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________________ आलोचना-खण्ड ३ प्रकरण : ४ आलोच्य युग के जैन गुर्जर हिन्दी कवियों की कविता का बस्तु-पक्ष भाव पक्ष : प्रत्येक प्रकार की कविता का कथ्य हमारे समक्ष दो रूपों में आता है--भाव और विचार। भाव पर अनेकानेक साहित्य शास्त्रकारों ने व मनोवैनानिकों ने पृथकापृथक् परिवेशों में विचार किया है। भरत से लेकर अब तक के साहित्याचार्यों के अनुसार भाव दो प्रकार के होते हैं-स्थायी तथा संचारी। ये वासनारूप स्थायी भाव परिपक्व होकर रसदगा को प्राप्त होते है। अत: भाव के माथ, कविता पर विचार करते समय, रस की चर्चा अनिवार्यतः अपेक्षित है। स्थायी भावों के अनुकूल ही रसों की संख्यादि का निर्णय किया गया है। यद्यपि रसों को लेकर या उनको संख्या को लेकर पर्याप्त चर्चा-विचारणा हो गई है किन्तु अभी तक इनकी पूर्णतः स्वीकृत संख्या नी ही मानी गई है। यों कतिपय आचार्यों ने वात्सल्य, भक्ति आदि को रसरूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया है किन्तु इन्हें रसों में समाविष्ट करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह दूसरी बात है कि इन नी रसों में कुछ आचार्य शृङ्गार रस को प्रधानता देते हैं और कुछ करुण को। जैनाचार्यों ने यद्यपि अपने काव्य में सभी रसों को यथावसर प्रयुक्त किया है तथापि उनकी मूल चेतना शान्त रस को ग्रहण कर चलती हुई प्रतीत होती है ।१ नेमिचन्द्र जैन गान्त रस की चर्चा इस रूप में प्रस्तुत करते है ___ "जैन साहित्य में अन्तर्मुवी प्रवृत्तियों को अथवा आत्मोन्मुख पुरुषार्थ को रस वताया है। जब तक आत्मानुभूति का रस नहीं छलकता रसमयता नहीं आ सकती। विभाव, अनुभाव और संचारी भाव जीव के. मानसिक वाचिक और कायिक विकार है, स्वभाव नहीं है। रसों का वास्तविक उद्भव इन विकारों के दूर होने पर ही हो सकता है । जव तक कषाय-विकारों के कारण योग की प्रवृत्ति शुभाशुभ रूप में अनुरंजित रहती है, आत्मानुभूति नहीं हो सकती।"२ १. "सप्तम भय अट्ठम रस अद्भुत्, नवमो शान्त रसानि को नायक ।" बनारसीदास, नाटक समयसार, ३६१ ।। २. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ० २२४ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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