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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता १६७ अनुराग करने लगता है। बदले में वह न दया चाहता है, न प्रेम, न अनुग्रह । यह वीतरागी के प्रति निष्काम अनुराग जैन भक्ति की विशेषता कही जा सकती है। जैन भक्त कवियों ने वीतरागी प्रभु को अपनी प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति द्वारा प्रसन्न कर अपना कोई लावि क या उ..विक वार्य रिंद्ध कराने की 3.पेक्षा नहीं की है । जैनदर्शन में यह संभव भी नहीं। सच्चिदानन्दमय वीतरागी प्रभु में रागांश का अभाव है, उनकी भक्ति, स्तुति या पूजा द्वारा कुछ भी दिया, दिलाया नहीं जा सकता। वे तो निन्दा और स्तुति, मक्ति और ईर्ष्या दोनों के प्रति उदासीन हैं । फिर भी निन्दा या स्तुति करने वाला स्वयं दण्ड या आत्मिक अभ्युदय अवश्य प्राप्त करता है। कर्मों का भोक्ता और कर्ता स्वयं जीव ही है। अपने कर्मो का फल तो उसे - भोगना ही पड़ता है। प्रभु किसी को किसी प्रकार का फल नहीं देता। अतः जैन भक्ति में अकिंचन या नैराश्य की भावना नहीं। जान-ज्योति के प्रज्वलन की यह भक्ति आराधक की आत्मा में एक स्वच्छ एवं निर्मल आनन्द की सृष्टि करती है। जैन कवियों की भक्ति का मूल मुक्ति की भावना में है। कर्मों से छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है ।१ जैन गूर्जर कवियों में भक्ति से मुक्ति मिलने का प्रबल विश्वास मुखर हुआ है। इस मुक्ति की याचना में भक्त के जिनेन्द्रमय होने का भाव है। इसे लेन-देन का भाव२ इसलिए भी नहीं कह सकते कि जिनेन्द्र स्वयंमुक्ति रूप ही हैं। ज्ञान की अनिवार्यता भी इन कवियों ने स्वीकार की है। साधना के तीन बड़े मार्ग हैं-भक्ति, ज्ञान और कर्म । जान मानव को उस अज्ञात के तत्वान्वेषण की ओर खींचता है, कर्म जीवन की व्यावहारिकता में गूथता है और भक्ति में संसार और परमार्थ की एक साथ मधूर साधना की ओर प्रवृत्ति होती है। यही कारण है कि माधुर्य को भक्ति का प्राण कहा गया है। बाह्याचारों-नवधा-भक्ति एवं पोडगोपचार पूजा को भी भक्ति के अंग माने गये हैं। परन्तु भक्ति की सहज स्थिति तो देवत्व के प्रति रसपूर्ण आकर्पण में ही है। अतः भक्ति देवतत्व के माधुर्य से ओतप्रोत मन की अपूर्व रसानन्द की अलौकिक दणा है। जैन-दर्शन में भक्ति का रूप दास्य, माधुर्य आदि भाव की भक्ति से भिन्न अवश्य है फिर भी इन भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के दर्शन में इनमें अवश्य होते हैं । १. 'वन्धेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्रन-कर्मक्षयी मोक्षः' तत्वार्थ सूत्र, १०१२-१०१३ । २. आ० रामचन्द्र शुक्ल ने इसे लेन-देन का भाव कहा है, चिन्तामणि प्रथम भाग, पृ० २०५।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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