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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
महाराव लखपतिसिंह स्वय भी कवि थे। इनके रचित ग्रन्थों में लखपति शृंगार, लखपति मान मंजरी, सुरत रंगिणी, मृदंग महोरा, राग सागर आदि प्राप्त हैं।'
श्री नाहटा जी के उल्लेख के अनुसार-"करीब डेढ़ सौ वर्षों तक ब्रजभाषा के प्रचार व शिक्षण का जो कार्य इस विद्यालय द्वारा हुआ वह हिन्दी साहित्य के इतिहास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है" । २ यह विद्यालय छन्द और काव्यों के अध्ययन-अध्यापन का एक अच्छा केन्द्र था । यति कनककुशल की परम्परा में यह करीब २०० वर्ष चलता रहा। अहिन्दी भाषी विद्वानों द्वारा ब्रजभाषा में काव्य रचना की परम्परा महत्वपूर्ण है ही परन्तु ब्रजभापा पाठशाला की प्रस्थापना और निःशुल्क शिक्षा देने की यह वात विशेष महत्व की है । इस दृष्टि से गुर्जर विद्वानों का यह ब्रजभापा प्रचार का कार्य निःसंदेह अनूठा है।
जिन की मातृभाषा हिन्दी नहीं, उन लोगो ने भी कितनी शताब्दियों तक हिन्दी में रचना करने की परम्परा सजीव रखी है। इससे स्पष्ट है, प्रारम्भ से ही हिन्दी एक व्यापक भाषा के रूप में विकसित होती रही है । यह अन्तन्तिीय व्यवहार की और संस्कृति की बाहक भापा रही है। इस बात को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है । हिन्दी भापी प्रदेश का निकटवर्ती प्रदेश होने के कारण भी गुजरात में हिन्दी भाषा का प्रचार अधिक रहा है । १. कुंअर चंद्रप्रकाश सिंह, भुज (कच्छ) की ब्रजमापा पाठशाला, पृ० ११ . २. माचार्य विजय वल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, अगरचंद नाहटा का लेख, पृ. ६७ ३. चन्दरासानी पराक्रम गाथाने कारणे त्यहारे राजदरवारोमांनी राजभाषा हिन्दी
हती । सूरदासजीनी सुरावट मधुरी पदावलीने कारणे कृष्ण मंदिरोमांनी कीर्तनभापा हिन्दी हती, तुलसीकृत रामकथाना महाग्रथने कारणे तीर्थ, तीर्थवासी जोगीओंनी भोगभापा हिन्दी हती, भारतना प्रांते प्रांते घूमती देशी-परदेशी सेनाओना सेनानीओना सैन्य भाषा हिन्दी हती, विचार सागर समा समर्थ ग्रंथों त्यहारे हिन्दीमा लखाता, काव्य शास्त्रो त्यहारे हिन्दीमां रचाता । आपणो मध्ययुगनो ज्ञानभंडारं हिन्दी भापामा हतो । जो महत्वाकांक्षीने भारत विख्यात महाग्रंथ गंथवां होय त्यहारे हिन्दीमां गूंथता ।
महाकवि न्हानालाल "कवीरवर दलपतराय" भाग ३, पृ० १०८ आ-छापखाना, प्रान्तीय अभियान, मुसलमानोंनो फारसी अक्षरोनो आग्रह अने नवा
प्रान्तिक उद्बोधन न होत तो हिन्दी भापा अनायासे देश भाषा बनी जात । अधिक छापखाना, छपाववा लखवाने चाल्यु ने झगडाओ थया तेथी आ गति अटकी।" जैन--गूर्जर कविओं भाग १, मो० द० देसाई, पृ० १५