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प्रकरण ५
आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में कला-पक्ष
किसी भी युग की कविता पर विचार करते समय हमारा ध्यान वस्तु पक्ष के बाद सर्वप्रथम कला-पक्ष की ओर ही जाता है । काव्य-कला के विभिन्न उपकरणों को लेकर अब हम आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता के कला-पक्ष पर विचार करेंगे।
भापा :
जैन गूर्जर कवियों की अनुभूति में जिस प्रकार सहजता और लोक-जीवनाभिमुखता के दर्शन होते है, उसी तरह इनकी अभिव्यक्ति में भी लोक वाणी की ओर सहज आकर्षण है । कई जैन संत तो संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् रहे हैं, फिर भी इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति लोक भापा में करना अधिक उपयुक्त समझा। अपनी वाणी को बोधगम्य एवं लोकभोग्या बनाने के लिए इन्होंने व्याकरणादि के रूपों एवं भापाकीय सीमाओं की विशेष परवाह नहीं की है । भापा प्रचार एवं प्रसार की दृष्टि से इन कवियों के इन प्रारंभिक प्रयोगों का हिन्दी को राष्ट्रव्यापी रूप देने में बड़ा महत्व है। उनकी भाषा अनेक भाषाओं व प्रभावों की संगम स्थली है। अपभ्रंश का प्रभाव :
हिन्दी अपभ्रंश का ही विकसित रूप है, अतः १७वीं शती के कुछ कवियों की हिन्दी कविता में अपभ्रंश की विशेषताएं अपने अवशिष्ट रूप में अवश्य दीख पड़ती हैं। अपभ्रंश की विशेपताएं जो इन कवियों में रह गई है, उसका अध्ययन इस प्रकार कर सकते हे(क) 'उ' कार वहुला प्रवृत्ति :
अपभ्रंश की "उ" कार बहुला प्रवृत्ति यहाँ भी प्रतिष्ठित है। कृदन्त तद्भव क्रियाओं के अधिकांश रूप उकारान्त हैं। उदारणार्थ मालदेव के भोजप्रबन्ध से एक उद्धरण दृष्टव्य है