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आलोचना-खंड
(१) व्यास जी के मतानुसार 'पूजादिएवानुरोग इति पराशर्यः' पूजादि में प्रगाढ़ प्रेम ही भक्ति हैं । १
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(२) शांडिल्य के अनुसार 'आत्मरत्यविरोधेनेति शांडिल्यः' आत्मा में तीव्र रति होना ही भक्ति है | २
(३) शांडिल्य भक्ति सूत्र के अनुसार ईश्वर में परम अनुरवित का नाम ही भक्ति है - 'सा परानुरक्तिरीश्वरे ॥३
(४) भागवत में निष्काम भाव से स्वभाव की प्रवृत्ति का सत्यमूर्त भगवान में लय हो जाना भक्ति कहा गया है |४
सारांशतः भक्ति में इष्टदेव और भक्त का सम्वन्ध है । भक्त और भगवान में भक्ति का ही एक मात्र नाता है । भक्ति के नाते ही भगवान द्रवित हो जाते हैं और भक्त पर कृपा करते हैं । उसे शरण में ले लेते हैं, माया से मुक्त कर देते है और अपने में लीन कर लेते हैं । यह भक्ति प्रेम रूपा है । विना प्रीति के भक्ति उत्पन्न नहीं होती अत: प्रीति भक्ति का आवश्यक अंग है । इस प्रीति निवेदन के लिए भक्त अन्यान्य भावों-क्रियाओं का सहारा लेता है । इन्हीं क्रियाओं के आधार पर भागवत में भक्ति के नौ प्रकार (रूप) माने गए हैं ।५ नारद भक्ति सूत्र में इसके ग्यारह भेद बताये गये हैं, जो ग्यारह आसक्ति रूप में वर्णित है । ६ आचार्य रूप गोस्वामी कृत 'हरिभक्ति रसामृत सिन्धु' में भक्ति रस से संबंधित पांच भाव स्वीकार किए गये हैं - १. शान्ति, २. प्रीति, ३. प्रेय, ४. वत्सल, ५. मधुर । इनका मूल 'भागवत' की नवधा भक्ति तथा 'नारद भक्ति सूत्र' की एकदश आसक्तियों में मिल जाता है |७
१. नारद भक्ति सूत्र १६ ।
२. वही, १८ ।
३. शांडिल्य भक्ति सूत्र, १११११ ।
४. श्रीमद् भागवत् स्कन्द ३, अध्याय २५, श्लोक ३२-३३ |
५. श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनम् ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम् ||
श्रीमद् भागवत स्कंद ७, अध्याय ५, श्लोक ५२ । ६. "गुण माहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति, संख्यासक्ति, कान्तासक्ति, तन्मयता सक्ति, परम विरहासक्ति रूपा एकाधाप्येकादशाधा भवति ।" नारद भक्ति सूत्र, सूत्र ८२ ।
७. हिन्दी साहित्य कोप, संपा० डॉ० धीरेन्द्र वर्मा,
पृ० ५३१ ।