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________________ आलोचना-खंड आलोच्य युगीन जैन गूर्जर कवियों की प्रेरणा का स्रोत यही अनुरागमय जिनेश्वर भक्ति या आत्मरति है । महात्मा आनंदघन ने इस भाव को अधिक स्पष्ट करते हुए बताया है कि जिस प्रकार कामी व्यक्ति का मन, अन्य सब प्रकार की सुधबुध खोकर काम-वासना में ही लगा रहता है, अन्य वातों में उसे रस नहीं मिलता; उसी प्रकार प्रभु नाम और स्मरणादि रूप भक्ति में, भक्त की अविचल निष्ठा वनी रहती है । १ अनुराग की-सी तल्लीनता और एकनिष्ठता, अन्यत्र संभव नहीं । एक अन्य स्थान पर भक्ति पर सम्बन्ध में महात्मा आनन्दघन ने कहा है, 'जिस प्रकार उदर भरण के लिए गौयें वन में जाती हैं, वहां चारों ओर फिरती हैं और घास चरती है, पर उनका मन घर रह गये अपने बछड़ों में लगा रहता है । ठीक इसी प्रकार संसार के सब काम करते हुए भी भक्त का मन भगवान के चरणों में लगा रहता है । सहेलियाँ हिल - मिलकर तालाब या कुएँ पर पानी भरने जाती हैं। रास्ते में ताली वजाती हैं, हँसती हैं, खेलती हैं, किन्तु उनका व्यान सिर पर धरे घड़े में ही लगा रहता है | वैसे ही संसार के कामों को करते हुए भी भक्त का मन तो प्रभु चरणों में ही लगा रहता है | २ जैनों का भगवान वीतरागी है जो सव प्रकार के रागों से मुक्त होने का उपदेश देता है । इस वीतरागी के प्रति राग 'बन्ध' का कारण नहीं, क्योंकि इसमें किसी प्रकार की कामना या सांसारिक स्वार्थ सन्निहित नहीं । वीतराग में किया गया अनुराग निष्काम ही होता हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने वीतरागियों में अनुराग करने वालों को योगी बताया है । ३ वीतरागी की 'वीतरागता' पर रीझकर ही भक्त उससे १६६ - आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्मप्रसारक मण्डल, वम्बई । ऐसे जिन चरण चितपद लाऊ रे मना, २. ९. जुवारी मन जुवा रे, कामी के मन काम | आनन्दघन प्रभु यो कहै, तू ले भगवत को नाम ||४|| ऐसे अरिहन्त के गुण गाऊ रे मना । उदर मरण के धारणे रे गडवां वन में जांय । चारों चरै चहुंदसि फिर, वाकी सुरत बछरूआ मांय ॥ १ ॥ सात पांच सहेलियां रे हिलमिल पाणीडे जायं । ताली दिये खल खल हँसे, वाकी सुरत गगरूआ मांय || --आनन्दघन पद संग्रह, अव्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई । ३. देवगुरुम्मिय भत्तो साहिम्मय संजुदेसु अरगुरती || सम्मत्त मुव्वहंतो झाणरओ होइ जोईसो || - अष्टपाहुड, पाटनी जैन ग्रन्थमाला, मारौठ (मारवाड़) मोक्ष पाहुड, गाथा ५२
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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