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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता १८६ दिखता है, जहां सभी शांत रस में डूबते-तैरते परिलक्षित होते हैं। अन्य रसों के सुन्दर वर्णनों की, अन्तिम परिणति शम या निर्वेद में ही हो गई है। इन कवियों की कविता में एक ओर सांसारिक राग-द्वेषादि से विरक्ति है, तो दूसरी ओर प्रभु से चरम शांति की कामना। जब तक मन की दुविधा नहीं मिटती, मन शांति का अनुभव नहीं कर सकता। यह दुविधा तो तभी मिट सकती है जब परमात्मा का अनुग्रह हो और कुछ ऐसी बक्षिस दे कि वह संसार के राग विराग, माया-मोह से ऊपर उठकर प्रभुमय वन जाय अथवा उपर्युक्त शान्त रस का अनुभवकर्ता बन जाता है "प्रभु मेरे कर ऐसी वकसीस, द्वार द्वार पर ना भटको, नाउं कीस ही न सीस ।। मुध आतम कला प्रगटे, घटे राग अरु रीस । मोह फाटक खुले छीम में, रमें ग्यान अधीस ।। तुज अलायव पास साहिव, जगपति जगदीश । गुण विलास की आस पूरो, करो आप सरीस ।।"१ जीव संसार के भीतर भटकता फिरता है, उसे शांति कहीं भी नहीं मिलती। भवसागर की तूफानी लहरों के बीच डगमगाती जीवन नौका को पार लगाने की शक्ति एक मात्र प्रभु स्मरण में है। संमार की इस भीषण विपमता के मध्य अकुलाते जीव की दुर्दमनीयता एवं विवशता दिखाकर कवि आनंदवर्द्धन ने दिव्य आनंदानुभूति का विकाम विकीर्ण किया है "सै अकुलै कुल मच्छ जहां, गरजै दरिया अति भीम मयौ है । ओ वडवानल जा जुलमान जलै जल मैं जल पान कयो है । लोल उत्तरांकलोलनि कै पर वारि जिहाज उच्छरि दयो है। ऐसे तूफान में तोहि जप तजि मैं सुख सौं शिवधाम लयो है ॥४०॥"२ मन की चंचलता ही अशांति का कारण है। विपयादि में लिप्त रहने के कारण ही मन उद्विघ्न हैं। इसे प्रभु में स्थिर कर सांसारिक अशांति को पार कर शान्ति प्राप्त की जा सकती है ।३ कवि समयसुन्दर ने प्रभु को उनकी महानता, - १. गुण विलास, चौवीमी स्तवन, जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, पृ० ३६.1 २. भक्तामर सवैया, आनंदवर्द्धन, नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रतिलिपि । ३. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, विनयविजय के पद, पृ० ३७ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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