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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
निहालचन्द : (स० १५०० आसपास)
अन्त:साक्ष्य के आधार पर ये पार्श्वचन्द्रगच्छ के वाचक हर्षचन्द्र के शिष्य थे । इनका समय संवत् १८०० के आसपास रहा है । इनका अधिकांश समय बंगाल में व्यतीत हुआ था 1१ इनकी मातृभाषा गुजराती थी । अव तक की खोजों के आधार पर इनके तीन ग्रंथ गुजराती में तथा दो ग्रंथ हिन्दी में प्राप्त हैं |२
प्रसिद्ध एवं उत्तम रचना है ।
"ब्रह्म बावनी " कवि की हिन्दी रचनाओं में इसकी एक प्रति 'अभय जैन ग्रन्थालय', वीकानेर में सुरक्षित है । इसमें कुल ५२ पद्य है । इसमें निराकार और अदृश्य सिद्ध भगवान की उपासना जैन परम्परानुसार की गई है | निर्गुणोपासक सन्तों की-सी मधुरता, भावाभिसिक्तता एवं आकर्षण इस कृति में सहज ही देखा जा सकता है । रचना कवि के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है । ओंकार मन्त्र की कहता है
अध्यात्म और वैराग्यपरक
महिमा वताता हुआ कवि
“सिद्धन को सिद्धि, ऋद्धि सन्तन को महिमा महन्तन को देत दिन माहीं है,
जोगी को जुगति हूं मुकति देव मुनिनकू, भोगी कू भुगति गति मतिउन पांही है ।"
कवि अपनी लघुता द्वारा सादृश्य विधान कीं निपुणता बताता हुआ कहता है—
" हम पै दयाल होकै सज्जन विशाल चित्त,
मेरी एक वीनती प्रमान करि लीजियौ । वाल ख्याल इहु,
अपनी सुबुद्धि ते सुधार तुम दीजियो ॥
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मेरी मति हीन तातें कीन्हौ
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अलि के स्वभाव तें सुगन्ध
लीजियो अरथ की,
हंस के स्वभाव होके गुन को ग्रहीजियो ॥"
१. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४, ब्रह्म बावनी, पद ५१, पृ० ८८ ।
२. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १८६८ तथा भाग ३, खण्ड १, पृ० ८-६ ।