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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता २३६ कवि ज्ञानानंद ने सच्चे धर्माचरण के लिए ज्ञानरूप आन्तष्टि की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है "ज्ञान की दृष्टि निहालो, वालम, तुम संतर दृष्टि निहालो । बाह्य दृष्टि देखे सो मूढा, कार्य नहि निहालो । घरम धरम कर घर घर भटके, नाहि धरम दिखालो।"१ प्रायः सभी कवियों ने अपनी अपनी कृतियों का शुभारम्भ भी धार्मिक औदार्य एवं शांतिपरकता के प्रतीक "ॐकार की महिमा", "सरस्वती स्तुति", "गुरु वंदना" अथवा तीर्थकरों की वंदना के साथ किया है। सारांशतः इन कवियों ने अपने धार्मिक विचारों में अत्यधिक उदारता का परिचय दिया है। इनके साहित्य में प्राणि-मात्र के प्रति दया, समभाव, उदारता एवं आत्म कल्याण के साथ जनहित की भावना आदि धर्म के मूल तत्व निहित है। वीतरागिता भावगम्य है, वह मन में अपने सच्चे रूप में उद्बुद्ध होती है, उसके लिए सन्यासी, सायु, विरक्त या वनवासी बनने की आवश्यकता नहीं। भौतिक वासनाओं को निर्मूल करना पहली गर्त है । इनके निर्मूल होते ही त्याग एवं सन्यास स्वतः आ जाता है । इस दृष्टि से ग्रहस्थाश्रम में रहकर भी व्यक्ति सच्ची धार्मिक भावना हृदयंगमकर सकता है। दार्शनिक विचार : जैन-दर्शन में तत्व-चिंतन और जीवन शोधन की दो वाते मुख्य है। यहां आत्मा अपने स्वाभाविक रूप में शुद्ध और सच्चिदानंद रूप है। उसकी अशचि, विकार और दुःखरूपता का एक मात्र कारण अज्ञान और मोह है। जैन-दर्शन में आत्मा की तीन भूमिकाएं स्वीकार की गई है । अज्ञान और मोह-पूर्ण आत्मा की प्रारम्भिक स्थिति को "हिरात्मा" कहा गया है। विवेक शक्ति द्वारा जब रागद्वेपादि संस्कारों का प्रावल्य अल्प होने लगता है तब आत्मा की दूसरी भूमिका आरंभ होती है, जिसे "अन्तरात्मा" कहते है। इसमें सांसारिक प्रवृत्ति के साथ भी अतर की निवृत्ति संभव है । इससे आगे आत्मा की अंतिम भूमिका "परमात्मदशा" है, जहां पहुंच कर आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाती है। इस दृष्टि से अविवेक और मोह अर्थात् मिथ्यात्व एवं तृष्णा संसार रूप है और विवेक तथा वीतरागत्व मोक्ष का कारण है । जैन दर्शन की जीवन शोधन और तत्व मीमांसा की यही बातें जैन-गूर्जर-कवियों की हिन्दी कविता में यत्र-तत्र अनेक म्पों में वर्णित है। १. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० ३१
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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