________________
__ जैन गूजर कविया की हिन्दी कविता
२४१
ज्ञान दृष्टि मां दोप न एते, करो ज्ञान अजुआलो ।
चिदानंद-धन सुजस वचन रस, सज्जन हृदय पखालो ॥"१-यशोविजय
देह के मिथ्यात्व में पड़कर उसे ही आत्म-तत्व समझना भूल है, इसका निर्देश कवि देवचन्द्र इन गब्दों में करते हैं
"जेसे रज्जु सरम भ्रम माने त्यु अजान मिथ्यातिठाने । देह बुद्धि को आत्म पिछाने, यातें भ्रमहेतु पसारे ॥"२
इन कवियों ने इस भ्रमदशा से ऊपर उठने के लिए ज्ञान - दृष्टि की अनिवार्यता बताई है। शुद्ध चिदानन्द रूप भाव ही को ज्ञान माना गया है। उसका निरंतर चिंतन करने से मोह - माया दूर हो जाते हैं और अनन्त सिद्धि लाभ होता है । यह सिद्धि ही आत्मा की अनंत मुखदशा की अपूर्व अनुभूति है"ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
__ चीततो मूको माया मोह गेह देहए । सिद्धतणां सुख जि मल हरहि,
आत्मा भाव शुभ एहए ॥६१॥"३-गुभचन्द्र वस्तुतः आत्मा तो अजर - अमर है। शरीर के वस्त्रों की देह नश्वर है, चेतन रूप आत्मा अमर है
"जैसे नाग न आपको, होत वस्त्र को नाश ।
तेसे तनु के नाश तें, चेतन अचल अनाश ॥"४ आत्मतत्व मुख-दुःख, हर्ष - द्वेष, दुर्वल-सवल तथा धनी - निर्धन से परे है। वह सांसारिक दोषों से मुक्त है"अप्पा धनि नवि नवि निर्धन्त,
नवि दुर्वल नवि अप्पा धन्न । मूर्व हर्प नवि तेजीव,
नवि सुखी नवि दुखी अतीव ।"५ -शुभचंद्र श्रीमद् देवचंद्र ने आत्मा के परमात्म स्वरूप का कथन इस प्रकार किया है१. गूर्जर माहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १०६ २. श्रीमद् देवचन्द्र भाग २, द्रव्य प्रकाश ३. तत्वमार दूहा, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति ४. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग, समाधि शतक, पृ० ४७४ ५. तत्वसार दूहा, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति