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आलोचना-खंड
"मूरख नर काहे तू करत गुमान ।
तन धन जोवन चंचल जीवित, सहु जग सुपन समान । कहां रावण कहां राम कहां नलि, कहां पांडव परधान । इण जग कुणकुण आइ सिधारे, कहि नई तू किस थान ॥ आज के कालि आखर अंत मरणा, मेरी सोख तू मान । समयसुन्दर कहर अधिर संसारा, घरि भगवंत कउ व्यान ||३|| १
आनन्दघन ने भी तन, धन और यौवन को झूठा कहा है और यह सब पानी के बीच बताशे की भांति क्षणिक अस्तित्व वाले हैं, 'पानी विच्च पतासा' हैं |२
यही कारण है कि शांति के उपासक ये कवि शांतिप्रदायक प्रभु की शरण में गये हैं । रागद्वेष ही अशांति के मूल हैं । प्रभु स्मरण और उनकी शरण में जाने से ये विलीन हो जाते हैं । प्रभु ध्यान में अनन्त शांति का अनुभव होता है और प्रभु गुनगान में तन-मन की सुव एवं सांसारिक दुविधाओं का अंत आ जाता है । यहां वह परमात्मा की अक्षय निधि का स्वामी वन जाता है । फिरे उसे हरि-हर इन्द्र और ब्रह्मा की निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं । उस परमात्मा रस के आगे अन्य रस फीके पड़ जाते हैं | क्योंकि कवि ने अब तो खुले मैदान में मोहरूपी महान् शत्रु
को जीत लिया है
"हम मगन भये प्रभु व्यान में ।
विसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरा सुत गुन ज्ञान में || १ ||
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चिदानन्द की मोज मची है, समता रस के पान में ||२|| = S गई दीनता सब ही हमारी, प्रभु ! तुज समकित - दान में । प्रभु-गुन- अनुभव रस के आगे, आवत नांहि कोड मान में । जिनहि पाया तिनही छिपाया, न कहे कोउ के कान में । ताली लागी जब अनुभव की, तव जाने कोउ साँन में । प्रभु गुन अनुभव चंद्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । वाचक जा कहे मोह महा अरि, जीत लीयो हे मेदान में || "३
१. समयमुन्दर कृति कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४४९-५० । २. आनन्दवर्धन पद संग्रह, अव्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, वंबई पद सं० २६ | ३. गूर्जर साहित्य संग्रह १, गोविजय जी, पृ० ८३ ।