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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता १६३ शांति की इस चरम स्थिति पर पहुंचने पर अनहद वाजा वज उठता है । जीव और ब्रह्म की यह तादात्म्य स्थिति ब्रह्मरति है और शांत रस की चरम परिणति है "उपजी धुनी अजपाकी अनहद, जित नगारे वारी । झडी सदा आनन्दधन बरसत, वनमोर एकनतारी ॥२०॥"१ इस प्रकार शांत रस की विशाल परिधि ने जीवन के समस्त क्षेत्रों को आवृत्त कर लिया है । यही कारण है कि आलोच्य युगीन जैन गुर्जर कवियों ने अपनी कृतियों में शांत रस को ही प्रधानता दी है। इन कवियों का प्रधान लक्ष्य राग-द्वेष से परे रहकर समत्व की भावना को ऊँचा उठाना रहा है। जैन साहित्यकारों ने वैराग्योत्पत्ति के दो साधन बतलाये हैं। तत्वज्ञान, इप्ट वियोग या अनिष्ट संयोग । इसमें प्रथम स्थायी भाव है, दूसरा संचारी। आज का मनोविज्ञान भी इस मत का समर्थन करता है-इसके अनुसार राग की क्लान्त अवस्था ही वैराग्य है । महाकवि देव ने राग को अतिशय प्रतिक्रिया माना है। उनके मतानुसार तीव्र राग ही क्लान्त होकर वैराग्य में परिणत हो जाता है। अतः शांत रस में मन की विभिन्न दशाओं का रहना आवश्यक है ।२ आत्मा ही शांति का अक्षय भण्डार है । आत्मा जव देहादि भौतिक पदार्यों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगती है तब गांत रम की निप्पत्ति होती है। अहंकार राग-द्वपादि से रहित शुद्ध ज्ञान और आनंद से ओत-प्रोत आत्मस्थिति मानी गई है। यही चिरस्थायी है। इसी स्थिति को प्राप्त करने कराने में इन कवियों ने अपनी साहित्य-साधना की है। भक्ति -पक्ष : भक्ति का सामान्य स्वरूप व उसके तत्व अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार 'भक्ति' शब्द 'मज' धातु में स्त्रीलिंग 'वतन्' प्रत्यय लगाने से बना है।३ जिसका अर्थ भजना है । 'नारद' के अनुसार भक्ति 'परम प्रेम रूपा' और अमत स्वरूपा है, जिसे प्राप्त कर जीव सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है । ४ नारद भक्ति मूत्र में विभिन्न आचार्यों के अभिमत रूप में 'भक्ति' की अनेक परिमापाएँ दी गई हैं । कुछ प्रसिद्ध परिभाषाएँ इस प्रकार है १. आनन्दधन पद संग्रह, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल, बंबई, पद सं० २० । २. हित्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग १, नेमिचन्द जैन, पृ. २३१-३३ । ३. अभिधान राजेन्द्र कोग, पांचवा भाग, पृ० १३६५ । ४. 'सा त्वस्मि परमप्रेमरूना, अमृत स्वरूपा च' भक्ति सूत्र : २-३ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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