्राचीनता डॉ० राधाकृष्णन ने भी स्वीकार की है । उन्होंने लिखा है- "भागवत पुराण से स्पष्ट है कि जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव की पूजा ईसा की प्रथम शताब्दी में होती थी । इसके प्रमाण भी उपलब्ध हैं । निस्सदेह जैन धर्म वर्धमान अथवा पार्श्वनाथ से पूर्व प्रचलित था । यजुर्वेद में ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमि का उल्लेख है"; ३
प्रो० जयचन्द विद्यालंकार ने लिखा है - "जैनों की मान्यता है कि उनका धर्म बहुत प्राचीन है और भगवान महावीर के पहले २३ तीर्थंकर हुए हैं । इस मान्यता में तथ्य है । ये तीर्थंकर अनैतिहासिक व्यक्ति नहीं थे । भारत का प्राचीन इतिहास उतना ही जैन है जितना वैदिक | ४
सारांशतः ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में भारतीय संस्कृति की दो मुख्य धाराएँ अस्तित्व में थी - एक यज्ञ तथा भौतिक सुखों पर बल देने वाली ब्राह्मण परम्परा और
१. " इह हि इक्ष्वाकुकुल वंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरदेव्याः नन्दनेन महादेवेन रिपमेण दश प्रकारो धर्मः स्वयमेवाचीर्णः केवल ज्ञान लाभाच्च प्रवर्तितः । "
महर्षि व्यास रचित - ब्रह्माण्ड पुराण |
निरंजन निराकार रिपमन्तु महारिपिम् ॥ स्कन्द पुराण |
२. आदित्या त्वमसि आदित्यसद् आसीद अस्त श्रादद्या वृषभो तरिक्ष जमिमीते वारिमाणं । पृथिव्याः आसीत् विश्वा भुवनानि समाविश्वे तानि वरुणस्य व्रतानि । ॠग्वेद - ३० । अ० ३ ।
3. Dr. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy, Vol. IP. 287
४. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग १, जयचन्द विद्यालंकार, पृ० ३४३
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
दूसरी निवृत्ति तथा मोक्ष पर बल देने वाली श्रमण परम्परा । जैन धर्म श्रमण परंपरा की एक प्रधान शाखा है । इसी श्रमण परम्परा के एक सम्प्रदाय को भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के समय में निर्ग्रन्थ नाम से पहचाना गया, जो बाद में जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अतः जैन धर्म की परम्परा वैदिक युग से अविछिन्न रूप से चली आ रही है। वैदिक साहित्य में यतियों के उल्लेख आये हैं, जो श्रमण परम्परा के साधु थे । ऋग्वेद में व्रात्यों के उल्लेख आये हैं ।' उनका वर्णन अथर्वेद में भी है, जो वैदिक विधि से प्रतिकूल आचरण करते थे । मनुस्मृति में लिच्छवी, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्य माना गया है । ये भी श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि थे। संक्षेपतः वैदिक सस्कृति के साथ श्रमण संस्कृति भी भारत में स्वतन्त्र रूप से चल रही थी जो कालान्तर में निर्ग्रन्थ और जैन धर्म के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रही। , भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्थान :
भारतीय संस्कृति तो उस महासमुद्र की तरह रही है, जिसमें अनेक संस्कृतिस्रोतस्विनियां विलीन हो गई हैं । इसके अंचल में आस्तिक और नास्तिक सभी प्रकार के परस्पर विरोधी विचार भी फले-फूले हैं । इस देश में युगों से वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मो के साथ अन्याय धर्म भी एक साथ शान्तिपूर्वक चलते आ रहे हैं। -
हम कह चुके हैं कि प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति मुख्य रूप से दो प्रकार की विचारधारा में प्रवाहित रही। ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति । इन दोनों संस्कृतियों के दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रहे । एक वर्ग प्राचीन यज्ञ और कर्मकाण्डों का अनुयायी रहा। इसकी संस्कृति का प्रवाह वाह्य क्रिया-काण्ड प्रधान भौतिक जीवन की ओर विशेष गतिशील रहा । दूसरे वर्ग ने श्रमण संस्कृति को अपनाकर धर्म और उसके स्वरूप को पुनः मूर्तित किया। आत्मोन्नति के लिए स्वाश्रयी और पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देने वाली सांस्कृतिक परम्परा ही श्रमण संस्कृति है। इसमें स्वयं जियो और दूसरे को जीने दो का मन्त्र है । वर्ग, वर्ण. या जाति-पांति, ऊँच-नीच का यहाँ कोई भेद नहीं, शुद्ध आचार-विचार की प्रधानता अवश्य है । इसी संस्कृति में आचारगत पाँच व्रतों का-सत्य, अहिंसा, मचीर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का-अत्यधिक महत्व है । यह श्रमण सस्कृति भारतीय संस्कृति का ही एक अग है। और इसी श्रमण संस्कृति को जैन धर्म ने अपने साधुओं के लिये अपनाया।
भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी दृष्टि इस संस्कृति का मूल है । सदाचार, तप और अहिंसा की विवेणी वहाकर भारतीय संस्कृति को अधिक मानवतावादी
१. ऋग्वेद ७२११५ तथा १०६६।३ २. मनुस्मृति, यध्याय १०
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
बनाने का कार्य, जैन. श्रमणों के प्रयत्नों का फल है। यह समन्वय दर्शन, साधना तथा उपासना के क्षेत्र में भी प्रगट हुआ है । स्याद्वाद या अनेकान्तवाद के साथ-साथ गीता में वर्णित अहिंसक यज्ञों की देन इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रतिफल है । पुनर्जन्मवाद, कर्मफलवाद और संस्कारवाद पर अधिक बल देकर जन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषतानों को अनायास ग्रहण कर लिया है, साथ ही मुक्ति के लिये तप, साधना और सदाचार के साथ-साथ सन्यास की आवश्यकता भी प्रतिष्ठित की है।
हिन्दी और गुजराती साहित्य तो इसके. विशेष ऋणी कहे जा सकते हैं। अपनी दार्शनिक चिन्तनधारा भी अधिक वैज्ञानिक तथा युक्तिसंगत बनाये रखने का कार्य जैन मुनियों और आचार्यों ने किया है । समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण ये . कभी असहिष्णु नहीं वने । सारांशतः जैन संस्कृति अपनी सदाचारिता द्वारा भारतीय संस्कृति को समय-समय पर अधिक दीप्तिमय और विकृति रहित करने में सहायक रही है। जैन-दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त :
दर्शन और धर्म भिन्न-भिन्न विपय होते हुए भी दोनों का सम्बन्ध अभिन्न है । प्रत्येक धर्म का अपना दर्शन होता है जिसका व्यापक प्रभाव धर्म पर पड़ता रहता है । धर्म को समझने के लिए दर्शन का ज्ञान आवश्यक है ।
जैन धर्म का भी अपना एक दर्शन है । इस दर्शन में आचार-विचार को लेकर दो प्रकार के प्रमुख सिद्धांतों के दर्शन प्राप्त होते हैं-(१) आचार से सम्बन्ध सिद्धांत में-आत्म तत्त्व, कर्म सिद्धांत, लोक तत्त्व का समावेश होता है । तथा (२) विचार पक्ष से सम्बन्ध रखने वाला अनेकान्तवाद या विभज्जवाद है, जो जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है। इसी अनेकान्तवाद का दूसरा नाम स्याद्वाद है। इन दार्शनिक सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय दे देना प्रासंगिक होगा। आत्म-तत्त्व :
जैन दर्शन द्वैतवादी है । विश्व एक सत्य वस्तु है। उसमें चेतनायुक्त जीवों के साथ जड़ वस्तुएं भी हैं । जीव अनेक हैं। उपगेग जीव का लक्षण है ।३ बोध रूप १. श्रीमद् भगयद् गीता, ४१२६-२८ २. "स्यात्" इत्यव्ययमनकान्तद्योतकम् ।
ततः "स्यावादः" अनेकान्तवादः ॥२॥
-सिद्धहेम शब्दानुगामन-हेमचन्द्र ३. "उपयोगो लक्षणम्"-तत्वार्थ मूत्र १८
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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व्यापार उपयोग है । वोध का कारण चेतना शक्ति है। यह चेतना शक्ति आत्मा में ही है, जड़ में नहीं । अतः जड़ में उपयोग नहीं होता। आत्मा के अनन्त गुण पर्याय हैं उनमें उपयोग मुख्य है। आत्मा स्वयं शाश्वत है, उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता। एक आत्मा दूसरी आत्मा से ओत-प्रोत भी नहीं होती। भासक्ति के कारण भी उसमें परिवर्तन नहीं होता । पर्याय रूप से ही उसमें अविरत परिवर्तन होता रहता है । मनुष्य, देव, पशु-पक्षी आदि के आत्म-तत्त्व अशुद्ध दशा के हैं। रंग या रंगीन पदार्थ डालने से पानी अशुद्ध होता है और दृश्य बनता है वैसे ही आत्मा कार्य के संयोग से दृश्य वनती है। शुद्ध स्वरूप में आत्मा अदृश्य और अरूपी है। आत्मा राग द्वेषादि के कारण जड़ पदार्थ से या कर्म से वद्ध होती है। अतः संसार में परिभ्रमण करती रहती है। उसका मूल स्वभाव उर्ध्वगमनी है। जैसे ही वह कर्मो से मुक्त होती है वह उर्ध्वगति को प्राप्त होती है और लोक के अंतिम भाग में स्थित होती है। उसके लिए शास्त्रों में तुम्वी का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे माटी के आवरण से युक्त तुब पानी में डूब जाता है पर माटी के आवरण से मुक्त होते ही वह पानी पर तैरने लगता है उसी प्रकार आत्मा कर्मों के आवरण से बद्ध होकर -संसार रूपी सागर में डूब जाती है पर इन कर्मो के आवरण से मुक्त होते ही वह अपनी स्वाभाविक उर्ध्वगमन की स्थिति को प्राप्त होती है और लोकाकाश के अंतिम भाग में जाकर स्थित होती है । यही मोक्ष है जिसे जैन दर्शन में सिद्ध शिला कहा है। कर्म सिद्धान्त :
सब जीवात्माएँ समान है फिर भी उनमें वैषम्य देखने में आता है । यह वैपम्य कर्मो का कारण है। जैसा कर्म वैसी अवस्था । जीव अच्छा या बुरा कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह अपने वर्तमान और भावी का स्वयं निर्माता है। कर्मवाद कहता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर होता है। तीनों काल की पारस्परिक संगति कर्मवाद पर ही अवलम्वित है। यही पुनर्जन्म के विचार का बाधार है।
वस्तुतः अज्ञान और रागद्वेष ही कर्म है। ब्राह्मण परम्पराओं में इसे अविद्या कहा है । जैन परिभाषा में यह भावकर्म है । यह भावकर्म लोक में परिव्याप्त सूक्ष्माति सूक्ष्म भौतिक परमाणुओं को आकृष्ट करता है और उसे विशिष्ट रूप अर्पित करता १. जह पंक-लेव रहिओ जलोपरि ठाइ लउओ सहसा ।
तह सयल-कम्म-मुक्को लोगग्गे ठाइ जीवो ॥
उद्योतगरि विरचिता-कुवलयमाला । २. (क) भगवती सूत्र-स्थानांग सूत्र ।
(4) दशवकालिक-अध्याय ४ गाथा २५॥
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मालोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
बल दिया है । बुद्ध का विभज्जवाद और मध्यम मार्ग भी वित्रार प्रधान साम्बदृष्टि का फल है । बुद्ध ने अपने को विभज्जवादी कहा है। जैन आगमों ने महावीर को भी विभज्जवादी कहा है। विभज्जवाद का अर्थ है पृथक करण पूर्वक मत्य-असत्य का निरूपण व सत्यों का यथावत् समन्वय करना। इसके ठीक उल्टा एकांशवाद है जो सोलह आने किसी वस्तु को अच्छी या बुरी कह डालता है। विभज्जवाद :
विभज्जबाद में एकान्त दृष्टि का त्याग है । अतः विमज्जवाद और अनेकान्वाद तत्वतः एक ही है । अनेकांत दृष्टि से नयवाद तथा सप्तभंगी विचार का जन्म हुआ । नयवाद मूलतः भिन्न-मिन्न दृष्टियों का संग्राहक है।
जैन दर्शन के अनेकांत और स्यावाद गन्द वस्तु की अनेक अवस्थात्मक किन्तु . निश्चित स्थिति का प्रतिपादन करते हैं। अनेकांत शब्द वस्तु की अनेक धर्मता प्रकट करता है, किन्तु वस्तु के अनेक धर्म एक ही शब्द से एक ही समय में नहीं कहे जा सकते, अतः स्याद्वाद शब्द का प्रयोग किया गया है। यह स्यावाद संदेहवाद नहीं है, परन्तु एक निश्चित एवं उदार दृष्टि से वस्तु के पूर्व अध्ययन में सहायक दर्शन है। इसमें एकांत हठ नहीं है, समन्वय का भाव है । इसमें सभी दृष्टियों का समादर है और वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन है । अनेकांत शब्द से हम वस्तु की अनेक धर्मता जानते हैं और स्याद्वाद द्वारा उसी अनेक कर्मताओं का कथन करते हैं। -
जैन दर्शन में वस्तु को समझने की बड़ी विशेषता उसकी अनेकान्त दृष्टि है । इस आधार पर प्रत्येक वात अपेक्षाकृत दृष्टि से कही जाती है। जब किसी वस्तु को सत् कहा जाय तो समझना चाहिए कि यह कथन उस वस्तु के निजी स्वरूप की अपेक्षा से असत् है । राम अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है और अपने पुत्र की अपेक्षा . से पिता है, अपनी पत्नी की अपेक्षा से पति है, अपने शिष्य की अपेक्षा से गुरु है
और अपने गुरु की अपेक्षा से शिष्य है । यदि हम कहें कि राम पिता ही है तो यह वात पूर्ण सत्य नहीं, क्योंकि वह पुन, पति, गुरु व शिष्य भी है । अतः प्रत्येक बात में वस्तु की अनेक दशाओं का ध्यान रखना चाहिए और "ही" का दुराग्रह छोड़कर "भी" का सदाग्रह रखना चाहिए। इससे हमारी दृष्टि में विस्तार आता है और
साथ ही वस्तु की पूर्णता भी लक्षित होती है । स्यादवाद या अनेकान्तवाद की दृष्टि • जीवन के नाना संघों को दूर कर शान्ति स्थापना में सहयोग देती है।
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१. मज्झिमनिकाय-सुमसुत १५६ २. सूत्रकृतांग १।१४१२२
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. जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
- सम्प्रदाय भेद और उसके कारण :
- प्रत्येक धर्म में सम्प्रदाय, उप-सम्प्रदाय, संघ, पंथ आदि का प्रस्थापन होता रहा है । जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं। इस धर्म में भी दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तारनपंथी आदि अनेक सम्प्रदाय हैं। जैन धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय दो हैं- श्वेताम्बर और दिगम्बर । इनमें एक साधारण-सी सैद्धांतिक वात परं मतभेद हुआ था जो आगे चलकर खाई बन गया। श्वेताम्बर मान्यता :
भगवान महावीर के उपदेशों का व्यवस्थित संकलन उनके प्रधान शिष्य इन्द्रभूति और सुधर्मा नामक गणधरों ने किया । यह संकलन आगे चलकर "द्वादशांगी" कहलाया अर्थात् भगवान महावीर की उपदेशवाणी "बारह अंगों" में विभक्त की गई।
"महावीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में ( चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ) मगध में एक द्वादशवर्षीय भयंकर अकाल पड़ा। अकाल से पीड़ित हो तथा भविष्य में अनेक विघ्नों की आशंका से आचार्य भद्रबाहु अपने बहुत से शिष्यों सहित कर्णाटक देश में चले गये । जो लोग मगध में रह गये उनके नेता (गणधर भद्रबाहु के शिष्य) स्थूलभद्र हुए।' - - अकाल की भयंकरता में आचार्य स्थूलभद्र को "द्वादशांगी" के लुप्त हो जाने की आशंका हुई। उन्होंने पाटिलपुत्र में श्रमण संघ की एक सभा आमन्त्रित की। इसमें सर्वसम्मति से भगवान महावीर की वाणी का ग्यारह अंगों में संकलन किया। वारहवें दृष्टिवाद अंग के चौदह भागों में से अतिम चार भाग (पूर्व) जो शिष्यों को विस्मृत हो गये थे, संकलित न हो सके ।
अकाल समाप्त होने पर जब-भद्रबाहु अपने संघ सहित मगध लौटे तो उन्होंने स्थूलभद्र के संघ में अपने संघ से काफी अंतर पाया । स्थूलभद्र के संघ के साधु कटिवस्त्र, दण्ड तथा चादर आदि का उपयोग करने लगे थे। भोजनादि में भी पर्याप्त अंतर आ गया था। इस विपरीतता को देखकर आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को समझाया कि अकाल और देशकाल की आपत्ति में अपवाद वेष का विधान भले हुमा, अब आप अपने संघ को पुनः दिगम्बर रूप दीजिए । पर वे न माने, आपसी तनातनी ने निकटता की अपेक्षा दूरी को ही बढ़ावा दिया । परिणाम यह हुआ कि दिगम्बर • और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गये ।
१. प्रेमी भभिनन्दन ग्रन्यः १० हजारीप्रसाद द्विवेदी पृ० ४४८
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आलोच्य कविता का मामूहिक परिवेश ।
दिगम्बर मान्यता:
दिगम्बर भी थोड़े बहुत अतर के साथ लगभग इन्हीं कारणों को सम्प्रदाय भेदु । का मूल मानते हैं । लेकिन कया प्रसंग भिन्न है। भगवान महावीर वाणी का संकलन प्रथम इन्द्रभूति गणधर ने किया फिर क्रमशः सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी बौर इनसे अन्य मुनियों ने महावीर स्वामी का अध्ययन किया। यह परम्परा महावीर के पश्चात् - भी चलती रही। तदनन्तर पाँच श्रुतकेवली हुए जो अंग और पूर्वो के ज्ञाता थे। भद्रवाहु अंतिम श्रुतकेवली थे । महावीर स्वामी से वासठ वर्ष पश्चात् जम्बूस्वामी
और उनसे सौ वर्ष पश्चात् भद्रवाह का समय निश्चित है। इस प्रकार दिगम्बर मान्यता में महावीर के पश्चात् एक सी वासठ वर्ष तक महावीर वाणी के समस्त अंगों और पूर्वो का अस्तित्व रहा । भद्रबाहु का समय ही दिगम्बर मोर श्वेताम्बर भेद का समय, दोनों सम्प्रदायों को मान्य है।
धीरे-धीरे इन दोनों सम्प्रदायों में भिन्नता प्रदर्शित करने वाली आचार-विचार सम्बन्धी अनेक बातें आ गई हैं । श्वेताम्वर सम्प्रदाय की मान्यताएँ इस प्रकार हैं
स्त्रीमुक्ति, शूद्रमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, ग्रहस्थ दशा में मुक्ति, तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे, महावीर का गर्भहरण, शूद्र के घर से मुनि बाहार ले सकता है, भरत चनवर्ती को अपने घर में कैवल्य प्राप्ति, ग्यारह अंगों का अस्तित्व, मुनियों के चौदह उपकरण, केवली का कवलाहार, केवली का नीहार, अलंकार तथा कांछीवाली प्रतिमा का पूजन, महावीर का विवाह-कन्या उत्पत्ति, साधु का अनेक घरों से भिक्षा लेना, मल्देवी का हाथी पर चढ़े हुए मुक्तिगमन, महावीर का तेजोवेश्या से उपसर्ग आदि ।
इस प्रकार अन्य भी कई भेद रेखाएँ हैं, जिन्हें दिगम्बर सम्प्रदाय नहीं मानता।
श्वेताम्बर भगवान की राज्यावस्था की उपासना करते हैं तो दिगम्वर उनकी सर्व-परिग्रह रहित वैराग्यावस्था की । श्वेताम्बरों का मानना है कि भगवान ऋषभ और महावीर ने सचेलक (वस्त्र सहित) और अचेलक (वस्त्र रहित) दोनों मुनि धर्मों का उपदेश दिया था। दिगम्बर यह बात नहीं मानते । उनके शास्त्रों में तो चौवीस तीर्थंकरों ने अचेलक धर्म का ही उपदेश दिया है, ऐसा वर्णन है।
दिगम्बर साधु अपने साथ केवल मोरपंख की एक पीछी ( जीवादि को दूर करने के लिए ) और एक कमण्डलु ( मल-मूत्रादि की वाधा दूर करने के लिए)
१. तेनेन्द्रभूति गणिना तदिव्यवचो यत्रुध्यत तत्त्वेन ।
ग्रन्यो पूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराहणे ॥६६।।
-अतावतार।
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रखते हैं । ये साधु नग्न रहते हैं । दिन में एक बार खड़े रहकर हाथ में ही भोजन करते हैं। सदा ध्यान मग्न रहते हैं । यह साधुचर्या दिगम्बरों में चिरकाल से चली आ रही है । परन्तु देशकाल जनित आपत्ति तथा व्यक्तिगत शैथिल्य के कारण मुनियों में विवाद आरम्भ हा, इसमें मुनियों के निवास-स्थान का भी एक प्रपन था। इसके बीज तो "द्वादशवीय अकाल" से ही थे, पर धीरे-धीरे इसने व्यापक रूप धारण कर लिया । वनवास छोड़ मुनि मन्दिरों और नगरों में रहने लगे। नवमी शती के जनाचार्य गुणभद्र ने इस दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए लिखा-"भयभीत मृगादि रात्रि
में जैसे नगरों के समीप आ वसते हैं, उसी प्रकार मुनि भी कलिकाल के प्रभाव से • वन छोड़ नगरों में वसते हैं, यह दुःख की बात है।' इसी शिथिलतावश चैत्यवास
का आरम्भ हुआ । दिगम्बर साधुओं में भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव अवश्य लक्षित होता है । दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारक पद इसी प्रवृत्ति का विकसित रूप है।
सम्प्रदाय भेद सामान्य बातों को लेकर हो जाते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के मूल संघ और काष्ठा संघ के अलग होने का मूल कारण यही है कि मूल संघ के साधुजीवरक्षा के लिए मयूर की पिच्छि रखते हैं और काण्ठासंघ के साधु गोपुच्छ के वालों की “पिच्छि रखते हैं । मुख्य उद्देश्य तो पिच्छि के कोमल होने का था, ताकि जीवों की विराधना न हो । परन्तु मोर पिच्छि के दुराग्रह के कारण काष्टासंघ अलग हो गया । इसके पश्चात् पिच्छि मान के त्याग को लेकर एक संघ और बना, जिसे नि:पिच्छि कहा गया। इसे माधुर संघ भी कहते हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी छोटे-छोटे मतभेदों को लेकर खरतर गच्छ, तपागच्छ, आँचलिक, पार्श्वचन्द्र गच्छ, उपकेशगच्छ आदि अनेक गच्छादिकों की उत्पत्ति हुई है। जैन धर्म की दार्शनिक-आध्यात्मिक चेतना पर दृष्टिपात :
भारतीय दर्शन के मुख्यतः दो भेद हैं-एक आस्तिक दर्शन और दूसरा नास्तिक दर्शन । वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक हैं और वेद को प्रमाण न मानने वाले नास्तिक दर्शन । इस आधार पर आस्तिक दर्शन छह माने गये हैं-सांख्य, योग, न्याय, वैशेपिक मीमांसा और वेदांत । जैन, वौद्ध और चार्वाक की गणना नास्तिक दर्शनों में होती है। इस विभाजन का मुख्य आधार-"नास्तिको वेद निन्दकः" अर्थात् वेदनिन्दक सम्प्रदाय नास्तिक हैं। काशिकाकार ने अपने पाणिनि सन्न में कहा है-"परलोक में विश्वास रखने वाला आस्तिक है और इससे विपरीत मान्यता
१. इतस्ततश्च नस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः । '. बनाद् विशन्त्युपग्रामं कली कप्टं तपस्विनः ॥१९७॥-आत्मानु०
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बालोच्य कवितां का सामूहिक परिवेश
वाला नास्तिक । इस आधार पर जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक हैं। जैन दर्शन आत्मा, परमात्मा, मुक्ति और परलोक मान्यता में आस्था रखता है । वौद्ध दर्शन में भी परलोक और कैवल्य निर्वाण की स्थिर मान्यता है। इस दृष्टि से मान्न चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन है शेप सभी आस्तिक दर्शनों की कोटि में आ जाते हैं ।
जैन दर्शन की विशिष्टता उसकी आत्मा और जगत् के सम्बन्ध की मौलिक विचारधारा में है । आचार और विचार मूलक दृष्टि इसकी आधारशिला है । आचार अहिंसा मूलक है और विचार अनेकान्त दृष्टि पर आधारित होने पर भी मूल दृष्टि एक ही रही है । विचार क्षेत्र में अनेकान्त भी अहिंसा नामधारी वन जाता है।
संक्षेप में जैन दर्शन का परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है । सृष्टि के मुल में मुख्य दो तत्व हैं-जीव और अजीव । इसके पारस्परिक सम्पर्क द्वारा कुछ वन्धनों या शक्तियों का निर्माण होता है, जिससे जीव को विभिन्न दशाओं का अनुभव होता है। इस सम्पर्क की धारा को रोककर, उससे उत्पन्न वन्धनों को विनष्ट कर दिया जाय तो जीव अपनी मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शन के यही सात तत्व हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव, अजीव तत्वों का विवेचन जैन तत्वज्ञान का विपय है। आलव और वंव की व्याख्या कर्म सिद्धांत में आती है । संवर और निर्जरा जैन धर्म के आकार शास्त्रगत विपय है और मोक्ष जैन धर्म की दृष्टि से जीवन की सर्वोपरि अवस्था है, जिसकी प्राप्ति ही धार्मिक क्रिया और आचरण की अंतिम परिणित है। जैन दर्शन की मान्यता :
समस्त विश्व जड़ और चेतन रूप दो सत्ताओं में विभक्त है। यह अनादि और अनन्त है । जड़-चेतन की इस सम्पूर्ण सत्ता को छह द्रव्यों में विभाजित किया गया है । छह द्रव्यों के नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । प्रत्येक द्रव्य में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन अवस्थाओं की दृष्टि से होता, मूल द्रव्य की दृष्टि से वह सर्वथा नित्य है। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र एवं शक्ति युक्त है। वह अपना अस्तित्व नहीं छोड़ता । मिट्टी से घर बनता है, जब वह फूटता है तो खण्ड-गट हो जाता है । मिट्टी का पिण्ड रूप घट रूप में परिवर्तित हो जाता है, पर दोनों ही अवस्याओं में मिट्टी द्रव्य उपस्थित है। घट के फूट जाने पर भी मिट्टी द्रव्य ही है । अतः प्रत्येक द्रव्य में अवस्थाओं का परिवर्तन होता रहता है, द्रव्य स्वयं नित्य है।
१. पालीमोग्लोनिविः यस्य न नास्तिक: दिवपरीतो नास्तिकः ।
पाणिनी राम, "मन्निनास्तिदिष्टं मति:" की याया। ३. स्याई गम-रग नामदुमास्वागी-मध्याय ५।
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जन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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। जैन दर्शन के अनेकांत और स्यावाद शब्द वस्तु की इसी अनेक अवस्थात्मक किन्तु निश्चित स्थिति का प्ररूपण करते हैं।
___ जैन मतानुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है । “जयतिकर्म शनून इति जिनः "५ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म शत्रुओं को परास्त कर, . अपना शुद्ध आत्म तत्व प्राप्त कर "जिन" बन सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में यह मामर्थ्य है । आत्मा को स्वयं ही कर्म वन्धनों से अपने पुरुपार्थ से मुक्त होना पड़ता है । संसार की कोई भी शक्ति उसे मुक्त नहीं करा सकती। स्वयं तीर्थकर भी मानव से महामानव वनते हैं । न कोई कर्म आत्मा को बाँध ही सकता है और न ही मुक्न कर सकता है, क्योंकि आत्मा और कर्म का कोई मेल नहीं। आत्मा चैतन रूप है और कर्म पौद्गलिक । दोनों के गुण और कार्य व्यापार में साम्य नहीं । फिर भी आत्मा कर्मों द्वारा ही वन्धन युक्त है । संसारी जीव बन्धन से अपनी आत्मा को गिरी हुई इसलिए अनुभव करते हैं कि अनादिकाल से जीव और कर्म ऐसे मिल गये हैं कि एक से लगते हैं, और हम मानने लगते हैं कि कर्म ही जीव को दुःखी करते हैं, वस्तु-स्थिति ऐसी नहीं । आत्मा ही अपने को कर्म बन्धन में जकड़ी हुई मानकर अपनी मात्मशक्ति खो बैठती है और अनेक भवों में भटकती रहती है। यह स्थिति तो ऐसी ही है जैसे कोई व्यक्ति सड़क के पत्थर को सिर पर उठा ले और कहे कि यह पत्थर मुझे दुःख दे रहा है । वस्तुस्थिति स्पष्ट है मानव जिस दिन कर्म का कल्पित या आरोपित जुआ उतार फेंकता है, वह उसी क्षण परमात्म रूप प्राप्त करता है।
जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर सृष्टि कर्ता नहीं है । संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने गुण स्वभाव वण अनेक अवस्थाओं में स्वयं रूपाचित होते हुए भी अन्ततः नित्य है। उसे अन्यथा करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। ईश्वर को सृष्टि कर्तृत्व नहीं दिया गया है अतः उमकी सर्वशक्तिमत्ता अबाधित रही है । जैन धर्म और दर्शन की कुछ विशेषताएं :
(१) परमात्मपद प्राप्ति ही मानव का उच्चतम और अंतिम लक्ष्य है। (२) जैन दर्शन व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को स्वीकार कर स्वावलम्विनी वृत्ति को
प्रश्रय देता है। (३) सम्पूर्ण प्राणीमात्र का कल्याण करना-जैन धर्म है। (४) जैन धर्म की विशेषता--चारों पुरुषार्थों की सिद्धि में है। इस सिद्धि
का उपाय मानव के हाथ में है।
१. अध्यात्म पदावली, राजकुमार जैन, पृ० ३८
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
शासक वर्ग के अत्याचारों के विरोध में भी इन्होंने बड़े सशक्त एवं प्रभावक कवि व्यक्तित्व का परिचय दिया है ।
व्यक्ति, समाज एवं देश की ऐक्य-शृंखला धर्म एवं चरित्र पर टिकी हुई है । धर्म और चरित्र मानव में अभय की स्थिति पैदा करते हैं। इन दो प्रवल सहयोगियों को पाकर मानव जीवन भर संकटों से जूझता हुआ भी अपनी मानवता की पराजय कभी स्वीकार नहीं करता । "धार्मिक नेताओं एवं आन्दोलनों से जनता जितनी अधिक प्रभावित होती है उतनी कदाचित् राजनैतिक एवं अन्य प्रकार के नेताओं से नहीं होती । धर्म की महत्ता और सत्ता में स्थायित्व विशेप दृढ़ होता है । हमारे आन्तरिक जीवन से यदि किसी विषय का घनिष्ठ सम्बन्ध है तो वह पहले धार्मिक विषय है । यही कारण है कि धर्म हमारे जीवन पर अधिपति-सा होकर स्थिरता और दृढ़ता के साथ शासन करता रहता है। लोक और परलोक दोनों को साधने वाला ही सच्चा धर्म है । अर्थात् लौकिक जीवन में सदाचारिता का पाठ पढ़ाता हुआ परलोकाभिमुख बनाये रखने वाले म के इन दोनों पक्षों का जैन साहित्य में सदैव 'निर्वाह हुआ है।
जैन कवियों ने भक्ति, वैराग्य, उपदेश, तत्व निरूपण आदि विषयक रचनाओं में • मानव की चरम उन्नति, लोकोद्धारक एवं काव्य-कला की निधारा वहाई है ।।
___ श्वेताम्बर तथा दिगम्बर कवियों ने अपनी कृतियों के माध्यम से अनेक विषयों पर अनेक रूपों में प्रकाश डाला है । ये सब विषय मात्र धार्मिक नहीं, लोकोपकारक - भी हैं । साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त जैन साहित्य में व्याकरण, छन्द, अलंकार, वैद्यक, गणित, ज्योतिप, नीति, ऐतिहासिक, सुभाषित, बुद्धिवर्धक, विनोदात्मक, कुव्यसन निवारक, शिक्षाप्रद, औपदेशिक, ऋतुपरक, सम्वादात्मक तथा लोकवार्तात्मक आदि अनेक प्रकार की रचनाएँ प्राप्त हैं।
जैन-गुर्जर-कवियों के साहित्य में चार प्रकार का साहित्य उपलब्ध होता
(क) तात्विक ग्रन्थ (सैद्धान्तिक ग्रन्थ)। (ख) पद, भजन, प्रार्थनाएँ आदि। . (ग) पुराण, चरित्र आदि । (घ) कथादि व पूजा-पाठ ।
उच्चश्रेणी के कवियों का क्षेत्र सदैव आध्यात्मिक रहा है। अतः साधारण जनता इनके काव्य का महत्व नहीं समझ सकी। चरित्र या कथा-ग्रन्थों द्वारा भक्तिरस.को बहाने का कार्य बहुत कम हुआ है। सामान्य जनता इसी में रम सकती थी।
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास : डॉ० रसाल, पृ० १४ -
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता इनका साहित्य अध्यात्मप्रधान है। जैन साधक आध्यात्मिक परम्परा के अनुयायी एवं आत्मलक्षी संस्कृति में विश्वास करने वाले थे फिर भी ये लौकिक चेतनी से विरक्त नहीं थे । क्योंकि उनका अध्यात्मवाद वैयक्तिक होकर भी जन कल्याण की भावना से अनुप्राणित था। यही कारण है कि सम्प्रदायमूलक साहित्य का सृजन करते हुए भी वे अपनी रचनाओं में देशकाल मे सम्बन्धित ऐतिहासिक एवं साँस्कृतिक टिप्पणी दे गये हैं जिनका यदि वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास के अनेक तिमिराच्छन्न पक्ष प्रकाशित हो उठे। आत्मा की अनन्त शक्तियों का हृदयकारी वर्णन इस साहित्य में हुआ है। अध्यात्म, शुद्धाचरण एवं महापुरुषों के चरित्रगान से सम्बद्ध विपयों के प्रतिपादन में इन जैन कवियों ने अपनी कला का परिपूर्ण परिचय दिया हैं । औपदेशिक वृत्ति के कारण जैन साहित्य में विषयान्तर से परम्परागत वातों का वर्णन विवरण अवश्य हुआ है, पर सम्पूर्ण जैन साहित्य पिष्टपेषण मात्र नहीं है । जो साहित्य उपलब्ध है वह लोकपक्ष एवं भाषा पक्ष की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। जैन कवियों ने भारतीय चितना को जनभापा समन्वित शैली में ढालकर राष्ट्र के अध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाया है। इन्होंने साहित्य परम्परा को लोक भाषाओं के वहते नीर में अवगाहन कराकर सर्व सुलभ बना दिया है ।
जैन कवियों को इस सम्पदा को मात्र धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक मानकर अन्त तक इसके प्रति उपेक्षा का भाव रखा गया है। क्योंकि आलोचकों की दृष्टि में में यह साहित्य- .
(१) ज्ञानयोग की माधना है, भावयोग की नहीं। (२) मात्र साम्प्रदायिक है, सार्वजनीय नहीं। (३) एकांगी हष्टि का परिचायक है, विस्तार का नहीं, तथा । . -(४) इसका महत्व मात्र भाषा की दृष्टि से है, साहित्य की दृष्टि से नहीं ।
वास्तव में धर्म को साहित्य से अलग मानकर चलना साहित्यिक तत्त्वों की उपेक्षा करना है। साहित्य का धार्मिक होना कदापि अग्राह्य नहीं हो सकता । अगर ऐसा हो तो हम अपने मूर्धन्य महात्मा सूर एवं महाकवि तुलसी से भी हाथ धो वैठेगे । क्योंकि आखिर तो उनका साहित्य भी धार्मिक संदेशों का वाहक है । "यदि १. "उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक शरणियों, अनुभूतियों और दशाओं
से कोई सम्बन्ध नहीं । वे माम्प्रदायिक शिक्षा मान हैं। अतः शुद्ध साहित्य की . कोटि में नहीं आ सकती। उनकी रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते।"
हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल, पृ. २४
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अनेकांतवाद है, सभी आध्यात्मिक
( ५ ) जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत प्रश्नों के समाधान की कुरुजी स्याद्वाद है । (६) अहिंसा जीवन की परिपूर्णता' है ।
(७) सत्य, क्षमा आदि दश धर्मो का विवेचन सद्भावपोषक है-वह मानवता निर्मित करने वाला है । इसका परिग्रह प्रमाण मन्त्र समाज सत्तावाद के सारतत्व का कुछ अशों में समर्थक है ।
आलोच्य युगीन जैन गुर्जर कवियों पर इस जैन दर्शन की अमिट छाप है । २. जैन साहित्य का स्वरूप, महत्त्व तथा मुख्य प्रवृत्तियाँ :
स्वरूप और महत्व :
जैन साहित्य की आधारशिला धर्म है, अतः इस साहित्य के स्वरूप-निर्धारण में धर्म-भावना का ध्यान रखना होगा । यों तो सम्पूर्ण विश्व के साहित्य के मूल में निश्चित रूप से धार्मिक भावना रही है ओर इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व का साहित्य धर्ममूलक ही है । “धर्म से साहित्य का अविच्छेद्य सम्बन्ध है । साहित्य से धर्म पृथक् नहीं किया जा सकता | चाहे जिस काल का साहित्य हो, उसमें तत्कालीन धार्मिक अवस्था का चित्र अंकित होगा ।" "
धर्म की भाँति ही साहित्य मानव को सर्वांगपूर्ण सुखी और स्वाधीन बनाने का प्रयत्न करता है । जैन साहित्य में इस प्रकार की मानव-हित- विधायिनी प्रवृत्तियाँ बहुलता से प्राप्त हैं । इसमें मानवार्थ मुक्ति का संदेश है, उसे आत्म स्वातन्त्र्य प्राप्ति का मार्ग सुझाया गया है तथा अनेक अध्यात्म-परक बहुमूल्य प्रश्नों पर विचार किया गया है । महापुरुषों के वीरता, साहस, धैर्य, क्षमाप्रवणता एवं लोकोपकारिता से ओत-प्रोत जीवन वृत्त प्रांजल भाषा एवं प्रसाद गुण युक्त शैली में निवद्ध है । इस प्रकार के चरित्र ग्रन्थ मानव समाज के लिए जीवन-संवल एवं मार्ग-दर्शक वनकर आये हैं ।
यद्यपि विषय चयन में जैन साहित्यकार सदा एक से रहे हैं तथापि इनकी भावोमियों के अभिव्यक्ति कौशल में अपनी-अपनी छाप है । ये यथावसर सामाजिक एवं राजनैतिक दशाओं का चित्रण भी करते गये हैं। जिसके विषय में नाथूराम "प्रेमी" का कथन है, "हिन्दी का जैन साहित्य भी अपने समय के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश डालेगा । इतिहास की दृष्टि से भी हिन्दी का जैन साहित्य महत्व की
१. जीवन और साहित्य : डॉ० उदयभानुसिंह पृ०६७
२. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४-५
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता वस्तु है.।"१ इन कवियों ने इतिहास पर विशेष भार दिया है । प्रत्येक जैन कवि अपनी रचना के अंत में या पूर्व में अपने समय के शासक -- राजाओं का एवं गुरू परम्परा का कुछ न कुछ उल्लेख अवश्य करते रहे हैं ।
प्राचीन हिन्दी साहित्य के अन्वेपण में पद्य ग्रन्थों की ही प्रधानता रही है, गद्य ग्रन्थ बहुत कम हैं । किन्तु हिन्दी जैन साहित्य के लिए यह विशेप गौरव की बात है कि इसमें गद्य-ग्रंथ भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं । ये ग्रन्थ हिन्दी गद्य के विकास क्रम को दिखाने में यथेष्ट सहायक सिद्ध होगे । १६ वीं शती से १६वीं शती तक के जैन साहित्य में हिन्दी गद्य ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं। गद्य ग्रंथ मेरे विपय की परिधि में नहीं हैं अतः मैंने उन्हें नहीं लिया है।
__जैन कवि किसी के आश्रित नहीं थे। अतः इनके साहित्य में कही भी आत्मानुभूतियों का हनन नहीं हुआ है। अपने साहित्य द्वारा इन कवियों ने अर्थोपार्जन अथवा यश-प्राप्ति का लक्ष्य नहीं अपनाया। भक्तिकाल के प्रायः सभी कवि स्वतन्त्र रहे हैं। वे कभी किसी प्रलोभन के पीछे नही पड़े । यही कारण है कि उनका साहित्य किसी युग विशेप की लाचारी अथवा रसिक वृत्ति का परिणाम न होकर चिरन्तन जीवन सत्य का उद्घाटन करता है। जैन कवि भी विविध कयाओं, काव्यों तथा पदों द्वारा सांस्कृतिक मर्यादा एवं अपने पूर्वावार्यों के धर्मन्यास की रक्षा एवं वृद्धि करते रहे हैं।
१८ वीं शती में तो शृंगार रस की अवाध धारा भक्ति और मर्यादा के कूलों को तोड़कर वह निकली थी। मुक्ति और जीवन शक्ति की याचना की जगह कुत्सितता ने अपना साम्राज्य जमा रक्खा था। जैसा कि कवि देव ने कहा है "जोग हू तें कठिन संजोग परनारी को" लोग परकीया प्रेम के पीछे पागल थे। पत्नीव्रत और 'सच्चरित्नता की भावना विलुप्त होने लगी थी। रीतिकालीन कवियों ने कृष्ण और राधा का आश्रय लेकर अपनी मनमानी वासना की अभिव्यक्ति करते हुए अपने उपास्य देव को गुण्डा और लपट बना दिया है। ऐसे वातावरण में भी जैन कवि इस कुत्सित शृंगार से अलिप्त बने रहे। इन्होंने सच्चरित्रता, संयम, कर्तव्यशीलता और वीरत्व की वृद्धि का-अपना काव्यादर्श सुरक्षित रखा। काव्य का प्रधान लक्ष्य तो काव्यरस की सृष्टि कर मानव के आत्मवल को पुष्ट वनाना और उन्हें पवित्रआत्मवल की खोज के आदर्श पर आरूढ़ करना है। संसार को देवत्व और मुक्ति की ओर ले जाना ही काव्य का सर्वश्रेष्ठ गुण है । जैन कवियों ने इसी अमरता का संगीत अलापा और जनता के पथ-प्रदर्शक बने रहे। __) इन स्रष्टाओं ने नवीन युग के साथ समन्वय न किया हो, यह वात भी नहीं है । यथावसर सामाजिक कुरीतियों, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता तथा १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास पृ० ४-५ ,
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश अध्यात्म की चर्चा, भोगों, इन्द्रिय-विषयों का विरोध भी साम्प्रदायिक और धार्मिक है तथा ललित और उत्तम साहित्य में सम्मिलित नहीं किया जा सकता, तो हम भक्ति कालीन साहित्य के स्तम्भ कबीर, सूर और तुलसी के साहित्य को भी निरा धार्मिक एवं साम्प्रदायिक कहकर क्या स्वयं के बुद्धिविवेक के दिवालियापन का परिचय न देंगे। साम्प्रदायिक साहित्य वह है जिसमें वाह्याडम्बर, निष्प्राण अति माचार तथा क्रियाकाण्ड आदि की कट्टरता के साथ विवरण प्रधान नीरस चर्चा मात्र हो । यद्यपि ऐसे ग्रन्थ सभी धर्मों में हैं, परन्तु हम उन्हें ललित साहित्य के अन्तर्गत नहीं लेते, वे सामान्य साहित्य में ही आते हैं। वस्तुतः उत्तम साहित्य वही है जो क्षणिक सस्ता मनोरंजन न देकर शाश्वत सत्य का जो शिवं एवं सुन्दरम् से अभिमण्डित हो, उद्घाटन कर सके" ।' इस प्रकार इस साहित्य के प्रति उपेक्षा का माधार निर्मूल ही है। . "कई रचनाएं ऐसी भी है कि जो धार्मिक तो हैं, किन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वहाँ कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है। जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो, उससे वह साहित्य निश्चित रूप से भिन्न है। जिसमें धर्म-भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ही हमारी सामान्य मनुष्यता को आंदोलित, मथित और प्रभावित कर रही हो, इम दृष्टि से अपभ्रश की कई रचनाएँ जो मूलतः जैन धर्म भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निःसन्देह उत्तम काव्य हैं । धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का वाधक नहीं समझा जाना चाहिए । धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा • जाने लगे तो तुलसीदास का "राम चरित मानस" भी साहित्य क्षेत्र में आलोच्य हो जायगा । इस प्रकार मेरे विचार से सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में त्याज्य . नहीं मानना चाहिए।"
इस प्रकार आचार्य शुक्ल का मत आज नवीन तथ्यों के प्रकाश में महत्वहीन सिद्ध हो चुका है । वस्तुतः धर्म और आध्यात्मिकता तो साहित्य के मूल में उसकी दो प्रेरक शक्तियों का काम करते हैं । अतः जैन कवियों की कृतियों को धार्मिक मानकर उनके प्रति उपेक्षा, सेवा अथवा भूला देना भारतीत चिन्तना और उसकी अमूल्य सम्पदा के प्रति घोर अन्याय करना है।
___ इस साहित्य का मूल स्वर धर्म है, फिर अधिकांश कवियों ने इसे असाम्प्रदायिक बनाने का प्रयत्न किया है। ऐसे साहित्य के मूल में त्याग और शान्ति है । १. साहित्य संदेश, जून, १९५६, क १२.५० ४७४, श्री रवीन्द्रकुमार जैनका लेख ।। २. हिन्दी साहित्य का आदिकालः आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० ११-१३ ।।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
निवेंद और शम की भावना भी इस साहित्य का प्राण है । अस्तु, हिंसा से दूर, सुख, सोहार्द्र एकता, त्याग और आनन्द की भाव लहरों में मानवता को अवगाहन कराने वाला साहित्य अपने में सर्वांश सुन्दर है ।
जैन साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ
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(१) साहित्यिकता के साथ लोक भाषामूलक साहित्य सृजन की प्रवृत्ति :
अधिकांश जैन कवियों ने स्वान्तः सुखाय लिखा । ग्राम-ग्राम तथा नगर-नगर घूमकर लोकोपकारक तथा आध्यात्मिक उपदेशों से पूर्ण वाग्धारा बहाना और लोगों की अपनी भाषा में साहित्य निर्मित करना भी इनका जीवन-लक्ष्य था । यही कारण है कि एक ओर इनमें विभिन्न साहित्यिक विधाओं और तत्वों का समावेश है, तो दूसरी ओर इनमें लोकभाषा और बोलियों का सरल प्रवाह है । इसी कारण इनके काव्य में लोकसंस्कृति भाषा और साहित्य के उन्नायक तत्व सहज ही समाहित हो गये हैं ।
(२) विपय वैविध्य :
जैन कवियों के इस विशाल साहित्य में सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक तथा ऐतिहासिक काव्यों के साथ लोक आख्यानक काव्यों का भी सृजन हुआ है । रामायण और महाभारत के कथानकों का निर्वाह भी इन कवियों ने बड़ी कुशलता से किया है । उदाहरणार्थ ऐसी रचनाओं में द्रोपदी चौपाई, नेमिनाथ फागु, पांडवपुराण, लवकुश छप्पय, सीताराम चौपाई, सीता आलोथणा, हनुमन्त कथा आदि काव्यों को लिया जा सकता है । इनके अतिरिक्त, जैन पौराणिक वार्ताएं, लोकवार्तामूलक कथाएं, कथासंग्रह, पूजासंग्रह, जीवनचरित्र, गुर्वातलियाँ, भक्तिकाव्य, तीर्थमालाएं, सरस्वतीस्तुति, गुरुभक्ति आदि विषयों पर आकपंक, कवित्वपूर्ण, आलंकारिक काव्यखण्ड, तीर्थंकरों और महापुरुषों की स्तुतियाँ, स्तवन, देववंदन, अन्य स्वतन्त्र कृतियाँ, सार्वजनीन कृतियाँ, भाववाची गीतों आदि का माधुर्य वहा है । सुललित सुभाषित, उपदेशामृत से आपूर्ण काव्यखण्डों के मीठे स्रोत भी बहे हैं । विविध ढालों और रागरागनियों का सुमधुर गुंजार भी सुनाई देता है । विषय वैविध्य की दृष्टि से यह साहित्य अत्यन्त समृद्ध कहा जा सकता है । अतः इनमें मात्र धार्मिक प्रवृत्ति ही नहीं, मौलिक सर्जनशक्ति स्वतंत्र कल्पनाशक्ति और शब्द संघटन आदि का समाहार है । (३) काव्य रूपों में वैविध्य :
काव्य रूपों में भी इस साहित्य ने अपना वैविध्य प्रस्तुत किया है | रास, चोपाई, वेलि, चौढालिया, गजल, छन्द, छप्पय, दोहा, सवैया, विवाहलो, मंगल, रागमाला, पूजा, सलोक, पद, वीसी, चौवीसी, वावनी, शतक, फाग, वारहमासा, प्रबंध, संवाद
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
आदि सैकड़ों प्रकार की रचनाएं उपलब्ध है, जिन पर प्रकरण ६ में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। (४) विविध परंपराओं के निर्वाह की प्रवृत्ति :
जैन कृतियों में साहित्य और समाज की विविध परंपराओं का निर्वाह हुआ है । संक्षेप में कुछ परम्पराओं का यहाँ उल्लेख किया जाता है- . (अ) अध्ययन-अध्यापन और ग्रंथ निर्माण की परम्परा : - आगमों के अध्ययन, जैनेतर साहित्य के अनुशीलन और मौलिक ग्रन्थों के प्रणयन की प्रवृत्ति के कारण जैनेतर विषय भी इन कवियों के विषय बने हैं और उनका सम्यक्ज्ञान प्रस्तुत हुआ है । (ब) ज्ञान-भण्डार संस्थापन परम्परा :
__ज्ञान के अनेक भण्डारों की स्थापना, सुरक्षा तथा उनके सम्यक प्रबन्ध की परम्परागत प्रवृत्ति के कारण जैन-भण्डारों में जनेतर कृतियाँ भी सुरक्षित रही हैं तथा अपने विपुल साहित्य को नष्ट होने से बचाया है । (क) लोकभाषा अगीकरण की परम्परा :
साहित्यिक भाषा के साथ लोकभाषा में भी रचनाएं करने की प्रवृत्ति अधिकांश कवियों में देखने को मिलती है । लोकभाषा के प्रति रुचि दिखाकर इन कवियों ने विभिन्न जनभाषाओं के विकास और संवर्द्धन में अपूर्व योग दिया है। जनभाषाग्रहण की प्रवृति से जैन साहित्य की लोकप्रियता भी बढ़ी। (ड) ग्रंन्य लेखन और प्रतिलिपि करने-कराने की प्रवृत्ति से अनेक प्रतिलिपिकारों की
आजीविका भी-चलती थी। ऐसे अनेक प्रतिलिपिकार आज भी अहमदाबाद, पाटण, बीकानेर तथा अन्य स्थलों पर है जो अपनी आजीविका इसी कार्य पर निर्भर मानते हैं । एक ही प्रति की अनेक प्रतिलिपियां विभिन्न भण्डारों और निजी संग्रहालयों में होती रही है। पाठविज्ञान तथा उसके शोधार्थियों के लिये
यह लेखन-पम्परा बड़ी महत्व की वस्तु है । (इ) जैन धर्म के प्रचार की प्रवृत्ति भी विभिन्न छोटी तथा बड़ी मधुर कथात्मक शैली .. में होती है। इन कथाओं में जैन दर्शन सरस शैली में उतरा है । इनका मुख्य. उद्देश्य चरित्र निर्माण, अहिंसा, कर्मवाद और आदर्शवाद को प्रस्थापित करना
रहा है । उक्त समी परम्पराओं ने जैन साहित्य में जीवन उड़ेल दिया है । (ई) साधु या सन्यासी बनने की परम्परा का निर्वाह भी जैन समाज में वरावर होता
है। भारतीय प्रजा का एक वर्ग परमज्ञान की बातें और संसार की टीकाएं करने
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में खूब रस लेता रहा । संसार की टीका वैराग्य पोपक थी । वैराग्य को ज्ञानमूलक बनाकर एक मात्र मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये संसार- प्रपंच को त्याग कर भक्ति और आराधना का आदेश दिया जाता था । यह उपदेश मात्र पुस्तकीय नहीं था - गुरु परम्परा और अनुभूति का था । इनमें निरूपित जीवन चित्र "आँखों के देखे" थे " कागज के लिखे " नहीं । अतः साधु या सन्यासी बनने की प्रवल भावना समग्र समाज में बनी रही । धीरे धीरे यह भावना मन्द होती चली और युग धर्म के अनुरूप बनने की नई भावना का विकास हुआ ।
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( ५ ) ऐतिहासिक तथ्यों के निर्वाह की प्रवृत्ति :
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जैन साहित्य में उपलव्ध ऐतिहासिक कृतियों से तत्कालीन जैन कवियों का इतिहास स्पष्ट होता है । इनमें अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी उपलब्ध हैं । उदाहरणार्थं "सत्यासीमा दुष्काल वर्णन छत्तीसी' में कवि समयसुन्दर ने अपने जीवनकाल में आंखों देखे, दुष्काल का सजीव वर्णन किया है । इन कवियों ने अपनी कृतियों के आरम्भ या अन्त में गुरुपरम्परा, रचनाकाल, तत्कालीन राजा आदि के नाम बुद्धिकौशल से सूचित किये हैं । तत्कालीन आचार-विचार, समाज, धर्म, राजनीति की प्रामाणिक जानकारी में यह परम्परा सहयोग देती है ।
(६) कथारूढ़ियों और परम्पराओं के निर्वाह की प्रवृति
इन कृतियों में उपलब्ध कथाएँ अपनी ही परम्परा और रूढ़ियों को लेकर कही गई हैं । अनेक कवियों ने एक ही विषय को लेकर अनेक रचनाएँ की । ऋषभदेव, नेमिनाथ, स्थूलभद्र, नलदमयंती, रामसीता, द्रौपदी, भरतवाहुबलि आदि विषयों पर समान रूप से कई कवियों ने अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं । कथाओं और उनकी रूढ़ियों में परम्परा का निर्वाह होते हुए भी, पात्र, कथानक, वर्णन पद्धति तथा उद्देश्य में मौलिकता के दर्शन अवश्य होते हैं ।
(७) शांत रस को प्रमुखता देने की प्रवृत्ति :
१ – सामान्यत: हिन्दू जनता जैन धर्म को विरोधी और नास्तिक समझती रही अतः इस साहित्य के असाम्प्रदायिक ग्रन्थ भी युगों से उपेक्षित रहे ।
२– परम्परा अनुसार अथवा विगत कटु अनुभवों के कारण छापे का आविकार हो जाने पर भी जैन अपने ग्रन्थों के प्रकाशन को धर्मविरुद्ध समझते हैं ।
३ - गुजरात जैन साहित्य के निर्माण का विशेष केन्द्र रहा है । यहां के कवियों की कृतियों का संपादन-संग्रह गुजराती विद्वानों द्वारा ही हुआ है । गुज
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राती को स्वतन्त्र और अलग भाषा स्वीकार कर लेने के कारण विद्वान् इन कृतियों को गुजराती भाषा की ही समझते रहे । अतः बहुत से हिन्दी ग्रन्थ माज तक हिन्दीभापियों तक नहीं पहुंच पाये हैं । जैन गूर्जर साहित्यकार और हिन्दी :.
गुजरात जैन धर्म, संस्कृति एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। इस प्रवेश में जैन धर्म का अस्तित्व तो इतिहासातीत काल से मिलता है । प्रथम तीर्थंकर ऋपमदेव, के प्रधान गणधर पुहरीक ने शत्रुन्जय पर्वत (गुजराज) से निर्वाण लाभ लिया था ।' २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ (कृष्ण के पैतृकमाई) का तो यह प्रधान विहार क्षेत्र था । जूनागढ़ के महाराजा उग्रसेन की राजकुमारी राजुल से नेमिनाथ के विवाह की तैयारी करने, भौतिक देह और संसारी भोगों से विरत हो गिरनार पर्वत पर समाधि लेने तया तीर्थकर मुनिसुव्रत के आश्रम का भृगुकच्छ में होने के उल्लेख मिलते हैं । तेरहवीं शती में वनराज चावड़ा, सोलंकी राजा शिलादित्य और वस्तुपाल तथा तेजपाल जैसे मंत्रियों ने जैन धर्म और साहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया । जैन धर्म का यह उत्कर्ष काल था। मुसलमान बादशाह भी इस धर्म के प्रति काफी सहिष्णु रहे। सम्राट अकबर को प्रतिबोध देने गये जैनाचार्य हीरविजयसूरि, जिनचन्द्र तथा उपाध्याय भानुचन्द्र, गुजरात से ही नागरा गये थे।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को साथ-साथ फलने-फूलने का सुअवसर देने का श्रेय गुजरात को ही है। गुजरात, श्वेताश्वरों का तो प्रधान केन्द्र रहा ही है, किन्तु ईडर, नागौर, सूरत, वारडोली, घोघा आदि कई स्थानों में दिगम्बर भट्टारकों की भी गदियाँ प्रस्थापित हुई थीं।
इस प्रान्त में जैन धर्म के चिरस्थायी प्रभाव के फलस्वरूप ही जैन साधुओं, विद्वानों एवं गृहस्थ कवियों ने इस प्रान्त को सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अमूल्य भेटों से अलंकृत किया।
आधुनिक भारतीय मार्य भापाओं में गुजराती और हिन्दी भापा और साहित्य की इन कवियों के हाथों महती सेवा हुई । इन भापाओं के विकास क्रम के अध्ययन के लिए यही जैन ग्रन्य आज आधारमत हैं। इस भाषा-अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि.हिन्दी और गुजराती का उद्भव एक ही स्रोत से हुआ है। पं० नाथूराम प्रेमी जी के इस अभिप्राय से भी यह बात स्पष्ट है-"ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृत का जब अपभ्रश होना आरम हुआ, और फिर उसमें भी विशेष परिवर्तन होने लगा,
१. जैन सिद्धांत भास्कर, प्रो. ज्योतिप्रसाद जैन का लेग, पृ० ४८, भाग २०, किरण १, जून १६५३ २. महाकालीन गुजरातो साहित्य, मुंशो, पृ० ७२
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तब उसका एक रूप गुजराती के साँचे में ढलने लगा और एक हिन्दी के सांचे में । यही कारण है जो हम| ई० १६ वीं शताब्दी से जितने ही पहले की हिन्दी और गजराती देखते हैं, दोनों में उतना ही सादृश्य दिखलाई पड़ता है। यहाँ तक कि १३ वीं १४ वीं शताब्दी की हिन्दी और गुजराती में एकता का भ्रम होने लगता है ।' इसी भापा-साम्य के कारण वि० १७ वीं शताब्दी के कवि मालदेव के भोजप्रबंध और पुरन्दर कुमार चउपई, जो वास्तव में हिन्दी ग्रन्थ हैं, गुजराती ग्रन्थ माने जाते रहे ।२.
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि १६ वीं-१७.वीं शदी तक भारत के पश्चिमी भू भाग में बसने वाले जैन कवि अपम्रश मिश्रित प्रायः एक-सी भापा का प्रयोग करते रहे। हां, प्रदेश विशेष की भाषा का इन पर प्रभाव अवश्य था। हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ । यही धारणा है कि १६ वीं-१७ वीं शती तक इन तीनों भाषाओं में साधारण प्रान्तीय भेद को छोड़ विशेष अन्तर नहीं दिखाता । श्री मो० द० देसाई ने इस भाषा को प्राचीन हिन्दी और प्राचीन गुजराती कहा है -"विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शती तक अपभ्रंश की प्रधानता रही, फिर वह जूनी हिन्दी और जूनी गुजराती में परिणत हो गई । गुजराती के प्रसिद्ध वैयाकरणी श्री कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी ने गुजराती को हिन्दी का पुराना प्रान्तिक रूप मानते हुए कहा है - "स्वरूप में गुजराती हिन्दी की अपेक्षा प्राचीन है । वह उस भाषा का प्रान्तिक रूप है । चालुक्य राजपूत इसे काठियावाड़ के प्रायद्वीप में ले गये और वहाँ दूसरी हिन्दी बोलियों से अलग पड़ जाने से यह धीरे-धीरे स्वतन्त्र भाषा बनी। इस प्रकार हिन्दी में जो पुराने रूप लुप्त हो गये हैं वे भी इस में कायम हैं।"५
श्री मोतीलाल मेनारिया ने शारंगधर, असाहत, श्रीधर, शालिभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, विनय चन्द्रसूरि, आदि गुजराती कवियों की भी गणना राजस्थानी कवियों में । की है। इन्हीं कवियों और उनकी कृतियों की गणना हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी में की है और उनकी भाषा को प्राचीन हिन्दी अथवा अपभ्रश कहा है। मिश्रवन्धुओं ने अपने ग्रन्थ "मिश्रवन्धु विनोद" भाग १ में धर्मसूरि, विजयसेनमूरि, विनयचन्द्रसरि, जिनपद्मसूरि, और सोम सुन्दरसरि आदि जैन गूर्जर कवियों का उल्लेख किया है। १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, सप्तम् हि० सा० स० कार्य विवरण, भाग-२, पृ० ३ २. वही, पृ. ४४-४५ ३. हिन्दी भाषा का इतिहास, धीरेन्द्र वर्मा ४. जैन गुर्जर कवियों, भाग, १, पृ० २१ ५. गुजराती भाषानुं वहद् व्याकरण, प्रथम संस्करण, प० २१ ६. राजस्थानी भाषा और साहित्य, मोतीलाल मेनारिया
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इस प्रकार एक ही सामान्य साहित्य को हिन्दी, राजस्थानी अथवा गुजराती सिद्ध करने के प्रयत्न वरावर होते रहे हैं । राजनैतिक कारणों से हिन्दी तथा राज. स्थानी से गुजराती के अलग हो जाने और उसके स्वतन्त्र रूप से विकसित हो जाने के पश्चात भी गुजराती कवियों का हिन्दी के प्रति परम्परागत प्रेम बना रहा । यही कारण है कि वे स्वभाषा के साथ-साथ हिन्दी में भी रचनाएं करते रहे । हिन्दी की यह दीर्घ कालीन परम्परा उसकी सर्वप्रियता और सार्वदेशिकता सूचित करती है।
यहाँ तक कि इस परम्परा के निर्वाह हेतु अथवा अपने हिन्दी प्रेम को अभि व्यक्त करने के लिये, गुजराती कवियों ने अपने गुजराती ग्रन्थों में भी हिन्दी अवतरण उद्धृत किये हैं। उदाहरणार्थ नयसुन्दर के, रूपचन्द, कुंवरदास, नलदमयंती रास, गिरनार उद्धार रास, सरसुन्दरी रास, ऋषभदास के कुमारपाल रास, हीर-विजयसूरि रास, हितशिक्षा रास. तथा समयसुन्दर के न नदमयंती रास आदि द्रष्टव्य है । ऋषभदास की कृतियों से पता चलता है कि उस समय व्यापार के लिए भारत में आने वाले विदेशी-अंग्रेज आदि मुगल सम्राटों से उर्दू या हिन्दी में व्यवहार करते थे।
जैन भाषा में कर्मप्रचार तथा साहित्य-सृजन जैन कवियों का उत्लेखनीय कार्य रहा है । इन कवियों का विहार राजस्थान एवं गुजरात में अधिक रहा । गुजराा में हिन्दी भाषा के प्रभाव और प्रचार ने इन्हें आकर्षित किया। फलतः हिन्दी भापत में इनके रचित छोटे-बड़े ग्रन्थ १५ वीं शती से आजतक अच्छे परिमाण में प्राप्त होते रहे हैं। इन्होंने अपनी कृतियों में भारतीय साहित्य की अजस धारा बहायी है तथा अपने आध्यात्मिक प्रवचनों, गीतिकाव्यों तथा मुक्तक छन्दों द्वारा जन-जीवन के नैतिक धरातल को सदैव ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया है। ये जैन संत विविध भाषाओं के जाता होते हुए भी इन्हें भाषा विशेप से कभी मोह नहीं रहा। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि सभी भाषाएं इनकी अपनी थीं, प्रान्तवाद के झगड़े में ये कभी नही उतरे । साहित्य रचना का महद् उद्देश्य-आत्मोन्नति नौर जनकल्याण-केन्द्र में रखकर अपनी आत्मानुभूति से जन-मन को ये परिप्लावित करते रहे। दिगम्बर कवियों के साहित्य केन्द्र :
राजस्थान का वागड़ प्रदेश (विशेषतः डूंगरपुर, सागवाडा) गुजरात प्रान्त से लगा हुआ है । अत: गुजरात में होने वाले भट्टारकों के मुख्य केन्द्र नवसारी, सूरत, भडौच , जावूनर, घोया तथा उत्तर गुजरात में ईडर आदि थे । सौराष्ट्र में गिरनार
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और शनुजय की यात्रा के लिए भी इनका आगमन बराबर होता था।' इन भट्टा. रक जैन कवियों का साहित्य भी विशेपतः राजस्थान के विभिन्न जैन भण्डारों में (रिखवदेव, डूंगरपुर, सागवाडा एवं उदयपुर) में विपुल परिमाण में उपलब्ध है ।" इन भट्टारक संतों ने तो हिन्दी को राष्ट्रभापा, बनाने का स्वप्न ८ वीं शताब्दी से पूर्व ही देखना प्रारम्भ कर दिया था, मुनि रामसिंह का 'दोहा पाहुड' हिन्दी माहित्य की एक अमूल्य कृति है जिसकी तुलना में भापा-साहित्य की बहुत कम कृतियाँ आ सकेंगी । महाकवि तुलसीदासजी को तो १७ वीं शताब्दी में भी हिन्दी भाषा में "रामचरित मानस" लिखने में झिझक हो रही थी किन्तु इन जैन सन्तों ने उनसे ८०० वर्ष पहले ही साहस के साथ प्राचीन हिन्दी में रचनायें लिखना प्रारम्भ कर दिया था । गूर्जर भट्टारक कवियों की भी हिन्दी रचनाएं १५ वीं शती से प्राप्त होती हैं । १५ वीं शती के ऐसे गुर्जर भट्टारकों में भट्टारक सकल कीति और ब्रह्मजिनदास उल्लेखनीय हैं। ये संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। फिर भी इन्होंने लोकभाषा के माध्यम से राजस्थान और गजरात में जैन-साहित्य और संस्कृति के निर्माण में अपूर्व योग दिया । ये अणहिल पुर पट्टण के रहने वाले थे।३ इनके शिष्य ब्रह्म जिनदास भी पाटण निवासी हबड जाति के श्रावक थे । इन्होंने ६० से भी अधिक रचनाएं लिखकर हिन्दी साहित्य की श्री-वृद्धि की। इन रचनामों में रामसीतारास, श्रीपाल रास, यशोधररास, भविष्यदत्तरास, परमहंसरास, हरिवंशपुराण, आदिनाथ पुराण मादि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी भाषा शैली की दृष्टि से आध्यात्मिक रास "परमहसरास" से एक उदाहरण दृष्टव्य है
पापाण मांहि सोनो जिम होई, गोरस मांहि जिमि घत होई। तिल सारे तैल वसे जिमि भंग, तिम शरीर आत्मा अभंग ॥ काण्ठ मांहि आगिनि जिमि होई, कुसुम परिमल मांहि नेह ।
नीर जलद सीत जिमि नीर, तेम आत्मा वस जगत सरीर ।।
१६ वीं शती के भट्टारक कवियों में आचार्य सोमकीति, भट्टारक ज्ञानभूषण, तथा भट्टारक विजयकीति विशेष उल्लेखनीय हैं। आचार्य सोमकीर्ति का सम्बन्ध काण्ठा संघ के नन्दनीतट शाखा से था । इनका विहार विशेषतः राजस्थान और गुजराज में रहा । इनकी रचनाओं में "यशोधर रास" विशेष महत्व की रचना है जिस पर गुजराती प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । भट्टारक ज्ञानभूषण मूल गुजरात के निवासी १. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर, पृ० ६, ७ २. राजस्थान के जैन संत, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रस्तावना ३. वही, पृ० १ ४. वही, १० २३
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
थे और सागवाडा की भट्टारक गद्दी पर आमोन हुए थे ।' इनकी हिन्दी कृतियां आदिश्वर फाग, जलगालण राम, पोइस रास, पट्कर्म रास तथा नागदारास हैं । आदिश्वर फाग इनकी एक चरित्न प्रधान रचना है। आदिनाथ के हृदय में संसार के प्रति विराग कैसे जगता है, इस स्थिति के वर्णन का एक प्रसग दृष्टव्य है
आहे धिग धिग इह संसार, बेकार अपार असार । नही सम मार समान कुमार रमा परिवार ॥१६४॥ आहे घर पुर नगर नहीं निज रम सम राज अकाज ।
हय गय पयदल चल मल सरिखंड नारि समाज ॥१६५।। भट्टारक विजयकीर्ति इन्हीं के शिष्य और उत्तराधिकारी थे, जो अपनी सांस्कृतिक सेवाओं द्वारा गुजरात और राजस्थान की जनता की गहरी आस्था प्राप्त कर सके थे।
सत्रहवीं और अठारहवीं शती के भट्टारक कवियों का परिचय आगे दिया जायगा किन्तु यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गुजरात के इन भट्टारकों और उनके शिष्यों की हिन्दी कविता को महत्वपूर्ण देन है। ये भट्टारक समुदाय, शिक्षा और साहित्य के जीवन्त केन्द्र थे। कच्छयुग की ब्रजभाषा पाठशाला और उसके कवि :
कच्छ (गुजरात) के महाराव लखपतिसिंह जी ने अपनी राजवानी युग में अठाहरवीं शताब्दी में ब्रजभाषा के प्रचार एवं साहित्य सृजन हेतु एक पाठशाला की स्थापना की थी। दूले राय काराणीजी ने अपने ग्रन्थ "कच्छना संतों अने कविओं" में लिखा है- "कवि श्री लखपतसिंहजी ने इस संस्था की स्थापना करके समस्त देश पर एक महान उपकार किया है। जहाँ कवि होने का प्रमाणपत्र प्राप्त किया जा सके, ऐसी एक भी संस्था भारतवर्ष में कहीं नहीं थी । इस संस्था की स्थापना करके महाराव ने समस्त देश की एक बड़ी कमी दूर कर दी....... इस संस्था से निकलने वाले कवियों ने सौराष्ट्र और राजस्थान के अनेक प्रदेशों में अपना नाम प्रख्यात कर इन सस्था को यशस्वी बनाया है ।"
इस विद्यालय में भारत भर के विद्यार्थी आते थे और उन्हें राज्य की ओर से खाने-पीने तथा आवास की पूर्ण व्यवस्था थी । यहाँ के प्रथम अध्यापक के रूप में जैन यति कनककुशल और उनके शिप्य कुंवर कुशल कार्यरत थे उनकी हिन्दी सेवाओं का परिचय अगले पृष्ठों में विस्तार से दिया जायगा । १. राजम्यान के जन संत, डॉ. कस्तूरचंद कामलीवाल, पृ० ५०
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महाराव लखपतिसिंह स्वय भी कवि थे। इनके रचित ग्रन्थों में लखपति शृंगार, लखपति मान मंजरी, सुरत रंगिणी, मृदंग महोरा, राग सागर आदि प्राप्त हैं।'
श्री नाहटा जी के उल्लेख के अनुसार-"करीब डेढ़ सौ वर्षों तक ब्रजभाषा के प्रचार व शिक्षण का जो कार्य इस विद्यालय द्वारा हुआ वह हिन्दी साहित्य के इतिहास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है" । २ यह विद्यालय छन्द और काव्यों के अध्ययन-अध्यापन का एक अच्छा केन्द्र था । यति कनककुशल की परम्परा में यह करीब २०० वर्ष चलता रहा। अहिन्दी भाषी विद्वानों द्वारा ब्रजभाषा में काव्य रचना की परम्परा महत्वपूर्ण है ही परन्तु ब्रजभापा पाठशाला की प्रस्थापना और निःशुल्क शिक्षा देने की यह वात विशेष महत्व की है । इस दृष्टि से गुर्जर विद्वानों का यह ब्रजभापा प्रचार का कार्य निःसंदेह अनूठा है।
जिन की मातृभाषा हिन्दी नहीं, उन लोगो ने भी कितनी शताब्दियों तक हिन्दी में रचना करने की परम्परा सजीव रखी है। इससे स्पष्ट है, प्रारम्भ से ही हिन्दी एक व्यापक भाषा के रूप में विकसित होती रही है । यह अन्तन्तिीय व्यवहार की और संस्कृति की बाहक भापा रही है। इस बात को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है । हिन्दी भापी प्रदेश का निकटवर्ती प्रदेश होने के कारण भी गुजरात में हिन्दी भाषा का प्रचार अधिक रहा है । १. कुंअर चंद्रप्रकाश सिंह, भुज (कच्छ) की ब्रजमापा पाठशाला, पृ० ११ . २. माचार्य विजय वल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, अगरचंद नाहटा का लेख, पृ. ६७ ३. चन्दरासानी पराक्रम गाथाने कारणे त्यहारे राजदरवारोमांनी राजभाषा हिन्दी
हती । सूरदासजीनी सुरावट मधुरी पदावलीने कारणे कृष्ण मंदिरोमांनी कीर्तनभापा हिन्दी हती, तुलसीकृत रामकथाना महाग्रथने कारणे तीर्थ, तीर्थवासी जोगीओंनी भोगभापा हिन्दी हती, भारतना प्रांते प्रांते घूमती देशी-परदेशी सेनाओना सेनानीओना सैन्य भाषा हिन्दी हती, विचार सागर समा समर्थ ग्रंथों त्यहारे हिन्दीमा लखाता, काव्य शास्त्रो त्यहारे हिन्दीमां रचाता । आपणो मध्ययुगनो ज्ञानभंडारं हिन्दी भापामा हतो । जो महत्वाकांक्षीने भारत विख्यात महाग्रंथ गंथवां होय त्यहारे हिन्दीमां गूंथता ।
महाकवि न्हानालाल "कवीरवर दलपतराय" भाग ३, पृ० १०८ आ-छापखाना, प्रान्तीय अभियान, मुसलमानोंनो फारसी अक्षरोनो आग्रह अने नवा
प्रान्तिक उद्बोधन न होत तो हिन्दी भापा अनायासे देश भाषा बनी जात । अधिक छापखाना, छपाववा लखवाने चाल्यु ने झगडाओ थया तेथी आ गति अटकी।" जैन--गूर्जर कविओं भाग १, मो० द० देसाई, पृ० १५
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मालोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
जैन कवियों का हिन्दी में साहित्य-रचना के प्रति परम्परागत मोह रहा है । प्रान्तीयता को लेकर भाषा के झगड़े इनमें कभी नहीं उठे, उठे भी तो लोकभाषा को लेकर ही। हिन्दी में लोकभापा और लोकजीवन के सभी गुण विद्यमान थे । अतः गूर्जर जैन कवियों ने भी इसे महर्प अपनाया। इनकी हिन्दी भाषा में, शिक्षा और प्रान्तीय प्रभावों के कारण थोड़ा अन्तर अवश्य आया किन्तु भाषा के एक सामान्यरूप अथवा उसकी एक ल्पता में कोई विकृति नहीं आने पाई। गांधीजी ने हिन्दी के जिस रूप की कल्पना की थी, जैन गुर्जर कवियों की रचनाओं में वह उपलब्ध है। हां, साधु-सम्प्रदायों में पले कवियों की भाषा संस्कृतनिष्ठ रही है ।
जैन गजैर कवियों द्वारा हिन्दी में रचता किये जाने के कारण (१) सांस्कृतिक कारण :
सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भारत एक है। भारत के तीर्थों ने जाति, धर्म और प्रदेशों के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाने में विशेष सहयोग दिया है । इन्हीं तीर्थधामों ने एक-दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान के लिये विभिन्न भाषा भापियों के बीच एक सामान्य भाषा को पनपने का अवसर भी दिया है। जैनों के . तीर्थ भी सम्पूर्ण देश के प्रमुख भू-भागों में विद्यमान हैं । देश के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा में इसी भाषा का सहारा लेना पड़ता था । (२) राज्याश्रय :
जैन कवियों ने तो राज्याश्रय कभी स्वीकार नहीं किया परन्तु जैन धर्मावलम्बी शासकों ने जैन धर्म और साहित्य को आश्रय देने का कार्य अवश्य किया है । मुसलमान वादशाह और सूवेदार भी इस धर्म के प्रति सहिष्णु रहे । कच्छ के महाराव लखपतसिंहजी ने तो भुज में ब्रजभाषा पाठशाला की स्थापना की थी जिसका विस्तृत परिचय दिया जा चुका है। इन राजाओं के कारण भी इन कवियों को हिन्दी में लिखने की प्रेरणा मिलती रही। (३) धार्मिक :
साहित्य धार्मिक आन्दोलनों से भी अवश्य प्रभावित होता रहा है । जैन साधु भी धर्म प्रचार के लिए देश के अन्यान्य भागों में घूमते रहे हैं। इनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों से हिन्दी को काफी बल मिला । जैन भण्डारों में हिन्दी के अनेक ग्रन्थों की, सुरक्षा संभव हो सकी है। (8) साहित्यिक :
- हिन्दी अपनी व्यापकता, सरलता, साहित्यिक सम्पन्नता और संगीतमयता के कारण भी अधिक लोकप्रिय रही। गूर्जर जैन कवि ब्रजभाषा के लालित्य, माधुर्य
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता और काव्योपयुक्त गुणों पर मुग्ध रहे और इसे सीखने तथा इसमें अपनी अलंकृत अभिव्यक्ति के लिए लालायित रहे। यह भाषा इतनी काव्योपयुक्त और भाववाहक है कि अहिन्दी भाषा कवि उसे अपनाए विना न रह सके । (५) भाषा साम्य :
गुजराती और हिन्दी में अत्यन्त साम्य है। इसी भापा-साम्य को लेकर प्रारम्भ से हो अनेक जैनगूर्जर कवि हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हुए और अपनी मातृभाषा के साथ-साथ खड़ीबोली, नजभापा, डिंगल आदि में भी काव्य-रचनाएं करने लगे। (६) व्यापारिक संबंध :
गुजराती प्रजा मुख्यतः व्यापारी प्रजा है। गुजरात के जैन भी भारत के विभिन्न प्रान्तों में व्यापार चलाते रहे हैं। प्राचीन काल में भारत का व्यापार गुजरात के बंदरगाहों द्वारा हुआ करता था। अतः गुजरात के व्यापारी वर्ग में हिन्दी का कामचलाऊ उपयोग परम्परा से चला आया है । - (७) रीति ग्रंथों का अनुशीलन :
कला-प्रेमी अहिन्दी भापा कवियों को हिन्दी के रीतिकालीन साहित्य ने भी आकर्षित किया । संभवतः पिंगल, अलंकार रस आदि की जानकारी के लिए और उसे अपनी भापा में ढालने के लिए ये कवि संस्कृत रीतिग्रंथों के साथ हिन्दी के रीतिग्रंथों का भी अनुशीलन, अध्ययन करने लगे होंगे । यही कारण है कि गुजरात के विभिन्न जैन भण्डारों में विहारी सतसई तथा अन्य रीतिग्रंथों की भी प्रतियां उपलब्ध होती हैं। पाटण जैन भण्डार में भी विहारी सतसई की चार-पांच प्रतियाँ उपलब्ध हैं । (८) राष्ट्रीयःः
माधुनिक युग में राष्ट्रीय भावनाओं के उदय के साथ हिन्दी के भाग्य का भी उदय होने लगा । राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा के आन्दोलनों में गुजरात आगे रहा है।
इस प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, राष्ट्रीय तथा अन्य कारणों से भी गुजरात के जैन कवियों ने हिन्दी की महती सेवा की है । इस संबंध में जनक देव का अभिमत समीचीन ही है
"गुजरातियों के हाथों हिन्दी की जो सेवा हुई है वह मूक होते हुएjभी संगीन है । उसमें सूर्य के तेज की प्रखरता या आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करने वाली विजली-की चमक नहीं है। पर लालटेन की-सी उपयोगिता अवश्य है । उसमें दानेश्वरी का १. ब्रजभाषा का व्याकरण, किशोरीलाल वाजपेयी
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दमाम या रसेश्वरी का जादू नहीं है, पर बढ़ी बहन के प्रति छोटो किन्तु अधिक भाग्यशाली बहन की ममता है । यह ममता भरी सेवा, हिन्दी के विकास में इतनी उपयोगी वन पड़ी है कि अहिन्दी भाषियों ने हिन्दी की जो सेवा की है उसमें गुजरातियों का नम्बर शायद सबसे पहला है ।""
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इस प्रकार जैन गुर्जर कवियों ने १५ वीं शती से आज तक प्राचीन हिन्दी या प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी, डिंगल, व्रण, अवधी, खड़ीबोली, उर्दू आदि भाषाओं में अनेक गौरवग्र ंथों की रचना की है । इससे यह स्पष्ट है कि हिन्दी, इन बहिन्दीभाषी जैन कवियो पर बलात् थोपी या लादी नहीं गई थी, उन्होंने उसे स्वयं ही श्रद्धा और प्रेम से अपनाया था और अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया था । /
३. आलोच्य काल की पृष्ठभूमि ( १७वीं तथा १८वीं शती ) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
जैन साहित्य के स्वरूप तथा प्रवृत्तियों का अवलोकन कर चुकने के तश्चात् आलोच्य काल ( १७वीं तथा १८वीं शती ) की ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा साहित्यिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात कर लेना भी उचित होगा । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । भावनाओं का अक्षय कोष तथा प्रतिभावान साहित्यकार का जीवन अपने युग के समाज और जीवन से निश्चय ही प्रभावित रहेगा । मेघमाला की तरह साहित्य-सृष्टा अपने समकालीन जीवन -सागर से भाव एवं रस के कणों को अपने अन्दर भर कर उसे भव्य और स्वच्छ रूप प्रदान कर मां वसुन्धरा को ही उवर बनाने के लिए बरस पड़ता है । इस तरह वह अपने युग के प्रभावों को ग्रहण करता हुआ अपनी श्रेष्ठ रचनाओं द्वारा अपने तथा आने वाले युग को प्रभावित करता है । अतः साहित्यकारों के प्रामाणिक अव्ययन के लिए, व्यावहारिक दृष्टि से उस युग की विभिन्न परिस्थितियों का अवलोकन तथा अध्ययन आवश्यक होगा ।
आलोच्य युग हिन्दी - गुजराती का मध्यकाल या भक्तिकाल ही माना जायगा । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल वि० सं० १४०० से १७०० तक माना है, किन्तु जैन भक्ति काव्य की दृष्टि से उसको वि० सं० १८०० तक मानना चाहिए क्योंकि जैन कवियों ने अपनी अधिकांश प्रौढ भक्तिपरक रचनाएं इसी समय में की । डाँ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारत का मध्यकाल १० वीं शती से १८ वीं शती तक
१. "शिक्षण अते साहित्य" जनक दवे का लेख,
हिन्दी विकासमां गुजरातीओनो फालो, जुलाई, १९५१
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माना है। वे कहते हैं-१० वीं शताब्दी के आसपास आते आते देश की धर्म साधना विलकुल नये रूप में प्रकट होती है तथा यहां से भारतीय मनीषा के उत्तरोत्तर संकोचन का आरम्भ होता है । यह अवस्था अठारहवीं शताब्दी तक चलती रही। उसके बाद भारत वर्ष फिर नये ढंग से सोचना आरम्भ करता है ।
मध्यकालीन गुजराती माहित्य की (१५ वीं शती से १८ वीं शनी) राजनैतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि भी विभिन्न हलचलों एवं अनेकों उथल-पुथल से आक्रांत रही । गजरात का लोकजीवन और साहित्य भी इन अन्यान्य परिस्थितियों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। गुजरात की संस्कृति विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के प्रति समन्वय वृत्ति एवं उदार भावना का परिचय देती हुई समृद्ध एवं विकसित होती रही है । इस धार्मिक उदारता और साँस्कृतिक समन्वय का प्रतिबिंव गजराती तथा गजरात में सजित साहित्य पर भी पड़ा है। समस्त मध्यकालीन गुजराती साहित्य इसी धर्म-भावना से ओतप्रोत है।
हिन्दी भाषा तथा साहित्य के आदि स्रोतों के लिए अपभ्रंश का महत्व निविवाद है, और अपभ्रंश में जैन साहित्य अपरिमित है। यह जैन साहित्य सामाजिक और ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में
___ "हिन्दी की काव्यधारा का मूल विकास सोलह आने अपभ्रंश काव्य धारा में अन्तनिहित है, अतएव हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा को सम्मलित किये विना हिन्दी का विकास समझ में आना असम्भव है । भापा, भाव
और शैली तीनों दृष्टियों से अपभ्रंश का साहित्य हिन्दी भापा का. अभिन्न अंग समझा जाना चाहिए। अपभ्रंश (८ वीं से ११वीं सदी) देशीभापा (१२वीं से १७वीं सदी) और हिन्दी (१८ वीं से आज तक) ये ही हिन्दी के आदि मध्य और अन्त तीन चरण है।"३
जैन साहित्य पर राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का समर्थन करते हुए जैन साहित्य तथा इतिहास के मर्मज्ञ कामताप्रसाद जैन लिखते हैं
भारत के इस परिवर्तन (१५ वी से ५७ वीं शताब्दी) के प्रभाव से जैनी
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१. मध्व कालीन धर्मसाधना, आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० ६, १० २. वही, पृ०७१ ३. कामताप्रसाद जैन कृत "हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास", प्राक्कथन, पृ०६
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ,
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
अछूते न रहे—वे भी यहाँ के निवासी थे और अपने पड़ोसियों से पृथक् नहीं रह सकते थे । जैन-जगत् में इस परिवर्तन की प्रक्रिया सर्वागीण हुई ।" "
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
सनहवीं और अठारहवीं शती मुगल साम्राज्य के उत्कर्ष और अपकर्ष को कहानी है | मुगल सम्राट अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेव और उनके उत्तराधिकारियों का यह युग रहा है । अपने दो सौ वर्षों के शासनकाल में मुगलों ने भारतवर्ष की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि दशाओं पर अपनी छाप लगा दी । साहित्य एवं कला के क्षेत्र भी मुगलों के प्रभाव से अछूते नहीं रह सके । हिन्दू और मुगलों के इस सामीप्य ने भारतीय समाज एवं राजनीति को एकनया रूप दिया । अतः मुगल काल की भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विभिन्न दृष्टिकोणों से अवलोकन अपेक्षित है ।
मुगल युग में गुजरात की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि :
मुगल सत्ता के पूर्णतया जम जाने पर सामान्यतया सर्वत्र सुख-शांति स्थापित होने लगी थी । १६वीं शती में गुजरात में भी शांति का वातावरण रहा । वि० सं० १५६३ में बहादुर शाह की मृत्यु के पश्चात् पुनः वातावरण अशांत-सा होने लगा था किन्तु संवत् १६२६ में अकवर के कुशल नेतृत्व में गुजरात में पुन: शांति स्थापित हो गई । गुजरात का यह शांत वातावरण औरंगजेब के शासनकाल तक बना रहा । तत्पश्चात् कुछ विक्षेपों के कारण अधिक अनुकूल परिस्थितियों के अभाव में भी गुजराती भाषा साहित्य का विकास होता रहा ।
1
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् तो गुजरात का वातावरण पुनः क्षुब्ध हो उठता है । सरदारों, सूवेदारों और मराठों की स्वेच्छाचारिता बढ़ रही थी । युग पलट रहा था, देश खंड-खंड होने जा रहा था । संवत् १७८६ में गुजरात के बड़ौदा में गायकवाड राज्य का प्रस्थापन इमी का परिणाम है । केन्द्रीय शासन शिथिल होता जा रहा था । मुगल सम्राट राव उमराव वर्ग के हाथों की कठपुतली बन रहा था । इस वातावरण का प्रभाव गुजरात के लोकजीवन और साहित्य पर भी पडा है । सर्वत्र अव्यवस्था और अशांति के कारण इस काल का लोकजीवन और साहित्य कुंठित-सा प्रतीत होता है ।
मुगल युग की इन विषम परिस्थितियों में हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, अभिमान और उत्साह के लिए कोई स्थान नहीं था । उनके सामने हो उनके देव' मन्दिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियों और पूज्य महापुरुषों का अपमान होता था और ये १. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ६३
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लोग. क्योंकि इस अपमान जनक परिस्थिति के गरल को न पी सके अतः अपनी संस्कृति तथा धर्म की रक्षा हेतु संगठित होने के लिये प्रयत्नशील हुये। राजनैतिक पृष्ठभूमि
___ अपने गौरव और स्वाभिमान की रक्षा हेतु देश के विभिन्न प्रान्तों की भांति गुजरात और राजस्थान में इसके प्रतिशोध के लिये स्वतंत्र हिन्दू शासकों ने सभी छोटेछोटे शासकों को एकता के सूत्र में वाँधने का प्रयास किया। गुजरात में कवियों ने भी देश के स्वाभिमान तथा जाति के गौरव की रक्षा के लिये हिन्दू जनता के हृदय में चेतना जागृत करने को प्रयास किया। राजस्थान में इसकी पताका राणा-साँगा ने संभाली। राणा सांगा के नेतृत्व में एक बार पुनः राजस्थान अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एकता के सूत्र में बंधा और खानवा के समीप संवत १५८४ में वावर से भयंकर युद्ध किया । दुर्भाग्यवश विजय वावर - के हाथ लगी और सं० १५८५ में राणा सांगा की मृत्यु हो गई। अब राजनैतिक एकता भूली-विसरी वात हो गई, राष्ट्रीय भावना का कहीं कोई स्थान नहीं रहा । आंतरिक गृहकलह, विशृखलता एवं विनाश से उत्पन्न अराजकता का सर्व बोलबाला दिखने लगा।
संवत् १६१३ में सम्राट अकवर सिंहासनारूढ हुआ । वह अपनी नीतिकुशलता के कारण धीरे धीरे सम्पूर्ण भारत का अधिपति बन बैठा। संवत्'१६१६ में उसने आमेर के राजा मारमल की पुत्री के साथ विवाह किया । आमेर के साथ ही जोधपुर, वीकानेर, जैसलमेर, आदि की राजकुमारियां भी मुगल हरम में पहुचीं। १
भारत के इतिहास में मुगल सम्राटों ने कई दृष्टियों से एक युगान्तर ही ला दिया । इन मुगल सम्राटों ने अपने लगभग २०० वर्षों में शासन, व्यवस्था, रहन-सहन आदि जीवन के समस्त अंगों पर गहरा प्रभाव डाला। मुगलों के पूर्व खिलजी तुगलड आदि आतताइयों, आक्रमकों एवं लुटेरों से भारतीय जनता पूर्ण परिचित थी। मुगल नम्राटों में कुछ अंशों में हृदय का स्नेह और आत्मा का स्वर भारतीय जनता ने अनुभव किया। भले ये स्वर्णयुग या रामराज्य स्थापित न कर सके हों पर सार्वत्रिक रूप से इस वंश ने संतोपकारक प्रगति अवश्य की । अपने पूर्वजों की अपेक्षा सम्राट अकबर ने तो अनेक विवेकपूर्ण कार्य किये । उसने राजनीति, धर्म, रहन-सहन एवं साहित्यक अभिरुचि आदि के साथ अन्यान्य क्षेत्रों में भी अत्यन्त उदारता-पूर्ण नीति से कामलिया। मुगल काल का यह स्वर्गकाल मात्र अकबर की शासन व्यवस्था में ही रहा ।
१ डॉ० ईश्वरी प्रसाद, मध्ययुग का संक्षिप्त इतिहास
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उसके पश्चात् पुनः अपराहन प्रारंभ हो जाता है। इस संबंध में एस० एम० एडवर्ड ने लिखा है
" सोलहवीं और सत्रहवीं की शासनव्यवस्था और सिद्धान्त-निर्माण मुख्यरूप से अकवर के दूरदर्शी बुद्घमान् मस्तिष्क का ही परिणाम था।" १
उत्तर भारत में मुगलों की सत्ता को सुदृढ बनाने के लिए अकबर ने अनेक प्रयत्न किये । वह मेवाड़ को अपनी अधीनता में पूर्णतया नहीं ला सका। राणा प्रताप अपनी स्वतंत्रता के लिए निरन्तर मुगल सत्ता से लोहा लेते रहे । बीकानेर और मेवाड़ की दो अग्निदाहक शक्तियां अपने आत्मगौरव और सम्मान की रक्षा के लिए राजस्थान में चेतना का शंखनाद करती हुई अकबर जैसे प्रतापी मुगल को भी चकित और भ्रमित करती रही।
जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में अकबर द्वारा प्रस्थापित राष्ट्रीय रूप कायम रहा अतः शान्ति और व्यवस्था बनी रही। औरंगजेब शाहजहाँ के जीवन काल में ही अपने भाइयों को गृहयुद्ध में परास्त कर संवत् १७१५ में मुगल साम्राज्य का अधिपति वन बैठा। उसने अकवर की नीति का परित्याग कर भारत को इस्लामी राज्य बनाने का प्रयत्न शुरू किया। स्नेह, सहानुभूति और सहयोग पर प्रस्थापित मुगल साम्राज्य की नीव पर औरंगजेब ने कुठाराघात किया। उसने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया। हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने के आदेश दिये, जिसके कारण काशी में विश्वनाथ, गुजरात में सोमनाथ और मथुरा में केशवराय के मन्दिरों को ध्वस्त किया गया । हिन्दू और मुसलमानों में भेद नीति का व्यवहार किया गया। इस विरोधी नीति के परिणाम स्वरूप अनेक विद्रोह संघर्ष चलते रहे और मुगल साम्राज्य अन्दर ही अन्दर खोखला होने लगा।
१८वीं शती के उत्तरार्ध में मुगल साम्राज्य दिनोदिन अत्यधिक अव्यविस्थत हो हो गया। दक्षिण में मराठों की शक्ति बढ़ रही थी। राजस्थान के राजपूत नरेशों का घोर पतन हो रहा था। वे ऐश्वर्य-विलास में डूवे हुए थे अपने व्यक्तिगत स्वार्थो, लाभों, एवं सुखों को छोड़कर मराठों का सामना करने में असमर्थ रहे । यह मराठों के अभ्युदय का युग था । देश के अन्यान्य क्षेत्रों में विशेषत: राजस्थान और गुजरात में भी गृहयुद्ध, सर्वत्र भयंकर मार काट, घृणित-पड्यंत्रों एवं अविश्रसनीय विश्वास घातों का दौरदौरा चल रहा था । औरंगजेव के समस्त उत्तराधिकारी निर्वल निकले। वे अन्यान्य देशी-विदेशी शक्तियां के हाथों की कठपुतली बने रहे। गुजरात में भी औरंगजेब से लेकर १९वीं शती के प्रयम चरण तक अशांति का वातावरण बना रहा। 1 Mugal Rule in India. by S. M. Edwards. p. 159
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धार्मिक पृष्टभूमि
यद्यपि मुगल काल में राजनैतिक वातावरण संघर्षपूर्ण एवं अत्यन्त अज्ञात रहा तथापि धार्मिक भावनाएं अक्षुण्ण बनी रहीं। अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाली पृष्टभूमि भी कुछ ऐसी थी जिससे उसकी धार्मिक मान्यताओं में विविधता का समावेश होगया था । पैतृक धार्मिक सहिष्णुता, उसके शिक्षक अब्दुल लतीफ तथा संरक्षक वैराम खाँ की धार्मिक सहिष्णुता, सूफी विद्वानों के उदार विचारों, राजपूत तथा राजपूत रमणियों के सम्पर्क, विभिन्न धर्माचार्यो, जैनाचार्य हीर-विजयसूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय तथा जिनचन्द, सिक्ख गुरू आदि के प्रभावों से अकवर की धार्मिक नीति का निर्धारण हुआ था । वह अपनी धार्मिक समन्वय वृत्ति तया आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर राष्ट्र का धार्मिक नेतृत्व करता रहा। किन्तु यह धार्मिक समन्वय अकवर जैसे सम्राट के लिए अपवाद रूप ही है। सामान्यतः तो इस यवन जाति ने भारतीय संस्कृति और धर्म को छिन्न-भिन्न कर दिया। इसके लिए इन सम्राटों ने दान की वृत्ति से, तो कभी साधुता के आवरण में अनेक छलपूर्ण प्रयत्न किये । पवित्र देवमन्दिर ध्वस्त किये गये, अनेक ग्रंथालय अग्नि की लपटों में भस्मीभूत किये गये तथा बहुमूल्य मणिरत्न आत्मसात् कर लिये गये। भारतीय जनता का मवनीकरण भी कम नही हुआ । इन परिस्थितियों में भारतीय जनता के लिए एक ही रास्ता था कि वह अपनी मर्यादाओं में सीमित रहकर जिस किसी तरह अपने पूर्वजों की निधि-अपनी संस्कृति और धर्म की रक्षा करती।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म से जव इनका किसी भी तरह मेल न खाया तो इनका दानवी अधिकार-पद फूट पड़ा। परिणामतः जैनों और सिक्खों से भी भयंकर संघर्ष चले। समय निकलता गया। प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय अपने को पुष्ट बनाने के प्रयत्नों में लग गया। पारस्परिक असहिष्णुता तथा तद्जन्य संघर्ष भी होते रहे। असहिष्णुता और परस्पर में एक-दूसरे को छोटे-बड़े सिद्ध करने के लिए अनेक शास्रार्थ भी होने लगे। परस्पर का लक्ष्य एक-दूसरे को गिराना ही हो गया। इस विपमता तथा कटुता को वात्सल्य एवं मैत्री में परिवर्तित करने के लिए संतों ने अपने आदर्श मार्ग द्वारा प्रशस्य प्रयत्न किये।
संतों की भक्ति भावना और नीति प्रोज्ज्वल लहरें सर्वत्र उठने लगीं। निरंजननिर्गुण ब्रह्म की उपासना प्रिय वन चली। कबीर-पंथ, द्वद्-पंथ महानुभाव-पंय आदि पंथ पल्लवित हुए । किन्तु इनका प्रभाव निम्नश्रेणी की जनता तक ही सीमित रहा । इन संत कवियों ने अपनी वाणियों द्वारा मनुष्यत्व को सर्वोपरि रखा। भारतीय जनता
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
को मुसलमान होने से बचाने के लिये इन सुधारकों ने सरल और उदार भावना से पंथ और सम्प्रदायों की रचना की। वर्णाश्रम धर्म, अवतार वाद, वहुदेवो पासना. मूर्तिपूजा, साकारवाद आदि को छोड़ उन्होंने अपनी उपासना विवि मुसलमानों की भांति अत्यन्त सरल वना दी।
प्राचीन परम्परागत भक्ति भावना की रक्षा करने के लिए भागवत् सम्प्रदाय से उद्भुत भक्ति के स्वरूप का प्रचार सगुण भक्ति के सम्प्रदायों ने भी किया। वल्लभ सम्प्रदाय तथा निम्बार्क सम्प्रदाय ने राधा कृष्ण की सरल भाव की उपासना प्रसारित की। हित हरिवंश के राधावल्लभी सम्प्रदाय तथा चैतन्य सम्प्रदाय की प्रेमलक्ष गा भक्ति आदि का प्रचार वढ़ा।
रामानन्द की अपनी दास्य भक्ति से परिपूरित राम भक्ति की धारा सम्पूर्ण भारत में प्रवाहित हुई । सब प्रकार के समाज में इस राम-नाम और राम भक्ति का सम्मान हुआ। ब्राह्मण वर्ग में राम भक्ति के साथ शिवपूजा का महात्म्य भी बढ़ता रहा । राजस्थान में शक्ति की उपासना भी अत्यन्त लोकप्रिय रही।
एक और निर्गुण ब्रह्म, रामकृष्ण, शिव-शक्ति की उपासना हो रही थी तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म भी अपने पांव पसार रहा था । अधिकांश हिन्दू नरेशों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। तथा उनसे विवाह सम्बन्ध भी जोड़ लिये थे। इधर सूफी साधकों की माधुर्य भावना हिन्दू-मुस्लिम एकता में मध्यस्थी का कार्य कर रही थी।
___ जैन धर्म गुजरात और राजस्थान में केन्द्रित हो गया था। इस धर्म का विशेष प्रचार राजस्थान और गुजरात की वैश्य जाति तक ही सीमित रहा । मध्यकालीन राजस्थानी-गुजराती साहित्य की सम्पन्नता का अधिकांश श्रेय इन्हीं जैन धर्मावलम्बियों को ही है।
इस मध्यकालीन भक्तियुग में धर्म की मात्रा प्रमुख रही है। इसका प्रधान कारण उस समय समग्र देश की ऐतिहासिक परिस्थिति का एक-सा होना है। समस्त भारतीय भापाओं को तत्कालीन धर्मप्रधान साहित्य के पीछे भी यही कारण है । डॉ० शशिभूपण दास गुप्त लिखते हैं
" सभी अद्यतन भारतीय मापाओं के साहित्य की ऐतिहासिक प्रगति की एकात्मता वास्तव में आश्चर्य चकित कर देने वाली है। इस ऐतिहासिक एकता का कारण यही है कि सभी भापाओं के साहित्य का इतिहास प्राचीन
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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और मध्ययुग में जो निर्मित हुआ उस समय भारत के विभिन्न प्रदेशों की ऐतिहासिक दशा प्रायः एक-सी थी ।" १
क्योंकि औरंगजेब के तथा उसके निर्वल उत्तराधिकारियों के अत्याचारों से विवश सजग हिन्दू धर्मात्माओं ने उनके विरुद्ध विद्रोह द्वारा धर्मयुद्ध का आह्वान करके सारे देश में एक नई धार्मिक क्रांति को जन्म दे दिया था । एक ओर जहाँ मुगल हिन्दू जाति और धर्म का आमूल उच्छेदन करना चाहते थे वहां दूसरी ओर हिन्दू धार्मिकता दुगने - चौगुने जोग को लेकर उमड़ पड़ी थी । इस हिन्दू धार्मिकता के साथ उनका विभिन्न साहित्य भी पनपता रहा। यह धार्मिक साहित्य-सृजन का क्रम छोटे या बड़े रूप : १८वीं शती के अन्तिम चरण तक चलता रहा ।
'सामाजिक पृष्ठभूमि
सम्बन्धित दो शताब्दियों का इतिहास युद्धों और विप्लवों का इतिहास है अतः सामाजिक परिस्थिति भी संतोष कारक नहीं हो सकती । इस राजनैतिक उनहापोह और सामाजिक अव्यवस्था के परिणाम स्वरूप समाज का जीवन स्तर नीचे गिरता गया । ऐश्वर्य और वैभव में विलासिता की प्रधानता स्वतः आ जाती है । अकवर ने तो विलास की इद्दाम लहरों में अपने को संयत रक्जा पर जहाँगीर और शाहजहाँ के व्यक्तित्व में विलास - प्रियता असंतुलित रूप में प्रकट हुई जिसका प्रभाव तयुगीन सामंतों और समाज के अन्य वर्ग पर भी पड़ा। फिर तो " यथा राजा तथा प्रजा 17 के अनुसार साधारण जनता में भी विलास अपनी चरम सीमा पर पहुंच
गया ।
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मुगल कालीन इतिहास के अव्यन के से यह ज्ञात होता है कि मुगल कालीन समाज अनेक वर्गों में विभक्त था । परस्पर उनमें अत्यन्त असमानता थी पेशे और आर्थिक दशा के अनुसार समाज मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त था वस्तुत: इन तीन वर्गों के जीवन में जमीन आसमान का अन्तर था। जहां एक और उच्च वर्ग के लोग दिन-रात मदिरा में डूबे रहते थे वहाँ दूसरी ओर निम्न वर्ग के लोगों को जीवकोपार्जन के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था । साधारण जनता और अधिकारी वर्ग के जीवन स्तर में कुछ कुत्ते और मालिक जैसा अन्तर था। पौष्टिक भोजन, सुन्दर वत्र, निर्वाह योग्य मकान तथा साक्षरता तो निर्धन वर्ग के भाग्य में ही नही । मुगल युग की इन सामाजिक स्थिति के संबंध में पाश्चात्य विद्वान फ्रान्सिस पोल्सक्र ेट अपने ७ वर्षों के अनुभव को अभिव्यक्ति देते हुए लिखता है—
1 Odsbcure Religious Acts, p. 331.
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आलोच्य कविता का मामूहिक पन्वेिग
" जनता के तीन वर्ग जो वास्तव में नाम मात्र से स्वतन्त्र हैं, परन्तु उनकी • जीवन धारा स्वयं स्वीकृत दासता से नहीं के बराबर ही भेद खाती है । कार्यकर्ता, चपरासी, सेवक और व्यापारी, इनका कार्य स्वतन्त्र नहीं था। पारिश्रमिक अत्यल्प था। भोजन और मकान की व्यवस्था दयनीय थी। ये सव सदैव साही काालय के दबाव के गिकार बने रहते थे। यद्यपि व्यापारी कमी कमी धनवान और आहत थे, परन्तु बहुधा अपनी सम्पत्ति गुप्त
रखते थे।" १
उच्च और निम्न वर्ग की अपेक्षा समाज में मध्य वर्ग के लोगों की संख्या अत्य. न्त कम थी। उनका जीवन सादा था। साधारण जनता अशिक्षित थी। ब्राह्मणों में पठन-पाठन की प्राचीन पद्घति पूर्ववत थी। धर्म के प्रति आस्था भी वैसी ही थी। भक्ति की भावना समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमा चुकी थी। संतों और साधुओं का समाज में आदर होता था। देव मन्दिरों में उपासना-कीर्तन होता रहता था । धर्म की विभिन्न धाराओं-सम्प्रदायों में संघर्प प्रवल था। कवि और समाज सुधारक संत उस संघर्ष को सुलझाने में प्रयत्नशील थे।
___ वर्णाश्रम पर जनता की पूर्ण आस्था थी। स्रियों की दशा शोचनीय थी। पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा प्रचलित थी। दहेज प्रथा, छुआछत, बहुविवाह और वालविवाह आदि अनेक कुरीतियाँ उस समय के समाज में वर्तमान थी, जिससे साधारण जनता का जीवन कष्टपूर्ण हो गया था ।
__ आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। सामन्त-सरदार और दरवारी लोग सुखी और समृद्ध थे किन्तु शेप जनता की दशा कष्टपूर्ण थी । २ सामाजिक और धार्मिक रीति रिवाजों तया विश्वासों में रूढिवादिता आ गई थी। धार्मिक पुरुषों की भक्ति, उनकी मृत्यु के पश्चात उनके स्मारकों की भी पूजा, अन्धविश्वास और अन्धानुकरण आदि का खूब प्रचलन था । सभी वर्ग-सम्राट से सामान्य जनता तक के अपने पुरुषत्व की अपेक्षा भाग्य ( दैवी शक्ति ) पर अधिक विश्वास करते थे। यह युग धार्मिक अतिविश्वास का युग था। धार्मिक ऐक्य और समन्वय साधने के प्रयत्न भी खूब हुए। नाथ पन्थियों, शैवी कनफटे तथा लिंगायत साधुओं, सूफियों' तान्त्रिकों आदि का तथा दैवी चमत्कारों का जनता पर अटूट प्रभाव था । जनता धन प्राप्ति के प्रलोभनों में पड़कर तथा विविध धर्मों, विश्वासों और तन्त्रों में पड़कर स्वयं पर से विश्वास खो चुकी थी। अतिभौतिक और अभौतिक चमत्कारों के बीच जनता मेड-सी चल रही थी। 1 जगदीशसिंह गहलौत, राजपूताने का इतिहास 2 HiStory of India dy Francis Pelscret
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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शिक्षा की कमी और असभ्य समाज के कारण देश का सामाजिक जीवन पतन की ओर जा रहा था। असंयम और मद्यपान ने उन्हें अवनति के गर्त में फेंक दिया था। देश में स्थित प्रत्येक वर्ग के लोग घोर-अन्धकार में पड़े हुए थे। निर्धन और धनवान प्रत्येक के जीवन का प्रत्येक कार्य ज्योतिष के अनुसार ही होता था। १
साधारण जनता में नृत्य और संगीत के प्रति रुचि थी। राजघरानों में नृत्य और संगीत कला अपने चरम रूप में विलास-लीला में योग दे रही थी।
निष्कर्पतः तत्कालीन समाज व्यवस्था की उन्नति के लिए साम्राज्य की ओर से कभी कोई प्रयत्न नहीं हुए। समाज की स्थिति अन्वविश्वास, बहुधर्मिता, निरक्षरता, अरक्षा और अज्ञान से विशखल, दयनीय एवं अशांत थी । काजियों के अमानवीय अत्याचारों में भी समाज त्रस्त बना हुआ था।
साहित्यक पृष्ठभूमि
मुगलों के शासन काल में साहित्य एवं कला की वहत ही उन्नति हई। कुछ सम्राटों की उदासीनता के अतिरिक्त प्रायः सभी सम्राट साहित्य एवं कला के प्रेमी थे। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ ने सभी धर्मों की स्वतंत्र रचनाओं को खुले वातावरण में पल्लवित होने का सुअवसर दिया । हिन्दी, फारसी, तथा उर्दू साहित्य की पर्याप्त अभिवृद्धि के साथ कला के प्रत्येक अंग ने भी जीवन पाया । इस काल की कविता में भक्ति, वीरता और शृगांर रस आदि का प्रचार विशेषत: मिलता है। अकवर का अन्यान्य धर्मों के विद्वानों के प्रति उदार भाव तथा दार्शनिक-सांस्कृतिक कार्यों में प्रगाढ स्नेह पाकर देश-विदेश के विविध मार्गों से उसके दरबार में अनेक विद्वान आये। अब्दुर्ररहीम खानखाना फारसी के साथ हिन्दी के विद्वान कवि, टोडरमलजी हिन्दू धर्मशास्रों के अच्छे ज्ञाता व लेखक, पृथ्वीराज राठौर, सुयोग्य गायक तथा कवि तानसेन, कवीन्द्राचार्य, सुन्दरदास, पुहकर चिंतामणि, बनवारी, हरिनाथ आदि अकवरी दरवार के कवि थे।
इस समय में श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन साधुओं ने भी संस्कृत, प्राकृत और स्वभाषा-लोकभाषा में पर्याप्त साहित्य सर्जन किया । तप-गच्छीय प्रभावक महापुरुष हीरविजयसूरि तथा उनके शिष्य उपाध्याय शांतिचंद्र, स्वरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि आदि १डॉ. विश्वेश्वर प्रसाद, भारतवर्प का इतिहास
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आलोच्य कविता का मामूहिक पग्वेिग
ने अफवर वादगाह को जैन धर्म का स्वरूप समझाया तथा उसकी मदमावना प्राप्त कर अनेक जैन तीर्य संबंधी फरमान, जीव वध बंध करने के आदेग तथा पुस्तक आदि पर पुरस्कार प्राप्त किये। जहांगीर ने तपगच्छीय विजयमेनमूरि और खन्तरगच्छीय जिनसिंहसूरि को धार्मिक उपाधियां दी। गाहजहां ने भी इन मूरियां के प्रति अपनी सद्भावना बताई। इस सामान्य गान्ति के काल में अन्याय धर्मों में जागृति आई और विपुल साहित्यसर्जना हुई ।
फारसी उन्नति के माथ हिन्दी साहित्य की भी पर्याप्त उन्नति हुई। रहीम, राजा भगवानदास, वीरबल, तुलसी, केशव, विहारी, मतिराम, देव, सेनापति, शिरोमणि मिश्र, वनारसीदास, भूषण आदि इस युग के अच्छे कवियों की अमूल्य भेटों से हिन्दी माहित्य को ऐसा तो स्वर्णिम बना दिया कि उसकी आमा कमी भी कम नहीं हो सकती।
औरंगजेब के शासनकाल में हिन्दी की अवनति हुई, क्योंकि औरंगजेव ने इसे तनिक भी संरक्षण नहीं दिया । किन्तु हिन्दू-राजदरवारों मे तथा अन्यान्य धार्मिक मम्प्रदायों में कवि और उनका साहित्य फूलते-फलते रहे।
इस युग के जैन साहित्य का आधार अपनश का जैन-काल है । अपनग में जैन कवियों द्वारा लिखे गए महापुराण, पौराणिक-चरित-काव्य, रूपक काव्य, कथात्मक ग्रंथ, संधिकाव्य, रासनथ आदि पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है। उनके अधिकांग ग्रंथ तीर्यकर या जैन महापुरुपों के चरित्र वर्णन करने में किसी व्रत का महात्म्य बतलाने मे या मत का प्रतिपादन करने में जित हुए। उनकी अभिलापा वास्तव में यह थी कि जैन धर्म के नैतिक और सदाचार सम्बन्धी उपदेश जनसाधारण तक अधिक से अधिक पहुंचे । १ यही कारण है कि इन रचनाओं में धार्मिक आग्रह विनेप है। इन रचनाओं में संसारिक राग के ऊपर विराग को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया गया है। २
यद्यपि भारतीय इतिहास का मध्यकाल अगांत और निराना का रहा, फिर भी साहित्यक एवं धार्मिक दृष्टि से यह युग अत्यंत समृद्ध कहा जा सकता है। इस युग की एवं संवर्षपूर्ण परिस्थिति के मध्य मे जैन, शैव, शाक्त, वैष्णवों एवं नायों-संतों की रचनाएं जन-मानस को अनुप्रमाणित करने में सम्पूर्ण साहित्य अपभ्रंश और आदिकाल की परम्पराओं को लेकर चला है, परन्तु सामयिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक १ डॉ० मरनामसिंह, “अरुण", राजस्थानी साहित्य-प्रगति और परम्परा, पृ० १२ २ डॉ० आनंद प्रकाश दीक्षित, बेलिक्रिमन रुकमिणी, भूमिका, पृ० २७
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एवं साहित्यक परिस्थितियों वा उसमें भाव, भाषा, शैली, काव्यरूप आदि की दृष्टि से परिष्कार व परिवर्धन अवश्य हुआ है।
निष्कर्षतः सम्पूर्ण भक्तियुग का साहित्य जिसका मुगलकाल की राजनीति और समाज व्यवस्था से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है, इन्हीं सब परिस्थितियों के कारण अधिक धार्मिक दृढता के साथ लिखा गया इस युग में यदि इस प्रकार का, भक्ति एवं धर्म प्रधान साहित्य सजित न होता तो संमभवतः अधिकांश भारत का यवनीकरण हो जाता। साहित्य की विशाल धरा पर धर्म सरल एवं सरस होकर जीवन के साय एक हो जाता है। भक्तिकालीन साहित्य और परिस्थितियाँ इस बात का उज्जवल प्रमाण हैं ।
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परिचय खण्ड २ प्रकरण २ १७वीं शती के जैन गूर्जर कवि और उनकी कृतियों का पचरिय नयनसुन्दर, शुभचन्द्र भट्टारक, ब्रह्मजयसागर, रत्मकीर्ति भट्टारक, सुमति सागर, चन्द्रकीति, विनयसमुद्र, आनन्दवर्धनसूरि, मालदेव, ब्रह्मरायमल, कनकसोम, कुशललाम, साघुकीति, वीरचन्द्र, जयवन्तसूरि, मट्ठारक सकलभूषण, उदयराज, कल्याणसागरसूरि, अभयचन्द्र, समयसुन्दर, कल्याणदेव, कुमुदचन्द्र, जिनराजसूरि, वादिचन्द्र, मट्ठारक महीचन्द्र, संयमसागर, ब्रह्मअजित, ब्रह्मगणेश, महानन्दगणि, मेघराज, लालविजय, दयाशील, हीरानन्द (हीरो संधवी), दयासागर, हेमविजय, लालचन्द, भद्रसेन, गुणसागर सूरि, श्रीसार, बालचन्द्र, ज्ञानानन्द, हंसराज, ऋषभदास, कनककीर्ति ।
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ওও
प्रकरण : २:
१७वीं शती के जैन गूर्जर कवि और उनकी कृतियों का परिचय
आलोच्य कविता के सामूहिक परिवेश तथा पृष्ठभूमि का अवलोकन कर चुकने के पश्चात् हम इस परिवेश में जन्मे कवियों और उनके द्वारा रची गई कविताओं को कालानुक्रम से देखने का उपक्रम करेंगे।'
सत्रहवीं शती में हिन्दी में कविता करने वाले गुजरात से सम्पृत्तन जैन कवि विपुल संख्या में उपलब्ध होते हैं । इन कवियों में अधिकाशतः अज्ञात है या विस्मृत हो चुके हैं। इनकी रचनाएं भी जैन भण्डारों में दवी पड़ी हैं। हम इनमें से कुछ चुने हुए प्रमुख कवियों तथा उनकी कृतियों का संक्षिप्त साहित्यक परिचय देना प्रसंगप्राप्त समझते हैं क्योंकि इससे कवियों व उनकी कृतियों की भाषा सम्बन्धी स्थिति स्पष्ट होगी। नयन सुन्दरं : (सं०,१५६२-१६१३.)
ये वडतपगच्छीय मानुमेरुगणि के शिष्य थे। १ इन्होंने गुजराती में विपुल साहित्त की रचना की है । अतःसाक्ष्यों के आधार पर इनके विस्तृत जीवनवृत्त का पता नहीं चलता । ये समर्थ कवि और विद्वान उपाध्याय थे।
हिन्दी में इनकी कोई स्वतंत्र कृति नहीं मिलती। इन्होंने गुजराती भाषा में प्रणीत अपनी विभिन्न कृतियों में संस्कृति, प्राकृत, हिन्दी तथा उर्दू के उद्धरण प्रचरमात्रा में दिये हैं। कुछ अंश तो पूरे के पूरे हिन्दी-गुजराती मिश्रित ही हैं। कुछ स्फुट स्तवनादि भी गुजरातीमिश्रित हिन्दी में प्राप्त हैं, जिनमें " शंखेश्वर पार्श्व - स्तवन" १३२ गाथा का तथा शांतिनाथ स्तवन विशेष उल्लेखनीय हैं.। २ । ये . बहुश्रुत और विविध भाषाओं के ज्ञाता थे। ३ जिनविजयजी के पास "नलदमयंती रास" की एक ऐसी प्रति है जिसमें प्राचीन कवियों के काव्यों का सुभापित रूप में संग्रह किया गया है । कवि के समय में हिन्दी मापा भी गुजरात में परिचित एवं मिश्ररूप से व्यवहृत थी इसका यह प्रमाण है । एक उदाहरण दृष्टव्य है
" कुण नैरी कुण वल्लहो, कवण अनेरो आप,
भव अनंत ममता हुआं, नित्य नवां मा वाप।" ४ १ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २५४ २ वही, भाग ३, खंड १, पृ० ७५५ ३ आनंद काव्य महोदधि, मौक्तिक ६, पृ० २१ ४ रूपचंद कुवर रास, पृ० १५७
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परिचय गट
उक्त पंक्तियों में कवि ने हिन्दी गुजराती गो पात्मकता को बड़े ही गुन्दर ढंग में परस्पर संयुक्त कर दिया है । इसी तरह बहाव और गुमाप्ति नी घटेगरन और स्वाभाविक रूप से आये हैं । कवि की मायाभिव्यनि में हिन्दी का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है -
" दुनिया में यारा विगर, जे जीवणा मयि फोक,
कह्या न जावे हर किसे, आपणे दिल का गोक ॥" ? इसी तरह " नलदमयंती रास" और " रूपचंद कुवरदास" के कई प्रसंग बीच दीन में हिन्दी में रचित मिलते हैं। शुभचंद्र भट्टारक : (सं० १५७३-१६१३)
ये पद्मनन्दि की परंपरा में मट्टारक विजयीति के गिप्य थे । उनकी गुरु परंपरा इस प्रकार स्वीकृत है-पद्मनन्दि, सकलकाति, भुवनकीति, बानभूपन, विजयकीति और शुभचंद्र । २
___भट्ठारक शुभचंद्र १६वीं-१७वीं शतातब्दी के महान् सहित्यसेवी, प्रसिद्ध मट्टारक, धर्म प्रचारक एवं शास्त्रों के अध्येता ये। शुभचंद्र के भट्टारक बनने के पूर्व नट्ठारक सकलकीर्ति एवं उनके पट्ट, शिप्य-प्रशिप्य भुवनकोति, ज्ञान भूपण एवं विजयकीति ने अपनी विद्वत्ता, जनसेवा एवं सांस्कृतिक चेतना द्वारा वातावरण इतना सरल और अनुकूल बना दिया था कि इन संतों के लिए जैन समाज में ही नहीं जेनेतर समाज में भी लगाव श्रद्धा पैदा हो गई थी। जन्म, बाल्यकाल, गृहास्य-जीवन, अध्ययन आदि के संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने सं० १५७३ में आचार्य अमृतचन्द्र के " समयसार कलशों" पर " अध्यात्मतरंगिणी" नाम की टीका लिखी और सं० १६१३ में वर्णी क्षेमचन्द्र की प्रार्थना से" स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा" की संस्कृत टीका रची। अतः रचना काल वि० सं० १५७३ से १६१३ सिद्ध है । संभवतः नद्वारक पद पर रहनेका भी यही समय है। श्री वी० पी० जोहारपुर के मतानुसार ये १५७३ में नट्ठारक बने और संवत् १६१३ तक इस पद पर बने रहे । ३ बलात्कार गण की ईडर शाखा के ये महारक थे। अपने ४० वर्ष के मट्ठारक पद का खूब सदुपयोगकर इन्होंने राजस्थान, पंजाब, गुजरात १ आनंद काव्य महोदधि, मौक्तिक ६, " नलदमयंती रास", पृ० २०६ २ पाण्डवपुराण प्रशस्ति, अन्त भाग, श्लोक १६७-१७१, जैन ग्रंथ प्रगस्ति संग्रह, प्रथम भाग, पृ० ४६-५० ३ भट्टारक पट्टालि, पृ० १५८
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
एवं उत्तर प्रदेश में साहित्य एवं संस्कृति का बड़ा उत्साहप्रद वातावरण विनिर्मित
किया ।
इनके अन्य संस्कृत ग्रंथों में " चंदना चरित बागड प्रांत में निबद्ध किया ओर " कीर्तिकेयानुप्रेक्षा टीका " की रचना मी वागड के सागवाडा नगर में हुई । इसी तरह संवत् १६०८ में पाण्डव पुराण को हिसार ( पंजाब ) में सम्पूर्ण किया ।
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"
11
भट्टारक शुभचंद्र अपने समय के गणमान्य विद्वान थे । संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था । उन्हें " त्रिविविविद्याधर " और षट्भापा कवि चक्रवर्ती की पदवियां मिली हुई थीं । १
षट्भाषाओं में संभवतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थान की भाषाएं थीं । कवि न्याय, व्याकरण, सिद्धांत, छन्द, अलंकार आदि विषयों के अप्रतिम विद्वान थे । २ ये ज्ञान के सागर, अनेक विषयों में पारंगत तथा वक्तृत्व कला में निपुण थे । उनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था । संस्कृत में इन्होंने विपुल साहित्य का सर्जन किया है । पाण्डव पुराण की प्रशस्ति में उनके द्वारा लिखे गये १५ ग्रंथों का उल्लेख है | डॉ० कस्तुरचंद कासलीवाल ने इनके ४० ग्रंथों का उल्लेख किया है । ३ इनकी हिन्दी रचनाएं इस प्रकार हैं. • महावीर छन्द, विजयकीर्ति छंद, गुरुछंद, नेमिनाथ छंद, चतुर्विंशति स्तुति, क्षेत्रपालगीत, अष्टाहिनका गीत, तत्वसार दोहा तथा स्फुट पद । इन रचनाओं में अधिकांश तो लघु स्तवन मात्र है, जो श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुर, तथा पटौदी दिगम्बर जैन मन्दिर, जयपुर के संग्रहों में सुरक्षित हैं । इनकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव विशेष है ।
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" इनकी " तत्वसार दोहा " कृति विशेष उल्लेखनीय है । ढोलियान जैन मन्दिर, जयपुर के भण्डार में सुरक्षित है । इसमें ९१ दोहे जिनमें सात तत्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है । भाषा गुजराती मोक्ष का निरूपण करते हुए कवि ने कहा है
७६
23
इसकी एक प्रति
और छन्द है,
प्रभावित है ।
" कर्म कलंक विकारनोरे, निःशेष होय विनाश ।
मोक्ष तत्व श्री जिन कही, जाणवा भावु अल्पास ।। १६ ।। "
विभिन्न रागों में निवद्ध कवि का पद साहित्य भी, भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से उत्तम है । इन पदों में कवि हृदय की भक्ति-भावना अत्यन्त सरल एवं स्वाभाविक
१ पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३६३
२
३८३
३ श्री कस्तुरचन्द कासलीवाल संपादित प्रशस्ति संग्रह, प्रस्तावना, पृ० १२
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
रूप में अभिव्यक्त हुई है । कवि प्रभु के अनन्तसौन्दर्य का वर्णन करता, उसी में अभिभूत हो अपने को उनके चरण कमलों में स्थान देने की महत्य प्रार्थना करता हुआ कहता है-
το
" पेसो सखी चन्द्रप्रभ मुख चंद्र |
सहस किरण सम तन की आभा देखत परमानंद ॥ १ ॥ समवसरण शुभ भूति विभूति सेव करत मत इंद्र | महासेन -कुल-कंज दिवाकर जग गुरु जगदानंद || २ || मन मोहन मूरति प्रभु तेरी, में पायो परम मुनिद । श्री शुभचद्र कहे जिनजी, मोकू राखो चरन राजमती के बहाने कवि का भक्त हृदय परमात्मा के विरह में अमीम व्यथा अनुभव करता है । मिलन की उत्कंठा और व्यग्रता का एक चित्र प्रस्तुत
अरविन्द || ३ ||
१
है
-
" कोन सखी सुध लावे, श्याम की ॥
कोन सखी सुघ लावे ॥ मधुरी ध्वनि मुख चंद्र विराजित ।
राजमति गुण गावे ॥ १ ॥ अंग विभूषण मनिमय मेरे ।
मनोहर माननी पावे ॥
करो कछू तंतमंत मेरी सजनी ।
मोहि प्राननाथ मिलावे || २ || "
17
शुभचंद्र भट्टारक की अधिकांश रचनाएं ऐसी हैं जिनमें हिन्दी - गुजराती और किन्तु उनके स्फुट पद वास्तव में
व्रजभाषा की बड़ी सुन्दर श्रुति
अपभ्रंश का मिलाजुला रूप दृष्टिगत होता है । भाव एवं भाषा की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है । उनमें मधुर एवं संगीतात्मक पदावली समुपलब्ध होती है । ब्रद्म जयसागर : (सं० १५८० - १६५५ )
का संबंध
ये ब्रह्मवारी थे और भट्टारक रत्तकीति के प्रमुख गिप्यों में ते थे । इन(गुजरात ) से विशेष रहीं । इनका सभय संवत् १५८० से १६५५ तक का जाना है । २
१ नाथूराम प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास, दृ० ३९३
२ श्री कस्तुरचंद कासलीवाल संपा० हिन्दी पद संग्रह, पृ० २६८ - ३००
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
इनकी लगभग १२ लघु कृतियों का उल्लेख डॉ० कासलीवाल ने किया है । १ इनकी रचनाएं प्रायः लघु और साधारण कोटि की हैं जिनका उद्देश्य हिन्दी भाषा एवं जैन धर्म का प्रचार प्रतीत होता है । इनकी पंच-कल्याण गीत एवं चुनडी गीत रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रथम में शांतिनाथ के पांच कल्याणकों का वर्णन है तथा दूसरी कृति एक सुन्दर रूपक गीत है। उसमें नेमिनाथ के चरित्र रूपी चुनडी की विशेषता, भव्यता एवं अलौकिकता का कवि ने बड़ा ही काव्यमय वर्णन किया है । इस अध्यात्मिक रूपक-काव्य के अन्त में कवि कहता है
" चित चुनड़ी ए जे धरमें, मनवांछित नेम सुख करसे । संसार सागर ते तरसे, पुन्य रत्ननो भंडार भरसे ।। सुरि रत्न कीरति जसकारी, शुभ धर्म शशि गुण धारी ।
नर-नारि चुनड़ी गावे, ब्रह्मजयसागर कहे भावे ॥ १६ ॥"
इनकी रचनाएं प्रायः अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी एवं गुजराती में हैं । विपय तथा भापा शैली की दृष्टि से ये साधारण कोटि के कवि हैं। रत्नकोति भट्टारक ३ : (सं० १६००-१६५६ )
__इनका जन्म संवत् १५६० के आस पास घोघानगर (गुजरात) में हुआ था। २ ये जैनों की हुंवड़ जाति से उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम सेठ देवीदास और माता का नाम सहजलदे था। कवि के बचपन के नाम का उल्लेख नहीं मिलता । बचपन से ही ये व्युत्पन्नमति, होनहार एवं साहित्याभिरुचि युक्त थे। प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंर्थों का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। एक दिन भट्ठारक अभयनन्दि से इनका साक्षात्कार हुआ। भट्टारक अत्यन्त प्रसन्न हुए। इनकी वाल प्रतिभा, विद्वता एवं वागचातुर्य से प्रभावित होकर उन्होंने रत्नकीति को अपना शिष्य बना लिया।
गुरु ने उन्हें सिद्धांत, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेदिक आदि विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया। व्युत्पन्नमति रलचंद्र ने इन सव विधाओं पर एवं मंत्र विद्या पर मी पूर्ण अधिकार कर लिया। गुरु भट्टारक अभयनंदि अपने युग के ख्याति प्राप्त विद्वान थे । रत्नकीर्ति उन्हीं के पास रहे और अध्ययन करते रहे। कालांतर में अभयनन्दि ने उन्हें अपना पट्टशिप्य घोपित किया और सं० १६४३ में एक विशेष १ डॉ० कस्तुरचन्द कासलीवाल, राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व,
पृ० १५३ २ वलात्कार गण की सूरत शाखा की एक ओर परंपरा म० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य अभयचन्द्र से आरंभ हुई थी। उनके पट्ट शिष्य अभयनंदि थे । इन अभयनंदि के शिष्य रत्नकीर्ति हुए । भट्ठारक सम्प्रदाय, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, पृ० २०० ३ हिन्की पद संग्रह, डॉ. कस्तुरचंद कासलीवील, पृ०
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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
समारोह के साथ भट्टारक पद पर अभिपिक्त कर दिया। उस पद पर ये संवत् १६५६ तक बने रहे । इनका रचनाकाल इससे कुछ पहले से माना जा सकता है ।
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1
रत्नकीर्ति अपने समय के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान थे सौन्दर्य, विद्वत्ता, वैभव एवं चरित्र आदि गुणों में ये अतिमानव थे । उन्हें दूसरा उदयन भी कहा गया है । दीक्षा, संयमश्री, मुक्तिलक्ष्मी आदि अनेक कुमारियों के साथ उनका विवाह हुआ था । ये उनके आध्यात्मिक विवाह थे । उनके सौन्दर्य के गीत उनके अनेक शिष्यों ने गाये हैं । तत्कालीन विद्वान और कवि, गणेश द्वारा म० रत्नकीर्ति की सौन्दर्य-प्रसंसा में कहे शब्द अवलोकनीय हैं
" अरघ शशिसम सोहे शुभ माल रे ।
वदन कमल शुभ नयन विशाल रे ॥ दशन दाडिम सम रसना रसाल रे ।
अधर विस्वाफल विजित प्रवाल रे ॥ कंठ कम्बुसम रेखात्रय राजे रे ।
कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे ॥"
रचनाएं :
रत्नकीर्ति अपने समय के अच्छे कवि थे । अव इनके ४० पद तथा नेमिना फाग, नेमिनाथ वारहमासा, नेमीश्वर हिण्डोलना एवं नेमिश्वर रास आदि रचनाए प्राप्त हो चुकी हैं । १
भट्टारक पद का उत्तर दायित्व बहुत बड़ा होता था । इनके निर्वाह के लिए कठोर हृदय की आवश्यकता होती थी अधिकांश भट्टारक परिस्थितिजन्य, निर्भय, वन जाते थे । रत्नकीर्ति जन्म जात कवि थे । इनका हृदय अत्यन्त सरस, द्रवणशील एवं सरल था। इनका प्रत्येक पद इस बात का प्रमाण है । संत होने के साथ साथ कवि के मन की रसिकता इनमें फूट पड़ी है । यही कारण है कि इनके पदों में नेमिनाथ के विरह से राजुल की व्यथित दशा एवं उसके विभिन्न मनोभावों का मार्मिक चित्रण है । राजुल की तड़फन से बहुत परिचित थे । किसी भी वहाने ये राजुल और नेमिनाथ का संयोग चाहते थे । राजुल के निष्ठुर नैन सदैव प्रतीक्षारत हैं । हृदय का बांध तोड़कर वे वह निकलना चाहते है । उस गिरि की ओर जाने की आकांक्षा बलवती होती जा रही है, जहाँ नेमिश्वर रहते हैं । यहाँ तो उसका मन ही नहीं लगता - रात भी तो समाप्त नहीं होती,
१ हिन्दी पद संग्रह, महावीर ग्रंथमाला, जयपुर, डॉ० कस्तुरचंद कासलीवाल, पृ०
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
" वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि-सुमिरि गुन भये सजल धन, उसंगि चले मति फोर ।। चंचल चपल रहत नहिं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जे ही विधि चन्द्र चकोर ॥ तन मन धन यौवन नहीं भावत, रजनी न जावत मोर ।
रतनकीरति प्रभु वेग मिलो, तुम मेरे मन के मोर ॥" एक अन्य पद में राजुल कहती है - नेमिनाथ ने पशुओं की पुकार तो सुन ली पर मेरी पुकार क्यों नहीं सुनी,
" सखी री नेम न जानी पीर ॥ बहोत दिवाजे आये मेरे धरि,
___ संग लेकर हलधर वीर ॥१॥ नेम मुख निरखी हरपीयन सू,
अव तो हाइ मन धीर ॥ तामें पशूय पुकार सुनि करि,
गयो गिरिवर के तीर ॥ २॥ विभिन्न रागों में निवद्ध कवि का यह पद साहित्य भापा-भाव एवं शैली की दृष्टि में उत्कृष्ट वन पड़ा है।
कवि की अन्य रचनाओं में " नेमिनाथ फागु" तथा " नेमिनाथ वारहमासा " विशेष उल्लेखनीय है । १ इनमें कथाभेद नहीं है, वर्णनभेद है । सुमति सागर : ( संवत् १६००-१६६ )
ये भ० अभयचंद्र के पश्चात् भट्ठारक पद पर आने वाले भ० अभयनन्दि के शिष्य थे। गुजरात और राजस्थान दोनों में इन भट्टारकों का निकट का संबंध रहा है। सुमितसागर ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु अभयनन्दि और उनकी मृत्यु के पश्चात् भ० रत्नकीति के संघ में रहने लगे थे । इन्होंने अभयवन्दि और रत्नकीर्ति की प्रसंसा में अनेक गीत लिखे है । इन्होंने इन दोनों का समय देखा था और इसी अनुमान पर डॉ० कस्तूरचंद कासलीवालजी ने इनका समय संवत् १६०० से १६६५ तक का माना है । २ १ इनकी हरतलिखित प्रतियां, श्री यशःकीति, सरस्वती भवन, ऋपिभदेव २ राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल पृ० १६२
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परिचय खंड
इनकी १० लघु रचनाएं प्राप्त हैं । १ ये सभी रचनाएं मापा एवं काव्यत्व की दृष्टि से साधाणतः अच्छी रचनाएं हैं । " नेमिवंदना " से एक उदाहरण दृष्टव्य है -२
" ऊजल पूनिम चंद्रसम, जस राजीमती जगि होई ।
ऊजलु सोहइ अवला, रूप रामा जोइ । ऊजल मुखवर भामिनी, खाय मुख तंबोल ।
ऊजल केवल न्यान जानू, जीव भव कलोल ।" चन्द्रकीति : ( सं० १६००-१६६० )
गुजरात के वलसाड, वारडोली तथा राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती वागड की भट्ठारक गादियों से विशेष संबंधित भ० रत्नकीर्ति के प्रिय शिष्यों में से चन्द्रकीर्ति एक थे। ये प्रतिभा सम्पन्न तथा अपने गुरु के योग्य शिप्य थे। गुजरात और राजस्थान इनके विहार के क्षेत्र थे । इनके साहित्य निर्माण के केन्द्र विशेषतः वारडोली, भडौच, डूंगरपुर, सागवाड़ा, आदि नगर रहे हैं । इनके जन्म आदि के विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती।
कवि की एक रचना जयकुमार आख्यान में उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा का वर्णन करते हुए अपने गुरु के रूप में रत्नकीर्ति को स्मरण किया है। ३ इस कृति की रचना वारडोली नगर में संवत् १६५५ में हुई। ४ रत्नकीर्ति अपने भट्ठारक पद पर संवत् १६६० तक अवस्थित रहे। उनके पश्चात उनके शिप्य कुमुदचंद्र भट्टारक पद पर आते हैं । चन्द्रकीति ने कुमुदचंद्र का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है । इस आधार पर इनकी अवस्थिति संवत्१६६० तक मानी जा सकती है । डॉ० कासलीवाल जी ने भी इनका समय संवत् १६०० से १६६० तक माना है। ५ १ वही, पृ० १६१ २ इसकी एक प्रति महावीर भवन, जयपुर के रजिस्टर संख्या ७ पत्र सं० ७५ पर लिखी हुई है । कवि की अन्य कृतियां भी रजिष्टर संख्या ८ और ६ में निवद्ध हैं। ३ तेह तणे पाटे सीहावयो रे, श्री रत्नकीरति सुगुण भंडार रे । तास शीप सुरी गुणें मंड्यो रे, चंद्रकीर्ति कहे सार रे । ४ संवत सोल पंचावनें रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे ॥ वारडोली नगरे रचना रची रे, चन्द्रप्रभ सुभ आवास रे ॥ ५ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासवाल, पृ० १६०
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जन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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चन्द्रकीर्ति की प्राप्त रचनाओं में " सोलहकरण रास " और जयकुमार आल्यान विशेष उल्लेखनीय हैं । इनके रचित कुछ हिन्दी पद भी उपलब्ध हैं। सोलहकरण रास :
विभिन्न छन्दों और रागों में रचित कवि की लघु कृति है। इसमें रचना संवत् का उल्लेख नहीं है। इसकी रचना भडौच नगर के शांतिनाथ मन्दिर में हुई थी। १ कवि की इस रास कृति में पोडशकारण व्रत की महिमा गाई है । अन्त में कवि ने अपनी गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है । जयकुमार आख्यान :
__चार सर्गों का वीर-रस प्रधान एक आख्यान काव्य है। प्रथम तीर्थकर " ऋषिभदेव" के पुत्र सम्राट भरत के सेनापति " जयकुमार" का चरित्र, इसकी कथा का मुख्य आधार है। इसकी रचना बारडोली नगर में संवत १६५५, चैत्रसुदी दसमी के दिन हुई थी।
इसके प्रथम सर्ग में कवि ने जयकुमार और सुलोचना के विवाह का वर्णन किया है । दूसरे और तीसरे में दो भवों का ( पूर्व के ) वर्णन और चौथे में जयकुमार के निर्वाण प्राप्त करने की कथा वर्णित है । मूलतः वीर-रस प्रधान काव्य है फिर भी शृंगार एवं गांतरस का सुन्दर नियोजन हुआ है।
सुलोचना के सौन्दर्य के वर्णन का एक प्रसंग द्रष्टव्य है ---- " कमल पत्र विशाल नेत्रा, नाशिका सुक चंच ।
अष्टमी चन्द्रज भाल सोहे, वेणी नाग प्रपंच ।। सुन्दरी देखी तेह राजा, चिन्त में मन मांहि ।
ए सुन्दरी सूर सुदरी, किन्नरी किम कहे वाम ॥" युद्ध का वर्णन तो अत्यन्त मनोरम एवं स्वाभाविक वन पड़ा है। जयकुमार और अर्ककीर्ति के बीच युद्ध का एक प्रसंग अवलोकनीय है
" हस्ती हस्ती संघाते आथंडे,
रथो रथ सूभट सहू इम भडे । हय हयारव जव छजयो,
__ नीसांण नादें जग गज्जयो ॥" भाषा राजस्थानी डिंगल है । भाषा एवं भाव की दृष्टि से कृति महत्वपूर्ण है। १ श्री मरुचय नगरे सोमणु श्री शांतिनाथ जिनराय रे । - -
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परिचय खंड
कवि की अन्य लघु कृतियां भी साधारणतः ठीक है। कवि के प्राप्त हिन्दी पदों में से एक अंश अवलोकनीय है -
" जागता जिनवर जे दिन निरख्यो,
धन्य ते दिवस चिन्तामणि सरिखो । सुप्रभाति मुख कमल जु दीठ,
वचन अमृत थकी अधिक जु मीठठु ॥१॥ सफल जनम हवो जिनवर दीठा,
करण सफल सुण्या तुम्ह गुण मीठा ।।२।। - धन्य ते जे जिनवर पद पूजे,
श्री जिन तुम्ह विन देव न दूजो ॥३॥ स्वर्ग मुगति जिन दरसनि पांमे,
"चन्द्रकीरति” सरि सीसज नामे ॥४॥" भाव, मापा एवं शैली की दृष्टि से कवि की सभी कृतियां साधारणतः अच्छी हैं । वि नय समुद्र : ( सं०१६०२-१६०४ आस पास )
ये उपकेशगच्छ में हुए सिद्धसूरि के शिष्य हर्पसमुद्र के शिप्य थे। १ इनके द्वारा रचित ७ कृतियों का उल्लेख मिलता है । २ कवि की समस्त रचनाएं गुजराती मिश्रित हिन्दी में है। अत्यधिक गुजराती प्रभावित भाषा से कवि का गुजरात-निवासी होने या गुजरात मे दीर्घकाल तक रहने का अनुमान किया जा सकता है।
इनकी “ मृगावती चौपाई " विशेष उल्लेखनीय है। इसकी रचना बीकानेर में सं० १६०२ में हुई थी। शील विषय पर रचित यह कवि का एक सुन्दर काव्य ग्रंथ
"चित्रसेन पद्मावती रास" में नवकार मंत्र की महिमा है। इसकी रचना सं० १६०४ में हुई थी।
" पद्मचरित्र" में राम और सीता का चरित्र प्रधान है। उनके शील एवं चरित्र की महिमा का अच्छा वर्णन हुआ है ।
__ कवि की भाषा पर गुजराती तथा राजस्थानी का विशेष प्रभाव है । भाषा शैली की दृष्टि से ये साधारण कोटि के कवि हैं। इसकी रचना सं० १६०४ में हुई थी। १ विक्रम प्रबंध रास, राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची, भाग ३, पृ०२६६ २ जैन-गूर्जर कवि नो भाग-३, खंड १, पृ० ६१५-१६ तथा भाग १, पृ० १६८-७०
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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आणदवर्धन सूरि : (सं० १६०८ आसपास )
ये खरतरगच्छ के धर्मवर्धनसूरि के शिष्य थे । १ इनके समकालीन खरतरगच्छ में ही एक अन्य महिमा सागर के शिष्य आणंदवर्धन भी हो गये
इनकी रची हुई एक कृति 'पवनाभ्यास चौपाई' उपलब्ध है । २ भापा गुजराती मिश्रित हिन्दी है : गुजराती बहुला हिन्दी प्रयोग को देखते हुए इनका गुजरात में दीर्घकाल तक रहना सिद्ध है । इनकी अन्य किसी हिन्दी-गुजराती कृति की जानकारी नहीं मिलती । विशेप परिचय भी अनुपलब्ध है। पवनाभ्यास चौपई :
___ इसमें कुल १२७ पद्य है । कवि ने इसे 'ब्रह्मजान चौपाई' भी कहा है ' अखाजी जैमी ज्ञानश्रयी कविता की यह सुन्दर कृति है। इसकी रचना संवत् १६०८ में हुई थी। ३ उदाहरणार्य प्रारंभ की कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
, ". परम तेज पणमु एक चित्त, जे माहि दीसइ बहुलु चित्त,
___जन हुइ पोतइ पूरव दत्त, तउ पामीजइ एहजि तत्त ।" भापा, शैली की दृष्टि से ये साधारण कोटि के कवि हैं। मालदेव : ( सं १६१२ आसपास )
ये वृद्ध तृपागज के आचार्य भावदेवसूरि के शिष्य थे। ४ इनका अधिकांश निवास बीकानेर का भटनेर स्थान रहा है अत: इनकी रचजाओं में मारवाड़ी का विगेप असर है । खंभात के श्रावक कवि ऋषिभदास ने अपने " कुमारपाल रास" के प्रारंभ में जिन जैन-गूर्जर कवियों का स्मरण किया है उनमें मालदेव का भी उल्लेख है । ५ इनकी एक रचना " भोजप्रवंध" के संबंध में नाथूराम प्रेमीजी लिखते हैं ६ १ जैन गूर्जर कविओ, भाग ४, खण्ड १, पृ० १००० २ वही, ३ संवत सोल अठोतर वरसि, आसो मासि रचिउं तन हरसि । वही, पद्य सं० १२४ ४ प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांड़ेसर, पृ० ३२ ५ " हंसराज", "वांछो", "देपाल", "माल", "हेमनी बुद्धि विशाल, "सुसाधु", "हंस" समरो (यो ६) "सुरचंद" शीतल वचन जिम शारद चंद ॥ ५४ ॥ कुमरपाल रासऋषभदास । ६ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ० ४५
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
भाषा प्रीढ़ है ; परन्तु उसमें गुजराती की झलक है और अपनश गब्दों की अधिकता है। कारण, कवि गुजरात और राजपूताने की बोलियों से अधिक परिचित था।" इगने भी कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध स्थापित होता है।
मालदेव बड़े अच्छे कवि हो गये हैं। इनके प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंथ भी मिलते हैं । गुजराती-राजस्थानी मिश्रित हिन्दी की रचनाएं स्तर एवं संख्या की दृष्टि से भी विशेष महत्वपूर्ण हैं । इनकी ११ रचनाओं का पता चला है । १
इनके अनन्तर श्री नाहटाजी ने इनकी अन्य कुछ रचनालों के साथ गीत, स्तवन, सज्झाय आदि का भी उल्लेख किया है। २ 'महावीर पारणा', 'महावीर लोरी, तथा 'पुरन्दर चौपाई' का प्रकाशन भी श्री नाहटा जी द्वारा हुआ है। कवि की अधिकांग रचनाओं में रचना-संवत तथा रचना स्थान का उल्लेख नहीं है। इनकी ' वीरांगदा चौपाई' में रचना काल संवत १६१२ दिया गा है अतः इसी आधार पर उनका उपस्थित काल संवत १६१२ के आस पास माना जा सकता है ।
__ कवि की अधिकांश रचनाएं लोक कथा पर आधारित हैं इनकी रचनाओं में प्रयुक्त सुभापितों की लोकप्रियता तो इतनी रही कि परवर्ती कवियों ने भी इनके सुभापितों को उद्धृत किया है । जयरंग कवि ने अपने संवत १७२१ में रचे कयवन्ना रास में माल कवि के सुमापियों का खुलकर प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ
" दुसह वेदन विरह की, साच कहे कवि माल,
जि जिंणकी जोड़ी विछड़ो, तणिका कवण हवाल ॥३॥" कवि की कुछ प्रमुख रचनाओं के द्वारा हम इनकी भापा का परिचय प्राप्त करने का यत्न करेंगे। पुरन्दरकुमार चौपई
रचना ३७२ पद्यों में रचित है। इसकी रचना संवत १६५२ में हई। ३ मुनि श्री जिनविजयजी ने अपने पास की इसकी प्रति के विषय में लिखा है ४-- " यह 'पुरन्दर कुमार चउपई' ग्रन्थ हिन्दी में है ( गुजराती में नहीं ) इसे मैंने आज ही ठीक ठीक देखा है । रचना अच्छी और ललित है।" अपनी इस कथा की सरसता के लिए कवि स्वयं कहता है - १ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० ८०७-८१६, तथा भाग-१, पृ० ३०४-१० २ परंपरा, राजस्थानी साहित्य का मव्यकाल, ले० अगरचंद नाहटा, पृ१ ७२ ३ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३०६ ४ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ० ४४
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परिचय खंड , ,
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" नरनारी जे नसिक ते, मुणियहु सब चिनुलाइ ।
ढूंठ न कब हि घुमाइयहिं, विना सरस तर नाइ। मरस कथा जइ होई ती, मुणड सविहि मन लाइ ।
जिहां मुबान होवहि कुसुम, मरम मधुप निहां जाइ ॥" कवि की यह रचना प्रासादगुण युक्त है। इसमें उच्च कोटि की कवि प्रतिभा के दर्गत होते हैं।
भोज प्रबंध १
लगभग २००० लोकों से पूर्ण तीन अध्यायों में विभक्त कृति है। कथा का आधार प्रवंच चिन्तार्माण नथा वल्लाल का भोज प्रबन्ध है, फिर भी रचना प्रौढ एवं स्वतंत्र है । भापा कहीं मामान्य और कहीं अपभ्रंन से प्रभावित है--
" बनतें वन छिपतउ फिन्ड, गव्हर वन निकुंज ।
मुखड भोजन मांगिवा, गोवलि मायउ मुंज ।। २४७ ।। गोकुलि काई ग्वारिनी, ऊंची बइठी ग्याटि।
सात पुत्र नातइ बहू, दही विलोबहिं माटि ।। ४८ ॥" . इन पंक्तियों में नजा मुंज के युद्ध में पराजित होकर एक गांव में आने का वर्णन है।
श्री मो० द० देसाई ने इसकी एक अपूर्ण प्रति का भी उल्लेख किया है। २ " विक्रम पंचदण्ड कथा " ( १७१५ गाथाओं की वृहद रचना ) ३, “ देवदत्त चोरई" ( ५६० पद्यों की रचना ) ४, “ वीरांगदा चउपइ" ( ७५ पदों की रचना ) ५, " स्थूलमन फाग" ( १०० पद्यों की कृति ) ६ तया "राजुल नेमिनाथ धमाल" (६४ पद्यों का लघु काव्य ) ७ अनुभूति की दृष्टि से कवि प्रतिमा के परिचायक व भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश व गुजराती मे प्रभावित हैं।
१ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ० ४५ • जैन गूर्जर कविओ, माग ३, खंड १, पृ० ८०६ ३ वही, पृ० ८१२,
४ वही, पृ०८१३ ५ वही, पृ० ८१४ . ६ (अ) वही, पृ० ८१५ (आ) डॉ० नोगीलाल सांडेसरा, संपा०-प्रगीन फाग संपा० प्राचीन फागु संग्रह, पृ०३१ - ७ जैन गूर्जर कविओ, भाग ६, विण्ड १, पृ० ८१६ .
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
ब्रह्मा रायमल्ल : (सं० १६१५-१६३३) ये मूलसंघ शारदा गच्छ के आचार्य रत्नकीति के पट्टधर अनन्तीति के शिष्य थे। १ रत्नकीर्ति का सम्बन्ध राजस्थान और गुजरात की अनेक मट्ठारक गढ़ियों से रहा है। इन्हीं की परम्परा में हुए ब्रह्मरायमल्ल का जन्म हूबड़ जाजि में हुआ था। इनवैपिताका नाम महीय एवं माता का नाम चंपा था । २ समुद तट पर स्थित ग्रीवापुर में " भक्तामर स्तोत्रवति" के रचने का उल्लेख डा० कासलीवाल ने किया है। इनकी अधिकांग रचनाएं राजस्थान के विभिन्न स्थानों में रची गई है इसी आधार पर श्री नाहटा जी ने इन्हें राजस्थान का निवासी बताया है । ४ कवि के जन्म और जीवनवृत्त के संबंध में जानकारी उपलब्ध नहीं परन्तु रचनाओं में गुजराती का पुट देवते हुए यह संभावना प्रतीत जोती है कि गुजरात में स्थित किसी भट्टारक गद्दी से इनका सम्बन्ध अवश्य रहा होगा ।
सोलहवी शताब्दी के अन्तिम चरण में पाण्डे रायमल्ल भी हो गये हैं। ये संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के प्रकाण्ड विद्वान थे। कविदर बनारसी दास ने उन्हीं रायमल्ल का उल्लेख किया है। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन इन्हीं रायमल्ल के लिए लिखा है कि ये जैनागम के बड़े भारी वेता तथा एक अनुभवी विद्वान थे। ५ विवक्षित ब्रह्म रायमल्ल इनसे पृथक हैं । ६
ब्रह्म रायमल्ल जन्म से कवि थे उनमें हृदय पक्ष प्रधान था। इन्होंने हिन्दी में अनेक काव्यों की रचना की। इनकी भापा सरस और प्रसाद गुण से युक्त है। इन्होंने जैन नैयायिकों और सैद्धांतिकों का भी गहन अध्ययन किया था इनके सरल काव्यों में जैन धर्म के तत्त्व तथा मानव की सूक्ष्म वृत्तियों का गहन परिचय है यही कारण है कि इनका काव्य रसपूर्ण हो उठा है। १ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, दिलपी, पृ० १०० २ प्रशस्ति संग्रह' दि० जैन अतिशय क्षेत्र थी महावीरजी, जयपुर, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, पृ० ११ ३ वही ४ हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, संपादक प्रधान डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, पृ० ४७६ १ हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, कामताप्रसाद जैन, पृ० ७६ ६ पं० नाथूराम प्रेमी ने दोनों को एक ही समझा था। हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ५०
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परिचय खंड
ब्रह्य राय नल्ल के सात हिन्दी काव्य प्राप्त हैं, जिनकी प्रतियां जयपुर के भण्डारों में सुरक्षित हैं । १ इनकी रचनाएं इस प्रकार हैं१ नेमीश्वर रास ( सं० १६१५ ) ५ श्री पाल रास ( सं० १६३०) २ हनुवन्त कथा ( सं० १६१३) ६ भविष्यदत्त कथा ( सं० १६३३ ) ३ सुदर्शन रास (सं० १६२६ )
७ निर्दोष सप्तमी प्रत कथा ४ प्रद्युम्न चरित्र ( सं० १६२८ ) (अप्राप्त ) " नेमीश्वर रास" नेमिनाथ की भक्ति में रचा गया काव्य है। हनुवन्त कथा :
अंजना पुत्र हनुमान और भक्तमती अंजना की चरित्र गाथा है। हनुमान के पिता का अखण्ड विश्वास है कि जिनेन्द्र की पूजा से आत्मा निर्मल होती है और मोक्ष की प्राप्ति होतो है । पूजन की तैयारी का एक प्रसंग अवलोकनीय है
" कूकू चदंन धसिवा धरणी, मांझि कपूर मेलि अती घणी ।
जिणवर चरण पूजा करी, अवर जन्म की थाली भरी ।।" क्षत्रिय पुत्र वालक हनुमान का भी ओजस्वी चित्रण हुआ है" वालक जव रवि उदय कराया, अन्धकार सब जाय पलाय । वालक सिंह होर अति सूरो, दन्तिघात करे चक-चेरो। सवन वृक्षत वन अति विस्तारो, रती अग्नि करे दह छारो॥
जो वालक क्षत्रिय को होय, सूर स्वभाय, न छोड़े कोय ।।" प्रद्युम्न चरित्र की एक प्रति संवत् १८२० की लिखी आमेर शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है इसकी प्रशस्ति में बताया गया है कि इसकी रचना हरसोर गढ में संवत १६२८ को हुई थी।
मुदर्शन रास की रचना सं० १६२६, वैसाख शुक्ल सप्तमी को हुई थी। सम्राट अकबर के राज्यकाल में रचित इस कृति में अकवर के लिए कहा है कि वह इन्द्र के समान राज्य का उपभोग कर रहा था तथा उसके हृदय में भारत के षट् दर्शनों के प्रति अत्यन्त मम्मान था। -
" साहि अकबर राजई, अहो भोगवे राज अति इन्द्र समान । '
और चर्चा उर राखै नहीं अहो छः दरसण को राखै जी मान ॥१॥" १ वीरवाणी वर्ष, २, पृ० २३१
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविना
इन रासकी एक प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में हैं। रचना साधारण कोटि की है। भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है ।
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श्रीपाल रास की ४० पन्नों की एक प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में है । इनमें २९७ पद्य है और सं० १६८६ को लिखी प्रति है । इसमें राजा श्रीपाल की कथा है कथानक बड़ा हो मनोरम और भक्तिपूर्ण भावों से आपूर्ण है । जिनेन्द्र की भक्ति इसका प्रमुख विषय है ।
भविष्य दत्त कथा की रचना सं० १९३३ में कार्तिक मुदी चोदन को शनिवार के दिन हुई थी । १ सं० १६९० की लिखी एक प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । उसमें ६७ पन्ने हैं ।
उपर्युक्त सभी ग्रंथों में उनकी हिन्दी भाषा गुजराती तथा अपभ्रंश से प्रभा वित हुई प्राप्त होती है ।
कनकसोम (सं० १६१५ - १६५५ )
ये खरतरगच्छीय दयाकलन के शिष्य अमर माणिवय के शिष्य साधुकीति के गुरुभ्राता थे २ इनका जन्म ओसवाल नाहटा परिवार में हुआ था । सम्वत् १६३८ में सम्राट अकबरके आमंत्रण पर लाहौर जाने वाले जिनचन्द्रसूरि के साथ आप भी थे । ३ "मंगल कलश भाग" ४ तथा अपाढ़ भूति स्वाध्याय ५ नामक गुजराती रचनाओं के साथ इनकी एक हिन्दी रचना जड़त पदवेलि ६ भी प्राप्त होती है ।
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जइत पदवेलि ” में खरतरगच्छीय साधुकीर्ति द्वारा अकबर के दरबार में तपागच्छयों को शास्त्रार्थ में निरुत्तर करने का वर्णन है ।
܀
१ सोलह से तैतीसा सार, कातिक सुदी चौदस सनिवार | स्वांत नक्षत्र सिद्धि शुम जौग, पीड़ा खन व्योपै रोग ॥ अंतिम प्रशस्ति
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दया अमर माधिक्य " गुरुसीस साधुकीत लही जगीस |
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" कनकसोम इम माखई, चउविह श्री संघ की साखई ॥ ४६ ॥
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३ युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, अगरचंद तथा भंवरलाल नाहटा
४ प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, पृ० ३३, प्रका० पृ० १५०-७१
५ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २४५
६ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची, भाग ३, पृ० ११७
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परिचय खंड
इसमें ४६ छंद है। इसकी एक प्रति बीकानेर भण्डार में सुरक्षित है । वुद्धसागर द्वारा सतीदास संघवी के माध्यम से साधुकीति को ललकारने का वर्णन भापा और अभिव्यक्ति की दृषि से देखने योग्य है -
"तपले चरचा उठाई, धावक ने बात सुणाई ॥ ८ ॥
मो सरिखो पंडित जोई, नहीं मझिन आगरे कोई, तिणि गर्व इसो मन कोधक बुद्धिसागर अपयग लीघउ ॥ ६ ॥ श्रावक आगे इम बोलई, अन्ह गाथा रम कुण खोलइ। श्रावक कहइ गर्व न कीजइ, पूछी पंडित समझी जइ ॥ १०॥ . संघवी सतीदास कु पूछई, तुम्ह गुरु कोइ इहां छइ। संघवी गाजी नई भावई', साधुकीति छै इभ दाखई ॥११॥" साधुकीर्ति तत्व विचार्यों, तत्वारथ मांहि संमायो ।
पौषध छइ प्रकार, वूझयो नहीं सही गमार ॥१३॥" उन उद्धरण से ज्ञात होता है कि कनक सोम की भापा गुजराती से यत्किंचित् प्रभाविम है। - कुगल लाभ : ( सं० १६१६ आसपास )
कुसल लाभ राजस्थान के कवि के रूप में प्रख्यात हैं। इस संदर्भ में इनका उल्लेख इस लिए किया जा रहा है कि गुजरात के जैन इतिहासकारों तथा लेखकों ने इन्हें जैन-गूर्जर कवियों के अन्तर्गत परिगणित किया है। १ इनकी कृतियों का अवलोकन करने से भी स्पष्ट हो जाता है कि गुजरात के वीरभगाम, खंभात आदि स्थानों में दीर्घकाल तक निवास करके इन्होंने पर्याप्त काव्य रचनाएं की हैं। ये खरतरगच्छीय अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे। २ इनके संबंध में विशेष जानकारी का अभाव है। राजस्थान और गुजरात के विभिन्न स्थलों में रचित इनकी अनेक रचनाएं प्राप्त हैं। राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी तीनों भाषाओं में इनकी कृतियां मिलती हैं -इससे स्पष्ट है कवि का गुजरात से घनिष्ट संबंध रहा है । ये जन्मजात कवि थे । इन्होंने भत्ति शृगार और वीर रस में सफल कविताएं की हैं। उनकी शूगार परक रचना "माधयनलकास" कंदला" है, जिसकी रचना श्रावक हरराज की प्रेरणा से फल्गुन सुदी १३ १ जैन-गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २११-१६ तथा भाग ३ खण्ड १ पृ० ६८१-८७ २ "श्री परतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अभय धर्म उवझाय ।" । कुशललाभ कृत तेजसार रास, अन्तिम पद्य, जैन गूर्जर कविओ, भा० १, पृ०२१४
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परिचय मंड
रविार को सं० १६१६ में हुई थी। १ इस कृति में कुल साढ़े पांच सौ चौपाइयाँ हैं । इस में माधवानल और कामकंदला के प्रेम का वडा मनोरम कथानक लिया गया है । प्रेम और शृगार के विषय का वडा ही शिष्ट और मर्यादापूर्ण निर्वाह-इस काव्य की विशेषता है। कवि की यह रचना आज भी राजस्थान और गुजरात में अत्यधिक प्रसिद्ध है।
इनको दूसरी प्रसिद्ध और लोकप्रिय राजस्थानी कृति " ढोलामारू चौपाई" है। जिनकी रचना सं० १६१७ में हुई थी। २ लोक कथाओ सम्बन्धी कवि के ये दोनो ग्रन्य आनन्द काव्य महोदधि में प्रकाशित हैं। " ढोला मारू-रा दोहा" का प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से भी हुआ है और "माधवानल कामकंदला" का प्रकाशन गायकवाड ओरियन्टल सीरीज, वडोदा से।
कुशललाम जैसलमेर के रावल हररान के आश्रित कवि थे। इन्ही रावलजी के कहने से कवि ने इस कृति का निर्माण किया था। कवि ने राजस्थानी के आदिकाव्य " ढोला मारू रा दूहा" में चौपाईयां मिलाकर प्रबंधात्मकता उत्पन्न की है। ३
श्री नाहटाजो ने कुशल लाभ की ११ रचनाओं का उल्लेख किया है ४ इन रचनाओ में "श्री पूज्यवाहण गीतम" ५, " नवकार छंद " तथा "गोडी पाच नाथ छंद" इनकी हिन्दी की रचनाएँ है। कवि की अन्य हिन्दी रचानाओ में स्थूलीभद्र छत्तीसी" रचना भी प्राप्त है ६ श्रपूज्यवाहण के चरणों में समर्पित हो उठा है। काव्य वडा ही सरस, भाव सौन्दर्य भाषा सम्यया से ओत प्रोत है
"रावल मालि सुपाट धरि, कुंवर श्री हरिराज । विरचिएह सिण गारसि; तास केतूहल काज ॥ संवत् सोल सोलोतरह, जैसलमेर मझारि । फागुण सुदि तेरसि दिवसि, विरचि आदित्य वार ।।
गाथा साढी पन्वणइ: ए चउपइ प्रमाण ।" माधवानल चौपई, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, पृ० २४७-२४८ २. संवत् सोलसय सतरोतरई, आपा त्रीजि वार सुरगुरनई।
मारन ढोलानी चौपई, जैन गूर्जर कविओं, भाग १, पृ० २१३ ३ डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यही माना है-हिन्दी साहित्य का आकिाल, विहार
राष्ट्भापा परिषद्, पटना, १९५२, ई०, पृ० ६७ ४ रगंपरा, श्री नाहटाजी का लेख, राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, पृ० ०५ ५ प्रकाशित, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, संपा० श्री अगरचंद नाहटा ६ राजस्थान में हिन्दी के हस्त० ग्रंथों की खोज, ४, पृ० १०५
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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सदा गुरु व्यान स्नान लहरि शीतल वहई रे । कीर्ति सुजस विसाल सकल जग साते क्षेत्र सुदाम सुधर्मंह श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख
" गोडी पार्श्वनाथ स्तवनम् " मी कवि की हिन्दी मुख्य विषय भक्ति है । इसमें २३ पद्य है । २ नवकार छन्द की प्रति अहमदावाद के गुलाव विजयजी के भण्डार में सुरक्षित है । ३ इसमें १७ पद्य हैं तथा पंच परमेष्ठी की वंदना से संबंधित है ।
स्थूलभद्र छत्तीसी :
मह महइ रे । नोपजइ रे ।
संपजड़ रे ।। ६४ ।। "
रचना है । ? प्रस्तुत स्तवन का
इस कृति में कवि ने रचनाकाल नहीं दिया है । इसमें कुल ३७ पद्य हैं । यह कृति बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी के एक गुटके के पृष्ठ ९१-९८ पर अंकित है | आचार्य स्थूलभद्र की भक्ति इस काव्य का मुख्य विषय है । भाषा वडी भी सरल एवं भावानुकूल है । भावों में सजीवता है, स्वाभाविकता है
22
'वैसा वाइड सुणी भयक लज्जित मुणि, सोच करि सुगुरन कइ पास आवई ।
चूक अब मोहि परी चरण तदि सिर धरि, आप अपराध आपई खभावइ ॥३७॥"
साधुकीर्ति : (सं० २६१८ - १६४६ )
ये त्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के कवियों में से एक है । साधुकीर्ति खरतरगच्छीय मति वर्धन - मेरनतिलक- दयाकलश-अमरमाणिक्य के शिष्य थे । ५ ये ओसवाल वंसीय सचिती गोत्र के शाह वस्तुपालजी की पत्नी खेमलदेवी के पुत्र थे । इसी नाम के एक ओर कवि पंद्रहवीं शती में हो गये हैं, जो वद्रतपगच्छ के जिनदत्तमूरि के शिष्य थे । ६ विवक्षित साधुकोति खरतरगच्छ के साधु थे और इनका संबंध जैसलमेर वृहद् ज्ञान १ इसकी एक प्रति, बडौदा के श्री शान्तिविजयजी के भण्डार में सुरक्षित हैं । इसकी दूसरी प्रति, जयपुर के पं० लूणकरजी के मन्दिर में, गुटका नं० ६६ में लिखित है । २ जैन-गुर्जर कविओं, भाग १, पृ० २१६
३ जैन गुर्जर कविओं, भाग १, पृ० २१६
४ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, चतुर्थ भाग, अगरचंद नाहटा
संपादित, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १९५४ ई०, पृ० १०५
५ जैन गूर्जर कविओं, भाग १, पृ० २१६
३ वही, पृ० ३४
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परिय वंड
मंडार के संस्थापक जिनभद्रसरि की परम्परा से रहा है। ये अच्छे विद्धवान थे। संस्कृत के तो प्रकाण्ड पंडित थे जिन्होने मं० १६२५. मिगसर वदी १२ को आगरे में अकबर की सभा में तपागच्छीय बुद्धिनागर से गात्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। "विशेष नाममाला", "संबपट्टक वृति", "मताभर अवचूर्ग" आदि उनकी संस्कृत न्चनाएँ हैं। मं० १६२२ वैसाख शुक्ल १५ को जिनचन्द्र मूरि ने इनकी उपाध्य पढ़ प्रदान किया था। कवि ने स्थान स्थान पर जिनचन्द्रसूरि का स्मरण किया है। मं० १६४६ की माव कृष्णा चतुर्दगी को जालोर में अनान कर ये स्वर्ग यिधारे ।
__ इनके जन्म और जीवनवृत्त के संबंध में जानकारी का अभाव है। पन्तु इनकी कुछ रचनाएं, गुजरात में बाम कर पाठण में रची हुए प्राप्त हैं। इससे स्पष्ट है कत्रि का गुजरात मे पनिष्ट संबंध रहा है। इनकी हिन्दी, राजस्थानी रचनाओं में गुजराती के अत्यधिक प्रभाव को देखते हुए संभव है कवि गुजगत के ही निवामी न्हे हो। श्री मो० ८० देसाई ने इनकी १६ रचनाओ का उल्लेख किया है । १
साधुकीति भक्त कवि थे। विशेषतः स्तुति, स्तोत्र, स्तवन और पदों की रचना की है। कुछ हिन्दी रचनाओं का परिचय यहाँ दिया जाता है। 'सत्तरभेदी पूजा प्रकरण' : कृति की रचना अहिलपुर पाठग में सं० १६१८ श्रावण शुक्ल ५ को हुई थी । २ इसकी दूसरी प्रति जयपुर के ठोलियो के दिगम्बर जैन नन्दिर में गुटका नं० ३३ में निबद्ध है। "चूनड़ी" की एक प्रति सं० १६४८ की लिखित जयपुर के ठोलियों के जैन मन्दिर में गुटका नं० १०२ में संकलित है । “राग माला" की प्रति भी उपर्युक्त मन्दिर के गुटके नं० ३३ में निबद्ध है। "प्रमाती" राग देशाख में रचित यह एक लघु रचना है । "शत्र जय स्तवन"-पत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चरण की रचित कृति है । ४ इनका आदि-अन्त देखिए
"पय प्रणमी ने, जिणवरना शुम भाव लई ।
पुडरगिरि २ गाइमु गुरन सुपसाउन लई॥" १ जन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २१६-२२१ : भाग ३, बण्ड १, पृ० ६६९
७००, खंड-२, पृ० १४८० २ अणहलपुर गांति नब नुव राई, नो प्रभु नवनिधि सिधि वाजे । संवत् सोल जठार श्रावण मुंदि । पंचमि दिवसि समाजड ॥३॥
जैन गुर्जर कविओं, भाग, पृ० २२० ३ जैन-गूर्जर कविकों, भाग १, पृ० २२१ - . ४ वही
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
इम करीय पूजाय धाजो गहि संघ पूजा आदरई, साहम्मिवच्छल करई भवियां, भव समुद्र लीला तरई । संपदा सोह्ग तेह मानव, रिद्धि वृद्धि बहु लहई, अमर माणिक सीरन सुपरइ, साबुकीर्ति सुख लहई ||
11
'नमि राजपि चौपई' - इसकी रचना सं० १६३६ माघ शुक्ल ५ के दिन नागोर में हुई थी । १ इनकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है । सुमति कीर्ति : (सं० १६२० आसपास)
सत्रहवीं शताब्दी में “सुमतिकीर्ति" नाम के दो संत हुए और दोनों ही अपने समय के विद्वान थे । इनमें से एक भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे तथा दूसरे भट्टारक शुभचंद्र के । आलोच्य " सुमतिकीर्ति" प्रथम सुमतिकीर्ति है जो मूलसंघ में स्थित नन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वतीगच्छ के ज्ञानभूषणमूरि के शिष्य थे । २ इन्होंने अपनी" " प्राकृत पंचसंग्रह" टीका संवत् १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमी को ईडर के ऋपदेव मन्दिर में पूर्ण की थी। जिसका संशोधन ज्ञानभूषण ने ही किया था । ३
सुमतिकीति अपने समय के एक विद्वान संत थे और साहित्य-साधना ही इनका लक्ष्य था । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे । इनका अधिकांश समय साहित्य साधना में ही व्यतीत होता था । इनकी निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं -
(१) धर्म परीक्षा रास, विवाद, (४) वसंत विद्या - विलास, देहल्यो मानव भव साधो रे माई । ) धर्म परीक्षा रास :
६७
(२) जिनवर स्वामी वीनती, (३) जिहवादंत (५) पद ( काल भवे तो जीव बहूँ परिममता तथा ( ६ ) गीतलनाथ गीत |
इसकी एक प्रति अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर, उदयपुर में सुरक्षित है । यह एक हिन्दी रचना है जिसका उल्लेख पं० परमानंदजी ने अपने प्रशस्ति संग्रह की भूमिका में किया है । ४ इस ग्रंथ की रचना ह सोट नगर (गुजरात) में संवत् १६२५ में हुई। इसका अन्तिम छंद इस बात का प्रमाण है ।
१ वही भाग ३, पृ० ६६६
२ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, पृ०
३ पं० परमानन्दजी द्वारा सम्पादित, "प्रशस्ति संग्रह ", ४ वही, पृ० ७४
पृ७ ७५
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ह८
परिचय खंड
"पंडित हेमे प्रेरया घणु वगाय गने वीरदास । हासोट नगर पूरो हुवो, धर्म परीक्षा रास ॥" संवत् सोल पंचवीममे, मार्गसिर मृदि वीज वार ।
रास रमडो रलियामणो, पूर्ण किवो के सार ॥" "जिनवर स्वामी वीनती" २३ छंदों में रचित एक स्तवन है । रचना नाधारण कोटी की है । "जिह्वादन्त विवाद" ११ छंदों में रचित एक लबु रचना है। इसमें कवि ने जिह्वा और दांत के बीज के विवाद का मरल मापा में वर्णन किया है। "वसंत विलास गीत" की एक प्रति आमेर शास्त्र भण्डार के एक गुटके में निबद्ध है। २२ छंदों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ राजुल के विवाह-प्रसंग को लेकर सुन्दर एवं सरल अभिव्यक्ति की है । इस गीत में वसंतकालीन नैगिक सुपमा का भी बड़ा विस्तृत वर्णन हुआ है । वसंत विलास गीत साधारणतः अच्छी रचना है।
कवि की अन्य रचनाए लघु हैं । गीत, पद एवं संवाद रूप में ये लघु रचनाएं काव्यत्व से पूर्ण हैं।
ये गुजरात और राजस्थान की अनपढ़ और मिथ्याडम्बरों की विपात्रत प्रवृत्यिों में फंसी जनता में अपनी साहित्य साधना एवं आत्मसाधना द्वारा चेतना जगाने का निरन्तर कार्य करते रहे । अतः इनकी भाषा सर्वत्र गुजराती मिश्रित हिन्दी है । वीरचन्द्र : ( १७ वीं शती प्रथम चरण )
भट्टारकीय बलात्कार गण णाखा के संस्थापक भट्टारक देवेन्द्रकीति ने जब सूरत में भट्ठारक गद्दी की स्थापना की, तब भट्ठारक सकलकीर्ति का राजस्थान एवं गुजरात में विशेष प्रभाव था। इन्हीं म० देवेन्द्रकीर्ति की परंपरा में भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वीरचन्द्र हए, जो अपने गुरु लक्ष्मीचन्द्र की मृत्यु के पश्चात् भट्रारक बने थे। इनका सम्बन्ध नी विशेषतः सूरतगद्दी से था। १ लक्ष्मीचन्द्र सम्बत् १५८२ तक भद्वारक पद पर रहे, अतः इनका समय १७ वीं शती का प्रथम चरण ही होना चाहिए।
वीरचन्द्र व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। साथ ही छन्द, अलंकार एवं संगीत आदि शास्त्रों में भी पूर्ण निपुण थे । ये पूर्ण साधुजीवन यापन करते हुए संयम एवं सावुता का उपदेश देते रहे।
संत वीरचन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं गुजराजी भाषा के अधिकारी विद्वान थे । अब तक की खोजों में इनकी आठ रचनाएं उपलब्ध है जो इन्हें उत्तम कोटि के १ राजस्थाद के जैन संत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल,
पृ० १०६ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
सर्जक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं । यहाँ इनकी प्रमुख रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है ।
वीर विलास फाग :
२२ वें तीर्थकर नेमिनाथ के जीवन का एक प्रसंग लेकर १३७ पदों में रचित कवि का यह एक खण्ड-काव्य है । इसकी एक प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । १ कृति में रचनाकाल का कहीं उल्लेख नहीं है ।
फाग बड़ा ही सरस, सुन्दर एवं काव्यत्व पूर्ण है । राजुल की विरह दशा का वर्णन अत्यंत हृदय द्रावक बन पड़ा है
"कनकमि कंकण मोडती, तोडती मिणिमिहार ।
लू चती केश - कलाप, विलाप करि अनिवार ॥ ७४ ॥ नयणि नीर काजलि गल, टलवलि भामिनी भूर । किस करू कहि रे माहेलडी, विहि नडि गयो मझनाह ॥७१ ||
अब यह कृति "राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व दवं कृतित्व" में प्रकाशित
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है ।.२
जम्बूस्वामी वेल :
इसकी एक जीर्ण प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल दिगम्बर जैनमन्दिर के शस्त्र रचना में जम्बूस्वामी का चरित्र वर्णित गुजराती मिश्रित राजस्थानी है । डिंगल
मंडार से प्राप्त है । ३ कवि की इस दूसरी है | रचना साधारण है । बेलि की मापा का प्रभाव भी स्पष्ट है ।
*
"जिन आंतरा" ४ कवि की यह लघु रचना साधारण कोटि की हैं । "सीमंधर स्वामी गीत" में कवि ने सीमन्वर स्वामी का स्तवन किया हैं । "संवोध तत्ताणु" दोहा छन्द में रचित ५७ पद्य की यह एक उपदेशात्मक कृति है । इसकी प्रति मी उदयपुर के उपर्युक्त संग्रह में संकलित है । इन शिक्षाप्रद दोहों में कवि के सुन्दर भावों का निर्वाह हुआ है
१ राजस्थान के जैन संत पृ० १०७
२ वही, पृ० २६६-२७०
-
व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल,
वही, पृ० १०६
४ राजस्थान के जैन संत-व्यक्ति एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० ११०
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परिचय खंड
"नीचनी संगति परिहरो, धारो उत्तम आचार ।
दुर्लभ भव मानव तणो, जीव तू आलिमहार ।। ४० ॥" "नेमिनाथ रास"-इसमें नेमिनाथ और राजुल का मुप्रसिद्ध कथानक है । इसकी रचना संवत १६७३ में हुई। १ रचना माधारण है। "चित्तनिरोध कथा" पद्यों की यह उपदेशात्मक लघु कृति है। इसमें चित्तनिरोध का उपदेश दिया है। इसकी प्रति भी उदयपुर वाले गुटके में संकलित है। "वाहुबलि वैलि" विभिन्न छन्दों में रचित कवि की एक लघु कृति है । इमकी भी उदयपुर से प्राप्त एक प्रति का उल्लेख डॉ० कासलीवाल जी ने किया है । २
भ० वीरचन्द्र की ये कृतियां उनकी प्रतिभा, विद्वता एवं साहित्यप्रेम की ज्वलंत प्रमाण हैं। जयवंतसूरि : ( १७ वीं शताब्दी प्र म चरण )
थे तपागच्छीय उपाध्याय विनयमण्डन के शिष्य थे । ३ सम्बत् १५८७ वैशाख कृष्गा ६ रविवार को शत्रुजय पर ऋपभनाथ तथा पुण्डरीक के मूर्ति-प्रतिष्ठापन समारोह में आचार्य विनयमण्डन के साथ ये भी उपस्थित थे । ४ इनका दूसरा नाम गुण सौभाग्य भी था । ५ श्री देसाईजी ने इनकी कृतियों का परिचय दिया है । ६ इनकी "नेमिराजुल वार मास वेल प्रवन्ध", "सीमन्धर चन्द्राउला" तथा "स्यूलिभद्र मोहनवेलि" आदि रचनाएं सरल राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में है।
"नेमि राजुल वार मास वेल प्रवन्ध" ७७ छन्दों में परम्परागत पद्धति पर राजमती के विरह-वर्णन पर आधारित बारहमासा है । "सीमन्धर चन्द्राउला" (भक्तिकाव्य ), "स्थूलिभद्र मोहन वेलि" (स्थूलिभद्र-कोश्या पर नावृत स्थानक है १ संवत सोलताहोतरि, श्रावण सुदि गुरुवार । दशमी को दिन रूपडो, रास रच्चो मनोहर ॥ १७ ॥
उदयपुर के अग्रवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार वाली प्रति से। २ राजस्थान के जैन संत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल
पृ० ११२ ३ श्री विनयमण्डन उवझाय अनोपम तपगछ गयणेचन्द्र ।
तसु सीस जयवंत सूरिवर, वाणी सुणंता हुई आणंद ।। ७ ।। ४ मुनि जिन विजय कृत शत्रुन्जय तीर्योद्वारा की प्रस्तावना ५ गुण सोमाग सोहामणि वाणी धउ रंगरेलि ६ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० १६३-६८, तथा भाग ३ खन्ड-१, पृ० ६६६-७२
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
१०१ जिसमें - वासवदत्ता के आदर्श पर प्रेम-निरुपण है । लेखन-मार्गशीर्ष सुदी १० गुरुवार १६४२ ) १ इनकी प्रमुख रननाएं हैं ।
स्थूलिभद्र मोहन वेलि-इसमें स्थूलिभद्र एवं कोश्या का कथानक वणित है। भापादि की दृष्टि से "स्थूलिभद्र मोहन वेलि" से कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत हैं
"मन का दुख सुख कहन कु - इकहि न जु आधार । हृदय तलाव रु दुग्य भयु, तू कुदृइ विन धार ॥५६॥ इकतिइं सब जग वेदना, इक तिइं विशुरन पीर ।
तोह समान न होत सखी, गोपद सागर नीर ॥६५॥"
श्रृङ्गार के वियोग का बड़ा सुन्दर वर्णन हुआ । प्रकृति वर्णन भी मनोरम है । भापा अलंकृत, ललित एवं प्रवाह-युक्त है। भट्टारक सकल भूषण : ( १७ वीं शती प्रथम व द्वितीय चरण )
ये भट्ठारक शुभचंद्र ( संवत् १:४०-१६१३ ) के शिप्य थे । संवत् १६२७ में रचित अपने संस्कृत ग्रंथ "उपदेशरत्नमाला" से यह स्पष्ट है कि ये भ० सुमतिकीर्ति के गुरू भ्राता थे । २ अपने गुरु शुभचन्द्र को अपने "पान्डवपुराण" (संवत् १६०८ रचनाकाल ) तथा “करकन्डु चरित्र" ( रचना सम्वत् १६११) की रचना से इन्होंने सहयोग दिया था । ३
. इनकी हिन्दी रचनाओं का पता डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल जी को सर्वप्रथम आमेर शास्त्र भन्डार, जयपुर से मिला है। उन्होंने इनकी निम्न हिन्दी लवु रचनाओं का उल्लेख किया है । ४
(१) सुदर्शन गीत (सेठ सुदर्शन के चरित्र पर आवृत चरित्रप्रधान कथाकाव्य), (२) नारी गीत ( उपदेशप्रधान लघुकाव्य ) तथा पद।
सकलभूपण की भाषा पर गुजराती का विशेष प्रभाव है । रचनाएं साधारणतः अच्छी हैं। १ मागशिर सुदि दशमी गुरी, सम्वत् सोल विताल ।
जयवन्त घूलिमद गावतइं, दिन दिन मंगल माल ।। २१५ ।। २ तस्याभूच्च गुरुभ्राता नाम्ना सकलभूषण: ।
सूरिजिनमते लीनमनाः संतोष पोपकः ॥ ८ ॥ "उपदेश रत्नमाला" ३ श्री मत्सकलभूषेण पुराणे पाण्डवे कृतं ।
साहायं येन तेना ऽत्र तदाकारिस्वसिद्धये ॥ ५६ ॥ "करकण्डु चरित्र" ४ राजस्थान के जैन संत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल,
पृ० २०७
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परित्रय वंड
उदयराज-उदो : (सं. १६३१ - १६७६ )
ये बरतरगच्छीय भावहर्ष के शिप्य भद्रमार के पुत्र तथा धावक-गिप्य थे । १ इनका जन्म सम्वत् १६३१ से हुआ था । २ "चन्दन मलयागिरि कथा के प्रणेता तथा कवि भद्रसार या भद्रसेन का सम्बन्ध गुजरात से रहा ही है. जिसका उल्लेख हो चुका है। उदयराज का भी सम्बन्ध गुजरात से अवश्य होना चाहिए। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त कुछ गुजराती प्रयोग भी इस बात का प्रमाण है। श्री नाहहाजी ने भी इस बात को स्वीकारा है । ३ इनकी निम्न रचनाएं प्राप्त हैं- ४ .
(१) मगन छत्तीसी मं० १६६७, भांडादई । (२) गुण बावनी सं. १६७६ बबेरइ । (३) वैद्य विरहणी प्रबंध. (४) चौविस जिन मवैये. तथा (५) ५०० दोहे ।
इनके दोहे. कवित्त तया बावनी विगेप प्रमिल है। मगन छत्तीसी :
(रचना सं० १६६७ फाल्गुन वदी १३ शुक्रवार को मांडावई नामक स्थान पर ) ५ कवि का मानना है कि भगवान जिनेन्द्र की भक्ति और प्रीति सांसानिक सम्बन्धों और मानापमानों को दूर करने में पूर्ण समर्थ है ।
"प्रीति आप परजले, प्रीति अवरां पर जाल । प्रीति गोत्र गालवै, प्रीति सुधवंश विरालै ।। आदि ॥"
इसका गावा-प्रवाह और भाव-प्रौढता कवि की उन्नत काव्यशक्ति का परिचातक है। गुण बावनी :
( रचना सं. १६७६ वैशाख मुदी १५ के दिन बवेरड में हुई थी ) ६ ५७ पद्यों के इस काव्य में पावण्ड निराकरण और अध्यात्मसम्बन्धी कवि के विचार अभिव्यक्त हुए हैं। कृति के प्रारम्भ में ही "प्रणव अक्षर" रूप ब्रह्म को कवि ने नमन किया है
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० ९७५ २ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २, पृ० १४२ ३ उनका हस्तलिखित मेरे नाम एक पत्र । ४ परंपरा में "राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल", अगरचन्द नाहटा, पृ० ८६ ५ वदि फागुण शिवरात्रि, श्रवण शुक्रवार ससूरत ।
मांडावाह मंझारि, प्रभु जगमाल पृथी पति ।। मगन छतीमी, पद्य ३७ । ६ गुण दावनी, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५६, नाहटा संग्रह से प्राप्त ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
"उनंकाराय नमो अलख अवतार अपरंपर
गहिन गुहिर गम्भीर प्रणव अख्यर परमेसर ।"
बाह्याडम्बर की व्यर्थता और अन्तःकरण की विशुद्धता पर बल देता हुआ
कवि कहता है
१०३
"fra fra fasi किस्यू, जीत ज्यों नहीं काम क्रों छल, काति कहनायां किस्यूं, जो नहीं मन मांझि निरमल । जटा ववायां किसू, जांभ पाखण्ड न छंडपड, मस्तक मूड्यां किसू, मन जौ माहि न मूंडपउ ।" लुगडे कि मैले की, जो मन माहि मइलो रहइ, घरवार ज्यां सीवर किसू अगवूझां उदो कहइ ।। ५३ ।। "
वैध विरहणी प्रवन्ध :
७८ दोहों की इसकी एक प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में मौजूद है | इसमें भक्ति और श्रृङ्गार का उज्ज्वल समन्वय हुआ है ।
चौविस जिन सवैया :
इसकी एक प्रति का उल्लेख श्री नाहटा जी ने किया है । १ इस कृति में तीर्थकरों की भक्ति में २०० सवैयों की रचना की है ।
उदैराज रा दूहा :
श्री नाहटाजी ने उदयराज के करीव ५०० दोहों का उल्लेख किया है । २ इन्हीं में से अधिकांश दोहों की एक प्रतिलिपि उन्हीं के भण्डार में प्राप्त | उदयराज के नीति-विषयक दोहों विशेषतः राजस्थान में अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं । उदयराज के दोहों की एक प्रति " मनः प्रशंसा दोहा " ३ नाम से जयपुर के बड़े मन्दिर के गुटका नं० १२४ में निवद्ध है । इसमें मन को सम्बोधित कर कवि ने अनेक दोहों की रचना की है ।
कवि को भाषा व्रज व राजस्थानी के संस्पगों से युक्त है । कवि की प्रतिभा उच्च कोटि की नजर आती है ।
१ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४, अगरचन्द नाहटा, उदयपुर, १६५४, पृ० १२२
२ परम्परा - राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, ले० अगलचन्द नाहटा, पृ० ८
३ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० ३५-३६
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परिचय बंड
कल्याण सागर मूरि : ( रं० १६३३ - १७१८ )
ये अंचलगच्छ के ६४ वे पट्टधर आचार्य थे । १ इनका जन्म लोलाडा ग्राम में सं० १६३३ में हुआ था । सं० १६४२ में दीक्षा ली। सं० १६४६ में अहमदाबाद में आचार्यपद प्राप्त हुआ और सम्वत् १६७० में पाटण में गच्छे शपद प्राप्त किया। मम्वत् १७१८ में भुज नगर में इनका स्वर्गवास हुआ। विस्तृत परिचय थी देनाई ने दिया है। २
___ कल्याण सागररि कवि के साथ एक प्रतिष्ठित एवं प्रभावक आचार्य भी थे । इनकी दो कृतियां उपलब्ध है। प्रथम "अगडदतरास" गुजराती कृति है । जैन गुजराती कवियों का अगडदन प्रिय विषय रहा है । दूसरी कृति “वीसी" गुजरातीमिश्रित हिन्दी रचना है।
वीसी : ( वीस विहरमान स्तवन ) इसमें जिनेन्द्र की स्तुति, में रचित २० स्तवन है । भक्ति से पूर्ण इस रचना की एक प्रति सम्वन् १७१७ में भुजनगर में लिखी गई थी। ३ इसमें रचना सम्वत् नहीं दिया गया है। विरहातुर भक्त की पुकार द्रष्टव्य है--
"श्री सीमन्धर सांभलउ, एक . मोरी अरदाम,
मुगुण मोहावां तुम विना, रचणी होई छमामो।" अभयचन्द्र : (सं० १६४० - १७२१)
ये भ० लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा के भ० कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। अभ्यचन्द्र ख्याति प्राप्त भद्वारक थे। इनका जन्म सं० १६४ के लगभग "हवडवंश" में हुआ था। २ इनके पिता का नाम "श्रीपाल" तथा माता का नाम "कोडभदे” था। बड़ी छोटी उम्र में ही इन्होंने पंच महाव्रतों का पालन आरम्भ कर दिया था । ५
___ "अभयचन्द्र" कुमुदचन्द्र के प्रिय शिप्यों में से थे जो उनकी मृत्यु के पश्चात् भट्ठारक गद्दी पर बैठे । भट्ठारक बनने के पश्चात् इन्होंने राजस्थान एवं गुजरात में १ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ४८६ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ७७५ ३ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ६७० ४ राजस्थान के जैन सन्त - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल,
पृ० १४८ ५ हूंबड वंशे श्रीपाल साह तात, जनम्यो रूडी' रतन कोडभदे मात । लवु पगे लीधो महाबत भार, मनवा करी जीत्यो दुद्ध र मार ॥
- धर्मसागर कृत एक गीत ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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खूब विहार किया और जन-सावारण में धार्मिक जाग्रति उत्पन्न की। डॉ० कासलीवाल जी के उल्लेख के अनुसार सम्वत् १६८५ की फाल्गुन सुदी ११ सोमवार के दिन बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुआ और इस पर ये सम्वत् १७२१ तक बने रहे । १
इन्होंने संस्कृत और प्राकृत के साथ न्याय - शास्त्र, अलंकारशास्त्र तथा नाटकों का गहन अध्ययन किया था । २ इनके अनेक शिष्य थे जो इन्हीं के साथ सर्वसामान्य में आध्यात्मिक चेतना जगाया करते थे । इन शिष्यों ने भ० अभयचन्द्र की प्रशंसा में अनेक गीतों की रचना की है । इनके प्रमुख शिष्यों में दामोदर, वर्मसागर, गणेश, देवजी आदि उल्लेखनीय है ।
इस प्रकार इनके विषय में अनेक प्रशंसात्मक गीतों में कवि के व्यक्तित्व, प्रतिभा एवं लोकप्रियता के साथ साहित्य प्रेम की जानकारी मिल जाती है । कवि की रचनाओं में लवुगीत अधिक हैं । अवतक की इनकी १० कृतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं । ३ इनमें प्रमुख कृतियों का परिचय दिया जा रहा है ।
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"वामुपूज्य जी धमाल" कवि की लघु रचना है, जिसमें वासुपूज्य तीर्थकर का मानवरूप में निरूपण है । " चन्दागीत " ४ कालिदास के मेघदूत की शैली पर रचित एक लघु विरह काव्य है । इसमें राजुल चन्द्रमा से अपने विरह का वर्णन करती है और चन्द्रमा के माध्यम से अपना संदेश
नेमिनाथ के पास भेजती है" विनय करी राजुल कहे, चन्दा वीनतडी अव धारो रे । उज्जलगिरि जई वीनवो, चन्दा जिहां छे प्राण आधार रे ॥ १ ॥ गमने गमन ताहरू स्वङ्ग, चन्दा अमीय वरपे अनन्त रे ।
पर उपगारी तू भलो, चन्दा वलि वलि वीनवु संत रे || २ ||"
" सूखडी" - ३७ पद्यों की इस लघु रचना में तीर्थकर गान्तिनाथ के जामोत्सव
पर बनाये गये विविध व्यंजनों, शाकों तथा सूखे मेवों का वर्णन कवि ने किया है ।
१ राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कामलीवाल, पृ० १४८
२ तर्क नाटक आगम अलंकार, अनेक शास्त्र म यां मनोहर ।
भट्टारक पद ए हने छाने, जेहवे यश जग मां वास गाजे ॥
-धर्म सागर कृत एक गीत ।
३ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० १५१
४ प्रकाशित, वही, पृ० २७५
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परिचय खंड
कवि की अत्यन्त लघु कृतियाँ अन्य हैं जो साधारण कोटि की है। अभयचन्द्र की कृतियों का महत्व भाषा के अध्ययन की दृष्टि से अधिक है। कवि की भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। अभयचन्द्र की समस्त रचनाएं काव्यत्व, शैली एवं भापा की दृष्टि से साधारण ही हैं। समयसुन्दर महोपाध्याय : ( सं० १६४६ - १७००)
___ अन्त: साक्ष्य के आधार पर ज्ञात होता है कि कदि समयसुन्दर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के वृहद् खरतरगच्छ में अवतरित हुए थे तथा सकलचन्द्रमणि के शिष्य थे । १ राजस्थानी व गुजराती साहित्य के सब से बड़े गीतकार, व्याकरण, अलंकार, छन्द, ज्योतिप तथा जैन साहित्य आदि के प्रकाण्ड पण्डित कवि समयसुन्दर का जन्म मारवाड के साचौर ( सत्यपुर ) गांव की पोरवाल जाति में हुआ था। पिता का नाम रूपसी और माता का नाम लीलादे था। २ इनका जन्म १६२० सम्वत् में अनुमानित है । ३ वादी हर्पनन्दन द्वारा रचित "समयसुन्दर गीत" में वर्णित" नवयौवन भर संयम सग रह्यो जी" के आधार पर यह अनुमान लगाया गया कि इन्होंने तरुणावस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था। इनको दीक्षित करने के कुछ वर्षों के पश्चात् ही सकलचन्द्र का देहावसान हो जाने के कारण आपका विद्याध्ययन वाचक महिमराज और महोपाध्याय समयराज के सान्निध्य में हुआ। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और असाधारण प्रतिभा के बल पर आप "गण" और तदुपरान्त महोपाध्याय के पद पर पहुंचे थे । इनके ४२ शिष्यों में से इनके अन्तिम समय में किसी ने भी माथ नहीं दिया जिसका इन्हें अन्त तक दुःख वना रहा फिर भी ये भाग्य को दोप दे कर अपने को सान्तवना देते रहे। कवि की कृतियों व रचना-वों को देखते हुए यह कहना उचित ही होगा कि इन्होंने अपना अन्तिम समय अहमदावाद (गुजरात) में ही रह कर विताया और सम्वत् १७०२ चैत्र शुक्ल १३ को अपनी इहलीला समाप्त की । ४
__कवि समयसुन्दर ने साठ वर्ष तक निरन्तर साहित्य-साधना कर भारतीय वांगमय को समृद्ध किया। इनकी सैकड़ों कृतियों को व्यान में रख कर ही शायद १ सम्वत् १६४६ में रचित "अर्थरत्नावली वृत्ति” सहित "अष्टलक्षी" की प्रशस्ति,
पीटरसन की चतुर्थ रिपोर्ट न० ११, पृ० ६४ २ "मातु "लीलादे" , "रूपसी" जनमिया एहवा गुरु अवदातो जी।" देवीदास कृत ___ "समयसुन्दर गीत" ३ सं० अगरचन्द नाहटा, सीताराम चौपाई, भूमिका, पृ० ३४ ४ रांजसोम, महोपाध्याय समयमुन्दरजी गीतम् ।
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जैन गुर्जन कवियों हिन्दी कविता
यह कहा गया था । " समय सुन्दरना गीतडा, भीतां परना चीतरा या कुम्भे राणाना भींतढा” । इनकी लघु कृतियां बीकानेर से प्रकाशित “समयसुन्दर - कृति - कुसुमांजलि" में समाविष्ठ हैं । विभिन्न विद्वानों के द्वारा इनकी अनेक कृतियों कां उल्लेख किया गया है । इनमें से ज्ञात कृतियों के आधार पर यहां कवि की काव्य - साधना पर प्रकाश डालने का यत्न किया गया है ।
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कवि ने देशी भाषाओं में काव्य-रचना करने का आरम्भ " स्थूलिभद्ररास" से किया | इस प्रथम कृति में ही कवि ने अपनी काव्य-कला और प्रतिभा का सुन्दर दर्शन कराया है । कवि का " वस्तुपाल तेजपाल रास" ऐतिहासिह एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । किन्तु कवि की सर्वश्रेष्ठ कृति "सीताराम चौपाई" है जिसमें जैन परम्परानुसार रामकथा है । इस वृहत्काव्य में ३७०० श्लोक है । इसके नायक स्वयं राम हैं और इसका उद्देश्य है रामगुण-गान । छंदों की विविधता, रसों का पूर्ण परिपाक, सम्बन्ध सुत्रात्मकता को देखते हुए इसे प्रबन्ध काव्यों की कोटि में सहज ही समाप्टि किया जा सकता है । इनमें परम्परागत शैली पर शृङ्गार व नखशिखवर्णन तथा वियोग की अनेक अंतर्दशाओं के सुन्दर चित्र वर्तमान हैं । राम का विलाप और सीता के गुणों का प्रकाशन कितने शहज रूप में हुआ है—
"प्रिय भाषिणी, प्रीतम अनुरागिना, सघउ घर सुविनीत । नाटक गीत विनोद सह मुझ, तुभन विणाभावइ चीत ॥ सयने रम्भा विलासगृह कामकाज, दासी माता अहिउ नेह | मंत्रिवी बुद्धि निधान धरित्री क्षमानिधान, सकल कला गुण नेह ||" "सीताराम चौरई" का "नीता पर लोको वाद" तथा "राम-लक्ष्मण - सम्वाद" और " नलदवदंती रास का करसम्वाद" ये तीनों प्रसंग कवि की काव्य- कला एवं प्रतिभा के सुन्दर प्रमाण हैं । "चार प्रत्येक बुद्ध रास" और " मृगावती चरित्र” में आने वाले युद्ध तथा प्रत्येक राग में रविन युद्धगीत समयमुन्दर की साहित्य को अमूल्य देन हैं ।
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राम साहित्य की भांति ही कवि का भक्ति साहित्य भी महत्वपूर्ण है । इनमें कवि की उत्तम संवेदना तथा सर्वोच्च धर्म-भावना का प्रकाशन हुआ है । इनके द्वारा रचित धर्म, कर्म आदि छत्तीनियों में इनकी बहुश्रुतता एवं गहन ज्ञान के संकेत मिलते निलते हैं । इस प्रकार इनके द्वारा रचित गीतों में लय-वैविध्यं शब्दमाधुर्य, सुन्दर प्रास योजना, अनेक लोकप्रिय ढालें, सरल तत्वज्ञान, उत्कट संवेदनशीलता आदि के दर्शन होते हैं हैं । इनमें भक्ति और शृङ्गार साथ-साद चले हैं । १७ वीं शताब्दि का
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परिचय खंड
हिन्दी, मारवाड़ी, गुजराती, सिंधी आदि भाषाओं का स्वरूप समझने के लिये समयसुन्दर के गीत, पद तथा रासादि साहित्य अत्यंत उपयोगी है । १
___ कवि समयसुदर ने राजस्थानी, गुजराती तथा अन्य प्रादेशिक देशियों-ढालों तथा रागनियों का सर्वोत्तम प्रयोग किया है । २ यही कारण है कि इनके वाद के अनेक कवियों ने इन्हें अपनाने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है।
विभिन्न प्रदेशों के विहार-प्रवास के फलस्वरूप कवि की भाषा में अनेक स्थानों की भापाओं के शब्द, वाक्य आदि स्वतः प्रविष्ट हो गए हैं। इनकी भाषा पर राजस्थानी व गुजराती भापा का विशेष प्रभाव है । मुगल दरवारों से सम्पृक्त होने के कारण आपकी भाषा में उर्दू-फारसी के शब्द भी आ ही गए हैं। कहीं-कहीं तो एक ही रचना में अनेक भाषाओं का मिश्रण पाया जाता है।
विपुल साहित्य-सर्जन के द्वारा कवि का लक्ष्य कथा के माध्यम से सम्यक् ज्ञान, धर्म व सदाचार को पोपित करना, दान, शील आदि गुणों का प्रचार करना रहा है। कवि का समस्त साहित्य मानव के लिए प्रेरणास्प सिद्ध होता है। कल्वाणदेव : ( सं० १६४३ आसपास )
ये खरतरगच्जीय जिनचंद्रसूरि के शिष्य चरणोदय के शिष्य थे । इनकी एक कृति "देवराजवच्छराज चउपई" सम्बत् १६४३ में विक्रमनगर में रची गई प्राप्त होती है । ३
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतरगच्छीय साधूओं का राजस्थान और गुजरात में विशेष विहार रहा है । अत: इनकी भाषा में प्रांतीय भापा का मिश्रिण प्रायः देखा जाता है। कल्याणदेव की भापा में भी गूजराती का अत्यधिक मिश्रण है। अतः कवि का गुजरात से घनिष्ट संबंध सिद्ध हो जाता है । १ सं० अगरचंद नाहटा, समयसुदर कृति कुसुमांजलि, (डॉ० हजारी प्रसाद द्वारा
लिखित) २ “संधि पूरव मरूवर गुजराती ढाल नव नव भांति के" ~ समयसुदर मृगावती
चौपइ।
"सीताराम चौपई जे चतुर हुइ ते वांचे रे, राग रनन जवाहर तणो कुण भेद लहे नर सावो रे। जे दरवार गए हुसे, ढंढाहि, मेवाडि ने दिल्ली रे, गुजरात मारू आदि में ते कहि
से ढाल ए भल्ली रे" -समयसुदर, सीताराम चौपई ३ (क) नाथूराम प्रेमी कृत हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४६-४४ (ख) जैन गूर्जर कवियों, भाग १, देवराजवच्छराज चउपई, पृ० १७५
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जोन गुर्जर कवियों की हिंदी कविता
"देवराजवच्छराज चउपई" ८४ पद्यों की रचना है । इसमें किसी राजा के पुत्र वच्छराज और देवराज की कथा है। कुमुदचन्द्र : (सं० १६४५ - १६८७)
इनका जन्म गोपुर ग्राम में हुआ था। पिता का नाम सदाफल और माता का नाम पदमावाई था। इनका कुल मोढवंश में विख्यात था। १ मोढ गुजराती वनिया होते थे। सम्भव है कुमुदचंद्र के पूर्वज गुजरात के निवासी हों और फिर राजस्थान के गोपुर ग्राम में आ वसे हों। उनकी हिन्दी रचनाओं पर राजस्थानी गुजराती का विशेष प्रभाव देखकर यह अनुमान दृढ़ होता है ।
कुमुदचंद्र भट्टारक रत्तकीति के शिष्य थे। ये बचपन से ही उदासीन और 'अध्ययनशील थे। युवावस्था से पूर्व ही इन्होंने संयम ले लिया था। अध्ययनशील मस्तिष्क के कारण इन्होंने शीघ्र ही व्याकरण, छंद, नाटक, न्याय आगम एवं अलंकार शास्त्र का गहरा अध्ययन कर लिया । घोम्मटसार आदि ग्रंथों का इन्होने विशेप अध्ययन किया था। २ भट्टारक रत्नकीति अपने शिप्य के गहन ज्ञान को देखकर मुग्ध हो गये। उन्होंने गुजरात के वारडोली नगर में एक नया पट्ट स्थापित किया। यहां जैनों के प्रमुख संत ( भट्टारक ) पद पर कुमुदचंद्र को सम्वत् वैशाख माय में अभिषिक्त कर दिया । ३ इस पद पर वे वि० सं० १६८७ तक प्रतिष्ठित रहे । ४ बारडोली गुजरात का प्राचीन नगर तथा अध्यात्म का केन्द्र रहा है। कुमुदचंद्र ने यहाँ के निवासियों में धार्मिक चेतना जाग्रत कर उन्हें सच्चरित्र, संयमी एवं त्यागमय जीवन की ओर प्रेरित किया।
१ मोढवंश शृङ्गार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे।
जायो यतिवर जुग जयवंतो, पद्माबाई सोहात रे ।। -धर्मसागर कृत गीत । २ अनिशि छंद व्याकरण नाटिक भणे, न्याय आगम अलंकार ।
वादी गज केसरी विरूद वास वहे, सरस्वती घच्छ सिणगार रे ।। - वही, धर्मसागर कृत गीत ३ सम्बत् सोल छपने वैशाखे प्रगट पयोधर थाव्या रे ।
रत्नकीर्ति गोर बारडोली वर सूर मंत्र शुभ आव्या रे ।। माई रे मनमोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहंत । कुमुदचंद्र भट्ठारक उदयो भवियण मन मोहंत रे ॥ गणेश कवि कृत "गुरु स्तुति” । ४ वही
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परिचय संड
कवि का शिप्य परिवार भी बहुश्रुत एवं विद्वान् था। वैसे तो भट्टारकों में अनेक गिप्य हुआ करते थे जिनमें आचार्य, मुनि, ब्रह्मचारी, आर्यिका आदि होते थे। कवि की उपलब्ध रचनाओं में अभयचंद्र, ब्रह्ममागर, कर्मसागर, संयमसागर, जयसागर एवं गगेशसागर आदि शिप्यों का उल्लेख है जो हिन्दी संस्कृत के बड़े विद्वान तथा उत्तम कृतियों के सर्जक भी है । अभयचंद्र इनके पश्चात् भट्टारक बने।
कुमुदचंद्र की अब तक की प्राप्त रचनाओं में २८ रचनाएँ, प्रचुर स्फुट पद तथा विननियां प्राप्त है । १
कवि की विशाल माहित्य मर्जना देखते हुए लगता है ये चिंतन, मनन एवं धर्मोपदेश के अतिरिक्त अपना पूरा समय साहित्य-सजन में ही लगाते थे।
कवि की रचनाओं में राजस्थानी और गुजराती जा अत्यधिक प्रमाव है। सरल हिन्दी में भी इनकी कितनी ही रचनाएँ मिलती है। प्रमुख रचनाओं में "नेमिनाथ बारहमामा", "नेमीश्वर गीत", "हिन्दोलना गीत", "वणजारा गीत", "दशधर्म गीत", "सपृव्यसन गीत", "पार्श्वनाय गीत", चिंतामणि पार्श्वनाथ गीत", आदि उल्लेखनीय है । इनके पद भी अनेक उपलब्ध है जो दि० जैन अ० क्षेत्र श्री महावीरज़ी, साहित्य शोध विभाग, जयपुर से प्रकाशित “हिन्दी पद संग्रह" में डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल के संपादकतत्व में प्रकाशित है।
नेमिनाथ के तोरणद्वार पर आकर पशुओं की पुकार सुन वैराग्य धारण करने की अद्भुत घटना से ये अत्यधिक प्रभावित थे । यही कारण है कि नेमि-राजुल प्रसंग को लेकर कवि ने अनेक रचनाएं की हैं । ऐमी रचनाओ में "नेमिनाथ बारहमासा", "नेमीश्वरगीत", "निमिजिनगीत" आदि के नाम विशेप उल्लेखनीय है ।
"वणजारा गीत" मे कवि ने संमार का सुन्दर चित्र उतारा है। यह एक रूपक-काव्य है, जिनमें २१ पद्य है । "शीनगीत" में कवि ने सच्चरित्रता पर विगेप बल दिया है । कवि ने बताया है - मानव को किमी भी दिशा में आगे बढने के निए चरित्र-बल की ग्वाम आवश्यकता है । 'साधुसंतों एव संयमियों को तो स्त्रियों ने दूर ही रहना चाहिए' आदि का अच्छा उपदेश दिया है ।
कुमुदचंद्र की विनतियां तो भक्तिरस मे आप्लुत है। कवि की इन विनतियों का संकलन मन्दिर ठोलियान, जयपुर के गुटका नं० १३१ में प्राप्त है । इस गुटके का लेपन काल सं. १८७६ दिया गया है।
१ गजम्यान के प्रमुख नंत ( पांडु लिपि ), डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल
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बैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवि का पद साहित्य तो और भी उच्च कोटि का है । भाषा शैली एवं भाव मभी दृष्टियों से कवि के पद बड़े सुन्दर हैं। एक पद में प्रभू को मीठा उपालंभ देता हुआ भक्त कवि कहता है___ "प्रभू मेरे तुम ऐमी न चाहिए ।
सघन विधन घेरत सेवक कू मौन धरी क्यों रहिए ॥१॥" आदि
यहां कवि ने उन प्राणियों की मच्ची आत्मपुकार अधिन की है, जो जीवन में कोई भी शुभ कार्य नहीं करते और अंत में हाथ मलते रह जाते है
"मैं तो नरभव बाधि गमायो ॥ न कियो तप जप व्रत विधि मुन्दर । काम भन्नो न कमायो ।॥ १॥" "अंत मम कोउ संग न आवत । झूठहिं पाप लगायो ।। कुमुदचंद्र कहे परी मोही। प्रभु पद जस नहीं गायो ॥४॥"
भक्ति एवं अध्यात्म के अतिरिक्त नेमि-राजुल सम्बन्धी पद भी कवि ने लिन्वे हैं। जिनमें नेमिनाथ के प्रति गजमती की सच्ची विरह-पुकार है
"मन्वी रो अब तो रह्ययो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीत न विसरत, छण छण छीजत जान ॥१॥"
कवि के इन पदों की सीधी-सादी भाषा में अध्यात्म, भक्ति, शृङ्गार एवं विरह की उत्तम भावाभिव्यक्ति है । कवि की अधिकांग रचनाएं लघु, स्फुट पद एवं म्नवनादि हैं। कवि की वडी रचनाओं में "भरतबाहुबलिछंद” एवं "आदिनाथ (ऋपभ) विवाहनो" विशेष महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कृतियां हैं।
भरतवाहुवलि छंद-यह एक उत्कृष्ट खण्ड काव्य है । इसकी रचना सं० १६७० ज्येष्ठ मुदि ६ को हुई थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेर गास्त्र मंडार, जयपुर के गुटका नं० ५० में पृ० ४० से ४८ पर लिखित है।
इस काव्य में भरत और वाहुबलि के प्रसिद्ध युद्ध की कथा है। ये दोनों ही भगवान् ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र थे। चक्रवर्ती भरत को सारा भूमण्डल विजय करने के पश्चात् मालूम होता है कि अभी उसके भाई बाहुबलि ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की है । सम्राट बाहुबलि को समझाने का प्रयत्न असफल होने पर और युद्ध अनिवार्य बनने के पश्चात् दोनों की सेनाएँ आमने-सामने हुई और युद्ध हुआ। इस युद्ध में बाहुबलि पराजित होकर जव तपस्यारत हुआ तब उसे यह पता चले विना नहीं रहा कि वह जिस भूमि पर खड़ा है वह भी भरत की ही है। उसके मन का यह दंश तव दूर हुआ जब भरत उसके चरणों पर गिर स्थिति को स्पष्ट
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परिचय खंड
करता है । तदुपरांत उन्हें तत्काल केवलज्ञान प्राप्त होता है और मुक्ति को प्राप्त होते हैं । पूरा का पूरा खण्डकाव्य मनोहर, ललित शब्दों गुथित है। पूरे काव्य में वीर और गांत रस का बड़ा मुन्दर नियोजन हुआ है। भाषा बड़ी सजीव ओर रसानुकूल है
"चाल्या भल्ल आखडे बलीया, सुर नर किन्नर जोवा मलीया । काछ या काछ कशी कड तांणी, बोले बांगड बोली वाणी ।।"
"आदिनाथ ( ऋषभ ) विवाहलो" भी कवि की एक महत्वपूर्ण कृति है। ११ ढालों वोलो इस छोटे खण्डकाव्य की रचना सं० १६७८ में घोधानगर में हुई थी। इस "विवाहलो" में अपभदेव की मां के १६ स्वप्न देखने से लेकर अपम के विवाह तक का सुन्दर वर्णन है। अन्तिम ढाल में, जिसमें "विवाहला" शब्द सार्थक होता है, उनके वैराग्य धारण करने और मोक्ष प्राप्ति का उल्लेख है। इनके वर्णन में सहजता और भाषा में सौन्दर्य परिलक्षित हुए बिना नहीं रहता
"दिन दिन रूपे दीपतो, कांइ वीजतणों जिमचंद रे । सुर बालक साथे रमे, सहु सज्जन मनि आणद रे ॥ मुन्दर वचन सोहामणां, बोले बाटुअडो वाल रे ।
रिम झिन वाजे घूघरी, पगे चाले वाल मराल रे ।।" जिनराजसूरि : ( सं० १६४७ - ६६ )
ये खरतरगच्छीय अकबर बादशाह प्रतिवोधक युगप्रधान विन्यात आचार्य जिनचंद्रमूरि के पट्टधर जिनसिंहसूरि के शिष्य तथा पट्टधर थे । १ इनका जन्म वि० सं० १६४७ में हुआ था। इनके पिता का नाम धर्मसिंह और माता का नाम वारलदेवी था । सं० १६५६ मगसर मुदि ३ को बीकानेर में इन्होने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम राजसमुद्र था । २ सं० १६६० में इन्हें वाचक पद मिला। मं० १६७४ में ये आचार्य पद मे विभूषित हुए।
ये बहुत बड़े विद्वान और समर्थ कवि थे। तर्क, व्याकरण, छंद, अलंकार कोग, काव्यादि के अच्छे जानकार थे। इन्होंने श्रीहर्ष के नैपधीय महाकाव्य पर "जिनराजि" नामक संस्कृत टीका रची है। इनके द्वारा रचित स्थानांग वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है । ३ १६ वी शताब्दी के मस्तयोगी प्रखर समालोचक तथा कवि
१ जैन गूर्जर कवियो, भाग १, पृ० ५५३ २ "जिनचद जिनसिंह सूरि मीस राजममुद्रं संत्रुओ।" गुण स्थान बंध विज्ञप्ति स्तवन ३ परम्परा - श्री नाहटाजी का लेख, राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, पृ० ८३
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११३.
जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कदिता : ज्ञानसार ने इनको अवध्य ववनी कहा है. १. अर्थात् इनके वचनों में लोगों की अपार श्रद्धा थी । सं० १६६६. में अषाढ सुदि नवमी . को पाठणा. में इनका स्वर्गवास हुआ। ... . .. . ... ... ...
.... . ...... जिनराजसूरि अपने समय के एक अच्छे विद्वान एवं कवि थे। कवि की कुशाग्र बुद्धि एवं वाल्यावस्था के अध्ययन के सम्बन्ध में "श्रीसार" ने अपने रास में लिखा है-
.. .......:. : .:. . . . "तेह कला कोई नहीं, ; शास्त्र नहीं वलि तेह. . . . . . . . ... . . : विद्या ते · दीसइ. नहीं, कुमर नइ नावह जेह ॥ ३ ॥", ... ... .. ..
::
.......... आदि- .
. .. . इनकी .. उपलब्ध रचनाओं में . सर्वप्रथम · रचना सं० १६६५ को रचित "गुणस्थान विचारमित पार्श्वनाथ स्तवन" है, जो जैन शास्त्र के कर्म सिद्धांत और आत्मोत्कर्ष की पद्धति से सम्बन्धित है । इनकी ६ कृतियां प्राप्त है । २ . . .. इनके द्वारा रचित "गुणधर्म रास", १६६६ तथा "चन्दराजा चौपाइ” का भी उल्लेख श्री चोक्सी ने किया है । ३. श्री . नाहटाजी. ने "कयवन्ना रास” तथा "जैन रामयण" का राजस्थानी रूप आदि का उल्लेख किया है.। ४.. . . .
सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्युट, बीकानेर की ओर से श्री अगरचन्द नाहटा के सम्बादकत्व में कवि की: प्रायः सभी महत्वपूर्ण कृतियों का संकलन "जिनराज-कृति-कुसुमांजलि" नाम से प्रकाशित हुआ है । . , .::..
____ श्री नाहटाजी ने कवि की एक सब से बड़ी और महत्वपूर्ण रचना "नैवधमहाकाव्य" की ३६००० श्लोक परिमित वृहट्ठी का उल्लेख भी किया है, जिसकी दो अपूर्ण प्रतियों में पहलो हरिसागरसूरि जान भण्डार, लोहावर में तथा दूसरी औरियन्टल इंस्टीटयुत, पूना में है। एक पूर्ण प्रति जयपुर के एक जैनेतर विद्वान के संग्रह में महोपाध्याय विनयसागरजी. के द्वारा देखे जाने का भी उल्लेख है। ५ अन्तिम प्रशस्तियों के अभाव में इनकी प्रतियों की रचना कब और कहां हुई इसका पता नही चता है । इस वृहदवृति से कवि का काव्यशास्त्र में प्रकाण्ड पण्डित होता सिद्ध होता है। १ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत से प्रकाशित, पृ० ५६ : . . . २ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५५३-६१ तथा भाग ३, खंड १, पृ० १०४७-४६ ३ सतरमां शतकना पूर्वार्धनां जैनगर्जर कविओं (पांडु लिपि.) श्री वी० जै० चोक्सी ४ परंपरा - श्री नाहटाजी का लेख, राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, पृ० ८३ ५ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि, भूमिका, पृ. ध । न ।
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परिचय पंट
"शालिमद्र राम" कवि की उल्लेखनीय साहित्य कृति है । यह आनन्द काव्य महोदधि भौवितक १ में प्रकाशित है । इसमें श्रेणिक राजा के समय में हुए गालिभद्र
और धन्ना सेठ की ऋद्धि-सिद्धि और वैराग्यपूर्ण सुन्दर कथा गुफित है, जो जन साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है। क्था में सुपात्र दान की महिमा बताई गई है।
____"गज मुकुमार रास" क्षमा धर्म की महिमा पर लिखी कृति है । इसमें बताया गया है कि जाति स्मरण ज्ञान होने से और अपने पूर्वभव की स्मृति आने मे गजकुमार राज ऋद्धि का त्याग कर दीक्षा अंगीकार कर लेता है, और महामुनि वन जाता है।
मूकवि जिनराजसरि की चौवीसी और वीसी मे तीर्थकरों की भक्ति में गाये गीतों का संकलन है। इन भक्ति गीतों में कवि की चारित्रिक दृढ़ता, लता तथा भक्तहृदय के निश्छल उद्गार हैं । श्री पभजिन स्तवन में कवि ने प्रभु के चरणकमल तथा अपने भन-मधुकर का बडां ही सुन्दर रूपक खड़ा किया है। इसमें कवि बताता है कि जिसने प्रभु के गुणरूपी मधु का पान किया है वह मौरा उड़ाने पर मी नहीं उड़ता। वह तो तीक्ष्ण कांटों वाले केतकी के पौधे के पास भी जाता है। चौवीसी का यह प्रथम स्तवन द्रष्टव्य है
"मन मधुकर मोही रह्यउ, रिऋभ चरण अरविंद रे । उनडायर ऊडइ नहीं, लीणउ गुण मकरन्द रे ॥१॥ रुपइ रूडे फूलडे, अलविन उनडी साइ रे । तीखां ही केतकि तणा, कंटक आवइ दाइ रे ॥ २ ॥ जेहनउ रंग न पालटइ, तिणसु मिलियइ घाइ रे। संगन कीजइन्तेह नउ, जे काम पडयां कुमिलाइ रे ॥३॥"
कवि ने आदि तीर्यकर भगवान ऋषभदेव के स्तवन में बालक पभ की महजमुलभ क्रीड़ाओं तथा माता मरुदेवी के मातृत्व का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन किया है जो सूर के बालवर्णन की याद दिलाता है
"रोम रोम तनु हुलसइ रे, सूरति पर बलि नाउ रे । कबही मोपइ आईयउ रे, हूँ भी मात कहाऊ रे ॥ ३ ॥ पगि घूघरडी धम धमइरे, ठमकि ठमकि धरइ पाउ रे । बांह पकरि माता कहइ रे, गोदी खेलण आउ रे ॥ ४ ॥ चिक्कारइ चिपटी दीयइरे, हुलरावइ उर लाय रे । । वोलड वोल जु मनमनारे, दंति दोइ दिखाइ रे ॥५॥"
-- ( पृ० ३१)
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
११५ कवि की विविध फुटकर रचनाओं में विरह, प्रकृति, भक्ति, वैराग्य · तथा उपदेश के अनेक रंगी चित्र उतरे हैं। विरह वर्णन के द्रसंगों में प्रकृति का उद्दीपन रूप भी कवि ने बताया है।
___कवि ने कथात्मक और स्तुतिपरक इन रचनाओं के साथ आध्यात्मिक उपदेशपरक पद, गीत, तया छत्तीसियों की भी रचना की है जो "जिनराज कृति-कुसुमांजलि" में संकलित हैं । कवि ने इन स्फुट पदों में संसार की अतारता, जीवन की क्षणभंगुरता तया धर्म-प्रमावना के जो चित्र प्रस्तुत किये हैं उनमें संत कवियों का-सा वाह्य क्रिया-कांडों के प्रति विरोव है तो भक्त कवियो की तरह दीनता और लघुता का भाव है।
___कवि ने अपनी शील बत्तीसी और कर्मबत्तीसी में शीलधर्म और कर्म की । महिमा बताई है । शील का माहत्म्य वर्णन करता हुआ कवि कहना है
"सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकारजी। . . . सीलवन्त अविचल पद पामइ, विषई रूलइ संसार जी ॥"
(पृ० ११२) कवि की इन अध्यात्म रस की कृतियों में संसार की भौतिकता से ऊँचे उठाने की महा शक्ति है, एक पावन प्रेरणा है । कवि खुलकर अपनी कमजोरियाँ बताता है, एक एक करके अपने अज्ञान का पर्दाफाश करता चला गया है पर कहीं भी हतोत्साह की हकी रेवा मी नहीं आ पाई हैं। कवि जीव मात्र को उस अमर ज्योति के अनन्त-स्निग्य प्रकार से आलोकित करना चाहता है । कवि सरल भाव से आत्मीयता दिखाता हुआ जीव मात्र को इस मार्ग की ओर ले जाना चाहता है
"मेरउ जीव परभव थई न उदई । - ( पृ० ६६ )" : . .
राभाय ग की कया मी कवि से अछती नही है । रामायण सम्बन्धी संवादात्मक गेय गैती में बड़े ही मार्मिक और सीधी चोट करने वाले पद भी कवि ने लिखे हैं। .
आचार्य जिनराजसूरि धर्मोपदेशक और कुशल कवि दोनों थे । उनकी भापा में सादगी है, साहित्यिकता है, भावावेग है और अकृत्रिम अलंकरण भी है । उपमा, रूपक, तथा उपेक्षा का सहज प्रयोग, कहावतों व मुहावरों का प्रचलित रूप तया विविध छन्द योजना मापा की शक्तिमत्ता में सहायक है । भापा बड़ी ही · सरल, सरस, सुबोध तथा माधुर्यगुण और नाद-सौन्दर्य ते युक्त है। विविध प्रकार की दालों और राग-गगिनियों के सफल प्रयोग से काव्यवीणा के तार. स्वतः भनकृत हो उटे है।
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परिचय खंड
वादिचन्द्र : ( १६५१ - ५४ )
श्री मो० द० देसाई ने इनको भट्टारक ज्ञानभूपण का शिष्य बताया है। १ वास्तव में थे मूलसंघ के भट्ठारक ज्ञानभूपण के प्रगिष्य और प्रभाचन्द्र के शिष्य थे । इनकी गुरु परम्परा इस प्रकार स्वीकृति हैं- दिगम्बर मूलसंघ के विद्यानन्दि - मल्लिघूषण - लक्ष्मीचन्द्र - वीरचन्द्र - ज्ञानभूषण - प्रमाचन्द्र के शिप्य वादिचन्द्र । २ इनकी गद्दी गुजरात में कहीं पर थी। इनके जन्म तथा जीवनवृत्त का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। वादिचन्द्र एक उत्तम कोटि के साहित्य सर्जक थे। 'पार्श्वगुराग', 'ज्ञानसूयोदय नाटक', 'पवनदूत' आदि संस्कृत ग्रंथों के साथ इन्होंने "यगोबर चरित्र" की भी रचा की जो अंकलेश्वर - रूच (गुजरात) के चितामणि प्राश्वर्वनाव के मन्दिर में, मं० १६५७ में रची गई। ३
वादिचन्द्र की प्राप्त रचनाओं का यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जाता है।
"श्रीपाल आख्यान" ४ - इस आख्यान की एक प्रति वम्बई के ऐलन पन्नालाल सरस्वती भवन में सुरक्षित है। इसकी रचना सं० १६५१ में हुई थी। ५ इस आख्यान के सम्बन्ध में श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि यह एक गीतिकाव्य है और इसकी भाषा गुजराती मिश्रित हिन्दी है । ५
इस कृति में एक अपूर्व आकर्षण है । नव रसों का बड़ा सुन्दर परिपाक हुआ है । भाषा अत्यन्त सरल एवं प्रवाहयुक्त है। दोहे और चौपाइयों का प्रयोग विशेष है। विभिन्न रागों में सुनियोजित यह काव्य बड़ा ही सरस एवं भक्तिपूर्ण भावों की स्रोतस्विनी है।
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ८०३ २ नाथूराम प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८७, पादटिप्पणी ३ अंकलेश्वर सुनामे श्री चिन्तामणि मन्दिरे ।
सप्त पंच रसान्जां के वर्षे कारी सुशास्त्रकम् ॥ - यशोधर चरित्र की प्रशस्ति, ८१ वां पद्य प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रस्ताना पृ० २४,
पाद टिप्पणी ४ अ। ४ जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ८०४ ५ सम्वत सोल एकावना से, कीधु एह सम्बन्धजी।
भवीयण थीर मन करि निसुणयो, नित नित ए सम्बन्धजी ॥१०॥ -श्रीपाल आख्यान
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
११७ "मरत-बाहुबली छन्द" १ भरत और बाहुबली के प्रसिद्ध कथानक को लेकर रचित यह कवि कां लघु काव्य है।
"आराधना गीत" - यह एक मुक्तक काव्य है। इसमें कुल २८ पद्य है । इसकी एक प्रति सादरापुर में पार्श्वनाथ चैत्यालय के सरस्वती भवन में धर्मभूषण के शिप्य ब्रह्य वाघजी की लिखी हुई सुरक्षित है। २ यह एक सुन्दर भक्ति वाव्य है।
"अम्बिका कया" - देवी अम्बिका की भक्ति से संबंधित यह कृति है। इसकी एक प्रति लखनऊ के श्री विजयसेन और यति रामपालजी के पास है । इसकी रचना सं० १६५१ में हुई थी। अब यह कथा प्रकाशित हो चुकी है । ३
__ "पाण्डव - पुराण" - इसकी रचना सं० १६५४ में नौधक में हुई थी। ४ इसकी एक प्रति जयपुर के तेरहपन्थी मन्दिर के संग्रह में सुरक्षित है। भट्ठारक महीचन्द्र : (सं० १६५१ के पश्चात )
ये भट्टारक वादिचन्द्र के शिष्य थे । ५ वादिचन्द्र अपने समय के एक समर्थ साहित्यकार थे । इनका समय सम्बत् १६५१ के आसपास का सिद्ध ही है । अतः भट्टारक महीचन्द्र का समय भी लगभग संवत् १६५१ के पाश्चात् का ही ठहरना चाहिए । इनके संबंध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं ।
महीचन्द्र स्वयं भी समर्थ साहित्यकार थे। इनके पूर्व भट्ठारक गुरुओं में वीरचन्द्र. ज्ञानभूपण, प्रभाचन्द्र, तथा वादिचन्द्र आदि राजस्थान के विशेषतः बागड़ प्रदेश तथा गुजरात के कुछ भागों में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद फूकते रहे । भट्टारक महीचन्द्र का भी संबंध राजस्थान और गुजरात दोनों की ही १ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ८०४ - ८०५ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ८०५ ३ अगरचंद नाहटा. अम्बिका कथा, अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ३-४ ४ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना, पृ० १४, पादटिप्पणी ३ ५ श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छ जाणो, बलात्कार गण वखाणों।
श्री वादिचन्द्र मने आणों, श्री नेमीश्वर चरण नभेसू ॥३२॥ तस पाटे मही चन्द्र गुरु थाप्यो, देश विदेश जग बहु व्लाप्यो । श्री नेमीश्वर चरण नमेसू ॥३॥ "नेमिनाथ समवशरण विधि", उदयपुर के खन्डेलवाल मन्दिर के शास्त्र भंडार वाली प्रति ।
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परिणय बंड
गादियों में रहा होना चाहिए । इनकी रचनाओं में राजस्थाती और गुजगती प्रभाव भी इस बात का प्रमाण है।
अव तक की खोजों में इनकी तीन रचनाएं प्राप्त हुई हैं । ? आदित्य बत कथा, २ लवांकुग छप्पय, और ३ नेमिनाथ समवशरण विधि।
"आदित्यव्रत कया” – इसमें २२ छंद है । रचना संवत् का उल्लेख नहीं है । "लवांकुश छप्पय” - छप्पय छन्द के ७० पद्यों में रचित यह कवि की बड़ी रचना है । इसकी एक प्रति श्री दिगम्बर जैन मन्दिर डूंगरपुर में, गुटका नं० ३५५ में निवद्ध है। इसे एक सुन्दर खण्डकाब कह सकते हैं। इसकी कथा का आधार लय
और कुश की जीवन गाथा है। राम के लंका विजय और जयोध्या आगमन के पश्चात् के कयासूत्र को लेकर साहित्यिक वर्णन ( इस काव्य में ) हुआ है।
कृति में शांतरम का निर्वाह हुआ है फिर भी वीर रस के प्रसंग भी कन नहीं । वीर रस प्रधान डिंगल शैली का एक उदाहरण दृष्टव्य है
"रण मिसाण वजाय सकल सैन्या तव मेली । चढ्यो दिवाजे करि कटक करि दश दिग भेली ।। हस्ति तुरंग मसूर भार करि शेषज शंको । खडगादिक हथियार देबि रवि शशि पण कंप्यो । पृथ्वी आंदोलित थई छत्र चमर रवि छान्यो । पृथु राजा ने चरे कह्यो, ल्याव्र राम तवे आवयो ।॥१५॥ "व्या के असवार हणी गय वरनि घंटा । रथ की धाच कूचर हणी वली हयनी शरा ॥ लव अंकुग युद्ध देख दगों दिगि नाठा जावे ।। , पृथुराजा बहु वढे लोहि पण जुगति न पावे ॥ वज्र जंघ नप देवतों बल साथे भागो यदा । कुल सील हीन केतो जिन जिते पृथुरा पगे पड्यो तदा ॥२०॥"
कृति काव्यत्वपूर्ण है । भाषा राजस्थानी डिंगल है। गुजराती शब्दों के प्रयोग भी प्राप्त हैं।
कवि की शेष रचनाओं में "नेमिनाथ समवरण विधि" तथा "आदिनाथ विति" कवि की लत्रु रचनाओं के संग्रह हैं । १ १. राजस्थान के जैन संत - व्यक्तितत्व एवं कृतित्व, डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल,
पृ० १६८
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जीन गुर्जर कवियों की हिंदी कविता
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संयं सागर : (सं० १६५६ आसपास).
बारडोली के नंत भ० कुमुदचंद्र (सं० १६५६ ) के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी ये और स्वयं एक अच्छे कवि भी थे। ये अपने गुरु को साहित्य निर्माण में सहयोग देते रहते थे। अपने गुरु कुमुदचंद्र की प्रशंमा में इन्होंने अनेक गीत, स्तवन एवं पः लिये हैं। उनका यह गीत एवं पद साहित्य ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने संयम सागर की ७ रचनाओं का उल्लेख किया है । १ भाषाशैली की दृष्टि से रचनाएं साधारण हैं। ब्रह्म गणेश : ( सत्रहवीं शती द्वितीय - तृतीय चरण )
भ० रनकोति ( सम्बत् १६४३ - १५६६ ) भ० कुमुदचंद्र (संवत् १६५६ ) तथा न० अभयचन्द्र (संवत् १६४० (जन्म) - १६८५ - १३२१ ( भट्टारक पद) इन तीनों के ही प्रिय शिष्यों में से थे । इन भट्टारकों की प्रशंसा, स्तवन एवं परिचय के रूा में इन्होंने अनेक गीत लिखे हैं । डॉ कामलीवाल जी के उल्लेख के अनुसार इनके अबतक २० गीत प्राप्त हो चुके हैं। २ इन गीतों तथा स्तवनों में कवि हृदय बरस पड़ा है। म० अभय चन्द्र के स्वागत गान में लिखा उनका एक गीत भापा की दृष्टि से दृष्टव्य है
"आजु भले आये जन दिन धन रयणी। . शिवया नन्दन बंदी रत तुम, कनक कुसुम बधावो मृग नयनी ॥ १॥ उज्जल गिरि पाय पूजी परमगुरु सकल संघ सहित संग सयनी । मृदंग बजावते गावने गुनगनी, अभयचन्द्र पटधर आयो गज गयनी ॥ २ ॥ अब तुम आये भली करी, धरी धरी जय गब्द भविक सब कहेनी। .
ज्यों चकोरीचन्द्र कु इयत, कहत गणेश विशेषकर वचनी ।। ३ ॥". ब्रह्म अजित : ( १७ वीं शती द्वितीय - तृतीय चरण )
ये भ० सुरेन्दकीति के प्रशिष्य एवं विद्यानन्दी के शिष्य थे। ब्रह्म अमित संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। भट्ठारक विद्यानन्दि बलात्कारगण, सूरत शाखा के के भट्टारक थे। ३ ब्रह्म अजित का मुख्य निवास भृगुकच्छपुर ( भडौच ) का नेमिनाथ चैत्यालय था । ब्रह्मचारी अवस्था में रहते हुए इन्होंने यहीं "हनुभच्चरित" की
१ वही, पृ० १६२ २ राजस्थान के जैन संत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल,
पृ० १६२ ३ भट्ठारक सम्प्रदाय पत्र सं० १६४
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परिचय खंड
रचना की। इस कृति में इनकी साहित्य निर्माण की कला स्पष्ट नजर आती है। १२ मर्ग का यह काव्य अत्यंत लोकप्रिय काव्य रहा है। इसको एक प्रति लामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में सुरक्षित है ।
__ इनकी हिन्दी रचना "हंसा गीत" १ प्राप्त है। इसका नाम “हंसा तिलक रास" अथवा "हंसा भावना" भी है। ३७ पद्यों में रचित यह एक लघु आध्यात्मिक तथा उपदेश प्रधान रचना है। एक अंश दृष्टव्य है
"ए बारइ विहि भावणइ जो भावइ दृढ़ चितु रे । हंसा । श्री मूल संधि गछि देसीउए वोलइ ब्रह्म अजित रे ॥ हंसा ।। ३६ ॥"
भापा एवं शैली दोनों दृष्टियों से रचना अच्ची है। कृति में रचना सम्वत् का उल्लेख नहीं है । ब्रह्म अजित १७ वीं शताब्दि के संत कवि थे। २ महानन्द गणि : (सं) १६६१ आसपास )
ये तपागच्छ के अकबर बादगाह प्रतियोषक प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरि की शिष्यपरम्परा में हुए विद्याहर्ष के शिष्य थे। ३ इनकी रचनाओं पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव देखते हुए ऐमा प्रतीत होता है कि गुजराती ही इनको मातृभाषा थी। संभवतः ये गुजराज के ही रहने वाले हों। इनके सम्बन्ध में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती। इनकी रचित एक कृति "अजना सुन्दरी रास" ४ प्राप्न है जो रायपुर में वि० सं० १६६१ में रची गई थी। यह एक सुन्दर चरित्र कथा है जिस में हनुमान की मां अजना का चरित्र वर्णित है। इसी कयानक को लेकर अनेक गुर्जर जैन कवियों ने काव्य रचनाएं की हैं। अंजना देवी पर अनेक आपत्तियां आती हैं पर वे भगवान जिनेन्द्र की भक्ति से विचलित नहीं होती। इनका सम्पूर्ण जीवन भक्तिमय था । अजना के चरित्र की सब से बड़ी विशेषता यह थी कि उसने गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का भी विधिवत पालन किया साथ ही वीतरागी प्रभु से प्रेम कर अलोक का भी समान रूप से निर्वाह किया। इनकी भापा राजस्थानी-गुजराती मिश्रित हिन्दी है । विरह के एक मधुर पद द्वारा इसकी प्रतीति कराई जा सकती हैं१ राजस्थान के जैन संत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डा० कस्तूरचन्द कासलीवार,
पृ० १७८-८० २ वही, पृ० १६६ ३ गगि महानन्द, अंजनासुन्दरी रात, जैन सिद्धान्त-मवन आरा की हस्तलिखिनु
प्रति । ४ जैन सिद्धान्त - भवन, आरा में इसकी हस्तलिखित प्रति सुरक्षित है। इसमें
२२ पन्ने है।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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"मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करई पट हूकटा टूकडा मेलवा कंत ॥ मयलयाचल की चलकिउ पुलकिउ पवन प्रचंड ।
मदन महानृप पासइ विरहीन सिर दंड ॥५५॥" मेघराज : (सं० १६६१ आसपास)
कवि मेघराज पार्शचन्द्रगच्छीय परम्परा में श्रवणकृषि के शिष्य थे। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। श्री मो० द० देसाई ने इनकी गुजराती रचनाओं का उल्लेख किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि वे गुजराती थे। हिन्दी में इनकी छोटी - मोटी स्तुतियां प्राप्त होती हैं, यथा - पार्श्वन्द्रस्तुति, सद्गुरुस्तुति तथा संयमप्रवहण आदि । स्वच्छ शैली तथा गुजराती-हिन्दी मिश्र भाषा में आपने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है।
"गछरति दरसणि अति आणन्द । श्री राजचन्द सूरिसर प्रतपउ जा लगि हुँ रविचन्द ।।
गुण गछपति ना भवइ मापइ पहुचड़ आस जगीस ॥१५२॥" लालविजय : (सं० १६६२ - ७३) ।
ये तपागच्छीय विजदेवसूरि के शिष्य शुभविजय के शिष्य थे। १ इनके द्वारा रचित इनकी दो गुजराती कृतियों के अतिरिक्त एक हिन्दी कृति "नेमिनाथ द्वादशमास" श्री उपलब्ध है जिसमें परम्परागत शैली में राजमती के विरह को बारहमासे के माध्यम से व्यक्त किया गया है। भाषा प्रवाहमयी है और भाव स्पष्टता से अभिव्यक्ति पा सके हैं।
"तुम काहि पिया गिरनार चढे हम से तो कहो कहा चूक परी, यह वेस नहीं पिया संजम की तुम काँहीकुऐसी विचित्र धरी,
कैसे वारहमास वीतावोगे समझावोगे मुझि याह धरी ॥ १ ॥ वयाशील : (सं० १६६४ - ६७ ) ।
ये अंचलगच्छीय धर्मसूरि की परम्परा में विजयशील के शिष्य थे। इनकी दो गुजराती कृतियों का तथा हक हिन्दी कृति का उल्लेख प्राप्त होता है । २ इस हिन्दी कृति का नाम है । "चन्द्रसेन चन्द्रघेता नाटकीया प्रवन्ध" । इसकी रचना भीनमाल में सम्वत् में हुई थी। ३ यह कृति शान्तिनाथ के चरित्र के आधार हर रचित १ मोह द० देसाई, जैन गूर्जर कविओ, पृ० ४८७ २ मो० द० देसाई, जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ६०२-५ ३ वही, पृ० ६०५
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परिचय खंड १२२ के आधार पर रचित एक चरितकाव्य है । पाटण भण्डार में सुरक्षित इसकी एक प्रति में मापा का स्वरूप इस प्रकार है।
"मेरी सज्जनी मुनि गुण गावु री । चन्द्रघोत चन्द्र मुणिन्द मेरा नामइ हुइ आणन्द ।
संसार जलनिधि जलह तारण, मुनिवर नाव समान ॥ मेरी० ॥२॥" होरानन्द : होरो संघवी, गृहस्थ कवि ; ( सं० १६६४ ६८ )
गुजराती कृतियों के अन्तःसाक्ष्य के आधार पर इनके पिता का नाम कान्ह १ और गुरु का नाम विजयसेनसूरि २ सिद्ध होता है। शेष जीवनवृत के बारे में अभी तक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। हीरानन्द एक अच्छे कवि थे । ५२ अक्षरों में से प्रत्येक अक्षर पर एक-एक पद्य की रचना सहित ५७ पद्यों से सुसज्ज इनकी "अध्यात्म वावनी" ज्ञानाश्रयी कविता की प्रतिमापूर्ण हिन्दी काव्यकृति है । ३ इसकी रचना लाभपुर के भोजिग किशनदास शाह वेणिदास के पुत्र के पठनार्थ हुई थी। ४ इसका मुख्य विषय अध्यात्म है। इनकी भाषा प्रवाहपूर्ण व समर्थ है तथा कवित्व उच्च प्रकार के गुणों से युक्त है। परमात्मतत्व की महिमा में उद्गीत प्रारम्भिक पंक्तियाँ द्रष्टव्य है। __"ऊंकार सरुपुरुष ईह अलष अगोचर,
अन्तरज्ञान विचारी पार पावई नाहि को नर ।"
विपय और भाषा दोनों के गौरव का निर्वाह कवि ने बड़ी सुन्दरता के साथ किया है। दयासागर वा दामोदर मुनि : ( स० १६६५ - ६९)
__ये अचलगच्छीय धर्ममूर्तिसूरि की परम्परा में उदयसमुद्रसूरि के शिष्य थे। ५ गुजराती की कृयितों में एक कृति “मदनकुमार रास" की प्रशस्ति में ..मदन शतक" का उल्लेख है जो इनकी एक १०१ दोहे में रचित हिन्दी रचना है। इस गन्थ का उल्लेख हिन्दी साहित्य. द्वितीय खण्ड में भी किया गया है । वस्तुतः यह एक प्रेमकथा है। १ वही, पृ० ६४०
- २ वही ३ बावन अक्षर सार विविध वरनन करि भाप्या ।
चेतन जड संबंध समझि निज चितमई राप्ता ।। - अध्यात्म वावनी ४ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ४६६-६७ ५ वही भाग १, पृ० ४०४
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
। १२३. हेम विजय : (सं० १६७० के आसपास)
हेमविजय जी प्रसिद्ध आचार्य हरिविजयसूरि के प्रशिष्य और विजयसेनसूरि के शिष्य थे ।१ कवि का जीवनवृत्त अज्ञात है। उनके काव्य में युजराती का प्रयोग दिखाई देने से तथा प्रेमी जी के इस कथन से "आगरा और दिल्ली की तरफ बहुत समय तक विचरण करते रहे थे, इसलिए इन्हें हिन्दी का ज्ञान होना स्वाभाविक है" यह अनुमान लगाया जाता है कि ये गुजरात में ही कहीं जन्मे थे । हिन्दी में रचित इनके उत्तम पद प्राप्त हैं जिनमें हीरविजयसूरि तथा विजयसेनसूरि की स्तुतियां तथा तीर्यकरों के स्तवन वर्तमान हैं। मिश्रवन्धु विनोद में भी सम्वत् १६६६ में इनके द्वारा वताए गए स्फुट पदों का उल्लेख प्राप्त होता है ।२ कवि ने नेमिनाथ तथा राजुल के कथा प्रसंगों को लेकर राजुल की विरह-व्यथा को बड़े ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है
"धनघोर घटा उनयी जु नई, इततै उततै चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा विललाति जु, मोर किंगार करंति मिली। . विच विन्दु परे ग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली।
मुनि हेम के साहिब देखन कू, उग्रसेन ललि सु अकेली चली ॥" .. लालचन्द : (सं० १६७२-६५)
___ लालचन्द जी खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरि के शिष्य हरिनन्दन के शिष्य थे ।३ इस युग में इसी नाम के तीन और व्यक्ति हो गए है किन्तु ये इन तीनों से पृथक् मात्र लालचन्द नाम से ही प्रसिद्ध है। इनकी गुजराती रचनाओं के साथ एक हिन्दी की कृति "वैराग्य वावनी" भी प्राप्त है जिसकी रचना संवत् १६६५ भाद्रशुक्ल १५ को हुई थी। अध्यात्म-विचार और वैराग्यभावना इस कृति का मुख्य उद्देश्य है । कवि सन्तों की सी भाषा में बोलता मिलता है। माषा पर गुजराती प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। इसकी तुलना हीरानन्द संघवी की "अध्यात्मक बावनी" से की जा सकती है। भद्रसेन : (सं० १६७४-१७१६)
इनके विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं होती। मात्र इतना ही सिद्ध होता है कि जब जिनराजसरि ने शत्रुजय पर प्रतिष्ठा की उस समय कवि भद्रसेन व गुणविनय
१. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४७ । । २. मिश्रवन्धु विनोद, भाग, १, पृ० ३६७ । ३. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० ६६० ।
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१२४ ]
परिचय-खंड
आदि उपस्थित थे ।१ १८४ पदों में रचित इनका "चन्दन मलयागिरि चौपई" एक सुन्दर लोक कथा काव्य है। इस कृति की लोकप्रियता का उज्ज्वल प्रमाण यह है कि उसकी असंख्य प्रतियाँ राजस्थान व गुजरात के भण्डारों में प्राप्त हैं जिसमें कुछ सचित्र भी हैं । संवत् १६७५ के आसपास रचित इस कृति में भाषा सरल तथा शैली प्रसादात्मक है। इसमें कुसुमपुर के राजा चन्दन और शीलवती रानी मलयगिरि की कथा निवद्ध है। गुणसागरसुरि : (सं० १६७५-६१)
___ गुणसागर जी विजयगच्छ के पद्मसागरसूरि के पट्टवर थे। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-विजयगच्छ के विजय ऋषि-धर्मदास-खेमजी-पद्मसागर ।२ 'कृतपुण्य (कयवन्ना) रास', 'स्थूलिभद्रगीत', 'गान्तिजिनविनती रूप स्तवन', 'शान्तिनाथ छन्द' तथा 'पार्श्वजिन स्तवन' आदि कवि की हिन्दी रचनायें हैं। इनके सम्बन्ध में शेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । 'कृतपुण्य रास' दान-धर्म की महिमा पर आघृत २० ढालों से युक्त एक कृति है । भाषा गुजराती से अत्यधिक प्रभावित है । 'स्थूलिमद्रगीत' १२ पद्यों की विभिन्न रागों में निबद्ध एक लघु रचना है। इसी प्रकार अन्य कृतियाँ भी कवि की लघु रचनाएँ हैं और भक्ति-भावना से आपूर्ण है। भगवान के दर्शनों की महिमा बताता हुआ कवि कहता है
."पास जी हो पास दरसण की वलि जाइये, पास मन रंगै गुण गाइये । पास बाट घाट उद्यान में, पास नागै संकट उपसमै । पा० । उपसमैं संकट विकट कष्टक, दुरित पाप निवारणो।
आणंद रंग विनोद वारू, अपै संपति कारणो ॥ पा० ॥" श्रीसार : (सं० १६८१-१७०२)
श्रीसार जी खरतर गच्छीय उपाध्याय रत्नहर्ष तथा हेमनन्दन के शिष्य थे।३ इनकी रचनाओं में गुजराती प्रभाव को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक हो जाता है कि इनका सम्बन्ध गुजरात से दीर्घ काल तक रहा होगा। इनकी बारह कृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है ।४ इन कृतियों में दो हिन्दी कृतियाँ विशेष उल्लेख्य है-(१) मोती कपासीया संवाद, तथा (२) सार बावनी। 'मोती कपासीया संवाद' १. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५६७-६८ । २. वही, पृ० ४६७ । ३. मो० द० देसाई, जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५३५ । ४. वही, पृ० ५३४-५४१ तथा भाग ३, पृ० १०२९-३२ तथा अगरचन्द नाहटा
राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, परम्परा, पृ० ८०-८१ ।
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__ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
१२५ इनकी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति है। भाषा सरल व प्रसाद गुणयुक्त है किन्तु है गुजराती से प्रभावित ही
"मोती घरव्यउ महीप लइ हुँ मोटो संसार, मोह तमोवडि कोई नहीं, हुं सिगलइ गिरदार ।
संप हुओ-मोती कपासीयें, मिलीया माहो माहि", आदि । 'सार बावनी' की प्रत्येक पंक्ति में कक्काक्रम से एक-एक अक्षर को लेकर एक-एक कवित रचा गया है । आरम्भ 'ॐ' कार से हुआ है। बालचन्द : (सं० १६८५ के आसपास)
कवि बालचन्द लोंकागच्छीय परम्परा में गंगदास मुनि के शिष्य थे ।१ ज्ञानाश्रयी कविता के उज्जवल प्रमाणस्वरूप ३३ पद्यों से पूर्ण तथा भावनगर के जैन प्रकाण में प्रकाशित 'बालचन्द बत्तीसी' के आधार पर उनका गुजराती होना सिद्ध होता है । इनको भाषा सरल व प्रभावपूर्ण है
"सकल पातिक हर, विमल केवल घर, जाको वासो शिवपुर तासु लय लाइए।
नाद विद रूपरंग, पाणिपाद उतभंग,
, आदि अन्त मध्य भंगा जाकू नहि पाइए ।आदि।।" ज्ञानानन्द : (१७ वीं शती)
ज्ञानानन्द जी का इतिवृत्त अभी तक प्राप्त नहीं है । इनके पदों में 'निधिचरित' नाम जिस श्रद्धा के साथ व्यक्त हुआ है उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः निधिचरित आपके गुरु रहे हों। पंडित वेचरदास ने इनका १७ वीं शती में होना माना है२ और डॉ० अम्बाशंकर नागर ने इनकी भाषा में गुजराती प्रभाव को देखकर इनके गुजराती होने का या गुजरात में दीर्घकाल तक रहने का अनुमान लगाया है।३ सन्तों की सी इनकी भाषा में सरलता-सजीवता एवं गांभीर्य के दर्शन होते हैं तथा अभिव्यक्ति में असाम्प्रदायिक शुद्ध ज्ञान मुखर हो उठा है। इस कारण इनका पद-साहित्य भारतव्यापी संत परम्परा का प्रतीक हैराग-जोसी रासा ___ "अवधू. सूतां, क्या इस मठ में।
१. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५४२ । २. भजन संग्रह, घूमामृत, २१ ३. गुजरात की हिन्दी सेवा (अप्रकाशित)।
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परिचय-खंड
इस मठ का है कवन भरोसा पड़ जावे चटपट में ।
छिन में ताता, छिन में शीतल, रोगशोक बहु घट में |आदि आदि । हंसराज : (१७ दीं शतो उत्तरार्द्ध)
हंसराज खरतरगच्छीय वर्द्धमानसूरि के शिष्य थे ।१ इनके सम्बन्ध में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। श्री मो० द० देसाई ने इन्हें १७ वीं शती का कवि माना है ।२ 'ज्ञान बावनी' इनकी एक हिन्दी रचना है जिसकी प्रतियां गुजरात और राजस्थान के अनेक भण्डारों में प्राप्त होती हैं जो इस कृति की लोकप्रियता के साथ इस बात को भी प्रमाणित करती हैं कि कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा. है । 'ज्ञान वावनी' भक्ति एवं वैराग्य के भावों से परिपूर्ण ५२ पद्यों में रचित एक सुन्दर कृति है । इनकी भाषा सरल व प्रवाहयुक्त है--
"ओंकार रूप ध्येय गेय है न कछु जानें ।
___ पर परतत मत मत छहुं मांहि गायो है । जाको भेद पावै स्यादवादी और कहो ।
जाने माने जाते आपा पर उरझायो है।" आदि आदि। ऋषभदास (श्रावक कवि) : (सत्रहवीं शती का उत्तरार्द्ध)
___ ये खंभात के प्रसिद्ध श्रावक कवि थे। तपा गच्छीय आचार्य विजयानंदसूरि इनके गुरु थे ।३ कवि एक धर्मसंस्कारी, बहुश्रु त एवं शास्त्राभ्यासी विद्वान श्रावक थे। ये गुजराती मापा के प्रेमानन्द और अखा की कोटि के कवि थे। इन्होंने छोटी-मोटी अनेक कृतियां रची हैं। श्री मो० द० देसाई ने इनकी ४३ रचनाओं का उल्लेख किया है ।४
हिन्दी के वीरकाव्यों में इनके 'कुमारपाल रास' का उल्लेख हुआ है ।५ इसके अतिरिक्त 'श्रोणिक रास' तथा 'रोहिणी रास' का उल्लेख भी हिन्दी कृतियों में हुआ है।६ कवि का अधिकांश साहित्य अभी अप्रकाशित है। कुछ कृतियों का तो कवि की विभिन्न कृतियों में उल्लेख मात्र ही मिलता है। संभव है ये कृतियां अव भी विभिन्न जैन शास्त्र भण्डारों में अज्ञातावस्था में पड़ी हो इस दिशा विशेष संशोधन की आवश्यकता है। १. ज्ञान बावनी, ५२ वां पद । २. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, पृ० १६२४ । ३. श्री गुरुनामि अती आनंद, वंदो विजयानंद सुरिंद। श्री हीर विजयसरि रास ४. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ ४०६-४५८ तथा भाग ३, पृ० ६१७--६३३ । ५. धीरेन्द्र वर्मा सम्मादित--हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, पृ० १७७ तथा १८० । ६. अनेकान्त, वर्ष ११, किरण ४-५, जून-जुलाई. १९५१ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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___ कवि की विभिन्न कृतियों के अवलोकन से देश्य भाषा का प्राचीन रूप तथा हिन्दी का विकसित रूप स्पष्ट परिलक्षित होता है । भापा बड़ी सरल तथा प्रासादिक है । विभिन्न भाषा प्रयोग की दृष्टि से कवि या 'हीरविजयसूरि रास' विशेष उल्लेखनीय है। प्रसंगानुकूल और भावानुकूल भाषा संयोजन की उत्तम कला इसमें दिखाई देती है । वादशाह के पश्चाताप का एक प्रसंग द्रष्टव्य है
“पहिले में पापी हुआ बोहोत, आदम का भव युहीं खोत, . चित्तोड़ गढ़ लीना में आप, कह्या न जावे वो महापाप । जोरन मरद कुत्ता वी हण्या, अश्व उकांट लेखे नहिं गणया,
ऐसे गढ लीने में बोहोत, बड़ा पाप उहां सही होत ।" उर्दू निष्ट कविता का एक और उदाहरण अवलोकनीय है
"या खुदा मिबडा दोजखी, कीनी वोहोत बुजगारी;
इस कारणी थी बीहस्त न पाऊँ, होइगी बोहोत खोआरी ॥६६॥"
इस प्रकार के अनेक हिन्दी-उर्दू निष्ठ प्रसंग कवि की विभिन्न रचनाओं में विशेषतः 'हीरविजयसरि रास' में प्राप्त होते हैं। संभव है खोज करने पर कवि की कोई स्वतंत्र हिन्दी रचना भी प्राप्त हो जाय । कनक कीति : (१७ वीं शती का अन्तिम चरण)
खरतर गच्छीय प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्रसूरि की परम्परा में जयमंदिर के शिष्य १ कनक कीति का कोई जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं होता। इनकी काव्यकृतियों हिन्दी तथा गुजराती-दोनों भापाओं में रची गई प्राप्त होती हैं। इनकी हिन्दी कृतियों में गीत, स्तुति, वंदना, सज्झाएँ आदि हैं। ये सब भगवान तथा किसी ऋपि की स्तुति अथवा वंदना में रचित कृतियाँ हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-'भरतचक्री सजझाय' (भक्ति-काव्य), 'मेघकुमार गीत' (वंदना), 'जिनराज स्तुति', 'विनती', 'श्रीपालस्तुति', 'कर्मघटावली' 'भक्तिकाव्य' तथा स्फुट भक्तिपद ।
इनकी भाषा के अनेक रूप प्राप्त होते हैं, यथा-ढूढारी से प्रभावित ( जहां 'है' के स्थान पर 'छै' का प्रयोग है ), गुजराती से प्रभावित, मारवाड़ी, व्रज के समीप तथा खड़ी बोली । खड़ी बोली का एक उदाहरण दृष्टव्य है
"तुम प्रभु दीनदयालु, मुझ दुषि दुरि करोजी। लीज अनंतन ही तुम ध्यान धरों जी ॥"
१. जैन गुर्जर कविओ, भाग, पृ० ५६८ ।
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प्रकरण ३
१८ वीं शती कत्र जैन गुर्जर कवि और उनकी कृतियों का परिचय
आनन्दधन, यशोविजयजी, ज्ञानविमलसूरि, धर्मवर्द्धन, आनन्दवर्द्धन, केशरकुशल, हैमसागर, वृद्धिविजयजी, जिनहर्ष, देवविजय भट्टारक शुभचन्द्र- २, देवेन्द्रकीर्तिशिष्य, लक्ष्मीवल्लभ, श्री न्यायसागरजी, अभयकुशल, मानमुनि, केशवदास, विनयविजय, श्री मद्देवचन्द्र, उदयरत्न, सौभाग्यविजयजी, ऋषभसागर, विनयचन्द्र, हंसरत्न, भट्टारक रत्नचन्द्र-२, विद्यासागर, खेमचन्द्र, लावण्यविजयगणि, जिनउदयसूरि, किशनदास, हेमकवि, कुशल, कनककुशल भट्टार्क, कुवरकुशल भट्टार्क, गुणविलास, निहालचन्द |
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प्रकरण ३ १८ वींन शती कत्र जै गूर्जर कवियों तथा उनकी कृतियों का परिचय
पिछले प्रकरण में हम १७ वीं शती के प्रमुख हिन्दी कवियों का अवलोकन कर चुके हैं । १८वी शती में जैन-गूर्जर कविवों की हिन्दी-साधना उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती दिखाई देती है। इस शती में अनेक सुकवियों की सुन्दर रचनाएं हमें समुपलब्ध होती हैं । इस प्रकरण से हम १८ वी शती के प्रमुख कवियों तथा उनके साहित्यिक व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करना प्रसंगप्राप्त समझते हैं । आनन्तधन : ( सं १६८० - १७४५)
सच्चे अध्यात्मवादी महात्मा आनन्दधन श्वेताम्बर जैन कवि तथा साधु थे। १ इनका मूल नाम लामानन्द था। जैनों के किसी सम्प्रदाय अथवा गच्छ में इनकी कोई रुचि नही दिखाई देती। २ इनके समकालीन जैन कवि यशोविजय की उपलब्ध "अष्टपदी" में भी उनके रहस्यवादी व्यक्तित्व का ही वर्णन मुख्य है। इनके जन्म आदि को लेकर साहित्य-क्षेत्र में अनेक अटकलें लगाई गई-यथा - आनन्दधन गुजरात के रहने वाले थे, ३ आनन्दधन का जन्म बुन्देलखण्ड के किसी नगर में हुआ था और मेडता नगर के आसपास इनका रहना अधिक हुआ । ४ इनकी प्रथम कृति "आनन्दघन चौवीसी" गुजरात में रचित होने के कारण यह सिद्ध होता है कि आनन्दघन जी या तो गुजराती थे अथवा गुजरात में उनका निवास दीर्घकाल तक रहा होगा।
आनन्दघन जी का समय तो निश्चित-सा ही है । मेडता, नगर में ही यशोविजय जी से उनका साक्षात्कार हुआ था परिणामत: यशोविजय ने उनसे प्रभावित होकर उनकी प्रशंसा मे 'अप्टपदी' रच डाली थी। ५ यशोविजय के समकालीन होने के साय डभोई नगर मे स्थित यशोविजय जी की समाधि पर मृत्यु सम्वत् १७४५
१ मो० द० देसाई. जैन साहित्यनो इतिहा. पृ० ६२२ २ 'गच्छना भेद नयणा नीहारतां, तत्वनी वात करता न लाजे'। ।
आनन्दवन चौवीसी. जैन काव्य दोहन, भाग १. पृ० ८ - ३ डॉ० अम्बाशंकर नागर. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० ३४ ४ मो. मि. कापडीमा, आनन्दवनजीना पदो। ५ बुद्धिसागर के आन्दघन पद संग्रह में प्रकाशित "आनन्दघन अष्ठपदी" ।
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परिचय लंड
लिखा हुआ है । उक्त दोनों तथ्यों को ध्यान में रख कर ही शायद मोतीलाल कापडीया ने बानन्दधन का जन्म सम्वत १६७० से ८० के बीच बनुमानित किया है । १ ये आनन्द घन मुजानवाले घनानन्द से भिन्न व्यक्ति थे, कारण (क) इन्होंने घनानन्द के 'मुजान' शब्द का कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया। (ब) ये दूसरे मानन्दधन से भिन्न ये क्योकि इसे दूसरे आनन्दधन का साक्षात्कार चैतन्य से हआ था जो हमारे मानन्दघन के जीवन से भिन्न घटना है। इसी प्रकार ये 'कोक मंजरी' के लेखक घनानन्द से भी भिन्न हैं।
आनन्दघन के काव्य में विस्तार कम विन्तु गहराई अधिक है। काव्यगन स्तुतियों में कवि के बयाह ज्ञान और अपूर्व शैली के दर्शन होते है। गुजराती की उक्त रचना के अतिरिक्त हिन्दी की भी एक कृति प्राप्त होती है । इन कृति का नान है-आनन्दघन बहोतरी । नाम के अनुनार तो इनमें केवल ७२ पद ही होने चाहि किन्तु विभिन्न प्रकाशित प्रतियों को देखने से पता चलता है कि यह संख्या १०० तक पहुंच गई है। कुछ विद्वानों ने इस संस्था को संदेह की दृष्टि से देखा है लौर नायराम प्रेमी ने तो इसमें प्रक्षिप्तता की स्थिति को स्वीकार करते हुआ कहा है, जान पड़ता है, उसमें बहुत से पद औरों के मिला लिए गये है । बोड़ा ही परिश्रम करने से हमें मालूम हुआ है कि इसका ४२ वां पद "अव हम अमर भये न मरने" और अन्त का पद "तुम ज्ञान विनौ पूरली वसंत" ये दोनों द्यानतरायजी के हैं। इसी तरह जांच करने से औरों का भी पता चल सकता है।" २
"आनन्दघन वहोतरी" के पदों में भक्ति, वैराग्य, उप्रदेश, ज्ञान, योग, प्रेम, ईश्वर, उलटवासियां, आध्यात्मिक रूपक, रहस्य-दर्शन आदि की अपूर्व नुसंयोजित अभिव्यक्ति हुई है। परमतत्व से लो लगाने की बात को कवि ने किस सहजता से व्यक्त किया है, देखिए
"ऐसे जिन चरणे चित ला रे मना, ऐसे मरिहंत के गुन गाउं रे मना ॥ ऐसे...॥ उदर भरन के कारणे रे, गोंआ वन में जाय । चारो चरे चिहुँ दिन फिरे, वाकी सुरत वाछल्आ मांह रे।। ऐसे ॥ सात पांच साहेलियां रे हिल मिल पाणी जाय । ताली दिए खड खड हंसे रे, वाकी सुरति गगरआ मांहे रे ॥ ऐसे ॥"
१ आनन्दघनना पदो, पृ० १८ २ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ६१ ( पाद टिप्पणी)
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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. जैनधर्मी कवि.आनन्दघन की इस कृति में असम्प्रदायिक दृष्टि से ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति की त्रिवेणी प्रवहमान है, इसमें धर्म-सम्प्रदाय की सीमाएं नहीं है, "स्व" के आचरण पर "स्व" के विवेक का अंकुश वर्तमान है, परभाव का त्याग और आत्म परिणति की निर्मलता प्रत्येक जीव में उद्बुद्ध करने की प्रवृति है। इसी उद्बोयन के परिवेश में सुमति और शुद्ध चेतना आदि पात्र जन्में है । मूढ मानवों की मायाप्रियता दर्शाते हुए कवि सहज भाव से ऊँचे घाट की वाणी मुखरित कर देता है
"वहिरातम मूढा जग तेता, माया के फंद रहेता । घट अन्तर परमातम घ्यावे, दुर्लभ प्राणी तेता ॥"
'आनन्दघन में संतो के-से अभेद भाव की अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर हुई है। इनके काव्य में राम-रहमान, कृष्ण-महादेव, पारसनाथ आदि अद्वैत रूप में प्रतिष्ठित है, नामभेद होते हुए भी सभी एक है, ब्रह्म हैं
"राम कहो रहमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री, पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्म, सकल ब्रह्म स्यवमेव री। भाजन भेद कहावत नानो एक मृतिका रूप री, तैसे खण्ड कल्पना रोपित आप अखण्ड सरूप री। 'निज पद रमे राम सो कहिए, रहीम कहे रहमान री, कर कर कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री, इह विध साचो आप आनन्दघन, चेतनमय निःकर्म री ॥६७॥"
आनन्दधन में जहां एक ओर "मैं आयी प्रभु सरन तुम्हारी, लागत नाहीं घको" के द्वारा वैष्णवी प्रपति के दर्शन होते हैं, वहां कबीर का-सा ज्ञान भी दिखाई देता है
"अवधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामे कोण पुरुष कोण नारी ॥ वम्मन के घर न्हाती घोती, जोगी के घर चेली ।। कलमा पढ़-पढ़ मई तुरकडी तो, आप ही आप अकेली ॥" आदि ।
अवधू को सम्बोधित करते हुए कवि कबीर की वाणी में ही बातें करता प्रतीत होता है
अवधू सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेडा । तरुवर एक मूल · बिन छाया, विन फूले फल लागा ।। शाखा पत्र नहीं कछु उनकु, अमृत गगने लागा ॥" आदि ।
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परिचय
इस प्रकार देखने से नागंगतः यह कहा गफना में यि आनन्दपन जी पाचार की भांति ज्ञानवादी व रहस्यवादी कवि थे। इनकी मागत यों तो राज है किन्तु इन पर गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी आदि भाषाओं का प्रभाव गुट इन प्रकार दिनाई दे जाता है कि उने नीधी भाषा में मधुक्कड़ी गह देना अनुचित न होगा। उनमा छन्दविधान विभिन्न राग-रागनियों में निबद्ध है। इनके प्रमुख राग-विलायन, टोडी, सारंग, जयजयवन्ती,रोदार आगावरी, अनंत, गोरठ दीपक मानकॉन आदि । में राग त्रिताल, चौताल, एक ताल और धमार आदि तालों पर निबद्ध है। यगोविजयजी उपाध्याय : (सं० १६८०-१७४३) ।
काशी में रह कर तत्कालीन सर्वोत्कृष्ट विहान भट्टाचार्य जी के सानिध्य में रहकर पडदर्शन का ज्ञान प्राप्त कर द्वितीय हेमचन्द्राचार्य का विरुद धारण करने वाले, वहीं एक सन्यासी को शास्त्रार्थ में पराजित कर न्याय-प्रिशारद की उपाधि प्राप्त करने वाले तथा चार वर्ष मागरे में रहकर तसंपारन व जैनन्याय का तलस्पी भान प्राप्त करने वाले उपाध्याय यशोविजय जी का हिन्दी की कृतियों के अन्तःसाध्य के आधार पर कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त प्राप्त नहीं होता। जो कुछ भी प्राप्त होता है उसके दो स्रोत हैं-(१) समकालीन मुनिवर कान्तिविजय जी की गुजराती काव्यकृति 'नुजसवेलिमास', तथा (२) महाराजा कणंदेव का वि० सं० १७४० का तानपत्र । इस ताम्रपत्र से यह सिद्ध होता है कि इनका जन्म गुजरात में पाटण के पास कनाडा गांव में हुआ था। इनका जन्म-काल अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका है। अनुमान है कि इनका जन्म सम्वत् १६७० ले १६८० के बीच में कमी हआ होगा। इनका मरण डमोई (गुजरात) में १७४३ में हुआ। इनके पिता का नाम नारायण और माता का नाम सामाग्य देवी था। माता-पिता की धर्म परायणता, उदारता, तथा दानशीलता के संस्कार पुत्र पर पूर्णतः पड़े दिखाई देते हैं।
प्राप्त रचनाओं के आधार पर इनका साहित्य-सृजन-काल वि० सं १७१६ से १७४३ तक माना जा सकता है। इनके द्वारा रचित ३०० ग्रन्थों में से लगभग ५-६ रचनाएँ तथा कुछ फुटकर पद ही हिन्दी के माने जा सकते हैं। शेष रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत गुजराती में लिखी गई हैं। उपाध्याय जी की रचनायें सरल भाषा में रसपूर्ण ढंग से लिबी होने पर भी सामग्री की दृप्टि मे अत्यन्त गरिष्ठ हैं 'आनन्दधन अष्टपदी', जैसा कि हम पहले कह आए हैं, आनन्दघन जी की स्तुति में लिखी गई रचना है। 'मुमति' सखी के साय मस्ती में झूमते हुए, आत्मानुभवजन्य परमआनन्दमय अद्वैत दशा को प्राप्त अलौकिक तेज से दीपित योगीश्वर रूप आनन्दधन को देखकर यशोविजय के मन में जो भावोद्वेक हुआ उसे उन्होंने इस प्रकार प्रकट किया--
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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"मारग चलत-चलत गात, आनन्दघन प्यारे, रहन आनन्द भरपूर ॥ ताको सरूप भूप त्रिहुं लोक थे न्यारो, बरखत मुख पर नूर ।। सुमति सखि सखि के संग, नित-नित दोरत, कवहुं न होत ही दूर ।। जशविजय कहे सुनो आनन्दघन, हम तुम मिले हजूर ।"
यानन्दघन आनन्दरूप हैं। उन्हें पहचानने के लिए ज्ञाता के चित में उसी आनन्द की अनुभूति का होना आवश्यक है
"आनन्द की गत आनन्दघन जाने । वाइ सुख सहज अचल अलख पद, वा मुख सुजस बखाने । सुजस विलास जव प्रकटे आनन्दरस, आनन्द अखय खजाने । ऐसी दशा जब प्रगटे चित अन्तर, सोहि आनन्दघन पिछाने ॥"
'दिक्पट चौरासी वोल' हेमराज के 'सितपट चौरासी वोल' के उत्तर में तथा बनारसीदास के पंथ के विरोध में रची गई कृति है। इस कृति में दिगम्बरी मान्यताओं का खण्डन है। यदि खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति में ये न पड़े होते तो शायद हेमचन्द्राचार्य से भी महान सिद्ध होते । 'समाधिशतक' में दिगम्बर प्रभावन्दमूरि के 'समाधिशतक-समाधितन्त्र' नामक १०० श्लोकों के उत्तम ग्रंथ का गब्दानुवाद दिया गया है। इसमें स्थिर संतोष को ही मुक्ति का साधन माना है-'मुक्ति दूर ताकू नहीं, जाकू स्थिर संतोप ।' 'समता शतक' कवि की चौथी हिन्दी कृति है जिसमें १०५ पद्य हैं। इसकी रचना विजयसिंहसरि के 'साम्य शतक' के आधार पर मुनि हेम विजय के लिए लिखी गई थी। इसमें इन्द्रियों पर विजय पाने के उपाय बताए गए हैं । अन्य संत कवियों की भांति इन्होंने माया को सर्पिणी के रूप में चिचित्र किया है जो देखने में मधुर पर गति से वक्र और भयंकर है
"कोमलता वाहिर घरतु, करत वक्र गति चार ।
माया सापिणी जग डरे, ग्रसे सकल गुण सार ।" स्तवन, गीत, पद एवं स्तुतियों के इस संकलन 'जसविलास' में भक्ति, वैराग्य और विश्वप्रेम के १०० पद संकलित हैं। भक्त का प्रभु के ध्यान में मग्न होना ही वस्तुतः सभी दुविधा का अंत है। भक्तिरूपी निधि प्राप्त करने के पश्चात् भक्त के लिए हरि-हर और ब्रह्मा की निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं, उस रस के आगे अन्य सभी रस फीके लगने लगते हैं; खुले मेदान में माया, मोह रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो जाती है
"हम मगन भए प्रभु ध्यान में । विसर गई दुविधा तन-मन की, मचिरा सुत गुन ज्ञान में ।
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परिचय खड
हरि हर ब्रह्म पुरन्दर की ॠद्धि, आवत नहि कोउ भान में । चिदानन्द की मोज मती है, समता रस के पान में ॥" चित्तदमन, इन्द्रियनिग्रह बादि को अन्य संतों की भाँति यशोविजयी ने भी अपने काव्य का विषय बनाया है । 'जब लग मन आवे नहि ठाम | तब लग कष्ट क्रिया सवि निष्फल ज्यो गगने चित्राम" यशोविजय जी के पास ज्ञान की शुष्कता ही नहीं श्री अपितु मक्ति की स्निग्धता मी वर्तमान थी । उनकी प्रेम दिवानी आत्मा पिउ की रट लगाए बैठी है— 'विरह दीवानी फिरू ढूंढती, पीउ पीउ करके . पोकारेंगे ।" और जब उनकी आत्मा को मात्र पुकारने से संतोष नहीं मिलता और दर्शन की उत्कण्ठा बढ़ जाती है तब कवि की वाणी मुखर हो उठती है
" चेतन अब मोहि दर्शन दीजे । तुम दर्शनें शिवसुख पामीजे, तुम कारन तप संयम किरिया, तुम दर्शन विनु सव या झूठी, बन्तर चित्त न भीजे ॥"
तुम दर्शने भव छीजे । कहो कहाँ लो कीजे ।
यशोविजय जी की विभिन्न कवियों के अध्ययन से यह प्रतीति हुए विना नहीं रहती कि उनकी वाणी प्रभावोत्पादक है । भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न है, शैली सरसता से पूर्ण और छन्द शास्त्रीय राग-रागनियों में निबद्ध |
ज्ञानविमलसूरि १ : (सं० १६९४ (जन्म) - १७८२ (मृत्यु) )
इनका जन्म वीसा ओसवालवंश में संवत् १६६४ में ( भिन्नमाल में ) हुला था । २ इनके पिता का नाम वासव श्री तथा माता का नाम कनकावती था । तपगच्छीय विनयविमल के शिष्य वीरविमय से इन्होंने सं० १७०२ में दीक्षा ली । इनका दीक्षापूर्व का नाम 'नाथुमल्ल' था । दीक्षा नाम 'नयविमल' रखा गया । उन्होंने काव्य, तर्क, न्याय तथा अन्य शास्त्रादि में निपुणता प्राप्त की। नय- विमल की सम्पूर्ण योग्यता देव श्री विजयत्रममूरि ने उन्हें सं० १७२७ में सादडी (मारवाड) के निकटवर्ती ग्राम 'धागे राव' में पंडितद (पंन्यास पद) प्रदान किया । सं० १७३९ में इनके गुरु काल धर्मं को प्राप्त हुए । तदन्तर संवत् १७४७ में ये पाटण आये । यहां श्री महिमासागरसूरि ने मंडेसर (संडेर) ग्राम में सं० १७४८ में इन्हें आचार्य पद से विभूषित किया । आचार्यपद प्राप्त नयविमल अव ज्ञानविमलसूरि वन गये ।
'श्री ज्ञानविमलमूरि चरित्र राम की एक प्राचीन प्रति मिली है, जिससे कवि के विषय में अच्छी जानकारी मिलती है । प्रकाशित, प्राचीन स्तवनादि रत्नसंग्रह, नाग १, पृ० १७ ।
जैन गुर्जर कविओ, नाग २, पृ० ३०८ |
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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इनके मुख्य विहार के स्थान सूरत, खंभात, राजनगर, पाटण, राधनपुर, सादडी, धागेराव, सिरोही, पालीताणा, जुनागढ आदि रहे। श्री महोपाध्याय विनयविजय जी, यशोविजय जी तथा पं० ऋद्धिविमलगणि आदि ये प्रायः साथ-साथ विहार करते थे । श्रीमद् देवचंद जी से भी इनका घनिष्ट संबंध रहा है।
इन्होंने सिद्धाचल की यात्रा अनेक वार की थी। अनेक साधुओं को दीक्षा दी, उन्हें वाचक पद और पंडित पद से विभूषित भी किया। खंभात में ८६ वर्ष की आयु पूरी कर संवत् १७८२ आश्विन वदी ४, गुरुवार की प्रातः अनशन पूर्वक ये स्वर्गधाम सिधारे।
आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती आदि सभी भाषाओं में सिद्ध-हस्त थे। इन्होंने इन सभी भाषाओं में सफल काव्य रचना की है ।
___ इन्होंने गुजराती में विपुल साहित्य की सर्जना की है। 'प्राचीन स्तवन रत्न संग्रह' की भूमिका में इतके कुल ग्रन्यों की संख्या २५ से भी अधिक बताई है। तदुपरात. स्तवन. स्तुति. पदादि की संख्या तो काफी बढ़ गई है। ३६०० स्तवन इनके रचे वताये गये है और उनके रचित ग्रन्थों का श्लोक प्रमाण पत्रास हजार है ।१
गुजराती में इनके अनेक रासादि ग्रन्थ भी मिलते हैं। हिन्दी में भी इनकी मुक्तक रचनायें स्तवन, गीत, सज्झाय पद आदि विपुल संख्या में प्राप्त हैं । इनकी प्राप्त हिन्दी रचनायें 'प्राचीन स्तवन रत्न संग्रह' भाग १, और में २ में संग्रहीत हैं। इनकी एक हिन्दी रचना 'कल्याण मन्दिर स्तोत्र गीत'२ भी है।
ज्ञानविमलसूरि की गद्य रचनाएँ भी प्राप्त हैं। सूरि जी एक सफल कवि, भक्त, अध्यात्म तत्व विवेचक, उपदेशक तथा सिद्धहस्त गद्यकार थे।
सूरिजी के गीत, स्तवन, स्तुतियाँ तथा पद विभिन्न राग-रागनियों में तथा देगियों में निबद्ध संगीतशास्त्र के अनुकूल हैं। कवि ने संगीत का भी गहरा अभ्यास किया था 'कल्याणमंदिर स्तोत्र गौत' से एक उदाहरण द्रष्टव्य हैकुशल सदन जिन, मावि भवभय हरन,
अशरन शरन जिन, सुजन वरनत है। भव जल राशि भरन, पतित जन तात तरन,
प्रवहन अनुकरन, चरन सरोज है ॥" कवि की पद रचना वड़ी ही सरल और प्रभावशाली है। उनके एक प्रसिद्ध पद को कुछ पंक्तियाँ देखिये१. श्री ज्ञानविनलसूरिश्वर रचित प्राचीन स्तवन रत्न संग्रह भाग १ । २. 'श्री ज्ञानविनलमूरिश्वर रचित प्राचीन स्तवन संग्रह', भाग १ ।
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परिचय खंड
"वालमीयारे विरथा जनम गमाया, पर संगत कर दर विसी मटका, परसे प्रेम लगाया। परसे जाया पर रंग भाया, परकु भोग लगाया। १"
दिव्य अनुभूति की इस मावामिव्यक्ति में सहज कवित्व के दर्शन होते हैं । भाषा सरल, सादी एवं प्रभावशाली है। भापा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । कवि की विभिन्न मुक्तक कृतियाँ मापा, भाव और शैली की दृष्टि से बड़ी समृद्ध एवं हिन्दी की उत्तम कृतियो में स्थान पाने योग्य है । धर्मवर्धन : ( सं० १७०० (जन्म) - १७८३ ८४ (मृत्यु) )
आप खरतरगच्छीय जिन भद्रसूरि शाखा में हुए विजयहर्प के शिष्य थे । २ इन्होंने १६ वर्ष की उम्र में प्रथम कृति "श्रेणिक चौपई" की रचना की । ३ इस आधार पर इनका जन्म सम्वत् १७०० सिद्ध है । इनका मूल नाम धर्मसी अथवा धर्मसिंह था । १३ वर्ष की अल्पायु में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनरत्नसूरि से दीक्षा ग्रहण कर अपने विद्यागुरु विजयहर्प से इन्होंने अनेक शास्त्रों एवं मापाओं में विद्वता प्राप्त की । इन्हें उपाध्याय और महोपाध्याय पद से भी विभूपित किया गया । सम्वत १७८३-८४ में कवि ने यशस्वी एवं दीर्घजीवन पावन कर अपनी इहलीला संवरण की। ४
कवि की विभिन्न राजस्थानी तथा गुजराती कृतियां गुजरात में रचित प्राप्त है। ५ इन कृतियों से उनके गुजरात के विभिन्न नगरों-ग्रामों में विहार कर धर्मप्रचार करने की वात पुष्ट होती है । अतः कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध सिद्ध ही है।
कवि धर्मवर्धन के शिप्य विद्वान तथा कवि थे। इनकी शिष्य-परम्परा १६वीं शती तक चलती रही। आप राजमान्य कवि थे। ये अनेक विषयों के ज्ञाता, वहु भाषाविद्, एवं समर्थ विद्वान थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी इनकी उच्चकोटि की रचनाएं मिलती हैं। कवि की अधिकांश हिन्दी कृतियां ( राजस्थानी, डिंगल, पिंगल कृतियां) प्रकाशित को चुकी है। ६ डिंगल-गीत अपनी
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३३३ २ र्जन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ. ३३९ ३ "श्रोणिक चौपाई", जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १३१२ ४ राजस्थानी, वर्ष २, अंक २, भाद्रपद १६६३, श्री नाहटाजी का लेख ५ शनिश्चिर विक्रम चोपई, जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३४१ ६ धर्मवर्धन प्रथावली संपादक श्री अगरचन्द नाहटा, सा० रा०रि० इ०, बीकानेर ।
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जैन गुर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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वर्णन शैली एवं अपनी स्वतंत्र छन्द रचना के कारण भारतीय साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त किये हुए हैं । इस विशाल डिंगल गीत - सम्पति के विकास में मात्र चारणों का ही योगदान रहा हो। ऐसी वात नहीं, अन्य वर्गों के कवियों ने भी पूरा योगदान दिया है । कवि धर्मवर्द्धन के भी डिंगल गीत अपने अर्थ- गांभीर्य के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । इन गीतों में विषय वैविध्य है । मात्र युद्धवर्णन या विरदगान तक ही सीमित नहीं, इनमें देवस्तुति, प्रकृतिवर्णन निर्वेद एवं राष्ट्रीयता आदि का भी सम्यक निदर्शन हुआ है । ऐसे गीतों में प्रासादिकता कवि की अपनी विशेषता है ।
कवि की छोटी-बड़ी कुछ मिलाकर २६५ रचनाएं ' धर्मवर्धन ग्रंथावली” में में प्रकाशित है' । इनकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां भी गुजरात तथा राजस्थान के अनेक शास्त्रभण्डारों में सुरक्षित हैं ।
कवि द्वारा प्रणीत धर्म वावनी, कुण्डलिया वावनी, छप्पय बावनी आदि वावनियां नीति, उपदेश एवं सरल संतोचित असाम्प्रदायिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से विशेष महत्व की हैं। धर्म वावनी से एक उदाहरण द्रष्टव्य है
" चाहत अनेक चित्त, पाले नहीं पूरी प्रीत;
केते ही करें है मीत, सोदों जैसे हाट को । छोरि जगदीस देव, सारै ओर ही की सेवु ;
एक ठोर ना रहे, ज्यु मोगल - कपाट को ॥ २७ ॥” कवि को "चौवीसी" रचना में उनके हृदय की अगाध भक्ति धारा फूट पड़ी | प्रभु की वन्दना करने से समस्त पाप दूर हो जाते हैं"नाभि नारद को नन्दन नमतां,
दूरित दशा सव दूरी दली री ।
प्रभु गुण गान पान अमृत को,
भगति सुसाकर मांहि मिली री । "
उसी तरह "चोवीस जिन सवैया", "वारहमासा"; "ओपदेशिक पद" आदि की भाव सम्पत्ति भी विशेष महत्त्व रखती है । इस रचनाओं में भक्ति, वैराग्य, अभिव्यक्ति है । कवि के औपदेशिक निवद्ध संगीत शास्त्र के अनुकूल है ।
उपदेश, विरहानुभूति आदि की सरल पद एवं मुक्तक स्तवन अनेक राग रागिनियों में राग गौड़ी में रचित एक पद दृष्टव्य है ।
"कलु कही जात नहीं गति मन की ।
पल पल होत नइ नइ परणति, घटना संध्या धन की ॥
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अगम अथम मग तु अवगाहत, पवन के धज प्रवहण की। विधि विधि वंध कितेही बांधत, ज्यु खलता खल जनकी ।। कबहु विकसत फुनि कमलावत, उपमा है उपवन की। कहै धर्मसिंह इन्हें वश कीन्हे, तिसना नहीं तन धन की ।। ३ ।।"
लोकगीतों के क्षेत्र में भी कवि ने स्तुत्य कार्य किया है। कवि की कुछ आधार भूत घूनों की आद्यपंक्तियां लोकप्रिय और प्रचलित हो गई हैं। कवि ने चित्रकाव्य और समस्यपूर्ति काव्य भी लिखे हैं। इनमें प्रसंगीद्भावना एवं कल्पनाशक्ति के दर्शन होते हैं । कवि धर्मवर्धन ने तत्कालीन प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों अपनाया है। कवि का व्यक्तित्व सद्धर्म-प्रचारक, भक्त, सरल उपदेशक, समर्थ विद्वान एव सरस कवि के रूप में अपनी कृतियों में प्रतिविम्बित है । आनंदवर्धन : ( सं० १७०२ - १७१२)
ये खरतरगच्छीय महिमांसागर के शिप्य थे। इनके जन्म, दीक्षा, विहारादि की जानकारी उपलब्ध नहीं। श्री मो० द० देसाई ने इनकी रचित दो कृतियों का उल्लेख किया है । १ प्रथम रचना "अर्हन्नक रास" ( सं० १७०२ ) गुजराती में तथा दूसरी रचना "चौवीसी" (सं० १७१२ ) गुजराती मिश्रित दिन्ही की रचना है । श्री नाहटा की ने इनकी राजस्थानी कृतियों में इनके अतिरिक्त "अन्तरीक स्तवन", "विमलगिरी स्तवन", "कल्याण मदिर ध्र पद” और “भक्तामर सवैया" आदि का उल्लेख किया है । २ इससे सिद्ध हैं कवि काराजस्थान तथा गुजरात से घनिष्ट संबंध रहा है । उनकी हिन्दी-रास्थानी रचनाओं पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव देखते हुए संभव हैं इनका जन्म गुजरात में ही कहीं हुआ हो। इनका गुजराती में रचा हुआ "अंतरिक्ष पार्श्वनाथ स्तवन" प्राप्त है। ३
विभिन्न राग-रागिनियों में निवंद्ध इनकी "चौवीसी" ४ एक बड़ी ही सुन्दर रचना है। भक्ति, वैराग्य और उपदेश विषयक कवि की यह रचना काव्य कला की दृष्टि से भी उत्तम बन पड़ी है। एक उदाहरण देखिये
"मेरे जीव में लागी आस की, तो पलक न छोडु पास रे। ज्यु जानो त्यु राखीये, तेरे चरन का हं दास रे ॥१॥
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १२४ तथा पृ० १४६ २ परम्परा, रालस्थानी साहित्य का मध्यकाल, श्रीनाहटाजी, पृ० १०६-७ ३ श्री जैन गूर्जर साहित्य रत्नो भाग १, पृ०७२, सूरत से प्रकाशित । ४ वही, कुछ स्तवन प्रकाशित, पृ० ६६-७३
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जैन गुर्जर कवियो की हिन्दी कविता
क्युं कहो कोई लोक दिवाने, मेरे दिले एक तार रे ;
मेरी अंतरगति तु ही जानत, ओर न जानन हार रे ॥ २ ॥ " वैराग्य और उपदेश की संत-वाणी भी उतना ही प्रभावोत्पादक हो उठी है, -
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" योवन पाहुना जात न लागत वार ।
चंचल योवन थिर नही रे, ज्यान्यो नेमि जिना ॥ १ ॥
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४ ॥"
दुनिया रंग पतंगसी रे, बादल से सजना ; ए संसार असारा ही रे, जागत को सुपना ॥ चौवीसी की रचना सं० १७१२ में हुई । १ इसकी एक प्रति नाहटा संग्रह से प्राप्त है । कवि की अन्य रचनाओं में 'अन्तरीक स्तवन', 'कल्याण मन्दिर ध्रुपद, 'भक्ताभर मवैया' आदि विशेष उल्लेखनीय है । प्रायः इन कृतियों का विषय प्रभुभक्ति है । 'भक्ताभर सवैया' से एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"सँ अकुले कुल मच्छ जहां गरजे दरिया अति भीम मयी है, ओ वडवानल जा जुलमान जलै जल में जल पान क्यो है । लोल उतंराकलोलनि कै पर वरि जिहाज उच्छरि दयो है, ऐसे तुफान में तौहि जपै तजि में सुख सौ शिवधान लयो है ||४०|l"
इनकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । कवि प्रतिभा सम्पन जान पड़ते हैं ।
केशरकुशल : ( सं० १७०६ आसपास )
ये तपगच्छीय वीरकुशल के शिष्य सौभाग्य कुशल के शिष्य थे । २ इनका विशेष इतिवृत ज्ञात नही है
सांतलपुर में रचित इनकी एक २६ पद्य की ऐतिहासिक गुजराती कृति 'जगडु प्रबंध चौपाई" प्राप्त है, जिसकी रचना सम्वत् १७०६ श्रावण मास में हुई थी । ३
हिन्दी में रचित इनकी एक कृति 'वीसी' ४ प्राप्त है । यह तीर्थकरों की स्तुति में रची गई है । स्तवन सरल एवं भाववाही है । एक उदाहरण अवलोकनीय है"सीमंधर जिनराज सुहंकर, लागा तुमसु नेहावो । सलूने सांइ दिल सो दरसन देह ॥
१ जैन गॅर्ज र कवियो, भाग २, पृ० १४६
२ 'जगड प्रवन्ध चौपाई' जन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० १७४ ३ 'जगडु प्रवन्ध चोपई, जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १७४ ४ जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खंड २. पृ०
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परिचय-चंड
तुम हीं हमारे मनके मोहन, प्यारे परम सनेहा वो । १ सलूने” कृति सुन्दर एवं सरस है । भाषा गुजराती प्रभावित खड़ी बोली है । हेमसागर : (सं० १७०६ आसपास)
आप अंचलगच्छीय कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे ।१ इनका विशेष इतिवृत्त अज्ञात है ।
इनकी एक हिन्दी कृति 'छंदमालिका' सूरत के समीप हंसपुर (गुजरात) में रचित प्राप्त है । २ इसमें अत्यधिक गुजराती प्रयोगों को देखते हुए कवि के गुजराती होने का अनुमान किया जा सकता है ।
'छन्दमालिका' एक छन्द ग्रंथ है, जिसमें १६४ पद्य हैं । इसकी रचना संवत् १७०६ भाद्रपद वदी ९ को हुई थी । ३ कई भण्डारों में इसकी प्रतियां सुरक्षित हैं । भाषा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण पर्याप्त होगा
"अलस लख्यौ काहुन परें, सव विधि करन प्रवीन । हेम सुमति वंदित चरन, घट घट अंतर लीन ॥ १ ॥ "
वृद्धि विजयजी : (सं० १७१२ - ३०
)
तीन वृद्धि विजय हो गये हैं । प्रथम तपगच्छीय विजयराजसूरि की परंपरा में रत्नविजय और सत्यविजय के शिष्य थे । दूसरे तपगच्छ के विजयप्रभसूरि के समय में श्री लाभविजय के शिष्य थे और तीसरे १६ वीं शताब्दी में 'चित्रसेन पद्मावती रास' के कर्ता वृद्धिविजय हो गये हैं । विवक्षित वृद्धिविजय प्रथम रत्न विजय और सत्य विजय के शिष्य हैं । इनके जन्म, मृत्यु, विहारादि के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । इनकी ४ गुजराती रचनाएँ प्राप्त हैं ॥४
चौवीसी गुजराती मिश्रित हिन्दी की रचना है। इसकी रचना संवत् १७३० में औरंगावाद में हुई ।५ इसमें कवि की भक्ति एवं वैराग्य दशा की सरल अभिव्यक्ति है । कवि किस व्यग्रता एवं आतुरता से प्रभु को दर्शन देने की विनती करता है"शांति जिणेसर साहिदो रे, वसियो मन मां आई, वीसायो नवि वीसरई रे, जो वरिसां सो थाई ॥ १ ॥
१. छंदमालिका, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० है । २. वही ।
३. छंदमालिका, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० ε ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२०० तथा भाग २, पृ० १५०-५२ । ५. जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, पृ० १४७, सूरत से प्रकाशित |
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
रात दिवस सूतां जागतां रे, दिलथी दूर न होय; अंतर जामी आपणो रे, तिलक समो तिहुं लोय ॥२॥” लोक-गीतों की विभिन्न देशियों में ढले चौवीसी के स्तवन अतीव सुन्दर एवं
मर्मस्पर्शी है ।
जिनहर्ष : (सं० १७१३ - १७३८)
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जिनहर्ष खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्रसूरि की परम्परा में मुनि शांतिहर्ष के शिष्य थे ।१ कवि जिनह के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती । अपनी 'जसवावनी', 'दोहामातृका बावनी', बारहमासाद्वय तथा दोहों में इन्होंने अपना नाम 'जसा' या 'जसराज' दिया है । संभवतः यह उनका गृहस्थावस्था का नाम हो । इनकी सर्वप्रथम रचना 'चन्दन मलयागिरि चोपाई' (सम्वत् १७०४ में रचित ) प्राप्त होती है जिसके आधार पर अगरचन्द नाहटा ने 'जिनहर्षग्रंथावली' में सम्वत् १६८५ के लगभग इनके जन्म लेने का अनुमान किया है और दीक्षा सं० १६७५ से १६६६ में लेने का अनुमान लगाया है। नाहटा जी इन्हें मारवाड़ में जन्मा मानते है |२ और नाथूराम प्रेमी इन्हें पाटण का निवासी बताते है | ३ रचनाओं के स्थानों पर ध्यान देने से इतना तो अवश्य सिद्ध होता है कि जिनहर्ष जी, चाहे कही भी पैदा हुए हों, गुजरात व राजस्थान दोनों से अत्यधिक सम्बद्ध थे ।
सभी कृतियों के पीछे कवि का प्रमुख लक्ष्य जन कल्याण प्रतीत होता है । इसीलिए इन्होंने अपनी रचनाएँ लोकभाषा में की है । इन कृतियों की एक लम्बी सूची 'जिनहर्ष ग्रंथावली' में दी गई है । यहाँ कुछ प्रमुख रचनाओं के आधार पर कवि के साहित्यिक व्यक्तित्व को देखने का प्रयास किया जा रहा है ।
" नन्द वहोत्तरी -- विरोचन मेहता वार्ता " - संवत् १७१४ में रचित इस रचना में राजानन्द तथा मंत्री विरोचन की रसप्रद कथा दी गई है । इस दूहाबन्ध वार्ता में कुल ७२ दोहे है, भाषा राजस्थानी हिन्दी है
"सूरवीर आरण अटल, अनियण कंद निकंद ।
राजत हैं राजा तहां, नन्दराई आनन्द ||२|| "
संवत् १७३८ फाल्गुन वदी ७ गुरुवार के दिन रचित 'जसराज बावनी' कवि की दूसरी प्रमुख रचना है ।४ इस ग्रंथ में ५७ सवैए है । इस कृति का आरम्भ ही निर्गुणियों की भाँति किया है
१. जैन गुर्जर कविओ, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११७० ।
२. जिन ग्रंथावली, पृ० २६ ॥
३. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ७१ ।
४. राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भा० ४, पृ० ८५ ।
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परिचय खंड
"ऊकार अपार जात आधार, सर्व नर नारी संसार जपे है। बावन अक्षर माहिं धुरक्षर, ज्योति प्रद्योतन कोरि तपे है । सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेन्द्र थपे है। ऐसो महातस है ऊकार को, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥१॥"
"क्षीर सुसीम मुंडावत हैं केइ लम्ब जटा सिर केइ रहावं" के द्वारा कवि वाह्याडम्बर का विरोध करता है और अन्त है में 'ग्यान बिना शिप पंथ न पावै" कह कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करता है।
____संगीतात्मक गेय पदों में रचित कवि की तीसरी प्रसिद्ध रचना है 'चौवीसी इसमें तीर्थकरों की स्तुति गाई गई है। इन स्तुतियों के माध्यम से कवि के भक्त हृदय के दर्शन हुए बिना नहीं रहते--
"साहिब मोरा हो अब तो माहिर करो, आरति मेरी दूरि करो। खाना जाद गुलाम जाणि कै. मुझ ऊपरि हित प्रीति धरी ॥ आदि "
सम्वत् १७१३ में रचित 'उपदेश छत्तीसी' १ में ३६ पद्य संकलित हैं । अन्य भक्ति काव्यों की भांति ही इसमें भी संसार की माया मोह आदि को छोड़ कर भगवान ( जितेन्द्र ) के चरणकमलों में समर्पित होने का उपदेश दिया गया है । सम्वत् १७३० आपाढ़ शुक्ल ६ को रचित 'दोहा मातृका बावनी' में जीवनोपयोगी सद्धर्म की अभिव्यक्ति हुई है
_ 'मन तें ममता दूरि कर समता घर चित मांहि । रमता राम पिछाण के, शिवपुर लहै क्यु नाहिं ।।'
कवि जिनहर्प ने नेमिनाथ और राजमती की प्रसिद्ध कथा लेकर दो बारहमासों की रचना की है--(१) नेमिवारहमासा, १ तथा (२) नेमि-राजमती बारहमास सवैया । २ इन बाररमासों में प्रेम और विरह का बड़ा ही मार्मिकं चित्रण हुआ है । इनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में 'सिद्धचक्र स्तदन', 'पार्श्वनाथ नीसाणी, 'ऋषिदता चौपई', तथा 'मंगल गीत' महत्वपूर्ण हैं। इनमें क्रमशः सिद्धचक्र की भक्ति, पार्श्वनाथ की स्तुति, महाराजा श्रीणिक का चरित्र, मुनि आदि की स्तुतियां तथा अरिहंतो, सिद्धों आदि की स्तुतियां निवद्ध हैं ।
कवि की भाषा प्रसादगुण सम्पन्न, परिमार्जित एवं सुललित है। माधुर्य और रसात्मकता इनकी भाषा के विशेश गुण हैं। कवि द्वारा प्रयुक्त ब्रज भाषा तो और भी १ वही, पृ० १०१ २ जन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २. पृ० ११७१ ३ जिनदर्ष ग्रथावली प० २००-२२२
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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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मधुर और सजीव है। साहित्यकता कहीं स्खलित नहीं होने पाई है। 'रास' संजक काव्यों के साथ कवि ने अनेक काव्यात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। देवीविजय : (सं० १७१३ - १७६० )
ये तपगच्छीय विजयसिंहरि के प्रशिष्य थे। इनके गुरु का नाम उदयविजय था। १ इनकी गुजराती कृति 'विजयदेवसूरिनिर्वाण' एक ऐतिहासिक कृति है, जो सं० १७१३ खंभात में रची गई थी। श्री देसाई ने इनकी एक और गुजराती कृति 'चम्पक रास' का भी उल्लेख किया है, जिसकी रचना सम्बत् १७३४ श्रावण सुदी १३ को घाणेराव में हुई । २ इनके विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं।
हिन्दी में रचित इनकी एक कृति 'भक्तामर स्तोत्र रागमाला काव्य' प्राप्त है, जो विभिन्न रागों में सं० १७३० पौस सुदी १३ के दिन विनिर्मित हुई । ३ इसमें ४४ पद्य है । अव यह भीमसी माणेक, वम्बई द्वारा प्रकाशित भी है ।
प्रारम्भ मे कवि जिन वंदना करता हुआ कहता है"भक्त अमर गन प्रणत मुगट मणि,
उल्लसत प्रभाएं न ताकू दूति देत हे। भ० १ पाप तिमिर हरे सकृत संचय करें,
जिनपद जूगवर, नीके प्रनमेतु है । भ० २" भट्टारक शुभचन्द (द्वितीय) : (सं० १७२१ - १७४५ )
'शुभचन्द्र' नाम के पांच भट्ठारक हुए है । इनमें से '४ शुभचन्द्र' का उल्लेख "मट्टारक संप्रदाय" मे हुआ है । ४ इनमें से विजयकीर्ति के शिष्य भ० शुभचन्द्र का परिचय दिया जा चुका है। विवक्षित पांचवें शुभचन्द्र, भ० रत्नकीर्ति के प्रशिष्य एवं भ० अभयचन्द्र के शिष्य थे, जिनका 'भटा० अभयचन्द्र' के पश्चात् मम्बत् १७२१ की ज्येष्ठ सुदी प्रतिपदा को पोबन्दर में एक विशेष उत्सव का आयोजन कर, भट्ठारक गादी पर अभिषेक किया गया । ५ १ श्री विजयसिंह सूरीसर केरा, सीस अनोपम कहीइजी,
उदयविजय उवझाय शिरोमणि, बुद्धि सुरगुरु लहीइजी । -विजयदेवसूरि, जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २, पृ० १३२४ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३४६ ३ वही, भाग ३, खंड २, पृ० १३२४ ४ मट्ठारक सम्प्रदाय, पृ० ३०६ : 'राजस्थान के जेन सत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व' ड० कस्तुरचन्द कासलीवान पृ० १६१
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परिचय-खंड पूर्ण युवा "शुभचन्द्र" ने भट्टारक बनते ही समाज के अनानान्धकार को दूर करने का तथा गुजरात एवं राजस्थान के विभिन्न स्थलों में विहार-भ्रमण कर अपने प्रवचनों द्वारा जन साधारण के नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास का अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित किया। उन्हें इस क्षेत्र में काफी सफलता मिली। इन्होंने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में विशेष रुचि दिखाई ।
'शुभचंद्र' का जन्म गुजरात के 'जलसेन' नगर में हुआ था ।१ यह स्थान उस समय जैन-समाज का प्रमुख केन्द्र था। इनके पिता का नाम 'हीरा' तथा माता का नाम 'माणकदे' था। इनके बचपन का नाम 'नवलराम' था। 'बालक नवलराम' व्युत्पन्न-मति थे-अतः अल्पायु में ही उन्होंने व्याकरण, न्याय, पुराण, छन्दशास्त्र अष्टसहस्त्री तथा चारों वेदों में निपुणता प्राप्त कर ली थी ।२ भट्टारक अभयचंद्र से ये अत्यधिक प्रभावित हुए और आजन्म साधु-जीवन स्वीकार कर लिया।
__श्रीपाल, विद्यासागर, जयसागर आदि इनके प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने शुभचंद्र की प्रशंसा में अनेक गीत लिखे हैं। श्रीपाल रचित ऐसे अनेक गीत व पद प्राप्त है, जो साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्व रखते हैं ।
भट्टारक शुभचंद्र संवत् १७४५ तक भट्टारक पद पर बने रहे । तदनन्तर 'रत्नचंद्र' को इस भट्टारक पद पर अभिषिक्त किया गया। इन २४-२५ वर्षों में वहत संभव है, इन्होंने अच्छी कृतियां की हो, पर अभी तक इनकी कोई बड़ी कृति देखने में नहीं आई। इनका पद-साहित्य उपलब्ध हैं, जिनमें इनकी साहित्याभिरुचि का-प्रमाण मिल जाता है।
इन पदों में कवि के हृदय की मार्मिक भावाभिव्यक्ति हुई है। भ० शुभचंद्र भी 'नेमिराजुल' के प्रसंग से अत्यधिक प्रभावित रहे-यही कारण है कि राजुल की विरहानुभूति एवं मिलन की उत्कंठा हृदय का बांध तोड़कर इन शब्दों में व्यक्त हुई है--
"कौन सखी सुध ल्यावे श्याम की। मधुरी धुनी मुखचंद विराजित, राजमति गुण गावे ॥श्याम।।१।। अंग विभूषण मनीमय मेरे, मनोहर माननी पावे। करो कछू तंत मंत मेरी सजनी, मोहि प्राणनाथ मीलावे ॥श्याम।।२॥"
१. 'राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व' डॉ० कस्तूरचंद्र कासलीवाल,
पृ० १६२। २. व्याकर्ण तर्क वितर्क अनोपम, पुराण पिंगल भेद । अप्टसहस्त्री आदि ग्रंथ अनेक जुच्हों विद जाणो वेद रे ।।
--श्रीपाल रचित एक गीत ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
मट्टारक शुभचंद्र के पदों में भक्तिरस प्रधान है। भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से पदों में साहित्यिकता है। देवेन्द्रकीति शिष्य : (सं० १७२२ आसपास)
आप भट्टारक सकलकीर्ति की परम्परा में पद्मनंदि के शिप्य देवेन्द्रकीति के कोई गिष्य थे ।१ इनका विशेष जीवनवृत्त ज्ञात नहीं । भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का सूरत तरफ की भट्टारक गद्दियों से विशेष संबंध रहा ।२ संवत् १७२२ में रचित इनका एक-एक गुजराती ग्रंथ 'प्रद्युम्न प्रबंध' भी प्राप्त है ।३
'आदित्यवार कथा' इनकी हिन्दी कृति है संवत् १८६८ की लिखित आगरा भण्डार की प्रति में ६० पद्य हैं। यह कृति साधारणतः अच्छी हैं । उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
"रवि व्रत तेज प्रताप गइ लच्छि फिरि आइ, कृपा करी धरनेन्द्र और पद्मावति आइ। जहां गये तहां रिद्धि सिद्धि सब ठौर जुपाइ,
मिल कुटम्ब परिवार भले सज्जन मनभाइ ॥" लक्ष्मीवल्लभ : (१८ वीं शताब्दी का दूसरा पाद)
ये खरतरगच्छीय शाखा के उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य थे।४ 'अमरकुमार चरित्र रास' में लक्ष्मीकीर्ति के लिए 'वाणारसी लखमी-किरति गणी' लिखा गया है ।५ इससे सप्ट है कि वे बनारस के निवासी थे। विद्वत्ता के क्षेत्र में इनकी ख्याति अपूर्व रही होगी। इन्ही गुरु के चरणों में लक्ष्मीवल्लभ ने अपनी शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की थी। इन्हें राजकवि का भी विरुद प्राप्त था ।६ इनका जन्म नाम हेमराज था।
इनके जन्म, दीक्षा काल, तथा स्वर्गवास आदि की जानकारी प्राप्त नही होती। गुजराती की इनकी विपुल साहित्य सर्जना तथा इनकी हिन्दी रचनाओं पर गुजराती का अधिक प्रभाव देखते हुए इन्हें जैन-गूर्जर कवियों में निस्संदेह स्थान दिया जा सकता है। उनका हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती और संस्कृत चारों भाषाओं पर १. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १०६६-६७ । २. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, राजस्थान के जैन संत, पृ० ११३ । ३. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १०६६ । ४. रत्तहास चौपई, जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २, पृ० १२४६ । ५. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २, पृ० १२४७ । ६. जैन गूर्जर माहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २६८ ।
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परिचय खट
समानाधिकार था । संस्कृत में विनिर्मित उनके साहित्य से सिद्ध है कि वे उच्चकोटि के विद्वान तथा कवि थे। 'कल्पसूत्र' और 'उत्तराध्ययन' की कृतियां लिखने वाला कोई साधारण विद्वान नहीं हो सकता।
कवि की हिन्दी रचनाओं पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है। भाषा परिमार्जित संस्कृत-तत्सम शब्द बहुला है। गुजराती-राजस्थानी में इनके कई रान स्तवनादि प्राप्त हैं । इनकी हिन्दी रचनाएं निम्न हैं(१) चौवीसी, २५ पद,
(७) नेमिराजुल बारहमासा (२) महावीर गौतम स्वामी छन्द ६६ पद्य (6) नवतत्व चौपाई (३) दोहा बावनी
(8) उपदेश वतीनी (४) काव्यज्ञान-पद्यानुवाद
(१०) चेतन वत्तीनी (५) सर्वया वावनी
(११) देशान्तरी छन्द, तथा (६) भावना विलास
(१२) अध्यात्म फाग । इनके अतिरिक्त राजवावनी सं० १७६८, जिनस्तवन २४ सवैया तथा कुछ फुटकर पद्यादि प्राप्त है जिसका उल्लेख 'हिन्दी साहित्य' (द्वितीय ग्बंड ) में हुआ है। १ श्री नाहटाजी ने भी इस कविकी अनेक कृतियां गिनाई हैं। यया 'अभ्यंकर श्रीमती चौपई,' 'रत्नहास चौपई,' 'अमरकुमार रास,' 'विक्रमपंचदंड चौपड़,' 'रात्रिभोजन चौपई,' 'कवित्व वावनी,' 'छप्पय बावनी,' 'भरतबाहुबली मिडाल छन्द, कुण्डलिया, 'श्री जिनकुशलसूरिछंद,' 'बीकानेर चोवीसठा-स्तवन,' शतक व्यठबा और स्तवनादि फुटकर कृतिर्या आदि।
श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई ने इस कवि की छोटी बड़ी कुल मिलाकर करीब २० कृतियों का उल्लेख किया है । २
हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी और संस्कृत की इस विपुल माहित्य सर्जना को देखते हुए लगता है कवि असाधारण प्रतिभा सम्पन्न रहा होगा। यहां इनको प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया दिया है ।
'चौवीसी' में चौवीस तीर्थकरों की भक्ति से सम्बन्धित स्तवन संगृहीत हैं । कुल पद्य संख्या २५ है। इसकी दो प्रतियां अभय जैन पुस्तकालय, बीकानेर में हैं। राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४ में भी इन दोनों प्रतियों का उल्लेख है। ३ दोनों प्रतियों में चार-चार पन्ने हैं। पदों की रचना विभिन्न १ हिन्दी साहित्य, द्वितीय खंड, संपा० धीरेन्द्र वर्मा पृ० ४८६ . २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड, २ पृ० १२४६-५५ ३ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ५, पृ० २२-२३
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जैन -गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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राग-रागिनियों में की गई है। यह कवि का एक उत्तम मुक्तक काव्य है। एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं
"किते दिन प्रभु समरन विनु ए। परनिंदा मैं परी रसना विषया रस मन मोए ॥१॥ मच्छर माया पंक मे अपने, दुरलभ ज्ञानसु गोए । काल अनादि असंख्य निरंतर मोह नींद में सोए ॥२॥"
इस कृति में भक्त हृदय की निश्छल भाव-धारा के साथ उपदेश भी बड़े ही सुन्दर, सरल, हृदयग्राही एवं मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से कवि की यह कृति उत्तम काव्य कृतियों में स्थान पाने योग्य है।
___'महावीर गौतम स्वामी छंद' में कुल मिलाकर ६६ पद्य हैं। सभी पद्य भगवान् महावीर और उनके प्रमुख गणधर गौतम की भक्ति से सम्बन्धित हैं । इसकी रचना संवत् १७४१ से पूर्व ही हो गई थी। इनकी दो हस्तलिखित प्रतियां अभय जैन पुस्तकालय, बीकानेर में सुरक्षित हैं।
'दोहा वावनी' की दो प्रतियां अभय जैन पुस्तकालय, बीकानेर में विद्यमान हैं। पहली प्रति हीरानन्द मुंनि की संवत् १७४१ पौस सुदी १ की लिखी हुई है तथा दूसरी भुवनविगालगणि के शिष्य. फहरचन्द की संवत् १८२१ आश्विन वदी ७ की लिखी हुई है । १ इसमें कुल ५८ दोहे संगृहीत हैं । उदाहरणार्थ एक दोहा देखिए
"दोहा वावनी करी, आतम परहित काज । पढत गुणत वाचत लिखत, नर होवत कविराज ।।५८।।"
'कालज्ञान प्रबंध' (पद्यानुवाद) कवि का वैद्यक ग्रंथ है। इसकी रचना सं० १७४१ भाद्रापद शुक्ल १५ गुरुवार को हुई । २ इसमें कुल १७८ पद्य हैं ।
'सवैया वावनी' में ५८ सवैया हैं। इसकी रचना संवत् १७३८ मागसर सुदी ६ को हुई थी। ३
____ 'भावना विलास' में जैनधर्म की बारह भावनाओं का बड़ा ही आकर्पक वर्णन हुआ है। इसमें ५२ पद्य हैं। सवैया छन्द का प्रयोग हुआ है। रचना अत्यधिक रोचक बन पड़ी है। इसकी रचना संवत् १७२७ पौष वदी १० को हई थी।४ १ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४, पृ० ८६ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २, पृ० १२५१-५२ . ३ वही, पृ० १२४६-५० ४ वही, भाग ३, खंड २, पृ० १२४८ (अ) (ब) राजयस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज. भाग ४, पृ० १५२
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- परिचय खंड
इसकी एक प्रति अभय पुस्तकालय, बीकानेर में है । इसे मुनि हर्पसमुद्र ने नापासर में सं० १७४१ आसो वदी १४ को लिखा था। १ इसके प्रारम्भिक सर्वये की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं"प्रणमि चरणयुग पास जिनराज जू के,
विधिन के चूरण हैं पूरण है आस के। दिढ दिल माझि ध्यान धरि श्रुत देवता को,
सेवैत संपूरत है मनोरथ दास के ॥" 'नवतत्व चौपाईं का निर्माण सं० १७४७ वैशाख वदी १३ गुरुवार को हीसार में हुआ था । २ इसमें ८२ पद्य हैं । इसमें सरल उपदेश और भक्ति कवि का मुख्य विषय है । इसकी दो प्रतियों का उल्लेख श्री मोहनलाल दलिचंद देसाई ने किया है, वे क्रमश: सं० १७६० और १८०६ की लिखी हुई हैं ३ इसकी एक प्रति अभय जैन पुस्तकालय में सुरक्षित है।
'उपदेश वत्तीसी' में ३२ पद्य है । ४ भक्ति, अध्यात्म और उपदेश से संबंधित यह रचना है । कवि ने आत्मा को संबोधित कर उसे संसार के माया-मोह के विकृत पथ से विलग रहने का उपदेश दिया है। एक उदाहरण देखिए
"आतम राम सयाणे तूं झूठे भरम भुलाना किसके माई किसके भाई, किसके लोक लुगाई जी, तून किसी का को नहीं तेरा, आपो आप सहाई ॥१॥"
'चेतन बत्तीसी' भी ३२ पद्य है। इसका निर्माण संवत् १७३६ में हुआ था। ५ इसमें संसार की माया, मृगतृष्णा एवं भ्रमणा में भटकी चेतनात्मा को साव' धान करने का प्रयास किया गया है । एक पद्य दृष्टव्य है
"चेतन चेत रे अवसर मत चूके. सीख सुपेतूसाची! - . - गाफिल हुई जो दाव गमायो. तो करसि बाजी सहु काची ॥१॥"
देशान्तरी छन्द' - कृति भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित है। इसमें पद्य ३६ है । यह रचना 'त्रिभंगी' छंद में रचित है। इसकी एक प्रति पाटण ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है। १ वही, पृ० १५२ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२५२ ३ वही, पृ० १२५३ ४ वही, पृ० १२५० ५. चतन वत्तीसी, जन गूर्जर कविओ, माग ३, खंड २, पृ० १२५०
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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
१.५१
'अध्यात्मक फाग' काव्य की रचना सं० १७२५ के आसपास हुई । १ इसकी एक पन्ने की हस्तलिखित प्रति बड़ौदा के जैन ज्ञान मन्दिर के प्रवर्तक श्री कान्ति विजयजी महाराज के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । यह लघु कृति महाराजा मयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला, अन्य ३ 'प्राचीन फागु संग्रह ' प्रकाशित है । इसमें कुल १३ पद्य हैं |२
यह एक सुन्दर रूपक काव्य है । जब शरीर रूपी वृन्दावन -कुन्ज में ज्ञान - बसंत प्रगट होता है तब वुद्धि रूपी गोपी के साथ पंच गोपों का (इन्द्रियों) मिलन होता है । सुमति रावा के साथ आतम हरि होली खेलते हैं ! प्रसंग बड़ा ही रमणीय है । देखिए -
"आतम हरि होरी खेलिये हो, अहो मेरे ललनां सुमति राधाजू के संगि
सुम सुरतरु की मंजरी हौ, लंई मनु राजा राम,
अब कंउ फाग अति प्रेम कउ हो, सफल कोजे मलि स्याम | आतम ० २
कवि पर वेदान्त और योग की असर भी दिखाई देती है
वजी सुरत की वांसुरी हो, उठे अनाहत नाद,
तीन लोक मोहन भए हो, मिट गए दंद विपाद || आतम० ७”
-
लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय की रचनाएँ सं० १७१४ से १७४७ तक की रचित प्राप्त है । अतः उनके साहित्य का निर्माणकाल अठारहवीं शती का दूसरा पाद ही माना जा मकता है । निःसंदेह लक्ष्मीवल्लभ इस शती के उत्तम कवियों में एक है ।
श्री न्याय सागरजी : (सं० १७२८ - १७६७)
ये तपगच्छ की साषगर शाखा में हुए थे । मारवाड़ के मिन्नाल ( मरुधर ) गांव में ओमवाल जाति के शाह मोटा और रूपा के यहाँ इनका जन्म संवत् १७२८ श्रावण शुक्ल ८ को हुआ था । ३ इनका नाम नेमिदास था । श्री उत्तम सागर मुनि के पास दीक्षा ली थी केशरयाजी तीर्थ में दिगम्बर नरेन्द्रकीर्ति के साथ वाद-विवाद में विजय प्राप्त की । संवत् १७६७ में अहमदावाद की लुहार की पोल में इनका स्वर्गवास हुआ |४ इनकी गुरु परंपरा इस प्रकार बताई गई है- धर्मसागर, विमलसागर, पद्मसागर, उत्तमसागर, न्यायसागर 1५
1
१. देखिए - प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, पृ० ४३ ।
२. प्रकाशित, प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० मोगीलाल सांडेसरा, पृ० २१७-१८ । ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ५४२ ।
४. जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य संचय ५. जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ५४२
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परिचय संट
इन्होंने दो चौवीसियों की रचना की है। मापा बड़ी ही सरल एवं सादी है। विभिन्न राग एवं देगियों में इनके रचे स्तवन भी मिलते हैं। इनका विहार गुजरात में अधिक रहा। इनकी प्राप्त ६ रचनाएं भी मरुच, सूरत और रानेर आदि स्थानों में रची गई है।
___ इनकी चौवीसी१ और वीसीर के अधिकांश स्तवन हिन्दी में रचे हैं । इन स्तवनों में कवि का भक्त हृदय अंकित हो उठा है।
"साहिब कब मिले ससनेही, प्यारा हो, साहिब काया कामिनि जीउसे न्यारा, ऐसा करत विचारा हो । सा० १ सुन सांइ जब आन मिलावे, नव हम मोहनगारा हो । सा०२ में तो तुमारी खिजमतगारी, झूठ नहिं जे लारा हो । सा० ३"
भक्त के मन-मन्दिर में प्रभु का वास है, और किसी के लिए स्थान नहीं। प्रभु के मुख-पंकज पर कवि का मन-भ्रमर मुग्ध हो उठा है
"मो मन भितर तुहि विराजे और न आवे दाय; तुझ मुख-पंकज मोहियो, मन ममर रहियो लोभाय ।
सनेही साहिब मेरा वे।" ए भक्त-हृदय का दैन्य और गुणानुराग अपनी सरल एवं संगीतात्मक शैली में मुखर हो उठा है। कवि संगीत का तो गहरा अभ्यासी लगता है। इन्होंने 'महावीर राग माला' की रचना छत्तीस रागों में की है। चौवीसी के स्तवन बड़े ही सरल, सरस एवं भाववाही बन पड़े हैं। अभयकुशल : (सं० १७३० आसपास)
__ ये खरतरगच्छ की कीर्तिरत्नसूरि शाखा के ललितकीर्ति के शिष्य पुण्यहर्प के शिष्य थे ।३ इनकी एक गुजराती कृति का उल्लेख श्री मो० द० देसाई ने किया है, जिसकी रचना महाजन नगर में संवत् १७३० में हुई थी।४ इनके संबंध में विशेष जानकारी नहीं मिलती। इनकी एक हिन्दी रचना 'विवाह पटल भाषा' प्राप्त है, जिसकी एक प्रति अभय ग्रन्थालय, बीकानेर में सुरक्षित है।
"विवाह पटल भाषा" कवि की ५६ पद्यों में रचित एक हिन्दी कृति है। १. प्रकाशित चोवीसी वीशी संग्रह, आणंदजी कल्यानजी, पृ० १४४-१७१ । २. वही, पृ० ७३८-७४८ । ३. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, भाग २, पृ० १२६५ । ४. वही।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है। भाषा-शैली के उदाहरण. के ..लिए एक पद्य द्रष्टव्य है- ... . ... . . . . . . . . . . .: 'विवाह पटल ग्रंथ छे मोटो, कहितां कवही नावे त्रोटो .:.
