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मालोचना-खंड
आत्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा :
कवि आनंदघन ने आत्मा की प्रथम स्थिति "बहिरात्मा" के स्वरूप को समझाते हुए कहा है, "दुनिया के प्राणी वहिरात्म भाव में मूढ़ बन गये हैं, जो निरंतर माया के फंदे में फंसे हुए हैं। मन में परमात्म भाव का व्यान करने वाले प्राणी तो विरले ही मिल पाते हैं-"
"वहिरातम मूढा जग जेता, माया के फंद रहेता ।।
घट अंतर परमातम भावे, दुरलभ प्राणी तेता ॥"१ माया, मोह और भ्रम ही जीव के शत्रु हैं । इनसे ऊपर उठकर ही जीव अपने सच्चे आत्मरूप की अनुभूति कर पाता है
"रागादिक जब परिहरी, करे सहज गुण खोज ।। घट में प्रगट सदा, चिदानंद की मोज ॥"२
यशोविजयी जीव अपने कर्मों से आवद्ध है । कर्मों में आबद्ध जीव ही संसारी आत्मा है । जीव और कर्मों का संबंध अनादि काल से है। अनायास इन कर्मों से मुक्ति संभव नहीं। कवि समय सुन्दर ने कहा है कि जप-तप रूपी अग्नि में दुष्ट कर्मों का मल जब जल कर राख हो जाता है, तब यही आत्मा अपने सिद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाती है"जप तप अगनि करी नइ एहनउ,
दुष्ट करम मल दहियइ रे । समयसुन्दर कहइ एहिज अतमा,
सिद्ध रूप सरदहियइ रे ॥"३ सांसारिक तृष्णाएं उस आत्मरूप की उपासना में बाधक हैं। उसके लिए विवेक अथवा ज्ञान-अभ्यास आवश्यक है
"चेतन । जो तु ज्ञान अभ्यासी । आप ही बाँचे आपही छोड़े, निज मति गक्ति विकासी ॥
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पुद्गल की तू आस धरत है, सोतो सबहि विनासी ।
तूं तो भिन्न रूप हे उनते', चिदानन्द अविनासी ।। १. आनंदघन पद संग्रह, पद २७, पृ० ७४ २. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, समाधि शतक ३. समयमुन्दर कृत यु.सुमांजलि, पृ० ४४२