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आलोचना-खंड
कारण यह है कि इस प्रकार की भक्ति से आराधक की आत्मा अपने शुद्ध रूप में प्रगट हो जाती है । माधुर्य, दास्य, विनय, सख्य, वात्सल्य, दीनता, लघुता आदि भाव वैसे ही साधारण्य में आये हैं जैसे अपने को शुद्ध करने के लिए अन्य शुद्धात्माओं का आश्रय लिया जाता है। इन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त, आलोच्य युगीन जैन गुर्जर कवियों की भक्ति-भावना का अब हम विस्तार से अध्ययन आगे के पृष्ठों में करेंगे। जेन गुर्जर हिन्दी कवियों की कविता में भक्ति निरूपण माधुर्य भाव :
___ गाण्डिल्य ने भगवद्विषयक अनुराग को 'परानुरक्तिः' कहा है ।१ यह गम्भीर अनुगग ही प्रेम है। चैतन्य महाप्रभु के अनुसार रति या अनुराग का गाढ़ा हो जाना ही प्रेम है ।२ भगवद्विषयक प्रेम अलौकिक प्रेम की कोटि में आता है। भगवान को अवतार मानकर उनके प्रति लौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति अवश्य हुई है पर यहां अलौकिकत्व भाव मदैव बना रहा है। इस अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता में संपूर्ण आत्मसमर्पण होता है अतः द्वैतभाव का प्रश्न ही नहीं रहता।
समर्पण भक्ति का प्रधान भाव है। इन जैन कवियों ने प्रभु के चरणों में अपने को समर्पित किया है। इनके समर्पण में एक निराला सौंदर्य है, जिनेन्द्र के प्रति प्रेम-भक्ति की तल्लीनता है। यह वात आनन्दधन, यशोविजय, विनयविजय, ज्ञानानंद, कुमुदचंद्र, रत्नकीर्ति, शुभचंद्र आदि के पदों में विशेष रूप से देखी जा सकती है।
इन कवियों ने इस अलौकिक प्रेम, तत्जन्य आत्मसमर्पण और रागात्मक भाव की अभिव्यक्ति के लिए "दाम्पत्य रति" को लोकिक आधार रूप में स्वीकार किया है। 'दाम्पत्य रति' का अर्थ पति-पत्नी के प्रेम से है। प्रेम का जो गहरा सम्वन्व पति-पत्नी में संभव है, अन्यत्र नहीं। इसी कारण कान्ताभाव से इन कवियों ने भगवान की आराधना की है। भक्त स्त्री रूप है, परमात्मा प्रिय ( कपाय युक्त जीवतत्व मक्त है और कपाय मुक्त आत्मतत्व परमात्मा है।) इस दाम्पत्य भाव का प्रेम इन कवियों की कविता में उपलब्ध होता है। आनन्दधन के भगवान स्वयं भक्त के घर आये हैं, भक्त के आनन्द का पारावार नहीं। आनन्दघन की सुहागन नारी के नाय स्वयं आये हैं और अपनी 'जिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है और उसे अपनी 'अंगचारी' बनाया है। लम्बी प्रतीक्षा के वाद आये हैं, वह प्रसन्नता में विविध भांति के शृङ्गार करती है। प्रेम, विश्वास, राग और रुचि के रंग से रंगी झीनी साड़ी पहनी है। भक्ति के रंग की मेंहदी रचाई है और अत्यन्त सुख देने वाला भाव १. शाण्डिल्य भक्तिसूत्र, गीता प्रेस, गोरखपुर, ११२, पृ० १ । २. कल्याण, भक्ति अंक, वर्ष ३२, अंक १, चैतन्य चरित्रामृत, पृ० ३३३ ।