मूरख लोक समझावण सारु. ए अधिकार कीयो हितकार ॥५५॥ ... : मानमुनि : ( स० १७३१-१७३६) ... . आप नवल ऋषि के शिष्य थे। शेष इतिवृत्त अज्ञात है। ...:
इनकी रचित 'संयोगबत्तीसी', १ 'ज्ञानरस' २, 'सवैया मान बावनी' ३ आदि . कृतियाँ प्राप्त है । इनकी रचनाओं पर गुजराती का विशेष प्रभाव देखते हुए कवि । का गुजरात से दीर्घकालीन संबंध का अनुमान दृढ होता है। श्री मो० ८० देसाई ने भी इन्हें जन गूर्जर कवियों में स्थान दिया है। .. -:-.
'ज्ञानरस' की रचना सं० १७३६, वर्षाऋतु आनन्दमास में हुई थी। इस कृति में १२६ पद्य हैं । आध्यात्म और वैराग्य का सरल उपदेश कृति का लक्ष्य है । भाषाशैली की दृष्टि से एक उदाहरण प्रस्तुत है- ... ... ... .. .. - "अनंत तुह अनहद, ग्यान ध्यान मह गावें :
भात तांढी नह मान, प्रभु नात जात न पावें । . . नाद विद विणं नाम, रूप रंग विण रत्ता; . .
आदि अनंन्द नहीं ऐम ध्यान योगेसर धरता।" केशवदास : ( सं० १७३६ - १७४५ ) ...हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास. से ये जैन कवि. केशवदास भिन्न हैं । आप खरतरगच्छ की जिनभद्र शाखा में हुए लावण्यरत्न के शिष्य थे । ४ इनका विशेष
इतिवृत्त ज्ञात नहीं। . . . इनकी गुजराती कृति 'वीरमाण उदयमाण रास' को देखते हए तथा इनकी हिन्दी रचनाओं में गुजरात में प्रचलित देशज शब्दों के प्रयोग को देखकर कवि का गुजरात-निवासी होने का अनुमान किया जा सकता है। ... ... . . . . 'शीतकार के सवैया' तथा 'केशवदास बावनी' इनकी हिन्दी रचनाएं हैं। दोनों ही खेड़ा के भण्डार में सुरक्षित हैं। इनकी 'बावनी' अधिक लोकप्रिय एवं उत्तम १ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० २८२ : . २ वही, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२८० । ३ नांगरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६७, अङ्क ४ ४ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३३६ ।
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परिचय-वंड
रचना है । इसकी रचना सं० १७३६ श्रावण सुदी ५ मंगलवार को हुई थी। ? इसमें कुल ६० पद्य हैं । कवि ने वर्णमाला के बावन अक्षरों प्रभुगुण गान किया है । इसे कवि का सफल नीतिकाव्य कहा जा सकता है। भाषा शैली के उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियां देखिए---
'ध्यान में ग्यान में वेद पुराण में कीरति जाकी सर्व मन मावे; . केशवदास कुंदीजई दोलत भाव सौ साहिब के गुण गावै ।"
असाम्प्रदायिक भावों तथा प्रभावपूर्ण भाषा के कारण यह कविन सवैया मय रचना बड़ी सुन्दर बन पड़ी है। विनयविजय : (सं० १७३६ तक वर्तमान )
आप तपागच्छ के श्री हीरविजयसूरि की परम्परा में उपाध्याय श्री कीतिविजयजी के शिष्य थे । कीर्तिविजय जी वीरमगाम के रहने वाले थे।२ ।।
गुजरात निवासी जैन कवि विनयविजय यशोविजय के समकालीन थे। दोनों सहाध्यायी थे- काशी में साथ रहकर विद्याध्ययन किया था। ३ ये संस्कृत, हिन्दी और गुजराती के प्रसिद्ध ग्रंथकार और सुकवि थे। न्याय और साहित्य में इनकी समान गति थी। इनका एक 'नयकणिका' नामक दर्शन ग्रंथ अंग्रेजी टीका सहित छप चुका है । उपाध्याय यशोविजय तथा आनन्दधन के समकालीन साहित्यप्रेमी, आगम अभ्यासी, समर्थ विद्वान तथा प्रसिद्ध 'कल्पसूत्र सुर्वाधिका' के कर्ता रूप में विनयविजय ने संस्कृत तथा गुजराती में विपुल साहित्य की रचना की।
इस महोपाध्याय का जन्म सं० १६६० - ६५ के आसपास अनुमानित है । ४ और निधन सम्वत् १७३८ वताया है । ५ जन्म स्थान एवं प्रारम्भिक जीवन वृत्त के विशय में पूरी जानकारी का अभाव है। इनके पिता का नाम तेजपाल तथा माता का नाम राजश्री था। इनकी दीक्षा सं० १६८० के आसपास हुई थी।
इनका 'श्रीपाल रास' ६ अतिप्रसिद्ध, लोकप्रिय और अन्तिम ग्रंथ है, जिसे १ वही, पृ० ३५४ २ वही, पृ० ४ की पाद टिप्पणी ३ जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग मुनि चतुरविजय संपादित, प्रस्तावना, पाद टिप्पणी,
पृ० ६३ ४ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० ८३ ५ आनन्दघनां पदो, मोती गिर० कापडीया, आवृ० २, पृ० ७६ ६ (अ) राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ३, पृ० २१२ (ब) श्रीपाल रास, प्रका० भीमशी माणेक
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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उपा० श्री यशोविजय ने पूर्ण किया । तार्किक शिरोमणी, प्रखर विद्वान् यशोविजयजी 'श्रीपाल रास' को पूर्ण करते हुए उनकी प्रशस्ति में लिखते हैं
'सूरि हीर गुरुनी बहु कीर्ति; कीर्तिविजय ऊवझायाजी । शिष्य तारु श्री विनय विजयवर, नाचक सुगुण सोहायाजी ॥७॥ निद्या निनय निवेक निचक्षण, लक्षण लक्षित देहाजी । मोभागी गीतारथ सारथ, संगत सबर सनेहा जी ॥८॥
इसे 'नवपद महिमा रास' भी कहा गया है, क्योंकि इसमें नव पद-अहंतु सिद्ध, आवार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन नव पद के सेवन से श्रीपाल राजा कितनी बड़ी महानता को प्राप्त करता है, इसी का वर्णन है। विनयविजय जी विरचिन इम राम की आरंभिक पंक्तियां इस प्रकार हैं
दोहा : "कल्पवेलि कवियण तणी, सरसति करी सुपसाय, सिद्धचक्र गुण गावतां, पूर मनोरथ माय । १ - अलियविधन सवि उपशमे, जपतां जिन चोवीश,
नमतां निजगुरुन पयकमल, जगमां वघे जगीश । २" । भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी लगती है। इस प्रकार इन्होंने विविध भाषाओं में अनेक ग्रन्थों की रचना की है और प्राय: सभी उपलब्ध है। काणी मे रहने के कारण उन्होंने हिन्दी में भी समुचित योग्यता एवं भाषाधिकार प्राप्त कर लिया था। इनके हिन्दी पदों का संग्रह 'विनय-विलास'१ नाम से प्रकाशित हो गया है। इसमें कुल ३७ पद संगृहीत हैं। इन वैराग्य विषयक पदों में आत्मानुभव का सुमधुर स्त्रोत फूट पड़ा है।
विनय विजयजी ने काशी में रहकर अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था और ये विः सवत् १७३६ तक विद्यमान थे। विस्तृत जीवन चरित्र के लिए 'शांतसुधारम' भाग २ द्रष्टव्य है।
'विनयविलास' एक विशिष्ट आत्मानुभूति मम्पन्न विद्वान की यह कृति है। इनके प्रारम्भिक साम्प्रदायिक ग्रन्थों को देखने से इस बात की प्रतीति होती है कि कवि प्रारम्भ मे जैनमत की ओर प्रवृत्त हुए पर आगे चलकर अपनी 'भाषा' की कविता मे अन्तर्मुखी हो गये और इनका संकुचित दृष्टिकोण विस्तृत होकर समदर्शी और सर्वधर्म समन्वयकारी हो गया था।
१. प्रका० मज्झाय पद संग्रह में, भीमसी माणेक, बम्बई ।
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, परिचय-रयंट
- संतोचित वाणी में कवि जीव की मूढता का यथार्थदर्शन कराता हुआ कहता है
"मेरी मेरी करत वाउरे, फिरे जीउ अकुलाय । पलक एक में बहुरि न देखे, जल-बुद की न्याय ।।
प्यारे काहे कू ललचाय ॥ कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय । ज्ञान-कुसुम की सेज न पाई, रहे लघाय अघाय ॥
प्यारे काहे कू ललचाय ॥" सिद्धों और संतों की योग और साधना पद्धति का प्रभाव भी कवि पर स्पष्ट लक्षित होता है। परन्तु विनय विजयजी में भक्ति और वैराग्य का स्वर ऊँचा है । प्रभु का प्रेम पाने के लिए कवि जोगी बनना पसंद करता हे । निविपय की मुद्रा, मन की माला, ज्ञान-ध्यान की लाठी, प्रभुगुण की भभूत, गील-संतोप की कंथा, आदि धारण कर विषयों की धूणी जलाना चाहता है
"जोगी ऐसा होय फरु ।। परम पुरुष सूप्रीत करु, और से प्रीत हरु ॥१॥ निविपय की मुद्रा पहरु, माला फिराऊ प्रभुगुनकी ॥२॥ शील संतोष की कंथा पहरु, विषय जलाऊ घूणी।। पांचू चौर पैर की पकरूं, तो दिल में न होय चोरी हूणी ॥३॥"
विनयविजय जी ने उपाध्याय यशोविजय जी के माथ काशी में संस्कृत, न्याय तथा दर्शन के साथ संगीत का भी अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। उनका पद साहित्य विभिन्न राग-रागिनियों में निबद्ध है । कवि की दृष्टि बड़ी विशाल और अन्तर्मुखी रही है । विनयविजय जी की यह 'विनय विलास' कृति भापा, गैली और भाव की दृष्टि से एक उत्तम काव्य कृति है। श्रीमद् देवचन्द्र : ( सं० १७४६ - १८१२) ।
महान् अध्यात्मत तत्ववेता, योगी तथा जिन-प्रतिभा के अथाग प्रेमी श्रीमद् देवचन्द्र का जन्म वि० सं० १७४६ में बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम 'चंग' में हा था। १ लूणीया तुलसीदासजी की पत्नी धनवाई की कोख से इनका जन्म हुआ था। युगप्रधान जिनचंदमूरि की परम्परा के पं० दीपचन्द के ये शिप्य थे । २
१ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत पृ० ३३१ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४१७
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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इस महान् आध्यात्मिक एवं तत्वज्ञानी कवि के सम्बन्ध में कवियण का लिखा 'देवविलास रास' प्राप्त हुआ है जिससे कवि के विपय में पूरी जानकारी मिलती है ।१
उत्तमविजय जी कृत 'श्री जिनविजय निर्माण राम' तथा पद्मविजय जी कृत 'श्री उत्तमविजय निर्वाण रास' आदि गुजराती रास भी प्राप्त है जिनसे श्रीमद् देवचन्द्र जी से इतिवृत्त पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । २
___ इनका जन्म नाम देवचन्द था। १० वर्ष की आयु मे सम्वत् १७५६. में खरतरगच्छीय वाचक राजसागर जी से इन्हें दीक्षा दिलाई गई। दीक्षित नाम "राजविमल' रखा गया, पर यह नाम अधिक प्रसिद्ध मे नहीं आया।
इन्होंने वलोडा,गांव के रम्य वेणातट भूमि-ग्रह में सरस्वती की आराधना कर दीक्षा गुरु राजसागर से शास्त्राभ्यास आरम्भ किया। कुछ ही समय में ये व्युत्तन्न हो गये । पडावश्क सूत्र, नैपधादि, पंचकाव्य नाटक, ज्योतिप, कोष, कीमुदी, महाभाप्यादि व्याकरण ग्रंथ, पिंगल, स्वरोदय; तत्वार्थसूत्र, आवश्यक ब्रहवृत्ति, श्री हरिभद्रसरि, हेमचन्द्राचार्य और यगोविजय जी के ग्रंथ, छकर्मग्रंथ आदि अनेक ग्रंथों एवं शास्त्रों का अध्ययन किया ।, द्रव्यानुयोग में इनकी विशेष रुचि थी। १६ वर्ष की अल्पायु में ही इन्होने सर्वप्रथम 'जानार्णव' का राजस्थानी पद्यानुवाद 'ध्यान-चतुष्पदिकां' के नाम से किया। इसकी प्रशस्ति मे आपने लिग्वा है
"अध्यात्म श्रद्धा न धारी, जिहां बसे नरनारी जी । पर मिथ्या मत ना परिहारी, स्वपर विवेचन कारी जी ।। ६ ।। निजगुण चरचा तिहां थी करता, मन अनुभव में बरता जी। स्याद्वाद निज गुण अनुसरताँ, नित अधिको सुख धरता जी ॥१०॥"
यह ग्रेथ सं० १७६६ में मुलतान में पूर्ण हुआ। तदुपरांत सम्वन् १९६७ में बीकानेर आकर हिदन्दी गंथ 'द्रव्य प्रकाग' की रचना की। स० १७७६ मे भरोट में 'आगमसार' नामक जैन तत्त्व के महत्त्वपूर्ण गद्यग्रौंथ की रचना की। • सम्वत् १७७७ में इनका विहार गुजरात की ओर हुआ । सर्व प्रथम गुजरात में जैन धर्म का केन्द्र और समृद्धिशाली, पाटण नगरी मे इनका आगमन हुआ । तदनन्तर देवचंदजी सर्वत्र गुजरात में विचरण करते रहे अतः इनकी पिछली रचनाओं मे गुजराती की ही प्रधानता है। अब ये जीवनपर्यन्त गुजरात के विविध नगर अहमदाबाद, खंभात, मूरत, पालीताना, नवानगर, भावनगर, लींबडी, धांगध्रा आदि मे विहार करते रहे। ? जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ४७३ २ श्रीमद् देवचंद्र भाग १, अध्यात्म ज्ञान मण्डल, पादरा, पृ० ६
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परिचय-खंड
राजनगर के संघ ने उन्हें वाचक की पदवी दो । सम्वत् १८१२ में यहीं राजनगर में ६६ वर्ष की आयु में इनका स्वर्गमास हुआ ।
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इनकी समस्त रचनाओं का संग्रह 'श्रीमद् देवचन्द्र' नाम से तीन भागों में में अध्यात्म प्रसारक मंडल, पादरा की ओर से प्रकाशित हो गया है । प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में इनके अनेक ग्रंथ मिलते हैं। चौवीसी, वीसी स्नानपूजा आदि के स्तवन एवं आगमसारादि जैन समाज में काफी प्रचलित हैं ।
इनके पद भक्तिरस तथा वैराग्य भावना से मरे हुए हैं । इनकी चौवीसी तत्वज्ञान और भक्ति का अखण्ड प्रवाह वन कर आती है | इनकी समस्त रचनाओं में अध्यात्म समान रूप से प्रवहमान है ।
श्री मो० द० देसाई ने छोटे-बड़े कुछ करीब २० ग्रंथों का उल्लेख किया है । १ श्री मणीलाल मोहनलाल पादराकर ने इनकी उपलब्ध कृतियों की संख्या ५८ गिनाई है । २ इनकी हिन्दी कृतियों में 'द्रव्य प्रकाश' प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त भी 'साधु समस्या द्वादण दोधक', 'आत्महित शिक्षा' तथा कुछ पद प्राप्त हैं । यहां कवि की हिन्दी कृतियों का ही सामान्य परिचय दिया जा रहा ।
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'द्रव्य प्रकाश' इस ग्रंथ की रचना सं० १७६७ पौष वदी १३ को वीकान 'हुई । ३ यह ब्रजभाषा की रचना है । पट द्रव्य निरुपणार्थ सवैया दोहो में रचित यह रचना अध्यात्मरसिक मिटू मल भणसाली आदि के लिए विनिर्मित हुई। इसमें आत्मा-परमात्मा का स्वरूप तथा जीव का स्वरूप समझाता हुआ कवि छ द्रव्यों के स्वरूप की विस्तृत विवेचना करता है । द्रव्य गुण पर्याय, जीव पुद्गल कथन, अष्टकर्म विवरण, उसको निवारणा के उपाय, नवतत्व का स्वरूप, स्यादवाद स्वरूप आदि अनेक महत्व के प्रश्नों का आध्यात्मिक दृष्टि से तथा साथ ही व्यावहारिक दृष्टि से निरूपण हुआ । ब्रजभाषा के माधुर्य में गहन ज्ञान की सुवास भर कवि इसकी आरम्भिक पंक्तियां इन
ने अपनी आत्मसुवास सर्वत्र बिखेर दी है। प्रकार हैं
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१ जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ४७८-४९६ तथा भाग ३ खण्ड २, पृ० १४१७-२०
२ श्रीमद देवचद्रनी विस्तृत जीवन चरित्र तथा देव विलास, म० मो० पादराकर, पृ० ७८८१
३ 'द्रव्य प्रकाश', श्रीमद् देवचन्द भाग २, अध्यात्म प्रसारक मंडल, बम्बई
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जैन मुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
"अज अनादि अक्षय गुणी, नित्य चेतनावान् । प्रणमुपरमानन्द मय, शिवसरूप भगवान् ॥ १ ॥ जाके निरखत संते थिरतासु भाव धरै,
वरे निज मोक्ष पद हरे मव ताव को;" आदि । - कविता के लिए दुःसाध्य विषय से भी कवि की काव्य-प्रतिभा ने मैत्री साध ली है । देवचन्द्र जी की महत् प्रतिमा और महानता के दर्शन तब होते है जब कविजान चरम सीमा पर पहुंच कर भी अपनी लघुता तथा नम्रता बताता है । कवि का आत्मलाघव द्रष्टव्य है
"कीउ बाल मंदमति चित्त सो करे उकती, नम के प्रदेश सब गनि देवो कर से; तैसे में अलपबुद्धि महावृद्ध ग्रंथ मंड्यो, पंडित हसेंगे निज ज्ञान के गहर मौ ॥"
भाषा परिमार्जित ब्रजभाषा है । मुख्यतः 'सवैया इकतीसा" में संपूर्ण काव्य रचित है । यह राग अपनी मधुरता एवं गति के लिए प्रख्यात है। कहीं भी अवैविध्य दोष नहीं।
___अपूर्व अध्यात्मज्ञानी कवि ने इस कृति में अध्यात्म की विविध स्थितियों एवं विषयों का मूक्ष्म से सूक्ष्म वर्गीकरण कर एक मुसंबद्ध वैज्ञानिक पद्धति से तथा मानसशास्त्री की मूक्ष्म निरीक्षण वृत्ति से अध्यात्मज्ञान की उलझनों को सुलझाने का प्रयास किया है।
उपमा उत्प्रेक्षा तथा रूपकादि का प्रयोग स्वाभाविक एवं सुन्दर बन पड़ा है । इसकी प्रासादिकता एवं भाषा मधुर्य इसे उत्तम काव्यों में रख देता है ।
कवि अन्य हिन्दी रचनाओं में साधु समस्या द्वादस दोधक, आत्महित शिक्षा, तथा पदादि हैं।
- "साघु समस्या द्वादस दोधक' १ १२ दोहो की एक छोटी रचना है जिसमें 'मुनिवर चांरित लीन' रहने का सरल उपदेश दिया गया है। कवि का मानना है कि चक्रवर्ती से भी अधिक मुग्व अन्तर्मुखी हो आत्म तत्व का सच्चा ज्ञान और उसकी अनुभूति पाने में है।
आत्महित शिक्षा' एक छोटी रचना है। इसमें आत्मा की स्थिर कर अध्यात्म ज्ञान के अक्षय खजाने को पाने तथा संसारकी मोहदशा से चेतने का सरल उपदेश है।
१ प्रकाशित, पंच भावनादि मजझाय सार्थ, संमा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६८-६९
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परिचय खंड
इनका पद साहित्य भी समृद्ध कहा जा सकता है । प्राप्त पद 'श्रीमद् देवचंद्र' भाग २ में तथा श्री अगरचन्द नाहटा जी मम्पादित 'पंच भावनादि सजाय सार्थ' में संगृहीत है। इनके पद भक्तिरस तथा वैराग्यरस से आपूर्ण है। भक्ति, उपदेश और अपनी आत्मदशा का अद्भुत समन्वय कवि ने किया है। उपदेश देने की कवि की अपनी विशिष्ट शैली रही है। अभ्यासी और शिक्षक दोनों ही कवि एक साथ बनकर आया है । उपदेश की मरल शैली अवलोकनीय हैं-१
"मेरे प्रीउ क्यु न आप विचारी । कहस हो कहसे गुणधारक, क्या तुम लागत प्यारो । १ टेक नजि कुसंग कुलटा ममता की, मनी वयण हमारी जो कछु कहू इनमें तो, मोकू सूस तुम्हारो। २ नेरे."
श्रीमद् देवचन्द जी की अत्यंत लोकप्रिय कृति उनकी चौवीमी है । जैन स्तवन माहित्य में तीन चौवीसीयां अत्यन्त लोकप्रिय एवं कला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रही हैं- उनमें प्रथम आनन्दधन जी की दूसरी यशोविजय जी की तथा तीसरी देवचन्द जी की आती हैं। इनकी चौवीसी भक्ति की निर्झरिणी, काव्यत्व की पुरसरि तथा जैनत्व का निचोड़ बन कर आती है।
एक ओर कवि अपने प्रभु को कितना मीठा उपालंभ देता है तो दूसरी ओर तुरन्त विनम्र वन प्रभु की दया-याचना करता है। कवि का प्रभुप्रेम अनुपम है
"तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलुसुजभ लीजे । दास अवगुण भयो जाणी पोतातणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे ॥"
कवि प्रभु का सानिध्य पाने के लिए तरस रहा है। पर अमहाय है, कारण उसके पाम न तो पंख हैं और न अन्तःचक्षु,
होवत जो तनु पांग्वडी, आवत नाथ हजूर लाल रे। जो होती चित आंखडी, देखत नित्य प्रभु नूर लाल रे ॥"
मक्तिदशा के इन दिव्य उद्गारों मे भाषा सरल, माधुर्य एवं प्रमादगुण सम्पन्न है । पक, उपमादि की छटा देखते ही बनती है । सरल भाषा में दिव्यभावों की अभिव्यक्ति हुई है। श्रीमद् देवचन्द महत् जानी एवं रससिद्ध कवि है। 'द्रव्य प्रकाश में कवि का यही व्यक्तितत्व उभर उठा है। कवि ने ऊंचे' आत्मज्ञान की रचना पद लालित्य और माधुर्य से पूर्ण ब्रजभाषा मे की है । सस्कृत, प्राकृत, ब्रज, हिन्दी तया गुजराती आदि भाषाओं में उत्तम काव्यः कृतियां रचकर - देवचन्द जी ने भापा विकाश की दृष्टि से भी अपना महत् योग दिया है।
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३ पंव भावनादि सज्झाय मार्थ मं० अगरचन्द नाटहा, पृ० १.०, पद ३
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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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उदयरत्न- : (सं० १७४६ - १७६६ लेखनकाल)
१८वीं शताब्दी के ये जैन कवि खेड़ा ( गुजरात ) के रहने वाले थे।१ तपच्छ के विजयराजसूरि की परम्परा में श्री शिवरत्न के शिष्य थे । २ ये बड़े प्रसिद्ध कवि थे । उनका रचनाकाल संवत् १७४६ से १७६६ तक का अनुमानित है।३ श्रीमद् बुद्धिसागर जी के कहने के अनुसार भी ये खेड़ा के निवासी थे और मीयागाम में इनका स्वर्गवास हुआ था । ४ ।।
इन्होने स्थूलीभद्र के नवरस लिखे थे। बाद में आचार्य श्री से फटकार मिलने मे 'ब्रह्मचर्यनी नववार्ड' के काव्यों की रचना की। खेड़ा में तीन नदियों के बीच चार मास तक काडस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहे थे। अनेक भावसार आदि लोगों को जैनधर्म के रागी बनाये । संवत् १७८६ में इन्होंने शत्रुजय की यात्रा की थी। उदयरत्न एक वार सं० १७५० में संघ के साथ शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा को गये थे। वहां महाराज श्री ने दर्शन किये विना अन्नादि न ग्रहण करने का अभिप्राय व्यक्त किया। पुजारी ने मन्दिर खोलने से मना कर दिया। उस समय कहते है कवि ने "प्रभातिया" रचा, हार्दिक भाव से प्रभु की स्तुति की और एकद्रम बिजली के कडाके के साथ जिन-मन्दिर के द्वार खुल गये । संघ ने श्री शंखेश्वर पार्श्वनाय के दर्शन किये । इससे कवीश्वर की श्रद्धा और प्रभु के प्रभाव की प्रशंसा मर्वत्र होने लगी।
उदयरत्न को उपाध्याय की पदवी प्राप्त थी। इनकी सब कृतियां गुजराती भाषा में ही रची गई है। गुजराती भाषा में इन्होंने विपुल साहित्य की सर्जना की है। श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई ने अपने 'जैन गूर्जर कविओ' में करीब २० छोटेबड़े ग्रंथों का उल्लेख किया है। इनकी चौवीसी के स्तवन, सरल एवं सरस है । इसके अतिरिक्त मजन-प्रभातिए, श्लोक, स्तवन, स्तुति रास आदि की रचना भी की है । स्तवन और पद नितांत सुन्दर और भाववाही बन पड़े है। इनके सिद्धाचल जी के स्तवन अति लोकप्रिय है । इन्होंने अनेक पद हिन्दी में भी लिखे हैं, जिन पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव है।
___ काम, क्रोध, रागदि का नाश कर प्रभु के ध्यान में एक लय होने के बड़े ही माववाही उपदेग का एक उदाहरण दृष्टव्य है
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१ भजन संग्रह, धर्मामृत संपा० ५० बेचरदासजी, पृ० २४ २ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, माग १, वम्बई, पृ० १७२ ३ वही ४ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ४१४
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"शीतल शीतल नाथ सेवों, गर्व गाली रे - 1 भव दावानल भंजवाने, मेघ माली रे | शी० १ ara रुधी एक बुद्धि, आसन वाली रे । ध्यान एहनु मनमा धरो, लेई ताली रे ॥ शी० २ काम ने वाली, क्रोव ने टाली, रांग ने राली रे ।
11
उदय प्रभु ध्यान धरतो, नित दीवाली रे ॥ शी० ३
संगीतमयता, पद- लालित्य, अर्थ-सारस्य एवं सरल भाववोही शैली में चिरंतन उपदेश देना कवि की कला है ।
परिचय खंड
सौभाग्यविजयजी : ( रचनाकालं सं० १७५० आसपास )
श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई ने दो तपगच्छीय जैन साधु सौभाग्य विजय का उल्लेख किया है । एक साधुविजय जी के शिष्य जिन्होंने संवत् १७१३ के बाद जूनागढ़ में 'विजयदेवसूरि सज्झाय' की रचना की । १ दूसरे हीरविजयसूरि की परम्परा में लालविजय के शिष्य थे जिन्होंने “ सम्यकत्व ६७ बोल स्तवन" तथा 'तीर्थमाला स्तवन' ( संवत् १७५० ) की रचना की । २ इन दोनों से ये सौभाग्यविजय जी पृथक लगते हैं । इनकी गुरु परम्परा, जन्म तथा विहारादि का पता नहीं चला है । इन सोभाग्यविजय जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १ में दिया गया है । ३ इनकी रचित चोवीसी' से कुछ स्तवन भी इसमें संकलित हैं। चौवीसी की रचना बड़ी सुन्दर बन पड़ी है । भाषा पर गुजराती-मारवाड़ी का प्रभाव है । इसकी रचना संवत् १७५० के आसपास हुई है । उदाहरणार्थ एक प्रसंग अवलोकनीय है जिसमें राजुल की मिनोत्कंठा तथा विरहनिवेदन सूर की गोपियों की याद दिला देता है । कवि पार्श्व के रूप-सौन्दर्य का कितना - चित्ताकर्षक चित्र प्रस्तुत करता है
"छयल छवीली मोहन मूरति, तेज पुंज रॉजई रवि किरणो; वदनं कर्मलं सारद शणि सोमई, नाग लोण जैन चित्त हरणो । अजव आगि जिम अंगि विराजई, भाल तिलकं सिर मुकूट वणो ; कुसुम महाल मांहि जिनवर बइठे; धन धन सो निरखई नयणे । सूर-असुर-नर द्वारई बइठे भगति करई तुज जित लीणो ; सोग के प्रभु पास चितामणि सकल मन वंचित करणो ।।"
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १८०
२ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १३६७-६८
३ जैन गुर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २०६-२१०
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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पद लालित्य, भाषा सौन्दर्य, संगीतमयता एवं चित्रोपमता से युक्त कवि की यह रचना उत्तम काव्य कृतियों में स्थान पाने योग्य है। ऋपभसागर : ( रचनाकाल सं० १७५० आसपास)
___ तपगच्छ के पंडित ऋद्धिसागर के शिष्य ऋषभसागर के जन्म, दीक्षा, विहारादि तथा स्वर्गवास आदि का अभी कुछ भी पता नहीं लगा है। इनकी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई गई है-चारित्रसागर, कल्याणसागर, ऋद्धिसागर, ऋषभसागर ।१ इन्होंने गुजराती में विद्याविलास रास तथा गुणमंजरी वरदत्त चौपई (आगरा संवत् १७४८ ) की रचना की है ।२ इनकी संवत् १७५० के आसपास रचित चौवीसी भी मिलती है ।३ 'चौवीसी' के अधिकांश स्तवन हिन्दी में रचित हैं जिन पर गुजराती का प्रभाव विशेष है। भाषा शैली के उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
"त्रिशलानन्दन त्रिहुं जगवन्दन, आनन्दकारी ऐन । साचो सिधारथ सेवन्यो हो, निरखित निर्मल नैन ॥६॥ सकल सामग्री लइ इण परि, मिलज्यो, साचै भाव ।
ऋद्धिसागर शीस ऋषभ कहे, जो हुवै अविचल पदनो चान ॥७॥" चौवीसी की रचना बड़ी ही सरल भाषा में हुई है। विनयचंद्र : (सं० १७५१-५५ रचनाकाल )
. विनयचंद्र नाम के कई जैन कवि हो गये हैं। एक विनयचंद्र १४ वीं शताब्दी में तया दूसरे १६ वीं शताब्दी. में तथा तीसरे तपागच्छीय विजयसेनसूरि की परम्परा में मुनिचन्द्र के शिष्य विनयचंद्र हो गये हैं। १६ वीं शताब्दी में भी दो विनयचंद्र नामक जैन कवि हुए है, जिनमें एक श्रावक स्थानकवासी भी है। विवक्षित विनयचंद्र खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि की परम्परा में हुए है। युगप्रधान जिनचंद्रसूरि मुगलसम्राट अकबर प्रतिवोधक, महान् प्रसिद्ध और प्रभावक आचार्य हुए हैं। कवि ने स्वयं 'उत्तम कुमार चरित्र' में अपनी गुरु परम्परा दी है। उसके अनुसार उनकी गुरु परम्परा इस प्रकार है-युगप्रधान जिनचंद्रसूरि-सकलचन्द्रमणि, अष्टलक्षीकर्ता महोपाध्याय समय सुन्दर, मे विजय, हर्षकुशल, हर्षनिधान, ज्ञानतिलक, विनयचंद्र ।
कवि विनयचंद्र के जन्म के विषय में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं। इतना निश्चित है कि कवि ने गुजरात में रहकर हिंन्दी तथा गुजराती में मिश्रित राजस्थानी
१. जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३८० ।। २. वही। २. जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २१७-२२३ ।
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परिचय खंड
में रचनाएं की हैं। इनकी रचनाओं में प्रयुक्त राजस्थानी लोकगीतों की देशियों को देखते हुए श्री भवरलाल जी नाहटा ने यह धारणा की है कि कविवर का जन्म राजस्थान में ही कहीं हुआ होगा ।१ इनकी प्रथम रचना 'उत्तमकुमार चरित्र चौपाई' की रचना संवत् १७५२ में पाटण में हुई ।२
इनकी विभिन्न कृतियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कवि ने अपनी विद्वत गुरु परम्परा से साहित्य, जैनागम, अध्यात्म तथा श्रमण संस्कृति का बड़े मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया होगा। इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य देखते हए यह धारणा भी उतनी ही सत्य है कि कवि ने संस्कृत भाषा एवं काव्य ग्रंथों का भी पूर्णरूपेण अध्ययन किया था। इनके विहारादि की जानकारी के लिए भी इनकी कृतिया ही प्रमाण है। इनकी प्राप्त रचनाएं संवत् १७५२ से १७५५ तक की हैं । कुछ रचनाओं में संवतोल्लेख नहीं है। इनकी अधिकांश रचनाएँ गुजरात में ही रची गई हैं । पाटण और राजनगर (अहमदावाद) में रचित कृतियां विशेप है। ‘उत्तमकुमार चरित्र चौपाई', 'वाडी पार्श्वस्तवन' तथा 'नारंगपुर पार्श्व स्तवनादि' की रचना पाटण में हुई । विहरमान वीसी, स्थूलिभद्र वारहमासा, ११ अंग सज्झाय तथा चौवीसी की रचना राजनगर (अहमदावाद) में हुई।
कवि विनयचंद्र प्रतिभासम्पन्न एक समर्थ विद्वान तथा उच्च कोटि के कवि थे। उनकी अल्पकाल की रचनाओं से ही यह बात सिद्ध है और भी कई रचनाओं का निर्माण कवि ने किया होगा-इस ओर विशेष शोध की आवश्यकता अवश्य है । कवि की उपलब्ध रचनाओं में उपर्युक्त रचनाओं के फुटकर स्तवन, वारहमासे, सज्झाय, गीत आदि भी है। .
'उत्तमकुमार चरित्र चौपाई' कवि की यह प्रथम प्राप्त कृति है। इसमें कवि की विद्वता एवं कविस्व मुखर उठा है। जैन धर्म परायण और सुगील मदालसा के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन द्रष्टव्य है__"नारी मिग्गानयन, रंगरेखा, रस राती;
वदे सुकोमल वयण महा भर यौवन माती। . सारद वचन स्वरूपे, सकल सिणगारे सोहै,
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१. विनयचंद्र कृति कुसुमांजलि, भंवरलाल नाहटा, पृ० ५ । २. संवत सतरै बावन रे, श्री पाटण पुर मांहिं,
फागुण सुदि पांचम दिन रे, गुरुवारे उच्छाहि । -श्री उत्तमकुमार चरित्र चौपाई, विनयचंद्र कृति कुसुमांजलि, पृ० २०७ ।
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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
अपछर जेम अनूप मुलकि मानव मन मोहे |
कलोल केलि बहु विधि करें, भूरिगुणे पूरण भरी,
चन्द्र कहै जिणधरम विण कामिणी ते किया कामरी ।"
इस चरित्र कथा द्वारा कवि ने सदाचरण, मानवधर्म एवं पुरुषार्थ का उत्तम आदर्श व्aनित किया है । भाषा सहज, प्रसंगानुकूल एवं सरल है । भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । कवि की यह कृति बड़ी सरल एवं सरस काव्यकृति वन पड़ी है ।
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कवि की अन्य कृतियां भी विविध ढालों रचित भक्तिरस की बड़ी सरल काव्य-कृतियां हैं । फबती हुई उपमाएं, ललित शब्द योजना तथा सरल भावाभिव्यक्ति इनके आकर्षण हैं । कवि की मुक्तक गीतादि रचनाओं में भी मार्मिक उद्गार व्यक्त हुए हैं। कहीं सरल भक्ति, कहीं वक्रोक्तिपूर्ण उपालंभ तो कहीं विभिन्न रसों की भावधारा देखते ही बनती है । भाषा की प्रौढ़ता, पदलालित्य और लोक-संगीत का मावुर्य सहज ही मन को आकृष्ट कर लेता है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है
मांई' मेरे सांवरी सूरति सुं प्यार |
जाके नयन सुधारस भीने, देख्यां होत करार ॥ 'जासी प्रीति लगी है ऐसी, ज्यों चातक जलधार । दिल में नाम वसै तसु निसदिन, ज्युं हियरा मई हार ॥
हंसरत्न : ( रचनाकाल सं० १७५५ आसपास )
तपगच्छ के विजयराजसूरि की परम्परा में हंसरत्न हुए है ।१ ये उदयरत्न के . सहोदर भाई थे । इनके पिता का नाम वर्धमान था और माता का नाम मानवाई था । इनका दीक्षापूर्व का नाम हेमराज था । इनका स्वर्गवास मीयां गांव (गुजरात) में सं० १७६८ चैत्र शुक्ल १० को हुआ ।२ इनकी दो रचनाएँ प्राप्त है । 'चौवीसी' और 'गिक्षागत दोवका' । शिक्षाशत दोधका' में व्यावहारिकं जीवनोपयोगी उपदेशों से युक्त सौ से भी अधिक दोहों का संग्रह है । 'चौवीसी' के अधिकांश स्तवन हिन्दी में है जिन पर गुजराती का प्रभाव अत्यधिक है । 'चौवीसी' के स्तवन विभिन्न देशियों में निबद्ध सरल एवं सरस बन पड़े हैं । इसकी रचना सं० १७५५ माघ कृष्ण ३ मंगलवार को हुई |३
१. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४५० ।
२. जैन गुर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २३० ॥ ३. जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ५६१ |
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परिचय-चंड
भाषा-शैली की दृष्टि से एक उदाहरण द्रष्टव्य है"में गाया रे ईम जीन चौवीसे गाया । संवत मत्तर पंचावन वरसे, अधिक ऊमंग वढाया। माघ अस्तित तृतिया, कुजवासरे, उद्यम सिद्ध चढाया रे ।५ तप गण गगन विमान दिनकर, श्री राजविजयसूरि राया। शिष्य तेस तसु अन्यय गणिवर, ग्यानरन्न मन भाया रे १६ तस्य अनुचर मुनिहंस कहे ईम, आज अधिक सुख पाया । जीन गुण ज्ञान बोचे गावे, लाम अनन्त उपाया रे ॥॥"
कवि की भाषा बड़ी सरल एवं सादी है। भट्टारक रत्नचंद्र (द्वितीय) : (सं० १७५७ आसपास)
ये भ० अभयचन्द्र की परम्परा में हुए भ० शुभचंद्र के शिष्य थे। म० शुमचंद्र (सं० १७२१-४५) के पश्चात् इन्हें भट्टारक गद्दी पर अभिषिक्त किया गया ।१ इनका सम्बन्ध सूरत एवं पोरबन्दर की गद्दियों से विशेष रहा है। संवत् १७७६ की रचित इनकी एक चौवीसी प्राप्त है।
भ० रत्नचंद्र की चार कृतियों का उल्लेख डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल जी ने किया है ।२ रत्नचंद्र को इन रचनाओं में उनकी साहित्याभिरुचि एवं हिन्दी-प्रेम के दर्शन होते हैं। उपर्युक्त कृतियों के उपरांत इनके कुछ स्फुट गीत एवं पद भी उपलब्ध हैं।
प्रायः इनकी कृतियां तीर्थकरों की स्तुतिरूप में रची गई है। बावन-गजागीत' कवि को एक ऐतिहासिक कृति है, जिसमें संवत् १७५७ पौष सुदि २ मंगलवार के दिन पूर्ण हुई चूलगिरि की ससंघ यात्रा का वर्णन है। विद्यासागर : ( १८ वीं शती-द्वितीय चरण )
ये भट्टारक अमयचंद्र के शिष्य एवं भ० शुभचंद्र के गुरुभ्राता थे। इनका सम्बन्ध वलात्कारगण एवं सरस्वती गच्छ से था । इनके गुरु तथा गुरुभ्राता शुमचंद्र (द्वितीय) का सम्बन्ध गुजरात से विशेष रहा है, जिसका उल्लेख पिछले पृष्ठों में हो
चुका है। इनकी हिन्दी रचनाओं में गुजराती प्रयोग देखते हुए संभव है ये भी गुजरात ---. में दीर्घकाल. पर्यंत रहे हों। इनके विषय में विशेष जानकारी अनुपलब्ध है। .. १. राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल,
पृ० १६४ । २. वही, पृ० २०६।
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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल जी ने इनकी रचित रचनाओं का उल्लेख किया है ।१ इन कुतियों के उपरांत इनके रचे कुछ पदं भी उपलब्ध है, जो भाव, मापा एवं शैली की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। खेमचन्द्र : (सं० १७६१ आसपास)
__ये तपागच्छ की चन्द्रशाखा के मुक्तिचन्द्र जी के शिष्य थे ।२ नागरदेश में रचित इनकी एक कृति गुणमाला चौपई प्राप्त है। इसकी रचना संवत् १७६१ में हुई थी ।३ इस रचना में गुजराती शब्दों का प्रयोग देखते हुए कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा हो, यह संभव है। श्री कामताप्रसाद जैन ने भी इस बात को स्वीकार किया है।४ _ 'गुणमाला चोपई' की एक प्रति जैन-सिद्धान्त-भवन, आगरा में सुरक्षित है । इसमें गोरखपुर के राजा गजसिंह और गुणमाल की कथा वणित है । आर्य मर्यादा की उत्तम शिक्षा एवं पतिव्रत का आदर्श इस रचना में कवि ने दिखाया है। कथा सरस है और तत्कालीन समाज का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है। गुणमाला को उसकी माता आर्य मर्यादा की सीख देती हुई कहती है
"सीषावणि कुंवरी प्रत, दीय रंभा मात । वेटी तूं पर पुरुप सुं, मत करजे बात ॥१॥ भगति करे भरतार की, संग उत्तम रहजे ।
वड़ा रा म्हो बोले रणे, अति विनय वहजे ॥२॥" लावण्य विज गणि : (सं० १७३१ आसपास)
___पं० भानुविजय जी के शिष्य लावण्यविजय ने खंभात में चौबीसी की रचना की। इसकी एक प्रति श्री देवचंद लालभाई भंडार, सूरत से प्राप्त हुई है, जो अधूर्ग है। इनकी अन्य रचनाओं एवं जीवन सम्बन्धी जानकारी का अभी पता नहीं चला है। इम चौवीसी की रचना संवत् १७६१ में खंभात में हुई ।५।।
कवि के इन स्तवनों को देखने मे लगता है कि ये रचनाएँ उत्तम रचनाओ मे स्थान पाने योग्य हैं। कविता की दृष्टि से भी बड़े हो मनोहर, लयबद्ध, भाव-माधुर्य
१. राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० २०८ । २. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, कामताप्रसाद जैन, पृ० १६२ । ३. वही।
४. वही। ५. (अ) श्री जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २६० ।
(आ) जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४०६ ।
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परिचय बंड
एवं अपूर्व कल्पना से युक्त स्तवन हैं। कवि की हिन्दी भाषा पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव है । भाषा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण पर्याप्त होगा
"आदि जिनेसर साहिवा, जन मन पूरे आश लाल रे । करीय कृपा करुणा करो, मन मंदिर करो वास लाल रे ||आ० १ महिमावन्त महन्त छे, जाणी कीयो नेह लाल रे।
आविहन ते नित पालीई, चातक जिम मनि मेहनलाल रे |आ० २" जिन उदयसूरि : (सं० १७६२ आसपास)
ये खरतरगच्छ की वेगड शाग्वा में हुए गुणसमुद्रसूरि जिनमुन्दरसूरि के मिप्य थे। इनके बारे में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं। श्री मोहनलाज दलिचंद देमाई ने इनकी एक गुजराती कृति 'सुरसुन्दरी अमरकुमार रास'१ (सं० १७१६) तथा एक हिन्दी कृति '२४ जिन सवैया'२ (सं० १७६२) का परिचय दिया है। इस आधार पर इम कवि को जन-गूर्जर कवि माना है।
२४ जिन सवैया' कवि की हिन्दी कृति है। इसकी रचना संवत् १७६२ के बाद हुई थी। इसमें अन्तिम प्रशस्ति के साथ कुल २५ पद्य है। कृति २४ तीर्थकरों की स्तुति में रची गई है। इसकी एक प्रति जिनदत्त भण्डार बम्बई, पत्र एक से ७-१३, पोथी नं० १० में सुरक्षित है। इसकी एक और प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें-कवि ने रचना का हेतु बताते हुए लिखा है--
"पाप को ताप निवारन को हिम ध्यान उपावन को विरचीसी, पुण्यथ पावन को गृह श्री शुद्ध ग्यानं जनावन के परचीसी । ऋद्धि दिवाचन को हरि सीयह बुधि वधावन को गिरचीसी,
श्री जिनमुन्दरसूरि सूसीस कहै, नउदैसूरि मुजैन पचीसी ।२५॥" किसनदास : (सं० १७६७ आसपास )
ये लोकगच्छ गजरात के श्री संघराज जी महाराज के शिष्य थे।३ इनके जन्म, जाति और मूल निवास के संबंध में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। कच्छ के
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१. जैन गूर्जर कविओ, भाग २ पृ० १७६ । २. वही, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२१३ । . . ३. शिरि मंदराज लोंकागच्छ शिरताज आज ।
तिनकी कृपा ते कविताई पाई पावनी ।। किसनदास कृत उपदेश वावनी, संपा० डॉ० अम्बाशंकर नागर, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० १८२।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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राजकवि जीवराम अजरामर गौर ने इन्हें उत्तर भारत का श्री गौड़ ब्राह्मण माना है। वे बताते हैं किसनदास की माता अपने पति के निधन के बाद अपने पुत्र किसनदास और पुत्री रतनवाई को लेकर श्री संघराज जी महाराज के आश्रय में अहमदाबाद चली आई थीं । इन्हीं संवराज जी ने उन्हें पढ़ाया और कविता वनाना सिखाया । सिहोर निवासी श्री गोविन्द गिल्लामाई इन्हें गुजरात का ही मूल निवासी बताते हैं ।२
इनके रचना काल के सम्बन्ध में अन्तःसाक्ष्य के आधार पर केवल इतना ही पता चलता है कि ये १८ वीं शताब्दी में वर्तमान थे और संवत् १७६७ के आश्विन सुदी १० के दिन अपनी वहन रतनवाई, जो जैन दीक्षा प्राप्त थी, उसकी मृत्यु निमित्त 'उपदेश वावनी' (किशन वावनी), काव्य ग्रंथ की रचना की।३
___ भापा के आधार पर यह भी अनुमान किया गया है कि कवि का सम्बन्ध गुजरात के साथ-साथ राजस्थान से भी रहा हो। क्योंकि कृति में राजस्थान में प्रचलित देशज शब्दों, मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हुआ है।
कुछ भी हो कवि जैन धर्म में दीक्षित था और गुजरात से दीर्घकाल तक निकट के सम्बन्धित रहा है, यह तो सिद्ध ही है। जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी किसनदास के विचार असाम्प्रदायिक और उदार थे।
किसनदास जी इस 'उपदेश वावनी' के अतिरिक्त और कोई रचना देखने में नहीं आई।
___ 'उपदेश वावनी'४ किसी समय गुजरात में अत्यधिक लोकप्रिय रही है । अनेक तो इसे कंठस्य कर लेते थे। वहत संभव है, इसी लोकप्रियता के कारण ही 'उपदेश वावनी' इसका मूल नाम बदलकर 'किशन बावनी' हो गया । 'उपदेश बावनी' शांतरस की उत्तम रचना हैं । इसमें कुल मिलाकर ६२ कवित्त हैं ।
इस काव्य के प्रारम्भ के पांच कवित्त जैन सूत्र 'ओं नमः सिद्ध' के प्रत्येक वर्ण से प्रारम्भ कर रचे हैं। फिर वर्णमाला के क्रम से अर्थात् 'अ' से प्रारम्भ कर 'ज्ञ' तक के प्रत्येक अक्षर से एक एक कवित्त रचा है। इस प्रकार ५७ कवित्तों की क्रमिक
१. किशन वावनी, संपा० गोविन्द गिल्लामाई, पृ. २ (सन् १९१५) । २. वही, पृ०३। ३. उपदेश वागनी, पद्य संख्या ६२ । ४. (क) प्रकाशित-किशन वावनी, संपागोविन्द गिल्लामाई (सन् १९१५) । (ख) प्रकाशित-गुजरात के हिन्दी गौरव मंथ-डॉ० अम्बाशंकर नागर,
पृ० १५७-८२।
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परिचय खंड
रचना की है। कवि का प्रत्येक कवित्त सरल एवं प्रभावोत्पादक है। आत्मानुभूति, अर्थ सारस्य एवं पदलालित्य से सरावोर ये कवित्त बड़े ही सजीव एवं मर्मस्पर्शी हो उठे हैं। जीवन और जगद् की क्षणभंगुरता एवं अंजलि के जल की भांति आयु के छोजने की बात कवि ने किस प्रभावपूर्ण शब्दों में चित्रित की है--
"अंजली के जल ज्यों घटत पल-पल आयु, विष से विषम विविसाउन विप रस के, पंथ को मुकाम का वाप को न गाम यह, जैवो निज धाम तातें कीजे काम यश के, खान सुलतान उमराव राव रान आन, किसन अजान जान कोऊ न रही सके. सांझरु विहान चल्यो जात है जिहान तातै, .
हम हूँ निदान महिमान दिन दस के ॥२०॥" जैन मतावलंबी होते हुए भी कवि ने सर्वत्र उदार एवं असाम्प्रदायिक विचारों को व्यक्त किया है। मन वड़ा हरामी है। उसे वश में करना पहली शर्त है । पर तप-जपादि, मूड मुंडाने, बनवास लेने और वाह्याचारों से वश में नहीं होता । बस मन शुद्ध होना चाहिए और परमात्मा की एक मात्र आशा, उसी का भाव निरन्तर रमता रहना चाहिए। इसी भाव की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं
"मन में है आस तो किसन कहा वनवास ॥५७॥" "हर है मन चंग तो कठौती में गंग है ॥२६॥"
"छांड़ी ना विभूति तो विभूति कहा धारी है ॥६॥" शांतरस की इस कृति में ज्ञान, वैराग्य और उपदेश मुख्य विषय रहे हैं। भाषा सरल, मुहावरेदार, ब्रजभापा है। भाषा भावानुकूल तथा सहज और स्वाभाविक अलंकारों से युक्त है। इसकी रचना ३१ मात्रा के मनहरण कवित्त में हुई है। भापा और छन्द योजना पर भी कवि का अच्छा अधिकार स्पष्ट लक्षित है। कवि की इप्टांतमयी सरल शैली और भापा-कौशल सराहनीय है। संक्षेप में, यह कृति भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से सफल एवं उत्तम काव्य कृति है। हेमकवि : (सं० १९७६)
ये अंचलगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे ।१
१. जैन साहित्य संगोषक, खंड २, अंक १, पृ० २५ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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धर्ममूर्तिसूरि१ के शिप्य कल्याणसागरसूरि गुजरात के ही थे। इनका परिचय १७ वीं शती के कवियों के साथ दिया गया है।
कवि हेम और उनकी एक कृति "मदन युद्ध" का उल्लेख श्री पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने किया है। इसकी मूल प्रति उनके पास सुरक्षित है ।२ इसी कृति के आधार पर इसका संपादन भी किया है जो "आचार्य आनन्दशंकर ध्रु व स्मारक ग्रंथ" में प्रकाशित है ।३ इस कृति में गुजराती और राजस्थानी शब्द प्रयोगों को देखते हुए यह प्रतीत होता है कि कवि का संबंध राजस्थान और गुजरात दोनों से रहा है।
"मदन युद्ध" में मदन और रति का संवाद है। जैनाचार्य श्री कल्याणसागरमूरि को महाव्रतों में से न डिगाने के लिए रति कामदेव से प्रार्थना करती है। कामदेव रति की प्रार्थना अस्वीकार कर शस्त्रास्त्र से सज्जित हो संयमशील आचार्य को साधनाच्युत करने के लिए प्रयाण करता है। परन्तु तपस्वी आचार्य की सात्विक गुणप्रभा के आगे कामदेव इतवीर्य बनता है और अन्त में तपस्वी मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करना है । भाषा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण दृष्टव्य है
"ओर उपाव को कीजीइं ज्यों यह माने मोहें । चूप रहो अजहुँ लज्जा नहीं काहा कहूं पीय तोहें ।।८६n एक हारि को अधिक दुख कहें वेंन जु मेंन ।
दाधे उपर लोन को खरो लगावत ऐन ॥१०॥" इस काव्य की रचना सं० १७७६ में हुई थी।४ काव्य साधारण है । भाषा सरल एवं मरस है। कुशल : (सं १७८६-८९)
ये लोकागच्छीय (गुजरात) रामसिंह जी के शिष्य थे ।५ कवि कुशल ने सं० १७८६ में 'दगार्ण मद्र चोढालिया', सं० १७८९ चैत्र सुदि दूज को मेडता में "सनत
१. मदन युद्ध, अन्तिम कलश, आनन्दशंकर ध्र व स्मारक ग्रंथ, पृ० २५५ । २. आनन्दशकर व स्मारक ग्रंथ, मदन युद्ध, पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह,
पृ० २३८ । ३. आनन्दशंकर ध्रुव स्मारक ग्रंथ, गुजरात वर्नाक्युलर, सोसायटी, अहमदाबाद,
पृ० २४३ से २५५ में प्रकाशित । ४. आचार्य आनन्दशंकर ध्रुव स्मृति ग्रेथ, पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह का लेख,
पृ० २३८ । ५. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४५३ ।
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परिचय खंड
कुमार चौढालिया", "लघु साधु चन्दना" तथा "सीता आलोयणा" का प्रणयन किया था ?
__ "सीता आलोयणा" कवि की महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कृति है । इममें कवि ने ६३ पद्यों में सीता के बनवास समय में की गई आत्म-विचारणा बटा मूक्ष्म एवं सजीव वर्णन किया है। मापा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण पर्याप्त होगा
"सतीन सीता सारखी, रति न राम समान, जती न जम्बू सारखो, गती न मुगत सुधांन । सीताजी क रामजी, जव दीनो वनवान,
तब पूरव कृत करमकु, याद करे अरदास ।" भाषा गुजराती प्रभावित हिन्दी है। कनककुशल भट्टार्क : (सं० १७६४ आसपास)
कच्छ (गुजरात) के महाराजा राव श्री लखपतसिंह जी कवि-कोविदों के बड़े चाहक थे। उन्होंने ब्रजमापा काव्य रचना की शास्त्रीय शिक्षा दी जाने वाली पाठशाला की स्थापना की थी। इस पाठशाला के योग्य संचालक जैन साधु थी कनककुगल नियुक्त किये गये। ये राजस्थान के किशनगढ़ नगर के कच्छ प्रदेश में से आये थे ।२ कनककुगल संस्कृत और ब्रजभापा के कुगल साहित्यकार तथा प्रकांड विद्वान थे। महाराव ने उन्हें भट्टार्क की पदवी से विभूषित किया था। कच्छ के इतिहास से भी यह पता चलता हैं कि कनककुल जी से लखपतसिंह ने ब्रजभाषा साहित्य का अभ्यास किया था। इस पाठशाला में किसी भी देश का विद्यार्थी प्रशिक्षण प्राप्त करने आ सकता था और उसके खाने-पीने और आवास का प्रवन्ध महाराव द्वारा होता था ।३
इनके गुरु प्रतापकुशल थे। गुरु बड़े प्रतापी, चमत्कारी एवं वचन-सिद्ध प्राप्त थे । शाही दरबार में इनका काफी सम्मान था। कुंअरकुशल के 'कवि वंश वर्णन' पे पता चलता है कि कनककुशल अपने समय के सम्मानित व्यक्ति थे। कनककुशल और कुअरकुशल दोनों गुरु-शिष्य कच्छ के महाराउ लखपतसिंह जी के कृपापात्र तथा सम्मान प्राप्त आचार्य एवं कवि थे। इन्होंने ऐसे ग्रंथों की रचना की है जो उनके असाधारण व्यक्तित्व, कवित्व तया आचार्यत्व का प्रमाण प्रस्तुत करते है। इनकी
१. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४५३-५४ । २. कुअर चंद्रप्रकाशसिंह, भुज (कच्छ) की ब्रजभाषा पाठशाला, पृ० २१ । ३. कच्छकलाधर, भाग २, पृ० ४३४ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
ដី
कृतियों की कुछ प्रतियाँ जोधपुर, बीकानेर तथा पाटण के संग्रहों में सुरक्षित हैं । कनककुशल भट्टार्क के उपलव्ध ग्रंथ "लखपत मंजरी नाममाला", "सुन्दर शृङ्गार की रसदीपिका", "महाराओ श्री गोहडजीनो जस", "लखपति यश सिन्धु" आदि है।
इनकी 'लखपत मंजरी नाममाला' तथा 'लखपति यशसिन्धु' कृतियां विशेष महत्व की हैं । ये कृतियां महाराव लखपतसिंह की प्रशंसा में रची गई हैं । भापा-शैली की दृष्टि से एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"अचल विध्य से अनुत्र किधों ऐरावत डरत । विकट वेर वेताल कनक संघट जब कुरत । अरि गढ गंजन अतुल सदल शृङ्खला वल तोरत । ऐसे प्रचण्ड सिंधुर अकल, महाराज जिन मान अति ।
पठए दिल्लीस लखपति को, कहे जगत धनि कच्छपति ।।" कुअरकुशल भट्टार्क : (सं० १७९४-१८२१)
गुजरात के कच्छ प्रदेश में ब्रजभापा-साहित्य की परम्परा का सूत्रपात करने वाले, हेमविमलसूरि संतानीय और प्रतापी गुरुवर्य प्रतापकुशल के पट्टधर कनककुशल भट्टार्क के ये प्रधान शिष्य थे ।१ ये महाराव लग्बपति और उनके पुत्र गौड दोनों द्वारा सम्मानित थे। यही कारण है कि इनके ग्रन्यों में कुछ ग्रन्थ महाराव लखपति को तथा कुछ महाराव गोड को समर्पित हैं। इन्होंने अपने गुरु से भी अधिक ग्रथों की रचना की है। महापंडित कुअरकुशल का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार था। संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के साथ काव्य तथा संगीत में भी अधिकारी विद्वान थे।
___ कुंअरकुशल भट्टार्क की रचनाएँ संवत् १७६४ से १८२१ तक की प्राप्त हैं। इन कृतियों की अनेक हस्तलिखित प्रतियां हेमचंद्रनान भण्डार, पाटण; राजस्थान प्राच्य शोध प्रतिष्ठान, जोधपुर तथा अभय ग्रंथालय, बीकानेर में सुरक्षित हैं । कवि ऋोग, छन्द, अलंकार आदि के अच्छे विद्वान थे।
इनके उपलब्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं-"लखपत मंजरी नाममाला", "पारमति ( पारसात ) नाममाल"; "लखपत पिंगल" अथवा "कवि रहस्य", "गोड पिंगल", . "लग्बपति जससिंधु", "लखपति स्वर्ग प्राप्ति समय" (मरसिया), "महाराव लखपति दुवावैत", "मातानो छन्द" अथवा ईश्वरी छन्द", 'रागमाला' आदि। इनमें 'लखपति पिंगल' और 'लखपति जससिंधु' महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। इनमें रीतिकालीन आचार्य
१. मुनि कांतिसागर जी (उदयपुर) की पांडुलिपि-अज्ञात साहिन्य वैभव ।
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परिचय-खंड
परम्परा का चरमोत्कर्प है। इनका आचार्यत्व बड़ा व्यापक और प्रौढ दिखता है। आचार्य कुंअर कुशल का 'लखपति जससिन्यु' नामक ग्रंथ हिन्दी की रीति ग्रंथों की परम्परा में कई अमावों को दूर करता है। यह नथ 'काव्य प्रकाश को आदर्श मानकर निर्मित हुआ है।"१ इस ग्रंथ में महाराव लखपतसिंह के सभी पक्ष प्रकाश में आ गये हैं । महाराव के शौर्य एवं ऐश्वर्य वर्णन का एक प्रसंग ब्रष्टव्य है
"कछपति देशल राउ कै, तषत तेज बलवीर । महाराव लखपति मरद, कुंअर कोटि कोटीर ॥२॥ बड़े कोट किल्ला बड़े, वड़ी तोप विकराल ।
वड़ी रौस चिहु और वल, जवर बड़ी जंजाल ॥" गुणविलास : (सं. १७९७ आसपास)
ये सिद्धिवर्धन के शिष्य थे। इनका जन्म नाम गोकलचन्द था। इनके सन्बन्ध में विशेष इतिवृत्त प्राप्त नहीं। इनकी एक कृति 'चौवीसी संवत् १७६७ की जेसलमेर में रचित प्राप्त है ।२ गुजराती भाषा प्रभावित इनकी चौवीसी के स्तवन गुजरात में विशेष प्रचलित हैं। इस दृष्टि से का कवि का गुजरात में दीर्घकाल तक रहना सिद्ध हो जाता है।
विभिन्न राग-रागनियों में रचित 'चौवीसी' भक्ति एवं वैराग्य भावना की दृष्टि से सुन्दर कृति है। कवि की दृष्टि सदैव उदार, समदर्शी एवं सर्वधर्म समन्वय की रही है। चौत्रीजी के स्तवन छोटे पर भाववाही हैं। कवि की असाम्प्रदायिक शुद्ध भावानुभूति एवं भक्त की-सी हार्दिक अभिलाषा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"अव मोहीगे तारो दीनदयाल सब हीमत में देखें, जीत तीत तुमहि नाम रसाल । आदि अनादि पुरुष हो तुम्हीं विष्णु गोपाल; शिव ब्रह्मा तुम्हीं में सरजे, माजी गयो भ्रमजाल मोह विकल भूल्यो भव मांहि, फयो अनन्त काल,
गुण विलास श्री ऋषभ जिनेसर, मेरी करो प्रतिपाल ॥" . इसमें ब्रजमापा का मार्दव एवं माधुर्य सप्ट नजर आता है। कहीं कहीं गुजराती का प्रभाव भी अवश्य रहा है।
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१. कुंअर चन्द्रप्रकाशतिह, भुज (कच्छ) की ब्रजभाषा पाठशाला, पृ० ३१ । २. जैन गूजर कविओ, भाग २, पृ० ५८४ । ३. (क) प्रकागित-आणंदजी कल्याण जी, चौवीसी वीगी संग्रह पृ० ४६७-५०७
(ब) जैन गुर्जर साहित्य रत्नो, नाग १ (सूरत से प्रकाशित), पृ० ३६० ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
निहालचन्द : (स० १५०० आसपास)
अन्त:साक्ष्य के आधार पर ये पार्श्वचन्द्रगच्छ के वाचक हर्षचन्द्र के शिष्य थे । इनका समय संवत् १८०० के आसपास रहा है । इनका अधिकांश समय बंगाल में व्यतीत हुआ था 1१ इनकी मातृभाषा गुजराती थी । अव तक की खोजों के आधार पर इनके तीन ग्रंथ गुजराती में तथा दो ग्रंथ हिन्दी में प्राप्त हैं |२
प्रसिद्ध एवं उत्तम रचना है ।
"ब्रह्म बावनी " कवि की हिन्दी रचनाओं में इसकी एक प्रति 'अभय जैन ग्रन्थालय', वीकानेर में सुरक्षित है । इसमें कुल ५२ पद्य है । इसमें निराकार और अदृश्य सिद्ध भगवान की उपासना जैन परम्परानुसार की गई है | निर्गुणोपासक सन्तों की-सी मधुरता, भावाभिसिक्तता एवं आकर्षण इस कृति में सहज ही देखा जा सकता है । रचना कवि के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है । ओंकार मन्त्र की कहता है
अध्यात्म और वैराग्यपरक
महिमा वताता हुआ कवि
“सिद्धन को सिद्धि, ऋद्धि सन्तन को महिमा महन्तन को देत दिन माहीं है,
जोगी को जुगति हूं मुकति देव मुनिनकू, भोगी कू भुगति गति मतिउन पांही है ।"
कवि अपनी लघुता द्वारा सादृश्य विधान कीं निपुणता बताता हुआ कहता है—
" हम पै दयाल होकै सज्जन विशाल चित्त,
मेरी एक वीनती प्रमान करि लीजियौ । वाल ख्याल इहु,
अपनी सुबुद्धि ते सुधार तुम दीजियो ॥
sk
मेरी मति हीन तातें कीन्हौ
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अलि के स्वभाव तें सुगन्ध
लीजियो अरथ की,
हंस के स्वभाव होके गुन को ग्रहीजियो ॥"
१. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४, ब्रह्म बावनी, पद ५१, पृ० ८८ ।
२. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १८६८ तथा भाग ३, खण्ड १, पृ० ८-६ ।
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परिचय-खंड
इनकी दूसरी हिन्दी कृति "बंगाल देश की गजल" में वंगाल के मुर्शिदाबाद नगर का वर्णन है। इस कृति की रचना संवत् १७८२ से १७९५ के बीच अनुमानित है ।१ इसमें कुल ६५ पद्य हैं । भापा-शैली की दृष्टि से एक पद्य द्रष्टव्य है
“यारो देश गांला खूब है रे, जहां वहय भागीरथी आप गंगा। जहां शिखर समेत परनाथ पारस प्रभु झाडखंडी महादेव चंगा।
गजल वंगाल देश की, भाखी जती निहाल,
मूरख के मन ना वसे, पंडित होत खुसाल ॥६५॥" अव यह कृति अपने ऐतिहासिक सार के साथ प्रकाशित है ।२
१. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० १५२ । २. भारतीय विद्या, वर्ष १, अङ्क ४, पृ० ४१३-२६ ।
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आलोचना खण्ड ३ प्रकरण : ४ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में वस्तु-पक्ष । प्रकरण : ५ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में कला-पक्ष । प्रकरण : ६ : जैन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त विविध काव्य-रूप । प्रकरण : ७ : आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार ।
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प्रकरण ४
आलोच्य युग के जैन- गुर्जर कवियों की कविता में वस्तु-पक्ष
भाव पक्ष :
भक्ति-पक्ष :
भक्ति का सामान्य स्वरूप व उसके तत्व ।
जैन धर्म साधना में भक्ति का स्वरूप |
जैन - गूर्जर हिन्दी कवियों को कविता में भक्ति-निरूपण ।
विचार- पक्ष :
सामाजिक यथार्थाकन, तद्युगीन सामाजिक समस्याएँ और कवियों द्वारा प्रस्तुत निदान ।
धार्मिक विचार |
दार्शनिक विचार । नैतिक विचार |
प्रकृति-निरूपण :
प्रकृति का आलंबनगत प्रयोग; प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण; प्रकृति का अलंकारगत प्रयोग; उपदेश आदि देने के लिए प्रकृति का काव्यात्मक प्रयोग; प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा ।
निष्कर्ष
101011
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आलोचना-खण्ड ३
प्रकरण : ४ आलोच्य युग के जैन गुर्जर हिन्दी कवियों की कविता का बस्तु-पक्ष भाव पक्ष :
प्रत्येक प्रकार की कविता का कथ्य हमारे समक्ष दो रूपों में आता है--भाव और विचार। भाव पर अनेकानेक साहित्य शास्त्रकारों ने व मनोवैनानिकों ने पृथकापृथक् परिवेशों में विचार किया है। भरत से लेकर अब तक के साहित्याचार्यों के अनुसार भाव दो प्रकार के होते हैं-स्थायी तथा संचारी। ये वासनारूप स्थायी भाव परिपक्व होकर रसदगा को प्राप्त होते है। अत: भाव के माथ, कविता पर विचार करते समय, रस की चर्चा अनिवार्यतः अपेक्षित है। स्थायी भावों के अनुकूल ही रसों की संख्यादि का निर्णय किया गया है। यद्यपि रसों को लेकर या उनको संख्या को लेकर पर्याप्त चर्चा-विचारणा हो गई है किन्तु अभी तक इनकी पूर्णतः स्वीकृत संख्या नी ही मानी गई है। यों कतिपय आचार्यों ने वात्सल्य, भक्ति आदि को रसरूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया है किन्तु इन्हें रसों में समाविष्ट करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह दूसरी बात है कि इन नी रसों में कुछ आचार्य शृङ्गार रस को प्रधानता देते हैं और कुछ करुण को। जैनाचार्यों ने यद्यपि अपने काव्य में सभी रसों को यथावसर प्रयुक्त किया है तथापि उनकी मूल चेतना शान्त रस को ग्रहण कर चलती हुई प्रतीत होती है ।१ नेमिचन्द्र जैन गान्त रस की चर्चा इस रूप में प्रस्तुत करते है
___ "जैन साहित्य में अन्तर्मुवी प्रवृत्तियों को अथवा आत्मोन्मुख पुरुषार्थ को रस वताया है। जब तक आत्मानुभूति का रस नहीं छलकता रसमयता नहीं आ सकती। विभाव, अनुभाव और संचारी भाव जीव के. मानसिक वाचिक और कायिक विकार है, स्वभाव नहीं है। रसों का वास्तविक उद्भव इन विकारों के दूर होने पर ही हो सकता है । जव तक कषाय-विकारों के कारण योग की प्रवृत्ति शुभाशुभ रूप में अनुरंजित रहती है, आत्मानुभूति नहीं हो सकती।"२ १. "सप्तम भय अट्ठम रस अद्भुत्, नवमो शान्त रसानि को नायक ।"
बनारसीदास, नाटक समयसार, ३६१ ।। २. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ० २२४ ।
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__जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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नमिचन्द्र के उक्त कथन में निम्नलिखित दो वातों पर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है-अन्तर्मुखी प्रवृत्तियां आत्मोन्मुख पुरुपार्थ रस है, तथा विभावानुभाव संचारी विकार हैं और जिनसे मुक्त होकर आत्मानुभूति होती है, रस छलकता है । "आत्मानुभूति" शब्द की दो सीधी-सादी व्याख्याएं हो सकती है-आत्मा के द्वारा की गई अनुभूति तथा आत्मा की अनुभूति । प्रथम में आत्मा अनुभूति का तत्व है जब कि दूसरे में वह स्वयं अनुभूति का विषय है। इस प्रकार दार्शनिक स्तर पर दोनों का संयुक्त रूप अर्थात् आत्मा के द्वारा अपने ही स्वरूप को अनुभूत करना ब्रह्मानन्द का कारण बन जाता है। अत: आध्यात्मिक स्तर पर शान्त रस के अतिरिक्त किसी अन्य रस की अवस्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकेगी। अतः आध्यात्मिक साहित्य में शान्तेतर रसों की स्थिति शान्त रस को पुष्ट करने के लिए दिखाई देगी। यह बहुत अंशों तक ठीक भी है । सांसरिक तीन राग वैराग्य में परिणत हो जाता है। इस वैराग्य के भी वे ही कारण हैं जो शान्त रस के लिए विभाव का कार्य करते है-रागादि के परिपूर्ण भोग से उत्पन्न "निस्पृहता की अवस्था में आत्मा के विश्राम से उत्पन्न सुख" अथात् गम,१ तथा भोग की अपूर्णता तथा तद्भुत व्याघातक स्थितियों के कारण "चित्त की अभावात्मक वृत्ति" अर्थात् निर्वेद ।२ साहित्य में चर्चित रस इन्ही "शम" तथा 'निर्वेद' स्थाई भावों का अभिव्यक्त रूप है जबकि आध्यात्मिक क्षेत्र में स्थायी भावों की भी अनवस्था स्वीकार करनी पड़ेगी। इमी तथ्य को जिन सेनाचार्य ने अपनी पुस्तक "अलंकार चिन्तामणि" में इस रूप में व्यक्त किया है-"विरागत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं शम"।
आध्यात्मवाद में 'आत्मा' शुद्ध चेतन तत्व माना गया है। मल, कंचुक अथवा कषाय आदि से बद्ध यह आत्म तत्व इनसे मुक्त होकर ही अपने शुद्ध रूप को पहचानने में समर्थ हो पाता है। संभवतः इस दिशा में किया गया उद्योग ही आत्मोन्मुख पुरुपाार्थ है जो रस प्राप्त करने में सहायक होता है। आत्मा के द्वारा शुद्ध चैतन्य तत्व की प्राप्ति या अनुभूति ही रस है, इस प्रकार के आनन्द में सव प्रकार के विकार निःशेप हो नाते है । यही कारण है कि शान्त रस को सभी रसों का मूल मान लिया गया है ।३ कवि बनारसीदास तो सभी रसों को शान्त रस में ही समाविष्ट करते प्रतीत होते है । उनकी दृष्टि में तो आत्मा को ज्ञान-गुण से विभूपित करने का विचार शृङ्गार है,
१. विश्वनाथ, साहित्य दर्पण । २. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, पृ० ४५५ । ३. कन्याग, भक्ति विशेपाक, "भाव-भक्ति की भूमिकाएँ" नामक निबंध, अंक १, - पृ० ३६६ ।
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आलोचना-खंड
कर्म निर्जरा का उद्यम वीर रस है, सव जीवों को अपना समझना करुण रस है। हृदय में उत्साह और सुख का अनुभव करना हास्य रस, अष्ट कर्मों को नष्ट करना गैद्र रम, गरीर की अशुचिता का विचार करना वीभत्स रस, जन्म, मरणादि का दुःख-चिन्तन करना भयानक रस है, आत्मा की अनन्त शक्ति को प्राप्त करना अद्भुत रस और दृढ़ वैराग्य धारण करना तथा आत्मानुभाव में लीन होना ही शान्त रस है ।१ इस प्रकार से देखने पर भी जैनों की आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोपरि रस शान्त ही है । नेमिचन्द्र ने अपने ढंग से इस शान्त रस का विधान इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-"अनित्य जगत् आलम्बन है, जैन मन्दिर, जैन तीर्थधाम, मूर्ति, साधु आदि उद्दीपन हैं, तत्वज्ञान, तप, ध्यान, चिन्तन, समाधि आदि अनुभाव हैं, घृति, मति आदि. व्यभिचारी भाव हैं तथा सुख-दुःखादि से ऊपर उठकर प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव धारण करना शान्त रस की स्थिति है।" .
__ जैन कवि, जो मूलतः आध्यात्मिक चिन्तक एवं आध्यात्मिक गुरु रहे हैं, शान्त रस को ही प्रमुख अथवा अपने काव्य का अंगी रस माने तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । शेष रम इनके काव्य में अन्वय-व्यतिरेक से अंगभूत होकर आए हैं। इनके काव्य में रसों की चर्चा इसी परिवेश में होनी चाहिए अन्यथा आलोच्य कवियों के साथ अन्याय हो जाना सहज संभव है।
___ आलोच्य काल हिन्दी की दृष्टि से रीतिकाल है और जैसा कि हम सब जानते हैं यह काल इतिहास व साहित्य में वर्णित मानव-वृत्तियों के आधार पर विलासिता का युग कहा गया है। ऐसे चतुर्मुनी विलासिता के युग में ये कवि बहिर्मुखी वृत्तियों का संकुचन कर अन्मून का आलोक विकीर्ग करते हुए प्राणी मात्र को शांतरस में निमज्जित करते रहे। इसीलिए शृङ्गार आदि रस इनके साध्य नहीं हैं, मात्र साधन हैं; अन्तत: गांत रस को ही पुष्ट करने का कार्य करते दिखाई देते हैं। इन सावनरूप
गों को भी देखते चलना प्रसंगप्राप्त ही होगा। इन कवियों ने नखशिख वर्णन एवं रूपवर्णन के प्रसंग भी प्रस्तुत किये हैं पर संयत और उदात्त भाव से । खेमचन्द रचित "गुणमाला चौपाई" में कवि नायिका गुणमाला का रूप-वर्णन किस उदात्त भाव मे करता है--
पेटइ पोइणि पत्रइ तिसौ, ऊपरि त्रिवली थाय । गंगा यमना सरसती, तीनों बैठी आय ॥३०॥ नामि रत्न को कुंपली, जंचा त केली स्थंभ । मानव गति दीसे नहीं, दीसे कोई रंभ ॥३॥"
१. हिन्दी जैन साहित्य परिगीलन, भाग १, पृ० २३३ ।
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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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परम्परा के प्रश्रय एवं साध्य को पूर्ण करने के हेतु शृंगार वर्णन एवं नखशिख वर्णन के प्रसंग प्रसंगतः। अनेक स्थलों पर आए हैं। कवि समयसुन्दर ने अपनी "सीतारामः चौपाई" में गर्भवती सीता का रूप-वर्णन बड़े संयत भाव से किया है
"वज्रजंघ राजा घरे, रहती सीता नारि, गर्भ लिंग परंगट थयो, पांडुर गाल प्रकारि। थण मुख श्याम पणो थयो, गुरु नितंव गतिमंद, : .
नयन सनेहाला थया, मुखि अमृत रसविंद ॥"१ .. चन्द्रकीति का 'जयकुमार आख्यान'२ मूलतः वीर रस प्रधान काव्य है; परन्तु उसमें शृंगार एवं शांतरस का सुन्दर नियोजन है। सुलोचना के सौंदर्य का वर्णन करता हुआ कहता है
"कमल पत्र विशाल नेत्रा, नाशिका सुक चंच । अष्टमी चन्द्रज · माल सौहे, वेणी नाग प्रपंच ॥ सुन्दरी देखी तेह राजा, चिन्त में मन मांहि ।
सुन्दरी सुर सुन्दरी, किन्नरी किम कहे वाम ॥". - कवि रत्नकीर्ति के "नेमिनाथ फागु" में राजुल की सुन्दरता का भी एक चित्र देखिए_ "चन्द्रवदनी मृग लोचनी मोचती खंजन मीन ।
वासंग जीत्यो वेणई, श्रेणिय मधुकर दीन || युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीर । अधरं विदुम सम उपमा, दन्तं नू निर्मल नीर ।। ।
चिवुक कमल पर षट्पद, आनंद करे सुधापान । - . . गोवा सुन्दर सोमती, कम्बु कपोल ने वान ॥"३.
संस्कृत काव्य परम्परानुसार स्त्री सुलभ रूप वर्णन के कुछ प्रसंग स्वाभाविक पे हैं । नायिका भेद और रूप वर्णन में इन कवियों ने कुछ कौशल मी दिखाए हैं। वासकसज्जा का ईक उदाहरण देखिए- .. ... "कहु सोहती . एक वासीक सेजा, : .. ... . . . सोई धरती हे मीलन कु. कंत हैजा। . . .
... १: समयसुन्दर, सीताराम चौपाई।
२. चंद्रकीति, जयकुमार आख्यान । - ३. यशःकीर्ति-सरस्वती भवन, ऋषभदेव की प्रति । .
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आलोचना-खंड
कहुं सार अभिसारिका करें शृंगार,
चले लचक कटी छीन कुचके जु भारं ॥५६॥"१ कवि मालदेव के "स्यूलिभद्र फाग” में कोशा वेश्या के रूप-सौंदर्य का वर्णन । करता हुआ कहता है--
"विकसित कमल नयन बनि, काम वाण अनिया रे । खांचइ ममुह कमान शु, कामी मृग-मन मारि रे ॥३९॥ कानहि कुंडल घारती, जानु मदन की जाली रे,
स्याम भुयंगी यू वेणी, यौवन धन रपवाली रे ॥"२
पर अन्त तो शान्त रस में ही हुआ है। कवि स्यूलिभद्र मुनि का उदाहरण देकर ब्रह्मचर्य पालन करने, शील व्रतधारी तथा नारी संगति को छोड़ने का उपदेश देता है
"मालदेव इम वीनवइ, नारी-संगति टालउरे,
थूलिमद्र मुनि नी परईं, सोल महाव्रत पालउरे ॥१०७॥"३ सामान्यतया शृंगार और शांत परस्पर विरोधी रस हैं। शृंगार रस मानव जीवन को कामना सिक्त बनाता हैं, शांत जीवन की हर प्रवृत्ति का शमन कर देता है । इस कवियों ने इन दो विरोधी रसों का भी मेल कराया है। यहां शृंगार और शम गले मिलते-से लगते हैं। इनका प्रत्येक शृंगारिक नायक निर्वेद के द्वारा अपनी उतेजना, इन्द्रिय लिप्सा और मादकता का परिहार शम में करता है। वस्तुतः इन कवियों की सभी रसों में हुई सृजन सलिला का अन्त में "शम" या निर्वेद में पर्यवसान होता है। इस दृष्टि से विनयचन्द्र की स्थूलिभद्र बारहमास', समयसुन्दर की 'सीताराम चौपाई', जिनहर्ष रचित 'बारह मासे', खेमचन्द्र की 'गुणमाला चौपाई, चन्द्रकीर्ति की 'भरत वाहुबलि छंद', जिनराजसूरि का 'शालिमद्र रास' आदि लगभग सभी कृतियों में विभिन्न रसों की परिणति गांत में ही हुई है। इन कृतियों का मूल विषय धार्मिक या उपदेश प्रधान रहने से अन्त में कवि अपने नायक-नायिकाओं को निर्वेद ग्रहण करा देते हैं अयवा कथा का अन्त शांत रस में प्रतिफलित कर देते हैं। उदाहरणार्थ जिनराजसूरि की 'शालिभद्र रास' कृति के नायक शालिभद्र में कवि ने भोग और योग का अद्भुत सनन्वय कराया है। गालिभद्र एक ऐसा नायक है जो संसार को फूल की १. 'मदन युद्ध' हेम कवि, प्रस्तुत प्रबंध का तीसरा प्रकरण । २. स्थूनिभद्र फाग, मालदेव, प्राचीन फाग संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांडेसरा,
पृ० ३१ । ३. वही ।
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तरह सुन्दर और कोमल तथा काया को मक्खन की तरह मुलायम और स्निग्ध मानता है । वह स्वयं को जगत् का स्वामी और नियन्ता समझता है पर अन्त में माता के वचन सुनकर कि स्वामी राजा श्रेणिक घर आया है, शालिभद्र का एक विवाद और क्रन्दन से भर उठता है। राग की अतिशय प्रक्रिया पश्चाताप और वैराग्य में हो उठती है--
"एतला दिन लग जाणतो, हुं कु सहुनो नाथ । माहरे पिण जो नाथ छै, तो छोड़िए हो तृण जिम ए आथ ।।४।। जाणतो जे सुख सासता, लाधा अछ असमान । ते सहु आज असासता, मैं जाण्या हो जिम संध्या वान ॥५॥"
और वह अपनी अनेक सुन्दरी स्त्रियों का परित्याग कर अनंत मुक्तिपथ की । ओर अग्रमर होता है, जहां किसी का कोई नाथ नहीं
"उठयो आमण दूमणो, महल चढयो मन रंग ।
फिरि पाछो जोवै नहीं, जिम कंचली भुयंग ॥"१ यौवन एवं अहम् के इस असाधारण तूफान और उभार में डूवी प्यास का शमन कवि ने निर्वेद द्वारा किया है ।
इसी तरह जिनहर्प प्रणीत 'नेमि-बारहमासा" कृति में कवि ने विरह-विप्रलंम के अनूठे चित्र प्रस्तुत किए हैं । अन्त में रसराज शांत की निष्पत्ति सहजरूप में कराई है । विप्रलंम शृङ्गार की मधुर स्मृतियों में तथा विरहजनित विभिन्न भावों में राजुल डूब रही है। वारहमास वीतते जाते हैं, पर नेमि नहीं आए। राजुल रोती रहती है, अपनी प्रेम पीड़ा मर्म-स्पर्शी शब्दों म अभिव्यक्त करती रहती है। राजुल के विरहीमन की विभिन्न दशाएँ स्पष्ट होने लगती हैं । कवि ने शृङ्गार की इस समस्त मूर्च्छना को गम में पर्यवसित कर दिया है--
"प्रगटै नम वादर आदर होत, धना धन आगम आली भयो है। काम की वेदन मोहि सतावै, आषाढ में नेमि वियोग दयो है। राजुल संयम लेक मुगति. गई निज कन्त मनाय लयो है । जोरि के हाथि कहै जसराज, नेमीसर साहिब सिद्ध जयो है ॥१२॥"२
विप्रलंभ का सारा दृश्य अन्त में शांत की आत्म-समर्पित हो जाता है। 'बारहमापा' नामक कृतियों में भी कवि ने इसी प्रकार की वृत्ति के दर्शन कराए हैं१. जिनराजमूरि कृति कुसुमांजली, शालिभद्र धन्ना चौपाई, संपा० अगरचंद नाहटा,
पृ० १३२-३३ । २. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० ११७६ ।
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आलोचना-खंड
राजुल राजकुमारी विचारी के संयत नाथ के हाथ गह्यो है । पंच समिति तीन गुपति घरी निज, चित में कर्म समूह दह्यो है ।। राग द्वेप मोह माया नहैं, उज्जल केवल ज्ञान लह्यो है।
दम्पति जाइ वसे शिव गेह में, नेह खरो जसराज कह्यो है ।।१३||१
यशोविजय जी ने अपने कुछ मुक्तक स्तवनों में भी राजुल के विप्रलंन शृङ्गार की व्यथा जनित चेष्टाओं का पर्यवसान शम में कराया है। उदारणार्थ एक स्तवन द्रप्टव्य है-२
"तुझ विण लागे सुनी सेज, नहीं तनु तेज न हार दहेज । आओ ने मंदिर विलसो भोग, वृद्धापन में लीजे योग । छोरूंगी में नहि तेरो संग, गइली चलु जिउं छाया अंग । एम विलपती गइ गड गिरनार, देखे प्रीतम राजुल नार। कंते दीनु केवल ज्ञान, कीधा प्यारी आप समान । मुगति महल में खेल दोय, प्रण में 'जस' उलसित होय ॥"
नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर रचित प्रायः सभी कृतियों में अंगीरस शांत ही है। प्रारम्भ में नेमिकुमार की संसार के प्रति उदासीना और अन्त की संयम-तपसिद्धि रसानुकूल है। बीत्र के प्रसंगों में शृङ्गार का मलवानिल मानम को उपित अवश्य कर देता है। मामियों के परिहास में हास्य तथा आयुक्गाला में प्रदर्शित नेमीकुमार के पराक्रम में वीर रस का नियोजन हुआ है। बन्दी-पशुओं की पुकार में करुणा का उन्मेप है; और अन्त में है शान्त रस की प्रतिष्ठा।
जयवंतरि रचित 'स्थूलिभद्र मोहन वैलि'३ कृति का नायक स्यूलिभद्र और नायिका कोश्या दोनों शृङ्गार प्रधान नायक नायिका हैं । स्थूलिभद्र कोश्या के रूप पर मोहित है उसने मधुवन में क्रीड़ा करते उस रूप मुन्दरी को देन्वा है
"वेणी फणि अनुकारा, पूरण चंदमुखी मृग नयना । पीन्नोन्मत कुच मारा, गोर भुजा आमोदरि सुनगा ।"
प्रथम लौकिक धरातल पर दोनों का प्रेम पल्लवित होता है। पर लौकिक प्रेम का पारलौकिक प्रेम में पर्यवमान कराना जैन कत्रियों की प्रमुख विशेषता रही है। यहां दोनों का सांसारिक प्रेम अपनी चरम मीमा पर पहुंच कर अन्त पाता है वहीं से आध्यात्मिक प्रेम का श्रीगणेग होता है। स्थलिभद्र प्रेम के आवरण को १. नेमि-राजमती बारह मास सवैया, जिनहर्प । २. जैन गूर्जर माहित्य रत्नो, भाग १, पृ० १३२-३३ । ३. हस्तलिखित प्रति, अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रंथांक, ३७१६ ।
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उतार कर निर्वेद की लहरियों में बहने लगता है। प्रथम पिता की मृत्यु से निर्वेद भावना का विकास होता है
"तात कु निधन सुनत दुख पायु, मन मांहि इ साचु विराग ऊपायु ॥ धिग संसार असार विपाकिइं, होति युविकल न रह्य मोह वाकिई ।।"१७३
स्थूलिभद्र संयम धारण कर लेते हैं, कोश्या को नींद नहीं आती । वार-वार त्रिय की स्मृतियां उभर आती हैं और उसे सारा संसार ही प्रियतम मय दिखने लगता है
"सब जग तुझ मय हो रह्या, तो ही सुवांच्या प्रान ॥१६०॥" यहां लौकिक प्रेम ब्रह्म मय हो जाता है। यह ब्रह्म और जीव की तादात्म्य स्थिति है। अन्त में शांत रस की स्निग्ध धारा अपनी आत्मरति और ब्रह्म-रति से शृगार को प्रच्छन्न कर देती है।।
विनयचंद्र प्रणीत 'थूलिभद्र बारहमासा'१ कृति में प्रायः सभी रसों का सुन्दर नियोजन हुआ है। प्रत्येक रस का एक-एक उदाहरण द्रष्टव्य है
शृङ्गार : "आपाढ़इ आशा फली, कोशा करइ सिणगारो जी। आवउ लिभद्र वालहा, प्रियुडा करू मनोहारोजी ।। मनोहार सार शृङ्गार-रसमां, अनुभवी थया तरवरा । वेलडी वनिता लाइ आलिंगन, भूमि भामिनी जलधारा॥"
हास्य :
"श्रावण हास्य रसइं करी, विलसउ प्रतिम प्रेमइ जी । योगी ! भोगी नइ धरे, आवण लागा केमइ जी ।। त: केम आवै मन सुहावै, वसी प्रमदा प्रीतडी । एम हासी चित्त विभासी, जोमउ जगति किसी जडी ॥"
करुण : "झरहरइ पावस मेघ बरसइ, नयण तिम मुख आंसुआं। तिम मलिन रूपी वाह्य दीसउ, तिम मलिन अन्तर हुआ ॥१॥ भादउ कादउ मचि राउ, कलिण कल्या बहु लोकोजी । देखी करुणा ऊपजै, चन्द्रकान्ता जिम कोको जी ।। कोक परि विहू बोक करती, विरह कलणइ हुं कली।
काढियइ तिहां थी वाह झाली, करुणा रसनइ अटकली ॥" १. विनयचंद्र कृति कुसुमांजलि, संपा० भंवरलाल नाहटा, पृ० ८०-८४ ।
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आलोचना-खंड
रौद्र : "अकुलाय धरणि तरुणि तरणी, किरण थी, शोपत धरै । उपपति परइ धन कन्त अलगु, करी धन वेदन करै ।। तिम तुम्हें पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अति घणु । चांदणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणु ॥"
वीर : "काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रा भोजी। विकट कटक चाला घणु, तिम कामी निज धामोजी ।। निज धाम कामी कामिनी वे, लडइ वेधक वयण सु। रणतूर नेउर खड्ग वेणी, धनुष-रूपी नयण सु॥"
भयानक : "भयानक रसइ मेदियउं, मगिसिर मास सनूरोजी । मांग सिरहि गोरी धरइ, वर अरुणि मां सिन्दूरो जी। सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरइ, मदन झाल अनल जिसी । तिहां पडइ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी ॥"
वीभत्स : "संकोच होवइ प्रौढ रमणी, संगथी लघु कंत ज्यु। तिम कंत तुम चउ वेष देखी, मई वीभत्स पणु भजु ।।"
अद्भुत : "माघ निदाघ परइ दह, ए अद्भुत रस देखु जी। शीतल पणि जडता घणु, प्रीतम परतिख पेखु जी ॥"
शांत : "फागुन शांत रसइ रमई, आणी नव नव भावोजी। अनुभव अतुल वसंत मां, परिमल सहज समावोजी । महज भाव सुगंध तैलई, पिचर की सम जल रसई। गुण राग रंग गुलाल उडइ, करुण ससवो ही वसइ ।। पर भाग रंग मृदंग गूजइ, सत्व ताल विशाल ए।
समकित तंत्री तंत भुणकइ, सुमति सुमनस माल ए॥"
इस प्रकार इन कवियों के ऐसे समी काव्य प्रायः निर्वेदान्त हैं । स्तोत्र, स्तवन, स्तुति, गीत, मज्झाय, पद, विवाहलो, मंगल, प्रवंध, चौपाई, वीसी, चौवीसी, छत्तीसी, वावनी, बहोत्तरी, शतक आदि समस्त कृतियों में भक्तिरस का अपार स्रोत उमड़ता
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दिखता है, जहां सभी शांत रस में डूबते-तैरते परिलक्षित होते हैं। अन्य रसों के सुन्दर वर्णनों की, अन्तिम परिणति शम या निर्वेद में ही हो गई है।
इन कवियों की कविता में एक ओर सांसारिक राग-द्वेषादि से विरक्ति है, तो दूसरी ओर प्रभु से चरम शांति की कामना। जब तक मन की दुविधा नहीं मिटती, मन शांति का अनुभव नहीं कर सकता। यह दुविधा तो तभी मिट सकती है जब परमात्मा का अनुग्रह हो और कुछ ऐसी बक्षिस दे कि वह संसार के राग विराग, माया-मोह से ऊपर उठकर प्रभुमय वन जाय अथवा उपर्युक्त शान्त रस का अनुभवकर्ता बन जाता है
"प्रभु मेरे कर ऐसी वकसीस, द्वार द्वार पर ना भटको, नाउं कीस ही न सीस ।। मुध आतम कला प्रगटे, घटे राग अरु रीस । मोह फाटक खुले छीम में, रमें ग्यान अधीस ।। तुज अलायव पास साहिव, जगपति जगदीश ।
गुण विलास की आस पूरो, करो आप सरीस ।।"१
जीव संसार के भीतर भटकता फिरता है, उसे शांति कहीं भी नहीं मिलती। भवसागर की तूफानी लहरों के बीच डगमगाती जीवन नौका को पार लगाने की शक्ति एक मात्र प्रभु स्मरण में है। संमार की इस भीषण विपमता के मध्य अकुलाते जीव की दुर्दमनीयता एवं विवशता दिखाकर कवि आनंदवर्द्धन ने दिव्य आनंदानुभूति का विकाम विकीर्ण किया है
"सै अकुलै कुल मच्छ जहां, गरजै दरिया अति भीम मयौ है । ओ वडवानल जा जुलमान जलै जल मैं जल पान कयो है । लोल उत्तरांकलोलनि कै पर वारि जिहाज उच्छरि दयो है।
ऐसे तूफान में तोहि जप तजि मैं सुख सौं शिवधाम लयो है ॥४०॥"२
मन की चंचलता ही अशांति का कारण है। विपयादि में लिप्त रहने के कारण ही मन उद्विघ्न हैं। इसे प्रभु में स्थिर कर सांसारिक अशांति को पार कर शान्ति प्राप्त की जा सकती है ।३ कवि समयसुन्दर ने प्रभु को उनकी महानता,
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१. गुण विलास, चौवीमी स्तवन, जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १,
पृ० ३६.1 २. भक्तामर सवैया, आनंदवर्द्धन, नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रतिलिपि । ३. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, विनयविजय के पद, पृ० ३७ ।
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आलोचना-खंड
अपार गुणों से युक्त उनके सामर्थ्य और पूर्ण शांति प्रदायक होने के सत्य को मानकर ही, उन्हें अपने स्वामी रूप में स्वीकार किया हैं । १
जीव अपने सच्चे परमात्मा कारण मोह है अतः मोह का जायेंगे और अनन्त ज्ञान का
यशोविजय जी का अभिमत है कि राग- पादि से प्रेम करने के कारण ही स्वरूप का दर्शन नहीं कर पाता । राग-द्वेष का मुख्य निवारण अनिवार्य है । कर्म बंधन भी इसी के साथ टूट प्रकाश आत्मा में झिलमिला उठेगा । २ सुख और शांति की कामना में मन कैसे उलटी चाल चल पड़ता है । सांसारिक विषय विपाक और मुखभोग में फंसे मन को प्रबुद्ध करता हुआ कवि कहता है—३
" चेतन ! राह चले उलटे |
नख-शिखलों बंधन में बैठे, कुगुरु वचन कुलटे । विपय विपाक भोग सुखकारन, छिन में तुम पलटे ॥ चाखी छोर सुधारस समता, भव जल विपय खटे ॥ भवदवि विचि रहे तुम ऐसे, आवत नांहि तटे | तिहां तिमिंगल घोर रहतु है, चार कषाय कटे ॥ वर विलास वनिता नयन के पास पड़े लपटे । अव परवश भागे किहां जाओ, झालें मोह-मटे ॥ मन मेले किरिया जे कीनी, ठगे लोक कपटे । ताको फलविनु भोग मिटेगो, नांहि रटे ॥ सीख सुनी अब रहे सुगुरु के इतु करते तुम सुजश लहोगे,
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तुमकु चरण कमल निकटे ।
तत्वज्ञान प्रगटे || "
यांत माव की अभिव्यक्ति के लिए अधिकांश कवियों ने एक विशेष ढंग अपनाया है । सांसारिक वैनवों की क्षणभंगुरता और असारता दिखाकर, तज्जन्य व्यग्रता को प्रगट कर कवि लोग चुप हो गये हैं और इसी मौन में शान्तरस की ध्वनि, संगीत की स्वर लहरी की तरह झंकृत होती रहती है । योवन और सांसारिक उपमोग में उन्मत्त जीवों को सम्बोधन करते हुए आनंदवर्द्धन कहते हैं, "योवन रूपी मेहमान को जाने में देर नहीं लगती ।" यौवन चंचल और अस्थिर है, उसकी प्रतीति नेमिनाथ ने प्रत्यक्ष की थी। दुनिया पतंग के रंगों की भांति रंगीन और चंचल है । संसार स्वप्न की तरह मिथ्या है और असार है। अतः हे जीव संसार में सावधान होकर
१. समयमुन्दर कृति कुमुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ७ । २. गुर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० १५७-५६ ए । ३. वही, पृ० १६३ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
रहना है, स्वप्न के भ्रम को समझना है ।" १ यौवन की उन्मत्तता और विषयासक्ति का अन्त नहीं । संसार की माया मृगतृष्णा है । यहां कभी मन की इच्छाएं पूरी नहीं होती । फिर भी मानव-मन न तो पश्चाताप करता है और न उससे विलग होने का प्रयत्न ही करता है । कवि इस स्थिति ते परिचित कराता हुआ कहता है
" मन मृग तु तन वन में मातौ ।
केलि करे चरै इच्छाचारी, जाणे नहीं दिन जातो । माया रूप महा मृग त्रिसनां, तिण में धावे तातो । आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो । कामणी कपट महा कुडि मंडी, खवरि करे फाल खातो । • कहे धर्मसीह उलंगीसि वाको, तेरी सफल कला तो ॥२
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4
इसी तरह कवि किशनदास ने योवन झलक को 'चपला की चमक' और विषय सुख को 'धनुष जैसो धन को बताया है 1३
और काया और माया को 'बादल की छाया'
जीव सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए ललचाता रहता है । एक के बाद दूसरे को प्राप्त करने की तृष्णा कभी नहीं बुझती । वह व्यर्थ ही उसके पीछे दौड़ लगाता है । उसे पता नहीं सुधा सरोवर उसके भीतर ही लहरा रहा है । उसमें निमज्जित होने से सब दुःख दूर हो जाते हैं और परमानंद की प्राप्ति होती है । सांसारिक पदार्थों के लिए ललचाना मूर्खता है । जिसके लिए यह जीव व्याकुल होकर 'मेरी-मेरी' करता है, वे सब बुलबुले की तरह क्षणिक हैं । अतः क्षणिक पदार्थों में चिरन्तन सुख ढूंढ़ना मूर्खता है । मोह माया वश जीव का शुद्ध रूप आच्छादित हो गया है 1 वह अतृप्ति के कांटों पर लेटकर दुःख पा रहा है, ज्ञान- कुसुमों की शय्या पर लेटने का उसे सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ 1४ समयसुन्दर ने कहा है, 'हे मूर्ख मानव तू घमण्ड क्यों करता है । तन, धन, यौवन क्षणिक है, स्वप्नवत् है । रावण, राम, नल, पाण्डव आदि सभी संसार में आकर चले गये । इनके सामने तेरी क्या विसात | आज नहीं तो कल सवको मरना है । अतः तू शीघ्र चेत जा और भगवान
का व्यान कर-
१. आनंदवर्धन चौवीसी, नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रतिलिपि ।
२. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० १० ।
३ उपदेश बावनी, किशनदास, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर
नागर ।
४. भजन-संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, पृ० ३५ ।
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आलोचना-खंड
"मूरख नर काहे तू करत गुमान ।
तन धन जोवन चंचल जीवित, सहु जग सुपन समान । कहां रावण कहां राम कहां नलि, कहां पांडव परधान । इण जग कुणकुण आइ सिधारे, कहि नई तू किस थान ॥ आज के कालि आखर अंत मरणा, मेरी सोख तू मान । समयसुन्दर कहर अधिर संसारा, घरि भगवंत कउ व्यान ||३|| १
आनन्दघन ने भी तन, धन और यौवन को झूठा कहा है और यह सब पानी के बीच बताशे की भांति क्षणिक अस्तित्व वाले हैं, 'पानी विच्च पतासा' हैं |२
यही कारण है कि शांति के उपासक ये कवि शांतिप्रदायक प्रभु की शरण में गये हैं । रागद्वेष ही अशांति के मूल हैं । प्रभु स्मरण और उनकी शरण में जाने से ये विलीन हो जाते हैं । प्रभु ध्यान में अनन्त शांति का अनुभव होता है और प्रभु गुनगान में तन-मन की सुव एवं सांसारिक दुविधाओं का अंत आ जाता है । यहां वह परमात्मा की अक्षय निधि का स्वामी वन जाता है । फिरे उसे हरि-हर इन्द्र और ब्रह्मा की निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं । उस परमात्मा रस के आगे अन्य रस फीके पड़ जाते हैं | क्योंकि कवि ने अब तो खुले मैदान में मोहरूपी महान् शत्रु
को जीत लिया है
"हम मगन भये प्रभु व्यान में ।
विसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरा सुत गुन ज्ञान में || १ ||
*
*
चिदानन्द की मोज मची है, समता रस के पान में ||२|| = S गई दीनता सब ही हमारी, प्रभु ! तुज समकित - दान में । प्रभु-गुन- अनुभव रस के आगे, आवत नांहि कोड मान में । जिनहि पाया तिनही छिपाया, न कहे कोउ के कान में । ताली लागी जब अनुभव की, तव जाने कोउ साँन में । प्रभु गुन अनुभव चंद्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । वाचक जा कहे मोह महा अरि, जीत लीयो हे मेदान में || "३
१. समयमुन्दर कृति कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४४९-५० । २. आनन्दवर्धन पद संग्रह, अव्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, वंबई पद सं० २६ | ३. गूर्जर साहित्य संग्रह १, गोविजय जी, पृ० ८३ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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शांति की इस चरम स्थिति पर पहुंचने पर अनहद वाजा वज उठता है । जीव और ब्रह्म की यह तादात्म्य स्थिति ब्रह्मरति है और शांत रस की चरम परिणति है
"उपजी धुनी अजपाकी अनहद, जित नगारे वारी ।
झडी सदा आनन्दधन बरसत, वनमोर एकनतारी ॥२०॥"१
इस प्रकार शांत रस की विशाल परिधि ने जीवन के समस्त क्षेत्रों को आवृत्त कर लिया है । यही कारण है कि आलोच्य युगीन जैन गुर्जर कवियों ने अपनी कृतियों में शांत रस को ही प्रधानता दी है। इन कवियों का प्रधान लक्ष्य राग-द्वेष से परे रहकर समत्व की भावना को ऊँचा उठाना रहा है।
जैन साहित्यकारों ने वैराग्योत्पत्ति के दो साधन बतलाये हैं। तत्वज्ञान, इप्ट वियोग या अनिष्ट संयोग । इसमें प्रथम स्थायी भाव है, दूसरा संचारी। आज का मनोविज्ञान भी इस मत का समर्थन करता है-इसके अनुसार राग की क्लान्त अवस्था ही वैराग्य है । महाकवि देव ने राग को अतिशय प्रतिक्रिया माना है। उनके मतानुसार तीव्र राग ही क्लान्त होकर वैराग्य में परिणत हो जाता है। अतः शांत रस में मन की विभिन्न दशाओं का रहना आवश्यक है ।२ आत्मा ही शांति का अक्षय भण्डार है । आत्मा जव देहादि भौतिक पदार्यों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगती है तब गांत रम की निप्पत्ति होती है। अहंकार राग-द्वपादि से रहित शुद्ध ज्ञान और आनंद से ओत-प्रोत आत्मस्थिति मानी गई है। यही चिरस्थायी है। इसी स्थिति को प्राप्त करने कराने में इन कवियों ने अपनी साहित्य-साधना की है। भक्ति -पक्ष : भक्ति का सामान्य स्वरूप व उसके तत्व
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार 'भक्ति' शब्द 'मज' धातु में स्त्रीलिंग 'वतन्' प्रत्यय लगाने से बना है।३ जिसका अर्थ भजना है । 'नारद' के अनुसार भक्ति 'परम प्रेम रूपा' और अमत स्वरूपा है, जिसे प्राप्त कर जीव सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है । ४ नारद भक्ति मूत्र में विभिन्न आचार्यों के अभिमत रूप में 'भक्ति' की अनेक परिमापाएँ दी गई हैं । कुछ प्रसिद्ध परिभाषाएँ इस प्रकार है
१. आनन्दधन पद संग्रह, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल, बंबई, पद सं० २० । २. हित्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग १, नेमिचन्द जैन, पृ. २३१-३३ । ३. अभिधान राजेन्द्र कोग, पांचवा भाग, पृ० १३६५ । ४. 'सा त्वस्मि परमप्रेमरूना, अमृत स्वरूपा च' भक्ति सूत्र : २-३ ।
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आलोचना-खंड
(१) व्यास जी के मतानुसार 'पूजादिएवानुरोग इति पराशर्यः' पूजादि में प्रगाढ़ प्रेम ही भक्ति हैं । १
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(२) शांडिल्य के अनुसार 'आत्मरत्यविरोधेनेति शांडिल्यः' आत्मा में तीव्र रति होना ही भक्ति है | २
(३) शांडिल्य भक्ति सूत्र के अनुसार ईश्वर में परम अनुरवित का नाम ही भक्ति है - 'सा परानुरक्तिरीश्वरे ॥३
(४) भागवत में निष्काम भाव से स्वभाव की प्रवृत्ति का सत्यमूर्त भगवान में लय हो जाना भक्ति कहा गया है |४
सारांशतः भक्ति में इष्टदेव और भक्त का सम्वन्ध है । भक्त और भगवान में भक्ति का ही एक मात्र नाता है । भक्ति के नाते ही भगवान द्रवित हो जाते हैं और भक्त पर कृपा करते हैं । उसे शरण में ले लेते हैं, माया से मुक्त कर देते है और अपने में लीन कर लेते हैं । यह भक्ति प्रेम रूपा है । विना प्रीति के भक्ति उत्पन्न नहीं होती अत: प्रीति भक्ति का आवश्यक अंग है । इस प्रीति निवेदन के लिए भक्त अन्यान्य भावों-क्रियाओं का सहारा लेता है । इन्हीं क्रियाओं के आधार पर भागवत में भक्ति के नौ प्रकार (रूप) माने गए हैं ।५ नारद भक्ति सूत्र में इसके ग्यारह भेद बताये गये हैं, जो ग्यारह आसक्ति रूप में वर्णित है । ६ आचार्य रूप गोस्वामी कृत 'हरिभक्ति रसामृत सिन्धु' में भक्ति रस से संबंधित पांच भाव स्वीकार किए गये हैं - १. शान्ति, २. प्रीति, ३. प्रेय, ४. वत्सल, ५. मधुर । इनका मूल 'भागवत' की नवधा भक्ति तथा 'नारद भक्ति सूत्र' की एकदश आसक्तियों में मिल जाता है |७
१. नारद भक्ति सूत्र १६ ।
२. वही, १८ ।
३. शांडिल्य भक्ति सूत्र, १११११ ।
४. श्रीमद् भागवत् स्कन्द ३, अध्याय २५, श्लोक ३२-३३ |
५. श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनम् ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम् ||
श्रीमद् भागवत स्कंद ७, अध्याय ५, श्लोक ५२ । ६. "गुण माहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति, संख्यासक्ति, कान्तासक्ति, तन्मयता सक्ति, परम विरहासक्ति रूपा एकाधाप्येकादशाधा भवति ।" नारद भक्ति सूत्र, सूत्र ८२ ।
७. हिन्दी साहित्य कोप, संपा० डॉ० धीरेन्द्र वर्मा,
पृ० ५३१ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
१६५ जैन धर्म-साधना में भक्ति का स्वरूप ।
जैन धर्म ज्ञान प्रधान है, फिर भी भक्ति से उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध है । श्री हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत व्याकरण में भक्ति को 'श्रद्धा' कहा है ।१ आचार्य समन्तभद्र ने भी श्रद्धान् और भक्ति का एक ही अर्थ माना है ।२ जैन शास्त्रों में श्रद्धा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। श्रद्धा से मोक्ष तक मिल सकता है। श्रद्धान् को सम्यक दर्शन कहा है और सम्यक् दर्शन मोक्ष का साधन बताया है।३ जैन आचार्यों ने 'दर्शन' का अर्थ श्रद्धान् किग है और उसे ज्ञान से भी पहले रखा है।४ इस प्रकार श्रद्धा को स्वीकार कर मक्ति को ही प्रमुखता दी है।
जैन आचार्यों ने भक्ति की परिभाषाएं भी दी हैं । कुछ परिभाषाएँ द्रष्टव्य है
(१) आचार्य पूज्यपाद के अनुसार, 'अरहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में भाव विशुद्धि युक्त अनुराग ही भक्ति है ।"५
(२) आचार्य सोमदेव के मतानुसार, 'जिन, जिनागम और तप तथा श्रु त में परायण आचार्य में मद्भाव विशुद्धि युक्त अनुराग ही भक्ति है ।६
१. 'आचार्य हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण, डॉ० आर० पिशेल सम्पादित, बम्बई संस्कृत
मीरीज, १६००, २११५६ । २. आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित,
वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, पृ० ७२, ७५, श्लोक ३७, ४१ । ३. (क) श्रद्धानं परमार्थानामाप्ता गमतपोमृताम् ।
विमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्यम् ।।
वही, पृ० ३२ श्लोक ४ । (ख) योगीन्दु देव, परमात्माप्रकाग, श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये संपादित,
परमश्रत प्रभावक मंडल, वम्बई, पृ० १३८ २०१२ । ४. आवार्य भट्ट कलंक, तत्वार्थवाक्तिक, भाग १, पं० महेन्द्रकुमार संपादित, हिन्दी ___अनुवाद, पृ० १७६ । ५. "अहंदाचार्ये प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।"
आचार्य पूज्य गद, सर्वार्थसिद्धि, पं० फूलचन्द संपादित भाप्य, पृ० ३३६ । ६. जिने जिनागमे सूगै तपः श्रुतपरायणो ।
सद्मावशुद्धि सम्पन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥ Prof. K. K. Handiqui, yasastilak and Indian Culture, Jain Sanskriti Samarkashaka Sangha, Sholapur, 1949, P. 262.
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आलोचना-खंड
आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों की प्रेरणा का स्रोत यही अनुरागमय जिनेश्वर भक्ति या आत्मरति है । महात्मा आनंदघन ने इस भाव को अधिक स्पष्ट करते हुए बताया है कि जिस प्रकार कामी व्यक्ति का मन, अन्य सब प्रकार की सुधबुध खोकर काम-वासना में ही लगा रहता है, अन्य वातों में उसे रस नहीं मिलता; उसी प्रकार प्रभु नाम और स्मरणादि रूप भक्ति में, भक्त की अविचल निष्ठा वनी रहती है । १ अनुराग की-सी तल्लीनता और एकनिष्ठता, अन्यत्र संभव नहीं । एक अन्य स्थान पर भक्ति पर सम्बन्ध में महात्मा आनन्दघन ने कहा है, 'जिस प्रकार उदर भरण के लिए गौयें वन में जाती हैं, वहां चारों ओर फिरती हैं और घास चरती है, पर उनका मन घर रह गये अपने बछड़ों में लगा रहता है । ठीक इसी प्रकार संसार के सब काम करते हुए भी भक्त का मन भगवान के चरणों में लगा रहता है । सहेलियाँ हिल - मिलकर तालाब या कुएँ पर पानी भरने जाती हैं। रास्ते में ताली वजाती हैं, हँसती हैं, खेलती हैं, किन्तु उनका व्यान सिर पर धरे घड़े में ही लगा रहता है | वैसे ही संसार के कामों को करते हुए भी भक्त का मन तो प्रभु चरणों में ही लगा रहता है | २
जैनों का भगवान वीतरागी है जो सव प्रकार के रागों से मुक्त होने का उपदेश देता है । इस वीतरागी के प्रति राग 'बन्ध' का कारण नहीं, क्योंकि इसमें किसी प्रकार की कामना या सांसारिक स्वार्थ सन्निहित नहीं । वीतराग में किया गया अनुराग निष्काम ही होता हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने वीतरागियों में अनुराग करने वालों को योगी बताया है । ३ वीतरागी की 'वीतरागता' पर रीझकर ही भक्त उससे
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- आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्मप्रसारक मण्डल, वम्बई । ऐसे जिन चरण चितपद लाऊ रे मना,
२.
९. जुवारी मन जुवा रे, कामी के मन काम |
आनन्दघन प्रभु यो कहै, तू ले भगवत को नाम ||४||
ऐसे अरिहन्त के गुण गाऊ रे मना । उदर मरण के धारणे रे गडवां वन में जांय । चारों चरै चहुंदसि फिर, वाकी सुरत बछरूआ मांय ॥ १ ॥ सात पांच सहेलियां रे हिलमिल पाणीडे जायं । ताली दिये खल खल हँसे, वाकी सुरत गगरूआ मांय || --आनन्दघन पद संग्रह, अव्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई ।
३. देवगुरुम्मिय भत्तो साहिम्मय संजुदेसु अरगुरती || सम्मत्त मुव्वहंतो झाणरओ होइ जोईसो ||
- अष्टपाहुड, पाटनी जैन ग्रन्थमाला, मारौठ (मारवाड़) मोक्ष पाहुड, गाथा ५२
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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अनुराग करने लगता है। बदले में वह न दया चाहता है, न प्रेम, न अनुग्रह । यह वीतरागी के प्रति निष्काम अनुराग जैन भक्ति की विशेषता कही जा सकती है।
जैन भक्त कवियों ने वीतरागी प्रभु को अपनी प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति द्वारा प्रसन्न कर अपना कोई लावि क या उ..विक वार्य रिंद्ध कराने की 3.पेक्षा नहीं की है । जैनदर्शन में यह संभव भी नहीं। सच्चिदानन्दमय वीतरागी प्रभु में रागांश का अभाव है, उनकी भक्ति, स्तुति या पूजा द्वारा कुछ भी दिया, दिलाया नहीं जा सकता। वे तो निन्दा और स्तुति, मक्ति और ईर्ष्या दोनों के प्रति उदासीन हैं । फिर भी निन्दा या स्तुति करने वाला स्वयं दण्ड या आत्मिक अभ्युदय अवश्य प्राप्त करता है। कर्मों का भोक्ता और कर्ता स्वयं जीव ही है। अपने कर्मो का फल तो उसे - भोगना ही पड़ता है। प्रभु किसी को किसी प्रकार का फल नहीं देता। अतः जैन भक्ति में अकिंचन या नैराश्य की भावना नहीं। जान-ज्योति के प्रज्वलन की यह भक्ति आराधक की आत्मा में एक स्वच्छ एवं निर्मल आनन्द की सृष्टि करती है।
जैन कवियों की भक्ति का मूल मुक्ति की भावना में है। कर्मों से छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है ।१ जैन गूर्जर कवियों में भक्ति से मुक्ति मिलने का प्रबल विश्वास मुखर हुआ है। इस मुक्ति की याचना में भक्त के जिनेन्द्रमय होने का भाव है। इसे लेन-देन का भाव२ इसलिए भी नहीं कह सकते कि जिनेन्द्र स्वयंमुक्ति रूप ही हैं।
ज्ञान की अनिवार्यता भी इन कवियों ने स्वीकार की है। साधना के तीन बड़े मार्ग हैं-भक्ति, ज्ञान और कर्म । जान मानव को उस अज्ञात के तत्वान्वेषण की ओर खींचता है, कर्म जीवन की व्यावहारिकता में गूथता है और भक्ति में संसार और परमार्थ की एक साथ मधूर साधना की ओर प्रवृत्ति होती है। यही कारण है कि माधुर्य को भक्ति का प्राण कहा गया है। बाह्याचारों-नवधा-भक्ति एवं पोडगोपचार पूजा को भी भक्ति के अंग माने गये हैं। परन्तु भक्ति की सहज स्थिति तो देवत्व के प्रति रसपूर्ण आकर्पण में ही है। अतः भक्ति देवतत्व के माधुर्य से ओतप्रोत मन की अपूर्व रसानन्द की अलौकिक दणा है।
जैन-दर्शन में भक्ति का रूप दास्य, माधुर्य आदि भाव की भक्ति से भिन्न अवश्य है फिर भी इन भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के दर्शन में इनमें अवश्य होते हैं ।
१. 'वन्धेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्रन-कर्मक्षयी मोक्षः' तत्वार्थ सूत्र, १०१२-१०१३ । २. आ० रामचन्द्र शुक्ल ने इसे लेन-देन का भाव कहा है, चिन्तामणि प्रथम भाग,
पृ० २०५।
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आलोचना-खंड
कारण यह है कि इस प्रकार की भक्ति से आराधक की आत्मा अपने शुद्ध रूप में प्रगट हो जाती है । माधुर्य, दास्य, विनय, सख्य, वात्सल्य, दीनता, लघुता आदि भाव वैसे ही साधारण्य में आये हैं जैसे अपने को शुद्ध करने के लिए अन्य शुद्धात्माओं का आश्रय लिया जाता है। इन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त, आलोच्य युगीन जैन गुर्जर कवियों की भक्ति-भावना का अब हम विस्तार से अध्ययन आगे के पृष्ठों में करेंगे। जेन गुर्जर हिन्दी कवियों की कविता में भक्ति निरूपण माधुर्य भाव :
___ गाण्डिल्य ने भगवद्विषयक अनुराग को 'परानुरक्तिः' कहा है ।१ यह गम्भीर अनुगग ही प्रेम है। चैतन्य महाप्रभु के अनुसार रति या अनुराग का गाढ़ा हो जाना ही प्रेम है ।२ भगवद्विषयक प्रेम अलौकिक प्रेम की कोटि में आता है। भगवान को अवतार मानकर उनके प्रति लौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति अवश्य हुई है पर यहां अलौकिकत्व भाव मदैव बना रहा है। इस अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता में संपूर्ण आत्मसमर्पण होता है अतः द्वैतभाव का प्रश्न ही नहीं रहता।
समर्पण भक्ति का प्रधान भाव है। इन जैन कवियों ने प्रभु के चरणों में अपने को समर्पित किया है। इनके समर्पण में एक निराला सौंदर्य है, जिनेन्द्र के प्रति प्रेम-भक्ति की तल्लीनता है। यह वात आनन्दधन, यशोविजय, विनयविजय, ज्ञानानंद, कुमुदचंद्र, रत्नकीर्ति, शुभचंद्र आदि के पदों में विशेष रूप से देखी जा सकती है।
इन कवियों ने इस अलौकिक प्रेम, तत्जन्य आत्मसमर्पण और रागात्मक भाव की अभिव्यक्ति के लिए "दाम्पत्य रति" को लोकिक आधार रूप में स्वीकार किया है। 'दाम्पत्य रति' का अर्थ पति-पत्नी के प्रेम से है। प्रेम का जो गहरा सम्वन्व पति-पत्नी में संभव है, अन्यत्र नहीं। इसी कारण कान्ताभाव से इन कवियों ने भगवान की आराधना की है। भक्त स्त्री रूप है, परमात्मा प्रिय ( कपाय युक्त जीवतत्व मक्त है और कपाय मुक्त आत्मतत्व परमात्मा है।) इस दाम्पत्य भाव का प्रेम इन कवियों की कविता में उपलब्ध होता है। आनन्दधन के भगवान स्वयं भक्त के घर आये हैं, भक्त के आनन्द का पारावार नहीं। आनन्दघन की सुहागन नारी के नाय स्वयं आये हैं और अपनी 'जिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है और उसे अपनी 'अंगचारी' बनाया है। लम्बी प्रतीक्षा के वाद आये हैं, वह प्रसन्नता में विविध भांति के शृङ्गार करती है। प्रेम, विश्वास, राग और रुचि के रंग से रंगी झीनी साड़ी पहनी है। भक्ति के रंग की मेंहदी रचाई है और अत्यन्त सुख देने वाला भाव १. शाण्डिल्य भक्तिसूत्र, गीता प्रेस, गोरखपुर, ११२, पृ० १ । २. कल्याण, भक्ति अंक, वर्ष ३२, अंक १, चैतन्य चरित्रामृत, पृ० ३३३ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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रूपी अंजन लगाया है। सहज स्वभाव रूपी चूड़ियां, स्थिरता रूपी भारी कंगन, वक्ष पर ध्यान रूपी उरवसी (गहना) धारण की है तथा प्रिय के गुणों रूपी मोती की माला गले में पहनी है। सुरत रूप सिंदूर मांग में भरा है और बड़ी सावधानी से निरति रूपी वेणी संवारी है। आत्मा रूपी त्रिभुवन में आनन्द-ज्योति प्रगट हुई है
और केवल ज्ञान रूपी दर्पण हाथ में लिया है। उस प्रकाशमान ज्योति से वातावरण झिलमिला उठा है। वहां से अनहद का नाद भी उठने लगा है । अब तो उसे लगातार एकतान से पिय-रस का आनंद सराबोर कर रहा है। प्रिय मिलन के लिए आतुर बनी सुहागिन की यह साज-सज्जा का रूपक दाम्पत्य भाव का उज्ज्वल प्रमाण है ।१ कभी भक्त की विरहिणी मिलनातुर बनी अपनी तड़फन अभिव्यक्त करती है । आनंदघन की विरहिणी अपने कंचनवर्णी प्रिय के मिलन के लिए विरहातुर हो उठी है, उसे किसी प्रकार का शृङ्गार नहीं भाता । न आँखों में अंजन लगाना अच्छा लगता है न और किसी प्रकार का मंजन या शृङ्गार । पराये मन की अथाह विरह वेदना कोई स्वजन ही जान सकता है। शीतकाल में बन्दर की तरह देह थर-थर कांप रही है । विरह में न तो शरीर अच्छा लगता है, न घर और न स्नेह ही, कुछ भी ठीक नहीं लगता, अब तो एक मात्र प्रिय आकर वांह पकड़ें तो दिन रात नया उत्साह आ सकता है
"कंचन वरणो नाह रे, मोने कोई मेलावो; अजन रेख न आंखड़ी भावे, मंजन गिर पड़ो दाह रे ।। कोई सयण जाणे पर मननी, वेदन विरह अथाह । थर थर देहड़ी ध्रुजे माहरी, जिम वानर भरमाह रे ।।
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१. आज सुहागन नारी, अवधू आज सुहागन नारी;
मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अङ्गचारी ॥१॥ प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जीनी सारी ।। महिंदी भक्ति रंग की राजी, भाव अंजन मुखकारी ।।२।। सहज सुमाव चूरियां पेनी, धिरता कंकन मारी। ध्यान उरवशी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी ॥३॥ सुरत सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी। उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, आरसी केवल धारी ॥४॥ उपजी धुनी अजपाकी अनहद, जिम नगारे वारी। झड़ी सदा आनंदघन वरसत, वनमोर एक न तारी ।।५।। आनन्दघन पग संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मडल, बम्बई, पद २० पृ० ४६ ।
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मालोचना-खंड
देह न गेह न नेह न रेह न, मावे न दुहडा गाह।
आनंदधन वहालो वाहडी साहि, निशदिन धरू उछाह रे ॥३॥"?
अलौकिक दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति आनन्दघन के पदों की विशेष भाव सम्पत्ति कही जा सकती है। प्रिय के प्यारे के लिए प्रिया हमेशा तरसती रहती है। कमी अपने पर और प्रिय पर से विश्वास भी उठने लगता है। ऐसे समय 'चेतन' 'समता' से कहते हैं, 'तू तो मेरी ही है, मेरी पत्नी है. तू डरती क्यों है ? माया-ममता आदि तेरे प्रतिस्पर्धी अवश्य है। पर ये डेढ़ दिन की लड़ाई में शांत हो जायेंगे । इस बात में कोई कपट नहीं है ।२ कवि ने अनेक सुन्दर रूपकों द्वारा प्रतिरूपी मुक्त-आत्मा और पत्नी रूपी समता (जीव) का सम्बन्ध लोकोत्तर भाव भूमि पर अभिव्यक्त किया है।३ अनेक स्थलों पर इनकी विरहानुभूति भी अत्यन्त मार्मिक बन पड़ी है ।४ कवि यशोविजय का भक्त हृदय भी चेतनरूप ब्रह्म के विरह में व्याकुलता अनुभव करता है। भक्त की आत्मा प्रेम-दीवानी वनकर पिउ पिउ की पुकार करती है। वह अपनी सखी से पूछती है, चेतनरूप प्रिय कब मेरे घर आयेंगे । अरि ! मैं तेरी बलया लेती हूँ तू बता दे, वे कव मेरे घर आयेंगे । रात-दिन उनका ध्यान करती रहती हूँ, प्रतीक्षा करती हूँ, पता नहीं वे कब आयेंगे। विरहिणी की व्याकुलता, उत्कांठा और प्रतीक्षा के भाव द्रष्टव्य हैं
"कब घर चेतन आवेगे ? मेरे कब घर चेतन आवेंगे? सखिरि ! लेवु वलया बार वार, मेरे कव घर चेतन आवेंगे? रेन दीना मानु ध्यान तुसाढा, कवडंके दरस देखावेंगे? विरह-दीवानी फिरु ढूढ़ती, पीउ पोउ करके पोकारेंगे; पिउ जाय मले ममता सें, काल अनन्त गमावेगे । करूं एक उपाय में उद्यम, अनुभव मित्र बोलावेंगे;
आय उपाय करके अनुभव, नाथ मेरा समझावेंगे।"५
कभी वह चेतन रूप ब्रह्म के दर्शन के लिए ललाचित है,६ तो कभी 'कंत विनु कहो कौन गति नारी' समझ कर प्रिय को मना लेना चाहती है ।७ १. वही-(देखिए पिछले पृष्ठ पर)। २. आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, पद ४३-४४ । ३. वही, पद ३० । ४. वही, पद १६, ३६, ६२ । ५. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० १६९-७० । ६. वही, पृ० १७१ । ७. वही, पृ० १७०।
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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प्रेम तत्व के पारखी कवि जिनहर्ष ने भी इसी प्रकार की प्रेम-पीड़ा का प्रकाशन किया है । इनके विरह-वर्णन के प्रसंग बड़े ही मार्मिक वन पड़े हैं। विरही मन की विभिन्न दशाओं का स्वाभाविक वर्गन जिनहर्ष की कविता में देखने को मिलता है । प्रेम-तत्व का ऐसा उज्ज्वल निदर्शन कम कवियों ने ही किया है। पावस ऋतु है, घनघोर घटा उमड़ आई है। प्रिय के विना कवि की विरहिणी आत्मा तड़प उठी है, आंखों में नीर उभर आया। संयोग की लालसा और सोलह सिंगार की बात मन में ही रह गई । मन अकुला उठा है, फिर भी प्रिया का मन प्रिय-चरणों में लिपटा हुआ है । ऐमी विरह-दुखिता जगत् में और कोई न होगी
"सखी री घोर घटा घहराई । प्रीतम विणि हुँ भई अकेली, नइणां नीर भराई ॥१॥ देखि संयोगिणि पिउ संग खेलत, सोल सिंगार बनाई। मन की बात रही मन ही महं, मन ही मई अकुलाई ॥२॥ धन वैपारी प्यारी प्रिउ की, रहत चरण लपटाई।
मो सी दुखणी अउर जगत में, कहत जिनहरख न काइ ॥३॥"१
विरह के ऐसे प्रसंगों में कवि के हृदय का भक्ति-रस मिश्रित माधुर्य भाव टपक पड़ा है। प्रेम-नत्व के गायक कवि जिनहर्प ने अपनी 'दोधक-छत्तीसी' रचना में विरही मन की विभिन्न दशाओं का बड़ा ही स्वाभाविक एवं मार्मिक वर्णन किया है ।२
जानानंद की विरहिणी में भी यही भाव है। प्रिय परदेश है, वसंत ऋतु रंग
१. जिनहर्ष ग्रन्थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पद संग्रह, पृ० ३४५ ।
जिण दिन सज्जन वीछड्या, चाल्या सीख करेह । नयगे पावस उलस्यो, झिरमिर नीर झरेह ।।१।। सज्जण चल्या विदेसडै, ऊमा मोल्हि निराश ।। हियडा में ते दिन थकी, भाव नाहीं सास ॥२॥ जीव थकी वाल्हा हता, सज्जनिया ससनेह । आडी भुय दीधी घणी, नयण न · दीस तेह ।।३।। खावी पीवी खेलवी, कांई न • गंमइ ..मुम्झ । हियडा मांही रातं दिन, ध्यान धरूं'. इक तुज्झ ।।४।। सयणा सेती प्रीतडी, कीधी घण सनेह । दैव विछोहो पाडियो पूरी न पड़ी तेह ॥५॥
-~-दोधक छत्तीसी, वही, पृ० ११७ ।
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मालोचना-खंद
सौरभ सुषमा के साथ खिल आई है। लालची प्रिय दूर देश चला गया है, पत्र भी एक न दिया। निर्मोही, निर्दय प्रिय, पता नहीं किस नारी के प्रेम में फंस गया है। वसंत मास की अंधेरी रात है, अकेली कैसे रहूँ, कैसे विरह शांत कर। इस भाव का पद देखिए
"मैं कैसे रहुं सखी, पिया गयो परदेशो |मैं०।। रितु वसंत फूली वनराइ, रंग सुरंगीत देशो ॥१॥ दूर देश गये लालची वालम, कागल एको न आयो। निर्मोही निस्नेही पिया मुझ, कुण नारी लपटायो ।।२।। वसंत मासनी रात अंधारी, कैसे विरह बुझायो ।
इतने निधि चारित्र पुत वल्लभ, ज्ञानानंद घर आयो ॥३॥"१ विनय विजय की विरही आत्मा तव तक जन्म मरण के चक्कर में भटकती रहेगी जब तक जीवन-रूप उस प्रिय को खोज नहीं पायेगी। वह विरह दिवानी बनी प्रिय को ढूढती फिरती है, साज-सज्जा तनिक भी नहीं माती। है मेरी सविओं। मैं अपने रूप रंग और यौवन से पूर्ण देह विना प्रिय के किसे दिखाऊ। मैं उस निरंजन नाथ को प्रसन्न करने के लिए पूर्ण शृङ्गार करूंगी। हाथ में सुन्दर वीणा लेकर सुन्दर नाद से उस मोहन के गुण गाऊंगी। प्रिय को देखते ही मणि-मुक्ताफल से थाल भर कर उनका स्वागत करूंगी। फिर प्रेम के प्याले और ज्ञान की चालें चलेंगी और इस तरह विरह की प्यास बुझाऊंगी। प्रिय सदा मेरी आत्मा में रहेंगे और आत्मा प्रिय में मिलेगी। ज्योत से ज्योत मिल जायगी तब पुनः संमार में नहीं आना पड़ेगा ।२ यह है कवि की अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता जहां द्वैतभाव का लय हो गया है।
१. २.
भजन संग्रह, धर्मामृत, पं० वेचरदास, पृ० २३ । विरह दिवानी फिरू हुं ढूढती, सेज न साज सुहावेंगे । रूप रंग जोवन मेरी सहियो, पियु विन कैसे देह दिखावेंगे । नाथ निरंजनं के रंजन कु, बोत सिणगार बनावेंगे । कर ले बीना नाद नगीना, मोहन के गुन गावेंगे । देखत पियु कु मणि मुक्ताफल, भरी भरी थाल वधावेंगे । प्रेम के प्याले ज्ञान नी चाले, विरह की प्यास बुझायेंगे । सदा रही मेरे जिउ में पिउजी, पिउ में जिउ मिलावेंगे । विनय ज्योति से ज्योत मिलेगी, तव इहां वेह न आवेंगे ।
-वही, पृ० ४०।
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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
आध्यात्मिक विवाह :
इन कवियों के आध्यात्मिक विवाह के प्रसंगों को इसी प्रेम के संदर्भ में लिया जा सकता है । 'दीक्षा कुमारी' अथवा 'संयमश्री' के साथ विवाहों के वर्णन करने वाले कई रास जैन कवियों ने रचे हैं, जिनमें से कई 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में संकलित हैं । इस प्रकर की रचनाओं में श्रावक ऋषभदास का "आदीश्वर वीवाहला' प्रसिद्ध रचना है | भगवान ने विवाह के समय चुनडी ओढ़ी थी, ऐसी चुनडी बनवा देने के लिए अनेक पत्नियां अपने पतियों से प्रार्थना करती रही हैं । तीर्थङ्करों की चारित्र रूपी चुनडी को धारण करने के संक्षिप्त वर्णनों के लिए ब्रह्म जय सागर की 'चुनडी गीत' तथा समयसुन्दर की 'चारित्र चुनडी' महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । साधुकीति की 'चुनडी' भी प्रसिद्ध रचना है, जिसमें संगीतात्मक प्रवाह है । कवि कुमुदचंद्र कृत 'आदिनाथ (ऋषभ) विवाहलों' रचना में कवि ने अपने आराध्य देव का दीक्षा कुमारी, संयम श्री अथवा मुक्तिव से विवाह कराया है । कवि का यह सुन्दर खण्डकाव्य है, जिसमें वर-वधू का सौंदर्य वर्णन तथा विवाह में बनी सुस्वादु मिठाइयों का भी उल्लेख है । १ नेमी- वर- राजुल का प्रेम
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नेमीश्वर एवं राजुल के प्रेम के कथानक को लेकर इन भक्त कवियों ने दाम्पत्य रति के माध्यम से अपनी भक्ति भावना की अभिव्यक्ति की है। जहां विवाह के लिए राजुल को सजाया गया है वहां मृदुल काव्यत्व फूट पड़ा हैं । एक तरफ विवाह मण्डपम वधू प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है, दूसरी ओर नेमी पिंजड़ों में वन्द मूक- पशुओं की करुण पुकार सुनकर अपनी वरातं वापस लौटा लेते हैं और संयम धारण कर लेते हैं । इस समय राजुल के मन में उठी तिलमिलाहट, व्यग्रता एवं पति को पालने की बेचनी आदि सूक्ष्म भावनाओं का स्वाभाविक चित्र हेमविजय की कविता में अति हो उठा है । २ निःसंदेह ऐसे चित्र अन्यत्र वहुत कम मिलते हैं । नेमिनाथ और राजुल के प्रसंग को लेकर फाग काव्यों की भी रचना हुई है । ऐसे फागों में संयोग और वियोग की विभिन्न भाव - दशाओं के अच्छे वर्णन प्राप्त होते हैं । वीरचंद्र त्रिरचित 'वीर विलास फाग' के अन्य सुन्दरतम् वर्णनों के साथ राजुल - विलाप का प्रसंग भी उल्लेखनीय है । विरह की इस मार्मिक दशा के प्रति हर पाठक की समवेदना वरस पड़ती है
" कनकमि कंकण मोड़ती, मोड़ती मिणि सिंहार । लू चती केश कलाप, विलाप करि अनिवार ||७०||
९. इसी ग्रंथ का दूसरा प्रकरण, कुमुदचंद |
२. इसी ग्रंथ का दूसरा प्रकरण, विजय |
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आलोचना-खंड
नयणि नीर काजलि गलि, रलदलि भामिनी पूर ।
किम करू कहिरे साहेलडी, विहि नडि गयो मझनाइ ॥७१॥"?
कवि समयसुन्दर, यशोविजय, जिनहर्ष, धर्मवर्द्धन, विनयचन्द्र, कुमुदचन्द, रत्नकीर्ति, शुभचंद आदि अनेक कवियों ने नेमी और राजुल के प्रेम से संबंधित कई पदों की रचना की है । इनमें राजुल के रूप में कवियों की विरहिणी भक्त-आत्मा की सच्ची पुकार अभिव्यक्त हुई है। इसी प्रकार की करुण पुकार कुमुदचंद्र की राजुल की उठी है। उसके लिए अब अधिक विरह सहन करना मुश्किल हो गया है। प्रिय का प्रेम भुलाया नहीं जा सकता। तन क्षण क्षण घुल रहा है, उसे न प्यास लगती है और न भूख लगती है । नींद नहीं आती और बार-बार उठकर गृह का आंगन देखती रहती है ।२ कवि रत्नकोति भट्टारक की ,राजुल अपनी सखियों से नेमि से मिलाने की प्रार्थना करती है और कहती है, नेमि के विना यौवन, चन्दन, चन्द्रमा आदि सब फीके लगते हैं। भवन और कानन भरे मन असह्य कामदेव का फन्दा है । माता,पिता, सखियां एवं रात्रि सभी दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। तुम तो शंकर कल्याणकारी और सुखदाता हो, कर्म वन्धनों को थोड़ा ढीला कर दो। इन भावों का एक पद द्रष्टव्य है
"सखि को मिलावो नेम नरिंदा ॥ ता विन तनं मन योवन रजत है, चारू चन्दन अरू चन्दा ॥सखि०॥१॥ कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुसह मदन को फन्दा। तात मात अरु सजनी रजनी। वे अति दुख को कन्दा सखि०॥२॥ तुम तो संकर सुख के दाता, करम काट किये मन्दा ।। रतन कीरति प्रभु परम दयालु,
सेवत अमर नरिन्दा ॥सखि०॥३॥"३ फिर प्रेम की अनन्यता देखिए, राजुल के घर स्वयं नेमि आये है । मृगनयनी राजुल उत्पुल्ल हो उठी है, प्रभु की रूप सुधा में सराबोर हो गई है
१. वही, वीर, विलास फाग, वीरचन्द्र । २. इसी अन्य का दूसरा प्रकरण, कुमुदचन्द्र । ३. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर, पृ० ५।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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"राजुल गेहे नेमि आय ।। हरि वंदनी के मन मायं, हरि को तिलक हरि सोहाय ॥राजुल०॥ कंवरी को रंग हरी, ताके संग सौहे हरी, तां टंक को तेज
हरि दोई श्रवनि ।
सकल हरि अङ्ग करी, हरि निरखती प्रेम भरी ।
तन नन नन नीर, तत प्रभु अवनी ।।"१
कवि समयसुन्दर ने भी नेमीश्वर और राजुल को लेकर अनेक पदों का निर्माण किया है । राजमती के शब्दों में भक्तहृदय की तन्मयता और तीव्र अनुराग के भाव मुखरित हो उठे हैं___ "मिलतां सु मिलीयै सही सुपियारा हो,
जिम वापीयडो मेह; नेम सुपियारा हो। पिउ पिउ शब्द सुणी करी सुपियारा हो, - आय मिले सुसनेह, नेम सुपियारा हो ॥४॥ हूँ सोनी नी मुंदडी सुपियारा हो,
तू हिव हीरो होय, नेम सुपियारा हो। सरिखइ सरिखउ जउ मिलइ मुपियारा हो, " तउ ते सुन्दर होय; नेम सुपियारा हो ॥५॥"२
राजुल के वियोग में 'संवेदना' के स्थल अधिक हैं । कवि ने राजुल के अन्तस्थ विरह को स्वाभाविक वाणी दी है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है--
"सखि मोउ मोहनलाल मिलावइ ।स। दधि सुत बन्धु सामि तसु सोदर, तासु नंदन संतावइ ॥१॥स० वृषपति सुत वाहन तसु वालिम, मण्डन मोहि डरावइ । अगनि सखारिपु तसु रिपु खिणु खिणु, रवि सुत शब्द सुणावइ ।स०। हिमगिरि तनया सुत तसु वाहन, तास भक्षण मोहि भावइ ।
समयसुन्दर प्रभु कु मिलि राजुल, नेमि जिणद' गुण गावइ ।३।स।"३ १. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० ८ । २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, 'श्रीनेमि जिन स्तवन',
पृ० ११५। ३. वही, श्री नेमिनाथ गूढा गीतम्, पृ० १२८ । ।
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आलोचना-खंड
धर्मवर्घन की राजुल को प्रिय वियोग में पल-पल वर्ष समान लग रहे हैं । पानी विना मछली की-सी तड़फन अनुभव कर रही है । रात्रि में वियोगी चकवी की भांति उसका चित्त व्याकुल हो रहा है। कोयल अनेक वृक्षों को छोड़ आम्रवृक्ष की डाल पर ही उल्लास का अनुभव करती है । इस भाव का स्तवन देखिये
"इक खिण खिण प्रीतम पखे रे लाल, वरस समान विहास हे सहेली। पाणी के विरहैं पड्या रे लाल, मछली जेम मुरझाय हे सहेली ॥३॥ चकवी निस पिउ सुचहै रे लाल, त्यु मुझ चित्त तल फाय हे सहेली। कोडि विरख तज कोइली रे लाल, आंवा डाल उम्हाय हे सहेली ॥४॥"?
नेमिनाथ और राजुल के कथानक को लेकर 'वारहमासा' भी अनेक रचे गये हैं । कवि लक्ष्मी वल्लभ और जिनहर्ष प्रणीत बारहमासे उत्तम कोटि के हैं । लक्ष्मी वल्लभ की ग्नेमि राजुल बारहमासा' कृति में प्रकृति के रमणीय सान्निध्य में विरहिणी के व्याकुल मावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है, 'श्रावण का महीना है, चारों
ओर विकट घन घोर घटाएँ उमड़ आई हैं। मोर शोर मचा रहे हैं। आकाग में दामिनी दमक रही है। कुम्भस्थल के से स्तनों वाली भामिनियों को प्रिय का संग मा रहा है । स्वाती नक्षत्र की वू'दों से चातक की पीड़ा दूर हो गई है । पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है, किन्तु राजुल का न तो पिय ही आया न पत्र ही ।"२ कवि जिनहर्ष के 'नेमि बारहमास' के १२ सवैयों में सौंदर्य एवं आकर्षण परिव्याप्त है। श्रावण मास में राजुल की विरह व्यथित दशा का चित्र उपस्थित करता कवि कहता है, 'श्रावण मास है, बादल की घनघोर घटाएँ उमड़ आई हैं। विजली झलमलाती चमक उठती है, उसके मध्य से वज्र-सी व्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष-वेलि के समान लगती है। पपीहा "पिउ-पिउ' पुकार मचा रहा है। दादुर और मोर भी शोर मचा रहे हैं। ऐसे समय में यदि नेमि मिल जाय तो राजुल
१. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, 'नेमि राजमति स्तवन',
पृ० १६२। २. उमटी विकट घन घोर घटा चिहुं ओरनि मोरनि सोर मचायो।
चमकै दिवि दामिनि यामिनि कुभय भामिनि कुपिय को संग भायो । लिव चातक पीउ ही पीड लई, भई राजहरी मुइ देह दिपायो। पतियां पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण आयो पे नेम न आयो ।
-नेमि राजुल वारहमासा, लक्ष्मी वल्लभ, प्रस्तुत प्रवन्ध का तीसरा प्रकरण।
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जन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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अत्यधिक सुख अनुभव करे ।'१ ठीक इसी प्रकार प्रत्येक मास में विरह में उठने वाली विभिन्न भाव-दशाओं के उत्तमोत्तम चित्र इन कवियों ने प्रस्तुत किये हैं । विनयचंद्र, झ्यामसुन्दर और धर्मवर्धन के 'बारहमास' भी इस दृष्टि से छच्छे काव्य हैं । आपाढ़ में मेह उमड़ आया है, सब के प्रिय अपने-अपने घर आ गये हैं। समयसुन्दर की राजुल भी अपने प्रिय की प्रतीक्षा कर रही है ।२ 'आध्यात्मिक होलियाँ
जन गूर्जर कवि आध्यात्मिक होलियों की भी रचना करते रहे हैं, जिनमें होली के अंग-उपांगों से आत्मा का रूपक जोड़ा है। ऐसी रचनाओं में एक विशेप आकर्षण है, पावनता भी है। 'फाग' संबक रचनाओं में यही बात है। इस प्रकार की रचनाओं में लक्ष्मीवल्लभ कृत 'अध्यात्म फाग' महत्वपूर्ण कृति है। यह एक सुन्दर रूपक काव्य है । शरीर रूपी वृन्दावन कुन्ज में ज्ञान वसन्त प्रगट होता है । बुद्धि रूपी गोपी के साथ पंच गोगों (इन्द्रियां) की मिलन-वेला सजती है । सुमति राधा के साथ आतम हरि होली खेलते हैं ।३ यशोविजय जी के भी 'होरी गीत' मिलते हैं। एक
घन की घनघोर घटा उनही, विजुरी चमकंति झलाहलिसीं । विचि गाज अगाज अवाज करत सु, लागत मो विप वेलि जिसी ।। पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै अलि सी। ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिल, सुन्न होत कहै जसराज रिसी।
-नेमि बारहमासा, जिनहर्ण, जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २,
पृ० ११७६ । ३. आपाढ़ उमट्या मेह, गया पंथि आपणि गेह ।
हुँ पणि जोडं प्रिय वाट, खांति छाउं खाट ॥१२॥ -समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, नेमिनाथ वारह
मासा, पृ० १२१ । . ३. आतम हरि होरी खेलिये, अहो मेरे ललनां
सुमति राधाजू के संगि। मुख सुरतरु की मंजरी हो, लई मनु राजा राम, अब कउ फाग अति प्रेम कर हो, सफल कीजे मलि स्याम । आतम० .
बजी सुरत की बांसरी हो, उठे अनाहत नादं, तीन लोक मोहन भए हो, मिट गए दंद विषात आतम०॥७॥ --अध्यात्म फागु, लक्ष्मीवल्लभ, प्रस्तुत प्रबन्ध का तीसरा प्रकरण ।
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आलोचना-खंड
गीत में कवि अपने आत्माराम को समझाते हुए कहते हैं, 'संसार में मानव जन्म बड़ा अमूल्य है, अनेक पुण्यों से मानव जन्म मिला है। अच्छा अवसर है, हे लाल ! तुम होरी क्यों नहीं खेलते | आयु घट रही है, अध्यात्म भाव धारण करो, विषयादि वृथा एवं मृग जल हैं । समतारूपी रंग, सुरुचि रूपी पिचकारी और ज्ञान रूपी गुलाल मे होरी खेलने सज जाओ । कुमति रूपी कुल्य पर झपट पड़ो और सब मिलकर उसे शिथिल कर दो। इस प्रकार अपने घट में ही फाग रचाओ । शम दम रूपी साज बजाकर निर्मल भाव से प्रभु गुण गान करो और गुलाल रूपी सुगन्ध फैलाकर, निर्गुण का ध्यान करो । रे मानव अलमस्त भला क्या पड़ा रहता है। इस भाव का पद देखिए"अयसो दाव मीत्योरी, लाल क्युं न खेलत होरी | अयसो ० मामव जनम अमोल जगत में, सो बहु पुण्ये लह्योरी; अब तो धार अध्यातम शैली, आयु घटन थोरी थोरी;
वृथा नित विषय ठगोरी || अयसो ० १ ॥ समता सुरंग सुरुचि पीचकारी, ज्ञान गुलाल सजोरी । झटपट घाय कुमति कुलटा ग्रही, हलीमली शिथिल करोरी ।
सदा घंट फाग रचोरी || अयसो ० २ ||
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शम दम साज बजाय सुघटनर, प्रभु गुन गान न चोरी । सुजम गुलाल सुगंध पसारो, 'निर्गुण व्यान धरोरी |
कवि धर्मवर्धन की माथ अध्यात्म फाग का उदात्त है-
कहा अलमस्त परो री || अयसो ०|| ३ || १ 'वसंत धमाल' भी ऐसी ही रचना है । वसंत वर्णन के सुन्दर सुमेल बैठाया है । प्रसंग बड़ा ही रमणीय एवं
" सकल सृजन-सैली मिली हो, खेलण समकित ख्याल | ज्ञान सुगुन गावै गुनी हो, खिमारस सरस खुस्याल ॥१॥
खेलो संत हसंत वसंत में हो, अहो मेरे सजनां रागः सु फाग रमंत ॥२॥ जिन शासन वन माहे मौरी विविध क्रिया वनराय ।
कुशल कुसम विकसित भये हो, सुजस सुगंध सुहाय |०||३|| कुह की शुभमति कोकिला हो, सुगुरु वचन सहकार |
भइ मालति शुभ भावना हो, : मुनिवर मधुकर सार | | ० ||४|| प्रवचन वचन पिचरका वाहै यार सु प्यार लगाइ । शुभ गुण लाल गुलाल की हो, झोरी-भरी अति हि झुकाइ ||५||
१. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० १७७ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वर महिमा मादल बजे हो, चतुराइ मुख चंग।
दया वाणी डफ वाजती हो शोभा तत्व ताल संग खे०॥६॥"१ .
महात्मा आनन्दघन ने अनन्य प्रेम को आध्यात्मिक पक्ष में बड़े आकर्षक ढंग से घटाया है । इन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में विरह की विविध दशाओं के, अनुपम चित्र भी उतारे हैं । त्रिया विरहिणी है। पति कहीं बाहर है। वह बिना पति के सुध-बुध खो बैठी है । महल के झरोखे में उसकी आंखें झूल रही हैं-प्रतीक्षारत है। पति नहीं आया । अब वह कैसे जीये। विरह रूपी भुजंग उसकी प्राण रूपी वायु को पी रहा है । विरह की आग सर्वत्र व्याप्त है। शीतल पंखा, कुमकुम और चंदन कुछ काम नहीं दे रहे हैं । शीतल पवन से विरहानल बुझता नहीं, वह तो तन के ताप को और भी बढ़ा देता है । ऐसी ही दशा में एक दिन होली जल उठी। सभी फाग और होली के खेल में मस्त हो गये । विरहिणी कैसे खेले । उसका तो मन जल रहा है । उसका शरीर वाक होकर उड़ जाता है। होली तो एक ही दिन जलती है, उसका मन तो प्रतिदिन जलता है । होली के जलने में एक आनन्द है और इस तन की जलन में दुःख है । हे प्रभु ! समता मन्दिर में बैठकर वार्तालाप रस बर्साना, मैं तुम्हारी बलि जाती हूँ अब इतने निष्ठुर कभी न होना
"पिया बिनु शुद्ध बुद्ध भूली हो । । आंख लगाइ दुख महल के झरूखे झूली हो । प्रीतम प्राणपति विना प्रिया, कैसें जीवे हो। प्राण पवन विरहदशा, भुयंगम पीवे हो । गीतल पङ्खा कुमकुमा, चंदन कहा लावे हो । अनल न विरहानल पेर, तनताप बढ़ावे हो ।। फागुन चाचर इक निशा, होरी सिरगानी हो । मेरे मन सब दिन जरे, तन खाक उड़ानी हो ॥ समता महेल विराज है, वाणी रस रेजा हो । वलि जाउं आनन्दघन प्रभु, ऐसे निठुर न व्हेजा हो ।।"२
सच्चे प्रेम में एक अनन्यता होती है। उसमें सर्वत्र प्रिय ही प्रिय है । इस अनन्यता एवं तल्लीनता की अपूर्वता आनन्दघन के पदों में सर्वत्र दृश्यमान है । 'आनन्दवन की सुहागिन के हृदय में ब्रह्म की अनुभूति का प्रेम जगा है। उसकी १. धर्मवर्धन ग्रन्थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६४ । २. आनन्दवन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धि सागर जी, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल,
बम्बई, पद ४१, पृ० ११६-१२३ ।
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आलोचना-खंड
अनादिकाल की अज्ञान-नींद समाप्त हो गई। हृदय के भीतर सहज ज्योति रूप भक्ति का दीपक प्रकाशित हो गया है। गर्व गल गया है और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई है । प्रेम का तीर एक ऐसी अचूक तीर है कि वह जिसे लगता है, वह वहीं ढेर हो हो जाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसे सुनकर आत्मा-रूपी मृग तिनके चरना भी भूल जाता है। प्रभु प्रेम मय है, उसके प्रेम की कहानी कही नहीं जा सकती।"
सुहागण जागी अनुभव प्रीत, निन्द अनान अनादि की मिट गई निज रीति ।।सुहा०॥१॥ घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप । आप पराइ आप ही, ठानत वस्तु अनूप ॥सुहा०॥२॥ कहा दिखावु और कू, कहा समझाउं भोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ढोर ॥सुहा०॥३॥ नाद विलुद्धो प्राण कू गिने न तृण मृगलोय । आनन्दघन प्रभु प्रेम की, अकथ कहानी वोय ।।सुहा०॥४॥"१
वात्सल्य भाव
भक्ति-रस का स्थायी भाव भगवद्विषयक रति है। रति के तीन प्रधान रूप हैं-दाम्पत्य और वात्सल्य और भगवद्विपयक । दाम्पत्य में मधुर भाव, वात्सल्य में वाल-लीला और भगवद्विषयक में विनय भाव से सम्बन्धित रचनाएं आ जाती हैं । दाम्पत्य और वात्सल्य मानव जीवन की दो प्रमुख वृत्तियां हैं। यों आचार्यों ने वात्सल्य को स्वतंत्र रस रूप में स्वीकार नहीं किया है, किन्तु उसकी चमत्कारिक शक्ति से प्रभावित हो कहीं-कहीं उसे पृथक् रस के रूप में भी स्वीकार किया गया है ।२ इस दृष्टि से इन कवियों की कविता में निरूपित वात्सल्य रस के आलम्बन साधु, सिद्ध, आचार्य, अर्हन्त आदि, आश्रय माता-पिता तथा अन्य परिवारीजन और उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आलंवनगत चेष्टाएँ और उत्सवांदि माने जा सकते हैं। अनुभावों में गोदी लेने का आग्रह तथा नजर उतारने की क्रियाएँ आदि ।
जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में यथा प्रसंग वात्सल्य के भी अच्छे वर्णन मिल जाते हैं। जन्म के अवसर पर होने वाले आकर्पक उत्सव तथा उनकी
१. आनन्दघन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धि सागर जी, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल,
वम्बई, पद ४, पृ० ७ । २. साहित्य दर्पण, विश्वनाथ, ३१२५१ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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छटा देखते ही बनती है । जैन साहित्य में तो वालक के गर्भ में आने के पूर्व ही कुछ ऐसे वातावरण की सर्जना होती रही है कि उसके जन्म के पूर्व ही वात्सल्य पनप उठता है । तीर्थंकरों के गर्भ में आने के उत्सव मनाये जाते हैं, जिन्हें जैन साहित्य में 'कल्याणक' कहते हैं | इनका वर्णन बड़ा ही अनुभूति पूर्ण हुआ है ।
बालक ऋषभदेव धीरे-धीरे बड़े होते हैं और कवियों के द्वारा बाल सुलभ सरल, भोली चेष्टाओं का वर्णन भी हृदयकारी ढंग से प्रस्तुत किया गया है
" दिन दिन रूपे दीपतो, कांइ वीज तणो जिम चन्द रे । सुर वालक सायेरमे, सहु सज्जन मनि आणंद रे ।। सुन्दर वचन सोहामणां, वोले वादु अडो वाल रे । रिमझिम वाजे घूघरी, पगे चाले वाल मराल रे ॥ १
कुछ कवियों ने अपने स्तवनों में मी तीर्थकरों की बाल लीलाओं के विशद् वर्णन किये हैं । कवि जिनराजसूरि ने आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के स्तवन में ऋषभ की सहज क्रीड़ाओं का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन किया है । इस वर्णन को पढ़कर महाकवि सूर और उनके कृष्ण सहज ही स्मरण हो आते हैं । मरुदेवी के मातृहृदय की तथा बालक ऋषभ की सहज, सुलभ क्रीड़ाओं की सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति का वह स्तवन द्रष्टव्य है
"रोम रोम तनु हुलसइ रे, सूरति पर वलि जाउ रे । कवही मोपइ आईयउ रे, हूँ भी मात कहाऊ रे ||३|| पगि घूघरडी घमघमइ रे, ठमकि ठमकि घरइ पाउ रे । वांह पकरि माता कहइ रे, चिवुकारइ चिपटी दीयइ रे, वोलइइ बोल जु मनमना रे,
खेलण आउ रे ॥४॥
गोदी हुलरावइ उर लाय रे । दंतिआ दोइ दिखाइ रे ||५||
*
बंगू लटू फेरि रे । फेरइ नीकइ घेर रे ॥ ६ ॥ अइसइ द्यइ आसीस रे । कोडाकोडि वरीस रे ॥१०॥ २
चटक चटपट चालवइ रे, रंग रंगीली चक्रडी रे, वहिणी लूण उतारती रे, चिर जीवे तू नानडा रे,
१. " पम विवाहला", कुमुदचन्द्र, प्रस्तुत प्रबन्ध का दूसरा प्रकरण |
२. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३१-३२ ।
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आलोचना-खंड
इसी तरह कवि समयसुन्दर ने भी अपने गीतों एवं स्तवनों में प्रभु की वालक्रीड़ा को भी भक्ति रूप में स्वीकार कर वात्सल्य भाव की सृष्टि की है"पग घूघरडी धम घमइ म्हारउ बालुण्डउ,
ठम ठम मेल्हइ पाय म्हारउ नान्हडिय उ । हेजइ मां हियडइ भीतर म्हारउ बालुयडउ,
आणंद अंगि न माय म्हारउ नान्हडियउ ॥३॥ बलिहाटी पुत्र ताहरी म्हारउ वालुयडउ,
तू मुझ प्राण आधार म्हारउ नान्हडियउ ।"१ इस प्रकार भक्ति के क्षेत्र में वात्सल्य भाव के विविध पार्यो और मनोदगाओं को लेकर किये गये अनेक वर्णन, जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में (मुक्तकों एवं चरित्र ग्रन्थों) अंकित हैं। इनमें काव्य-सौष्ठव और सरसता है किन्तु मूर-जैसे मनोदर्शन की क्षमता नहीं आ पाई है। सख्य भाव :
प्रभु की सखा भाव की भक्ति में बराबरी का दर्जा मुग्न्य होता है । इसमें भक्त और भगवान का मित्र भाव पर स्थित खुला संबंध निहित है। भगवान के भी अनुचित या भ्रमपूर्ण किसी काम की आलोचना अथवा उसका निराकरण भक्त मित्र भाव से करने लगता है।
जैन साधना की दृष्टि से कर्म-फल से रहित विशुद्ध आत्मा ही परमात्मा है, जिसे जैन शास्त्रों में सिद्ध कहा गया है। जीव उसी विशुद्ध आत्मा से प्रेम करता है, उसी के साथ उसका सखा भाव है। यह आत्मतत्व ही 'चेतन' नाम से पुकारा गया है । यह चेतन जब भ्रमवशात् उल्टे रास्ते पर चलता है, तो जीव सच्चे मित्र की भांति उसे सावधान करता है और अध्यात्म ज्ञान का उपदेश देता है । यगोविजय जी ने बड़े ही प्रेमपूर्ण ढंग से चेतन को उपदेश दिया गया है कि रे चेतन ! तू अपनी मोह दृष्टि का परित्याग कर ज्ञान दृष्टि को आत्मसात कर
"चेतन ! ज्ञान की दृष्टि निहालो, चेतन। मोह-दृष्टि देखे सो बाउरो, होत महा मतवालो चेतना। मोह-दृष्टि अति चपल करतुहे, भव वन वानर चालो; योग वियोग दावानल लागत, पावत नाहि विचालो चेतना२।
१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १०८ ।
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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मोह दृष्टि मद-मदिरा-माती, ताको होत उछालो, पर-अवगुन राचे सो अहनिशि, काग अशुचि ज्यौ कालो।चे०।५ ज्ञान दृष्टि मां दोष न एते, करो ज्ञान अजु आलो; चिदानंद-धन सुजस वचन रस, सज्जन हृदय परवालो । चे०।६"?
इसी तरह ज्ञानानंद ने भी अपने प्रिय आत्मरूप को बाह्यदृष्टि छोड़कर अन्तमुखी बनने की सलाह दी है ।२ विनय विजय ने अपने आत्माराम की उदासी का पता लगाते हुए कहा है, उलट-पटल कर भौतिक आशाएँ तुम्हें घेर रही है और तुम उसके दास वन गये हो। रात-दिन उन्हीं के बीच रहते हो, पल भर में तुम्हारी पोल खुल जायगी। संसार में आवागमन की फांसी से मुक्त होने के लिए विपम विषय की आशा छोड़ दो । संसार में किस की आशा पूर्ण हुई है, यह तो दुर्मति का ही कारण है । इनकी 'सोहबत' न फुटी तो सन्यासी बनने से क्या होता है। जरा हृदय में विचार कर देखो कि अन्यों के चक्कर में भटकने से तुम्हारी सुमति महारानी रूठ गई है। तुम माया में क्या रम रहे हो, अन्त में वह तुम्हें छोड़कर भाग जायगी।३ कवि धर्मवर्धन ने अपने मन-मित्र को कितने स्नेह भाव से समझाया है
"मानो वैण मेरा, यारो मानो वयणा मेरा । सैन तु मोह निद्रा मत सोवे, है तेरे दुश्मन हेरा ॥१॥ मोह वशे तु इण भव मांहे, फोगट देत है फेरा।
यार विचार करो दिल अन्तर, तु कुण कौन है तेरा ॥२॥"४
समयसुन्दर ने अपने "जीयु" को मन में दुःखी न करने के लिए सान्त्वना दी है । हर परिस्थिति से समझौता करने और संतोष रखने का सरल उपदेश दिया है
"मेरी जीयु आरति कांइ धरइ ।
जइसा वखत मइं लिखति विधाता, तिण मई क न टरइ ॥१॥"५ कवि ने प्रिय को भी मित्र भाव से सम्बोधन किया है१. गूर्जर साहित्य संग्रह भाग १, यगोविजयजी, आध्यात्मिक पद, पृ० १६० । २. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास पद २८, पृ० ३१ । ३. रूठ रही सुमति पटराणी, देखो हृदय विभासी।
मुझ रहे हो क्या माया में, अंत छोरी तुम जासी हो॥४॥" -~-भजन संग्रह, धर्ममृत, संपा० वेचरदास दोसी, पृ० ४१, भजन ३८ । ४. धर्मवर्धन प्रन्थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६२ । ५. समयमुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ४३३ ।
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आलोचना-खंड
"एक वीनति सुणउ मेरे मीत हो ललना रे,
मेरा नेमि सु मोह्या चीत हो । अपराध बिना तोरी प्रीति हो ललना रे,
इह नहीं सज्जन की रीति हो ॥१॥"१ इस प्रकार की भाव राशि अन्य कवियों में भी पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है। विनय भाव
"भगवद्विपयक रति' में विनय के सभी पद आ जाते हैं। विनय भाव को ही इसमें लघुता, दीनता, आराध्य की महत्ता, याचना, शरणागति, नामस्मरण आदि की भावना प्रमुख रहती है। इस प्रकार भक्तिपूर्ण काव्य आराध्य की महत्ता की ही स्वीकृति है, निजी स्वार्थपरता का लवलेश भी नहीं ।
१६ वीं शती के जैन गूर्जर कवि ब्रह्म जिनदास भगवान से न तो मोक्ष की याचना करते हैं और न भौतिक वैभव की ही। वे तो मात्र निष्काम सेवा का अवसर भर ढूंढ़ना चाहते हैं ।२ आराध्य की सेवा में भक्त को आनन्द मिलता है। अन्य जीव भी जब इस सेवा में प्रवृत्त होते हैं तो भक्त परम आनन्द की अनुभूति करता है । कवि कुशल लाभ ने प्रभु की सर्वव्यापकता, महानता, दानशीलता और उदारता स्वीकार कर उनकी अपरम्पार महिमा गाई है। उन्होंने कहा है, 'हे भगवान ! इस पृथ्वी पर, समुद्र में तथा जहां अखण्डित सुर चलते रहते हैं ऐसे व्योम में सर्वत्र ही असंख्य दैदीप्यमान दीप का-सा तुम्हारा यश फैला हुआ है। असुर, इन्द्र, नर, अमर विविध व्यन्तर और विद्याधर तुम्हारे चरणों की सेवा करते हैं और निरन्तर तुम्हारा जाप करते हैं। हे पार्श्वजिनेन्द्र ! तुम सम्पूर्ण विश्व के नाथ हो और अपने सेवकों की मनोकामनाओं को चिन्तामणि के समान पूरा करते हो। तुम सम्पत्ति देने वाले हो और वीतरागी मार्ग भी प्रशस्त करते हो ।३
इन कवियों का विश्वास रहा है कि भगवान के चरणों की सेवा करने से अनन्त गुणों का प्रस्फुटन हो जाता है । रिद्धि-सिद्धियां मिलती हैं और चिरकाल तक
१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १२४ । २. तेह गुण में जाणी या ए, सद्गुरु ताणी पसावतो।
भवि भवि स्वामी सेवमुए, लागु सह गुरु पाय तो ॥
---आदिपुराण-ब्रह्म जिनदास, आमेर शास्त्र भंडार की प्रति । ३. गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम्, कुशल लाम, जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २१६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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परमानन्द का अनुभव होता रहता है। कवि जिनहर्ष ने प्रभु के दर्शन से पाप दूर हो जाने और अनन्त आनन्द प्राप्त होने की बात बड़े सहज ढंग से कही है
. . “देख्यौ ऋपम जिनन्द तव तेरे पातिक दूरि गयो।
प्रथम जिनंद चन्द कलि सुर-तरू कंद । ' सेवै सुर नर इन्द आनन्द भयो ॥१॥"१
सेवा जन्य आनन्द इन कवियों के जीवन का चरम लक्ष्य बना रहा है। आराध्य भी कम दयालु या उदार नहीं, वह तो अपने भक्त को भी अपने समान बना देता है। ऐसे 'दीन दयालु' की सेवा की आकांक्षा का संवरण भला भक्त कैसे कर सकता है
"वृपम जिन सेवो बहु सुखकार । परम निरंजन भव भय मंजन
संमारार्णवतार |वृषभ०॥१॥"२ शुभचंद्र आदि पुरुष, आदि जिनेन्द्र के चरणों में अपनी विनीत-भावनाओं की श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं
"आदि पुरुष भजो आदि जिनेंदा ।। सकल सुरासुर शेप सुव्यंतर, नर खग दिनपति सेवति चंदा ॥१॥ जुग आदि जिनपति भये पावन, पतित उदारण नाभिख के नंदा। , . दीन दयाल कृपा निधि सागर, पार करो अध तिमिर दिनेंदा ॥२॥ केवल ज्ञान थे सव का जानत, काह कहू प्रभु मो मति मंदा।।
देखत दिन-दिन चरण सरणते, विनती करत यो सूरि शुभ चंदा ॥"३ दीनता एवं दासता
प्रभु के प्रति उत्पन्न भक्त के हृदय की दासता सात्विक होती है । उसमें भौतिक स्वार्थ की गंध नहीं। जैन भक्त कवि अपने प्रभु की दासता में अपना जीवन यापन करने की निरन्तर उत्कंठा करते रहे है। यहां दीनता का अर्थ धिधियाना नहीं, स्वार्थजन्य चापलूसी नहीं, अपितु अपने आराध्य के गुणों से प्रभावित विनम्र याचना करना है। इसे निष्काम भक्ति की ही एक दशा कह सकते है। दीन भक्त अपने प्रभु से याचना भी करता है तो स्वाभिमान के साथ। कवि जिनहर्प प्रभु के दास बनकर
१. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, चौवीसी, पृ० १। २. हिन्दी पद संग्रह, संपा. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर, पृ० ३ । ३. कस्तूरचंद कासलीवाल, राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व,
पृ० १६४।
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बालोचना-खंड
दीनदयाल से अपने उद्धार की विनती करते हैं, अविचल सुख की याचना करते हैं, पर
एक स्वाभिमान के साथ
,
"जिव वर अब मोहि तारउ, दीन दुखी हुं दास तुम्हारउ | दीनदयाल दया करी मोसु इतनी अरज करू प्रभु तोसु || १ || तारक जउ जग मांहि कहावउ, तउ मोहीं अपणइ पारि रहावउ । अपनी पदवी दोनी न जाई, तउ प्रभु की कैसी प्रभुताई ||२|| इह लोकिक सुख मेरे न चहिये, अविचल सुख दे अविचल रहिये । क्या साहिव मन मांहि विचार, प्रभु जिनहरख अरज अवधारउ ||३||" ? एक अन्य पद में कवि अपने उद्धार की प्रार्थना करता हुआ 'जिणंदराव' से कहता है, 'है जिणंदराय ! तुम मुझे तार दो । करुणा सागर मुझ पर करुणा कर, भवसागर पार उतार दो। तुम दीनदयाल हो, कृपालु हो, कृपा कर मेरे कर्मों की ओर मत देखो। तुम तो भक्तवत्सल हो, फिर भक्त पर दया करने में विचार कैसा । हे प्रभु इतनी प्रार्थना करता हूँ कि शरणागत-तारक की बड़ी उपाधि लेकर मुझे मन टाल देना । जगत् के स्वामी से जिनहर्ष विनती करता है, प्रभु आवागमन के चक्कर का निवारण करो ।२ कवि आनन्दवर्धन प्रभु के चरणों के दास बने हुए हैं, वे उनसे एक क्षण भी विलग होना नहीं चाहते । अपने सरल, विनीत स्वर में कहते हैं, 'मेरे मन में निरन्तर प्रभु चरणों में रहने की बड़ी आश है, एक पल भर के लिए भी मैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहता । प्रभु तुम जैसा चाहो वैसे रखो, मैं तो तुम्हारे चरणों का दाम | दुनिया के पागल लोगों से कैसे कहूँ — मेरा दिल तो प्रभु से एकतार हो गया है । मेरे मन की गति एक मात्र तू ही जानता है, और कोई जानने वाला नहीं । हे प्रभु मेरा तुम्हारे साथ ही प्रेम है, तुम्हारी दया वनी रहनी चाहिए और मनोहर प्रभु निरन्तर पास रहें, यही मेरी अरज है ।" ३ कवि समयसुन्दर प्रभु से स्वामी और सेवक का संबंध जोड़ते हुए प्रभु के चरणों की वंदना करते हैं—
१. जिनहर्ण ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पद संग्रह, पृ० ३४८ ।
२. जिणंद राय हमकुं तार-तार |
करुणा सागर करुणा करकड, भवजल पार उतार ॥१॥
दीन दयाल कृपाल कृपाकर, कुरम नहंन निहारउ । भगतवछल भगतन कु उपर करत न काहे विचार ||२|| इतनी अरज करूं हूँ प्रभु सु, पदकज थई मत टारउ | कहइ जिनहरख जगत के स्वामी, आवागमण निवारउ ||३||
- जिनह ग्रंयावनी, संगा० अगरचंद नाहटा, पद संग्रह पृ० ३४९ ॥ आनन्दवर्धन पद प्रस्तुत प्रबंत्र का तीसरा प्रकरण |
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"नमुनमुनमि जिन चरण तोरा, हूं सेवक तू साहिब मोरा ॥१॥ जउ तू जलघर तउ हूं मोरा, . जउ तू चंद तउ हूँ भी चकोरा ॥१॥ सरणइ राखि करइ क्रम जोरा,
समयमुन्दर कहइ इतना निहोरा ॥३॥"१ उपालंभ :
रात दिन स्वामी की समीपता से सेवक की जैसे कुछ धड़क खुल जाती है, उसी प्रकार प्रभु के निरन्तर ध्यान-सान्निध्य की अनुभूति से उत्पन्न मीठे उपालंम भी भक्त-हृदय से स्वाभाविक रूप से निसृत हो जाते हैं। अपनी सेवक जन्य शालीनता का ध्यान रखते हुए कवि कुमुदचंद्र ने कितनी सरलता एवं स्वाभाविकता से अपने प्रभु को बहुत कुछ कह दिया है
"प्रभु मेरे तुमकुं ऐसी न चाहिए । मघन विधन घेरत सेवककुं।
मौन घरी किउं रहिये ॥प्रभु०॥१॥ विधन-हरन सुख-करन सबनिकुं।
चित्त चिंतामनि कहिये ।। अशरण शरण अबंधु बंधु कृपासिंधु
को विरद निबहिये ॥ प्रभु० ॥२॥ हम तो हाथ विकाने प्रभु के।
अब तो करो सोई सहिये ॥ , तो फुनि कुमुदचन्द्र कई शरणा
गति को सरम जु जहिये ॥प्रभु०॥३॥"२ दीन भक्त अपने दीनबन्धु से किस स्वाभिमान से याचना करता है और मीठे उपालंभ रूप क्या क्या कह जाता है देखिए-३
"जो तुम दोनदयाल कहावत ॥ हमसे अनाथनि हीन दीन कू काहे न नाथ निवाजत ।"
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१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, नमिजिन स्तवन,
पृ० १२-१३ । २. कुमुदचंद्र प्रस्तुत प्रवन्ध का दूसरा प्रकरण । ३. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तुरचन्द कासलीवाल, जयपुर, पृ० १३-१५ ।
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"नाथ अनाथनि कू कुछ दीजै ।
विरद संभारी धारी हठ मनतें, काहे न जग जस लीजै ।"
उस अनन्त प्रेमी की उल्टी रीत देखकर महात्मा आनन्दघन की विरहिणी मी उपालंभ का अवत्तर ढूंढ़ निकालती है
आलोचना-खंड
"प्रीत की रीत नहीं हो प्रीतम ।
मैं तो अपनो सरव शृङ्गारो, प्यारे की मैं वस पिय के पियसंग और के, या गति उपगारि जन जाय मनावो, जो कछु भई इसी तरह लालविजय के 'नेमिनाथ द्वादश मास' में राजुल मीठा उपालंभ देती हुई अपने प्रिय से पूछती हैं, अगर यही हालत करनी थी तो सम्बन्ध ही क्यों जोड़ा । उपालंभ का कौशल देखिए
.
न लाई हो । प्रो० ॥ १ ॥ : किन सीखई ॥
सो भई हो || प्री० ॥२" ?
आंन नीसान
"तुमे आगि असाढ़मि क्यों न लीया वरतं तुम काहि कु बरात 'बुलाइ, छप्पन कोड जुरे वंस बजाइ । संग समुद्र विजै बलीभद्र मुरार की नेमि पिया अब आवो घरे इन बातन
तोहि लाज न
में
कहो कोन
आई, बढाइ || १ || २
कवि विनयचंद्र 'नेमिनाथ गीत' में प्रभु को उपालंभ देते हुए कहते हैं, 'है नेमि ! तुम मुक्ति रूपी रमणी पर मोहित हो रहे हो, पर उसमें स्वाद कहां ? अंत में उस स्थिति को भोगना ही है, अभी यह बालकपन छोड़ दो ।' ३ कवि समयसुन्दर अपने ‘करतार गीतम्’ में इसी तरह का उपालंभ देते हुए प्रभु से पूछते हैं, 'रे प्रभु तू कृपालु है कि पापी है, तेरी गति का पता नहीं चलता । '४ श्रीमद् देवचंद्र ने अपनी चौवीसी में एक तरफ प्रभु को मीठा उपालंभ दिया है तो दूसरी ओर विनम्र बनकर प्रभु से दया याचना की है। उन्होंने कहा है, 'प्रभु मुझे अपना सेवक समझकर तार दो,
१. आनंदघन पद संग्रह, अव्यात्म ज्ञान प्रसार के मण्डल, वम्बई, पद ६६, पृ० ३०० । २. लालविजय, नेमिद्वादशमास, जैन-गुर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० १६६-७० । ३. नेमजी हो मुगति रंमणि मोह्या तुम्हें हो राजिं, पिण तिण में नहि स्वाद । नेमजी हो तेह अनन्ते भोगवी हो राजि, छोडउ छोकरवाद ।” - विनयचंद्र कृतं कुसुमांजलि, संपा० भंवरलाल नाहटा, पृ० ६०
दोइ बतियां रे 1
तोरी गतियां रे ॥१॥
४. कबहु मिलइ मुझ करतारा, तउ पूछें
तू ं कृपाल कि तू हइ पापी, लखि न सकू ——समयसुन्दरं कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४४३ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कम से कम जगत् में इतना तो यश ले लो। सेवक अवगुणों से भरा हुआ है, फिर भी उसे अपना समझ कर हे दयानिधि इस दीन पर दया करो।"१ लवुता और स्व-दोषों का उल्लेख
भक्त हृदय में आराध्य की महत्ता के अनुभव के साथ दीनता और लघुता का आभास होता ही है। इस तरह की अनुभूति सात्विक ही है। लघुता एवं स्व-दोष वर्णन पूरित आत्म-निवेदन अहंकार को नष्ट कर विनय भाव को जगता है । तुलसीदास की विनय पत्रिका इसका उज्ज्वल प्रमाण है । इन कवियों ने भी इस प्रकार की अनुभूति अभिव्यक्त की है। महात्मा आनन्दघन का हृदय अपनी लघुता में ही रमा है। भक्त प्रेमिका बनकर आराध्य के आने की प्रतीक्षा करता हुआ कहता है-"मैं रात-दिन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, प्रभु तुम कब घर आओगे। तुम्हारे लिए तो मेरे जैसे लाखों हैं, परन्तु मेरे लिए तो तुम एक ही हो। जोहरी लाल का मूल्य आंक सकता है, किन्तु मेरा लाल तो मूल्यातीत है। जिसके समान दूसरा कोई नहीं, उसका मूल्य भी कैसे हो सकता है।"२ महात्मा आनन्दघन ने लता, स्वदोष-वर्णन, आत्मनिवेदन, दासता, उपालंभ आदि के भाव एक साथ संजोये है। कवि ने प्रेम भक्ति के आवेश में
प्रभु को मीठी चुनौती दी है-उन्होंने कहा है, "प्रभु तुम पतित उद्धारक होने का दावा -- करते हो, यह क्या. सच है ..या नशा पीकर . कहते हो.? कारण कि अब तक मेरे जैसे पानी का बिना उद्धार किये इस प्रकार का विरुद कैसे प्राप्त कर सकते हो । मुझ क्रूर, कुटिल और कामी का उद्धार करो तव ही पतित उद्धारक के विरुद को सत्य मान मकता हूँ। आपने अनेक पतितों का उद्धार किया होगा पर मेरे मन तो आप बिना करनी के ही कर्ता बन बैठे हो। एकाध का तो नाम बताओ, झूठे विरुद धरने से क्या होता है। आगे और बताते है-निटप अज्ञानी पापी और अपराधी यह दास है, अब अपनी लाज रखकर तथा समझकर इसे सुधार लो। ".... हे प्रभु जो बात बीत गई सो बीत गई, अब ऐसा न कर इस दास के उद्धार में तनिक भी देर न करो। १. तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगतमां एटलु सुजस लीजे ।
दाम अवगुण भर्यो जाणी पोतातणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे ।।"
___-~श्रीमद् देवचंद्र, चौवीसी, प्रस्तुत प्रबंध का तीसरा प्रकरण । २. निश दिन जोऊ तारी वाटड़ी, घरे आवो रे ढोला ।
मुझ सरिखा तुज लाल है, मेरे तुम्ही अमोला ||१|| जव्हरी मोल करे लाल का, मेरा लाल अमोला। . ज्याके पटन्तर को नहीं, उसका क्या मोला ॥२॥
-आनन्दघन पद संग्रह, पद १६, पृ० ३७ ।
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आलोचना-खंड
सेवक का उद्धार करना आपका कर्तव्य है। अब तो आपके द्वारा यह 'ढींग दाम' है, उसे अपना बना लो। हे प्रभु अब अपने दास को सुधार लो आपको बार-बार क्या कहना । हे आनन्दरूप परमात्मा आप अपने नाम की परम रीति का निर्वाह कीजिए।"१
प्रभु से भक्त का जब इस प्रकार का मीठा संबंध जुड़ जाता है तब वह अपनी लघुता के साथ अपना हृदय खोलकर अपने दोषों-पापों का इतिहाम भी उनके सम्मुन्व रख देता है। इस भांति वह अपने पापों को गलाकर आराध्य की ममीपता एवं विशखता का आभास पाता है। महात्मा आनन्दधन भी निश्छल भाव से अपने दोष दर्शन में लग गये हैं। शरीर की भूख मिटाने के लिए उन्होंने क्या क्या नहीं किया ।
"तोये कारण में जीव संहारे, बोले जूठ अपारे ।
चोरी करी परनारी सेवी, जूठ परिग्रह धारे ॥"२
इसी तरह कवि कुमुदचंद्र अपने किए हुए कार्यों की आलोचना करते हुए कहते हैं, "मैंने व्यर्थ ही मनुष्य जन्म खो दिया। जप, तप, व्रत आदि कुछ न किया और न कुछ काम ही किया। कृपण होकर दिन प्रतिदिन अधिक जोड़ने मे ही लगा
१. हरि पतिक के उधारन तुम, कहि सो पीवत मामी ।
मोसू तुम कब उधारो, क्रू र कुटिल कामी ।
और पतित कैइ उधारे, करनी विनु करता । एक काई ना लेउ, जूठे विरुद - धरता ।
निपट अज्ञानी पापकारी, दास है अपराधी । जानू जो सुधार हो, अव नाथ लाज साधी।
गई सो तो गई नाय, फेर नहिं कीजे । द्वारे रह्यो ढींग दास, अपनो करि लीजे । दास को सुधार लेहु, बहुत कहा कहिये । आनन्दघन पर रीत, नाउं की निवहिये । -आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद ६३,
पृ० २७४ । २. वही, प्रस्तावना, पृ० १८५ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
२२१
रहा, दान भी न दे सका। कुटिलों की संगति को अच्छा समझा और साधुओं को संगति से दूर रहा ।"१
कवि किशनदास का आलदैन्य उनके हृदय का बांध तोड़कर सहज भाव से फूट पड़ा है। भक्त प्रभु के समक्ष अपने समस्त पापों की तथा नासमझी की स्वीकृति कर लेता है और निश्छल भाव से किसी भी तरह अपने को निबाह लेने की विनती करता है
"ज्ञान की न गूझी शुभ ध्यान को न सूझी। खान-पान की न बूझी अब एव हम मूझी है । मुझसो कठोर गुन-चोर न हराम खोर । तुझसो न और ठौर और दौर चूंहि है। अपनी-सी कीजे मेरे फैल पैन दिल दीजें। किशन निवाहि लीजे जो पै ज्यू हि क्युहि है ।। मेर। मन मानि आनि ठहरयो ठिकानें अब । तेरी गति तुहि जाने मेरी गति तू हि है ।।६१॥"२
कवि ज्ञानविमलसूरि के दिल से अत्यधिक पश्चाताप उठ रहा है कि उन्होंने जोवन व्यर्थ बिता दिया। जिससे संगत करनी चाहिए थी उसकी संगति नहीं की, उससे प्रेम नहीं किया, उसके रंग में न रंगा, उसे भोग नही लगाया । सब कुछ परायों के अर्थ करता रहा और दर-दर भटकता रहा ।३ कवि जिनराजसूरि ने भी खुले दिल से तथा निश्छल भाव से अपना दोष-दर्शन और पश्चाताप का भाव व्यक्त किया है। उन्होने कहा है, मैंने कभी प्रभु का ध्यान नहीं किया । कलियुग में अवतार लेकर कर्मो में फंसा रहा और अनेक पाप करता रहा । बचपन भटकने में, यौवन भोग
-
१. मैं तो नर भव बाधि गमायो ।।
न कियो तप जप व्रत विधि सुन्दर ।। .......... काम भलो न कमायो ।। विरल कुटिल शठ संगति बैठो। साधु निकट विघटायो।
-कुमुदचंद्र राजस्थान के जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० २७२ । २. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, उपदेश बावनी, पृ० १८२ ३. वालमीयारे विरथा जनम गमाया ।
पर संगत कर दर विसि भटका, परसे प्रेम लगाया । परसे जाया पर रंग माया, परकु भोग लगाया ॥१॥ -~-ज्ञानविमलसूरि, प्रस्तुत प्रबन्ध का तीसरा प्रकरण ।
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२२२
आलोचना-खंड
विलास में और बुढ़ापा इन्द्रियों की शिथिलता में यों ही बीत चला । धर्म का मर्म नहीं पा सका और सांसारिक लाभों का पिंड बना रहा। फिर भी प्रभु ने अपनी उदारता एवं भक्तवत्सलता का परिचय देकर मुझे अपना लिया ।१ आराध्य की महत्ता :
भक्त की अपनी लघुता की स्वीकृति के साथ ही आराध्य की महत्ता जुड़ी हुई है । इसे स्वीकार करके ही भक्त के हृदय में श्रद्धा-भाव जगता है। उपास्य के गुणों की चरम अनुभूति पूज्य और पूजक के भेद को लय कर देती है।
आराध्य की महत्ता अनेक ढंग से निरूपित की जा सकती है। सूर और तुलसी ने अपने-अपने आराध्य कृष्ण और राम को अन्य देवों से बड़ा बताया है। जैन कवियों ने भी अपने जिनेन्द्र को बड़ा मानकर अपने आराध्य के प्रति अनन्य भाव ही प्रकट किया है। जैन गूर्जर कवियों ने अपने देवों को बड़ा तो बताया है । किन्तु अन्यों को बुरा नहीं कहा।
__ आराध्य की महिमा की अनुभूति भक्त-हृदय को पुनीत और आराध्यमय बना देती है। कवि जिनहर्प ने अपनी इस अनुभूति को व्यक्त करते हुए कहा है, "भगवान आदिनाथ की सेवा, सुर, नर, इन्द्र आदि सभी करते है। उनके दर्शन मात्र से पाप दूर हो जाते हैं। कलियुग के लिए वे कल्पवृक्ष की भांति हैं। सारा संसार उनके चरणों में नत है। उनकी महिमा और कीर्ति का कोई पार नही । सर्वत्र उनकी ज्योति जगमगा रही है। संसार-समुद्र को पार करने के लिए वे जहाज-रूप हैं। उनकी छवि मोहिनी और अनुप है, रूप अद्भुत है और वे धर्म के सच्चे राजा हैं । नेत्र जैसे ही उनके दर्शन करते हैं उनमें सुख के बादल बरस पड़ते हैं।"२ कवि यशोविजयजी अपने आराध्य "जिनजी" की अद्भुत रूप-महिमा की आनन्दानुभूति व्यक्त करते हुए कहते हैं
"देवो भाइ अजव रूप जिनजी को। उनके आगे और सबन को, रूप लगे मोहि फीको ॥ लोचन करूना अमृत कचोले, मुख सोहे अतिनीको ।
कवि जम विजय कहे यो साहिब, नेमजी त्रिभुवन टीको ॥"३
कवि चन्द्रकीर्ति ने कहा है, "जिस दिन जिनवर के दर्शन हो जाते है, वह दिन चिन्तामणि के समान धन्य हो उठता है। वह सुप्रभात धन्य है जव कमल की तरह १. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ६२, ६३ । २. जिनहर्प ग्रंथावली, सपा० अगरचन्द नाहटा, चौवीसी, पृ० १ । ३. गूर्जर साहित्य सग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० ८५-८६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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प्रमुदित मुख के दर्शन हो जाते हैं, उनके वचन अमृत से भी मीठे हैं। जिनवर के दर्शन कर जन्म सफल हो जाता है, उनके मीठे गुणों के श्रवण से कर्ण सफल होते है। ऐसे जिनवर की जो पूजा करता है वह धन्य है । हे जिन ! तुम्हारे विना दूसरा कोई देव नहीं, जिनके दर्शन से 'मुगति' रूप स्वर्ग मिल जाता है। ऐसे प्रभु के चरणों में चन्द्रकीर्ति नत-मस्तक होते हैं ।"१ कवि समयसुन्दर का भक्त-हृदय प्रभु के अनन्त, अपार गुणों की महिमा गाता हुआ तृप्त नहीं होता है । वे कहते हैं, 'प्रभु तुम्हारे गुण अनन्त और अपार है। सुर, गुरु आदि अपने सहस्त्रों 'रसना' से तुम्हारा गुणगान करें तब भी उनका पार नहीं आ सकता । तुम्हारे गुणों की गिनती करना आकाश के तारे गिनना है, अथवा सुमेरु पर्वत का भार वहन करना है। चरम सागर की लहरें उनके गुणों की माला फेर रही है, फिर भला उनके गुणों का और कोई कैसे विचार कर सकता है । मैं उनकी भक्ति और गुण का क्या बखान करूं, 'सुविध जिन' अनन्त सुख देने वाले है। हे स्वामी ! तुम ही एक मात्र आधार हो ।"२ कवि वर्मवर्धन के मन में 'प्रभु की सेवा ही सच्ची मिठाई और मेवा है। पुष्प कली जैसे सूर्य को देखकर उल्लसित होती है और हाथी को जैसे रेवा नदी से राग होता है, उसी प्रकार की लगन प्रभु से लग गई है। प्रभु महान है, वह सर्वगुण सम्पन्न है और असीम सामर्थ्यवान भी है। प्रभु-पारस के स्पर्श से मानवात्मा रूपी लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। उस स्वर्ण सुन्दरी को मैं अपने दिल से पल भर के लिए भी कैसे दूर करूं?"३ कवि लक्ष्मीवल्लभ ने 'ऋपम जिन स्तवन' में कहा है, प्रभु के दर्शनों से मेरा जीवन पवित्र हो गया है और परम आनन्द की अनुभूति हुई है। "वह अनन्त अनादि ब्रह्म सर्वव्यापी है, मूर्ख उसे समझ नहीं पाते । वह संतों का प्यारा है । परम आत्मरूप, प्रतिपल प्रतिबिम्बित से ब्रह्म को मूरती' ही जान सकती है। ऐसे जिन राज की पूजा करता हुआ कवि दिव्य अनुभव-रस में मग्न है।"४
नामजप - - - - - ...
