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बालोचना-बड
आलोच्ययुगीन जैन-गूर्जर कवियों की छन्द संज्ञक रचनाएं इस प्रकार है- . कुंवर कुगल भट्टारक : मातानु छन्द कुमुदचन्द
: भरत बाहुबलि छंद कुशल लाम
: नवकार छन्द गुण सागर सूरि : शांतिनाथ छंद लक्ष्मी वल्लभ : महावीर गौतम स्वामी छन्द तथा देशांतरी छन्द वादीचन्द्र
: भरत वाहुबलि छन्द शुभचन्द्र भट्टारक : महावीर छंद, विजयकीर्ति छंद, गुरु छंद, तथा
नेमिनाथ छंद हेमसागर
: छंद मालिका _ऐसी ही कुछ लघु रचनाओं की संज्ञा 'नीसाणी' है। कवि धर्मवर्द्धन ने ऐसी रचनाएं प्रस्तुत की हैं ।१ उनकी 'गुरु शिक्षा कथनं निसाणी', 'वैराग्य निसाणी', 'उपदेश नीसाणी' तथा जिनहर्प विरचित' पार्श्वनाथ नीसाणी' आदि उल्लेखनीय हैं । कुण्डलियाँ छप्पय दोहा सर्वया पिंगल आदि :
काव्य विशेष के नामकरण में कई प्रवृत्तियां काम करती हैं। वर्ण्यविषय, छन्द, गैली, चरित्र, घटना, स्थान अथवा किसी आकर्षक वृत्ति से प्रेरित हो कविगण अपनी-अपनी कृतियों को विविध संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। जैन कवियों ने छंद विशेप का नामकरण कर अपनी कविताएं रची हैं। इनमें से कुछ रचनाओं में छंदगत नियमों का पालन नहीं हुआ है, अतः ऐसी रचनाएं स्वतन्त्र काव्य-रूप के अंतर्गत रखी जा सकती हैं परन्तु आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों ने प्रायः छन्दगत नियमों का निर्वाह कर ही ऐसी छन्द विशेप संज्ञक रचनाएं हैं।
मात्रिक छंद कुण्डलियों का परिचय अपभ्रंश के छंद ग्रंथों में भी मिलता है । हिन्दी में गिरधर की कुण्डलियाँ प्रसिद्ध हैं। केशवदास ने 'रामचन्द्रिका' में तथा जटमल ने 'गोरा वादल कथा' में इस छंद का प्रयोग किया है। आलोच्य युगीन जैन कवियों की कुण्डलियाँ संजक रचनाएं अधिक नहीं। धर्मवर्द्धन कृत 'कुण्डलियाँ वावनी'२ एक मात्र उल्लेखनीय रचना है ।
'छप्पय' संजक काव्य लिखे जाने की परम्परा भी प्राचीन है। प्राकृत और अपभ्रंश में छप्पय छंद का प्रयोग होता आया है। हिन्दी के भी अनेक कवियों ने
१. धर्मवद्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ०६७-७० । २. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १७ ।