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आलोचना-खंड
कर्म निर्जरा का उद्यम वीर रस है, सव जीवों को अपना समझना करुण रस है। हृदय में उत्साह और सुख का अनुभव करना हास्य रस, अष्ट कर्मों को नष्ट करना गैद्र रम, गरीर की अशुचिता का विचार करना वीभत्स रस, जन्म, मरणादि का दुःख-चिन्तन करना भयानक रस है, आत्मा की अनन्त शक्ति को प्राप्त करना अद्भुत रस और दृढ़ वैराग्य धारण करना तथा आत्मानुभाव में लीन होना ही शान्त रस है ।१ इस प्रकार से देखने पर भी जैनों की आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोपरि रस शान्त ही है । नेमिचन्द्र ने अपने ढंग से इस शान्त रस का विधान इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-"अनित्य जगत् आलम्बन है, जैन मन्दिर, जैन तीर्थधाम, मूर्ति, साधु आदि उद्दीपन हैं, तत्वज्ञान, तप, ध्यान, चिन्तन, समाधि आदि अनुभाव हैं, घृति, मति आदि. व्यभिचारी भाव हैं तथा सुख-दुःखादि से ऊपर उठकर प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव धारण करना शान्त रस की स्थिति है।" .
__ जैन कवि, जो मूलतः आध्यात्मिक चिन्तक एवं आध्यात्मिक गुरु रहे हैं, शान्त रस को ही प्रमुख अथवा अपने काव्य का अंगी रस माने तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । शेष रम इनके काव्य में अन्वय-व्यतिरेक से अंगभूत होकर आए हैं। इनके काव्य में रसों की चर्चा इसी परिवेश में होनी चाहिए अन्यथा आलोच्य कवियों के साथ अन्याय हो जाना सहज संभव है।
___ आलोच्य काल हिन्दी की दृष्टि से रीतिकाल है और जैसा कि हम सब जानते हैं यह काल इतिहास व साहित्य में वर्णित मानव-वृत्तियों के आधार पर विलासिता का युग कहा गया है। ऐसे चतुर्मुनी विलासिता के युग में ये कवि बहिर्मुखी वृत्तियों का संकुचन कर अन्मून का आलोक विकीर्ग करते हुए प्राणी मात्र को शांतरस में निमज्जित करते रहे। इसीलिए शृङ्गार आदि रस इनके साध्य नहीं हैं, मात्र साधन हैं; अन्तत: गांत रस को ही पुष्ट करने का कार्य करते दिखाई देते हैं। इन सावनरूप
गों को भी देखते चलना प्रसंगप्राप्त ही होगा। इन कवियों ने नखशिख वर्णन एवं रूपवर्णन के प्रसंग भी प्रस्तुत किये हैं पर संयत और उदात्त भाव से । खेमचन्द रचित "गुणमाला चौपाई" में कवि नायिका गुणमाला का रूप-वर्णन किस उदात्त भाव मे करता है--
पेटइ पोइणि पत्रइ तिसौ, ऊपरि त्रिवली थाय । गंगा यमना सरसती, तीनों बैठी आय ॥३०॥ नामि रत्न को कुंपली, जंचा त केली स्थंभ । मानव गति दीसे नहीं, दीसे कोई रंभ ॥३॥"
१. हिन्दी जैन साहित्य परिगीलन, भाग १, पृ० २३३ ।