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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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(ग) दीर्घ स्वर को लघु बनाने की प्रवृत्ति :
सरस्वती को सरमई या सरसति१, श्री को सिरि२ तथा अमृत को अमिय, दर्शन को दरसन आदि प्रयोग इसी के उदाहरण हैं । (घ) वर्णो के संकोचन की प्रवृत्ति :
वर्गों के संकोचन का कौशल भी अपभ्रंश की एक खास विशेषता है । इस प्रवृत्ति के अनुसार "प्रमाणक रु" के स्थान पर "पणउ" 'स्थान' के स्थान पर 'ठाण', 'मयूर' के स्थार पर 'मोर' आदि प्रयोग देखने में आते हैं । भट्टारक शुभचन्द्र, समयमुन्दर तथा जिनहर्ष की कविता में ऐसे प्रयोग विशेष हुए हैं।
इस प्रकार १७वीं शती के इन प्रारम्भिक कवियों की भापा में उकारान्त और इकारांत शब्दों का बहु-प्रयोग दिखाई देता है। पर इनके शब्दों में लय का उन्मेष है अतः कर्णकटु नहीं लगते । इनमें विभक्तियाँ लुप्त-सी रही है । भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण गुजराती, राजस्थानी शब्दों के साथ सिंधी, उर्दू, फारसी आदि के शब्द भी स्वभावतः आ गये हैं। कवि समयसुन्दर की कविता में फारसी आदि विदेशी शब्दों में फौज, बलिभ, दिलगीर, आदि शब्दों का सहज प्रयोग हुआ हैं ।
विशेषतः भट्टारकों तथा अन्य संस्कृत के प्रकाण्ड पंडितों में समयसुन्दर, वर्मवर्द्धन, यशोविजय आदि की भाषा तत्सम बहुला रही है"कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेप होय विनाश ।"
--तत्सार दूहा - शुभचन्द्र "कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग । चंपक वर्णी चन्द्राननी, माननी सोहि सुरंग ॥१७॥"
वीर विलास फाग - वीरचन्द्र "मलू आज भेट्यु प्रमोः पादपद्मम्,
____फली आस मोरी नितान्तं विपद्मम् । गयूं दुःख नासी पुनः सौम्यदृष्ट या ।
क्यु सुख झाझु यथा मेघवृष्टया ॥१॥"
-श्री पार्श्वनाथाष्टकम्-समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि १७वी शती की अधिकांश रचनामों पर गुजराती और राजस्थानी का भी विशेष प्रभाव है । क्योंकि वि० सं० १६०० और उसके पूर्व हिन्दी, गुजराती और १. "सरसति सामनी आप सुराणी" गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम् कुशल लाम-अध्याय १ २. "शिरि संघराज लोकागच्छ शिरताज आज"-किशनदास, किशनबावनी ।
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