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आलोचना-खंड
डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने छन्दों के आधार पर रखे गये कृतियों के नामों में 'वेल' को गिनाया है ।१ डा० मंजुलाल मजूमदार के मतानुसार 'वेलि' गब्द विवाह के अर्थ में प्रचलित है । 'वेलि' का दूसरा नाम 'विवाहवाची मंगल' भी है ।२ प्रो० हीरालाल कापड़िया के अनुसार 'वलि' का मुख्य विषय गुणगान है ।३ श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार 'वेलि' संज्ञा लता के अर्थ में लोकप्रिय हुई और अनेक कवियों ने उस नाम के आकर्षण से अपनी रचनाओं को 'वेलि' इस अन्त्यपद से संबोधित किया।"४
आलोच्य युगीन जैन-गूर्जर कवियों की नी 'वेलि' नामक रचनाएं प्राप्त हैं । यथा
कनक सोम : जइतपद वेलि जयवंतसूरि : स्थूलीभद्र मोहन वेलि तथा नेमिराजुल
बारहमासा वेल प्रबन्ध जिनराजसूरि पार्श्वनाथ गुण वेलि वीरचन्द्र : जंबुस्वामी वेलि, तथा वाहुबलि वेलि यशोविजय
अमृतवेलिनी मोटी सज्झाय तथा अमृतवेलिनी
नानी सज्झाय समयसुन्दर : सोमजी निर्वाण वेलि
प्रो० मंजुलाल मजूमदार ने वेलि को "विवाह वर्णन' प्रधान काव्य माना है, पर इन कृतियों में यह लक्षण सर्वत्र नजर नहीं आता और न ये कृतियां किसी छन्द विशेष में ही रची गई है। इन 'वेलि' संजक कृतियों के मुख्य वर्ण्य विषय महापुरुषों का गुणगान. उपदेश तथा अध्यात्म रहे हैं । यह विविध छन्दों में रचित हैं। इनमें ढालों की प्रधानता है । गीत-शैली होते हुए भी प्रबंध-धारा की इनमें पूर्ण रक्षा हुई है । यह इसकी एक सामान्य विशेपता है ।
ढाल - चौढालिया : गाने की तर्ज या देशी को 'ढाल' कहते हैं । आलोच्य युगीन कवियों के रास, चौपाई, प्रबन्ध आदि रचनाओं में लोकगीतों को देशियां ढाल बद्ध हैं। बड़े रासादि ग्रंथों में अनेक ढालें प्रयुक्त हुई हैं। ऐसी छोटी रचनाएं जिनमें चार ढालों का निर्वाह हुआ हो उसे चौढालिया और छ: ढालों वाली रचना
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१. राजस्थानी भाषा और साहित्य (द्वितीय संस्करण) पृ० ६६ । २. गुजराती साहित्यनां स्वरूपो, पृ० ३७५ । १. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ६५; अंक २, पृ० ४५-५० ४. कल्पना, वर्ष ७, अंक ४, अप्रेल, १६५६ ।