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आलोचना-खंड
"वनतें वन छिपतउ फिरउ, गण्हर वनहं निकुंज ।
भूखउ भोजन मांगिवा, गोवलि आयउ मुंज ॥२४७॥"१ कहीं कहीं "कर्ता" तथा कर्मकारक की विभक्ति के रूप में भी "उ" का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार के प्रयोग समयसुन्दर की “साचोर तीर्थ महावीर जिन स्तवनम्", "श्री महावीर देव गीतम्", तथा "श्री श्रोणिक विज्ञप्ति गमितं श्री महावीर गीतम्" रचनाओं में सहज रूप में मिलते हैं ।२ यह प्रवृत्ति जिनहर्प आदि कवियों की रचनाओं में भी प्राप्त हो जाती है ।३ (ख) "रे" और "डी" का प्रयोग :
यह भी अपभ्रंश की एक विशेषता रही है। कुछ कवियों ने "रे" और "डी" का अच्छा प्रयोग किया है। भट्टारक शुभचंद्र ने "२" और "डी" दोनों का एक ही पद्य में वड़ा सुन्दर प्रयोग किया है
"रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाम । धर्म बुद्धि मन शुद्धडी, दुलहा अनुकमि जाण ॥"
-तत्वसार दूहा भट्ठारक रत्नकीति ने भी "३" का प्रयोग किया है जिससे प्रवाह में एक तीव्रता का आभास होता है
"आ जेप्ठ मासे जग जलहरनो उभा हरे । कोई बाप रे वाय विरही किम रहे रे ।। आरते आरत उपजे अंग रे ।
अनंग रे संतापे दुख केहे रे ।।" --नेमिनाथ बारहमासा कवि समयसुन्दर ने "उ" और "री" का एक साथ प्रयोग किया है"पदमनाथ तीर्थकर हउगे,
वीर कहइ तुम्ह काज सर्यउ री । समयसुन्दर प्रभु तुम्हारी भगति तइ,
इहु संसार समुद्र तर्यउरी ॥४॥"
-श्री श्रेणिक विज्ञप्ति गभित श्री महावीर गीतम् ।४ १. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४५ २. ममयसुन्दर कृत कुसुमांजली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० २०५-२१० ३. जिनहर्ष .नथावली, पृ० ३२ और ४७ ४. ममयसुन्दर कृत कुसुमांजली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० २१०