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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
थे और सागवाडा की भट्टारक गद्दी पर आमोन हुए थे ।' इनकी हिन्दी कृतियां आदिश्वर फाग, जलगालण राम, पोइस रास, पट्कर्म रास तथा नागदारास हैं । आदिश्वर फाग इनकी एक चरित्न प्रधान रचना है। आदिनाथ के हृदय में संसार के प्रति विराग कैसे जगता है, इस स्थिति के वर्णन का एक प्रसग दृष्टव्य है
आहे धिग धिग इह संसार, बेकार अपार असार । नही सम मार समान कुमार रमा परिवार ॥१६४॥ आहे घर पुर नगर नहीं निज रम सम राज अकाज ।
हय गय पयदल चल मल सरिखंड नारि समाज ॥१६५।। भट्टारक विजयकीर्ति इन्हीं के शिष्य और उत्तराधिकारी थे, जो अपनी सांस्कृतिक सेवाओं द्वारा गुजरात और राजस्थान की जनता की गहरी आस्था प्राप्त कर सके थे।
सत्रहवीं और अठारहवीं शती के भट्टारक कवियों का परिचय आगे दिया जायगा किन्तु यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गुजरात के इन भट्टारकों और उनके शिष्यों की हिन्दी कविता को महत्वपूर्ण देन है। ये भट्टारक समुदाय, शिक्षा और साहित्य के जीवन्त केन्द्र थे। कच्छयुग की ब्रजभाषा पाठशाला और उसके कवि :
कच्छ (गुजरात) के महाराव लखपतिसिंह जी ने अपनी राजवानी युग में अठाहरवीं शताब्दी में ब्रजभाषा के प्रचार एवं साहित्य सृजन हेतु एक पाठशाला की स्थापना की थी। दूले राय काराणीजी ने अपने ग्रन्थ "कच्छना संतों अने कविओं" में लिखा है- "कवि श्री लखपतसिंहजी ने इस संस्था की स्थापना करके समस्त देश पर एक महान उपकार किया है। जहाँ कवि होने का प्रमाणपत्र प्राप्त किया जा सके, ऐसी एक भी संस्था भारतवर्ष में कहीं नहीं थी । इस संस्था की स्थापना करके महाराव ने समस्त देश की एक बड़ी कमी दूर कर दी....... इस संस्था से निकलने वाले कवियों ने सौराष्ट्र और राजस्थान के अनेक प्रदेशों में अपना नाम प्रख्यात कर इन सस्था को यशस्वी बनाया है ।"
इस विद्यालय में भारत भर के विद्यार्थी आते थे और उन्हें राज्य की ओर से खाने-पीने तथा आवास की पूर्ण व्यवस्था थी । यहाँ के प्रथम अध्यापक के रूप में जैन यति कनककुशल और उनके शिप्य कुंवर कुशल कार्यरत थे उनकी हिन्दी सेवाओं का परिचय अगले पृष्ठों में विस्तार से दिया जायगा । १. राजम्यान के जन संत, डॉ. कस्तूरचंद कामलीवाल, पृ० ५०