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आलोचना-खंड
रौद्र : "अकुलाय धरणि तरुणि तरणी, किरण थी, शोपत धरै । उपपति परइ धन कन्त अलगु, करी धन वेदन करै ।। तिम तुम्हें पणि विरह तापइ, तापवउ छउ अति घणु । चांदणी शीतल झाल पावक, परई कहि केतउ भणु ॥"
वीर : "काती कौतुक सांभरइ, वीर करइ संग्रा भोजी। विकट कटक चाला घणु, तिम कामी निज धामोजी ।। निज धाम कामी कामिनी वे, लडइ वेधक वयण सु। रणतूर नेउर खड्ग वेणी, धनुष-रूपी नयण सु॥"
भयानक : "भयानक रसइ मेदियउं, मगिसिर मास सनूरोजी । मांग सिरहि गोरी धरइ, वर अरुणि मां सिन्दूरो जी। सिन्दूर पूरइ हर्ष जोरइ, मदन झाल अनल जिसी । तिहां पडइ कामी नर पतंगा, धरी रंगा धसमसी ॥"
वीभत्स : "संकोच होवइ प्रौढ रमणी, संगथी लघु कंत ज्यु। तिम कंत तुम चउ वेष देखी, मई वीभत्स पणु भजु ।।"
अद्भुत : "माघ निदाघ परइ दह, ए अद्भुत रस देखु जी। शीतल पणि जडता घणु, प्रीतम परतिख पेखु जी ॥"
शांत : "फागुन शांत रसइ रमई, आणी नव नव भावोजी। अनुभव अतुल वसंत मां, परिमल सहज समावोजी । महज भाव सुगंध तैलई, पिचर की सम जल रसई। गुण राग रंग गुलाल उडइ, करुण ससवो ही वसइ ।। पर भाग रंग मृदंग गूजइ, सत्व ताल विशाल ए।
समकित तंत्री तंत भुणकइ, सुमति सुमनस माल ए॥"
इस प्रकार इन कवियों के ऐसे समी काव्य प्रायः निर्वेदान्त हैं । स्तोत्र, स्तवन, स्तुति, गीत, मज्झाय, पद, विवाहलो, मंगल, प्रवंध, चौपाई, वीसी, चौवीसी, छत्तीसी, वावनी, बहोत्तरी, शतक आदि समस्त कृतियों में भक्तिरस का अपार स्रोत उमड़ता