जिनेन्द्र के नाम-जप की महिमा जैन गूर्जर कवियों ने सदैव स्वीकार की है। सूर और तुलसी की मांति इन कवियों ने भी स्थान-स्थान पर भगवान के नाम की महत्ता का भावपूर्ण निरूपण किया है। इनकी दृष्टि में जिनेन्द्र का नाम लेने से
१. चन्द्रकीर्ति पद, प्रस्तुत प्रबन्ध का दूसरा प्रकरण । - २. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, सुविधि जिन स्तवन, पृ० ७ । ३. धर्मवर्धन ग्रन्थावली, पृ० ८८ ।
लक्ष्मीवल्लम, ऋषभजिनस्तवन, चौवीसी, जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, .पृ० २६६ ।
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२२४
बालोचना-खंड
सांसारिक वैभव तो मिलते ही हैं, उनके प्रति आकर्षण भाव भी प्राप्त होता है और जीवन मोक्ष गामी होता है। नाम-जप से चक्रवर्ती का पद प्राप्त करना तो आसान है । इस प्रकार नामजप से इहलोक और परलोक दोनों ही सुघर जाते हैं। __कवि कुमुदचन्द्र ने अपने 'मरत वाहुबलि छन्द' के प्रारम्भिक मगला-चरण में आदीश्वर प्रमु का नाम मात्र लेने से संसार का चक्र ( जन्म-मरण का चक्कर ) छूट जाने की बात कही है ।१ कुशल लाम ने पंचपरमेष्ठी के नाम की महिमा गाते हुए कहा है कि 'नवकार' को जपने से संसार की संपत्तियां तो मिल ही जाती हैं, शाश्वत सिद्धि भी प्राप्त होती है १२ श्री यशोविजयजी ने 'आनन्दधन अष्टपदी' में बताया है कि 'अरे चेतन ! तू संसार के भ्रमजाल में क्यों फंसा है। भगवान जिनेन्द्र के नाम का स्मरण कर । सद्गुरु का भी यही उपदेश है।
"जिनवर नामसार मज आतम, कहा भरम संसारे ।
सुगुरु वचन प्रतीत भये तव, आनन्दधन उपगारे ।।"३ ।
कवि जिनहर्ष ने भी प्रभु को भजने की सलाह देते हुए कहा है, 'रे प्राणि ! यदि तू मन का सच्चा सुख चाहता है तो अव उठ, प्रातःकाल हो गया है। प्रमु का भजन कर ! आलस्य छोड़कर जो 'साहिब' को भजता है, उसकी समस्त आशाएँ पूर्ण होती हैं
"भोर भयो उठि मजरे पास । जो चाहै तू मन सुख वास ।
आलस तजि भजि साहिब कू। कहै जिनहर्ष फलै जु आस ||||"४
१. पणविवि पद आदीश्वर केरा, जेह नामें छूटे भव फेरा ।
-भरत बाहुबलि छन्द, कुमुदचंद्र, पद्य .१, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर पृ० २४३ । २. नित्य जपीई नवकार संसार संपति सुखदायक;
मिद्धमंत्र शाश्वतो इम जंपे श्री जग नायक । -नवकार छन्द, कुशल लाभ, अन्तिम कलश, जैन गूर्जर कविओ, भाग १,
पृ० २१६ । ३. आनन्दवन अष्टपदी, य गोविजयजी, आनन्दघन वहत्तरी, रामचन्द्र ग्रंथमाला,
बम्बई। '.. - ४. हिन्दी पद संग्रह, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर, पृ० ३३६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवि जिनहर्ष ने चौवीसी तीर्थंकरों की वन्दना करते हुए कहा है, 'चौवींसों जिनवर सुख को देने वाले हैं। मन को स्थिर कर शुद्ध भाव से प्रभु का कीर्तिगान करता हूँ। जिसका नाम कल्पवृक्ष के समान वर दायक है, जिन्हें प्रणाम करने से नवनिधियां प्राप्त होती हैं ।१ कवि विनयचंद्र की प्रभु से चातक-जलधार को सी प्रीति जुड़ गई है। दिल में प्रभु का नाम निशि-दिन ऐसा तो बसा हुआ है जैसे वक्षस्थल पर हार पड़ा रहता है
"जासौं प्रीति लगी है ऐसी, ज्यों चातक जल धार ।
दिल में नाम वस तसु निसदिन, ज्यु हियरा भईहार ॥३॥"२ कवि विनयविजय प्रभु से न दौलत की कामना करते हैं और न विषय सुत्रादि की। उनके लिए 'आठो याम' प्रभु का नाम ही 'जिउं' को रंजन करने वाला है
"दोलत न चाहुं दाम, कामसुन मेरे काम ।। नाम तेरो आंठो जाम, जिउ को रंज हे ॥१॥"३
कवि समयसुन्दर भी अन्तर्यामी जिनवर को जपने की सलाह देते हैं, क्योंकि चोवीस तीर्थङ्कर त्रिभुवन के दिनकर हैं, उनका नाम जपने से नवनिधियां प्राप्त होती हैं
"जीव जपि जपि जिनवर अन्तरयामी । ऋषम अजित संमब अभिनन्दन ।
चौवीस तीर्थंकर त्रिभुवन दिनकर, नाम जपत जाके नवनिधि पामी ॥"४
-
जिनवर चवीसे सुखदाई ।' .. भाव भगति धरि निज मन स्थिर करी, कीरति छन शुद्ध गाई। जाकै नाम कल्पवृक्ष सम वरि, प्रणामति नवनिधि पाई ॥"
-जिनहर्ष चौवीसी. जिनहर्ष ग्रंथांवली। विनयचन्द्र कृत कुसुमांजलि, संपा० मवरलाल नाहटा, 'श्री पार्श्वनाय स्तवनम्'
पृ० ७०। ३. भजनसंग्रह धर्मामृत, संपा० पं० बेचरदास, मजन नं० ३१, पृ. ३४। ... ४. समयमुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अर्गरचन्द नाहटा, "श्री वर्तमान चौवीसी
स्तवन', पृ० १ ।
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२२६
आलोचना-खंड
गुरु भक्ति :
भक्ति के क्षेत्र में गुरु का बड़ा महत्व है। साधक गुरु को लेकर ही अपनी भक्ति-यात्रा आरम्भ करता है । शुद्ध भाव से गुरु में अनुराग करना ही गुरु-भक्ति है । 'गुरु में अनुराग' का तात्पर्य-गुरु के गुणों में अनुराग करने से हैं । वैसे सभी सम्प्रदायों
और सन्तों ने गुरु की महत्ता का प्रतिपादन किया ही है और गुरुविषयक रति के उदाहरण भक्तिकाल के प्रायः सभी कवियों की कविता में प्राप्त है । तुलसी ने गुरुविषयक रति भाव की अभिव्यक्ति में कहा
"बन्दी गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।"१ - कबीर आदि संतों ने गुरु को गोविन्द से भी श्रेष्ठ बताया है,२ क्योंकि उन्हें विश्वास था कि "हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ।"
जैन साहित्य में भी गुरु का विशेष महत्व है। इन कवियों ने सत्गुरु का महत्व निर्विवाद और अविकल रूप से स्वीकार किया है। यहां गुरु और ब्रह्म में भेद नहीं स्वीकार किया गया है ।३ इन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को भी 'सत्गुरु' की संज्ञा से अभिहित किया है। जैन आचार्यो ने पंच परमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ) को पंचगुरु कहा है। कवि चतरमल ने पंचगुरुओ को प्रणाम करने से मुक्ति मिलने की बात कही है ।४ जैन कवि सच्चे अर्थों में गुरु भक्त थे। उन्होंने बताया है कि जब तक गुरु की कृपा नहीं होती तब तक व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि में फंसा हुआ संसार में भ्रमण करता रहता है सद् और असद् तथा जड़ और चेतन में अन्तर नहीं कर पाता। अतः वह 'कुतीर्यो' में घूमता रहता है और धर्तता करता रहता है । जैन आचार्यों ने 'गुरु' को मोक्ष मार्ग का प्रकाशक कहा है।५
१. राम चरित मानस, तुलसीदास, बालकाण्ड, प्रारम्भिक मंगलाचरण । २. गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूपाय ।
वलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दयो वताय ।। -कबीर-गुरुदेव को अग,
संत सुधाकर, वियोगीहरि संपादित १४ वी साखी, पृ० १२० । ३. चिद्रपचिता चेतन रे साखी परमब्रह्म ।
परमात्मा परमगुरु तिहां नवि दीसियम्म ।।
-~-तत्वसार दूहा, शुभचन्द्र, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति । ४. लहहि मुकति दुति दुति तिर, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारू ।।
नेमीश्वर गीत-चतरूमल, आमेरशास्त्र भण्डार की प्रति, मंगलाचरण । ४. "गुरु भक्तिसंयमाभ्यां च तरन्ति संसारसागर घोरम् ।" - दश भक्ति :
आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत आचार्य भक्ति, क्षेपक श्लोक, पृ० २१४ ।
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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
जैन सम्प्रदाय में निश्चय और व्यवहार 'नय' की दृष्टि से गुरु दो प्रकार के माने गये हैं । व्यवहार गुरु की बात तो ऊपर हो चुकी है । निश्चय गुरु अपनी आत्मा ही होता है । आत्मगुरु की वाणी अन्तर्नाद कहलाती है जो कभी-कभी सुनाई भी पड़ती है। आचार्य पूज्यवाद ने 'समाधितंत्र' में कहा है-- 'आत्मा ही देहादि पर पदार्थों में आत्मबुद्धि से अपने को संसार में ले जाती है और वही आत्मा अपपने आत्म में ही आत्म-बुद्धि से अपने को निर्वाण में ले जाती है । अतः निश्चय नय बुद्धि से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं ।" १ जीव अपनी मूढ़ता वश इस आत्मगुरु को पहचान नहीं पाता । यह रहस्य जानना प्रत्येक साधक का कर्तव्य है ।
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जैन कवियों की गुरु भक्ति में अनुराग को पर्याप्त स्थान मिला है । इन्होंने गुरु के मिलन और विरह दोनों के गीत गाये हैं । गुरु के मिलन में शिष्य को संपूर्ण प्रकृति लहलहाती हुई दिखाई देती है और विरह में वह समूचे विश्व को उदासीन देखता है | उपाध्याय जयसागर की 'जिनकुशल सूरि चौपई' कुशल लाभ की 'श्री पूज्य वाहण गीतम्', साधुकीर्ति की 'जिनचन्द्र सूरि गीतम्' आदि कृतियां अनुरागात्मक गुरु भक्ति की उज्ज्वल प्रतीक हैं ।
कवि समयसुन्दर अपने गुरु राजसिंहमूरि की अनुराग - भक्ति की भाव-विभोरावस्था में कह उठे थे—- " मेरा आज का दिन धन्य है । हे गुरु ! तेरे मुख को देखते ही जैसे मेरी समूची पुण्यदशा साक्षात हो गई । हे श्री जिनसिंहसूरि । मेरे हृदय में सदैव तू ही रहता है और स्वप्न में भी तुझे छोड़कर अन्य कोई दिखाई नहीं देता । मेरे लिए तुम कुमुदिनी के चन्द्र समान हो, जिसको कुमुदिनी दूर होते हुए भी सदैव समीप ही समझती है । तुम्हारे दर्शनों से आनन्द उत्पन्न होता है, मेरे नेत्र प्रेम से भर जाते हैं । प्राण तो सभी को प्यारा होता है, किन्तु तुम मुझे उससे भी अधिक
t
प्रिय हो
"आज कु धन दिन मेरउ ।
पुन्य दशा प्रकटी अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ || श्री जिनसिंहसूरि तुहि मेरे जीउ में, सुपनइ मई नहीय अनेरो । कुमुदिनी चन्द्र जिसउ तुम लीनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ ||
नर्यथात्मात्मेव जन्मनिर्वाणमेवच ।
गुरु रात्मात्मनस्तस्मान्नायोऽस्ति परमार्थतः ॥ ७५ ॥
-- ममाधितन्त्र-- आचार्य पूज्यपाद, पं० जुगल किशोर मुख्तार संपादित, १९३९ ई० ।
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तुम्हारइ दरसण , आणंद उपजती , नयन को प्रेम नयेउ ।। समयसुन्दर" कहइ सब कुचलम, जीउतु तिन था अधिकरउ ॥३॥"?
श्री कुगल लाम ने आचार्य पूज्यवाहण की भक्ति में उसी प्रकार की नरमता का परिचय दिया है कवि ने लिया है, " आपाट ने आते ही दामिनी अबुकने लगी। कोमलांगी अपने प्रिय की बाट जोहने लगी। चातक मधुर ध्वनि में" पीट पीर करने लगा और सरोवर बरसात के विपुल जल से भर गये । इस अवसर पर महान श्री पूज्यावाहारणजी श्रावकों को मुग देने के लिय प्रम्बावनी में आये । वे दीक्षा-रमनी के साथ रमण करते हैं और उनमें हर किसी का मन बंधकर रह जाता है। उनके प्रवचन में कुछ ऐसा आकर्षण है कि उसे सुनकर वृक्ष भी झूम उठे हैं, कामिनी-कोकिल गुरु के ही गीत गाने लगी है, गगन गूज उठा है और मयूर तथा नकोर नी प्रसन्न होकर नाच उठे है । गुरु के ध्यान में स्नात होकर शीतल हवा की लहरें बहने लगी है। गुरु की कीर्ति और मुयश से ही सम्पूर्ण संसार महक रहा है। विश्व के सातो क्षेत्रों में कर्म उत्पन्न हो गया है। श्री गुरु के प्रसाद से सदा सुख उत्पन्न होता है।" "आव्यो मास असाढ झवूके दामिनी रे।।
जोवइ जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ॥"
साते क्षेत्र सुठाम मुधर्म ह नीपजइ रे।
श्री गुरु पाय प्रसाद मदा मुख मपजइ रे ।। "२ साधुकीर्ति की " जिनचन्दसूरि गीतानि " में गुरु की प्रतीक्षा की वेचनी प्रोपित्पतिका की वे नी हो उठी है । कवि ने कहा है," हे सखि । मेरे लिए तो वत ही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बता दे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेंगे श्री गुरु सभी को सुहावने लगते हैं और वे जिस पुर में आ जाते हैं, उमकी तो मानो शोभा ही शोभा हो जाती है । उनको देखकर हर कोई. जयजयकार किये बिना नही रहता । जो गुरु की आकाज को भी जानता है, वह मेरा साजन है। गुरु को देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है जैसे चन्द्र को देखकर चकोर को और सूर्य को देखकर कोक को । गुरु के दर्शनों से हृदय सन्तुष्ट, पुण्य पुष्ट और मन प्रमन्न होता है. हे निद्वन्द्वी १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, जिनसिह सूरि गीतम्, ७वां पद्य संपा० अगरचन्द
नाहटा, पृ० १२६ २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, श्री नाहटा संपादित, " श्री पूज्यवाहण गीतम्"
कुशल लाभ, पद्य ६१-६४, पृ० ११६-११७
-_Sa Kh. 2.3 इत्युवाच
- 2 ) K... प्रियदर्शनां.
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता श्री जिनचन्द्र ! प्रमोदी होकर शीघ्र आ जाओ, तुम्हे देखकर मेरा हृदय जैसे अनिर्वचनीय-रस का आनन्द ले उठेगा।" १ प्रतीक्षा की वही वेचैनी और व्याकुल अनुनय विनय कवि समयसुन्दर के शब्दों में देखिए ."गुरु के दरस अँखियाँ मोहि तरसइ । ____ नाम जपत रसना सुख पावत
सुजस सुणत ही श्रवण सरसइ ॥ १ ॥ श्री जिनसिंहसूरि आचारिज,
वचन सुधारस मुखि वरसइ । समयसुन्दर कहइ अवहु कृपा करि,
नयण सफल करउ निज दरसइ ॥ ३ ॥"२ कवि के शब्दों मे गुरु दीपक है, चन्द्रमा है, रास्ता बताने वाला है, पर जपकारी है, महान है, तथा" घाट उतारने वाला है ।३ कवि धर्मवर्धन ने जिनचन्द्रसूरि की वदना कहा है"जिणचद यतीश्वर वंदन को,
नर नारी नरेसर आवत है । वरं मादल ताल कंसाल बजावत,
के गुरु के गुण गावत है । बहु मोतीय तन्दुल थाल भरे, - नित सूहव नारि बधावत है । धर्ममीउ कहै पच्छराज कु वंदत,
पुण्य उदै सुख पावत है ।। ४ ॥ "४ इन कविगों की भावुकता गुरु के प्रति भी, भगवान की भॉति ही मुखर उठी है। शिष्य का विरह पवित्र प्रेम का प्रतीक है । अत: इन कवियों ने ब्रह्म रूप मे ही १. वही, श्री जिन्द्रसूरि गीतानि- साधुकीति, पृ० ६१ २. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि,संपा० अगरचन्द नाहटा, " श्री जिनसिंहसूरिगीतानि, __गीत २२, पृ० ३६६ ३. ,गुरु दीवउ गुरु चन्द्रमारे, गुरु. देखाउइ वाट,
गुरु उपकारी गुरु वडारे, गुरु उतारइ धाट ।"
जिनचन्द्र सूरि गीत, समयसुन्दर कृत कुसुमाजलि . ४, धर्मवर्धन प्रथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, "गुरुदेग स्तवनादि, पृ०२३६-४०
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बालोचना-खंड
गुरु का ध्यान किया है । मट्ठारक मुभचन्द्र का कहना है सत्गुरु को मन में धारण किये विना शुद्ध चिप का ध्यान करने से भी कुछ नहीं होता 1१ कुशल लाभ अपनी स्थूलभद्र छत्तीसी में गुरु स्थलिभद्र के प्रसाद से "परमसुख को प्राप्ति २ तथा” श्री पूज्यवाहण गीतम्” में शुद्ध मन पूर्वक गुरू की सेवा करने से शिवसुख को उपलब्धि होने की बात कहते हैं | ३
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विचार पक्ष
सामाजिक यथार्थाकन, यद्युगीन सामाजिक समस्याएं और कवियों द्वारा प्रस्तुत निदान : इन जैन-गुर्जर हिन्दी कवियों का मुख्य हेतु वैराग्य, अध्यात्म एवं भक्ति की त्रिवेणी बहाना रहा है । अतः ये कवि तत्कालीन समाज की अवस्था एवं उसके रीति-रिवाजों की ओर विशेष लक्ष्य नहीं रख सके हैं । फिर भी इनका काव्य लोक-जीवन तथा जन-साधारण से बिलकुल भिन्न नहीं है । इनका सामाजिक जीवन से प्रभावित होना तथा इनकी अभिव्यक्ति में सामाजिक रीति-नीति का प्रतिविम्ब पड़ना अत्यंत स्वाभाविक है ।
संवत् १६८७ में गुजरात में भयंकर दुष्काल पड़ा था, जो " सत्यासीया दुष्काल" के नाम से प्रसिद्ध है । कवि समयमुन्दर ने उसकी दयनीयता एवं भयंकरता का सजीव वर्णन” सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी" में किया है । अकाल के कारण अन्नाभाव, समाज की दुर्दशा, सर्वत्र बिखरी लाशों एवं उसकी दुरगंध, गुरु, साबु एवं आचायो का भी धर्म और कर्तव्य से परागमुख होने एवं जन साधारण की त्राहि-त्राहि की पुकार को कवि ने वाणी दी है । सामाजिक जीवन की अस्त व्यस्ता का सरल राजस्थानी भाषा में चित्र खींचता हुआ कवि कहता है
"मांटी मुकी बहर, मुक्या बइरै पणि मांटी, बेटे मुक्या बाप, चतुर देतां जे चांटी |
१. तत्वसार दूहा, भद्दारक शुभचन्द्र, ठोलियान मंदिर जयपुर की प्रति ।
२. स्थूलभद्र छत्तीसी, कुशल लाभ, पहला पद्य, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज. अगरचन्द नाहटा, पृ० १०५
३. दिल दिन महोत्सव अतिघणा, श्री संघ भगति सुहाय ।
मन शुधि श्री गुरु सेवी यह, जिणी सेव्यs शिव सुख पाई ॥
"श्री पूज्य वाहणा गीतम् " कुशल लाभ, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा, सम्पादित, पृ० ११५
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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- भाई मुकी भइण, भइणि पिण मुक्या. भाइ, . .
. अधिको व्हालो अन्न, गइ सहु कुटुम्ब सगाइ ।"१ - इसी तरह कवि ने,, मृगावती चौपाई" तथा अन्य" पौराणिक चरित्र" वर्णन के प्रसंगों में अपने युग के मिति चित्रो, वेशभूपा स्त्रियों की आभूषण प्रियता, गूर्जर देश की नाररियों की मनोवृत्ति आदि का सुन्दर चित्रण हुआ है । इनके कुछ शृगारगीतों में तथा" चारित्य चुनडी" में उस युग के चुनी, कुण्डल, चूडा; हार, नखफूल, विन्दली कटिमेखला, चूनडी, नेउरी आदि आभूषणों का उल्लेख हुआ है। इसी तरह अमयचन्द रचित", चूनडी" में तत्कालीन समाज में प्रचलित विविध व्यंजन एवं साधन-सामग्री का अच्छा परिचय है । कवि कुमुदचन्द्र कृत" ऋषम विवाहलो" में भी उस युग की विविध प्रकार की मिठाइयों का उल्लेख हुआ है।
__कवि जिनराजसूरि ने समाज-जीवन की विषमताओं की ओर निदर्शन करते हुए उसे" करम" की अलख-अगोचर गति मान कर संतोप कर लिया है। क्योंकि उसकी गति को कोई समझ नहीं सका हैं -
"पूरव कर्म लिखित जो सुख-दुख जीव लहइ निरधारजी, उद्यम कोडि करइ जे तो पिण, न फलइ अधिक लगार जी। .
एक जनम लगि फिरइ कुआरी, एके रे दोय नारि जी । एक उदर भर जन्मइ कहीइ, एक सहस आधार जी ॥"२
इसी प्रकार की सामाजिक विषमताओं का प्रत्यक्ष अनुभव कवि धर्मवर्द्धन भी किया था
"ऋद्धि समृद्धि रहै एक राजी सु, एक कर है ह हांजी हांजी। . एक सदा पकवान अरोगत, एक न पावत भूखो भी भाजी ॥"
समाज और उसकी परिस्थिति से प्रत्येक युग का कवि या योगी प्रभावित होता आया है । सामान्य व्यक्ति समाज के आगे अपना व्यक्तित्व दवा लेता है, जबकि प्रभावशाली विद्वान उसे अपने अंकुश में रखते हैं। फिर भी उसकी रीति-नीति से प्रभावित तो आवश्य होते रहते है। १. सत्यासीया दुष्काल वर्गन छत्तीसी, समयसुन्दर कृति कुमुमांजलि, संपादक • - - अगरचन्द नाहटा,-पृ०.५०३ -- ... ... .... . २, जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ६३. ३. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, अगरचंद नाहटा, धर्म वावनी, पृ० ४
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aratant-खंड
इस युग के कवियों ने अपने युग के समाज का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसके अनुरूप उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया है । अपने उपदेश, आचरण, एवं चरित्र कथात्मक व्याख्यान अथवा साहित्य द्वारा समाज को नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना को बल देते रहे हैं । इनके चौपाई - रासांदि ग्रंथों में जीवन के स्वस्थ चित्र भी आये हैं । महानंदगण ने अपने "अजना सुन्दरी रास" में अंजना को समाजजीवन के प्रति आस्थावान बताकर वीतरागी प्रभु से प्रेम करने की बात बताई है। यात्रा एवं संघ वर्णनों में भी इन कवियों ने समाज के नर-नारियों में तीयों के प्रति उमड़ता अपार स्नेह और उनके मधुर, स्वस्थ भांवमीने चित्र प्रस्तुत किये हैं । जिनराजमूरि कृत "श्री गिरनार तीर्थयात्रा स्तवन" पढ़ने से ऐसा लगता है मानो यात्रियों का एक दल उमड़ता हुआ चला जा रहा है । बहिन द्वारा बहिन को एक मधुर भावभीना आमंत्रण दिया जा रहा है
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"मोरी बहिनी हे बहिनी म्हारी ।
मोन अधिक उछाह है, हां चालउ तीरथ भेटिवा ॥ संवेगी गुरु साथ है, हां तेडीजइ दुख भेटिवा ॥ १ ॥ चढ़ि गढ़ गिरनार है, हा साथइ सहियर झूलरज । साजि वसन शृंगार है, हां गलि झवउ मक थूल रउ || २ || १
महात्मा आनन्दघन के काव्य मैं भी उस युग का समाज प्रतिबिम्बित है । इनके स्तवनों से पता चलता है कि सावेश धारी लोगों को किस
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प्रकार छलते थे, मृषा उपदेश देते थे और अपनी महिमा बढ़ाते थे । २ ऐसे समय कवि ने अपने असाधारण ज्ञान बल एवं परिपक्व विचारों से समाज का सच्चा पथप्रदर्शन किया । उय युग में एक ओर साधुओं के मृषा उपदेश और प्रवंचना का जाल फैल रहा था तो दूमरी ओर धर्म के गच्छभेद और मतमतांतरों में भ्रांत समाज किंकर्तव्यविमूढ़-सा बन गया था । समाज में आडम्बर एवं विषयासक्ति का जोर था । ३
अनेक कवियों ने समाज में वर्ण और जाति की मान्यता को व्यर्थ मान। है | कविं शुभचंद्र के विचार में सभी जीवों की आत्माएं समान है । आत्मा में कमी बाह ्यत्वं या शुद्रत्व प्रवेश नहीं कर सकता । कवि ने लिखा है
"उच्चनीच नीवि अप्पा हुवि, -
कर्म कलंक तणो की तु सोइ ।
१. जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि, अगरचंद नाहटा, पृ० ४२
२. आनंदघन चौवीसी, स्वामीसीमंधरा विनती ।
३. वही, अनंतनाथ स्तवन, प्रका० भीमसी माणेक, बम्बई ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
बंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र,
अप्पा राजा नवि होय क्षुद्र ७०॥"१ " कवि यशोविजय ने भी एक सच्चे संत की भांति नीच कुलोत्पन्न के लिए भी सिद्धि का मार्ग खुला बताया है और समस्त जातियों को समाज में एक समान माना है
"कहै जु तत्र समाधि ते, जाति लिंग नहि हेत, चंडालिक जाति कों, क्यों नहि मुक्ति संकेत ? गुण-थानक प्रत्यय मिट, नीच गोत्र की लाज,
दर्शन ज्ञान - चरित्र को, सब ही तुल्य समान ।"२ धर्म के नाम पर समाज में अनेक बाह य आडम्बर और पाखण्ड बढ़ गये थे। संतों की तरह इन जैन कवियों ने भी उनका खण्डन किया। कवि यशोविजय जी ने लिखा है, संयम, तप क्रिया आदि सव शुद्ध चेतन के दर्शनों के लिए ही किया जाता है, यदि उनसे दर्शन नहीं तो वे सब मिथ्या है। अन्तरचित के भीगे विना दर्शन नही होते । जब तक अन्तर की “लौ" शुद्ध चेतन में न होगी, ऊपरी क्रिया काण्ड व्यर्थ हैं
"तुम कार्न संयम तप किरिया, कहो कहां लों कीजे । तुम दर्शन बिनु सब या झूठी, अन्तर चित्त न. भीजे ।"३
कवि उदयराज ने मोक्ष - प्राप्ति के लिए जटा बढ़ाने या सिर मुंडाने के विरोध में कहा है, अन्तःकरण की शुद्धता बड़ी चीज है, बाह्याडम्बरों से लक्ष्य सिद्ध नहीं होता। शिव-गिव का उच्चारण करने से क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छल को नहीं जीता । जटाओं को बढ़ाने से क्या होता है, यदि पाखण्ड न छोड़ा। मिर मुड़ाने से क्या होता है, यदि मन को नहीं मूहा । इसी प्रकार घर-बार छोड़ने से क्या होता है, यदि वैराग्य की वास्तविकता को नहीं समझा।४
कवि समय सुन्दर ने भी मुक्ति के लिए चित्त शुद्धि को सर्वोपरिता दी है। बाह याचार भले निभाओं पर उनमें लक्ष्य तक पहुंचाने की सामर्थ्य नहीं
"एक मन मुद्धि विन कोउ भुगति न जाइ ।।
मावडं तू केश जटा धरि मस्तिक, भावइ तु मुड मुडाइ ।।१।। १. "तत्वमार दूहा", शुभचंद्र, ठोलियान मंदिर, जयपुर की प्रति । २. दिक्पट चौरामी बोल, यशोविजय जी, गूर्जर साहित्य संग्रह, पृ० ५६०-६१ ३. भजन मंग्रह, धर्मामृत, पं० बेचन्दास, पृ० ५४ । ४. गुण बावनी, उदयराज, प्रकरण २
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२३४
आलोचना-खंड
भावइ तू भूख तृषा सहि वन रिह, भावइ तू तीरथ न्हाई । भावइ तू साधू भेख धरि बहु परि, भावइ तू भसम लगाइ ॥ २ ॥ भावइ तू पढ़ि गुणि वेदपुराण, भावइ तू भगत कहाइ । समयसुन्दर कहि नाच कहूं गुण, ध्यान निरंजन ध्याइ ॥ ३ ॥"१
इसी तरह एक अन्य जगह पर कवि की सर्वधर्म समभाव मयी संतवाणी स्फुरित हुई है, जिसमें समाज में प्रचलित वाह याचारों की झांकी तो मिलती ही है कवि ने सरल भाव से अपना निष्पक्ष, उदात्त विचार भी प्रस्तुत कर दिया है
"कोलो करावउ मुंड-मुंडावउ, जटा घरौ को नगक रहउ ! को तप्प तपउ पंचागनि, साघउ कासी करवत कष्ट सहर । को भिक्षा मांगउ भस्म लगावउ मौन रहउ भावइ कृष्ण कहउ । समयसुन्दर कहइ मन सुद्धि पाखइ, मुगति सुख किमही न लहउ ॥१६॥"२
कवि यशोविजय जी ने भी इस प्रकार के वाह याचारों का खण्डन करते हुए कहा है
"मुंड मुंडावत सबहि गडरिया, हरिण रोझ वन धाम । जटा धार वट भस्म लगावत, रासम सहतु हे घाम ॥ ऐते पर नहीं योग की रचना, जो नहि मन विधाम । चित्त अंतर परके छल चिंतवि, जे कहा जपत मुख राम ॥"३
कवि जिनहर्ष भी वाह्याडम्बर के कट्टर विरोधी थे। उनकी दृष्टि से सिर मुडाना, जटा धारण करना, केश चन करना; दिगम्वर सब व्यर्थ है । इनसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । मोक्ष के लिए ज्ञान अनिवार्य है ।४ कवि किगनदास भी बाह्याडम्बरों की व्यर्थता सिद्ध करते दिखाई देते है ।५
इस प्रकार ये कवि अपने मौलिक चिंतन और आचार द्वारा अनपढ़ मिथ्याडम्बरों में प्रवृत्त समाज में साहित्य-साधना, जीवन साधना और आध्यात्मिक साधना की चेतना जगाते रहे । इनका काव्य जहां एक ओर लौकिक आनन्द प्रदान करने में समर्थ हैं वहां यह आध्यात्मिक आनंद से भी पाठक-श्रोता को परिलुप्त करता है। १. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, अगरचंद नाहटा, पृ० ४३४ । २. वही, पृ० ५१८ । ३. भजन संग्रह, धर्मामृत, पं० बेचरदास, पृ० ५३ ४. जसराज वावनी, जिनहर्प ग्रथावली, पृ० ६२-६३ ५. अम्बाशंकर नागर, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० १६०
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वार्मिक विचार : धार्मिक सहिष्णुता
उदार असाम्प्रदायिक धर्मतत्व की जहा बात होती है, वहां दो वस्तुएं मुख्य रूप से आती हैं- एक व्यवहार और दूसरा विचार । व्यवहार की दृष्टि से तो इन वीतरागी कवियों ने अपनी वीतरागिता का उज्ज्वल प्रमाण दिया ही है। सभी कवि जैन धर्मावलंबी या दीक्षा प्राप्त कवि हैं। अतः इनकी दृष्टि के समक्ष जैन धर्म मुख्य है । परन्तु सम्प्रदाय मूलक धर्म लक्ष्य प्राप्ति का साधन है, साध्य नहीं। जो साध्य के नजदीक पहुंचाते हैं, ऐसे सभी धर्म उस "एक" में लय हो जाते हैं। इस स्थिति पर जिस धर्म की अभिव्यक्ति होती हैं वह असाम्प्रदायिक, उदार और विश्वजनीन होती है । इस स्थिति का वास्तविक अनुभव महात्मा आनंदघन कर सके थे, यही कारण है कि इन्होंने धर्म विशेष में मान्य किसी एक ही देवता को नहीं माना, इनकी दृष्टि में राम, रहीम, महादेव, पार्श्वनाथ और ब्रह्मा में कोई भेद नहीं है, ये मव एक अखण्ड आत्मा की खण्ड कल्पनाएं है। जैसे एक ही मृतिका भाजन-भेद से नाना रूप धारण करती है, ठीक ही एक आत्मा में अनेक कल्पनाओं का आरोपण किया जा सकता है। यह जीव अपने पद में रमे तव राम; दूसरों पर दया दृष्टि बरसाये तब रहीम, कर्म करता है तब कृष्ण और जव निर्माण प्राप्त करे तव महादेव की संज्ञा से अभिहित है। अपने शुद्ध आत्मरूप को स्पर्श करने से पारस और ब्रह्य का साक्षात्कार करने से इसे ब्रह्म कहते है। आत्मा स्वतः चेतनमय और "निःकर्म"
"राम कहो रहेमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री, पारमनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृतिका रूप री । तैसे बंड कल्पना रोपित, आप अखंड स्वरूप री। निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री। करशे कर्म कान मो कहिए, महादेव निर्वाण री ॥ परसे रूम पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इस विध साधो आनन्दधन, चेतन मय निःकर्म री ॥"?
महात्मा आनन्दधन की तरह ब्रह्म की एकता या सभी धर्मों के देवों के प्रति समान भाव की अभिव्यक्ति कवि यशोविजय जी न इस प्रकार की है
१. आनंदघन पद संग्रह, पद ६७ वां
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आलोचना-खंड
"तु पुरुषोत्तम तुहि निरंजन, तु शंकर वड भाग । तु ब्रह्मा तु बुद्धि महाबल, तुहि देव वीतराग ॥"?
ज्ञानानंद जी ने भी सर्वत्र इसी प्रकार की उदारता एवं अमाम्प्रदायिकता का परिचय दिया है
"अवधू वह जोगी हम माने, जो हमकु सवगत जाने । ब्रह्मा विष्णु महेसर हम ही, हमकु ईमर माने ॥१॥"२
कवि गुण विलास ने भी अपनी "चौवीसी" रचना में उदार, समदर्गी एवं सर्व धर्म ममन्वयी विचारधारा अभिव्यक्त की है । "ऋपभजिन स्तवन" में कवि प्रभु की स्तुति करता हुआ कहता है
"आदि अनादि पुरुष हो तुम्ही विष्णु गोपाल,
शिव ब्रह्मा तुम्ही में सरजे, माजी गयो भ्रम जाल ॥"३ खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति
धार्मिक क्षेत्र में यह प्रवृत्ति मूलतः दो रूपों में आई है--- (2) बाह्याडम्बगे के विरोध रूप में तथा (१) अन्य सम्प्रदायों के विरोध रूप में।
(१) बाह्याडम्बगे का विरोध : कवि ज्ञानानद ने कबीर की तरह धर्म के क्षेत्र में मिथ्या बाह्याचारों का खंडन किया है। हिन्दू और इस्लाम दोनो धर्मावलवियो की कवि ने खबर ली है। परमात्मा के सच्चे रूप को न किसी ने जाना है और न किसी ने बताया है। योगी नाम धारियों की खबर लेते हुए कवि ने कहा है -
"जटा वधारी भस्म लगाइ, गंगातीर रहाया रे ।
ऊरध वाह आतापना लेइ, योगी नाम धराया रे ॥" ब्राह्मण पंडितों के लिए कहा है
"शासतर पढ़के झगड़े जीते, पंडित नाम रहाया रे ॥" मीया और सुन्नियों को भी कवि ने नहीं छोड़ा है---
"सुन्नत करचे अल्ला बंदे, सीया सुन्नी कहाया रे । वाको रूप न जाने कोई, नवि केइ बतलाया रे ॥"४ कवि यशोविजय ने धार्मिक वाह्याचार को अधर्म का कुगति कहा है१. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० ५६ । २. वही, पृ० १२ । ३. चौवीसी - वीसी संग्रह, प्रका० आणंदजी कल्याणी। ४. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० २१ ।
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जैन मूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
"वाह्य क्रिया करे कपट केलवे, फिर के महंत कहावे,. पक्षपात कबहु नहि छोड़, उनकु कुमति बोलावे ॥ १
महात्मा आनन्दघन जी भी लोग धर्म तत्व के वास्तविक स्परूप को नहीं समझ पाये हैं और बाह्याचार में ही लीन हैं ऐसे लोगो की यथार्थता दिखा कर अपनी धर्म सहिष्णुता का परिचय देते हैं । कवि ने कहा है, "हे अवध ! जगत् के प्राणी मुख से राम नाम गाते हैं, पर उस राम के अलक्ष्य रूप को पहचानने वाले तो विरले ही हैं । विभिन्न मतावलंबी अपने अपने मत अथवा धर्म में ही मस्त हैं, मठाधारी अपने मठ में आसक्त हैं, जटाधारी अपनी जटा में, पाठावारी अपने पाठ में और छत्रधारी अपने छत्र में ही गरम रहते हैं ।"
"अवधू राम राम जग गावे, विरला अलख लगावे || अवधू० मतमाला तो मत में ताता,
मठवाला मठराताः ।
जटा जटाधर पटा पंटाघर,
छता छतावर ताता ॥२
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(२) अन्य सम्प्रदायों का विरोध : कवि यशोविजय जी मे श्वेताम्बरी जैनत्व का भाव प्रवल रहा है । उनके “दवाठ चौरासी बोल" कृति में दिगम्बर धर्म मान्यता के प्रति विरोध इन शब्दों में व्यक्त हुआ है-.
" जैन कहावैं नाम तैं, तातै वढ्यो अंकूर | तनुमल ज्यौं फुनि संत ने कियों दूर तें दूर ॥ भस्मक ग्रह रज भसममय, तातें बेसर रूप ।
,
उठे "नाम अध्यातमी", भरम जाल अंध कूप ॥ ३ इसी तरह "जिन" नग्नता के विषय में कहा हैं
"नगन दशा जिनवर धरै नगन दिखावै नाहिं । अंबर हरि खंधे धरै उचित जानि मन माहि ॥ ४
इन विचारों में साम्प्रदायिकता का भाव प्रवल है । कवि ने शिवसुख प्राप्ति
के लिए जै धर्म का सार ग्रहण करने जी सलाह दी है
१. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १६६
२. आनंदघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद २७
३. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० ५७३-७४
४. वही, पृ० १८३
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___ आलोचना-खंड
"शिव सुख चाहो तो, भजी धरम जैन को सार,
ग्यानवंत गुरु पाय के, सफल करो अवतार ॥"१ कवि ने सच्चे जैन की व्याख्या की है तथा जैन के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कर "जैन दशा जस ऊंची" वताया है ।२ निदान :
कवि जिनहर्ष ने बताया है, लोग धर्म धर्म चिल्लाते हैं, पर उसका सही. मर्म नहीं समझते । निदान रूप कवि परम्परागत रूढियों का विरोध कर धर्म का वास्तवित स्वरूप बताते हुए उसमें ज्ञान और दया की आवश्यकता पर बल देते हैं- .
"धरम धरम कहै मरम न कोउ लहै, भरम में भूलि रहे कुल रूढ कीजिये।
कुल रूढ छोरि कै भरम फंद तोरि के,
सुगति मोरि के सुग्यान दृष्टि कीजिये । दया रूप सोइ धर्म तइ कट है कर्म,
भेद जिन धरम पीउष रस पीजिये ।"३ कवि धर्मवर्द्धन ने धर्म ध्यान में लीन रहना सदैव उचित माना है
"घर मन धर्म को ध्यान सदाइ । नरम हृदय करि नरम विषय में, करम करम दुखदाइ ॥ धरम श्री गरम क्रोव के घर में परमत परमते लाइ । परमातम सुधि परम पुरुष मजि, हर म तु हरम पराइ ।। चरम की दृष्टि विचार मत जोउरा, भरम रे मत भाइ ।
सरम बधारण सरम को कारण, धरमज धरम सी व्याइ ॥"४ . इन्होंने शुद्ध धार्मिक भूमिका के बिना माला के मनके फिराने की व्यर्थता बताते हुए कहा हैं"करके मणिके तजिक का ही अब,
फेरहु रे मनका मनका ।"५ १. वही, पृ० ११५ २. गुर्जर नाहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १५३-५४ ३. जिनहर्प धावली, उपदेश वावनी, पृ० ११५-१६ ४. वर्मवर्द्धन ग्रंथावली, पृ० १३ ५. धर्मवद्धन, थावली, धर्म वावनी, पृ० १३
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवि ज्ञानानंद ने सच्चे धर्माचरण के लिए ज्ञानरूप आन्तष्टि की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है
"ज्ञान की दृष्टि निहालो, वालम, तुम संतर दृष्टि निहालो । बाह्य दृष्टि देखे सो मूढा, कार्य नहि निहालो । घरम धरम कर घर घर भटके, नाहि धरम दिखालो।"१
प्रायः सभी कवियों ने अपनी अपनी कृतियों का शुभारम्भ भी धार्मिक औदार्य एवं शांतिपरकता के प्रतीक "ॐकार की महिमा", "सरस्वती स्तुति", "गुरु वंदना" अथवा तीर्थकरों की वंदना के साथ किया है।
सारांशतः इन कवियों ने अपने धार्मिक विचारों में अत्यधिक उदारता का परिचय दिया है। इनके साहित्य में प्राणि-मात्र के प्रति दया, समभाव, उदारता एवं आत्म कल्याण के साथ जनहित की भावना आदि धर्म के मूल तत्व निहित है। वीतरागिता भावगम्य है, वह मन में अपने सच्चे रूप में उद्बुद्ध होती है, उसके लिए सन्यासी, सायु, विरक्त या वनवासी बनने की आवश्यकता नहीं। भौतिक वासनाओं को निर्मूल करना पहली गर्त है । इनके निर्मूल होते ही त्याग एवं सन्यास स्वतः आ जाता है । इस दृष्टि से ग्रहस्थाश्रम में रहकर भी व्यक्ति सच्ची धार्मिक भावना हृदयंगमकर सकता है। दार्शनिक विचार :
जैन-दर्शन में तत्व-चिंतन और जीवन शोधन की दो वाते मुख्य है। यहां आत्मा अपने स्वाभाविक रूप में शुद्ध और सच्चिदानंद रूप है। उसकी अशचि, विकार और दुःखरूपता का एक मात्र कारण अज्ञान और मोह है। जैन-दर्शन में आत्मा की तीन भूमिकाएं स्वीकार की गई है । अज्ञान और मोह-पूर्ण आत्मा की प्रारम्भिक स्थिति को "हिरात्मा" कहा गया है। विवेक शक्ति द्वारा जब रागद्वेपादि संस्कारों का प्रावल्य अल्प होने लगता है तब आत्मा की दूसरी भूमिका आरंभ होती है, जिसे "अन्तरात्मा" कहते है। इसमें सांसारिक प्रवृत्ति के साथ भी अतर की निवृत्ति संभव है । इससे आगे आत्मा की अंतिम भूमिका "परमात्मदशा" है, जहां पहुंच कर आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाती है।
इस दृष्टि से अविवेक और मोह अर्थात् मिथ्यात्व एवं तृष्णा संसार रूप है और विवेक तथा वीतरागत्व मोक्ष का कारण है । जैन दर्शन की जीवन शोधन और तत्व मीमांसा की यही बातें जैन-गूर्जर-कवियों की हिन्दी कविता में यत्र-तत्र अनेक म्पों में वर्णित है। १. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० ३१
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मालोचना-खंड
आत्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा :
कवि आनंदघन ने आत्मा की प्रथम स्थिति "बहिरात्मा" के स्वरूप को समझाते हुए कहा है, "दुनिया के प्राणी वहिरात्म भाव में मूढ़ बन गये हैं, जो निरंतर माया के फंदे में फंसे हुए हैं। मन में परमात्म भाव का व्यान करने वाले प्राणी तो विरले ही मिल पाते हैं-"
"वहिरातम मूढा जग जेता, माया के फंद रहेता ।।
घट अंतर परमातम भावे, दुरलभ प्राणी तेता ॥"१ माया, मोह और भ्रम ही जीव के शत्रु हैं । इनसे ऊपर उठकर ही जीव अपने सच्चे आत्मरूप की अनुभूति कर पाता है
"रागादिक जब परिहरी, करे सहज गुण खोज ।। घट में प्रगट सदा, चिदानंद की मोज ॥"२
यशोविजयी जीव अपने कर्मों से आवद्ध है । कर्मों में आबद्ध जीव ही संसारी आत्मा है । जीव और कर्मों का संबंध अनादि काल से है। अनायास इन कर्मों से मुक्ति संभव नहीं। कवि समय सुन्दर ने कहा है कि जप-तप रूपी अग्नि में दुष्ट कर्मों का मल जब जल कर राख हो जाता है, तब यही आत्मा अपने सिद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाती है"जप तप अगनि करी नइ एहनउ,
दुष्ट करम मल दहियइ रे । समयसुन्दर कहइ एहिज अतमा,
सिद्ध रूप सरदहियइ रे ॥"३ सांसारिक तृष्णाएं उस आत्मरूप की उपासना में बाधक हैं। उसके लिए विवेक अथवा ज्ञान-अभ्यास आवश्यक है
"चेतन । जो तु ज्ञान अभ्यासी । आप ही बाँचे आपही छोड़े, निज मति गक्ति विकासी ॥
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पुद्गल की तू आस धरत है, सोतो सबहि विनासी ।
तूं तो भिन्न रूप हे उनते', चिदानन्द अविनासी ।। १. आनंदघन पद संग्रह, पद २७, पृ० ७४ २. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, समाधि शतक ३. समयमुन्दर कृत यु.सुमांजलि, पृ० ४४२
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__ जैन गूजर कविया की हिन्दी कविता
२४१
ज्ञान दृष्टि मां दोप न एते, करो ज्ञान अजुआलो ।
चिदानंद-धन सुजस वचन रस, सज्जन हृदय पखालो ॥"१-यशोविजय
देह के मिथ्यात्व में पड़कर उसे ही आत्म-तत्व समझना भूल है, इसका निर्देश कवि देवचन्द्र इन गब्दों में करते हैं
"जेसे रज्जु सरम भ्रम माने त्यु अजान मिथ्यातिठाने । देह बुद्धि को आत्म पिछाने, यातें भ्रमहेतु पसारे ॥"२
इन कवियों ने इस भ्रमदशा से ऊपर उठने के लिए ज्ञान - दृष्टि की अनिवार्यता बताई है। शुद्ध चिदानन्द रूप भाव ही को ज्ञान माना गया है। उसका निरंतर चिंतन करने से मोह - माया दूर हो जाते हैं और अनन्त सिद्धि लाभ होता है । यह सिद्धि ही आत्मा की अनंत मुखदशा की अपूर्व अनुभूति है"ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
__ चीततो मूको माया मोह गेह देहए । सिद्धतणां सुख जि मल हरहि,
आत्मा भाव शुभ एहए ॥६१॥"३-गुभचन्द्र वस्तुतः आत्मा तो अजर - अमर है। शरीर के वस्त्रों की देह नश्वर है, चेतन रूप आत्मा अमर है
"जैसे नाग न आपको, होत वस्त्र को नाश ।
तेसे तनु के नाश तें, चेतन अचल अनाश ॥"४ आत्मतत्व मुख-दुःख, हर्ष - द्वेष, दुर्वल-सवल तथा धनी - निर्धन से परे है। वह सांसारिक दोषों से मुक्त है"अप्पा धनि नवि नवि निर्धन्त,
नवि दुर्वल नवि अप्पा धन्न । मूर्व हर्प नवि तेजीव,
नवि सुखी नवि दुखी अतीव ।"५ -शुभचंद्र श्रीमद् देवचंद्र ने आत्मा के परमात्म स्वरूप का कथन इस प्रकार किया है१. गूर्जर माहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १०६ २. श्रीमद् देवचन्द्र भाग २, द्रव्य प्रकाश ३. तत्वमार दूहा, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति ४. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग, समाधि शतक, पृ० ४७४ ५. तत्वसार दूहा, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति
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२४२
आलोचना-खंड
"शुद्ध बुद्ध चिदानंद, निरवंद्वाभिमुकुद, अफंद अमोघ कंद' अनादि अनन्त है । निरमल परिब्रह्म पूरन परम ज्योति परम अगम अकीरिय महासंत है । अविनाशी अज, परमात्मा सुजान । जिन निरंजन अमलान सिद्ध भगवंत हे। ऐसो जीव कर्म संग, संग लग्यो ज्ञान मुली,
कस्तुर मृग ज्यु, भुवन में रहेत है ।"१ इस प्रकार आत्मा जव विवेक और जान द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेती है, तब वह जन्म, मरण तथा नेदहादि वंधनों से ऊपर उठ जाता है। आत्मा की इस मुक्त दशा की अभिव्यक्ति आनन्दघन ने इन शब्दों में की है
"अव हम अमर भये न मरेंगे । या कारण मिथ्याति दियो तज, क्यूकर देह धरेंगे।
मर्यो अनंत बार विन समज्यो, अब मुख-दुख विसरेंगे।
आनंदघन निपट निकट अक्षर दो, नहीं समरे सो मरेंगे ॥४२॥"२ इस साक्षात्कार की स्थिति में "सुरति” की बांसुरी वजने लगती है और अनाहत नाद उठने लगता है
"वजी सुरत की बांसुरी हो, उठे अनाहत नाद,
तीन लोक मोहन भए हो, मिट गए द्वद विपाद ।"३ मोक्ष : यही समस्त कर्मों से छुटकारा है और मोक्ष की स्थिति है
"कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेप होय विन!ण । मोक्ष तत्व श्री जिन कही, जाणवा भावु अल्पास ॥"४
---- शुभचन्द्र माया : प्रायः सभी दर्शनों में माया पर विचार हुआ है। इन कवियों ने भी इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । मायाजाल में भ्रमित मानव की मूढ़ता पर इन १ श्रीमद् देवचंद्र भाग २, द्रव्य प्रकाश २. आननंघन पद संग्रह, पृ० १२४-२७ ३, लक्ष्मीवल्लभ, अध्यात्म फाग, प्रस्तुत प्रबंध का प्रकरण ३ ४. तत्वसार दोहा, मंदिर ढोलिवान, जयपुर की प्रति
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कवियों ने आश्चर्य अभिव्यक्त किया है । यशोविजय जी के शब्दों में- " मायारूप वेल से आच्छादित "भव अरवी " के बीच मूढ़ मानव अपने ज्ञान - चक्षु बन्द क सो रहा है"--
:२४
"विकसित माया वेलि घरि भव-अरवी के बीच ।
सोवत है नित मूढ़ नर, नयन ज्ञान के मीच ||३१|| १ और उसकी विषय लोलुपता का नग्न चित्र प्रस्तुत करते हुए कहा है कि मानव विषय-वासना में रत हो अपना ही अकल्याण कर रहा है । उसी तरह जैसे कुत्ता हड्डी को चवाता है, उसके मुंह में चुभने से खून निकलता है पर उस अपने ही खून को हड्डी का रस समझ कर स्वाद अनुभव करता है
" चाटे निज लाला मिलित, शुष्क हाड ज्युं श्वान | तेसे राचे विषय में, जउ निज रुचि अनुमान ॥ ६१ ॥ २
अज्ञान और माया ही जीव को भ्रमित करते हैं । माया बड़ी भयानक है । जो इसके चक्कर में पड़ा वह शाश्वत सुख से हाथ वो बैठता है । कवि के शब्दों में माया की भयानकता देखिए-
"माया कारमी रे, माया म करो चतुर सुजान ।
माया वाह्य जगत विलुधो, दुःखियो थाय अजान | जो नर मायाए मोही रह्यो; तेने सुपने नहिं सुखठाण ||३
माया की भयानकता के अनेक कवियों ने बड़े मार्मिक वर्णन किये हैं । आनंदघन ने कबीर की तरह ही माया को ठगिनी बताते हुए सम्पूर्णं विश्व को अपने नागपाश में बांध लेने वाली कहा है |४
रहस्यवाद : आध्यात्मिकता को उत्कर्ष सीमा का नाम रहस्यवाद है | भावमूलक अनुभूति रहस्यवाद का प्राण है । दर्शन का क्षेत्र विचारात्मक अनुभूति में है । यह एक ऐसी अनुभूति है, जो साधक के अन्तर में उद्भूत होकर अखिल विश्व को उसके लिए ब्रह्ममय वना देती है अथवा उसे स्वयं को ही ब्रह्म बना देती है । यहां बुद्धि का क्षेत्र हृदय का प्रेय वन जाता है । प्राणी मात्र में ब्रह्म का आभास होने लगता है अथवा समस्त प्राणी ही परमात्मा बन जाते हैं ।५
१. गूर्जर साहित्य संग्रह भाग १, समता शतक २. वही
३. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १७७-७८
४. आनंदघन पद संग्रह, पद १६, पृ० ४५१
4. Radhakamal Mukerji introduction to theory and art of Mysticism p. 7
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आलोचना-खंड
‘इन कवियों की कविता में रहस्यवाद की दोनों स्थितियां-साधनात्मक एवं प्रेममूलक आयी हैं । आनंदघन, यशोविजय, विनय विलास, ज्ञानानंद आदि ऐसे साधक के रूप में आते हैं जो अनुभूति और स्व-संवेदन ज्ञान को ही महत्व देते हैं। आनंदघन प्रिय-मिलन से ही अपना "सुहाग" पूर्ण हुआ मानते हैं । आत्मा उस अनंत प्रेमी के प्रेम में मस्त हो उठती है। वह अपना पूर्ण शृंगार करती है। भक्ति की मेंहदी, भाव का अंजन, सहज स्वभाव की चूड़ी, स्थिरता का कंकण और सुरति का सिन्दूर लगाती है । अजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है और अविरल आनन्द की झड़ी लग जाती है ।१
__ इन कवियों ने अनेक रूपकों के माध्यम से आत्मा और ब्रह्य के प्रेम की सरल अभिव्यक्ति की है । जव आनंदघन प्रेम के प्याले को पी कर अपने मत वाले चेतन को परमात्मा की सुगन्धि लेने को कहते हैं तब साधनात्मक रहस्यवाद की चरम परिणति दिर्ख पड़ती है
"मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि पर जाली । तन भारी अवठाई पिये कस, आगे अनुभव लाली ।। अगम प्याला पीयो मतवाला, चिन्ही अध्यातम वासा ।
आनंदघन चेतन खेले, देखे लोक 'तमासा ॥"२
उसी तरह संवेदनात्मक अनुभूति के कारण जब प्रिय को हृदय से अधिक ‘समीप अनुभव किया गया है वहां इनका प्रेममूलक रहस्यवाद निरूपित हुआ जिसकी विस्तृत चर्चा भक्तिपक्ष के अन्तर्गत हो चुकी है। आनंदघन की कविता से प्रिय के प्रति संवेदनात्मक अनुभूति का एक उदाहरण द्रष्टव्य है
-"पीया बीन सुध बुध खूदी हो.
विरह भुयंग निशास में, मेरी सेजड़ी खूदी हो ॥१॥"३ नैतिक विचार :
जैन गूर्जर कवि नैतिक आचार-विचार के जीवन्त रूप रहे हैं। इन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा समाज को स्वस्थ एवं संतुलित पथ पर अग्रसर करने तथा व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की उचित प्राप्ति कराने में अपना जीवन अर्पित किया था। इनके साहित्य-सर्जन की प्रवृत्तियों में भी नीति समन्वित विचारधारा
१. आनन्दघन पद संग्रह, पद २०, पृ० ४६ २. वही, पद २८, पृ० ७८-७६ ३. वही, पद ६२, पृ० २६४
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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ही प्रमुख है। इस दृष्टि से इन्हें हम नीति के कवि भी कह सकते हैं । इन कवियों ने जीवन और जगत् को अपनी विभिन्न परिस्थितियों में तथा उसकी सफलताओं - असफलताओं एवं उपलब्धियों - अभावों को अत्यधिक निकट के देखा था। यही कारण है कि इनकी बातों में जीवन सत्य है । इनकी वाणी में या तो स्वानुभूति की झलक है या परम्परानुभूति का प्रभाव ।
प्रत्येक जाति, धर्म या सम्प्रदाय के कवियों द्वारा प्रणीत इस प्रकार का नीतिकाव्य भारतीय जन-जीवन की आचार संहिता रहा है । काव्य की अन्य धागओं की तुलना में यह काव्य कम ललित या यत्किंचित् रसहीन हो सकता है फिर भी यहाँ कुछ नीति और सद्धर्म का सरल उपदेश देने वालों में समयमुन्दर, धर्मवईन, जिनहर्ष, लक्ष्मीवल्लभ, केगवदास, किनगदास, विनयचंद्र खेमचन्द, दयासागर, गुणसागरसूरि, उदयराज, कुमुदचन्द्र, जिन राजसरि, मालदेव, विनयासमुद्र आदि अग्रगण्य है । वैसे प्रायः सभी कवियों ने नैतिक आचार-विचार को प्रमुखता दी है। कवि समयमुन्दर ने अपने असंख्य गीतों एवं विशेषतः छत्तीमियों में, नीतिपरक काव्य के जितने भी विषय बन सकते हैं, प्राय: उन सभी विषयों पर सरल उपदेशात्मक एवं अनुभूति परक नैतिक विचारों की अभिव्यक्ति की है । "प्रस्ताव सर्वया छत्तीमी" से एक उदाहरण दृष्टव्य है--- .
"व्याव्या बिना वेत्र किम लुणियइ, खाद्या पावइ भूम्ब न जाइ । आप मुयां विण सरग न जइयड, वाते पापड़ किम ही न थाइ ।। साधु : साधवी श्रावक श्रविका, एनउ बेत्र मुपात्र कहाइ । समयसुन्दर कहइ तउ सुख लहियइ, जल घर सारउ दत्त दिवाइ ।।"?
जिनहपं भी नीति के कवि हैं । जीवन के विशाल अनुभवों का मार कवि ने अपने नीतिपरक दोहों तथा विगाल बावनी साहित्य में उड़ेल दिया है । एक उदाहरण दृष्टव्य है--
"घरटी के दो पड़ बिन कण चरण ज्यु होय ।
त्युदो नारी विच पदयौ गो नर गरे नहीं कोय ॥"२
कवि धर्मवर्द्धन ने भी नीति काय के समस्त विषयों को पना लिया है। नारी को लेकर उनके विचार व्यहै--
"नैन नकाह गुन दिमावत, बैन की काह मो यान बनावै ।
पनि पी नित में परवाह नहीं, मित गीजन और गुनह जणावे ।। १. गमगगुन्दर गत गुसुगाजलि, पृ० १६ २. जिनसं गायनी, छोरा बावनी, १०९६
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मालोचना-वंड
सासू को सांस जिठानी को जीउ, दिरानी की देह दुर्ख ही दहावै । कहै धर्मसीह तजो वह लीह, लराइ को मूल लुगाई, कहावै ।।"?
कवि जिनराजसूरि ने "शील बत्तीसी" और 'कर्म वत्तीसी' कृतियों में क्रमगः गीलधर्म और कर्म महत्ता का प्रतिपादन किया है। शील का महात्म्य बताता हुआ कवि कहता है
"सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विपय विकार जी । सीलवंत अविचल पद पामइ, विषई रुलइ संसार जी ॥"२
कवि यशोविजय जी ने भी अपनी "समाधि शतक" एवं "समता शतक" रचनाओं मे अध्यात्म मार्ग में प्रवृत्त मानव को अपने नैतिक आचरण की याद दिलाई है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं--
"लोभ - महातर, शिर चढ़ी, बढ़ी ज्यु तृष्णा - वैलि । खेद - कुसुम विकसित भइ, फले दुःख ऋतु मेली ॥"
जाके राज विचार में, अबला एक प्रधान ।
सो चाहत हे ज्ञान जय, कैसे काम अयान ॥"३ इन कवियों में उदयराज के नीतिपरक दोहे विशेष लोव प्रिय रहे हैं । एक उदाहरण पर्याप्त होगा---
"गरज समै मन और हो, सरी गरज मन और ।
उदैराज मन की प्रकिति, रहै न एकण ठौर ॥"४ - इन कवियों की इस प्रकार की असंख्य मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त अनेक चौपाई, रासादि प्रवंध रूपों में भी नीतिपरक सद्धर्मी की शिक्षा के असंख्य स्थल आए है । उदाहरणार्थ विनयचन्द्र को 'उत्तमकुमार चौपाई' में उत्तम कुमार का नीति और सदाचार को पोषण करने वाला उदात्त चरित्र वर्णित है। उसी तरह विनयसमुद्र के पद्मचरित्र में सीता और राम का शील प्रधान चरित्र, गुणसागरसूरि के 'कृतपुण्य रास' में दानधर्म की महिमा, महानंदगणि के 'अंजनासुन्दरी रास' में अंजना का उदात्त चरित्र, मालदेव की 'वीरांगदा चौपाई' में पुण्यविषय तथा 'स्थूलिभद्र
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१. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, धर्म बावनी, पृ० ६ २. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ११२ । ३. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० ४६३-६४ ४. नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रति
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फाग' में भोज की विरक्तिमय प्रतिक्रिया और खेमचन्द की 'गुण माला चौपाई में आर्य मर्यादा एवं नैतिकता का उज्ज्वल निरूपण हुआ है । 'गुणमाला चौपाई में गुणमाला को उसकी माता आर्य मर्यादा एवं पातिव्रत धर्म की सीख देती हई कहती है---
"सीखा मणि कुवरी प्रत, दीयै रंभा मात । चेटी तू पर पुरुप सु, मत करजे वात ॥ १ ॥ भगति करे भरतार की, संग उत्तम रहजे।
बड़ा रा म्हौ बोले रखे, अति विनय वहजे ॥ २॥"१ जैन समाज में सज्झाय - साहित्य अत्यधिक लोकप्रिय है। विविध ढालों और रागों में विनिर्मित सज्झायें जैन समाज में प्रायः कंठस्त कर लेने की प्रथा है। इस व्यावहारिक गेय साहित्य द्वारा भी परम्परागत उच्च प्रकार की सात्विक भावनाओं का संस्कार सिंचन हुआ है। प्रायः अधिकांश कवियों ने इस प्रकार की सज्झायों का निर्माण किया है । प्रकृति - निरूपण
मनुष्य ने जब से आंख खोली है वह किसी न किसी रूप में प्रकृति से सम्बन्धित रहा है । प्रकृति के सतत साहचर्य के कारण उसने उसके प्रति राग-विरागादि से पर्ण अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाए अनुभव की है। वह कभी प्रकृति को देख कर आत्मविभोर हो गया, उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसने प्रकृति के गीत गाए। विरह के क्षणों में, मिलन की मादक घड़ियों में प्रकृति ने उसे सताया अथवा प्रोत्साहन दिया है, रीझते मानव-मन को अभिव्यक्ति की सुकुमार शब्दावली प्रदान की और कहीं-कहीं स्वयं मानव-रूप धर कर प्रकृति मानव को रिझाती रही। यदि काव्य को मनुष्य की आत्मा की अनुभूति की अभिव्यक्ति कहा जाय तो किसी भी कवि द्वारा रचित कोई भी मुन्दर काव्य प्रकृति के स्पों से मुक्त नही हो सकता। जैन कवि भी इसके अपवाद नही है । उनकी रचनाओं में भी प्रकृति किसी न किसी रूप में अवश्य निरूपित हो गई है।
मनुष्य और प्रकृति के परस्पर सम्बन्ध व पूर्ण परिप्रेक्ष्य को देखते हुए साहित्याचार्यों ने प्रकृति-निरूपण की विविध प्रणालियों की ओर संकेत किया है. यथा- प्रकृति का आलम्बनगत चित्रण, प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण, अलंकारगत चित्रण, प्रकृति का मानवीकरण, उपदेश आदि के लिए प्रकृति का काव्यात्मक प्रयोग
१. गुणमाला चौपाई, खेमचन्द, प्रकरण ३
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आलोचना-खंड
आदि । आलोच्य युगीन जैन कवियों ने भी अपनी कविताओं में प्रकृति का उपयोग किया है।
प्रकृति का आलम्वनगत प्रयोग : प्रकृति जव कवि के भावों का सीधा आलम्बन बन जाती है उस समय उसका निरूपण स्वतन्त्र रूप में होता है । वह काव्य में स्वयं साध्य होती है । इस दृष्टि से कुमुदचन्द्र का एक प्रकृति-चित्र देखिए
"कलाकार जोनल जलकुंडी, निर्मल नीर नदी अति अंडी, विकसित कमल अमल दलपंती, कोमल कुमुद समुज्जल कंती। वनवाड़ी आराम सुरंगा, अम्ब कदम्ब उदवर तु गा । करणा केतकी कमरख केली, नवेनारंगी नागर वेली ॥ अगर तगर तरु तिदुक ताला. सरस सोपारी तरल तमाला । वदरी वकुल मदाड वीजोरी, जाई जुई जम्बु जम्भीरी ॥"१
कुमुदचन्द्र प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण : जहां पर प्रकृति कवि के स्थायी भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई देती है वहां पर प्रकृति का उद्दीपनगत रूप होता है। इस प्रकार का उद्दीपनगत चित्रण प्रायः शृंगार रस में प्राप्त होता है। कवियों ने-आलोच्य युगीन जैन कवियों ने-नेमि-राजुल, स्थूलिभद्र-कोश्या आदि की कथाओं में जहां कहीं विरह-वर्णन प्रस्तुत किया है वहां प्रायः प्रकृति का उद्दीपन रूप में प्रयोग पाया जाता है । इस दृष्टि से इन कवियों के 'बारहमासे' तथा 'फागु' काव्य विशेष रूप से द्रप्टव्य है । भाद्र मास का एक उद्दीपनगत चित्र तेन्निए
"दल मनमथ बादलिइ, धन - घन - घटा रे. जे जे वरसइ धार, ते विरह - तनि सटारे । बिजली असि झलकाइ, उभरावि वीछड्या रे,
केकि बोल सुणंति कि, मूरछाड पड्या रे ॥२-जयवन्तसरि भाद्र मास की भांति ही प्रकृति अपने पूरे यौवन में अर्थात् वसन्त में विरहिणी को कितना कष्ट देती है। उसका भी दृश्य यहां प्रस्तुत है
"मधुकर करइं गुजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूकड़ा टुकड़ा मेलवा कन्त । 'मलयाचल थी चलकिट फ्लकिउ पवन प्रचण्ड ।
मदन महानप पाझइ विरहीनि सिरदंड ॥"३ -महानन्द गणि १. भरत वाहवलि छन्द. आमेर शास्त्र भण्डार की प्रति २. नेमिराजुल वार मास वेल प्रवन्ध ३. अंजनासुन्दरी रास, प्रस्तुत प्रबध का दूसरा अध्याय ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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प्रकृति का अलंकारगत प्रयोग : जैसाकि हम पहले कह आए हैं कि अलंकारों का कार्य भाव को सुन्दरतम रूप में प्रस्तुत करना है तथा अभिव्यक्ति को मुकुमार शब्दावलि प्रदान करना है, प्रकृति का अलंकार रूप में प्रयोग भी इसी कार्य को सम्पन्न करता है । प्रकृति के अलंकारगत प्रयोग के कुछ उदाहरण देखिए
"१- मैं तो पिय तें ऐसि मिली आली कुसुम-वास संग जैसे ।१ -आनंदघन २- कुमुदिनी चंद जिसउ तुम लीनउ, दूर तुहि तुम्ह नेरउ ॥२ -समयसुन्दर ३. चन्द चकोर जलदजु सारंग, मीन सलिल जुध्यावत । कहत कुमुद पतित पावन तूहि हिरदे मोहि भावत ॥३ -मट्टारक
कुमुदचन्द्र ४- सारंग देखि सिधारे सारगु, सारंग नयनि निहार ।४ -मट्टारक
- रत्नकीर्ति ५- सुप्रभाति मुख कमल जु दीठु, वचन अमृत थकी अधिक जु मीठु ॥५
-आचार्य चन्द्र कीर्ति ६- जैसे घनघोर जोर आप मिलै चिहुं और, पवन को फोर घटत न लागै वार जू ।
सिरता को वेग जैसे नीर तै बढ़े है तैसें,
छिन में उतरि जाइ सुगम अपार जू । तैसै माय मिल आय उद्यम कीर्ण विनाय, सकृत घट है तव जैसे कहूं लार जू ।
_ ऐसो है तमासो जिनहरख घन, घन दोउ मिल आइ जोईयो विचार जू ॥"६
-जिनहर्ष उपदेश आदि देने के लिए प्रकृति का काव्यात्मक प्रयोग :
अनेक स्थलों पर कवि प्रकृति के माध्यम से अन्य लोगों को उपदेश देना चाहता है । काव्य में जहाँ कहीं इस प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है वहाँ प्रकृति १. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० १४६ २. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, ३८३ ३. राजस्थान के जैन संत - व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ० २७२ ४. वही, २७०
५. वही, १६० ६. जिनहर्ष गंथावली, पृ० ११३
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आलोचना-गंट
साधनरूप ही होती है, साध्यरूपा नहीं । सामान्यतः आलोन्यकालीन जैन गूर्जर कवियों ने प्रकृति का इस रूप में प्रयोग कम ही किया है। किन्तु उदाहरण प्राप्त हो ही जाते है । एक उदाहरण देखिए
"चांपा ते रूपइ ख्यटा, परिमन मुगन्ध सल्प !
भमरा मनि मान्या नहीं, गुण जाणइन अनुप ।।"१ कवि ने उक्त पंक्तियों में भ्रमर के माध्यम से उन लोगों के प्रति संकेत किया है जो गुण को नहीं पहचान पाते और तत्व को छोड़ बैठते हैं। इस प्रकार मे कवि गुणों को पहचानने का उपदेश देते दिखाई देते हैं।
प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा : प्रकृति के माध्यम से आलोच्य-कालीन जैन गुर्जर कवियों ने सभी पदार्थों में ब्रह्म के होने की कल्पना कर के ब्रह्म की सर्वव्यापकता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। आचार्य धर्मवद्धन प्रायः सभी पुप्पो में प्रभु का वास देखते हैं । "केतकी मे केसव, कल्याण राइ केवरा में,
कुज में जसोदमुत कुद में विहारी है। मालती में मुकुन्द मुरारि वास भोगरें,
गुलाब में गुपाल लाल मौरभ सुधारी है । जही में जगतपति कृपाल पारजात हु में,
पाडल में राज प्रभु पर उपगारी हैं । चम्प में चतुर्भुज चाहि चित चुभि रह्या,
सेवंती में सीताराम स्याम सुखकारी है ॥२ उक्त विश्लेपण करने के पश्चात् इस बात की प्रतीति हो जाती है कि आलोच्यकालीन जैन-गूर्जर कवियों ने प्रकृति के जिस रूप को सर्वाधिक मात्रा में ग्रहण किया है वह है उद्दीपनगत एवं अलंकारगत । वस्तुत: कविता में उद्दीपनगत चित्रण ही प्रकृति का सही रूप है क्योंकि इसमें मनुष्य की भावनाएं जितनी गहराई से रम सकती है उतनी किसी अन्य रूप में नहीं। इन कवियों में प्रकृति के मानवीकरण का प्रयास प्राप्त नहीं होता। मूलतः ये कवि उपदेशक रहे है। इनका काम धर्म प्रचार करना रहा है फिर भी इनका प्रकृति-चित्रण अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं किया गया । उपदेशरूपा प्रकृति जैसे यहाँ है ही नहीं और जहाँ कही है मी वहाँ अत्यल्प ।
१. समयसुन्दर कृत कुमुमांजलि, पृ० ११३ २. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, पृ० १३७
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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निष्कर्ष
आलोच्य युग के जन-गूर्जर-कवियों की हिन्दी कविता के वस्तुपक्ष का अध्ययन करने के पश्चात् सारांशतः हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं
(१) इन कवियों ने शांतरस को रसराज स्वीकार किया है । यद्यपि इनकी कविता में सभी रसों का नियोजन अंगरूप में यथाप्रसंग सफलता से हुआ है, पर ये रस प्रधान शांतरस की क्रोड में ही वणित है। शतरस को रसराजत्व देना जैनों के अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुकूल है।
(२) इनकी कविता का मूलाघर आत्मानुभूति है। यही कारण है कि यहां पार्थिव तथा ऐन्द्रिय सौन्दर्य के प्रति आकर्षण नहीं।
(३) वासना के स्थान पर विशुद्ध प्रेम को अपनाया गया है ।
(४) भक्तिभावना शांत, माधुर्य, वात्सल्य, सख्य, विनय आदि भावधाराओं में अभिव्यक्त हुई है, जिसमें नवधाभक्ति के अधिकांग तत्व समाहित है।
(५) इनकी कविता में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है । यहां गुरु और ब्रह्म में भेद नहीं है । गुरुभक्ति में अनुराग का विशेष महत्व है। परिणामतः गुरु के मिलन और विरह दोनों के गीत गाये गये हैं।
(६) इनकी कविता में रागात्मिका प्रवृत्ति को उदात्त एवं परिष्कृत करने का . तथा जीवनोन्नयन के लिए तत्वज्ञान के आश्रय को स्वीकार करने का मूल आदर्श ध्वनित है । इसमें आत्मा की सच्ची पुकार है तथा स्वस्थ जीवन दर्शन है।
(७) मानव मात्र में स्फूर्ति एवं उत्साह पैदा करना, उसके निराशामय जीवन में आशा का संचार करना तथा विलाज जर मानव में नैतिक शक्ति की संजीवनी मरना इन कवियों की वैराग्योन्मुख प्रवृत्ति का मूल उद्देश्य कहा जा सकता है।
(८) संसार की असारता तथा जीवन की नश्वरता दिखाकर वैराग्य का उपदेश देने के पीछे इन कवियों का उद्देश्य समाज के भेद भाव, अत्याचार-अनाचार और हिंसा आदि दुर्गुणों को मिटाकर प्राणी मात्र में शील, सदाचार आदि का नैतिक वल भरना भी रहा है।
(8) ये कवि अपने सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा नैतिक विचारों में अत्यधिक स्पष्ट, उदार तथा असाम्प्रदायिक विचारों को प्रश्रय देते रहे हैं।
(१०) इन कवियों के प्रकृति चित्रण में प्रायः उद्दीपनगत एवं अलंकारगत चित्रण ही प्राप्त होता है।
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मालोचना-रंट
(११) इन कवियों के काव्यगत भाव आध्यात्मियः नेतना से युक्त हैं। भक्तिकालीन साहित्य धारा में जहां अव्यात्म तत्व का प्राधान्य रहा वहां रीतिकालीन काव्यधारा में सांसारिक विषयों की प्रधानता रही। आलोच्य कवि लौकिक एवं आध्यात्मिक विचारधारा के बीच सेतु निर्माण का कार्य करते प्रेतीत होते हैं।
(१२) यद्यपि इन कवियों के मूल प्रेरणा तत्व धर्म और आध्यात्मिकता रहे है तथापि इनकी रचनाएं न तो धार्मिक संकीर्णता से ग्रस्त हैं और न नीरस हो । इनमें काव्य रस का समुचित परिपाक है। इनके विषय मात्र धार्मिक ही नहीं, सोकोपकारक भी हैं । काव्यरस और अव्यात्मरस का जैसा समन्वय इन कवियों ने किया है वैसा भक्ति-काल के मूर्धन्य कवियों को छोड़ अन्यत्र नहीं मिलता।
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प्रकरण ५
आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में कला पक्ष
भापा
छन्द और संगीत विधान अलंकार - विधान प्रतीक - विधान प्रकरण - निष्कर्ष
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प्रकरण ५
आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में कला-पक्ष
किसी भी युग की कविता पर विचार करते समय हमारा ध्यान वस्तु पक्ष के बाद सर्वप्रथम कला-पक्ष की ओर ही जाता है । काव्य-कला के विभिन्न उपकरणों को लेकर अब हम आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता के कला-पक्ष पर विचार करेंगे।
भापा :
जैन गूर्जर कवियों की अनुभूति में जिस प्रकार सहजता और लोक-जीवनाभिमुखता के दर्शन होते है, उसी तरह इनकी अभिव्यक्ति में भी लोक वाणी की ओर सहज आकर्षण है । कई जैन संत तो संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् रहे हैं, फिर भी इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति लोक भापा में करना अधिक उपयुक्त समझा। अपनी वाणी को बोधगम्य एवं लोकभोग्या बनाने के लिए इन्होंने व्याकरणादि के रूपों एवं भापाकीय सीमाओं की विशेष परवाह नहीं की है । भापा प्रचार एवं प्रसार की दृष्टि से इन कवियों के इन प्रारंभिक प्रयोगों का हिन्दी को राष्ट्रव्यापी रूप देने में बड़ा महत्व है। उनकी भाषा अनेक भाषाओं व प्रभावों की संगम स्थली है। अपभ्रंश का प्रभाव :
हिन्दी अपभ्रंश का ही विकसित रूप है, अतः १७वीं शती के कुछ कवियों की हिन्दी कविता में अपभ्रंश की विशेषताएं अपने अवशिष्ट रूप में अवश्य दीख पड़ती हैं। अपभ्रंश की विशेपताएं जो इन कवियों में रह गई है, उसका अध्ययन इस प्रकार कर सकते हे(क) 'उ' कार वहुला प्रवृत्ति :
अपभ्रंश की "उ" कार बहुला प्रवृत्ति यहाँ भी प्रतिष्ठित है। कृदन्त तद्भव क्रियाओं के अधिकांश रूप उकारान्त हैं। उदारणार्थ मालदेव के भोजप्रबन्ध से एक उद्धरण दृष्टव्य है
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आलोचना-खंड
"वनतें वन छिपतउ फिरउ, गण्हर वनहं निकुंज ।
भूखउ भोजन मांगिवा, गोवलि आयउ मुंज ॥२४७॥"१ कहीं कहीं "कर्ता" तथा कर्मकारक की विभक्ति के रूप में भी "उ" का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार के प्रयोग समयसुन्दर की “साचोर तीर्थ महावीर जिन स्तवनम्", "श्री महावीर देव गीतम्", तथा "श्री श्रोणिक विज्ञप्ति गमितं श्री महावीर गीतम्" रचनाओं में सहज रूप में मिलते हैं ।२ यह प्रवृत्ति जिनहर्प आदि कवियों की रचनाओं में भी प्राप्त हो जाती है ।३ (ख) "रे" और "डी" का प्रयोग :
यह भी अपभ्रंश की एक विशेषता रही है। कुछ कवियों ने "रे" और "डी" का अच्छा प्रयोग किया है। भट्टारक शुभचंद्र ने "२" और "डी" दोनों का एक ही पद्य में वड़ा सुन्दर प्रयोग किया है
"रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाम । धर्म बुद्धि मन शुद्धडी, दुलहा अनुकमि जाण ॥"
-तत्वसार दूहा भट्ठारक रत्नकीति ने भी "३" का प्रयोग किया है जिससे प्रवाह में एक तीव्रता का आभास होता है
"आ जेप्ठ मासे जग जलहरनो उभा हरे । कोई बाप रे वाय विरही किम रहे रे ।। आरते आरत उपजे अंग रे ।
अनंग रे संतापे दुख केहे रे ।।" --नेमिनाथ बारहमासा कवि समयसुन्दर ने "उ" और "री" का एक साथ प्रयोग किया है"पदमनाथ तीर्थकर हउगे,
वीर कहइ तुम्ह काज सर्यउ री । समयसुन्दर प्रभु तुम्हारी भगति तइ,
इहु संसार समुद्र तर्यउरी ॥४॥"
-श्री श्रेणिक विज्ञप्ति गभित श्री महावीर गीतम् ।४ १. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४५ २. ममयसुन्दर कृत कुसुमांजली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० २०५-२१० ३. जिनहर्ष .नथावली, पृ० ३२ और ४७ ४. ममयसुन्दर कृत कुसुमांजली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० २१०
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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(ग) दीर्घ स्वर को लघु बनाने की प्रवृत्ति :
सरस्वती को सरमई या सरसति१, श्री को सिरि२ तथा अमृत को अमिय, दर्शन को दरसन आदि प्रयोग इसी के उदाहरण हैं । (घ) वर्णो के संकोचन की प्रवृत्ति :
वर्गों के संकोचन का कौशल भी अपभ्रंश की एक खास विशेषता है । इस प्रवृत्ति के अनुसार "प्रमाणक रु" के स्थान पर "पणउ" 'स्थान' के स्थान पर 'ठाण', 'मयूर' के स्थार पर 'मोर' आदि प्रयोग देखने में आते हैं । भट्टारक शुभचन्द्र, समयमुन्दर तथा जिनहर्ष की कविता में ऐसे प्रयोग विशेष हुए हैं।
इस प्रकार १७वीं शती के इन प्रारम्भिक कवियों की भापा में उकारान्त और इकारांत शब्दों का बहु-प्रयोग दिखाई देता है। पर इनके शब्दों में लय का उन्मेष है अतः कर्णकटु नहीं लगते । इनमें विभक्तियाँ लुप्त-सी रही है । भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण गुजराती, राजस्थानी शब्दों के साथ सिंधी, उर्दू, फारसी आदि के शब्द भी स्वभावतः आ गये हैं। कवि समयसुन्दर की कविता में फारसी आदि विदेशी शब्दों में फौज, बलिभ, दिलगीर, आदि शब्दों का सहज प्रयोग हुआ हैं ।
विशेषतः भट्टारकों तथा अन्य संस्कृत के प्रकाण्ड पंडितों में समयसुन्दर, वर्मवर्द्धन, यशोविजय आदि की भाषा तत्सम बहुला रही है"कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेप होय विनाश ।"
--तत्सार दूहा - शुभचन्द्र "कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग । चंपक वर्णी चन्द्राननी, माननी सोहि सुरंग ॥१७॥"
वीर विलास फाग - वीरचन्द्र "मलू आज भेट्यु प्रमोः पादपद्मम्,
____फली आस मोरी नितान्तं विपद्मम् । गयूं दुःख नासी पुनः सौम्यदृष्ट या ।
क्यु सुख झाझु यथा मेघवृष्टया ॥१॥"
-श्री पार्श्वनाथाष्टकम्-समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि १७वी शती की अधिकांश रचनामों पर गुजराती और राजस्थानी का भी विशेष प्रभाव है । क्योंकि वि० सं० १६०० और उसके पूर्व हिन्दी, गुजराती और १. "सरसति सामनी आप सुराणी" गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम् कुशल लाम-अध्याय १ २. "शिरि संघराज लोकागच्छ शिरताज आज"-किशनदास, किशनबावनी ।
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आलोचना-खंड
राजस्थानी में विशेष अन्तर नहीं था। श्री राहुल जी के मतानुसार ये भाषाएं अपभ्रंश से विकसित हुई थी, उनके मूल रूपों में भेद नहीं था। उनकी दृष्टि से तो गुजरात तेरहवीं शती तक हिन्दी क्षेत्र का एक अभिन्न अंग रहा है ।१ फिर भी उनमें कुछ न कुछ रूप भेद तो अवश्य था जिनसे इनका पृथक् अस्तित्व प्रमाणित एवं सिद्ध है।
वि० को १७वीं और १८वीं शती का समय हिन्दी के पूर्ण विकास का समय कहा जा सकता है । अपभ्रंश की “उ” कार बहुला प्रवृत्ति धीरे धीरे हटने लगती है और तत्सम प्रधान भापा का रूप विनिर्मित होने लगता है और विभक्तिां भी स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं। क्रियाओं का विकास भी स्पष्टतः दृष्टिगत होने लगता है। "रे" के प्रयोग की प्रवृत्ति इन कवियों में विरासत के रूप में अवश्य प्रचलित रही। "रे" का प्रयोग संगीतात्मकता और ध्वनि सौन्दर्य की दृष्टि से मधुर हो उठा है। श्री कुशल लाभ का एक पद्य द्रष्टव्य है
"आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे ।
जोवइ जोवइ प्रीयड़ा वाट सकोमल कामिनी रे ॥ चातक मधुग्इ सादि कि प्रीउ प्रीउ उचरइ रे ।
वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे ॥"२ भापा की दृष्टि से इस युग की कविता को दो भागों में बांटा जा सकता हैप्रथम वह जो संस्कृत के अनुवाद रूप में है और दूसरी मौलिक कविता में प्रयुक्त । अनदित कविता में संस्कृत निष्ठा अधिक है, मौलिक में सरलता एवं सरसता । उदाहरणार्थ धर्मवर्द्धन ने नीतिशतकम् के ६६ वें श्लोक का अनुवाद इस प्रकार किया है
रीस भयो कौइ रांक, वस्त्र विण चलीयौ वाट । तपियो अति तावड़ी, टालतां मुसकल टाट । वील रूंख तलि वेसि, टालणो मांड्यो तड़को । तरू हती फल जटि, पड्यो सिर माहे पड़को । आपदा साथि आग लगी, जायै निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कही नाठो छुटै कठे ॥१३॥"
-छप्पय वावनी
१. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, अवतरणिका, पृ० १२ २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ११६
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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इन्हीं का मौलिक पद देखिए-- "मन मृग तु तन वन में माती । केलि करे चरे इच्छाचारी जाणे नहीं दिन जातो ॥१॥ माया रूप महा मृग त्रिसनां, तिण में धावे तातो । आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो ॥२॥ कामणी कपट महा कुड़ि मंडी, खबर करे फाल खातो।
कहे धर्मसीह उलंगीसि वाको, तेरी सफल कला तो ॥३॥"१ इसी प्रकार कवि समयसुन्दर, शुभचन्द्र, यशोविजय आदि के फुटकर पदों की तथा अन्य रचनाओं की भाषा में अन्तर है ।
___ इस युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में विविध भाषा ज्ञान और उसमें काव्यरस के निर्वाह की विलक्षणता देखने को मिलती है । ये कवि कभी एक स्थान पर जम कर नहीं रहे और देश के विभिन्न भागों में विहार कर जन जागृति का जग्वनाद करते रहे है तथा उस प्रान्त विशेष की भाषा को भी सहजरूप से अपनाते रहे है । अत: इस युग की हिन्दी कविता में भाषा के जो विविध प्रयोग हुए है, उसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
"कवि जिनहर्प की सुललित एवं साहित्यिक राजस्थानी भाषा का एक उदाहरण देखिए
"सभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी । तिण अवसर आवीयउ, एक मागध परदेशी ॥ ऊमो दे आसीस, राइ पूछइ किहां जासी । अठा लगै आवीयी, कोइ तै सुण्यो तमासी ॥ कर जोडि एम जंपइ वयण, हुकम रावलौ जो लहुँ ।
जिनहर्प सुणण जोगी कथा, कोतिग वाली हूं कहूं ॥१॥२ इसी युग के कवि किशनदास की कविता में ब्रजभापा का माधुर्य देखिए__ "अंजलि के जल ज्यों घटत पल पल आयु,
विष से विषम व्यवसाय विष रस के 1. पंथ को मुकाम का बाप को न गाम यह,
जैवो निज धाम तातें कीजे काम यश के । १. अगरचन्द नाहटा, धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, पृ० ६० २. जिनहर्ष ग्रंथावली, अगरचन्द नाहटा, चौबोली कथा, पृ० ४३६
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आलोचना-खंड
खान सुलतान उमराव राव राना आन,
किशन अजान जान कोउ न रही सके, सांझरू विहान चल्यो जात है जिहान तातें,
हमहू निदान महिमान दिन दस के ॥२०॥ डिंगल भाषा:
"भोगवि किते भू किता भोगवसी, मांहरी मांहरी करइ भरै । ऐंठी तजि पातलां उपरि, कुंवर मिलि मिलि कलह करें ॥१॥ धपटी धरणी केतेइ धूसी, धरि अपणाइत कइ ध्र वै । घोवा तणी शिला परि धोबी, हुं पति हुँ पति करै हुवै ॥२॥"२
-धर्मवर्धन खड़ी बोली : "वे मेवरे, कोहरी सेवरे, अरे कहां जात हो उतावरे,
टुक रहो न खरे । हम जाते वीकानेर साहि जहांगीर के भेजे, हुकम हुया फुरमाण जाइ मानसिंध कु देजे । सिद्ध साधक हउ तुम्ह चाह मिलणे की हमकु,
वेगि आयउ हम पास लाभ देऊंगा तुम कु ॥१॥"--समयसुन्दर३ सिन्धी भाषा : "साहिब मइडा चंगी सूरति; आ रथ चढ़ीय आवंदा हे भइणा ।
नेमि मइकु भावंदा है । भावंदा हे मइकु भावंदा है, नेमि असाढ़े भावंदा है । १ ।
आया तोरण लाल असाड़ा, पसुय देखि पछिताउंदा हे भइणा ! २।"४ पंजाबी भाषा:
" मूरति मोहणगारी दिठ्ठडां आवै दाय । चरण कमल तड्डे सोहियां, मन ममर रह्ययो लोभाय ॥१॥ सनेही पास जिणंदा वे, अरे हा सलूणे पास जिणंदावे ।
१. गुजराज के हिन्दी गौरवग्रंथ, डॉ० अंवाशंकर नागर, उपदेश बावनी, पृ० १६५ २. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, अगरचन्द नाहटा, पृ० १०८ ३. समयसुन्दर कृत कुसुमांजली, अगरचन्द नाहटा, पृ० ३६३ ४. समयसुन्दर कृत, कुसुमांजली, अगरचेन्द नाहटा, पृ० १३२
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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तूं ही यार सनेही साजन, तू ही मैडा पोऊ ।।
नणे देखण ऊमहै, मिलने कू चाहै जीव ॥२॥"१ हिन्दी गुजराती मिश्रित भाषा रूप :
"कनकमि कंकण मोड़ती, तोड़ती मिणिमिहार । लूंचती केश-कलाप, विलाप करि अनिवार ॥ ७० ॥ नयणि नीर काजलि गलि, टलवलि भामिनी भर । किम करूं कहिरे साहेलड़ी, विहि नडि गयो मझनाह ।। ७१ ।।
-वीरचन्द्र - वीर विलास फागर गुजराती :
"परमेसर शु प्रीतडी रे, किम कीजे किरतार,
प्रीत करंता दोहिलि रे, मन न रहे खिण एकतार रे, मनडानी वातो जोज्यो रे, जुजुईधातो रंग विरंगी रे,
मनडु रग विरंगी ॥ १॥" -आनन्दवर्द्धन३ इस युग के जैन-गूर्जर कवियों का गुजरात और राजस्थान से विशेष संबंध रहा है । अतः गुजराती तथा राजस्थानी भाषा के प्रभाव से ये मुक्त नहीं हो पाये है। व्रजभाषा का भी ये मोह नहीं छोड़ सके है अधिकांश कविओं ने तो शुद्ध ब्रजभाषा में अपनी कविताएं की हैं । सभी कवियों के पदों की भाषा तो ब्रजभाषा ही रही है। अरबी-फारसी शब्दों का भी सहज प्रयोग, मगलयुग और उसके प्रभाव के कारण दीख पड़ता है। कवि किगनदास ने तो अपनी "उपदेश बावनी" में आलम, जुल्म आदि इसके प्रचलित शब्दों से भी आगे बढ़ अरवी-फारसी के कुछ कठिन शब्दमिसकिन, पणम, पेशकशी, इतमाम, तशकीर आदि का भी प्रयोग किया है। आनंदघन जी ने भी तवीव, खलक, गोसलखाना, आमखास आदि शब्दों का प्रयोग किया है। "स" - "श" का विशिष्ट प्रयोग :
इस युग में "श" और "स" दोनों का ही प्रयोग हुआ है, किन्तु "स" की सर्वत्र अधिकता है। सोभा, दरसन, सरीर; सुद्ध, सरन, सुजस आदि में 'श' के स्थान पर 'स' का ही प्रयोग है, जिसे अधिकांश कवियों ने स्वाभाविकता से अपनाया है। १. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अंगरचन्द नाटहा, पृ० २२५ २. राजस्थान के जैन संत - डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० १०६ ३. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० ७३
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आलोचना-मंट
किन्तु ज्ञानानन्द, यगोविजय, विनयविजय तथा कुछ भट्टारक कवियों ने 'ग', 'ग दोनों का ही यत्र तत्र प्रयोग किया है ? आगम और लोप की प्रवृत्ति :
इन कवियों में संयुक्त वर्णो को स्वर विभक्ति के दाग पृथक् पृथक करने की प्रवृत्ति भी परिलक्षित होती है। उदाहरणार्थ महात्मा आनन्दघन जी ने 'आत्मा' को 'आतम', 'भ्रम' को 'भरम', 'सर्वगी' को 'सरवंगी', 'वृनांत' को 'विरतंत' तया 'परमार्थ' को 'परमारथ' कहा है। अन्य कवियों ने भी मवद (मन्द), परिमिद्ध (प्रसिद्ध), परतछ (प्रत्यक्ष), जनम (जन्म), दरसन (दर्शन), पदारथ (पदा), मुमरन (स्मरण), परमेसुर (परमेश्वर), मूरति (मूर्ति), मरमी (मर्मी) आदि शब्द प्रयुक्त किए है।
संयुक्त वर्णों को अधिक सरल बनाने के लिए कुछ कवियों में वर्गों में मे एक को हटा देने की प्रवृत्ति भी दीग्य पड़ती है। उदाहरणार्थ-यगोविजय जी ने अपनी कविता में 'अक्षय' को 'अवय'. प्रद्धि' को रिधि', 'जिनेन्द्र' को 'जिनंद' आदि का विशेष प्रयोग किया है 'स्थान' को 'थान', 'स्वरूप' को 'सव्ह', 'मोक्ष' को मोख, 'स्पर्श' को 'परसे', 'द्य ति' को 'दुति' आदि ऐसे ही प्रयोग हैं जो अधिकांग कवियों की कविता में प्रयुक्त हैं। सटीक पद-प्रयोग :
____ इस युग के कवियों की अन्य मापागत विशेषताओं में एक तो शब्दों का उचित स्थान पर प्रयोग है और दूसरा प्रमाद गुण सम्पन्नगा है। इनमें शब्दों के अपने उचित स्थान पर प्रयोग इतने उपयुक्त हैं कि उनको वहां ने हटा देने से समूचा मौन्दर्य ही नष्ट हो जाता है । उदाहरणार्थ हेमविजय के "मुनिहेम के माहब देखन कू, उग्रसेनलली सु अकेली चली" और "मुनिहेम के साहिब नेमजी हो, अब तोरन तें तुम्ह ते तुम्ह क्यूं वहुरे ।" में "उग्रसेनललि" और "बहुरे" शब्दों का अपने उपयुक्त स्थान पर होने से काव्य सौन्दर्य कितना बढ़ गया है। इसी प्रकार माहत्मा आनन्दधन के
___ "झड़ी सदा आनन्दधन वरावत, विन मोरे एक तारी" के "विनमोरे" शब्द प्रयोग में भी उक्त काव्य-सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। रत्नकीति के "वरज्यो न माने
१. भजन संग्रह, धर्मामृत, सपा० पं० बेचरदास
(क) आशा पूरण एक परमेसर, सेवो शिवपुरवानी ॥ विनयविजय, पृ० ४१ (व) जा जसवाद वदे उनहा को, जैन दशा जस ऊंची ।। यशोविजयजी, पृ० ४७
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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नयन निठोर" तथा 'उमंगी चले मति फोर ॥१॥' में "नयन निठोर" और "मति फोर" और कुमुदचन्द्र के "दुख चूरन तुही गरीव निवाज रे ॥ " में 'गरीब निवाज' आदि ऐसे ही प्रयोग हैं । एक ऐसा ही प्रयोग विनय की कविता से और द्रष्टव्य है__ • "मेरी मेरी करत बाउरे, फिरे जीउ अकुलाय ।
पलक एक में बहुरि न देखे, जल-बुन्द की न्याय ॥" यहाँ 'वाउरे' शब्द ऐसे उपयुक्त स्थान पर बैठा है, जिससे पद में जीवन आ गया है । इस प्रकार उपयुक्त स्थान पर शब्दों को बिठाना सच्चे कलाकारों का ही काम है। कहावतें और मुहावरे :
कहावतों और मुहावरों को भी इन कवियों ने अपनी अपनी कविता में नगीनों की भाँति जड़ दिया है। इनके स्वाभाविक प्रयोग से इनकी कविता में जान आ गई है। ऐसे प्रयोग किसनदास की उपदेशवावनी में बड़ी सफलता से हुए है। कवि ने गांठ का खाना, नदी-नाव का संयोग, कंधा नवाया आदि छोटे मुहावरों को अपनी कविता में 'फिट' कर दिया है। कहावतों के प्रयोग में कवि की सिद्धहस्तता दर्शनीय है-१.
"लेवे को न एक कपु, देवे को न दोई है ॥ १३ ॥ ज्यों ज्यों भीजे कामली, त्यों त्यों भारी होत ।। १५ ।। है है मन चंग तो कठौती में गंग है ।। २६ ।। दूध के जरे की नाइ छाछ फूकि पीजिए ।।
बांध मूठी आयो पै पसारे हाथ जायवो ॥" कवि समयसुन्दर की कविता भी लोकोक्तियों के प्रयोग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उनकी 'सीतराम चौपाई' में प्रयुक्त कुछ कहावतें दृष्टव्य हैं---
" छट्टी रात लिख्यउ ते न मिटइ। (प्रथम खण्ड, छन्द ११) करम तणी गति कह्यि न जाय । (दूसरा खण्ड, छन्द २४ ) लिख्या मिटइं नहिं लेख । (खण्ड ५, ढाल ३) थूकि गिलइ नहि कोइ
(खण्ड ६, ढाल ३ )" ज्ञानानन्द ने अपने एक पद में दंभ-अभिमान और संसार सुख में आमग्न मानव को सावधान करते हुए कहा है
"चार दिनांकी चाँदनी हेगी, पाछे अंधार वतावे ॥४॥"२ १. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ-उपदेश बावनी .२. भजन संग्रह, धर्मामृत, पं वेचरदास, पृ० २६
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बालोचना-पंट
कवि कुमुदचंद ने बताया है संसार में व्यर्थ भटकने से कुछ हाथ नहीं लगता'निकसत धीउ न नीर विलोवत ।' तन, धन, योवन आदि तो नदी नाव संयोग हैं'योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे ॥१ कवि विनयचन्द्र ने भी लोकोक्तियों का प्रयोग कर अपनी रचनानों को हृदयग्राही बना दिया है। विनयचन्द्र की कविता में कुछ, उद्धारण प्रस्तुत हैं"साकर मां कांकर निकसइ ते साकर नौ नहि दोष"
-विमलनाय स्तवन "एक हाथइ रे ताली नवि पडइ रे"
___ --स्वाभाविक पार्श्वनाथ स्तवन "पंखी जातइ एकज हुआ, पिण काग कोइल ते जूबा रे"
-सूरप्रम स्तवन जयवन्तसूरि ने भी सरल राजस्थानी भाषा के मुहावरों का प्रयोग किया है"दाधां उपरि लूण, लगावी आपीया रे।"
-नेमि राजुल वार मास वेल प्रबंध (१) "निसि वितई तारा गनत, रो रो मव दिन याम ।" (२) "वह देखई जीउ कर मलति, इस देखत संतोष ।"
-स्थूलिभद्र मोहन वेलि इस प्रकार वाक्य योजना और पद-संघठन की दृष्टि से भी इस युग की काव्यभापा महत्वपूर्ण है। असंख्य कहावतों और मुहावरों के स्वाभाविक प्रयोग द्वारा भाषा को शक्तिशाली बनाया गया है। कवि धर्मवद्धन के अधिकांश पद 'कहावत' के साथ ही समाप्त होते हैं। एक पद प्रस्तुत है
"नट बाजी री नट बाजी, संसार सब ही नट बाजी । अपने स्वार्थ कितने उजरत, रस लुब्यो देखन राजी ॥१॥ छिकरी ककरी के करत, रूपये, वह कूदत काठ को बाजी। पंख ते तुरत ही करत परेवा, सवही कहत हाजी हाजी ॥२॥ ज्ञानी कहै क्या देखे गमारा, सब ही मगल विद्या माजी । मगन मयो धर्मसीख न मानत,
जो मन राजी तो क्या करे काजी ॥३॥ · प्रसादगुण सम्पन्ना :
प्रसादगुण सम्पन्नता तो अधिकांश कवियों में देखी जा सकती है । कवि समयसुन्दर, महात्मा आनन्दघन, यशोविजयजी, जिनहर्ष, रत्नकीति, शुभचंन्द्र,
२. १. हिन्दी पद संग्रह. संपा० डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० २०
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कुमुदचन्द्र आदि कवि इस दृष्टि से विशेष प्रसिद्ध हैं । यथोविजयजी के इस पद में भाषा की मधुरिमा, सरलता और सरसता है, वह दर्शनीय है । प्रभुदर्शन के लिए आतुर, विह वलवनी, प्रतीक्षारत आत्मानुभूति की इस अभिव्यक्ति में प्रसादगुण और प्रांजलता देखते ही बनती है"कव घर चेतन आवेगे मेरे, कव घर चेतन आवेंगे ।।
सखिरि लेवू बलया वार वार ।। रेन दीना मानु ध्यान तुसाढ़ा, कबहु के वरस देखावेंगे । विरह दीवानी फिर ढुढती, पीउ पिउ करके पोकारेंगे । पिउ. जाय भले ममतासे, काल अनन्त गमागे ॥ करूं एक उपाय में उद्यम, अनुभव मित्र बोलावेंगे । आय उपाय करके अनुभव, नाथ मेरा समक्षावेंगे ॥ अनुभव मित्र कहे सुन साहेब, अरज एक अव धारेंगे । ममता त्याग समता पर अपनी, वेगे जाय अपनावेंगे।। . : अनुभव चेतन मित्र दोउ, सुमति निशान धुरावेगे ।
विलसत मुग्व जस लीला में, अनुभव प्रीति जगावेंगे ॥"?
कवि लक्ष्मी वल्लम के पदों की तथा "नेमि-राजुल बारहमासे" की। प्रत्येक पंक्ति में प्रसाद गुण का वैभव है । राजुल आतुर मन से नेमिनाथ की प्रतीक्षा करती रही, सावन आया पर 'नेम' न आये। राजुल की विरह दशा का मार्मिक चित्र कवि ने बड़ी ही प्रासादिक शैली में प्रस्तुत किया हैं
"उमटी विकट घनघोर घटा चिहुँ ओरनि मोरनि सोर मचायो । चमके दिवि दामिनि यामिनि कुभय मामिनि कुपिय को संग भायो । लिय चातक पीउ ही पीड लई, भई राज हरी मुइ देह छिपायो ।
पतियां पं न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण आयो पै नेम न आयो ।।"२ . . इस युग के अधिकांश कवियों की भाषा में रागात्मिका शक्ति की प्रवलता है। — इन: कवियों ने · भाषा को सजाने, संवारने में अपनी पटुता प्रदर्शित की है। इसमें भावप्रवणता के साथ मनोरंजकता भी है। भावों को अधिक तीव्र बनाने के लिए इन कवियों ने नाटकीय भाषाशैली का प्रयोग. भी किया है । आत्मानुभूति की अभिव्यंजना इस शैली में दृष्टव्य है-- . .
या ।
१. मगन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, पृ० ६५ २. अभय जैन पुस्तकालय, बीकानेर की प्रति .
