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________________ प्रस्तावना डॉ० शुक्ल का प्रस्तुत शोध-प्रवन्ध गुजरात के जैन भक्त कवियों, संतों के कृतित्व तथा व्यक्तित्व बोध को उद्घाटित करता है । लेखक ने सर्वधर्म समभाव की भावना से अपने चित्त को रंजित कर पूरे तटस्थ भाव से नवीन एवं खोज पूर्ण मूल्याँकन प्रस्तुत किया है, ऐसा मेरा स्पष्ट अभिप्राय है । अभी मेरा मन एक गहरे ईश्वरी वज्राघात से विशेष क्षुब्ध परिस्थिति का भोग बन रहा है फिर भी संत कवि और उनकी भक्तिमयी शांति दायिनी वाणी की एक लक्ष्यता तथापि विविधता सांसारिक वज्राघातों एवं क्षुब्धताओं से पार ले जाने की एक बलवती शक्ति का परिचय अवश्य कराती है । प्रस्तुत प्रबन्ध पाठकों एवं विचारकों के चित्त में भी पवित्र सहिष्णुता का भाव अवश्य ही उदित करेगा तथा परस्पर सर्वधर्म समभाव की भावना फैलाने में बड़ा सहायक होगा । उस दृष्टि से डॉ० शुक्ल के इस प्रबन्ध का बड़ा भारी मूल्य है । एक अंधकारमय साम्प्रदायिक जमाना ऐसा भी था 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेद जैन मन्दिरम्' पर अब पूज्य अवतारी पुरुष महात्मा गांधीजी की पवित्रतम वाणी से वह अन्धकार विलीन सा हो गया है और परस्पर समभाव का उदीयमान हो रहा है। इससे भारत की समस्त प्रजा इस दृष्टि से एक सूत्र में अनुस्यूत होने लगी है और यही एक सूत्रता हमारे देश का जीवन है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध इसी एक सूत्रता का वड़ा समर्थक एवं पोपक है। पूर्वोक्त अन्धकार युग में भी महर्षि संत भक्त कवि श्री आनन्दघन जी मुनि ने गाया है "राम कहो रहमान कहो कोऊ कान्ह कहो महादेव री। पारस नाथ कहो कोऊ ब्रह्मा सकल ब्रह्य स्वयमेव री॥ भाजन भेद कहावत नाना एक मृत्तिका रूपरी । तैसे खंड कल्पना रोपित आप अखंड सरूपरी ॥ ___ आश्रम भजनावली, पृ० १२५ प्रस्तुत प्रबन्ध इस अखंडता का जरूर प्रचारक बनेगा और भारत के समग्र धर्मावलंबी परस्पर भातृ-भाव का अनुभव करेंगे। इसी में हमारा कल्याण है, श्रेय है और शिव है । इमी अखंडता एक सूत्रता की विचारधारा के प्रखर समर्थक डॉ. हरीश शुक्ल विशेष अभिनन्दन के पात्र है तथा उनके इस ग्रंथ का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। 'सवको सन्मति दे भगवान्" । -~-पंडित वेचरदास दोशी अहमदावाद १२-व, भारती निवास सोसायटी २५-१२-७५ अहमदावाद-६
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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