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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
रहना है, स्वप्न के भ्रम को समझना है ।" १ यौवन की उन्मत्तता और विषयासक्ति का अन्त नहीं । संसार की माया मृगतृष्णा है । यहां कभी मन की इच्छाएं पूरी नहीं होती । फिर भी मानव-मन न तो पश्चाताप करता है और न उससे विलग होने का प्रयत्न ही करता है । कवि इस स्थिति ते परिचित कराता हुआ कहता है
" मन मृग तु तन वन में मातौ ।
केलि करे चरै इच्छाचारी, जाणे नहीं दिन जातो । माया रूप महा मृग त्रिसनां, तिण में धावे तातो । आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो । कामणी कपट महा कुडि मंडी, खवरि करे फाल खातो । • कहे धर्मसीह उलंगीसि वाको, तेरी सफल कला तो ॥२
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इसी तरह कवि किशनदास ने योवन झलक को 'चपला की चमक' और विषय सुख को 'धनुष जैसो धन को बताया है 1३
और काया और माया को 'बादल की छाया'
जीव सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए ललचाता रहता है । एक के बाद दूसरे को प्राप्त करने की तृष्णा कभी नहीं बुझती । वह व्यर्थ ही उसके पीछे दौड़ लगाता है । उसे पता नहीं सुधा सरोवर उसके भीतर ही लहरा रहा है । उसमें निमज्जित होने से सब दुःख दूर हो जाते हैं और परमानंद की प्राप्ति होती है । सांसारिक पदार्थों के लिए ललचाना मूर्खता है । जिसके लिए यह जीव व्याकुल होकर 'मेरी-मेरी' करता है, वे सब बुलबुले की तरह क्षणिक हैं । अतः क्षणिक पदार्थों में चिरन्तन सुख ढूंढ़ना मूर्खता है । मोह माया वश जीव का शुद्ध रूप आच्छादित हो गया है 1 वह अतृप्ति के कांटों पर लेटकर दुःख पा रहा है, ज्ञान- कुसुमों की शय्या पर लेटने का उसे सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ 1४ समयसुन्दर ने कहा है, 'हे मूर्ख मानव तू घमण्ड क्यों करता है । तन, धन, यौवन क्षणिक है, स्वप्नवत् है । रावण, राम, नल, पाण्डव आदि सभी संसार में आकर चले गये । इनके सामने तेरी क्या विसात | आज नहीं तो कल सवको मरना है । अतः तू शीघ्र चेत जा और भगवान
का व्यान कर-
१. आनंदवर्धन चौवीसी, नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रतिलिपि ।
२. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० १० ।
३ उपदेश बावनी, किशनदास, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर
नागर ।
४. भजन-संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, पृ० ३५ ।