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________________ जैन-गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता २६३ आनन्दवर्द्धनमूरि : पवनाभ्यास चौपाई कल्याणदेव : देवराज-वच्छराज चौपाई कुशल लाभ : ढोला मारू चौपाई खेमचन्द : गुणमाला चीपाई जिनहर्प : मृपिदता चौपाई भद्रसेन : चन्दन मलयागिरि चौपाई मालदेव : पुरंदर कुमार चौपाई, देवदत चौपाई, तथा वीरांगदा-चौपाई लक्ष्मीवल्लभ : नवतत्व चौपाई विनयचन्द्र : उत्तमकुमार चरित्र चौपाई विनय समुद्र मृगावती चौपाई समयसुन्दर शांव प्रद्य म्न चौपाई, नल-दमयंती चौपाई, थाबच्चा चौपाई, चंपक श्रेप्ठि चौपाई, गौतम पृच्छा चौपाई, व्यवहार बुद्धि, वनदत्त चौपाई, द्रोपदी चौपाई तथा सीताराम चौपाई साधुकीति : नेमिराजपि चौपाई । जैन-गुर्जर कवियों ने अनेक काव्य-रूपों का नामकरण किमी छन्द विशेष को लेकर किया है । यथा-छप्पय, सवैया, गजल, छन्द, दोहा आदि । किन्त विचार करने पर इनमें से अधिकांग इस प्रकार की रचनाएं छन्द की अपेक्षा स्वतंत्र काय. प' से ही अधिक प्रसिद्ध है। कहीं कहीं तो चौपाई, छप्पय इत्यादि के छन्दगत नियमों का पालन भी दृष्टिगत नहीं होता। अतः यहाँ 'चौपाई' सामान्यः चतुष्पदी और 'छप्पय' पट्-पदी अर्थ में ही प्रयुक्त हुए है। वेलि : वेलि-काव्य की परम्परा काफी पुरानी है । वेल, वेलि या वल्लरि संनाएं इसी अर्थ में प्रयुक्त हुई हैं । यह शब्द 'लता'१ 'द्रुम'२ आदि की भांति किमी नी रचना के साथ जोड़ा जा सकता है । इसका मूल उपनिपदों के अध्याय, जिन्हें वल्लभी कहा है, में खोजा जा सकता है । 'वल्लमी' अध्याय वाचक न रहकर कालातर में एक स्वतन्त्र विद्या का प्रतीक बन गया हो, यह अधिक संभव है। - १. व्याकरण कल्प लता, विष्णु भक्ति कल्पलता, वनलता आदि । २. राग कल्पद्र म, कविकल्पद्म, अध्यात्म कल्पद्रुम आदि ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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