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.आलोचना-खंट
(क) प्यारे चित विचार ले, तु कहां से आया ।
वेटा बेटी कवन है, किसकी यह माया ॥१॥
तथा (ख) भोर भयो उठ जागो मनुवा,
साहेव नाम संभारो । मानानन्द की उपर्युक्त पंक्तियों में
आये 'प्यारे' और 'मनुवा' गब्द भाषा को भावप्रवण और नाटकीय रूप देने में समर्थ हैं। इसी प्रकार आनन्दघन जी के 'प्रीत की रीत नहीं हो, प्रीतम', 'क्या सौवं उठ जाग वाउरे', 'चेतन चतुर चोगान लरी री' आदि पद तथा किशनदास की 'आग लगे मेरे भाई मेह कहां पाइये', 'अहो मेरे मन मृग खोली देख नान दृग' 'बरे अभिमानी प्रानी जानी तें न ऐसी जानी। पानी के-सी नीक ली. जुवानी चली जात है ॥" आदि पंक्तियों में मापा की वही शक्ति है। कवि धर्मवर्वन के इन सरल उपदेशों में-'भैया क्रोध करो मति कोई' तथा 'मूढ़ मन करत है ममता केती' में यही नाटकीय भाषा के दर्शन होते हैं । इस दृष्टि से. कवि भद्रसेन रचित 'चन्दन 'मलयागिरि चोपई', श्रीसार रचित 'मोती कपासीया संबंव संवाद' तथा समतिकीति रचित 'जिह वादन्त विवाद' रचनाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं । माधुर्य और नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से जिनराजसूरि की भाषा का एक और उदाहरण दृष्टव्य है"मारगि हे सखि मारगि सहियर साथि,
__ चालण हे सखि चालण पगला चलवलइ । . .. भेटण हे सखि भेटण · आदि जिणंद, मो मनि हे सखि मो मनि निसदिन टलवलइ ॥
-शत्रुजय तीर्थकर स्तवन नादसौन्दर्य के साथ छन्द, तुक, गति, यति और लय का भी सुभग समन्वय इन कवियों की भाषा में देखा जाता है। कुछ कवियों ने अपनी गन्द साधना द्वारा कोमलानभति को सरसता, मधुरता और सुकुमारता के वातावरण में उपस्थित करने के लिए समस्त हस्व वर्णों का प्रयोग किया है और अपनी भाषा कारीगरी का
परिचय दिया है । कवि धर्मवर्द्धन की 'धर्म वावनी' कृति से.एक उदाहरण द्रष्टव्य है. . . " धरत घरम मग, हरत दुरित रग
करत सुकृत मति हरत मरमसी ।। १. जिनराजरि कृत कुसुमांजलि. संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३४ .
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जैन गूजर कवियों की हिन्दी कविता
२६७ गहत अमल गुन, दहत मदन वन . . .
रहत नगन तन सहत गरम सी । कहत कथन सन बहत अमल मन
तहत करन गण महति परमसी । रमत अभित हित मुमति जुगत जति
___ चरन कमल नित नमत धरमसी ॥५॥"१ छन्द और संगीत विधान :
____ भाषा के स्वाभाविक लय-प्रवाह के लिए छन्द-विधान का भी अपना महत्व है। भापा के लाक्षणिक प्रयोग के लिए लय और छन्द का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है । जैन गूर्जर कवियों ने अपनी कविता में वर्णिक और मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, किन्तु मात्रिक छन्दों की प्रधानता है । इस युग के अधिकांश गूर्जर जैन कवियों ने तलपदीय पदवन्धों ( देशियों) के साथ साथ दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, कुंडलियां, सवैया, छप्पय आदि छन्दों का विशेष प्रयोग किया है। इनमें संगीतमयता से आध्यात्मिक रस बरसा है। इन कवियों की छन्दयोजना वैविध्यपूर्ण तो है ही उसमें एक अनन्त संगीत की गूंज भी है जो विभिन्न प्रकार की ढालों, रागिनियों, देशियों आदि द्वारा हृदय के तार झकृत कर देती है। इस प्रकार इन कवियों ने अपनी कोमल पद रचना में लय, छन्द व रागरागिनियों का सन्निवेश कर अनुभूति को अधिक आह लादमय बनाने का प्रयास किया है। .छंदविधान :
दोहा : संस्कृत के 'श्लोक' और प्राकृत के 'गाथा' छन्द की भांति यह अपभ्रंश का मुख्य छन्द रहा है। डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने दोहा का मूल स्रोत आमीर जाति के 'विरहागानों' में बताया है। किन्तु दोहा का प्राचीनतम रूप 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक में मिलता है। बाद में योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश', 'योगसार' आदि रचनाओं में अपभ्रंश का प्रिय छन्द बन गया।
इस युग के जैन गुर्जर कवियों ने दोहे का प्रयोग भक्ति, उपदेश, अध्यात्म आदि विषयक कविता में किया है । भटारक शुभचन्द्र के 'तत्वसार दहा' में दोहों का ही प्रयोग हुआ है । उदयराज के दोहे भी प्रसिद्ध है । जिनहर्ष की 'दोहा मातृका बावनी', लक्ष्मीवल्लभ की 'दोहावावनी', उदयराज की 'वैद्य विरहिणि प्रवन्ध, 'श्रीमद् देवचन्द्र की 'द्रव्य प्रकाग', 'साधु समस्या द्वादश', 'दोधक', 'आत्महित शिक्षा', समयसुन्दर की 'सीताराम चौपाई' आदि कृतियां' दोहा 'छन्द के प्रयोग की १. धर्मदर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा पृ० २।
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आलोचना-खंड
दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । अनेक कृतियां ऐसी भी हैं, जिनके बीच बीच में दोहों का प्रर्याप्त प्रयोग हुआ है। उदयराज की 'वेध विरहिणी प्रबन्ध' कृति से एक दोहा देखिए
"को विरहिन जिय सोच में, घर अपनी जिय आस । रिगत पान क्यों कर दन, गयो वैद पं पास ॥१॥" द्रव्य प्रकाश का प्रारम्भिक दोहा देखिए
"अज अनादि अक्षय गुणी, नित्य चेतनावान् ।
प्रणामुपरमानन्दमय, शिव सांप भगवान् ॥ १॥" चौपाई :
अपभ्रंश की कड़वकवाली शैली जो महाकाव्यों में प्रयुक्त होती थी हिन्दी को दोहा-चौपाई शैली का मूल उद्गम है ।१ हिन्दी के महाकाव्य 'पद्मावत', 'रामचरित मानस' आदि इसी शैली में लिखे गये । जैन गूर्जर कवियों में विनयचन्द्र की 'उत्तम कुमार चरित्र चौपाई कुशल लाभ का 'माधवानल चौपाई, वादिचन्द्र का 'श्रीपाल आख्यान', समयसुन्दर की 'सीताराम चौपाई' आनन्दवर्द्ध नसूरि की 'पवनाभ्यास चौपाई आदि प्रवत्व काव्यों में चौपाई-दोहों का ही निदर्शन है।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के कथानानुसार चौपाई का जन्म कथानक को जोड़ने के लिए ही हुआ था ।२ किन्तु जैन गूर्जर कवियों ने मुक्तक काव्यों के लिए भी चौपाई छन्द को पसन्द किया है । जिनहर्ष की 'ऋपिदत्ता चौपई', तथा 'सिद्धत्रक म्तवन', लक्ष्मीवल्लभ की 'उपदेश बत्तीसी', धर्मवर्द्धन की वैधक विद्या' आदि कृतियों में अधिकांश चौपाइयों का ही प्रयोग हुआ है । चौपाइयों के साथ अधिकांना कृतियों में प्रारम्भ, मध्य अथवा अन्त में कहीं कहीं दोहे भी हैं।
। प्रायः प्रवन्ध काव्यों में एक चर्चापाई के उपरान्त एक दोहे का क्रम है, किन्तु मुक्तक रचनाओं में कमी एक दोहा और फिर अनेक चौपाइयों और कभी अनेक चौपाइयों और फिर अनेक दोहों का क्रम चला है। कवि वादिचन्द के श्रीपाल आल्यान में दोहे-चौपाई का प्रयोग अवलोकनीय है
"आदि देव प्रथमि नमि. अन्त श्री महावीर । वाग्वादिनी वदने नमि, गरुड गुण गम्भीर ॥
१. डॉ० रामसिंह तोमर का लेख, जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, प्रेमी
अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ४६८ २ हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० १४
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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सरसति सुनमति णये अणुसरि, गौर हरूआ गोयम मनि धरि । बोलु एक हु सरस आख्यान, सुण जे सज्जन सहु. सावधान ॥"? जिनहर्ष की "ऋषिदत्ता चौपाई" की इस प्रकार है - "उत्तम नमतां लहीये पार, गुण ग्रहतां लहीए निस्तार ! जाइने दूर कर्मनी कोड़, कहै जिनहर्ष नमू कर जोर ॥३२॥" धर्मवर्द्धन की 'वैधक विघा' एक चीपाई देखिए'हिरदै रोग स्वास अरू खास, डम क्रिया तिहां पंच प्रकास।
"हुदै लीक अरू वर्तुल च्यार, दंभ अस्थि के मध्य विचार ॥१५॥" ऋवित्त :
यह ब्रजभाषा का प्रिय छन्द रहा है । चारण बन्दीजनों की रचनाएं प्रायः इमी छन्द में हुई हैं। इस युग के जैन-गूर्जर कवियों ने इस छन्द का प्रयोग आव्यात्मिक एवं भक्ति के क्षेत्र में बड़ी सफलतापूर्वक किया है। किशनदास कृत 'उपदेश बावनी' मनहरण कवित्तों में की गई उत्तम रचना है। इसमे १६ बर्गों के पश्चात् यति और अन्त में एक गुरु है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"जीवन जरा-सा दुःख जनम जरासा तामें, डर है खरा-सा काल शिर पे खरा-सा है। कोड विरला-सा जो पै जीवं वै पचासा अन्त, बन वीच वासा यह वात का खुलासा है । संध्या का-सा वान काखिर का-सा कान चल, दल का-सा पान चपला का-सा उजासा है। .. ऐसा सा रहासा तामें किसन अनन्त आसा,
पानी में बतासा तैसा तनका तमासा है ॥३०॥"२. . इस छन्द में लय और ताल का मुन्दर समावेश है । अर्थ साम्य के साथ मधुर ध्वनियों की योजना प्रायः इस बन्द में प्राप्त होती है । कवि जिनहर्ष का एक कविन इस प्रकार है
"मेह कइ कारण मोर लवइ फुनि मोर की वेदन मेहन जाणइ । दीपक देखि पतंग जरइ अंगि सो बहू दुख चित्त भइ नांणइ । मीन मरई जल कंइज विछोहत मोह घरइ तनु प्रेम पिछाणइ ।
पीर दुखी की मुखी कहां जाणत, सयण सुणइ 'जसराज' वरवाणइ ।।" १. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, पृ० ८०३, मंगलाचरण २. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अंबाशंकर नागर, उपदेशवावनी, पृ० १६६ ३. जिनहर्प प्रथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ४०१
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मालोचना-खंड
कवि धर्मवर्द्धन ने भी कवित्त छन्द का सफल प्रयोग किया है । इन्होंने अमरसिंह, जसवन्तसिंह, दुर्गादास आदि के यशोगान में सुन्दर कवित्तों की रचना की है ।१ जिनचन्द्रसूरि की गुरु भक्ति संबंधी कवित्त भी 'इन्होंने लिखे है ।२. जिनहर्ष ने अपनी कुछ लघु रचनाओं के साथ फुटकर कवित्त भी रचे हैं। सवैया : . .
जैन-गूर्जर कवियों ने 'सवैया' के विविव प्रकारों का सफल प्रयोग किया है । ब्रजभाषा का यह छन्द इन कवियों ने कवित्त की अपेक्षा अधिक पसंद किया है। कवि लक्ष्मी वल्लभ ने अपनी कृति 'नेमिरराजुल बारहमासा' में ध्वनि विश्लेषण के नियमानुसार लय-तरंग का समावेश कितने अद्भुत ढंग से इस छन्द में किया है
"उमटी विकट घरघोर घटा चिहुं ओरनि मोरनि सोर मचायो । चमके दिवि दामिनि यामिनि कुमय भामिनि कुपिय को संग भायो । लिव चातक पीउ ही पीड लई, भह राज हरी भुइ देह छिपायो । पतियां पै न पाई री प्रीतम की अली, श्रावण आयो पै नेम न आयो ॥"३
जिनहर्ष, धर्मवद्धन, समयसुन्दर, यशोविजय आदि कवियों ने इस छन्द का मर्वाधिक प्रयोग किया है । कवि जिनहर्ष की 'जसराज बावनी' से एक और उदाहरण देखिए
"नग चिन्तामणि डारि के पत्थर जोउ, ग्रहें नर मूरख सोई । सुन्दर पाट पटवर अंबर छोरि के ओढण लेत है लोई ॥ कामदूधा धरतें जू विडार के छेरि गहें मतिमन्द जि कोई । वर्मा कू छोर अधर्म क जसराज उणे निज बुद्धि विगोई ॥१॥"४
धर्मबर्द्धन ने 'सवैया' के विभिन्न प्रकारों में 'सवैया इकतीसा' और 'मया नेवीमा' में अच्छी रचनाएं की है। छप्पय :
अपभ्रंश मैं छप्पय का प्रयोग प्रायः वीररमात्मक काव्य में हुआ है। इन कवियों ने इसका भक्ति और अध्यात्म के क्षेत्र में भी प्रयोग किया है। कवि धर्म१. धर्मवद्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १४५-४८ २. धर्मवद्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० २४५ ३. इस प्रबंध का तीसरा शव्याय ४. जिनहर्ष ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ०८१
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जैच गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वर्द्धन की 'छप्पय बावनी'. इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कवि ने अन्य मुक्तक रचनाओं में भी इस छन्द का प्रयोग किया है। इनका एक छप्पय इस प्रकार है-~
"जव ऊगे जग चक्ख तिमिर जिण वेला वास । प्रगट हर्स जब पद्म, इला जव' होइ उजासै ।। चिड़ीयां जब चहचहैं, वहै मारग जिण वेला । । धरम सील सहु धरै, मिलै जब चकवी मेला ॥ घुम धुमै माट गोरस-घणा, पूरण वांछित पाईये ।
जिनदत्तसूरि जिनकुशल रा, गुण उण वेला गाईये ॥१॥"? जिनहर्ष ने भी अनेक छप्पय लिखे हैं । एक उदाहरण प्रस्तुत है
"लंक सरीखी पुरी विकट गढ़ जास दुरंगम । पारवली खाई समुद्र जिहां पहुंचे नही विहंगम । विद्याधर वलवन्त खंड त्रण केरो स्वामी । सेव करे जसु देव नवग्रह पाये नामी । दस कंध वीसं भुजा लहे, पार पारवे सेना वह ।
जिनहर्ष राम रावण हण्यो, दिन पलट्यो पलट्या सहु ॥१॥"२ यशोविजय जी ने भी अपनी कृति 'दिक्पट चौरासी बोल' में एक दो स्थानों पर छप्पय छन्दों का प्रयोग किया है। .. .. कुण्डलिया :
धर्मवर्द्धन की 'कुण्डलिया वावनी' इस छन्द की दृष्टि से महत्व पूर्ण रचना है। इसमें कवि ने ५७ कुण्डलियां लिखीं हैं । एक कुण्डली देखिए
"डाकै पर घर डारि डर, कूकरम करै कठोर । मन में नांहि दया मया, चाहैं पर धन चोर चाह पर धन चोर, जोर ‘कुत्रिमन ए जाणो । "
मुमक बंधि मारिज, घणी वेदन करि धांणो । __ फल बीजां सम फले, अव लागे नाहीं आके ।
धरम किहां धरमसीह, डारि डर पर घर डाकै ॥३४॥" सोरठा :
लगभग सभी कवियों ने सोरठा छन्द का अधिकाधिक प्रयोग किया है। चौपाई के साथ, दोहों के स्थान पर तथा पृथक् रूप से भी सोरठा छन्द में · कविताएं १. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १०५ २. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा। अगरचन्द नाहटा, पृ० ५१६ ३. धर्मवई न ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० २७
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मालोचनावंड
की हैं। श्री यशोविजय जी रचित "दक्पट बौरासी बोल" से एक मोठा उद्धृत है--
"दाइ घड़ी के फेर, केवल मान मरत कौं,
बड़ो मोह को घेर, भाव प्रभाव गर्ने नहीं ।।"१ । ज्ञानानन्द का एक सोरठा इस प्रकार है
"प्यारे चित्त विचार ले, तु कहां से आया । .
बेटा बेटी कवन है, किसकी यह माया ॥१॥"२ हरिगीतिका :
लयात्मक छन्दों में इस छन्द. का विशेष महत्व है। इसमें सोलह बीर बारह मात्राओं पर विराम होता है । ५वी, १२वीं, १९वीं, और २६वीं मात्राएं लघु होती हैं। अन्तिम दो मात्राओं में उपान्त्य लघु और अन्त्य दीर्घ होता है। श्री यशोविजय जी की 'दिक्पट चौरासी बोल' कृति से एक हरिगीतिका इस प्रकार है
"प्यारह निर्खये एक द्रव्ये, कहे श्री जिन आग में, जिनाम घटत संठाण थापन, द्रव्य मृद गुन भाव में ।
यो जीव द्रव्यह केवलादिक, गुनह द्रव्यत. भावतें,
होइ नियम पुद्गल द्रव्य को, तो तन नहीं व्यभिचारते॥"३ . पद:
इस युग के जैन-गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में पदों का स्थान महत्वपूर्ण है। भक्ति और अध्यात्म के क्षेत्र में पदों का प्रयोग- प्रचुप परिमाण में हुआ है। इन पदों द्वारा ही इन. कवियों ने देश में आध्यात्मिक एवं साहित्यिक चेतना को जागृत करने का अपूर्व प्रयत्न किया। प्रस्तुत प्रवन्ध में ऐसे अनेक पद रचयिताओं का उल्लेख हुआ है । भट्टारक रत्नकोति, आनन्दधन. कनककीति, कुमुदचन्द, चन्द्रकीति, शुभचन्द, जिनहर्प, जिनराजमूरि, श्रीमद् देवचन्द, वर्मवर्द्धन, मट्टान्क सकलभूषण, यशोविजयजी. विनयविजयजी, ज्ञानानन्द, वादीचन्द, विद्यासागर, समयसुन्दर, संयममागर, हेमविजय, जान विमलमूरि आदि का पद-साहित्य उत्तम कोटि
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हिन्दी के भक्ति काव्य में पदों का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। में • पदों के प्रधान रचयिताओं में कबीर, मीरा, मूरदास, तुलसी आदि उत्तम कोटि के
१. गूर्जर माहित्य संग्रह, प्रथम भाग, पृ० ५७६ २. भजनसंग्रह-वर्मामृत, पं० वरदास, पृ०८ ३. गृजर माहित्य संग्रह. प्रथम नाग. पृ० ५४६ -
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवि माने गये हैं। महाकवि सूरदास के पदों को देखकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनका सम्बन्ध किसी प्राचीन परम्परा से होने का अनुमान किया है ।१ डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनका उद्गम वौद्ध सिद्धों के गानों को माना है ।२ पदों का मूलरूप कुछ भी हो किन्तु भक्ति और अध्यात्म के क्षेत्र में प्रायः अधिकांश जैन-गूर्जर कवियों ने पदों का खुलकर प्रयोग किया है । इन कवियों का यह पद साहित्य विभिन्न छन्दों से युक्त और राग-रागनियों में निवद्ध है । जैन कवियों ने संभवतः पद रचना बहुत पहले से आरम्म कर दी थी। यही कारण है कि इनके पदों में भावाभिव्यक्ति के साथ-साथ संगीतात्मकता भी विविध रागनियों के साथ उतरी है। संगीत विधान :
प्रायः सभी जैन-गूर्जर कवियों ने जनता को आकृष्ट करने के लिए गेय पद्धति अपनाई है। कुछ जनवादी कवियों ने दो विभिन्न मात्रा या ताल वृत्तों की कुछ पंक्तियां मिलाकर उन्हें गेय बनाने के लिए उनमें विविध रागों का सम्मिश्रण कर नये छन्दों की भी सृष्टि की है। ये देशी छन्द संगीत के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ऐसे कवियों में मालदेव, समयसुन्दर, जिनहर्प, धर्मवर्द्धन, ऋषभदास, श्रीमद् देवचन्द्र आदि प्रमुख हैं। इन्होंने प्रसिद्ध देशियों, ख्यालों; तों आदि को अपनी रचनाओं में प्रमुख स्थान दिया ।
संगीत में प्रमुख ६ राग और छत्तीस रागनियां मानी गई हैं। इन्हीं के भेदानुभेद, मिश्रमाव और प्रान्तीय भेदों आदि से सैकड़ों नई रागनियों का निर्माण हुआ है।
इन कवियों ने संगीत की प्रभावशालिता को पहचान कर ही इसका आश्रय ग्रहण किया और मुक्त रूप से गेय गीतों, पदों और काव्यों का निर्माण किया । महात्मा आनन्दघन तो राग-रागनियों के पंडित ही थे। इनके प्रमुख रूप हैं-बिलावल, दीपक, टोड़ी, सारंग, जयजयवन्ती, केदारा, आसावरी, वसंत, नट, सोरठ, मालकोस, मारू आदि। ये सब त्रिताल, एकताल, चौताल, और धमार आदि तालों में निवद्ध है । इन कवियों के पदों को निर्देशित तालों एवं रागों में गाया जाय तो इनका प्रभाव द्विगुणित हो उठता है। यह संगीत योजना ऊपर से आरोपित नहीं, शब्द योजना में ही स्वत: गुम्फित है । इस दृष्टि से आनन्दधन का पद प्रस्तुत है१. "अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परम्परा का~चाहे वह
मौखिक ही रही हो-पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।" हिन्दी साहित्य का
इतिहास, पं० रामचन्द्र शुक्ल (वि० सं० १९६७), पृ० २०० । २. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० १०८ ।
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आलोचना-खंड
सारंग-आसावरी "अव हम अमर भए, न मरेंगे। या कारण मिथ्यात दियो तज, क्यू कर देह धरेंगे । राग-दोस जगबंध करत हैं, इनको नास करेंगे । मर्यो अनंत काल तें प्राणी सो हम काल हरेंगे। देह बिनासी हूँ अविनासी अपनी गति पकरेंगे । मर्यो अनंत बार विन समज्यो, अब सुख-दुःख विसरेंगे ।
आनंदघन निपट निकट अच्छर हो, नहिं समरे सो मरेंगे ॥"१
इसी प्रकार दिगम्बर कवियों में भट्टारक कुमुदचन्द्र का राग कल्याण में गाया एक पद और देखिए
"चेतन चेतत किउँ वावरे ॥ विपय विषे लपटाय रह्यो कहा, दिन दिन छीजत जात आपरे ॥१॥ तन धन योवन चपल सपन को, योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे॥ काहे रे मूढ न समझत अज हूँ,
कुमुदचन्द्र प्रभु पद यश गाउं रे ॥२॥"२
इन विभिन्न राग-रागिनियों के साथ इन कवियों ने सिन्ध, मारवाड़, मड़ता, मालव, गुजरात आदि स्थानों की प्रसिद्ध देशियां, रागिनियां, ख्याल आदि का समावेश कर अपने ग्रथों को 'कोष' का रूप प्रदान किया है। इन कवियों द्वारा गृहीत एवं विनिर्मित देशियों की टेक पंक्तियों का परवर्ती कवियों ने खुलकर प्रयोग किया है। इस दृष्टि से जैन-गूर्जर कवियों ने लोक-साहित्य का बड़ा उपकार किया है। लोकगीतों की धुनों के आधार पर अनेक गीतों की रचना की है और साथ ही उनकी आधार भत धनों के गीतों की आद्यपंक्तियों का भी अपनी अपनी रचनाओं के साथ उल्लेख कर दिया है । धर्मवर्धन विरचित गीतों की कुछ धुनें इस प्रकार है ।३
(१) मुरली वजावं जी आवो प्यारो कान्ह । - (२) उड़ रे आंवा कोइल मोरी।
१. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशकर नागर, पृ० १४८ । २. हिन्दी-पद संग्रह, संपा० डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० २० । ३. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा ।
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(३) कपूर हुवै अति ऊजलो रे । (४) सगुण सनेही मेरे लाल । इसी प्रकार जिनहर्प द्वारा प्रयुक्त कुछ प्रसिद्ध देशियां इस प्रकार हैं-१ (१) मोरा प्रीतम ते किम कायर होइ । (२) नींदडली वइरण हुई रही। (३) उधव माधव ने कहिज्यो । (४) मन मधुकर मोही रह्यो । (५) मोहन मुंदड़ी ले गयो। (६) आप सुवारथ जग सहू ।
ऐसी अनेक आद्य पंक्तियां इन धर्म प्रचारक कवियों की कृपा से सुरक्षित रह मकी है ।२ इन कवियों की यह संगीत-पद्धति प्रत्येक राग-प्रेमी को रस मग्न करने में समर्थ है । जनमन को आकर्षित और अभिभूत करने की जितनी सामर्थ्य संगीतशास्त्र में है, उतनी अन्य किसी शास्त्र में नहीं। इन कवियों की कविता में छन्दों का निर्माण संगीत-शास्त्र की नैसर्गिकता प्रगट करता है। ताल, लय, गण, गति और यति आदि संगीत के ही प्रमुख अंग हैं, जिन्हें छन्दज्ञों ने स्वीकार कर लिया है। अलंकार-विधान :
काव्य की गोमा में अभिवृद्धि करने वाले तत्त्वों को अलंकार कहा गया है । ये अलंकार जहां एक ओर कथ्य की अभिव्यक्ति को सुन्दरता प्रदान करते हैं वहां दूसरी ओर कवि की कल्पना के परिचायक भी होते हैं । कवि जिस रूप में विषय को अनुभूत करता है उसी रूप में प्रकट न करके उसे कल्पना के सहारे अधिक प्रभावशाली अस्तित्व प्रदान करता है। इसीलिए अलंकरण की प्रवृत्ति इसकी विशेषता है । यह अलंकरण दो रूपों में होता है-(१) शब्दालंकार, तथा (२) अर्थालंकार के रूपों में। . (१) शब्दालंकार : इसके अन्तर्गत शब्दों का संयोजन आदि इस प्रकार किया जाता है कि कविता में एक प्रकार का चमत्कार उत्पन्न हुए विना नहीं रहता। यह चमत्कार ही भाव को वैशिष्ट्य प्रदान करता है। शब्दालंकार में सर्वप्रमुख अलंकार हैं अनुप्रास । आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों ने अनुप्रास के बड़े सुन्दर प्रयोग किए हैं। कवि किशनदास का एक उदाहरण देखिए
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१. जिनहर्ष थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा । २. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, प्राचीन देशियों की सूची।
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आलोचना-खंड
"जीवन जरासा दुख जनम जरा सा ताप । डर है खरा-सा काल शिरपै खरा-सा है ।। कोऊ विरलासा जो पै जीवै द्वे पचासा अंत । वन विच बासा यह बात का खुलासा है । संध्या का-सा बान करिवरसा कान चलदल का-सा पान चपला का-सा उजासा है ।। ऐसा सा तापै किशन अनन्त आसा । पानी में बतासा तैसा तनका तमासा है ॥३०॥"१
उपर्युक्त पंक्तियों में अनुप्रास-विशेषतः वर्णानुप्रास एवं वृत्यानुप्राम की छटा दर्शनीय है । अनुप्रास के अतिरिक्त अन्य अलंकारों का (यथा-उपमा, उदाहरण आदि का) चमत्कार भी विशेष उल्लेख्य है।
अनुप्रास के अतिरिक्त यमक भी गब्दालंकार ही है। इस युग के जैन कवियों ने इस अलंकार का भी सार्थक प्रयोग किया है--
यमक :
(१) "सारंग देखि सिधारे सारंगु, सारंग नयनि निहारी।"-रत्नकीर्ति२ (२) "कर के मणि तजि के कछु ही अब, फेरह रे मनका मनका।"
-धर्मवर्धन३
उक्त दोनों उदाहरणों में से प्रथम में 'सारंग' शब्द का जो तीन बार प्रयोग हुआ हैं वह तीनों बार ही पृथक् अर्थ को लेकर। इसी प्रकार दूसरे उदाहरण में अनुप्रासश्लिष्ट यमक चमत्कारक्षम है। अर्थालंकार :
जैन कवियों की इन कविताओं में शब्दालंकारों के साथ अनेक अर्थालंकारों का भी प्रयोग हआ है। इन अलंकारों से मात्र स्वरूप-बोध ही नहीं होता अपितु उपमेय के भाव भी उद्बुद्ध होते दिखाई देते है । इस दृष्टि से यहां कुछ अर्थालंकार प्रस्तुत हैं१. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, १० १६६ ।२. सं० कस्तूरचन्द कासलीवाल, हिन्दी-पद संग्रह, पृ०३। ३. सं० अगरचन्द नाहटा, धर्म बावनी, धर्मवर्धन ग्रंथावली, पृ० १३ ।
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बनं गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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रूपक
उपमा "पूरण चन्द्र जिसी मुख तेरो, दंत पंक्ति मचकुन्द कली हो। सुन्दर नयन तारिका गोभित, मानु कमल दल मध्य अली हो ।"
-समयमुन्दर ___"प्यास न छीपइ दरस की, डूबि रही नेह-होजि ॥"२-जयवंतसरि सांगरूपक "नायकान रासी यह वागुरिन भासी खासी,
लिए हांसी फांसी ताके पाश में न परना, पारधी अनंग फिरे मोहन धनुप धरे, पैन नयन वान खर तातें ताही डरना, कुच है पहार हार नदी रोमराई तृन, किसन अमृत ऐन बैन मुखि झरना, अहो मेरे मन-मृग खोल देख जान दृग,
यह वन छोड़ि कहूँ और ठौर चरना ।"३--किगनदास उत्प्रेक्षा तनु शुध खोय घूमत मन एमें, मानु कुछ खाई मांग ।'४
--आनन्दघन
मालोपमा 'जैसे तार हरनि के वृन्द सौं विराजै चन्द,
जैसे गिरराज राजै नन्द वन राज सौ। जैसे धर्मगील सौं विराजै गच्छराज तैसे,
राजै जिनचन्द्रसूरि संघ के समाज सौ ॥"५-धर्मवर्धन प्रौढोकित 'लिख्यो जु ललाट लेख तामें कहा मीन मेख,
करम की रेख टारी हु न टरे है ।"६-~-किशनदान उदाहरण 'मान सीख मेरी व्हेगी ऐसी गति तेरी यह ।
जेसी मूठी ढेरी रास की ममान में ॥"७---किगनदास
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१. सभमुन्दर कृत कुमुमांजलि, पृ० २६ । २. स्यूलिभद्र मोहन वेलि । ३. अम्बाशंकर नागर, गुजरात के हिंदी गौरव ग्रंथ, पृ० १६७ । ४. आनन्दघन पद संग्रह। ५. धर्मवीन ग्रंथावली, पृ० २३६ । ६. डॉ० अम्बागंकर नागर, गुजरात के हिन्दी गौरव नथ, पृ० १६२ । ७. वही, पृ० १८०॥
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आलोचना-बंड
कायलिंग 'चौप करी काह चूहे सांप को पिटारो काट्यो,
सो अनजाने पाने पन्नग के परे है। किसन अनुद्यमहि चल्यो यही पेट भरी, उद्यम ही करत तुरत चूहा मरे है; देखो क्यों न करी काहु हुन्नर हजार नर,
ह्न है कछु सोई जो विधाता नाथ करे है।"१----किशनदास विरोधाभास 'चन्द उजारा जगि किया मेरइ मनिहुर अंधियार । २-जयवंतसूरि मंदेह के देवी के किन्नरी, के विद्याधर काइ ।'३-समयसुन्दर उदात्त 'श्री नेमिसर गुण निलउ, त्रिभुवन तिलउ रे।
चरण विहार पवित्त, जय जय गिरनार गिरे ॥४-समयसुन्दर स्वभावोक्ति 'पगि घूघरड़ी घमघमइरे, ठमकि ठमकि घरइ पाउ रे ।
बांह पकरि माता कहइरे, गोदी खेलण आउरे ॥ चिवुकारइ चिपटी हीयइरे, हुलरावइ उर लायरे। बोलइ बोल जु मनमनारे, दतिया दोइ दिखाइरे ॥"५
-जिनराजसूरि उपर्युक्त उदाहरण आलोच्यकालीन कवियों की अप्रस्तुत-विधान-क्षमता का पूरा परिचय दे देते हैं। इन अर्थालंकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे आरोपित नहीं है, सहज-स्वामाविक हैं। इन अलंकारों के माध्यम से जहां अर्थ में चमत्कारवृद्धि होती है वहां वे भारतीय जीवन के विश्वासों की सहज रूप से अभिव्यक्ति भी करते चलते हैं, यथा प्रौढ़ोक्ति व काव्यलिंग अलंकार । किशनदास के उक्त सांगरूपक में नारी पर वन का आरोप और मन पर मृग का आरोप कर विराग के उपदेश को बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार उदात्त अलंकार में गिरनार के प्रस्तुत, वर्णन में 'नेमिसर' को अंगरूप से रखकर गिरनार का महत्व चमत्कारिक ढंग से उपस्थित किया गया है। स्वभावोक्ति तो स्वभावोक्ति है ही। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त आलोच्य कवियों की कविताओं में अनेक व अनेक प्रकार के अलंकारों का प्रयोग प्राप्त होता है।
१. वही, पृ० १६२ । २. स्थूलिभद्र मोहन वेलि । ३. अगरचन्द नाहटा, सीताराम चौपाई। ४. समयसुन्दर कुसुमांजलि, पृ० ११०।। ५. जिनराजसूरि कृत कुमुमांजलि, पृ० ३१ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
२७६
प्रतीक-विधान
प्रतीक एक ऐसा विधान है जिसमें विचार अथवा अप्रस्तुत को पारम्परीय अर्थों में रूढ़ किसी रूप के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रतिविधान है जो अमूर्त के लिए मूर्त अदृश्य के लिए दृश्य; अप्राप्य के लिए प्रस्तुत तथा अनिर्वचनीय के लिए वचनीय तत्वों को उपस्थित कर अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इस प्रकार प्रत्येक प्रतीक सम्बन्ध, साहचर्य, परम्परा अशवा आकस्मिकता के कारण किसी अप्रस्तुत के लिए प्रस्तुत का विधान है। प्रतीक वाह्य प्रकृति से सम्बद्ध होने के कारण इन्द्रियगम्य अधिक होते हैं और अमूर्त भावनाओं की प्रतीति कराने में समर्थ होते हैं । इनसे भाषा में लाघव, अभिव्यक्ति में चमत्कार तथा विषय में व्यंग्यत्व बढ़ जाता है ।
आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों ने अपनी कविता में उपमान रूप में प्रतीकों का विशेप प्रयोग किया है। प्रभाव साम्य को लेकर आये इन प्रतीकों में भावोदवोधन या भावप्रवणता की शक्ति है । ये कवि अपनी मार्मिक अन्तर्दृष्टि द्वारा भावाभिव्यंजना के लिए पूर्ण सामर्थ्य से युक्त प्रतीकों का विधान कर सके हैं। भावोत्पादक और विचारोत्पादक जैसे भेद इन कवियों के प्रतीकों में नहीं कर सकते। वैसे भी भाव
और विचार में सीमारेखा खींचना मुश्किल है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन्हें हम निम्न चार भागों में विभक्त कर सकते हैं
(१) दुःख, विकारादि के सूचक प्रतीक । (२) आत्माभिव्यंजक प्रतीक । (३) शरीर की विभिन्न दशाओं में अभिव्यंजक प्रतीक । (४) आत्मिक सुख एवं गुणों के अभिव्यंजक प्रतीक ।
प्रथम विभाग में भुजंग, विप, तम, संध्या, रजनी पंच, लहर, हस्ति, वन, मृग, मृगतृष्णा, मच्छ, दरिया आदि प्रमुख रूप से आते हैं। भुजंग :
भूजंगम१, विपनागर भूमंगनि३ आदि शब्द प्रयोग द्वारा इन कवियों ने राग हेपादि की सूक्ष्म भावना की अभिव्यक्ति की है। अतः यह प्रतीक मन के विकारों को प्रकट करने के लिए आया है। ये विकार आत्मा की परतन्त्रता के कारण है
१. मजन संग्रह धर्मामृत, पं० बैचरदासजी यशोविजयजी के पद, पृ० ५६ । २. आनंदधन पद संग्रह, पद नं० ४१ । ३. वही, पद, ३१ ।
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२८०
बालोचना-वंद
अत: मर्प के समान भयंकर एवं कष्टदायी है। इस प्रतीक द्वारा इन विकारों की भयंकरता अभिव्यक्त करना ही साध्य है। जिनहर्ष की कविता में भी यह प्रतीक, इमी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विप :
यह विपयोद्भूत काल का प्रतीक है। 'विप' मृत्यु का कारण है, पर विपय तो मृत्यु से भी भयंकर है। यह जन्म-जन्मान्तरों की मृत्यु का कारण है ! अतः इसकी भयंकरता इम प्रतीक द्वारा अच्छे ढंग से व्यक्त हुई है। महात्मा आनन्दघन, यगोविजयजी किशनदास, समयसुन्दर धर्मवर्धन आदि कवियों ने 'विप' प्रतीक का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। कवि कुमुदचन्द्र की कविता में भी यह प्रतीक इसी अर्थ में आया है । निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
"चेतन चेतत किउं वायरे ।। विषय विषे लपटाय रह्यो कहा,
दिन दिन छीजत जात आपरे ॥१॥ तन धन योवन चपल सपन को,
योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे ॥ काहे रे मुढ़ न समझत अज हूं,
कुमुदचन्द्र प्रभु पद यश गाउँ रे ॥१॥"२ उक्त पद में प्रतीक अपना रूपकत्व लिए हुए है। तम:
__ यह मोह तथा अज्ञान का प्रतीक है। अज्ञान तथा मोह के कारण मानव अन्तर्दृष्टि खो बैठता है। इसके प्रभाव से विवेक नष्ट हो जाता है। जिनहर्प, समय सुन्दर, धर्मवर्धन, ज्ञानानंद आदि ने इस प्रतीक द्वारा आत्मा की मोह-दशा, मिथ्यात्व और अज्ञान की अभिव्यक्ति की है।
__ 'संध्या'३ तथा अन्य समानार्थी प्रतीक-यह पल-पल परिवर्तनशील मनोदगा तथा जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतीक है। कवि किशनदास ने जीवन की अभिव्यक्ति के लिए उसे "संध्या का-सा वान", 'करिवर का-सा कान चल', 'चपला का-सा-उजासा', 'पानी में वतासा' आदि प्रतीक-प्रयोग किए हैं। १. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० २० । २. धर्मवर्धन ग्रंथावली, पृ० ८६ तथा
भजनसंग्रह-ज्ञानानंद के पद, पृ० १७ । ३. धर्मवीन ग्रंथावली, पृ० ६० तथा किशनदास की उपदेश बावनी ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
२८१
'रजनी' १
यह राग द्वेषादि से उत्पन्न आन्तरिक वेदना का प्रतीक है | इन कवियों ने 'रजनी' का प्रयोग इसी आन्तरिक वेदना और निराशा जनित भावों hat afarक्त के लिए किया है । ज्ञानानंद, किशनदास, यशोविजय, जिनहर्ष आदि ने भी रजनी प्रतीक का प्रयोग किया है |
C
"पंच" २-पंचेद्रियां और उनके द्वारा विषयसेवन के लिए संख्यामूलक प्रतीक रूप में इस शब्द का प्रयोग हुआ है | ज्ञानानन्द, यशोविजय, धर्मवर्द्धन आदि कवियों ने विषयाशक्ति और इन्द्रियों के स्वैराचार की अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है । इस प्रकार के दुःख विकारादिक के सूचक प्रतीकों में ज्ञानानन्द की कविता में मोह, माया, प्रपंच तथा पाखंड के 'नटवाजी', 'तसकर' चोर, नींद आदि प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया गया है । जीवन की क्षणभंगुरता के लिए विनयविजय जी ने बादल की छाह, आनंदघन जी ने 'छांह गगन वदरीरी' तथा किशनदास ने काया की मात्रा के लिए 'बादल की छाया' कहा है । इसी तरह आनंदघन और यशोविजय जी ने-काम-क्रोधादि विकारों को 'अरि', संसार सुख को मृगतृष्णा विषय वासनारत जीव को 'काग', संसारी जीवन को 'अवला', हठीले मन को 'घोड़ा' ३, जोवन झलक को 'चपला की-सी चमक' ४ तथा विषयसुख को 'धनुष जैसो घन को '५ कहा है । 'हस्ति' ६ प्रतीक अहंकार और अज्ञान के भाव को और अहंकारी व्यक्ति की क्रियाएं मदोन्मत्त हाथी की धर्मवर्द्धन ने अपने प्रतीकों को स्वयं स्पष्ट करते लिखा है
व्यक्त करता है । अज्ञानी तरह ही होती हैं । कवि
" मन मृग तु तन वन मे माती ।
केलि करे चरै इच्छा चारी, जाणें नहीं दिन जातो ॥१॥ मायारूप महा मृगत्रिसनां, जिनमें धावे तातो ।
आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नही पछतातो ॥२॥६
१. हिन्दी पद संग्रह, संपा० डॉ० कस्तूरतन्द कासलीवाल, पृ० १६ कुमुदचंद के पद ।
२. भजन संग्रह धर्मामृच, ज्ञानानन्द के पद, पृ० ६ ।
३. "घोरा झूठा है रे तू मत भूले असचारा ।" विनयविलास, विनयविजय ।
४. उपदेश बावनी, किशनदास ।
५. ( अ ) हस्ति महामद मस्त मनोहर, भार वहाई के ताहि विगोवे || 5 || जिनहर्ष, जसराज बावनी ।
(आ) जोवन तसुणी तनु रेवा तट, मन मातंग रमा चउ ॥ जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ६२-६३
६. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६० ।
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२८२
आलोचना-खंड
आनन्दवर्द्धन के 'भक्तामर सर्वया' से संसार की भयंकरता के लिए प्रयुक्त प्रतीक देखिए
'सै अकुले कुछ मच्छ जहां गरज दरिया अति भीम भयो है, ओ वडवानल जा जुलमान जल जल में जल पान को है।" लोल उत्तरांक लोलनि के पर वारि जिहाज उच्छरि दियो है,
ऐसे तुफान मैं तौहि जप तजि में सुख सौ शिवधाम लयो है ।।४०॥१ यहां तूफानी समुद्र, संसार का प्रतीक है, मच्छ संसारी जीवों का प्रतीक है, वाडवानल संसार के दुःखादि का प्रतीक, उत्ताल तरंगे कष्टों व विघ्नों की प्रतीक, जहाज मानव देह का प्रतीक तथा प्रभु का नाम सुख और शक्ति का प्रतीक है। कवि ने संसार रूपी महासागर की विकरालता-भयंकरता का स्पष्ट चित्र दे दिया है ।
आत्माभिव्यंजक प्रतीकों में हंस, चेतन, नायक, शिवदासी, भीत, पंखी, मछली, जौहरी, वूद, भ्रमर, तवीव, आदि प्रतीक प्रधान है । इन कवियों ने इन प्रतीकों द्वारा आत्मा के विभिन्न रूपों की अभिव्यक्ति की है। हंस और पंखी उस आत्मा के प्रतीक है जो प्रथम संसार की रमणीयता से आकर्षित होते हैं पर समय पाकर उससे विरक्त हो साधना-मार्ग द्वारा निर्वाण को प्राप्त होते है । किगनदास, जिनहर्प, यशोविजयजी, धर्मवर्द्धन, ब्रह्म अजित आदि कवियों ने आत्मा की इसी अवस्था की अभिव्यक्ति हंस२ तथा पक्षी३ प्रतीक द्वारा की है । चेतन, नायक, शिववासी आदि प्रतीक द्वारा शक्तिशाली आत्मा का विश्लेषण किया गया है। अपनी वास्तविकता का ज्ञान होते ही ऐसी आत्मा रागद्वेषादि से मुक्त हो अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकाशित हो जाती हैं । ज्ञानानन्द, आनंदघन, यशोविजयजी आदि ने इस प्रतीक का खुलकर प्रयोग किया है। कुमुदचंद्र ने भी "चेतन" प्रतीक के प्रयोग द्वारा आत्मा को चेताया है ।४ ज्ञानानन्द ने प्रवुद्ध आत्मा के लिए "जवहेरी" "शिववासी" पंखी". 'वन्द' आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है ।५ विनय विजय ने आत्मा और परमात्मा के संबंध को अभिव्यक्त करने के लिए "जल-मीन सम्बन्ध" तथा "जल-बूद का न्याय" १. भक्ताभर सवैया, आनन्दवर्द्धन, प्रस्तुत प्रवन्ध का तीसरा अध्याय । २. हसा तू करि संयम, जन न पड़ि संसार रे हंसा ।-हंसागीत, ब्रह्म अजित । ३. वह पंखी को जो कोई जाने, सो ज्ञानानन्द निधि' पावे रे। भजनसंग्रह, धर्मामृत;
पृ० १६ । ४. चेतन चेतत किउ वावरे । हिन्दी पद संग्रह, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल । ५. मजन संग्रह, धर्मामृत, पं० वेचरदास, ज्ञानानंद के पद, नं० १६, २४, २७ ।
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
२८३
कहा है ।१ महात्मा आनंदघन जी ने भी “जवहरी" और "तबीव" प्रतीकों द्वारा आत्मा की इसी भाव दशा को प्रगट किया है ।२ "भ्रमर" प्रतीक प्रभु गुण पर विलुब्ध आत्मा का प्रतीक है । समयसुन्दर, जिनराजसूरि, जिनहर्ष, यशोविजय आदि कवियों ने इस रस-लुब्ध दशा की अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"भमर अनुभव भयो, प्रभु गुण वास लह्यो ।"३
मीत, मीता आदि प्रतीक ब्रह्म के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। धर्मवर्द्धन और ज्ञानानन्द की कविता में ऐसे प्रयोग अधिक हैं । ज्ञानानंद की कविता से एक उदाहरण अवलोकनीय है
"साधो नहिं मलिया हम मीता । मीता खातर घर घर भटकी, पायो नहिं परतीता।
जहां जाउ ताहां अपनी अपनी, मत पख मांखे रीता ॥१॥"४ "विणजारा" प्रतीक राग-द्वेष मोहादि से पूर्ण संसारी आत्मा के लिए प्रयुक्त है । ज्ञानानंद ने भी इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है
"विनजरा खेप भरी भारी ॥ चार देसावर खेम करी तम, लाभ लह्यो बहु भारी ।
फिरता फिरतां भयो तु नायक, लाखी नाम संभारी ॥१॥"५ शरीर की विभिन्न दशाओं के अभिव्यंजक प्रतीकों में नगरी, मन्दिर, दुःखमहल, मठ, माटी, काच रन मैदान, नाव, पिंजरा आदि प्रमुख हैं। महात्मा आनंदघन ने शरीर की क्षणभंगुरता बताते हुए "मठ" प्रतीक का समुचित प्रयोग किया है
"मठ में पंच भूत का वासा, सासा धूत खवीसा, धिन धिन तोही छलनकु चाहे, समझे न बौरा सीसा ॥"६
यहां "मठ" शरीर का प्रतीक है। इस मिट्टी के घर में सनातन सुख खोजना पानी में मछली के पदचिह न खोजने के बराबर है। पांच तत्वों को 'पंचभूत'
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१. वही, विनय विजय के पद नं० ३१, ३२ । २. आनन्दधन पद संग्रह, पद संख्या, १६, ४८ । ३. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग, यशोविजयजी, पृ० १२४ । ४. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, ज्ञानानंद के पद, पृ० १३ । ५. भजन संग्रह, धर्मामृत, प० वेचरदास, पृ० १० । ६. आनंदघन पद संग्रह, संपा० बुद्धिसागरसूरि, पद ७
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आलोचना-खंड
और श्वासोच्छश्वास को बड़ा भूत, 'धूत खवीस' कहकर इन प्रतीकों द्वारा शरीर के प्रति वितृष्णा जगाई है। आत्मा की अनुभवहीनता तथा अज्ञानता एवं भोली दशा को 'वौरा सीसा' प्रतीक द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। किशनदास ने शरीर की नश्वरता के लिए 'माटि के गढ़ाव', 'रेत की गढ़ी' तया 'प्रेत की मढ़ी' प्रतीकों का प्रयोग किया है ।१ यशोविजय जी ने इस शरीर के लिए 'रण मेदान' प्रतीक का प्रयोग कि है । काम, क्रोध, लोभ, मोहादि शत्रुओं से इसी 'रण मैदान' में लोहा लेना पड़ता है
__ "रन मैंदान लरे नहीं अरमि, सुर लरे ज्यु पालो ॥२
जिनहर्प के इसे 'काच का भाजन" कहा है ।३ ज्ञानानंद जी ने शरीर की इस दशा के लिए 'दश दरवाजे', 'नगरी', 'मन्दिर', 'महल' आदि प्रतीकों का सहारा लिया है ।४ आनंदघन जी ने 'दुःख महेल', 'नाव' आदि प्रतीकों का भी प्रयोग किया है। शरीर के प्रति मोह दशा के लिए 'धुघट' प्रतीक का भी अच्छा प्रयोग हुआ है।
जिनहर्प ने 'पिंजरा' प्रतीक द्वारा भौतिक शरीर और आत्मतत्व की अभिव्यंजना की है
"दस दुवार को पीजरो, तामै पंछी पौन ।
रहण अचूंवो है जसा, जाण अचूबो कौन ॥४॥"५. अधिकांश जैन-गर्जर कवियों ने इस प्रकार के प्रतीकों का सहारा लेकर शरीर की विभिन्न दशाओं की अभिव्यंजना की है । अन्त में सुख एवं गुणों के अभिव्यंजक प्रतीकों में मधु, फूल, मोती, अमृत, प्रभात-भोर, उपा, दीप, प्रकाश, आदि
प्रमुख है।
'म' प्रतीक द्वारा ऐन्द्रिय सुख की अभिव्यक्ति हुई है। ऐन्द्रिय सुख इतना आकर्षक है कि मानव मन उसके प्रति सहज ही विरिक्त नहीं दिखा सकता। समयमन्दर, जिनहर्ष किशनदान आदि कवियों ने सुखेच्छा की भावानुभूति के लिए इस प्रतीक का प्रयोग किया है । १. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, उपदेश वावनी,
पृ० १६६-६७ । २. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग; यशोविजयजी, पृ० १६० । ३. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, ४. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४१६ ।। ५. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग, यशोविजयजी, पृ० ७६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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_ 'मोती, 'प्रभात', 'उपा' आदि प्रतीकों द्वारा शाश्वत सौन्दर्य की अभिव्यक्ति इन कवियों ने की है । आनंदघन, विनयविजय, जिनहर्प, समयसुन्दर आदि ने इन प्रतीकों का इसी अर्थ में प्रयोग किया है।
'अमृत' आत्मानंद की अभिव्यक्ति का प्रतीक है । यशोविजय जी की कविता से एक उदाहरण दष्टव्य है
"जस प्रभु नेमि मिले दुःख डार्यो, राजुल शिव सुख अमृत पियो ।"?
आनन्दघन जी ने 'वर्षा बुद' तथा 'समुन्द' के द्वारा आत्मा और ब्रह्म की अभिव्यक्ति की है तथा आत्मा भी ब्रह्म में लय होने की दशा का सुन्दर निरूपण किया है।
"वर्षा बुद समुन्द समानी, खबर न पावे कोई,
आनन्दघन ह्र ज्योति समावे, अलख कहावे सोई ।।" इसी प्रकार 'दीपक' प्रकाशरूप ब्रह्म व 'चेतन रतन' जाग्रत आत्मा के लिए प्रयुक्त प्रतीक हैं
'तत्व गुफा में दीपक जोउ, चेतन रतन जगाउ रे, वहाला ॥". आत्मनान के लिए 'जान कुसुम' प्रतीक का प्रयोग देखिए
"ज्ञानकुसुम की सेजन पाइ, रहे अधाय अधाय ।"२
संक्षेपतः, इन कवियों ने सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति एवं मार्मिक पक्षों का उद्घाटन करने के लिए प्रतीकों का आयोजन किया है। निष्कर्ष :
१ आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों की वाणी साधारण जनसमाज के लिए रची जाने के कारण सरल तथा लोकाभिमुख रही है। उसमें प्रान्तीय मापाओं के शब्दों का सहज सम्मिश्रण होगया है । इन कवियों का एक मात्र उद्देश्य भापा को बोधगम्य एवं लोकभोग्य वनाना रहा है, अतः काव्य शास्त्रोचित नियमों के निर्वाह की विशेष परवाह नहीं की गई है । फिर भी भाषा के विकासोन्मुख रूप की दृष्टि से इन कवियों की भाषा का बड़ा महत्व है।
२ आनन्दधन, यशोविजय, जिनहर्ष, रत्नीति, कुमुदचंद्र आदि कवियों का भाषा की दृष्टि से बड़ा महत्व है। ऐसे कवियों का भाषा के रूप को सजाने और परिष्कृत करने में विशेष हाथ है । इनकी भापा में सरल, कोमल, मधुर तथा सवोध १. वही, पृ० ८५ । २. भजन संग्रह, धर्मामृत पं० बेचरदास विनयविजय के पद ३२ ।
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२८६
आलोचना खंड
गब्द प्रयोग स्वाभाविक रूप में हुए हैं। उनकी शब्द योजना, वाक्यों की बनावट तथा भापा की लक्षणिकता या ध्वन्यात्मकता भी उल्लेखनीय है।
३ अधिकांश कवियों ने भापा को संगीतात्मकता और अधिक मनोरम तथा प्रभावोत्पादक बनाने का प्रयास किया है। इन कवियों में संगीत मात्र मुखरित ही नहीं हुआ, स्वर, ताल के साथ स्वयं मूर्तिमंत हुआ है। ऐसे स्थलों में भापा की कोमलकान्तता और प्रवहमानता देखते ही बनती है।
४ इनकी वैविध्यपूर्ण छन्द योजना में भी मंगीत की गूज है, जो विभिन्त प्रकार की तालों, रागिनियों, देशियों आदि के द्वारा हृदय के तार झंकृत कर देती है। यद्यपि इन कवियों की कविता में वणित और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है तथापि मात्रिक छन्दों की प्रधानता है । दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, कुंडलियां, सवैया, छप्पय, पद आदि छन्द इनके प्रिय तथा अधिकाधिक प्रयुक्त छन्द्र रहे हैं।
५ जन-गूर्जर कवियों ने अलंकारों का भी प्रयोग किया है, पर उनको प्रमुखता नहीं दी है। कविता में अलंकार स्वभावतः ही आये है। शब्दालंकारों में अनुप्राम और यमक तथा अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक उदाहरणालंकार, उदात्त विरोधाभास आदि का सुन्दर एवं स्वाभाविक नियोजन इन की कविताओं में हुआ है ।
६ जैन-गुर्जर कवियों ने प्रस्तुत के प्रति तीव भावानुभूति जगाने के लिए अप्रस्तुत की योजना की है। इसमें स्वाभाविकता, मर्मस्पर्शिता एवं भावोद्रेक की सक्षमता है। अपनी भौतिक आंखों से देखे पदार्थो का अनुभव कर, इन्होंने कल्पना द्वारा एक नया रूप उपस्थित किया है, जो वाह्य जगत् और अन्तर्जगत् का समन्वय स्थापित करता है। यही कारण है कि इनकी आत्माभिव्यंजना उत्कृष्ट बन पड़ी है । इन भावुक कवियों को तीव्र रसानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ा है।
समग्रतः इन कवियों की भाषा में स्पष्टता, सरलता और यथार्थता है तथा शैली में विरक्त साधुओं-सी निर्मीकता है। इनमें न पांडित्य-प्रदर्शन है और न अलंकारों की भरमार । शब्दाडम्बरों से ये कवि दूर ही रहे हैं ।
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प्रकरण : ६ आलोच्य युग के जन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त विविध काव्यरूप (१) (विपय तथा छन्द की दृष्टि से ) रास, चौपाई अथवा चतुष्पदी, बेलि, चौढा
लिया, गजल, छन्द, नीसाणी, कुण्डलियां, छप्पय, दोहा, सवैया, पिंगल आदि। (२) ( राग और नृत्य की दृष्टि से ) विवाहलो, मंगल, प्रभाती, रागमाला, बथावा,
गहूँली आदि । (३) (धर्म-उपदेश आदि की दृष्टि से ) पूजा, सलोक, कलश, वंदना, स्तुति, स्तवन,
स्तोत्र, गीत, सज्झाय, विनती, पद आदि । (४) ( संख्या की दृष्टि से ) अष्टक, बीसी, चौबीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, बावनी,
बहोत्तरी, शतक । (५) ( पर्व, ऋतु, मास आदि की दृष्टि से ) फाग, धमाल, होरी, बारहमासा,
चौमासा आदि। (६) ( कथा-प्रवन्ध की दृष्टि से ) प्रबन्ध, चरित्र, संवाद, आख्यान, कथा, वार्ता
आदि । (७) (विविध विषयों की दृष्टि से ) प्रवहण-वाहण, दीपिका, चन्द्राउला, चूनड़ी,
मूखड़ी, आंतरा, दुवावेत, नाममाला, दोधक, जकड़ी, हियाली, ध्र पद, कुलक आदि ।
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प्रकरण : ६ आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त काव्य-रूप
प्रत्येक कवि को उत्तराधिकार में अनेक परम्पराएँ प्राप्त होती है । ये परम्पराएँ ही प्रयोग सातत्य से किसी काव्य-रूप विशेष को रूढ़ करती जाती है। रूप अपनी आदिम अवस्था में किसी कवि के द्वारा किसी उद्देश्य को लेकर, जो संख्या व विषय को लेकर भी हो सकता है, छन्दोवद्ध विधान होता है। इस प्रकार के विधान के अन्तर्गत संख्या को लेकर जहां वावनी, शतक व सतसयों आदि का परिगणन किया जा सकता है वहां राग, नृत्य, धर्म, उपदेश, पर्व, ऋतु, मास, प्रबन्धादि की दृष्टि से अनेक काव्य-रूप प्रकल्पित किए जा सकते हैं। काव्य-रूपों के इस वैविध्य को ध्यान में रखकर अध्ययन की सुविधा के लिए हम आलोच्य युगीन कवियों की कविता में प्रयुक्त काव्य-रूपों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से कर सकते है
(१) विपय तथा छन्द की दृष्टि से-रास, चौपाई, वेलि, ढाल, चौढालिया, गजल, छन्द, नीसाणी, कुण्डलियां, छप्पय, दोहा, सवैया, पिंगल।
(२) राग और नृत्य की दृष्टि से-विवाहलो, मंगल, प्रभाती, रागमाला।
(३) धर्म उपदेश आदि की दृष्टि से-पूजा, सलोक, वंदना, स्तुति, स्तोत्र, गीत, सज्झाय, विनती, पद, नाममाला ।
(४) संख्या की दृष्टि से-अष्टक, बीसी, चौबीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, वावनी, बहोत्तरी, शतक ।
(५) पर्व, तुऋ,मास आदि की दृष्टि से-फाग, धमाल, होरी, बारहमासा। (६) कथा-प्रवन्ध की दृष्टि से-वन्ध, चरित्र, संवाद, आख्यान, कथा ।
(७) विविध विषयों की दृष्टि से-प्रवहण, वाहण, प्रदीपिका, चन्द्राउला, चूनड़ी, सूखड़ी, दुवावैत ।
(१) विपय तथा छन्द की दृष्टि से प्रयुक्त काव्य-प्रकार
रास : रास ग्रंथों की रचना अपभ्रंश काल से ही होती रही है । अपभ्रंग की रास परम्परा का विशेषत: जैन कवियों ने देशी भापाओं में भी निर्वाह कर उसे
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आलोचना-खंड
सजीव रखा है। हिन्दी एवं गुजराती भाषाओं में रास माहित्य की विपुल सर्जना हुई है | ( इन रचनाओं में राजस्थानी और जूनी गुजराती' की रचनाएँ भी सम्मि लित है ) जैन गुर्जर कवियों ने रास - साहित्य की महती सेवा की है अब तक प्रकाशित समस्त रास - साहित्य की विस्तृत सूची श्री के० का० शास्त्री ने दी है | इसमें हिन्दी के रास - साहित्य का भी उल्लेख है ।
।
सम्बन्ध में अनेक
।
संस्कृत, हिन्दी तथा गुजराती के विद्वानों ने 'राम' नाम के व्युत्पत्तियां दी हैं, यहां उन सब का उल्लेख पिष्टपेषण ही होगा अब्दुल रहमान रचित 'संदेश रासक' में राम की जगह 'रासय' या रासउ' प्रयोग मिलता है, यह 'रासय' शब्द संस्कृत के 'रासक' शब्द का अपभ्रंश है । 'रासक' एक अति प्राचीन भारतीय नृत्य रहा है, जिसका सम्बन्ध कृष्ण लीला से रहा है ।२ जैन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान श्री अगरचन्द नाहटा ने 'लकुटा रास' ( डंडियों के साथ नृत्य ) और तालारास ( तालियों के साथ ताल देकर ) नामक दो प्रकार के ग़मों का उल्लेख किया है ।३ डाँ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार से 'रासक' एक प्रकार का खेल या मनोरंजन है ।४ प्रो० विजयराय वैद्य ने रासो या रास को प्रासयुक्त दोहा चौपाई छन्दों तथा विविध रागों में रचे हुए धर्म-विषयक कथात्मक या चरित्रप्रधान लम्बा काव्य बताया है । ५ श्री हरिवल्लभ भायाणी ने 'संदेश रासक' की भूमिका में 'रासक' की विशेष चर्चा की है। उन्होंने इसे अनेक छन्दों से युक्त एक छन्द विशेष कहा है ६
श्री अगरचन्द नाहटा ने इस पर विशेष प्रकाश डाला है
(क) 'रास' शब्द प्रधानतया कथा काव्यों के लिए रूड-सा हो गया, प्रधान रचना रास मानी जाने लगी है ।
और रस
(ख) रास एक छन्द विशेष भी है ।
(ग) राजस्थान में जो परवर्ती रासो मिलते हैं, वे युद्धवर्णनात्मक काव्य के भी सूचक है । इसी कारण राजस्थानी में 'रासो' शब्द का प्रयोग लड़ाई झगड़े या
१. गुजराती साहित्यनुं रेखा दर्शन, पृ० ३२ ।
२. हिन्दी साहित्य कोष, पृ० ६५६ ।
३. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४; प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संज्ञायें, श्री अग्रचन्द नाहटा, पृ० ४२० ।
४. हिन्दी साहित्य का आदि काल, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० १०० |
५. गुजराती साहित्य की रूपरेखा, प्रो० विजयराय वैद्य, पृ० २० । ६. संदेश रासक, प्रस्तावना, डॉ० भायाणी ।
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गड़बड़ घोटाले के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा है. परन्तु प्राचीन रचनाओं में तो 'रासो' के स्थान पर 'रास' शब्द का ही प्रयोग मिलता है । १
उक्त समस्त विवेचन की दृष्टि से आलोच्य युगीन जैन-गुर्जर कवियों द्वारा प्रणीत रास - साहित्य को देखने पर यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि इनकी रचनाओं में धीरे-धीरे दर्प या वीरत्व भी समाविष्ट होता गया और इस प्रकार एक ओर ये वीरत्व प्रधान काव्य बनते गये और दूसरी ओर कोमल भावनाओं के यह दूसरी धारा 'फागु' के रूप में सुरक्षित मिलती है । रचनाओं में छन्द, अभिनय, संगीत, नृत्य, धर्म, उपदेश, भाव आदि तत्वों का समन्वय सहज ही देखने को मिलता है । इन्होंने विविध विषयों विषय विशेष की प्रधानता के कारथ हम उसे इन विषयों में मुख्य रूप से, उपदेश, चरित, कथा, तीर्थयात्रा, संघवर्णन, ऐतिहासिक
प्रेरक-रूप में भी चलते रहे। इस प्रकार इन कवियों की
को संजोया है । कभी किसी रास में उस विषय से संबद्ध रास कह देते हैं । प्रव्रज्या या दीक्षा, वैभव वीरता, उत्सव, वर्णन आदि का परिगणन हुआ है ।
वस्तुतः किसी चरित्र अथवा विषय को आधार बनाकर उपदेश तथा धर्म प्रचार की भावना इनमें विशेषतः परिलक्षित है। वीतरागी राजपुरुष तथा मुनियों के दीक्षा ग्रहण के अवसर पर रास खेले भी जाते रहे हैं । संगीत एवं अभिनय के तत्व सर्वमाधारण की प्रकृति प्रदत्त अनुभूति को जगाकर रसानन्द को साकार करते थे ।
रास रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए श्री मोहनलाल देसाई ने अपने ग्रंथ 'गुजराती माहित्य नो इतिहास' में बताया है 'चरित्रों के गुणों का वर्णन करने, उनके दोषों को हटाने, यात्रावर्णन करने, संघ निर्माण करने, मन्दिरों का जीर्णोद्धार करने, दीक्षा उत्सव हेतु जय घोषणार्थ आदि के लिए ही इन रास ग्रंथों की रचना की जाती थी । इसके अतिरिक्त वे भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और चरितमूलक भी होते थे । जैन रासो - साहित्य जितना चरित्रमूलक होता था, उतना ही ऐतिहासिक भी होता था ।'
आलोच्य युगीन जैन- गुर्जर कवियों द्वारा प्रणीत हिन्दी एवं गुजराती-राजस्थानी मिश्रित भाषा में रचित रास इस प्रकार हैं-
१.
ऋषभदास : कुमारपाल रास, श्रेणिक रास, रोहिणी रास, भरतेश्वरनो रास, तथा हीरविजयसूरि रास ।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सं० २०११, अंक ४, पृ० ४२०, नाहटा जी का लेख |
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आलोचना-बंट
गुणसागरसूरि : कृतपुण्य (कयवन्ना) रास ।
चन्द्रकीर्ति : सोलहकरण रास । जिनराजसूरि : गालीभद्र राम तथा गजसकुमार गम । ब्रह्म रायमल्ल : नेमिश्वर राम, सुदर्शन रास; तथा श्रीपाल राम । महानंदगणि : अन्जना मुन्दरी रास ।
विनयसमुद्र : चित्रसेन-पद्मावती रास तथा रोहिणी राम । विनय विजय : श्रीपाल रास ।
वीरचन्द्र : नेमिनाथ राम। समयसुन्दर : चार प्रत्येक बुद्ध रास, मृगावती गम, मिलमुत प्रिय मेलक
रास, पुण्यसार रास, वल्कल चीरी गन, गत्रुजय राम, क्षुल्लक कुमार रास, पूजा ऋपि राम, स्यूनिभद्र राम तथा वन्नुपाल
तेजपाल रास। सुमति कीति : धर्म परीक्षा रास । नयसुन्दर : रूपचन्द कुवर रास ।
इस रास ग्रन्थों में यद्यपि विपय वैविध्य नहीं फिर भी जैन-गुर्जर रामकारो की कथा कहने की कुगल प्रवृत्ति के दर्शन अवश्य होते है। ऐतिहामिक तत्वों की सुरक्षा, तत्कालीन समाज-जीवन के दृश्य, धर्मोपदेश तथा संसार-जान की बहमूल्य सामग्री इन 'रास' ग्रन्यों में उपलब्ध है। 'रास' परम्परा १२ वी सदी से १६ वी सदी तक निरन्तर प्रवहमान रही जो इसकी लोकप्रियता एवं व्यापकता का प्रमाण हे । इस प्रकार 'रास' का, एक स्वतन्त्र काव्यरूप की दृष्टि से बड़ा महत्व है।
चौपाई : "चउपई" काव्य की परम्परा भी अपभ्रंश से ही प्रारम्भ होती है। यह कथानक प्रधान छन्द हैं। अपभ्रंग में इम छन्द का खूब प्रयोग हुआ । अतः कथानक प्रधान काव्यों के लिए यह प्रसिद्ध छन्द माना गया । जिनहर्प, विनयचन्द्र तथा समयसन्दर की कुछ 'चौपाई' नामक रचनाएँ दोहे-चौपाई छन्द में ही रचित है।
आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों की बड़ी रचनाओं में 'रास' के पश्चात् 'चौपाई' नामक रचनाएं ही अधिक संख्या में मिलती है। सभी रचनाओं में 'चौपाई' छन्द का निर्वाह नहीं हुआ है। जैसा कि स्पष्ट है मूलत: यह 'चौपाई' छन्द में रचित रचनाओं का ही नाम था; पर बाद में 'रामो' की भाँति प्रत्येक चरितकाव्य एवं वर्णनात्मक काव्य के लिए 'चौपाई संज्ञा रूढ़ हो गई। इन कवियों की इस प्रकार की प्राप्त रचनाएँ इस प्रकार है
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जैन-गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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आनन्दवर्द्धनमूरि : पवनाभ्यास चौपाई कल्याणदेव : देवराज-वच्छराज चौपाई कुशल लाभ : ढोला मारू चौपाई खेमचन्द : गुणमाला चीपाई जिनहर्प
: मृपिदता चौपाई भद्रसेन
: चन्दन मलयागिरि चौपाई मालदेव : पुरंदर कुमार चौपाई, देवदत चौपाई, तथा
वीरांगदा-चौपाई लक्ष्मीवल्लभ : नवतत्व चौपाई विनयचन्द्र : उत्तमकुमार चरित्र चौपाई विनय समुद्र मृगावती चौपाई समयसुन्दर
शांव प्रद्य म्न चौपाई, नल-दमयंती चौपाई, थाबच्चा चौपाई, चंपक श्रेप्ठि चौपाई, गौतम पृच्छा चौपाई, व्यवहार बुद्धि, वनदत्त चौपाई, द्रोपदी चौपाई तथा
सीताराम चौपाई साधुकीति : नेमिराजपि चौपाई ।
जैन-गुर्जर कवियों ने अनेक काव्य-रूपों का नामकरण किमी छन्द विशेष को लेकर किया है । यथा-छप्पय, सवैया, गजल, छन्द, दोहा आदि । किन्त विचार करने पर इनमें से अधिकांग इस प्रकार की रचनाएं छन्द की अपेक्षा स्वतंत्र काय.
प' से ही अधिक प्रसिद्ध है। कहीं कहीं तो चौपाई, छप्पय इत्यादि के छन्दगत नियमों का पालन भी दृष्टिगत नहीं होता। अतः यहाँ 'चौपाई' सामान्यः चतुष्पदी और 'छप्पय' पट्-पदी अर्थ में ही प्रयुक्त हुए है।
वेलि : वेलि-काव्य की परम्परा काफी पुरानी है । वेल, वेलि या वल्लरि संनाएं इसी अर्थ में प्रयुक्त हुई हैं । यह शब्द 'लता'१ 'द्रुम'२ आदि की भांति किमी नी रचना के साथ जोड़ा जा सकता है । इसका मूल उपनिपदों के अध्याय, जिन्हें वल्लभी कहा है, में खोजा जा सकता है । 'वल्लमी' अध्याय वाचक न रहकर कालातर में एक स्वतन्त्र विद्या का प्रतीक बन गया हो, यह अधिक संभव है।
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१. व्याकरण कल्प लता, विष्णु भक्ति कल्पलता, वनलता आदि । २. राग कल्पद्र म, कविकल्पद्म, अध्यात्म कल्पद्रुम आदि ।
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आलोचना-खंड
डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने छन्दों के आधार पर रखे गये कृतियों के नामों में 'वेल' को गिनाया है ।१ डा० मंजुलाल मजूमदार के मतानुसार 'वेलि' गब्द विवाह के अर्थ में प्रचलित है । 'वेलि' का दूसरा नाम 'विवाहवाची मंगल' भी है ।२ प्रो० हीरालाल कापड़िया के अनुसार 'वलि' का मुख्य विषय गुणगान है ।३ श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार 'वेलि' संज्ञा लता के अर्थ में लोकप्रिय हुई और अनेक कवियों ने उस नाम के आकर्षण से अपनी रचनाओं को 'वेलि' इस अन्त्यपद से संबोधित किया।"४
आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों की नी 'वेलि' नामक रचनाएं प्राप्त हैं । यथा
कनक सोम : जइतपद वेलि जयवंतसूरि : स्थूलीभद्र मोहन वेलि तथा नेमिराजुल
बारहमासा वेल प्रबन्ध जिनराजसूरि पार्श्वनाथ गुण वेलि वीरचन्द्र : जंबुस्वामी वेलि, तथा वाहुबलि वेलि यशोविजय
अमृतवेलिनी मोटी सज्झाय तथा अमृतवेलिनी
नानी सज्झाय समयसुन्दर : सोमजी निर्वाण वेलि
प्रो० मंजुलाल मजूमदार ने वेलि को "विवाह वर्णन' प्रधान काव्य माना है, पर इन कृतियों में यह लक्षण सर्वत्र नजर नहीं आता और न ये कृतियां किसी छन्द विशेष में ही रची गई है। इन 'वेलि' संजक कृतियों के मुख्य वर्ण्य विषय महापुरुषों का गुणगान. उपदेश तथा अध्यात्म रहे हैं । यह विविध छन्दों में रचित हैं। इनमें ढालों की प्रधानता है । गीत-शैली होते हुए भी प्रबंध-धारा की इनमें पूर्ण रक्षा हुई है । यह इसकी एक सामान्य विशेपता है ।
ढाल - चौढालिया : गाने की तर्ज या देशी को 'ढाल' कहते हैं । आलोच्य युगीन कवियों के रास, चौपाई, प्रबन्ध आदि रचनाओं में लोकगीतों को देशियां ढाल बद्ध हैं। बड़े रासादि ग्रंथों में अनेक ढालें प्रयुक्त हुई हैं। ऐसी छोटी रचनाएं जिनमें चार ढालों का निर्वाह हुआ हो उसे चौढालिया और छ: ढालों वाली रचना
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१. राजस्थानी भाषा और साहित्य (द्वितीय संस्करण) पृ० ६६ । २. गुजराती साहित्यनां स्वरूपो, पृ० ३७५ । १. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ६५; अंक २, पृ० ४५-५० ४. कल्पना, वर्ष ७, अंक ४, अप्रेल, १६५६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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को छढालिया कहा गया है । एक ढाल के अन्त में दोहा या छन्द का प्रयोग कर उसे पूर्ण किया जाता है और तदनन्तर दूसरी ढाल का आरम्भ किया जाता है। कुछ बड़ी रचनाओं में शताधिक ढालों का प्रयोग हुआ है।
चौढालिया नामक एक रचना समयसुन्दर की प्राप्त है । 'दानादि चौढालिया' दान-धर्म विषयक इनकी यह कृति सामान्यतः उल्लेखनीय है ।
प्रत्येक ढाल के आरम्भ में तर्ज या देशी की प्रारंभिक पंक्ति दे दी जाती है । इस प्रकार इन कवियों की ढाल-बद्ध रचनाओं में प्राचीन विमिन्न लोकगीतों का पता चलता है। गजल, छन्द; नीसाणी आदि :
__ गजल फारसी साहित्य का एक छन्द विशेप है। आरम्भ में उसमें केवल प्रेम-सम्बन्धी विषय ही समाविष्ट होते थे। गुजरात में फारसी साहित्य के प्रभाव से गजल-साहित्य-प्रकार आरम्भ हुआ। आज की गजलों में विपय वैविध्य है, मात्र प्रेम का सीमित क्षेत्र नहीं।
जैन कवियों ने भी गजलें लिखी हैं, पर न तो इसमें प्रेम की बात है और न फारसी के गजल-छन्द विशेष का निर्वाह है। जैन कवियों की गजल संजक रचनाओं में नगरों और स्थानों का वर्णन है। कवि जटमल की 'लाहोर गजल', राजस्थानी कवि खेता की 'चित्तड़ री गजल', दीपविजय की 'वड़ोदरानी गजल' आदि गजलें प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना एक विशेष प्रकार की शैली में हुई है। ऐसी गजल संजक रचनाओं में प्राकृतिक वर्णन, धार्मिक महत्ता तथा इतिहास का भी निरूपण हुआ है । संभवत: इस प्रकार के साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन तथा स्थलपरिचय कराना रहा होगा ।
आलोच्य युगीन कवियों में मात्र निहालचंद नामक कवि की नगर या स्थान वर्णनात्मक गजल 'बंगाल देश की गजल' प्राप्त है । इसमें मुर्शिदाबाद का वर्णन है।
छन्द, नीसाणी आदि भी रचना के विशेष प्रकार है। छन्द से तात्पर्य अक्षर या मात्रा मेल से बनी कविता है। ऐसे छन्दों में जैन कवियों ने विशेषत: देवीदेवताओं की स्तुति की है । इस प्रकार स्तुति में रचित छन्दों के लिए इन कवियों ने शलोक, पवाड़ा आदि संज्ञाएं भी दी है । कुछ कवियों ने ऐसी रचनाओं की संज्ञा छन्द ही रखी है। कभी-कभी विभिन्न छन्दों में रचित कृति को भी 'छन्द' संज्ञा से अभिहित किया जाता रहा है, उदाहरणार्थ हेमसागर की 'छन्दमालिका' ऐसी ही रचना है।
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बालोचना-बड
आलोच्ययुगीन जैन-गूर्जर कवियों की छन्द संज्ञक रचनाएं इस प्रकार है- . कुंवर कुगल भट्टारक : मातानु छन्द कुमुदचन्द
: भरत बाहुबलि छंद कुशल लाम
: नवकार छन्द गुण सागर सूरि : शांतिनाथ छंद लक्ष्मी वल्लभ : महावीर गौतम स्वामी छन्द तथा देशांतरी छन्द वादीचन्द्र
: भरत वाहुबलि छन्द शुभचन्द्र भट्टारक : महावीर छंद, विजयकीर्ति छंद, गुरु छंद, तथा
नेमिनाथ छंद हेमसागर
: छंद मालिका _ऐसी ही कुछ लघु रचनाओं की संज्ञा 'नीसाणी' है। कवि धर्मवर्द्धन ने ऐसी रचनाएं प्रस्तुत की हैं ।१ उनकी 'गुरु शिक्षा कथनं निसाणी', 'वैराग्य निसाणी', 'उपदेश नीसाणी' तथा जिनहर्प विरचित' पार्श्वनाथ नीसाणी' आदि उल्लेखनीय हैं । कुण्डलियाँ छप्पय दोहा सर्वया पिंगल आदि :
काव्य विशेष के नामकरण में कई प्रवृत्तियां काम करती हैं। वर्ण्यविषय, छन्द, गैली, चरित्र, घटना, स्थान अथवा किसी आकर्षक वृत्ति से प्रेरित हो कविगण अपनी-अपनी कृतियों को विविध संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। जैन कवियों ने छंद विशेप का नामकरण कर अपनी कविताएं रची हैं। इनमें से कुछ रचनाओं में छंदगत नियमों का पालन नहीं हुआ है, अतः ऐसी रचनाएं स्वतन्त्र काव्य-रूप के अंतर्गत रखी जा सकती हैं परन्तु आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों ने प्रायः छन्दगत नियमों का निर्वाह कर ही ऐसी छन्द विशेप संज्ञक रचनाएं हैं।
मात्रिक छंद कुण्डलियों का परिचय अपभ्रंश के छंद ग्रंथों में भी मिलता है । हिन्दी में गिरधर की कुण्डलियाँ प्रसिद्ध हैं। केशवदास ने 'रामचन्द्रिका' में तथा जटमल ने 'गोरा वादल कथा' में इस छंद का प्रयोग किया है। आलोच्य युगीन जैन कवियों की कुण्डलियाँ संजक रचनाएं अधिक नहीं। धर्मवर्द्धन कृत 'कुण्डलियाँ वावनी'२ एक मात्र उल्लेखनीय रचना है ।
'छप्पय' संजक काव्य लिखे जाने की परम्परा भी प्राचीन है। प्राकृत और अपभ्रंश में छप्पय छंद का प्रयोग होता आया है। हिन्दी के भी अनेक कवियों ने
१. धर्मवद्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ०६७-७० । २. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १७ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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इस छन्द का उपयोग किया है ।१ युद्ध आदि के वर्णनों के लिए यह छन्द अधिक उपयुक्त एवं लोकप्रिय रहा है।
इन कवियों ने इस छन्द का प्रयोग भक्ति, वैराग्य एवं उपदेशादि विषयों के लिए भी किया है। जिनहर्ष, समसुन्दर, धर्मवर्धन तथा भट्टारक महीचन्द्र ने 'छप्पय' संजक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। इनमें भी धर्मवर्धन की 'छप्पय वावनी' तथा भट्टारक महीचन्द्र की 'लवांकुश छप्पय' विशेष उल्लेखनीय रचनाएं हैं। प्रथम धर्म तथा उपदेश से सम्बन्धित है तथा दूसरी मूलतः शान्त रसात्मक कृति है। इसमें वीर रस के प्रसंग भी कम नहीं हैं।
इसी तरह 'दोहा' और 'सवैया' छन्द संज्ञक रचनाएँ भी प्राप्त हैं । ये छन्द जैन कवियों के प्रिय छन्द रहे हैं। दोहा लोक साहित्य का अत्यन्त सरल एवं लोकप्रिय छन्द है । प्राकृत एवं अपभ्रंश के अनेक ग्रंथों में इसका प्रयोग हुआ है । हिन्दी के भी प्रायः सभी प्रमुख कवियों द्वारा यह प्रयुक्त हुआ है। इस युग के जैन कवियों में समयसुन्दर, धर्मवर्धन, देवचन्द्र, यशोविजय, उदयराज, जिनहर्ष, लक्ष्मीवल्लभ, शुभचन्द्र भट्टारक आदि अनेक कवियों ने इस छन्द का प्रयोग किया है। 'दोहा' संज्ञक रचनाओं में उदयराज की 'उदयराज रा. दहा', लक्ष्मीवल्लभ की 'दोहा वावनी', शुभचन्द्र की 'तत्वसार दोहा' तथा जिनहर्ष की 'दोहा मातृका बावनी' आदि कृतियां विशेष उल्लेखनीय हैं।
विभिन्न प्रकार के सवैया छन्दों की रचना भी इन कवियों ने पर्याप्त मात्रा में की है। इनकी 'सवैया' संज्ञक रचनाओं में आनन्दवर्धन की "भक्तभर सवैया', केशवदास की 'शीतकार के सवैया', जिनहर्ष की 'नेमिनाथ राजमती बारहमासा सवैया', जिनसमुद्रसूरि की 'चौवीस जिनसवैया', धर्मवर्धन की 'चौवीस जिन सवैया' तथा लक्ष्मीवल्लम की 'सवैया वावनी' आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने इस लय मूलक छन्द में भक्ति, वैराग्य एवं विप्रलंभ-शृङ्गार की छन्द की प्रकृति के अनुरूप, उपयुक्त अभिव्यंजना की है।
व्रजभाषा पाठशाला के आचार्य कुंवरकुशल मट्टार्क की "पिंगल' संज्ञक दो रचनाएँ भी प्राप्त हैं। 'पिंगल' छन्दसूत्रों के रचियता आचार्य का नाम था ।२ बाद में छन्दसत्रों या छन्द-शास्त्र के आधार पर रचित ग्रंथों को 'पिंगल' कहा गया। "पिंगल' शब्द का प्रयोग ब्रजमापा के अर्थ में भी हुआ है। कुवर कुशल भट्टार्क के १. तुलनी (कवितावली), केशव (रामचन्द्रिका), भूषण (शिवराज भूषण आदि । २. हिन्दी साहित्य कोश, प्रधान संपा० डॉ० धीरेन्द्र वर्मा, पृ० ४५१ ।
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आलोचना-खंड
'लखपति पिंगल' (कवि रहस्य) तथा 'गौड़ पिंगल' ग्रंथ ब्रजभाषा में रचित छन्द-शास्त्र के मथ हैं। (२) राग और नृत्य की दृष्टि से
विवाहलो-मंगल : इस युग के कवियों के कुछ आल्यानक काव्यों में चरितनायकों के विवाह के मंगल प्रसंग के वर्णन मी मिलते हैं। इनमें तत्कालीन, विवाह संबंधी रीति-रिवाजों का अच्छा परिचय मिल जाता है। जैन कवियों ने विवाह प्रसंग का वर्णन करने वाले कुछ स्वतंत्र काव्य भी लिखे हैं । इस प्रकार के काव्य लिखने की परम्परा करीव १४वीं शताब्दी से प्राप्त होती है। जिनमें विवाह का वर्णन हो, ऐसी रचनाओं को 'विवाहला' संज्ञा दी गई है। जैन कवियों ने विवाह प्रसग को तत्वज्ञान की दृष्टि से समझाया है। जैन परिभाषा की दृष्टि से यह भाव-विवाह है। इन्होंने नेमिनाथ, ऋषभ आदि तीर्थंकरों और जैनाचार्यों का विवाह 'संयम श्री' के साथ करने के प्रसंग को लेकर 'विवाहले' रचे हैं। इस दृष्टि से ऐसे काव्य सुन्दर रूपक काव्य बन गये हैं। जैन साधु-जैनाचार्य आदि ब्रह्मचारी रहते थे, अत: उनके लौकिक विवाह का तो प्रश्न ही नहीं था। इनके द्वारा ग्रहण किये गए व्रत ही संयमश्री रूपी कन्या माने गये हैं और उसी के साथ इनके विवाह के वर्णन ऐसे काव्यों में गूथे गये हैं। ये आध्यात्मिक विवाह हैं। इस प्रकार के यह रूपक-विवाह जैन कवियों की अनोखी सूझ कही जा सकती है । '
__ आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों ने इस प्रकार के विवाह के प्रसंग अपनी अन्यान्य रचनाओं में अवश्य गूथे हैं पर 'विवाहला' संना से इनकी रचनाएं कम ही प्राप्त होती हैं। कवि कुमुदचन्द्र की एक मात्र कृति 'आदिनाथ (ऋषभ) विवाहलो' प्राप्त है, जो इसी प्रकार का आध्यात्मिक रूपक-काव्य है। इसमें कवि ने अपने आराध्य देव का दीक्षाकुमारी, संयमश्री अथवा मुक्तिवघू से वरण दिखाया है। इसमें ११ ढालों का सुनियोजन हुआ है। ऐसे विवाहले भक्ति भाव पूर्वक गाये तथा खेले भी जाते रहे हैं। संवत् १३३१ के पश्चात् रचित 'श्री जिनेश्वरसूरि वीवाहलां' में इसका उल्लेख भी मिलता है
'एहु वीवाहलउ जे पढ़इ, जे दियहि खेला खेली रंग भरे। ताह जिणेसर सूरि सुपसन्नु, इस मणइ भविय गणि 'सोम मुति' ॥३३॥'१
( अर्थात् इस विवाहला को पढ़ने वाले पर, लिखवा कर दान करने वाले पर तथा रस-रंग पूर्वक खेलने वाले पर गुरु प्रसन्न होते हैं । )
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३८३ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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- विवाह में गाये जाने वाले गीतों की संज्ञा 'मंगल' दी गई हैं। हिन्दी, राजस्थानी और बंगला में 'मंगल' संजक अनेक काव्य मिलते हैं, संभवतः वे इसी परम्परा की देन हैं। राजस्थानी काव्य ‘रुकमणी मंगल' अत्यन्त प्रसिद्ध लोक काव्य है । महाकवि तुलसी ने भी पार्वती मंगल, 'जानकी मंगल' आदि की रचनाएँ की हैं।
आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों की रचनाओं में 'मंगल' संज्ञक रचनाएँ भी अधिकतः प्राप्त नहीं होती। जिनहर्ष की 'मंगल गीत' एक रचना प्राप्त है । इसमें सिद्धों, अरिहन्तों तथा मुनिवरों की मंगल स्तुति की गई है। इस दृष्टि से समय सुन्दर की भी 'चार मंगल गीतम्' 'मंगल गीत रचनाएँ उल्लेखनीय हैं ।१ प्रभाति, रागमाला आदि
प्रातःकाल गाए जाने वाले गीतों को 'प्रभाति' संना दी गई है। ऐसी रचनाओं में साधुकीर्ति की 'प्रभाति' उल्लेखनीय है ।
'रागमाला' संजक रचनाओं में विभिन्न राग-रागनियों के नामों को सुग्रथित किया गया है। आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों की रचनाओं में 'रागमाला' नामक दो कृतियों का उल्लेख किया गया है। प्रथम कुवर कुशल भट्टार्क की 'रागमाला' तथा दूसरी साधुकीति की 'रागमाला'। ऐसी रचनाओं में इन कवियों का संगीतशास्त्र का गहन ज्ञान एवं संगीत प्रेम स्पष्ट दृष्टिगत होता है। कुवरकुशल रचित 'रागमाला' में तो उनका संगीत-शास्त्र का आचार्यत्व भी सिद्ध हो गया है । देवविजय रचित "भक्तामर रागमाला काव्य' भी एक ऐसी कृति है।
कुछ रचनाएं 'बधाया', 'गहूंली' आदि नाम से भी मिलती हैं। आचार्यों के आगमन पर बधाई रूप में गाये गीत 'बधावा' हैं तथा आचार्यों के स्वागत के समय उनके सम्मुख चावल के स्वस्तिक आदि की 'गहूंली' करते समय तथा उनके गुणादि के वर्णन में गाये गीतों की संज्ञा 'गहूँली' है। कवि धर्मवर्धन ने इस प्रकार की रचनाएँ अधिक की हैं। उनकी 'जिनचन्द्रसूरि गहुंली', 'जिनसुखसूरि गहुँली' तथा 'पार्श्वनाथ बधावा' आदि कृतियां इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं ।२ (३) धर्म-उपदेश आदि की दृष्टि से
पूजा : 'जैनागम रायपसेणीय सूत्र' में सत्रह प्रकार की पूजनविधि का वर्णन मिलता है। इस प्रकार की पूजा के लिए संस्कृत श्लोक रचे जाते थे । धीरे-धीरे ये १. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संगा० अगरचन्द नाहटा; पृ० ४८१-८२ । २. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा; पृ० २०६; २४१ तथा २५० ।
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आलोचना-खंड
पूजाएं लोकभाषा में भी रची जाने लगी। जैनों में अष्ठ प्रकार की पूजा का भी बड़ा महत्व रहा है । जन्माभिषेक विधि, स्नात्र विधि आदि इन्हीं पूजा विधियों में सम्मिलित हैं।
आलोच्य युगीन जन-गूर्जर कवियों में इस प्रकार की 'पूजा' संज क रचना करने वालों में साधुकीर्ति, ब्रह्मजयसागर, जिनहर्प आदि कवि उल्लेखनीय है । साधकीति की 'सतर भेदी पूजा' इस प्रकार की रचनाओं में महत्वपूर्ण कृति है। कवि धर्मवर्द्धन की 'सतरह भेदी पूजा स्तवन' कृति में भी सत्रह प्रकार की पूजाविधि का विवरण है।
___ सलोक : इसका मूल संस्कृत शब्द 'श्लोक' है । प्राकृत में 'सलोका' शब्दविवाह मंडप में लग्नविधि के समय वरकन्या के उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में कही गई काव्यात्मक पंक्तियों के अर्थ में प्रयुक्त है। १ गुजरात के उत्तरी भाग तथा राजस्थान में भी विवाह प्रसंग में वरातियों एवं कन्यापक्ष के लोगों के बीच सिलोके कहे जाने की प्रथा रही है। धीरे धीरे यह प्रथा मन्दिर में देवी-देवताओं के वर्णन रूप में भी प्रयुक्त होने लगी।
कवि जिनहर्ष प्रणीत 'आदिनाथ सलोको'२ ऐसी ही रचनाओं का प्रतिनिधित्व करती है । इन कवियों द्वारा रचित इस प्रकार की अन्य रचनाएं प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार के गुजराती तथा राजस्थानी भाषा में रचित 'सलोको' का विस्तृत विवरण श्री अगरचन्द नाहटा तथा प्रो० हीरालाल कापड़िया ने दिया है ।३ इसमें जिनहर्प द्वारा रचे गये एक और सलोक 'नेमिनाथ सलोको' का भी उल्लेख हुआ है। इनमें देवी देवताओं एवं वीरों के गुण वर्णन की ही प्रधानता होती है, काव्य-शिल्प अथवा छन्दों का इतना विचार नहीं किया जाता। वंदना, स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, गीत, सज्झाय, विनती पद, नाम माला आदि
इन विभिन्न संज्ञापरक कृतियों में तीर्थकरों तथा महापुरुषों के गुणों का वर्णन मुख्य है । साथ ही उपदेश तथा धर्मप्रचार की भावना भी स्पष्टतः परिलक्षित होती है।
वंदना स्तुति, स्तवन, स्तोत्र तथा गीत संज्ञक रचनाएं स्तुति प्रधान है। ऐसी अधिकांश स्तुतिपरक रचनाएं चार पद्यों वाली हैं । आलोच्य युगीन जैन गूर्जर
१. गुजराती साहित्यनां स्वरूपो, प्रो० मं० २० मजूमदार, पृ० १३२ । २. जिनहर्प थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १६६ । ३. 'जैन सत्य प्रकाश' के अंक श्री नाहटाजी तथा कापड़िया के लेख ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवियों में प्रायः सभी ने इस प्रकार की स्तुति परक मुक्तक रचनाएं लिखी हैं । ऐसे प्रमुख स्तुतिकार एवं गीतकार कवियों में समयसुन्दर, कनककीर्ति, शुभचन्द्र, हेमविजय, मेघराज, सुमतिसागर, आनन्दवर्द्धन, जिनहर्ष, विनयचन्द्र, ज्ञानविमलसूरि कुमुदचन्द्र, जिनराजसूरि, ब्रह्मजयसागर भट्टारक सकलभूषण, भट्टारक रत्नचन्द्र आदि विशेष उल्लेखनीय हैं । इनके असंख्य स्तुतिपरक गीत प्राप्त हैं । गेय पदों की विज्ञप्ति गीत है ।
जैन साधुओं के गुण वर्णन तथा उनकी प्रेरणा- भावसे अभिभूत गीत रचनाओं की संज्ञा 'स्वाध्याय' या 'सज्झाय' है । 'सज्झाय' संज्ञक रचनाओं में कनककीति की 'भरतचक्री सज्झाय' यशोविजय जी की 'अमृतवेलनी नानी सज्झाय' तथा 'मोटी सृज्झाय' विनयचंद्र' को 'ग्यारह अंग सज्झाय' ज्ञानविमलसूरि की 'सज्झाय' आदि उल्लेखनीय कृतियां है |
विनयप्रधान रचनाओं को विनती कहा कुमुदचन्द्र की विनतियां, तथा सुमतिकीर्ति की की रचनाओं में आती हैं ।
गया है । कनककीति की 'विनती' 'जिनवर स्वामी विनती' इसी प्रकार
आध्यात्मिक गीतों की संज्ञा पद है । ये पद विभिन्न राग-रागनियों में रचित है | महात्मा आनंदघन, यशोविजय, विनयविजय, ज्ञानानन्द, भट्टारक शुभचन्द्र, रत्नकीर्ति, कुमुदचन्द, समयसुन्दर, धर्मवर्द्धन आदि का पद साहित्य अत्यन्त समृद्ध एवं लोकप्रिय रहा है । आलोच्य युगीन कवियों में अधिकांश कवियों ने पद गीत तथा स्तुति परक रचनाओं के निर्माण में बड़ी रुचि दिखलाई हैं । इन मुक्तक रचनाओं में इन कवियों की भक्ति, उपदेश, धर्म तथा वैराग्य विषयक सुन्दर भावाभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं । इन कवियों की कविता की श्री समृद्धि का आधार मूलतः यही रचनायें हैं
(४) संख्या की दृष्टि से :
अष्टक, वीसी, चोवीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, बावनी, बहोत्तरी, शतक आदि रचनाओं का नामाभिधान पद्यों की संख्या के आधार पर हुआ है । इनमें ज्ञान, भक्ति, उपदेश, योग, ईश्वर, प्रेम, स्तुति स्तवन, उलट वासियां, आध्यात्मिक रूपक आदि से सम्बन्धित विविध भावों एवं मनःस्थितियों का निरूपण है ।
अष्टक और अष्टपदी रचनाएं आठ पद्यों की सूचक हैं | यशोविजय जी द्वारा प्रणीत 'आनंदघनं अष्टपदी' विशेष प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है । समयसुन्दर ने भी इस प्रकार की अच्छी रचनाएं की है। उनकी रचनाओं में 'श्री गोतमस्वामी अष्टक' १
१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३४३ ॥
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बालोचना-खंड
'युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूर्यष्टकम् १ तथा 'श्री जिनसिंहमूरि सवैयाष्टक'२ उब्लेन्यनीय हैं।
वीसी तथा चौवीसी संजक रचनाओं में वीस विहरमानों के स्वप्नों तथा चौवीस तीर्थंकरों की स्तुतियां संगृहीत हैं। इस प्रकार की कृतियां जैन परम्परा की विशेपता कही जा सकती है। समसुन्दर, जिनहर्प, जिनराजसरि, विनयचन्द्र, कल्याणसागरसूरि, केशरकुशल; न्यायसागर आदि कवियों ने 'वीसी' नामक रचनाओं का सर्जन किया है।
___ अधिकांश प्रमुख कवियों ने चौवीसी संज्ञक कृतियों का निर्माण भी किया है । चौवीसी संज्ञक कृतिकारों में आनन्दवर्धन, आनन्दघन; जदयराज, ऋषमसागर, गुणविलास, जिनहर्ष, धर्मवर्धन, न्यायसागर, लक्ष्मीवल्लभ, लावण्यविजय गणि, वृद्धिविजय, समयसुन्दर, हंसरत्न आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें समयसुन्दर, जिनहर्ष आदि कवियों ने तो एक से अधिक चौवीसी रचनाओं का निर्माण किया है। इस प्रकार करीब १५ चौवीसियों का उल्लेख प्राप्त है।
____बत्तीसी संज्ञक रचनाओं में कहीं ३२ तथा किसी में कुछ अधिक पद्य भी हैं। भक्ति, उपदेश, और अध्यात्म से सम्बन्धित कुल चार बत्तीसियों का उल्लेख प्रस्तुत प्रबन्ध में हुआ है, जो निम्नानुसार हैं
वालचन्द : वालचन्द बत्तीसी। मानमुनि : संयोग बत्तीसी।। लक्ष्मीवल्लभ : उपदेश बत्तीसी तथा चेतन बत्तीसी ।
कवि समयसुन्दर रचित 'छत्तीसी' संज्ञक कुल ७ रचनाएं प्राप्त हैं। धर्म, उपदेश, भक्ति, अध्यात्म आदि के अतिरिक्त इनमें तत्कालीन समाज का दर्शन तथा ऐतिहासिक वृत्त भी प्रसंगतः आ गये हैं । ऐसी रचनाओं में 'सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी' विशेष महत्व की है। इनकी तथा अन्य कवियों की प्राप्त छत्तीसियां इस प्रकार हैसमयसुन्दर
सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी, प्रस्ताव सर्वया छत्तीसी, क्षमा छत्तीसी, कर्म छत्तीसी, पुण्य छत्तीसी,
संतोष छत्तीसी तथा आलोचणा छत्तीसी । जिनहर्ष
उपदेश छत्तीसी तथा दोधक छत्तीसी । १. वही, पृ० २६१-६२.। २. वही, पृ० ३६० ।
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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
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उदयराज
:
भजन छत्तीसी ।
'बावना' संज्ञक रचनाएं विशेष महत्वपूर्ण है । इन्हें 'कक्क', मातृका आदि भी कहा गया है । 'कक्को' गुजराती साहित्य का प्राचीन एवं समृद्ध साहित्य प्रकार रहा है | हिन्दी में इसे अखरावट भी कहते है | अपभ्रंश काल से ही ऐसी रचनाओं का प्रारम्भ होता है। तेरहवीं-चौदहवीं शती की ऐसी कुछ रचनाए-'शालिभद्र कक्क', 'हा मातृका', 'मातृका चाउपई', आदि 'प्राचीन गूर्जर काव्य संग्रह' में प्रकाशित है | १ इन्हें बावनी के पूर्व रूप भी कह सकते हैं । १६ वीं गती से ऐसी ऐसी रचनाओं के लिए 'बावनी' संज्ञा व्यवहृत हुई है। इनमें वर्णमाला के ५२ वर्णों के प्रत्येक वर्ण ने प्रारम्भ करके प्रासंगिक पद्य ५२ या उससे कुछ अधिक भी रचे जाते हैं । काव्य की मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए भी संभवतः इन कवियों ने अपने मुक्तकों में इस वन्धन को स्वीकार किया हो । जैन कवि तो अपने साहित्य के मौलिक स्वरूप के संरक्षण में अधिक सजग रहे है ।
हिन्दी, राजस्थानी तथा गुजराती भाषाओं में जैन कविओं द्वारा रचित अनेक बावनियां प्राप्त हैं। हिन्दी में बावनियों की मुदीर्घ परम्परा का उल्लेख डॉ० अम्नाशंकर नागर ने अपने ग्रन्थ 'गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रन्थ' में किया है | २ वर्ण और व्यंजन के ५१ अक्षर हैं। इन अक्षरों का क्रम इस प्रकार रखा गया है-ओं (न मो सिद्ध) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, क, ख, ग, घ, उ., च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, ग, प, स, ह, क्ष |
१७वीं एवं १८वीं शती में यह काव्यरूप अत्यधिक लोकप्रिय रहा है | अक्षर को ब्रह्मरूप मानकर, प्रायः सभी ने अपनी अपनी वावनियों में प्रथम छन्द 'ओं' से प्रारम्भ किया है । विशेषतः जैन कवियों की वावनियों में मंगलाचरण का सूत्र 'ॐ नमः सिद्धम्' रहा है । धार्मिक एवं नैतिक उपदेश देने के लिए जैनों में इस प्रकार की रचनाओं का विशेष प्रचलन था । छन्द विशेष में रची होने से इनके नाम - 'दोहा बावनी', 'कुण्डलिया वावती', 'छप्पय वावनी' आदि रखे गये हैं । विषय के अनुसार रचित रचनाओं के नाम, 'धर्म बावनी', 'गुण बावनी', 'वैराग्य बावनी', आध्यात्म बावनी' आदि मिलते हैं । 'वावनी' संज्ञक प्राप्त रचनाएँ इस प्रकार है ।
उदयराज
: गुण बावनी ।
१. प्राचीन गूर्जर काव्य संग्रह, गायकवाड़ प्राच्य ग्रन्थमाला, अङ्क १३, १९२० । २. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रन्थ, डॉ० अम्वाशंकर नागर, पृ० ४१
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आलोचना-दंड
किशनदास : उपदेश बावनी। केशवदास
केशवदास बावनी। जिनहर्ष
जसराज वावनी तथा दोहा मातृका वावनी । लक्ष्मीवल्लभ : दोहा वावनी तथा सवैया वावनी । धर्मवर्धन
धर्म वावनी, कुण्डलिया वावनी तथा छप्पय वावनी । निहालचन्द : ब्रह्म वावनी । लालचन्द
वैराग्य बावनी। श्रीसार : सार बावनी। हीरानन्द : अध्यात्म बावनी। हंसराज
जान बावनी। वहोत्तरी और शतक संज्ञक रचनाएँ भी इन कवियों ने लिखी हैं । इस दृष्टि से आनन्दघन की 'आनन्दघन वहोत्तरी', जिनहर्ष की नंद वहोत्तरी', यशोविजय की 'समाधि शतक' तथा 'समताशतक' और दयासागर की 'मदन शतक' आदि कृतियां उल्लेखनीय है। (५) पर्व, ऋतु, मास आदि की दृष्टि से फाग या फागु :
रास काव्य-रूप की भांति ही फागु भी बड़ा महत्वपूर्ण एवं बहु चचित काव्यरूप है । इसे रास का ही दूसरा साहित्यिक रूप कहा जा सकता है। रास को महाकाव्य की कोटि में रखें तो फागु को खण्डकाव्य या गीतिकाव्य की कोटि में रखा जा सकता है।
___ फाग या फागु के लिए संस्कृत का मूल शब्द 'फल्गु' है, प्राकृत में फग्गु, गुजराती में फागु तथा ब्रज एवं हिन्दी में फगुवा या फाग शब्द व्यवहृत हुआ । संस्कृत के ऋतु काव्यों की तरह इनमें भी ऋतुवर्णन की प्रधानता है। फाल्गुन और चैत्र महीनों में अनंग पूजा, वसन्त महोत्सव आदि के अर्थ रचित स्वागत गीत, उल्लास चित्रण तथा आह लादकारी गान ही फागु हैं। इनमें जीवन की ऊष्मा है, उत्साह का उन्मेष है।
__ संस्कृत के पश्चात् अपभ्रंश के रास युग में फागु की परम्परा का प्रारम्भ माना जा सकता है । यही कारण है कि रास और फागु की शिल्पगत विशेषाएं लगभग समान-सी लगती हैं। काव्यान्तर में यह राम से छोटा होता गया, और अधिक कलात्मक एवं कोमल रूप ग्रहण करता गया। निश्चय ही फागु काव्य गेय रूपक है,
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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जो आज भी राजस्थान और गुजरात में गाया तथा खेला जाता है । अधिकांशतः जैन कवियों द्वारा फागु-काव्यों की रचना हुई है, अतः कई फागु शृङ्गार शून्य भी हैं । ये गान्त रस प्रधान हैं। स्थूलिभद्र और नेमिनाथ से सम्बन्धित फागुओं में शृङ्गार के दोनों पक्षों का तथा वासन्तिक सुषमा का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
फागु काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए श्री अगरचन्द नाहटा ने लिखा है-'वसन्त ऋतु का प्रधान उत्सव फाल्गुन महीने में होता है। उस समय नरनारी मिलकर एक दूसरे पर अवीर आदि डालते हैं और जल की पिचकारियों से क्रीड़ा करते अर्थात् फागु खेलते हैं। जिनमें वसन्त ऋतु के उल्लास का कुछ वर्णन हो या जो वसन्त ऋतु में गाई जाती हो, ऐसी रचनाओं को फागु संज्ञा दी गई है ।१
निश्चय ही 'फागु' मधुमास की आल्हादकारी गेय रचनाएँ हैं। उनमें शृङ्गार के साथ शम का भी सफल समन्वय हुआ है। ऋतु-वर्णन के साथ नायिका का विरहवर्णन भी आता है। इस प्रकार विप्रलंभ शृङ्गार वर्णन में भी फागु काव्य की रचना होती रही है । नायिका के वियोग के पश्चात् नायक से उसका पुर्नामलन कम उल्लास का सूचक नहीं था। गूर्जर-जैन कवियों ने नेमि-राजुल और स्थूलीभद्र-कोश्या को नायक-नायिका का रूप देकर अनेक फागु काव्यों की रचना की है। ये फागु काव्य रस एवं भापा शैलो की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। इन रचनाओं में जीवन का स्वाभाविक और यथार्थ चित्रण हुआ है । शृङ्गार वर्णन में सीमा का उल्लंघन नहीं हुआ है । इनमें अश्लीलता की ओर जाने वाली लोक रुचि को धर्म, भक्ति एवं ज्ञान की और प्रवाहित करने का पूरा प्रयत्न किया गया है ।
आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों द्वारा प्रणीत 'फागु' इस प्रकार हैंमालदेव : 'स्थूलिभद्र फाग' । भट्टारक रत्नकोति : 'नेमिनाथ फाग' लक्ष्मीवल्लभ : 'आध्यात्म फाग' । वीरचन्द्र : 'वीर विलास फाग' । समयसुन्दर : 'नेमिनाय फाग'२ तथा 'नेमिनाथ फाग'३ । कनक सोम : 'नेमि फागु'४ ।
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१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४; सं० २०११, पृ० ४२३ । श्री
नाहटा जी का लेख, प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संज्ञाएं। २-३. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ११७-११६ । ४. प्राचीन फागु संग्रह, डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, म० स० विश्वविद्यालय,
बड़ीदा।
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आलोचना-खंड
जयवंतसूरि : 'स्थूलिभद्र प्रेमविलास फागु'४ धमाल, होरी :
धमाल और होरी भी इसी प्रसंग से संबंधित रचनाएं हैं। फागु और धमाल के छन्द एवं रागिनी में संभवतः अन्तर हो सकता है पर ये दोनों नाम होली के आस पास गाई जाने वाली गेय रचनाओं के लिए प्रयुक्त हुए हैं। डफ और चंगों पर गाए जाने वाले भजनों की संज्ञा 'होरी' है। धमाल संजक रचनाएं १६वीं, १७वीं शती से मिलने लगती है। दिगम्बर कवियों की रचनाओं में अपभ्रंश प्रयोग 'ढमाल' मिलता है।
कहीं कहीं धमाल और फागु संज्ञा एक ही रचना के लिए भी प्रयुक्त हुई है। जैसे-मालदेव के स्थूलिभद्र धमाल' के लिए कहीं 'स्थूलिभद्र फाग' भी लिखा गया है। 'धमाल' काव्य छोटे और बड़े-दोनों प्रकार के प्राप्त होते हैं। 'होरी' अत्यल्प हैं । यगोविजय जी विरचित एक 'होरी गीत'२ अवश्य देखने में आया है । 'होरी' गीत १९वीं एवं २०वीं शती में अधिक मिलते है। बम्बई के जैन पुस्तक प्रकाशक 'भीमसी माणेक' ने होरी संजक पदों एवं गीतों का एक संग्रह प्रकाशित किया है। समयसुन्दर तथा जिनहर्प प्रणीत, नेमिनाथ और स्थूलीभद्र से संबंधित मुक्तक गीतों में कुछ गीत 'होली गीत' की ही कोटि में गिने जा सकते है ।
नन्ददास, गोविन्ददास आदि अष्ट छाप के कवियों ने होली के पदों की रचना 'धमार' नाम से की है। लोकसाहित्य के अन्तर्गत भी 'धमाल' और 'होरी' गीतों का बड़ा महत्व है । आलोच्य युगीत जैन गूर्जर कवियों की 'धमाल' रचनाएं इस प्रकार है
अभयचन्द : वासुपूज्यनी धमाल मालदेव : राजुल-नेमिनाथ धमाल कनक सोम : आषाढ भूती धमाल, तथा
आर्द्र कुमार धमाल३ धर्मवर्द्धन : वसन्त धमाल४
मालदेव की 'स्थूलिभद्र धमाल' का उल्लेख फागु के अन्तर्गत किया जा चुका है। १. अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर । २. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम माग, यशोविजयजी, पृ० १७७ । ३. ४. इनकी मूल प्रतियां-अभय जैन ग्रंथालय. बीकानेर में सुरक्षित हैं ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वारहमासा :
वारहमासों की परंपरा भी पर्याप्त प्राचीन है। संस्कृत और प्राकृत में षड्ऋतु वर्णन के रूप में इसकी परंपरा देख सकते हैं। अपभ्रंश में तो अनेक 'वारहमासा' रचनाएं लिखी गई हैं । 'वीसलदेव-रासो' तथा 'नेमिनाथ-चतुष्पदिका' प्रारम्भिक वारहमासा काव्य हैं।
यह ऋतु काव्य का ही एक प्रकार है, जिसमें बारह महीनों के ऋतु-परिवर्तन एवं विरह भाव को अभिव्यक्त किया जाता है। अपने चिर परिचत नायक-नायिका को सवोधित कर वारहमासों के आहार-विहार, खानपान, उत्सव, प्रकृति आदि के वर्णन इसमें गूथ जाते हैं। फागु की तरह यह भी गेय काव्य-प्रकार है। इसे लोक काव्य का ही एक प्रकार कहा जा सकता है।
गुजराती, हिन्दी और राजस्थानी में १६वीं, १७वी, शती से बारहमासे मिलते है । १७वीं, १८वीं, तथा १९वीं शती में वारहमासे खूब लिखे गये । इन सब का प्रधान विषय नायिका का पति वियोग में विरह - दुःख का अनुभव करना और उसे अभिव्यक्त करना है । अधिकांश बारहमासे २२वें तीर्थकर नेमीनाथ और राजमती से संबंधित हैं । कुछ ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, स्थूलिभद्र, आदि के सम्बन्ध में भी रचे गये हैं।
बारहमासा वर्ष के किसी भी महीने से प्रारम्भ हो जाता। सामान्यतः पति के वियोग के पश्चात् ही इसका प्रारम्भ महीने को लेकर किया जाता है। किसी ने आषाढ़ तो किसी ने मिगसर या फाल्गुन से ही वर्णन आरम्भ कर दिया है। साधारणतः प्रत्येक महीने का वर्णन होने से इसमें १५ से २० पद्य होते हैं । पर कई बारहमासे बड़े भी हैं, जिनकी पद्य संख्या ५० से १०० तक जाती है।
ऋतु वर्णन एवं विरह वर्णन की दृष्टि से इन बारहमासों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । इनमें आश्रयभूता कोई विरहिणी नायिका बारह-महीनों की चित्र विचित्र प्रकृतिगत अनेक उद्दीपनों से व्यथित होकर आलंवनभूत किसी नायक के सम्बन्ध में अपनी व्यथित दशा का वर्णन करती है। जहां आलम्बन के प्रति माश्रय का कोई संदेश रहता है, वहां विप्रलंम की अनेक अवस्थाओं का वर्णन भी दिया जाता है। इस प्रकार के बारहमासों का मुख्य रस शृगार है। वर्ष के अन्त में नायक नायिक का मिलन बताया जाता है। इस प्रकार विप्रलंभ के साथ संयोग शृंगार का भी निरूपण हो जाता है । ऋतु एवं विप्रलंभ शृंगार-प्रधान गीति-काव्य के ही रूप में बारहमासों का महत्व है, यद्यपि कुछ बारहमासों में उपदेश देने का भी प्रयत्न किया गया है।
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आलोचना खंड
आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों द्वारा प्रणीत बारह मासों की सूची इस प्रकार है
कुमुदचन्द : नेमिनाथ बारहमासा जिनहर्ष : नेमि वारहमासा, नेमिराजमति वारहमासा,
श्री स्थूलिभद्र बारहमासा१, तथा पार्श्वनाथ बारहमासार धर्मवर्द्धन : बारहमासा भ० रत्नकीति : नमिनाथ वारहमासा लक्ष्मीवल्लभ : नेमिराजुल बारहमासा लालविजय : नेमिनाथ द्वादस मास विनयचन्द्र : नेमि-राजुल वारहमासा तथा स्थूलिभद्र वारहमाम जयवन्तसूरि : नेमिराजुल वारमास बेल प्रवन्ध
इसी प्रकार चार मास का वर्णन करने वाले काव्यों की संज्ञा 'चौमासा' है। ऐसे चौमासा काव्य कवि समयसुन्दर ने विशेष रूप से लिखे है ।३ कवि जिनहर्प का भी एक 'चउमासा' काव्य प्राप्त होता है ।४ (६) कथा प्रवन्ध की दृष्टि से :
प्रवन्ध, चरित्र, आख्यान, कथा आदि में चरित्र, आख्यान तथा कथा संजाएं प्रायः एकार्थवाची हैं। और जिसके सम्बन्ध में लिखा गया हो उसके नाम के आगे 'सम्बध' या प्रवन्ध' नामाभिधान कर दिया गया है।
'प्रबन्ध' ऐतिहासिक तथा चरित्र प्रधान आख्यान काव्य की संज्ञा है । मालदेव का 'भोज प्रवन्ध' इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। बाद मे कुछ कवियो ने कथाकाव्य के लिए तथा कुछ ने किसी विषय पर क्रमवद्ध विचारों के लिए या ऐसे ग्रथों के पद्यानुवादों के लिए भी 'प्रबन्ध' संज्ञा दी है । लक्ष्मीवल्लभ का 'काल ज्ञान प्रबंध' वैद्यक विषय पर लिखा ऐसा ही पद्यानुवाद है । प्रवन्ध सजक रचनाएं इस प्रकार है
उदयराज : वैध विरहणी प्रबन्ध जयवन्तरि : नेमि राजुल वारमास वेल प्रबन्ध दयाशील : चन्द्र सेन चन्द्रद्योत नाटकीया प्रबन्ध
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१. २. जिनहर्प नथवली में प्रकागित; संपा० अगरदन्द नाहटा, पृ० ३८२,३०७ ३. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३०५ । ४. जिनहर्प थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३८६ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
३०६ .
