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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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इन्हीं का मौलिक पद देखिए-- "मन मृग तु तन वन में माती । केलि करे चरे इच्छाचारी जाणे नहीं दिन जातो ॥१॥ माया रूप महा मृग त्रिसनां, तिण में धावे तातो । आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो ॥२॥ कामणी कपट महा कुड़ि मंडी, खबर करे फाल खातो।
कहे धर्मसीह उलंगीसि वाको, तेरी सफल कला तो ॥३॥"१ इसी प्रकार कवि समयसुन्दर, शुभचन्द्र, यशोविजय आदि के फुटकर पदों की तथा अन्य रचनाओं की भाषा में अन्तर है ।
___ इस युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में विविध भाषा ज्ञान और उसमें काव्यरस के निर्वाह की विलक्षणता देखने को मिलती है । ये कवि कभी एक स्थान पर जम कर नहीं रहे और देश के विभिन्न भागों में विहार कर जन जागृति का जग्वनाद करते रहे है तथा उस प्रान्त विशेष की भाषा को भी सहजरूप से अपनाते रहे है । अत: इस युग की हिन्दी कविता में भाषा के जो विविध प्रयोग हुए है, उसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
"कवि जिनहर्प की सुललित एवं साहित्यिक राजस्थानी भाषा का एक उदाहरण देखिए
"सभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी । तिण अवसर आवीयउ, एक मागध परदेशी ॥ ऊमो दे आसीस, राइ पूछइ किहां जासी । अठा लगै आवीयी, कोइ तै सुण्यो तमासी ॥ कर जोडि एम जंपइ वयण, हुकम रावलौ जो लहुँ ।
जिनहर्प सुणण जोगी कथा, कोतिग वाली हूं कहूं ॥१॥२ इसी युग के कवि किशनदास की कविता में ब्रजभापा का माधुर्य देखिए__ "अंजलि के जल ज्यों घटत पल पल आयु,
विष से विषम व्यवसाय विष रस के 1. पंथ को मुकाम का बाप को न गाम यह,
जैवो निज धाम तातें कीजे काम यश के । १. अगरचन्द नाहटा, धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, पृ० ६० २. जिनहर्ष ग्रंथावली, अगरचन्द नाहटा, चौबोली कथा, पृ० ४३६