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__जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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नमिचन्द्र के उक्त कथन में निम्नलिखित दो वातों पर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है-अन्तर्मुखी प्रवृत्तियां आत्मोन्मुख पुरुपार्थ रस है, तथा विभावानुभाव संचारी विकार हैं और जिनसे मुक्त होकर आत्मानुभूति होती है, रस छलकता है । "आत्मानुभूति" शब्द की दो सीधी-सादी व्याख्याएं हो सकती है-आत्मा के द्वारा की गई अनुभूति तथा आत्मा की अनुभूति । प्रथम में आत्मा अनुभूति का तत्व है जब कि दूसरे में वह स्वयं अनुभूति का विषय है। इस प्रकार दार्शनिक स्तर पर दोनों का संयुक्त रूप अर्थात् आत्मा के द्वारा अपने ही स्वरूप को अनुभूत करना ब्रह्मानन्द का कारण बन जाता है। अत: आध्यात्मिक स्तर पर शान्त रस के अतिरिक्त किसी अन्य रस की अवस्थिति स्वीकार्य नहीं हो सकेगी। अतः आध्यात्मिक साहित्य में शान्तेतर रसों की स्थिति शान्त रस को पुष्ट करने के लिए दिखाई देगी। यह बहुत अंशों तक ठीक भी है । सांसरिक तीन राग वैराग्य में परिणत हो जाता है। इस वैराग्य के भी वे ही कारण हैं जो शान्त रस के लिए विभाव का कार्य करते है-रागादि के परिपूर्ण भोग से उत्पन्न "निस्पृहता की अवस्था में आत्मा के विश्राम से उत्पन्न सुख" अथात् गम,१ तथा भोग की अपूर्णता तथा तद्भुत व्याघातक स्थितियों के कारण "चित्त की अभावात्मक वृत्ति" अर्थात् निर्वेद ।२ साहित्य में चर्चित रस इन्ही "शम" तथा 'निर्वेद' स्थाई भावों का अभिव्यक्त रूप है जबकि आध्यात्मिक क्षेत्र में स्थायी भावों की भी अनवस्था स्वीकार करनी पड़ेगी। इमी तथ्य को जिन सेनाचार्य ने अपनी पुस्तक "अलंकार चिन्तामणि" में इस रूप में व्यक्त किया है-"विरागत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं शम"।
आध्यात्मवाद में 'आत्मा' शुद्ध चेतन तत्व माना गया है। मल, कंचुक अथवा कषाय आदि से बद्ध यह आत्म तत्व इनसे मुक्त होकर ही अपने शुद्ध रूप को पहचानने में समर्थ हो पाता है। संभवतः इस दिशा में किया गया उद्योग ही आत्मोन्मुख पुरुपाार्थ है जो रस प्राप्त करने में सहायक होता है। आत्मा के द्वारा शुद्ध चैतन्य तत्व की प्राप्ति या अनुभूति ही रस है, इस प्रकार के आनन्द में सव प्रकार के विकार निःशेप हो नाते है । यही कारण है कि शान्त रस को सभी रसों का मूल मान लिया गया है ।३ कवि बनारसीदास तो सभी रसों को शान्त रस में ही समाविष्ट करते प्रतीत होते है । उनकी दृष्टि में तो आत्मा को ज्ञान-गुण से विभूपित करने का विचार शृङ्गार है,
१. विश्वनाथ, साहित्य दर्पण । २. हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, पृ० ४५५ । ३. कन्याग, भक्ति विशेपाक, "भाव-भक्ति की भूमिकाएँ" नामक निबंध, अंक १, - पृ० ३६६ ।