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________________ २५८ आलोचना-खंड राजस्थानी में विशेष अन्तर नहीं था। श्री राहुल जी के मतानुसार ये भाषाएं अपभ्रंश से विकसित हुई थी, उनके मूल रूपों में भेद नहीं था। उनकी दृष्टि से तो गुजरात तेरहवीं शती तक हिन्दी क्षेत्र का एक अभिन्न अंग रहा है ।१ फिर भी उनमें कुछ न कुछ रूप भेद तो अवश्य था जिनसे इनका पृथक् अस्तित्व प्रमाणित एवं सिद्ध है। वि० को १७वीं और १८वीं शती का समय हिन्दी के पूर्ण विकास का समय कहा जा सकता है । अपभ्रंश की “उ” कार बहुला प्रवृत्ति धीरे धीरे हटने लगती है और तत्सम प्रधान भापा का रूप विनिर्मित होने लगता है और विभक्तिां भी स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं। क्रियाओं का विकास भी स्पष्टतः दृष्टिगत होने लगता है। "रे" के प्रयोग की प्रवृत्ति इन कवियों में विरासत के रूप में अवश्य प्रचलित रही। "रे" का प्रयोग संगीतात्मकता और ध्वनि सौन्दर्य की दृष्टि से मधुर हो उठा है। श्री कुशल लाभ का एक पद्य द्रष्टव्य है "आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जोवइ जोवइ प्रीयड़ा वाट सकोमल कामिनी रे ॥ चातक मधुग्इ सादि कि प्रीउ प्रीउ उचरइ रे । वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे ॥"२ भापा की दृष्टि से इस युग की कविता को दो भागों में बांटा जा सकता हैप्रथम वह जो संस्कृत के अनुवाद रूप में है और दूसरी मौलिक कविता में प्रयुक्त । अनदित कविता में संस्कृत निष्ठा अधिक है, मौलिक में सरलता एवं सरसता । उदाहरणार्थ धर्मवर्द्धन ने नीतिशतकम् के ६६ वें श्लोक का अनुवाद इस प्रकार किया है रीस भयो कौइ रांक, वस्त्र विण चलीयौ वाट । तपियो अति तावड़ी, टालतां मुसकल टाट । वील रूंख तलि वेसि, टालणो मांड्यो तड़को । तरू हती फल जटि, पड्यो सिर माहे पड़को । आपदा साथि आग लगी, जायै निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कही नाठो छुटै कठे ॥१३॥" -छप्पय वावनी १. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, अवतरणिका, पृ० १२ २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ११६ --
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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