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गई दोनता सब ही हमारी, प्रभु ! तुज समकित - दान में । प्रभु-गुन- अनुभव रस के आगे, आवत नांहि कोउ मान में || जिनहि पाया तिनही छिपाया, न कहे कोउ के कान में । ताली लागी जब अनुभव की, तब जाने कोउ साँन में | प्रभु गुन अनुभव चन्द्रहास ज्यौं, सो तो न रहे म्यान में । वाचक जश कहे मोह महा अरि, जीत लीयो हे मेदान में ||
- यशोविजय