मालदेव : भोज प्रबन्ध लक्ष्मीवल्लभ : कालज्ञान प्रवन्ध समयसुन्दर : केशी प्रदेशी प्रवन्ध
प्रवन्ध काव्य का ही एक विशेष रूप या प्रकार "चरित" काव्य है। इसमें प्रबन्ध काव्य, कथाकाव्य तथा पुराण तीनों के तत्वों का समावेश होता है। यही कारण है कि कभी कभी ऐसे चरित काव्यों के लिए 'चरित', 'कथा' या 'पुराण' संना व्यवहृत हुई है । इस सब का सम्बन्ध मूल तो प्रवन्ध काव्य से ही है । चरितकाव्य में जीवन चरित की शैली होती है । उसमें ऐतिहासिक ढंग से नायक के पूर्वज, माता-पिता, वंश, पूर्वभवों का वृत्तांत तथा देश-नगरादि का वर्णन होता है। ये कथात्मक अधिक तथा वर्णनात्मक कम होते हैं । व्यर्थ के वस्तु-वर्णन या प्रकृति-वर्णन में बहुत कम उलझने का प्रयत्न होता है। इनमें प्रायः प्रेम, वीरता, धर्म या वैराग्य भावना का समन्वय स्पष्ट दिखाई पड़ता है। प्रेमनिरूपण, नायक-नायिकाओं के मार्ग ' की बाधाएं, अन्त में मिलन या किसी प्रेरणा या उपदेश से विरक्त साधु बनने आदि के प्रसंग सामान्य हैं । 'चरित्र' के रूप में दो रचनाएं प्राप्त है
"ब्रह्मरायमल : प्रद्युम्न चरित्र विनय समुद्र : पद्म चरित्र आख्यान, कथा; वार्ता आदि
ऐतिहासिक या पौराणिक कथा के लिए आख्यान' संजा का प्रयोग हुआ है । इसमें मुख्यतः पौराणिक प्रसंगों का साभिनय कथा गान होता है । रास से इसी साम्य को लेकर कुछ विद्वान जैन रासो को भी 'आख्यान' की कोटि में रखते हैं ।१ १७वीं एवं १८वीं शती के रास और आख्यान को कथा-काव्य की ही कोटि में रख सकते हैं। धर्मप्रचार के हेतु ही इनका उद्भव होता है। दोनों का संबंध जनसमुदाय से है। अन्तर इतना है कि रास अनेक, साथ-मिलकर गाते हैं जबकि आख्यान एक ही व्यक्ति गाता है। श्री के० का० शास्त्री आख्यान का मूल रास साहित्य में बताते हैं ।२ वस्तु भले एक हो फिर भी निरूपण शैली की दृष्टि से ये दोनों दो विभिन्न काव्य-रूप हैं। आख्यान-परम्परा का विकास जैनेतर कवियों के हाथों खूब हुआ। कुछ जैन कवियों ने भी आख्यानों की रचना की है।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने आख्यान और उपाख्यान का भेद बताते हुए कहा है, 'प्रबंधमध्ये परबोधनार्थ नलाधुपारख्यान भिवोपारख्यानमभिनयन पठन् गायन यदे १. शांतिलाल साराभाई ओझा, साहित्य प्रकार, प्रेमानन्द अंक, पृ० २२७ । २. आपणा कविओ, पृ० ३८१ ।
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आलोचना-खंड
को गन्थिकः कथयति तद् गोविन्द वदाख्यानम्' इस दृष्टि से रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों में दृष्टांत रूप या उपदेशार्थ आई हरिश्चन्द्र नल आदि की प्रासंगिक कथाएं उपाख्यान हैं । और इन्हीं उपाख्यानों को गाकर साभिनय प्रस्तुत किया जाता है तो ये आख्यान कहे जाते हैं । साहित्य दर्पण कार ने इसकी परिभाषा करते हुए बताया है—'आख्यानं पूर्ववृत्तोतिः' अर्थात् पूर्व घटित वृत्त का कथन आख्यान है। प्रायः यह शब्द प्राचीन कथानक या वृत्तान्त के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसका व्यापक अर्थ कहानी, कथा आख्यायिका आदि हो सकता है पर यह अपने सीमित अर्थ में ऐतिहासिक कथानक या पूर्ववृत्त-कथन के अर्थ को ही अधिक व्यक्त करता है । जैन गूर्जर कवियों द्वारा प्रणीत ऐसे दो आख्यान प्राप्त हैं
चन्द्रकीति : जयकुमार आख्यान वादीचन्द्र : श्रीपाल आख्यान
कथा और चरित्र प्रायः एकार्थवाची हैं। आचार्य शुक्ल जी ने इतिवृत्तात्मक प्रवन्ध काव्यों को कथा कहा है और उसे काव्य से भिन्न माना है ।१ वस्तुतः कथा काव्य श्रव्य प्रवन्ध है जिसमें इतिवृत्तात्मकता के साथ रसात्मकता एवं अलंकरण का भी निर्वाह होता है। इनमें लोक विश्वास तथा कथानक रूढ़ियों की भरमार होती है । अतिशयोक्तिपूर्ण, अविश्वसनीय, अमानवीय चमत्कारपूर्ण चित्रण आदि की वहुलता से बौद्धिक ऊंचाई एवं भावभूमि की व्यापकता नहीं आ पाई है फिर भी उप'देश तथा धर्म भावना पर आधारित इन कृतियों का अपना महत्व है, जिनमें रसात्मकता, भावव्यंजना और अलंकृति के भी दर्शन अवश्य होते हैं ।
__ आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों द्वारा रचित 'कथा' संजक रचनाएं इस प्रकार हैं
देवेन्द्रकीति शिष्य : आदित्यवार कथा ब्रह्म रायमल : हनुमन्त कथा तथा भविप्यदत कथा भट्टारक महीचन्द्र : आदित्यव्रत कथा मालदेव : विक्रम चरित्र पंच दंड कथा वादीचन्द्र : अम्बिका कथा वीरचन्द्र : चित्त निरोध कथा
'वार्ता' भी लोकशिक्षण के प्रचार की प्राचीन परंपरा है । वेद-काल से इस प्रकार की शिक्षण परम्परा अवाधित चली आई है। जैन कवियों ने भी धर्म एवं उपदेश की
१. जायसी ग्रंथावली, भूमिका, पृ० ७० ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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दृष्टि से वार्ताएं लिखी हैं । कथा और वार्ता शब्द भी कहीं कहीं एकार्थवाची ही रहे हैं । 'कथा' संज क रचनाओं में भी ऐसी उपदेशमूलक वार्ताओं की भरमार है । वार्ता नामक, जिनहर्ष प्रणीत एक रचना 'नन्द बहोत्तरी-विरोचन महेता वार्ता' प्राप्त है। ऐसी पद्यात्मक लोकवार्ताओं में लोकजीवन की जीवन्त झांकी स्पष्टतः देखी जा सकती है। संवाद :
कुछ जैन कवियों ने विरोधी वस्तुओं का परस्पर संवाद कराया है । जिनमें एक को वादी और दूसरे को प्रतिवादी का रूप देकर वस्तु विशेष के महत्व या दोप का सुन्दर वर्णन, मण्डन-भण्डन की शैली में हुआ है समन्यवादी इन कवियों ने अन्त में अपने इन कल्पित पात्रों में मेल भी करा दिया है । ऐसी 'विवाद' अथवा 'संवाद' संजक रचनाएं छोटी हैं पर काव्य चमत्कार एवं कवि की वाक्-प्रतिभा-दर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। . साहित्य में संवाद या विवाद की परम्परा अति प्राचीन रही है। संस्कृत के 'सम्वाद सुन्दर' नथ में ऐसे नौ संवोद आये है । १६वीं शताब्दी से संस्कृत के साथ हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी में भी इस प्रकार की रचनाएं मिलने लगती है। कवि समयसुन्दर ने अपने संस्कृत ग्रंथ 'कथा कोप' में तीन सम्वाद दिये है। इन्होंने एक गुजराती मिश्रित हिन्दी में :दानादि संवाद शतक' नामक रचना भी लिखी है ।१ इसमें जैन धर्म के चार प्रकार- दान, शील, तप और भाव का संवाद बड़ी ही सुन्दर शैली में प्रस्तुत किया है। ये चारों अपनी अपनी महत्ता गाते है और अन्यो को हेय बताने का प्रयत्न करते है अंत में महावीर समझाते है-- आत्मप्रशंसा ठीक नहीं। चारों का अपना अपना महत्व है और भगवान चारों की महिमा गाते हैं।
इस प्रकार के अन्य सम्वाद ग्रंथ निम्नानुसार हैविनय विजय : पंच समवाय संवाद श्रीसार : मोती कपासिया सम्वाद जिनहर्प
रावण मंदोदरी संवाद यशोविजयजी समुद्र चाहणा संवाद लक्ष्मीवल्लभ : भरत वाहुबली संवाद सुमतिकीति : जिह्वादंत विवाद
१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ५८३ ।
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आलोचना-खंड
हिन्दी के कवि नरहरिदास तथा कुलपति मिश्र का भी अनेक 'सम्वाद' 'वादु' सहायक रचनाएं मिलती हैं। ऐसे कवियों की अधिकांश रचनाएं 'अकवर दरवार के हिन्दी कवि' में छप चुकी हैं। (७) विविध विषयों की दृष्टि से
'प्रवहण' या 'वाहण' नामक रचनाओं में जहाज के रूपक का वर्णन होता है । मेघराज रचित ऐमी एक ही रचना 'संयम प्रवहण' या 'राजचन्द्र प्रवहण' प्राप्त हैं।
'दीपिका' संजक रचना भी एक ही प्राप्त है। कनककुशल भट्टारक रचित 'मुन्दर शृंगार की रस दीपिका' शृगार-कृति अत्यंत लोकप्रिय है।
'चन्द्राउला' चन्द्रावल का अपभ्रंश रूप लगता है। चन्द्रावल गेय गीतों के कथा-रूप की संज्ञा है। राजस्थान तथा बुन्देलखण्ड में 'चन्द्रावल' गीत कथा प्रचलित है जो श्रावण में झूले पर गाई जाती है। जैन कवियों ने भी गेय गीत रूप में ही आचार्यों एवं तीर्थंकरों के 'चन्द्राउला' रचे हैं। ऐसी कृतियों में समयसुन्दर रचित 'श्री जिनचन्द्रसूरि चन्द्राउला' तथा जयवंतसूरि कृत 'सीमन्धर चन्द्राउला' उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
__ चुनड़ी, सूखड़ी, आंतरा, ध्र पद आदि विविध संज्ञाएं भी इन भावुक कवियों ने अपनी धर्मोपदेश एवं भक्ति संबंधी रचनाओं के लिए प्रयुक्त की है। चूनड़ी में तीर्थकरों की चरित्ररूपी चुनड़ी को धारण करने के संक्षिप्त वर्णन हैं। उस चारित्ररूपी चुनड़ी में गुणों का रंग, जिनदाणी का रस, तप रूपी तेज आदि की मुन्दर रूपक योजना निरूपित की गई है। ऐसे चुनड़ी गीतों में ब्रह्मजय सागर की 'चुनड़ी गीत' रचना साधुकीर्ति की 'चुनड़ी' तथा समयसुन्दर की 'चरित्र चुनड़ी' आदि महत्वपूर्ण हैं।
___ "सूखड़ी' नामक रचनाओं में विविध व्यंजनों का उल्लेख है। इन कवियों ने भक्ति वर्णन के साथ अपने पाकशास्त्र के ज्ञान का प्रदर्शन भी किया है । गांतिनाथ के जन्म के अवसर पर कितने प्रकार की मिठाइयां बनी थीं- यह बताने के लिए अभयचन्द ने 'सूखड़ी' की रचना की।
'आंतरा' रचनाओं में २४ तीर्थकरों के अवतरण के समय का वर्णन होता है। 'वीरचन्द्र की जिन आंतरा' रचना में प्रत्येक तीर्थकर के होने में जो समय लगता है- उसका वर्णन किया गया है। दुवावेत :
__मुसलमानों के सम्पर्क से करीब १४वीं शताब्दी से प्रान्तीय भाषाओं की रचनाओं में अरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रचुर प्रयोग मिलने लगता है। इस
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आदान-प्रदान की प्रक्रिया से कुछ नवीन काव्यरूपों की परम्परा की भी आरम्भ हुआ । गजल इसी प्रकार का साहित्य प्रकार है "दुवावेत " भी फारसी का एक साहित्य प्रकार है जो १७वीं शती के कवियों ने विशेष अपनाया है । ऐसी रचनाओं में हिन्दी की खंड़ी बोली का अच्छा प्रयोग हुआ है । राजस्थानी छन्द ग्रन्थ 'रघुनाथ रूपक' में ७१ प्रकार के डिंगल गीत उनके लक्षण तथा अंत में 'दुवावैत' के भी दो प्रकारों का उल्लेख किया है । यह कोई छन्द नहीं, मात्र पदवन्ध रचना है, जिसमें अनुप्रास मिलाया जाता है। कच्छ-भुज ब्रजभांपा पाठशाला के आचार्य कुवरकुशल रचित 'महाराओ लखपति दुवावैत' रचना इस कोटि में आती है, जिसमें महाराव लखपति का विस्तार से बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है ।
“नाममाला" रचनाओं में प्रायः तीर्थकरों के विशेषणों या साधुओं के नामों की मालां गू ंथी जाती है। परन्तु आलोच्य युगीन जैन- गुर्जर कवियों की इस प्रकार की कोई रचना प्राप्त नहीं हो पाई है । कच्छ भुंच्छ व्रजभाषा पाठशाला के आचार्य कनककुशल और कुंवरकुशल की तीन "नाममाला" नामक रचनाओं का उल्लेख हुआ है, जो इस प्रकार है
कनककुशल भट्टार्क
कुंअर कुशल
:
श्रीमद् देवचन्द जिनह
कुछ " दोधक" रचनाएं भी मिलती हैं । इन वर्णिक छन्दों में समवृत का एक भेद है । भरत के लक्षण के अनुसार तीन भगणों और दो गुरुओं के योग से यह वृत्त बनता है 1१ कुछ जैन गुर्जर कवियों ने इसे दोहे के अर्थ में प्रयुक्त किया है । कही कहीं तो दोहे की ११ - १३ मात्राओं का भी पूर्ण निर्वाह नहीं हुआ है । " दोधक" नामक प्राप्त रचनाएं इस प्रकार हैं
लखपति मंजरी नाममाला पारसति नाममाला तथा लखपति मंजरी नाममाला
:
0 साधु समस्या दुवादश दोघक दोधक छत्तीसी २ तथा पार्श्वनाथ दोधक छत्तीसी ३
इनके अनन्तर कुछ आदि की संज्ञा वाली भी प्राप्त हैं ।
रचनाएं पट्टावली-गुर्वावली, जकड़ी, हियाली समस्या
१. हिन्दी साहित्य कोप, पृ० ३४२ २. जिन
३. वही ।
ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ११७, ३०२ ।
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आलोचना-खड़
“पट्टावली” या गुर्वावली " रचनाओं में गुरु-परम्परा का वर्णन होता है । जैन कवियों ने प्रायः अपनी कृतियों के प्रारम्भ में या अन्त में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है, किन्तु कुछ कवियों ने जैन गच्छों की आचार्य परम्परा का इतिवृत्त स्वतंत्र रचनाओं में भी दिया है । ऐसी रचनाओं में ब्रह्म जयसागर रचित 'गुर्वावली गीत' तथा समयसुन्दर रचित 'खरतर गुरु पट्टावली' १ तथा 'गुर्वावली' २ कृतियां उल्लेखनीय हैं ।
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" जकड़ी" जिक्र का ही अपभ्रंश है । इसका अर्थ ध्यान से है । अर्थात् प्रतिक्षण जीवन की व्यावहारिक क्रियाओं में ईश्वर का ध्यान ही जिक्र है । गुजराती शब्द जकड़वु ( जकड़वा ) से इसकी समता देखी जा सकती है । इस दृष्टि से इसे एक विशिष्ट विचारधारा का बन्धन भी मान सकते हैं गुजराती कवि अखा की कड़िया अत्यंत प्रिय तथा प्रसिद्ध हैं । जैन कवियों ने भी ऐसी कुछ जकड़ियों की रचना की है । जिनराजसूरि की चार जकड़ियां प्राप्त हैं जो “जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि" में संग्रहीत है ।
.
"हियाली" या " हरियाली" संज्ञक रचनाओं को हिन्दी के कूट - साहित्य की कोटि में रखा जा सकता है । वस्तु विशेष के नाम गुप्त रखते हुए उसे स्पष्ट करने वाली विशेष बातों का वर्णन हो ऐसी रचनाओं को "हियाली" कहते हैं । इनमे बुद्धि की परीक्षा हो जाती है । अनेक "रास" ग्रंथों में आये पति-पत्नी की परस्पर गोष्ठी वर्णन के प्रसंगों में मनोरंजनार्थ ऐसी हीयालियों का प्रयोग हुआ है । १६वीं शताब्दी से हीयालियों की रचना देखने को मिलती है । इन कवियों की प्राप्त "हीयालियां" ५ से १० पद्यों तक ही मिलती हैं । कवि धर्मवर्द्धन तथा समयसुन्दर ने ऐसी अनेक "हीयालियों" की रचना की | समयसुन्दर की हीयाली का एक उदाहरण देखिए -
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"कहिज्यो पंडित एक हीयाली, तुम्हे छउ चतुर विचारी । नारी एक त्रण अक्षर नांमे, दीठी नयर मझारी रे ॥ १ ॥ मुख अनेक पण जीभ नहीं रे, नर नारी सु ं राचइ | चरण नहीं ते हाये चालइ, नाटक पाखे नाचइ रे ।। २ ।। अन्न खायइ पानी नहीं पींवर, तृप्ति न राति दिहाड़इ । पर उपगार करइ पणि परतिख, ३ अवगुण कौडि दिखाइ || ३ ||
१. समयमुन्दर कृत कुमुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३४७ तथा ३४८ ॥ २. ही
३. पापणि ।
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अवधि आठ दिवसनी अपनी, हियद विमासी जीज्यो । समयसुन्दर कहइ समझी लेज्यो, पणि ते सरखा मत होज्यो ।।४॥"१
.जिन पदों का अर्थ गूढ़ हो उन्हें "गूढा" कहते हैं। ऐसे गूढागीत भी समयसुन्दर ने पर्याप्त लिखे हैं ।२
___समस्या, पादपूर्ति, चित्रकाव्य आदि की प्राचीन परम्परा का निर्वाह भी जैन गूर्जर कवियों ने किया है । काव्य विनोद के यह सुन्दर प्रकार हैं। समस्यापूर्ति के लिए प्रसंगोद्भावना करनी पड़ती है। इसमें प्रखर कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है । कवि धर्मवर्द्धन तथा समयसुन्दर ने समस्या, पादपूर्ति, चित्रकाव्य आदि काव्यरूपों के सफल प्रयोग किए हैं। .
__ कवि समयसुन्दर रचित कुछ "कुलक" रचनाएं भी मिलती है। ऐसी रचनाओं में किसी शास्त्रीय विषय की आवश्यक बातें सारांशतः वर्णित की जाती हैं अथवा किसी व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है । श्री नाहटाजी ने इस प्रकार की रचनाओं की एक पूरी सूची तैयार की है ।३ समयसुन्दर रचित 'श्रावक वारह व्रत कुलकम्' तथा "श्रावक दिनकृत्य कुलकम्” इस दृष्टि से उल्लेखनीय रचनाएं है।४
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१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ४६१ । २. वही, पृ० १२८, १३० । ३. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष, ६४, अंक ८, ११, १२ । ४. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ४६५-६८ ।
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मूल्यांकन :
प्रकरण : ७
आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार
हिन्दी भक्ति साहित्य की परम्परा के पविवेश में मूल्य एवं महत्व संत कवि और जैन कवि
रहस्यवादी धारा
संत और जैन कवियों की गुरु सम्बन्धी मान्यताओं विश्लेषण सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व एवं मूल्यांकन
उपसंहार :
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प्रकरण : ७
आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार मूल्यांकन :
काव्य एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसकी प्रतीति आनन्दवर्द्धन ने इस प्रकार कराई है--
"प्रतीयमानं पुनरन्यदेव. वस्त्वस्ति वाणीपु महाकवीनां । , एतत् प्रसिद्धायवातिरिक्तं श्रिमाति लावण्यमिवांगनासु ॥"१
अर्थात् स्त्रियों में शरीर- सौष्ठवगत सौन्दर्य के अतिरिक्त भी लावयरूप एक अनिर्वचनीय तत्व होता है, उसी प्रकार महाकवियों की वाणी में भी प्रतीयमान अनिर्वचनीय सौन्दर्यतत्व विद्यमान होता है। यह अनिर्वचनीय सौन्दर्यतत्व तव तक वाणी में नहीं उतर सकता जब तक कवि की अभिव्यक्ति सीधी आत्मा से न हो। अतः आत्मतत्व की गहन अनुभूति ही सच्चा एवं चिरंतन काव्य है। यही अमृतरूपा काव्य है, यही आत्मा की कला है,२ जिसमें सच्चिदानन्दमय आत्मा की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार के काव्य में वाह्य-विधान-छन्द, गुण, अलंकार आदि की आवश्यकता नहीं रहती। इनका विधान सायास न होकर स्वाभाविक रूप से यथास्थान हो जाता है। यहाँ तो आत्मा का अलौकिक आनन्द रस फूटता रहता है, जिसमें कवि स्वयं रस-सिक्त है तथा जगत् के प्राणियों को भी अपने स्तर-भेद से उसमें स्नान कराता चलता है।
इन वीतरागी जैन-गूर्जर संत कवियों की कविता का मूल्यांकन इसी कसौटी पर करना चाहिए। इनकी कविता के गुण, छन्द, अलंकार आदि वाह्य उपकरणों पर ध्यान देने की अपेक्षा हमें उनके स्वानुभूतिमय अनिर्वचनीय चेतनतत्व को अभिव्यक्ति की गुणावत्ता का परीक्षण करना चाहिए । यद्यपि इन वाह्य उपादानों की
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१. ध्वन्या लोक, ११४॥ २. भवभूति ने काव्य को "अमृतरूपा" तथा "मात्मा की कला" कहा है-~
उत्तर राम चरित १।१।
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आलोचना-खंड
अवस्थिति भी इनकी वाणी में समुचित रूप में मिल जाती है तथापि वह इनके काव्य का विधायक अंश नहीं है । इन अध्यात्म मार्ग के साधक कवियों की कविता सुन्दर मुमनों में सजी पवित्रता की प्रतिमूर्ति वनदेवी-सी प्रतीत होती है । इन कवियों को संत कवियों की तरह आध्यत्मिक कवियों को कोटि में रखा जा सकता है जिनकी कविता में आत्मतत्व की सुगन्धमय अभिव्यक्ति हुई है। आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों की भावमयी अनुभूति ही जन-गूर्जर कवियों की कविता का मूल विषय रहा है। इसमें अज्ञान-विमुड़ित मानव को झकझोर कर उठा देने की अलौकिक क्षमता है।
___ ज्ञानानन्द, यशोविजय, आनन्दघन, विनयविजय आदि ऐसे ही श्रप्ठ आध्यात्मिक कवि हैं जिन्होंने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला है। इनके मतानुसार आत्मा और परमात्मा के संबंधों के इन रहस्यमय वर्णनों में एक दिव्य रसायन है, जिसकी वास्तविक प्रतीति हो जाने पर समस्त भावनाएं, कामनाएं और वासनाएं तृप्त हो कर शांत होने लगती हैं। और साधक अनन्त रसानन्दमय निर्वाण स्थिति को प्राप्त करने लगता है। यही वह स्थिति है जब अजपा जाप चलता है, अनहद नाद उठता है, आनन्द के धन की झड़ी लग जाती है और आत्मा परमात्मा से एकलयता अनुभव करने लगती है। परन्तु इस स्थिति पर पहुँचना आसान नहीं। इसके लिए बड़ा कठिन त्याग एवं तप करना पड़ता है । वह सच्ची आत्म प्रतीति तथा अनुभव ज्ञान की लाली तो तव फूटती है जव शरीर रूपी भट्टी में मुद्ध स्वरूप की आग सुलगाकर अपने अनुभवरस में प्रेम रूपी मसाला डाला जाय और उसे मन रूपी प्याले में उबाल कर उसके सत्व का पान किया जाय ।२ आलोच्यकालीन जैन गूर्जर कवियों की कविता का हिन्दी भक्ति-साहित्य की परम्परा के परिवेश में मूल्य एवं महत्व :
हिन्दी का भक्ति-काव्य निर्गुण और सगुण भक्ति काव्य के रूप में विभाजित कर दिया है। जैन कवियों का भक्ति-काव्य इस रूप में विभाजित नहीं किया जा सकता । इनकी कविता में निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय हुआ है । इन्होने किसी एक का समर्थन करने के लिए दूसरे का खण्डन नहीं किया । सूर और तुलसी
१. "उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी । झड़ी सदा आनन्दधन वरखत, विन मोरे एक तारी ॥"
-आनन्दधन पद संग्रह, पद २०, पृ० ५२ । २. वही, पद २८, पृ० ७८-देखिए पिछला पृष्ठ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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रही है ।
के सगुण ब्रह्म के अवतारी हैं । जैन कवियों के अर्हन्त को उस रूप में अवतारी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि ये तप और व्यान द्वारा अनन्त परीषहों को सहन कर, चार घातिमा कर्मों का क्षय कर अर्हन्तमद के अधिकारी बनते हैं । सूर तुलसी के ब्रह्म पहले से ही ब्रह्म है, यहां अर्हन्त अपने स्वपोरुप से भगवान बनते हैं । फिर भी अपनी साकारता, व्यक्तता और स्पष्टता की दृष्टि से इन दोनों में अंतर नहीं दिखता । यही कारण है कि जैनों में अर्हन्त की सगुण ब्रह्म के रूप में ही पूजा होती परन्तु सिद्ध अर्हन्त से बड़े है । ये आठ कमों का क्षय कर, शरीर को त्याग कर, शुद्ध आत्म रूप में सिद्धशिला पर आसीन होते हैं, अतः निराकार भी हैं । १ मध्यकालीन हिन्दी काव्य धारा में नवीन विचारों की जो लहरें दक्षिण से उत्तर तक उठती हुई आई, वे यहां की परिस्थितियों के अनुरूप हो, अपने कई रूपों में प्रगट हुई | आचार्य शुक्लजी ने "सगुण" और " निर्गुण" नामक दो शाखाओं में उन्हें विभक्त कर दिया और बाद के सभी इतिहास लेखकों ने इसे स्वीकार कर लिया । किन्तु अर्हन्त - भक्ति से संबंधित विशाल साहित्य की परिगणना इसमें नहीं हो सकी, जो परिमाण और मूल्य दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । वस्तुतः जैनभक्ति की अखण्ड परम्परा ने १८वीं शती तक भारतीय अन्तश्चेतना को सुदृढ़ तथा जागरूक बनाये रखने का निरन्तर प्रयत्न किया है ।
संत कवि और जंन कवि :
संत शब्द गुण वाचक है,
जिसमें समस्त सज्जन एवं साघुपुरुष समाहित हैं । एक विशिष्ट धार्मिकता की दृष्टि से इसका अर्थ निकाला जाय तो, जो सांसारिक और भौतिक विपयादि से ऊपर उठ गया है, वह संत है । ऐसे संत प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में मिल सकते हैं । इस दृष्टि से जैनभक्ति एवं अध्यात्म साहित्य के प्रणेता इन वीतरागी जैन- गुर्जर कत्रियों को भी सच्चे अर्थों में "संत" कह सकते हैं ।
जिन विचारों को लेकर हिन्दी के संत कवि आये उनकी पृष्ठभूमि पूर्व निर्मित ही थी । इसमें शैव, शाक्त, बोद्ध, जैन, नाथपंथी आदि सभी का हाथ था । यह लोक धर्म था, जो कवीर की वाणी में प्रकट हुआ । आगे चलकर इसी परम्परा के दर्शन २७वीं एवं १८वीं शती के इन जैन - गुर्जर - कवियों में भी होते हैं । चेतावनी, खंडन और मंडन संत साहित्य के ये तीन प्रमुख अंग ब्रह्म "सगुण" और "निर्गुण" से परे है, फिर भी प्रेम रूप है । १. "निष्कलः पश्चविध शरीर रहितः परमात्म प्रकाश ११२५ । ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका, पृ० ३२ ।
। इनका इसकी प्राप्ति के
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आलोचना-खड
आधार हैं-साधना और प्रेम । गोरखनाथ ने अपने पंथ में हठयोग का आधार लिया, आगे चलकर यही हठयोग संतमत की साधना का प्रधान अंग माना जाने लगा । जैनधर्म है । काया को साधकर, इन्द्रियों को वशकर केवलज्ञान की प्राप्ति जैन साधना का अंतिम लक्ष्य है।
जैन काव्य और संत काव्य में अद्भुत समानता है-बाह्याउम्बर का विरोध, संसार की आसारता का चित्रण, चित्तशुद्धि और मन के नियन्त्रण पर जोर, गुरु की महिमा, आत्मा-परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण आदि में यह समानता देखी जा सकती है। दोनों ने ब्रह्म की सत्ता घट घट स्वीकार करते हुए भी उसे सर्व व्यापक, निर्गुण, निराकार और अज माना है। पाप और पुण्य दोनों ही समानरूप से बन्धन के कारण है अतः त्याज्य हैं। इनमें इस साम्य का उपयुक्त कारण यही हो सकता है कि ये सच्चे अर्थों में संत और मुनि थे । यह साम्य अनुभव जनित तथ्यों का साम्य है। महात्मा आनन्दधन और कबीर में प्राप्त अद्भुत साम्य के पीछे यही मूल कारणभूत है। हां, कबीर से महात्मा आनन्दघन करीब दो-ढाई सौ वर्ष पश्चात् हुए, जो कबीर से बहुत कुछ अंशों में प्रभावित रहे हैं, पर इनमें अपनी अपनी स्थानुभूति का साम्य विशेष है ।
आत्मा परमात्मा के सम्बन्ध में कबीर और जैन कवियों में अन्तर इतना ही है कि जैन कवियों की दृष्टि से अनेक आत्मा अनेक ब्रह्ममरूप हो सकते हैं जबकि कबीर की दृष्टि से अनेक आत्मा एक ही ब्रह्म के अनेक रूप हैं। वस्तुतः आत्मा परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं। दोनों की यही धारणा है। आत्मा और ब्रह्म की एकता कबीर ने जल और कुम्भ तथा लहर और सागर के प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत की है । जिस प्रकार घड़े के भीतर और बाहर एक ही जल है, उसी प्रकार सर्वव्यापक परमात्मा और शरीरस्थ आत्मा दोनों एक ही हैं । घड़े का बाह्य व्यवधान दूर हो जाने पर जलादि एक हो जाते हैं, उसी शरीरजन्य कर्मों के क्षय होने पर आत्मा परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है ।१ आत्मा परमात्मा के बीच की इस भेद-रेखा का विलीनीकरण चित्त की शुद्धि और गुरु की कृपा से ही संभव है। यही कारण है कि संतों ने गुरु को गोविन्द से भी बड़ा स्थान दिया और जब आत्मा परमात्मा एक ही है तो उसे खोजने वाहर भटकने की आवश्यकता नहीं, उसका दर्शन तो अन्तर में ही हो जाता है। अतः संतों और जैन कवियों ने बाहर भटकने का निषेधकर देह-देवालय में प्रतिष्ठित देव का दर्शन करने को कहा है। कवीर ने शरीर में स्थित देव का परिचय देने के लिए कभी उसे "कस्तूरी कुण्डलि बस, मृग
- १. श्यामसुन्दर दास संपा० कबीर ग्रंथावली, पृ० १०५ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता.
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ढूढे वन मांहिं ।" १ कहा है तो कभी "शरीर सरोवर भीतर आछे कमल अनूप । " २ बताया है । इसी तरह महात्मा आनन्दघन ने परभाव और बाहर भटकने की मानव प्रवृत्ति को मूढ़ कर्म कह कर घट में बसे अनन्त परमात्मरूप का ध्यान करने को कहा है ।३ ज्ञानन ंद ने " अंतर दृष्टि निहालो " ४ कहा कर तथा विनयविजय ने "सुधा सरोवर है या घर में " ५ कह कर इसी बात की पुष्टि की है ।
इन कवियों ने इस अनन्त तत्व को अनेक नामों से पुकारा है । उसे राम, शिव, विष्णु, केशव, ब्रह्मा आदि कहा है, परन्तु दोनों को अवतार वाद में विश्वास नहीं | कबीर ने अपने आराध्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि उनका “अल्लाह" अलख निरंजन देव है; जो हर प्रकार की सेवा से परे । उनका "विष्णु" वह है, जो सर्व व्यापक है, "कृष्ण" वह है जिसने संसार का निर्माण वह है जो ब्रहमाण्ड में व्याप्त है, "राम" वह है जो युगों से वह है जो दसों द्वारों को खोल देता की रक्षा करता है, "करीम" वह है ज्ञान गम्य है, "महादेव" वह है जो
किया है, "गोविन्द"
रम रहा है, "खुदा" है, "रब" वह है जो चौरासी लाख योनियों जो सभी कार्य करता है, मन की बात जानता है
"गोरख" वह है जो
।
इस प्रकार कबीर के महात्मा आनन्दघन के
आराध्य के नाम अनन्त हैं और उसकी महिमा अपार है ।६ ब्रह ्मम की व्याख्या भी लगभग इन्हीं शब्दों में हुई है ।७ कभी ये पौराणिक शब्दावली में ब्रजनाथ के समक्ष अपनी दीनता व्यक्त करते हैं, ८ तो कभी वंशीवाले से दिल लगाने की बात कहते हैं । किन्तु इससे अवतारवाद का समर्थन नहीं होता । वस्तुतः उनका ब्रह ्मम तो एक ही है, भले उसे राम, रहमान, कृष्ण, महादेव, पार्श्वनाथ या
१. श्यामसुन्दर दास सम्पादित, कबीर ग्रंथावली, पृ० ८१ ।
२. रामकुमार वर्मा, संत कबीर, पृ० १६१ |
३. वहिरातम मूढा जग जेता, माया के फंद रहेता । घट अंतर परमातम घ्यावे, दुर्लभ प्राणी तेना ॥" --आनन्दघन पद संग्रह, पद २७, पृ०७४ । ४. भजन संग्रह, धर्मामृत, पद २८, पृ० ३१ ।
५. वही, पद ३२, पृ० ३५ | ६. श्यामसुन्दर दास संपा० कबीर ७. राम कहो रहमान कहो कोउ,
'
८. वही, पद ६३, पृ० २७१ । ६. वही, पद ५३, पृ० १५७ ॥
ग्रंथावली, पद ३२७, पृ० १६६ ।
'आनन्दघन पद संग्रह, पद ६७, पृ० २८४ ।
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३२४
बालोचना-खंड
ब्रह्मा कुछ भी कह लो। मृतिका पिण्ड से अनेक प्रकार के नाम रूप पात्र बनते हैं। उसी प्रकार अखण्ड तत्व में अनेक भेदों की कल्पना या आरोपण किया जा सकता है।
स्नेक संभव नामों का प्रयोग कर लेने के उपरांत दोनों ही ब्रहम की अनन्तता और अनिर्वचनीयता स्वीकार कर लेते हैं। इस स्थिति पर उसे मात्र अनुभवगम्य मानकर, अपनी वाणी की असमर्थता स्पष्ट भाव से प्रकट करते हुए उसे ने "गूगे का गुड" कह दिया तो दूसरे ने "तेरो वचन अगोचर ल्प" बताकर "कहन सुनन को का नहीं प्यारे" कह कह है ।२
यह अनुभवैकगम्य; अनन्त और अनिर्वचनीय ब्रहम ही जैन तथा अजैन संतों का उपास्य है । इसकी साधना के लिए किसी बाह्य विधि-विधान या शास्त्र-प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती । इस साधना मार्ग में प्रवृत्त होने के लिए चित्त की शुद्धि, मन और इन्द्रियों का संयम तथा सांसारिक प्रपंचों से ‘अनासक्त होने की आवश्यकता है। इसके लिये माया अथवा अविघा के भ्रम-जाल को छिन्न भिन्न करना होता है और यह कार्य इतना सरल नहीं। यही कारण है कि जैन और अर्जन संतों ने माया को चाण्डालिनी, डोमिनी सांपनि, डाकिन और ठगिनी बताया है। इसके प्रभाव से वह मा, विष्णु, महेश, नारद, अपी-महपि, आदि भी नहीं बचे है। माया ने कितने ही मुनिवरों, पीरों, वेदान्ती-बाह मणों एवं गाक्तों का शिकार किया है। इस माया ने सम्पूर्ण विश्व को अपने पाग में बांध रखा है।३ जैन संतों में आनन्दघन, यगोविजय, विनयविजय, ज्ञानानन्द, जिनहर्प समयसुन्दर आदि ने माया का वर्णन इसी रूप में किया है। आनन्दघन का माया-कथन तो कबीर से साम्य ही नहीं रखता अपितु सात पंक्तियाँ तो एक शब्दों के हेरफेर के साथ एक जैनी ही है। रहस्वादी धारा :
वस्तुतः अव्यात्म की चरम सीमा ही रहस्यवाद की जननी है। आत्मापरमात्मा के प्रणय की भावात्मक अभिव्यक्ति को ही रहस्यवाद की संज्ञा दी गई है । रहस्यवाद की अविच्छिन्न परम्परा का मूल तथा प्राचीन त्रोत उपनिषदों का
१. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० १२६ । २. आनंदघन पद मंग्रह, मद २१, पृ० ५३-५६ । । ३. (अ) श्यामसुन्दर दान संपा० कबीर धावली, पद १८७, पृ० १५१ ।
(आ) आनंदघन पद संग्रह, पद ६६, ४५१-८८६ ।
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
३२५
अध्यात्म दर्शन है। काव्य और दर्शन के क्षेत्र में यह धारा अप्रतिहत गति से अनवरत प्रवाहित रही। प्रत्येक युग में विभिन्न संतों द्वारा उपनिपद् के आत्म तत्व का विवेचन तथा विश्लेपण होता रहा है । सिद्धनाथ और संत साहित्य पर इसका व्यापक प्रभाव स्पष्ट है । उपनिपदों में वर्णित, ब्रह्मतत्व की व्यापकता तथा अनिर्वचनीयता, चित्त शुद्धि पर जोर, वाह्याचारों का विरोध तथा सहज साधना ही इसकी आधार शिलाएं हैं।
यद्यपि जैन धर्म और साधना का विकाश स्वतत्र रूप से हुआ है तथापि वह उपनिषदों के प्रभाव से बचा नहीं। जैन साहित्य में रहस्यवाद के स्वरूप का मूल आचार्य कुन्दकुन्द के "भावपाहुड" में दृष्टि गोचर होता है। बाद में योगीन्दु के "परमात्म प्रकाश" में तथा मुनि रामसिंह के "दोहापाहुड" में रहस्यवाद की इस अविच्छिन्न धारा का वही स्वर मुखरित हुआ है जो आगे चल कर कबीर में देखने को मिलता है । जैन धर्म और साहित्य ज्ञानमूलक है, पर जैन-गूर्जर हिन्दी कवियों का मन ज्ञान की अपेक्षा भाव पर अधिक रमा है । इनका ज्ञान, कोरा ज्ञान नही, प्रेम मूलक ज्ञान है । १७वी एवं १८वीं शती इन गैन गूर्जर कवियों की इस हिन्दी कविता में भावात्मक रहस्यवाद का उत्कृष्ट रूप मिलता है । हां, यह कहना कठिन अवश्य है कि इसकी मूल प्रेरणा जैन परम्परा रही हैं या कवीर जैसे सतों की वाणी । अनुमानतः इस सव के समन्वय ने ही इन कवियों के मानस-तन्तुओं का निर्माण किया होगा। कबीर ने अपने को राम की बहुरिया मानकर जिस दाम्पत्य भाव की साधना की, इसका प्रभाव आनन्दघन जैसे संतों पर न पड़ा हो, यह कैसे कहा जा सकता है । क्योकि कवीर और अनन्दघन जैसे जैन-गूर्जर कवियों में प्रियतम के विरह मे अभिव्यक्त तड़पन, वेकली, मिलन की लालसा और प्रिय के घर आने पर उल्लसित आनन्द की एक-मी धड़कन देखने को मिलती है। प्रियतम के विरह में कबीर की आत्मा तड़पती है। उसे न दिन में चैन है और न रात को नींद ही आती है । सेज सूनी है, तड़पते तड़पते ही रात बीत जाती है। आँखे थक गई, प्रतीक्षा का मार्ग भी नहीं दिखता । वेदर्दी सांई तब भी सुध नहीं लेता ।१ प्रिय का मार्ग देखते देखते आंग्वों में झाई पड़ गई, नाम पुकारते पुकारते जिह्वा में छाले पड़ गये, निष्ठूर फिर भी नहीं पसीजता ।२ पत्र भी कैसे लिखा जाय ? मन में और नयनों में जो समाया हुआ है उसे संदेश भी कैसे दिया जाय ?३ ऐसी विपम स्थिति में कबीर की विरहिणी
१. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० ३२६ । २. वही, पृ० ३३१ । ३. वही, पृ० ३३० ।
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३२६
जीवित भी कैसे रहे ? बिना प्रिय के अव वह उपाय भी क्या करे ? उसे न तो दिन को भूख लगती है और न रात को ही सुख है । आत्मा जल विहीन मछली की तरह तड़प रही है ।१ सौभाग्य से कबीर की सावना फलती है। मिलन का अवसर आ गया । कवीर ने नैनों की कोठरी में पुतली की पलंग बिछाकर पलकों की चिक डालकर अपने प्रिय को रिझा लिया है ।२ अव तो वह अपने प्रिय को कभी दूर नहीं जाने देगा, क्योंकि बड़े वियोग के बाद, बड़े भाग्य से उसे घर बैठे प्राप्त किया है । कवीर अब तो उसे प्रेम-प्रीति में ही उलझाये रखेंगे और उनके चरणों में लगे रहेंगे । ३
आलोचना-खंड
जैन कवि आनन्दघन भी आत्मा और परमात्मा के संबंध का लगभग ऐसा ही वर्णन करते हैं । उनकी आत्मा कभी परमात्मा से मान करने लगता है ( पद १८ ), कभी प्रतीक्षा करती है ( पद १६ ), कभी मिलन की उत्कंठा से तड़प उठती है ( पद ३३), कभी अपनी विरह-व्याकुलता का निवेदन करने लगती है ( पद ४१-५७), कभी प्रिय को मीठे उपालंभ देती है ( पद ३२ ) तो कभी प्रिय मिलन की अनुभूति से आनन्द-मग्न हो अपने "सुहाग " पर गर्व करने लगती है । ( पद २० ) । उनकी विरहिणी दिनरात मीरां की तरह अपने प्रिय का पंथ निहारा करती है । उसे डर है कि कहीं उसका प्रिय उसे भूल न बैठा हो । क्योंकि प्रिय के लिए उसके जैसे लाखों पर उसके लिए उसका प्रिय ही सर्वस्व है
" निशदिन जोउ तारी वाटडी, घेरे आवो रे ढोला ॥ मुझ सरिखा तुझ लाख है, मेरे तु ही अमोला ||१|| ४
इस प्रकार इन जैन गूर्जर कवियों और संत या भक्त कवियों में भाव साम्य ही नहीं शब्दावली भी त्यों की त्यों दृष्टिगोचर होती है । जिनहर्ष की कविता में और अन्याय कवियों में भाव या शब्दावली के अद्भुत साम्य के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
१ " दस दुवार को पींजरो, तामै पंछी रहण अचूवो है जसा, जाण अचूवो ग्रंथावली, पृ० ४१६
पोन |
कौन ॥ ४ ॥ " जिनहर्ष
१. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० ३३४ ।
२. वही, पृ० ३३० ॥
३. वही, पृ० ३२२ ।
४. आनन्दघन पद संग्रह, श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद १६, पृ० ३७
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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
"नी द्वारे का पींजरा, तामें पंछी पोन ।
रहने को आचरज है, गए अचम्भो कौन ॥" कवीर
२ " जो हम ऐसे जानते, प्रीति वीचि दुख होइ ।
सही ढंढेरो फेरते, प्रीत करो मत कोइ ॥ ८ ॥ " जि० ग्र ं० पृ० ४१६
" जे मैं एसो जानती, प्रीत कियां दुख होय ।
नगर ढंढरी फेरती, प्रीत न ३ ' उठि कहा सोई रह्यउ, नइन
काल आइ कमउ द्वार; तोरण ज्यु वींद रे ।। " जि० ग्रं० ३५१ "सोवू र सोवू वन्दा के करै, सोया आवै रे नींद,
सिरहाण वन्दायूं खड़ी, तोरण आयो ज्यू ं बींद ।" - संत सुधाकर - काजी महमद
करियो कोय ||" मीराबाई भरी नींद रे ।
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जायसी और जैन कवियों ने भी ब्रह्म की आराधना में "प्रेम के प्याले" खूब पिये है | महात्मा आनंदघन ने प्रेम के प्याले को पीकर मतवाले चेतन द्वारा परमात्म सुगन्ध लेने की बात कही है और फिर वह ऐसा खेल खेलता है कि सारा संसार तमाशा देखता है । १ जायसी के प्रेम-प्याले में तो इतना नया है कि श ही नहीं रहता । वह अपने प्रेम पात्र को देखने में भी समर्थ नही । रत्नसेन प्रेम की इस वेहोशी में पहचानना तो दूर पद्मावती को देख भी न सके । २ प्रेम का तीर भी एक जैसा है, वह जिसे लगता है, वह वहीं का वहीं रह जाता है-"तीर अचूक हे प्रेम का लागे सो रहे ठौर ।" आनंदघन ३
ते सोइ ||" जायसी ४
11
कबीर ५
" प्रेम घाव दुख जान न कोई । जेहि लागे जाने " लागी चोट सबद की, रह्या कवीरा ठौर ॥ इस प्रकार की समानता सूचक अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। सूरदास ने जिस प्रकार "अब में नाच्यो बहुत गुपाल" कहकर सांगरूपक में जिस विनय भावना को अभिव्यक्ति की है, इसकी स्मृति जिनराजसूरि की इन पंक्तियों से अनायास हो उठती है | देखिए कितना अद्भुत साम्य है
१. आनंदघन पद संग्रह, श्री भव्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद २८वां । २. " जाहि मद चढ़ा परातेहि पाले, सुधि न रही ओहि एक प्याले ॥"
८४ |
रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रंथावली, १२वीं चौपाई, पृ०
३. आनंदघन पद संग्रह, पद ४, पृ० ७
४. जायसी ग्रंथावली, प्रेम खण्ड; पहली चोपाई, प्र० ४६
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आलोचना-खड
"नायक मोह नचावीयउ, हुँ नाच्चउ दिन रातो रे ।। चउरासी लख चोलणा, पहरिया नव नव भात रे ।। १ ।। काछ कपट मद घूघरा, कंठि विषय वर मालो रे । नेह नवल सिरि सेहरउ, लोभ तिलक दै भालो रे !॥ २ ॥ भरम भुउण मन मादल, कुमति कदा ग्रह नालो रे । क्रोध कणउ कटि तटि वण्यउ, भव मंडप चलसालो रे ॥ मदन सबद विधि ऊगटी, ओढी माया चीरो रे ।
नव नव चाल दिखावतइ, का न करी तकसीरो रे ॥ ३ ॥"? संत और जैन कवियों की गुरु संबंधी मान्यताओं का विश्लेषण
सिद्ध, सन्त, नाथ तथा जैन कवियों ने गुरु की महिमा को भी मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। गुरु के ही प्रसाद से भगवान के मिलने की बात सभी ने स्वीकार की है । कबीर ने गुरु को इसलिए बड़ा बताया कि उन्होंने गोविन्द को बता दिया । सुन्दरदास के दयालु गुरु ने भी आत्मा को परमात्मा से मिला दिया है ।२ दादू को भी "अगम अगाध" के दर्शन गुरु के प्रसाद से ही होते हैं ।३ किन्तु गुरु के प्रति संतों की ये सब उक्तियां "ज्ञान" के अंग है, भाव ने नहीं । जैन गूर्जर कवियों ने अपने गुरु-आचार्यों के प्रति जिस भाव-विह्वल पदावली का प्रयोग किया है, वह जैन-संतों की सर्वथा नवीन उपलब्धि है। जहां सन्तों में तथ्यपरकता विशेष है, वहां जैन कवियों में भावपरकता ऊंची हो उठी है। महाकवि समयसुन्दर का गुरु राजसिंहसूरि की भक्ति में गायागीत, कुशललाभ का आचार्य पूज्यवाहण की भक्ति में गाया गीत आदि इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। ४ इन गीतों में गुरु के विरह में शिप्य की जो बेचैनी और मिलन में अपार प्रसन्नता व्यक्त हुई है, वह अन्यत्र नहीं मिलती। निगुणिए संतों ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। इन जैन कवियों में गुरु के प्रति भी सच्ची भावपरकता, भगवान की ही भांति मुखर उठी है।
__इस भांति इन जैन-गूजर कवियों में तथा संत या भक्त कवियों में विचार प्रणाली की ही दृष्टि से नहीं, अपितु शैली, प्रतीक योजना तथा उनकी साधना-प्रणाली
१. जिनराजमूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ५-६ । २. डॉ० दीक्षित, मुन्दर दर्शन ( इलाहाबाद ). पृ० १७७ । ३. संत सुधासार, गुरुदेव को अंग, पहली साखी, पृ० ४४६ । ४. अगरचन्द नाहटा संपादित "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह," पृ० १२९
तथा ११६-११७ ।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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में प्रयुक्त शब्दों में भी अद्भुत साम्य है । वस्तुतः शून्य, सहज, निरंजन, चन्द्र, सूर्य, आदि शब्दों का सर्वत्र एक अर्थ नहीं हो सकता और न काल के बहते प्रवाह में यह संभव ही है । फिर भी इनकी चितन प्रणाली, विशिष्ट भावधारा, अभिव्यक्ति का ढंग आदि को देखते हुए लगता है कि ये सभी शब्द तथा भाव तत्कालीन समाज की विचारधारा में परिव्याप्त थे, जिनका प्राचीन परस्परा के रूप में निर्वाह हो रहा था । निश्चय ही इनका मूल स्रोत अति प्राचीन रहा है, जिसमें जैनों तथा अन्य सभी सम्प्रदायों ने अपने जीवन के तत्व ग्रहण किये ।
वस्तुतः जन-मानस के अज्ञात स्रोतों से बहकर आनेवाली परम्परा की यह स्रोतस्विनी १७वीं एवं १८वीं शती के जैन गुर्जर कवियों के मानसकूलों से भी टकराई और अपनी मधुमयी अभिव्यक्ति के रूप में इस युग के साहित्य को भी शांतरस की लहरियों में निमज्जित करती रही। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि भक्तिकाल के कवियों की भांति इन जैन कवियों की काव्यधारा का महत्व भी निर्विवाद | इसी महत्व की स्वीकृति पुरुषोत्तमदास टंडन जी की वाणी में प्राप्त होती है ! जैन संत कवियों पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है - "इनकी वानी उसी रंग मेंरगी है और उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरा ने कराया है - आंतरिक प्रेम की वही मस्ती, संसार की चीजों से वही खिंचाव, धर्म के नाम पर चलाई गई रूढियों के प्रति वही ताड़ना, वाह्य रूपान्तरों में उसी एक मालिक की खोज और बाहर से अपनी शक्तियों को खींच कर उसे अन्तमुखी करने में ही ईश्वर के समीप पहुंचने का उपाय । १
सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व एवं मूल्याँकन
भारतीय संस्कृति का विकास विभिन्न रूपों में हुआ है, परन्तु इन विभिन्नताओं की तह में एकरूपता वरावर विद्यमान रही है । बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित होकर भी भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा में कहीं किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है । हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में "संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की सर्वोत्तत परिणति है । "धर्म" के समान वह भी अविरोधी वस्तु है । वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य स्थापित करती है । भारतीय जनता की विविध सावनाओं की सब से सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा जा सकता है ।"२ भारतीय संस्कृति का बड़ा गुण उसका समन्वय प्रधान होना है । भारतीय संस्कृति
१. भजनसंग्रह, धर्मामृत, प्रस्तावना, पृ० १८ ।
२. अशोक के फूल, "भरतवर्ष की सांस्कृति समस्या" निबंध, पृ० ६३ ।
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आलोचना-खंड
की पुनीत गंगा में नदी नालों का मिश्रण अवश्य हुआ है, फिर भी उसकी पावनी शक्ति इतनी प्रवल है कि सब को गांगेय रूप मिल गया है ।१ अतः विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण होने पर भी भारतीय संस्कृति अपने मौलिक एवं अपरिवर्तित रूप में यहां की कला-कृतियों, आचार-विचारों आदि में सुरक्षित है।
जैन-गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में भारतीय संस्कृति की उदारता, ममरसता एवं एकता के दर्शन होते हैं । सम्प्रदाय विशेष में दीक्षित होते हुए इन कवियों में असाम्प्रदायिक अभिव्यक्ति का स्वर सदैव ऊंचा रहा है। अन्तर के आवेगों की वेगवती यह धारा धर्म-सम्प्रदाय आदि वाह्य मर्यादाओं की अवहेना कर अपने प्रकृत सांस्कृतिक रूप का परिचय देती हुई वह निकली है । यही कारण है कि इस कविता में सत्यार्थी वीतरागी आत्मा की उत्कट वेदना एवं गहन अनुभूतियां मुखर हो उठी हैं। इन कवियों ने नीति और वैराग्य के नाना उपदेश दिये हैं तथा विभिन्न दृष्टांतों द्वारा संसार की असारता, शरीर की क्षणभंगुरता, आयु की अल्पता, मृत्यु की अटलता, तन, धन, यौवन, विषयासक्ति आदि की निस्सारता बताकर, विनय, आत्मदैन्य, भक्ति, परोपकार, धर्म और दान आदि सद्गुणों की महत्ता सिद्ध करने का महत् प्रयत्न किया है। इनकी वाणी में वाह्य आडम्बरों से वचने, काम, क्रोव, लोम आदि दुर्गुणों को त्यागने, परधन और परस्त्री पर दृष्टि न डालने, जातिपांति और ऊंच-नीच में विश्वास न रखने, भोग-विलास से दूर रहने, स्वार्थ के म्थान पर परमार्थ का विचार करने तथा आत्मा में ही परमात्मा को देखने आदि के सरल उपदेशों की शांतरस-सिक्त धारा निसृत हुई है ।
भारतीय संस्कृति अनेक धर्मों, सम्प्रदायों तथा उनकी विचार धाराओं एवं साधना पद्धति से पुष्ट होती रही है । अतः इस देश में परमात्मा के अनेक रूप एवं नाम कल्पित किये है पर आखिर तो उसके नाम ही पृथक-पृथक हैं, वस्तुतः वह तत्व एक ही है । इस भाव को जैन-गूर्जर कवियों ने भी सर्वत्र प्रतिपादित किया है।
भारतीय संस्कृति की महत्ता अप्रछन्न है । परन्तु उसके सिद्धान्त एवं उद्देश्य गुढ एवं गहन है । उन्हें समझने के लिए कोरे सिद्धान्त वाक्यों से काम नहीं चलता। अतः कवि उन सिद्धान्तों एवं उद्देश्यों को किसी काव्य-कथा द्वारा या कान्तासम्मित उपदेग द्वारा प्रस्तुत कर प्रभावशाली बना देते हैं। इस तरह गूढ़ एवं गहन सिद्धान्त भी मुगमता से हृदयगम करा लिये जाते है।
इन कवियों ने अपनी शांतरस प्रधान रचनाओं द्वारा साहित्य के उच्चतम नध्य को स्थिर रखा है । कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक आदि कवियों की तरह १. गुलाबराय, भारतीय संस्कृति की स्परेखा, पृ० १५ ।
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता ये कवि भी भक्ति, अध्यात्म, नीति आदि की प्रस्थापना द्वारा अपनी कविता में सांस्कृतिक पुनरुत्थान की चेतना भरते रहे । हिन्दी के रीतिकाल के प्रायः सभी कवियों ने शृंगार और विलास की मदिरा से ही अपने काव्य रस को पुष्ट किया । परिणाम स्वरूप भारत अपने कर्तव्यों और और आदर्श चरित्रों को भूलने लगा और उनमें रही सही शक्ति एवं ओज भी नष्ट होने लगा। ये कवि कामिनी के कटाक्षों की सीमा से बाहर निकल ही नहीं पाये और इनका विलास भारत के पतन में सहायक हुआ, इनकी शृंगार-साधना ने जनता के मनोबल को नष्ट करने में जहर का काम किया।
साहित्य का मूल लक्ष्य तो मानव मात्र में सच्चरित्रता, संयम, कर्तव्यशीलता और वीरत्व की वृद्धि करना है, उसके मनोवल को पुष्ट करना है तथा उसे पवित्र एवं आदर्शोन्मुख करना है । प्राणी मात्र को देवत्व और मुक्ति की ओर ले जाना ही काव्य का चरम लक्ष्य है, विनोद तो गौण साधन है। इन कवियों ने इस घोर शृगारी युग में भी अपने को तथा अपनी अभिव्यक्ति को इससे सर्वथा विमुख रखा और अपनी अपूर्व जितेन्द्रियता और सच्चरित्रता का परिचय दिया। इनका लक्ष्य मानव की चरम उन्नति ही रहा । ये पवित्र लोकोद्धार की भावना लेकर साहित्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए और इस कार्य में इन्हें पूर्ण सफलता मिली है।
जैन साधक देशकाल एवं तज्जन्य परिस्थितियों के प्रति सदैव जागरूक रहे हैं । वे आध्यात्मिक परम्परा के अनुगामी एवं आत्मलक्षी संस्कृति में विश्वास रखते हुए भी लौकिक चेतना से विमुख नहीं थे। क्योंकि इनका आध्यात्मवाद वैयक्तिक होते हुए भी जनकल्याण की भावना से अनुप्राणित है। यही कारण है कि सम्प्रदाय मूलक साहित्य के सर्जन के साथ साथ भी ये कवि अपनी रचनाओं में देशकाल से सम्बन्धित ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पक्षों का निरूपण करते रहे है जिसमें भारत की सांस्कृतिक परम्परा और उसकी उदारता, समता, एकता एवं समन्वयकारिता सदैव प्रवल रही। इन रचनाओं में औपदेशिक वृत्ति के साथ विषयान्तर से परम्परागत वातों के विवरण भी आये हैं, अतः सम्पूर्ण काव्य पिष्टपेषण मात्र नहीं हैं । यह साहित्य लोकपक्ष एवं भाषापक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस कविता में भारतीय चितना की आदर्श, संस्थापक, नैतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को जनभाषा में समन्वित कर राष्ट्र के आध्यात्मिक स्तर को पुष्ट वनाने के अपूर्व प्रयत्नों द्वारा धर्ममूलक थाती की रक्षा हुई। संस्कृत की सच्ची उत्तराधिकारिणी एवं राष्ट्रव्यापी भाषा हिन्दी को अपनाकर भी इन कवियों ने अपनी सांस्कृतिक गरिमा का परिचय दिया है साथ ही इन कवियों के द्वारा भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं को वहन करने वाली हिन्दी भाषा को सदैव ही एक राष्ट्रीय रूप प्रदान होता रहा ।
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३३२
आलोचना-खंड
उपसंहार
अब तक के समस्त विश्लेषण- विवेचन से हम इस निष्कर्ष तक आ चुके है कि आलोच्ययुगीन जैन गूर्जर कवियों की कविता सम्प्रदायवादी जैन धर्माचार्यों व धर्मगुरुओं द्वारा रचित होने पर भी अपनी मूल प्रकृति से विशुद्ध असम्प्रदायवादी ही है अतः उपेक्षणीय नहीं है । इसका महत्व दो रूपों में आंकलित किया जा चुका है— (१) आलोच्य काव्य अनुभूति की दृष्टि से भक्तिकालीन काव्य के समकक्ष रखा जा सकता है अथवा उसकी धारा का ही एक विस्तार माना जा सकता है, तथा (२) शैली, भाषा व संगीतात्मकता की दृष्टि से प्रस्तुत काव्य का अपना एक सुनिश्चित स्थान है जो, यद्यपि हिन्दी साहित्य में अब तक उसे प्राप्त नहीं हुआ है, प्राप्त होना चाहिए ।
को प्रकाश में इस दिशा में का क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में उर्वर
यद्यपि अंचलपरक इस प्रकार के एक-दो शोधप्रबन्ध उक्त कार्य के लिए तथा सम्प्रति भारतीय वातावरण में राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव व भारत की अक्षुण्ण निर्विकल्प सांस्कृतिक भाव-धारा के पूर्ण रूप लाने के हेतु अपूर्ण ही माने जायेंगे किन्तु इस प्रकार के प्रयत्नों से बढ़ने वालों को सम्वल अवश्य मिल सकेगा । इस प्रकार के शोधकार्य है क्यों कि अनेकानेक कृतियां अभी तक, संभवतः, सूर्य के दर्शन करने में असमर्थ हैं और पड़ी पड़ी किसी कार्यशील जिज्ञासु शोवार्थी की प्रतीक्षा में घुटन का अनुभव कर रही हैं । हम, साहित्य के विद्यार्थी, यदि इस प्रकार के अज्ञात साहित्य का मूल्यांकन किसी साहित्येतर - सांस्कृतिक राजनीतिक आदि - मानदण्डों के आधार पर न भी करना चाहें तो भी इस प्रकार के साहित्य से विस्तृत फलक पर हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्निमाण की संभावनाओं का द्वार तो उद्घाटित होता ही है ।
इत्यलम्
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परिशिष्ट
परिशिष्ट : १ - आलोच्य युग के जैन गुर्जर हिन्दी कवियों की
नामावली परिशिष्ट : २ - आलोच्य युग के जैन गूर्जर हिन्दी कवियों की
कृतियों को नामावली परिशिष्ट : ३ - संदर्भ ग्रंथ सूची :
(१) हिन्दी ग्रंथ । (२) गुजराती ग्रंथ । (३) अंग्रेजी ग्रंथ तथा संस्कृत प्राकृत नथ ।
परिशिष्ट : ४ - पत्र-पत्रिकाएं
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परिषिष्ट : १ आलोच्य युग के जैन गुर्जर हिन्दी कवियों की नामावली अभयकुशल .. .. .. चन्द्रकीति
...: अभयचन्द्र
जयवन्तसूरि .. आनंदघन
जिनउदयसूरि आनंदवर्धनसूरि
जिनराजसूरि आनंदवर्धन
जिनहर्प उदयराज
दयाशील उदयरत्न ।
दयासागर दामोदर मुनि . अषभदास :
देवविजय पभसागर .
देवेन्द्रकीति शिष्य कनककीर्ति
धर्मवर्धन कनक कुशल भट्टार्क
नयसुन्दर कनकसोम
निहालचन्द कल्याणदेव
ब्रह्मअजित कल्याणसागरसूरि
वह मगणेश किसनदास
ब्रह म रायमल , कुंवर कुशल भट्टार्क
वह मजयसागर कुमुदचन्द्र
बालचन्द कुशल
भद्रसेन कुशललाभ
भट्टारक महीचन्द्र केशवदास
भट्टारक रत्नचन्द्र केशर कुशल
भट्टारक सकलभूपण खेमचन्द्र
मट्टारक शुभचन्द्र (द्वितीय है गुणविलास
महानन्दगणि गुणसागर
सानमुनि
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३३६
आलोचना खंट
मालदेव मेघराज यशोविजय रत्नकीर्ति भट्टारक लक्ष्मीवल्लम लालचन्द लालविजय लावण्यविजय गणि वादिचन्द्र विनय समुद्र विद्यासागर विनयचन्द्र विनय विजय वीरचन्द्र वृद्धिविजयजी श्रीसार
श्रीमद् देवचंद्रजी श्रीन्याय सागरजी गुमचन्द्र भट्टारक संयम सागर समयसुन्दर साधुकीति सुमति कीति सुमति सागर सोभाग्य विजय हंसरत्न हंसराज हीरानंद संघवी हेमकवि हेम विजय हेम सागर ज्ञानविमलसूरि ज्ञानानन्द
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परिशिष्ट : २ जैन गूर्जर कवियों के हिन्दी ग्रन्थ
( पाठ्य ग्रन्थ तथा हस्तलिखित प्रतियां) १ अप्टांहि नका गीत
२५ उपदेश बावनी २ अमृतवेलनी नानी सज्झाय २६ ऋषिदता चौपाई ३ अमृत वेलनी मोटी सज्झाय २७ एरवत क्षेत्र चौबीसी ४ अध्यात्म फाग
२८ कनक कीति के पद ५ अविका कथा
२६ कर्म छत्तीसी ६ अंजना सुन्दरी रास
३० कर्म घटावलि ७ अंतरिन स्तवन
३१ कल्याण मंदिर ध्रुपद ८ आलोयण छत्तीसी
३२ कल्याण मंदिर स्तोत्र ९ आदिनाथ (पभ) विवाह लो
३३ कालज्ञान प्रवन्ध १० आराधना गीत
३४ कुमुदचन्द्र-की विनतियाँ तथा पद ११ आदित्यव्रत कथा
३५ कुण्डलिया वानी १२ आदिनाथ विनती
३६ कुमारपाल -रास १३ आध्यात्म वावनी (हीरानन्द)
३७ केशी प्रदेशी प्रवन्ध १४ आनंदघन चौवीसी
३८ केशवदास बावनी १५ आनंदघन वहोत्तरी
३६ कृतपुण्य (कयवन्ना) रास १६ आनंद अष्टपदी
४० -गजसकुमार-रास १७ आदित्यवार कथा
-४१ गुरु छन्द १८ आत्महित शिक्षा
४२ गुण बावनी १६ आदिनाथ गीत
४३ गुणस्थान, बंध विज्ञाप्ति स्तवन २० उदयराज रा दूहा
४४ गुर्वावलि गीत २१ उपदेश छत्तीसी
४५ गुण माला चौपाई २२ उपदेश-बत्तीसीः (लक्ष्मी-वल्लम)
४६ गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन २३ उदयरत्न के-पद, स्तवन
४७ गौतम पृच्छा चौपाई २४ उत्तमकुमार चरित्र चौपाई ४८ गौड़ी लघु स्तवन
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३३८
मानोनना
४६ गोद सिंगल
५० चंद्रमौगि पर ५० ग्यारह अंग मनाय
८१ सय गायनी ५१ चतुर्विशति न्तुति ५२ चतुर्थिगति जिनगीत (जिनरागमूति) -३ जनोपर मीन ५३ नतुर्विगंतिया स्तवन
८४ अवमुमार प्राचार (नीबीसी-विनयन) ५४ चार प्रत्येक बुद्धगम
८५ जानवर वैनि ५५. चिमसेन गमावनी रारा
८६ जन्मुम्वामी यनि ५६ चित्तनिरोध कन्या
२७ जन दिलान ५.७ चिंतामणी गीत
८८ जगवाजवायनी ५८ चुनड़ी (साधुकीनि)
८१ जिनवर त्यानी बिन्नी ५६ चुनड़ी गीत
६० जिन आंतरा ६० चौबीसी (सौभाग्य विजयजी) ६? जिनगज स्तुनि ६१ चौबीसी (ममयमुन्दर)
१२ जिनहर्प के पद, गीन, स्तवन ६२ चौवीसी (धर्मवचन)
६३ जिहादत विवाद ६३ चौवीसी जिन सर्वया (फर्मवर्धन) १४ ढोलामार नोपाः ६४ चौबीमी (आनंद वर्धन २) ६५ तत्व सार दोहा ६५ चोवीसी (वृद्धि विजयजी)
६६ धावच्चा चोपाई ६६ चौबीसी (जिनहपं)
६७ दानादि चौढ़ालिया ६७ चौबीसी (लक्ष्मी वल्लम)। ६८ दिग्पट चौरासी बोल ६८ चौबीसियां (श्रीन्याय सागर) ६६ देवदत्ता चौपाई ६६ चौबीसी (ऋपम सागर)
१०० देवराज बच्छराज चौपाई ७० चौवीसी (हंम रत्न)
१०१ देशांतरी छंद ७? चौबीमी (लावण्य विजयगणि) १०२ देवचन्द्रजी के पद ७२ चौबीसी जिन सवैया (जिनउदय-सूरि) १०३ दोहामातृका बावनी ७३ चौवीसी (गुण विलास)
१०४ द्रौपदी चौपाई ७४ चौबीसी जिन सवैया
१०५ द्रव्य प्रकाश ७५ चेतन बत्तीसी
१०६ धर्म परीक्षा रास ७६ चन्दागीत
१०७ धर्म बावनी ७७ चंदनमल्या गिरि चौपाई
१०८ धर्मवर्धन के फुटकर पद ७८ चंद्रसेन चंद्र द्योत नाटकिया प्रबन्ध १०६ नवकार छन्द ७६ चंपक श्रेष्टि चौपाई
११० नलदमयंती चौपाई
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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
३३६
१११ नमि राजपि चौपाई
१४२ प्रणयगीत ११२ नारीगीत
१४३ प्रभाती (साधुकीर्ति) ११३ नेमिनाथ छन्द
१४४ प्रद्युम्न चरित्र ११४ नेमिनाथ फागु
१४५ पंच कल्याण गीत ११५ नेमिनाथ वारहमासा
१४६ वलभद्रनु गीत ११६ नेमिवंदना
१४७ वाहुवलि वेलि ११७ नेमिश्वर रास
१४८ बालचन्द बत्तीसी ११८ नेमिनाथ रास
१४६ बारहमासा (धर्मवर्धन) ११६ नेमिराजुलवार मास वेल प्रवन्ध १५० वावनगजा गीत १२० नेमिजिन गीत
१५१ वंगाल देश की गजल १२१ नेमिनाथ समवशरणविधि १५२ ब्रह्म बावनी (निहालचन्द) २२ नेमिनाथ द्वादश मास
१५३ ब्रह्म गणेश के गीत एवं स्तवन
(लालविजय) १२३ नेमिनाथ वारहमासा (जिनहर्प) १५४ भजन छत्तीसी १२४ नेमिराज मति बारहमास सवैया १५५ भरत वाहुवलि छन्द १२५ नेमि-राजुल वारहमासा (लक्ष्मी वल्लभ)
(कुमुदचन्द्र) १२६ नेमि-राजुल बारहमासा (विनयचंद्र) १५६ भरत वाहुवलि छंद (वादिचंद्र) १२७ नंद बहोत्तरी-विरोचन महेता वार्ता १५७ भरतेश्वरनो रास १२८ पवनाभ्यास चौपाई
१५८ भरतचनी सज्झाय १२६ पद्मचरित्र
१५६ भक्तामर सवैया १३० पार्श्वनाथ गुण वेली
१६० भक्तमर स्तोत्र रागमाला काव्य १३१ पार्श्वचन्द्र स्तुति (मेघराज) १६१ भविष्यदत्त कथा १३२ पार्श्वजिन स्तवन
१६२ भावना विलास १३३ पार्श्वनाथ नीसाणी
१६३ भोज प्रवन्ध १३४ पारसति नाममाला
१६४ महावीर छन्द १३५ पांडवपुराण
१६५ महावीर गौतम स्वामी छन्द १३६ पुण्य छत्तीसी
१६६ मदन युद्ध १३७ पुरन्दर गर चौपाई
१६७ महाराओ श्री गोहडजीनोजस १३८ पुण्यसार स
१६८ महाराव लखपति दुवावैत १३६ पूज्यवाह गीतम्
१६६ मदन शतक १४० पूजाः रास
१७० माधवानल काम कंदला १४१ प्रस्ता' या छत्तीसी
१७१ मातानो छन्द
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३४०
१७२ मेघकुमार गीत १७३ मोती कपासीया संबंध संवाद १७४ मंगलगीत
१७५ मंगावती चौपाई
१७६ मंगावती रास
१७७ रत्न कीर्तिगीत
१७८ रत्नकीर्ति के पद
१७६ राजुल नेमिनाथ धमाल
१८० राजचन्द्र प्रवहण
१८१ रागमाला
१-२ रागमाला ( कुंवर कुगल)
१९२ लवांकुश छप्पय
१९३ वलकल चोरी रास
आलोचना-खड
१९४ वस्तुपाल-तेजपाल राम
१९५ वणजारा गीत
१९६ वसंत विलास गीत
१९७ वासुपूज्यनी धमाल
१९८ विजय कीर्ति छन्द १९९ विक्रमचरित्र पंचदंड कथा
२०० विनती ( कनक कीर्ति) २०१ विनय विलास २०२ विरह मानवीसी स्तवन
२०३ विनयचंद्र के पद, गीत, स्तवन
२०४ विद्यासागर के पद
२०६ वीसी (वीस विरहमान स्तवन ) २१० वीस विरहमान गीत (जिनराजसूरि ) २११ वीसी (केशरकुशल )
२१२ वीसी (श्री न्याय सागर ) २१३ वैदविद्या (धर्मवर्धन) २१४ वैराग्य बावनी ( लालचन्द ) २१५. वैद्य विरहणी प्रबंध.
१८३ रुपंचचन्द-कुवंररास
१८४ रोहिणेय रास
१८५ रोहिणी रास
२१६ व्यवहार बुद्धि धनदत्त चौपाई
१८६ लखपति यश सिंधु ( कनक कुशल ) २१७ शत्रु जय. स्तवन (साधुकीर्ति ) १८७ लखपति मंजरी नाम माला २१८ शत्रुंजय यात्रा स्तवन ( कनक कुशल )
१८८ लखपति मंजरी नाम माला कुँवर कुशल २११ शत्रु जय रास १८६ लखपति जस सिंधु ( कुंवर कुग़ल ) १९० लखपति पिंगल अथवा कवि रहस्य १९१ लखपति स्वर्ग प्राप्ति समय
२२० शालीचन्द्र रास २२१ शांतिनाथ स्तवन
२२२ शांतिनाथ छन्द
२२३ शांतिजिन विनती रूप स्तवन
२२४ शांव प्रद्युम्न चौपाई
२२५ शीलगीत
२२६ शीतकारके सवैया
२२७ शुभचन्द्र के पद २२८ शंखेश्वर पार्श्व स्तवन
२०५ विरह मानवीसी स्तवन ( समयसुंदर ) २०६ विवाह पटल भाषा
२०७ वीरांगदा चौपाई
२०८ वीर विलास फाग
२२९ श्रीपाल आख्यान ( वादिचन्द्र ) २३० श्रीपाल रास
२३१ श्रीपाल स्तुति ( कनककीर्ति)
२३२ श्रेणिक रास
२३३ श्रेणी चरित्र
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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
२३४ सत्यास आ दुष्काल वर्णन छत्तीसी २५५ संयोग बत्तीसी
२३५ समता शतक
२३६ समाधि शतक
२३७ सवैया बावनी (लक्ष्मी वल्लभ )
२३८ सत्तर भेदी पूजा प्रकरण २३६ साधुवंदना
२४० साधु समस्या द्वादत्त दोधक २४१ सार बावनी (श्रीसार) २४२ सिंहलसुत प्रिय मेलक रास २४३ सिद्धचक्र स्तवन २४४ सीमन्धर स्वामी गीत
२४५ सीमन्वर चन्द्राउला २४६ सीताराम चौपाई २४७ सीता आलोचणा ( १८वी)
२४८ सुदर्शनगीत
२४९ सुदर्शन रास
२५० सुन्दर श्रृंगार की रसदीपिका
भाषाटीका
२५१ सुखड़ी
२५२ सोलह करण रास २५३ संबोध सत्तार
२५४ संतोष छत्तीसी
२५६ संयम सागर के गीत एवं पद
२५७ संयम प्रवहण
२५८ स्थूलीभद्र फाग २५६ स्थूलभद्र छत्तीसी २६० स्थूलीभद्र मोहनवेलि २६१ स्थूलीभद्ररास २६२ स्थूलीभद्र वारहमासा २६३ स्थूलभद्र गीत
३४१
२६४ हनुमन्त कथा २६५ हीर विजय सूरि रास २६६ हेम विजय के पद एवं स्तुति
२६७ हंसागीत
२६८ क्षमा छत्तीसी
२६६ क्ष ुल्लक कुमार रास
२७० क्षेत्रपाल गीत
२७१ ज्ञानानन्द के पद
२७२ ज्ञानवावनी ( हंसराज )
२७३ ज्ञानविमल सूरि के फुटकर पद, स्तवन आवि
२७४ ज्ञानरस
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परिशिष्ट : ३
संदर्भ ग्रंथ सूची (१) हिन्दी ग्रन्थ १ अध्यात्म पदावली : प्रो० रामकुमार जैन २ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद : डॉ० वासुदेवसिंह ३ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह : अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा ४ गुजरात का जैन धर्म : मुनिश्री जिनविजयी ५ गुजरात की हिन्दी सेवा : डॉ० अम्बाशंकर नागर ( अप्रकाशित ) ६ गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ : डॉ० अम्बाशंकर नागर ७ घन आनन्द और आनन्द घन : पं० विश्वनाथ प्रसाद ८ जिनराज सरि कृत कुसुमांजलि : श्री भंवरलाल नाहटा ६ जिनहर्प ग्रंथावली : अगरचन्द नाहटा । १० जैन कवियों का इतिहास : मूलचन्द वत्सल ११ जैन ग्रंथ संग्रह : चन्द्रसेन वाबू १२ जैन तत्वज्ञान, जैनधर्म और नीतिवाद : डॉ० राजवलि पाण्डेय १३ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन : पं० दलमुखभाई मालवणीया १४ जैन दर्शन : जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रेंस १५ जैन धर्म का प्राण : श्री सुखलालजी संधवी १६ जैन धर्म मीमांसा : दरवारीलाल सत्यपाल १७ जैन धर्म का स्वरूप : कर्पूर विजयजी १८ जैन संस्कृति का उदय : श्री सुखलालजी संधवी १६ जैन साहित्य और इतिहास : पं० नाथूराम प्रेमी २० धर्मवर्णन ग्रंथावली : अगरचन्द नाहटा २१ प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ २२ वेलिक्रिसन रुकमणीरी ( भूमिका ) : डॉ० आनन्द प्रकाश दीक्षित २३ मट्टारक सम्प्रदाय : जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर २४ भारतवर्ष का इतिहास : डॉ० विश्वेश्वर प्रसाद २५ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान : डॉ० हीरालाल जैन
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३४४
आलोचना-खड
२६ भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रेखाएं : परशुराम चतुर्वेदी २७ मध्यकालीन धर्म-साधना : डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी २८ मध्ययुग का संक्षिप्त इतिहास : डॉ० ईश्वरी प्रसाद २६ मिश्रवन्धु विनोद : मिश्रबन्धु ३० युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि : अगरचन्द मंवरलाल नाहटा ३१ राजपूताने का इतिहास : जगदीशसिंह गहलोत ३२ राजस्थान के जैन संत----व्यक्तित्व और कृतित्व : डॉ० कस्तूरचन्द कामलीवाल ३३ राजस्थानी भापा और साहित्य : नरोत्तमदाम स्वामी ३४ राजस्थानी भाषा और साहित्य : डॉ. मोतीलाल मेनारिण ३५ राजस्थानी साहित्य प्रगति और परम्परा : डॉ० मरनामसिंह ३६ रासा और रासान्वयो काव्य : दशरथ ओझा ३७ विनयचन्द्र-कृति कुसुमांजलि : भंवरलाल नाहटा ३८ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ बागरा ३६ समयसुन्दर-कृति कुसुमांजलि : अगरचन्द नाहटा ४० समयमुन्दर रास पंचक : भंवरलाल नाहटा ४१ समयसुन्दर रास-त्रय : भंवरलाल नाहटा ४२ सीताराम चोपाई : अगरचन्द-भंवरलाल नाहटा ४३ सेठ कन्हैयालाल पोद्दार अभिनन्द ग्रंथ : वासुदेवशरण अग्रवाल ४४ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग : नामवरसिंह ४५ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास : नाथूराम प्रेमी ४६ हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास : कामताप्रसाद जैन ४७ हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग, १, २ : नेमिचन्द्र शास्त्री ४८ हिन्दी पद संग्रह : सं० कस्तूरचन्द कासलीवाल ४६ हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास (प्रथम भाग) : संपादक राजवली पांडेय ५० हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड) : धीरेन्द्र वर्मा ५१ हिन्दी साहित्य का आदिकाल : डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ५२ हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डॉ० रामकुमार वर्मा ५३ हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल ५४ हिन्दी साहित्य कोश ( भाग १, २.) : ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस
सूचीपत्र एवं अन्य विवरण : ०० अगरचन्द नाहटा लेख-सूची : सं० नरोत्तमदास स्वामी । ०० अभय जैन ग्रन्यालय, बीकानेर के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र (अप्रकाशित)।
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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
०० ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा के हस्तलिखित ग्रंथों का सूचीपत्र 1
०० प्रशस्ति संग्रह : सं० कस्तूरचन्द कासलीवाल ।
०० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र ( अप्रकाशित ) ।
०० राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची, भाग ३ : सं० कस्तूरचन्द कासलीवाल ।
३४५
०० राजस्थान के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज : मुनि कांति सागर (अप्रकाशित ) i ०० राजस्थान के हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाम १ : सं० मोतीलाल मेनारिया |
०० राजस्थान के हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ३ : सं० उदयसिंह
भटनागर ।
०० राजस्थान के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र | ०० सरस्वती भवन, उदयपुर के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र |
००
साहित्य संस्थान, उदयपुर के हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र ( अप्रकाशित) । गुजराती ग्रन्थ :
१ आचार्य आनन्दशंकर ध्रुवस्मारक ग्रन्थ : श्री साराभाई मणिलाल नवाच ॥
२ आनन्द काव्य महोदधि - भाग १-६ : संपादक जीवचन्द मो० झवेरी ।
३ आनन्दघन चोवीसी : प्रभुदास वेचरदास पारेख ।
४ आनन्दघन तथा चिदानन्द जी : श्री भीमशी माणेक ।
११ गुजराती भापानी उत्क्रांति : पं० वेचरदास ।
१२ गुजराती भाषानुं वृहत् व्याकरण: कमला शंकर प्रा० त्रिवेदी ।
१३ गुजराती साहित्य : अनन्तराय रावल ।
१४ गुजराती साहित्यना मार्गसूचक स्तंभो : श्री कृष्णलाल मो० झवेरी ।
१५ गुजराती साहित्यना स्वरूपो : डॉ० मंजुलाल मजुमदार । १६ गुजराती साहित्यनुं रेखादर्शन : श्री के० का० शास्त्री |
C
५ आनन्दघन पद संग्रह : बुद्धि सागर जी ।
६ आनन्दघन पद रत्नावली भाग १ : मोतीचन्द गिरघरलाल कापड़िया
७ इतिहासनी केडी : भोगीलाल सांडेसरा ।
८ कवि चरित : श्री के० का० शास्त्री ।
६ ग्रन्थ अने ग्रन्थकार भाग १ - ६ : गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटी, अहमदाबाद । १० गुजराती ओओ हिन्दी साहित्यमा आपेलो फालो : श्री डाह्याभाई पी० देरासरी ।
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३४६
• आलोचना-खंड
१७ गुजराती साहित्यनु रेखादर्शन : प्रो० मनसुखलाल झवेरी तथा रमणलाल शाह । १८ गूर्जर साहित्य संग्रह भाग १-२ : यशोविजय जी । १६ जगत अने जैन दर्शन : विजयेन्द्र सूरि । २० जैन गूर्जर कविओ : भाग १-३ : मोहनलाल द० देसाई। २१ जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य संग्रह : जिनविजयजी। २२ जैन इतिहास साहित्य अङ्क : माणेकलाल अम्बालाल । २३ जैन काव्य संग्रह : नाथालाल लल्लूभाई । २४ जैन ग्रन्थावली : जैन श्वेताम्बर क्रोन्न्स । २५ जैन काव्य दोहन भाग १ : सम्पादक : मनसुखलाल खत्रीभाई महेता। २६ जैन धर्म-एक आलोचना : श्री सुभद्रादेवी। २७ जैन-दर्शन : न्याय विजयजी । २८ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो भाग १ : भाईचन्द नगीन भाई झवेरी, सूरत । २६ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास : मोहनलाल द० देसाई । ३० दर्शन अने चिंतन : पंडित सुखलाल जी। ३१ प्राचीन काव्यमाला-३६ भाग : संपादक : इच्छाराम सू० देसाई । ३२ प्राचीन गुजराती कविओ अने तेमनी कृतियो : रमणीकलाल सम्पतलाल । ३३ प्राचीन जैन लेख संग्रह : जिनविजयजी। ३४ प्राचीन फागु संग्रह : संपादक : डॉ० भोगीलाल सांडेसरा । ३५ प्राचीन स्तवन संग्रह-भाग १, २ : ज्ञान विमलसूरि । ३६ भारतीय जैन आदर्श : इन्द्रवदन जैन। . ३७ भजन संग्रह धर्मामृत : पं. वेचरदास दोसी। ३८ मध्यकालीन गुजरातनी सामाजिक स्थिति : रामलाल चुन्नीलाल मोदी। ३६ मध्यकालनो साहित्य प्रवाह : क० मा० मुन्शी । ४० यगोविजयजी ग्रन्थमाला भाग १, २ : माणिक्यसरि । ४१ यशोविजयजी चौवीसी : दुर्गाप्रसाद शास्त्री। ४२ श्रीपाल राजानो रास : ज्ञानदीपक छापाखाना, वम्बई । ४३ श्रीमद् राजेश्वर सूरि स्मारक ग्रंथ : साराभाई नवाव । ४४ श्रीमद् देवचन्द्र भाग १, २ : बुद्धिसागर जी। ४५ सत्तरमा गतकना पूर्वार्द्धनां जैन गुजराती कविओ ( अप्रकाशित ) : वी० जे० ___चौकसी। ४६ सूरीश्वर अने सम्राट : विद्या विजयजी।
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संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थ
(१) अष्ट पाहुड़ । (२) आचारांग सूत्र । (३) उत्तर रामचरित । (४) ऋग्वेद । (५) कुवलय माला। (६) तत्त्वार्थ सूत्र। (७) तत्त्वार्थ वार्तिक । () दश वैकल्पिक सूत्र । (६) दश भक्ति । (१०) ध्वन्या लोक । (११) नारद भक्ति सूत्र । (१२) परमात्म प्रकाश । (१३) पाणिनी सूत्र । (१४) प्राकृत व्याकरण । (१५) ब्रह्माण्ड पुराण । (१६) भगवती सूत्र । (१७) मनु स्मृति। (१८) मज्झिम निकाय । (१६) शांडिल्य भक्ति सूत्र । (२०) श्रीमद् भगवद् गीता । (२१) श्रीमद् भागवत । (२२) श्रु तावतार । (२३) स्कन्द पुराण । (२४) समाधि तंत्र। (२५) समीचीन धर्मशास्त्र । (२६) साहित्य दर्पण। (२७) सिद्ध हेम शब्दानुशासन (२८) सूत्र कृतांग।
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परिषिष्ट :४
पत्र-पत्रिकाएँ ०० अनेकान्त । ०० कल्याण। ०० जिनवाणी (जयपुर)। ०० जैनधर्म प्रकाश (भावनगर)-गुजराती । ०० जैन युग (बम्बई)-गुजराती। . ०० जैन सत्यप्रकाश (अहमदावाद)-गुजराती। ०० जैन सिद्धान्त भास्कर । ०० नागरी प्रचारिणी पत्रिका (कागी)। ०० परम्परा (जोधपुर)। ०० भारतीय साहित्य । ०० भारतीय विद्या। ०० मरु भारती (पिलानी)। ०० राजस्थान भारती (बीकानेर)। ०० राजस्थानी (कलकत्ता)। ०० वीरवाणी। ०० शोध-पत्रिका (उदयपुर)। ०० सम्मेलन पत्रिका। ०० हिन्दी अनुशीलन (इलाहाबाद)। ०० जानोदय ।
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अंग्रेजी-ग्रंथ
1. Classical poets of Gujarat Govardhan Ram Tripathi.
:
2. Early History of India: Visent Smith.
3. Further Milestone in Gujarati Literature: K. M. Javeri. 4. Gujarat and its Literature: K. M. Munshi.
5. Gujarati Language aud Literature: N. B. Divetia, (Philological lectures Part I and II )
6. Historical facts about Jainism
Maganlal M. Shah.
7. History of India Francis Pelsent.
:
8. Indian Antiquery-1914, 15, 16 (Notes on old Rajasthani)
9. Indian Literature: Frazer.
10. Jain Philosophy: Karbhari Bhagubhai.
11. Linguistic Survey of India: Vol. IX Part 1 to 11 By Sir George Grierson (1916).
12. Milestone in Gujarati Literature: K. M. Javeri.
13. Mugal Rule in India: S. M. Edwards.
14. Notes on the grammar of old Western Rajasthani Dr. L. C. Tessitori.
15. Obscure religious acts: S. B. Das Gupta.
16. The present States of Gujarati Literature: K. M. Iaveri.
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