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आलोचना-खंड
अपार गुणों से युक्त उनके सामर्थ्य और पूर्ण शांति प्रदायक होने के सत्य को मानकर ही, उन्हें अपने स्वामी रूप में स्वीकार किया हैं । १
जीव अपने सच्चे परमात्मा कारण मोह है अतः मोह का जायेंगे और अनन्त ज्ञान का
यशोविजय जी का अभिमत है कि राग- पादि से प्रेम करने के कारण ही स्वरूप का दर्शन नहीं कर पाता । राग-द्वेष का मुख्य निवारण अनिवार्य है । कर्म बंधन भी इसी के साथ टूट प्रकाश आत्मा में झिलमिला उठेगा । २ सुख और शांति की कामना में मन कैसे उलटी चाल चल पड़ता है । सांसारिक विषय विपाक और मुखभोग में फंसे मन को प्रबुद्ध करता हुआ कवि कहता है—३
" चेतन ! राह चले उलटे |
नख-शिखलों बंधन में बैठे, कुगुरु वचन कुलटे । विपय विपाक भोग सुखकारन, छिन में तुम पलटे ॥ चाखी छोर सुधारस समता, भव जल विपय खटे ॥ भवदवि विचि रहे तुम ऐसे, आवत नांहि तटे | तिहां तिमिंगल घोर रहतु है, चार कषाय कटे ॥ वर विलास वनिता नयन के पास पड़े लपटे । अव परवश भागे किहां जाओ, झालें मोह-मटे ॥ मन मेले किरिया जे कीनी, ठगे लोक कपटे । ताको फलविनु भोग मिटेगो, नांहि रटे ॥ सीख सुनी अब रहे सुगुरु के इतु करते तुम सुजश लहोगे,
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तुमकु चरण कमल निकटे ।
तत्वज्ञान प्रगटे || "
यांत माव की अभिव्यक्ति के लिए अधिकांश कवियों ने एक विशेष ढंग अपनाया है । सांसारिक वैनवों की क्षणभंगुरता और असारता दिखाकर, तज्जन्य व्यग्रता को प्रगट कर कवि लोग चुप हो गये हैं और इसी मौन में शान्तरस की ध्वनि, संगीत की स्वर लहरी की तरह झंकृत होती रहती है । योवन और सांसारिक उपमोग में उन्मत्त जीवों को सम्बोधन करते हुए आनंदवर्द्धन कहते हैं, "योवन रूपी मेहमान को जाने में देर नहीं लगती ।" यौवन चंचल और अस्थिर है, उसकी प्रतीति नेमिनाथ ने प्रत्यक्ष की थी। दुनिया पतंग के रंगों की भांति रंगीन और चंचल है । संसार स्वप्न की तरह मिथ्या है और असार है। अतः हे जीव संसार में सावधान होकर
१. समयमुन्दर कृति कुमुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ७ । २. गुर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० १५७-५६ ए । ३. वही, पृ० १६३ ।