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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता १६५ जैन धर्म-साधना में भक्ति का स्वरूप । जैन धर्म ज्ञान प्रधान है, फिर भी भक्ति से उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध है । श्री हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत व्याकरण में भक्ति को 'श्रद्धा' कहा है ।१ आचार्य समन्तभद्र ने भी श्रद्धान् और भक्ति का एक ही अर्थ माना है ।२ जैन शास्त्रों में श्रद्धा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। श्रद्धा से मोक्ष तक मिल सकता है। श्रद्धान् को सम्यक दर्शन कहा है और सम्यक् दर्शन मोक्ष का साधन बताया है।३ जैन आचार्यों ने 'दर्शन' का अर्थ श्रद्धान् किग है और उसे ज्ञान से भी पहले रखा है।४ इस प्रकार श्रद्धा को स्वीकार कर मक्ति को ही प्रमुखता दी है। जैन आचार्यों ने भक्ति की परिभाषाएं भी दी हैं । कुछ परिभाषाएँ द्रष्टव्य है (१) आचार्य पूज्यपाद के अनुसार, 'अरहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में भाव विशुद्धि युक्त अनुराग ही भक्ति है ।"५ (२) आचार्य सोमदेव के मतानुसार, 'जिन, जिनागम और तप तथा श्रु त में परायण आचार्य में मद्भाव विशुद्धि युक्त अनुराग ही भक्ति है ।६ १. 'आचार्य हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण, डॉ० आर० पिशेल सम्पादित, बम्बई संस्कृत मीरीज, १६००, २११५६ । २. आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, पृ० ७२, ७५, श्लोक ३७, ४१ । ३. (क) श्रद्धानं परमार्थानामाप्ता गमतपोमृताम् । विमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्यम् ।। वही, पृ० ३२ श्लोक ४ । (ख) योगीन्दु देव, परमात्माप्रकाग, श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये संपादित, परमश्रत प्रभावक मंडल, वम्बई, पृ० १३८ २०१२ । ४. आवार्य भट्ट कलंक, तत्वार्थवाक्तिक, भाग १, पं० महेन्द्रकुमार संपादित, हिन्दी ___अनुवाद, पृ० १७६ । ५. "अहंदाचार्ये प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।" आचार्य पूज्य गद, सर्वार्थसिद्धि, पं० फूलचन्द संपादित भाप्य, पृ० ३३६ । ६. जिने जिनागमे सूगै तपः श्रुतपरायणो । सद्मावशुद्धि सम्पन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥ Prof. K. K. Handiqui, yasastilak and Indian Culture, Jain Sanskriti Samarkashaka Sangha, Sholapur, 1949, P. 262.
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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