SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ आलोचना-खंड "शुद्ध बुद्ध चिदानंद, निरवंद्वाभिमुकुद, अफंद अमोघ कंद' अनादि अनन्त है । निरमल परिब्रह्म पूरन परम ज्योति परम अगम अकीरिय महासंत है । अविनाशी अज, परमात्मा सुजान । जिन निरंजन अमलान सिद्ध भगवंत हे। ऐसो जीव कर्म संग, संग लग्यो ज्ञान मुली, कस्तुर मृग ज्यु, भुवन में रहेत है ।"१ इस प्रकार आत्मा जव विवेक और जान द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेती है, तब वह जन्म, मरण तथा नेदहादि वंधनों से ऊपर उठ जाता है। आत्मा की इस मुक्त दशा की अभिव्यक्ति आनन्दघन ने इन शब्दों में की है "अव हम अमर भये न मरेंगे । या कारण मिथ्याति दियो तज, क्यूकर देह धरेंगे। मर्यो अनंत बार विन समज्यो, अब मुख-दुख विसरेंगे। आनंदघन निपट निकट अक्षर दो, नहीं समरे सो मरेंगे ॥४२॥"२ इस साक्षात्कार की स्थिति में "सुरति” की बांसुरी वजने लगती है और अनाहत नाद उठने लगता है "वजी सुरत की बांसुरी हो, उठे अनाहत नाद, तीन लोक मोहन भए हो, मिट गए द्वद विपाद ।"३ मोक्ष : यही समस्त कर्मों से छुटकारा है और मोक्ष की स्थिति है "कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेप होय विन!ण । मोक्ष तत्व श्री जिन कही, जाणवा भावु अल्पास ॥"४ ---- शुभचन्द्र माया : प्रायः सभी दर्शनों में माया पर विचार हुआ है। इन कवियों ने भी इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । मायाजाल में भ्रमित मानव की मूढ़ता पर इन १ श्रीमद् देवचंद्र भाग २, द्रव्य प्रकाश २. आननंघन पद संग्रह, पृ० १२४-२७ ३, लक्ष्मीवल्लभ, अध्यात्म फाग, प्रस्तुत प्रबंध का प्रकरण ३ ४. तत्वसार दोहा, मंदिर ढोलिवान, जयपुर की प्रति
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy